कुल पेज दृश्य

सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

अष्‍टावक्र महागीता--(प्रवचन--70)

दिल का देवालय साफ करो--प्रवचन-दसवां 

दिनांक 20 जनवरी, 1977; श्री ओशो आश्रम कोरगांव पार्क पूना,

प्रश्नसार:

पहला प्रश्न: आप अकर्ता होने को कहते हैं। लेकिन कोई भी निर्णय या चुनाव करते समय कर्ता फिर-फिर खड़ा हो जाता है। अकर्ता कैसे होवें? कैसे बनें उसकी बांसुरी? कैसे हटायें "मैं-भाव' को? कैसे पहचानें कि यह निर्णय उसका ही है?
पहली बात, तुम अकर्ता न बन सकोगे। तुम्हारे कुछ किये अकर्ता न सधेगा। तुम जो भी करोगे, कर्ता ही निर्मित होगा उससे। करोगे तो कर्ता निर्मित होगा। तुम मिटने की भी कोशिश करोगे, तो भी कर्ता ही निर्मित होगा। विनम्रता भी अहंकार का ही आभूषण बन जाती है। मैं नहीं हूं, ऐसी घोषणा भी मैं से ही उठ आयेगी। ऐसे तो तुम धोखे में पड़ोगे। ऐसे तो बड़ा जाल उलझ जायेगा। सुलझा न सकोगे।

अकर्ता कोई बन नहीं सकता। अकर्ता बनने की बात नहीं है। क्योंकि जो भी बनेगा, वह तो कर्ता ही रहेगा। कृत्य मात्र कर्ता को ही निर्माण करता है। अब तुम जो भी प्रश्न पूछ रहे हो, वह मौलिक रूप से गलत है। प्रश्न की दिशा ही गलत है। मैं क्या करूं? मैं कैसे अकर्ता होऊं? कैसे बनूं उसकी बांसुरी? कैसे हटाऊं "मैं-भाव' को? कैसे पहचानूं कि यह निर्णय उसका है? इस सब के पीछे तुम मौजूद हो। यह कौन है जो उसकी बांसुरी बनना चाहता है? यह कौन है जो कहता है, कैसे "मैं-भाव' को छोडूं? यही तो कर्ता है।
फिर क्या करें? करने को तो कुछ बचता नहीं। फिर क्या करें? बस कर्ता कैसे निर्मित होता है इस बात को समझ लेने से, धीरे-धीरे कर्ता अपने-आप तिरोहित हो जाता है। कुछ करना नहीं पड़ता। तुम पूछते हो, कैसे बनें उसकी बांसुरी? बांसुरी तुम हो। यह बनने का प्रश्न ही नहीं। यह तुमने मान रखा है कि तुम बांसुरी नहीं हो। बांसुरी तो तुम अभी भी हो। इस क्षण भी वही सुन रहा है तुम्हारे भीतर, वही बोल रहा है। एक क्षण को भी इससे अन्यथा होने का उपाय नहीं है। जब तुमने पाप भी किया है तो उसी ने किया है। और जब तुमने पुण्य भी किया है तो उसी ने किया है। जब तुम चोर थे तब भी वही था। और जब तुम साधु बने तब भी वही था। एक क्षण को भी अन्यथा होने का उपाय नहीं है। तुम उससे भिन्न हो कैसे सकोगे?
तुम पूछते हो, हम उसकी बांसुरी कैसे बनें? इसमें भ्रांति भीतर पड़ी ही है। भ्रांति यह पड़ी है कि हम उससे अलग हैं, अब हमें उसकी बांसुरी बनना है। बांसुरी तुम हो, इतना ही जानना है। तुम पूछते हो कैसे पहचानें कि यह निर्णय उसका है? सब निर्णय उसके हैं। पहचान की बात ही नासमझी की है। ऐसा कोई निर्णय ही नहीं है जो उसका न हो। ऐसा हो ही कैसे सकता है कि उसका निर्णय न हो और हो जाये! जो भी हुआ है, जो भी हो रहा है, जो भी होगा, उसी से है। तुम नाहक बीच में आ जाते हो। लहरों को देखो सागर में। अलग-अलग मालूम पड़ती हैं। अगर लहरों को भी थोड़ी बुद्धि आ जाये तुम्हारे जैसी, तो प्रत्येक लहर पूछने लगेगी कि मैं सागर के साथ एक कैसे हो जाऊं? लहर सागर के साथ एक है। लहर सागर से अलग कैसे हो सकती है, पहले यह तो पूछो! लहर सागर से अलग होकर जी कैसे सकेगी? कभी तुमने लहर को सागर से अलग करके देखा? बचेगी कैसे?
लहर को भी बुद्धि आ जाये और लहर भी सत्संग करने लगे और साधु-संतों के पास बैठने लगे, तो पूछेगी कि बात तो समझ में आ गई, अब इतना और बता दें कि सागर से एक कैसे हो जाऊं? तो क्या कहेंगे लहर को हम कि पागल, तू एक है ही! तेरी यह भ्रांति है कि तू अलग है। अलग तू कभी हुई नहीं। और जब कभी तू गंदी थी तो सागर ही गंदा था। और जब कभी तुझमें मिट्टी उठी थी, सागर से ही उठी थी। और जब कभी तुझमें सूखे पत्ते तैरे थे, तो सागर में ही तैरे थे। जब कभी तू बड़ी होकर उठी थी कि बड़े जहाजों को डुबो दे, तब भी सागर ही उठा था। और जब तू छोटी-सी होकर उठी थी, तब भी सागर ही उठा था। छोटी हो कि बड़ी, गंदी हो कि उजली, सुंदर हो कि कुरूप, हर हाल, हर स्थिति में सागर ही तेरे भीतर बोला था, सागर ही तेरे भीतर प्रकट हुआ था; अन्यथा कोई उपाय नहीं है।
इस विराट चैतन्य के सागर में हम लहरें हैं। हमारा अलग होना नहीं है। इसलिए तुम यह तो पूछो ही मत कि कैसे हम एक हो जायें, क्योंकि तुम अलग कभी हुए नहीं। और यह तुम पूछो ही मत कि कौन-से निर्णय हमारे हैं और कौन-से उसके हैं। सभी निर्णय उसके हैं। इस अनुभव, इस प्रतीति, इस साक्षात्कार का नाम ही समर्पण है। बांसुरी बननी नहीं पड़ती, बांसुरी तुम हो। इतनी याद भर करनी है।
स्वामी अरविंद योगी ने कबीर का एक प्यारा पद भेजा है। इस प्रश्न के उत्तर में उसे याद रखना--
धोबिया जल बिच मरत पियासा
जल में ठाढ़ पीवे नहीं मूरख जल है अच्छा-खासा
अपने घर का मर्म न जाने करे धुबियन की आसा
छिन में धोबिया रोवे-धोवे छिन में रहत उदासा
आप पैर करम की रस्सी आपन धरहि फांसा
सच्चा साबुन ले नहीं मूरख है संतों के पासा
दाग पुराना छूटत नहीं धोवे बारह मासा
एक रत्ती को जोर लगावत छोड़ दियो भरि मासा
कहत कबीर सुनो भई साधो धोबिया जल बिच मरत पियासा
तुम पूछ रहे हो, प्यास कैसे बुझायें? "धोबिया जल बिच प्यासा।' और तुम जहां खड़े हो, चारों तरफ जलऱ्ही-जल है। "जल है अच्छा-खासा, धोबिया जल बिच प्यासा।'
प्रश्न गलत हो, तो सही उत्तर की कोई संभावना नहीं। तुम्हारा यह प्रश्न गलत है। और जो तुम्हें मार्ग दिलानेवाले, दिखानेवाले मिल जायेंगे, जरा सावधान रहना! क्योंकि ऐसे लोग हैं जो तुम्हें बताएंगे कि हां, यह रही तरकीब। इस भांति तुम प्रभु की बांसुरी बन सकते हो। ऐसे लोग हैं जो तैयार बैठे हैं कि तुम आओ, पूछो, और वे बता देंगे कि ये रहे विधि, उपाय, मार्ग; इस भांति प्रभु से मिलन हो सकता है। लेकिन मैं तुम्हारे किसी गलत प्रश्न का उत्तर देने में उत्सुक नहीं हूं। तुम्हारा प्रश्न गलत है, यह जरूर मैं तुमसे कहना चाहता हूं। और गलत प्रश्न को लेकर चलना मत, अन्यथा पूरी यात्रा गलत हो जायेगी।
इधर हम कुछ और ही बात कह रहे हैं। इतनी-सी बात कह रहे हैं कि परमात्मा ही है और तुम नहीं हो। अब तुम पूछते हो कि हम नहीं कैसे हो जायें? मैं कह रहा हूं कि तुम हो ही नहीं, तुम कभी थे ही नहीं; तुमने कुछ सपना देख लिया है, तुम किसी भ्रम में पड़ गये हो।
झेन फकीर बोकोजू एक रात सोया, उसने सपना देखा नहीं देखा, पता नहीं, कहानी यह है कि सुबह उठकर उसने अपने एक शिष्य से कहा कि सुनो जी, रात मैंने एक सपना देखा है, व्याख्या करोगे? शिष्य ने कहा रुकें, मैं जल ले आऊं, आप जरा हाथ-मुंह धो लें। वह एक बालटी भरकर पानी ले आया, गुरु का हाथ-मुंह धुलवा दिया खूब रगड़-रगड़ कर। गुरु ने कहा, मैं पूछता हूं सपने की व्याख्या, तू यह क्या कर रहा है? उसने कहा, यह सपने की व्याख्या है। सपना था ही नहीं, उसकी क्या खाक व्याख्या करनी है! जो नहीं था, नहीं था। नहीं की कहीं कोई व्याख्या होती है! गुरु बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा, खुश हूं। अगर आज तूने व्याख्या की होती, तो कान पकड़कर तुझे बाहर निकाल दिया होता।
तभी एक दूसरा शिष्य गुजर रहा था, उससे कहा कि सुनो जी, रात एक सपना देखा है, उसकी व्याख्या करोगे? उसने हाल-चाल देखे--पानी रखा है, धोया गया है; उसने कहा, रुकें, मैं जरा एक कप चाय ले आता हूं, आप चाय पी लें। वह एक कप चाय ले आया। गुरु चाय पीने लगा, उसने कहा, यह क्या व्याख्या हुई! शिष्य ने कहा, अब हाथ-मुंह धो लिया, अब चाय पी लें, जागें, सुबह हो गई, सपना समाप्त हुआ। रात की बातें सुबह कोई पूछता! पूछने में सार क्या है! आप भी जानते हैं, नहीं था; सपना खुद ही कह रहे हैं। सत्य की व्याख्या हो सकती है, सपने की क्या कोई व्याख्या होती है!
तुमने एक सपना देखा है कि तुम अलग हो, अब तुम पूछते हो, उससे एक कैसे हो जायें? मैं कहूंगा, जागो, जरा हाथ-मुंह धोओ, चाय पी लो। तुम अलग कभी हुए नहीं, एक भ्रम पोसा है। और जब मैं तुमसे यह कहता हूं कि सभी निर्णय उसके हैं, तो समझना, यही क्रांति मैं तुम्हारे जीवन में प्रविष्ट कराना चाहता हूं। तुम्हारे पास साधु-संत हैं जो तुमसे कहते हैं, अच्छी-अच्छी बातें उसकी हैं, बुरी-बुरी तुम्हारी हैं। यह भी क्या कंजूसी! जब दिया तो पूरा ही दे दो। और तुम थोड़ा सोचो, जब बुरी-बुरी तुम्हारी हैं, तो अच्छी-अच्छी तुम कैसे दे पाओगे? साधु-संत कहते हैं, बुरी-बुरी तुम्हारी, अच्छी-अच्छी उसकी। तुम मनऱ्ही-मन में उल्टा सोचते हो। तुम सोचते हो, अच्छी-अच्छी अपनी, बुरी-बुरी उसकी। यह जो तुम्हारे भीतर चलता है हिसाब-किताब, यह हिसाब-किताब तोड़ो, एकतरफा तोड़ो, एक दफा तोड़ो। और एक ही चोट में तोड़ो। यह भी क्या हिसाब!
और जब तुम सोचते हो कि बुरी मेरी, तो भली उसकी कैसे हो सकती है? तुम सोचते हो चोरी तुम्हारी और दान उसका! असंभव! यह तो गणित की बात न रही फिर। जब चोरी तुम्हारी, तो दान भी तुम्हारा, यही तुम समझोगे। और तुम्हारा अहंकार तुम्हें यह समझायेगा कि चोरी तो मजबूरी में कर ली, भाग्य ने करा दी, परिस्थिति ने करा दी, दान मैंने किया है। तो चोरी तो तुम किसी पीछे के रास्ते से उसी पर छोड़ दोगे--परिस्थिति, भाग्य; पत्नी बीमार थी, दवा न थी घर में, इसलिए चोरी करनी पड़ी। चाहे सीधे तुम कहो न कि तूने करवा दी, तुम कहोगे परिस्थिति! पत्नी को बीमार किसने किया? भूखे मरते थे, किसने मारा? ऐसी अड़चन में, ऐसी कठिनाई में अगर चोरी कर ली--भूखे भजन न होहिं गोपाला--हे गोपाल, जब भूखे भजन न होते थे तो कर ली, तेरे भजन के लिए भी जरूरी थी।
तो तुम किसी-न-किसी पीछे के दरवाजे से उसी पर छोड़ दोगे चोरी। और जब दान करोगे-- चोरी करोगे लाख की, दान करोगे दो-चार-दस रुपये का--जब दान करोगे तो छाती फुला लोगे। देखा न, मुर्गे कैसे छाती फुलाकर चलते हैं। ऐसे दानी चलने लगते हैं। दानवीर! यह उन्होंने किया है। तब तुम न कहोगे, तूने किया है। क्योंकि अहंकार यह तो कह ही नहीं सकता। जो शुभ-शुभ है उसको बचा लेता है, उससे अपना शृंगार बना लेता है। फूलों को तो सजा लेता है, कांटों को उस पर छोड़ देता है। लेकिन यह स्वाभाविक है। भूल तुम्हारी नहीं, तुम्हारे साधु-संतों की है जो तुमसे कहते हैं कि आधा तुम्हारा, आधा उसका। या तो सब उसका, या सब तुम्हारा।
दो तरह के ज्ञानी हुए हैं संसार में। एक कहते हैं, सब तुम्हारा। वे भी सच कहते हैं। और एक कहते हैं, सब उसका। वे भी सच कहते हैं। बाकी बीच में जो कहते हैं--कुछ तुम्हारा, कुछ उसका, ये अज्ञानी हैं। इन्हें कुछ भी पता नहीं है।
महावीर कहते हैं, सब तुम्हारा। यह भी सच है बात। अष्टावक्र कहते हैं, सब उसका। यह भी सच है बात। एक बात तो दोनों में सच है कि पूरा-पूरा रहता है, काट-काट कर हिसाब नहीं होता। कोई श्रम-विभाजन नहीं है कि तुम कुछ करो, कुछ मैं करूंगा।
महावीर कहते हैं, पूरा मनुष्य का। तो उसमें बुरा भी आ जाता है, अच्छा भी आ जाता है। अच्छे और बुरे एक-दूसरे को काट देते हैं। जैसे ऋण और धन एक-दूसरे को काट देते हैं। तुम शून्य रह जाते हो। वही शून्य होना ध्यान है। शून्य हो गये, नहीं हो गये, बांसुरी बन गये। महावीर की भाषा नहीं है बांसुरी बन जाना, क्योंकि महावीर की भाषा में परमात्मा शब्द का उपयोग नहीं है। शून्य हो गये, ध्यानी हो गये, कैवल्य को उपलब्ध हो गये। लेकिन बात वही है। अष्टावक्र की भाषा में तुमने दोनों परमात्मा पर छोड़ दिये, तुम शून्य हो गये। महावीर की तरकीब में तुम कहते हो, धन भी मेरा, ऋण भी मेरा। दोनों एक-दूसरे को काट देते हैं। तुम खाली रह जाते हो।
बुराई और भलाई को अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम बड़े चकित हो जाओगे, बुराई और भलाई का अनुपात बिलकुल बराबर होता है। तुल जाते हैं तराजू पर। एक-दूसरे से कट जाते हैं। तुम उतनी ही बुराई करते हो जितनी भलाई करते हो। इधर तुम्हारी भलाई बढ़ेगी, उधर तुम्हारी बुराई भी बढ़ेगी। ऐसे, जैसे वृक्ष ऊपर उठता है, वैसे जड़ें नीचे जाती हैं। जितना वृक्ष ऊपर जायेगा उतनी जड़ें नीचे जायेंगी। ऐसा नहीं हो सकता कि वृक्ष तो सौ फीट ऊपर उठ जाये और जड़ें दो-चार फीट नीचे जायें। गिर जायेगा। वृक्ष बच नहीं सकता।
नीत्शे का बहुत प्रसिद्ध वचन है और बहुत बहुमूल्य कि जिसे स्वर्ग जाना हो, उसे नर्क में पैर अड़ाने पड़ते हैं। ठीक कहता है नीत्शे, स्वर्ग जाना हो तो नरक में जड़ें फैलानी पड़ती हैं।
तुम जितना अच्छा करोगे उतना ही बुरा होगा। अनुपात बराबर रहेगा। तुम देखते नहीं बुराई को, तुम बुराई से आंख चुराते हो, इसलिए तो तुम्हें लगता है भलाई खूब की। लेकिन कुछ इस जगत में संतुलन टूटता ही नहीं। संतुलन बराबर बना है। संतुलन इस जगत का परम नियम है। सब चीजें एक गहरे "बैलेंस', संतुलन में चल रही हैं।
तो महावीर कहते हैं, तुम बुरे और भले दोनों को स्वीकार कर लो, तुम्हारे हैं, क्योंकि और कोई परमात्मा नहीं है। कोई उपाय नहीं है किसी पर छोड़ने का, बस तुम्हीं हो। बुरे और भले संतुलित हो जाते हैं। अच्छा-बुरा मिलकर एक-दूसरे को काट देते हैं। उनके कट जाने पर जो हाथ-लायी हाथ आती है, शून्य। कुछ बचता नहीं। उस शून्य में कैवल्य है, निर्वाण है।
अष्टावक्र कहते हैं, दोनों उस पर छोड़ दो। यह ज्यादा सुगम तरकीब है। महावीर की तरकीब से ज्यादा कारगर। महावीर की तरकीब जरा चक्करवाली है, लंबी है, अनावश्यक रूप से कठिन है। लेकिन किन्हीं को कठिन में चलने में रस आता है, वे चलें। अष्टावक्र की बात बड़ी सीधी-साफ है। अष्टावक्र कहते हैं दोनों उस पर छोड़ दो, कह दो सब निर्णय तेरे हैं। मैं भी तेरा हूं, तो मेरे निर्णय भी तेरे ही होंगे। जब मैं ही अपना नहीं हूं तो मेरे निर्णय मेरे कैसे हो सकते हैं! तूने दिया जन्म, तू देगा मौत, तो जीवन भी तेरा है; दोनों के बीच जो घटेगा, वह मेरा कैसे हो जायेगा!
तुमने जन्म तो अपने हाथ से लिया नहीं, तुम एकदम छलांग लगाकर तो नहीं जनम गये हो। तुमने अचानक पाया कि जन्म हो गया। एक दिन अचानक पाओगे कि मौत हो गई। दोनों के बीच में जीवन है। न शुरू का छोर तुम्हारे हाथ में है, न अंत का छोर तुम्हारे हाथ में है, तो मध्य भी तुम्हारे हाथ में हो नहीं सकता। अष्टावक्र कहते हैं, सभी उसके हाथ में है। ऐसा जानकर तुम शून्य हो गये। यह शून्य समर्पण हो गया। परम दशा घट गई। तब मिटता है कर्ता।
कर्ता तो मान्यता है। दो अवस्थाओं में मिटता है--या तो महावीर के ढंग से, या अष्टावक्र के ढंग से। लेकिन मिटाये नहीं मिटता। मिटाने का कोई उपाय ही नहीं है। जब बोध होता है इस भीतर की आत्यंतिक दशा का, तो तुम वहां कर्ता को नहीं पाते हो।
तो मुझसे मत पूछो कि कैसे पहचानें कि यह निर्णय उसका है? इसमें तो धोखा-धड़ी हो जायेगी। पहचाननेवाले तो तुम्हीं रहोगे न! तो पहचाननेवाले की आड़ में छिप जायेगा कर्ता। अब वह वहां से काम शुरू करेगा। अब वह कहेगा, यह मेरा, यह उसका। लेकिन यह मेरा तो बच गया फिर! नया नाम हो गया, नये वेश, नये रूप-रंग, मगर बच गया फिर। इसे बचाओ ही मत। यह भ्रांति है तुम्हारी।

 दूसरा प्रश्न: अस्तित्व को स्वीकार कर लिया तो शब्द क्यों? उपदेश क्यों? समर्पण है तो विरोध की व्याख्या क्यों? जीवन की खोज को अधूरा छोड़कर संन्यास में प्रवेश क्या पलायन नहीं? क्या कायरता नहीं?

पहली बात, "अस्तित्व को स्वीकार कर लिया तो शब्द क्यों?'
तुमसे कहा किसने कि शब्द अस्तित्व नहीं है? जितना शून्य अस्तित्व है, उतना ही शब्द भी अस्तित्व है। चुप रहने में जितना यथार्थ है, उतना ही बोलने में भी यथार्थ है। बीज में जितना सत्य छिपा है, उतना ही फूल के प्रकट हो जाने में भी छिपा है।
झेन कवि बासो ने कहा है, फूल बोलते नहीं। मुझे कभी झंझट नहीं होती किसी को गलत कहने में, लेकिन बासो को गलत कहने में मुझे भी पीड़ा होती है। बासो से मेरा लगाव है। लेकिन फिर भी मैं कहना चाहता हूं कि फूल भी बोलते हैं। बासो कहता है, फूल बोलते नहीं; मैं तुमसे कहना चाहता हूं, फूल भी बोलते हैं। बासो फूलों की भाषा नहीं समझता रहा होगा। पूछो मधुमाखी से, फूल बोलते हैं या नहीं? मीलों दूर तक खबर पहुंच जाती है। सुगंध, सुवास, मिठास हवा में तैर जाती है। तार खिंच जाते हैं। निमंत्रणों के जाल फैल जाते हैं। मीलों दूर के मधुछत्ते पर खबर पहुंच जाती है, फूल खिल गया है। भाग मच जाती है, दौड़ मच जाती है, मधुमक्खियां चलीं कतारबद्ध! तितलियों से पूछो, फूल बोलते हैं या नहीं? सूरज की किरणों से पूछो, फूल बोलते हैं या नहीं? अपने नासापुटों से पूछो, फूल बोलते हैं या नहीं? अपनी आंखों से पूछो, फूल के रंग, गंध से पूछो।
फूल भी बोलते हैं। उनकी भाषा मनुष्य की भाषा नहीं। हो भी क्यों? फूल की भाषा फूल की भाषा है। अगर फूल सोचते होंगे, तो वे सोचते, मनुष्य बोलते ही नहीं। क्योंकि उनकी भाषा में तो नहीं बोलते। फूल भी बोलते हैं। यह अस्तित्व बहुत मुखर है। सब कुछ बोल रहा है।
तुम पूछते हो, "अस्तित्व को स्वीकार कर लिया तो शब्द क्यों?'
अस्तित्व को स्वीकार कर लिया तो शब्द से बचने का उपाय कहां? शून्य भी अपना, शब्द भी अपना। मौन भी अपना, मुखरता भी अपनी। अस्तित्व तो सारे विरोधों का सम्मिलन है। लेकिन आदमी हमेशा चुनाव में लगा रहता है। या तो शब्द, तो कभी शून्य को न चुनेगा। अब शून्य को चुन लिया, तो अब शब्द से घबड़ायेगा। कुछ हैं जो बोले ही चले जाते हैं और कुछ हैं जिन ने कसम खा ली है कि नहीं बोलेंगे। ये दोनों ही गलत हैं। दोनों ने ही हठ किया। दोनों ने आग्रह कर लिया है।
मेरा कोई आग्रह नहीं है। जब जैसी प्रभु की मर्जी! जब बोलना चाहे, बोले। जब चुप रहना चाहे, चुप रहे। तुम्हारा आग्रह, तो तुम ही मौजूद रह जाओगे।
अब तुम पूछते हो, "उपदेश क्यों?'
उपदेश क्यों नहीं? समझना। तुम सोचते हो, उपदेश दिया जाता है, तो तुम गलती में हो। जो देते हैं, वे वस्तुतः उपदेष्टा नहीं। उपदेश होता है। जैन शास्त्रों में बड़ा ठीक वचन है। महावीर बोले, ऐसा जैन शास्त्र नहीं कहते। जैन शास्त्र कहते हैं: महावीर से वाणी झरी। यह बात ठीक है। यह बात पकड़ आती है। बोले, ऐसा नहीं; क्योंकि बोले में ऐसा लगता है जैसे कुछ किया। तो जैन शास्त्र ठीक अभिव्यक्ति देते हैं: महावीर से वाणी झरी। जैसे सूरज से रोशनी झरती है, जैसे फूल से गंध झरती है, ऐसी महावीर से वाणी झरी।
अब फूल कैसे रोके गंध को? और सूरज कैसे रोके प्रकाश को? जब भीतर का दीया जल गया, तो रोशनी झरेगी। कभी शून्य से झरेगी, कभी शब्द से झरेगी, लेकिन रोशनी झरेगी। कभी शब्द से बोलेगी, कभी शून्य से बोलेगी, लेकिन बोलेगी। बोलकर रहेगी।
तुम पूछते हो, "उपदेश क्यों?'
तुम्हें अभी उपदेष्टा मिला नहीं। तुमने उपदेशक देखे होंगे, तुमने व्याख्यान करनेवाले देखे होंगे, तुमने उपदेष्टा नहीं जाना। तुम्हें उपदेश की गहराई का कुछ पता नहीं है।
फर्क क्या है उपदेश में और व्याख्यान में?
यही फर्क है। महावीर ने कहा है, मैं उपदेश देता हूं, आदेश नहीं। दो फर्क समझ लो। व्याख्यान और उपदेश में फर्क है। एक, व्याख्यान में तुम चेष्टारत हो, तुम आग्रहपूर्वक कुछ थोपने के उपाय कर रहे हो किसी के ऊपर। व्याख्यान में चेष्टा है, श्रम है, थकान है। दूसरा राजी हो जाये तो प्रसन्नता है। दूसरा राजी न हो तो अप्रसन्नता है। व्याख्यान में सफलता है, असफलता है; सुख-दुख है। उपदेश में न कोई सफलता है, न कोई विफलता है। जो बात भीतर उमगी थी, वह कही गई। जो बात भीतर उठी थी, वह झरी। जो झरना भीतर फूटा, बहा। किसी ने पी लिया ठीक; किसी ने न पीया, उसकी मर्जी। वह जाने! उसका भाग्य!
उपदेश बड़ी नैसर्गिक प्रक्रिया है। इसलिए महावीर एक और भेद करते हैं, वे कहते हैं, मैं उपदेश देता हूं, आदेश नहीं। आदेश का मतलब होता है, जो मैं कहता हूं, ऐसा करो। उपदेश का यह अर्थ नहीं होता है कि जो मैं कहता हूं, ऐसा करो। उपदेश का अर्थ होता है, जो मुझे हुआ है, वह बांट रहा हूं। जंच जाये, कर लेना; न जंचे, फेंक देना। काम आ जाये ठीक; काम न आये, भूल जाना। आदेश नहीं है कि करना ही। ऐसी आज्ञा नहीं है उपदेश में कि करना ही। पक्षी गीत गाते हैं; तुम्हें सुनना हो सुन लिया। फूल खिले, तुम्हें देखना है देख लिया। रात चांद उगा, आदेश नहीं है कि देखो, सारी दुनिया देखो, खड़े हो जाओ सावधान और मेरी तरफ देखो--नहीं, चांद खिला, चांद चला, चांद अठखेलियां करने लगा, आकाश में उसका विलास चला! कोई देख ले, धन्यभागी; न देखे, उसकी मौज। कोई भी न देखे पृथ्वी पर, तो भी चांद को इससे फर्क नहीं पड़ता। उपदेश निर्झर है।
तुम पूछते हो, "उपदेश क्यों?'
तुम्हें उपदेश का पता ही नहीं कि उपदेश का अर्थ क्या होता है। शब्द को भी समझने की कोशिश करो, क्योंकि संस्कृत, प्राकृत, पाली, इनके जो शब्द हैं, वे साधारण शब्द नहीं हैं। ये भाषाएं ज्ञानियों की निर्झरनी से इस तरह भरी हैं कि इनके एक-एक शब्द में बड़ा अर्थ है। उपदेश का अर्थ क्या होता है--शाब्दिक अर्थ? देश का अर्थ होता है, "स्पेस'। देश का अर्थ होता है, विस्तार, आयाम। उपदेश का अर्थ होता है, उस विस्तार के निकट होना। जो उपनिषद का अर्थ होता है...। उपनिषद का अर्थ होता है, जिसको घट गया है, उसके पास बैठ जाना। गुरु के पास होना--उपनिषद। उपवास का अर्थ होता है, वह जो भीतर बसा है, उसके पास हो जाना। वह जो तुम्हारे भीतर आत्मा है, उसके निकट आ जाने का नाम उपवास।
अनशन को उपवास मत समझना। भूखे मरने का नाम उपवास नहीं है। हां कभी-कभी ऐसा होता--आत्मा में इतना रस झरता है, तुम इतने भीतर ऐसे भरे-पूरे होते हो कि भोजन की याद नहीं आती; भोजन चूक जाता है। वह बात अलग है। उपवास हुआ। अनशन उपवास नहीं है, क्योंकि तुमने भोजन चेष्टा से न किया। तो भोजन की याद आती रही। यह कोई उपवास हुआ! इससे तो तुम भोजन कर लेते वही ज्यादा उपवास था। कम-से-कम दिन में दो बार कर लिया, निपट गये। अब दिन में हजार बार करना पड़ रहा है। याद आ रही है, फिर याद आ रही है, फिर याद आ रही है। उपवास का अर्थ है, शरीर भूल जाये, आत्मा के निकट हो गये। उपनिषद का अर्थ है, स्वयं को भूल जाओ, गुरु के निकट हो गये।
उपदेश का क्या अर्थ है? जिसके भीतर वह परम आकाश घटा है--कोई महावीर, कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई मुहम्मद, कोई अष्टावक्र, कोई क्राइस्ट--जिसके भीतर महाआकाश प्रगट हुआ है, उसके पास हो गये। उसके उस महाआकाश से झर रही हैं कुछ किरणें, उनको झरने दिया। उनको पीया, उनको आत्मसात किया। जैसे प्यासा जल पीता है, ऐसे पीया।
उपदेश सभी के लिए नहीं है। उन्हीं के लिए है, जो दीक्षित हैं। इधर मुझसे लोग पूछते हैं कि यहां इतनी बाधा क्यों डालते हैं लोगों के आने पर? यहां कोई व्याख्यान नहीं हो रहा है। यहां भीड़ की आकांक्षा नहीं है। यहां उन्हीं के लिए आने का उपाय है, जो सच में ही उस महाआकाश के निकट होना चाहते हैं जो मेरे भीतर घटा है। जो यहां मेरे आकाश के हिस्से बनना चाहते हैं, बस उनके लिए। यहां बाजार नहीं भर लेना है। यहां कुतूहल से भरे लोगों को नहीं इकट्ठा कर लेना है। जो ऐसे ही चले आये कि चलो देखें क्या है? जैसे सिनेमा देखने चले जाते हैं, वैसे यहां आ गये। उनके लिए नहीं है जगह यहां। उन पर हजार तरह का नियंत्रण है। यहां तो सिर्फ प्यासों के लिए...।
उपदेश का अर्थ होता है, जो मेरे भीतर महादेश प्रकट हुआ है, उसमें तुम भी भागीदार हो जाओ। इसलिए बोलता हूं। और तुम खयाल रखो, अगर ज्ञानी न बोले होते तो उपनिषद न होते, गीता न होती, अष्टावक्र की महागीता न होती, बाइबिल न होती, कुरान न होता, धम्मपद न होता। जरा सोचो, अगर ज्ञानी न बोले होते, तुम कहां होते? तुम जंगलों में होते। तुम मनुष्य न होते। यह जो बोला गया है--यद्यपि तुमने सुना नहीं, सुन लेते तब तो तुम स्वर्ग में होते--यह जो बोला गया है, यह जो तुमने ऊपर-ऊपर से सुन लिया, वह भी तुम्हें बहुत दूर ले आया है। तुम्हारे अनजाने ले आया है। तुम्हें पता भी नहीं चला और ले आया है। काश, सुन लेते! उपदेश दिये तो गये हैं, तुमने लिये नहीं हैं। बिना तुम्हारे लिये भी तुम खिंच गये हो, बहुत दूर खिंच गये हो जंगलों से। पशुओं के बहुत पार आ गये हो। काश सुन लेते, तो तुम परमात्मा में प्रविष्ट हो जाते।
उपदेश देने तक मेरी क्षमता, लेना तो तुम्हारे हाथ में है। अब जो सज्जन पूछते हैं, उपदेश क्यों, असल में यह पूछ रहे हैं कि मैं लूं क्यों? क्योंकि मुझसे तुम्हारा क्या लेना-देना! मैं बोलूं, न बोलूं, इससे तुम्हारा क्या लेन-देन है! तुम हो कौन! मुझ पर किसी तरह का नियंत्रण और सीमा लगाने वाले तुम हो कौन? इतना ही तुम कर सकते हो, तुम न आओ। मैंने तुम्हें बुलाया भी नहीं। अपनी मर्जी से आ गये हो। तुम न होओगे और मुझे बोलना होगा, वृक्षों से बोल लूंगा, पहाड़ों से बोल लूंगा, पत्थरों से बोल लूंगा, सूने आकाश से बोल लूंगा। तुम मुझे बोलने से तो न रोक सकोगे।
लेकिन असल में तुम बात कुछ और कह रहे हो। तुम उपदेश लेना नहीं चाहते। तुम्हें उपदेश जहर जैसा मालूम पड़ रहा है। तुम्हें लग रहा है कि यह बात किसी से लेनी पड़े, यह तुम्हारे अहंकार को बड़ा कष्ट देती मालूम पड़ रही है। मत लो, तुम्हारी मर्जी।
देने में मेरी आतुरता नहीं है। कह दिया, मेरा कर्तव्य पूरा हो गया। परमात्मा मुझसे न कह सकेगा कि जो तुम्हें मिला था, वह तुमने कहा नहीं। वह जिम्मेवारी मैंने पूरी कर दी। तुमने नहीं लिया, वह तुम्हारे और तुम्हारे परमात्मा के बीच का निपटारा है। उससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं। तुम्हें न लेना हो उपदेश, न लो। यह कोई आदेश नहीं है कि तुम्हें लेना ही पड़ेगा। लेकिन कृपा करके यह तो मत कहो कि मैं उपदेश क्यों दूं? तुम मुझे तो छोड़ो! मैं तुम्हें छोड़ रहा हूं--आदेश नहीं दे रहा--तुम इतनी दया मुझ पर भी करो।
तुम पूछते हो, "समर्पण है तो विरोध की व्याख्या क्यों?'
बिना विरोध की व्याख्या समझे तुम समर्पण समझोगे कैसे? कोई तुमसे पूछे कि प्रकाश क्या है, तो तुम यही कहोगे न कि अंधेरा नहीं है! और क्या कहोगे? कोई तुमसे पूछे जीवन क्या है, तो तुम यही कहोगे न कि मृत्यु नहीं है! कोई तुमसे पूछे कि ध्यान क्या है, तो यही लिखा है न सारे शास्त्रों में कि विचार नहीं है! बिना विपरीत के व्याख्या नहीं होती। समर्पण की व्याख्या करनी हो तो विरोध की व्याख्या करनी पड़ती है। विरोध समझ में आ जाये, विरोध गिर जाये, समझ में आकर, तो जो शेष रह जाता है वही समर्पण है। इसलिए व्याख्या है। सत्य को जानने के लिए असत्य को भी समझना पड़ता है। ठीक को पहचानने के लिए गैर-ठीक को पहचानना पड़ता है। सही रास्ते पर जाने के लिए गलत-गलत रास्ते कौन-से हैं, वे भी पहचान लेने पड़ते हैं। नहीं तो वहीं भटकते रहोगे।
एडीसन एक प्रयोग कर रहा था। सात सौ बार असफल हो गया प्रयोग करने में। तीन साल लग गये। उसके शिष्य, उसके अनुयायी, उसके साथी सब परेशान हो गये कि यह तो पागलपन हुआ जा रहा है। सात सौ बार असफल हो गया है, लेकिन यह थकता नहीं। और रोज सुबह वह ताजा चला आये--प्रसन्न, उत्साह से भरा हुआ, फिर प्रयोग शुरू।
आखिर उसके साथियों ने एक दिन उसे घेर लिया और कहा कि बहुत होता है, एक सीमा होती है, हर चीज की सीमा होती है, अब ठहरें। सात सौ बार हम हार चुके हैं, अब यह कब तक चलेगा? कुछ और नहीं करना है? जिंदगी भर यही करते रहना है? एडीसन ने कहा, पागलो, सात सौ बार हार चुके इसका मतलब है, सात सौ गलत रास्तों से हमारी पहचान हो गई, अब ठीक रास्ता करीब ही आता होगा। कितने होंगे गलत रास्ते? अगर हजार गलत रास्ते हैं, तो सात सौ तो हम पहचान चुके कि गलत हैं, अब तीन सौ ही बचे। दो सौ निन्यानबे और पहचान लेने हैं कि गलत हैं, फिर मिल जायेगा ठीक। हम ठीक के रोज करीब हो रहे हैं, तुम उदास क्यों हो! क्योंकि गलत को जाने बिना ठीक को जानोगे कैसे?
अपने घर आने के लिए बहुत दूसरों के घरों पर दस्तक देनी पड़ती है। सदगुरु को पाने के पहले न मालूम कितने असदगुरुओं के पास भटकना पड़ता है। स्वाभाविक है। इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं है। गलत भी कुछ नहीं है। ठीक नियम के अनुसार है। टटोलना है अंधेरे में।
तो मैं तुम्हें विरोध की भी व्याख्या देता हूं, क्या गलत है वह भी कहता हूं; क्योंकि तुमसे कहना चाहता हूं वह जो कि सही है। सच तो यह है कि सही को सीधा-सीधा कहने का कोई उपाय ही नहीं है। नेति-नेति उसका मार्ग है। यह नहीं है सत्य, यह नहीं है सत्य, यह नहीं है सत्य, ऐसा एक-एक असत्य को बताते-बताते, बताते-बताते जब सब असत्य चुक जाते हैं, तो गुरु कहता है, अब जो शेष रहा, यही है सत्य। सीधा कोई उपाय नहीं है कि उंगली रख दी जाये--यह है सत्य।
सत्य इतना बड़ा है कि उंगली रखी नहीं जा सकती। असत्य छोटे-छोटे हैं, उन पर उंगली रखी जा सकती है। तो असत्य पर उंगली रखी जाती है--यह असत्य, यह असत्य, यह असत्य, चले; आखिर एक घड़ी तो आयेगी जब असत्य चुक जायेंगे! सत्य तो असीम है, असत्य सीमित हैं। तो असत्य तो चुक जायेंगे। एक न एक दिन गलत की तो गणना हो जायेगी। फिर जो गणना के बाहर रह गया, फैला आकाश की तरह, वही शेष रह गया, वही सत्य है। नेति-नेति उपाय है। यह भी नहीं, यह भी नहीं। तब तुम किसी दिन जान लोगे, क्या है।
असार को पहचान लिया, तो सार का द्वार खुल जाता है। संसार को समझ लिया, तो मोक्ष का द्वार खुल गया। इसीलिए तो संसार है, नेति-नेति का उपाय करने को। धन के मोह में पड़े, फिर पाया कि नहीं मिलता सुख, कहा--नेति, नहीं। स्त्री के प्रेम में पड़े, पुरुष के प्रेम में पड़े, पाया कि कुछ पाया नहीं, कहा--नेति। पद पाया, प्रतिष्ठा पायी और पाया कि कुछ न मिला, हाथ में राख लगी, कहा--नेति। ऐसा कहते गये, नेति-नेति, एक दिन पूरा संसार जो-जो दे सकता था सब पहचान लिया, अचानक सब संसार व्यर्थ हो गया और गिर गया, तब जो शेष रह जाता है, वही निर्वाण है।
और फिर पूछते हो कि "जीवन की खोज को अधूरा छोड़कर संन्यास में प्रवेश क्या पलायन नहीं? क्या कायरता नहीं?'
यही तो मैं रोज कह रहा हूं कि जीवन की खोज को अधूरा छोड़कर संन्यास में प्रवेश मत करना, वह पलायन होगा। इसीलिए तो मैं अपने संन्यासी को भी जीवन की खोज से तोड़ता नहीं। उससे कहता हूं, जीवन की खोज भी जारी रहने दो और संन्यास के संगीत को भी धीरे-धीरे आत्मसात करने लगो। क्योंकि तुम कैसे जानोगे कि अब जीवन की खोज पूरी हो गई, मुझे बताओ! तुम कैसे जानोगे कि अब आ गया वक्त संन्यास में प्रवेश का? धीरे-धीरे अभ्यास करते रहो संन्यास का--संसार को भी चलने दो, संन्यास का अभ्यास भी करते रहो। क्योंकि अगर अचानक एक दिन पता चला कि संसार तो व्यर्थ हो गया और तुम्हारे पास अगर संन्यास की कोई भी धारणा न रही, संन्यास का कोई सूत्र हाथ में न रहा, तो तुम आत्महत्या कर लोगे बजाय संन्यास में जाने के।
तुम्हें खयाल है, पश्चिम में आत्महत्याएं बड़ी मात्रा में घटती हैं, पूरब में नहीं घटती हैं। और कारण? कारण संन्यास है। पश्चिम में जब एक आदमी जीवन से बिलकुल हार जाता है और पाता है कुछ सार नहीं, तो एक ही बात समझ में आती है--खतम करो अपने को, क्योंकि अब क्या करने को बचा! पूरब में आदमी आत्महत्या नहीं करता। जब जीवन व्यर्थ हो जाता है तो संन्यस्त हो जाता है। पूरब ने आत्महत्या का विकल्प खोजा है। पश्चिम के पास विकल्प नहीं है, इसलिए पश्चिम में आत्महत्या रोज बढ़ती जाती है। बढ़ती रहेगी, जब तक संन्यास न पहुंच जायेगा पश्चिम में। जब तक गैरिक रंग नहीं फैलता पश्चिम के आकाश पर, तब तक पश्चिम में आत्महत्या जारी रहेगी और बढ़ती जायेगी। रोज-रोज बढ़ती जायेगी। क्योंकि लोगों को समझ में आता जाता है कि जीवन व्यर्थ, जीवन व्यर्थ। फिर करना क्या? फिर उठना क्यों? फिर रोज सुबह जागना क्यों? फिर जाना क्यों दफ्तर? किसलिए? उसी दुख को फिर-फिर झेलने के लिए! वही उपद्रव जारी रखने के लिए! अपने ही जीवन के नरक को रोज-रोज पानी देने की जरूरत क्या है? खतम करो, समाप्त करो।
पश्चिम के बहुत बड़े-बड़े विचारकों ने भी आत्मघात किया है। यह सोचने जैसा है। पूरब के किसी महाविचारक ने कभी आत्मघात नहीं किया। बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम, नागार्जुन, शंकर, रामानुज, निंबार्क, वल्लभ, कबीर, नानक, दादू, हजारों महापुरुषों की धारा है, इनमें से एक ने भी आत्मघात नहीं किया। इनमें से एक भी पागल नहीं हुआ। पश्चिम में बड़ी उल्टी बात है। पश्चिम में कोई बड़ा विचारक बिना पागल हुए बचता नहीं। हो ही जाता है पागल। अगर बच जाये तो इसका एक ही अर्थ है कि कोई बड़ा विचारक नहीं है वह। अभी दूर तक नहीं गया विचार में। अन्यथा विचार एक जगह लाकर खड़ा कर देता है, जिसके आगे कोई गति नहीं रहती। ध्यान का उपाय नहीं है। जहां विचार समाप्त हुआ, वहां अब क्या करना! आदमी विक्षिप्त होने लगता है। ध्यान का तो उपाय नहीं है। जहां संसार व्यर्थ हुआ, वहां आदमी आत्महत्या की सोचने लगता है। संन्यास का तो उपाय नहीं है, विकल्प नहीं है।
मैं जब तुमसे कहता हूं संसार में रहो, तो इसीलिए कहता हूं कि कहीं ऐसा न हो कि तुम कच्चे संसार के बाहर निकल आओ। लेकिन पता कैसे चलेगा कि कब तुम पक गये? और जिस दिन पक जाओगे, जिस दिन घर में आग लगेगी, उसी दिन कुआं खोदोगे? कुआं तो खोदना शुरू करो; जब आग लगेगी, लगेगी। कुआं तो तैयार रहे; जब आग लगेगी तो पानी कुएं का तैयार रहेगा, बुझा लेंगे। अब जिस दिन घर में आग लगेगी उसी दिन कुआं खोदने अगर बैठे, तो घर बचनेवाला नहीं है।
इसीलिए मैं कहता हूं, संसार को चलने दो और साथ ही साथ संन्यास के संगीत को भी जन्मने दो। और इन दोनों में कोई विरोध नहीं है। क्योंकि संन्यास भी परमात्मा का है और संसार भी परमात्मा का है। सब उसका है। संन्यास संसार का विपरीत नहीं है, इसलिए कहीं भागने की जरूरत नहीं है।
अब तुम मुझसे पूछते हो कि जीवन की खोज को अधूरा छोड़कर संन्यास में प्रवेश क्या पलायन नहीं है? वही तो मैं कह रहा हूं। तुम किससे पूछ रहे हो? तुम पुरी के शंकराचार्य से पूछते तो बात ठीक थी। मुझसे तो मत पूछो। तुम जाकर आचार्य तुलसी से पूछो, बात ठीक है। मुनि देशभूषण महाराज से पूछो, बात सही है। मुझसे पूछ रहे हो! यही तो मेरी क्रांति है संन्यास में कि संसार के साथ चल सकता है। मंदिर और दूकान को करीब लाने की कोशिश चल रही है कि जिस दिन दूकान चल जाये, मंदिर इतना दूर न हो कि तुम पहुंच न पाओ। मंदिर करीब होना चाहिए; पास ही होना चाहिए। एक कदम रखा कि मंदिर में पहुंच गये। तो तुम आत्मघात से बच सकोगे।
फिर ध्यान रखना कि संन्यास एक तरह का आत्मघात है। बड़ा प्यारा आत्मघात है। अहंकार का विसर्जन है। तुम तो मरे! तुम तो गये। वस्तुतः संन्यास को ही ठीक-ठीक आत्मघात कहना चाहिए; क्योंकि और कोई आदमी जो आत्महत्या कर लेता है, उसका शरीर तो मिटा देता है लेकिन मन तो मिटता नहीं, अहंकार तो मिटता नहीं। इधर शरीर मिटा नहीं कि नया जन्म हुआ नहीं। फिर गर्भ, फिर दौड़ शुरू। वही फिर शुरू हो जायेगा जो चल रहा था। संन्यास ही वास्तविक आत्मघात है, क्योंकि जो ठीक-ठीक संन्यस्त हो जाये, अहंकार विसर्जित हो जाये, तो फिर दुबारा लौटकर आने की जरूरत नहीं। तुम अनागामिन हो गये। अब तुम दुबारा न आओगे। अब तुम प्रभु में समाहित हो गये।
लेकिन मैं जानता हूं, पूछनेवाले का कारण कुछ और है। संन्यास लेने की हिम्मत नहीं, तो अपने को समझा रहे हैं कि यह संन्यास तो पलायन है। कहते हैं, क्या संन्यास कायरता नहीं? सच बात उल्टी है--संन्यास लेने की हिम्मत नहीं। तुम जरा मेरा संन्यास लेकर देखो, तब तुम्हें पता चलेगा कि कायरता लेने में थी कि न लेने में थी। तुम जरा लेकर देखो। जरा गैरिक वस्त्र पहनकर, यह माला पहनकर बाजार जाकर देखो, घर जाकर देखो, परिवार-प्रियजन के पास जाकर देखो, तब तुम्हें पता चलेगा कायरता कहां थी। सारी दुनिया विरोध में खड़ी मालूम होगी। हां, अगर मैं तुमसे कहता पहाड़ पर भाग जाओ, तो कायरता थी। मैं तो तुमसे कहता हूं, भागना ही मत। तुम तो जमकर खड़े रहना संसार में।
एक मित्र आये। कहने लगे संन्यास तो लेता हूं, लेकिन एक झंझट है कि मैं शराब पीता हूं। मैंने कहा, मजे से पीयो। संन्यास तो लो, फिर देखेंगे। वे बहुत चौंके। उन्होंने कहा, क्या आप कहते हैं कि शराब भी पीऊं! मैंने कहा, वह तुम्हारी मर्जी। मुझे इन छोटी बातों में लेना-देना नहीं, क्या तुम पीते, क्या नहीं पीते! मैं कोई जैन-मुनि थोड़े ही हूं कि इन सबका हिसाब रखूं कि शराब छानकर पीते कि बिना छनी पीते। तुम पीयो; तुम पीते हो, तुम्हारी जिम्मेवारी। मैं तुम्हें ध्यान देता हूं, संन्यास देता हूं, फिर देखेंगे।
कोई पंद्रह दिन बाद वे आये और कहने लगे कि फांसी लगा दी! अब शराबघर की तरफ जाते डर लगता है। संन्यास लेने के दूसरे दिन गया, एक आदमी पैर पर गिर पड़ा और कहने लगा स्वामी जी, आप यहां कैसे! मैंने कहा, अब तुम्हारी मर्जी! हिम्मत हो तो जाओ। नहीं, वे कहने लगे, अब न हो सकेगा। उस आदमी ने इतने भाव से कहा कि स्वामी जी, आप यहां कैसे! शायद उसने सोचा कि कोई भूल-भटक गये हैं स्वामी जी। यह मधुशाला है, यह कोई मंदिर नहीं है, आप कहां आ गये!
तुम पूछते हो, संन्यास कायरता! तुम जरा लेकर देखो। नहीं, उस आदमी की शराब गई। संन्यास लेने के बाद तुम्हें पता चलना शुरू होगा।
एक युवक ने संन्यास लिया, कल्याण में रहते हैं। पंद्रह दिन बाद अपनी पत्नी को लेकर आ गये कि इसको भी संन्यास दे दें। मैंने कहा, बात क्या? कहने लगे, झंझट खड़ी होती है। ट्रेन में लोगों ने मुझे पकड़ लिया कि तुम किसकी पत्नी लेकर भागे जा रहे हो? संन्यासी होकर, यह स्त्री किसकी है? इसको भी संन्यास दे दें, नहीं तो यह तो किसी दिन झंझट होगी! पांच-सात दिन बाद अपने छोटे बेटे को लेकर आ गये, इसको भी संन्यास दे दें। मैंने कहा, हुआ क्या? बोले कि हम दोनों को लोगों ने रोक लिया ट्रेन में, कहा यह किसका बच्चा उठा लाये? अपना बच्चा! मगर अब यह संन्यासी का बच्चा कैसे!
संन्यास की एक धारणा थी पुरानी, उसमें भगोड़ापन था। मैं तुमसे कह रहा हूं, पति भी रहना, पत्नी भी रहना, मां भी रहना, पिता भी रहना। मैं तो तुम्हें एक संघर्ष दे रहा हूं, एक चुनौती दे रहा हूं। तुम्हारी चुनौतियां बढ़ जायेंगी, घटेंगी नहीं। तुम्हारा संघर्ष गहरा हो जायेगा। यह पलायन नहीं है।
लेकिन तुम बचना चाहते हो। बचना चाहते हो बचो, लेकिन झूठे शब्दों की आड़ मत लो। कायर तुम हो। और चाह रहे हो अपने आपको समझा लेना कि संन्यास कायरता है। सो अपने मन में तुम मान रखो कि तुम बड़े बहादुर हो। बहादुर हो तो डुबकी लो, डरो मत! संसारी रहकर तो देख लिया है, अब साथ ही संन्यासी रहकर संसार में रहकर देख लो, तब तुम्हें पता चलेगा कि संघर्ष किसका बड़ा है, चुनौती किसकी महान है!
और देखना, तुम कहते हो जब पक जायेंगे...। मैं तुम्हें कहे देता हूं कि पकने के पहले मौत आ जायेगी। क्योंकि मरते दम तक आदमी नहीं सोचता कि मैं पक गया। मरते दम तक वासनाएं पीछा करती हैं। मरते दम तक भी सपने जकड़े रहते हैं। मरते दम तक योजनायें पीछे पड़ी रहती हैं। मरते दम तक खयाल रहता है कुछ करके दिखा दें, कुछ हो जायें, अभी कुछ देर और बाकी है।
बिखर गये सब मोती मेरे!
क्रूर समय ने असमय तोड़ी
सांसों की वह रेशम डोरी
जिसमें रोज पिरोये मोती
आशाओं ने सांझ-सवेरे
बिखर गये सब मोती मेरे!

आयी तेज हवा मतवाली
तोड़ गई वह कोमल डाली
जिस पर हर पंछी ने अपने
बना लिये थे रैन-बसेरे
बिखर गये सब मोती मेरे!

काली रात लगी गहराने
बुझने दीप लगा सिरहाने
घिर आये आंखों के आगे
चारों ओर अपार अंधेरे
बिखर गये सब मोती मेरे!
लेकिन तब समय न बचेगा--जब मोतियों की माला टूटकर बिखरेगी, जब सपनों की माला टूटकर बिखरेगी और जब चारों तरफ अंधेरा घिरने लगेगा!
एक महिला संन्यास लेना चाहती थी। कई बार आयी, कई बार पूछा, कई बार समझा, फिर कहती है कि कल आऊंगी। एक दिन खबर आयी--और उसके एक ही दिन पहले वह कह कर गई थी कि कल आऊंगी--कि वह कार में "एक्सीडेंट' हो गया है। वह कोई छः घंटे सात घंटे बेहोश रही, फिर उसे होश आया। होश आया तो उसने पहली बात कही कि दौड़ो, अपने लड़के से कहा कि दौड़ो, मुझे संन्यास लेना है, और मैं कितने दिन से टाल रही--उसकी उम्र थी कोई सत्तर वर्ष--कितने दिन से टाल रही; और आज तो, कल मैं कहकर आयी थी कि आज संन्यास ले लूंगी, आज मौत आ गई, अब भागो! लेकिन लड़का जब तक मेरे पास आया, उसकी सांस टूट चुकी थी।
मैंने लड़के को कहा, उसकी इतनी इच्छा थी, जिंदगी में तो न ले सकी, मर गई, कोई फिक्र नहीं, यह माला उसको पहना देना। यह नाम उसकी छाती पर रख देना। गैरिक वस्त्रों में लपेटकर उसको जला देना। अब और क्या करोगे!
यही मैं तुमसे कहता हूं। जीते-जी ले लेना। क्योंकि मरकर गैरिक वस्त्रों में दफनाये गये कि और वस्त्रों में, कुछ भेद नहीं पड़ता है। संन्यास का मूल्य ही यही है कि तुमने परम जागरूकता में, होश में लिया, चुना, उतरे।
हाथ थे मिले कि जुल्फ चांद की संवार दूं
ओंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूं
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूं
और सांस यूं कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूं
हो सका न कुछ मगर, शाम बन गई सहर
वो उठी लहर कि ढह गये किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे नीर नैन में भरे
ओढ़ कर कफन पड़े मजार देखते रहे,
कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे।

मांग भर चली थी एक जब नयी-नयी किरण
ढोलकें घुमुक उठीं ठुमुक उठे चरण-चरण
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन
गांव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी जहर भरी गाज एक वह गिरी
पुछ गया सिंदूर तारत्तार हुई चुनरी
और हम अजान से दूर के मकान से
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे,
कारवां    गुजर    गया    गुबार    देखते    रहे।
इसके पहले कि कारवां गुजर जाये और सिर्फ गुबार छूट जाये तुम्हारी राह पर, और तुम्हारी आंखें अपनी ही मजार को देखती रहें और कहार को देखती रहें जो तुम्हारी अर्थी को ले चले, कुछ कर लेना। ऐसी होशियारी की बातों में अपने को छिपाना मत। शब्द-जाल मत बुनना, सत्य को सीधा-सीधा देखना। न ले सको संन्यास, तो जानना कि मैं कायर हूं इसलिए नहीं ले रहा हूं। तो किसी दिन ले सकोगे। क्योंकि कौन कायर होना चाहता है! लेकिन तुमने अगर समझा कि कायर संन्यास ले रहे हैं, मैं बहादुर हूं इसलिए नहीं ले रहा हूं, तो फिर तुम कभी भी न ले सकोगे।
कारवां    गुजर    गया    गुबार    देखते    रहे।
फिर तुम्हारी यही दशा होने को है।

तीसरा प्रश्न: प्यारे भगवान, क्या आपने अपनी जिंदगी में कभी कोई गलती की है?

जब तक मैं था, तब तक गलती ही गलती थी। जबसे मैं नहीं हूं, तबसे गलती का कोई उपाय न रहा। गलती एक ही है, "मैं' का होना। फिर उस "मैं' से हजार गलतियां पैदा होती हैं। जब तक मैं था, गलती ही गलती थी। ठीक हो कैसे सकता था! जो सही दिखायी पड़ता था, वह भी सही नहीं था। वह भी आभास था। वह भी प्रतीति थी। वह भी मान लेना था, समझा लेना था। तब तो सब गलती ही गलती थी। जबसे मैं न रहा, तबसे गलती करनेवाला ही न रहा। करनेवाला ही न रहा, तो गलती कैसे होगी? तबसे सब ठीक ही ठीक है। क्योंकि तबसे परमात्मा ही परमात्मा है।
तुम जब तक हो, तब तक गलती है। तुम मिटे कि गलती भी गई। और खयाल रखना, जब तक तुम हो, तब तक जो ठीक लगता है वह भी अंतिम निर्णय में गलत सिद्ध होता है। और यह भी खयाल रखना कि जब तुम न बचे, तब जो गलत भी मालूम पड़े वह भी अंतिम निर्णय में सही सिद्ध होता है। जो परमात्मा से होता है, वही ठीक। जो हम अपनी अकड़ में सोचते हैं हमने किया, वही गलत। बस हमारी अकड़ गलत है। और कुछ गलती नहीं। एक ही पाप है। फिर एक पाप के अनेक रूपांतरण हैं, अनेक रूप हैं। एक पाप--मेरा होना, "मैं' का होना।
लुट गये तन के रतन सब
छुट गये मन के सपन सब
तुम मिलो तो जिंदगी फिर
आंख में काजल लगाए
गांव भर रूठा हुआ है
दुश्मनी पर है जमाना
तैश में है रात
हाथों का दिया करता बहाना
हर नजर में है अदावत
हर अधर पर है बगावत
सौंप दूं किस गोद को जा
आंसुओं का यह खजाना
पांव जर्जर, पथ अपरिचित
है चला जाता न किंचित
तुम चलो यदि साथ
तो हर एक छाला मुस्कुराए
तुम मिलो तो जिंदगी फिर
आंख   में   काजल   लगाए
तुम तो हो जब तक, तब तक छाले ही छाले हैं। प्रभु मिल जाये...।
तुम चलो यदि साथ
तो हर एक छाला मुस्कुराए
तुम मिलो तो जिंदगी फिर
आंख   में   काजल   लगाए
प्रभु के मिलन के साथ ही छाले भी फूल बन जाते हैं। शूल भी फूल बन जाते हैं। भूल भी फूल बन जाती है। और जब तक तुम हो, तुम्हारी अकड़ है, दंभ है, दर्प है, यह "मैं' का जहर है, तब तक फूल भी फूल नहीं, कांटे ही हैं। तब तक भूलें तो भूलें हैं ही, जिनको तुम भूलें नहीं समझते वे भी भूलें हैं।
इसे खयाल में रखना, क्योंकि मेरे हिसाब में एक ही भूल है और एक ही सुधार है। मैंने तुम्हारी जिंदगी के गणित को सीधा-साफ और सरल कर दिया है। तुम्हारे गुरुओं ने तुमसे कहा है अब तक कि हजारों भूलें हैं, सब ठीक करनी हैं। एक-एक भूल को ठीक करने बैठोगे, कभी ठीक न कर पाओगे। क्रोध को ठीक करो, तो मोह बचा है। मोह को ठीक करो, तो लोभ बचा है। लोभ को ठीक करो, तो काम बचा है। और जब तक काम को ठीक करने पहुंचे, वर्षों गुजर गये, तब तक क्रोध जो दबा दिया था वह उभर आया। ऐसे चक्कर में घूमते रहोगे। भूलें बहुत हैं, तो फिर आदमी के छुटकारे का कोई उपाय नहीं। आदमी की सामर्थ्य, सीमा है, भूलें अनंत हैं।
नहीं, इस तरह काम न होगा। हमें कुछ गहरा विश्लेषण करना होगा। उस मूल भूल को पकड़ना होगा, जिसके आधार पर सारी भूलों का जाल फैलता है। जड़ को काटना होगा, पत्तों को नहीं। तुम पत्ते काटते रहो, तुम्हारे पत्ते काटने से वृक्ष नष्ट नहीं होता। तुम्हारे पत्ते काटने से तो हो सकता है वृक्ष और सघन हो जाये, क्योंकि वृक्ष के पत्ते काटो, कलम होती है। एक पत्ते की जगह तीन निकल आते हैं।
मैं तुमसे कहता हूं, जड़ काटो। और जड़ अहंकार है। काम, लोभ, मद, मोह, मत्सर, सब अहंकार की जड़ पर खड़े हैं। और मजा यह है कि जैसे जड़ें जमीन में छिपी होती हैं, ऐसा ही अहंकार जमीन में छिपा है, पत्ते सब बाहर हैं। भूलें दिखायी पड़ती हैं, अहंकार दिखायी नहीं पड़ता। जड़ें इसीलिए तो जमीन में छिपी रहती हैं ताकि दिखायी न पड़ें, कोई काट न दे। वृक्ष को काट डालो, कोई फिक्र नहीं, फिर अंकुर आ जायेंगे। जीवन ऐसे नष्ट नहीं होता है। इसीलिए तो वृक्ष होशियारी से अपनी जड़ों को जमीन में छिपाये बैठे हैं।
तुमने बच्चों की कहानियां पढ़ीं, जिनमें यह बात आती है कि किसी राजा ने अपने प्राण तोते में रख दिये। फिर तुम राजा को कितना ही मारो, वह नहीं मरता। जब तक कि तोते की गर्दन न मरोड़ो। अब यह पता कैसे चले कि किसमें रख दिये हैं प्राण, तोते में रखे हैं, कि मैना में रखे हैं, कि कोयल में रखे हैं, कि कहां रखे हैं! तो तुम राजा को मारते रहो, मरता नहीं। क्योंकि उसके प्राण वहां हैं नहीं।
ऐसे ही तुम्हारी सारी बीमारियों ने अपने प्राण अहंकार में रख दिये हैं। जब तक तुम अहंकार की गर्दन न मरोड़ दो, कुछ भी न मरेगा।
तुम पूछते हो, भूलें? भूलें मैंने बहुत कीं। जब तक मैं था, भूलें ही भूलें थीं। तब मैंने एक भी ठीक बात नहीं की। कर ही न सकता था। मूल भूल मौजूद थी, उसी में पत्ते लगते थे। जबसे मैं न रहा, तबसे कोई भूल नहीं हुई। अब हो नहीं सकती। अब करना भी चाहूं तो नहीं हो सकती। पहले ठीक करना भी चाहा था तो गलत हुआ था। अब गलत भी करना चाहूं तो भी ठीक ही होता है। अब गलत होने का उपाय ही न रहा। मूल कट गया। जड़ कट गई।
जड़ पर ही ध्यान देना, जड़ को ही काटना है।


 चौथा प्रश्न: बड़ा प्रसिद्ध पद है कबीर का, "प्रेमगली अति सांकरी तामें दो न समाय।' लेकिन प्रेमगली क्या इतनी चौड़ी नहीं है कि "तामें सर्व समाय'? कृपया समझाएं।

दोनों का एक ही अर्थ है। जहां दो न बचे, वहीं सर्व बचता है। एक और सर्व एक ही अर्थ रखते हैं। जैसे ही एक बचा, वैसे ही सर्व बचा।
तो कबीर का यह कहना कि "प्रेमगली अति सांकरी तामें दो न समाय,' वही अर्थ रखता है। इसको ऐसा भी कह सकते हैं कि प्रेम की गली बहुत विशाल है, तामें सर्व समाय।
लेकिन कबीर ने वैसा कहा नहीं, कारण है। क्योंकि तुम्हारे लिए दूसरा वक्तव्य किसी मतलब का नहीं है। तुम्हारे लिए तो पहला वक्तव्य ही मतलब का है। तुम अभी दो में हो और एक को गिराना है। कबीर जैसे सत्पुरुष जो बोलते हैं, अकारण नहीं बोलते। जिनसे बोलते हैं, उनके लिए कुछ सूत्र है, कुछ इशारा है। कबीर ने जिनसे कहा है, वे दो में खड़े हैं। अभी उनसे सर्व की बात करनी फिजूल है। अभी तो एक ही नहीं हुआ तो सर्व का तो पता ही न चलेगा। अभी तो इतना ही कहना ठीक है कि तुम अभी दो हो और प्रेम की गली बड़ी संकरी है, ये "दो-भाव' छोड़ दो। एक को गिरा दो, एक ही बच रहे। जब एक ही बच रहेगा, तब तुम्हें स्वयं ही पता चलेगा कि यह तो सर्व हो गया। यह तो खोना न हुआ, पाना हो गया। जब बूंद सागर में गिरती है, तो पहले तो यही सोचती होगी कि मिटी, गई, खोयी; गिर कर पाती है कि मैं तो सागर हो गई। पहले लगता था खोना, अब लगता है पाना।
तो दूसरा पद कबीर ने नहीं कहा, जानकर। और दोनों में विरोध नहीं है। दोनों एक ही की तरफ इशारा हैं।

पांचवां प्रश्न: "रसो वै सः।' परमात्मा रसरूप है। यह कथन कृष्ण के मार्ग पर सही है। लेकिन अष्टावक्र के मार्ग पर यह कहां तक मौजूं है?

यह कथन मार्ग से संबंधित नहीं है।
यह कथन परम सत्य का निवेदन है। यह कथन कबीर, कृष्ण, मुहम्मद या महावीर, अष्टावक्र या जरथुस्त्र, इनसे कुछ संबंध नहीं है इस वक्तव्य का। यह वक्तव्य साधनों से संबंधित नहीं है। यह तो साध्य का निर्वचन है--रसो वै सः। वह रसरूप है।
और ध्यान रखना, रसो वै सः, इसका अर्थ यह नहीं है कि परमात्मा रसरूप है, वह रसरूप है। क्योंकि परमात्मा तो सांप्रदायिक शब्द है। जैन राजी न होंगे, बौद्ध राजी न होंगे। फिर परमात्मा के तो अलग-अलग रूप-रंग होंगे। ईसाइयों का परमात्मा कुछ अलग रंग-ढंग का है, मुसलमानों का कुछ अलग रंग-ढंग का, हिंदुओं के तो फिर हजार रंग-ढंग हैं परमात्मा के। परमात्मा में फिर झगड़े खड़े होंगे। और मूल शब्द है--रसो वै सः। वह रसरूप है। वह शब्द ठीक है। वह निर्विकार शब्द है। "दैट', वह, तत्। इसमें फिर किसी मार्ग का कोई संबंध नहीं। सिर्फ इंगित है। और इंगित है परम दशा का कि वह परम दशा रसरूप है।
अब तुम कहते हो, कृष्ण के मार्ग पर सही है, तो तुम गलत समझे। तुम फिर रस का अर्थ ही नहीं समझे। तुम समझे कि कृष्ण वे जो बांसुरी बजाकर गोपियों के साथ नाच रहे हैं, वे रस हैं। तो तुम समझे ही नहीं फिर। यह उस रस की चर्चा नहीं हो रही है। तो तुम्हारे मन में कहीं बांसुरी बजाकर गोपियों को नचाने का भाव होगा। तुम कहीं अपने को धोखा देने में पड़े हो। तो तुमने कहा कि कृष्ण के मार्ग पर सही है। अष्टावक्र के मार्ग पर सही नहीं है। अष्टावक्र तो वैसे ही किसी गोपी को न नचा सकेंगे, नाच भी नहीं सकते, आठ तरफ से अंग टेढ़े हैं--अष्टावक्र! बांसुरी बजेगी भी नहीं और गोपियां आनेवाली भी नहीं। गोपियां तो छोड़ो, गोप भी न आयेंगे। तुम गलत समझे।
यह बांसुरी बजाकर जो नाच चलता, रासलीला होती, उस रस से इसका कोई संबंध नहीं है। स्वभावतः अगर तुम ऐसा समझोगे तो फिर बुद्ध के मार्ग पर क्या होगा? बुद्ध तो बैठे हैं वृक्ष के तले, आंख बंद किये, यहां कैसा रस होगा! महावीर तो खड़े हैं नग्न, न मोर-मुकुट बांधे, न बांसुरी हाथ में, यहां कैसे रस होगा! और चलो इनको भी किसी तरह का होगा; ईसा तो सूली पर लटके, हाथों में खीले ठुके, प्राण जा रहे, यहां कैसे रस होगा! नहीं, तुम समझे नहीं रस का अर्थ।
रस का अगर तुम अर्थ समझो, तो जीसस जिसको कहते हैं "किंग्डम ऑफ गॉड', वह रस की परिभाषा है। जिसको बुद्ध कहते हैं निर्वाण, जहां मैं बिलकुल नहीं बचा, वह रस की परिभाषा है। जिसको महावीर कहते हैं कैवल्यम्, मोक्ष, वह रस की परिभाषा है। परम मुक्ति।
जिसको कबीर कहते हैं आनंद की वर्षा, अमृत की वर्षा, अमि रस बरसे, वह रस की व्याख्या है। रस का अर्थ है, वह परम दशा नीरस नहीं है, वह परम दशा बड़ी रससिक्त है। वह परम दशा उदास नहीं है, उत्सवपूर्ण है, वह परम दशा नाचती हुई है।
लेकिन नाचने का मतलब यह मत समझना कि तुम्हारा शरीर नाचे तो ही। वह परम दशा गुनगुनाती हुई है। भीतर नाच ही नाच है। मीरा बाहर भी नाच रही है, बुद्ध भीतर ही नाच रहे हैं, पर नाच चल रहा है। कृष्ण बांसुरी बजाकर नाच रहे, महावीर बिना बांसुरी, बिना मोरपंख के नाच रहे। कृष्ण का नृत्य तुम्हारी चर्म आंखों से भी देखा जा सकता है, महावीर का नृत्य देखना हो तो भीतर की आंखें खोलनी जरूरी हैं। वहां तुम्हें महावीर नाचते हुए दिखाई पड़ेंगे।
वह परम दशा उत्सव की है, महोत्सव की है। परम प्रेम, परम अमृत, परम आनंद की है; सच्चिदानंद रूप है, इतना ही अर्थ है।
यह परम दशा का इंगित है। यह परम दशा की निर्वचना है। इसका मार्ग से कोई भी संबंध नहीं है। कोई किसी मार्ग से आये, कैसी ही विधियों का उपाय करके आये--पतंजलि से गुजरकर आये कि अष्टावक्र से गुजरकर आये, लेकिन पहुंच गया जो, सिद्ध जो हुआ, वह कहेगा: रसो वै सः, वह रसरूप है।







छठवां प्रश्न:
यही है जिंदगी मेरी
यही है बंदगी मेरी
कि तेरा नाम आया
और गर्दन झुक गई मेरी
ठीक है, शुभ है। जैसा कहा है इस पद में, वैसा ही प्रभु करे तुम्हारे भीतर भी हो। यह पद ही न रहे। पद लिखने की मौज में ही न लिख दिया हो। सुंदर है, सुंदर को कहने का मन होता है। लेकिन स्मरण रखना, सुंदर को कहना तो सुखद है ही, सुंदर हो जाना महासुखद है। रसो वै सः। ऐसा हो जाये--
"यही है जिंदगी मेरी
यही है बंदगी मेरी
कि तेरा नाम आया
और गर्दन झुक गई मेरी'
झुकना आ जाये, तो सब आ गया। झुकना सीख लिया तो कुछ और सीखने को न बचा।
राम, तुम्हारा नाम कंठ में रहे
हृदय जो कुछ भेजो वह सहे
दुख से त्राण नहीं मांगूं
मांगूं केवल शक्ति दुख सहने की
दुर्दिन को भी मान तुम्हारी दया
अकातर ध्यानमग्न रहने की
देख तुम्हारे मृत्युदूत को डरूं नहीं
न्योछावर होने में दुविधा करूं नहीं
तुम चाहो, दूं वही
कृपण हो प्राण नहीं मांगूं
राम, तुम्हारा नाम कंठ में रहे
हृदय जो कुछ भेजो वह सहे
दुख से त्राण नहीं मांगूं
ऐसा हो। इसका स्मरण रखना। क्योंकि अच्छे-अच्छे शब्दों में खो जाने का डर है। कविताएं मधुर होती हैं। कविताओं का अपना एक रस है, अपना मनोरंजन है। लेकिन जब तक हृदय वैसा न हो जाये--काव्यसिक्त--तब तक रुकना मत।
तुमने कभी देखा, किसी की कविता पढ़कर मन डांवांडोल हो जाता है। डोल-डोल उठता है। लेकिन उस कवि से मिलने जाओ और बड़ी बेचैनी होती है। वह कोई साधारण आदमी से भी गया-बीता आदमी मालूम होता है। तुम चकित होते हो, कैसे इस अभागे को ऐसी कविता का दान मिला! ऐसा अक्सर हो जाता है। क्योंकि कवि जो कह रहा है, उसकी झलकें भर आती हैं उसे, कभी-कभी छलांग लगती है आकाश में, फिर जमीन पर पड़ जाता है।
यही तो कवि और ऋषि का फर्क है। कवि छलांग लगाता है, एक क्षण आकाश में उठ जाता है, फिर जमीन का गुरुत्वाकर्षण खींच लेता है, फिर जमीन पर गिर जाता है। अक्सर ऐसा होता है कि ज्यादा ऊंची छलांग लगायी तो हाथ-पैर टूट जाते हैं जमीन पर गिरकर। ज्यादा उचके-कूदे, खाई-खड्ड में गिर जाते हैं। समतल जमीन तक खो जाती है। तो कवि अक्सर ऐसी दशा में होता है-- लंगड़ा-लूला, हाथ-पांव तोड़े, अपंग। उसकी कविताओं में तो हो सकता है परमात्मा की बात हो और उसका मुंह सूंघो तो शराब की बास आये। उसके गीत तो ऐसे हो सकते हैं कि उपनिषदों को मात करें, और उसका जीवन ऐसा फीका हो सकता है जहां कभी कोई फूल खिले, इसका भरोसा ही न आये।
ऋषि और कवि का यही फर्क है। ऋषि जो कहता है, वही उसका जीवन है। सच तो यह है, कवि का जो जीवन नहीं है उससे ज्यादा वह कह देता है। और ऋषि का जो जीवन है, उससे वह हमेशा कम कह पाता है। उतना नहीं कह पाता। क्योंकि शब्द में उतना अटता नहीं। है उसके पास बहुत, शब्द छोटे पड़ जाते हैं। कवि तो अक्सर अपने जीवन से ज्यादा कह देता है और ऋषि अक्सर अपने जीवन से बहुत कम कह पाता है। जीवन तो सागर है; जो कह पाता है वह बूंद ही रह जाती है।
कविता में मत खोना। ऐसी तुम्हारी जीवन-दशा बने, इसका स्मरण रखना।

सातवां प्रश्न: भीतर कोई अंकुर जन्म ले चुका है, जो बीज के टूटने की प्रतीक्षा कर रहा है। कब वह बीज टूटेगा और धरती में मिलेगा? कब ये कान तुझे सुनने में समर्थ होंगे? भगवान, मुझ पर सदा आपकी विजय हो!

संत अगस्तीन ने अपनी एक प्रार्थना में कहा है कि प्रभु, मैं न जीतूं, इसका तू ध्यान रखना। तू ही जीते, इसका तू ध्यान रखना। और ऐसा भी नहीं है कि मैं जीतने की कोशिश न करूंगा। मैं तो कोशिश करूंगा, लेकिन भूलकर भी मुझे जीतने मत देना। जीते तू ही। मेरी कोशिश अकारथ जाये। और फिर भी मैं तुझसे कहता हूं कि मेरी प्रार्थना तो ठीक, लेकिन मैं कोशिश करूंगा, मैं जीतने की कोशिश करूंगा; मैं तुझसे लडूंगा, मैं तुझे हराने के उपाय करूंगा, लेकिन तू दया मत करना।          
ठीक बात कही है। ठीक बात आनंद ने भी कही है--भगवान, मुझ पर सदा आपकी विजय हो! स्वाभाविक है कि तुम जीतना चाहो। गुरु से भी शिष्य जीतना चाहता है। जीत की ऐसी प्रबल आकांक्षा है, अहंकार का ऐसा रस है। लेकिन जीत न पाओ, यही तुम्हारा सौभाग्य है। जीत गये तो हार गये। हार गये तो जीत गये।
काबा जाओ, काशी जाओ
गंगा में डुबकियां लगाओ
दिल का देवालय गंदा तो
फंदा सारा धरम-करम है
इस दिशा से उस दिशा तक
सब जगह है प्यार फैला
सब जगह है एक हलचल
सब जगह है एक मेला
है नहीं कोई न जिसके
शीश हो छाया किसी की
एक मैं ही जो यहां
बिलकुल अपरिचित औ' अकेला
सांस तक अपनी अजानी
लाश तक अपनी बिरानी
तुम गहो यदि बांह तो
सब स्वर्ग बांहों में समाये
तुम मिलो तो जिंदगी फिर
आंख    में    काजल    लगाए
शिष्य होने का अर्थ है, दे दिया अपना हाथ गुरु के हाथ में। शिष्य होने का अर्थ है, दे दिया अपना हाथ गुरु के हाथ में इस भरोसे कि गुरु के हाथ में परमात्मा का हाथ छिपा है। शिष्य का अर्थ है कि परमात्मा तो दिखायी नहीं पड़ता, गुरु दिखायी पड़ता है, उसी के झरोखे से परमात्मा की थोड़ी झलक आती है, समर्पण किया। फिर भी अहंकार लड़ाई लड़ता है, आखिरी दम तक लड़ता है। आखिरी दम तक चेष्टा करता है कि हारूं न। स्मरण रखना इसे। यह प्रार्थना तुम्हारे मन में गूंजती ही रहे।
तुम गहो यदि बांह तो
सब स्वर्ग बांहों में समाए
तुम मिलो तो जिंदगी फिर
आंख में काजल लगाए
काबा जाओ, काशी जाओ
गंगा में डुबकियां लगाओ
दिल का देवालय गंदा तो
फंदा    सारा    धरम-करम    है
और दिल तब तक गंदा रहता है जब तक अहंकार बसा रहता है। हार का अर्थ है, अहंकार का मिट जाना। हार का अर्थ है, तुम्हारा न हो जाना, शून्य हो जाना। उसमें ही तुम्हारी विजय है।
पूछते हो, "भीतर कोई अंकुर जन्म ले चुका है जो बीज के टूटने की प्रतीक्षा कर रहा है। कब वह टूटेगा और धरती में मिलेगा?'
प्रतीक्षा करो और धैर्य से प्रतीक्षा करो। जल्दी मत करना। जल्दी में अक्सर ऐसा हो जाता है कि आदमी कल्पना करने लगता है कि टूट गया बीज, वृक्ष लग गया, फूल भी खिलने लगे। कल्पना मत कर लेना। कल्पना कर ली कि चूक गये। आते-आते चूक गये। घर पहुंचते-पहुंचते चूक गये। कल्पना का जाल फैला लिया, तो फिर असली वृक्ष कभी पैदा न हो सकेगा। कल्पना मत कर लेना। और अधैर्य में आदमी कल्पना करने लगता है।
तुमने देखा? अगर तुम बहुत अधैर्य से किसी की प्रतीक्षा कर रहे हो और रास्ते पर सूखे पत्ते हवा में उड़ जाते, तुम दौड़कर बाहर आ जाते--शायद आ गया! तुम किसी की प्रतीक्षा कर रहे हो, हवा का झोंका द्वार पर दस्तक देता, तुम भागे आ जाते कि शायद आ गया! तुम हजार बार कल्पना को आरोपित कर लेते हो। नहीं, अधैर्य मत करना। बड़ी धैर्यपूर्ण प्रतीक्षा!
अब यह बड़े समझने की बात है, अधैर्य ही होता है प्रतीक्षा में छिपा। या तो प्रतीक्षा नहीं होती, तो अधैर्य नहीं होता। प्रतीक्षा होती है तो अधैर्य होता है, यह झंझट है। और होना ऐसा चाहिए कि प्रतीक्षा हो और अधैर्य न हो। प्रतीक्षा+धैर्य, यही प्रार्थना का अर्थ है। कहना, जब तुझे आना हो आना। जब तुझे आना हो, अनंत काल में आना हो तो आना; क्योंकि जो तू समय चुनेगा वही ठीक होगा। मैं कैसे चुनूं? मैं कौन हूं? मैं कैसे जानूं कि कब ठीक क्षण आ गया? कब ठीक मौसम आ गया? कब ऋतु है खिलने की? तू जब आये, तब आना। मैं कितना ही पुकारूं, बेमौसम मत आना। बिना ऋतु के मत आना। जब तुझे आना हो तभी आना। तेरी मर्जी ही सदा पूरी हो। और मैं प्रतीक्षा करूंगा। थकूंगा नहीं, हारूंगा नहीं, उदास न होऊंगा, आशा-रहित न होऊंगा, निराश न होऊंगा, हताश न होऊंगा, प्रतीक्षा करूंगा। आज जैसी प्रतीक्षा है, वैसी ही कल, वैसी ही परसों, वैसी जन्मों-जन्मों तक होगी। मेरी प्रतीक्षा बासी न पड़ेगी। मैं रोज सुबह उसी उत्साह से उठूंगा और प्रतीक्षा करूंगा।
तो शायद आज ही आगमन हो जाये।
इतनी जहां गहन प्रतीक्षा है, वहां इतनी ही गहन प्रार्थना हो जाती है। उसी प्रार्थना में आगमन है। जहां प्रार्थना पूर्ण हो गई, वहां परमात्मा आ जाता है।






आखिरी प्रश्न: भगवान, अष्टावक्र-गीता पर आपको सुनकर अब तो सभी आधार धराशायी होते जा रहे हैं। बुद्धपुरुष और बुद्धपुरुषों के दिये सूत्र भी एक-एक करके छूटते जा रहे हैं। खोते जा रहे हैं। बड़ी आश्चर्य पूर्ण घड़ियां हैं। अहोभाव, प्रणाम!

नरेंद्र ने पूछा है।
एक तो यह प्रश्न है नहीं, इसलिए जैसा प्रश्न वैसा उत्तर। यह रहा उत्तर--
हो आयी देह-देहरी सुरभीली
ये स्यात कंत आने के लक्षण हैं
उभरी दर्पण पर रेखा सिंदूरी
नूपुर के स्वर बिखरे दालानों में
हो गई देह कस्तूरी कस्तूरी
हो आयीं जूड़े की अलकें ढीली
ये विरह अंत आने के लक्षण हैं
आंगन की धूप हो गई सोनीली
ये तो वसंत आने के लक्षण हैं!
अहोभाव आ गया, तो वसंत आ गया। अहोभाव आ गया, तो हो गई देह कस्तूरी-कस्तूरी। अहोभाव आ गया--
हो गई देह-देहरी सुरभीली
ये स्यात कंत आने के लक्षण हैं
तो प्यारा आता ही होगा। अहोभाव उस प्यारे के आने की पगध्वनि है।
उभरी दर्पण पर रेखा सिंदूरी
नूपुर के स्वर बिखरे दालानों में
अहोभाव--उसके नूपुर। अहोभाव--उसके आने की हवा का झोंका। अहोभाव--उसकी पहली किरणें।
हो   गई   देह   कस्तूरी-कस्तूरी
अहोभाव--उसके आने की सुगंध। जैसे तुम आते हो कभी बगीचे के करीब और हवाएं ठंडी हो जाती हैं और हवाएं सुरभीली हो जाती हैं और हवाओं में सुवास आ जाती है। तुम्हें दिखायी भी नहीं पड़ता अभी बगीचा लेकिन फिर भी तुम जानते हो दिशा ठीक है। अहोभाव ठीक दिशा का लक्षण है।
हो आयीं जूड़े की अलकें ढीली
ये विरह अंत आने के लक्षण हैं
प्यारा बहुत करीब है और विरह का अंत करीब आ रहा है।
आंगन की धूप हो गई सोनीली
ये तो वसंत आने के लक्षण हैं
अहोभाव वसंत है अध्यात्म का।

आज इतना ही।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें