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गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

एक ओंकार सतनाम (गुरू नानक) -प्रवचन--09


आपे बीजि आपे ही खाहु—(प्रवचन—नौवां)

पउड़ी: 20

भरीए हथु पैरु तनु देह। पाणी धोतै उतरसु खेह।।
मूत पलोती कपड़ होइ। दे साबूणु लईऐ ओहु धोइ।।
भरीऐ मति पापा के संगि। ओहु धोपै नावै कै रंगि।।
पुंनी पापी आखणु नाहि। करि करि करणा लिखि लै जाहु।।
आपे बीजि आपे ही खाहु। 'नानक' हुकमी आवहु जाहु।।

पउड़ी: 21

तीरथ तपु दइआ दतु दानु। जे को पावै तिलका मानु।।
सुणिआ मंनिया मनि कीता भाउ। अंतरगति तीरथि मलि नाउ।।
सभि गुणु तेरे मैं नाही कोई। विणु गुण कीते भगति न होइ।।
सुअसति आथि बाणी बरमाउ। सति सुहाणु सदा मनि चाउ।।
कवणु सुवेला वखतु कवणु। कवणु थिति कवणु वारु।।
कवणि सि रुती माहु। कवणु जितु होआ आकारु।।
वेल न पाईआ पंडती। जि होवै लेखु पुराणु।।
वखतु न पाइओ कादीआ। जि लिखनि लेखु कुराणु।।
थिति वारू ना जोगी जाणै। रुति माहु न कोई।।
जा करता सिरठी कउ साजै। आपे जाणै सोई।।
किव करि आखा किव सालाही। किउ वरनी किव जाणा।।
'नानक' आखणि सभु को आखै। इकदू इकु सिआणा।।
बडा साहिबु बडी नाई। कीता जा का होवै।।
'नानक' जे को आपौ जाणै। अगै गइया न सोहै।।



र्म आंतरिक स्नान है। यात्रा करते हैं, मार्ग से गुजरते हैं, तन पर, कपड़ों पर धूल जम जाती है, आसान है धो लेना। लेकिन समय में यात्रा करते हैं, तब मन पर धूल जमती है। उतना आसान नहीं है, जितना शरीर को स्वच्छ कर लेना। क्योंकि शरीर बाहर है, धूल भी बाहर है, पानी भी बाहर उपलब्ध है। मन भीतर है, धूल भी भीतर है। भीतर का कोई पानी उपलब्ध करना पड़े।
एक क्षण भी गुजरता है तो भीतर धूल इकट्ठी हो रही है। कुछ न भी करो, खाली भी बैठे रहो, तो भी धूल इकट्ठी हो रही है। अगर एक आदमी चुपचाप बैठा रहे, कुछ काम भी न करे, तो भी चौबीस घंटे के बाद स्नान की जरूरत पैदा हो जाएगी। मन तो चौबीस घंटे कुछ न कुछ कर ही रहा है। मन के न करने की अवस्था तो बड़ी दुर्लभ है। तो मन के हर कृत्य से धूल इकट्ठी हो रही है। और धूल भीतर इकट्ठी हो रही है। फिर तुम कितना ही स्नान बाहर करो। बाहर का जल भीतर की धूल को न धो सकेगा। भीतर का जल खोजना पड़े।
उस जल के संबंध में ही ये सूत्र हैं। और ये सूत्र बड़े कीमती हैं। ठीक से समझा और भीतर का सरोवर पहचान में आ गया, तो जीवन के रूपांतरण की कुंजी हाथ लग जाती है। और अब तक जितनी कुंजियां तुम्हारे पास हैं, कोई भी लगती नहीं। लग ही जाती तो तुम खुद ही नानक हो जाते। फिर नानक को समझने को कुछ नहीं बचता। कुंजियां तो तुम बहुत रखे हुए हो, उनमें से कोई लगती नहीं। लेकिन अहंकार के कारण तुम यह भी स्वीकार नहीं कर पाते कि मेरी कुंजियां काम नहीं करतीं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक घर में नौकर था। एक दिन उसने अपने मालिक से कहा, अब बहुत हो गया, आज मुझे आप छुट्टी दे दें। सीमा होती है हर चीज की! और आपको मुझ पर रत्तीभर भरोसा नहीं। अब और नहीं सह सकता इस संदेह की स्थिति को। मालिक ने कहा, क्या कहते हो नसरुद्दीन! भरोसा और तुम पर नहीं? तिजोड़ी की चाबियां तक यहां टेबल पर पड़ी रहती हैं। नसरुद्दीन ने कहा, चाबियां जरूर पड़ी रहती हैं, लगती उनमें से एक भी नहीं।
तुम्हारे पास भी चाबियां कम नहीं हैं, जानकारी बहुत है। और जब जानकारी लग जाती है, तब ज्ञान हो जाती है। और जब तक लगती नहीं, तब तक बोझ है, चाबियां तुम ढोते रहो। पूछना जरूरी है कि उनमें से कोई लगती है? जिंदगी का द्वार खुलता है? प्रकाश आता है? आनंद जन्मता है? किसी अलौकिक के स्वर की ध्वनि सुनायी पड़ती है? कोई मग्नता, कोई धन्यता, कोई ऐसा एक क्षण भी आता है जब तुम धन्यवाद दे सको परमात्मा को कि तूने मुझे पैदा किया, तेरी बड़ी कृपा है, अनुकंपा है?
शिकायत तो अनंत हैं। धन्यवाद एक बार नहीं उठता। उठे भी कैसे? कोई चाबी लगती ही नहीं। इन चाबियों को हटा दो। नानक उस चाबी की बात करते हैं जो लगती है। फिर नानक ही कहते हों ऐसा नहीं, बुद्ध ने भी वही कहा है, महावीर ने भी वही कहा है, जीसस ने भी वही कहा है। बड़े आश्चर्य की बात है कि जो चाबियां लगती नहीं, वे तो तुम ढोते हो; और जो लगती हैं--और लगती हैं कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि एक ही चाबी है, 'मास्टर की!' हर ताले को खोल देती है जीवन के। उस 'मास्टर की' की चर्चा सनातन से चल रही है। बस, उसको तुम छोड़ कर बाकी चाबियां सब ढोते हो।
क्या कारण होगा? जिन चाबियों को तुम ढोते हो, उनसे तुम्हें अपने को रूपांतरित करने की कोई झंझट नहीं होती। वे लगती ही नहीं हैं। तुम जैसे हो वैसे ही बने रहते हो। खतरा नहीं है। न कुछ खोना है, न कुछ बदलना है। और चाबियां हिलाने का और चाबियों की ध्वनि करने का मजा अलग चलता रहता है। चाबियां भी हैं, यह भी मजा तुम लेते रहते हो, और जीवन को रूपांतरित करने की जो कठिन प्रक्रिया है, उससे भी बच जाते हो।
नानक, बुद्ध, महावीर को तुम सुनते नहीं। क्योंकि उनकी चाबी में खतरा है। वह लगती है। और लगी कि तुम वही न रह सकोगे जैसे तुम हो। और तुमने बहुत कुछ इनवेस्ट कर रखा है। जैसे तुम हो, उसमें तुमने बहुत कुछ दांव पर लगा रखा है। अगर तुम बदले तो तुम्हारा अब तक का सब श्रम व्यर्थ हुआ। अब तक तुमने जो भवन बनाए, वे सब कागज के पत्तों की तरह गिर जाएंगे। अब तक तुमने जो नावें चलायीं, वे सब डूब जाएंगी। और अब तक तुमने जो-जो संजोया मन में, जो-जो सपने देखे, वे सब झूठे सिद्ध होंगे। चाबी के लगते ही तुम्हारा सारा अतीत झूठा सिद्ध होगा।
तुम्हारा अहंकार यह मानने को राजी नहीं होता। तुम्हारा अहंकार यह कहता है, हो सकता है मैं परम ज्ञानी न होऊं, लेकिन ज्ञानी तो हूं ही। हो सकता है, मैंने थोड़ी-बहुत भूलें की हों, लेकिन सभी कुछ गलत किया है, यह तो नहीं हो सकता। थोड़ी-बहुत भूलें मुझ से हुई होंगी, भूलें किससे नहीं होतीं? तुम हजार ढंग से अपने को समझाते हो। टु इर इज ह्यूमन--भूल करना तो मनुष्य का स्वभाव है, भूल तो होती ही है।
लेकिन एक बात तुम कभी नहीं मानते हो कि तुम अज्ञानी हो। भूल होती हैं, वह कृत्य है। लेकिन तुम अज्ञानी नहीं हो, तुम तो ज्ञानी हो। ज्ञानी से भी भूलें हो जाती हैं। जानकार भी भटक जाता है। होशियार भी कभी गङ्ढे में गिर जाता है। आंख वाला भी कभी दीवाल से टकरा जाता है, लेकिन तुम अंधे नहीं हो।
इसे थोड़ा ठीक से समझो। तुम जब भी कुछ भूल करते हो, तुम यह कहते हो, यह बुरा काम हो गया। कर्ता को तुम बचा लेते हो, कर्म को तुम दोषी ठहरा देते हो। तुम्हें क्रोध आ गया, तुम कहते हो, बड़ी बुरी बात हुई कि क्रोध आ गया। तुम यह नहीं कहते कि मैं क्रोधी हूं। तुम कहते हो कि क्रोध एक कृत्य है, जो हो गया संयोगवशात। परिस्थिति ऐसी थी, जरूरी था। न करते तो नुकसान होता। दूसरे के हित के लिए करना जरूरी था। तुम यह कभी नहीं कहते कि मैं क्रोधी हूं। तुम कहते हो, कभी-कभी क्रोध हो जाता है, भूल होती है। लेकिन कर्ता को तुम बचाए जाते हो। कर्मों में कहीं-कहीं गलतियां होती हैं, लेकिन कर्ता तो बिलकुल ठीक है।
वही तुम्हारा अहंकार है। और इसलिए तुम असली चाबी से बचते हो। क्योंकि असली चाबी लगते ही, ताला खुलते ही, जो पहली चीज गिर पड़ती है जीवन से, वह अहंकार है। तुम तत्क्षण ना कुछ हो जाते हो। क्योंकि तुमने अब तक जो कमाया, वह कचरा सिद्ध होता है। और अब तक तुमने जो इकट्ठा किया, वह असार सिद्ध होता है। उसके साथ ही तुम गिर जाते हो। चाबी के लगने का अर्थ है, तुम मिटे। और इसलिए तुम असली चाबी से बचते हो।
रवींद्रनाथ ने एक बहुत मधुर कविता लिखी है और बड़ी अर्थपूर्ण है। लिखा है कि बहुत-बहुत जन्मों से परमात्मा को खोजता था। न मालूम कितने पंथों और मार्गों पर, न मालूम कितने द्वारों पर दस्तक दी, न मालूम कितने गुरुओं की सेवा की, न मालूम कितने योगत्तप किए। और फिर एक दिन अंततः परमात्मा के द्वार पर पहुंच गया, सफल हुआ। कभी-कभी परमात्मा की झलक मिली थी पहले भी, पर झलक मिलती थी किसी दूर तारे के पास। और जब तक मैं वहां पहुंचता, वह जा चुका होता। लेकिन आज तो ठीक उसके घर तक पहुंच गया। तख्ती भी ठीक से पढ़ ली कि उसी का घर है। सीढ़ियां चढ़ गया, बड़ा आनंदित था कि मंजिल पूरी हो गयी। सांकल हाथ में ले ली, खटखटाने को ही था...।
तभी एक भय मन में समा गया कि अगर द्वार खुल गया तो फिर? फिर क्या करूंगा? और अगर परमात्मा मिल गया तो फिर? फिर क्या करूंगा? अब तक जीवन का एक ही तो लक्ष्य था परमात्मा को पाना। फिर सब लक्ष्य खो जाएगा। और अब तक एक ही तो धुन थी, व्यस्तता थी, वह सब नष्ट हो जाएगी। और अगर परमात्मा मिल गया तो फिर? फिर न कुछ करने को बचा, न कोई भविष्य बचा, न कोई यात्रा बची, न अहंकार के लिए कोई सुविधा बची कि कुछ पाऊं।
भय ने कंपा दिया। चुपचाप सांकल हाथ से छोड़ दी। इतनी धीमे छोड़ी कि कहीं आकस्मिक रूप से बज न जाए। कहीं वह द्वार खोल ही न दे। और फिर जूते उतार लिए पैर से, क्योंकि अब सीढ़ियां उतरना जूते पहने खतरनाक था। जरा सी आवाज, कौन जाने द्वार खुल जाए! तो जूते हाथ में ले कर जो भागा हूं, तो फिर लौट कर नहीं देखा।
और कविता का आखिरी हिस्सा है, कि अब भी उसका घर खोजता हूं। तुम मुझे अलग-अलग रास्तों पर उसे खोजता हुआ पाओगे! और मुझे उसका घर पता है। अब भी पूछता हूं लोगों से कि उसका पता क्या है? और मुझे उसका पता मालूम है। और अब भी खोजता हूं। दूर कहीं चांदत्तारों के पास उसकी झलक अब भी मिलती है। लेकिन अब मैं आश्वस्त हूं। मैं जब तक वहां पहुंचता हूं वह कहीं और जा चुका होता है। अब मैं सब जगह खोजता हूं, सिर्फ एक जगह छोड़ कर--जहां उसका घर है। उस जगह भर मैं भूल कर नहीं जाता। उससे भर बचता हूं।
यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है। और अगर तुम ठीक से समझोगे तो यही तुम्हारी दशा है। तुम यह भूल कर मत कहना कि परमात्मा का तुम्हें पता नहीं है। क्योंकि यह हो नहीं सकता। वह सब जगह मौजूद है। यह कैसे हो सकता है कि तुम्हें उसका पता न हो? यह भूल कर मत कहना कि चाबी का तुम्हें पता नहीं है, इसलिए ताला बंद है। चाबी तुम्हें हजारों बार दी गयी है। तुम उसे हमेशा भूल जाते हो। तुम उसे कहीं रखा छोड़ आते हो। तुम अचेतन रूप से बचने की कोशिश कर रहे हो। और अगर यह दुविधा साफ न हो जाए, तो तुम एक हाथ से उसे खोजते हो, दूसरे हाथ से खोते हो। एक पैर उसकी तरफ उठाते हो, दूसरा उसके विपरीत उठाते हो।
तुम खोजने का बहाना भी जारी रखना चाहते हो। क्योंकि उससे भी बड़ी तृप्ति मिलती है कि मैं परमात्मा को खोज रहा हूं। मैं कोई साधारण मनुष्य नहीं हूं। मैं सत्य को खोज रहा हूं, मैं क्षुद्र नहीं हूं। बाजारों में जो धन खोज रहे हैं, उन जैसा नहीं हूं। राजनीति में जो पद खोज रहे हैं, उन जैसा नहीं हूं। मैं सत्य खोज रहा हूं। धर्म खोज रहा हूं। परमात्मा खोज रहा हूं।
ये शब्द भी तुम्हारे अहंकार की सजावट हो गए हैं। इनसे भी तुम अपने को सजाते हो, मिटाते नहीं। इनसे भी तुम्हें और रंग आता है। तुम्हारी अस्मिता को और जोड़ मिलता है। तुम छोटे-मोटे आदमी नहीं रह जाते, तुम साधक हो। तुम यात्री हो उस परमात्मा के मार्ग के। जब कि दूसरे लोग क्षुद्रताओं में उलझे हैं। छोटे-मोटे घरों में, छोटे-मोटे धंधों में, छोटे-मोटे ठीकरों में लगे हैं। जब दूसरे लोग क्षुद्र के साथ जुड़े हैं, तुमने विराट से अपना नाता जोड़ने की कोशिश की है।
इसलिए तुम यह भी कहे जाते हो कि मैं उसे खोजता हूं। और भीतर से तुम बचते भी हो। इस द्वंद्व को अगर न समझोगे तो तुम उसे कभी न खोज पाओगे।
यह तो ऐसा है जैसे कोई आदमी मकान बनाए, दिन में बनाए और रात मिटा दे। फिर दूसरे दिन सुबह शुरू कर दे। या एक हाथ से तो ईंट रखे और दूसरे से खींचता जाए। या दो मजदूर लगा ले कि एक तो ईंट जमाए और दूसरा उखाड़े। ऐसे आदमी का भवन कब बन पाएगा? और अनंत जन्मों से तुम बना रहे हो। तुम्हारा भवन भी बन नहीं पाया है। जरूर कहीं न कहीं कोई बुनियादी ऐसी बात हो रही है, जिसके कारण तुम दो विपरीत काम एक साथ कर रहे हो।
तो तुम झूठी चाबियां लटकाए फिरते हो। उससे ताले खुलते भी नहीं। तुम तीर्थों में स्नान करते हो, उससे मन धुलता भी नहीं। तुम मंदिर में पूजा करते हो, उससे पूजा होती ही नहीं। तुम फूल चढ़ाते हो, अपने को नहीं। तुम दान-दक्षिणा दे देते हो। तुम छोटा-मोटा धार्मिक कृत्य कर लेते हो, और उसकी ओट में तुम अपने को बचा लेते हो।
ध्यान रहे, तुम मिटोगे तो ही शुद्ध हो सकोगे। इसलिए ऐसा जल चाहिए जो तुम्हें मिटा दे। जो तुम्हें बचाए न। उसी जल की चर्चा है। समझने की कोशिश करें।
'यदि हाथ-पैर और शरीर के दूसरे अंगों में धूल भर जाए, तो पानी से धोने से मैल साफ हो जाता है। यदि मूत्र से कपड़े अशुद्ध हो जाएं, तो साबुन से धो कर उन्हें साफ कर लिया जाता है। वैसे ही यदि बुद्धि पापों से भरी हो, तो वह नाम के प्रेम से, प्रेम के रंग से शुद्ध की जा सकती है।'
भरीए हथु पैरु तनु देह। पाणी धोतै उतरसु खेह।।
मूत पलोती कपड़ होइ। दे साबूणु लईऐ ओहु धोइ।।
भरीऐ मति पापा के संगि। ओहु धोपै नावै कै रंगि।।
'प्रेम के रंग से...।'
यह प्रेम शब्द अत्यधिक महत्वपूर्ण है। परमात्मा के बाद प्रेम से ज्यादा महत्वपूर्ण और कोई शब्द नहीं है। इस प्रेम शब्द को थोड़ा समझें।
नानक कहते हैं कि प्रेम के रंग में जो रंग जाता है, उसके भीतर के पाप धुल जाते हैं।
प्रेम शब्द तो हम जानते ही हैं। हम कहेंगे, यह भी कोई कुंजी हुई! यह शब्द तो परिचित है। शब्द के परिचय से कुछ भी न होगा। तुमने भाषाकोश से शब्द सीखा है। तुमने जीवन के कोश से नहीं सीखा। और भाषाकोश में प्रेम के अर्थ लिखे हैं। उन अर्थों से प्रेम का कोई संबंध नहीं। जीवन के कोश में जहां तुम्हारे अनुभव से प्रेम उपजता है, तब उसकी जीवंतता और है, उसकी अग्नि और है। जैसे भाषाकोश में लिखा है शब्द, अग्नि; उससे तुम जल न सकोगे। और लिखा है, जल; उससे तुम्हारी प्यास तृप्त न होगी। वैसे ही भाषाकोश में लिखे प्रेम को अगर तुमने समझा, तो तुम्हारे आंतरिक पाप न धुल सकेंगे।
प्रेम तो एक अग्नि है। और जैसे सोना निखर जाता है अग्नि से गुजर कर, वही बचता है जो बचने योग्य है, जो बचाने योग्य है, वह जल जाता है जो कचरा था, ऐसे ही प्रेम की अग्नि से गुजर कर तुम में जो व्यर्थ है वह जल जाता है। जो सार्थक है वह बच जाता है। तुम्हारे भीतर जो-जो पाप है वह खो जाता है, जो-जो पुण्य है वह बच जाता है। शुद्ध निखरा हुआ पुण्य तुम हो जाते हो।
तो प्रेम को ठीक से समझ लें। पहली तो बात कि प्रेम और पाप विपरीत होने चाहिए। तभी प्रेम से पाप मिट सकेगा। तुमने कभी इस तरह शायद सोचा न हो कि प्रेम और पाप दुनिया में गहरी से गहरी विरोधी स्थितियां हैं। क्योंकि जब भी तुम पाप करते हो, तभी प्रेम नहीं होता है इसीलिए कर पाते हो। सभी पाप प्रेम के अभाव से पैदा होते हैं। अगर प्रेम हो तो पाप असंभव है।
इसलिए तो महावीर कहते हैं, अहिंसा! अहिंसा का अर्थ है, प्रेम। बुद्ध कहते हैं, करुणा! करुणा का अर्थ है, प्रेम। और जीसस का तो वचन साफ है, लव इज गाड। वह तो कहते हैं, तुम ईश्वर की बात ही छोड़ दो, प्रेम ही परमात्मा है।
और संत अगस्तीन से किसी ने पूछा कि मुझे संक्षिप्त में बता दें, सार क्या है धर्म का? पापों से कैसे बचूं? और पाप तो अनेक हैं और जीवन छोटा है! उस आदमी ने बड़ी ठीक बात पूछी। उसने कहा कि जीवन बहुत छोटा है, पाप अनेक हैं। और एक-एक को छोड़ते बैठा रहा तो मुझे भरोसा नहीं कि छूट पाएगा। जीवन चुक जाएगा। तो मुझे कुछ कुंजी ऐसी दे दें कि एक से सब खुल जाए।
तो संत अगस्तीन ने कहा कि फिर अगर एक ही कुंजी चाहिए तो प्रेम। तुम प्रेम करो और शेष की चिंता छोड़ दो। क्योंकि जिसने प्रेम किया उससे पाप न होगा। इसलिए 'मास्टर की' है। सभी ताले खुल जाते हैं।
तुम चोरी कर सकते हो, क्योंकि तुम जिसकी चोरी कर रहे हो उसके प्रति तुम्हारे मन में कोई प्रेम नहीं है। तुम किसी की हत्या कर सकते हो, क्योंकि जिसकी तुम हत्या कर रहे हो उसके प्रति तुम्हारे मन में कोई प्रेम नहीं। तुम धोखा दे सकते हो, बेईमानी कर सकते हो, सिर्फ इसलिए कि प्रेम का अभाव है। समस्त पाप प्रेम की गैर-मौजूदगी में पैदा होते हैं। जैसे प्रकाश न हो तो अंधेरे घर में सांप, बिच्छू, चोर, बेईमान, लुटेरे सभी का आगमन हो जाता है। मकड़ियां जाले बुन लेती हैं। सांप अपने घर बना लेते हैं। चमगादड़ निवास कर लेते हैं। रोशनी आ जाए, सब धीरे-धीरे विदा होने लगते हैं।
प्रेम रोशनी है। और तुम्हारे जीवन में प्रेम का कोई भी दीया नहीं जलता, इसलिए पाप है। पाप के पास कोई विधायक ऊर्जा नहीं है। कोई पाजिटिव एनर्जी नहीं है। पाप सिर्फ नकारात्मक है। वह सिर्फ अभाव है। तुम कर पाते हो, क्योंकि जो तुम्हारे भीतर होना था वह नहीं हो पाया।
थोड़ा समझें। तुम क्रोध करते हो, और सारे धर्म-शास्त्र कहते हैं क्रोध मत करो। लेकिन अगर तुम्हारी जीवन-ऊर्जा का बहाव प्रेम की तरफ न हो तो तुम करोगे भी क्या? क्रोध करना ही पड़ेगा। क्योंकि क्रोध, ठीक से समझो तो वही प्रेम है, जो मार्ग नहीं खोज पाया। वही ऊर्जा जो फूल नहीं बन पायी, कांटा बन गयी है। प्रेम है सृजन। और अगर तुम्हारे जीवन में सृजनात्मकता, क्रिएटीविटी न हो पाए, तो तुम पाओगे कि तुम्हारी जीवन-ऊर्जा विध्वंसात्मक हो गयी, डिस्ट्रक्टिव हो गयी।
तुम्हारे संतों में और तुम्हारे शैतानों में जो फर्क है, वह इतना ही है कि एक की जीवन-ऊर्जा विध्वंस बन गयी है और एक की जीवन-ऊर्जा सृजन बन गयी है। तो जो आदमी भी सृजन कर सकता है, वह शैतान नहीं हो सकता। और जो आदमी भी सृजन नहीं करता, वह लाख अपने को समझाए कि संत है, वह संत नहीं हो सकता। क्योंकि ऊर्जा का क्या होगा? जीवन-शक्ति है, उस शक्ति का तुम क्या करोगे? कुछ होना चाहिए। अगर तुम प्रेम करने लगो तो तुमने उसी शक्ति के लिए नयी नहरें खोद दीं। अगर तुम्हारे जीवन में कहीं प्रेम न हो तो तुम्हारी सारी जीवन-शक्ति क्या करेगी? तोड़ेगी, फोड़ेगी, मिटाएगी। अगर तुम बनाने में न लगा सके तो मिटाने में लगोगे। पुण्य जीवन-ऊर्जा की विधायक स्थिति है, पाप नकारात्मक। पाप से सीधा संघर्ष करने की कोई भी जरूरत नहीं है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, क्रोध बहुत है, क्या करें? मैं उनसे कहता हूं, क्रोध का तो तुम विचार ही मत करो। क्योंकि तुम जितना विचार करोगे क्रोध का, क्रोध को उतनी ही ऊर्जा मिलेगी। जिस चीज का हम विचार करते हैं, उसी तरफ शक्ति बहने लगती है। शक्ति के बहने का ढंग विचार है। विचार नहर की तरह है। तुम जिस तरफ ध्यान देते हो, उसी तरफ तुम्हारा जीवन बहने लगता है। जैसे हमने एक तालाब के पास एक नहर खोद दी, उस नहर से तालाब का पानी हम खेत में ले जाने लगे। जीवन की जो ऊर्जा है, ध्यान उसके लिए नहर है। तुम जिस तरफ ध्यान देते हो, उसी तरफ जीवन की धारा बहने लगती है। गलत ध्यान हुआ, गलत तरफ बहने लगेगी। ठीक ध्यान हुआ, ठीक तरफ बहने लगेगी। प्रेम, ठीक ध्यान का नाम है।
और नानक कहते हैं, जिस दिन तुम्हारा प्रेम परमात्मा के नाम की तरफ बहेगा, रंग गए तुम! फिर धुल जाओगे। और फिर अतीत के पाप से ही नहीं धुल जाओगे, भविष्य की संभावना से भी धुल जाओगे। इसके पहले कि गंदे होओ, धुले रहोगे। तुम सद्यस्नात हो जाओगे। तुम प्रतिपल नहाए हुए होओगे।
इसलिए जब तुम कभी किसी ज्ञानी के पास जाओगे तो एक सद्यस्नात प्रतीति तुम्हें होगी। जैसे वह प्रतिपल नहाया हुआ है। जैसे अभी-अभी नहा कर निकला हुआ है। एक वैसी ताजगी, जो सुबह की ओस के पास प्रतीत होती है, तुम्हें संत के पास होगी। और उसका कारण सिर्फ इतना है कि धूल इकट्ठी ही नहीं होती। प्रेम के अभाव में धूल इकट्ठी होती है। और प्रेम से उसे धोया जा सकता है।
तो प्रेम के संबंध में पहली बात कि तुम्हारी जीवन-ऊर्जा विध्वंस न बने। क्योंकि विध्वंस ही पाप है। क्या है पाप? जब तुम कुछ तोड़ते हो, भविष्य में कुछ बनाने के खयाल से नहीं, सिर्फ तोड़ने में ही रस लेने के लिए। क्योंकि तोड़ना दो तरह का हो सकता है। एक आदमी मकान गिराता है, ताकि नया बनाया जा सके। वह तोड़ना नहीं है। वह तो बनाने की प्रक्रिया का अंग है। जब तुम कुछ तोड़ते हो, सिर्फ तोड़ने के लिए, तब पाप हो जाता है।
समझो, तुम्हारा छोटा लड़का है। तुम उसे कभी चांटा भी मारते हो, लेकिन वह चांटा पाप नहीं है। अगर वह प्रेम से मारा गया है, तो सृजनात्मक है। वह उस बच्चे को मिटाने के लिए नहीं है, वह उस बच्चे को बनाने के लिए है। तुमने भरपूर प्रेम से मारा है। तुमने मारा ही इसलिए है कि तुम प्रेम करते हो। और अगर प्रेम न होता तो तुम फिक्र ही नहीं करते। भाड़ में जाओ! जो करना हो, करो। एक उपेक्षा होती है कि ठीक है! जहां जाना हो, जाओ। जो करना हो, करो। एक उदासी होती है। लेकिन तुम प्रेमपूर्ण हो, इसलिए तुम बच्चे को हर कहीं नहीं जाने दे सकते। वह आग में गिरना चाहे तो आग में नहीं गिरने दोगे। तुम उसे रोकोगे। तुम उसे मार भी सकते हो। लेकिन उस मारने में पाप नहीं है, उस मारने में पुण्य है। क्योंकि सृजन हो रहा है। तुम कुछ बनाना चाहते हो।
लेकिन तुम एक दुश्मन को मारते हो। चांटा वही है, हाथ वही है, ऊर्जा वही है। लेकिन जब तुम दुश्मन के भाव से मारते हो, तो तुम कुछ बनाने को नहीं मारते, तुम कुछ मिटाने को मारते हो। पाप हो गया! कृत्य पाप नहीं होते। तुम्हारे भीतर की दृष्टि अगर विधायक है, तो कोई कृत्य पाप नहीं है। अगर तुम्हारी दृष्टि विध्वंसात्मक है, तो सभी कृत्य पाप हैं।
सूफी कहानी है। एक गांव में एक सूफी आया। उसे किसी यात्रा पर जाना था। पहाड़ों में छिपा हुआ एक छोटा सा मंदिर था, जिसकी वह तलाश कर रहा था। तो उस सूफी फकीर ने गांव के लोगों से पूछा एक चाय घर के सामने जा कर कि इस गांव में सबसे सच्चा आदमी कौन है? और सबसे झूठा आदमी कौन है? गांव के लोगों ने बता दिया। छोटे गांव में सभी को सभी का पता होता है कि सबसे झूठा आदमी कौन है, सबसे सच्चा आदमी कौन है।
वह सूफी सबसे सच्चे आदमी के पास गया पहले। और उसने पूछा कि मैं उस छिपे हुए मंदिर की तरफ जाना चाहता हूं, जिसकी चर्चा शास्त्रों में सुनी है। अगर तुम्हें मार्ग पता हो तो सबसे सुगम मार्ग क्या है, वह मुझे बता दो। तो उसने कहा, सबसे सुगम मार्ग पहाड़ों से ही हो कर जाता है। और इस-इस विधि से तुम चलो, लेकिन पहाड़ों से गुजरना होगा।
वह आदमी फिर सब से झूठे आदमी के पास गया। और बड़ा हैरान हुआ। क्योंकि उस झूठे आदमी से भी उसने पूछा, तो उसने कहा कि सबसे सुगम मार्ग पहाड़ों से गुजरता है। और यह-यह मार्ग है और तुम्हें इस-इस भांति जाना होगा। दोनों के उत्तर समान थे। तब वह बड़ा हैरान हुआ। तब उसने गांव में जा कर तलाश की कि यहां कोई सूफी तो नहीं है! कोई फकीर तो नहीं है!
ध्यान रखना, सच्चा आदमी, झूठा आदमी दो छोर हैं। और जब कोई आदमी संतत्व को उपलब्ध होता है तो दोनों के पार होता है। अब यह बड़ी मुश्किल में पड़ गया कि किसकी मानूं? और उसने सोचा था कि झूठा आदमी विपरीत बात कहेगा। लेकिन पापी, पुण्यात्मा दोनों ने एक ही उत्तर दिया, अब कौन सही है?
तो वह एक सूफी फकीर का पता लगा कर उसके पास गया। उस फकीर ने कहा, दोनों ने एक सा उत्तर दिया है, लेकिन दोनों की नजर अलग-अलग है। सच्चे आदमी ने इसलिए तुम्हें कहा कि तुम पहाड़ से हो कर जाओ...। एक मार्ग नदी से हो कर भी जाता है, वह उसे पता है। लेकिन न तो तुम्हारे पास नाव है जिससे तुम यात्रा कर सको, और न नाव से यात्रा करने के अन्य साधन और सामग्री तुम्हारे पास है। फिर तुम्हारे पास यह गधा भी है जिस पर तुम सवार हो। यह पहाड़ पर तो सहयोगी होगा, नाव में उपद्रव होगा। इसलिए तुम्हारी पूरी स्थिति को सोच कर उसने कहा कि तुम पहाड़ से जाओ। सुगम मार्ग तो नाव से है। लेकिन तुम्हारी स्थिति देख कर सुगम मार्ग पहाड़ से बताया गया।
और झूठे आदमी ने इसलिए पहाड़ से कहा, ताकि तुम मुसीबत में पड़ो। सुगम मार्ग तो नाव से है, नदी से है, और झूठे आदमी ने इसलिए कहा है कि पहाड़ से जाओ, ताकि तुम मुसीबत में पड़ो। वह तुम्हें सताना चाहता है। उत्तर एक से हैं, दृष्टि भिन्न है।
कृत्य भी एक से हो सकते हैं। इसलिए कृत्यों से कुछ तय नहीं होता। अंतर्भाव से तय होता है। इसलिए तो बेटे को बाप मार देता है, इसका कोई हिसाब नहीं रखा जाता। मां बेटे को मार देती है, इसका कोई हिसाब नहीं रखा जाता। सच तो यह है कि मनस्विद कहते हैं, जिस मां ने अपने बेटे को कभी नहीं मारा, उस मां और बेटे के बीच कभी कोई गहरा संबंध न बन सकेगा। क्योंकि आत्मीयता ही नहीं बन सकी। अगर तुम बेटे को मारने से डरते हो, तो तुम उसे अपना ही नहीं मानते। फासला है। जो बाप बेटे की हर इच्छा पर झुक जाएगा, बेटा उसे कभी माफ नहीं कर सकेगा। क्योंकि जिंदगी में वह पाएगा कि बाप ने उसे बरबाद कर दिया। क्योंकि बेटा तो अनुभवी नहीं है। इसलिए उसकी मांगों का कोई बहुत अर्थ नहीं है। बाप को सोचना ही पड़ेगा कि कौन सी मांग ठीक है और कौन सी गलत। वह ज्यादा अनुभवी है और अगर प्रेम करता है बेटे को तो वह अपने अनुभव से तय करेगा, बेटे की मांग से नहीं। और अगर किसी बाप ने बेटे को पूरी स्वतंत्रता दे दी, तो बेटा कभी क्षमा नहीं कर पाएगा।
इसलिए तो पश्चिम में बेटे बाप को क्षमा नहीं कर पा रहे हैं। और पश्चिम में बाप ने जितनी स्वतंत्रता बेटे को दी है, दुनिया में कभी नहीं दी गयी थी। पिछले सौ वर्षों के विचारकों ने यही समझाया कि बेटों को पूरी स्वतंत्रता दो। और उसका परिणाम यह हुआ कि बेटे और बाप के बीच इतनी बड़ी खाई पैदा हो गयी है कि उसे पाटना मुश्किल है। पुराने जमाने में बेटे बाप से डरते थे, पश्चिम में बाप बेटों से डर रहे हैं। और पुराने जमाने में बेटे बाप को अंत तक श्रद्धा देते थे। और नए पश्चिम में रत्तीभर श्रद्धा का भाव नहीं है, प्रेम का भाव नहीं है। और कारण क्या है? कारण यह है कि बेटा एक न एक दिन पाएगा कि बाप ने मुझे बरबाद किया। उसे रोकना था। अगर मैं गलत कर रहा था तो उसे रोकना था। अगर मैं भटक रहा था तो उसे रोकना था। क्योंकि वह अनुभवी था, मैं गैर-अनुभवी था। मेरी बात क्यों सुनी? उसे झुकना ही नहीं था। यह बेटा अनुभव करेगा।
इसे ध्यान रखना। क्योंकि प्रेम चिंता करेगा। दूसरे का जीवन शुभ हो, सुंदर हो, सत्य हो, महिमा को उपलब्ध हो। उपेक्षा का अर्थ ही है कि कोई आत्मीयता नहीं। जो भी होना हो, हो। हमारा कोई प्रयोजन नहीं है। संयोग की बात है कि तुम बेटे हो। संयोग की बात है कि मैं पिता हूं। अन्यथा कुछ लेना-देना नहीं है। तो पश्चिम में अंतःसंबंध गिर गए हैं।
प्रेम भी मार सकता है, क्योंकि प्रेम इतना सबल है। और प्रेम इतना आस्थावान है कि विध्वंस से भी सृजन को ला सकता है। लेकिन एक बात ध्यान रखनी जरूरी है। सृजन हमेशा लक्ष्य होगा। विध्वंस अगर जरूरी है, तो हमेशा विधि होगी।
गुरु तो शिष्य को बिलकुल ही मारता है। मार ही डालता है। कोई बाप इतना नहीं मार सकता। क्योंकि बाप की चोटें तो ऊपर-ऊपर होंगी, शरीर पर होंगी। जैसे पानी शरीर का मैल धोता है, वैसे बाप शरीर को, जीवन को ठीक करेगा। उसकी चोट ऊपर-ऊपर होगी। गुरु तो भीतर मारेगा। गहरी चोट करेगा। जहां तक तुम्हें पाएगा, वहां तक छेदेगा। वह तुम्हारे अहंकार को गला कर ही रहेगा। और जब तक तुम ऐसा गुरु न पा लो, तब तक समझना कि जिसे तुमने पा लिया है, उसे तुम माफ न कर सकोगे। आज नहीं कल तुम पाओगे, उसने तुम्हारा जीवन, तुम्हारा समय नष्ट किया है।
प्रेम का लक्ष्य है सृजन--एक बात। और जब तुम सृजनात्मक होते हो जीवन-संबंधों में, तुम पाप नहीं कर सकते। और जब मैं प्रेम करता हूं तो पाप कैसे संभव है? प्रेम धीरे-धीरे फैलता जाएगा तो तुम पाओगे, मैं ही हूं सभी के भीतर छिपा हुआ। किसकी चोरी करूं? किसको धोखा दूं? किसकी जेब काटूं! क्योंकि जितना तुम्हारा प्रेम बढ़ेगा उतना ही तुम पाओगे कि ये सारी जेबें अपनी ही हैं। और इधर मैं किसी को नुकसान पहुंचाता हूं, वह नुकसान अंततः मुझे ही पहुंच जाता है।
जीवन एक प्रतिध्वनि है। प्रेम करने वाले को पता चलता है कि जीवन एक प्रतिध्वनि है। तुम जो करते हो वह तुम पर ही बरस जाता है। जितना तुम्हारा प्रेम बढ़ता है, उतना तुम्हें यह साफ होने लगता है कि यहां पराया कोई भी नहीं है। जिस व्यक्ति से तुम्हारा प्रेम हो जाता है, उससे परायापन मिट जाता है।
तुम अपनी पत्नी को दुख न पहुंचाना चाहोगे। क्योंकि उसे पहुंचाया गया दुख अंततः तुम्हें ही पहुंचाया गया दुख सिद्ध होता है। वह दुखी होती है तो तुम दुखी होते हो। तुम चाहोगे, वह सुखी रहे। क्योंकि वह जितनी सुखी होती है उतनी तुम्हारे सुख की संभावना बढ़ जाती है। तब तुम पाओगे कि दूसरे को दिया गया दुख तुम्हें भी दुखी करता है। दूसरे को दिया गया सुख तुम्हें भी सुखी करता है।
हालांकि हम बिलकुल उलटी भाषा में सोचते हैं। हम सोचते हैं, अपने को सुख दो और दूसरे को दुख दो। शायद इससे हमारा सुख बढ़ेगा। तुम आखिर में पाओगे कि तुम दुख ही दुख से भर गए। क्योंकि जो तुम दूसरे को देते हो वही लौटता है। तुमने अगर सबके लिए कांटे बोए हैं, तो तुम आखिर में पाओगे कि तुम्हारा पूरा जीवन कांटों से भर गया है। और तुमने अगर फिक्र ही नहीं की कि दूसरे क्या कर रहे हैं, तुम फूल बोते गए, तो आखिर में तुम पाओगे कि जो तुमने बोया है वही तुम काटोगे। जो दूसरों ने बोया है, उनकी फसलें उनके लिए। लेकिन हम उलटा चलते हैं।
एक महिला मुझसे पूछने आयी थी। वह पति को तलाक देना चाहती है। उसने जो बात पूछी वह मुझे भूलती नहीं। उसने मुझसे पूछा कि क्या तलाक देने की ऐसी भी कोई तरकीब है कि मेरे पति को इससे खुशी न मिले? वह जानती है भलीभांति कि तलाक देने से खुशी मिलेगी। क्योंकि उसने काफी सताया है पति को। अब वह यह भी इंतजाम करना चाहती है कि तलाक भी हो, तो भी इंतजाम ऐसा हो कि पति को खुशी न मिल पाए।
हम साथ हो कर भी दुख देना चाहते हैं, दूर हो कर भी दुख देना चाहते हैं। जुड़े हों तो भी दुख देना चाहते हैं, अलग हो जाएं तो भी दुख देना चाहते हैं। लेकिन ध्यान रखें, जब तुम इतना दुख देना चाहोगे तो तुम्हारी दुख के प्रति जो इतनी आतुरता है, तुम्हारा दुख पर जो इतना ध्यान है, वह धीरे-धीरे तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर दुख का घाव इसी ध्यान से निर्मित होता जाएगा।
इसको ही तो हमने कर्म की जीवन-पद्धति कहा है, जीवन का नियम कहा है। कर्म का कुल इतना ही अर्थ है कि तुम जो करते हो, अंततः तुम्हीं को मिल जाता है। देर-अबेर हो सकती है। इसलिए तुम वही करना, जो तुम चाहते हो कि तुम्हें मिले। तुम अगर इतने नर्क में खड़े हो तो किसी और के कारण नहीं। जन्मों-जन्मों में जो तुमने किया है, उसका फल है।
लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, आशीर्वाद दे दें कि जीवन में सुख हो जाए।
अगर आशीर्वादों से सुख होता होता, तो एक आदमी सभी को सुखी कर देता। क्योंकि आशीर्वाद देने में क्या कंजूसी? इतना आसान नहीं है। तुमने दुख बोया है, मेरे आशीर्वाद से कैसे कटेगा? तुम मुझसे समझ लो। आशीर्वाद मत मांगो। क्योंकि आशीर्वाद तो बेईमानी का ढंग है। दुख तुमने दिया है न मालूम कितने लोगों को। तुमने दुख बोया है सब तरफ। अब तुम उसकी फसल काटने के वक्त आशीर्वाद मांगने आ गए! और तुम्हारे ढंग से ऐसा लगता है कि जैसे अगर तुम्हें दुख मिल रहा है, तो मैं आशीर्वाद नहीं दे रहा हूं इसलिए दुख मिल रहा है। किसी के आशीर्वाद से तुम्हारा दुख न कटेगा। किसी के आशीर्वाद से तुम्हारी समझ बढ़ जाए तो काफी। किसी के आशीर्वाद से तुम में प्रेम का बीज आ जाए तो काफी। पाप तो प्रेम से कटेगा। और दुख तो तुम जब दूसरों के लिए सुख बोने लगोगे तब कटेगा।
नानक कहते हैं, बुद्धि पापों से भरी हो तो वह नाम के प्रेम से ही शुद्ध की जा सकती है।
और जब एक व्यक्ति से तुम प्रेम करते हो, तो उसे दुख देना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि उसका सुख तुम्हारा सुख, उसका दुख तुम्हारा दुख। उसके जीवन और तुम्हारे बीच की सीमा टूट गयी। तुम एक-दूसरे में बहते हो। जब ऐसी ही घटना किसी व्यक्ति के और परमात्मा के बीच घटती है, तो उसका नाम प्रार्थना, आराधना, पूजा, भक्ति। वह प्रेम का अंतिम स्वरूप है।
और जब तुम एक व्यक्ति को सुख दे कर इतने सुखी हो जाते हो, और जब तुम एक व्यक्ति को दुख दे कर इतने दुखी हो जाते हो, तो परमात्मा से भी तुम्हारे दो संबंध हो सकते हैं। एक तो प्रेम का, तब तुम स्वर्ग में हो जाओगे। और एक अप्रेम का, तब तुम नर्क में गिर जाओगे।
परमात्मा का अर्थ है, समस्त, दि टोटैलिटी। यह जो सारा विस्तार है, इस सारे विस्तार के साथ इस भांति प्रेम, जैसे यह एक व्यक्ति हो। और इस प्रेम में तो तुम्हारे सारे पाप बह जाएंगे। क्योंकि यह प्रेम तो तुम्हें सबके ही प्रेम में गिरा देगा। तुम किसे धोखा दोगे? तुम जहां भी धोखा देने जाओगे, उसी को पाओगे झांकता हुआ। तुम जिस आंख में भी झांकोगे, वहीं परमात्मा को बैठा हुआ पाओगे।
भक्ति बड़ी क्रांतिकारी प्रक्रिया है। भक्ति का अर्थ है, अब उसके सिवाय कोई भी नहीं। और तब तुम्हारा जीवन अनायास सरल हो जाएगा। क्योंकि अब पाप करने को न बचा। मिटाना किसको है? धोखा किसे देना है? छीनना किससे है?
तो भक्ति से तुम यह अर्थ मत समझना कि मंदिर में तुम पूजा कर आते हो; कि गुरुद्वारे में जा कर तुम जपुजी का पाठ कर लेते हो; कि तुम यह मत समझना कि रोज उठ कर तुम जोर से जपुजी यांत्रिक रूप से दोहरा लेते हो; कि नमाज पढ़ लेते हो। इन सबसे कुछ भी न होगा। क्योंकि फिर तुमने झूठी चाबी बना ली। असली चाबी का तो अर्थ ही यह है कि अब मैं अनंत के प्रेम में गिर गया। अब इस जगत की रत्ती-रत्ती मेरा प्रेम-पात्र है। इंच-इंच मेरी प्रेयसी है या मेरा प्रेमी है। पत्ते-पत्ते पर उसी का नाम है और आंख-आंख में उसी की झलक है। सभी कुछ उसका है। सभी तरफ उसे मैं पाता हूं।
अब तुम जिस ढंग से जीओगे--अगर परमात्मा सब तरफ तुम पाते हो--उस ढंग का नाम भक्ति है। वह तुम्हारे जीवन की पूरी शैली बदल देगी। तुम उठोगे और ढंग से। तुम बैठोगे और ढंग से। क्योंकि वह सब जगह मौजूद है। तुम बोलोगे और ढंग से, क्योंकि तुम जिससे भी बोलोगे वही वह है। तुम कैसे गाली दे सकोगे? तुम कैसे निंदा कर सकोगे? तुम कैसे किसी का अपमान कर सकोगे? तुम कैसे अपने को दूसरे की सेवा से बचा सकोगे? क्योंकि सभी चरणों में वही छिपा है।
और अगर यह बोध तुम में गहरा हो जाए, इसको नानक कहते हैं, नाम का रंग चढ़ जाना। तुम पर एक मस्ती छा जाएगी। तुम्हारे पास कुछ भी न होगा और सब कुछ मालूम पड़ेगा। तुम बिलकुल अकेले होओगे और सारा जगत तुम्हारे साथ होगा। अस्तित्व और तुम्हारे बीच तालमेल आ गया। अस्तित्व और तुम्हारे बीच तारी लग गयी। अस्तित्व और तुम्हारे बीच संबंध जुड़ गया।
नानक कहते हैं, ऐसा प्रेम ही पापों को काट सकता है।
अन्यथा तुम कुछ भी करो--पूजा करो, पाठ करो, यज्ञ करो, मंदिर बनाओ, मस्जिद बनाओ-- तुम कुछ भी करो, तुम्हारे भीतर मूल-सूत्र नहीं है।
एक ट्रेन में मैं सफर कर रहा था। और एक औरत कोई नौ-दस बच्चों को लिए हुए सफर कर रही थी। वे बच्चे बड़ा उपद्रव मचा रहे थे। इधर से उधर दौड़ रहे थे, लोगों का सामान गिरा रहे थे। पूरे कमरे को उन्होंने अराजकता बना रखा था। आखिर एक आदमी से नहीं रहा गया। क्योंकि पहले उन बच्चों ने उसकी पेटी गिरा दी, फिर उसका अखबार फाड़ डाला। तो उसने उससे कहा कि बहन जी, इतने बच्चों को साथ ले कर सफर न किया करें तो अच्छा। आधों को घर छोड़ आया करें। उस स्त्री ने बड़े क्रोध से उस आदमी की तरफ देखा और कहा, क्या समझा है? क्या तुम मुझे बेवकूफ समझते हो? आधों को घर ही छोड़ आयी हूं।
समझ का सूत्र न हो, तो तुम कितने ही घर छोड़ आओ, क्या फर्क पड़ने का है? और जब बीस बच्चों को पैदा करते वक्त समझ काम नहीं आयी, तब छोड़ते वक्त कहां से आ जाएगी?
हजार पाप हैं। पुण्य तो एक ही है। हजार पुण्य नहीं हैं, पुण्य तो एक ही है। हजार तरह की बीमारियां हैं, स्वास्थ्य तो एक ही है। स्वास्थ्य थोड़े ही हजार तरह का होता है। कि तुम अपने ढंग से स्वस्थ, मैं अपने ढंग से स्वस्थ। बीमार हम अलग-अलग हो सकते हैं, कि तुम टी.बी. के बीमार, कि कोई कैंसर का बीमार, कि कोई कुछ और का बीमार। बीमारियों में भेद हो सकता है, बीमारियों में मौलिकता हो सकती है, निजीपन हो सकता है। बीमारियों पर तुम्हारे हस्ताक्षर हो सकते हैं। क्योंकि बीमारियां अहंकारों का हिस्सा हैं। अहंकार अलग-अलग, उनकी बीमारियां अलग-अलग। लेकिन पुण्य तो एक है। स्वास्थ्य तो एक है। क्योंकि परमात्मा एक है। उस संबंध में तुम अलग-अलग नहीं हो सकते।
वह क्या है स्वास्थ्य, जो एक है? वह है प्रेम का भाव। और धीरे-धीरे उसमें रमते जाना है। उठो ऐसे जैसे प्रेमी मौजूद है। अकेले कमरे में भी तुम ऐसे ही प्रवेश करो जैसे परमात्मा मौजूद है।
एक सूफी फकीर हुआ जुन्नैद। वह अपने शिष्यों को कहता था, भीड़ में जाओ तो ऐसे जाना जैसे तुम अकेले हो। और जब अकेले में जाओ तो ऐसे जाना जैसे कि परमात्मा चारों तरफ मौजूद है।
ठीक कहता है। क्योंकि भीड़ में अगर तुम अपना अकेलापन याद रख सको तो परमात्मा की याद रहेगी; नहीं तो भीड़ छा जाएगी। तुम भीड़ में भटक जाओगे। और एकांत में अगर तुम परमात्मा की याद न रख सको, तो अपने में भटक जाओगे। दो खतरे हैं। या तो दूसरे में भटक जाओ या अपने में भटक जाओ। या तो भीड़ में, या खुद में। और परमात्मा दोनों के पार है। और अगर तुम यह याद रख सको कि भीड़ में मैं अकेला हूं और अकेले में वह मौजूद है, तो तुम कभी भी न खोओगे।
नानक कहते हैं कि नाम के प्रेम में जो रंग गया, वह भीतर से शुद्ध हो गया। उसने अंतरंग स्नान कर लिया।
'कहने से न तो कोई पुण्यात्मा होता है न पापी।'
तुम कितना ही सोचते रहो और तुम कितना ही विचार करते रहो और तुम कितना ही कहते रहो कि मैं कोशिश कर रहा हूं पुण्यात्मा होने की। कहने से कुछ भी नहीं होता।
'जो-जो कर्म हम करते हैं वे लिख लिए जाते हैं। मनुष्य स्वयं ही बोता है और स्वयं ही खाता है।'
सिर्फ कहने से कुछ न होगा, सोचने से कुछ न होगा। क्योंकि बड़े मजे की बात है कि पुण्य के संबंध में तुम सदा सोचते हो और पाप के संबंध में तुम क्षणभर नहीं सोचते; करते हो। अगर कोई तुमसे कहे कि जब क्रोध आए, तो आधा घड़ी रुक जाना, फिर करना। तो तुम कहोगे, यह कैसे हो सकता है? जब क्रोध आता है तो रुकने का सवाल ही नहीं रह जाता। रुकने वाले का पता ही नहीं रह जाता, रोकने की बुद्धि खो जाती है। जब क्रोध होता है तब हम होते ही कहां? क्रोध तो उसी वक्त करते हैं हम, कभी पोस्टपोन नहीं करते।
लेकिन अगर कोई कहे कि ध्यान। तो तुम कहते हो, आज समय नहीं, कल। फिर अभी जल्दी भी क्या है? जीवन इतना पड़ा है। और ध्यान इत्यादि तो जीवन के अंत में करने की बातें हैं, जब मौत करीब आने लगती है। और मौत तुम्हें कभी भी नहीं लगती कि करीब आएगी, मरते हुए आदमी को भी नहीं लगती।
एक नेता मर गए। तो मुल्ला नसरुद्दीन व्याख्यान करने गया, उनकी मृत्यु पर, शोक-समारंभ में। उसने बड़ी काम की बात कही। उसने कहा कि देखो, भगवान की कैसी कृपा है! कि हम जब भी मरते हैं, जीवन के अंत में मरते हैं। सोचो, अगर मौत कहीं जीवन के प्रारंभ में या मध्य में आ जाती, तो कैसी मुसीबत होती! सोचो कि मौत अगर जीवन के प्रारंभ में या मध्य में आ जाती, तो कैसा दुख आता! अंत में आती है। बड़ी उसकी कृपा है।
और अंत को हम दूर टालते रहते हैं। अंत कभी आता हुआ मालूम नहीं पड़ता--जब तक आ ही न जाए। और जब आ जाता है तब दूसरों को पता चलता है, तुम्हें तो पता ही नहीं चलता। तुम तो गए!
तो अगर ठीक से समझो तो तुम कभी मरते ही नहीं। तुम अपनी धारणा में तो जिंदा ही रहते हो। मरने की घटना भी दूसरों को पता चलती है। तुम तो मरते क्षण में भी योजना बनाते रहते हो जीवन की। और कल पर टालते रहते हो। शुभ को हम टालते हैं। अशुभ को हम तत्क्षण करते हैं।
जिस दिन इससे विपरीत हो जाओगे तुम, उसी दिन नाम का रंग लग जाएगा। जिस दिन तुम अशुभ को टालोगे और शुभ को प्रतिक्षण कर लोगे...। जब देने का भाव उठे तो देर मत करना, उसी वक्त दे डालना। क्योंकि तुम अपने पर ज्यादा भरोसा मत करना। क्षण भर बाद तुम्हारा मन हजार तरकीबें खड़ी कर देगा।
मार्क ट्वेन ने लिखा है कि एक सभा में मैं गया। और जो पुरोहित बोल रहा था, बड़ा अदभुत बोल रहा था। पांच मिनिट सुन कर मुझे हुआ कि मेरे पास जो सौ डालर हैं, आज दान कर जाऊंगा। दस मिनट के बाद--मार्क ट्वेन लिखता है कि--मुझे भीतर विचार उठने लगा कि सौ डालर जरा ज्यादा हैं, पचास से भी काम चल सकता है।
अब सौ के खयाल करने से सारा संबंध ही टूट गया। क्योंकि अब भीतर एक अंतरंग वार्तालाप चलने लगा, उसके भीतर। आधा घंटा बीतते-बीतते वह पांच डालर पर आ चुका था। और जब करीब-करीब व्याख्यान तीन चौथाई पूरा हो गया था, तब उसने सोचा कि किसी से कहा थोड़े ही है, किसी को पता थोड़े ही है कि मैं सौ देने की सोचा था! और कौन देता है सौ? एक डालर भी लोग नहीं देते हैं, लोग पैसे देते हैं। एक डालर से काम चल जाएगा। और जब थाली उसके पास आयी भेंट मांगने के लिए, तो उसने लिखा है कि वह एक डालर तो मेरे खीसे से न निकला, मैंने एक डालर उठा कर अपने खीसे में डाल लिया...कि कौन देखता है? किसको पता चलेगा?
तुम अपने पर ज्यादा भरोसा मत करना! क्योंकि शुभ कठिन है। कभी-कभी किन्हीं क्षणों में तुम उन चोटियों पर होते हो जब शुभ करने की भावना जगती है। तुमने अगर वह मौका खो दिया तो शायद दुबारा न जगे। शुभ के लिए सोचना ही मत। क्योंकि शुभ का अर्थ ही यह है कि जिसमें सोचने जैसा कुछ भी नहीं है, करने जैसा है। जब तुम देना चाहो, दे देना। जब बांटना चाहो, तब बांट देना। जब त्यागना चाहो, त्याग देना। जब संन्यस्त होना चाहो, हो जाना। क्षणभर मत खोना। क्योंकि कोई भी नहीं जानता वह क्षण दुबारा तुम्हारे जीवन में कब आएगा। आएगा, न आएगा।
और जब बुरा तुम्हारे मन में उठे, तो स्थगित करना। चौबीस घंटे का नियम बना लेना कि किसी को नुकसान पहुंचाना हो, चौबीस घंटे बाद पहुंचाएंगे। जल्दी क्या है? अभी कोई मौत नहीं आयी जा रही है। और आ भी गयी तो कुछ हर्जा नहीं होगा। नुकसान नहीं पहुंचेगा, और क्या होगा?
अगर तुम चौबीस घंटे भी रुक जाओ बुरा करने से, तो तुम बुरा न कर पाओगे। क्योंकि बुरा करने की मूर्च्छा भी क्षण में ही आती है। जिस तरह शुभ करने की जागृति क्षण में आती है, वैसे ही बुरा करने की मूर्च्छा भी क्षण में आती है। अगर तुम थोड़ी देर रुक गए, तो तुम खुद ही पाओगे कि क्या हत्या करनी? हत्यारे को अगर दो क्षण रोक लिया जाए, तो हत्या नहीं होगी। नदी में कोई डूब कर मरने जा रहा है, आत्महत्या करने जा रहा है, तुम जरा हाथ पकड़ कर उसको एक मिनिट रोक लो, बात गयी! क्योंकि कृत्य किन्हीं क्षणों में संभव होता है। और तुम्हारे भीतर मूर्च्छा के क्षण होते हैं, सघन मूर्च्छा के, और सघन जागृति के क्षण भी होते हैं।
जब सघन जागृति का क्षण होता है, तब तुम प्रेम से भरे होते हो, सृजन से। और जब मूर्च्छा का क्षण होता है, तब तुम बेहोशी से भरे होते हो, विध्वंस से। तब तुम तोड़ डालना चाहोगे, फिर पीछे पछताओगे। पछताने से कोई सार नहीं। अगर पछताना ही हो तो पुण्य करके पछताना। पाप कर के क्या पछताना? लेकिन तुम हमेशा पाप करके पछताते हो। और पुण्य तो तुम करते ही नहीं, इसलिए पछताने का सवाल ही नहीं उठता।
नानक कहते हैं कि सोचने से कुछ भी न होगा। कहने से कुछ भी न होगा।
शब्दों से पाप और पुण्य का कोई लेना-देना नहीं है। पाप और पुण्य का लेना-देना कृत्यों से है। और परमात्मा के समक्ष तुम्हारा जो हिसाब है, वह तुम्हारे शब्दों का नहीं, तुम्हारे कृत्यों का है। उसके सामने तुम्हारा जो निर्णय है, वह तुमने क्या किया है, तुम क्या हो, उस पर आधारित होगा। तुमने क्या कहा था, क्या पढ़ा था, क्या सोचा था, उससे कोई संबंध नहीं है। तुम्हारे विचार मूल्यवान नहीं हैं। अंतिम निर्णायक बात तुम्हारे कृत्य हैं।
तो नानक कहते हैं, 'मनुष्य स्वयं ही बोता है और स्वयं ही खाता है।'
आपे बीजि आपे ही खाहु।
साधारणतः हमारा मन कहता है कि दुख हमें दूसरे दे रहे हैं। साधारणतः हमारा मन कहता है, सफलता तो मैं पाता हूं, असफलता दूसरों की अड़चन की वजह से आती है। शुभ तो मेरे जीवन में मेरी उपलब्धि है और अशुभ दूसरों के द्वारा मेरे जीवन पर आरोपण है। यह बात बिलकुल ही गलत है। तुम्हारे जीवन में जो भी है, वह तुम्हारे ही कृत्यों की शृंखला है। शुभ-अशुभ, अच्छा-बुरा, फूल लगें, कांटे लगें, सभी का संपूर्ण दायित्व तुम्हारे ऊपर है।
जिस दिन कोई व्यक्ति इसका अनुभव करता है, टोटल रिस्पांसिबिलिटी, समग्र दायित्व मेरा है, उसी दिन से जीवन में क्रांति शुरू हो जाती है। जब तक तुम दूसरों पर टालते हो, तब तक क्रांति न होगी। क्योंकि अगर दूसरे दुख दे रहे हैं तो तुम क्या करोगे? जब तक सभी दूसरे न बदले जाएं तब तक दुख जारी रहेगा। और सभी दूसरे कब बदले जाएंगे? तो फिर दुख को झेलने के सिवा कोई उपाय नहीं है।
इसलिए धर्म के अतिरिक्त दुख के रूपांतरण की कोई कीमिया नहीं है। जिस दिन तुम जानोगे, मैं अपने ही बोए हुए बीजों की फसल काटता हूं। और जो दुख मैं पा रहा हूं, वह मैंने ही दिया है, फैलाया है, वही अब लौट रहा है...।
निश्चित ही, बीज बोने में और फल आने में वक्त लगता है। वक्त लगने के कारण तुम भूल ही जाते हो कि तुमने ये बीज बोए थे, और अब ये फल आने शुरू हो गए। जब फल आते हैं तब तुम बीज बोए थे, यह खयाल विस्मरण हो गया है। उस विस्मरण के कारण तुम सदा सोचते हो, दूसरे कुछ कर रहे हैं। ध्यान रखना, यहां कोई दूसरा तुममें चिंतित नहीं है। दूसरे अपने लिए चिंतित हैं। दूसरे अपने कारण परेशान हैं। तुम अपने कारण परेशान हो। और हर आदमी अपने ही कृत्यों की खोल में रहता है। इस बात को जितना तुम ठीक से पहचान लो, उतनी ही गहरी क्रांति संभव हो जाएगी। क्योंकि जैसे ही यह समझ में आता है कि मैं ही जिम्मेवार हूं, कुछ किया जा सकता है।
दो काम: एक कि जो मैंने किया है पीछे, उसे मैं शांति से भोग लूं, उसके भोगने में और नयी अशांति खड़ी न करूं, तो अतीत की निर्जरा हो जाएगी। लेन-देन साफ हो जाएगा।
बुद्ध के ऊपर एक आदमी थूक गया, तो बुद्ध ने थूक पोंछ लिया अपनी चादर से। वह आदमी बहुत नाराज था। बुद्ध के ऊपर थूका तो बुद्ध के शिष्य भी बहुत नाराज हो गए। लेकिन जब वह आदमी चला गया, तो आनंद ने पूछा कि यह बहुत सीमा के बाहर हो गयी बात। और सहिष्णुता का यह अर्थ नहीं है। और इस तरह तो लोगों को प्रोत्साहन मिलेगा। और हमारे हृदय में आग जल रही है। आपका अपमान हम बर्दाश्त नहीं कर सकते।
बुद्ध ने कहा, तुम व्यर्थ ही उत्तेजित मत होओ। यह तुम्हारा उत्तेजित होना, तुम्हारे कर्म की शृंखला बन जाएगी। मैंने इसे कभी दुख दिया था, वह निपटारा हो गया। मैंने कभी इसका अपमान किया था, वह लेना-देना चुक गया। इस आदमी के लिए ही मैं इस गांव में आया था। यह न थूकता तो मेरी मुसीबत थी। अब सुलझाव हो गया। इससे मेरा खाता बंद हो गया। अब मैं मुक्त हो गया। यह आदमी मुझे मुक्त कर गया है, मेरे ही किसी कृत्य से। इसलिए मैं धन्यवाद करता हूं उसका। और तुम नाहक उत्तेजित मत हो। क्योंकि तुम्हारा तो कुछ लेना-देना नहीं है इसमें। लेकिन अगर तुम उत्तेजित होते हो और तुम उस आदमी के खिलाफ कुछ करते हो, तो तुम एक नयी शृंखला बना रहे हो। मेरी शृंखला तो टूटी और तुम्हारी व्यर्थ बन गयी। तुम बीच में क्यों आते हो? जिन्हें मैंने दुख दिया है, उनसे मुझे उत्तर लेना ही पड़ेगा। और मेरी परिपूर्ण समाप्ति के पूर्व--जिसको वे महापरिनिर्वाण कहते हैं--इसके पहले कि मैं अनंत में पूरी तरह लीन हो जाऊं; व्यक्तियों से, वस्तुओं से, संबंधों में, क्रोध में, अपमान में, घृणा में, मोह में, लोभ में, जो भी नाते-रिश्ते बने हैं, उन सबकी निर्जरा हो जानी जरूरी है। उसको ही हम परममुक्त पुरुष कहते हैं, जिसके सारे कर्मों की निर्जरा हो गयी।
तो एक तो ध्यान रखना कि अतीत में जो किया है, उसे शांत भाव से, संतोष से, परम तृप्ति से, निपटारा समझ कर, प्रसन्नता से पूरा हो जाने देना। नयी शृंखला खड़ी मत करना। तो अतीत से संबंध धीरे-धीरे शांत हो जाता है।
और दूसरी बात है कि नया कुछ मत करना दूसरे को दुख देने के लिए। अन्यथा फिर तुम बंधे हुए चले आओगे। हम अपने ही भीतर अपनी जंजीरों को ढालते हैं। तो पुरानी जंजीरों को तोड़ना है और नयी बनानी नहीं। ये दो बातें खयाल रखना।
महावीर के दो शब्द बड़े प्रिय हैं। एक शब्द है आस्रव, और एक है निर्जरा। आस्रव का अर्थ है, नए को आने मत देना। और निर्जरा का अर्थ है, पुराने को गिर जाने देना। धीरे-धीरे एक ऐसी घड़ी आएगी कि पुराना कुछ बचेगा नहीं, नया कुछ होगा नहीं; तुम मुक्त हो गए। और जब वैसी दशा आती है तब परम आनंद फलित होता है।
नानक कहते हैं, 'मनुष्य स्वयं ही बोता है, और स्वयं ही खाता है। उसके हुक्म से ही आवागमन होता है। तीर्थयात्रा, तप, दया, पुण्य और दान से तिल भर मान मिलता है। लेकिन जो कोई परमात्मा का श्रवण और मनन करता है, उसका मन प्रेमपूर्ण हो जाता है। और आंतरिक तीर्थ में मल-मल कर उसका स्नान हो जाता है।'
तीरथ तपु दइआ दतु दानु। जे को पावै तिलका मानु।।
सुणिआ मंनिया मनि कीता भाउ। अंतरगति तीरथि मलि नाउ।।
'तीर्थयात्रा से, तप से, जप से, पुण्य से, दया से, सेवा से, तिल भर मान मिलता है।'
कोई बड़ी क्रांति घटित नहीं होती, सम्मान मिलता है। और वह सम्मान भी खतरनाक हो सकता है। क्योंकि तुम उस तिल का अपने अहंकार के कारण पहाड़ बना सकते हो। तुम कह सकते हो, मैंने इतनी तीर्थयात्राएं कीं। मैं हाजी हूं, मैंने हज किया। कि मैंने इतने मंदिर बनाए।
भारत से एक संन्यासी बोधिधर्म चीन गया। चीन का सम्राट उसके पास आया। चीन का सम्राट बौद्ध हो गया था। और उसने सैकड़ों विहार, मठ, आश्रम बनवाए थे। हजारों शास्त्र छाप कर मुफ्त बांटे थे। लाखों भिक्षुओं को भोजन करवाता था। पहली ही बात उसने बोधिधर्म से पूछी, उसने पूछा कि मैंने इतना पुण्य किया है, इतने मंदिर, इतने तीर्थ निर्मित किए हैं। इतनी बुद्ध की प्रतिमाएं बनायी हैं...।
उसका बनाया हुआ एक मंदिर अभी है। उसमें दस हजार बुद्ध की प्रतिमाएं हैं। विराट मंदिर बनाए, पहाड़ के पहाड़ खोद डाले। और बड़ा पुण्य किया, लाखों रुपए लुटाए, गरीबों को दान दिया। तो उसने सारी फेहरिस्त बोधिधर्म के सामने कही कि मैंने यह किया, यह किया, यह किया। और उसने तो तिल भी नहीं किया था, पहाड़ ही किया था। और हम तो तिल को पहाड़ बना लेते हैं। तो उसने अगर पहाड़ को पहाड़ की तरह कहा तो कुछ आश्चर्य की बात न थी।
बोधिधर्म चुपचाप खड़ा रहा। अंत में उसने पूछा कि मेरे ये सब पुण्य का क्या फल होगा? बोधिधर्म ने कहा, कुछ भी नहीं। तू महानर्क में पड़ेगा। वह सम्राट तो हैरान हुआ। यह तो भरोसे की ही बात नहीं थी कि पुण्य के कारण और महानर्क में पडूंगा? उसने कहा, क्या कहते हैं आप! होश में हैं? बोधिधर्म ने कहा, पुण्य से तो कोई अड़चन नहीं। लेकिन पुण्य किया, इस भाव से बड़ी अड़चन है। पुण्य हुआ, तू उसे अपने ऊपर मत ले। और अगर तूने यह खयाल बना लिया कि मैंने किया, तो पुण्य भी व्यर्थ गया। तब औषधि भी जहर हो गयी। औषधि को भी ढंग से पीना पड़ता है, नहीं तो जहर हो जाए। क्योंकि अक्सर औषधियां जहर से तो बनी ही होती हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन को एक डाक्टर ने कहा--पुराने दिनों की बात है--पत्नी को नींद नहीं आती है, रात बड़बड़ करती है, झगड़ा-झांसा मचाती है, तो उसने कहा, यह ले जाओ दवा, एक चौअन्नी के ऊपर रख कर--तब चौअन्नी चलती थी--जितनी चौअन्नी पर बने, उतनी दवा दे देना।
कोई सात दिन बाद नसरुद्दीन चला जा रहा था, तो डाक्टर ने पूछा कि कहो, पत्नी कैसी है? उसने कहा, बड़ा गजब का काम हुआ। सो ही रही है तब से, उठी ही नहीं। डाक्टर ने कहा कि अभी तक सो रही है सात दिन से? उसने कहा, बड़ी परम शांति है घर में। दवा गजब की थी। उस डाक्टर ने पूछा कि तुमने दवा कितनी दी? तो उसने कहा, घर में चौअन्नी न थी, तो चार अन्नियों पर रख कर--जितनी आपने कही थी, चौअन्नी के बराबर दी--अन्नी थी घर में, चौअन्नी थी नहीं, चार अन्नियों पर रख कर दे दी। परम परम शांति है। गजब की दवा है।
औषधि जहर हो सकती है, उसकी मात्रा है। पुण्य भी जहर हो सकता है, उसकी मात्रा है। ध्यान रखना, अगर पुण्य कृत्य रहे तो ठीक। अगर कृत्य से हटा और कर्ता बन गया, तो खतरनाक मात्रा शुरू हो गयी। और पुण्य कोई इस भाव से करे कि मेरे पापों की निर्जरा होगी तो ठीक, और कोई इस भाव से करे कि पुण्य का अर्जन होगा, तो खतरा है। तिल भर का मान मिल सकता है पुण्य से, लेकिन उसको धर्म मत समझ लेना।
एक बस में मैं मुल्ला नसरुद्दीन के साथ सफर कर रहा था। अचानक चलती बस में वह खड़ा हो गया और उसने जोर से चिल्ला कर कहा, भाइयो! किसी के सुतली में बंधे नोट तो नहीं गिरे? अनेक आवाजें आयीं कि हमारे गिरे, हमारे गिरे, कई लोग खड़े हो गए। उसने कहा, शांति रखो। अभी मुझे केवल सुतली मिली है।
धर्म तो नोट है, पुण्य सुतली है। सुतली पर बहुत मत अकड़ जाना। क्योंकि सुतली से कुछ होता जाता नहीं। नोटों पर बंध जाए तो कीमती हो जाती है। पत्थरों पर बंधी रहे तो क्या मूल्य है उसका? तो पुण्य जब निरअहंकार भाव के साथ बंधता है, तब तो नाव बन जाता है। और जब अहंकार के साथ बंध जाता है तो छाती में पत्थर की तरह लटक जाता है। कई पुण्य में डूब जाते हैं। कुछ पाप में डूबते हैं, कुछ पुण्य में डूब जाते हैं। क्योंकि नाव तो निरअहंकार की उस तरफ ले जाती है।
इसलिए ऐसा भी हुआ है कि कई बार पापी तर गए हैं और पुण्यात्मा डूब गए। क्योंकि पापी कम से कम निरअहंकारी तो हो ही सकता है आसानी से। वह सोचता है, मैं पापी हूं। वह सोचता है, मैं क्या पहुंच सकूंगा उस तक! वह सोचता है, मेरी आवाज कहां सुनी जा सकेगी! मुझ में कोई तो गुण नहीं। दुर्गुण ही दुर्गुण हैं। अहंकार न हो तो पापी भी तिर जाता है। और अहंकार हो तो पुण्यात्मा भी डूब जाता है।
नानक कहते हैं, तिल भर मान मिल सकता है, लेकिन उसको धर्म मत समझ लेना। धर्म तो तभी शुरू होता है जब कोई परमात्मा का श्रवण और मनन करता है। और जब किसी का मन प्रेमपूर्ण हो जाता है। आंतरिक तीर्थ में तब मल-मल कर स्नान होता है।
'हे परमात्मा, सभी गुण तुझ में हैं, मुझ में कुछ भी नहीं।'
ऐसी भावदशा निरंतर बनी रहनी चाहिए। कहीं अकड़ न आ जाए कि गुण मुझ में हैं। कि मैं त्यागी, कि मैं दानी, कि देखो मैंने यह किया, यह किया, यह किया। वह चीन के सम्राट की अकड़ न आ जाए। नहीं तो बोधिधर्म ठीक कहता है कि महानर्क में पड़ोगे।
'हे परमात्मा, सभी गुण तुझ में हैं, मुझ में कुछ भी नहीं। बिना गुण कर्म के भक्ति नहीं होती।'
तो मैं तो इस योग्य भी नहीं हूं कि तेरी भक्ति कर सकूं। मेरी कोई योग्यता ही नहीं है। इसलिए तो नानक कहते हैं कि उसके प्रसाद से सब मिलता है, हमारी योग्यता क्या है? सभी भक्तों ने वही कहा है। उसकी कृपा से मिलता है, हमारी योग्यता से नहीं।
इस फर्क को ठीक से समझ लें। क्योंकि योग्यता का तो मतलब है, सौदा है। और योग्यता का तो मतलब है, उसे देना ही पड़ेगा। हम योग्य हैं। न देगा तो हम शिकायत करेंगे। और देगा तो धन्यवाद का कोई कारण नहीं, क्योंकि हम योग्य हैं।
तुम्हारे मन में शिकायत है। वह शिकायत इस बात की खबर है कि तुम समझते हो तुम योग्य हो और तुम्हें नहीं मिला। भक्त के मन में अहोभाव होता है। क्योंकि वह कहता है, योग्य तो मैं बिलकुल नहीं हूं और इतना मिला। उसकी सारी दृष्टि दूसरी है। तो कीर्तन-भजन करने से कोई भक्त नहीं होता। जीवन की पूरी दृष्टि दूसरी है। दृष्टि यह है कि मैं योग्य नहीं और फिर भी इतना मिल रहा है। तो भक्त की प्रार्थना धन्यवाद है। तुम्हारी प्रार्थना शिकायत है।
नानक कहते हैं, मुझ में तो कोई गुण नहीं, और बिना गुणकर्म के तो भक्ति भी नहीं होती। तो मैं भक्ति भी क्या कर सकता हूं? सिर्फ तेरे गुणगान कर सकता हूं।
'हे प्रभु! आप धन्य हैं।'
बस, ऐसा कह सकता हूं। आपकी धन्यता के गीत गा सकता हूं। मुझ में तो कोई और गुण नहीं है। मैं सिर्फ स्तुति कर सकता हूं। तुम्हारी प्रशंसा का गुणगान कर सकता हूं। योग्यता मेरी कुछ भी नहीं कि मुझे कुछ मिले।
'आप वाणी हैं, आप ब्रह्मा हैं। आपकी सत्ता सदा शोभायुक्त है और सदा मनभावन है, ऐसे मैं तेरे गीत गा सकता हूं। वह कौन सी वेला थी, कौन सा समय था, कौन सी तिथि थी, कौन वार था, कौन सी ऋतु थी, कौन महीना था, जब तुमने आकार लिया? पंडितों को उसका पता नहीं था। यदि होता तो वे पुराणों में जरूर लिख देते। और काजियों को भी उसका पता नहीं था। होता तो वे कुरान में जरूर लिख देते। तिथि और वार योगी भी नहीं जानते कि कब तू निराकार आकार बना। कब तू निर्गुण सगुण बना, कब तू घना हुआ? कब तू संसार बना? किसी को कुछ पता नहीं। तेरे सिवाय किसी को पता हो भी नहीं सकता। जो कर्ता सृष्टि को साजता है, वही सब जानता है।'
और मैं तो बिलकुल गुणहीन हूं। पंडित नहीं जानते, काजी नहीं जानते, शास्त्रों में तेरी कोई खोज-खबर नहीं मिलती। कौन है तू, कहां है तू, कैसे तूने रूप रखा, कैसे तू आकारित हुआ, कैसे यह सृष्टि निर्मित हुई--ज्ञानियों को पता नहीं है; मैं तो अज्ञानी हूं, मैं क्या कर सकता हूं?
भक्त, क्या है, इसकी चिंता नहीं करता। ज्ञानी इसकी फिक्र करता है कि क्या है, इसका पता लगाना चाहिए। ज्ञानी परमात्मा को उघाड़-उघाड़ कर खोजने की कोशिश करता है। भक्त सिर्फ अहोभाव में आनंदित है। वह कहता है, कैसे पता चलेगा? तेरे अतिरिक्त किसको पता हो सकता है कि यह सब कैसे हुआ! तू ही जानता है। बाकी सब जानने वाले नासमझी में हैं। इसलिए भक्त जानने का कोई दावा नहीं करता। भक्त का दावा तो सिर्फ प्रेम का है। और ध्यान रखना, ज्ञान का दावा अहंकार का दावा है। प्रेम का दावा निरअहंकार का दावा है।
नानक कहते हैं, 'तू ही जानता है। पर मैं तुझे किस प्रकार संबोधित करूं? मुझे तो ठीक संबोधन भी नहीं आता है। किन शब्दों का उपयोग करूं कि भूल न हो जाए? कौन से संबंध उचित होंगे, कौन से संबोधन उचित होंगे, कौन से शब्द तेरे योग्य हैं? मुझे कुछ भी पता नहीं है। किस प्रकार तेरा बखान करूं? कैसे तुझे जानूं? नानक कहते हैं, वर्णन करने के लिए सभी कोई एक से एक बढ़ कर सयाने लोग उसका वर्णन करते हैं। ऐसे तो वर्णन मैंने सुने हैं, बड़े सयाने लोग उसका वर्णन करते हैं।'
लेकिन सभी वर्णन अधूरे हैं। और असली सयाना वही है, जिसने जान लिया कि उसका वर्णन नहीं हो सकता। उसको हम क्या कह कर कह सकते हैं? हम जो भी कहेंगे, छोटा पड़ जाएगा। हम जो भी कहेंगे, वह ओछा हो जाएगा।
नानक कहते हैं, 'वह साहब महान है। उसका नाम महान है। उसी का किया सब होता है। जो कोई अपने आप को कुछ समझता है, वह उसके आगे जा कर शोभा नहीं पाता।'
नानक जे को आपौ जाणै। अगै गइया न सोहै।।
और जिसने भी सोचा कि मैं कुछ हूं, वह उससे चूक जाता है। क्योंकि एक ही हो सकता है। या तो वह या तुम। या तो मैं, या वह। उस जगत में, उस म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं।
रूमी की बड़ी प्रसिद्ध कविता है। प्रेमी ने द्वार पर दस्तक दी। भीतर से प्रेयसी ने पूछा, कौन? तो उसने कहा, मैं हूं, द्वार खोलो! लेकिन भीतर सन्नाटा हो गया। उसने बार-बार दस्तक दी और कहा कि मैं हूं तेरा प्रेमी! द्वार खोलो। भीतर से अंततः आवाज आयी कि इस घर में दो न समा सकेंगे। यह घर प्रेम का दो को न सम्हाल सकेगा। और फिर सन्नाटा हो गया।
प्रेमी गया वापिस। भटकता रहा वर्षों तक वनों में, तपश्चर्या की, साधना की, प्रार्थना की, पूजा-अर्चना की। उपवास किए। शुद्ध किया स्वयं को। निखारा चित्त को। ज्यादा जागरूक हुआ। समझा स्थिति को। फिर अनेक-अनेक वर्षों के बाद वापस लौटा। उसी द्वार पर फिर दस्तक दी। भीतर से वही सवाल, कौन है? लेकिन इस बार उत्तर बदल गया। इस बार बाहर से आवाज आयी, तू ही है।
और रूमी कहते हैं कि द्वार खुल गए।
परमात्मा के द्वार पर अगर तुम कुछ भी हो कर गए--कुछ भी! पुण्यात्मा, त्यागी, संन्यासी, ज्ञानी, पंडित--कुछ भी हो कर तुम गए कि तुम चूक जाओगे। वह द्वार उन्हीं के लिए खुलता है जो ना-कुछ हो कर वहां जाते हैं। प्रेम का द्वार उन्हीं के लिए खुलता है जो अपने को मिटा कर जाते हैं।
साधारण जीवन में भी प्रेम तभी खुलता है जब तुम खो जाते हो। जब तुम डूब जाते हो। जब मैं की आवाज बंद हो जाती है। और जब मैं से भी महत्वपूर्ण तू हो जाता है। और तू ही जब तुम्हारा जीवन हो जाता है। तुम अपने को मिटा सकते हो प्रेमी के लिए, प्रेयसी के लिए, आनंदभाव से तुम मृत्यु में उतर सकते हो, तभी प्रेम फलित होता है। जब साधारण जीवन में प्रेम फलित होता है, तब भी वही झलक आती है कि एक ही रह जाता है, दो मिट जाते हैं।
लेकिन जब उस परम प्रेम का उदय होता है, तब तो निश्चित ही तुम्हारी रूप-रेखा भी नहीं बचनी चाहिए। तुम्हारा नाम-ठिकाना भी नहीं बचना चाहिए। तुम तो बिलकुल ही मिटोगे तभी वह हो सकेगा। जीसस का वचन है, जो अपने को बचाएंगे वे खो जाएंगे, जो अपने को खो देंगे वे बच जाएंगे। वहां तो मिटने वाला सब कुछ पा लेता है और बचाने वाला सब कुछ खो देता है।
कहते हैं नानक, 'जो कोई अपने आप को कुछ समझता है, वह उसके आगे जा कर शोभा नहीं पाता।'   
सच तो यह है, वह उसके आगे पहुंच ही नहीं पाता। क्योंकि जिसकी आंखों में अकड़ है, उसकी आंखें अंधी हैं। और जिसके हृदय में यह खयाल है, मैं कुछ हूं, उसका व्यक्तित्व बहरा है, जड़ है। वह मरा ही हुआ है। वह परमात्मा के सामने आ ही नहीं सकता। परमात्मा तो सदा तुम्हारे सामने है। लेकिन जब तक तुम हो, तुम उसे न देख पाओगे। क्योंकि तुम ही बाधा हो। जैसे ही बाधा गिर जाती है, तुम्हारी आंखें निर्मल हो कर खुलती हैं बिना किसी भाव के कि मैं हूं। तुम बिलकुल ना-कुछ की तरह होते हो। एक शून्य! उस शून्य में तत्क्षण वह प्रवेश कर जाता है।
कबीर ने कहा है, सूने घर का पाहुना।
जैसे ही तुम शून्य हुए, वह अतिथि आ जाता है। जब तक तुम अपने से भरे हो, तुम उसे चूकते रहोगे। जिस दिन तुम खाली होओगे, वह तुम्हें भर देता है।

आज इतना ही।


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