दिनांक
26 जुलाई, 1977;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्न
सार:
1—कहावत
हैः"मानिए
तो देव, नहीं
तो पत्थर'।
क्या सब मानने
की ही बात है?
2—आपके
पास रहकर भी
मुझे अपने को
मिटाने में भय
लगता है। मैं
अपना यह भय
कैसे दूर करूं?
3—मन
से मुक्त होना
असंभव-सा लगता
है। हमें पता भी
नहीं चलता कि
मन कई तरह की
वासनाओं में
भटकने लगता
है। और बहुत
सावधानी रखकर
थोड़ा-सा होश
संभालता है कि
फिर-फिर मन
कल्पनाओं में
बहने लगता है।
कृपया इसे
समझाएं।
4—जब
आप अष्टावक्र, बुद्ध या
लाओत्से पर
बोलते हैं, तब आपकी
वाणी में
बुद्धि और
तर्क का
अपूर्व तेज
प्रवाहित
होता है।
लेकिन जब वही
आप भक्ति-मार्गी
संतों पर
बोलते हैं, तब बातें
अटपटी होने
लगती हैं। ऐसा
क्यों?
पहला
प्रश्नः
कहावत
है, मानिए तो
देव, नहीं
तो पत्थर।
क्या सब मानने
की ही बात है?
मैं
कहावत को
थोड़ा-सा बदलना
चाहूंगाः
"जानिए तो देव, नहीं तो
पत्थर'।
मानने से तो
पत्थर पत्थर
ही रहता है; सिर्फ
तुम्हारी
आंखें भ्रम से
भर जाती हैं; सिर्फ तुम
पत्थर में
देवता को
देखने लगते हो,
मानने से
पत्थर में
अंतर नहीं
पड़ता मानने से
तो सिर्फ
तुम्हारी आंख
का चश्मा बदल
जाता है।
तुमने रंगीन
चश्मा आंख पर
रख लिया तो
सभी चीजें
रंगीन दिखाई
पड़ने लगती हैं;
लेकिन सभी
चीजें रंगीन
हो नहीं गईं।
तुम चश्मा
उतार कर रख
दोगे, चीजें
फिर रंगहीन हो
जाएंगी।
चीजें तो जैसी
हैं वैसी ही
हैं।
हिंदू-मंदिर
में गए; यदि
तुम मुसलमान
हो तो पत्थर
पत्थर ही रहता
है, क्योंकि
तुम्हारी आंख
पर हिंदू का
चश्मा नहीं
है। यदि तुम
हिंदू हो तो
पत्थर देवता
मालुम होता है
क्योंकि
तुम्हारी आंख
पर हिंदू का
चश्मा है। अगर
तुम जैन-मंदिर
में गए तो
महावीर की
मूर्ति पत्थर
ही बनी रहती
है, देवत्व
उसमें प्रकट
नहीं होता; तुम्हारी
आंख पर जैन का
चश्मा नहीं
है।
मानने
से तो सिर्फ
चश्मे बदलते हैं। मानने
के धोखे में
मत पड़ना।
जानने की
यात्रा करो।
जानो तो
निश्चित देव ही
है, पत्थर तो
है ही नहीं।
मूर्तियों
में ही नहीं, पहाड़ों में
भी जो पत्थर
है वहां भी
देवता ही छिपा
है। जानने से
तो परमात्मा
के अतिरिक्त
और कुछ बचता
ही नहीं है।
जाना कि
परमात्मा के
द्वार
खुले--हर तरफ
से, हर
दिशा से, हर
आयाम से। कंकड़-कंकड़
में वही है। तृणत्तृण
में वही है।
पल-पल में वही
है। लेकिन
जानने से।
विश्वास
से शुरू मत
करना; बोध
से शुरू करो।
विश्वास तो
आत्मघात है।
अगर मान ही
लिया तो खोजोगे
कैसे? और
तुम्हारे
मानने में
सत्य कैसे हो
सकता है? एक
क्षण पहले तक
तुम्हें
पत्थर दिखाई
पड़ता था, और
अब तुमने मान
लिया और देवता
देखने लगे। यह
देखने लगे चेष्ठा
करके, लेकिन
भीतर किसी
गहराई में तो
तुम अब भी
जानोगे न कि
पत्थर है! उस
भीतर की गहराई
को कैसे बदलोगे?
संदेह तो
कहीं न कहीं
छिपा ही रहेगा,
बना ही
रहेगा। इतना
ही होगा कि
ऊपर-ऊपर
विश्वास हो
जाएगा; संदेह
गहरे में सरक
जाएगा। यह तो
और खतरा हो गया।
संदेह ऊपर-ऊपर
रहता, इतना
हानिकर नहीं
था। यह तो
संदेह और भीतर
चला गया, और
प्राणों के
रग-रेशे में
समा गया। यह
तो तुम्हारा
अंतःकरण बन
गया।
यही तो
हुआ है।
दुनिया में
इतने लोग हैं, करोड़ों-करोड़ों
लोग मंदिर
जाते, मस्जिद
जाते , गुरुद्वारा
जाते, चर्च जाते
और इनके भीतर
गहरा संदेह
भरा है। ईसाई
और हिंदू और
मुसलमान सब
ऊपर-ऊपर हैं
और भीतर संदेह
की आग जल रही
है। और वह
संदेह ज्यादा
सच्चा है, क्योंकि
संदेह तुमने
थोपा नहीं है।
ज्यादा स्वाभाविक
है। और
तुम्हारा
विश्वास थोपा
हुआ है, आरोपित
है। आरोपित
विश्वास
स्वाभाविक
संदेह को कैसे
मिटा सकेगा? आरोपित
विश्वास तो
नपुंसक है।
स्वाभाविक संदेह
अत्यंत
ऊर्जावान है।
फिर कौन मिटा
सकता है
स्वाभाविक
संदेह को? स्वाभाविक
श्रद्धा ही
मिटा सकती है
सत्य संदेह
को। बलशाली
संदेह को
बलशाली
श्रद्धा ही मिटा
सकती है और
श्रद्धा कब
बलशाली होती
है? तुम्हारे
करने से नहीं
होती; जानने
से होती है, बोध से होती
है। तुम देख
लो कि
परमात्मा है,
तब श्रद्धा
होती है।
तुमने मान
लिया, ये
तो लचर बातें
हैं; ये तो
बैसाखियां
हैं, जिनके
सहारे तुम
बहुत चल चुके।
तो
जिन्होंने यह
कहावत गढ़ी
होगी, "मानिए
तो देव, नहीं
तो पत्थर,' उन्होंने
सार की बात
कही है। यही
स्थिति है अधिक
मनुष्यता की।
मान-मान कर सब
चल रहे हैं।
अंधे ने मान
लिया है कि
रोशनी है। बस
माना है; आंख
खुली नहीं है;
खुली आंख ने
देखा भी नहीं।
यह भी हो सकता
है कि अंधा
आंख पर चश्मा
लगा ले। लेकिन
अंधे की आंख पर
चश्में
का क्या मूल्य
है? आंख हो
तो चश्मा
देखने में
सहायता भला कर
दे; आंख न
हो तो चश्मा
क्या करेगा? तो बहुत-से
अंधे चश्मे
लगाए चल रहे
है; फिर भी
टकराते हैं। टकराएंगे
ही। बहुत-से
अंधों ने
चश्मा भी लगा
लिया है, हाथ
में लालटेनें
भी ले रखी हैं
ताकि रोशनी
साथ रहे। मगर
फिर भी टकराएंगे।
तुम्हारे
शास्त्र
तुम्हारे हाथ
में लटकी हुई लालटेनों
की तरह हैं।
और तुम्हारे
विश्वास
तुम्हारी
अंधी आंखों पर
चढ़े हुए
चश्मों की
भांति हैं।
इनका कोई
मूल्य नहीं है
दो कौड़ी
मूल्य नहीं
है। इनसे हानि
है; लाभ तो ज़रा भी
नहीं। इनके
कारण आंख नहीं
खुल पाती है।
इनकी भ्रांति
के कारण तुम
कभी जानने की
चेष्टा में
संलग्न ही
नहीं हो पाते।
मैं
तुमसे कहता
हूं: परमात्मा
को मानना मत।
मानने की
जरूरत नहीं है।
परमात्मा को
मानोगे तो फिर
जानोगे किसको? परमात्मा को
मानने का मतलब
तो यह हुआ कि
तुमने जानने
में हताशा
प्रकट कर दी, तुम हार गए, तुमने
अस्त्र-शस्त्र
डाल दिए।
तुमने कहा, खोज समाप्त
हो गई; जानने
को तो है नहीं,
माने लेते
हैं। सूरज को
तो नहीं मानते
हो, चांद
को नहीं मानते
हो; जानते
हो। इस संसार
को मानते तो
नहीं, जानते
हो। और
परमात्मा को
मानते हो? यह
माना हुआ
परमात्मा अगर
तुम्हारे
जाने हुए संसार
के सामने
बार-बार हार
जाता है तो
कोई आश्चर्य
तो नहीं है।
परमात्मा भी
जाना हुआ होना
चाहिए। जिस दिन
परमात्मा
जाना हुआ होता
है उस दिन यह
संसार फीका पड़
जाता है, माया
हो जाता है, सपना हो
जाता है।
अनुभव
ही संपत्ति
बनती है; थोथे
विश्वास
नहीं।
तो मैं
इस कहावत में
थोड़ा फर्क
करता हूं। मैं
कहता हूं:
"जानिए तो देव, नहीं तो
पत्थर।'
लेकिन
जानने के लिए
बड़ी यात्रा
करनी आवश्यक है।
जानने के लिए
अपने भीतर बड़ी
साधनाओं
से गुजरना
होगा। जानने
के लिए आंख पर
चढ़े हुए जालों
को काटना होगा, गलाना होगा।
जानने के लिए
सबसे पहली तो
बात है कि
मानी हुई
बातें छोड़
देनी पड़ेंगी
--जो कि बहुत कष्टपूर्ण
है। क्योंकि
वही तुम्हारी
संपदा है। उसी
मानने को तुम
सोचते हो
तुम्हारा
ज्ञान है। उस
सारे ज्ञान को
छोड़ देना
होगा। एक बार
तो तुम्हें निपट
रूप से
अज्ञानी हो
जाना पड़ेगा।
इसके पहले कि
तुम सच में
ज्ञान की किरण
को पाओ, तुम्हें
अज्ञान की रात
से गुजरना
होगा। एक बार
तो तुम्हें
बिल्कुल
निर्धन हो
जाना पड़ेगा, क्योंकि अभी
जिसे तुम धन
कहते हो, वह
है नहीं, सिर्फ
ख्याल में है।
मन के लड्डु!
इन्हें तो छोड?
देना
पड़ेगा। एक बार
तो तुम्हें
अपना भिखमंगापन
देखना पड़ेगा;
अपना
अज्ञान, अपना
अंधेरा, अपना
अंधापन, अपनी
नकारात्मक स्थिति,
अपनी
नास्तिकता को
झेलना पड़ेगा।
यह नास्तिकता
का कांटा
तुम्हारे
प्राणों में चुभे, इसकी
पीड़ा अनुभव हो,
यह जरूरी
है।
तुमने
उपाय कर लिए
हैं और तुम
झूठे आस्तिक
बन गए हो, और
भीतर छिपा
नास्तिक बैठा
है। इतने
आस्तिक हैं
दुनिया में, जितने लोग
सोचते हैं कि
आस्तिक हैं? तो फिर यह
दुनिया
धार्मिक
होती। तो यहां
जगह-जगह
परमात्मा की
ऊर्जा उठती
हुई दिखाई
पड़ती। यहां हर
आंख में
परमात्मा की
झलक होती, और
हर पैर में
परमात्मा का
नाच होता और
हर कंठ में
परमात्मा के
गीत होते।
यहां प्रेम की
बाढ़ आई होती, अगर इतने
लोग आस्तिक
होते। ये सौ
आस्तिकों में
कभी एकाध भी
तो आस्तिक नहीं
होता । फिर ये
निन्यानबे
कौन हैं?
ये
नास्तिक हैं।
और इन्होंने
अपने को झूठा
भुलावा दे
लिया है कि हम
आस्तिक हैं।
ये नास्तिकों
से बदतर हालत
में हैं।
नास्तिक कम से
कम सच्चा तो
है। इतना तो
कहता है कि
मुझे पता नहीं
है और मैं
नहीं मानता।
जब तक पता
नहीं तो कैसे
मानूं? नास्तिक
कम-से-कम
ईमानदार तो है,
प्रामाणिक
तो है। जो
नहीं जाना है,
कहता है, नहीं मानता
हूं। आस्तिक
तो बेईमान है।
जो नहीं जाना
है उसको मानता
है; जो
जानता है उसको
झुठलाता है; और जो नहीं
जानता है उसे
मानता है।
आस्तिक तो बड़ी
ही कशमकश में
है, बड़ी
परेशानी में
है।
और
सारे धर्म
तुम्हें
सिखाते हैं
सत्य की बात, और सारे
धर्मों को
तुमने
बुनियादी
असत्यों में
बदल लिया है।
यह सबसे बड़ा
असत्य है। जो
नहीं जाना हो,
उसे मान
लेने से बड़ा
असत्य और क्या
हो सकता है?
तुम
परमात्मा के साथ
भी असत्य का
संबंध जोड़े
हुए हो।
विश्वास का
अर्थ होता है, परमात्मा से
झूठ का संबंध;
परमात्मा
के सामने भी
तुम झूठे हो।
और सब
तरफ झूठ चलाओ, और सब तरफ
सारे संसार
में तुम बेईमानियां
करो; कम-से-कम
एक जगह तो छोड़
दो। कम-से-कम
एक जगह तो अपनी
प्रवंचना मत
लाओ। एक जगह
तो खड़े हो जाओ
नग्न, जैसे
हो, निर्वस्त्र।
एक जगह तो कह
दो कि जो है
वही है, वैसा
ही है; मैं
इसको झुठलाऊंगा
न, कुछ का
कुछ न कहूंगा।
तब तुम अचानक
पाओगे कि तुम्हारी
आस्तिकता
बहने लगी और
तुम्हारा नास्तिक
उभरने लगा।
मगर मैं कहता
हूं, यह
असली
आस्तिकता के
जन्म के पहले
जरूरी है।
असली
आस्तिकता के
पहले झूठी
आस्तिकता छोड़
देनी पड़ती है।
असली
आस्तिकता के
पहले असली
नास्तिकता का
कदम अनिवार्य
है।
जिन्होंने भी
परमात्मा के
मंदिर की
यात्रा की है
वे नास्तिकता की
सीढ़ियों से
चढ़े हैं; उन्होंने
नकार दिया है
झूठ को। फिर
अगर उस झूठ
में उनकी आस्थाएं
भी थीं, भरोसे
भी थे, विश्वास
भी थे, धारणाएं
भी थीं, तो
उनकी भी
उन्होंने
फिक्र नहीं की,
उनको भी
नकार दिया है।
अगर वेद बीच
में आए और कुरान
और गीता बीच
में आई तो
उन्होंने
उन्हें भी हटा
दिया है।
उन्होंने
सिर्फ एक बात
पर नजर रखी कि
जो हम जानेंगे,
जो हमारा
अनुभव होगा, बस वही।
कानों सुनी सो
झूठ सब, आंखों
देखी सांच।
जो-जो
कान से सुन
लिया है वह
विश्वास; जो
आंख से देखा, वह श्रद्धा।
तुम्हारा
ईश्वर कानों
से सुना हुआ
है या आंखों
से देखा हुआ
है? तुम्हारी
प्रार्थना
कानों से सुनी
हुई है या आंखों
से देखी हुई
है? तुम्हारे
सत्य, जिन
पर तुमने अपने
जीवन को दांव
पर लगा रखा है,
तुम्हारे
अनुभव से
निसृत हुए हैं,
या उधार हैं,
बासे हैं, दूसरों
से लिए हैं? अगर दूसरों
से लिए हैं तो
जितनी जल्दी
तुम उनसे छूट
जाओ, उतना
अच्छा है।
क्योंकि
उन्हीं के
कारण तुम्हारे
पैरों में जंजीरें
पड़ी हैं, और
तुम सत्य तक न
जा सकोगे।
यही
फर्क है
श्रद्धा और
विश्वास में।
विश्वास होता
है उधार, कानों
सुना; सत्य
होता है अपना,
निजी। मैं
तुम्हें किसी
पर विश्वास
करने को नहीं
कहता हूं। मैं
तो इतना ही
कहता हूं कि
परमात्मा है
तो घबराते
क्यों हो? खोजो,
मिल जाएगा।
इतने डरते
क्यों हो आंख
खोलने से? अगर
है तो मिल ही
जाएगा। और अगर
नहीं है तो भी
अच्छा होगा कि
जाहिर तो हो
जाए हमें कि
नहीं है, तो
हम इस झंझट से
बचें।
सत्य
हर हाल में
कल्याणकारी
है। इस तरफ हो
या उस तरफ, लेकिन सत्य
निर्णायक है।
तो मैं
तुमसे कहूंगा, जानने की
यात्रा पर
निकलो। माने
तो बहुत, कहां
पहुंचे? कहीं
के न रहे
मानकर। जानने
की यात्रा पर
निकलो। तो
पहली बातः
तो छोड़ने
पड़ेंगे सारे
विश्वास। यह
बात तुम्हें
उलटी लगती है,
अटपटी लगती
है कि श्रद्धा
पाने के लिए
विश्वास
छोड़ने
पड़ेंगे।
लेकिन यह तर्क
बिल्कुल साफ-सुथरा
है। यह गणित**ऱ्**बिल्कुल
सीधा है। इसे
समझने के लिए
कोई बहुत बुद्धिमता
नहीं चाहिए।
अंधेरे
में बैठे हो
और सोचते हो
रोशनी है, तो फिर दीया
कैसे जलाओगे?
अंधेरे को
अंधेरे की तरह
स्वीकार करो
तो अंधेरे की
स्वीकृति ही
तुम्हारे
भीतर दीया
जलने की तड़पन
बन जाएगी।
बैठे
हो वासना में
और
ब्रह्मचर्य
पर भरोसा करते
हो। छोड़ो
यह बकवास। यह
बकवास सिर्फ
वासना को छिपा
लेने का उपाय
है। आज तो तुम
भी जानते हो
कि वासना में
भरे हो, लेकिन
सोचते हो
ब्रह्मचर्य
कल होगा, परसों
होगा, जल्दी
ही
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
जाएंगे, इस
सब वासना से
छूट जाएंगे।
भरोसा
ब्रह्मचर्य
में रखते हो; जीते वासना
को हो। इससे
तुम्हारे
जीवन में द्वंद्व
खड़ा होता है।
इससे तुम दो टुकड़ो में
टूट जाते हो; इससे तुम
कभी अखंड नहीं
हो पाते। और
अखंड न हुए तो
कैसी शांति? तुम्हारे
भीतर कलह जारी
रहेगी। निर्द्वंद
न हुए तो कैसा
सुख? तुम्हारे
भीतर महाभारत छिड़ा
रहेगा?
मानते
ब्रह्मचर्य
को हो, जानते
वासना को
हो--यह
तुम्हारी
अड़चन है। इसी ने
तुम्हें
विक्षिप्त
किया है।
जानते
धन को हो, मानते
ध्यान को हो।
और
स्वभावतः
तुम्हारा
जीवन
तुम्हारे
जानने से
चलेगा, तुम्हारे
मानने से नहीं
चलेगा। इसलिए
तुम अपनी
मान्यताओं की
लचर हालत
देखते हो?.... काम
नहीं आती हैं।
बकवास करनी हो
तो कर सकते हो;
प्रवचन
देना हो तो दे
सकते हो; शास्त्र
लिखना हो तो
लिख सकते हो; किसी दूसरे
अंधे को
रास्ता बताना
हो तो बता सकते
हो। मगर
तुम्हारे काम
नहीं आती
तुम्हारी जानकारियां।
तुम्हारी
जिंदगी तो
आंदोलित होती
है तुम्हारे
ही अनुभव से।
वे जो दूसरों
से उधार जानकारियां
ले ली हैं, विश्वास
ले लिए हैं, उनसे क्या
हुआ है? इस
सत्य को देखो।
तुम जिस ढंग
से जी रहे हो, वही गवाह है
कि तुम्हारी
असली श्रद्धा
कहां है।
सोचो, यहां धन की
ढेरी लगी है
और यहां ध्यान
की ढेरी लगी
है, और मैं
तुमसे कहूं कि
चुन लो। दोनों
में से एक ही
चुन सकते हो, और तुम कहते
हो, मानता
तो मैं ध्यान
में हूं, मगर
चुनूंगा धन
को। तो क्या
अर्थ होगा? अगर मानते
ध्यान में हो
तो फिर धन को
क्यों चुन रहे
हो? तुम
कहते हो मानता
तो मैं ध्यान
में हूं, लेकिन
मैं कमजोर
आदमी हूं, अभी
बाल-बच्चे हैं,
परिवार है,
और ध्यान की
अभी जल्दी
क्या है, कर
लेंगे, फिर
कर लेंगे, बाद
में कर लेंगे,
धन तो अभी
मिलता है, इसे
उठा लें। फिर
धन से मैं दान
भी करूंगा, मंदिर भी
बनवा दूंगा; पुरोहित रख
दूंगा मंदिर
में, पूजा
करेगा; धार्मिक
कृत्य करूंगा
इस धन से, हालांकि
मानता ध्यान
में हूं।
तुम जो
करते हो उससे
ही पता चलता
है कि तुम्हारी
असली श्रद्धा
कहां है; तुम
जो कहते हो
उससे कुछ पता
नहीं चलता।
तुम्हारा
कृत्य ही
तुम्हारी
श्रद्धा का सूचक है,
गवाह है। तो
अपने कृत्यों
को जांचो।
तुम्हारे
कृत्य ही बता
देंगे
तुम्हारा असली
धर्म क्या है।
कोई कहता है
मेरा धर्म
हिंदू है, कोई
कहता है मेरा
धर्म मुसलमान
है, कोई
कहता है मेरा
धर्म जैन है
और कोई कहता
है मेरा धर्म
बौद्ध है। इन
आदमियों के
कृत्य तो देखो।
इनके कृत्य सब
समान हैं।
हिंदू भी धन
के पीछे दौड़ा
जा रहा है, मुसलमान
भी धन के पीछे
दौड़ रहा है, जैन
भी दौड़ रहा है,
बौद्ध भी
दौड़ रहा है।
और ये कहते
हैं, हम
में बड़ा मतभेद
है, हमारे
विश्वास बड़े
अलग-अलग हैं।
और चारों बाजार
में दौड़े जा
रहे हैं। इनके
कृत्य को देखो
और तुम पाओगे
इन सबका धन ही
धर्म है।
मंदिर-मस्जिद
से क्या फर्क
पड़ता है? कुरान-बाइबिल
से क्या फर्क
पड़ता है?
असलियत
तो इनकी
जिंदगी है।
इनकी जिंदगी
की कहानी को
परखो। इन सबका
एक ही धर्म है; धन इनका
धर्म है, पद
इनका धर्म है।
और बाकी सब
बकवास है।
बाकी तो ऐसे
ही है जैसे एक
ने एक रंग के
कपड़े पहन रखे
हैं, दूसरे
ने दूसरे रंग
के कपड़े पहन
रखे हैं। यह तो
कपड़ों का भेद
हुआ।
तुम्हारे
भीतर
तुम्हारी अंतरात्मा
में कोई भेद
है?
दुनिया
में दो ही तरह
के लोग होते
हैं: आस्तिक
और नास्तिक।
मगर आस्तिक
मैं उनको कहता
हूं जिनकी
जीवन-चर्या
प्रमाण देती
है कि वे आस्तिक
हैं, जिनकी
जीवन-चर्या ही
जिनकी
श्रद्धा की
सूचक है।
इसलिए मेरा
जोर जानने पर
है, मानने
पर नहीं। तुम
भगवान पर इतना
कम भरोसा करते
हो, इसलिए
मान लेते हो।
क्योंकि तुम
जानते होः
अगर जानने गए
तो शायद मिले
न मिले, मान
ही लो, मान
ही लेने में
सार है।
तुम्हें बहुत
भरोसा भी नहीं
है।
मैं
तुमसे कहता
हूं: जानो, क्योंकि डर
की कोई बात
नहीं है; परमात्मा
है। तुम्हारे
जानने से मिट
नहीं जाएगा और
तुम्हारे
मानने से अगर
न होगा तो हो
नहीं जाएगा।
जो नहीं है
नहीं होगा, कितना ही
मानो। और जो
है, रहेगा;
न मानो तो
भी रहेगा, मानो
तो भी रहेगा।
जानो तो भी
रहेगा, न
जानो तो भी
रहेगा।
तुम्हारे
जानने मानने,
न मानने न
जानने से कोई
अंतर नहीं
पड़ता है अस्तित्व
में।
परमात्मा है।
इसलिए
मैं तुम्हें
कमजोर नहीं
बनाता और तुम्हें
भयभीत नहीं
करता। मैं
तुमसे यह नहीं
कहता कि अगर
तुमने
विश्वास खोया
तो तुम भटक
जाओगे। नहीं, मैं तुमसे
कहता हूं:
विश्वास के
कारण तुम भटके
हो।
ऐसा
हुआ; यह घटना
मैंने सुनी
है। अमरीका
में राष्ट्रपति
कैनेडी
के भाई की
हत्या की गई--कैनेडी के
बाद सिनेटर
राबर्ट कैनेडी
की हत्या की
गई। जिस आदमी
ने हत्या की-- सिरहान
ने--तो सारे
अमरीका में
क्या, सारी
दुनिया में एक
ही बात पूछी
जा रही थी कि
क्यों, क्यों
हत्या की गई? कोई कारण
नहीं दिखाई
पड़ता था। सिरहान
पागल है, रुग्ण
है, विक्षिप्त
है? क्या
मामला है? सिरहान
का पिता तो
दूर इज़रायल
में रहता है।
पत्रकार वहां
भी पहुंच गए
और उन्होंने सिरहान के
पिता से पूछा
कि तुम तो
अपने बेटे को
भलीभांति
जानते होओगे,
तुमने इसे
बचपन से बड़ा
किया, क्यों,
यह हत्या किसलिए की
गई? क्या
तुम्हें कुछ
खयाल में आता
है कि इस बेटे में
कुछ ऐसी बातें
थीं, जिनके
कारण यह हत्या
हो गई हो? तुम
वक्तव्य दो।
सिरहान
के पिता ने
कहा : आइ जस्ट
डोंट नो।
आइ एम कंफ्यूज्ड
एंड क्रश्ड
आइ टॉट माइ चिल्ड्रन
टू फीयर
गॉड।. . . मुझे
कुछ पता नही
है। मैं तो
खुद बड़े विभ्रम
में पड़ गया
हूं। मैं तो
खुद बड़ा
चिंतित हूं।
मेरी तो समझ
में नहीं आता; मेरा तो
हृदय टूट गया।
मैंने तो अपने
हर बच्चे को
ईश्वर से डरना
सिखाया था। और
यह मेरा बेटा
ऐसा कैसे कर
सका? मैं
खुद ही यही
पूछना चाहता
हूं कि क्यों?
मैंने तो
अपने बेटों को,
अपने
बच्चों को
ईश्वर से डरना
सिखाया था। आइ
टॉट माइ
चिल्ड्रन
टू फीयर
गॉड।
अब अगर
तुम मुझसे
पूछो तो वह जो
ईश्वर का डर
सिखाया, वही
उपद्रव की जड़
है, वही
रोग का घर है; वहीं से
बीमारी उठी।
वे दो शब्द "भय
और ईश्वर' उनमें
सारी
मनुष्य-जाति
के पाप छिपे
हैं। सिरहान
का ही पाप
नहीं है, सभी
मनुष्यों के
पाप उसीमें
छिपे हैं वे
दो शब्द बड़े
खतरनाक हैं, और बड़े
महंगे हैं।
एक तो
भय, किसी का
भी हो, मनुष्य
को विकृत करता
है। भय किसी
का भी हो, मनुष्य
को विकसित
नहीं होने
देता है। भय, आकाश में
बैठे किसी
परमात्मा का,
तुम्हें
संकुचित करता
है, तुम्हें
गुलाम करता है;
तुम्हें
अपना मालिक
नहीं होने
देता। और जिससे
तुम भय करते
हो उसे कभी
प्रेम तो कर न
पाओगे। भय से
तो कभी प्रेम
होता ही नहीं।
और तुलसीदास
ठीक उल्टी बात
कह गए हैं: भय
बिनु होय न
प्रीति। और
मैं तुमसे
कहना चाहता
हूं कि भय के
साथ तो प्रीति
कभी होती ही
नहीं है। तुलसीदास
सौ प्रतिशत
गलत हैं।
भय--और प्रेम!
जिससे तुम्हें
प्रेम है उससे
तुम्हें कोई
भय नहीं होता
है। और जिससे
तुम्हें भय है
उससे तुम्हें
घृणा होती है;
प्रेम नहीं
होता।
ईश्वर
का भय सिखाया
है मैंने अपने
बेटों को, सिरहान के पिता ने
कहा।
जब तुम
भय सिखाते हो
तो तुमने
अनजाने घृणा
सिखा दी। जब
तुमने भय
सिखाया तब
तुमने अनजाने
हिंसा सिखा
दी। प्रेम सिखाओ, भय मत सिखाओ।
पहली बात।
और तुम
सभी को भय
सिखाया गया
है। भय के
कारण तुम
हिंदू हो; भय के कारण
मुसलमान हो।
भय के कारण
तुम्हारा भगवान्
है। भय के
कारण तुम कंप
रहे हो ।
तुम्हारी प्रार्थनाओं
में
आनंद-उत्सव
नहीं है सिर्फ
भय का कंपन
है। डरे हो नरकों
से; प्रलोभित
हो स्वर्गों
से। मगर कंप
रहे हो! तुम्हारे
भीतर महा कंपन
चल रहा है। ये
भयभीत घुटने
जो नमाजों
में झुके हैं,
ये भयभीत
सिर, ये
गुलामों के
सिर जो मंदिर
की मूर्तियों
के सामने रखे
हैं, यह
मनुष्य-जाति
का सबसे बड़ा
अकल्याण है।
भय
मनुष्य को
आत्मवान नहीं
होने देता है।
मैं
तुमसे यह नहीं
कह रहा हूं कि
जिंदगी में भय
की कोई
उपादेयता
नहीं है। मैं
यह भी नहीं कह
रहा हूं कि मूढ़
की भांति भय
को छोड़ दो।
मैं यह भी
नहीं कह रहा हूं
कि भय जीवन की
सुरक्षा का
उपाय नहीं है।
पर मैं तुमसे
यह कह रहा हूं:
भय तथ्यों का
हो। आग जलाती
है; आग से भयीभत
होना
स्वाभाविक
है। इसको
सिखाना नहीं
पड़ता है। तुम
अपने बच्चे को
यह थोड़ी
सिखाते हो कि
आग से डरो।
तुम बच्चे को
इतना ही
सिखाते हो कि
आग जलाती है; अगर जलना हो
तो आग के पास
चले जाओ, न
जलना हो तो
पास मत जाओ।
यह जीवन की
सहज प्रक्रिया
है।
अब एक
सांड सींग
लेकर
तुम्हारी तरफ
भागा चला आ
रहा है, तो
मैं यह नहीं
कहता कि तुम
निर्भय होकर
वहां खड़े रहो।
कि बस का
ड्राइवर
हार्न बजाए जा
रहा है, मैं
तुमसे यह नहीं
कहता कि तुम
बीच सड़क पर
खड़े होकर
ध्यान करो, सुनो ही मत, क्योंकि तुम
भयभीत नहीं
हो। यह मूढ़ता
हो जाएगी।
जहां जीवन के
तथ्य घातक हैं,
जहां जीवन
के तथ्य गङ्ढों
में ले जाते
हैं, वहां
से जागो।
इसलिए मैंने
तुमसे कहा कि
चौरासी करोड़
योनियों के भय
से मैं
तुम्हें नहीं छुड़वा
सकता, क्योंकि
वह तो आग जैसा
भय है।
तुम्हें जाना
हो मजे से जाओ;
न जाना हो
तो समझो।
लेकिन
परमात्मा का
भय? परमात्मा
को तो तुम
जानते ही नहीं
हो। और परमात्मा
आग थोड़े ही
है। और
परमात्मा कोई
खाई-खड्ड थोड़े
ही है।
परमात्मा तो
तुम्हारे
जीवन की
सर्वाधिक
सुंदर, सर्वाधिक
शुभ, सर्वाधिक
ऊंची अवस्था
है। परमात्मा
से भय? परमात्मा
तो तुम्हारे
होने का
सर्वश्रेष्ठ ढंग
है। परमात्मा
तो तुम्हारी
आत्यंतिक अभिव्यक्ति
है। परमात्मा
से भय? और
परमात्मा से
भय बना दिया
तो तुम कीड़े
हो जाओगे, तुम
जमीन पर सरकने
लगोगे, फिर
तुम उड़ न
सकोगे; तुम्हारे
पंख काट दिए
गए। सिरहान
के बाप ने कहा,
मैंने अपने
बेटों को
परमात्मा का
भय सिखाया, इसलिए मैं
बड़ा हैरान हूं
कि ऐसा कैसे
हुआ! इसीलिए
हुआ, महाराज!
काश, तुमने
भय न सिखाया
होता तो ऐसा
नहीं होता। भय
से घृणा उपजती
है। भय से
क्रोध उपजता
है। भय से
हिंसा उपजती
है। प्रेम से
करुणा उपजती
है।
लेकिन
कठिनाई मैं
समझता हूं।
कठिनाई क्या
है? धर्मगुरु
भय सिखाते हैं,
क्योंकि भय
सिखाना आसान
है। भय तो
मानने से ही
पैदा हो जाता
है। प्रेम
सिर्फ मानने
से पैदा नहीं
होता; प्रेम
जानने से पैदा
होता है। यह
कठिनाई है। इसलिए
सस्ती तरकीब धर्मगुरुओं
ने पकड़ लीः
आदमी को भयभीत
कर दो, वह
ईश्वर को मान
लेगा, भय
में मान लेगा।
भीतर तो
मानेगा भी
नहीं; ऊपर-ऊपर
कम से कम
मानने का
दिखावा
करेगा। राम-नाम
भीतर तो नहीं
जाएगा, राम-राम
की चदरिया ओढ़
लेगा। सच में
तो सिर नहीं झुकेगा
भगवान के
सामने, क्योंकि
जिसको देखा
नहीं, जिसके
सौंदर्य का
अनुभव नहीं
किया, वहां
सिर कैसे झुकेगा?
जिससे कभी
जीवन में कोई
संबंध ही नहीं
हुआ, जिससे
कभी आंखें चार
नहीं हुईं, वहां सिर
कैसे झुकेगा?
मगर भय के
कारण घुटने
कंप जाएंगे और
आदमी गिर पड़ेगा।
भय--
सस्ती तरकीब
मिल गई। और
सस्ती तरकीब
के कारण सारी
मनुष्यता को
भयभीत कर दिया
गया।
तो
पहली तो बात, भय सिखाया सिरहान के
बाप ने; वह
सभी बापों ने
सिखाया। सारी
मनुष्य-जाति
भय से पीड़ित
है। इसी भय से फिर
हिटलर पैदा
होते हैं, चंगीज
पैदा होते हैं,
तैमूर पैदा होते
हैं, सिकंदर
पैदा होते
हैं। इसी भय
से छोटे
हत्यारे, बड़े
हत्यारे, चोर,
बेईमान, राजनीतिज्ञ,
सब इसी से
पैदा होते
हैं।
मनुष्य
की छाती से भय
का पत्थर हटना
चाहिए; प्रेम
का फूल खिलना
चाहिए। लेकिन
प्रेम के साथ
एक अड़चन है।
प्रेम तो तभी
होता है जब आंखें
चार हों।
प्रेम तो जाने
से होता है; माने से
नहीं होता।
प्रेम तो
अनुभव से
उपजता है; बिना
अनुभव के नहीं
उपजता।
और
प्रेम का ही
आत्यंतिक
अनुभव
परमात्मा है। इसलिए
मैं तुमसे यह
भी नहीं कहता
कि परमात्मा को
प्रेम करो; मैं तो इतना
ही कहता हूं
कि तुम प्रेम
करो और एक दिन
तुम पाओगे कि
प्रेम
करते-करते-करते
परमात्मा
तुम्हारे
द्वार पर आ
गया। मैं
तुमसे सिर्फ
इतना ही कहता
हूं: प्रेम
करो! परमात्मा
को प्रेम करो,
यह तो मैं
तुमसे कैसे
कहूं? यह
तो तुम्हारी
कानों सुनी हो
जाएगी। कानों
सुनी सो झूठ
सब, आंखों
देखी सांच।
मैं
तुमसे इतना ही
कहता हूं
प्रेम करो--
अपने बच्चे को, अपनी पत्नी
को, अपने
पति को, अपने
मित्र को, अपने
परिवार को, प्रियजनों
को, मनुष्य
को, पशुओं
को, पक्षियों
को, पौधों
को, पहाड़ों
को। जहां तक
तुमसे बन सके,
प्रेम को
फैलाए चले जाओ,
फैलाए चले
जाओ।
जैसे-जैसे
तुम्हारा
प्रेम फैलने
लगेगा, वैसे-वैसे
तुम पाओगे, परमात्मा की
झलक आनी शुरू
हो गई।
धीरे-धीरे धीरे-धीरे
जिस दिन प्रेम
तुम्हारा
विराट हो जाता
है, तुम
प्रेममय हो
जाते हो, उसी
दिन तुम पाते
हो परमात्मा
उतर आया।
इसलिए मैंने
कहा, भक्ति
प्रेम की ही
आत्यंतिक
उत्कर्ष दशा
है।
परमात्मा
को भूलो।
तुम्हारा
परमात्मा दो कौड़ी का
है। तुम्हारा
परमात्मा
भय-जन्य है।
तुम प्रेम को
जीवन में उमगाओ।
प्रेम
स्वाभाविक
है। थोड़ी-सी
किरण तो तुम्हारे
पास है ही।
इसी किरण का
सहारा पकड़ कर
बढ़ते चलो; सूरज तक पहुंच
जाओगे। किरण
है तो सूरज से
आती होगी, सूरज
भी कहीं होगा।
आज न दिखे, कोई
हर्जा नहीं; हजार मील
दूर हो, कोई
हर्जा नहीं।
एक-एक कदम
चलकर आदमी
हजार मील की
यात्रा कर
लेता है।
लेकिन शुरुआत
वास्तविक से
करो, यथार्थ
से करो।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं कि हमें परिवार
से बड़ा प्रेम
है, इससे
किसी तरह छुड़वाएं।
मैं उनसे कहता
हूं, इसे छुड़वाना
किसको
है--बढ़ाना है।
तुम भाषा ही
गलत बोलते होः
छुड़वाएं!
यही तो कुल
जमा आशा है।
तुम्हारे
हृदय में जलता
हुआ यह
छोटा-सा दीया
है कि तुम्हें
परिवार से
प्रेम है। और
तुम्हारे
तथाकथित धर्मगुरु
और महात्मा
तुम्हें सिखा
रहे हैं: इसको छोड़ो, तब
परमात्मा
मिलेगा। इससे
ही तो कुल आशा
है; थोड़ी-बहुत
आशा इसी से
है। अगर
मिलेगा कभी
परमात्मा तो
इसी के सहारे
बढ़ने से
मिलेगा। यह
बड़ी धीमी-सी
रोशनी है अभी,
इसको बड़ा
करो।
तुम्हारा
परिवार बड़ा
होने दो।
इसलिए
जीसस कहते हैं:
अपने दुश्मन
को भी प्रेम
करो। क्योंकि
जिस दिन तुमने
दुश्मन को भी
प्रेम किया, तुम्हारा
परिवार बहुत
बड़ा हो गया।
मित्र तो रहे
ही, दुश्मन
भी सम्मिलित
हो गए।
पशुओं-पौधों
को . . . .इसलिए
महावीर कहते
हैं, अहिंसा।
पशु-पौधे, वे
भी जीवंत हैं;
उनको भी
प्रेम करो।
बुद्ध कहते
हैं करुणा। ये
सब प्रेम के ही
नाम हैं।
अलग-अलग ढंग
के लोगों ने
अलग-अलग नाम
पसंद किए हैं।
लेकिन
ये सब प्रेम
की ही अलग-अलग
भाव-भंगिमाएं
हैं। ये प्रेम
के ही अलग-अलग
रंग हैं। ये
प्रेम की ही
अलग-अलग आभाएं
हैं। ये प्रेम
के ही
प्रतिबिंब
है। महावीर
में बना
प्रतिबिंब, उन्होंने
कहा अहिंसा।
उन्होंने कहा,
किसी को
दुःख मत दो।
मगर दुःख तुम
तभी देने से रुकोगे जब
प्रेम बढ़े; नहीं तो
कैसे दुःख
देने से रुकोगे?
बुद्ध ने
कहा करुणा, फैलाओ करुणा
को। जीसस ने
कहा प्रेम।
जैसे-जैसे
तुम्हारा
प्रेम बढ़ता
जाए वैसे-वैसे
तुम्हारा और
परमात्मा के
बीच का फासला
कम होता चला
जाता है।
इसलिए यह तो
पूछना ही मत
भूल कर भी
मुझसे कभी आकर
कि हमारा
छोटा-मोटा
प्रेम है, उसको हम
कैसे मिटा दें?
उसको मिटा
दिया तो
तुम्हारे
जीवन की आशा
का दीप ही बुझ
गया; फिर
तुम भटक गए
रेगिस्तान
में। वह जो
छोटी-सी सरिता
थी तुम्हारे
जीवन में झरने
की तरह, वही
भी सूख गई, अब
तो कोई आशा न
रही। मैं कहता
हूं, इस
सरिता को बड़ा
करो; इस
सरिता को बहाओ
सागर की तरफ।
और जितने झरने
इससे आकर मिल
जाते हों, सबको
मिल जाने
दो--मित्रों
को भी, शत्रुओं
को भी, मनुष्यों
को भी, पक्षियों
को भी, पौधों
को भी, पहाड़ों
को भी, सबको
मिल जाने दो, सबको
सम्मिलित हो
जाने दो। बनने
दो इसकी बड़ी गंगा।
फिर यह पहुंच
जाएगी सागर
तक।
तुम
जहां हो, जैसे
हो, उसी के
यथार्थ को पकड़
लो, और उसी
यथार्थ के
सहारे चल पड़ो
यह छोटा-सा
धागा, यह
छोटा-सा सूत्र
तुम्हें
पहुंचा देगा।
इसलिए तो
संतों के इन
वचनों को या
उपनिषद की ऋचाओं
को या कुरान
की आयतों को
सूत्र कहा
जाता है। सूत्र
का अर्थ होता
है धागे की
तरह हैं ये।
बड़े महीन धागे
हैं, लेकिन
अगर पकड़ लिया
तो पहुंच
जाओगे।
मैंने
सुना है, एक
सम्राट अपने
वजीर पर नाराज
हो गया और
उसने वजीर को
क्रोध में आकर
नगर के बाहर
एक बड़ी मीनार
पर कैद कर
दिया। वजीर के
घर के लोग बड़े
दुःखी थे, रो
रहे थे। वजीर
ने अपनी पत्नी
को कहा, घबड़ा
मत, जब मैं
चला जाऊं और
बंद कर दिया
जाऊं, तो
गांव में एक
फकीर है, तू
उसके पास
जाना। जब भी
कोई उलझन होती
है मुझे--ऐसी
जिसे मैं नहीं
सुलझा पाता, जिसको
बुद्धि नहीं
सुलझा पाती, मैं उस फकीर
के पास जाता
हूं। वह
बुद्धि के आगे
गया है। वह
जरूर कोई
रास्ता निकाल
लेता है। वह
जरूर कोई
सूत्र तुझे
बता देगा, कोई
रास्ता बन
जाएगा। तू
घबड़ा मत, रो
मत।
वजीर
तो बंद कर
दिया गया ऊंची
मीनार पर, ताले जड़ दिए
गए। भूखा
मरेगा, तड़पेगा। कूदे
तो जान निकल
जाएगी। कोई
पांच सौ फीट
ऊंची मीनार है;
कोई
द्वार-दरवाजा
नहीं है। सब
दरवाजे बंद कर
दिए गए; नीचे
पहरा लगा दिया
गया। पत्नी
फकीर के पास
गई। उसे बहुत
आशा तो नहीं
थी कि अब कोई
रास्ता बन सकता
है; कैसे निकालेगी
पति को? फकीर
ने कहा, कोई
हर्जा नहीं।
तेरे पति ने
कहा था, मुझसे
आकर सूत्र पूछ
लेना, वह
खुद ही बता
गया है
रास्ता।
सूत्र में तो
सारा सार है।
पत्नी
ने कहा, मेरी
कुछ समझ में
नहीं आती, पहेलियां मत बुझाइए।
मैं यहां कोई
धर्म-चर्चा, अध्यात्म-चर्चा
करने नहीं आई
हूं। मेरा पति
मरने के करीब
है, भूखा
वहां पड़ा है।
आप कोई रास्ता
बताइए।
उस
फकीर ने कहा, तू ऐसा कर, भृंगी नाम
का कीड़ा होता
है, उसको
पकड़ ले। उसकी मूंछों पर
थोड़ी शहद लगा
दे और उसकी
पूंछ में एक
पतला धागा
बांध दे--रेशम
का पतला धागा।
उस
पत्नी ने कहा, इससे क्या
होगा?
उसने
कहा, इससे सब
हो जाएगा। और
जाकर मीनार पर
उस भृंगी को
छोड़ दे। शहद
की गंध पा कर
वह सरकना शुरू
करेगा, बढ़ेगा
आगे। और मूंछों
पर शहद लगी है,
इसलिए मिलनेवाली
तो है ही
नहीं। ऐसी तो
शहद लगी है मूंछों
पर। संसार ऐसी
ही शहद का नाम
है जो
तुम्हारी मूंछों
पर लगी है।
तुम भागते-फिरते
हो, गंध
आती चली जाती
है। तुम
भागते-फिरते
हो। अब तुम्हारी
मूंछें
तुमसे आगे
छलांग लगा
जाती हैं।
मिलना कभी नहीं
होता; गंध
आती रहती है।
गंध आती रहती
है, मिलना
कभी नहीं
होता। इसलिए
तो ज्ञानियों
ने इसे माया
कहा है। मिलती
है, मिलती
है; अब
मिली, अब
मिली। मिलती
कभी नहीं।
पहुंचने के
करीब सदा रहते
हैं, लेकिन
पहुंचते कभी
नहीं हैं।
मंजिल आती-आती
लगती है, आती
नहीं है। और
इतने करीब
मालूम पड़ती है
कि रुक भी
नहीं सकते। मर
जाते हैं, थक
जाते हैं, मगर
रुक नहीं
सकते।
क्योंकि लगता
है अब मिली; यह बिल्कुल
पास से आ रही
है गंध।
उस
भृंगी की दशा
समझो। उसकी
मूंछ पर बिठा
दी है शहद।
उसे गंध आई।
दीवाना हो
गया। शहद का
रस, शहद का
प्रेम उसे
खींचने लगा, वह भागने लगाः
पास ही है, गंध
इतने करीब से
आ रही है। और मूंछें
आगे सरकने
लगीं। और उसकी
पूंछ में बंधा
हुआ रेशम का
धागा मीनार पर
चढ़ने
लगा। थोड़ी ही
देर में वह
मीनार पर
पहुंच गया।
पति ने उसको
आते देखा, फिर
उसकी पूंछ में
बंधे हुए पतले
धागे को देखा
समझ गया, फकीर
ने सूत्र दे
दिया। धागे को
धीरे-धीरे खींचा।
धागे में फिर
एक दूसरा मोटा
धागा बंधा आया;
फिर मोटे
धागे में एक
सुतली बंधी आईः
फिर
सुतली में एक
मोटी रस्सी
बंधी आई। और
फिर उस रस्सी
के सहारे वजीर
मीनार से उतर
कर भाग गया, मुक्त हो
गया।
ऐसा ही
है। एक सूत्र
पकड़ लो। यह जो
तुम्हारे जीवन
में थोड़ी-सी
प्रेम की किरण
है, इसे बुझा
मत देना। इससे
बड़ी
आत्महत्या और
कोई नहीं है।
इसे बुझा मत
देना। इसकी
निंदा मत करना।
यह मत कहना
शारीरिक है; यह मत कहना
कामुक है; यह
मत कहना कि यह
तो संसार की
है। संसार में
तुम हो तो कुछ
संसार में
होगा जो
परमात्मा से
जोड़े, नहीं
तो फिर तो कोई
उपाय ही नहीं
है। कोई सूत्र
होगा जो दोनों
किनारों को
जोड़ता होगा।
कोई सेतु
होगा। संसार
में जरूर कोई
एक बात होगी
जो संसार की
नहीं होगी।
इसे
मैं दोहराऊं:
परमात्मा को
पाने की एक ही
आशा है कि
संसार में कुछ
हो जो
गैर-संसारी
हो। नहीं तो
फिर कैसे पाओगे? कुछ हो जो
यहां आता हो
और यहां का न
हो; यहां
तक आता हो
जरूर और वहां
का हो, पार
का हो।
तुम्हारे
जीवन में प्रेम
के अतिरिक्त
ऐसी कोई और
चीज नहीं है।
यही भक्तों का
निवेदन है।
प्रेम
ही एकमात्र
सूत्र है, जिसके सहारे
तुम
धीरे-धीरे-धीरे,
कदम-कदम, रत्ती-रत्ती,
बढ़ते-बढ़ते
एक दिन
परमात्मा में
पहुंच जाओगे।
जानिए, मानिए मत।
और जानना हो
तो प्रेम के
इस छोटे-से धागे
को पकड़िए।
सिरहान
के बाप ने कहा
कि मैंने तो
ईश्वर का भय
सिखाया था।
वहीं चूक हो
गई। तुम्हें
भी भय सिखाया
गया है। और भय
के आधार पर
विश्वास
सिखाया गया
है। तुम्हें
पहले भयभीत
किया जाता है; फिर जब तुम
भयभीत हो जाते
हो, तुम
पूछते हो कोई
सहारा चाहिए;
तब तुम्हें
ईश्वर की धारणा
पकड़ा दी जाती
है कि ये
ईश्वर रहे, इनको पकड़े
रखो। जब डर
लगे तो
हनुमान-चालीसा
पढ़ना। जब
भय आए तो
ईश्वर को याद
करना। पहले भय
पैदा करवा
देते हैं, फिर
इलाज पकड़ा
देते हैं। यह
तो बड़ी
जालसाजी हो
गई।
पंडित-पुरोहित,
धर्मगुरु, राजनेता इस
जालसाजी पर ही
जीते रहे हैं।
तुम
विश्वास से जागो। अगर
कभी श्रद्धा
के आकाश में
उठना हो तो
विश्वास को
बिल्कुल
भ्रष्ट कर दो, नष्ट कर दो, जला डालो,
आग कर दो, राख कर दो।
पहले बहुत डर
लगेगा, क्योंकि
डर तुम्हें
सिखाया गया
है। जैसे ही तुम
विश्वास छोड़ोगे,
तुम्हारा
सारा प्राण
कंपने लगेगा
कि अब मैं
कैसे जीऊंगा
ईश्वर के बिना
सहारे। लेकिन
धीरे-धीरे तुम
पाओगे कि वह
झूठा सिखाया
हुआ भय है। भय
की भी कोई जरूरत
नहीं है। यह
संसार हमारा
है; हम
इसके हैं। यह
अस्तित्व
हमारा है; हम
इसके हैं। इस
अस्तित्व से
हम आए हैं; यह
हमारा दुश्मन
नहीं हो सकता।
इसी अस्तित्व की
हम उर्मियां
हैं; इसी
अस्तित्व की
हम तरंगें
हैं। यह सागर
है। और हम
लहरें हैं।
इससे हमारा
विरोध क्या हो
सकता है? यह
हमें मिटाने
को उत्सुक
क्यों हो सकता
है? यह तो
हमारा जीवन
है। जो इससे
आता है, शुभ
है।
ऐसे
सद्भाव से खोज
में लग जाओ।
और एक धागे को
पकड़ लो। भक्तों
ने प्रेम का
धागा पकड़ा है, ज्ञानियों
ने ध्यान का।
मगर दोनों
धागे एक ही धागे
के दो नाम
हैं। क्योंकि
जब तुम
प्रेमपूर्ण
हो जाते हो तो
तुम
ध्यानपूर्ण
हो जाते हो और
जब तुम
ध्यानपूर्ण
हो जाते हो, तुम
प्रेमपूर्ण
हो जाते हो।
एक को बुलाओ, दूसरा
अपने-आप आ
जाता है; उसके
साथ ही आता
है। जैसे एक
गाड़ी के दो
चाक, ऐसे
प्रेम और
ध्यान।
मगर
जानो; मानना
छोड़ो।
दूसरा
प्रश्न:
पहले
से संबंधित
हैः कल आपने
कहा, "मिटो,
स्वयं को मिटाओ और
परमात्मा से
मिलन हो
जाएगा।' लेकिन
मुझे अपने को
मिटाने में भय
लगता है। आपके
पास रहकर भी
मुझे अपने को
मिटाने में भय
लगता है। कृपा
करके समझाएं
कि मैं अपना
यह भय कैसे
दूर करूं?
जब
मैं कहता हूं
अपने को मिटाओ
तो तुम मुझे
गलत मत समझ
लेना। तुम यह
मत समझ लेना
कि तुम हो और
तुम्हें अपने
को मिटाना है।
जब मैं कहता
हूं अपने को मिटाओ तो
मैं इतना कहता
हूं: कृपा
करके भर आंख
अपने को देखो; तुम पाओगे
तुम नहीं हो।
यह है मेरा
मतलब अपने को
मिटाने का।
अगर तुम हो तो
तब तो कैसे
मिटाओगे?
जो है
उसे तो मिटाया
नहीं जा सकता।
अगर अंधेरा
होता तो दीए
के जलाने से
कैसे मिट जाता? तुम दीया
जलाते हो, कमरे
का फर्नीचर तो
नहीं मिट जाता;
अंधेरा ही
मिटता है
सिर्फ।
फर्नीचर तो
अपनी जगह रहता
है। सच तो यह
है, अंधेरे
में दिखाई
नहीं पड़ता था,
रोशनी में
दिखाई पड़ता है;
और हो जाता
है, और
प्रकट हो जाता
है, और
स्पष्ट हो
जाता है।
अंधेरा मिट
जाता है; फर्नीचर
तो नहीं मिटता,
दीवाल-दरवाजे
तो नहीं मिटते।
अंधेरे में
मिटे मालूम
होते थे, रोशनी
में और प्रकट
हो जाते हैं, और साफ हो
जाते है कि
हैं; रोशनी
में
प्रामाणिक
रूप से हो
जाते हैं। तो दीएके
जलने पर कौन
मिटता है।
दीए के
जलाने पर वही
मिटता है जो
था ही नहीं। अब
. . . अंधेरा
मिटाया थोड़े
ही जाता है; अगर मिटाना
पड़ता होता तो
मिटाना
मुश्किल हो
जाता। फिर तो
अंधेरा भी
झंझट खड़ी
करता। दीया
जला लेते और अंधेरा
कहता कि नहीं
मिटते, संघर्ष
लेंगे--तो झगड़ा
होता, युद्ध
मचता; कभी-कभी
दीया भी बुझ
जाता।
अंधेरा बुझा
देता दीए को; कभी शायद
अंधेरा हार
जाता और दीया
बुझा देता मगर
इतनी आसानी से
न मिट जाता
जैसे मिटता
है। तुमने जलाया
नहीं दीया कि
अंधेरा कहां
गया, पता
नहीं। था ही
नहीं।
तो जब
मैं कहता हूं
अपने को मिटाओ
तो मैं तुमसे
यह कह रहा हूं
कि तुम हो
नहीं; ज़रा गौर से
देखो। उस
देखने में ही
मिट जाओगे। और
जैसे ही
तुम्हें पता
चला कि मैं नहीं
हूं, वैसे
ही तुम्हें
पता चलेगा कि
परमात्मा है।
कोई परमात्मा
हत्यारा थोड़े
ही है कि तुम
मिटोगे तब
तुम्हें
मिलेगा। यह
कोई उसने शर्त
थोड़े ही लगा
रखी है। कोई
ऐसा सौदा थोड़े
ही है कि जब तक तुम
न मिटोगे, जब
तक तुम अपनी
गर्दन न
काटोगे, तब
तक मैं
तुम्हें न
मिलूंगा।
परमात्मा कोई
ऐसा दुष्ट, ऐसा कोई
हत्यारा तो
नहीं है।
नहीं, अड़चन केवल
इतनी ही है कि
जब तक तुम
सोचते हो मैं
हूं, तुम्हारा
यह सोचना कि
मैं हूं, तुम्हारु यह मानना है
कि मैं हूं
तुम्हारी
आंखों पर पर्दा
बन जाता है।
यह सिर्फ
मान्यता है; हो तो तुम
नहीं। यही तो
होता है जब
तुम ध्यान में
शांत हो कर
बैठते हो और
भीतर झांकते
हो, तो तुम
पाते हो कि
मैं हूं ही
नहीं; कभी
भी नहीं था।
सिर्फ एक
भ्रांति थी, एक धारणा थी,
एक भाव
मात्र था कि
मैं हूं। जो
नहीं है वही
ध्यान में मिट
जाता है। जो
नहीं है--वही
प्रेम में भी
मिट जाता है।
जो नहीं
है--वही मिटता
है।
यह
प्रश्न पूछा
है प्रज्ञा
ने।
पूछा
है : "कल आपने
कहा, मिटो,
स्वयं को मिटाओ और
परमात्मा से
मिलन हो
जाएगा।' मेरी
बात को ठीक से
समझ लेना। मैं
यही कह रहा हूं
कि अपने को
देखो ठीक से।
कभी शांत
बैठकर निरीक्षण
करो : कौन हूं
मैं, कहां हूं
मैं, क्या
हूं मैं, और
तुम कहीं भी न
पाओगे। एकदम
सन्नाटा छा
जाएगा। "कौन
हूं मैं', जैसे
ही यह प्रश्न
उठेगा, तुम
पाओगे। एकदम
सन्नाटा उठा।
इसलिए रमण महर्षि
अपने साधकों
को कहते थेः
एक ही प्रश्न
पर्याप्त है,
पूछो "मैं
कौन हूं! मैं
कौन हूं!
पूछते रहो सतत।
जब भी सुविधा
मिले, बैठकर
शांति से पूछ
लेते रहो। मैं
कौन हूं! मैं
कौन हूं!
रमण को
जो लोग पढ़ते
हैं, उनको भी
बड़ी भ्रांति
रहती है। वे
सोचते हैं, ऐसा पूछने
से पता चल
जाएगा कि मैं
कौन हूं। चूक
गए तुम, बात
समझे ही नहीं।
ऐसा पूछने से
एक दिन पता चलेगा,
मैं हूं ही
नहीं। रमण के
भक्त भी
कभी-कभी मेरे
पास आ जाते
हैं। वे कहते
हैं: बहुत दिन
हो गए
पूछते-पूछते
कि मैं कौन
हूं, अभी
तक पता नहीं
चला है। मैंने
कहा, तुम
चूक ही गए; तुम
बात का मतलब
ही नहीं समझे।
संतों की बात
का मर्म समझ
में सीधा-सीधा
आता नहीं है।
क्योंकि बात
इतनी दूर की
है; तुम्हारी
भाषा में उसे
कहा नहीं जा
सकता। अब रमण
ने यह नहीं
कहा कि ऐसा
पूछने से
तुम्हें पता
चल जाएगा कि
तुम कौन हो।
ऐसा पूछना तो
सिर्फ तरकीब
है तुम्हें
जगाने के लिए।
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
ऐसा पूछते
हो, पूछते
हो, खोजते
हो, तलाशते
हो कोना-कातर,
अपने भीतर
की चेतन-अचेतन
पर्तें उघाड़ते
हो, एक-एक
पर्त को तोड़ते
जाते हो जैसे
कोई प्याज को
छीलता हो--
छीलते जाते हो
: मैं कौन हूं!
मैं कौन हूं!
छीलते-छीलते
सब पर्तें
समाप्त हो
जाती हैं; शून्य
हाथ में आता
है। प्याज बची
ही नहीं; शून्य
मात्र रह गया।
यही तुम हो और
यही परमात्मा
है; लेकिन
तुम बचे नहीं।
इस शून्य में
तुम कहां हो? कहां रही
प्रज्ञा? अगर
प्रज्ञा
खोजने चले तो
एक दिन पाएगी
कि नहीं बची।
और जहां
प्रज्ञा नहीं
बची, वहीं
"प्रज्ञा' का
जन्म है; वहीं
बोध का जन्म
है; वहीं
समाधि फलती
है। वहीं
परमात्मा
उतरता है।
और यह
स्वाभाविक है
कि मिटने में
डर लगे। मिटने
की बात ही घबड़ाने
वाली है।
मिटने का शब्द
ही भय पैदा
करता है, कंपन
पैदा कर देता
है। लेकिन तुम
हो ही नहीं। ऐसा
सोचो, मिटने
की बात ही
क्या सोचनी?
मिटोगे
क्या खाक!
होते तो मिट
भी सकते थे।
हो ही नहीं, फिर क्या भय
है! हो ही
नहीं। इस सत्य
को खोजो।
मेरी
बात मान मत
लेना कि मान
लिया कि चलो, अब आप कहते
हैं कि चलो, नहीं है। पर
इससे कुछ भी न
होगा। तुम बने
ही रहोगे।
मेरी बात को
तो सिर्फ एक
प्रेरणा समझो,
एक चुनौती
कि मैं ऐसा कह
रहा हूं कि
तुम नहीं हो
तो "मैं देखूं
तो' जांच-पड़ताल
तो करूं: हूं
या नहीं? यह
बात सच है या
झूठ?' मेरी
बात पर भरोसा
मत कर लेना, न विश्वास
कर लेना। इसको
परीक्षण की
कसौटी पर कसना।
बोधिधर्म
के पास ऐसा
हुआ था।
सम्राट वू ने
कहा था कि मैं
बड़ा चिंतित
रहता हूं, बड़ा परेशान
रहता हूं, मेरा
मन शांत होता
ही नहीं है।
मैं कैसे शांत
हो जाऊं? उसका
कुछ उपाय बता
दें।
बोधिधर्म
ने कहाः
तीन बजे रात आ
जाओ। अकेले
आना। दरबारियों
इत्यादि को
साथ मत ले
आना। सिपाही, शरीर-रक्षक,
कोई नहीं; अकेले आना
बिल्कुल।
मैं
तीन बजे
प्रतीक्षा
करूंगा। और जब
आओ तो खयाल
रखना, अपने
इस "मैं' को
ले आना, क्योंकि
मैं शांत ही
कर दूंगा इसे।
वू
घबड़ाया कि
आदमी पागल है।
जब मैं आऊंगा
तो मैं तो आ ही जाऊंगा; यह कह रहा है
मैं साथ ले
आना। फिर
बोधिधर्म की आंखें
और बोधिधर्म
का ढंग कहने
का, और
अकेले में तीन
बजे रात
बुलाना! और इस
आदमी के बारे
में हजारों
अफवाहें आ रही
थीं और इस
आदमी के संबंध
में न मालूम
कैसी-कैसी किंवदतिंयां
प्रचलित हो
रही थीं कि यह
बड़ा खतरनाक
है। एक शिष्य
से इसने, जब
तक उसने अपना
हाथ काट कर
इसको न दिया, तब तक उसका
शिष्यत्व
स्वीकार नहीं
किया। यह आदमी
कुछ अजीब है
और खतरनाक है।
और रात के
अंधेरे में
तीन बजे आना!
और यह भी कहता
है कि शांत कर
ही दूंगा!
उसने सोचा कि
आना ठीक नहीं
है, खतरे
से खाली नहीं
है। पर सो भी न
सका।
अब तक
उसने बहुत-से
साधुओं से, बहुत-से
महात्माओं से
कहा था कि इस
मेरे "मैं' को
किसी तरह शांत
कर दें। इतना
बड़ा
साम्राज्य मिल
गया, फिर
भी शांत नहीं होता;
बेचैनी
मिटती ही नहीं,
बेचैनी बनी
ही रहती है, चैन का कोई
पता नहीं है।
किसी तरह मुझे
शांति दें!
किसी ने कभी
नहीं कहा था
कि शांत कर
देता हूं, तू
आ जा।
उन्होंने
बड़ी-बड़ी बातें
कीं, लेकिन
उन बातों से
कुछ सार न
हुआ। पहली दफा
एक आदमी मिला
है जिसने बात
की ही नहीं है;
जिसने कहा
कि तू आ ही जा
कल सुबह एकांत
में, निपटारा
कर ही देते
हैं, कब तक
तू परेशान
रहेगा। इसको
शांत ही कर
देंगे। कहीं
ऐसा न हो कि यह
आदमी शांत
करने की कला
जानता हो और
मैं न जाऊं!
जाने में भी
डर लगे कि यह आदमी
कहीं पगला न
जाए, लट्ठ
न मार दे।
लकड़ी रखे रहता
था, बड़ा
लट्ठ रखे रहता
था बोधिधर्म
अपने पास! और इसके
बाबत
कहानियां ऐसी
हैं कि कौन
जाने, यह
व्यवहार कैसा
करे! और एकांत
में जाना!
मगर
फिर सो भी न
सका, रुक भी न
सका। जाना
कठिन था, तो
भी गया। ऐसी
प्रबल
आकांक्षा
खींचे ले गई।
पहुंच गया तीन
बजे रात।
बोधिधर्म
बैठा था अपना
डंडा लिए, दीया
जलाए। गांव के
बाहर एक मंदिर
में ठहरा था।
उसने कहाः
तो आ गए! "मैं' को ले आए कि
नहीं?
सम्राट
ने कहा : आप भी
क्या बातें
करते हैं! जब
मैं आ गया तो
अब और "मैं' को कहां
छोड़ता? मैं
"मैं' को
छोड़ कर भी
कैसे आ सकता
हूं? यह
बात आप दुबारा-दुबारा
क्यों कहते
हैं कि मैं को
ले आए कि नहीं?
बोधिधर्म
ने कहा कि मैं
इसलिए कहता
हूं कि मैं को
लाओगे तो ही
मैं शांत कर
सकूंगा; नहीं,
तुम घर रख
आओ और तुम
अकेले आ जाओ
तो शांत किसको
करूंगा? अच्छा
बैठ जाओ, आंख
बंद कर लो और
खोजो कि यह
"मैं' कहां
है। और जैसे ही
मिल जाए, पकड़
लेना, झपट
कर पकड़ लेना, और मुझे बता
देना। तो मैं
उसको उसी वक्त
शांत कर
दूंगा।
क्योंकि पहले
तो पकड़ना
पड़ेगा न! और
तुम्हारे
भीतर है तो
मैं तो कैसे पकड़ूंगा, तुम्हीं
पकड़ो।
सम्राट
ने सोचा कि
बेकार आना हुआ, यह आदमी
कहां की बातें
कर रहा हैः
झपट कर पकड़
लेना!
मगर अब
आ ही गया था तो
बैठा इसके
सामने, आंख
बंद की, खोज
करना शुरू की,
और सामने
बैठा है
बोधिधर्म लिए
लट्ठ, कब
सिर में मार
दे और कहता जा
रहा हैः खोजो,
सो मत जाना,
झपकी मत
खाना, मैं
डंडा लिए बैठा
हूं। आज इसका
निपटारा ही कर
देना है, कब
तक तू इससे
परेशान रहेगा!
इसको शांत ही
करके
भेजेंगे।
सुबह हो, तब
तक यह खत्म ही
कर देना है।
तो
जितना खोजा वू
ने उसके सामने, बोधिधर्म के
बैठे, खोजा
उसने। कभी
भीतर देखा ही
नहीं था। कौन
देखता है! तुम
बातें करते होः मैं, अशांति, मन,
फलां-ढिकां,
बातचीत।
तुम कभी खोजते
थोड़े ही हो।
खोजा तो बड़ा
हैरान हुआ।
पकड़ में ही
नहीं आता। कौन
मैं, कैसा
मैं! इधर गया, उधर गया, भीतर
की पर्त-पर्त
छानी; कहीं
किसी मैं को न
पाया।
धीरे-धीरे
शांत होने
लगा। इस खोज
में ही शांत
होने लगा। जब
सुबह सूरज उग
रहा था तो
उसके चेहरे पर
अपूर्व
थी।
बोधिधर्म
ने कहाः
अब बहुत हो
गया। आंख खोलो
और जवाब दो।
पकड़ पाए या
नहीं?
वू
हंसने लगा।
उसने कहाः
नहीं पकड़ पाया, लेकिन आपकी महाकृपा
कि आपने शांत
कर दिया।
मिलता ही नहीं
है। है ही
नहीं तो
अशांति कैसी!
सारे
ध्यान के
प्रयोग, साक्षी
के प्रयोग, इसी दिशा
में गतिमान
होते हैं।
तो प्रज्ञा
को मैं कहूंगाः
भय लगता है, यह तो
स्वाभाविक है,
क्योंकि
तूने मान रखा
है कि तू है और
मिटाना पड़ेगा।
इधर हम कुछ
बात ही और कह
रहे हैं। इधर
यह कहा जा रहा
है कि तू है ही
नहीं। इतना
जानना है और
मिटना हो गया।
और जैसे ही
मिटना हो जाता
है वैसे ही
परमात्मा
प्रकट हो जाता
है। इधर वू
मिटा, उधर
परमात्मा
प्रकट हुआ।
पर्दा हटा तो
जो छिपा है वह
प्रकट हो गया।
यह भय
इसलिए लगता है
कि अभी मन ऊबा
भी नहीं है इस
अशांति से, इस अहंकार
से। अभी मन
भरा भी नहीं
है।
खुद
झिझकता हूं कि
दावा-ए-जुनूं
क्या कीजे
कुछ
गवारा भी है
ये कैदे-दरोबाम
अभी।
मैं
डरता हूं, झिझकता हूं
कि ईश्वर के
उन्माद का
दावा भी अभी
कैसे करूं, कि प्रभु को
पाने के लिए
पागल हूं, यह
भी अभी कैसे
कहूं!
खुद
झिझकता हूं कि
दावा-ए-जुनूं
क्या कीजे
कुछ
गवारा भी है
ये कैदे-दरोबाम
अभी।
अभी दरवाजों
और छतों से
घिरा हुआ यह
जो कारागृह है, इससे मुझे
लगाव भी है।
अभी दावा भी
क्या करूं? स्वतंत्रता
का दावा क्या
करूं? अभी
इस कारागृह से
मुझे मोह है।
हम
कहते हैं कि
डर लगता है
मिटने में, क्योंकि अभी
अहंकार की
यात्रा तृप्त
नहीं हुई। अभी,
अहंकार
कहीं पहुंचता
नहीं, इस
बात का अनुभव प्रगाढ़
नहीं हुआ। अभी,
मैं कुछ कर गुजरूंगा,
ऐसी नासमझी
बनी है। अभी
दुनिया को कुछ
करके दिखा
देंगे। अभी
थोड़ी और कोशिश
कर लें। इतनी
जल्दी मैं को
न मिटाएं।
शायद कुछ आता
ही हो, कौन
जाने! अब तक
नहीं आया, यह
सच है; लेकिन
कल आ जाए, कौन
जाने! परसों आ
जाए! तो थोड़ी
और कोशिश कर लें,
थोड़ी और
कोशिश कर लें।
अभी
कारागृह से
तुम्हें मोह
है। जिस दिन
दिख जाता है
कि यह कारागृह
है, कौन
किसको रोक
सकता है? तुम्हीं
पकड़े हो।
अपने ही
पिंजरे के सींखचों
को पकड़े
हो। तुम्हीं पकड़े हो।
दरवाजा खुला
है; जिस
दिन तुम तय
करो, उस
दिन बाहर निकल
जाओ। तुम्हारे
भीतर
परमात्मा
मौजूद है, जिस
दिन तय करो उस
दिन जान लो।
मगर
अभी तुम्हें
इस "मैं' से
आशाएं हैं।
उन्हीं आशाओं
के कारण अड़चन
होती है। भय
भी लगता है, जब तुम
सुनते हो कि
मिटना पड़ेगा।
जब तुम सुनते
हो कि पलटू कह
रहे हैं--"पी
को खोजन
मैं चली, मैं
ही गई हिराय'-- तो घबराहट
लगती है कि
ऐसे प्रिय को
खोजने क्या
जाना?
अभी
तुम्हारा
अपने से प्रेम
है; और कोई
तुम्हारे
जीवन में
प्रेम नहीं
है। अभी अगर
तुम प्रेम
इत्यादि की
बातों में भी
पड़ते हो तो वह
अपने से ही
प्रेम है।
उपनिषद कहते
हैं: कौन पति
अपनी पत्नी को
प्रेम करता
है! पति अपने
लिए ही पत्नी
को प्रेम करता
है। इस पत्नी
से सुख मिलता
है, मगर
अपने लिए। कौन
पत्नी पति को
प्रेम करती है!
इस पति से
सुरक्षा
मिलती है, प्रेम
मिलता है, सुख
मिलता है--मगर
ध्यान तो अपने
पर है। सब यहां
अपने को प्रेम
करते हैं।
यहां सभी लोग
अहंकार की
पूजा में
संलग्न हैं।
यहां सभी
मंदिरों में
अहंकार की
पूजा चल रही
है। यहां
तुमने अपनी ही
मूर्ति बना ली
है; उसी के
सामने थाली
सजाए हुए आरती
उतार रहे हो।
गौर से देखो।
और इसलिए तो
प्रेम नहीं घट
पाता है, क्योंकि
घटे कैसे? इस
अहंकार के
कारण प्रेम
कैसे घटे?
प्रेम
का मतलब हैः
अब मैं नहीं, तू है।
छोटे-छोटे
प्रेम में भी
यही है। जिस
दिन प्रेमी
अपनी प्रेयसी
से कह पाता है,
"अब मैं
नहीं, तू
है,' और
जिस दिन
प्रेयसी अपने
प्रेमी से कह पाती
है। अब मैं
नहीं, तू
है? कह ही
नहीं पाते
बल्कि ऐसी भावदशा
हो जाती है-- उस
दिन प्रेम की
किरण उतरती
है। और उस दिन
छोटे-से प्रेम
में भी परमात्मा
का बोध होना
शुरू हो जाता
है।
तीसरा
प्रश्न :
आप
और सभी संत
यही कहते हैं
कि मन से
मुक्त हो जाने
पर व्यक्ति को
परमात्मा के
नजदीक जाने में
सरलता होती
है। लेकिन मन
से मुक्त होना
असंभव-सा लगता
है। हमें पता भी
नहीं चलता और
मन बार-बार कई
तरह की
वासनाओं में
भटकने लगता
है। और बहुत
सावधानी रख कर
थोड़ा होश आता
है कि फिर-फिर
मन कल्पनाओं
में बहने लगता
है। कृपा करके
इसे समझाएं।
पहली
तो बात, ऐसा
भूलकर भी मत
कहना कि आप और
सभी संत यही
कहते हैं। मैं
कुछ और बात कह
रहा हूं। मैं
तुमसे यह कह
ही नहीं रहा
हूं कि तुम वासनाओं
को छोड़कर उनके
ऊपर उठ जाओ।
मैं तुमसे यह
कह रहा हूं, बिल्कुल ही
उल्टी बात कह
रहा हूं कि
वासनाओं को
भोग लो, तो
ही उनसे ऊपर
उठ सकोगे।
नहीं तो
वासनाएं उठती
ही रहेंगी, आती ही
रहेंगी।
मेरा
जीवन पर परम
भरोसा है। यह
जीवन जैसा है, इसमें कुछ
भी छोड़ने जैसा
नहीं है; इसमें
से सब अनुभव
करने जैसा है।
इसके अनुभव से
ही गति होती
है। अब अगर
तुम बैठ गए, ध्यान की
चेष्टा करने
लगे और
वासनाएं
अतृप्त पड़ी
हैं और मन
हजार-हजार
वासनाओं को
भोगने के लिए
आतुर है--तो जब
तुम ध्यान
करने बैठोगे,
मन वासनाएं
उठाएगा। मन
ऐसे ही थोड़े
वासनाएं उठाता
है। मन यह कह
रहा हैः कहां
समय खराब कर
रहे हो? अभी
तो ये दिन
थोड़ा सुख देख
लेने के हैं।
अभी तो ये दिन
थोड़ा शरीर का
रस देख लेने
के हैं। अभी तो
ये दिन थोड़े
सौंदर्य में रमने के
हैं। अभी तो
गीत और नाच
हो। अभी यहां
कहां ध्यान
लगाए बैठे हो?
मन यह कह
रहा है कि
पहले संसार से
तो मुक्त हो लो।
बहुत
लोग कच्चे ही
पक जाना चाहते
हैं, यही अड़चन
है। कच्चे ही
पकने की कोशिश
की, सड़ जाओगे, पकोगे
नहीं। पकने
दो। इतनी घबड़ाहट
क्या है? इतनी
जल्दी भी क्या
है। यह प्रश्न
भी प्रज्ञा ने
पूछा है। और
यहां प्रज्ञा
बहुत दिन से
है। युवा है
अभी; लेकिन
बड़ी दमित
वासनाओं से
भरी है। ठीक
दूसरे किसी भी
आश्रम में उसे
धार्मिक समझा
जाता; यहां
सबसे ज्यादा
अधार्मिक
युवती वही है।
दमित वासनाएं
हैं। और
वासनाओं के
प्रति बड़ा विरोध
है, दुश्मनी
है। सभी चीज
की निंदा है।
वही अड़चन हो
रही है।
अब यह
प्रश्न उसी का
है। वह पूछती
है कि बार-बार
कई तरह की
वासनाओं में
मन भटकने लगता
है। भटकेगा
नहीं तो क्या
होगा? उन
वासनाओं के
प्रति बड़ा
विरोध है। उन
वासनाओं का
अंगीकार नहीं
है। और बिना
अंगीकार किए,
बिना
स्वीकार
किए--उनकी समझ
भी पैदा न
होगी।
वासनाएं
व्यर्थ हैं, यह सच है।
लेकिन
व्यर्थता
तुम्हें
दिखाई पड़नी
चाहिए; मेरे
कहने से
व्यर्थ नहीं
हो जाएंगी।
संतों ने कहा
होगा कुछ।
उनके कहने से
कुछ भी नहीं
हो जाएगा।
उन्होंने
जानकर कहा है।
पलटूदास पलटे,
जब
उन्होंने जान
लिया होगा। और
प्रज्ञा पलटना
चाहती
है--बिना ही
जाने! पलटूदास
पलटे संसार के
अनुभव से; देख
लिया असार है।
कानों से नहीं
सुना, आंखों
से देख लिया
असार है।
अनुभव से देख
लिया कुछ सार
नहीं है। जिस
दिन यह पकान
आ गई, यह
परिपक्वता आ
गई, उस दिन
लौट पड़े। फिर
लौट कर नहीं
देखा। फिर क्या
लौट कर देखना
थाः वहां कुछ
था ही नहीं, लौट कर क्या
देखना?
प्रज्ञा
भी पलटू बनना
चाहती है। मगर
मन में अभी
संसार में सार
है। और जितना दबाओगे मन
को उतना ही
सार मालूम
होगा। दमन से
कोई कभी मुक्त
नहीं होता; सिर्फ अनुभव
से लोग मुक्त
हो जाते हैं।
तो यह
दमित भाषा छोड़ो।
यह धार्मिकपन
छोड़ो। ये
सुनी-सुनाई
बातों और
बकवास से
मुक्त बनो। वह
जो मन कह रहा
है, उसकी भी
सुनो। वह मन
भी परमात्मा
का है। वह मन यही
कह रहा है कि
अभी इन
सीढ़ियों को
पार करो। हां,
उन्हीं
सीढ़ियों पर
अटके मत रह
जाना, यह
सच है।
दुनिया
में दो तरह के
नासमझ हैं। एक, सीढ़ियों पर
डर के कारण चढ़ते
ही नहीं, तो
वे मंदिर तक
नहीं पहुंच
पाते हैं। सीढ़ियां
ही नहीं चढ़ोगे,
मंदिर तक
कैसे
पहुंचोगे? दूसरे,
सीा**ढ़यों पर
चढ़ जाते हैं
तो सीढ़ियां
छोड़ते ही नहीं,
उन्हीं पर
बैठे रह जाते
हैं। वे भी
मंदिर तक नहीं
पहुंच पाते
हैं। सीढ़ियां
ही पकड़ लोगे तो
मंदिर तक कैसे
पहुंचोगे? सीढ़ियां चढ़ो भी,
सीढ़िया छोड़ो
भी। एक दिन
पकड़ो, एक
दिन छोड़ो।
यह जीवन का
संतुलन है।
जीवन में सब
जानने जैसा
है। जीवन में
कुछ भी ऐसा
नहीं है जो
जानो मत। और
जानने में
मुक्ति छिपी
है।
तो
प्रज्ञा से
मैं यह कहना
चाहूंगा कि
तेरी वृत्ति
बड़ी दमित है।
तू पूराने
ढर्रे की
धार्मिक, रुग्ण
ढर्रे की
धार्मिक है।
तू यहां आ गई, मेरी बातें
तुझे
प्रीतिकर
लगती हैं; मगर
तेरे मन का जो
ढांचा है, वह
बहुत ही जड़
सिद्धांतों
से बना है। तू
पूरे पक्षपात
से भरी है।
पहले से ही
तेरे ख्याल
में भरा हुआ
है; हर चीज
की निंदा है।
हर चीज गलत
है। संसार में
पाप ही पाप
है। तो संसार
से बचकर निकल
जाना है। और
अभी उम्र तेरी
कुछ भी नहीं
है।
कम
उम्र में भी
लोग बचकर निकल
जा सकते हैं; लेकिन बचकर
नहीं निकल
सकते। अनुभव
से करके निकल
सकते हैं। कम
उम्र में भी
निकल सकते
हैं। अगर
अनुभव बहुत
बोधपूर्वक हो
तो एक अनुभव
काफी होता है
एक चीज से मुक्त
हो जाने के
लिए। एक बार
क्रोध कर लिया
और अगर
व्यक्ति में
समझ हो पूरी, तो एक ही
क्रोध
पर्याप्त है,
फिर दुबारा
क्रोध न
करेगा। फिर
दुबारा क्या करना
है, वही-वही
क्या करना!
देख लिया, जान
लिया, कुछ
पाया नहीं; बात खत्म हो
गई।
मूढ़
आदमी
पुनरुक्ति
करता है।
समझदार एक भी
अनुभव से
मुक्त हो जाता
है। लेकिन
इतना समझदार
कोई भी कभी
नहीं हुआ है
कि बिना अनुभव
के मुक्त हो जाए।
इसे तू खयाल
में रख लेना।
एक अनुभव से
मुक्त हो जाए, ऐसे समझदार
लोग हुए हैं।
बहुत अनुभव से
भी मुक्त न हो पाएं,
ऐसे मूढ़
बहुत हैं।
उन्हीं को
पलटू "गंवार' कह रहे
हैं--अजहूं
चेत गंवार।
पलटू यह नहीं
कह रहे हैं कि
पहले दिन ही
चेत जाओ। पलटू
कह रहे हैं, अब तो चेतो!
इतने अनुभव के
बाद अब तो
चेतो! मगर अगर
अनुभव ही न
हुआ हो तो
इतना
बुद्धिमान
कोई भी नहीं
है कि चेत
जाए। कम से कम
एक अनुभव तो
अनिवार्य है।
असार को जानने
के लिए भी
असार का अनुभव
अनिवार्य है।
तो मन
से दमन की
धारणाएं छोड़ो।
मन को सहज और
सरल बनाओ।
नहीं तो यह
विरोधाभास
घटता है।
यहां
जो लोग मेरे
पास हैं, उनमें
जो सर्वाधिक
गतिमान हो रहे
हैं, वे ही
लोग हैं जिनके
मन में कोई
दमित धारणाएं
नहीं है; जिनके
मन में पाप का
कोई खयाल ही
नहीं है कि यह पाप,
यह पाप, यह
पाप, ऐसा
किया तो पाप
हो गया और अपराधभाव;
जिनके मन
में कोई पाप
की धारणा नहीं
है; जो बड़ी
सरल-चित्तता
से जीवन के
अनुभव में
उतरने को राजी
हैं--बिना किसी
पूर्व धारणा
के, पूर्वाग्रह
के। उनकी
मुक्ति निकट
है। वे बढ़ रहे
हैं। और जो
बहुत धारणाओं
से भरे हुए
हैं कि ऐसा किया
तो गलत; पहले
से ही मानकर
बैठे हैं, जानते
हैं नहीं कि
क्या गलत, क्या
सही, मगर
धारणाएं
मजबूत पकड़े
बैठे हैं-- ऐसे
जिद्दी और हठी
और दमित लोगों
की मेरे पास
कोई विकास की
संभावना नहीं
है।
तुम्हारे
जीवन में यहां
क्रांति घट
सकती है, मगर
एक शर्त
तुम्हें पूरी
करनी पड़ेगी।
वह शर्त हैः
अपने कचरा
सिद्धांतों
को एक तरफ
रखो। नहीं तो
वही कचरा
सिद्धांत
तुम्हारे सिर
को खाते
रहेंगे।
ध्यान करोगे
और वासनाएं उठेंगी।
इतना ही
वासनाएं कह
रही हैं कि
पहले हमें
पूरा तो करो।
वे अपनी मांग
मांग रही हैं।
वे कहती हैं, पहले हमारा
भी तो देना चुकाओ,
हमारा ऋण तो
पूरा करो। ऋण
पूरा करके फिर
चले जाना, ठीक।
ऋण बिना ही
चुकाए. . .।
और
खयाल रखना, जो व्यक्ति
वासनाओं से
गुजर कर
वासनाओं से मुक्त
होता है, उसके
जीवन में एक
समृद्धि होती
है, और जो
व्यक्ति
वासनाओं से
किसी तरह से
बचकर निकलना
चाहता है, उसके
जीवन में एक
दीनता होती है,
डर होता है।
डर तो रहेगा
ही फिर, क्योंकि
वह हमेशा
भयभीत रहेगा
कि फिर कोई
वासना न पकड़
ले।
बुद्ध
के पिता को
ज्योतिषियों
ने कहा था
बुद्ध के जन्म
पर कि यह
व्यक्ति
संन्यासी हो
जाएगा या
चक्रवर्ती
सम्राट।
बुद्ध के पिता
डर गए। और
उन्होंने कहा
कि कुछ रास्ता
बताओ कि यह
संन्यासी न हो
पाए। पंडित थे, पुराने
ढर्रे के
पंडित रहे
होंगे; उन्होंने
कहाः ऐसा
करो कि इसको
मृत्यु का कोई
अनुभव न हो, और इसके लिए
जितनी सुंदरतम
स्त्रियां
मिल सकें, इसके
पास इकट्ठी कर
दो। बचपन से
ही इसको राग-रंग
में पलने दो।
इसको बिल्कुल
सुख-वैभव में
पलने दो। इसको
दुःख, होने
ही मत दो।
इसको पता ही
मत चलने दो कि
जीवन में दुःख
होता है, मौत
होती है, कि
कोई आदमी बूढ़ा
होता है। यहां
तक उन्होंने कहा
कि इसके बगीचे
में कोई फूल कुम्हलाए
नहीं, नहीं
तो यह सोचेगा
कि यह फूल
कुम्हला
क्यों गया? और कहीं उसी
से संन्यास का
भाव पैदा हो
जाए! कोई
पत्ता सूखा
हुआ इसके बगीचे
में न बचे।
इसको छिपा कर
रखो। इसके लिए
सुंदरतम महल बनवाओ।
तो
पिता ने वैसा
ही किया।
सुंदर महल बनवाए, अलग-अलग ऋतुओं
के लिए
अलग-अलग महल
बनवाए। सारे
राज्य की सुंदर
युवतियां
इकट्ठी कर
दीं। बुद्ध
बचपन से ही बड़े
सुख में पाले
गए। और वही
संन्यास का
कारण हो गया।
उसी कारण
संन्यस्त हुए,
नहीं तो
नहीं होते।
अगर साधारण
जीवन में गुजरे
होते तो शायद
न हो पाते; शायद
और दो-चार
जन्म लगते।
मगर इतना घना
सुख मिला--और सुख
न मिला।
सुंदरतम
स्त्रियां
मिलीं--और कुछ
सौंदर्य का
अनुभव न हुआ।
जल्दी ही ऊब
गए। वासना से
गुजर गए, तेजी
से गुजर गए।
कुछ और रहा न
वासना में; सब देख लिया ;
कुछ पाया
नहीं। सब
सुख-वैभव देख
लिए। जल्दी ही,
जवान ही थे,
तभी
वैराग्य का
उदय हुआ; तभी
घर छोड़ कर
जंगल चले गए।
अगर
बुद्ध के पिता
ने उन पंडितों
से फिर पूछा होगा
कि कहां
भूल-चूक हो गई
तो उन्होंने
बताया होगा कि
आप पूरी
व्यवस्था
नहीं कर पाए।
यह रास्ते पर
निकलता था, इसने एक
बीमार आदमी
देख लिया। ऐसी
कहानी है ही।
रास्ते पर
निकलता था, इसने एक
मुर्दे की लाश
देख ली। यह
नहीं होना था।
इससे मन में
प्रश्न उठने
लगे कि जीवन
समाप्त हो
जाएगा। इससे
यह चला गया।
आप पूरा
इंतजाम नहीं
कर पाए, जैसा
हमने कहा था।
और
मेरा मानना है
कि उनके
इंतजाम के
कारण ही बुद्ध
गए।
इसीलिए
जीवन के सारे
अनुभव से गुजर
जाना मुक्ति
का उपाय है।
बुद्ध के बुद्धत्व
में उन
पंडितों का
बड़ा हाथ
रहा--अनजाने।
बुद्ध के पिता
का बड़ा हाथ
रहा--अनजाने।
उन्होंने तो
कुछ और चाहा
था; कुछ हो
गया। सब देख
लिया बुद्ध ने,
जो संसार दे
सकता था।
जल्दी ही देख
लिया। पच्चीस
साल के हुए थे
तभी सब
सुख-भोग देख
लिए। जो आदमी
पचहत्तर तक भी
सोचता ही रहता
है, वे
पच्चीस में
देख ही लिए, वे खत्म ही
हो गए। अब कुछ
बचा ही नहीं।
पच्चीस में
वृद्ध हो गए
बुद्ध--उतने
वृद्ध जितना
आदमी पचहत्तर
में होता है।
हिंदू
कहते हैं, पचहत्तर साल
में आदमी को
संन्यासी
होना चाहिए; बुद्ध
पच्चीस साल
में संन्यासी
हो गए। क्योंकि
साधारण
जिंदगी में
सुख इतने
ज्यादा थोड़े ही
मिलते हैं, इतने इकट्ठे
थोड़े ही मिलते
हैं, थोक
थोड़े ही मिलते
हैं, फुटकर-फुटकर
आते हैं, पचहत्तर
साल लग जाते
हैं आते-आते।
बुद्ध की जिंदगी
में थोक में
आए; इकट्ठे
गिर गए। पच्चीस
साल में सब
पूरा हो गया।
तुम
मेरे आश्रम
में हो तो
खयाल रखो, मैं दमन का
पक्षपाती
नहीं हूं। मैं
अनुभव का पक्षपाती
हूं। जो
वासनाएं
तुम्हारे मन
में बार-बार
उठ आती हों, उन्हें पूरा
ही कर लो। कुछ
वासना से इतना
घबड़ाना
क्या है? सीढ़ियां हैं, चढ़
जाओ। हां, सीढ़ियों
की पकड़ में मत
आ जाना। सीढ़ियां
किसको पकड़ती
हैं? तुम
मत पकड़ना
सीढ़ियों को, बस। सीढ़ियों
ने किसी को
कभी पकड़ा हो, ऐसा मैंने
सुना नहीं। तो
सीढ़ियों से
क्या घबराना?
रख लो पैर, चढ़ जाओ।
गुजर जाओ।
मंदिर में
पहुंच जाओगे।
वासना
की सीढ़ियों से
चढ़कर ही
कोई
प्रार्थना तक
पहुंचता है।
और विचार की सीढ़ियां चढ़कर ही
कोई
निर्विचार तक
पहुंचता है।
और संसार परमात्मा
तक जाने का
आयोजन है, चुनौती है।
छोड़ो
विरोध। छोड़ो
दमन। छोड़ो
नकार।
पूछा
है प्रज्ञा नेः "आप और
सभी संत यही
कहते हैं. . .।' और सभी
संतों का मुझे
पता नहीं, क्योंकि
तुम्हारे सभी
संतों में
बहुत तो संत
हैं ही नहीं।
तुम्हारे सौ
संतों में
एकाध संत होता
है, निन्यानबे
तो तुम जैसे
ही रुग्ण और
तुमसे भी ज्यादा
महारुग्ण
होते हैं। मगर
उन निन्यानबे
की भाषा
तुम्हें समझ
आती है, क्योंकि
वे तुम्हारी
रोग की भाषा
बोलते हैं। और
वह जो एक है, उसकी भाषा
तुम्हें समझ
में नहीं आती।
उन्हीं थोड़े
से एक-एक संत
को चुनकर मैं
बोल रहा हूं
उनके ऊपर, ताकि
तुम्हें छांट
कर बता दूं कि
कितने संत हैं।
असंत तो बहुत
हैं, इसलिए
उनकी संख्या
गिनना भी ठीक
नहीं। संतों पर
बोलता जा रहा
हूं। संत बहुत
ज्यादा नहीं।
तुम्हारे सभी
संत संत नहीं
हैं, और
प्रज्ञा के
सभी संत तो हो
ही नहीं सकते।
इसके तो सौ ही
संत रुग्ण और
विक्षिप्त
होंगे। इसको
तो वही लोग
संत मालूम
पड़ेंगे जो
रुग्ण और विक्षिप्त
होंगे।
क्योंकि इसका
चित्त, इसके
सोचने का ढंग,
इसकी
विचार-पद्धति,
इसके तर्क
की
श्रृंखला--दमन
की है, शरीर-विरोधी
है, संसार-विरोधी
है।
"आप
और सभी संत
यही कहते हैं
कि मन से
मुक्त हो जाने
पर व्यक्ति को
परमात्मा के
नजदीक जाने में
सरलता होती
है।'
मन से
मुक्त हो जाने
पर सरलता नहीं
होती; मन से
मुक्त हुए कि
पहुंच गए। अब
और क्या सरलता?
अब क्या
कठिनता बची? मन से मुक्त
हुए कि जाना
जाता है कि हम
सदा से परमात्मा
में ही थे। मन
को पकड़ लिया
था, इसलिए
भूल-भटक हुई
जा रही थी।
"लेकिन
मन से मुक्त
होना असंभव-सा
लगता है।'
असंभव
रहेगा ही, प्रज्ञा।
जिस ढंग से तू
मुक्त होना
चाहती है, हो
नहीं पाएगी।
जिस ढंग से
तूने मुक्त
होना चाहा है,
कोई कभी
नहीं मुक्त
होता। जिस ढंग
से तू मुक्त
होना चाहती है
उस तरह से लोग
विक्षिप्त
होते हैं, मुक्त
नहीं होते।
विमुक्ति का
यह मार्ग नहीं
है--विक्षिप्तता
का मार्ग है।
मन से
मुक्त होना
असंभव है, अगर अनुभव न
हो। मन को
अनुभव करना ही
होगा। मन के दुःखों से
गुजरना ही
होगा। मन के
सुखों को
जांचना ही होगा।
अंततः पाया
जाता है कि मन
में कोई सुख नहीं
है; सब
दुःख ही दुःख
है। मगर यह तो
अंततः पाया
जाता है। यह
पहली घड़ी नहीं
है।
जिंदगी
में खयाल रखो, जिंदगी कुछ
ऐसी नहीं है, कुंजी की
किताब नहीं है,
गणित की
किताब नहीं है,
जिसमें
सामने प्रश्न
लिखे होते हैं
और उलटा कर
देखो तो पीछे
उत्तर लिखे
होते हैं।
छोटे-छोटे
बच्चे ऐसा कर
लेते हैं।
जल्दी से देख
लिया उत्तर; अब उत्तर भी
मालूम है, प्रश्न
भी मालूम है, मगर बीच की
विधि मालूम
नहीं है। अब
बड़ी झंझट में
पड़े। अब सब
मालूम है
उन्हें, जो
भी जरूरी है।
प्रश्न भी
मालूम है, उत्तर
भी मालूम है
और बीच की
विधि का कोई
पता नहीं है।
अब सीढ़ी लगाने
की मुश्किल हो
गई। ठीक उत्तर
भी बेकार है।
क्या करोगे इस
उत्तर का?
यह
उत्तर
तुम्हारी ही
विधि से आना
चाहिए, तो
ही उत्तर है।
उत्तर चुराए
नहीं जा सकते
हैं। जिंदगी
की इस पाठशाला
में नकल नहीं
की जा सकती।
तुम्हारे
सामने कोई
सद्गुरु भी
बैठा हो तो भी तुम
उसके उत्तरों
से काम नहीं
चला सकते।
तुम्हें अपने
उत्तर खोजने
ही पड़ेंगे।
परमात्मा तुम्हारी
निजता का
समादर करता
है। तुम जब तक
न पाओगे तब तक
पाए हुए न
माने जाओगे।
तो ऐसे
तो असंभव है, अगर डर-डर कर
चलो और मन का
जो कल्पना-जाल
है उसका अनुभव
न करो। अनुभव
कर लो तो
बिल्कुल सरल
है। असंभव की
बात ही छोड़ो,
बिल्कुल
सरल है। इससे
सरल और कोई
चीज नहीं है, क्योंकि मन
के अनुभव कभी
भी, कहीं
भी सुख को तो
लाते ही नहीं।
इसलिए उलझ तो कोई
सकता ही नहीं; देर अबेर
बाहर निकल ही
आता है आदमी।
कितनी देर
मृग-मरिचिका
में उलझोगे,
अगर सपना ही
है तो जागना
ही पड़ेगा।
कितनी ही देर
सपने को देखो,
तृप्ति तो
नहीं होगी।
ऐसा
समझो कि एक
आदमी रात सोया, उसे
भूख लगी
दिन में
उपवास किया है,
रात सोया, भूख लगी है
और वह सपना
देख रहा है कि
राजमहल में
निमंत्रण हुआ
है, भोजन
के लिए बैठा
है, बड़े
स्वादिष्ट
भोजन बने हैं,
खूब भोजन कर
रहा है, करता
ही जा रहा है!
लेकिन इससे भी
तो कोई तृप्ति
तो होनेवाली
नहीं है। सुबह
जब आंख खुलेगी
तो पाएगा भूखा
का भूखा है।
ऐसे मन
के सुख हैं।
जब आंख खुलती
है तो पाया
जाता है, बस
खयाली-पुलाव
थे; कहीं
कुछ सच्चाई न
थी। उनसे न
तृप्ति होती
है न पोषण
होता है। मगर
उनसे गुजरना
होता है। कुछ
अनिवार्य
प्रक्रिया
है।
तीन सीढ़ियां
हैं मनुष्य कीः शरीर, मन, आत्मा।
और तब चौथी
दशा हैः
तुरीय। पलटू
कहते हैं न कि
तुरिया में चढ़कर बैठ
गया हूं और
तुरिया को ही
बेच रहा हूं!
वह चौथी
अवस्था हैः
परमात्मा।
शरीर से अगर
बचकर निकलना
चाहा तो
मुश्किल हो
जाएगी; मन
तक न पहुंच
पाओगे। मन से
अगर बचकर
निकलना चाहा
तो आत्मा तक न
पहुंच पाओगे।
और अगर आत्मा से
बचकर निकलना
चाहा तो
परमात्मा तक न
पहुंच पाओगे।
शरीर
पर चढ़ो
हिम्मत से; शरीर के
मालिक बनो।
शरीर से डरने
की कोई जरूरत
नहीं है। इस
घोड़े पर लगाम
लगाई जा सकती
है। मगर डरकर
बैठो ही मत
घोड़े पर, तो
तुम इसके कभी
मालिक न बन
सकोगे। शरीर
पर चढ़ो।
शरीर की सीढ़ी
पर पैर रखो, मन की भी
सीढ़ी पर पैर
रखो। मन
बहुत-सी
वासनाओं के
जाल दिखाता
है। उसमें चुन
लो, बहुत-सी
वासनाएं नहीं
हैं। अगर बहुत
गौर से देखोगे
तो उंगलियों
पर गिनी जा
सकें, ऐसी
वासनाएं हैं।
कितनी बहुत-सी
वासनाएं हैं?
चूंकि दमन
करते हो, इसलिए
एक ही वासना
हजार-हजार
रूपों में
प्रकट होती है?
अगर उसको
भोग ही लो, समाप्त
हो जाती है।
मन से चढ़ो तो
आत्मा मिलती
है।
कुछ
लोग शरीर में
अटक गए हैं।
उनकी सारी
जीवनचर्या बस
शरीर में ही
अटकी है।
इनमें से कई
लोग धार्मिक
समझे जाते
हैं। अटके हैं
शरीर में--उपवास
करना, स्नान
करना, जनेऊ,
और यह और
वह--और सब शरीर
का ही
गोरखधंधा है।
गंगा जाएंगे,
तीर्थयात्रा
करेंगे; मगर
शरीर से पार
नहीं हैं।
शूद्र छू देगा
तो स्नान करना
पड़ेगा। शरीर
की ही बुद्धि
है; जैसे
शरीर ही सब
कुछ है। खूब
घिस-घिस कर
शरीर धोते
रहेंगे। मगर
इससे कुछ भीतर
की स्वच्छता नहीं
आती। अपना
भोजन खुद ही
बनाकर करेंगे,
क्योंकि
दूसरे के छुए
भोजन में कहीं
कुछ अशुद्धि
हो जाए! मगर भोजन
शरीर में जाता
है; शरीर
के पार नहीं
जाता।
कुछ
लोग हैं जो मन
में उलझे हैं।
उनकी झंझट यही
है कि वासना
से कैसे छूटें, विचार से
कैसे छूटें,
वृत्ति से
कैसे छूटें।
क्योंकि
पतंजलि तो कह
गए, चित्तवृत्ति-निरोध,
तो ही योग
होगा। तो यह
चित्तवृत्ति
का निरोध कैसे
हो? वे
वहीं उलझे
हैं। वे रुग्ण
होते जाते हैं,
विक्षिप्त
होते जाते हैं,
पगलाते जाते हैं।
किसी तरह बाहर
तो संयम
बांध-बांधकर
खड़ा कर लेते
हैं, लेकिन
भीतर आग जलती
है असंयम की।
कुछ
लोग वहां से
भी पार हो
जाते हैं तो
आत्मा में अटक
जाते हैं। तो
मैं-भाव में
अटक जाते हैं, आत्मा में
अटक जाते हैं,
तो अहंकार
में अटक जाते
हैं।
उससे
भी जो पार
होता है वह
परमात्मा में
पहुंचता है।
ये तीन
सीढ़ियां
हैं जीवन की, इनके पार
होना है। इन
तीनों
सीढ़ियों के
पार प्रभु का
मंदिर है। मगर
अनुभव से ही पार
हो सकता है
कोई। चढ़कर
ही गुजर कर ही
पार हो सकता
है कोई।
भय मत
करो--जीवन का
भय मत करो।
जीवन शुभ है।
जीवन के सब
रूप शुभ हैं।
इन सभी रूपों
में सजग भाव से
गुजरो।
अब
प्रज्ञा कहती
है कि "बार-बार
वासनाएं उठती हैं।
और बहुत
सावधानी रखकर
थोड़ा होश आता
है कि फिर-फिर
मन कल्पनाओं
में बहने लगता
है।'
यह जो
बहुत सावधानी
रखकर थोड़ा होश
आता है, यह
जबरदस्ती
लाया गया होश
है। यह दो कौड़ी
का है, इसका
कोई मूल्य
नहीं है। होश
अनुभव से आना
चाहिए। होश
सहज होना
चाहिए। कबीर
कहते हैं: सहज
समाधि भली।
चेष्टा
कर-करके किसी
तरह लाए तो वह
क्षणभर ही
टिकेगा। वह
ऐसा ही होगा
जैसे कि मैं
तुमसे कहूं कि
फलां आदमी को
प्रेम करो और
तुम चेष्टा
करके कर भी लो
प्रेम, तो
कितनी देर टिकनेवाला
है? ज़रा भूले कि फिर. .
.। प्रेम होगा
तो टिकेगा।
चेष्टा करने
से कैसे आएगा?
ऐसे ही
प्रेम भी नहीं
आता चेष्टा से,
ऐसे ही ध्यान
भी नहीं आता
चेष्टा से। और
यह चेष्टा भी
भय के कारण चल
रही है
कि कहीं
वासना न आ जाए,
तो चेष्ठा
करके सावधानी
रखो तो लड़ाई
चल रही
भीतर-भीतर। वासना
और ध्यान में
लड़ाई चल रही
है। वासना और ध्यान
में अगर लड़ाई करवाओगे
तो वासना
जीतेगी, ध्यान
नहीं जीत
पाएगा।
यह ऐसा
ही है जैसे कि
कोई फूल और
पत्थर में
लड़ाई करवाए तो
पत्थर जीतेगा, फूल नहीं
जीत सकता।
हालांकि फूल
ऊंची अवस्था है
और पत्थर नीची
अवस्था है, लेकिन यह
खयाल रखना कि
जब भी तुम
नीचाई-ऊंचाई में
लड़ाई करवाओगे,
नीचाई
जीतेगी, ऊंचाई
नहीं जीतेगी।
क्योंकि
ऊंचाई कोमल
होती है; फूल
जैसी होती है।
जीवन
में क्षुद्रताओं
से विराटताओं
को मत लड़वाना।
लट्ठ लेकर
सितार से मत
जूझ जाना; नहीं तो
लट्ठ जीतेगा,
सितार हार
जाएगा। और
इसका यह मतलब
नहीं है कि सितार
कमजोर है।
इसका इतना ही
मतलब है कि
सितार
श्रेष्ठ है, ऊंचा है, सूक्ष्म
है। सूक्ष्म
के सामने
स्थूल को मत लड़ाना। और
यही लोग कर
रहे हैं; स्थूल
को लड़ा
रहे हैं
सूक्ष्म से।
ध्यान को लड़ा
रहे हैं वासना
से। वासना
पत्थर जैसी है;
ध्यान फूल
जैसा है।
इसमें बार-बार
ध्यान ही हारेगा।
इसे खूब गांठ
बांध कर रख
लो।
कभी
परमात्मा को
संसार से मत लड़ाना, नहीं तो संसार
जीतेगा और
परमात्मा
हारेगा। और
इसमें परमात्मा
का कोई कसूर
नहीं है; तुमने
परमात्मा को
संसार से लड़ाया,
यही भूल हो
गई।
परमात्मा
परम है, अति
सूक्ष्म है, सुवास है, संगीत
सौंदर्य है।
संसार की
स्थूलता से लड़ाओगे, खंड-खंड हो
जाएगा, टूट
जाएगा, बिखर
जाएगा।
परमात्मा को लड़कर पाया
ही नहीं जाता
है। ध्यान भी लड़कर पाया
नहीं जाता। समझपूर्वक।
तो मैं
तुमसे यह
कहूंगा कि जब
वासना उठे तो
चेष्टा करके
ध्यान मत
लगाओ। जब
वासना उठे तो
वासना को समझो, क्या वासना
का संदेश है? क्या
तुम्हारा मन
तुमसे कहना
चाहता है? क्या
मन तुम्हें
बताना चाहता
है? कहां
ले जाना चाहता
है? सुनो
इसकी!
तुम्हारा मन
है, तुम न सुनोगे तो
कौन सुनेगा? यह फरियाद
भी करे तो
कहां करे? आखिर
इसकी भी
इच्छाएं हैं।
यह तुमसे न
कहेगा तो
किससे कहेगा?
इसे प्यास
लगी है और तुम
अपना ध्यान
लगाने की कोशिश
कर रहे हो! इसे
भूख लगी है और
तुम ध्यान
लगाने की
कोशिश कर रहे
हो! इसकी भी
सुनो! कुछ बड़ी
कठिन बातें
नहीं मांग रहा
है--प्यास है, भूख है, काम
है, प्रेम
है, छोटी-छोटी
बातें हैं।
इसे दो! और
जागरूक रहो और
देखते रहो कि
इसको इतना
भोजन देते हैं
फिर भी यह
तृप्त होता है
या नहीं? इसे
इतना प्रेम का
अवसर मिलता है,
फिर भी इसको
रस आता है या
नहीं? जब
धीरे-धीरे
तुम्हें एक
बात पक जाएगी
कि कितना ही
दो, इसको
रस नहीं आता, तो देने से
कुछ हल
होनेवाला
नहीं है।
मगर
खयाल रखना, जल्दी मत
करना। यह पकने
देना
तुम्हारे ही
भीतर। मेरी
कही बात नहीं. . .
कानों सुनी सो
झूठ सब। जिस
दिन तुम्हारे
भीतर ही यह
अनुभव का स्वर
बजेगा कि यह
मन तो अतृप्त
ही रहेगा, अतृप्ति
इसका स्वभाव
है; दुष्पूर है वासना, यह पूरी
नहीं होगी; जिस दिन
तुम्हें ऐसा
समझ में आ
जाएगा--खयाल
रखना फिर
दोहराता हूं,
तुम्हें
समझ में आ
जाएगा--उसी दिन
तुम पाओगे मन
गया। और तब एक
अखंड चेतना
जलने लगती है।
एक दीया पैदा
होता है, एक
जागरूकता, जो
लाई हुई नहीं
है, जो सहज
है। साधो, सहज
समाधि भली।
आखिरी
प्रश्नः
जब
आप अष्टावक्र, बुद्ध या
लाओत्से पर
बोलते हैं, तब आपकी
वाणी में
बुद्धि और
तर्क का
अपूर्व तेज प्रवाहित
होता है।
लेकिन जब वही
आप भक्ति-मार्गी
संतों पर
बोलते हैं, तब बातें
अटपटी होने
लगती हैं। ऐसा
क्यों है?
ऐसा
इसलिए है कि
मैं नहीं हूं; क्योंकि मैं
नहीं बोल रहा
हूं।
जब
अष्टावक्र
बोलते हैं तो
उनको ही बोलने
देता हूं। जब
बुद्ध बोलते
हैं तो उनको
ही बोलने देता
हूं; फिर मैं
बीच में नहीं
आता। और जब
पलटूदास बोलते
हैं तो
पलटूदास को ही
बोलने देता
हूं। मैं क्यों
बीच में आऊं? जब दरिया को
बोलने देता
हूं तो दरिया
को ही बोलने
देता हूं। मैं
केवल माध्यम
हो जाता हूं।
मैं
कोई
व्याख्याकार
नहीं हूं। ये
कोई व्याख्याएं
नहीं हैं; ये कोई
भाष्य नहीं हो
रहे हैं। मैं
फिर एक मौका
देता हूं कि
पलटूदास, फिर
से गा लो, फिर
से कह लो।
बहुत दिन हो
गए, लोगों
ने तुम्हारी बबात नहीं
सुनी, बहुत
दिन हो गए लोग
तुम्हें भूल
ही गए। फिर से जी
लो मेरे
बहाने। मेरे
निमित्त फिर
से लोगों से
बात कर लो।
मैं
सिर्फ
निमित्त बन
जाता हूं।
तो
मेरी
व्याख्या ऐसी
नहीं है जैसी
लोकमान्य तिलक
की व्याख्या
है गीता पर, कि महात्मा
गांधी की
व्याख्या है
गीता पर। उनकी
अपनी धारणाएं
हैं। वे अपनी
धारणाओं को
गीता में
खोजते हैं।
मेरी कोई
धारणा नहीं
है। मैं
धारणा-शून्य
हूं। मैं
रिक्त, शून्य-भाव
से, जिसकी
कहता हूं उसको
ही कहने देता
हूं।
इसलिए
जब बुद्ध पर
बोलूंगा तो
स्वभावतः
बुद्ध की
प्रखरता, बुद्ध
की स्पष्टता,
बुद्ध का
तर्क झलकेगा।
और जब दरिया
पर बोलूंगा या
पलटू पर या
कबीर पर, तो
उनकी अटपटी
बातें, उनकी
प्रेमपगी
बातें, उनकी
मस्ती
झलकेगी।
बुद्ध के साथ
मैं बुद्ध हो
जाता हूं, पलटू
के साथ पलटू
हो जाता हूं।
अपनी धारणा
नहीं डालता
हूं। मेरी कोई
धारणा नहीं
है। मैं कोई
दार्शनिक
नहीं हूं।
इसलिए
स्वभावतः
तुम्हें
बेचैनी मालूम
पड़ती होगी
कभी-कभी।
कभी-कभी
तुम्हें
विरोधाभास दिखाई
पड़ते होंगे, स्वाभाविक।
क्योंकि
बुद्ध एक ढंग
से बोलते हैं,
दरिया
दूसरे ढंग से
बोलते हैं, दादू तीसरे
ढंग से बोलते
हैं। ऐसा
प्रयोग पहले
कभी पृथ्वी पर
किया नहीं गया,
इसलिए
तुम्हारी
अड़चन को मैं
समझता हूं। यह
पहली दफा हो
रहा है। जैनों
ने गीता पर
टीका नहीं लिखी।
क्यों लिखें?
हिंदुओं ने
महावीर के
वचनों पर
भाष्य नहीं किया;
उल्लेख ही
नहीं किया
महावीर का, वचनों पर
भाष्य तो अलग।
हिंदुओं ने
धम्मपद पर नजर
नहीं डाली, न ही
मुसलमानों ने
वेद की चिंता
की; न ही
ईसाई कुरान पर
बोलते हैं।
सबकी अपनी
बंधी लकीरें
हैं। सबकी
अपनी धारणाएं
हैं। वे अपनी
धारणाओं की
सीमा के बाहर
नहीं जाते।
मेरी
कोई धारणा
नहीं है; न
मैं हिंदू हूं,
न मुसलमान
हूं, न जैन
हूं, न
ईसाई हूं।
मेरा कोई
छोटा-मोटा
आंगन नहीं है;
यह सारा
आकाश मेरा है।
इतने बड़े आकाश
को जब तुम सुनोगे
तो तुम घबड़ाओगे।
छोटे-छोटे
आंगन को समा
लेने की तुम्हारी
क्षमता है।
इतना बड़ा आकाश
तुम्हें मिटा ही
जाएगा, तुम्हें
पोंछ ही देगा।
और वही चेष्टा
चल रही है।
अगर
मैं एक ही
धारणा के
सूत्रों पर
बोलता रहूं. . .
जैसे बुद्ध के
ही वचनों पर
बोलता रहूं या
बुद्ध की
परंपरा में आए
हुए संतों पर
बोलता रहूं--बुद्ध
पर बोलूं, बसुबंधु पर बोलूं, नागार्जुन
पर बोलूं, बोधिधर्म
पर बोलूं, धर्मकीर्ति,
चंद्रकीर्ति,
बुद्ध की ही
परंपरा में आए
संतों पर
बोलता रहूं--धीरे-धीरे
मैं तुम्हारी
बौद्धिक
धारणा को निर्णीत
कर दूंगा, एक
आंगन बना
दूंगा। तब तुम
भी अगर मुझे
सुनते ही रहे,
सुनते ही
रहे, तो बौद्ध
हो जाओगे। अगर
मैं मुसलमान फकीरों पर
ही बोलता रहूं,
तो
सुनते-सुनते,
सुनते-सुनते
तुम अगर मेरे
साथ बंध गए तो
मुसलमान हो
जाओगे।
आज
मुसलमान पर
बोलता हूं, कल हिंदू पर
बोलता हूं, परसों बौद्ध
पर बोलता हूं।
मैं तुम्हें
भी टिकने नहीं
देना चाहता, कहीं भी
नहीं टिकने
देना चाहता।
इसके पहले कि
तुम टिकने का
इंतजाम करते
हो, खूंटी
इत्यादि गाड़ने
लगते हो कि
तंबू चढ़ा दें
और अब सो जाएं,
मैं कहता
हूं: बस उठो, सुबह हो गई, चलना है।
तुम नाराज भी
होते हो कई
बार कि ज़रा
आराम तो कर
लेने दें। बात
जंच रही थी; आपने ही
जंचा दी थी कि
यह जगह बड़ी
सुंदर है, यहां
विश्राम करो।
आपकी ही बात
मान कर. . .। पहले तो
आपकी बात
मानने में
झंझट थी, किसी
तरह मान कर
खूंटी
इत्यादि गाड़
कर मैदान साफ
करके बिस्तर
इत्यादि लगा
ही रहे थे, चूल्हा
इत्यादि जला
ही रहे थे कि
चलने का वक्त
आ गया।
कारण
हैं।
गिरह
हमारा सुन्न
में, अनहद में विसराम!
कहीं
टिकने न
दूंगा। अनहद
में विसराम।
जहां तक हदें
हैं, वहां तक
नहीं टिकने
दूंगा। जिस
दिन तुम कहोगे
अब आकाश ही
हमारा तंबू, पृथ्वी ही
हमारा बिछौना,
सब धर्म
हमारे और हम
सब धर्मों के,
जिस दिन तुम
ऐसा कहोगे--उस
दिन कहूंगा, अब मजे से सो
जाओ, अनहद
में विसराम
आ गया। जब तक
तुम्हें
देखूंगा कि
तुम आंगन बनाते
हो, तुम
जल्दी में हो
बहुत--तुम बड़ी
जल्दी करते हो;
तुम एक बात पकड़ते हो, कहते हो बस
ठीक आ गया
घर--जैसे ही
मुझे लगा कि आ
गया घर, तुम्हें
पकड़ में आ रहा
है कि मैं
तुम्हारे घर को
तोड़ने में लग
जाता हूं।
तो कभी
बुद्धि की बात
करता हूं और
कभी बुद्धि-अतीत, कभी अटपटी
बातें। कभी
तर्क की और
कभी अतक्र्य की।
तुम्हें कहीं
रुकने नहीं
देना है।
यह
प्रयोग
पृथ्वी पर
पहली बार हो
रहा है। इसलिए
तुम इससे
अपरिचित हो।
तुम्हारे
अपरिचय के कारण
तुम्हारी
अड़चन आती है, परेशानी आती
है। तुम किसी
तरह जल्दी से
कोई धारणा बना
लेना चाहते
हो। तुम कहते
हो, कोई भी
बात एक दफा
ठीक से कह दें
कि यह ठीक है, ताकि हम
निश्चित हो
जाएं। तुम
तलैया बनना
चाहते हो, और
मैं चाहता हूं
कि तुम सरिता
बनो। बस यही
मेरे और
तुम्हारे बीच
संघर्ष है।
तुम कहते हो, जल्दी से
हमें बता दें
कि यह जगह ठीक,
आ गया ठीक
स्थान, हम
एक तलैया बन
जाएं और मजे
से रहें, फिर
हमें सताओ मत;
अब फिर यह
कहो मत कि आगे बढ़ो, चलते
ही चलो, चलते
ही चलो।
मैं
चाहता हूं:
तुम सरिता
बनो। क्योंकि
सरिता तुम
बनो--तो ही सागर
मिले। तलैयों
को कहीं सागर
मिलता है! तलैयों
में ही तो तुम
पड़े हो और
परेशान हो रहे
हो। वही तो
पलटू कहते हैं
कि जैसे-जैसे
पानी सूखता
जाता है, मीन
तड़पती
है। तलैया
सूखने लगती है,
मछली को कोई
मारनेवाला
पकड़ ले जाता
है और तलैया
के स्थान पर
जहां कभी जल
हुआ करता था, सिर्फ सूखी
हुई मिट्टी पड़ी
रह जाती है, मिट्टी के
ढेले पड़े रह
जाते हैं, फटी
हुई जमीन पड़ी
रह जाती है।
सरिता
बनो! बहाव बनो!
कहीं रुको मत!
कोई जगह नहीं
है जहां रुकना
है। रुकना ही
छोड़ दो।
गति बनो
गत्यात्मक
बनो।
मेरा
संन्यास
गत्यात्मक
है। मेरा
शिष्य कहीं
रुकेगा
नहीं--अनहद के
पहले नहीं रुकेगा।
और अनहद में
पहुंच गए, फिर क्या
चलना है! सागर
में पहुंच गए।
इसलिए इन सारे
पड़ावों
की बात कर रहा
हूं। ये सब
घाट हैं गंगा
के। मैं तुम्हें
ले चला हूं
पूरी गंगा की
यात्रा पर। एक
घाट आता है, तुम कहते हो
बड़ा प्यारा
घाट आ गया।
मैं उस घाट की
खूब प्रशंसा
भी करता हूं।
तुम कहने लगते
हो, तब फिर
नाव बांध दें,
अब उतर जाएं,
अब आ गई
काशी? मैं
कहता हूं अभी
रुको, अभी
कहां? यह
घाट प्यारा है,
मगर रुकना
नहीं है। इस
घाट का आनंद
ले लो; जितनी
देर गुजरते हो
इस घाट पर से, अहोभाव से गुजरो।
प्यारा घाट
है। मगर
पहुंचना है
शून्य में, पहुंचना है
अनहद में।
गिरह
हमारा सुन्न
में, अनहद में विसराम।
आज
इतना ही।
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