प्रश्न-सार
1--मृतकों
को भोजनादि
देने का क्या
अर्थ है?
2--कैसे
जानें कि
प्रकृति के हम
अनुकूल हैं?
3--प्रकृति
के अनुकूल
चलें तो समाज
का क्या होगा?
4--निसर्ग
के अनुकूल
होने से पशु
जैसे तो नहीं
हो जाएंगे?
5--हठी
कुपुत्र को
सुधारने के
लिए क्या करें?
बहुत
से प्रश्न
हैं।
एक
मित्र ने पूछा
है कि इजिप्त
के पिरामिड के
संबंध में
आपने कहा कि
उनकी सभ्यता, संस्कृति
ऊंचाई के एक
शिखर पर थी।
लेकिन उन लोगों
ने पिरामिडों
के भीतर
मनुष्यों के
मृत शरीर रखे
हैं, ममीज रखी हैं; और
उनमें
खाना-पीना, कपड़े, जवाहरात,
इस तरह का
सामान भी रखा
है, ताकि
उनको मरने के
बाद के सफर
में काम आए।
तो यह समझाएं
कि जो इतनी
ऊंचाई पर
पहुंचे हुए
सभ्य लोग थे, क्या उन्हें
यह भी पता
नहीं था कि
मरने के बाद यह
कुछ भी काम
नहीं आता है?
इस
संबंध में दो
बातें समझ
लेनी चाहिए।
एक तो जब कोई
व्यक्ति मर
जाता है, तो जो
हम करते हैं, उसका संबंध
हमसे है, उस
व्यक्ति से
नहीं है। आपकी
मां मर गई है, या पिता मर
गए हैं, ऐसे
ही घर के बाहर
फेंक दे सकते
हैं; दफनाने की कोई भी
जरूरत नहीं है,
मरघट तक ले
जाने का भी
कष्ट उठाना
फिजूल है।
क्योंकि लाश
का अब क्या
मरघट तक ले
जाना? शरीर
को ही ले जा
रहे हैं न, आत्मा
तो उड़ चुकी
है। अब इस
शरीर को आप
बैंड-बाजे से
ले जाएं तो
पागलपन है।
मरघट पर जाकर
आप इस मरे हुए
शरीर पर आंसू गिराएं, पागलपन है।
ध्यान रहे, जो आप कर रहे
हैं, वह
मरे हुए पिता
या मां के लिए
नहीं है, वह
आपके लिए है।
जिन्होंने
इजिप्त के ममीज
में कपड़े रखे
हैं,
रोटी रखी है,
और सामान
रखा है, उन्होंने
केवल इतनी खबर
दी है, यह
जानते हुए भी
कि मरे हुए
आदमी के यह
कुछ भी काम
नहीं आएगा, उनका प्रेम
नहीं मानता है,
उनका प्रेम
चाहता है कि
वे जो कुछ कर
सकें मरे हुए
आदमी के लिए, वह भी करें।
इस
फर्क को ठीक
से समझ लें।
मरा हुआ आदमी
कहां है, आपको
पता नहीं; उसके
लिए क्या
उपयोगी है, यह भी पता
नहीं।
प्रार्थना, पूजा, उसकी
आत्मा की
शांति का
प्रयास, यह
सब अब आप उसके
लिए कर सकते
हैं; उस तक
पहुंचेगा, यह
भी आपको पता नहीं।
लेकिन आप कर
रहे हैं। अगर
ठीक से समझें
तो यह आप अपने
लिए कर रहे
हैं। यह आपके
प्रेम का प्रदर्शन
है। और इससे
आपको राहत
मिलेगी, मरे
हुए आदमी को
नहीं।
आपके
पिता मर गए
हैं और
पितृपक्ष में
आप कुछ कर रहे
हैं। इससे कोई
आपके पिता को
कुछ हो जाने वाला
है,
ऐसी भूल में
मत पड़ जाना।
पर कुछ आप कर
रहे हैं, यह
आपके लिए, यह
आपके हृदय के
लिए, आपके
प्रेम के लिए
है। यह आपकी
अपनी
सांत्वना है।
किसी
का पति मर गया
है। और अगर
उसने उसके साथ
भोजन का सामान
रख दिया है, तो
यह पति मरा
हुआ भोजन
करेगा, ऐसा
नहीं है।
लेकिन जिसने
जीवन भर इस
पति के लिए
भोजन बनाया था,
वह मृत्यु
के क्षण में
भी इस भोजन को
साथ रख देना
चाहेगी।
अगर इस
तरह देखेंगे
तो खयाल आएगा
कि सभ्यता का
अर्थ ही क्या
होता है? सभ्यता
का अर्थ ही
होता है, प्रेम
का गहन और
विस्तीर्ण हो
जाना।
निश्चित
ही वे लोग
सभ्य थे और
उनका हृदय भी
सभ्य था। और
केवल
मस्तिष्क की
सभ्यता होती
तो आप जो कह
रहे हैं, वही
उन्होंने भी
सोचा होता कि
क्या फायदा है?
क्या फायदा
है? सच तो
यह है कि बाप
की हड्डी-पसली
निकाल कर बेच देना
चाहिए। कुछ
पैसे मिल सकते
हैं, वह
फायदे की बात
है। शरीर को
व्यर्थ जला
आते हैं, उसका
कोई मतलब भी
तो नहीं है।
सब बेचा जा
सकता है सामान।
लेकिन वह आप न
कर पाएंगे; यह जानते
हुए भी कि बाप
की आत्मा को
अब इससे कुछ
नुकसान होने
वाला नहीं है।
जो शरीर छूट
गया, वह
छूट गया। अब
इसको जला दे
रहे हैं, इससे
तो बेहतर है
बाजार में बेच
दें। अगर बुद्धि
ही पास में होगी
तो यही उत्तर
ठीक मालूम
पड़ेगा। लेकिन
फिर भी आप
बेचना न
चाहेंगे।
भीतर हृदय में
कहीं चोट
लगेगी।
यह
शरीर ही बचा
है अब, और
मिट्टी है, यह बात साफ
है। और इस
मिट्टी के साथ
अब कुछ पैसे
और
हीरे-जवाहरात
रख देना
असभ्यता का
लक्षण नहीं है;
हृदय भी एक
ऊंचाई पर रहा
होगा, इसकी
खबर है।
पर बड़ी
कठिनाई होती
है;
क्योंकि जो
सभ्यताएं खो
जाती हैं, उनके
बाबत हम कुछ
भी सोचते हैं,
वह हमारा ही
विचार होता
है। पश्चिम के
जिन लोगों ने
इन ममीज
को खोदा है और
इनमें सामान
पाया है, उन्होंने
यही सोचा कि
मरा हुआ आदमी
इनका उपयोग कर
सकेगा, इसलिए
ये चीजें रखी
गई हैं।
ये
चीजें इसलिए
नहीं रखी गई
हैं। प्रेम
मरे हुए को भी
मरा हुआ नहीं
मान पाता है।
और जहां प्रेम
नहीं है, वहां
जिंदा आदमी भी
मरा हुआ ही
है। एक छोटी
सी घटना कहूं,
उससे खयाल
में आ सके।
रामकृष्ण
की मृत्यु
हुई। तो
नियमानुसार
उनकी पत्नी
शारदा को चूड़ियां
तोड़ लेनी
चाहिए।
पास-पड़ोस के
लोग इकट्ठे हो
गए और
उन्होंने कहा, चूड़ियां तोड़ डालो।
और शारदा चूड़ियां
तोड़ने जाती ही
थी कि तभी वह
खिलखिला कर
हंसने लगी।
लोग समझे कि
वह पागल हो गई
है। और उसने चूड़ियां
तोड़ने से
इनकार कर
दिया। उसने
कहा कि जैसे
ही मैं चूड़ियां
तोड़ने जा रही
थी, मुझे
रामकृष्ण का
वचन याद आया।
उन्होंने कहा है,
मैं तो कभी
भी नहीं
मरूंगा। तो
उनका शरीर भला
छूट गया हो, लेकिन वे
मरे नहीं हैं;
इसलिए मैं
विधवा नहीं हो
सकती। यह भारत
में पहला ही
मौका है, पूरे
इतिहास में, जब किसी
विधवा ने पति
के मरने पर विधवा
होने से इनकार
कर दिया। अगर
उनकी आत्मा है,
तो मैं
विधवा नहीं
हूं; इसलिए
ये चूड़ियां
मैं पहने
रहूंगी।
और
शारदा फिर
सधवा के
वस्त्र ही
पहने रही। रोज
जितने समय वह
रामकृष्ण की
बैठक में जाती
थी,
उनसे कहने
कि चलें, भोजन
तैयार है। अब
वहां कोई भी
नहीं था; लेकिन
शारदा रोज
जाती थी। लोग
वहां बैठ कर
शारदा की बात
सुन कर रोते
थे। और शारदा
उस जगह जाती
जहां
रामकृष्ण
बैठते थे और
उनसे कहती, कि परमहंस
देव, चलें,
भोजन तैयार
हो गया। वह
भोजन तैयार
करती, वह
थाली लगाती, वह इस भांति
लौटती जैसे
रामकृष्ण
उसके साथ वापस
लौट रहे हों, वह उन्हें
बिठाती, वह
पंखा झलती।
यह वर्षों
चलता रहा।
इसमें कभी
भूल-चूक न हुई।
फिर वह उन्हें
लिटा देती, फिर वह
उन्हें सुला
देती, फिर
वह मसहरी डाल
देती। यह पूरी
जिंदगी चलता रहा।
हम
निश्चित
कहेंगे, यह
औरत पागल है।
और हमारे
हिसाब में यह
बात कहीं भी न
आएगी। लेकिन
थोड़ा हृदय से
सोचें, तो
यह भी संभावना
है कि शारदा
के लिए
रामकृष्ण कभी
मरे ही नहीं।
और शारदा के
हृदय ने कभी
स्वीकार ही
नहीं किया, किसी तल पर, कि उनकी
मृत्यु हो गई
है। हमारे लिए
तो वह पागल है,
लेकिन अगर
थोड़ा
सहानुभूति से
सोचें, तो
हो सकता है कि
हम ही नासमझ
हों और वह
पागल न हो।
फिर एक
बात तय है कि
शारदा कभी
दुखी नहीं हुई, वह
सदा आनंदित
रही। अगर
पागलपन में
इतना आनंद है,
तो आपकी
बुद्धिमत्ता
छोड़ देने जैसी
है। क्योंकि
आपकी
बुद्धिमत्ता
सिवाय दुख के
आपको कुछ नहीं
दे रही। आपका
पति भी जिंदा
है, तब भी
आपको आंसू के
सिवाय कुछ
नहीं है; पत्नी
भी जिंदा है, तब भी आंसू
के सिवाय कुछ
नहीं है। और
रामकृष्ण के
मरने के बाद
भी शारदा की
आंख में आंसू
न आया, वह
हंसती ही रही।
और जितने दिन
जिंदा रही, रामकृष्ण को
जीवित--उसके
लिए रामकृष्ण
जीवित ही रहे।
जिन्होंने
ममीज में
सम्हाल कर रखे
हैं सामान, उन्होंने
बड़े प्रेम से
रखे हैं।
तुतुम
खानम की समाधि
जब पहली दफा
तोड़ी गई
इजिप्त में, तो
वह है कोई छह
हजार वर्ष
पुरानी लाश। तुतुम
खानम की समाधि
में तीन
हिस्से थे, तीन पर्तें
थीं। पहली
पर्त पर भी तुतुम
खानम का चेहरा
सोने का और
पूरा जैसे लाश
वही हो, और हीरे-जवाहरात
और सब सामान
रखा हुए था।
खोदने पर पता
चला कि उसके
नीचे फिर ठीक
वैसा ही चेहरा
सोने का और
उतना ही सामान
रखा हुआ था।
और लाश तो
तीसरे तल पर
थी। यह धोखा
था ऊपर।
क्योंकि सोने
की वजह से, हीरे-जवाहरात
की वजह से चोर कब्रों को
खोद लेते थे।
इसलिए दो धोखे
दिए थे ऊपर कि
पहली कब्र खोद
कर कोई ले जाए
तो कोई चिंता
नहीं, दूसरी
भी कब्र खोद
कर कोई ले जाए
तो भी चिंता नहीं;
लेकिन
तीसरी कब्र पर
कोई चोट न
पहुंचे।
जिन्होंने
मरे हुए तुतुम
खानम के लिए
इतने प्रेम से
ये कब्रें
बनाई होंगी, उनके
हृदय को समझने
की कोशिश करनी
चाहिए। मृतक
के संबंध में
जितने भी
संस्कार हैं,
वे जीवित के
प्रेम के सबूत
हैं। मृतक के
संबंध में
उनसे कोई
लेना-देना
नहीं है।
इसलिए अगर हम
बहुत
वैज्ञानिक हो
जाएं तो फिर
मृतक के साथ कुछ
भी करने की
जरूरत नहीं।
बात खतम हो
गई।
लेकिन
थोड़ा सोचें कि
शारदा जैसे
होना पसंद
करेंगे, या
एकदम बुद्धि
और गणित से
चलेंगे? बुद्धि
और गणित कितना
ही सही हो, आनंद
उससे फलित
नहीं होता। और
हृदय कितना ही
गलत हो, वही
आनंद का द्वार
है।
एक
दूसरे मित्र
ने पूछा है, हम
प्रकृति के
अनुकूल हैं या
प्रतिकूल, यह
कैसे जानें?
इसे
जानने में
कठिनाई नहीं
होगी। जब आप
बीमार होते
हैं तो कैसे
जानते हैं कि
बीमार हैं? और
जब आप स्वस्थ
होते हैं तो
कैसे जानते
हैं कि स्वस्थ
हैं? क्या
उपाय है आपके
पास जानने का?
जब आप
बीमार होते
हैं तो पीड़ा
में होते हैं, जब
आप स्वस्थ
होते हैं तो
प्रफुल्लित
होते हैं। ठीक
आत्मिक तल पर
भी बीमारी और
स्वास्थ्य
घटित होते
हैं। जब आप
भीतर अशांत, उद्विग्न, परेशान, क्षुब्ध
होते हैं, संतप्त
होते हैं, तब
जानना कि
प्रकृति के
प्रतिकूल
हैं। और जब आप
भीतर आनंद में
खिले होते हैं,
और आनंद की
धुन आपके भीतर
बजती होती है,
और
रोआं-रोआं
उसमें कंपित
होता है, और
यह सारा जगत
आपको स्वर्ग
मालूम पड़ने
लगता है, तब
आप समझना कि
आप प्रकृति के
अनुकूल हैं।
किसी दूसरे से
पूछने जाने की
जरूरत नहीं
है। जब भी दुख
है, तब वह
प्रतिकूल
होने से ही
घटित होता है।
और जब भी आनंद
घटित होता है,
वह अनुकूल
होने से घटित
होता है। आनंद
कसौटी है।
लेकिन
हम सब इतने
दुख में जीते
हैं कि हम दुख
को ही जीवन
मान लेते हैं; इसलिए
हमें पता ही
नहीं चलता कि
आनंद भी है। मेरे
पास लोग आते
हैं। उन्हें
खुद कोई आनंद
का अनुभव नहीं
हुआ है, वे
दूसरे के आनंद
पर भी विश्वास
नहीं कर सकते।
एक बहन ने
परसों मुझे
आकर कहा कि यह
भरोसे योग्य
नहीं है कि
कीर्तन में दो
मिनट में लोग
इतने आनंदित
होकर नाचने
लगते हैं; यह
भरोसा नहीं
होता।
स्वभावतः, जो
कभी भी नाचा न
हो आनंद में, उसे भरोसा
कैसे होगा? जो नाच ही न
सकता हो, जिसके
भीतर आनंद की
कोई पुलक ही
पैदा न होती हो,
उसे भरोसा
कैसे होगा?
निश्चित
ही,
उसको लगेगा
कि यह कोई
तैयार किया
हुआ खेल, कोई
नाटक है। ये
लोग शायद
आयोजित हैं, जो बस नाचना
शुरू कर देते
हैं। ऐसा कहीं
हो सकता है! जो
आदमी
चालीस-पचास
साल में कभी
आनंदित न हुआ
हो, वह
कैसे मान ले
कि दो मिनट
में कोई आनंद
से भर सकता है?
आनंद
का मिनट और
वर्षों से कोई
संबंध है? अगर
दो मिनट में
नहीं भर सकते,
दो वर्ष में
कैसे भर
जाइएगा? और
अगर दो वर्ष
में भर सकते
हैं तो दो
मिनट में बाधा
क्या है? समय
का क्या संबंध
है आनंद से?
कोई भी
संबंध नहीं
है। लेकिन
अनुभव ही न
हो...।
तो
मैंने उस बहन
को पूछा कि तूने
कभी आकर
कीर्तन करके, नाच
कर देखा? उसने
कहा कि नहीं।
मैंने उससे
कहा कि नाच कर
देख, आकर
देख। शायद
तुझे भी हो
जाए तो तुझे
पता चले।
हम
आनंद से भी
भयभीत हैं।
क्योंकि
हमारे चारों
तरफ दुखी
लोगों का समाज
है;
उसमें
आनंदित होना
मैल-एडजस्ट
कर देता है, उसमें दुखी होना
ही ठीक है।
हमारे चारों
तरफ जो भीड़ है,
वह दुखी
लोगों की है।
उसमें आप भी
दुखी हैं तो बिलकुल
ठीक हैं। अगर
आप आनंदित हैं
तो लोगों को
शक होने लगेगा
कि कुछ दिमाग
तो खराब नहीं
है। इस भांति
हंस रहे हैं, यह भी कोई...! इस
भांति
प्रसन्न हो
रहे हैं!
बीमारों की जहां
भीड़ हो, दुखी
लोगों का जहां
समूह हो, वहां
आपका भी दुख
में होना उनके
साथ एक संगति बनाए
रखता है।
इसलिए
बच्चों को हम
बड़े जल्दी
गंभीर करने की
कोशिश में लग
जाते हैं।
बच्चे
प्रफुल्लित
हैं,
आनंदित हैं,
नाच रहे हैं,
कूद रहे हैं,
खेल रहे
हैं। हमें बड?ी बेचैनी
होती है उनके
नाच से, कूद
से। आप अखबार
पढ़ रहे हैं।
आप अपने बच्चे
को कहते हैं, बंद कर यह
शोरगुल, नाचना-कूदना;
मैं अखबार
पढ़ रहा हूं!
जैसे
अखबार पढ़ना
नाचने-कूदने
से बड़ी बात
है। जैसे
अखबार पढ़ना
कोई ऐसा मामला
है जो
नाचने-कूदने
से ज्यादा कीमती
हो। बच्चे
कमजोर हैं, इसलिए
आपसे नहीं कह
सकते कि बंद
करो यह अखबार पढ़ना और
नाचो-कूदो!
और जब तक वे
ताकतवर होंगे,
तब तक आप
उनको बिगाड़
चुके होंगे।
वे भी अखबार पढ़
रहे होंगे और
अपने बच्चों
को डांट रहे
होंगे।
सभी
मनुष्य
प्रकृति के
अनुकूल पैदा
होते हैं, और
अधिकतर
मनुष्य
प्रकृति के
प्रतिकूल
मरते हैं। हम
सभी जन्म से
प्रकृति के
अनुकूल पैदा
होते हैं; लेकिन
समाज, चारों
तरफ का ढांचा
हमें मरोड़
कर गंभीर बना
देता है। और
जो आदमी गंभीर
नहीं रहता, उसको हम बड़े
हो जाने पर भी
कहते हैं कि
तुम अभी बचकाने
हो, चाइल्डिश हो; यह
बचकानापन छोड़ो,
गंभीर बनो।
हम उदास
शक्लें चाहते
हैं।
अगर आप
किसी साधु-संत
के पास जाएं
और उसे खिलखिला
कर हंसते देख
लें,
आप दुबारा न
जाएंगे। आप
गंभीर, रुग्ण
चेहरे चाहते
हैं। महात्मा
और हंस रहा है,
जरूर कोई
गड़बड़ है! बुरा
आदमी हंस सकता
है, भला
आदमी हंस नहीं
सकता; भले
आदमी का
नैसर्गिक गुण
रोना है।
इसलिए आप अपने
संतों, महात्माओं
की शक्लें
देखें, रोते
हुए लोगों की
भीड़ है। और जो
जितना जोर से रो
सकता है, उतना
बड़ा महात्मा।
उनके
रोएं-रोएं से
उदासी टपक रही
है, संसार
के प्रति
दुश्मनी टपक
रही है। उनके
चारों तरफ फूल
खिले हुए नहीं
दिखाई पड़ते।
लेकिन
तभी आप
आश्वस्त होते
हैं। इसलिए जो
संन्यासी, जो
साधु जितना
ज्यादा
परेशान
दिखेगा, उतना
आपको त्यागी
मालूम पड़ता
है। नंगा खड़ा
हो, धूप
में खड़ा हो, भूखा मर रहा
हो, उपवास
कर रहा हो, शरीर
हड्डी हो गया
हो, उतना
बड़ा आपको
मालूम होता
है।
बड़े
अजीब हैं!
आपके मन में
कहीं न कहीं
कोई दुखी
लोगों को
देखने में कुछ
मजा आता है।
इसलिए आप खयाल
करें, अगर
महात्मा झोपड़े
में रहता हो, तो आप उसके
आसानी से पैर
पड़ सकते हैं; महात्मा महल
में रहता हो, अड़चन की बात
है। क्यों? महात्मा अगर
स्वस्थ मालूम
पड़ता हो तो
आपको लगेगा कि
कुछ गड़बड़ है, गृहस्थ जैसा
स्वस्थ मालूम
पड़ रहा है।
उसे
हड्डी-हड्डी होना
चाहिए; तब
आपको लगेगा कि
कोई त्याग है।
महात्मा कहीं भी
सुख लेता हुआ
मालूम पड़े तो
आपको अड़चन
होगी। इसलिए
जहां-जहां सुख
है, वहां-वहां
से आप अपने
महात्मा को
तोड़ते हैं। भोजन
वह ठीक नहीं
कर सकता।
सुंदर स्त्री
उसके पास
दिखाई पड़ जाए
तो आपको बहुत
बेचैनी हो
जाएगी। क्यों?
आपका
जहां-जहां सुख
है, वहां
से महात्मा
दूर होना
चाहिए। भोजन
ठीक न कर सके; सुंदर
स्त्री उसके
पास न दिखाई
पड़ सके।
इसलिए
महात्माओं को
होमो-सेक्सुअल
समाज खड़े करने
पड़े,
एक ही
लैंगिक समाज
खड़े करने पड़े।
कैथलिक
महात्मा है, तो वह पुरुष
अलग रहते हैं
एक मोनेस्ट्री
में, स्त्रियां
अलग रहती हैं
दूसरी मोनेस्ट्री
में। जैनों का
महात्मा चलता
है तो साधु एक
तरफ चलते हैं
अलग, साध्वियां एक तरफ चलती
हैं अलग। उनको
आप साथ भी
नहीं ठहरने दे
सकते हैं।
आपको अपने
महात्मा पर
इतना भी भरोसा
नहीं है? इतना
डर क्या है?
जैन
साध्वी अकेली
नहीं चल सकती; पांच
को चलना चाहिए
साथ। निश्चित,
जैन
शास्त्र
निर्माण करने
वाले लोग
भलीभांति समझ
गए होंगे कि
पांच औरतें
जहां साथ हैं,
चार एक के
ऊपर पहरा हैं।
वे चार जो हैं,
वे किसी को
भी सुख न लेने
देंगी, वे
नजर रखेंगी।
एक आंतरिक, बिल्ट-इन, इंतजाम कर
दिया आपने
भीतरी। पांच
औरतों को साथ
चला रहे हैं, वे किसी को
सुखी न होने
देंगी। और
एक-दूसरे पर नजर
रखेंगी
कि कोई सुखी
तो नहीं हो
रहा।
और
स्त्री-पुरुष
पास हों तो
ज्यादा सुखी
हो सकते हैं, यह
डर समाया हुआ
है। क्योंकि
आपका अनुभव
क्या है सुख
का? दो ही
अनुभव हैं
आपके सुख के:
भोजन का, स्त्री
का, या
पुरुष का। दो
ही सुख हैं।
तो दो सुख से
महात्मा को
बिलकुल तोड़
देना चाहिए।
तब फिर वह
लगता है कि
ठीक, अब
ठीक है!
तो
जितना मरा हुआ
हो,
उतना ठीक
है। जिंदा हो,
तो डर है।
क्योंकि
जिंदगी के साथ
डर है। हंस
कैसे सकता है
महात्मा? हंसने
का मतलब? हंसने
का मतलब अभी
भी उसे जगत
में, या
होने में रस
है। हंसने का
मतलब होता है
कि रस है।
विरस होना
चाहिए। उसकी
सारी हंसी सूख
जानी चाहिए।
तो हम
एक रुग्ण समाज
में जी रहे
हैं। और हमारे
रुग्ण समाज की
रुग्ण धारणाएं
हैं। और उन
रुग्ण
धारणाओं को हम
एक-दूसरे पर
थोपते हैं।
बाप भी
नहीं चाहता कि
बेटा सुखी हो; कहे
कितना ही।
कहता बहुत है
कि तेरे सुख
के लिए सब कर
रहा हूं; लेकिन
सुखी चाहता
नहीं कि बेटा
सुखी हो। यह
जरा कठिन
लगेगा।
क्योंकि बाप
सोचेगा, ऐसा
तो कभी नहीं, मैं तो चाहता
हूं मेरा बेटा
सुखी हो। आप
कहते हैं; आप
समझते भी हैं
कि आप चाहते
हैं; लेकिन
जो आप करते
हैं, उससे
बेटा दुखी
होगा। आप कर
भी वही सकते
हैं जो आपके
बाप ने आपके
साथ किया है।
नया सोचना बड़ी
कठिन बात है।
इसलिए हर बाप
अपने बेटे के
साथ वही करता
है जो उसके
बाप ने उसके
साथ किया है।
और ढांचा है; उस ढांचे को
आप थोप देते
हैं।
थोड़ा
सोचिए, आप
सुखी हैं? अगर
आप सुखी नहीं
हैं, तो एक
बात तो पक्की
समझ लीजिए कि
आपका ढांचा किसी
को भी सुखी
नहीं कर सकता।
लेकिन यह कोई
नहीं सोचता।
बाप यह नहीं
सोचता कि मैं
सुखी नहीं हूं
तो मेरी धारणाओं
के अनुसार चला
हुआ मेरा लड़का
कैसे सुखी हो
जाएगा? अगर
मैं सुखी नहीं
हूं तो एक बात
तो तय है कि मेरा
ढांचा इसे न
दूं; और
कुछ भी हो। कम
से कम दूसरे
में कोई
संभावना तो
होगी कि शायद
सुखी हो जाए।
लेकिन मेरे
ढांचे में तो
कोई संभावना
नहीं है।
लेकिन
कोई सोचता नहीं
है। आपको मजा
ढांचा देने
में आता है; लड़के
को सुख मिलेगा
या नहीं, यह
सवाल नहीं है।
आप लड़के को
अपने अनुसार
ढाल रहे हैं, इसमें आपको
मजा आ रहा है।
बड़ी अजीब बात
है। आप दुखी
हैं और अपने
ढांचे में ढाल
रहे हैं।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे मुझे तक
सलाह देने आ
जाते हैं। वे
कहते हैं, आप
ऐसा करिए तो
बहुत अच्छा
होगा। मैं
उनसे पूछता
हूं कि
तुम्हारी
सलाह से कम से
कम तुम तो चले
ही होओगे, और
अगर तुम्हारे
जीवन में आनंद
आ गया हो, तो
ही मुझे सलाह
दो। वे कहते
हैं, नहीं,
हमारे जीवन
में तो कुछ
नहीं आया; उसके
लिए तो हम
आपके पास आए
हुए हैं। तो
मैं उनसे कहता
हूं कि
तुम्हारी सलाह
सम्हाल कर रखो,
और किसी को
देना मत!
क्योंकि
तुम्हारी
सलाह के तुम
भी उदाहरण
नहीं हो।
मुझे
याद आता है, हेनरी
फोर्ड एक
दुकान में गया,
एक किताब
खरीदी। जब वह
किताब देख रहा
था, तो
किताब थी: हाउ
टु ग्रो रिच, कैसे
अमीर हो जाएं।
हेनरी फोर्ड
तो अमीर हो
चुका था, फिर
भी उसने सोचा
कि शायद कोई
और बातें
इसमें हों। और
तभी दुकानदार
ने कहा कि
फोर्ड महोदय,
आप बड़े
आनंदित होंगे,
इस किताब का
लेखक भी दुकान
में भीतर है।
वह कुछ काम से
आया हुआ है, हम आपको
उससे मिला
देते हैं।
उससे
सारी बात बिगड़
गई। वह लेखक
बाहर आया।
हेनरी फोर्ड
ने उसे नीचे
से ऊपर तक
देखा और कहा
कि यह किताब
वापस ले लो, यह
मुझे खरीदनी
नहीं है। वह
दुकानदार
हैरान हुआ कि
आप क्या कह
रहे हैं! इस
किताब की
लाखों कापियां
बिक चुकी हैं।
वह
कितनी ही बिक
चुकी हों, लेकिन
लेखक को देख
लिया, अब
किताब को क्या
करें! कोट फटा
था; हाउ टु ग्रो रिच किताब
लिखी है
उन्होंने!
हेनरी फोर्ड
ने पूछा कि
अपनी ही कार
से आए हो कि बस
में आए हो? लेखक
ने कहा, आया
तो बस में ही
हूं। तो हेनरी
फोर्ड ने कहा
कि मैं फोर्ड
हूं, और
कभी कार की
जरूरत पड़े तो
मेरे पास आना,
सस्ते में
निबटा दूंगा।
लेकिन अभी ये
किताबें मत
लिखो।
क्योंकि जिस
सलाह से तुम
नहीं कुछ पा
सके, उससे
कोई और क्या
पा सकेगा?
जिंदगी
बड़ी जटिल है।
अगर आपको न
मिला हो आनंद तो
अपने बेटे को
अपना ढांचा मत
देना। अगर
आपको न मिला
हो आनंद तो
अपनी सलाह
किसी को मत
देना। वह जहर
है। उसी सलाह
के आप परिणाम
हैं। दूसरों ने
आपके साथ
ज्यादती की कि
आपको ढांचा दे
दिया; अब आप
दूसरों के साथ
ज्यादती मत
करना कि उनको अपना
ढांचा दे
जाएं।
इसीलिए
हमें पता नहीं
चलता कि क्या
है प्रकृति की
अनुकूलता।
क्योंकि
प्रतिकूलता
में ही हम बड़े
होते हैं। मनुष्य
का सारा का
सारा संस्थान
प्रतिकूल है। इसलिए
लाओत्से कहता
है कि निसर्ग
के जितने अनुकूल
हो सकें, उतने
अनुकूल हो
जाना। क्यों
हो गया है
प्रतिकूल
आखिर? इसको
हम थोड़ा समझ
लें। इसका
पूरा शास्त्र
है कि आखिर
क्या कारण है
कि आदमी
प्रतिकूल हो
गया है।
कारण
है। हर व्यक्ति
अनुकूल पैदा
होता है।
प्रकृति से ही
पैदा होता है, इसलिए
अनुकूल होगा
ही। लेकिन हम
किसी व्यक्ति
को उसकी निसर्गता
में स्वीकार
नहीं करते। हम
उस पर आदर्श
ढालते हैं। हम
लोगों से कहते
हैं कि महावीर
बन जाओ, बुद्ध
बन जाओ, कुछ
न बने तो कम से
कम विवेकानंद
बन जाओ! लेकिन
आपको पता है
कि महावीर
दुबारा पैदा नहीं
होते? अभी
पच्चीस सौ साल
में तो नहीं
पैदा हुए; हालांकि
कई लोगों ने
समझाया अपने
बेटों को कि महावीर
बन जाओ। कोई
आदमी इस जमीन
पर दुबारा पैदा
हुआ है, ऐसी
आपको खबर है? कोई राम, कोई
कृष्ण, कोई
बुद्ध--कोई
कभी दुबारा
पैदा हुआ है?
हर
आदमी अनूठा
पैदा होता है।
और हम आदर्श
देते हैं उसको
कुछ होने के
कि तू यह हो जा!
कठिनाई है मां-बाप
की,
क्योंकि
उनको भी पता
नहीं कि घर
में जो पैदा हुआ
है, वह
क्या हो सकता
है। किसी को
भी पता नहीं।
अभी तो वह जो
पैदा हुआ है, उसको भी पता
नहीं कि वह
क्या हो सकता
है। सारा जीवन
अज्ञात में
विकास है। तो
मां-बाप की
बेचैनी यह है
कि कोई ढांचा
क्या दें वे?
तो जो
पहले लोग हो
चुके हैं
चमकदार, उनका
ढांचा देते
हैं कि तुम
ऐसे हो जाओ।
वह ढांचा
फांसी बन जाता
है। और वह
ढांचा ही
प्रकृति के
प्रतिकूल ले
जाने का कारण
हो जाता है।
फिर हम
ढांचे में ढाल
कर
व्यक्तियों
को खड़ा कर
देते हैं। वे
फंसे हुए लोग
हैं,
जिनके
चारों तरफ
लोहे की
जंजीरें हैं
सख्त। उनमें
से निकलना
मुश्किल है।
जब तक
मनुष्यता यह
स्वीकार न कर
ले कि
प्रत्येक
व्यक्ति
अनूठा है, और
किसी की कापी
न है और न हो
सकता है। दो
व्यक्ति समान
नहीं हैं; हो
भी नहीं सकते;
होना भी
नहीं चाहिए।
अगर आप कोशिश
करके राम हो
भी जाएं, तो
आप एक बेहूदा
दृश्य होंगे,
और कुछ भी
नहीं। राम का
होना तो एक
बात है, आपका
होना सिर्फ
नकल होगा।
झूठे होंगे
आप। सच्चे राम
होने का कोई
उपाय नहीं।
कारण? क्योंकि
सच्चे राम
होने के लिए
बड़ी कठिनाई
है। कठिनाई
क्या है? यह
नहीं कि राम
होना बड़ा कठिन
है। राम बिना
कोशिश किए हो
गए, इसलिए
बहुत कठिन तो
मालूम नहीं
होता। या कि
बुद्ध होना
बहुत कठिन है?
बुद्ध बिना
कोशिश किए हो
गए; कोई
बहुत कठिन
नहीं है।
कठिनाई दूसरी
है।
एक-एक
व्यक्ति
इतिहास, समय
और स्थान के
ऐसे अनूठे
बिंदु पर पैदा
होता है, उस
बिंदु को
दुबारा नहीं
दोहराया जा
सकता। वह बिंदु
एक दफा आ चुका,
और अब कभी
नहीं आएगा।
इसलिए कोई
आदमी दोहर नहीं
सकता। इसलिए
सब आदर्श
खतरनाक हैं।
फिर हम
किसी व्यक्ति
को स्वीकार
नहीं करते हैं।
हम सब का
अहंकार है
भीतर; वह
सिर्फ अपने को
स्वीकार करता
है और अपने
अनुसार सबको
चलाना चाहता
है। इस दुनिया
में सबसे खतरनाक
और अपराधी लोग
वे ही हैं, जो
अपने अनुसार
सारी दुनिया
को चलाना
चाहते हैं।
इनसे महान
अपराधी खोजने
कठिन हैं; भला
आप उनको
महात्मा कहते
हों। आपके
कहने से कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
जब भी
मैं कोशिश
करता हूं कि
किसी को मेरे
अनुसार चलाऊं, तभी
मैं उसकी
हत्या कर रहा
हूं। मेरे
अहंकार को
तृप्ति मिल
सकती है कि
मेरे अनुसार
इतने लोग चलते
हैं; लेकिन
मैं उन लोगों
को मिटा रहा
हूं।
इसलिए
वास्तविक
धार्मिक गुरु
आपको आपके
निसर्ग की
दिशा बताता है; आपको
अपने अनुसार
नहीं चलाना
चाहता। आपको
कहता है कि आप
अपने अनुसार
ही हो जाएं, और इस होने
के लिए जो भी
त्यागना पड़े
और जो भी मुसीबत
झेलनी पड़े, वह झेल लें।
क्योंकि सब
मुसीबतें
छोटी हैं, अगर
उस आनंद का
पता मिल जाए, जो स्वयं के
अनुसार होने
से मिलता है।
सब मुसीबतें
छोटी हैं; उसकी
कोई कीमत नहीं
है। सब
मुसीबतें
आसान हैं।
और आप
दूसरे के
अनुसार बनने
की कोशिश करते
रहें, तो आप
दुखी, और
दुखी, और
दुखी होते चले
जाएंगे। कभी
आपको आनंद की
कोई झलक न
मिलेगी।
आनंद
की झलक का
मतलब ही है कि
मेरी प्रकृति
और विराट की
प्रकृति के
बीच कोई
तालमेल खड़ा हो
गया,
कोई
हार्मनी आ गई।
अब दोनों एक
लय में बद्ध
होकर नाच रहे
हैं। मेरा
हृदय विराट के
हृदय के साथ
लयबद्ध हो गया;
मेरा स्वर
और विराट का
स्वर मिल गया;
अब दोनों
में जरा भी
फासला नहीं
है।
तो
मुझे अपने ही
अनुसार, अपने
ही जैसा होना
चाहिए। इसके
लिए कोई मुझे
सहायता नहीं
देगा। सब
इसमें बाधा
डालेंगे; क्योंकि
सब चाहेंगे कि
उनके अनुसार
हो जाऊं।
मां-बाप
चाहते हैं; फिर
स्कूल में
शिक्षक हैं, वे चाहते
हैं; फिर
नेता हैं, फिर
महात्मा हैं,
फिर पोप हैं,
शंकराचार्य
हैं, वे
चाहते हैं कि
मेरे अनुसार
हो जाओ। इस
दुनिया में
आपको चारों
तरफ, जैसे
बहुत से गिद्ध
आप पर टूट पड़े
हों, वे सब
आपको अपना
भोजन बनाना
चाहते हैं।
इसमें आप भूल
ही जाते हैं
कि आप सिर्फ
अपने जैसे होने
को पैदा हुए
थे। पर एक बात
तो पक्की है
कि आप दुखी
होते रहते
हैं। उस दुख
को ही पहचानें।
अगर आप दुखी
हैं, तो
समझ लें कि यह
पक्की है बात,
आप निसर्ग
के प्रतिकूल
चल रहे हैं।
दुख काफी सबूत
है।
और जब
आप दुखी होते
हैं तो पता है, आप
क्या करते हैं?
आप जब दुखी
होते हैं, तब
आप वही भूल
दोहराते हैं
जिसके कारण आप
दुखी हैं। तब
आप किसी से
पूछने जाते
हैं कि कोई
रास्ता बताइए,
जिस पर मैं
चलूं और मेरा
दुख मिट जाए।
वह आपको रास्ता
बताएगा कोई न
कोई। वह
रास्ता उसका
होगा। और हो
सकता है, उस
पर चलने से उस
आदमी का दुख
भी मिट गया
हो। मगर वह
रास्ता उसका
होगा। और
दूसरे का
रास्ता आपका
रास्ता नहीं
हो सकता। आपको
अपना रास्ता
खोजना पड़ेगा।
आप
दूसरों के
रास्तों से
परिचित हो लें, इससे
सहयोग मिल
सकता है। आप
दूसरे के
रास्तों को
पहचान लें, इससे अपने
रास्ते की खोज
में सहारा मिल
सकता है।
लेकिन किसी
दूसरे के
रास्ते पर
अंधे की तरह
चले अगर आप, तो आपको
अपना रास्ता
कभी भी नहीं मिलेगा।
कितने लोग
महावीर के
पीछे चले हैं,
और एक भी
महावीर नहीं
हो सका। और
कितने लोग बुद्ध
के पीछे चले
हैं, और एक
भी बुद्ध नहीं
हो सका। क्या
कारण है? इतना
अपव्यय हुआ है
शक्ति का, कारण
क्या है?
कारण
एक है: आपका
रास्ता किसी
दूसरे का
रास्ता नहीं
है,
और किसी दूसरे
का रास्ता
आपका रास्ता
नहीं है।
आत्माएं अद्वितीय
हैं, और हर
आत्मा का अपना
रास्ता है।
तो
क्या करें? अपने
दुख को समझें,
अपने दुख के
कारण को खोजें
कि मेरे दुख
का कारण क्या
है। उस कारण
से हटने की
कोशिश करें।
रास्ते मत
खोजें, दूसरों
से जाकर मत
पूछें। क्या
है दुख का
कारण आपका?
मेरे
पास न मालूम
कितने लोग आते
हैं। उनके दुख
का कारण इतना
साफ है कि
हैरानी होती
है कि उनको
दिखाई क्यों
नहीं पड़ता!
ऐसा लगता है
कि वे देखना
ही नहीं
चाहते। और अगर
उन्हें कोई
रास्ता भी
बताया जाए, तो
उस रास्ते पर
चल कर भी वे
दुख का कारण
तो साथ ही ले
जाते हैं।
अधिक
लोगों के दुख
का कारण
अहंकार है।
इतना साफ है, लेकिन
वह दिखाई नहीं
पड़ता।
मेरे
पास लोग आते
हैं। उनको मैं
कहता हूं कि यह
अहंकार ही दुख
दे रहा है। वे
कहते हैं, छूटने
का कोई रास्ता
बताइए। उनको
कोई रास्ता बता
दूं; वे उस
रास्ते पर
चलेंगे, मगर
वह जो बीमारी
थी, उसको
साथ ही ले
आएंगे। मैं
उनको कहता हूं,
चलो, एक
संन्यास में
छलांग लगा लो।
वे संन्यास
में भी छलांग
लगा लेते हैं।
लेकिन तब
संन्यासी का अहंकार
उनको पकड़ लेता
है। तब वे
मानते हैं कि जिन्होंने
संन्यास नहीं
लिया, वे
उनसे छोटे हैं;
और
जिन्होंने ले
लिया, वे
कुछ बड़ी ऊंचाई
पर पहुंच गए
हैं। वे
गैर-संन्यासी
को ऐसा देखते
हैं जैसा कि
सहानुभूति से किसी
दुखी, पीड़ित
आदमी को देखा
जाता है कि
ठीक है, भटको जब तक भटकना
है! हम पहुंच
गए; तुम भटको।
यह
उनकी बीमारी
थी;
इससे छोड़ने
को कहा था एक
छलांग लगा लो।
ये बीमारी को
साथ ले आए।
फिर दस-पचास
संन्यासी
इकट्ठे हो
जाते हैं, तो
छोटे-बड़े का
सवाल शुरू हो
जाता है। फिर
उनमें कलह
शुरू हो जाती
है, फिर पालिटिक्स
शुरू हो जाती
है। फिर वे दल
बना लेते हैं;
फिर
एक-दूसरे की
काट-पीट शुरू
कर देते हैं।
उन्होंने एक
संसार बना
लिया--आल्टरनेटिव,
छोटा सा। ये
सौ आदमी के
भीतर सारी
राजनीति आ जाती
है, जो
दिल्ली में
चलती हो, वाशिंगटन
में चलती हो, कोई फर्क
नहीं पड़ता।
कौन कहां बैठा
है; कौन
कौन सा काम कर
रहा है; कौन
को कितनी
प्रतिष्ठा
मिल रही है--वह
सारी बीमारी
साथ खड़ी है।
यह
कठिनाई है।
बीमारी हम देखना
नहीं चाहते।
या फिर मामला
ऐसा है जैसा
कि खाज किसी
को हो जाती
है। तो वह
जानता भी है
कि खुजलाने
से दुख होता
है,
लेकिन खुजलाने
में रस भी आता
है। अकेला दुख
होता तो खाज
को कोई भी न
खुजलाता। खाज
में दोहरा
उपद्रव है, मजा भी आता
है खुजलाने
में। तो जिस
दुख में मजा
आता है, उससे
बचना मुश्किल
हो जाता है।
आपको
अहंकार में
मजा भी आता है; वह
खाज है। फिर
दुख भी होता
है। जब दुख
होता है, तब
आप हाथ जोड़ कर
आ जाते हैं कि
कोई रास्ता
बताइए। जब
चमड़ी बिलकुल
उखड़ जाती है, और लहूलुहान
हो जाता है और
खून बहने लगता
है, तब आप
कहते हैं, कोई
रास्ता बताइए,
बहुत दुख पा
रहे हैं।
लेकिन थोड़ी
देर में चमड़ी
फिर ठीक हो
जाएगी, खून
बंद हो जाएगा;
फिर आपके
भीतर सरसराहट
शुरू होगी कि
थोड़ा खुजा
कर देखो, बड़ा
मजा आता है।
खाज है
अहंकार।
अकेला दुख
नहीं है, शुद्ध
दुख नहीं है; उसमें थोड़ा
रस भी मिश्रित
है। वही रस
पीछा करता है।
इसलिए जहां भी
आप जाते हो, वह रस पीछा
करता है।
अगर आप
दुख पा रहे हो, तो
समझना कि
अहंकार वहां
है। अगर आप
दुख पा रहे हो,
तो समझना कि
आप प्रकृति के
प्रतिकूल चल
रहे हो। और
प्रतिकूल
चलने के दो
ढंग हैं। शरीर
को भोजन
चाहिए। आप दो
ढंग से शरीर
को नुकसान
पहुंचा सकते
हैं। इतना
खाना खा लें
कि शरीर के
लिए झेलना
मुश्किल हो
जाए; दुख
शुरू हो
जाएगा। यह
प्रतिकूल चले
गए। या भूखे
रह जाएं, बिलकुल
न खाएं, तो भी दुख
शुरू हो
जाएगा।
तो
ध्यान रखना, प्रतिकूल
होने के दो
उपाय हैं।
अनुकूल होने का
एक उपाय है, और प्रतिकूल
होने के दो
उपाय हैं। और
आदमी का मन
ऐसा है कि एक
प्रतिकूलता
से दूसरी पर
चले जाने में
उसे सुविधा
होती है; क्योंकि
वह भी
प्रतिकूल है।
इसलिए ज्यादा
भोजन करने
वाले लोग
अक्सर उपवास
करने को राजी
हो जाते हैं।
असल में, जिस
आदमी ने सम्यक
भोजन किया है,
वह उपवास की
मूढ़ता
में पड़ेगा ही
नहीं। क्यों
उपवास करेगा?
जिसने ठीक
भोजन किया है,
उतना ही
भोजन किया है
जितना शरीर को
जरूरत थी, वह
उपवास करने का
कोई सवाल नहीं
उठता। सिर्फ अति
भोजन किया है,
तो फिर
अनाहार में
उतरना पड़ेगा।
और जो अति भोजन
करता है, वह
तत्काल
अनाहार के लिए
राजी हो जाता
है।
इसको
आप समझ लें।
अति भोजन करने
वाले को अगर कहें
कि कम भोजन
करो,
तो वह कहेगा,
यह जरा कठिन
है; बिलकुल
न करो, यह
हो सकता है।
अगर एक आदमी
सिगरेट पीता
है, उससे
आप कहें, दस
की जगह पांच
पीओ। वह कहेगा,
यह जरा कठिन
है; बिलकुल
न पीऊं, यह हो सकता
है। क्यों? क्योंकि अति
की आदत है; या
तो पीऊंगा दिन
भर, या
बिलकुल नहीं
पीऊंगा। इन
दोनों में से
चुनाव आसान
है। लेकिन
मध्य में
रुकना कठिन
है। मध्य में
रुकना कठिन
है। मध्य में
रुकने का मतलब
है कि आप
प्रकृति के
अनुकूल होना
शुरू हो गए। प्रकृति
है मध्य, संतुलन,
संयम।
ध्यान
रखना, हमने
संयम का अर्थ
ही खराब कर
दिया है। संयम
का हमारा मतलब
होता है दूसरी
अति। अगर एक
आदमी उपवास
करता है, हम
कहते हैं, बड़ा
संयमी है।
असंयमी है वह
आदमी उतना ही,
जितना
ज्यादा खाने
वाला असंयमी
है। संयम का मतलब
क्या है? संयम
का मतलब है
संतुलित, बैलेंस्ड,
बीच में; न इस तरफ, न
उस तरफ। झुकता
ही नहीं अति
पर, बिलकुल
मध्य में है।
मध्य में जो
है, वह
संयम में है।
और संयम सूत्र
है निसर्ग के
अनुकूल हो
जाने का।
लेकिन आपका
संयम नहीं; आपका संयम
तो असंयम का
ही एक नाम
है--दूसरी अति पर।
अहंकार
है,
अति है, और
भीतर जिन
चीजों से आप
छूटना चाहते
हैं, उनमें
ही रस भी है।
इसे पहचानना
पड़ेगा। आपके हर
दुख में आपका
हाथ है और रस
है। रस को आप
नहीं देखते, आप सिर्फ
दुख को देखते
हैं; तो आप
कभी नहीं छूटेंगे।
रस को भी
देखें। रस से
ही छूटेंगे
तो दुख से छूटेंगे।
जिस आदमी को
खाज खुजलाने
में रस है, उससे
कितना ही कहो
कि दुख है, वह
भी मानता है
कि बहुत दुख
है, वह भी
दुख झेल चुका
है। पहले उसको
समझाओ कि रस भी
है! और रस को
समझ लो ठीक से,
और रस लेना
चाहते हो तो
यह दुख की
कीमत चुकानी पड़ेगी।
फिर दुख से
बचने की बात
मत पूछो।
लोग
मुझसे आकर
कहते हैं, बड़ी
अशांति है।
उन्हें मैं
कारण बताता
हूं। वे कहते
हैं, वह
कारण तो छोड़ना
मुश्किल है।
आप तो अशांति
हटाने का उपाय
बता दें।
इसलिए लोग
झूठी तरकीबों में
पड़ जाते हैं।
एक
आदमी है, वह धन
के पीछे पागल
है। वह कहता
है कि जब तक
करोड़ों न हो
जाएं, उसे
चैन नहीं
मिलने वाली।
और करोड़ों की
इस दौड़ में
उसका मन अशांत
हो जाता है।
वह मेरे पास
आता है, वह
कहता है कि
बड़ी अशांति है,
कोई मंत्र
बता दें, कोई
माला दे दें
तो मैं माला
फेर कर शांत
हो जाऊं। मैं
उससे पूछता
हूं कि माला न
फेरने से तुम
अशांत हुए हो?
तो माला
फेरने से शांत
हो जाओगे।
तुम्हारी
अशांति का
क्या संबंध है
माला से? माला
का हाथ ही
कहां है? उसको
मैं कहता हूं
कि यह जो तुम
धन की पागल
दौड़ में पड़े
हो, यह
तुम्हारी
अशांति है। वह
कहता है, इसको
तो छोड़ना
मुश्किल है; आप तो कोई
दूसरी विधि
बता दें।
वह
विधि चाहता
है। उसका मतलब
यह है कि वह जो
खाज के खुजलाने
का रस है, वह तो
बचा रहे; और
खाज के खुजलाने
में से जो दुख
होता है, वह
न हो। आप कोई
माला बता दें
कि खुजला
कर माला फेरने
लगूं, ताकि
वह जो दुख है, वह न हो। वह
दुख कैसे नहीं
होगा? उस
दुख का कारण
है। और
मंत्रों से वह
कारण मिटने वाला
नहीं है। कोई
मंत्र आपके
कारण नहीं
मिटा सकता।
इसलिए
मंत्र तो
दुनिया में
बहुत हैं और
मंत्र देने
वाले बहुत हैं, और
आपके दुख का
कोई अंत नहीं
है। फिर मंत्र
देने वाले भी
समझ जाते हैं
कि आप खाज को
खुजलाना चाहते
हैं, तो वे
दोहरी बातें
कहते हैं।
महेश योगी
अपने साधकों
को कहते हैं
कि इस मंत्र
से तुम्हें आध्यात्मिक
शांति तो
मिलेगी ही, भौतिक
संपन्नता भी
मिलेगी। यह वे
यह कह रहे हैं
कि इससे दुख
भी मिटेगा और खुजलाने
का मजा भी
रहेगा।
पश्चिम में
महेश योगी के
विचार के
प्रभाव का
बुनियादी
कारण यह है।
क्योंकि वे
कहते हैं कि इससे
भौतिक
संपन्नता भी
मिलेगी, इससे
धन-समृद्धि भी
मिलेगी।
स्वभावतः
धन तो आप
चाहते हैं, और
शांति भी
चाहते हैं।
अगर कोई कहता
है, धन की
दौड़ में शांति
नहीं मिलेगी;
तो आप
कहेंगे, फिर
शांति रहने दो;
अभी धन की
दौड़ कर लें, फिर धन पास
होगा तो शांति
भी खरीद
लेंगे। जिसकी
बुद्धि धन पर
टिकी होती है
वह सोचता है, हर चीज धन से
खरीदी जा सकती
है; शांति
भी खरीद
लेंगे।
कुछ
चीजें हैं जो
धन से नहीं
खरीदी जा
सकतीं। और कुछ
चीजें हैं जो
धन की दौड़ में
कभी फलित ही नहीं
हो सकती हैं।
कुछ चीजें हैं
जिनसे यश नहीं
खरीदा जा
सकता। और कुछ
चीजें हैं जो
यश चाहने वाले
को कभी नहीं
मिल सकती हैं।
क्योंकि उसी
चाह में उनका
विरोध है।
एक
मेरे मित्र
हैं। एक राज्य
के मंत्री थे।
अब फिर मंत्री
हो गए। जब वे
मंत्री नहीं
रहते, तब मेरे
पास आते हैं।
जब वे मंत्री
हो जाते हैं, तब मुझे भूल
जाते हैं। जब
वे मंत्री नहीं
रहते, तब
वे मेरे पास
आते हैं कि
शांति का कोई
उपाय बताइए।
मैं उनसे
पूछता हूं, अशांति क्या
है? यही न
कि अभी मंत्री
आप नहीं हैं? तो इसके लिए
मैं क्या उपाय
बताऊं? और मेरा
उपाय ऐसा है
कि फिर आप कभी
मंत्री नहीं
हो पाएंगे। तो
मैं उनसे कहता
हूं, आप तय
कर लें। अगर
शांत ही होना
है, तो
राजनीति छोड़
देनी पड़े।
क्योंकि वह
खाज है और
उसमें
खुजलाना जारी
रखना पड़ेगा।
और राजनीति
ऐसी खाज है कि
आप भी न खुजलाओ
तो दूसरे आपकी
खाज को
खुजलाते हैं।
बड़ी कठिनाई
है। आप चैन से
ही बैठे हो तो
आपके उपद्रवी,
जिनको आप ने
इकट्ठा कर
लिया है, जो
आपको मंत्री
बनाते हैं, वे चैन से न
बैठने देंगे।
वे खुजलाएंगे।
तो वहां तो
खाज के
रोगियों का ही
समूह है, वहां
बहुत मुश्किल
है। वहां अपनी
भी खुजलाते हैं
लोग, दूसरों
की भी खुजलाते
हैं। आप वहां
से हट आओ। वे
कहते हैं, आप
बात तो ठीक
कहते हैं, और
मैं हटना भी
चाहता हूं--जब
वे नहीं होते,
तब वे कहते
हैं, हटना
भी चाहता
हूं--मगर अभी
जरा मुश्किल
है, उलझाव
है। तो फिर, मैं उनसे
कहता हूं, अशांत
ही रहो। फिर
क्यों...?
हमारी
बेईमानी क्या
है?
अशांति से
जो मिलता है
वह भी हम लेना
चाहते हैं, और अशांति
भी नहीं लेना
चाहते। इस जगत
में इसका कोई
उपाय नहीं है।
आदमी को
सीधा-साफ होना
चाहिए। अगर
राजनीति का रस
लेना है तो
अशांति होगी;
उसको मजे से
झेलो, उसे
समझो कि वह
हिस्सा है।
लेकिन बुद्ध
की शांति देख
कर वह भी
महत्वाकांक्षा
मन में जगती
है कि बुद्ध
जैसी शांति भी
हो जाए। मगर
बुद्ध किसी
राज्य के
मंत्री होने
की कोशिश नहीं
कर रहे थे, इसका
खयाल नहीं
आता। बल्कि
राज्य था हाथ
में, उससे
हट गए थे।
तो
बुद्ध की
शांति
आकर्षित करती
है;
मंत्री का
बंगला
आकर्षित करता
है। मन विरोधी
वासनाओं से भर
जाता है। और
तब हम चाहते
हैं, दोनों
बातें एक साथ
हो जाएं। वे
दोनों बातें
एक साथ नहीं
हो पाती हैं।
जिस व्यक्ति
को निसर्ग के
अनुकूल चलना
है, उसे यह
ठीक से समझ
लेना चाहिए कि
प्रतिकूल क्यों
चल रहा है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि अगर हम
प्रकृति के
अनुकूल चलने
लगें तो समाज
का क्या होगा?
आप
पर समाज टिका
हुआ है, ठहरा
हुआ है? नाहक
हर आदमी सोचता
है कि वही
सम्हाले हुए
है इस जगत को।
कोई पंडित
जवाहरलाल
नेहरू से ही
लोग नहीं
पूछते कि आपके
बाद क्या होगा,
आप भी अपने
मन में सोचते
रहते
हैं--मेरे बाद
क्या होगा? कुछ भी नहीं
होगा, लोग
बड़े मजे में
होंगे। कोई
कहीं तकलीफ
नहीं हो जाने
वाली है। आपकी
जगह खाली हो, इसके लिए कई
लोग तैयार हैं
कि जल्दी वह
हो।
आप
प्रकृति के
अनुकूल हो
जाएंगे तो
समाज का क्या
होगा?
क्या
होगा समाज का!
कम से कम एक
समाज का टुकड़ा
अच्छा हो
जाएगा तो समाज
थोड़ा अच्छा
होगा। नहीं, आपको
समाज की फिक्र
नहीं है। आपको
पता नहीं है
कि आप जो पूछ
रहे हैं, उसका
मतलब क्या है।
आप असल में यह
पूछ रहे हैं कि
अगर मैं
प्रकृति के
अनुकूल होने
लगूं, तो
जिन बीमार
समाज से मेरे
संबंध हैं और
जहां मैं अभी
जमा हुआ हूं, वहां मैं
उखड़ जाऊंगा।
समाज का क्या
होगा, यह
सवाल नहीं है।
आपका क्या
होगा?
आप उखड़े
हुए अनुभव करेंगे।
अगर आप दौड़
नहीं रहे हैं
दौड़ने वालों में, तो
आप रास्ते के
किनारे हटा
दिए जाएंगे।
दौड़ने वाले तो
बड़े मजे में दौड़ेंगे, जगह थोड़ी
ज्यादा हो
जाएगी। आपका
स्थान बचेगा;
उनको कोई
तकलीफ न होगी।
आप दिक्कत में
पड़ते हैं।
आपको लगता है,
मैं हटा
दिया जाऊंगा।
अगर मैं खड़ा
हुआ, नहीं दौड़ा, तो
लोग रास्ते के
किनारे कर
देंगे कि हट
जाओ! अगर नहीं
दौड़ना है, तो
बीच में मत आओ!
जो दौड़ रहे
हैं उनको
दौड़ने दो।
उससे मन में
दुख होता है
कि रास्ते से
हट जाऊंगा।
रस तो उसी
रास्ते में
बना है, कि
आगे कहीं कोई
यश का
इंद्रधनुष
दिखाई पड़ रहा
है, वह हाथ
में मुट्ठी
बना लूंगा।
दौड़े जा रहे
हैं लोग। लगता
है, सारी
दुनिया दौड़
रही है, अगर
हम न दौड़े, कहीं
सबको मिल गया
आनंद और हम बच
गए, तो
क्या होगा?
ये
दौड़ने वालों
की शक्लें
देखें। उनमें
से किसी को
आनंद मिलने
वाला नहीं है।
मिला नहीं है; मिलने
की कोई आशा भी
नहीं है। दौड़े
जा रहे हैं, क्योंकि
बाकी भीड़ भी
दौड़ रही है।
और इसमें खड़ा
होना मुश्किल
है; खड़ा
होगा जो, वह
मैल-एडजस्ट
हो जाएगा।
इसलिए
कठिनाई, समाज
का क्या होगा,
यह नहीं है।
आपकी कठिनाई
है कि आपका
क्या होगा? तो आप अपने
लिए निर्णय कर
लें। अभी आपको
क्या हो रहा है?
अभी आप कौन
से स्वर्ग में
हैं? एक
मजे की बात है,
आदमी कभी
नहीं सोचता कि
वह क्या है
अभी। और आपका
क्या खो जाएगा?
आपके पास
कुछ हो, तो
खो सकता है।
आपके पास कुछ
है ही नहीं।
आप नाहक ही उस
नंगे आदमी की
तरह हैं, जो
रात भर जागा
हुआ है कि कोई
कपड़े न चुरा
कर ले जाए।
कपड़े उनके पास
हैं ही नहीं, मगर चोर से
डरे हुए हैं
कि कोई चुरा
कर...।
आपके
पास क्या है
जो खो जाएगा? और
जो आपके पास
है, वह
खोने ही वाला
है। उसको आप
बचा नहीं
पाएंगे।
क्योंकि जो भी
आपके पास है, वह बाहर का
है। मकान है, धन है, वह
सब खो जाएगा।
मौत उसे छीन
लेगी। वह खोया
ही हुआ है।
भीतर क्या है
आपके पास जो
मौत में भी
आपके साथ बच
रहेगा?
एक
कसौटी खयाल
रखनी चाहिए कि
मौत में मेरे
साथ क्या बच
रहेगा? जिन
मित्र ने पूछा
है कि पिरामिड
की ममीज
में मुर्दों
के पास
हीरे-जवाहरात,
रोटी, खाने
का सामान रख
दिया है, वह
उनके साथ तो
जाएगा नहीं!
आपने अपने
चारों तरफ
क्या इकट्ठा
किया है? वह
आपके साथ
जाएगा? मुर्दों
के साथ नहीं
जाएगा, छोड़
दीजिए; आपके
साथ जाएगा? आपने क्या
इकट्ठा किया
है अपने चारों
तरफ?
नहीं
आपसे कह रहा
हूं कि उसे
छोड़ दें; सिर्फ
यही कह रहा
हूं कि आप यह
समझ लें कि वह
आपके साथ जाने
वाला नहीं है।
उसकी भी तलाश
कर लें जो साथ
जा सकता हो।
और अगर ऐसी
हालत हो कि
साथ जो जा
सकता हो, और
जो साथ नहीं
जा सकता, उसके
कुछ छोड़ने से
उसकी उपलब्धि
होती हो, तो
सौदा कर लेने
जैसा है। सौदा
छोड़ देने जैसा
नहीं है।
लेकिन
भय बड़े अजीब
हैं। और आपको
पता ही नहीं
है कि जो आप कर
रहे हैं, वह आप
कर रहे हैं या
दूसरे आपसे
करवा रहे हैं।
आपका पड़ोसी एक
कार खरीद कर आ
जाता है। कल
तक आपको इस
कार को खरीदने
का कोई खयाल
नहीं था। अब यह
पड़ोसी कार
खरीद लाया, अब आपको भी
यह कार खरीदनी
ही है। क्यों?
कार की शायद
जरूरत नहीं थी;
नहीं तो कल
भी आप सोचते
कि खरीदनी
है। लेकिन
पड़ोसी ले आया;
अब पड़ोसी से
अहंकार की
टक्कर है। और
हो सकता है, पड़ोसी किसी
और अपने दफ्तर
में किसी आदमी
की कार देख कर
झंझट में पड़ा
हो। अब आप यह
कार लेकर रहेंगे।
इसके लिए आप
शांति खो सकते
हैं, स्वास्थ्य
खो सकते हैं, नींद खो
सकते हैं, प्रेम
खो सकते हैं, सब खो सकते
हैं। यह कार
चाहिए। और कार
पाकर आपको
क्या मिलेगा?
जो
आपने खो दिया
है,
उसे दुबारा
पाना मुश्किल
हो जाएगा। और
जो आपने पा
लिया है, वह
कुछ भी नहीं
है। पड़ोसी के
सामने अकड़!
लेकिन पड़ोसी
भी मिट जाने
वाला है और आप
भी मिट जाने
वाले हैं। ये
कारें खड़ी रह
जाएंगी और आप
खो जाएंगे। और
जो आपने इनके
लिए खोया था, उसे लौटाना
मुश्किल होता
चला जाएगा।
बहुत
आश्चर्य की
बात आदमी के
साथ यही है कि
उसे ठीक-ठीक
यह भी पता
नहीं है कि वह
जो कर रहा है, वह
खुद कर रहा है
या दूसरे उससे
करवा रहे हैं।
चारों तरफ की
भीड़ आपसे करवा
रही है। जो
कपड़े आप पहने
हुए हैं, वे
किसी ने आपको
पहना दिए हैं।
जिस मकान में
आप रह रहे हैं,
वह किसी ने
आपको लिवा
दिया है। जो
आप वाणी बोल
रहे हैं, वह
किसी ने आपको
सिखा दी है।
आप बिलकुल
उधार हैं। यह
जो उधार
व्यक्तित्व
है, यह
आपकी आत्मा
नहीं है।
लाओत्से, निसर्ग
के अनुकूल
होने का यही
प्रयोजन है
उसका कि आप
अपनी आत्मा की
तलाश कर लें, अपने स्वभाव
की तलाश कर
लें। आप उसकी
फिक्र में लग
जाएं, जो
आपका है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि लाओत्से
कहता है कि हम निसर्ग
के अनुकूल हो
जाएं; तो हम
पशु जैसे न हो
जाएंगे?
अभी
आप क्या हैं? पशु
जैसे नहीं हैं?
क्या है जो
पशु से आप में
भिन्न है? क्या
है आप में जो
पशु से भिन्न
है? क्रोध
वही है, मोह
वही है, घृणा
वही है, काम
वही है, लोभ
वही है। क्या
है जो पशु से
भिन्न है?
हां, एक
बात है कि
पशुओं के पास
कारें नहीं
हैं, बंगले
नहीं हैं, तिजोड़ी
नहीं हैं, बैंक-बैलेंस
नहीं हैं। ये
आपके पास
ज्यादा है।
लेकिन अगर आप
यह देखें कि
पशु आपसे गहरे
सो पाते हैं, ज्यादा
प्रसन्न
मालूम होते
हैं, जिंदगी
ज्यादा
निर्भार
मालूम होती है,
तो ये कारें
और मकान महंगा
सौदा मालूम
पड़ता है। पशु
कम से कम सो तो
सकते हैं।
माना कि उनके
पास बिस्तर आप
जैसे नहीं
हैं--हैं ही
नहीं। मगर
बिस्तर को
क्या करिएगा,
अगर बिस्तर
मिले और नींद
खो जाए? पशु
आकाश के नीचे
सो रहे हैं।
आपके पास मकान
है पत्थर की
दीवारों का।
मगर क्या
करिएगा उस मकान
का, अगर
उसके भीतर भी
प्राण भय से
थरथराते रहें?
पशु खुले
आकाश के नीचे
भी शांति से
सोया है। सुबह
उसकी आंख में
जो ताजगी है, वह सुबह
आपकी आंख में
नहीं होती।
ऐसा
क्या है आपके
पास जो कि आप
सोचते हैं पशु
होने का डर
लगता है कि
कहीं पशु न हो
जाएं? पशु ही
हैं। और ध्यान
रखें, निसर्ग
के अनुकूल आप
ही हो सकते
हैं, पशु
नहीं हो सकता।
क्योंकि पशु
को प्रतिकूल होने
का कोई उपाय
नहीं है।
सिर्फ मनुष्य
ही निसर्ग के
अनुकूल हो
सकता है। पशु
तो निसर्ग के
अनुकूल
है--अचेतन।
उसके होने में
कोई गरिमा नहीं
है, कोई
उपलब्धि नहीं
है।
इसे
ऐसा समझिए कि
एक आदमी
भिखारी है। और
फिर एक बुद्ध, राजा
के घर में
पैदा हुआ, और
भिखारी हो
जाता है। ये
दोनों सड़क पर
भी भीख मांग
रहे हैं। ये
दोनों एक से
भिखारी नहीं
हैं। बुद्ध के
भिखारीपन
का मजा ही और
है। भिखारी का
दुख बुद्ध का
आनंद है।
दोनों भिखारी
हैं, दोनों
भिक्षापात्र
लिए खड़े हैं।
लेकिन बुद्ध
एक सम्राट
भिखारी हैं।
बुद्ध का भिखारीपन
स्वेच्छा से
लिया गया है, वरण किया
गया है। यह
बुद्ध की
इच्छा का, बुद्ध
के अपने
संकल्प का
परिणाम है।
बुद्ध ने छोड़ा
है धन; बुद्ध
का भिखारी
होना सम्राट
के बाद की
अवस्था है। वह
जो भिखारी खड़ा
है, उसने
धन छोड़ा नहीं
है; धन
मांगा है, लेकिन
मिला नहीं है।
अभाव है। वह
सम्राट के पहले
की अवस्था है।
वह जो भिखारी
है, वह
सम्राट होना
चाहता है; बुद्ध
सम्राट थे, नहीं हो गए
हैं। बुद्ध के
भिखारीपन
में एक
समृद्धि है।
उस भिखारी का भिखारीपन
सिर्फ भिखारीपन
है। वहां
सिर्फ
रिक्तता है।
बुद्ध के भीतर
एक भराव है।
बुद्ध की
गरिमा को वह
भिखारी नहीं
पा सकता।
पशु
निसर्ग के साथ
हैं,
उन्होंने
प्रतिकूल
होना जाना ही
नहीं। वे भिखारी
की तरह हैं।
आदमी ने
प्रतिकूल
होना जाना; वह बुद्ध की
तरह है। अब
अगर वह अनुकूल
हो जाए, तो
जिस रहस्य को
वह पा लेगा, उसे पशु
नहीं पा सकते।
पशु परमात्मा
में लीन हैं, लेकिन
अचेतन।
मनुष्य
परमात्मा से
दूर हट आया है,
लेकिन
चेतन। मनुष्य
अगर चेतन रूप
से परमात्मा
में लीन हो
जाए, तो वह
स्वयं
परमात्मा हो
जाता है।
पशु है
पीछे मनुष्य
के,
परमात्मा
है आगे, बीच
में है
मनुष्य।
इसलिए मनुष्य
तकलीफ में है।
दो
रास्ते हैं
उसके शांति
के। या तो वह
बिलकुल गिर कर
पशु हो जाए।
पशु होने का
अर्थ है, वह
अचेतन हो जाए।
इसलिए शराब
पीकर कभी मन
अचेतन हो जाता
है, तो आप
भी बड़े
प्रसन्न
मालूम पड़ते
हैं। जब शराब
का दौर चलता
है, दस-पांच
मित्र शराब
पीते हैं, तो
थोड़ी देर में
सभ्यता विसर्जित
हो जाती है।
फिर उनकी
आंखें देखें;
धीरे-धीरे
उनके चेहरे और
उनकी आंखों से
एक बोझ उतर
जाता है। फिर
उनके हाथ-पैर
में पुलक और
गति आ जाती है;
फिर उनकी
वाणी में ओज आ
जाता है। फिर
वे बातें हृदयपूर्वक
करने लगते
हैं। फिर वे
जोर-जोर से
बातें करने लगते
हैं। फिर वे
नाच सकते हैं
और गीत गा
सकते हैं।
लेकिन
अब वे होश में
नहीं हैं। यह
बड़े मजे की बात
है! जब वे होश
में थे, तो
नाच नहीं सकते
थे; अब वे
होश में नहीं
हैं, तो
नाच सकते हैं।
यह पशु जैसा
हो जाना है; वापस नीचे
गिर जाना है।
बेहोशी का
अर्थ है, नीचे
गिर जाना; होश
का अर्थ है, वापस नीचे
गिरना नहीं, ऊपर उठ
जाना।
इसलिए
संत की आंखों
में भी पशु
जैसी सरलता
दिखाई पड़ेगी, वैसा
ही निर्दोष
भाव दिखाई
पड़ेगा। लेकिन
संत पशु नहीं
है। संत पशु
जैसा ही सरल
हो गया, लेकिन
होशपूर्वक।
शराबी बेहोश।
किसी ने एल एस
डी ले लिया हो,
किसी ने मारिजुआना
ले लिया हो, उसकी आंखों
में भी एक
निर्दोषता, सरलता आ
जाती है।
लेकिन वह पशु
की सरलता, निर्दोषता
है। वह बेहोश
हो गया; वह
नीचे गिर गया;
उसने अपनी
आदमियत का
त्याग कर
दिया।
आदमियत
का त्याग दो
तरह से हो
सकता है: पीछे
गिर कर भी, आगे
जाकर भी। पीछे
गिरना पशुता
है। लाओत्से
पीछे गिरने को
नहीं कह रहा
है।
लाओत्से
आगे जाने को
कह रहा है। वह
कह रहा है, होशपूर्वक
निसर्ग के
अनुकूल हो
जाओ। होशपूर्वक
शांत हो जाओ, मौन हो जाओ।
होशपूर्वक
सारी विकृति,
सारा
उपद्रव, सारी
कलह छोड़ दो।
होशपूर्वक
अहंकार को
विदा कर दो।
होशपूर्वक कलह
के बीज मत
बोओ। द्वंद्व
मत पकड़ो, निर्द्वंद्व
हो
जाओ--अवेयरनेस
में, होश
में।
तो
निश्चित ही, लाओत्से
पशु जैसा ही
लगेगा। और
लाओत्से को एक
गाय के पास
बिठा देंगे, दोनों की
आंखों में
फर्क करना
मुश्किल हो
जाएगा। उतना
ही शांत होगा।
लेकिन गाय को
उसका पता नहीं,
जिसका
लाओत्से को
पता है।
लाओत्से जान
रहा है अब; इस
निसर्ग में
डूबने का जो
रस है, इसे
पी रहा है।
तो जिन
मित्र ने पूछा
है कि कहीं
निसर्ग के साथ
एक होने से
मनुष्य पशु
जैसा तो नहीं
हो जाएगा, वे
ध्यान रखें, मनुष्य पशु
जैसा हो सकता
है, उपाय
है बेहोश
होना। जितना
बेहोश आदमी
होता है, उतना
पशु जैसा होता
है। इसलिए जो
काम आप बेहोशी
में करते हैं,
वे पशु जैसे
होते हैं। और
जो काम आप होश
में कर ही
नहीं सकते, उनको मत
करना; क्योंकि
उस वक्त आप
पशु हो जाते
हैं। और जिन कामों
को आप बेहोशी
में ही कर
सकते हैं, उनको
भी होश में
करने की कोशिश
करना, तो
आप पाएंगे, आप उनको कर
ही नहीं सकते।
किसी
पर क्रोध है
आपको; जब आप
करते हैं, तो
बेहोश हो जाते
हैं। बेहोशी
में ही कर
पाते हैं।
आपकी
ग्रंथियों से
जहर छूट जाता
है खून में; शराब ऊपर से
नहीं पीते आप,
भीतर से पी
लेते हैं। अब
तो उसकी जांच
हो सकती है कि
कितनी शराब
आपके खून में
आपके क्रोध से
पहुंच गई।
आपकी
ग्रंथियां
हैं,
जो पायजन
इकट्ठा करती
हैं, जरूरत
के लिए; क्योंकि
क्रोध बिना
बेहोशी के
नहीं हो सकेगा।
जब क्रोध का
क्षण होता है,
तत्काल
आपका चेहरा
लाल हो जाता
है, आंखें
सुर्खी से भर
जाती हैं, हाथ-पैर
कस जाते हैं, दांत बंधने
लगते हैं--खून
जहर से भर
गया। अभी आपका
जहर नापा जा
सकता है कि
कितना जहर
आपके भीतर है।
इस जहर के
प्रभाव में आप
किसी की गर्दन
दबा देते हैं,
किसी का सिर
खोल देते हैं।
घड़ी भर
बाद जब जहर
चुक गया और
ऊर्जा क्रोध
में बाहर जाकर
खो गई, तब आप पछताते
हैं और कहते
हैं: यह मैंने
कैसे किया? यह तो मैं
कभी करना नहीं
चाहता था! यह
मुझसे हो कैसे
गया? तब आप
सोचते हैं, ऐसा लगता है
कि जैसे किसी
भूत-प्रेत ने
मुझे पजेस
कर लिया हो।
किसी
ने आपको पजेस
नहीं किया था, आप
बेहोश हो गए
थे; और
ग्रंथि जो जहर
छोड़ रही हैं, उनमें आप
डूब गए थे।
आपको लगता है,
यह मैंने
नहीं किया! और
एक लिहाज से
ठीक लगता है; क्योंकि आप
थे ही नहीं, आप बेहोश
थे।
क्रोध
को होशपूर्वक
करें, पूरे
होश से भर कर
करें, और
आप पाएंगे कि
क्रोध नहीं कर
सकते हैं। जो
होशपूर्वक न
किया जा सके, समझना वह
पाप है। और जो
होशपूर्वक ही
किया जा सके, समझना वह
पुण्य है। और
कोई परिभाषा
नहीं है पाप
और पुण्य की।
जिसे आप
होशपूर्वक ही
कर सकें, वह
पुण्य है। जो
बेहोशी में हो
ही न सके!
अब
इसका बड़ा मजा
हुआ। इसका
मतलब यह हुआ
कि अगर आप दान
भी कर रहे हैं
और बेहोशी में
कर रहे हैं, तो
वह पाप है।
आपने कभी
होशपूर्वक
दान किया है? मुश्किल है।
कब करते हैं
आप दान? जब
आप किसी के
कारण बेहोश हो
जाते हैं। चार
लोग आते हैं
और कहते हैं, आप जैसा
दानी इस गांव
में नहीं है!
छाती
फूलने लगी
आपकी। सोचते
तो आप भी थे, लेकिन
अभी तक किसी
ने कहा नहीं
था। और वे लोग
कहते हैं कि
आपके बिना यह
काम नहीं हो
पाएगा; आपका
हाथ मिला, तो
काम की सफलता
है। वे आपको
चढ़ा रहे हैं, वे आपको जहर
दे रहे हैं।
अब आपकी
ग्रंथियां छोड़ने
लगेंगी जहर; आप दान कर
जाएंगे--इस
बातचीत में, इस प्रभाव
में, इस
प्रशंसा में,
इस दंभ में।
पीछे पछताएंगे, जैसा
क्रोध में
पछताते हैं।
लेकिन फिर कुछ
करने का उपाय
नहीं। रात भर
सो नहीं
पाएंगे कि लाख
रुपया दे दिया,
किस क्षण
में फंस गए!
लेकिन कल
अखबार में नाम
छपे, फोटो
छपे, तो
थोड़ी राहत
मिलेगी कि कोई
बात नहीं।
मकान पर पत्थर
लग जाए, आपका
नाम लग जाए, तो राहत
मिलेगी कि कोई
हर्जा नहीं, कोई धोखा
नहीं हुआ, ठीक
है।
लेकिन
दान भी आप अगर
बेहोशी में
करते हैं, कोई
आपसे करवा
लेता है--जैसे
कोई आपसे
क्रोध करवा
लेता है--तो
समझना कि पाप
है। और क्रोध
भी अगर आप होश
में करते हैं,
कोई करवाता
नहीं, आप
पूरे
होशपूर्वक
करते हैं, तो
समझना कि पुण्य
है। क्योंकि
जो क्रोध
होशपूर्वक
किया जाए, उससे
कभी अहित किसी
का नहीं होगा।
वह हित के लिए
ही हो सकता
है। और जो दान
बेहोशी में
किया जाए, उससे
आपका भी अहित
हो रहा है, दूसरे
का भी अहित हो
रहा है।
वे जो
दूसरे आपसे
दान ले गए हैं, वे
सोचते हैं, खूब बुद्धू
बनाया। वे लौट
कर यही सोचते
जाते हैं, आप
कुछ और मत
सोचना कि वे
कुछ और सोचते
जाते हैं।
उनकी तो छोड़
दें, रास्ते
पर एक भिखारी
आपसे चार आने
निकलवा लेता
है, वह भी
हंसता है पीठ
पीछे। जिससे
नहीं निकलवा लेता,
उसको मानता
है कि आदमी
मजबूत है।
इसलिए
भिखारी भी, जब
चार आदमी होते
हैं, वहीं
आपको पकड़ लेता
है। अकेले में
पकड़ ले तो आप
उसको दान देने
वाले नहीं
हैं। क्योंकि
अकेले में
कहेंगे कि हट,
क्या लगा
रखा है! अभी
तेरी उम्र
इतनी है कि
काम कर! लेकिन
चार आदमियों
के सामने पकड़
लेता है आपका
पैर। अब आपको
लगता है, चार
आने के पीछे
चार आदमियों
के सामने
इज्जत जाती है;
दो चार आने।
आप चार
आदमियों को
चार आने दे
रहे हैं, उस
भिखारी को
नहीं। उसने
आपको उस
स्थिति में डाल
दिया, जहां
आपसे वह करवाए
ले रहा है।
आदमी
जो भी बेहोशी
में करता है, वही
पाप है।
अगर आप
निसर्ग के
अनुकूल हो
जाते हैं
होशपूर्वक, तो
आप पशु नहीं
होते, आप
परमात्मा की
तरफ जा रहे
हैं।
दोत्तीन
छोटे-छोटे
प्रश्न और
हैं।
एक
मित्र ने पूछा
है कि आपने
कुपुत्र के
बारे में
बताया कि उसको
अनुभवों में
से गुजरने देना
चाहिए, तो वह
खुद सीख
जाएगा। लेकिन
अनुभव लेने के
बाद भी वह वही
पसंद करता
है--कोई अपने
कुपुत्र के
संबंध में पूछ
रहे हैं--चाहे
कितना ही दुख
झेलना पड़े, चाहे मौत भी
क्यों न आ जाए,
फिर भी वह
वही करता है।
बार-बार ठोकर
खाकर भी वही
दोहराता है।
उसका क्या
उपाय किया जाए?
उसको
सुधारने का
क्या तरीका है?
आप न
सुधार
पाएंगे।
जिसको जिंदगी
नहीं सुधार पा
रही,
मौत नहीं
सुधार पा रही,
उसको आप
क्या सुधार
पाएंगे? अगर
आपकी बात सच
है कि बार-बार
दुख पाकर भी
वह वही करता
है, मौत भी
आ जाए तो भी
वही करता है, और सुधरता
नहीं, तो
आप हाथ अलग कर
लें। आपसे
नहीं सुधर
पाएगा। आप मौत
से ज्यादा
मजबूत नहीं हो
सकते। और जो दुख
से नहीं सीख
पा रहा है, वह
आपसे क्या सीख
पाएगा? कुपुत्र
मत कहिए उसको।
आपको कोई जड़भरत
मिल गया है।
क्योंकि
जिसको दुख
नहीं सुधारते,
मौत नहीं
सुधारती, वे
तो बड़े पहुंचे
हुए महात्मा
हैं, वे तो
परम अवस्था
में हैं। उनको
आप सुधारने की
कोशिश ही मत
करिए।
और आप
सुधारने को इतने
उत्सुक क्यों
हैं?
अपने को ही
सुधार लेना
काफी है।
लेकिन दूसरे को
सुधारने में
बड़ा मजा आता
है। अपनी
फिक्र कर लें।
और बेटे की तो
उम्र अभी
ज्यादा होगी;
आपकी कम बची
होगी। उनको
छोड़ें, आप
अपनी फिक्र कर
लें। यह बेटे
को सुधार कर
आप अगर सुधार
कर भी छोड़ गए, तो भी इससे
आप नहीं सुधर
जाएंगे। अपने
को सुधार लें।
और यह
भी हो सकता है
कि आप बेटे को
सुधारना बंद कर
दें तो शायद
वह सुधर जाए; क्योंकि
बहुत से बाप
बेटों को
सुधारने के
कारण ही
सुधरने नहीं
देते।
क्योंकि आपकी
सुधारने की जिद्द
दूसरे को न
सुधरने के लिए
मजबूत करती
है। जिंदगी
जटिल है। जब
एक बाप कोशिश
में लगा रहता
है कि सुधार
कर रहूंगा, तो बेटा भी
कहता है कि
ठीक है, तो
अब देखें कौन
जीतता है: तुम
सुधारते हो कि
हम ऐसे हैं
वैसे ही बने
रहते हैं? अक्सर
तो बेटे बाप
से जिद्द
में पड़ जाते
हैं। और
अहंकारी बाप
अहंकारी बेटे
पैदा करता है।
यह भी अहंकार
है कि मैं
सुधार कर
रहूंगा। यह
अहंकार--आपका
ही बेटा है, खयाल रखना, आपके ही ढंग
का होगा। आप
कहते हैं, मैं
सुधार कर
रहूंगा। वह
कहता है कि
ठीक है, तो
देख लेंगे कौन
मुझे सुधारता
है! हो सकता है,
आपके
सुधारने की
वजह से इतने
दुख झेल रहा
हो और फिर भी न
सुधर रहा हो।
कृपा
करके उससे
कहें कि क्षमा
कर,
तू जान तेरा
काम जाने; अब
हम अपने को
सुधारने में
लगते हैं। तो
उसको शायद
बुद्धि आए कि
अब बात ही खतम
हो गई, अब
वह जिद्द
का कारण ही न
रहा।
ध्यान
रखें, दुनिया
में कोई किसी
को सुधार नहीं
सकता। सुधारना
इतना आसान
मामला नहीं
है। और जिन
लोगों ने
लोगों को सुधारा
है, वे वे
ही लोग थे, जिन्होंने
सुधारने की
कोशिश नहीं की
है। उनके पास
सुधरना हो
जाता है। अगर
आपका बेटा
आपके पास रह
कर नहीं
सुधरता, तो
आप समझना कि
बात समाप्त हो
गई, अब और
कुछ किया नहीं
जा सकता। आपके
पास रह कर कोई
सुधर जाए बस, तो समझना कि
ठीक है। अपने
को बदलें कि
आपके पास एक
हवा पैदा हो
जाए कि आपका
बेटा, या
आपकी बेटी, या आपके
मित्र, या
आपका परिवार
उस हवा को
छुए।
लेकिन
जो भी सुधारने
वाले लोग होते
हैं,
ये बोझिल हो
जाते हैं।
इनको कोई पसंद
नहीं करता। ये
दुष्ट होते हैं।
और घर भर
अनुभव करता है
कि यह दुष्ट
से कैसे
छुटकारा हो!
और आप ऐसी
बारीक, नाजुक
नसें पकड़ते
हैं लोगों की
कि वे आपको कह
भी नहीं सकते
कि आप गलत
हैं। और आप
बोझिल हो जाते
हैं। और आप
कठिन मालूम
होने लगते
हैं। आपको
सहना मुश्किल
होने लगता है।
आदमी
की हिंसा गहरी
है। और आदमी
अनेक तरह से
हिंसा करता
है। यह भी हिंसा
है! आप क्यों
सुधारने के
लिए इतने
दीवाने हैं? और
अगर नहीं
सुधरना है, तो आप कुछ भी
न कर पाएंगे।
इस दुनिया में
किसी को
जबरदस्ती ठीक
करने का कोई
उपाय नहीं है।
है ही नहीं
उपाय। हां, जबरदस्ती
ठीक करने की
कोशिश उसको और
जड़ कर सकती
है। कई बार तो
बहुत अच्छे बाप
भी बहुत बुरे
बेटों के कारण
हो जाते हैं।
महात्मा
गांधी के लड़के
ने गांधी के
सुधारने का
बदला लिया। अब
महात्मा
गांधी से
अच्छा बाप पाना
मुश्किल है, बहुत
कठिन है।
अच्छे बाप का
जो भी अर्थ हो
सकता है, वह
महात्मा
गांधी में
पूरा है।
लेकिन हरिदास
के लिए बुरे
बाप सिद्ध
हुए। क्या
कठिनाई हुई?
यह बड़ी
मनोवैज्ञानिक
घटना है। और
इस सदी के लिए
विचारणीय है।
और हर बाप के
लिए विचारणीय
है। क्योंकि गांधीजी
कहते थे, हिंदू-मुसलमान
सब मुझे एक
हैं। लेकिन
हरिदास अनुभव
करता था कि यह
बात झूठ है।
यह बात है; फर्क
तो है।
क्योंकि
गांधी गीता को
कहते हैं माता;
कुरान को
नहीं कहते। और
गांधी गीता और
कुरान को भी
एक बताते हैं,
तो गीता में
जो कहा है, अगर
वही कुरान में
कहा है, तब
तो ठीक; और
जो कुरान में
कहा है और
गीता में नहीं
कहा, उसको
बिलकुल छोड़
जाते हैं, उसकी
बात ही नहीं
करते। तो
कुरान में भी
गीता को ही
ढूंढ़ लेते हैं,
तभी कहते
हैं ठीक है; नहीं तो
नहीं कहते
हैं।
हरिदास
मुसलमान हो
गया;
हरिदास
गांधी से वह
हो गया
अब्दुल्ला
गांधी। गांधी
को बड़ा सदमा
पहुंचा। और
उन्होंने कहा
अपने मित्रों
को कि मुझे
बहुत दुख हुआ।
जब हरिदास को
पता लगा तो
उसने कहा, इसमें
दुख की क्या
बात है? हिंदू-मुसलमान
सब एक हैं!
यह आप
देखते हैं? यह
बाप ने ही
धक्का दे दिया
अनजाने। और
हरिदास ने कहा,
जब दोनों एक
हैं, तो
फिर क्या दुख
की बात है? हिंदू
हुए कि
मुसलमान, अल्ला-ईश्वर
तेरे नाम, सब
बराबर, तो
हरिदास गांधी
कि अब्दुल्ला
गांधी, इसमें
पीड़ा क्या है?
मगर
पीड़ा गांधी को
हुई।
गांधी
स्वतंत्रता
की बात करते
हैं,
लेकिन अपने
बेटों पर बहुत
सख्त थे, और
सब तरह की
परतंत्रता
बना रखी थी।
तो जो-जो चीजें
गांधी ने रोकी
थीं, वह-वह
हरिदास ने
कीं। मांस
खाया, शराब
पी, वह-वह
किया।
क्योंकि अगर
स्वतंत्रता
है तो फिर
इसका मतलब
क्या होता है
स्वतंत्रता
का? यह मत
करो, यह मत
करो, यह मत
करो--और
स्वतंत्रता
है?
तो यह
तो बात वैसी
ही हो गई, जैसे
हेनरी फोर्ड
कहा करता था।
हेनरी फोर्ड के
पास पहले काले
रंग की ही गाड़ियां
थीं, कारें
थीं। और कोई
नहीं थीं। पर
वह अपने
ग्राहकों से
कहता था, यू
कैन चूज
एनी कलर, प्रोवाइडेड इट इज़
ब्लैक। कोई भी
रंग चुनो, काला
होना चाहिए
बस।
क्या
मतलब हुआ? स्वतंत्रता
है पूरी और सब
तरह की
परतंत्रता नियम
की बांध
दी--इतने बजे
उठो, और
इतने बजे सोओ,
और इतने
वक्त प्रार्थना
करो, और
इतने वक्त...।
और यह खाओ और
यह मत पीयो।
सब तरफ से जाल
कस दिया, और
स्वतंत्रता
है पूरी! तो
हरिदास ने, जो-जो गांधी
ने रोका था, वह-वह किया।
अगर
कहीं कोई
अदालत है, तो
उसमें हरिदास
अकेला नहीं
फंसेगा। कैसे
अकेला फंसेगा?
क्योंकि
उसमें
जिम्मेवार
गांधी भी हैं,
बाप भी है।
ध्यान
रखना, अगर
बेटा आपका
फंसा, तो
आप बच न
सकोगे। इतना
ही कर लो कि
बेटा ही अकेला
फंसे, तुम
बच जाओ, तो
भी बहुत है।
हटा लो हाथ
अपने दूर और
बेटे को कह दो,
जो तुझे लगे,
जो तुझे ठीक
लगे! अगर तुझे
दुख भोगना ही
ठीक लगता है, तो ठीक है, दुख भोग! अगर
तुझे पीड़ा ही
उठाना तेरा
चुनाव है, तो
तुझे
स्वतंत्रता
है, तू
पीड़ा ही उठा!
हमें पीड़ा
होगी तुझे
पीड़ा में देख
कर, लेकिन
वह हमारी
तकलीफ है।
उससे तुझे
क्या लेना-देना
है! वह हमारा
मोह है, उसका
फल हम भोगेंगे;
उससे तेरा
कोई संबंध
नहीं है।
अगर
मुझे दुख होता
है कि मेरा
बेटा शराब
पीता है, तो यह
मेरा मोह है
कि मैं उसे
मेरा बेटा
मानता हूं, इसलिए दुख
पाता हूं।
इसमें उसका
क्या कसूर है?
मेरा बेटा
जेल चला जाता
है तो मुझे
दुख होता है; क्योंकि
मेरे बेटे के
जेल जाने से
मेरे अहंकार
को चोट लगती
है। लेकिन यह
मेरा कसूर है,
इसमें उसका
क्या कसूर है?
उससे कह दें
कि हम दुखी
होंगे, हो
लेंगे। वह
हमारी भूल है,
वह हमारा
मोह है; लेकिन
तू स्वतंत्र
है।
और आप
अपने को बदलने
में लगें। जिस
दिन आप बदलेंगे, उस
दिन आपका बेटा
ही नहीं, दूसरों
के बेटे भी
आपके पास आकर
बदल सकते हैं।
बहुत
से प्रश्न और
हैं। फिर
दोबारा जब
बैठक होगी, तब
उन्हें ले
लेंगे। अब
कीर्तन करें।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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