सोलहवां
प्रवचन,
26 जनवरी
1978;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्न
सार :
1--क्या भक्ति
और ज्ञान का भेद
सतही है? क्या
गहरे में दोनों
एक हैं?
2--क्या धर्म
विद्रोह है?
3--क्या संन्यास
भक्ति की शुरुआत
है?
4--मैं तो प्रेम
से बहुत पीड़ित
हो चुका हूं; और आप कहते हैं—
प्रेम का
ऊर्ध्वगमन ही भक्ति
है। अब उस कीचड़
में और नहीं पड़ना
चाहता।
5--भक्त, भक्ति और भगवान,
इन तीनों शब्दों
को समझाएं।
6--आपके पास
आना और बैठना अच्छा
लगता है। प्रवचन
सुनने के बाद लगता
है कि कोई
गहरा नशा
किया हो; ध्यान
वगैरह करने की
भी इच्छा नहीं
होती। पर संन्यास
लेने की इच्छा
होने
लगी है। क्या इस
योग्य हूं?
पहला
प्रश्न :
शांडिल्य—सूत्र
पर हुए पिछले तीन
प्रवचनों में भक्ति—गंगा
ज्ञान—गंगा बनकर
बहती
नजर आई। क्या भक्ति
और ज्ञान का भेद
सतही है? क्या
गहरे में दोनों
एक ही हैं?
भेद मात्र
सतही होता है।
भेद मात्र ऊपर—ऊपर
है। भीतर अभेद
है। भीतर अर्थात
अभेद।
बाहर
अर्थात भेद। जितने
केंद्र की तरफ
जाएंगे, उतनी ही
दूरियां कम होती
चली जाती हैं।
केंद्र पर
सारी
कूइरयां समाप्त
हो जाती है।
यात्रा
के प्रस्थान के
क्षण में बड़े भेद
है। भक्त एक ढंग
से जाता है, ज्ञानी
दूसरे ढंग से जाता
है। प्रस्थान के
क्षण में दोनों
विपरीत भी मालूम
होंगे —भेद ही नहीं,
विरोधी भी—एक—दूसरे
की तरफ पीठ करके
जाते हुए, एक—दूसरे
का निषेध करते
हुए, लेकिन
जैसे—जैसे सत्य
के करीब पहुंचेंगे,
भक्त जैसे —जैसे
भक्ति में लीन
होगा, और तानी
जैसे—जैसे ज्ञान
में लीन होगा,
जैसे—जैसे लीनता
बढ़ेगी, वैसे—वैसे
यह भी दिखाई पड़ना
शुरू होगा कि हमारी
दिशाएं अलग थीं,
हमारे मार्ग
भिन्न थे, हमारे
मार्ग अलग—अलग
स्थानों से गुजरते
थे, लेकिन हम
जिस शिखर की तरफ
पहुंच रहे हैं,
वह एक है। शिखर
पर पहुंचकर सारी
दिशाएं एक हो जाती
है और सब आयाम एक
हो जाते हैं।
तो जैसे—जैसे
शांडिल्य गहरे
उतर रहे हैं, वैसे—वैसे
भक्ति ज्ञान बनती
मालूम पड़ेगी। ऐसा
होना ही चाहिए,
यही लक्षण है
गहराई का। और जब
तुम भेद ही न कर
पाओ, जब भक्त
की भाषा और तानी
की भाषा में ही
भेद रह जाए, इंगित एक की ही
तरफ होने लगे,
प्रेम और ज्ञान
जब एक ही तरफ इशारा
करें, तभी जानना
कि घर आया, कि
मंजिल पर पहुंचे।
जब तक जरा सा भी
भेद रहे, जरा
सा भी मन में दुराव
रहे, दुई रहे,
तब तक समझना
अभी मंजिल आई नहीं;
अभी और चलना
है, अभी और यात्रा
करनी है;रुक
मत जाना। जब तक
ज्ञान में, भक्ति में, कर्म में जरा
सा भी इंचभर का
भी भेद रहे, तब तक रुक मत जाना।
यही कसौटी है।
शिखर पर
पहुंचना है। और
शिखर का लक्षण
क्या होगा, कैसे
जानोगे कि शिखर
पर पहुंच गए? पहले तो कभी गए
नहीं हो शिखर पर,
पहुंचोगे तो
पहली बार पहुंचोगे,
पहचान क्या होगी?
पहचान यही होगी
कि वहा सारे शास्त्र
गले मिलते मालूम
होंगे। पहचान यही
होगी कि वहा महावीर
और मीरा मे जरा
भेद न रह जाएगा।
पहचान यही होगी
कि वहा ज्ञान,
भक्ति और कर्म
एक ही सत्य के तीन
चेहरे होंगे—त्रिमूर्ति
का वहां दर्शन
होगा, लेकिन
तीनो के पीछे एक
ही प्राण, एक
ही अनुभूति।
दूसरा
प्रश्न : क्या धर्म
विद्रोह है?
धर्म विद्रोह
है,
संप्रदाय विद्रोह
नहीं। संप्रदाय
स्थिति—स्थापकता
है। संप्रदाय का
अर्थ है, मर
गया धर्म। विद्रोह
मर गया, व्यवस्था
बन गई। क्रांति
की सांसें टूट
गइ, लाश पड़ी
रह गई। महावीर
के पैरों में जो
चला, वह धर्म;जैनियों के सिर
पर जो लदा है, वह संप्रदाय।
बुद्ध ने जो कहा,
वह धर्म;बौद्ध
जिसे ढो रहे हैं,
वह संप्रदाय।
कृष्ण ने जो गाया,
वह धर्म;हिंदू
जिसके संबंध में
विवाद कर रहे हैं,
वह संप्रदाय।
हिंदू? जैन,
बौद्ध, ईसाई,
मुसलमान, यहूदी, ये
धर्म की लाशें
हैं। इनका धर्म
से कुछ लेना—देना
नहीं। इनका धर्म
से कुछ लेना—देना
नहीं है वैसे ही
जैसे लाश का जीवित
व्यक्ति से कुछ
लेना—देना नहीं
है। कितना तुमने
चाहा था अपनी पत्नी
को, अपने बेटे
को, सब निछावर
करने को राजी थे,
और आज बेटे की
सांस उड़ गई, पंछी उड़ गया,
चले तुम लेकर
उसे मरघट, चले
तुम जलाने उसे।
जिसके पैर में
काटा गड़ जाता तो
तुम रातभर न सो
पाते, जिसे
जरा सी तकलीफ होती
तो तुम सब कुछ दाव
पर लगा देते, आज उसे लेकर चले
तुम मरघट। तुम्हीं
लेकर चले मरघट,
जमीन मे गड़ाने
कि आग पर सुलाने।
थोड़ा सोचो तो,
क्या हो गया?
जीवित जो
था,
वह और था। अब
तो मिट्टी पड़ी
रह गई, मिट्टी
को जो चिन्मय करता
था, मृण्मय
में जो चिन्मय
था, वह तो जा
चुका। तुमने जिसे
चाहा था, वह
अब नहीं है।
कभी—कभी
ऐसा भी हो सकता
है—अक्सर ऐसा हो
जाता है कि कोई
बंदरिया, उसका
बेटा मर जाता है
फिर भी उसकी छाती
से लगाए घूमती
रहती है, इसी
आशा में कि शायद
फिर सांस लौट आएगी।
ऐसी ही संप्रदाय
की दशा है। यह सच
है कि जब कोई जाग्रत
व्यक्ति जीता है
परमात्मा को,
तो परम का अवतरण
होता है, उसकी
छाया में प्रभु
की आभा होती है,
उसके शब्दों
में शून्य का संगीत
होता है, उसकी
आखो मे उसके हृदय
की तरंगे होती
हैं, उसके स्पर्श
मे जो नहीं दिखाई
पड़ता और जिसे नहीं
छुआ जाता वह दिखाई
पड़ता है और वह छुआ
जाता है। तुम आनंदमग्न
हो जाते हो। तुम
उसके साथ किसी
भी बगावत मे जाने
को राजी हो जाते
हो, तुम उसके
साथ किसी भी क्रांति—पथ
पर जाने को राजी
हो जाते हो; तुम उसके साथ
नर्क में रहना
पसंद करोगे बजाय
अकेले स्वर्ग में
रहने के।
बुद्ध के
साथ नर्क मिले
तो भी सौभाग्य
होगा। उसके प्रभाव
में,
उसकी प्रभा में
तुम सब दाव पर लगा
देते हो, तुम
जुआरी हो जाते
हो, तुम हिसाब—किताब
नहीं करते। उसका
संस्पर्श ऐसा होता
है कि तुम्हारे
दर्पण की सारी
धूल झड़ जाती है।
और तुम्हारे दर्पण
मे वही दिखाई पड़ने
लगता है, जो
है। तब तुम संस्कार
तोड़ देते हो, समाज तोड़ देते
हो, संस्कृति
तोड़ देते हो, सभ्यता तोड़ देते
हो। सोचो थोड़ा,
महावीर के साथ
जो नग्न होकर खड़े
हो गए थे, उन्होंने
क्या नहीं दाव
पर लगा दिया होगा?
क्या बचाया था?
परिवार दाव पर
लगा दिया, सभ्यता
दाव पर लगा दी,
संस्कृति दाव
पर लगा दी, सब
दाव पर लगा दिया।
जो बुद्ध के साथ
जाने को राजी हुए
थे, उन्होंने
वेद दाव पर लगा
दिए, उपनिषद
दाव पर लगा दिए,
गीता दाव पर
लगा दी, सब दाव
पर लगा दिया।
जब गीता
जिसने कही थी वह
खुद मौजूद हो, तो
फिर गीता की कौन
फिकर करता है?
जिन ओठों से
वेद जन्मे थे,
वे ओठ फिर जीवित
हों, तुम से
बोलते हों, फिर वेद को तुम
हटा न दोगे तो और
क्या करोगे। लेकिन
बुद्ध के जाने
के बाद, उस पक्षी
के उड़ जाने के बाद
तुम्हारे हाथ में
शब्द मात्र की
संपदा रह जाती
है। फिर तुम उन्हीं
शब्दों में वेद
खोजते हो, उपनिषद
खोजते हो; फिर
वेद निर्मित होता
है, फिर उपनिषद
निर्मित होता है।
विद्रोह समाप्त
हो गया, अब तुम
कुछ दाव पर नहीं
लगाते, अब तुम
सिर्फ पूजा करते
हो। अब धर्म औपचारिकता
होता है। अब तुम
मंदिर चले जाते
हो, सिर झुका
आते हो पत्थर की
मूर्ति को, तुम नहीं झुकते,
सिर्फ सिर झुकता
है—कोरा, खाली—तुम्हारा
हृदय नहीं झुकता,
तुम सिर्फ औपचारिक
सन्मान। एक गूंज
है जो अतीत से सुनाई
पड़ती है। उस गूंज
के कारण तुम अब
भी सन्मान देते
जाते हो। मगर तुम्हारे
सन्मान में तुम
नहीं होते।
आज तुम कुछ
भी दाव पर नहीं
लगाते। उलटा आज
तुम बुद्ध या महावीर
या कृष्ण या क्राइस्ट
के साथ खड़े होकर
कुछ कमाने की सोचते
हो;प्रतिष्ठा मिलती
है, सम्मान
मिलता है। मंदिर
जाने वाले को प्रतिष्ठा
मिलती है, सम्मान
मिलता है;लोग
सोचते हैं धार्मिक
है। और जिसे भी
लोग सोचते हैं
धार्मिक है, वह आदमी ज्यादा
कुशलता से बेईमानी
कर सकता है। उसकी
धार्मिकता की आडू
मे बेईमानी छिप
जाती है। इसलिए
सभी बेईमान अपने
को धार्मिक सिद्ध
करने की चेष्टा
मे संलग्न होते
हैं। यश कराएंगे,
हवन कराएंगे,
पाठ करवाएंगे,
सत्यनारायण
की कथा कहलवाके।
ये विज्ञापन हैं।
ये खबरें हैं कि
लोगों को पता हो
जाए कि मैं धार्मिक
हूं;तुम्हें
मुझ से कोई भय नहीं
है, और अगर मैं
तुम्हारी जेब में
हाथ डालूं तो तुम्हारे
ही हित के लिए डाल
रहा हूं; तुम्हारे
ही लाभ के लिए,
अगर तुम्हारी
गर्दन काटू; अगर तुम्हारा
शोषण भी हो तो ना—नुच
मत करना, मैं
धार्मिक आदमी हूं।
लोग मंदिर बनवाते
हैं, धर्मशाला
खड़ी करवाते हैं,
यह प्रचार है।
यह विज्ञापन की
कला का हिस्सा
है। एक बार लोग
मान लें कि तुम
धार्मिक हो, तो तुम्हारे
शोषण की क्षमता
हजार गुनी हो जाती
है। अब विद्रोह
नहीं, अब तो
विद्रोह से उलटी
बात हो गई, व्यवसाय
हो गया।
लेकिन धर्म
अपने मूल स्वर
मे विद्रोही है।
और विद्रोह और
क्रांति का भी
भेद समझ लेना।
धर्म क्रांति नहीं, विद्रोह
है। विद्रोह क्रांति
से भी ऊंची और गहरी
दशा है। क्रांति
सामूहिक होती है,
विद्रोह वैव्यक्तिक
होता है। और जब
भी तुम समूह में
क्रांति करोगे
तो जिस समूह में
क्रांति करोगे,
उस समूह के साथ
समझौता करना होगा,
उतना ही विद्रोह
कम हो जाएगा। उतनी
ही आग कम हो जाएगी,
उतनी ही राख
जम जाएगी।
समझो।
एक कम्युनिस्ट
है,
कम्युनिस्ट
क्रांतिकारी है।
लेकिन क्रांतिकारी
कम्युनिस्ट को
भी क्रांति के
लिए कम्युनिस्ट
पार्टी निर्मित
करनी होती है।
फिर जो लोग उस पार्टी
मे सम्मिलित होते
हैं, स्वभावत:
उनको अपनी व्यक्तिगत
चितना खोनी पड़ती
है। उन्हें अपना
व्यक्तित्व खोना
पड़ता है—नहीं तो
पार्टी कैसे बने,
दल कैसे बने?
व्यक्तित्व
खोकर दल बन जाता
है। फिर जो पार्टी
कहे, वही उन्हें
कहना होता है।
फिर वे जरा इंचभर
यहा वहा नहीं जा
सकते। यह बहुत
विद्रोह न हुआ।
यह तो शुरू से ही
विद्रोह के प्राण
संकट में पड़ गए।
विद्रोही
वैव्यक्तिक
होता है। महावीर
ने कोई दल खड़ा नहीं
कर लिया, विद्रोह
किया—निजता ही
विद्रोह थी। फिर
जो लोग उनके पीछे
चले, वे भी कोई
दल नहीं खड़ा कर
लिए। इस बात को
भी खयाल मे रखना।
बहुत लोग उनके
पीछे चले, लेकिन
जो भी उनके पीछे
चला वह व्यक्तिगत
रूप से विद्रोह
करके पीछे चला।
महावीर से उनके
शिष्यो का संबंध
निजी है। प्रत्येक
शिष्य का निजी है।
वही मैं
तुम से भी कहता
हूं,
प्रत्येक संन्यासी
से मेरा संबंध
निजी है। निजी
इस अर्थ में कि
तुमने संन्यास
मुझ से लिया है,
तुम मेरे द्वारा
दीक्षित हुए हो,
तुमने मेरा हाथ
पकड़ा है, मेरे
तुम्हारे बीच कोई
और नहीं है। किसी
और ने भी मेरा हाथ
पकड़ा है। स्वभावत:
जिस दो व्यक्तियों
ने मेरे हाथ पकड़े
हैं, उनके आपस
में कुछ तालमेल
होंगे। एक सा सुर
होगा। लेकिन एक
सा सुर होना चाहिए,
इसकी कोई चेष्टा
नहीं है। दोनों
ने चूंकि मुझ से
संबंध जोड़ा है,
इसलिए दोनों
में कुछ बातें
तो मेल खाएंगी।
लेकिन मेल खाना
ही चाहिए, इसका
कोई आग्रह नहीं
है। अगर इसका आग्रह
हो, तो विद्रोह
मरना शुरू हो गया।
प्रत्येक संन्यासी
की निजता की सुरक्षा
की जानी चाहिए।
उसे किसी कीमत
पर भी अपने अंतर्विद्रोह
की ज्वाला को क्षीण
नहीं करना है।
क्रांति
सामूहिक होती है, विद्रोह
वैव्यक्तिक
होता है। क्रांति
भविष्य—उन्मुख
होती है, विद्रोह
वर्तमान में होता
है। क्रांति कहती
है—कल जब हम संगठित
होंगे, और जब
हम बदल देंगे समाज
को, तब स्वर्णयुग
आएगा। तब हम बसाएंगे
एक नई दुनिया।
क्रांति कल की
तरफ देखती है।
खयाल रखना, समाज बीते कल
की तरफ देखता है,
क्रांतिकारी
आने वाले कल की
तरफ देखता है,
विद्रोही आज
में जीता है—न पीछे
जो कल गया उसकी
चिंता है, न
आने वाले कल की
कोई चिंता है।
आने वाला कल अपने
आप आ जाएगा। आज
मैं जी लूं और मेरा
विद्रोह प्रखर
हो, मेरे विद्रोह
में कोई समझौता
न हो, मैं किसी
कीमत पर अपने को
बेचूं नहीं; मैं जैसा हूं; जैसा चाहता हूं
वैसा ही आज जी लूं?
मेरे आज से ही
कल भी निकलेगा,
वह अपने आप आ
जाएगा। उसकी कोई
चितना लेने की
जरूरत नहीं। कल
के आधार पर मैं
आज को निर्मित
न करूं। बल्कि
आज से कल को निकलने
दूं तो विद्रोह
है। कल के आधार
पर आज को निर्मित
करूं तो क्रांति।
फिर कल के
आधार पर जब तुम
आज को निर्मित
करोगे, स्वभावत:
तुम्हारे ऊपर जाल
फैलना शुरू हो
गया। तुमने ही
फैलाना शुरू कर
दिया, तुमने
जंजीरें डाल लीं,
तुम्हारे स्वातंव्य
में समझौता हो
गया, तुम्हारी
स्वतंत्रता पूरी
न रही।
ठीक वर्तमान
में जीना धर्म
है। और धर्म बड़ी
से बड़ी क्रांति
है। क्योंकि धर्म
के मूल—सूत्र क्या
है?
जागो। यहा सोए
हुए लोगों की दुनिया
है, सोए हुए
लोगों ने उनकी
नींद सुव्यवस्था
से चले ऐसे नियम
बना रखे हैं, जो आदमी भी जागेगा,
सोए हुए लोग
उस से नाराज होंगे,
वे उसे सूली
देंगे;क्योंकि
जागा आदमी उनकी
नींद में खलल डालने
लगेगा। तुमने देखा
नहीं, तुम अगर
रोज सुबह आठ बजे
तक सोते हो और तुम्हारे
घर में कोई व्यक्ति
तीन बजे से उठ आता
हो, तो उसकी
मौजूदगी से खलल
पड़ने लगता है।
अगर वह प्रार्थना
करे, पूजा करे,
व्यायाम करे,
आसन करे, योग करे, उसकी
मौजूदगी से, उस के जागने से—एक
दीया जलाए, स्नान करे बाकी
लोगों की नींद
में बाधा पड़ने
लगी;बाकी लोगो
को कठिनाई होने
लगी।
यह छोटी
सी जीवन की दुनिया
में। लेकिन विराट
में जब कोई जागता
है,
तो उसकी मौजूदगी
दूर—दूर तक खलल
पहुंचा देती है।
न मालूम कितने
लोगों की नींद
टूटने लगती है,
न मालूम कितने
लोगों के सपने
थर्राने लगते है—नहीं
तो तुम जीसस को
सूली क्यों देते,
सुकरात को जहर
क्यों पिलाते?
तुम्हें पिलाना
पड़ा। तुम्हें अपनी
नींद की रक्षा
करनी थी। ये लोग
इतने जोर से चिल्लाने
लगे, ये इतना
शोरगुल मचाने लगे,
ये तुम्हें आकर
हिलाने लगे, ये तुम्हें उखाड़ने
लगे तुम्हारी नींद
से, ये चिल्लाने
लगे कि तुम जो देख
रहे हो वह सपना
है, जागो, आंख खोलो! और तुम
मधुर सपने देख
रहे थे, सोने
के महल बना रहे
थे, तुम बड़ी
कामनाओं में लिप्त
थे, तुम बड़े
मीठे सपनों में
जा रहे थे और कोई
आकर चिल्लाने लगा
और कोई आकर जगाने
लगा, यह घड़ी
न थी कि तुम उसकी
बात सुनते, तुम नाराज हुए,
तुमने बदला लिया।
पहली बात, धर्म
कहता है —जागो।
जागरण धर्म का
मूल सूत्र है।
सोए हुए लोगो की
भीड़ और जागा हुआ
आदमी, दोनों
के बीच सब तालमेल
टूट जाते हैं।
सोया हुआ आदमी
एक तरह से सोचता
है, उसके मूल्य
अलग, उसकी तर्क—व्यवस्था
अलग, उसकी विचार—सरणी
अलग, उसके लक्ष्य
अलग, उसका सारा
जीवन—ढांचा अलग,
उसकी शैली अलग।
और यह जागा हुआ
आदमी किसी और ही
दुनिया की खबर
लाता है। उस दुनिया
में धन का मूल्य
नहीं है। सोए हुए
आदमी की दुनिया
में धन का ही मूल्य
है। जागा हुआ आदमी
कुछ ऐसी खबर लाता
है जंहा काम का
कोई मूल्य नहीं
है। सोए हुए आदमी
की दुनिया में
कामवासना के अतिरिक्त
और कुछ भी नहीं
है। यह जागा हुआ
आदमी एक ऐसी खबर
लाता है जंहा अहंकार
होता ही नहीं,
और सोए हुए आदमी
की दुनिया में
अहंकार ही केंद्र
है, जिस पर उसका
चाक चलता है। इन
दोनों मे मुठभेड़
हो जाती है। धर्म
बगावत है। धर्म
बड़ी से बड़ी बगावत
है।
आमूल बगावत
है।
मैं कोई
मुल्क नहीं हूं
कि जला दोगे मुझे
कोई दीवार
नहीं हूं कि गिरा
दोगे मुझे
कोई सरहद
भी नहीं हूं कि
मिटा दोगे मुझे
यह जो दुनिया
का पुराना नक्शा
मेज पर तुमने
बिछा रक्खा है
इसमें कावाक
लकीरों के सिवा
कुछ भी नहीं
तुम मुझे
इसमें कहा ढूंढते
हो
मैं इक अरमान
हूं दीवानों का
सख्त—जां
ख्वाब हूं कुचले
हुए इंसानों का
लूट जब हद
से सिवा होती है
जुल्म जब
हद से गुजर जाता
है
मैं अचानक
किसी कोने में
नजर आता हूं
किसी सीने
से उभर आता हूं
आज से पहले भी तुमने
मुझे देखा होगा
कभी मशरिक
में कभी मगरिब
में
कभी शहरों
में कभी गौवों
में
कभी बस्ती
में कभी जंगल में
मेरी तारीख
ही तारीख है, जुगराफिया
कोई भी नहीं
और तारीख
भी ऐसी जो पढ़ाई
तो जा नहीं सकती
लोग छुप—छुप
के पढ़ा करते हैं
कि मैं गालिब
कभी मगलूब हुआ
कातिलों
को कभी सूली पे
चढ़ाया मैंने
और कभी आप
ही मसलूब हुआ
फर्क इतना
है कि कातिल मेरे
मर जाते हैं
मैं न मरता
हूं न मर सकता हूं
धर्म ऐसा
शाश्वत विद्रोह
है,
जो न मरता है,
न मर सकता है।
लौट—लौट आता है।
एक बुद्ध बिदा
होता है कि तुम
जल्दी ही फिर अपनी
नींद में खोने
लगते हो। तुम जल्दी
से अपनी चादर ओढ़
लेते हो, अपने
तकिए सम्हाल लेते
हो, तुम फिर
निश्चित होकर सपना
देखने लगते हो।
लेकिन किसी न किसी
कोने से बगावत
फिर उभर आती है।
किसी न किसी कोने
से परमात्मा फिर
आवाज देता है।
परमात्मा तुम से
हारता नहीं। और
परमात्मा तुम से
ऊबता भी नहीं।
और परमात्मा तुम्हारे
प्रति उपेक्षा
से भी नहीं भरता
है। तुम लाख भटको,
तुम्हारी हर
भटकन उसके लिए
एक चुनौती है।
वह फिर लौट आता
है।
कृष्ण ने
कहा न गीता में, मैं
फिर—फिर आऊंगा—संभवामि
युगे—युगे। जब—जब
अंधेरा होगा,
और जब—जब लोगों
का मन धर्म के प्रति
ग्लानि से भर जाएगा,
और जब—जब शुभ
पर अशुभ की प्रतिष्ठा
होगी, और जब—जब
सज्जन को असज्जन
सताएगा, मैं
आऊंगा। यह कृष्ण
का ही वचन नहीं
है, कृष्ण धर्म
की तरफ से बोल रहे
हैं। कोई कृष्ण
आ जाएंगे, ऐसा
नहीं है, लेकिन
किसी कोने से धर्म
उभर आएगा, बगावत
उठेगी, कोई
न कोई सोयों में
से जाग जाएगा,
कहीं से किरण
फूटेगी।
धर्म न तो
मरता है, न मारा
जा सकता है; लेकिन जिन्हें
भी धर्म को पाना
हो, उन्हें
यह स्मरण रखना
चाहिए कि धर्म
जब भी आता है तो
विद्रोह की तरह
आता है। विद्रोह
के ही रूप में आता
है। वही उसकी देह
है। और अगर तुम
विद्रोह को न पहचान
सको तो तुम धर्म
से चूकते चले जाओगे।
तुम गीताओ में
सिर मारो और कुरानों
की पूजा करो और
बाइबिलों में आखें
गड़ाए—गड़ाए अंधे
हो जाओ, धर्म
तुम्हें नहीं मिलेगा।
धर्म जब आता है
तब बगावत की तरह
आता है। गीता,
कुरान और बाइबिल
कभी बगावत थे,
मगर वह बात गई।
अब तुम लाश ढोते
हो। अब तुम्हें
फिर कहीं खोजना
होगा कोई जो जागा
हुआ हो। तुम्हें
फिर किसी क्राइस्ट
का हाथ पकड़ना होगा।
और कठिनाई यही
है कि बाइबिल प्यारी
लगती है और क्राइस्ट
बहुत कष्टकर मालूम
होते है।
बाइबिल
प्यारी लगती है
क्योंकि बाइबिल
तुम्हें बदल ही
नहीं सकती। तुम
बाइबिल का तकिया
बना लेते हो और
मजे से सो जाते
हो। सर्दी ज्यादा
हो तो बाइबिल का
कंबल बना लेते
हो और ओढ़ लेते हो, मजे
से सो जाते हो।
क्राइस्ट का न
तो तुम तकिया बना
सकोगे और न कंबल
बना सकोगे। अगर
नींद न आती हो तो
तुम बाइबिल की
गोलियां बना लेते
हो—शामक दवाएं,
टैरक्युलाइजर्स—और
उनको पीकर सो जाते
हो, और गहरी
नींद मे खो जाते
हो। तुम जीसस का
टैरक्युलाइजर
न बना सकोगे। तुम
जीसस से नींद का
कोई उपाय न खोज
सकोगे।
इसलिए लोग
जीवित सदगुरु से
भागते हैं। और
जब सदगुरु मर जाता
है तब उसकी पूजा
करते हैं। अजीब
रिवाज है। अजीब
रिवाज है तुम्हारा!
अजीब ढंग है! अजीब
ढर्रा है तुम्हारा!
क्राइस्ट मौजूद
हों तो सूली लगाओ, और
जब मर जाएं तो सारी
दुनिया ईसाई हो
जाती है। मोहम्मद
जब हों तो तुम उन्हें
एक गांव में शांति
से नहीं बैठने
देते—मोहम्मद की
जिंदगीभर एक गांव
से दूसरे गाव में
भागने मे बीती।
और जब मोहम्मद
मर जाते हैं, तो तुम लाखों
मस्जिदें बनाते
हो। करोड़ों लोग
मोहम्मद के चरणों
में सर झुकाते
है। करोड़ों लोगो
के लिए मोहम्मद
हृदय की गहरी से
गहरी धुन हो जाते
हैं। मगर यह बड़ा
मजा है। इस मजे
को देखो, पहचानो।
और यह मत
सोचना यह किसी
और ने किया है, यह
तुमने किया है।
और यह तुम अभी भी
कर रहे हो। और जब
तक तुम यह करते
रहोगे, तब तक
तुम धर्म से अपरिचित
रहोगे। जिसको तुम
धर्म समझते हो,
वह धर्म नहीं
है। वह तो धर्म
के ऊपर जम गई राख
है। अंगारा तो
दब गया बहुत। राख
सुविधापूर्ण है,
तुम्हें जलाती
नहीं;छुओगे
तो फफोले भी नहीं
उठते। ऐसा ही थोड़े
ही है कि तुम राख
को विभूति मानने
लगे हो, राख
ही तुम्हारी विभूति
हो गई है, राख
के ही तुम टीके
लगा रहे हो, राख ही तुम्हारी
आत्मा पर भी पड़
गई है। राख से बचो,
अंगारा तलाशो।
विभूति अगर कहीं
है, तो अंगारे
में होगी। राख
में क्या होगी?
यह सांयोगिक
नहीं हो सकता है
कि तथाकथित धार्मिक
आदमी राख को विभूति
कहता है। यह बड़ा
प्रतीकात्मक है।
वह यह कहता है—राख
पर मैं अपनी मुट्ठी
बाध लेता हूं, राख
को मैं अपने ताबीज
में बंद कर लेता
हूं;राख मेरी
है, जो चाहूं;जैसा चाहूं;वैसा इसके साथ
व्यवहार करता हूं।
अंगारे के साथ
तुम जो चाहो, जैसा चाहो, वैसा व्यवहार
न कर सकोगे। और
अंगारे को अपने
भीतर लेना अपने
जीवन में ज्वाला
जगाने की चेष्टा
है। जो जलना चाहते
हैं, जो मिटना
चाहते हैं, धर्म उनके लिए
है। धर्म बड़ी बगावत
है। और बड़े कष्ट
हैं।
इस जगत में
कोई भी सुख बिना
मूल्य चुकाए नहीं
मिलता। और तुम
परमात्मा को बिना
मूल्य चुकाए पाना
चाहते हो। तुम
चाहते हो ऐसे ही
मिल जाए, औपचारिकताओं
से मिल जाए—कि कभी
मंदिर हो आएंगे,
कि कभी माला
फेर लेंगे, कि कभी गीता पढ़
लेंगे, ऐसे
ही जिंदगी के काम—
धाम में कहीं थोड़ा—बहुत
समय निकाल लेंगे,
राम —राम जप लेंगे,
जपने का मौका
नहीं होगा तो राम—राम
छपी चदरिया ओढ़
लेंगे, खुद
को सुविधा नहीं
होगी तो एक नौकर
रख लेंगे —उसी को
तुम पंडित—पुजारी
कहते हो—उससे कहेंगे,
तू हमारे नाम
से प्रार्थना कर
दिया कर हमें तो
फुर्सत नहीं है,
तो एक मध्यस्थ
चुन लोगे। वह तुम्हारे
लिए यश कर देगा,
हवन कर देगा,
रोज आकर मंदिर
में घंटी बजा जाएगा—तुम्हारे
घर के मंदिर में
भी तुम्हें जाने
की फुर्सत नहीं
है। लेकिन तुम
सम्हाल रहे हो
दोनों दुनिया।
तुम कहते हो—एक
नौकर तो रख दिया
है, वह सम्हाल
लेता है; वह
पूजा कर देता है,
प्रार्थना कर
देता है। इतने
सस्ते से तुम अगर
धार्मिक होना चाहो
तो नहीं हो पाओगे।
कुछ दाव पर भी लगाओ।
और सब से
बड़ी बात क्या है
जो दाव पर लगानी
पड़ती है? सब से बड़ी
बात यही है—अहंकार
दाव पर लगाना होता
है। इस सब से तो
तुम्हारे अहंकार
को सजावट मिलती
है। लेकिन जब तुम
किसी सदगुरु के
पास जाओगे तो तुम्हारे
अहंकार को सजावट
मिलनी बंद हो जाएगी।
लोग तुम्हें पागल
कहेंगे। लोग तुम्हें
दीवाना कहेंगे
—उन्होंने सदा
कहा है। जो राख
के पूजने वाले
हैं, अंगारा
जब तुम लेकर चलोगे,
तुम्हें पागल
न कहेंगे तो क्या
कहेंगे? वे
कहेगे—होश—हवाश
सम्हालो। बहुत
जल चुके हैं इस
में पहले, तुम
मत जलो। हम से कुछ
सीखो। हम भी धार्मिक
हैं, लेकिन
हम मंदिर जाते
हैं और एक मरी हुई
प्रतिमा की प्रतिष्ठा
रखते हैं, पूजा
करते हैं।
यह दुस्साहस
है कि तुम वस्तुत:
धार्मिक होना चाहो।
और जब तुम वस्तुत:
धार्मिक होना चाहोगे
तो अड़चनें आनी
शुरू होंगी, क्योंकि
तुम्हारा तालमेल
टूटने लगेगा। सोए
हुए आदमियों और
तुम्हारे बीच फासला
बढ़ने लगेगा। वे
कुछ कहेंगे, तुम्हें कुछ
और दिखाई पड़ेगा।
फिर तुम अपने भीतर
से जीना शुरू करोगे।
और जब भी तुम भीतर
से जीओगे, तभी
तुम पाओगे तुम
से कोई भी राजी
नहीं है। क्योंकि
यहा सभी चाहते
हैं कि तुम उनके
हिसाब से जीओ।
तुम्हें स्वतंत्रता
देने को यहा कोई
भी उत्सुक नहीं
है—न तुम्हारे
पिता, न तुम्हारी
मा, न तुम्हारे
गुरु, न तुम्हारा
पुरोहित, न
तुम्हारे बेटे,
न तुम्हारी बेटियां,
न तुम्हारी पत्नी,
न तुम्हारे पति,
यहा तुम्हें
कोई भी स्वतंत्रता
देने को राजी नहीं
हैं, यहा सब
चाहते हैं कि तुम
उनकी मानकर चलो।
उनकी मानकर चलो
तो सब ठीक, उनकी
मानकर न चलो तो
तुम गलत। और जिस
दिन तुम भीतर की
आवाज सुनने लगोगे
उस दिन तुम किसी
की भी न मान सकोगे,
उस दिन परमात्मा
की माननी पड़ेगी।
इसलिए वे कहते
है— ध्यान इत्यादि
में मत पड़ना, भक्ति इत्यादि
में मत उलझना,
क्योंकि जो पहले
उलझे हैं, जैसे
मीरा उलझी, तो फिर देखा क्या
हुआ—लोकलाज खोई—वैसे
ही लोकलाज तुम
भी खो दोगे।
किसी महिला
ने पूछा है कि आपकी
बातें सुनती हूं
तो नाचने का मन
होता है। लेकिन
फिर डर लगता है
कि लोग क्या कहेंगे? यह
तो प्रत्येक के
सामने सवाल उठेगा—लोग
क्या कहेंगे?
मीरा के सामने
भी उठा था, तुम्हारे
सामने भी उठा है।
मीरा ने वही सुना
जो भीतर हुआ; छोड़ दी लोकलाज।
अब यह तुम पर निर्भर
है, अगर तुमने
यह सुना कि लोग
क्या कहेंगे और
उनके अनुसार चले
तो तुम सांप्रदायिक
रहोगे —हिंदू मुसलमान,
ईसाई, मगर
धार्मिक कभी न
हो पाओगे। और मीरा
ने जो जाना, उस से तुम वंचित
रह जाओगे। और वही
जानने योग्य है।
वही पाने योग्य
है।
अंधों की
मानोगे तो अंधे
रह जाओगे। अगर
मानना हो तो किसी
आंख वाले की मानना।
और आंख वाले को
किताब में मत खोजना, क्योंकि
किताब के पास कहा
आंख है? आंख
वाले को ही खोजना।
और ऐसा कभी नहीं
होता है कि इस दुनिया
में आंख वाले न
होते हों। परमात्मा
इस दुनिया को कभी
भी खाली नहीं करता।
किसी न किसी कोने
में खड़ा ही रहता
है। जो खोजते हैं,
उन्हें मिल जाता
है। मगर वे ही पा
सकते हैं, जो
विद्रोह करने की
क्षमता रखते हैं।
तीसरा
प्रश्न :
क्या
संन्यास भक्ति
की शुरुआत है? कृपा
करके कहिए।
संन्यास
सिर्फ शुरुआत है।
न भक्ति की न ज्ञान
की,
न कर्म की। संन्यास
सिर्फ शुरुआत है।
फिर तीन मार्ग
हो जाते हैं। कोई
ज्ञान पर जाएगा,
कोई भक्ति पर,
कोई कर्म पर।
संन्यास तो सिर्फ
जाने की तैयारी
है। संन्यास तो
इस बात की घोषणा
है कि मैं जाने
को तैयार हूं।
इसके बाद मार्ग
अलग हो जाएंगे।
यहा मेरे
पास संन्यासी है, हजारों
संन्यासी है,
उनमे भी तीन
तरह के लोग हैं,
कुछ हैं जो कर्म
से ही आ सकेंगे,
कमोंन्मुख है।
उन्हें मैं कर्म
में लगाता हूं।
उनके लिए कहता
हूं कि कर्म ही
प्रार्थना है,
कर्म ही पूजा
है; उन्हें
कहता हूं कि कृत्य
मे डूब जाओ। इस
कृत्य को परमात्मा
का कृत्य मान लो,
और इसमें डूब
जाओ। और तब छोटा
सा कृत्य भी पूजा
हो जाता है। जैसे
किसी को मैंने
कहा उदाहरण के
लिए कि आश्रम में
सफाई करो। अब तुम
यह चकित होओगे
कि सफाई किसी के
लिए ध्यान बन जाती
है।
आश्रम मे
एक सफाई करने वाले
संन्यासी हैं, पी.
एच. डी. है, यूनिवर्सिटी
के प्रोफेसर थे,
अब वह मुझ से
आकर कहते है—इतना
आनंद मुझे कभी
हुआ ही नहीं। यह
क्या कर दिया! अब
इस पर भरोसा न आएगा,
किसी को भी कि
क्या कर दिया?
कुछ भी नहीं
किया है। आश्रम
में बुहारी लगा
रहे हैं और उनके
जीवन में क्रांति
घटित हो गई है।
बुहारी लगाने से
कहीं क्रांति घटित
होती है! तब तो कितने
बुहारी लगाने वाले
लोग हैं दुनिया
में, ये सब सिद्ध
हो जाते। नहीं,
जब तुम किसी
कृत्य को अपना
समर्पण बना लेते
हो, तब क्रांति
घट जाती है—कृत्य
कोई भी हो, बुहारी
लगाना ही क्यों
न हो।
कुछ लोग
हैं जो कृत्य के
माध्यम से परमात्मा
तक पहुंचेंगे।
उनके पास बड़ी ऊर्जा
है। उन से तुम कहो
कि आंख बंद करके
बैठ जाओ और ध्यान
करो,
तो उन्हें बड़ी
अड़चन हो जाएगी।
छोटे बच्चे को
कहो कि आंख बंद
करके ध्यान करो,
वह बैठ भी जाएगा
आंख बंद करके तो
हिलेगा, डुलेगा,
हाथ—पैर चलाएगा,
करवटें बदलेगा,
इधर खुजाएगा,
उधर खुजाएगा,
बीच—बीच में
आंख खोलकर देखेगा...
छोटे छोटे संन्यासी
मेरे पास जब संन्यास
लेने आते है—छोटे
बच्चे—उनसे मैं
कहता हूं आंख बंद
करो तो वे इतने
भींचकर आंख बंद
करते हैं। उस के
भींचने का कारण
ही यह है कि अगर
भींचकर न करें
तो खुल जाएगी।
सारी ताकत लगा
देते हैं, फिर
भी खुल—खुल जाती
है। फिर भी बीच
में जरा देख लेते
हैं कि फोटो उनकी
निकाली जा रही
है कि नहीं, कि चारों तरफ
लोग कैसा अनुभव
कर रहे हैं, कोई हंस तो नहीं
रहा है। छोटे बच्चे
के पास इतनी ऊर्जा
है, अभी ऊर्जा
का प्रवाह शुरू
हुआ है, अभी
सब ताजा—ताजा है,
अभी गंगा को
बहुत बहना है,
अभी विराट ऊर्जा
लेकर आया है परमात्मा
के घर से, अभी
उसे बुद्ध की तरह
आंख बंद करके बिठाया
नहीं जा सकता।
कुछ लोग
हैं जिनके पास
सामान्य से ज्यादा
ऊर्जा है, उनके
लिए कृत्य ही मार्ग
बनेगा। फर्क इतना
ही हो जाएगा कि
अब कृत्य उनका
नहीं होगा, परमात्मा का
होगा, वे उपकरण
होगे। यही भेद
होगा संन्यासी
और संसारी मे।
काम तो दोनों करेंगे,
संन्यासी भी
करेगा, संसारी
भी करेगा। संसारी
करता है इस भाव
से कि मैं कर्ता;और संन्यासी
करता है इस भाव
से कि प्रभु कर्ता
है, मैं सिर्फ
उपकरण, उसके
हाथ का हथियार।
बस उसी समर्पण—
भाव में क्रांति
घटती है।
फिर किसी
को मैं भक्ति में
लगाऊंगा। जैसे
स्त्रिया है, या
बहुत से भावुक
पुरुष हैं, जिनकी सारी ऊर्जा
हृदय के पास संगृहीत
है, जिनके हृदय
के पास सारी धड़कन
है। न तो देह की
शक्ति में उनका
प्रवाह है और न
मस्तिष्क के विचारों
में उनका प्रवाह
है, उनका सारा
जीवन केंद्रित
है भाव के पास,
प्रीति उनका
द्वार है, उनको
मैं कहूंगा—नाचो,
प्रभु के गीत
गाओ, स्तुति
करो, प्रार्थना
करो, आह्लादित
होओ; उनको संगीत
में डुबाऊंगा,
उन्हें नृत्य
में लगाऊंगा,
उन्हें प्रार्थना—पूजा
की विधियों में
ले जाऊंगा।
फिर कोई
है जिसकी सारी
ऊर्जा मस्तिष्क
मे इकट्ठी है।
ये तीन जगह हैं
जहां ऊर्जा इकट्ठी
होती है—शरीर, हृदय
और मन। शरीर अर्थात
कर्म, हृदय
अर्थात भक्ति,
मन अर्थात ज्ञान।
जिनकी ऊर्जा वहां
संगृहीत है, उन्हें ध्यान
की कुछ विधि दूंगा;उन्हें चिंतन—मनन—निदिध्यासन
की कोई विधि दूंगा।
संन्यास
सिर्फ शुरुआत है—भक्ति
की नहीं—संन्यास
शुरुआत है परमात्मा
की तरफ जाने की।
तुमने संकल्प किया
कि अब जाता हूं;यात्रा
पर निकलूंगा,
तुमने पाथेय
तैयार कर लिया,
तुमने अपना बोरिया—बिस्तर
बांध लिया, तुम आकर गांव
के द्वार पर खड़े
हो गए। संन्यास
महाप्रस्थान है।
अब तीन रास्ते
निकलेंगे। जिस
दिन तुमने तय कर
लिया कि जाना है
उस यात्रा पर,
प्रभु को खोजना
है, फिर तीन
रास्ते निकलेंगे।
फिर संन्यासी तीन
हिस्सों में विभाजित
हो जाएंगे। इन
तीनों का मिलन
होगा अंतिम दिन
फिर, लेकिन
बीच में कहीं मिलन
न होगा। इनके रास्ते
बीच में कभी नहीं
कटेंगे।
जो भक्ति
के मार्ग से गया
है,
उसे पता ही नहीं
चलेगा कि ज्ञानी
का रास्ता कहा
है और तानी कहा
खो गया है। जो कर्म
के मार्ग से गया
है, उसे भक्ति
की भाषा समझ में
नहीं आएगी। जो
ज्ञान के मार्ग
से गया है, उसे
भी कर्म और भक्ति
दुरूह मालूम पड़ेगी,
असंभव मालूम
पड़ेगी। भीतर उसके
यही खयाल होगा
कि ये लोग भटक गए,
मैं पहुंच रहा
हूं। तीनो जानेंगे
कि मैं पहुंच रहा
हूं;बाकी दो
भटक गए। क्योंकि
बाकी दो दिखते
ही नहीं रास्ते
पर कहीं। लेकिन
अंतिम घड़ी में
फिर मिलन है। प्रस्थान
के पूर्व तीनो
एक जगह खड़े होते
हैं और जब यात्रा
पूरी हो गई तब तीनों
फिर एक शिखर पर
पहुंच जाते हैं।
संन्यास
सिर्फ शुद्ध प्रारंभ
है।
चौथा
प्रश्न :
मैं तो प्रेम
से बहुत पीड़ित
हो चुका हूं; और
आप कहते है —प्रेम
का ही ऊर्ध्वगमन
भक्ति है। प्रभु,
अब उस कीचड़ में
नहीं पड़ना चाहता
हूं।
उस कीचड़
में कमल भी है।
तुमने कीचड़ ही
देखी तो तुमने
पूरा नहीं देखा।
तुमने अधूरा देखा।
तुम प्रेम को सीढ़ी
न बना पाए, प्रेम
तुम्हारे मार्ग
में पत्थर बन गया।
तुम उस पत्थर पर
चढ़ न पाए, नहीं
तो तुम्हें और
ऊंचाई मिलती। इसमें
प्रेम का कसूर
नहीं है, तुम्हारा
ही कसूर है। तुम
कहते हो—मैं तो
प्रेम से बहुत
पीड़ित हो चुका
हूं। प्रेम ने
कभी किसी को पीड़ित
नहीं किया; ही, प्रेम
के कारण बहुत लोग
पीड़ित मालूम पड़ते
हैं लेकिन कारण
कुछ और ही होता
है। समझो।
कुछ लोग
प्रेम के कारण
पीड़ित होते हैं, क्योंकि
वे चाहते हैं फलां
व्यक्ति मुझे प्रेम
करे। अब यह फलां
व्यक्ति की स्वतंत्रता
है कि तुम्हें
प्रेम करे, या न करे। यह तुम्हारा
आग्रह नहीं हो
सकता। तुमने किसी
के सामने जाकर
और किसी के घर के
सामने जाकर और
बोरिया—बिस्तर
लगा दिया और कहा
कि हम अनशन करेंगे,
हम से प्रेम
करो, हम सत्याग्रह
करते है, नहीं
तो हम मर जाएंगे।
ऐसा हुआ
एक गांव में। एक
आदमी ने ऐसा लगा
दिया एक सुंदर
युवती के द्वार
पर। उसका बाप तो
बहुत घबडाया—सत्याग्रहियो
से कौन नहीं घबड़ाता!
और उसके दो—चार
साथी—संगी भी थे, उन्होंने
बाजार में जाकर
खूब शोरगुल मचा
दिया कि सत्याग्रह
हो गया है। गांव
भर उत्सुक हो गया,
लोगों की भीड़
आने लगी, लोग
उससे पूछने लगे
कि क्या मामला
है? वह बाप तो
बहुत घबड़ाया। उसने
कहा—अब करना क्या
है! शाम तक तो बहुत
गांव में शोरगुल
मच गया और सारा
गांव उसके पक्ष
में, क्योंकि
उसने सत्याग्रह
किया—गांधीवादी।
यह कोई पूछे नहीं
कि सत्याग्रह किया
किसलिए। अब मोरारजी
ने अनशन किया था,
किसी ने पूछा
किसलिए किया था?
वह गांधीवादी!
कोई सत्ता पाने
के लिए अनशन कर
रहा है, यह तो
बेचारा भला ही
आदमी है, प्रेम
पाने के लिए अनशन
कर रहा है, कोई
बुरा काम तो कर
नहीं रहा है! लेकिन
किसी ने यह सोचा
ही नहीं कि वह युवती
भी इसे प्रेम करती
है या नहीं, अन्यथा यह जबर्दस्ती
हो गई। सब तरह के
सत्याग्रह जबर्दस्तिया
है। उनके भीतर
हिंसा है। ऊपर
से अहिंसा का ढोंग
है।
सांझ तक
तो उसका बाप बहुत
घबड़ा गया, उसने
कहा ऐसा अगर चला
तो... सारे गांव का
दबाव पड़ने लगा,
लोग फोन करने
लगे, चिट्ठिया
आने लगीं, अखबार
में खबरें छप गइ,
पोस्टर लग गए
कि बहुत अन्याय
हो रहा है, सत्याग्रही
के साथ बहुत अन्याय
हो रहा है, आमरण
अनशन है, वह
मर जाएगा। प्रेम
के लिए ऐसा दीवाना
कब देखा गया? मजनू ने भी ऐसा
नहीं किया था।
और बेचारा बिलकुल
अहिंसक है! वहा
बैठा है अपना खादी
के कपड़े पहने हुए,
कुछ बोलता नहीं,
कुछ चलता नहीं,
चुप बैठा है।
किसी ने उस लड़की
के बाप को सलाह
दी कि अगर इससे
निपटना हो तो एक
ही रास्ता है,
उससे ही निपट
सकते हो। क्या
रास्ता है? उसने कहा—मैं
हल कर देता हूं।
वह भागा गया और
एक बूढ़ी वेश्या
को लिवा लाया।
एक बिलकुल मरी—मराई
वेश्या। एक तो
वेश्या और मरी—मराई,
उसको देखकर किसी
का जी मिचला जाए,
भयंकर बदबू उससे
आ रही, उसको
ले आया। उस युवक
ने जब देखा, वह जो सत्याग्रह
कर रहा था, उसने
पूछा—तू यहा किसलिए
आई? उसने कहा—मुझे
तुम से प्रेम है।
मैं भी यहीं सत्याग्रह
करती हूं जब तक
तुम मुझ से विवाह
न करोगे, मर
जाऊं भला! बस फिर
घड़ी—आधा घड़ी में
युवक ने अपना बिस्तर
समेटा और भागा।
फिर सत्याग्रह
समाप्त हो गया।
तो प्रेम
तुम्हें कष्ट दे
सकता है, अगर तुम
जबर्दस्ती किसी
पर थोपना चाहो।
लेकिन यह प्रेम
है? यह प्रेम
ने कष्ट दिया,
यह अहंकार ही
है। यह हिंसा ने
कष्ट दिया। तुम्हें
हक नहीं है किसी
पर अपना प्रेम
थोपने का, न
हक है जबर्दस्ती
किसी से प्रेम
मांगने का। प्रेम
में जबर्दस्ती
तो हो ही नहीं सकती।
तो कष्ट पाओगे।
या, जिसे
तुमने चाहा वह
तुम्हें मिल गया।
लेकिन मिलने के
बाद तुमने उस पर
बहुत अपने को आरोपित
किया, तुमने
उसे अपनी संपत्ति
बनाना चाहा, तुमने उसके सब
तरफ पहरे बिठा
दिए, तुमने
कहा, बस मुझ
से प्रेम और किसी
से भी नहीं, मेरे साथ हंसना
और किसी और के साथ
नहीं, और तुम
बड़े भयभीत हो गए
और तुम सुरक्षा
करने लगे, और
तुम सदा चिंता
करने लगे और तुम
जासूसी करने लगे
—और अगर तुमने अपनी
पत्नी को या अपने
पति को किसी के
साथ हंसते और मुस्कुराते
देख लिया तो तुम्हारे
भीतर आग लग गई;
इससे तुमने कष्ट
पाया, इससे
तुम पीड़ित हुए,
लेकिन यह पीड़ित
होने का कारण प्रेम
नहीं है। दूसरे
को संपत्ति मानने
में ही पीड़ा है।
कोई इस जगत
में किसी की संपत्ति
नहीं है, न कोई इस
जगत में किसी की
संपत्ति होने को
पैदा हुआ है, न किसी को होना
चाहिए, यह अपमान
है। कोई किसी का
गुलाम नहीं। प्रेम
दो स्वतंत्र व्यक्तियों
के बीच का बहाव
है। जब भी उन में
से कोई गुलाम हो
जाएगा, एक या
दोनों गुलाम हो
जाएंगे, तभी
बहाव रुक जाता
है। और जब बहाव
रुक जाता है तब
बड़ी पीड़ा है, तब बड़े काटे चुभ
जाते है, तब
जीवन में घाव हो
जाते हैं। प्रेम
से लोग दुख पा रहे
हैं, वह प्रेम
के कारण नहीं,
प्रेम के नाम
पर कुछ और चल रहा
है, अहंकार
चल रहा है। यह अहंकार
ही है।
तुम चकित
होओगे यह जानकर
कि व्यक्तियों
के साथ तो ईर्ष्या
होती ही होती है, ऐसी
स्थितियों में
ईर्ष्या हो जाती
है जहां कि ईर्ष्या
का कोई कारण नहीं।
पति घर आया है,
पत्नी दिनभर
राह देखती रही
है और पति आकर अखबार
पढ्ने बैठ गया,
पत्नी अखबार
छीन ले सकती है, फाड़कर फेंक दे
सकती है—अखबार
से ईर्ष्या हो
जा सकती है कि मेरे
और तुम्हारे बीच
आने वाला अखबार
कौन होता है?
यह आकस्मिक
नहीं है कि दुनिया
के बहुत सृजनशील
व्यक्तियो को अविवाहित
रहना पड़ा। उसके
पीछे कुल कारण
इतना था कि अगर
तुम्हें संगीत
से प्रेम है, तो
बस इतना ही काफी
है, अब स्त्री
को तुम प्रेम—वेम
मत करो। स्त्री
के प्रेम में पड़े
तो संगीत और स्त्री
में संघर्ष हो
जाएगा। सुकरात
की स्त्री सुकरात
को पीट देती थी।
एक बार उसने चाय
की पूरी केतली
सुकरात के ऊपर
उड़ेल दी, उस
का आधा चेहरा सदा
के लिए जल गया और
काला हो गया। क्या
अड़चन थी? अड़चन
यही थी कि सुकरात
सदा दर्शन में
लीन था। उस के शिष्य
आते, वह दर्शन
की बातों मे ऐसा
तल्लीन हो जाता
कि बस पत्नी को
पीड़ा होने लगती।
उसे पीड़ा यह थी
कि यह दर्शनशास्त्र
को मुझ से ज्यादा
चाहता है। अब यह
किसी व्यक्ति के
साथ भी ईर्ष्या
का कारण नहीं,
लेकिन दर्शनशास्त्र
को मुझ से ज्यादा
चाहता है। यह बात
स्त्री बर्दाश्त
नहीं कर सकती।
तुम्हारी पत्नी
को अगर नृत्य से
प्रेम हो या संगीत
से, तो तुम्हें
लगेगा तुम्हारी
अवहेलना हो रही
है।
दुनिया
में बड़े चित्रकारों
को,
बड़े संगीतज्ञो
को, बड़े कवियों
को, बड़े दार्शनिकों
को अविवाहित रहने
को मजबूर होना
पड़ा। विवाह महंगा
सौदा मालूम हुआ।
जब किसी ने प्रसिद्ध
डेनिस विचारक सोरेन
कीर्कगार्ड को
पूछा कि आप अविवाहित
क्यों रहे? तो उसने कहा कि
मैं दो पत्नियों
के बीच झंझट में
नहीं पड़ना चाहता
था। दो पत्नियों
के बीच, पूछने
वाले ने पूछा! हमें
तो पता है आपकी
एक भी पत्नी नहीं।
सोरेन कीर्कगार्ड
ने कहा—यह जो फिलासफी
है, यह जो दर्शन
है, इससे मेरा
लगाव है। सोरेन
कीर्कगार्ड एक
बार प्रेम में
पड़ा था किसी स्त्री
के और बिलकुल विवाह
के करीब पहुंच
गई थी बात, और
फिर हट गया। क्योंकि
जैसे—जैसे स्त्री
से निकटता बढ़ी,
वैसे—वैसे स्त्री
ने बाधा डालनी
शुरू कर दी। अभी
विवाह भी नहीं
हुआ था कि और बाधा
आनी शुरू हो गई।
तो सोरेन कीर्कगार्ड
ने तय कर लिया कि
यह बेहतर है, मैं दो में से
एक ही चुन लूं।
या तो मुझे गैर—दार्शनिक
हो जाना पड़ेगा—जो
कि महंगा सौदा
है, जो कि मेरे
प्राणों का प्राण
है, जो कि मेरे
सारे व्यक्तित्व
को धूल से भर देगा,
जो कि मेरी आत्मा
की तलाश की हत्या
हो जाएगी, जो
कि बीज में ही मरना
हो जाएगा, वृक्ष
मैं हो ही न पाऊंगा,
फूल तक पहुंच
न पाऊंगा।
तुम ध्यान
रखना, कहते हो—मैं
तो प्रेम से बहुत
पीड़ित हो चुका
हूं! तो जरा तलाश
करना। प्रेम के
कारण? प्रेम
के कारण कोई कभी
पीड़ित नहीं होता,
प्रेम के साथ
कुछ और जुड़ा होगा,
कुछ और लगा होगा;
प्रेम का नाम
होगा, भीतर
कुछ और होगा—अहंकार
होगा, ईर्ष्या
होगी, परिग्रह
का भाव होगा, मालकियत होगी।
तो फिर तुम कष्ट
पाओगे। और उस कष्ट
के पाने के कारण
तुम प्रेम से घबड़ा
जाओगे और तुम कहने
लगोगे—प्रेम गलत
है। तब तुमने दूसरी
भूल की। क्योंकि
प्रेम ही प्रीति
बनता और प्रीति
ही भक्ति बनता,
अब तुम उससे
भी वंचित हुए।
तुम प्रेम से भी
गए और परमात्मा
से भी गए। मैं तुमसे
कहना चाहता हूं—ठीक
से विश्लेषण करो,
ठीक से निदान
करो, और प्रेम
के मार्ग पर जो—जो
अड़चनें दूसरी हों
उन्हें हटा दो,
प्रेम इतना बहुमूल्य
है कि उसके लिए
सब कुछ कुर्बान
किया जा सकता है—अहंकार,
मालकियत, सब कुर्बान किया
जा सकता है।
मगर दुनिया
में अजीब लोग हैं।
बातें प्रेम की
करते हैं, और
जब भी कुर्बानी
का सवाल आता है
तो प्रेम की कुर्बानी
देते है। अगर अहंकार
और प्रेम के बीच
चुनना है तो तुम
अहंकार चुनते हो,
प्रेम नहीं चुनते।
और फिर दोष भी प्रेम
को देते हो! मेरे
पास रोज लोग आते
हैं, कोई छोटी
सी
बात
पति—पत्नी में
हो गई और उनमें
झगड़ा खड़ा हो गया।
इतनी छोटी बात
कि जब वे मुझे बताने
आते हैं तो संकोच
करते हैं, पत्नी
पति से कहती है—आप
ही कह दें, पति
कहता है—नहीं,
तुम ही कह दो।
मैं पूछता हूं—बात
क्या है, कहते
क्यों नहीं? वे कहते है—बात
इतनी छोटी है कि
यहा इतने लोगों
के सामने कहने
में संकोच होता
है। जब बात इतनी
छोटी है, और
तलाक तक नौबत आ
पहुंची है, तो मामला क्या
है? तुमने प्रेम
किया ही नहीं।
या किया भी तो बड़ा
विषाक्त किया।
और आज एक छोटी सी
बात पर...।
मैंने सुना
है कि हालीवुड
में एक विवाह हुआ
और जब उस अभिनेत्री
ने अपने पति के
साथ रजिस्ट्रार
के दफ्तर में दस्तखत
किए,
दस्तखत के करते
ही उसने कहा कि
नहीं, रजिस्ट्रार
से कहा कि रह करिए,
मुझे यह विवाह
नहीं करना। रजिस्ट्रार
भी चौका, उसका
पति तो बहुत चौका—होने
वाला पति, जो
कि हो ही चुका था
पति, दस्तखत
हो चुके थे स्टाम्प
पर। रजिस्ट्रार
ने कहा—लेकिन अभी
तो कोई बात ही नहीं
हुई, झगड़ा शुरू
ही नहीं हुआ;मुझे पता है कि
साल—छह महीने में
झगड़ा शुरू होगा,
मगर अभी तो कोई
बात भी नहीं उठी।
उस अभिनेत्री ने
कहा—झगड़ा हो गया,
क्योंकि मैंने
छोटे अक्षर दस्तखत
किए, और इसने
इतने बड़े अक्षर
किए मेरे सामने!
इससे मतलब साफ
है, यह झंझट
में मुझे पड़ना
नहीं है, यह
अभी से दिखाने
लगा है अपनी अकड़!
मैंने छोटे—छोटे
अक्षर बनाए और
इसने बड़े—बड़े अक्षरों
में दस्तखत कर
दिए! ये बात साफ
हो गई, इसमें
आगे जाने की जरूरत
नहीं है। ऐसी छोटी—छोटी
बातें प्रेम के
मार्ग पर अवरोध
हैं। फिर तुम उनसे
पीड़ा पाओगे। मगर
उस पीड़ा को तुम
प्रेम के कंधे
पर मत थोपना।
प्रेम ने
कभी पीड़ा नहीं
दी। प्रेम ने सदा
सुख दिया है। प्रेम
ने सदा शांति दी
है। प्रेम ही तो
एकमात्र वस्तु
है इस जगत मे जिस
मे परमात्मा की
थोड़ी झलक है। प्रेम
ही तो एकमात्र
ऊर्जा है यहा जो
आदमी की बनाई हुई
नहीं है। जो अकृत्रिम
है,
स्वाभाविक है।
जो तुम्हारे प्राणो
के प्राण में बसी
है, जो तुम्हारी
आत्मा का भोजन
है। जैसे शरीर
बिना भोजन के न
जी सकेगा, वैसी
तुम्हारी आत्मा
भी बिना प्रेम
के नहीं जी सकती।
इसीलिए तो प्रेम
की इतनी तलाश है।
और जिसको प्रेम
मिल जाता है, उसे सब मिल जाता
है। फिर इसी प्रेम
के और आगे सोपान
है—प्रेम तो सीढ़ी
का नाम है—फिर इसके
आगे और सीढ़ियां
हैं। मगर वे सब
प्रेम से ही उत्पन्न
होती है। तुम से
मैंने कहा कि प्रेम
के ये चार रूप है—स्नेह;
अपने से छोटे
के प्रति हो, बच्चे के प्रति।
प्रेम; अपने
से समान के प्रति
हो, मित्र के
प्रति;पति—पत्नी
के प्रति। श्रद्धा;अपने से बड़े के
प्रति हो, मां
के प्रति, पिता
के प्रति, गुरु
के प्रति। और भक्ति;परमात्मा के
प्रति, समग्र
के प्रति। ये सब
प्रेम की ही धारणाएं
हैं। ये प्रेम
के ही अलग—अलग ढंग
हैं। यह प्रेम
का ही पूरा नृत्य
है। ये प्रेम की
ही भावभगिमाए हैं।
मगर प्रेम को शुद्ध
करते चलो तो पीड़ा
नहीं मिलेगी,
परम आनंद मिलेगा।
और इतने जल्दी
थक मत जाओ, इतने
जल्दी हार मत जाओ,
इतने जल्दी बूढ़े
मत हो जाओ। इतने
जल्दी हताश मत
हो जाओ। कैफी आजमी
की ये कुछ पंक्तियां
हैं।
बुढ़ापा
कहता है—
यह आंधी, यह
तूफान, ये तेज
धारे फड़कते तमाशे,
गरजते नजारे
अंधेरी
फजा,
सांस लेता समंदर
न हमराह
मिशअल, न गदू पे
तारे
मुसाफिर, खड़ा
रह अभी जी को मारे
जवानी कहती
है—
उसी का है
साहिल, उसी के
कगारे
तलातुम
में फंसकर जो दो
हाथ मारे
अंधेरी
फजा,
सांस लेता समंदर
यों ही सर पटकते
रहेंगे ये धारे
कहां तक
चलेगा किनारे—किनारे
जिस दिन
तुम हारे, उस
दिन के हुए। जिस
दिन तुमने कहा
कि तूफान बड़ा है,
अभी रुक जाओ,
तुम सदा के लिए
रुक गए। तूफान
तो सदा है। तूफान
तो इस जगत के होने
का ढंग है। तूफान
तो संसार है। अगर
तुमने कहा—
यह आंधी, यह
तूफान, ये तेज
धारे
फड़कते तमाशे, गरजते
नजारे
अंधेरी
फजा
यह अंधेरी
रात...
सांस लेता
समंदर
ये उठती
हुई गहरी सांसें
समंदर की
न हमराह
मिशअल
हाथ में
एक मशाल भी नहीं
न गदू पे
तारे
और आकाश
में एक तारा भी
नहीं
मुसाफिर
खड़ा रह अभी जी को
मारे
तो तुम सदा
खड़े रह जाओगे।
क्योंकि यह तूफान
ऐसा ही चलता रहेगा।
यह शाश्वत है।
ये तारे कभी उगेंगे
नहीं। तारे उनको
मिलते हैं जो तारों
को उघाडते हैं।
तारे उनको मिलते
हैं जो तारों को
पैदा करते हैं।
और मशाल कहां से
आएगी? जो अपने हृदय
की मशाल बनाते
हैं, उन्हीं
के हाथ में मशाल
होती है। मशाल
कहौ से आएगी? जो अपने को जलाते
हैं, उन्हीं
के पथ पर रोशनी
होती है। और तो
कोई रोशनी का उपाय
नहीं है। जो अपने
प्रेम को प्रज्वलित
करते हैं, उन्हीं
का मार्ग रोशन
हो जाता है।
न हमराह
मिशअल, न गदू पे
तारे
मुसाफिर, खड़ा
रह अभी जी को मारे
अभी जी को मारकर
खड़े हो गए तो सदा
के लिए खड़े हो जाओगे।
ऐसे ही तो बहुत
लोग खड़े हो गए।
सदियों—सदियों
से खड़े हैं। न मालूम
कितने जन्मों से
खड़े हैं। उतरते
ही नहीं हैं तूफान
में। और जितनी
देर खड़े रहोगे,
उतना ही भय पुराना
होता जाता है,
उतनी ही भय की
जड़ें फैलती चली
जाती हैं।
नहीं, इसको
चुनौती समझो। प्रेम
चुनौती है। प्रेम
के संघर्ष में
जाना ही होगा।
उसी का है
साहिल, उसी के
कगारे
जो चुनौती
स्वीकार करता है।
उसी का है
साहिल, उसी के
कगारे
तलातुम
में फंस कर जो दो
हाथ मारे
तूफान में
उतरकर जो दो हाथ
मारता है, फिर
तूफान सहयोगी हो
जाता है। तूफान
सदा ही दुश्मन
नहीं है। तूफान
दुश्मन उनका है
जो किनारे पर खड़े
हैं। तूफान उनका
संगी और साथी है,
जो उस में दो
हाथ मार कर आगे
बढ़ते हैं। तूफान
उन्हें उठा लेता
है, तूफान उन्हें
दूसरे किनारे तक
पहुंचा देता है,
तूफान उनके लिए
नाव बन जाता है।
उसी का है
साहिल, उसी के
कगारे
तलातुम
में फंस कर जो दो
हाथ मारे
अंधेरी
फजा,
सांस लेता समंदर
यों ही सर पटकते
रहेंगे ये धारे
कहां तक
चलेगा किनारे—किनारे
प्रेम में
अड़चनें हैं। प्रेम
में कठिनाइयां
हैं। प्रेम का
फूल बहुत से काटो
के बीच खिलता है, सच,
इसे मैं स्वीकार
करता हूं लेकिन
प्रेम काटा नहीं
है। प्रेम की झाड़ी
में बहुत कांटे
हैं, प्रेम
तो उस झाड़ी का फूल
है। इस डर से कि
कहीं कोई काटा
हाथ में न चुभ जाए—और
निश्चित काटा हाथ
में चुभ सकता है,
कांटे वहां हैं;
जो फूल को तोड़ने
जाएगा, उसकी
अंगुलियों में
कभी खून आ सकता
है—लेकिन वह खून
दाव पर लगाने जैसा
है। फूल की तलाश
में अगर थोड़ा खून
गिरे, तो बुरा
कुछ भी नहीं—खून
का करोगे भी क्या
और? आज नहीं
कल गिर ही जाएगा,
आज नहीं कल मिट्टी
में सब मिल ही जाएगा।
इसके पहले कि मिट्टी
तुम्हें अपने में
लीन कर ले, तूफान
में दो हाथ मार
लो। इसके पहले
कि कब्र में समा
जाओ, जिंदगी,
जवानी, जोश,
इसका थोड़ा उपयोग
करो, थोड़े पंख
फैला लो! और कांटे
हैं जरूर। यही
तो मजा है गुलाब
के फूल को पाने
का। कांटे न होते
तो पाने में कुछ
अर्थ भी न होता।
किनारा है दूर
और तूफान है बड़ा,
यही तो चुनौती
है।
और मैं उसी
को बूढ़ा कहता हूं
जो जीवन की चुनौतियां
छोड़ देता है। वही
जवान है जो जीवन
की सारी चुनौतियों
को स्वीकार करता
है। चुनौती के
स्वीकार की मात्रा
ही जवानी की मात्रा
है। तब कोई आदमी
मरते दम तक जवान
रह सकता है। और
कोई आदमी पहले
से ही का हो सकता
है।
यह देश
बुरी तरह बूढ़ा
हो गया है। इस देश
की फजा बूढ़ी हो
गई है। इस देश की
हवा बूढ़ी हो गई
है। इस देश में
बच्चे के ही पैदा
होते हैं। पैदा
होते से ही उनके
जीवन में क्या—क्या
गलत है, क्या—क्या
बुरा है, क्या—क्या
कठिन है, उसका
ही सारा शिक्षण
चलता है। उन्हें
जीवन को स्वयं
देखने का मौका
ही नहीं मिलता।
वे अपनी परख पैदा
नहीं कर पाते,
अपना अनुभव नहीं
ले पाते। वे किनारे
पर ही अटक जाते
हैं। वे कभी जवान
नहीं हो पाते।
मैं तुम
से चाहता हूं कि
तुम उतरों तूफान
में। तूफान से
तैरे तो ही दूसरा
किनारा पा सकोगे।
इस पार संसार है
उस पार परमात्मा
है। और प्रेम का
तूफान है दोनों
के बीच में। लेकिन
प्रेम को शुद्ध
करते चलना है, रोज—रोज
शुद्ध करते चलना
है। प्रेम से गंदगी
हटाते चलना है।
प्रेम से कीचड़
छांटते चलना है
और प्रेम के कमल
को सम्हालते चलना
है। एक दिन जब प्रेम
परिपूर्ण रूप से
शुद्ध हो जाता
है, जब अपने
पूरे निखार को
उपलब्ध होता है,
तो वही भक्ति
है।
तू खुर्शीद
है बादलों में
न छुप
तू महताब
है जगमगाना न छोड़
तू शोखी
है,
शोखी रियायत
न कर
तू बिजली
है बिजली जलाना
न छोड़
अभी इश्क
ने हार मानी नहीं
अभी इश्क
को आजमाना न छोड़
प्रेम हारता
ही नहीं। जब तक
परमात्मा न मिल
जाए,
प्रेम हार ही
नहीं सकता। प्रेम
बीज है परमात्मा
का।
अभी इश्क
ने हार मानी नहीं
अभी इश्क
को आजमाना न छोड़
तुम हार
मान लिए हो, यह
तुम्हारे अहंकार
की हार है, यह
प्रेम की हार नहीं
है, इसे तुम
प्रेम की हार मत
समझ लेना, प्रेम
हारता ही नहीं।
प्रेम हार जानता
ही नहीं। प्रेम
तो जीत ही जानता
है। और जीतते—जीतते
उसी दिन पूर्णता
को उपलब्ध होता
है जिस दिन परमात्मा
उपलब्ध हो जाता
है। तभी प्रेम
विश्राम में जाता
है। उसके पहले
तक प्रेम विश्राम
नहीं करता। लेकिन
अहंकार की हार
को अक्सर हम प्रेम
की हार मान लेते
हैं।
तुम्हारा
अहंकार जरूर कष्ट
में पड़ गया होगा।
तुमने कुछ गलत
दिशाओं से प्रेम
तलाशा होगा। तुमने
गलत हाथों से प्रेम
पकड़ना चाहा होगा।
तुमने प्रेम को
पिंजड़े में बंद
करना चाहा होगा।
तुमने प्रेम के
साथ कुछ दुर्व्यवहार
किया होगा। इसलिए
तुम प्रेम को पाने
में असमर्थ हुए
हो। अपना दुर्व्यवहार
छोड़ो, अपनी गलतिया
स्वीकारो, अपनी
गलतिया पहचानो,
अपनी गलतियां
देखो, और तब
तुम चकित होओगे—प्रेम
अभी कहां हारा!
सच तो यह
है तुम्हारा प्रश्न
ही यह कह रहा है
कि प्रेम अभी जिंदा
है। तुम कहते हों—मैं
तो प्रेम से बहुत
पीड़ित हो चुका
हूं,
और आप कहते हैं
कि प्रेम का ही
ऊर्ध्वगमन भक्ति
है। प्रभु, अब उस कीचड़ में
नहीं पड़ना चाहता
हूं। यह तुम्हारा
अहंकार बोल रहा
है, प्रेम को
कीचड़ कह रहा है।
लेकिन तुम्हारे
भीतर यह प्रश्न
उठा, यह इस बात
का सबूत है कि अभी
भी प्रेम में प्राण
है और अभी भी प्रेम
में अंकुर है और
अभी भी प्रेम फिर
से वृक्ष बन सकता
है। किस ने तुम
से कहा कि प्रेम
कीचड़ है? कीचड़
भी है और कमल भी।
अगर तुमने कीचड़
ही जाना तो तुमने
पूरा प्रेम नहीं
जाना। इसलिए तो
कमल को पंकज कहते
हैं। पैक यानी
कीचड़; कीचड़
से जो जन्मता है
उसका नाम पंकज।
कितना अदभुत रूपांतरण
होता है। कहौ कीचड़,
गंदी कीचड़,
एक गंदी तलैया
तालाब की, और
कहां फिर यह प्यारा
कमल!
इस देश ने
तो कमल के ऊपर किसी
फूल को नहीं रखा।
इसलिए विष्णु की
नाभि में कमल को
उगाया है। इसलिए
बुद्ध को कमल पर
बिठाया है। कमल
इस देश के प्राणों
में बसा है। कमल
की कुछ खूबी है, कमल
में कुछ जादू है,
जो किसी फूल
में नहीं है। वह
जादू क्या है?
वह जादू यह है
कि कमल बड़ी अशुद्ध
कीचड़ से उठता है,
और इतना शुद्ध,
इतना निर्विकार;
चमत्कार है कमल!
कमल रहस्यपूर्ण
है। कमल इस जगत
में रूपांतरण का
प्रतीक है। अदभुत
रूपांतरण का। सारा
रसायन बदल गया।
कहां कीचड़ थी गंदगी
से भरी, बदबू
से भरी, सोच
भी न सकते थे कि
इसमें कमल पैदा
हो सकता है। जिसने
जाना नहीं है कि
कमल कीचड़ में पैदा
होता है, वह
कमल को देखकर कभी
कल्पना भी नहीं
कर सकता है कि कीचड़
से इसका कोई संबंध
हो सकता है। एक
दाग भी तो नहीं
होता है कमल पर
कीचड़ का। और सुरभि,
और रंग अनूठा
और खिलावट! इस पृथ्वी
पर कमल से कोमल
और क्या है?
तुमने प्रेम
का आधा ही हिस्सा
देखा। जिसने प्रेम
में सिर्फ कामवासना
देखी, उसने कीचड़
देखी। जिसने प्रेम
में सिर्फ संभोग
देखा, उसने
कीचड़ देखी। और
जिसने प्रेम में
समाधि देखी, उसने कमल देखा।
जिसने प्रेम में
भक्ति देखी, उसने कमल देखा।
उठो, कीचड़ से
कमल की यात्रा
करो!
पाचवां
प्रश्न :
भक्त, भक्ति
और भगवान, इन
तीनो शब्दों को
समझाने की कृपा
करें।
वैज्ञानिक
कहते है—प्रत्येक
वस्तु के तीन रूप
होते है। जैसे
जल को उदाहरण के
लिए लें, तो बर्फ
एक रूप—जमा हुआ,
सख्त कठोर। फिर
जल दूसरा रूप—बहता
हुआ, प्रवाहमान,
तरल। फिर भाप
तीसरा रूप—अदृश्य,
ऊर्ध्वगामी।
तीनो में बड़ा फर्क
है। बर्फ कठोर
है, जल जरा भी
कठोर नहीं। बर्फ
थिर है, एक जगह
अटका है, बर्फ
मे कोई गति नहीं
है, जल में गति
है, प्रवाह
है, जल यात्रा
है। बर्फ पत्थर
की तरह पड़ा है।
इसीलिए तो बर्फ
को पत्थर का बर्फ
कहते है। उसमें
कोई यात्रा नहीं
है, बंद, कहीं जाता नहीं,
उसमे कुछ होता
नहीं, जैसा
का तैसा है;मुर्दा है, जड़ है। जल में
जीवन है। गति जीवन
का आधार है।
फिर जल में
और भाप में भी बड़े
फर्क हैं। जल सदा
नीचे की तरफ जाता
है,
भाप सदा ऊपर
की तरफ जाती है।
जल अधोगामी है,
भाप ऊर्ध्वगामी
है। जल दिखाई पड़ता
है, भाप दिखाई
भी नहीं पड़ती।
और भी क्रांति
घट गई। भाप अदृश्य
के साथ एक हो गई।
ऐसे ही ये
तीन शब्द है— भक्त, भक्ति
और भगवान। भक्त
है बर्फ की तरह।
बड़ी अस्मिता है
अभी, मैं भाव
है अभी। भक्ति
है तरलता, नृत्य,
गति, यात्रा;भक्त चल पड़ा,
भक्त अब पड़ा
नहीं है, उठ
खड़ा हुआ; भक्त
अब रुका नहीं है,
उसने पहला कदम
तो उठा लिया। और
जिसने पहला कदम
उठा लिया, उसने
आधी यात्रा पूरी
कर ली। क्योंकि
एक—एक कदम से ही
तो हजारों मील
की यात्रा पूरी
हो जाती है। पहला
कदम ही कठिन है,
फिर तो सब सरल
हो जाता है। क्योंकि
सब कदम एक जैसे
हैं। पहला उठ गया
तो दूसरे में क्या
फर्क है? दूसरा
भी पहले जैसा है
और तीसरा भी पहले
जैसा है। फिर तो
उन्हीं कदमों की
पुनरुक्ति है।
कदम तो एक ही है।
फिर कदम के ऊपर
कदम रखते जाना
है, सीढ़ी के
ऊपर सीढ़ी चढ़ते
जाना है। मगर जिसे
पहला कदम उठाना
आ गया, उसे सब
कदम उठाने आ गए,
क्योंकि कदमो—कदमो
में कोई भेद नहीं
है।
भक्ति तरलता
है,
बहाव शुरू हुआ,
यात्रा शुरू
हुई। और भगवान
वाष्प की दशा है,
अदृश्य होने
की दशा है। भक्त
कठोर होता है,
भक्ति में तरलता
होती है, जब
भक्त भगवान तक
पहुंचता है तो
अदृश्य हो जाता
है। ये चैतन्य
की ही तीन दशाएं
हैं।
भक्त से
शुरू करना है, भगवान
पर पूर्णाहुति
होनी है। भक्त
कभी भगवान को मिलता
है, ऐसा मत सोच
लेना, भक्त
भगवान हो जाता
है।
मिलना कहा
है?
मिलना में
तो दूजापन रहता
है,
दुई रहती है,
भेद रहता है।
भक्त भगवान से
मिलता नहीं, भक्त भगवान हो
जाता है। जैसे
भाप आकाश के साथ
एक हो जाती है।
ये भगवत्ता की
तीन दशाएं हैं।
भक्त कठोर दशा
है, अभी मैं
का भाव मौजूद है।
भक्ति में मैं
टूटा, तरलता
आई;मध्य की
दशा है। और भगवान
में ऊर्ध्वगमन
हुआ; जो दृश्य
था, अदृश्य
हुआ; जो स्थूल
था, सूक्ष्म
हुआ; जो शांत
था, अतात
हुआ।
छठवां
प्रश्न :
आप के पास
आना और बैठना अच्छा
लगता है। लेकिन
प्रवचन सुनने के
बाद कुछ और ही लगने
लगा है। लगता है
कि कोई गहरा नशा
किया हो; ध्यान
वगैरह करने की
भी इच्छा नहीं
होती। पर संन्यास
लेने की इच्छा
होने लगी है। क्या
उस योग्य हूं?
यह मधुशाला
है। यहा नशा न आए
तो तुम बेकार ही
आए और बेकार ही
गए। यहा पहुंचते
ही वही हैं जो डगमगा
जाते हैं। यहा
आए,
इसका सबूत ही
यह है कि लौटते
समय आंखों मे खुमार
हो, कि मन में
एक मस्ती हो, कि एक नशा छाया
हो, कि दूर की
पुकार सुनी गई,
कि दूर के तारों
ने तुम्हें निमंत्रण
दिया, कि अभीप्सा
जगी;कि तुम्हारे
भीतर कोई सोया
था स्वर, वह
पहली दफा छेड़ा
गया; तुम्हारे
भीतर कोई बीज दबा
पड़ा था, वह टूटा
और अंकुरित हुआ;
तुम्हारे भीतर
कोई अनजानी प्यास
तड़फी, तुम्हारे
भीतर कोई अस्पष्ट
गीत गुनगुनाया
गया। यही होना
चाहिए।
अगर मुझे
सुनकर तुम्हारे
भीतर मस्ती न आए, तो
तुमने सिर्फ मेरे
शब्द सुने, मुझे नहीं सुना।
अगर तुम्हारे भीतर
मस्ती आ जाए, तुम यहा से चलते
वक्त डगमगाते लौटो,
थोड़ी बेखुदी
आ जाए, बेखुद
होकर लौटो—मस्ती
यानी अहंकार थोड़ा
क्षीण हो;मस्ती
यानी थोड़ी तरलता
आए, बर्फ थोड़ी
पिघले, बहाव
आए; मस्ती यानी
जीवन में और भी
अर्थ हो सकते हैं
जो तुमने नहीं
खोजे, इनकी
थोड़ी खबर आए कि
जिंदगी जीने का
कोई और ढंग भी हो
सकता है, कि
दुकान और बाजार
पर जिंदगी समाप्त
नहीं है, कि
धन और पद पर जीवन
की इति नहीं है,
कि यहा और भी
आकाश हैं उड़ने
को, कि और भी
मुकाम हैं पहुंचने
को, ऐसी जब तुम्हारे
भीतर थिरक आएगी
तो नशा मालूम होगा।
शुभ हो रहा है।
इसी नशे के पैदा
हो जाने को मैं
मानता हूं कि आदमी
संन्यास के लिए
पात्र हुआ। इन्हीं
नशेलचियो के लिए
संन्यास है। ठीक
तुम्हारे लिए।
और यहा कोई कसौटी
नहीं है।
मैं तुम
से यह नहीं कहता
कि संन्यासी के
लिए पहले तुम्हें
उपवास करना पड़े, तप
करना पड़े, जप
करना पड़े; मैं
तुम से यह भी नहीं
कहता कि संन्यासी
के लिए तुम्हें
इस—इस तरह का आचरण
करना पड़े, इस—इस
तरह का चरित्र
होना चाहिए, मैं इन क्षुद्र
बातो मे जरा भी
नहीं उलझा हूं।
मगर एक बात तो चाहिए
ही, परमात्मा
को पाने का नशा
तो चाहिए ही। उसे
नहीं छोड़ा जा सकता।
उसके पीछे सब चला
आएगा। जिसके भीतर
परमात्मा को पाने
की आकांक्षा जग
गई, उसके भीतर
से क्षुद्र बातें
अपने आप गिर जाएंगी।
क्योंकि जब कोई
हीरे लेने चलता
है तो पत्थरों
को नहीं सम्हालता,
छोड़ देता है।
और जब किसी के घर
में कोई बड़ा मेहमान
आने को होता है
तो वह घर की तैयारी
करता है, स्वच्छता
करता है, घर
को पवित्र करता
है, यह सब स्वाभाविक
है। इसकी मैं चिंता
ही नहीं लेता।
मैं तो कहता हूं—पहले
उस बड़े मेहमान
को बुलाओ।
तुम से दूसरे
लोग कहते रहे हैं
कि घर शुद्ध करो, मैं
कहता हूं पहले
मेहमान को निमंत्रित
करो;घर की शुद्धि
तो बड़ी गौण बात
है। वह तुम कर ही
लोगे, उसकी
चिंता मुझे लेने
की जरूरत नहीं।
जब तुम देखोगे
कि परमात्मा करीब
आने लगा, तुम
अचानक पाओगे तुम्हारे
चरित्र में रूपांतरण
शुरू हो गया। अब
तुम बहुत सी बातें
नहीं करते हो,
जो करते थे कल
तक। और तुमने उन्हें
रोका भी नहीं है,
मगर करना बंद
हो गया है, क्योंकि
अब प्रभु करीब
आ रहा है, उसके
योग्य बनना है,
रोज—रोज उसके
योग्य बनना है,
सिंहासन बनना
है उसका;तो
अब छुद्र बातें
नहीं की जा सकतीं।
यह बोध से ही रूपांतरण
हो जाता है। उसके
लिए कोई चेष्टा
अनुशासन, जबर्दस्ती
आग्रहपूर्वक,
व्रत—नियम इत्यादि
नहीं लेने होते।
व्रत—नियम
तो वही लेता है
जिसे उस मालिक
की कोई खबर नहीं।
उस मालिक की जिसे
खबर आई, जिसे उस
मालिक का दर्शन
होने लगा, उसकी
पगचाप सुनाई पड़ी
कि वह आने लगा करीब,
कि तुम भागे,
कि तुम सब साफ
कर डालोगे, तुम कूड़ा—कर्कट
फेंक दोगे घर से,
तुम सजा लोगे,
तुम धूप—दीप
जला लोगे, तुम
फूल ले आओगे, तुम बंदनवार
बना लोगे; यह
सब अपने से हो जाएगा;
मेहमान तो आए
तुम मेजबान बन
जाओगे।
लेकिन एक
शर्त मैं भी नहीं
छोड़ सकता हूं;वह
है मादकता की शर्त।
उसके बिना तो मेहमान
ही नहीं आएगा।
मदभरे होकर पत्र
लिखोगे तो ही उस
तक पहुंचेगा। तुम्हारी
पाती में तुम्हारा
नशा होगा तो ही
पाती उस तक पहुंचेगी,
नहीं तो नहीं
पहुंचेगी। मस्त
होकर जब तुम पुकारोगे,
तभी
तुम्हारी
प्रार्थना उस तक
पहुंचेगी। होशियारी
में की गई प्रार्थनाएं
बेकार चली जाती
हैं। समझदारी में
की गई प्रार्थनाएं
उस तक नहीं पहुंचतीं।
उनमें गणित होता
है,
प्रेम नहीं होता।
नशे में, तो
ही प्रार्थना उस
तक पहुंचती है।
तुम पूछते
हों—क्या मैं संन्यास
के योग्य हूं? बस,
जिसके भीतर भी
मादकता उतर रही
है, वही योग्य
है। पियक्कड़ों
के लिए संन्यास
है।
लायी फिर
इक लग्जिशे—मस्ताना
तेरे शहर में
फिर
बनेंगी मस्जिदें
मयखाना तेरे शहर
में
आज फिर टूटेंगी
तेरे घर की नाजुक
खिड़कियां
आज फिर देखा
गया दीवाना तेरे
शहर में
जुर्म है
तेरी गली से सर
झुका कर लौटना
कुफ्र है
पथराव से घबराना
तेरे शहर में
शहनामे
लिखे हैं खंडरात
की हर इक इ ट पर
हर जगह है
दफ्त इक अफसाना
तेरे शहर में
कुछ कनीजें
जो हरीमे—नाज में
हैं बारयाब
मांगती
हैं जानो—दिल नजराना
तेरे शहर में
जान और दिल
से कम नजराना वहां
नहीं चलेगा। मस्त
ही कोई हो, पागल
ही कोई हो, तो
ही जान और दिल का
नजराना दे।
लायी फिर
एक लग्जिशे—मस्ताना
तेरे शहर में
एक मादक
लड़खड़ाहट, एक मदभरी
चाल फिर तेरे शहर
में ले आई है।
लायी फिर
इक लग्जिशे—मस्ताना
तेरे शहर में
उसके शहर
में लोग लड़खड़ाते
हुए पहुंचते हैं।
जो सम्हलकर चलते
हैं वे तो वहा पहुंचते
नहीं—सम्हलने वाले
के लिए संसार है।
सम्हले हुए के
लिए संसार है।
लड़खड़ाने की कला
आनी चाहिए। लड़खड़ाकर
ही कोई उसके मंदिर
तक पहुंचता है।
लायी फिर
एक लग्जिशे—मस्ताना
तेरे शहर में
फिर बनेंगी
मस्जिदें मयखाना
तेरे शहर में
और जब भी
कोई एकाध ऐसा मस्ताना
पैदा होता है, तो
मस्जिदें मयखाना
बन जाती हैं। और
जब मस्जिदें मयखाना
होती हैं, तब
जिंदा होती हैं।
तब वहां विद्रोह
होता है, तब
वहां जीवन होता
है, तब वहां
परमात्मा की शराब
ढाली जाती है,
पी जाती है,
पिलाई जाती है।
और जब मस्जिदें
मयखाना नहीं होतीं,
तब मुर्दा होती
है, तब कब्रिस्तान
होते हैं वहां,
तब अतीत की याददाश्तें
होती हैं वहां,
पुरानी सुंदर
कहानियां होती
हैं वहां—पुराण
की कथाएं होती
हैं। वहां—लेकिन
वहां बुद्ध नहीं
होते, मोहम्मद
नहीं होते, कृष्ण नहीं होते,
क्राइस्ट नहीं
होते।
फिर बनेंगी
मस्जिदें मयखाना
तेरे शहर में
आज फिर टूटेंगी
तेरे घर की नाजुक
खिड़कियां
आज फिर देखा
गया दीवाना तेरे
शहर में
जुर्म है
तेरी गली से सर
झुका कर लौटना
कुफ्र है
पथराव से घबराना
तेरे शहर में
शाहनामे
लिक्से हैं खंडरात
की हर इ ट पर
हर जगह है
दफ्त इक अफसाना
तेरे शहर में
कुछ कनीजें
जो हरीमे—नाज में
हैं बारयाब
मांगती
हैं जानो—दिल नजराना
तेरे शहर में
संन्यास
का यही अर्थ है
कि तुम अपने को
समर्पित करने को
तैयार हो। अब कोई
पागल ही समर्पित
कर सकता है! होशियार
तो सोचेगा, लाख
बार सोचेगा, होशियार तो हिसाब
लगाएगा, लाभ—हानि
का विचार करेगा।
संन्यास होशियारों
के लिए नहीं हैं।
संन्यास उनके लिए
है जो मस्ताने
हैं। जुआरियों
के लिए है, व्यवसायियों
के लिए नहीं है।
तुम तैयार हो।
तुम पात्र हो।
और तुम कहते
हो कि ध्यान इत्यादि
में भी मन नहीं
लगता। तुम्हारा
नहीं लगेगा। तुम्हारे
लिए मार्ग भक्ति
होगी। तुम्हारे
लिए ध्यान मार्ग
नहीं होगा। तुम
नाचो, गाओ, तुम
उत्सव मनाओ। तुम
धन्यभागी हो,
क्योंकि तुम्हारे
मार्ग पर उत्सव
ही उत्सव होगा।
ध्यानी के मार्ग
पर सन्नाटा होता
है, भक्त के
मार्ग पर नृत्य
होता है, गीत
होते, गान होते।
ध्यानी के मार्ग
मरुस्थल जैसे हैं—सन्नाटा,
गहन सन्नाटा,
भक्त के मार्ग
वनों—उपवनों से
गुजरते हैं, झरनों के पास
से गुजरते हैं,
जंहा पक्षी गीत
गाते हैं और हंस
पंख फैलाते हैं।
तुम धन्यभागी हो!
तुम ध्यान की चिंता
न करो, तुम प्रेम
की चिंता करो।
प्रीति तुम्हारा
मार्ग है।
तुम्हारे
लिए जीवन को एक
महोत्सव बनाना
होगा—
प्यार का
जश्न नई तरह मनाना
होगा
गम किसी
दिल में सही गम
को मिटाना होगा
कांपते
ओठों पे पैमाने—वफा
क्या कहना
तुझको लाई
है कहां लग्जिशे—पा
क्या कहना
मेरे घर
में तेरे मुखड़े
की जिया, क्या कहना
आज हर घर
का दिया मुझको
जलाना होगा
रूह चेहरों
पे धुआ देख के शमाती
है
झेंपी—झेंपी
सी मेरे लब पे हंसी
आती है
तेरे मिलने
की खुशी दर्द बनी
जाती है
हमको हंसना
है तो औरों को हंसाना
होगा
सोई—सोई
हुई आंखों में
छलकते हुए जाम
खोई—खोई
हुई नजरों में
मुहब्बत का पयाम
लबे—शीरीं
पे मेरी तिश्नालबी
का इनाम
जाने इनाम
मिलेगा कि चुराना
होगा
मेरी गर्दन
पे तेरी संदली
बांहों का ये हार
अभी आंसू
थे इन आंखों में
अभी इतना खुमार
मैं न कहता
था मेरे घर में
भी आएगी बहार
शर्त इतनी
थी कि पहले तुझे
आना होगा
परमात्मा
के आने के पीछे—पीछे
ही बहार आती है।
उसके पहले कोई
बहार नहीं है।
उसके पहले सब पतझार
है। उसके पहले
तुम जीए कहां? उसके
पहले तुम जागे
कहां? उसके
पहले तो सब राख
ही राख है।
मैं न कहता
था मेरे घर में
भी आएगी बहार
शर्त इतनी
थी कि पहले तुझे
आना होगा
भक्त का
मार्ग है कि वह
प्रभु को पुकारे, सब
दाव लगा दे एक बात
पर कि प्रभु मिले
तो सब मिला और प्रभु
न मिला तो कुछ भी
न मिला। सब तरफ
से अपनी आकांक्षा
ओं को बटोर ले,
इकट्ठा कर ले,
सारी आकांक्षा ओं को एक प्रभु
में डुबो दे। जब
सारी आकांक्षा ए एक आकांक्षा
बन जाती
हैं, उसका नाम
अभीप्सा। संसारी
आदमी की बहुत आकांक्षा
एं होती हैं—धन
भी पाना, पद
भी पाना, प्रतिष्ठा
भी पानी, प्रेम
भी पाना, सम्मान
भी पाना, इस
संसार को भी सम्हालना
है और अगर कोई दूसरा
संसार है तो थोड़ा
दान इत्यादि करके
उसको भी सम्हालना
है, उसके पास
पच्चीस वासनाएं
होती हैं, सभी
को सम्हालने में
सभी खो जाता है।
एक को सम्हालने
में सब सम्हल जाता
है, सब को सम्हालने
में एक भी खो जाता
है।
भक्त की
एक ही आकांक्षा
होती है। वह सारी
आकांक्षा ओं को
एक ही आकांक्षा
में डुबा देता
है,
वह सारे तीरों
को एक ही निशाने
पर लगा देता है,
वह सारी किरणों
को इकट्ठा कर लेता
है और एक ही दाव
लगा देता है, भभककर उठती है
फिर आग। जैसे छोटे—छोटे
झरने खो जाएं हो
सकता है मरुस्थल
में, लेकिन
जब सारे छोटे—छोटे
झरने मिलकर गंगा
बन जाते हैं तो
फिर सागर तक पहुंचना
सुनिश्चित है।
छोटी—छोटी आकांक्षा ओं में बंटा
हुआ आदमी खो जाता
है, खंडित हो
जाता है। भक्ति
का अर्थ है, सारी आकांक्षा
एं एक में लग गइ,
एक परमात्मा
को पाना ही लक्ष्य तुम्हारे
लिए यही मार्ग
होगा। तुम्हारी
मस्ती इसकी खबर
देती है। तुम्हारा
खुमार इसकी खबर
देता है। भक्ति
और भजन, गीत
और गायन, वादन
और नर्तन तुम्हारा
मार्ग होगा।
प्यार
का जश्न नई तरह
मनाना होगा
गम किसी
दिल में सही गम
को मिटाना होगा
तुम गाओ भी और जहां
कोई रोता हो, उसको
भी गाने में लगाओ।
तुम हंसों और जहां
कोई रोता हो, उसको भी हसाओ।
तुम अगर रोओ भी
तो तुम्हारे आंसू
हंसने चाहिए। तुम
अगर रोओ भी तो तुम्हारे
रोने में गीत और
प्रार्थना होनी
चाहिए। तुम अपने
सारे जीवन को एक
उत्सव के रंग में
रंग लो। तुम्हारे
भीतर संन्यास घटित
ही हो रहा है, सिर्फ उसकी बाह्य
घोषणा करने की
जरूरत है।
उसकी
भी हिम्मत जुटाओ।
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