दिनांक 8
सितम्बर, 1972;
द्वितीय
पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर
हाल, बम्बई।
ब्रह्मचर्य—सूत्र
: 2
सद्दे
रूवे य गंधे य, रसे फासे
तहेव य।
पंचविहे
कामगुणे, निच्चसो
परिवज्जए।।
कामाणुगिद्धिप्पभवं
खु दुक्खं,
सब्बस्स
लोगस्स
सदेवगस्स।
जे
काइयं माणसिय
च किचि,
तस्सऽन्तगं
गच्छइ
वीयरागो।।
देवदाणव
गंधब्बा
जक्सरक्ससकिन्नरा।
बंभयारि
नमंसन्ति
टुकरं जे
करेलि तं।।
एस
धम्मे धुवे
निच्चे, सासए
जिणदेसिए।
सिद्धासिज्झन्ति
चाणेण, सिाइस्कृस्सन्तितहाऽवरे।।
शब्द, रूप गंध,
रस और
स्पर्श इन
पांच प्रकार
के काम गुणों
को भिक्षु सदा
के लिए त्याग
दें।
देवलोक
सहित समस्त
संसार के
शारीरिक तथा
मानसिक सभी
प्रकार के दुख
का मूल काम—भोगों
की वासना ही
है। जो साधक
इस संबंध में
वीतराग हो
जाता है, वह
शारीरिक तथा
मानसिक सभी प्रकार
के दुखों से
छूट जाता है।
जो
मनुष्य इस
प्रकार
दुष्कर
ब्रह्मचर्य
का पालन करता
है, उसे,
देव, दानव,
गंधर्व, यक्ष,
राक्षस और
किन्नर आदि
सभी नमस्कार
करते हैं।
यह
ब्रह्मचर्य
धर्म ध्रुव है,नित्य है,
शाश्वत है
और
जिन्नोपदिष्ट
है। इसके
द्वारा
पूर्वकाल में
कितने ही जीव
सिद्ध हो गये
हैं, वर्तमान
में हो रहे
हैं, और
भविष्य में
होंगे।
पहले एक प्रश्न।
एक
मित्र ने पूछा
है, यदि
कामवासना
जैविक, बायोलाजिकल
है, केवल
जैविक है, तब
तो तत्र की
पद्धति ही ठीक
होगी। लेकिन
यदि मात्र
आदतन, हैबिचुअल
है, तब
महावीर की
विधि से श्रेष्ठ
और कुछ नहीं
हो सकता। क्या
है—जैविक या
आदतन?
दोनों
हैं और इसीलिए
जटिलता है।
ऊर्जा तो
जैविक है, बायोलाजिकल
है, लेकिन
उसकी
अभिव्यक्ति
बड़ी मात्रा
में आदत पर
निर्भर होती
है।
पशु और
आदमी में जो
बड़े से बड़ा
अंतर है, वह यही है, कि पशु की
आदत भी
बायोलाजिकल है,
उसकी आदत भी
जैविक है।
इसलिए पशुओं
में सेक्यूअल
पर्वर्सन, कोई
काम
विकृतियां
दिखायी नहीं
पड़ती। आदमी के
साथ सभी कुछ
स्वतंत्र हो
जाता है। आदमी
के साथ
कामवासना की
जैविक—ऊर्जा
भी स्वतंत्र
अभिव्यक्तियां
लेनी शुरू कर
देती है।
जैसे, पशुओं
में समलिंगी—यौन,
होमोसैक्यूअलिटी
नहीं पायी
जाती—उन पशुओं
को छोड़कर, जो
अजायबघरों
में रहते हैं
या आदमियों के
पास रहते हैं।
पशु यह सोच भी
नहीं सकते
अपनी निसर्ग
अवस्था में कि
पुरुष, पुरुष
के प्रति
कामातुर हो
सकता है, सी,
सी के प्रति
कामातुर हो
सकती है। आदमी
इंस्टिंक्ट
से, इसकी
जो निसर्ग के
द्वारा दी गई
आदतें हैं, उनसे ऊपर उठ
जाता है। वह
बदलाहट कर
सकता है। उसकी
जो ऊर्जा है, वह नये
मार्गों पर बह
सकती है। तो
एक पुरुष
पुरुष के
प्रेम में पड़
सकता है, एक
सी सी के
प्रेम में पड़
सकती है। और
यह मात्रा
बढ़ती ही जाती
है।
किन्से
ने वर्षों के अध्ययन
के बाद
अमेरिका में
जो रिपोर्ट दी
है वह यह है कि
कम से कम साठ
प्रतिशत लोग
एकाध बार तो
जरूर ही
समलिंगी यौन
का व्यवहार
करते हैं। और
करीब—करीब
पच्चीस
प्रतिशत लोग
जीवन भर
समलिंगी यौन
में उत्सुक
होते हैं। यह
बहुत बड़ी घटना
है।
सी का
पुरुष के
प्रति आकर्षण, पुरुष का
सी के प्रति
आकर्षण
स्वाभाविक है,
लेकिन
पुरुष का
पुरुष के
प्रति, सी
का सी के
प्रति
अस्वाभाविक
है। पर
अस्वाभाविक, पशुओं को
सोचें तो, आदमी
के लिए कुछ भी
अस्वाभाविक
नहीं है। आदमी
जड़ आदतों से
मुक्त हो गया
है, इसलिए
ब्रह्मचर्य
पशुओं के लिए
अस्वाभाविक है,
आदमी के लिए
नहीं। आदमी
चाहे तो
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
सकता है। कोई
पशु
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
नहीं हो सकता।
क्योंकि पशु
की कोई
स्वतंत्रता
नहीं है अपनी ऊर्जा
को रूपांतरित
करने को, पर
आदमी
स्वतंत्र है।
तंत्र
या योग दोनों
ही मनुष्य की
काम—ऊर्जा को
रूपांतरित करना
चाहते हैं। यह
रूपांतरण दो
तरह से हो
सकता है, या तो काम—ऊर्जा
के गहन अनुभव
में जाया जाये—होशपूर्वक,
या फिर सारी
आदत बदल दी
जाये, ताकि
काम ऊर्जा नयी
आदत के मार्ग
को पकड़कर
ऊर्ध्वगामी
हो जाये।
रूपांतरण सदा
ही अति से
होता है
एक्सट्रीम से
होता है।
अगर आप
एक पहाड़ से
कूदना चाहते
है तो आपको
किनारे से ही
कूदना पड़ेगा, आप पहाड़
के मध्य से
नहीं कूद सकते।
कूदने का अर्थ
ही होता है कि
जहां खाई निकट
है वहां से आप
कूद सकते हैं।
जीवन
में जो भी
छलांग होती है, वह अति से
होती है। मध्य
से कोई छलांग
नहीं हो सकती।
अति, छोर
से आदमी कूदता
है।
काम—ऊर्जा
की दो अतियां
हैं—या तो काम
ऊर्जा में
इतने समग्र
भाव से, पूरी तरह
उतर जाये
व्यक्ति कि
छोर पर पहुंच
जाये काम के
अनुभव के, तो
वहां से छलांग
हो सकती है।
और या फिर
इतना
अस्पर्शित
रहे, बाहर
रहे, काम
के अनुभव में
प्रवेश ही न
करे, द्वार
पर ही खड़ा रहे
तो वहां से भी
छलांग हो सकती
है। मध्य से
कोई छलांग
नहीं है।
सिर्फ बुद्ध
ने कहां है कि
मध्य मार्ग है।
महावीर मध्य
को मार्ग नहीं
कहते, तंत्र
भी मध्य का
मार्ग नहीं
कहता। बुद्ध
ने कहां है कि 'मध्य मार्ग '
है। लेकिन
अगर बुद्ध की
बात को भी हम
ठीक से समझें
तो वह मध्य को
इतनी अति तक
ले जाते हैं
कि मध्य मध्य
नहीं रह जाता,
अति हो जाता,
वे कहते हैं,
इंचभर
बायें भी नहीं,
इंचभर
दायें भी नहीं,
बिलकुल
मध्य बिलकुल
मध्य का मतलब
है, नयी
अति। अगर कोई
बिलकुल मध्य
में रहने की
कोशिश करे तो
वह नये छोर को
उपलब्ध हो
जाता है।
मध्य
में जैसा मैने
कल कहां, अगर पानी को
हम शून्य
डिग्री के
नीचे ले जायें
तो बर्फ बन
जाये छलांग हो
गयी। अगर हम
उसे भाप बनाना
चाहें तो सौ
डिग्री गर्मी
तक ले जायें
तो छलांग हो
गयी। लेकिन
कुनकुना पानी
कोई छलांग
नहीं ले सकता।
न इस तरफ, न
उस तरफ, वह
मध्य में है।
अधिक
लोग कुनकुने
पानी की तरह
हैं, ल्यूक
वार्म। न वे
बर्फ बन सकते
हैं, न वे
भाप बन सकते
हैं। वे छोर
पर नहीं हैं
कहीं से जहां
से छलांग हो सके।
प्रत्येक
व्यक्ति को
छोर पर जाना
पड़ेगा, एक
अति पर जाना
पड़ेगा।
ये दो
अतियां है, योग और
तंत्र की। योग
अभिव्यक्ति
को बदलता है, तंत्र
अनुभूति को
बदलता है।
दोनों तरफ से
यात्रा हो
सकती
इन
मित्र ने कहां
है, अगर
तंत्र थोड़े ही
लोगों के लिए
है तो आप उसकी चर्चा
न ही करते तो
अच्छा था। वह
खतरनाक हो
सकता
जो चीज
खतरनाक हो, उसकी
चर्चा ठीक से
कर लेनी चाहिए।
क्योंकि खतरे
से बचने का एक
ही उपाय है कि
हम उसे जानते
हों। दूसरा
कोई उपाय नहीं
है। लेकिन जब
मैं कहता हूं
तंत्र बहुत
थोड़े लोगों के
लिए है, तो
आप यह मत समझ
लेना कि योग
बहुत ज्यादा
लोगों के लिए
है। बहुत थोड़े
लोग ही छलांग
लेते हैं, चाहे
योग से, चाहे
तंत्र से, अधिक
लोग तो
कुनकुने ही
रहते हैं जीवन
भर, न कभी
उबलते, न
कभी के होते।
यहां जो
मिडियाकर, यह
जो मध्य में
रहने वाला बड़ा
वर्ग है, यह
कोई छलांग
नहीं लेता, और यह छलांग
ले भी नहीं
सकता। दोनों
छोर से छलांग
होती है। छोर
पर हमेशा थोड़े
से लोग पहुंच
पाते है। छोर
पर पहुंचने का
अर्थ है, कुछ
त्यागना पड़ता
है।
ध्यान
रहे, किसी
भी छोर पर
जाना हो तो
कुछ त्यागना
पड़ता है। अगर
तंत्र की तरफ
जाना हो, तो
भी बहुत कुछ
त्यागना पड़ता
है। अगर योग
की तरफ जाना
हो, तो भी
बहुत कुछ
त्यागना पड़ता
है। अलग—अलग
चीजें
त्यागनी पड़ती
हैं, लेकिन
त्यागना तो
पड़ता ही है।
छोर पर
पहुंचने का
मतलब ही यह है
कि मध्य में रहने
की जो सुविधा
है, वह
त्यागनी पड़ती
है। मध्य में
कभी कोई
खतरा
नहीं है। वह
जो सुरक्षा है, वह
त्यागनी पड़ती
है।
जैसे—जैसे
आदमी छोर पर
जाता है, वैसे—वैसे
खतरे के करीब
आता है। जहां
परिवर्तन हो
सकता है, वहां
खतरा भी होता
है। जहां
विस्फोट होगा,
जहां
क्रांति होगी,
वहां हम
खतरे के करीब
पहुंच रहे हैं।
इसलिए अधिक
लोग बीच में, भीड़ के बीच
में जीते है।
खतरे से
सुरक्षा रहती
है। दोनों ही
खतरनाक हैं।
लेकिन जिंदगी
केवल वे ही
लोग अनुभव कर
पाते हैं, जो
असुरक्षा में
उतरने की
हिम्मत रखते
हैं।
तंत्र
भी साहस है, योग भी।
कोई महावीर भी
बहुत लोग नहीं
हो पाते। वह
भी आसान नहीं
है। आसान कुछ
भी नहीं है।
आसान है सिर्फ
क्रमश: मरते
जाना, जीना
तो कठिन है।
कठिनाई
असुरक्षा में
उतरने की है, अज्ञात में
उतरने की है।
कुछ
लोग तंत्र से
पहुंच सकते
हैं, कुछ
लोग योग से
पहुंच सकते
हैं। यह
व्यक्ति को
खोज करनी पड़ती
है कि वह किस
मार्ग से
पहुंच सकता है।
लेकिन कुछ
सूचनाएं दी जा
सकती हैं—एक, अपने अचेतन
को थोड़ा
टटोलना चाहिए।
अगर अचेतन ऐसा
कहता है कि
तंत्र तो बड़ा
मजेदार होगा,
कि इसमें तो
कुछ छोड़ना भी
नहीं, भोग
ही भोग है।
वही रास्ता
ठीक है, तो
समझना कि यह
रास्ता आपके
लिए ठीक नहीं
है। यह आप
अपने को धोखा
दे रहे हैं।
हर
आदमी अपने
अचेतन वृत्ति
को थोड़े से ही
निरीक्षण से
जांच सकता है।
बड़ी जटिल बात
नहीं है।
भीतरी रस आपको
पता ही रहता
है कि आप
किसलिए कर रहे
है। अपने को
धोखा देना
बहुत कठिन है, असंभव है।
थोड़ा—सा होश
रखें तो आपको
जाहिर रहेगा
कि आप यह किसलिए
कर रहे है।
अगर आपको रस
मालूम पड़ रहा
हो तंत्र में
तो तंत्र आपके
लिए मार्ग
नहीं है। अगर
आपको योग में
रस मालूम पड़
रहा हो तो योग
भी आपके लिए
मार्ग नहीं है।
कुछ
लोगों को योग
में रस मालूम
पड़ता है।
आत्मपीड्क, खुद को
सताने वाले
लोग, मैसोचिस्ट
जिनको
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं जो अपने
को सताने में
मजा लेते है; ऐसे लोगों
को योग में
बड़ा रस मालूम
पड़ता है।
उपवास में, तप में, धूप
में खड़ा होने
में, नग्न
होने में
उन्हें बड़ा रस
मालूम पड़ता है।
किसी भी तरह
उन्हें अपने
को सताने में
रस मालूम पड़ता
है।
अगर
आपको अपने
आपको सताने
में रस मालूम
पड़ रहा हो, तो आप
समझना, योग
आपके लिए
मार्ग नहीं है।
योग आपके लिए
बीमारी है।
अगर आपको भोग
में रस मालूम
पड़ रहा हो, इसलिए
तंत्र के
बहाने आप भोग
में उतर रहे
हों, तो
तंत्र आपके
लिए खतरनाक है,
बीमारी है।
एक बात
ठीक से समझ
लेनी चाहिए
चित्त की
अस्वस्थता को
किसी भी चीज
से सहारा देना
खतरनाक है।
फिर रस न पड़
रहा हो, तो क्या
उपाय है? कैसे
हम जानें कि
इसमें हमें रस
नहीं पड़ रहा
है? एक बात
ध्यान में
रखनी जरूरी है—जब
भी हम किसी
मार्ग से, किसी
अंत की तरफ जा
रहे हों, तो
अंत में रस
होना चाहिए, मार्ग में
रस नहीं होना
चाहिए।
आप एक
मंजिल पर जा
रहे हैं एक
रास्ते से, तो आपको
मंजिल में रस
होना चाहिए, रास्ते में
रस नहीं होना
चाहिए। अगर
आपको रास्ते
में रस है, इसीलिए
मंजिल को आपने
चुन लिया है
कि रास्ता सुखद
है, सुंदर
छाया है, वृक्ष
हैं, फूल
है, इसलिए
इस मंजिल को
चुन लें तो
खतरा है।
रास्ता कभी मत
चुनें, मंजिल
चुनें और
मंजिल के
अनुकूल
रास्ता चुनें,
और रास्ते
पर बहुत रस न
लें। रास्ते
में रस जो
लेगा वह अटक
जायेगा। हम
सारे लोग
रास्ते में रस
लेते हैं, हम
रास्ता ही ऐसा
चुनते हैं।
फ्रायड़
ने कहां है कि
आदमी इतना
कुशल है कि वह
सब तरह के
रेशनेलाइजेशन
कर लेता है, सब तरह की
तर्कबद्ध
व्यवस्था कर
लेता है। वह
जो चुनना चाहता
है, वही
चुनता है और
चारों तरफ
तर्क का आवरण
खड़ा कर लेता
है, और
अपने को समझा
लेता है कि यह
मैंने किसी
अंतवृत्ति के
कारण नहीं, किसी वासना
के कारण नहीं,
बड़े
विवेकपूर्वक
चुना है। यह
धोखा बहुत
आसान है।
लेकिन अगर कोई
सजग हो, तो
इसे तोड़ना
कठिन नहीं है।
हम.. हम हमेशा
ही जान सकते
है, देख
सकते हैं कि
हमारे भीतर दो
तल तो नहीं
हैं। दो तल का
मतलब यह होता
है कि ऊपर आप
कुछ समझा रहे
है अपने को, भीतर से बात
कुछ और है। एक
आदमी उपवास कर
रहा है, ऊपर
से समझा रहा
है कि यह
साधना है।
लेकिन उसे
जांचना चाहिए,
कहीं उसे
खुद को भूखा
मारने में
किसी तरह का
गर्हित रस तो
नहीं आ रहा है!
ऐसे
लोग है जो खुद
को सताने में
रस लेते है।
और जब तक वे
अपने को न
सताये उन्हें
किसी तरह का
आनंद नहीं आता।
खुद को सताने
में उन्हें
ऐसे ही मजा
आने लगता है, जैसे कुछ
लोगों को
दूसरों को
सताने में मजा
आता है। अब
खुद के साथ एक
फासला कर लेते
है।
मेसोच
एक बड़ा लेखक
हुआ। वह जब तक
अपने को कोड़े
न मार ले रोज, कांटे न
चुभा ले, तब
तक उसको रस ही
न आये। इसलिए
उसी के नाम पर
मैसोचिज्य, आत्मपीड़न
सिद्धांत का
निर्माण हो
गया।
कोई
आदमी कांटे
बिछाकर उस पर
लेटा हुआ है, वह अपने
को कितना ही
कहे कि हम कोई
साधना कर रहे
है, लेकिन
काटो पर लेटने
में यह उसे
जांच करनी चाहिए
कि कहीं कुल
रस इतना ही तो
नहीं है कि
मैं अपने को
सता सकता हूं।
जब आप
अपने को सताते
है तो आपको
लगता है कि आप
अपने मालिक हो
गये। जब आप
अपने को सताते
हैं तो आपको
लगता है, कि अब यह
शरीर आपके ऊपर
मालिक नहीं
रहा। और अगर
इसे सताने में
भीतरी सुख
मिलने लगे, जैसे कि कोई
खाज को
खुजलाता है और
सुख मिलता है,
ऐसा ही
सताने में सुख
मिलने लगे, तो समझना कि
आप
पैथोलाजिकल, रुग्ण
दिशाओं में
यात्रा कर रहे
हैं।
यही
तंत्र के बाबत
भी सच है।
आदमी कह सकता
है कि मैं तो
सिर्फ इसलिए
कामवासना में
उतर रहा हूं
ताकि
कामवासना से
मुक्त हो सकूं।
लेकिन यह
दूसरों को
धोखा देने में
कोई अड़चन नहीं
है, खुद
तो जानता ही
रहेगा कि मैं
सच में
कामवासना से
मुक्त होने के
लिए उतर रहा
हूं या यह
सिर्फ एक
बहाना है, एक
एक्सक्यूज है,
और मैं
उतरना चाहता
हूं कामवासना
में। यह खुद
के सामने
निरीक्षण सदा
बना रहे, तो
आज नहीं कल, थोड़ी बहुत
भूल—चूक करके
आदमी उस
रास्ते को पा
जाता है, जो
मंजिल तक
पहुंचाने
वाला है।
कौन—सा
रास्ता आपके
लिए मंजिल तक
पहुंचाने
वाला है, आपके
अतिरिक्त
निर्णय करना
दूसरे को कठिन
होगा। अड़चन
होगी। लेकिन
आप अगर अपने
को धोखा ही
देते चले
जायें तो आपको
भी बहुत अड़चन
होगी। लेकिन
जो अपने को
धोखा देने में
लगा है, उसका
धर्म से कोई
संबंध ही नहीं
है। अभी साधना
से उसका कोई
जोड़ नहीं बैठा
है।
आदत भी
तोडी जा सकती
है, अनुभूति
भी बदली जा
सकती है—ये दो
छोर है— आदत, अभिव्यक्ति
मार्ग; अनुभूति,
भीतर बहने
वाली ऊर्जा।
ऐसा
समझें कि यह
बिजली का बल्व
जल रहा है।
यहां अंधेरा
करना हो तो दो
उपाय हैं—या
तो बिजली बल्व
तक न आने दी
जाये, बटन
बंद कर दी
जाये, तो
अंधेरा हो
जाये, या
बटन चलती भी
रहे तो बल्व
तोड़ दिया जाये,
तो भी
अंधेरा हो
जाये। तंत्र
का प्रयोग, वह जो भीतर
ऊर्जा बह रही
है, उसको
बदलने का है।
महावीर का
प्रयोग वह जो
बाहर
अभिव्यक्ति
का माध्यम बन
गया, उसे
तोड़ देने का
है। दोनों से
पहुंचा जा
सकता है।
लेकिन जब भी
एक मार्ग की
कोई बात करेगा,
तो दूसरे
मार्ग के विपरीत
उसे बोलना
पड़ता है, अन्यथा
समझना बिलकुल
कठिन और असंभव
हो जाये। अगर
तंत्र पढ़ेंगे
तो लगेगा कि
महावीर जैसा
व्यक्ति कभी
नहीं पहुंच
सकता। अगर
महावीर को
पढ़ेंगे तो
लगेगा कि
तांत्रिक कभी
नहीं पहुंचे
होंगे। जो जिस
मार्ग की बात
कर रहा है वह उस
मार्ग के लिए पूरा
स्पष्ट कर रहा
है। और सभी
मार्ग अपने आप
में पूरे है।
उनसे पहुंचा
जा सकता है।
लेकिन उससे यह
सिद्ध नहीं
होता कि
विपरीत से नहीं
पहुंचा जा
सकता है।
महावीर का यह
सूत्र हम
समझें।
'शब्द,
रूप, गंध,
रस और
स्पर्श इन
पांच प्रकार
के काम गुणों
को भिक्षु सदा
के लिए त्याग
दे।’
तंत्र
कहता है, समस्त
इंद्रियों का
पूरा अनुभव।
महावीर कहते
है, समस्त
इंद्रियों का
अवरोध, समस्त
इंद्रियों का
निषेध।
कामवासना
सिर्फ
कामवासना ही
नहीं है, और
कामेन्द्रिय
सिर्फ
कामेन्द्रिय
ही नहीं है, सभी इंद्रिय
कामेन्द्रिय
हैं।
जब आप
किसी को हाथ
से छूते है
किसी के शरीर
को, तभी
छूते है, ऐसा
नहीं। जब आप आंख
से छूते है, तब भी छूते
हैं। आंख भी
छूती है किसी
के शरीर को, हाथ भी छूता
है। और जब
किसी की आवाज
आपको
प्रीतिकर और
मधुर लगती है,
उत्तेजक
लगती है, तब
कान भी छूता
है, और जब
पास से गुजर
जाते किसी के
शरीर की गंध
आपको आंदोलित
कर जाती है, तो नाक भी
छूती है।
हाथ
बहुत स्कूल
रूप से छूते
है, आंख
बहुत सूक्ष्म
रूप से छूती
है; लेकिन
स्पर्श सभी
इंद्रिय करती
हैं।
जननेन्द्रिय
गहनतम स्पर्श
करती है, लेकिन
सभी स्पर्श है।
तो
महावीर कहते है, अगर
वासना से पूरी
तरह छूटना है,
तो स्पर्श
की जो कामना
है अनेक—अनेक
रूपों में, वह सभी
त्याग देनी
चाहिए। आंख से
भी भोग न हो, कान से भी
भोग न हो, स्वाद
से भी भोग न हो।
भोग की वृत्ति
इंद्रियों के
द्वार से बाहर
यात्रा न करे।
जब आप किसी को
देखना चाहते
हैं, कामवासना
शुरू हो गयी।
किसी की आवाज
सुनना चाहते
हैं, कामवासना
शुरू हो गयी।
कामवासना यौन
ही नहीं है, यह खयाल में
ले लें।
और
जिसने यह समझा
हो कि यौन ही
कामवासना है, वह गलती
में पड़ेगा।
यौन तो उसकी
चरम निष्पति
है, लेकिन
यात्रा का
प्रारंभ तो
दूसरी
इंद्रियों से शुरू
हो जाता है।
इसका अर्थ यह
हुआ कि आंख जब
देखना चाहे, तब भीतर से
ध्यान को आंख
से हटा लेना। आंख
को देखने देना,
लेकिन भीतर
जो रस ध्यान
लेता है देखने
का, उसे
हटा लेना, यह..
यह संभव है।
इसकी पूरी
साधना
आप एक
फूल को देख
रहे है, फूल सुंदर
है। अगर
महावीर को ठीक
से समझना हो, आप बड़े
हैरान होंगे
जान कर कि
जहां—जहां
सौदर्य
दिखायी पड़ता
है, वहां—वहां
यौन उपस्थित
होता है।
फूल है
क्या? वृक्ष
का यौन है, वृक्ष
का सेक्स है।
कोयल गीत गा
रही है, कान
को मधुर लगता
है, लेकिन
कोयल का गीत
है क्या? कोयल
का यौन है।
मोर नाच रहा
है, उसके
पंख आकाश में
छाता बनकर फैल
गये है, इंद्रधनुष
बना दिया है, सुंदर लगता
है। लेकिन मोर
के पंख है
क्या? यौन
है।
जहां—जहां
आपने सौंदर्य
देखा है, वहां—वहां
यौन छिपा है।
इसलिए जब आप
किसी सी के
चेहरे की
प्रशंसा करते
हैं, तो
शायद मन में
थोड़ा संकोच भी
होता हो कि
करें, न
करें। लेकिन
जब आप कहते है,
कितना
सुंदर मोर है,
तब आपको जरा
भी खयाल नहीं
होता कि भेद
कुछ भी नहीं
है। वह जो मोर
पंख फैला कर
नाच रहा है वह
यौन आकर्षण का
निमंत्रण है।
वह जो कोयल
कुहुक रही है,
वह साथी की
तलाश है, वह
जो फूल सुगंध
फेंक रहा है
और खिल गया है
आकाश में, वह
निमंत्रण है
कि उस फूल में
छिपे हुए
वीर्य—क्या
हैं, मधुमक्खियां
आयें, तितलियां
आयें, उन
वीर्य—कणों को
ले जायें और
छितरा दें
दूसरे फूलों
पर।
अगर हम
चारों तरफ जगत
में गहरी खोज
करें, तो
जहां—जहां
हमें सौंदर्य
का अनुभव होता
है वहां—वहां
छिपी हुई
कामवासना
होगी। सुगंध
अच्छी लगती है,
लेकिन आपको
अंदाजा नहीं
होगा, बायोलाजिस्ट
कहते हैं कि
सुगंध का जो
बोध है वह यौन
से जुड़ा हुआ
है।
पशु
गंध से ही
आकर्षित होते
हैं, इसलिए
पशु एक मादा..
.नर—मादा एक
दूसरे की योनि
गंध लेते हुए
दिखायी पड़ेंगे।
वे गंध से
आकर्षित होते
हैं। गंध ही
निर्णायक है।
जब मादाएं
पशुओं की
कामातुर होती
हैं तो उनकी
योनि से विशेष
गंध फैलनी
शुरू हो जाती
है। वही गंध
निमंत्रण है,
वह गंध दूर
तक फैल जाती
है। और नर को
आकर्षित करती
है। जैसे ही
वह गंध मिलती
है, नर
आकर्षित हो
जाता है।
आदमी
भी गंध का
बहुत उपयोग
करता है।
स्त्रियां
जानती हैं कि
गंध कीमती है
और गंध आकर्षण
निर्मित कर
लेती है। गंध
का आदमी दो
तरह से उपयोग
करता है—एक तो
आकर्षित करने
को, एक
शरीर की गंध
को छिपाने के
लिए। क्योंकि
शरीर की गंध
भी यौन
निमंत्रण है।
उसे छिपाना
जरूरी है।
संभोग
के क्षण में स्त्री—पुरुषों
के शरीर की
गंध बदल जाती
है, क्रोध
के क्षण में स्त्री—पुरुषों
के शरीर की
गंध बदल जाती
है। प्रेम के
क्षण में स्त्री—पुरुषों
के शरीर की
गंध बदल जाती
है। आपके शरीर
में एक—सी गंध
नहीं रहती
चौबीस घंटे।
आपका मन बदलता
है, शरीर
की गंध बदल
जाती है।
गंध है, स्वाद है,
रस है, ध्वनि
है, वे सभी
के सब
कामवासना से
जुड़े हुए हैं।
अगर हम ऐसा
समझें तो कुछ
कठिनाई न होगी
कि जननेंद्रिय
केंद्रीय
इंद्रिय है और
सारी इंद्रियां
उसके उपांग है।
उसकी शाखाएं
हैं। जैसे
जननेंद्रिय
ने आंख को
निर्मित किया है
कि खोजो मेरे
लिए रूप। जैसे
जननेंद्रिय
ने कान को
निर्मित किया
है कि खोजो
मेरे लिए
ध्वनि।
जननेंद्रिय
ने सारी
इंद्रियों को
निर्मित किया
है, वे
उसके द्वार है।
जहां से वह
जगत में
प्रवेश करती
है। जहां से
वह जगत में
तलाश करती है,
जहां से वह
जगत में खोजती
कामवासना
इंद्रियों के
द्वार से जगत
में फैलती है, हर
इंद्रिय काम—इंद्रिय
है। यह महावीर
की बात ठीक से
खयाल में ले
लेनी जरूरी है।
इसलिए महावीर
कहते है, भिक्षु
वह जो साधना
में लीन हुआ
है—साधक, वह
समस्त
इंद्रियों से
अपने ध्यान को
हटा ले। अगर
समस्त
इंद्रियों से ध्यान
को हटा लिया
जाये तो काम—इंद्रियों
का नब्बे
प्रतिशत
द्वार
अवरुद्ध हो
जाता है, वह
बाहर नहीं बह
सकती। आप थोड़ा
सोचें। आपकी आंखें
बंद हों, तो
सौंदर्य का
कितना अर्थ
समाप्त हो
जायेगा!
अंधा
आदमी भी
सौंदर्य का
अनुभव करता है, लेकिन
हाथ से छूकर
ही कर पाता है।
लेकिन हाथ से
जो छुएगा, उसके
सौंदर्य का
हिसाब बदल
जायेगा। आंख
से देखे हुए
सौंदर्य की
बात और है।
आपकी सारी '' बंद हो गयी
हों, तो
आपके लिए
सौंदर्य का
क्या अर्थ
होगा? कोई
भी अर्थ नहीं
रह जायेगा।
सारा अर्थ
इंद्रियों का
अनुदान है।
महावीर
कहते है, अपने को
सिकोड़ लेना, केंद्र पर
रोक लेना, किसी
इंद्रिय से बाहर
नहीं जाना।
इंद्रियां
जबर्दस्ती
किसी को बाहर
नहीं ले जातीं।
हम जाना चाहते
है, इसलिए
जाते हैं। जब
हम नहीं जाना
चाहते, इंद्रियां
व्यर्थ हो
जाती है।
आपके
घर में आग लगी
है और एक
सुंदर सी
सामने से निकलती
है, बिलकुल
दिखायी नहीं
पड़ती। आंख
देखेगी, आंख
का काम देखना
है, लेकिन
आप आंख के
पीछे मौजूद
नहीं है, अभी,
ध्यान मकान
में लगी आग की
तरफ चला गया
है। कोई
दिखायी नहीं
पड़ेगा। कोई
सुंदर गीत गा
रहा हो, सुनाई
नहीं पड़ेगा।
कोई आकर चारों
तरफ गुलाब की
सुगंध किक दे,
नाक को पता
नहीं चलेगा।
क्या हुआ है? सारा ध्यान
आग की तरफ
आकर्षित हो
गया। अभी आग
इतनी
महत्वपूर्ण
हो गयी है कि
ध्यान बंट
नहीं सकता, और
इंद्रियों की
तरफ ध्यान
नहीं जा सकता।
महावीर
कहते है, जिसे
ब्रह्मचर्य
इतना
महत्वपूर्ण
हो गया हो कि
वही उसे
मुक्ति का
मार्ग है, ऐसी
प्रतीति हो
रही हो, उसे
कठिन नहीं होगा
कि वह अपने
ध्यान को
इंद्रियों से
अलग कर ले।
हमें कठिन
होगा, बहुत
कठिन होगा, क्योंकि
इंद्रियां ही
हमारा जीवन है।
इंद्रियों के
अतिरिक्त
हमारा कोई
अनुभव नहीं है।
जो हमने जाना
है, जो
हमने जीया है
वह इंद्रियों
से ही जाना और
जीया है। और
बड़ा अदभुत है
इंद्रियों का
लोभ। क्योंकि
इंद्रियों से
जो हम जानते
हैं, वह स्वप्नवत
है।
फूल को
आपने देखा है? लेकिन
फूल तो बहुत
दूर है, आप
देखते क्या
हैं? वैज्ञानिक
से पूछें, या
महावीर से
पूछें, फूल
में आप देखते
क्या हैं? फूल
को तो देख
नहीं सकता कोई
आदमी, क्योंकि
फूल कभी आंख
के भीतर जाता
नहीं। आप
देखते क्या
हैं? फूल
से सूरज की
किरणें आती है
लौटकर। वे
किरणें आपकी आंख
पर पड़ती हैं।
वे किरणें भी
भीतर नहीं जा
सकतीं, सिर्फ
आंख की सतह को
स्पर्श करती
है। आंख की
सतह के भीतर
जो रासायनिक
द्रव्य हैं वे
उन किरणों से
संचलित हो
जाते हैं। वे
रासायनिक
द्रव्य आपकी आंखों
के पीछे छिपे
हुए तंतुओं का
जो जाल है, उसको
कंपित करते
हैं। वे कंपन
आप तक पहुंचते
है। उन्हीं
कंपनों को
आपने देखा है।
इसलिए
तो एक बड़ी
अदभुत घटना
घटती है। एक नग्न
सी को आप
देखें तो जैसे
तंतु कंपते
हैं, वैसे
एक नग्न सी
का चित्र
देखकर भी
कंपते हैं।
इसलिए तो
पोरनोग्राफी,
अश्लील
साहित्य का
इतना मूल्य है।
क्योंकि तंतु
तो उसी तरह
हिलने लगते
हैं, मजा
तो उसी तरह
आने लगता है।
बल्कि सच तो
यह है कि नग्न
सी को देखकर
उतना मजा कभी
नहीं आता, जितना
नग्न सी के
चित्र को
देखकर आता है।
उसके कई कारण
हैं।
सी की
वास्तविक
मौजूदगी आपके
ध्यान में
बाधा बनती है।
चित्र में कोई
मौजूद नहीं
होता, आप
अकेले होते
हैं, ध्यानस्थ
हो जाते हैं, और भीतर
आपको रस आने
लगता है। उतना
ही रस आने
लगता है, शायद
ज्यादा भी आने
लगता है।
क्योंकि
वास्तविक सी
के साथ कल्पना
का उपाय नहीं
रह जाता।
वास्तविक सी
सामने मौजूद
है, अब
कल्पना करने
का कोई उपाय
नहीं है।
लेकिन चित्र
आपको कल्पना
देता है और
चित्र कहता है,
जब चित्र
इतना सुंदर है
तो वास्तविक
सी कितनी
सुंदर न होगी
और आपके
कल्पना के पंख
फैल जाते हैं।
इसलिए
जो लोग चित्र
में रस लेने
लगते हैं, उनको
वास्तविक सी
फीकी मालूम
पड़ने लगती है।
इसलिए आपसे
स्त्रियां
बहुत होशियार
हैं।
उन्होंने
चित्रों में
कभी रस नहीं
लिया।
वास्तविक
पुरुष के
प्रेम में भी
वे आंख बंद कर
लेती हैं, क्योंकि
कल्पना
वास्तविक से
सदा ज्यादा
सुंदर है।
स्त्रियां
होशियार है।
आप उन्हें
आलिंगन में
लें, वे आंख
बंद कर लेंगी।
आंख बंद करने
का मतलब यह कि
अब आप
वास्तविक
पुरुष कम, काल्पनिक,
देवता
ज्यादा हो गये।
अब उनके भीतर
एक कल्पना का
देव खड़ा है।
इसलिए पुरुष
जल्दी
स्त्रियों से
ऊब जाते है, स्रियां
उतनी जल्दी
पुरुषों से
नहीं ऊबती। यह
बड़े मजे की
बात है।
फ्रायड़
ने गहन
विश्लेषणों
से यह कहां है
कि सी और
पुरुष हमेशा
परिपूरक है, हर चीज
में। फ्रायड़
ने दो शब्दों
का उपयोग किया
है एक को वह
कहता है, वोयूर,
जो देखने
में उत्सुक है।
जो देखने में
उत्सुक है
पुरुष, तो
वह कहता है, वोयूर। वह
देखने में
उत्सुक है। सी
को वह कहता है,
एक्लिबीशनिस्ट,
जो दिखाने
में उत्सुक है।
दोनों
परिपूरक हैं।
क्योंकि कोई
तो दिखाने
वाला चाहिए तब
देखने वाले को
कोई रस हो, और
कोई देखने
वाला चाहिए, तब दिखाने
वाले को कोई
रस हो। स्त्री—पुरुष
सब दिशाओं में
परिपूरक है।
इसलिए पुरुष
सदा चाहता है
कि प्रेम
अंधेरे में न
हो, प्रकाश
में हो। सी
सदा चाहती है,
प्रेम
अंधेरे में हो।
प्रकाश में न
हो।
पुरुष
देखना चाहता
है, सी
देखना नहीं
चाहती। इसलिए
पुरुषों ने नग्न
स्त्रियों के
बहुत चित्र
निर्मित किये,
लेकिन
स्त्रियों ने नग्न
पुरुषों में
कोई रस.. .कोई रस
ही नहीं लिया
कभी। सी को
थोड़ी परेशानी
ही होती है नग्न
पुरुष को
देखकर, कोई
सुख नहीं
मिलता।
लेकिन
पुरुष के
सामने स्त्री
कपड़े भी पहने
खड़ी हो तो
कल्पना में वह
उसे नग्न
करना शुरू कर
देता है।
यह जो
हमारे चित्त
की कल्पना है, यह जब हम
कल्पना करते
है, तब तो
कल्पना होती
ही है; जब
हम वास्तविक
कुछ अनुभव
करते है, तब
भी कल्पना से
ज्यादा क्या
होता है? एक
फूल को देखें,
सी को देखें,
पुरुष को
देखें, आपको
भीतर मिलता
क्या है? वास्तविक
तो कुछ नहीं
मिलता, कुछ
कंपन उपलब्ध
होते है।
उन्हीं
कंपनों के लोक
को हम संसार
कहते है।
जब
आपको अच्छी
सुगंध मालूम
पड़ती है तो
होता क्या है? कंपन, वाइब्रेशंस।
जब आपको अच्छा
स्वाद आता है
तो होता क्या
है? जीभ
में कंपन, वाइब्रेशस।
हमारा
सारा सुख
वाइब्रेशस है।
और बड़े मजे की
बात है, अब तो
वैज्ञानिक
कहते है कि ये
वाइब्रेशंस
बिना किसी
बाहरी, वास्तविक
चीज के पैदा
किये जा सकते
है। जैसे आपके
मस्तिष्क में
एक इलेक्ट्रोड़
लगाया जा सकता
है, एक
बिजली का तार
जोड़ा जा सकता
है और जिस तरह
सुंदर सी को
देखकर आपके मन
के तंतु कंपते
है, बिजली
से कंपाये जा
सकते है। और
जब वे तंतु
बिजली से
कंपेंगे, आपको
वही मजा आना
शुरू हो
जायेगा जो
आपको सुंदर सी
को देखकर
आयेगा।
अभी एक
वैज्ञानिक
साल्टर ने
चूहों के साथ
बहुत से
प्रयोग किये।
उसका एक
प्रयोग बहुत हैरानी
का है। वह कभी
न कभी आदमी को
उस प्रयोग से
बहुत कुछ सीखना
पड़ेगा। उसने
एक प्रयोग
किया कि चूहे
को जब की मादा
को देखकर सुख
मिलना शुरू
होता है, तो उसके
मस्तिष्क में
क्या होता है,
कौन से कंपन
होते हैं।
चूहों के सारे
कंपन उसने
अध्ययन किये
वर्षों तक।
फिर उन कंपनों
की सूक्ष्मतम
विधि उसने खोज
ली, फिर
बिजली से उन
कंपनों को
पैदा करने का
उपाय निर्मित
कर लिया। फिर
एक चूहे को
इलेक्ट्रोड़
लगा दिया, न
केवल
इलेक्ट्रोड़
लगा दिया, बल्कि
चूहे के पंजे
के पास बिजली
का बटन भी लगा
दिया कि जब भी
वह चाहे उन
कंपनों को, बटन को दबा
दे। भीतर उसके
कंपन शुरू हो
जायें और उसे
वही मजा आने
लगे जो मादा
के साथ संभोग
में आता है।
आप
जानकर हैरान
होंगे कि चूहे
ने फिर खाना—पीना
बिलकुल छोड़
दिया। मादाएं
आस—पास घूमती
रहें, उनमें
भी रस छोड़
दिया। फिर तो
वह एक ही काम
करता रहा, बटन
को दबाना।
चौबीस घंटे चूहा
सोया नहीं।
उसने हजारों
दफे बटन दबायी,
वह बिलकुल..
.जब तक बिलकुल
थक कर चूर
होकर गिर नहीं
गया तब तक वह
एक ही काम
करता रहा, बटन
दबाने का।
जैसे ही वह
बटन दबाता, भीतर कंपन
शुरू होते है,
वे ही कंपन,
जो उसको
संभोग में
होते है।
संभोग
में पुरुष को—
आपको भी क्या
होता है, स्त्री को
भी क्या होता
है? कुछ
वाइब्रेशस, कुछ कंपन।
उन कंपनों के
सिवाय कुछ भी
नहीं है। वे
जो कंपन है, अगर बिजली
के बटन से
पैदा हो जायें
तो आपको पता
लगेगा कि आप
किस लोक में
जी रहे हैं।
वह चूहा ही
बटन दबाकर जी
रहा हो, ऐसा
मत सोचना आप, आप भी
उन्हीं बटनों
को दबा कर जी
रहे हैं। बटन
आपके
प्राकृतिक
हैं, चूहे
के लिए
कृत्रिम थे
आज
नहीं कल आदमी
अपने लिए भी
कृत्रिम बटन
बना लेगा। और
मैं मानता हूं
कि जिस दिन
आदमी ने अपने आंतरिक
कंपनों को
पैदा करने के
लिए छोटे उपाय
कर लिए, उस दिन स्त्री—पुरुष
के बीच कोई रस
नहीं रह
जायेगा।
क्योंकि तब आप
ज्यादा बेहतर
ढंग से उन्हीं
कंपनों को
पैदा कर सकते
है। तब दूसरे
पर निर्भर
रहने की कोई
जरूरत नहीं।
अपने खीसे में
एक छोटी—सी
बैटरी लिए आप
चल सकते हैं।
जब आपका मन हो,
आप बटन दबा
लें और भीतर
आपके संभोग के
कंपन शुरू हो जायें।
और जो बात
बैटरी से हो
सके, और
ज्यादा
सुगमता से हो
सके और कभी भी
हो सके, उसके
लिए कौन पति—पली
का उपद्रव
लेने जाता है!
साल्टर
की खोज भविष्य
के लिए बड़ी
महत्वपूर्ण सिद्ध
होने वाली है।
पर मैं आपसे
इसलिए सालर की
खोज की बात कर
रहा हूं ताकि
आप महावीर को
समझ सकें।
महावीर कहते
है, किस
बचपन में उलझे
हो? जो भी
तुम अनुभव कर
रहे हो सुख, वे सिर्फ
छोटे से कंपन
हैं। उन
कंपनों का
क्या मूल्य है?
स्वप्नवत!
और
आदमी जन्मों—जन्मों, जीवन—जीवन
उन्हीं
कंपनों में
अपने को गवां
देता है।
उन्हीं में
अपने को खो
देता है। कोई
स्वाद के लिए
जीता है, कोई
सुगंध के लिए
जीता है, कोई
रूप के लिए
जीता है, कोई
ध्वनि के लिए
जीता है।
लेकिन यह जीना
क्या है? क्या
हम कुछ कंपनों
से तृप्त हो
जायेंगे? होता
तो यह है कि
जितना
पुनरुक्त
करते है उन कंपनों
को, उतनी
ऊब बढ़ती चली
जाती है।
फंसते भी जाते
है, आदत भी
बनती है, ऊबते
भी चले जाते
है, कुछ
मिलता भी नहीं
मालूम पड़ता।
और फिर भी एक
मजबूरी, एक
आब्सेशन, और
हम वही करते
चले जाते है, जिससे कुछ
मिलता दिखायी
नहीं पड़ता।
धीरे— धीरे सब
कंपन बोथले हो
जाते है। फिर
उनसे कुछ भी
पैदा नहीं
होता, लेकिन
न उन कंपनों
को करें, तो
उदासी मालूम
पड़ती है, खालीपन
मालूम पड़ता
है, एम्पटीनेस
मालूम पड़ती है।
इसलिए करना भी
पड़ता है।
महावीर
कहते है, जो व्यक्ति
कंपनों में
उलझा है,वह
संसार में
उलझा है। इन
कंपनों से ऊपर
उठे बिना कोई
व्यक्ति
आत्मा को
उपलब्ध नहीं
होता। कैसे
ऊपर उठेंगे? तो वे कहते
है, शब्द, रूप, गंध,
रस और
स्पर्श इन
पांच प्रकार
के काम गुणों
को भिक्षु सदा
के लिए त्याग
दे। क्या
करेंगे त्याग
में आप? क्या
पानी न
पीयेंगे? क्या
भोजन न करेंगे?
और जब पानी
पीयेंगे, भोजन
करेंगे, तो
स्वाद आयेगा।
क्या आंखें न
खोलेंगे?
रास्ते
पर चलेंगे, आंख
खोलनी पड़ेगी।
आवाज होगी, कोई गीत
गायेगा। कोई
मधुर स्वर
सुनायी पड़ेगा,
कान
सुनेंगे।
त्याग कैसे
करेंगे?
त्याग
का एक ही गहन
अर्थ है, और वह कि जब
भी कोई चीज
सुनायी पड़े, स्वाद में
आये, दिखायी
पड़े तो ध्यान
को उससे तोड़
लेना, भीतर
ध्यान को तोड़
लेना। आंखें
चाहे देखें, तुम मत
देखना। जीभ
स्वाद ले, तुम
स्वाद मत लेना।
जनक को
किसी ने पूछा
था, किसी
संन्यासी ने,
कि आप इस
महल में, इन
रानियों के
बीच, इतने
वैभव में रहकर
किस प्रकार
ज्ञानी है? तो जनक ने कहां,
कुछ दिन
रुको, समय
पर उत्तर मिल
जायेगा। और
उत्तर समय पर
ही मिल सकते
हैं, समय
के पहले दिये
गये उत्तर
किसी अर्थ के
नहीं होते।
संन्यासी
जनक के पास
रुका—स्व दिन, दो दिन, तीन दिन।
चौथे दिन सुबह
ही सुबह भोजन
के लिए
संन्यासी आ
रहा था, जनक
खुद बैठकर उसे
भोजन कराते थे।
सिपाहियों की
एक टुकड़ी आयी,
संन्यासी
को घेर लिया
और संन्यासी
को कहां
महाराज ने कहां
है कि आज सांझ
आपको सूली पर
चढ़ा दिया
जायेगा।
उस
संन्यासी ने कहां, लेकिन
मेरा अपराध, मेरा कसूर?
सिपाहियों
ने कहां, यह आप
महाराज से ही
पूछ लेना।
हमें जितनी
आज्ञा है, वह
इतनी है।
फिर वे
उसे लेकर भोजन
के लिए आये, फिर वह
भोजन के लिए
थाली पर बैठा।
महाराज बैठकर
पंखा झलते रहे।
वह भोजन भी
करता रहा।
लेकिन उस दिन
स्वाद नहीं
आया। सांझ मौत
थी, ध्यान
हट गया।
भोजन
के बाद जनक ने
पूछा कि सब
ठीक तो था! कोई
कमी तो न थी!
उसने कहां, 'क्या ठीक
था? क्या
कमी न थी? '
सम्राट
ने पूछा, 'रसोइये ने
अभी—अभी खबर
दी कि वह नमक
डालना भूल गया
आपको पता नहीं
चला?
उस
संन्यासी ने कहां, 'कुछ भी
पता नहीं चला,
भोजन किया
भी या नहीं
किया। यह भी
ऐसा लगता है, जैसे कोई स्वप्न,
सांझ मौत।
पूछना चाहता
हूं कि क्या
है मेरा कसूर?
'
जनक ने कहां, 'कोई कसूर
नहीं, न
कोई मौत होने
को है। इतना
ही कहना था कि
अगर मौत का
स्मरण बना रहे
तो इंद्रियां
भोगों में
रहकर भी दूर
हट जाती हैं।’
तब जीभ
पर कंपन होते
हैं, लेकिन
स्वाद नहीं
आता। तब कान
पर कंपन होते
हैं, लेकिन
रस पैदा नहीं
होता।
रस
पैदा होता है
कंपन और ध्यान
के जोड़ से।
जीभ पर
स्वाद आता है, कंपन
पैदा होते है।
आत्मा ध्यान
भेजती है जीभ
तक, दोनों
का जोड़ होता
है, तब रस
पैदा होता है।
आंख
देखती है रूप
को, कंपन
होते हैं।
भीतर से आत्मा
ध्यान को
भेजती है, कंपन
और ध्यान का
मिलन होता है,
तब सौदर्य
का बोध होता
है। तब रस
पैदा होता है।
रस दो
चीजों का जोड़
है—बाहर से आये
कंपन और भीतर
से आये ध्यान।
ध्यान फ़ कंपन S रस। अगर
ध्यान हट जाये
कंपन से तो रस
विलीन हो जाता
है। इसी को
महावीर ने
त्याग कहां है।
यह त्याग
अत्यंत भीतरी
घटना है। इस
त्याग के दो
रूप हैं। जो
व्यर्थ के
कंपन हों
उन्हें छोड़
ही देना उचित
है। जो
अनिवार्य
कंपन हों उनसे
ध्यान को अलग
कर लेना चाहिए।
जो अनिवार्य
कंपन हों उनसे
ध्यान तोड़
लेना, जो
गैर अनिवार्य
कंपन हों उन
कंपनों का
त्याग कर देना।
तो धीरे—धीरे,
धीरे—धीरे इंद्रियां
अलग और आत्मा
अलग हो जाती
है। जब सब जगह
से ध्यान का
रस विलीन हो
जाता है तो हमें
पता चलता है
कि शरीर अलग
और मैं अलग
हूं। हमें पता
नहीं चलता, शरीर अलग और
मैं अलग हूं
इसका एक ही
कारण है कि हमारा
ध्यान निरंतर
ही बाहर से
आये हुए कंपनों
से जुड़ जाता
है। उस जोड़ के
कारण ही हम
शरीर से जुड़े
हैं। वह जोड़
टूट जाये, हम
शरी से टूट
जाते हैं।
आत्म
अनुभव रस
परित्याग के
बिना संभव
नहीं है।
'देव
लोक सहित
समस्त संसार
के शारीरिक
तथा मानसिक
सभी प्रकार के
दुख का मूल
काम भोगों की
वासना है। जो
साधक इस संबंध
में वीतराग हो
जाता है वह शारीरिक
तथा मानसिक
सभी प्रकार के
दुखों से छूट
जाता है।’
हमारा
जानना कुछ और
है, हमारा
जानना यह है
कि समस्त
सुखों का मूल
इंद्रियों का
आनंद है। आपने
कोई ऐसा सुख
जाना है जो
इंद्रियों के
अतिरिक्त
जाना हो? नहीं
जाना होगा।
सभी सुखों के
मूल में
इंद्रियां
मालूम पड़ती हैं।
कभी भोजन में
कुछ आनंद आ जाता
है, कभी आंख
देख लेती है
किसी दृश्य को—जरूरी
नहीं, वह
दृश्य स्त्री—पुरुष
का हो, वह
काश्मीर का हो,
ड़ल झील का
हो—इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। आंख देख
लेती है किसी
झील को, आंख
देख लेती है
किसी चांद को,
रस आ जाता
है, सुख आ
जाता है।
आपने
कभी कोई ऐसा
सुख जाना है, जो
इंद्रियों के
बिना आपको आया
हो? अगर
वैसा सुख आपको
अनुभव हो जाये,
तो उसी को
महावीर ने
आनंद कहां है।
लेकिन हमारा
कोई ऐसा अनुभव
नहीं है। पर
महावीर कहते
है, समस्त
दुखों का मूल
वासना है, और
हम सोचते हैं
समस्त सुखों
का आधार। तो
थोड़ा सोचना
पड़े।
आपने
कोई ऐसा दुख
जाना है जो
इंद्रियों के
बिना आपको
मिला हो? न आपने कोई
ऐसा सुख जाना
है, जो
इंद्रियों के
बिना मिला हो;
न ऐसा कोई
दुख जाना है, जो
इंद्रियों के
बिना मिला हो।
महावीर कहते
हैं कि
इंद्रियों के
बिना भी एक सुख
मिल सकता है
जिसका नाम
आनंद है।
इंद्रियों के
बिना कोई दुख
नहीं मिल सकता,
इसलिए उसका
कोई नाम नहीं
है। आनंद के
विपरीत कोई
नाम नहीं है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं कि
इंद्रियों का
सुख भांति है, इंद्रियों
का दुख ही
वास्तविकता
है। फिर जिसे
हम सुख कहते
हैं, उसके
कारण ही हमें
दुख मिलता है।
आज स्वाद में
सुख मिलता है,
तो क्या
होगा इसका
परिणाम? इसके
दो परिणाम
होंगे। अगर यह
स्वाद कल न
मिले तो दुख
मिलेगा अगर यह
स्वाद कल भी
मिले, परसों
भी मिले, तो
भी दुख मिलेगा।
स्वाद न मिले,
तो पीड़ा
अनुभव होगी
पाने की।
स्वाद मिलता
रहे, तो
बोथला हो
जायेगा, ऊब
पैदा हो जायेगी।
इसलिए जिनको
रोज अच्छा
भोजन मिलता है
उनका स्वाद खो
जाता है, उनको
फिर स्वाद
नहीं आता।
जिनको अच्छे
बिस्तर पर रोज
सोने को मिलता
है, उन्हें
फिर बिस्तर का
पता चलना बंद
हो जाता है।
जो भी
आपके पास है, उसका
आपको पता नहीं
चलता। तो सुख
अगर मिलता रहे
तो विलीन हो
जाता है। न
मिले तो दुख
देता है। सुख
हर हालत में
दुख देता है।
मिले तो, न
मिले तो। जिसे
हम सुख कहते
हैं, वह
दुख के लिए एक
द्वार ही है, उससे बचने
का कोई उपाय
नहीं है। जो
सुख की तरफ
आकर्षित हुआ
वह दुख में
गिरेगा।
दुख दो
तरह के हो
सकते हैं—मिलने
का दुख हो
सकता है, न मिलने का
दुख हो सकता
है। ज्यादा से
ज्यादा हम दुख
बदल सकते हैं।
इससे ज्यादा
संसार में कोई
उपाय नहीं है।
एक दुख को छोड़
कर दूसरे दुख
पर जा सकते
हैं। एक दुख
को छोड़ कर
दूसरे दुख पर
जाने में बीच
में जो थोड़ा
अंतराल पड़ता
है उसे ही लोग
सुख कहते हैं।
जितनी देर को
वे दुख में
नहीं होते, उतनी देर को
सुख कहते हैं।
हमारा सुख
नकारात्मक है,
निगेटिव है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, समस्त
दुखों का मूल
इंद्रियां
हैं। जब तक यह
हमें दिखायी न
पड़ जाये, तब
तक हम
इंद्रियों से
ऊपर उठने की
चेष्टा में भी
संलग्र न
होंगे। अगर
हमें यही
दिखायी पड़ता
रहे कि समस्त
सुखों का मूल
इंद्रियां
हैं, तो
स्वभावत: हम
अपने संसार को
फैलाये चले
जायेंगे।
पुनर्जन्म
का एक ही मूल
कारण है कि
इंद्रियां सुख
का आधार हैं।
मोक्ष का एक
ही कारण है कि
इंद्रियां
दुख का आधार
हैं।
तो हम
अपने सुख की
थोड़ी तलाश
करें। जब भी
आपको सुख मिले, आप थोड़ी
खोज करना।
पहले तो यह
देखना कि यह
सुख क्या है? जैसे ही आप
देखेंगे, निन्यानबे
प्रतिशत सुख
तिरोहित हो
जायेगा। जिसे
आप प्रेम करते
हैं, उसका
हाथ आपके हाथ
में आ गया, तो
फिर आंख बंद
करके जरा
ध्यान करना कि
क्या सुख मिल
रहा है, तब
सिर्फ हाथ—हाथ
में रह जायेगा।
और थोड़ा ध्यान
करेंगे तो वजन
हाथ में रह
जायेगा। और
थोड़ा ध्यान
करेंगे तो
सिर्फ पसीना
हाथ में छूट
जायेगा।
कौन—सा
सुख मिल रहा
था, उसको
जरा गौर से
देखना। जब
मुंह में भोजन
डाला हो और रस
आ रहा हो, स्वाद
मालूम पड़ रहा
हो तब जरा आंख
भी बंद कर
लेना और उस पर
ध्यान करना कि
कौन—सा सुख
मिल रहा है।
निन्यानबे
प्रतिशत सुख
तत्काल
तिरोहित हो जायेगा।
थोड़ी देर में
आप पायेंगे कि
मुंह सिर्फ एक
यांत्रिक काम
कर रहा है
चबाने का। जीभ
एक यांत्रिक
काम कर रही है
खबर देने की
कि कौन—सा
भोजन ले जाने
योग्य है, कौन—सा
भोजन नहीं ले
जाने योग्य है।
स्वाद का उतना
जीवन के लिए
उपयोग है कि
कहीं जहर न खा
लिया जाये, कि कहीं
कड्वी चीज न
खा ली जाये, कहीं कुछ
व्यर्थ भीतर न
चला जाये।
उतना तो
अस्तित्वगत
उपयोग है।
उतनी ही जीभ
की खबर है।
जीभ सचेतन रूप
से उतनी खबर
देती रहेगी।
कान खबर दे
रहे है, आंखें
खबर दे रही
हैं। ये जीवन
के सर्वाइवल
मेजर्स हैं, बचने के
उपाय हैं।
इससे ज्यादा
मूल्य खतरनाक
हैं। सुख
ज्यादा मूल्य
देने की बात
है।
इसे
ठीक से जो
आदमी खोज
करेगा अपने
भीतर, वह
पायेगा कि जब
सुख होता है
तब कुछ होता
नहीं, सिर्फ
खयाल होता है,
सिर्फ
कल्पना होती
है। सिर्फ
माना हुआ
ख्याल होता है।
सिर्फ माना
हुआ एक
सम्मोहित
ख्याल होता है।
आपको
कोई एक चमकदार
पत्थर लाकर दे
दे और कहे कि
बहुमूल्य
हीरा है। और
आपको भरोसा हो
जाये उस आदमी
का या उस आदमी
पर आपको भरोसा
रहा हो, तो उस रात.. .उस
रात आप सो न सकेंगे
इतने सुख से
भर जायेंगे।
सुबह पता चले
कि वह पत्थर
का ही टुकड़ा
है, हीरा
नहीं है, सिर्फ
कांच है चमकता
हुआ, सब
सुख तिरोहित
हो जायेगा।
रात जो सुख
आपने लिया वह
हीरे के कारण
नहीं था
क्योंकि हीरा
तो वहां है
नहीं। आपकी
मान्यता के
कारण है। आपका
प्रोजेक्शन
था, आपका 'प्रक्षेप' था। आपने एक
धारणा हीरे पर
फैला ली, वह
आपको सुख दे
गयी। जिस स्त्री
में आपको
सौंदर्य
दिखता है, जिस
पुरुष में
सौंदर्य
दिखता है, जहां
आपको रस दिखता
है, वह
आपकी फैली हुई
धारणा है। उस
धारणा के कारण
ही सारा
उपद्रव है।
इस
धारणा को ही
ठीक से देख ले
कोई व्यक्ति
तो सुख
तिरोहित हो
जाता है। और
तब दुख का एक
सागर दिखायी
पड़ता है। तब
वास्तविकता
दिखायी पड़ती
है सुख की
छाया के नीचे
छिपी हुई, कि हम
सिर्फ दुख झेल
रहे है। अनेक—अनेक
प्रकार के दुख
झेल रहे है, अभाव के, भाव
के; होने
के, न होने
के; गरीबी
के, समृद्धि
के; यश के; अपयश; न
मालूम कितने
दुख झेल रहे
है।
इतना
दुख का यह
उदघाटन, पश्चिम में
लोगों को लगा
कि ये महावीर,
ये बुद्ध, ये सब
दुखवादी है।
ये क्यों इतना
दुख को उघाड़ते
है? क्यों
घाव को उघाड़ते
है? अच्छा
हो कि घाव हो
तो पलस्तर
करके ढांक
देना चाहिए।
गंदी नाली हो
तो थोड़ी—सी
सुगंध ऊपर
छिड़कर फूल
लगा देना
चाहिए।
ये.. .ये
क्यों सारे
घावों को
उघाड़कर भीतर
की पीड़ा को, भीतर की
दुर्गंध को
बाहर लाना
चाहते है? ये
बड़े खतरनाक
लोग मालूम
पड़ते है। ये
तो जीवन को
नष्ट कर देंगे,
ये तो जीवन
के प्रति एक
विरक्ति, जीवन
के प्रति एक अलगाव
पैदा कर देंगे।
लेकिन
नहीं, महावीर
और बुद्ध का
वैसा प्रयोजन
नहीं है। वे
चाहते है कि
जो सत्य है वह
दिखायी पड़
जाये। जीवन की
जो भ्रांति है
वह टूट जाये, तो शायद हम
किसी और गहरे
जीवन की खोज
में जा सकें।
वह जो हमने
ढांक—ढांक कर
एक झूठा जीवन
बना रखा है
उसकी पर्त—पर्त
उखड़ जानी
चाहिए। वे जो
हमने झूठे
मुखौटे लगा
रखे है, वे
जो हमने झूठी
धारणाएं अपने
चारों तरफ
फैला रखी है, वे सब गिर
जानी चाहिए।
वे गिर जायें
तो शायद हमारी
जीवन ऊर्जा
व्यर्थ कामों
में संलग्र न
रहे और सार्थक
की खोज पर निकल
जाये।
इसलिए
महावीर कहते
है कि— 'जो
मनुष्य इस
प्रकारण
दुष्कर
ब्रह्मचर्य
का पालन करता
है, इंद्रियों
से अपने को
खींच लेता है,
भीतर तोड़
देता है रस, उसे देव, दानव,
गंधर्व, यक्ष,
राक्षस, किन्नर
सभी नमस्कार
करते है।’
महावीर
और बुद्ध पहले
व्यक्ति है
मनुष्य जाति
के इतिहास में—निक्ष्चित
ही महावीर
पहले, क्योंकि
बुद्ध महावीर
से थोड़े बाद
में पैदा हुए—महावीर
पहले व्यक्ति
है जिन्होने कहां
कि एक ऐसा
क्षण भी है
मनुष्य की
चेतना का, जब
देवता भी उसे
नमस्कार करते
है, नहीं
तो दुनिया के
सारे धर्म
मानते है कि
मनुष्य सदा
देवताओं को
नमस्कार करता
है।
देवता
मनुष्य को
नमस्कार करते
है, इससे
ज्यादा
मनुष्य के
प्रति महिमा
की बात और कुछ
और नहीं हो
सकती। महावीर
ने कहां कि
ऐसा भी क्षण
है मनुष्य के
जीवन में, जब
देवता उसे
नमस्कार करते
है। इसका क्या
अर्थ हुआ? इसका
अर्थ हुआ कि
देवता
भ्रांति में
है। चेतना जब
पूरी जागती है
मनुष्य की और
सुख का श्रम
टूट जाता है, तो स्वर्ग
का भ्रम भी
टूट जाता है।
देवता स्वर्ग
के वासी है।
उसका अर्थ है—सुख
के वासी है।
देवता
इंद्रियों
में ही जीते
है। बड़ा मजा
है, इसलिए
हमने इंद्र
नाम दिया है
देवताओं के
सम्राट को। वह
इंद्रियां ही
इंद्रियां है।
इसलिए इंद्र
है। देवता सुख
में ही जीते
है। देवता का
अर्थ है—जो
सुख में ही जी
रहा है। लेकिन
इसका तो मतलब
यह हुआ कि
महावीर के
हिसाब से कि
जो इंद्रियों
में और सुख
में जी रहा है,
वह बड़ी गहन
भ्रांति में
जी रहा है। वह
एक लंबे स्वप्न
में डूबा है।
वह स्वप्न
सुखद होगा, प्रीतिकर
होगा, दुखद
न होगा, लेकिन
एक लंबा स्वप्न
है। अगर
महावीर को हम
ठीक से समझें
तो नरक, एक
नाइट मेयर, एक दुख स्वप्न,
लंबा दुख स्वप्न
है। स्वर्ग एक
सुख स्वप्न
है, एक
अच्छा सपना है,
लंबा।
इसलिए
महावीर ने कहां
है कि देवता
को भी मोक्ष
पाना हो, तो उसे वापस
मनुष्य के
जन्म में आ
जाना पड़ता है।
मनुष्य
चौराहा है।
देवता
को भी मोक्ष
पाना हो तो
मनुष्य तक
वापस लौट आना
पड़ता है।
मनुष्य के
अतिरिक्त
मुक्त होने का
कोई उपाय नहीं
है। लेकिन
जरूरी नहीं है
कि कोई मनुष्य
होने से ही
मुक्त हो जाये।
मनुष्य होने
से केवल शक्ति
की संभावना है, लेकिन
अगर आप भी स्वप्न
में डूबे रहते
है तो आप उस
अवसर को खो
देंगे।
मनुष्य
का अर्थ है—जहां
हम जाग सकते
हैं, जहां
हम चाहें तो
इंद्रियों से
अपने को तोड़
ले सकते है, जहां हम
चाहें तो रस
समाप्त हो
सकता है और
चेतना रसमुक्त
हो सकती है।
इस स्थिति को
महावीर ने
वीतराग कहां
है। चेतना जब
ऐसी स्थिति
में होती है
तो उसका बाहर
कोई भी रस
नहीं है, कोई
भी। बाहर जाने
की कोई
आकांक्षा शेष
न रही। किसी
से भी कुछ मिल
सकता है, यह
भाव गिर गया।
कहीं से कोई
मांगना न रहा,
कोई
प्रार्थना न
रही, कोई
अभीप्सा न रही।
इस चेतना की
अवस्था को
महावीर कहते
हैं, वीतरण।
'जो
वीतराग है वह
शारीरिक और
मानसिक सभी
दुखों से छूट
जाता है।’
'यह
ब्रह्मचर्य
धर्म ध्रुव है,
नित्य है, शाश्वत है
और
जिनोपदिष्ट
है।’
यह
शब्द
जिनोपदिष्ट
थोड़ा समझ लेने
जैसा है।
हिंदू
कहते हैं, वेद
ईश्वर के वचन
हैं, इसलिए
सत्य हैं।
मुसलमान कहते
हैं कि कुरान
ईश्वर का
संदेश है, इसलिए
सत्य है। ईसाई
कहते है कि
बाइबिल ईश्वर
के निजी
संदेशवाहक, उनके अपने
बेटे जीसस के
वचन हैं, ईश्वर
से आया हुआ
संदेश है आदमी
के लिए, इसलिए
सत्य है।
महावीर
एकदम
अशास्त्रीय हैं।
वे किसी
शास्त्र को
प्रमाण नहीं
मानते। वे वेद
को प्रमाण
नहीं मानते।
इसलिए
हिंदुओं ने तो
महावीर को
नास्तिक कहां।
क्योंकि जो
वेद को न माने, वह
नास्तिक।
महावीर
जैसे परम
आस्तिक को भी
नास्तिक कहना
पड़ा, क्योंकि
वेद के प्रति
उनकी कोई
श्रद्धा नहीं,
शास्त्र के
प्रति उनकी
कोई श्रद्धा
नहीं। उनकी
श्रद्धा अजीब
है, अनूठी
है। उनकी
श्रद्धा उस
आदमी में है, जिसने अपनी
इंद्रियों को
जीत लिया हो—उसके
वचन में।
जिनोपदिष्ट
का अर्थ होता
है, उस
आदमी का वचन
जिसने अपनी
इंद्रियों को
जीत लिया है।
कोई परमात्मा
नहीं, कोई
ऊपरी शक्ति नहीं,
बल्कि उस
व्यक्ति की
शक्ति ही परम
प्रमाण है जिसने
अपनी
इंद्रियों को
जीत लिया है।
इसलिए महावीर
कहते हैं, जिनोपदिष्ट
—जिसने अपने
को जीता हो।
जिन का अर्थ
होता है, जिसने
अपने को जीता
हो। जिसकी
सारी
इंद्रियों की
गुलामी टूट
गयी हो, जो
अपने भीतर
स्वतंत्र हो गया
हो, जो
अपने भीतर
मुक्त हो गया
हो; इस
व्यक्ति के
वचन का मूल्य
है। देवताओं
के वचन को
महावीर कहते
हैं, कोई
मूल्य नहीं, क्योंकि वे
अभी वासना से
पस्त हैं।
अगर हम
वेद के
देवताओं को
देखें, तो इंद्र को
आप फुसला ले
सकते हैं, जरा
सी खुशामद और
स्तुति से।
राजी कर ले
सकते है, जो
भी आपको
करवाना हो।
नाराज भी हो
सकता है इंद्र
अगर आप ठीक—ठीक
प्रार्थना, उपासना न
करें, नियम
से आदर, स्तुति
न करें तो
इंद्र नाराज
भी हो सकता है।
अगर हम यहूदी
ईश्वर को
देखें, तो
वह खतरनाक
बातें कहता
हुआ मालूम
पड़ता है कि
अगर मुझे नहीं
माना तो मैं
तुम्हें नष्ट
कर दूंगा। आग
में जलाऊंगा,
सडाऊंगा।
महावीर
कहते हैं कि
इन वचनों का
क्या मूल्य हो
सकता है! वे
कहते हैं, वही
चेतना परम
शास्त्र है, जिसने अपनी
इंद्रियों को
जीत लिया हो।
उसकी बात
भरोसे योग्य
है।
क्यों?
जो अभी
इंद्रियों के
धोखे में पड़ता
है, उसकी
बात का भरोसा
कुछ भी नहीं।
जो अभी
इंद्रियों के
सपने से नहीं
जाग सका, उसकी
बात का कुछ भी
भरोसा नहीं।
महावीर को
ज्ञात है, उस
समय जो भी
देवताओं की
चारों तरफ
चर्चा थी, उनमें
महावीर को कोई
भी देवता णइत
के योग्य नहीं
लगा। क्योंकि
बड़ी अजीब कहांनियां
है।
कहांनी
है कि ब्रह्मा
ने पृथ्वी को
बनाया, अर्थात
पृथ्वी
ब्रह्मा की
बेटी हुई, और
बेटी को देखकर
ब्रह्मा एकदम
कामातुर हो गये
तो बेटी के
पीछे कामातुर
होकर भागे।
बेटी घबरा गयी
तो वह गाय बन
गयी, तो
ब्रह्मा बैल
हो गये और गाय
के पीछे भागे।
महावीर को बड़ी
कठिनाई मालूम
पड़ेगी कि ऐसे
ब्रह्मा के
वचन का क्या
मूल्य हो सकता
है। यह तो
साधारण पिता
भी अपने को
रोकता है, ब्रह्मा
न रोक सके! कहांनी
में मूल्य तो
बहुत है, पर
मूल्य
मनोवैज्ञानिक
है।
फ्रायड़
ने कहां है कि
हर पिता के मन
में अपनी जवान
बेटी को भोगने
की कामना कहीं
न कहीं सरक
उठती है।
क्योंकि जवान
बेटी को देखकर
फिर एक बार
उसको अपनी
पत्नी जब जवान
थी, उसका
स्मरण सदा हो
आता है।
यह कहांनी
तो बड़ी
मनोवैज्ञानिक
है कि अगर
ब्रह्मा ने अपनी
बेटी को पैदा
किया और वह
इतनी सुंदर थी
कि ब्रह्मा
खुद आकर्षित
हो गये, तो यह बात तो
बताती है कि
बाप भी बेटी के
प्रति
कामातुर हो
सकता है—ब्रह्मा
तक हो गये!
लेकिन महावीर
के लिए इसमें
दूसरी सूचना
है। वह सूचना
यह है कि जो
देवता
कामातुर है, उनकी स्तुति
का कोई भी
अर्थ न रहा।
इसलिए महावीर
बड़े हिम्मतवर
आदमी हैं। वे
कहते है, जब
कोई व्यक्ति
इस वीतरागता
को उपलब्ध
होता है, तो
देवता उसके
चरणों में सिर
रख देते है।
यही बात
कष्टपूर्ण भी
लगी हिंदू मन
को। क्योंकि कहांनियां
हैं कि जब
महावीर ज्ञान
को उपलब्ध हुए
तो इंद्र और
ब्रह्मा सब
उनके चरणों
में सिर रख दिये।
यह बहुत कठिन
मालूम पड़ती
है.. .यह बात
कठिन मालूम
पड़ती है।
बुद्ध
जब ज्ञान को
उपलब्ध हुए तो
सारा देवलोक
उतरा और चारों—तरफ
उनके चरणों
में साष्टांग
लेट गया।
हिंदू
मन को चोट लगी
कि जिन
देवताओं की हम
पूजा करते, प्रार्थना
करते, वे
इस गौतम बुद्ध
के सामने या
इस वर्द्धमान
महावीर के
सामने आकर
चरणों में सिर
रख दिये! यह बात
ही अपवित्र
मालूम पड़ती है।
लेकिन महावीर
और बुद्ध को
हम समझें तो
इस बात की बड़ी
महिमा है।
मनुष्य को
पहली दफा
देवताओं के
ऊपर रखने का प्रयास—बड़ा
गहन प्रयास है।
मनुष्य को
पहली दफा
वासना के परम
छुटकारे की तरफ
इशारा है।
महावीर
कहते है, देवता भी
तुम हो जाओ, स्वर्ग भी
तुम्हारे हाथ में
आ जाये और अगर
इंद्रियां
तुम्हारी, तुम्हारे
नियंत्रण में
नहीं, और
तुम उनके
मालिक नहीं हो,
तो तुम
गुलाम हो, कीड़े—मकोड़ों
जैसे ही गुलाम
हो। कीड़ा—मकोड़ा
भी क्यों कीड़ा—मकोड़ा
है? क्योंकि
इंद्रियों का
गुलाम है। और
देवता भी कीड़ा—मकोड़ा
है, क्योंकि
वह भी
इंद्रियों का
गुलाम है।
आदमी
जाग सकता है।
क्यों? देवता क्यों
नहीं जाग सकता?
सुख में
जागना बहुत
मुश्किल है।
दुख में जागना
आसान है। सुख
में नींद सघन
हो जाती है, दुख में
नींद टूट जाती
है। पीड़ा हो
तो निखारती है,
सुख हो सब
धुंधला—
धुंधला कर
जाती है। सुख
में जंग लग
जाती है। दुख
में आदमी
प्रखर होता है।
इसलिए
बहुत मजे की
बात है कि
सुखी
परिवारों में
कभी प्रखर
चेतनाएं
मुश्किल से
पैदा हो जाती है।
प्रखर बुद्धि, प्रखर
प्रतिभा, अगर
सब सुख हो तो
क्षीण हो जाती
मालूम पड़ती है।
जंग लग जाती
है। कुछ करने
जैसा नहीं
लगता।
राकफेलर के घर
में लड़का पैदा
हो, तो सब
पहले से मौजूद
होता है, कुछ
करने जैसा
नहीं मालूम
पड़ता। पाने को
कुछ दिखायी
नहीं पड़ता। जब
तक कि राकफेलर
के लड़के में
बुद्ध या
महावीर की
चेतना न हो कि
इस संसार में
पाने योग्य कुछ
नहीं, तो
चलो दूसरे
संसार को पाने
निकल पड़े। जब
इस संसार में
कुछ पाने
योग्य नहीं
लगता तो आप
बैठ जाते है
मुदें की तरह,
आपकी सब
चेतना बैठ
जाती है।
दुनिया
में अधिकतम
प्रतिभाएं
संघर्षशील
घरों से आती
हैं, दुख
से आती हैं।
दुख निखारता
है, उत्तेजित
करता है, चुनौती
देता है।
देवता सो
जायेंगे, क्योंकि
वहां सुख ही
सुख है—कल्पवृक्ष,
सुख, अप्सराएं
सब यौवन, सब
सुगंध।
इंद्रियों
की जो वासना
है, वह
परिपूर्ण रूप
से तृप्त हो, ऐसी स्वर्ग
की हमारी
धारणा है।
इंद्रियों की
कोई वासना
तृप्त न हो, दुख ही दुख
भर जाये, ऐसी
हमारी नरक की
धारणा है।
लेकिन महावीर
अगर यह कहते
हैं कि दुख
में आदमी
जागता है
इसलिए मनुष्य
देवता के भी
पार जा सकता
है तब तो नरक
और भी जाग
जाना चाहिए।
क्योंकि नरक
में और भी सघन
दुख है।
लेकिन
एक बड़ी गहरी
बात है। अगर
पूरा—पूरा सुख
हो, तो
भी आदमी नहीं
जाग पाता। अगर
एकदम दुख ही
दुख हो, तो
भी आदमी नहीं
जाग पाता।
क्योंकि दुख
ही दुख हो तो
भी चेतना दब
जाती है। जहां
सुख और दुख
दोनों के
अनुभव होते
हैं वहां
चेतना सदा जगी
रहती है। सुख
ही सुख हो तो
भी सो जाता है
मन, दुख ही
दुख हो तो भी
सो जाता है मन।
संघर्ष तो
पैदा होता है
जहां दोनों
हों, तुलना
हो, चुनाव
हो।
एक बड़े
मजे की बात है, मनुष्य
के इतिहास से
भी साबित होती
है। जब तक कोई
समाज बिलकुल
ही गरीब रहता
है तब तक बगावत
नहीं करता।
हजारों साल से
दुनिया गरीब
है, लेकिन
बगावत नहीं
होती है। शायद
हम सोचते
होंगे कि
इसलिए बगावत
नहीं होती थी
कि लोग बड़े
सुखी थे। नहीं,
सुख का कोई
अनुभव ही नहीं
था। दुख
शाश्वत था।
बगावत नहीं
होती थी। अब
बगावत सारी दुनिया
में हो रही है।
और बगावत वहीं
होती है जहां
आदमी को दोनों
अनुभव शुरू हो
जाते हैं—सुख
के भी और दुख
के भी। तब वह
और सुख पाना
चाहता है, तब
वह पूरा सुख
पाना चाहता है,
तब वह बगावत
करता है।
दुखी
आदमी, बिलकुल
दुखी आदमी
बगावत नहीं
करता। ऐसा
दुखी आदमी
बगावत करता है
जिसे सुख की
आशा मालूम
पड़ने लगती है।
नहीं तो बगावत
नहीं होती। दुनिया
में जितने
बगावती स्वर
पैदा हुए हैं,
वे सब मध्य
वर्ग से आते
हैं—चाहे
मार्क्स हो और
चाहे एंइजत्स
हो और चाहे लेनिन
हो और चाहे
माओ हो, चाहे
स्टैलिन हो, ये सब
मध्यवर्गीय
बेटे हैं।
मध्य
वर्ग का मतलब
है जो दुख भी
जानता है और
सुख भी जानता
है। जिसकी एक
टांग गरीबी
में उलझी है
और एक हाथ अमीरी
तक पहुंच गया
है। मध्य वर्ग
का अर्थ है, जो दोनों
के बीच में
अटका है। जो
जानता है कि
एक धक्का लगे
तो मैं अभी
गरीब हो जाऊं,
और अगर एक
मौका लग जाये
तो अभी मैं
अमीर हो जाऊं।
जो बीच में है।
यह बीच का
आदमी बगावत का
खयाल देता है
दुनिया को।
क्योंकि यह
खयाल देता है,
सुख मिल
सकता है। सुख
पाया जा सकता
है। इसके हाथ
के भीतर मालूम
पड़ता है। मिल
न गया हो
लेकिन
संभावना निकट
मालूम पड़ती है।
थोड़ा और यह
लंबा हो जाये
तो सुख मिल
जाये। और दुख
भी इससे छूटता
मालूम पड़ता है।
अगर थोड़ी
हिम्मत जुटा
ले तो दुख छूट
जाये। करीब—करीब
मनुष्य
स्वर्ग और नरक
के बीच में
मध्यवर्गीय
है। देवता हैं
ऊपर, नारकीय
है नीचे, बीच
में है मनुष्य।
मनुष्य का एक
पैर तो नरक
में खड़ा ही
रहता है पूरे
वक्त दुख में,
और एक हाथ
सुख को छूता
रहता है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, मनुष्य
संक्रमण, ट्राजिटरी
अवस्था है। और
जहां संक्रमण
है वहां
क्रांति हो
सकती है। जहां
संक्रमण है
वहां बदलाहट
हो सकती है।
नीचे है नर्क,
ऊपर है
स्वर्ग, बीच
में है मनुष्य।
मनुष्य चाहे
तो नर्क में
गिरे, चाहे
तो स्वर्ग में
और चाहे तो
दोनों से छूट
जाये। नरक का
पैर भी बाहर
खींच ले, स्वर्ग
का हाथ भी
नीचे खींच ले।
यह जो बीच में
आदमी खड़ा हो
जाये—महावीर
कहते है, इस
आदमी के देवता
भी चरण में
गिर जाते है।
लेकिन कब आप
नरक का पैर
खींच पायेंगे?
महावीर
कहते हैं, जब तक
तुम्हारा एक
हाथ स्वर्ग
पकड़ता है, तब
तक तुम्हारा
एक पैर नरक
में रहेगा। वह
स्वर्ग पकड़ने
की चेष्टा से
ही नरक पैदा
हो रहा है।
सुख पाने की
आकांक्षा दुख
बन रही है।
स्वर्ग की
अभीप्सा नरक
का कारण बन
रही है। जब
तुम एक हाथ
स्वर्ग से
नीचे खींच
लोगे, तुम
अचानक पाओगे,
तुम्हारा
नीचे का पैर
भी नरक से
मुक्त हो गया।
वह उस बढ़े हुए
हाथ का ही
दूसरा अंग था।
और जब
आदमी न स्वर्ग
न नरक—महावीर
ने कहां है, स्वर्ग
मत चाहना।
क्योंकि
स्वर्ग की
चाहना नरक की
ही चाहना है।
इसलिए महावीर
ने एक नया
शब्द गढ़ा।
हिंदू विचार
में उसके लिए
पहले कोई जगह
न थी। हिंदू
विचार स्वर्ग
और नरक में
सोचता था।
महावीर ने एक
नया शब्द दिया,
'मोक्ष'।
मोक्ष का अर्थ
है—न स्वर्ग, न नरक, दोनों
से छुटकारा।
अगर हम
वैदिक ऋषियों
की प्रार्थना देखें, तो वे
प्रार्थना कर
रहे है स्वर्ग
की, सुख की।
महावीर की अगर
हम धारणा
समझें, तो
वह स्वर्ग की
और सुख की
कामना नहीं कर
रहे है।
क्योंकि
महावीर कहते
है, सुख और
स्वर्ग की
कामना ही तो
दुख और नरक का
आधार है।
महावीर कहते
हैं, मैं
सुख और दुख से
कैसे मुक्त हो
जाऊं। वैदिक
ऋषि गाता है
कि मै कैसे
दुख से मुक्त
हो जाऊं और
सुख को पा लूं।
महावीर कहते
हैं, मै
कैसे सुख और
दुख दोनों से
मुक्त हो जाऊं?
यह बड़ी गहन
मनोवैज्ञानिक
खोज है। यह
अन्वेषण गहरा
है।
महावीर
मोक्ष की बात
करते है।
बुद्ध
निर्वाण की
बात करते हैं।
यह बात द्वंद्व
के बाहर जाने
वाली बात है, कैसे
दोनों के पार
हो जाऊं। यह
जो
ब्रह्मचर्य
है, यह जो
यात्रा पथ है,
दोनों के
बाहर हो जाने
का; यह जो
ऊर्जा को भीतर
ले जाना है, ताकि सुख और
दुख बाहर हैं
दोनों, उनसे
छुटकारा हो
जाये, यह
ध्रुव है, नित्य
है, शाश्वत
है, जिनोपदिष्ट
है।
इसके
द्वारा
पूर्वकाल में
अनेक जीव
सिद्ध हो गये, वर्तमान
में हो रहे है,
महावीर
कहते है, और
भविष्य में
होंगे।
यह
शाश्वत है
मार्ग। इस
विधि से पहले
भी लोग जागे, जिन हुए।
महावीर कहते
है, आज भी
हो रहे है। और
महावीर कहते
है, भविष्य
में भी होते
रहेंगे। यह
मार्ग सदा ही
सहयोगी रहेगा।
लेकिन
हम बड़े अदभुत
लोग हैं।
महावीर के
साधु—संन्यासी
भी लोगों को
समझाते है कि
यह पंचम काल
है, इसमें
कोई मुक्त
नहीं हो सकता!
जैसा हिंदू
मानते हैं, कलिकाल है, कलियुग है, ऐसा जैन
मानते है, पंचम
काल है। इसमें
कोई मुक्त
नहीं हो सकता।
इससे हमको
राहत भी मिलती
है कि जब कोई
हो ही नहीं
सकता, तो
हम भी अगर न
हुए तो कई
हर्ज नहीं है।
इससे साधु—संन्यासियों
को भी सुख
रहता है, क्योंकि
आप उनसे भी
नहीं पूछ सकते
कि आप मुक्त
हुए! पंचम काल
है, कोई
मुक्त नहीं हो
सकता।
महावीर
की ऐसी दृष्टि
हो नहीं सकती।
क्योंकि
महावीर कहते
है, चेतना
कभी भी मुक्त
हो सकती है।
समय कोई बंधन
नहीं है।
इसलिए वे कहते
है, यह
मार्ग शाश्वत
है। पीछे भी
लोग मुक्त हुए,
आज भी हो
रहे हैं, महावीर
कहते है, और
भविष्य में भी
होते रहेंगे।
जो भी इस
मार्ग पर
जायेगा वह
मुक्त हो
जायेगा। इस
मार्ग पर जाने
की जो कुंजी, जो सीक्रेट
की है, वह
उतनी ही है कि
हम सुख और दुख
दोनों को
छोड़ने को राजी
हो जायें।
इंद्रियां जो
हमें संवाद
देती है उनके
साथ हमारा
ध्यान जुड़ कर
रस का निर्माण
न करे। यह रस
बिखर जाये
भीतर तो शरीर
और आत्मा अलग—अलग
हो जाते है।
सेतु गिर जाता
है, संबंध
टूट जाता है।
और जिस
दिन हम जान
लेते है कि
मैं अलग हूं
शरीर से।
ध्यान अलग है, इंद्रियों
से। चेतना अलग
है, पार्थिव
आवरण से। उस
दिन नरक और
स्वर्ग दोनों
विलीन हो जाते
है। वे दोनों स्वप्न
थे। उस दिन हम
पहली बार अपने
भीतर छिपी हुई
आत्यंतिक स्वतंत्रता
का अनुभव करते
है। महावीर इस
अवस्था को
सिद्ध अवस्था
कहते है।
सिद्ध
का अर्थ है—वह
चेतना जो अपनी
संभावना की
परिपूर्णता
को उपलब्ध हो
गयी। जो हो
सकती थी, हो गयी। जो
खिल सकता था
फूल, पूरा
खिल गया। इसकी
कोई निर्भरता
बाहर न रही।
यह सब भांति
स्वतंत्र हो गयी।
इसका सारा
आनंद अब भीतर
से आता है। आंतरिक
निर्झर बन गया
है। अब इसका
कोई आनंद बाहर
से नहीं आता, और जिसका
कोई आनंद बाहर
से नहीं आता, उसके लिए
कोई भी दुःख
नहीं है।
आज
इतना ही।
पाँच
मिनट रूकें, फिर
जायें।
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