दिनांक
11 सितम्बर, 1972;
द्वितीय
पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर
हाल,
मुम्बई।
विनय—सूत्र:
आणा—निद्देसकरे, गुरुणमुववायकारए।
इंगिया—ऽऽ
गारसंपन्ने, से विणीए
त्ति बुच्चई।।
अह
पन्नरसहिं
ठाणेहिं, सुविणीए
ति बुच्चई।
नीयावत्ती
अचवले, अमाई
अकुऊहले।।
अप्प च
अहिक्सिवई, पबन्धं च
न कुब्बई।
मेत्तिजमाणो
भयई, सुयं
लध्दुं न
मज्जई।।
नय
पावपरिक्सेवी, न य
मित्तेसु
कुप्पई।
अप्पियस्साऽवि
मित्तस्त, रहे
कल्लाण भासई।।
कलहड़मरवज्जिए, बुद्धे
अभिजाइए।
हरिमं
पडिसंलीणे, शुइवणीए
ति बुच्चई।।
जो
मनुष्य गुरु
की आज्ञा
पालता हो, उनके पास
रहता हो, गुरु
के इंगितों को
ठीक—ठीक समझता
हो तथा कार्य—विशेष
में गुरु की
शारीरिक अथवा
मौखिक मुद्राओं
को ठीक—ठीक
समझ लेता हो, वह मनुष्य
विनय संपन्न
कहलाता है।
निम्नलिखित
पंद्रह
लक्षणों से मनुष्य
शुविनीत
कहलाता है—उद्धत
न हो, नम्र
हो। चपल न हो, स्थिर हो।
मायावी न हो, सरल हो।
कुतूहली न हो,
गंभीर हो।
किसी का
तिरस्कार न
करता हो।
क्रोध को अधिक
समय तक न
टिकने देता हो।
मित्रों के
प्रति पूरा
सदभाव रखता हो।
शास्त्रों से ज्ञान
पाकर गर्व न
करता हो। किसी
के दोषों का
भंडाफोड़ न
करता हो।
मित्रों पर
क्रोधित न
होता हो।
अप्रिय मित्र
की भी पीठ—पीछे
भलाई ही गाता
हो। किसी
प्रकार का
झगड़ा—फसाद न
करता हो।
बुद्धिमान हो।
अभिजात
अर्थात कुलीन
हो। आंख की
शर्म रखने
वाला एवं
स्थिरवृत्ति
हो।
पहले
एक प्रश्न।
एक
मित्र ने पूछा
है—कल के
सूत्र में कहे
गये
श्रेयार्थी
का क्या अर्थ
है? क्या
श्रेयार्थी
और साधक एक ही
है?
श्रेयार्थी
शब्द बहुत
अर्थपूर्ण है।
इस देश ने दो
तरह के लोग
माने है। एक
को कहां है, प्रेयार्थी—जो
प्रिय की तलाश
में है और
दूसरे को कहां
है, श्रेयाथीं—जो
श्रेय की तलाश
में है।
दो ही
तरह के लोग है
जगत में। वे, जो प्रिय
की खोज करते
है। जो
प्रीतिकर है,
वही उनके
जीवन का
लक्ष्य है।
लेकिन अनंत—अनंत
काल तक भी
प्रीतिकर की
खोज की जाये
तो प्रीतिकर
मिलता नहीं है।
जब मिल जाता
है तो
अप्रीतिकर
सिद्ध होता है।
जब तक नहीं
मिलता है तब
तक प्रीति की
संभावना बनी
रहती है।
मिलते ही जो
प्रीतिकर
मालूम होता था,
वह विलीन हो
जाता है, तिरोहित
हो जाता है।
लगता है
प्रीतिकर, चलते
हैं तब भी आशा
बनी रहती है।
पा लेते है तब
आशा खंडित हो
जाती है, डिसल्यूजनमेंट
के अतिरिक्त,
विभ्रम, सब
भ्रमों के टूट
जाने के
अतिरिक्त कुछ
हाथ नहीं लगता।
प्रेयार्थी
इंद्रियों की
मान कर चलता
है। जो
इंद्रियों को
प्रीतिकर है, उसको
खोजने निकल
पड़ता है।
श्रेयार्थी
की खोज बिलकुल
अलग है। वह यह
नहीं कहता कि
जो प्रीतिकर
है उसे खोजूंगा।
वह कहता है, जो
श्रेयस्कर है,
जो ठीक है, जो सत्य है, जो शिव है
उसे खोजूंगा।
चाहे वह
अप्रीतिकर ही
क्यों न आज
मालूम पड़े।
यह बड़े
मजे की बात है
और जीवन की
गहनतम पहेलियों
में से एक कि
जो प्रीतिकर
को खोजने
निकलता है वह
अप्रीतिकर को
उपलब्ध होता
है। जो सुख को
खोजने निकलता
है, वह
दुख में उतर
जाता है। जो
स्वर्ग की आकांक्षा
रखता है, वह
नरक का द्वार
खोल लेता है।
यह हमारा
निरंतर सभी का
अनुभव है।
दूसरी घटना भी
इतना ही
अनिवार्यरूपेण
घटती है।
श्रेयार्थी
हम उसे कहते
है, जो
प्रीतिकर को
खोजने नहीं
निकलता, जो
यह सोचता ही
नहीं कि यह
प्रीतिकर है
या अप्रीतिकर
है, सुखद
है या दुखद है।
जो सोचता है
यह ठीक है, उचित
है, सत्य
है, श्रेय
है, शिव है,
इसलिए
खोजने निकलता
है।
श्रेयार्थी
की खोज पहले
अप्रीतिकर
होती है।
श्रेयार्थी
के पहले कदम
दुख में पड़ते
है। उन्हीं का
नाम तप है।
तप का
अर्थ है—श्रेय
की खोज में जो
प्रथम ही दुख
का मिलन होता
है, होगा
ही। क्योंकि
इंद्रियां
इनकार करेंगी।
इंद्रियां
कहेंगी कि यह
प्रीतिकर
नहीं है। छोड़ो
इसे। अगर फिर
भी आपने
श्रेयस्कर को
पकड़ना चाहा तो
इंद्रियां
दुख उत्पात
करेंगी। वे
कहेंगी, यह
दुखद है, छोड़ो
इसे। सुखद
कहीं और है।
इंद्रियों के
द्वारा खड़ा
किया गया
उत्पात ही तप
बन जाता है।
तप का अर्थ है
कि इंद्रियां
अपने मार्ग से
नहीं हटना
चाहतीं, और
अगर आप किसी
नये मार्ग को
खोजते हैं जो
इंद्रियों के
लिए प्रीतिकर
नहीं है, तो
इंद्रियां
बगावत करेंगी।
वह बगावत दुख
है। इसलिए
श्रेय की खोज
में दुख
मिलेगा पहले,
लेकिन जैसे—जैसे
खोज बढ़ती है
दुख क्षीण
होता चला जाता
है।
दुख
क्षीण होता है, इसका
अर्थ है कि
इंद्रियां
धीरे— धीरे, धीरे— धीरे
इस नये मार्ग
पर चेतना का
अनुगमन करने लगती
हैं। दुख खो
जाता है। और
जिस दिन
इंद्रियां
चेतना का पूरा
अनुगमन करती हैं,
उसी दिन सुख
का अनुभव होता
है।
श्रेयार्थी
की खोज में
पहले दुख है
और पीछे आनंद।
प्रेयार्थी
की खोज में
पहले सुख का
आभास है, और पीछे दुख।
इंद्रियों की
जो मानकर चलता
है, वह
पहले सुख पाता
हुआ मालूम
पड़ता है, पीछे
दुख में उतर
जाता है।
इंद्रियों की
मालकियत करके
जो चलता है वह
पहले दुख
मालूम पड़ता है,
पीछे आनंद
में बदल जाता
है।
श्रेयार्थी
का अर्थ है, जिसने
जीवन के इस
रहस्य को समझ
लिया कि जो
खोजो वह नहीं
मिलता। जिसे
खोजने निकलो,
वह हाथ से
खो जाता है।
जिसे पक्कूना
चाहो, वह
छूट जाता है।
अगर सुख खोजते
हो तो सुख
नहीं मिलेगा,
इतना निशित
है। लेकिन अगर
कोई व्यक्ति
दुख के लिए
राजी हो जाये,
और दुख के
लिए स्वयं को
तत्पर कर ले, और दुख के
प्रति वह जो
सहज विरोध है
मन का, वह
छोड़ दे, तो
सुख मिल जाता
है।
ऐसा
क्यों होता
होगा? ऐसा
होने का कारण
क्या होगा? होना तो यही
चाहिए
नियमानुसार
कि हम जो
खोजें, वही
मिल जाये।
होना तो यही
चाहिए कि जो
हम न खोजें वह
न मिले। ऐसा
क्यों है, इसे
हम थोड़ा समझ
लें।
इन्द्रियां
अपना रस रखती
हैं। आंख सुख
पाती है कुछ
देखने में।
अगर रूप
दिखायी पड़े तो
आंख आनंदित
होती है।
लेकिन अगर वही
रूप निरंतर
दिखायी पड़ने
लगे, तो
आनंद क्रमश:
खोता चला जाता
है। क्योंकि
जो चीज निरंतर
उपलब्ध होती
है, वह
देखने योग्य
नहीं रह जाती।
दर्शनीय तो
वही है जो कभी—कभी,
आकस्मिक, मुश्किल से
दिखायी पड़ती
हो।
आप
जाते हैं
काश्मीर और ड़ल
झील सुखद
मालूम पड़ती है।
लेकिन वह जो
आपकी नौका खे
रहा है, उसे ड़ल झील
दिखायी ही
नहीं पड़ती, और कई बार
उसे हैरानी भी
होती है कि
लोग कैसे पागल
है, इतने
दूर—दूर से इस ड़ल
झील को देखने
आते हैं।
इन्द्रियां
नवीन आघात में
सुख पाती है।
आघात जब सुनिश्रित,
पुराना पड़
जाता है तो
उबाने वाला हो
जाता है। आज
जो भोजन आपने
किया है, वह
सुखद है। कल
भी वही, परसों
भी वही, दुखद
हो जायेगा।
इन्द्रियों
के लिए नये
में सुख है।
इसलिए
इन्द्रियों
के सभी सुख, दुख बन
जायेंगे।
क्योंकि
जितना आप
चाहेंगे.
.लगता है किसी
से आपका प्रेम
है तो लगता है,
चौबीस घंटे
उसके पास बैठे
रहें। भूलकर
बैठना मत।
क्योंकि अगर
चौबीस घंटे
उसके पास बैठे
रहे तो आज
नहीं कल यह
उबाने वाला हो
जाने वाला है।
और आज नहीं कल
ऐसा होगा, कैसे
छुटकारा हो? ये वही
इन्द्रियां
है जो कहती
थीं, पास
रहो, ये ही
इन्द्रियां
कहेंगी, भाग
जाओ, दूर
निकल जाओ।
क्योंकि जो
पुराना पड़
जाता है, इन्द्रियों
का उसमें रस
नहीं है।
पुराने के साथ
ऊब पैदा हो
जाती है।
इसलिए
इन्द्रियां
जिसे
प्रीतिकर
कहती है कल उसी
को अप्रीतिकर
कहने लगती हैं।
इन्द्रियों
की तलाश में
प्रीति से
प्रारंभ होता
है, अप्रीति
पर अंत होता
है। यह
इन्द्रियों
का स्वभाव हुआ।
इससे ठीक
विपरीत
स्थिति
श्रेयार्थी
की है।
श्रेयार्थी
जो
परिवर्तनशील
है उसकी खोज
नहीं कर रहा
है जो नया है
उसकी खोज नहीं
कर रहा है।
श्रेयार्थी
तो उसकी खोज
कर रहा है जो
शाश्वत है। जो
सदा है।
प्रेयार्थी
नये की खोज कर
रहा है, नया सेनसेशन,
नयी संवेदना,
नया सुख। वह
नये की तलाश
में लगा है।
श्रेयार्थी
उसकी खोज कर
रहा है, न
नये की, न
पुराने की; क्योंकि
श्रेयार्थी
जानता है कि
जो नया है अभी,
क्षणभर बाद
पुराना हो
जायेगा। जो भी
नया है, वह
पुराना होगा
ही। जिसको हम
आज पुराना कह
रहे हैं, कल
वह भी नया था।
सब नया पुराना
हो जाता है।
नये में सुख
था, पुराने
में दुख हो
जाता है। नये
के कारण ही
सुख था, तो
पुराने के
कारण दुख हो
जाता है।
श्रेयार्थी
उसकी खोज कर
रहा है जो सदा
है, शाश्वत
है, नित्य
है। वह नया और
पुराना नहीं
है, बस है।
उसकी तलाश है।
इन्द्रियां
उसकी तलाश में
कोई रस नहीं
लेतीं।
इन्द्रियों
को नये का सुख
है। इसलिए जब
कोई श्रेय की
खोज में
निकलता है तो
इन्द्रियां
मार्ग में
बाधा बन जाती
हैं। वह कहती
हैं, कहां
व्यर्थ की खोज
पर जा रहे हो? सुख वहां
नहीं है। सुख
नये में है।
श्रेयार्थी
इन्द्रियों
की इस आवाज पर
ध्यान नहीं
देता। खोज में
लगा रहता है
जो सत्य है
उसकी।
प्रारंभ में
दुख मालूम
पड़ता है। धीरे—
धीरे
इन्द्रियां
बगावत छोड़
देती हैं। जिस
दिन
इन्द्रियों
की बगावत छूट
जाती है, उसी दिन
शाश्वत से झलक,
संबंध जुड़ना
शुरू हो जाता
है।
इन्द्रियां
जिस दिन बीच
से हट जाती
हैं, उसी
दिन जो सदा है,
उससे हमारा
पहला संबंध
होता है। वह
संबंध, बुद्ध
ने कहां है, सदा ही
सुखदायी है, महासुखदायी
है। क्योंकि
वह कभी पुराना
नहीं पड़ता
क्योंकि वह कभी
नया नहीं था।
वह है सनातन।
श्रेयार्थी
का अर्थ है
सत्य की, शाश्वत
की तलाश। साधक
ही उसका अर्थ
है।
प्रेयार्थी
हम सब हैं। और
अगर हम कभी
श्रेय की खोज
में भी जाते
हैं तो प्रिय
के लिए ही।
अगर हम कभी
सत्य को भी
खोजते हैं तो
इसलिए कि स्वर्ग
मिल जाये। अगर
हम कभी ध्यान
करने भी बैठते
हैं तो इसीलिए
कि सुख मिल
जाये। जो
व्यक्ति सुख
के लिये ही
सत्य भी खोज
रहा है वह अभी
श्रेयार्थी
नहीं है। वह
अभी
प्रेयार्थी
है। अगर
परमात्मा का
दर्शन भी कोई
इसीलिये खोज
रहा है कि आंखों
की तृप्ति हो
जायेगी तो वह
श्रेयार्थी
नहीं है, प्रेयार्थी
है। और
प्रेयार्थी
दुख पायेगा, परमात्मा भी
मिल जाये तो
भी दुख पायेगा।
मोक्ष भी मिल
जाये तो भी
दुख पायेगा।
क्या मिलता है,
इससे संबंध
नहीं है।
प्रेयार्थी
का जो ढंग है
जीवन को देखने
का, वह
दुख में
उतारने वाला
है।
श्रेयार्थी
का जो ढंग है
जीवन को देखने
का, वह
आनंद में
उतारने वाला
है। सुख को
खोजेंगे, दुख
पायेंगे। सुख
की खोज वाला
मन ही दुख का
निर्माता है।
जितनी करेंगे
अपेक्षा, उतनी
पीड़ा में उतर
जायेंगे।
अपेक्षा ही
पीड़ा का मार्ग
है। नहीं
करेंगे
अपेक्षा, नहीं
बांधेंगे आशा,
उसकी ही
तलाश करेंगे,
जो है।
यह
तलाश कठोर है, आर्डुअस
है, दुर्गम
है। क्योंकि
हम वह नहीं
जानना चाहते
जो है। हम वह
जानना चाहते
हैं जो हमारी
इन्द्रियां कहती
हैं, होना
चाहिए। इसलिए
हम सत्य के
ऊपर
इन्द्रियों
का एक मोह आवरण
डाले रहते हैं।
हम यह नहीं
जानना चाहते,
क्या है, हम जानना
चाहते हैं वही,
जो होना
चाहिए। अगर
मैं किसी
व्यक्ति को भी
देखता हूं तो
मैं उसको नहीं
देखता जो वह
है। मैं वही
देखता हूं जो
वह होना चाहिए।
इसी से झंझट
खड़ी होती है।
आप मुझे मिलते
हैं, आपको
मैं नहीं
देखता। मैं आप
में उस
सौंदर्य को
देख लेता हूं
जो मेरी
इन्द्रियां
चाहती हैं कि
हो। वह सत्य
नहीं है। आपकी
आंखों में मैं
वह काव्य देख
लेता हूं जो
वहां नहीं है,
लेकिन मेरी
मनोवासना
देखना चाहती
है कि हो।
कल वह
काव्य
तिरोहित हो
जायेगा, परिचय से
टूट जायेगा, जानकारी से,
पहचान से, आंखें
साधारण आंखें
हो जायेंगी और
तब मैं
पछताऊंगा कि
धोखा हो गया।
लेकिन किसी ने
मुझे धोखा
दिया नहीं है,
यह धोखा
मैंने खाया है।
मैंने वह
देखना नहीं
चाहा जो था।
मैंने वह देख
लिया जो होना
चाहिए। मैंने
अपना सपना आप
में देख लिया।
अब यह सपना
टूटेगा। सपने
टूटने के लिए
ही होते हैं।
और जब
वास्तविकता
उघड़ कर सामने
आयेगी तो
लगेगा कि मैं
किसी धोखे में
डाल दिया गया।
और तब हमारी
इन्द्रियां
कहती हैं, धोखा
दूसरे ने दिया।
जहां काव्य
नहीं था, वहां
काव्य
दिखलाया, जहां
सौंदर्य नहीं
था वहां
सौंदर्य
दिखलाया।
दूसरा आपको
धोखा नहीं दे
रहा है।
इस जगत
में सब धोखे
अपने हैं। हम
धोखा खाना
चाहते हैं। हम
धोखा निर्मित
करते हैं। हम
दूसरे के ऊपर
धोखे को खड़ा करके
धोखा लेते है।
फिर धोखे टूट
जाते है, और तब दुख है।
श्रेयार्थी
का अर्थ है—जो
है वही मै
जानूंगा। कुछ
भी जोडूंगा
नहीं। यह जो
है, दैट
विच इज, उसको
उघाड़ लूंगा, खोल लूंगा।
उसको नग्न
देख लूंगा
जैसा है।
उसमें जरा भी
अपनी वासना, अपनी कामना,
अपनी
आकांक्षा
नहीं जोडूंगा।
कोई सपना नहीं
डालूंगा, सत्य
को वैसे देख
लूंगा, जैसा
है। फिर कोई
दुख होने वाला
नहीं है।
क्योंकि सत्य
सदा वैसा ही
रहेगा। सपने
बदल जाते है, सत्य सदा
वैसा है।
किसी
में आप मित्र
देखते है, किसी में
शत्रु देखते
है। वे सब
आपके सपने है।
किसी में
सौंदर्य, किसी
में कुरूपता,
वे सब आपके
सपने है। जो
है, उसे जो
देखने लगता है,
उसके लिए इस
जगत में फिर
कोई दुख नहीं
है। क्योंकि
जो है, वह
कभी भी बदलता
नहीं है।
अब हम
सूत्र को लें।
इस
सूत्र में
उतरने के पहले
कुछ बुनियादी
बातें समझ
लेनी जरूरी है।
पहली
बात—गुरु की
धारणा मौलिक
रूप से भारतीय
है। दुनिया
में शिक्षक
हुए है, गुरु नहीं।
शिक्षक
साधारण—सी बात
है, गुरु
बड़ी असाधारण
घटना है।
शिक्षक और
गुरु का
शाब्दिक अर्थ
एक है, लेकिन
अनुभूतिगत
अर्थ बिलकुल
भिन्न है।
शिक्षक से हम
वह सीखते है, जो वह जानता
है। गुरु से
हम वह सीखते
है जो वह है।
शिक्षक से हम
जानकारी लेते
है, गुरु
से जीवन।
शिक्षक से
हमारा संबंध
बौद्धिक है, गुरु से
आत्मगत।
शिक्षक से
हमारा संबंध
आशिक है, गुरु
से पूर्ण।
गुरु
की धारणा
मौलिक रूप से
पूर्वीय है।
पूर्वीय ही
नहीं, भारतीय
है। गुरु जैसा
शब्द दुनियां
की किसी भाषा
में नहीं है।
शिक्षक, टीचर,
मास्टर ये
शब्द हैं—अध्यापक।
लेकिन गुरु
जैसा कोई भी
शब्द नहीं है।
गुरु के साथ
हमारे
अभिप्राय ही
भिन्न है।
पहली
बात—शिक्षक से
हमारा संबंध
व्यावसायिक
है, एक
व्यवसाय का
संबंध है।
गुरु से हमारा
संबंध
व्यवसायिक
नहीं है। आप
किसी के पास
कुछ सीखने
जाते है। ठीक
है, लेन—देन
की बात है। आप
उससे कुछ उसे
भेंट कर देते
है, बात
समाप्त हो
जाती है—यह
व्यवसाय है।
एक शिक्षक से
आप कुछ सीखते
है सीखने के
बदले में उसे
कुछ दे देते
है, बात
समाप्त हो
सकती है। गुरु
से जो हम
सीखते है उसके
बदले में कुछ
भी नहीं दिया
जा सकता। कोई
उपाय देने का
नहीं है।
क्योंकि जो
गुरु देता है
उसका कोई
मूल्य नहीं है।
जो गुरु देता
है, उसे
चुकाने का कोई
उपाय नहीं है।
उसे वापस करने
का कोई उपाय
नहीं है।
क्योंकि शिक्षक
देता है
सूचनाएं
जानकारियां, इकमेंशन।
गुरु देता है
अनुभव। यह बड़े
मजे की बात है
कि शिक्षक जो
जानकारी देता
है, जरुरी
नहीं कि वह
जानकारी उसका
अनुभव हो, आवश्यक
नहीं। जो
शिक्षक आपको
नीति शास्त्र
पढ़ाता है और
बताता है कि
शुभ क्या है, अशुभ क्या
है? नीति
क्या है, अनीति
क्या है? जरूरी
नहीं कि वह
शुभ का आचरण
करता हो। वह
सिर्फ शिक्षक
है, वह
सूचना करता है।
गुरु जो कहता
है, वह
सूचन नहीं है,
वह उसके
जीवन का
आविर्भाव है।
तो हम
बुद्ध को, महावीर
को, कृष्ण
को गुरु कहते
है। गुरु का
अर्थ यह है कि
वे जो कह रहे
है, उन्होंने
जीया है, जाना
ही नहीं।
जानने वाले तो
बहुत गुरु है।
वे गांव—गांव
में है।
यूनिवर्सिटीज
उनसे भरी हुई
पड़ी है। वे
शिक्षक है, गुरु नहीं।
जो कुछ जाना
गया है, वह
उन्होंने
संगृहीत किया
है, वे
आपको दे रहे
है। वे केवल
माध्यम हैं।
उनके पास अपना
कोई उत्स, अपना
कोई स्रोत
नहीं है। वे
उधार है। वे
जो भी दे रहे
है उन्होंने
कहीं से पाया
है। उन्हें
किसी और ने
दिया है वे
बीच के सेतु
है जिनसे
जानकारियां
यात्राएं
करती है। एक
पीढ़ी मरती है
तो जो भी वह
पीढ़ी जानती है,
दूसरी पीढ़ी
को दे जाती है।
इस देने के कम
में शिक्षक
बीच का काम
करता है, बीच
की क्ली का
काम करता है।
अगर बीच में
शिक्षक न हो
तो पुरानी
पीढ़ी नयी पीढ़ी
को सिखा नहीं
सकती कि उसने
क्या जाना।
पुरानी पीढ़ी
ने जो भी
अनुभव किया है,
जो भी जाना
है, जो भी
उघाड़ा है, जो
भी ज्ञान
अर्जित किया
है वह शिक्षक
नयी पीढ़ी को
सौंपने का काम
करता है।
गुरु, जो
पुरानी पीढ़ी
ने जाना है उसको
सौंपने का काम
नहीं करता, जो स्वयं
उसने अनुभव
किया है। और
यह जो स्वयं
अनुभव किया है,
इसे सौंपने
का सूचन की
तरह कोई उपाय
नहीं है। इसे
तो जीवन की
विधि के
रूपांतरण से
ही दिया जा
सकता है। एक
शिक्षक के पास
से हम ज्ञानी होकर
लौटते हैं, ज्यादा जानकर
लौटते हैं, लर्नेड़ होकर
लौटते है। एक गुरु
के पास हम रूपांतरित
होकर लौटते है।
पुराना आदमी
मर जाता है, नये का जन्म
होता है। गुरु
के पास जब हम
जाते हैं तब
हम वही नहीं
लौट सकते, अगर
हम गुरु के
पास गये हों।
गुरु के पास
जाना कठिन
मामला है।
लेकिन, अगर
हम गुरु के
पास गये हों
तो, जो
जाता है, वह
फिर कभी वापस
नहीं लौटता।
दूसरा आदमी
वापस लौटता है।
शिक्षक
के पास जब हम
जाते हैं—और
जाना बहुत
आसान है—तो हम
वही लौटते हैं
जो हम गये थे।
थोड़े से और
समृद्ध होकर
लौटते हैं
थोड़ा—सा और
ज्यादा जानकर
लौटते है। हम
जो थे, उसी
में शिक्षक
जोड़ देता है—एडीशन।
हम जो थे उसी
में थोड़े रंग—रूप
लगा देता है, वस्त्र ओढ़ा
देता है। हम
जो थे उसमें
और शिक्षक के
द्वारा जो हम
निर्मित होते
है, दोनों
के बीच में
कोई
डिसकंटीन्यूटी,
कोई गैप, कोई खाली
जगह नहीं होती।
गुरु
के पास जब हम
जाते हैं तो
जो हम थे, वह और आदमी
था और जो हम
लौटते हैं वह
और आदमी है।
गुरु हममें जोड़ता
नहीं, हमें
मिटाता है और
नया निर्मित
करता है। गुरु
हमको ही
संवारता नहीं,
हमें मारता
है और जिलाता
है। गुरु के
पास जाने के
बाद हमारे
अतीत में और
हमारे भविष्य
में एक गैप, एक अंतराल
हो जाता है।
लौट के आप
देखेंगे तो
अपनी कथा ऐसी
लगेगी, किसी
और की कहांनी
है। अगर गुरु
के पास गये।
अगर शिक्षक के
पास गये तो
अपनी कथा अपनी
ही कथा है।
बीच में कोई
खाली जगह नहीं
है जहां चीजें
टूट गयी हों, जहां आपका
पुराना रूप
बिखर गया हो
और नये का जन्म
हुआ हो।
इसलिए
हमने इस मुल्क
में एक शब्द
खोजा था, वह है द्विज।
द्विज का अर्थ
है ट्वाइस
बॉर्न, दुबारा
जन्मा हुआ वही
आदमी है, जिसे
गुरु मिल गया।
नहीं तो
दुबारा जन्मा
हुआ आदमी नहीं
है। एक जन्म
तो मां—बाप
देते है, वह
शरीर का जन्म
है। एक जन्म
गुरु के निकट
घटित होता है,
वह आत्मा का
जन्म है। जब
वह जन्म घटित
होता है तो
आदमी द्विज
होता है। उसके
पहले आदमी एक
जन्मा है, उसके
बाद दोहरा
जन्म हो जाता
है, ट्वाइस
बॉर्न हो जाता
है।
गुरु
के लिए हमने जैसी
श्रद्धा की
धारणा बनायी
है, ऐसा पश्चिम
के लोग जब
सुनते है तो
भरोसा नहीं कर
पाते कि ऐसी
श्रद्धा की
क्या जरूरत है।
जब किसी व्यक्ति
से सीखना है तो
सीखा जा सकता है।
ऐसा उसके चरणो
में सिर रखकर मिट
जाने की क्या जरूरत
है! और उनका
कहना भी ठीक है,
सीखना ही है
तो चरणों में सिर
रखने की कोई
भी जरूरत नहीं
है अगर सीखना ही
है तो सिर और
सिर का संबंध
होगा, चरणों
और सिर के
संबंध की क्या
जरूरत है?
लेकिन, हमारी
गुरु की धारणा
कुछ और है। यह
सिर्फ सीखना
नहीं है, यह
सिर्फ
बौद्धिक आदान—प्रदान
नहीं है। यह
संवाद बुद्धि
का नहीं है, दो सिरों का नहीं
है। क्योंकि जो
गहन अनुभव है,
बुद्धि तो उनको
अभिव्यक्त भी नहीं
कर पाती। जो गहन
अनुभव है, उनका
संबंध तो हृदय
से हो पाता है।
बुद्धि से
नहीं हो पाता।
जो क्षुद्र
बातें है, वे
कही जा सकती
हैं शब्दों
में। जो विराट
से संबंधित है,
गहन से, ऊंचाइयों
से, अनंत
गहराइयों से,
वे कही नहीं
जा सकती
शब्दों में, लेकिन प्रेम
में अभिव्यक्त
की जा सकती है।
तो गुरु और
शिष्य के बीच
जो संबंध है वह
गहन प्रेम का
है। शिक्षक और
विद्यार्थी के
बीच जो संबंध है
वह लेन—देन का
है, व्यावसायिक
है, बौद्धिक
है। गुरु और
शिष्य के बीच
का जो संबंध
है, वह
हार्दिक है।
ध्यान
रहे, जब
बुद्धि लेती
है, देती
है, तो यह
समतल पर घटित
होता है। जब
हृदय लेता—देता
है तो यह समतल
पर घटित नहीं
होता। हृदय को
तो लेना हो तो
उसे पात्र की
तरह खुला हुआ
नीचे हो जाना
पड़ता है। जैसे
पानी नीचे की
तरफ बहता है।
तो जब हृदय को
लेना हो...।
वर्षा हो रही
हो तो पात्र
को नीचे रख
देना पड़ता है,
पानी उसमें
भर जाये।
पात्र को उस
धारा के नीचे
होना चाहिए
जहां से लेना
है, अगर
हृदय का लेन—देन
है। बुद्धि का
लेन—देन समतल
पर होता है।
इसलिए
पश्चिम में
शिक्षक और
विद्यार्थी
के बीच कोई
रिस्पेक्ट, कोई
समादर की बात
नहीं है। और
अगर कोई समादर
है तो औपचारिक
है, और अगर
कोई समादर है
तो कक्षा के
भीतर है, बाहर
तो कोई सवाल
नहीं है।
शिक्षक और
विद्यार्थी
का संबंध एक
खण्ड संबंध है।
पूरब में गुरु
और शिष्य का
संबंध एक
अखण्ड संबंध
है, समग्र।
यह जो
हृदय का लेन—देन
है, इसमें
शिष्य को पूरी
तरह झुक जाना
जरूरी है।
शिष्य का अर्थ
ही है जो झुक
गया। हृदय के
पात्र को
जिसने चरणों
में रख दिया।
इसलिए इस लेन—देन
में श्रद्धा
अनिवार्य अंग
हो गयी।
श्रद्धा का
केवल इतना ही
अर्थ है कि
जिससे हम ले
रहे है, उससे
हम पूरा लेने
को राजी हैं।
उसमें हम कोई
जांच—पड़ताल न
करेंगे। इसका
यह मतलब नहीं
है कि जांच—पड़ताल
की मनाही है।
इसका केवल
इतना मतलब है
कि खूब जांच—पड़ताल
कर लेना, जितनी
जांच—पड़ताल
करनी हो, कर
लेना लेकिन
जांच—पड़ताल जब
पूरी हो और
गुरु के करीब
पहुंच जाओ, और चुन लो कि
यह रहा गुरु, तो फिर जांच—पड़ताल
बंद कर देना
और पात्र को
नीचे रख लेना।
और अब सब
द्वार खुले
छोड़ देना, ताकि
गुरु सब
मार्गों से
प्रविष्ट हो
जाये।
जांच—पड़ताल
की मनाही नहीं
है, लेकिन
उसकी सीमा है।
खोज लेना पहले,
गुरु की खोज
कर लेना जितनी
बन सके। लेकिन
जब खोज पूरी
हो जाये और
लगे कि यह
आदमी रहा, तो
फिर खोज बंद
कर देना। फिर
खोल देना अपने
हृदय को।
शिष्य, इसलिए
अलग शब्द है, उसका अर्थ
विद्यार्थी
नहीं है।
शिष्य
विद्यार्थी
नहीं है, विद्या
नहीं सीख रहा
है। शिष्य
जीवन सीख रहा
है और जीवन के
सीखने का मार्ग
शिष्य के लिए
विनय है।
यह
सूत्र विनय—सूत्र
है। इसमें
महावीर ने कहां
है, जो मनुष्य
गुरु की आज्ञा
पालता हो, उनके
पास रहता हो, गुरु के
इंगितों को
ठीक—ठीक से
समझता हो, तथा
कार्य—विशेष
में गुरु की
शारीरिक अथवा
मौखिक मुद्राओं
को ठीक—ठीक
समझ लेता हो, वह मनुष्य
विनय—सम्पन्न
कहलाता है।
विनय, शिष्य का
लक्षण है, ह्यूमिलिटी,
हम्बलनेस, झुका हुआ
होना, समर्पित
भाव। इस
शब्दों को हम
एक—एक समझ लें।
जो
गुरु की आज्ञा
पालता हो।
गुरु
कहे, बैठ
जाओ तो बैठ
जाये, कहे
खड़े हो जाओ तो
खड़ा हो जाये।
इसका अर्थ
आज्ञापालन
नहीं है।
आशापालन का
अर्थ तो है, जहां आपकी
बुद्धि इंकार
करती है, वहां
पालन।
सुना
है मैंने, बायजीद
अपने गुरु के
पास गया, तो
गुरु ने पूछा,
कि निश्चित
ही तुम आ गये
हो मेरे पास? तो वस्त्र
उतार दो, नग्न
हो जाओ, जूता
हाथ में ले लो,
अपने सिर पर
मारो और पूरे
गांव का एक
चक्कर लगा आओ।
और भी
लोग वहां
मौजूद थे।
उसमें से एक
आदमी के
बर्दाश्त के
बाहर हुआ। उसने
कहां, यह
क्या मामला है,
कोई
अध्यात्म
सीखने आया है
कि पागल होने?
लेकिन
बायजीद ने
वस्त्र
उतारने शुरू
कर दिये। उस
आदमी ने
बायजीद को कहां,
ठहरो भी, पागल तो
नहीं हो? और
बायजीद के
गुरु को कहां,
यह आप क्या
करवा रहे हैं?
यह जरा
ज्यादा है, थोड़ा ज्यादा
हो गया। फिर
बायजीद की
गांव में
प्रतिष्ठा है।
क्यों उसकी
प्रतिष्ठा
धूल में
मिलाते है?
लेकिन
बायजीद नग्न
हो गया। उसने
हाथ में जूता
उठा लिया। वह
गांव के चक्कर
पर निकल गया।
वह अपने को
जूता मारता जा
रहा है। गांव
में भीड़
इकट्ठी हो गयी
है। क्या पागल
हो गया है
बायजीद! लोग
हंस रहे हैं, लोग मजाक
उडा रहे हैं।
किसी की समझ
में नहीं आ
रहा, क्या
हो गया? वह
पूरे गांव में
चक्कर लगाकर
अपनी सारी
प्रतिष्ठा को
धूल में
मिलाकर, मिट्टी
होकर वापस लौट
आया।
गुरु
ने उसे छाती
से लगा लिया
और गुरु ने कहां, बायजीद
अब तुझे कोई
भी आशा न
दूंगा। पहचान
हो गयी। अब
काम की बात
शुरू हो सकती
है।
आज्ञा
का अर्थ है जो
एब्सर्ड
मालूम पड़े, जिसमें
कोई संगति न
मालूम पड़े।
क्योंकि
जिसमें संगति
मालूम पड़े, आप मत सोचना,
आपने आशा
मानी। आपने
अपनी बुद्धि
को माना। अगर
मैं आपसे कहूं
कि दो और दो
चार होते हैं,
यह मेरी आशा
है, और आप
कहें, बिलकुल
ठीक, मानते
हैं आपकी आशा,
दो और दो
चार होते हैं।
आप मुझे नहीं
मान रहे हैं, आप अपनी बुद्धि
को मान रहे
हैं। दो और दो
पांच होते हैं
और आप कहें कि
हां, दो और
दो पांच होते
हैं, तो
आशा।
बाइबिल
में घटना है।
एक पिता को
आशा हुई कि वह
जाकर अपने बेटे
को फलां—फलां
वृक्ष के नीचे
काट कर और
बलिदान कर दे।
उसने अपने
बेटे को उठाया, फरसा
लिया और जंगल
की तरफ चल पड़ा।
सोरेन
कीर्कगार्ड
ने इस घटना पर बड़े
महत्वपूर्ण
काम किये हैं,
बड़े गहरे
काम किये हैं।
यह बात बिलकुल
फिजूल है, क्योंकि
सोरेन
कीर्कगार्ड
कहता है उस
पिता को, यह
तो सोचना ही
चाहिए था, कहीं
यह आशा मजाक
तो नहीं है।
यह तो सोचना
ही चाहिए था
कि यह आशा
अनैतिक कृत्य
है कि पिता
बेटे की हत्या
कर दे! कुछ तो
विचारना था!
लेकिन उसने
कुछ भी न
विचारा। फरसा
उठाया और बेटे
को लेकर चल
पड़ा।
यह
हमें भी लगेगी, जरूरत से
ज्यादा बात है।
और यह तो
अंधापन है, और यह तो
मूढ़ता है।
लेकिन
कीर्कगार्ड
भी कहता है कि
यह सारा परीक्षण
पहले कर लेना
चाहिए। लेकिन
एक बार
परीक्षण पूरा
हो गया हो तो
फिर छोड़ देना
चाहिए सारी
बात। अगर
परीक्षण सदा
ही जारी रखना
है तो गुरु और
शिष्य का
संबंध कभी भी
निर्मित नहीं
हो सकता।
महत्वपूर्ण
वह संबंध
निर्मित होना
है।
वक्त
पर खबर आ गयी
कि हत्या नहीं
करना है फरसा उठ
गया था और गला
काटने के करीब
था। लेकिन यह
गौण बात है।
वापस लौट आया
है पिता अपने
बेटे को लेकर, लेकिन
अपनी तरफ से
हत्या करने की
आखिरी सीमा तक
पहुंच गया था।
फरसा उठ गया
था और गला
काटने के करीब
था।
यह
घटना तो सूचक
है। शायद ही
कोई गुरु आपको
कहे कि जाकर
बेटे की हत्या
कर आयें।
लेकिन, घटना में
मूल्य सिर्फ
इतना है कि
अगर ऐसा भी हो,
तो
आज्ञापालन ही
शिष्य का
लक्षण है।
क्योंकि आशा
को इतना
मूल्यवान—पहले
ही सूत्र के
हिस्से में
आशा को इतना
मूल्यवान
महावीर क्यों
कह रहे हैं?
आपकी बुद्धि
जो—जो समझ
सकती है इस
जगत में, वह जैसे—जैसे
आप भीतर
प्रवेश
करेंगे, उसकी
समझ क्षीण
होने लगेगी कि
वहां काम नहीं
पड़ेगी। और अगर
आप यही भरोसा
मान कर चलते
हैं कि मैं अपनी
बुद्धि से ही
चलूंगा तो बाहर
की दुनिया तो
ठीक, भीतर
की दुनिया में
प्रवेश नहीं
हो सकेगा।
भीतर तो घड़ी—घड़ी
ऐसे मौके
आयेंगे जब
गुरु कहेगा कि
करो। और तब
आपकी बुद्धि
बिलकुल इनकार
करेगी कि मत करो।
क्योंकि अगर
ध्यान की थोड़ी—सी
गहराई बढ़ेगी
तो लगेगा कि
मौत घट जायेगी।
अब आपका कोई
अनुभव नहीं है।
जब भी ध्यान
गहरा होगा तो
मौत का अनुभव
होगा। ऐसा लगेगा,
मरे।
गुरु
कहेगा, मरो, बढ़ो,
मरोगे ही न!
मर जाना। तब
आपकी बुद्धि
कहेगी, अभी
यह क्या हो
रहा है, अब
आगे कदम नहीं
बढ़ाया जाता।
बेटे
की हत्या करना
भी इतना कठिन
नहीं है, अगर खुद के
मरने की भीतर
घड़ी आये, तब।
बेटा फिर भी
दूर है और
बेटे की हत्या
करने वाले बाप
मिल जायेंगे।
ऐसे तो सभी
बाप थोड़ी बहुत
हत्या करते है
लेकिन वह अलग
बात है। बाप
की हत्या करने
वाले बेटे मिल
जायेंगे। एक
सीमा पर सभी
बेटे बाप से
छुटकारा
चाहते है, लेकिन
वह अलग बात है।
लेकिन, आदमी जब
अपने की ही
हत्या पर
उतरने की
स्थिति आ जाती
है, और जब
ध्यान में ऐसी
घड़ी आती है कि
शरीर छूट तो नहीं
जायेगा! सांस
बंद तो नहीं
हो जायेगी! तब
आपकी बुद्धि
कोई भी उपयोग
की नहीं, क्योंकि
आपका कोई
अनुभव काम
नहीं पड़ेगा।
वहां गुरु
कहता है कि
ठीक है, हो
जाने दो बंद
सांस। उस वक्त
क्या करिएगा?
अगर आज्ञा
मानने की आदत
न बन गयी हो।
अगर गुरु के
साथ असंगत में
भी उतरने की
तैयारी न हो
गयी हो, तो
आप वापस लौट
आयेंगे, आप
भाग जायेंगे।
उस वक्त तो
मृत्यु को एक
किनारे रख कर
वह गुरु जो
कहता है, वह
ठीक है।
और बड़े
मजे की बात है, आप
मरेंगे नहीं,
बल्कि इस
ध्यान में जो
मृत्यु घटेगी,
इससे ही आप
पहली दफा जीवन
का स्वाद, जीवन
का अनुभव कर
पायेंगे।
लेकिन उसके
लिए आपकी
बुद्धि तो कोई
भी सहारा नहीं
दे सकती।
बुद्धि तो वही
सहारा दे सकती
है जो जानती
हो। यह आपने
कभी जाना नहीं
है। यह तो
मामला ठीक ऐसा
ही है कि बेटा
हाथ बाप का पकड़
लेता है और
फिर फिक्र छोड़
देता है कि
ठीक, बाप
साथ है, उसकी
चिंता नहीं है
कुछ। अब जंगल
में शेर भी
चारों तरफ भटक
रहे हों तो बेटा
गुनगुनाता
हुआ, गीत
गाता, बाप
का हाथ पकड़
कर चलता है।
बाप के हाथ
में हाथ है, बात खत्म हो
गयी। अगर बाप
उससे कह दे कि
यह सामने जो
शेर आ रहा है, इससे गले
मिल लो, तो
बेटा मिल लेगा।
आशा का
अर्थ है—असंगत
घटनाएं
घटेंगी साधना
में, जिनके
लिए बुद्धि
कोई तर्क नहीं
खोज पाती। तब
कठिनाइयां
शुरू होती है,
तब संदेह पकड़ना
शुरू होता है।
तब लगता है कि
भाग जाओ इस
आदमी से, बच
जाओ इस आदमी
से। तब बुद्धि
बहुत—बहुत
उपाय करेगी कि
यह आदमी बहुत
गलत है, इसकी
बात मत मानना।
तब बुद्धि ऐसी
पच्चीस बातें
खोज लेगी, जिनसे
यह सिद्ध हो
जाये कि यह
आदमी गलत है, इसलिए इसकी
यह बात मानना
भी उचित नहीं
है। छोड़ दो।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, 'जो
मनुष्य गुरु
की आज्ञा पालन
करता हो, उसके
पास रहता हो'।
पास
रहना बड़ी
कीमती बात थी।
पास रहना एक आंतरिक
घटना है।
शारीरिक रूप
से पास रहना, रहने का
उपयोग है
लेकिन आत्मिक
रूप से, मानसिक
रूप से पास
रहने का बहुत
उपयोग है। यह
जो जीवन की
आत्यंतिक कला
है, इसे
सीखना हो तो
गुरु के इतने
पास होना
चाहिए, जितने
हम अपने भी
पास नहीं।
जैसे कोई आपकी
छाती में झा
भोंक दे तो
गुरु का स्मरण
पहले आये, बाद
में अपना, कि
मैं मर रहा
हूं। यह अर्थ
हुआ पास रहने
का।
पास
रहने का मतलब
है, एक आंतरिक
निकटता
सामीप्य। हम
अपने से भी ज्यादा
पास है, अपने
से भी ज्यादा
भरोसा, अपने
से भी ज्यादा
स्मरण। यह जो
घटना है पास
होने की, निकट
होने की, यह
शारीरिक तल पर
भी बड़ी
मूल्यवान है।
इसलिए गुरु के
पास शारीरिक
रूप से रहने
का भी बड़ा
अर्थ है।
अधिकतम गुरु,
अगर हम
उपनिषद के
गुरुओं में
लौट जायें, या महावीर—महावीर
के साथ दस
हजार साधु—साध्वियों
का समूह चलता
था। महावीर के
पास होना ही
मूल्य था उसका।
क्या
अर्थ है इस
पास होने का?
इस पास
होने का एक ही
अर्थ है कि
मेरे मैं की
जो आवाज है, वह धीरे—धीरे
कम हो जाये।
हम जब भी
बोलते हैं तो
मैं हमारा
केंद्र होता है।
गुरु के पास
रहने का अर्थ
है, मैं
केंद्र न रह
जाये, गुरु
केन्द्र हो
जाये। महावीर
के पास दस
हजार साधु—साध्वी
हैं। उनका
अपना होना कोई
भी नहीं है।
महावीर का
होना ही सब
कुछ है।
बुद्ध
एक गांव के
बाहर ठहरे है।
हजारों
भिक्षु—भिक्षुणियां
उनके पास है।
गांव का
सम्राट मिलने
आया है। पास
आकर उसे शक
होने लगा।
आम्र—कुंज है, उसके
बाहर आकर उसने
अपनी वजीरों
को कहां कि
मुझे शक होता
है, इसमें
कुछ धोखा तो
नहीं है? क्योंकि
तुम कहते थे
कि हजारों लोग
वहां ठहरे है,
लेकिन आवाज
जरा भी नहीं
हो रही है। जहां
हजारों लोग ठहरे
हो और तुम
कहते हो, बस
यह जो आम की
कतार है, इसके
पीछे के ही वन
में वे लोग
ठहरे है। जरा
भी आवाज नहीं
है, मुझे
शक होता है।
उसने अपनी
तलवार बाहर
खींच ली:।
उसने कहां, इसमें कोई षड़यंत्र
तो नहीं? उसके
वजीरों ने कहां,
आप निश्चित
रहें, वहां
सिर्फ एक ही
आदमी बोलता है,
बाकी सब चुप
है। वह
बुद्धके
सिवाय वहां
कोई बोलता ही
नहीं। और जंगल
में शांति है,
क्योंकि बुद्ध
नहीं बोल रहे
होंगे, और
तो वहां कोई
बोलता ही नहीं।
मगर वह जो
सम्राट था, उसका नाम
था, अजातशत्रु।
नाम भी हम बड़े
मजेदार देते हैं,
जिसका कोई शत्रु
पैदा न हुआ हो।
हालांकि
शांति में भी
उसे शत्रु
दिखायी पड़ता है,
सन्नाटे
मैं भी। लेकिन
वह तलवार
निकाले ही गया।
जब उसने देख
लिया हजारों
भिक्षु बैठे है
चुपचाप, बुद्ध
एक वृक्ष की छाया
में बैठे है, तब उसने तलवार
भीतर की। तब उसने
बुद्ध से पहला
प्रश्न यही पूछा,इतनी चुप्पी,
इतना मौन
क्यों है? इतने
लोग हैं, कोई
बात—चीत नहीं,
कोई चर्चा
नहीं, दिन—रात
ऐसे बीत जाते
है?
बुद्ध
ने कहां, ये लोग मेरे
पास होने के
लिए यहां है।
अगर ये बोलते
रहें तो ये
अपने ही पास
होंगे। ये
अपने को
मिटाने को
यहां आये है।
ये यहां है ही
नहीं। बस इस जंगल
में जैसे मैं ही
हूं और ये सब
मिटे हुए शून्य
हैं। ये अपने को
मिटा रहे हैं।
जिस दिन ये
पूरे बिखरे
जायेंगे उस
दिन ही ये मुझे
पूरा समझ
पायेंगे। और
जो मैं इनसे
कहना चाहता
हूं वह इनके
मौन में ही कहां
जा सकता है।
और अगर मैं
शब्द का भी
उपयोग करता
हूं तो वह यही
समझाने के लिए
कि वे कैसे मौन
हो जाये। शब्द
का उपयोग करता
हूं मौन में
ले जाने के
लिए, फिर
मौन का उपयोग
करूंगा सत्य
में ले जाने
के लिये। शब्द
से कोई सत्य
में ले जाने का
उपाय नहीं है।
शब्द से, मौन
में ले जाया
जा सकता है।
बस
शब्द की इतनी
ही सार्थकता
है कि आपकी
समझ में आ
जाये कि चुप
हो जाना है।
फिर सत्य में
ले जाया जा
सकता है।
सामीप्य का यह
अर्थ है।
सारिपुत्त
बुद्ध का खास
शिष्य था। जब
वह स्वयं
बुद्ध हो गया
तो बुद्ध ने
उससे कहां, कि अब
सारिपुत्त तू जा
और मेरे संदेश
को लोगों तक
पहुंचा।
सारिपुत्त
उठा, नमस्कार
करके चलने लगा।
आनंद
बुद्ध का
दूसरा प्रमुख
शिष्य था। उसे
अब तक ज्ञान
नहीं हुआ था।
उसने बुद्ध से
कहां, इस
भांति मुझे
कभी दूर मत
भेज देना।
मेरी प्रार्थना,
इतना खयाल रखना,
कभी मुझे ऐसी
आज्ञा मत देना
कि दूर चला जाऊं।
मैं तो समीप ही
रहना चाहता हूं।
बुद्ध
ने कहां, तू समीप नहीं
है, इसलिए समीप
रहना चाहता है।
सारिपुत्त उठा
और चल पड़ा। वह कहीं
भी रहे, वह मेरे
ही समीप रहेगा।
बीच का फासला
अब कोई फासला
नहीं है।
सारिपुत्त
चल पड़ा। वह गांव—गांव
जगह—जगह संदेश
देता रहा।
लेकिन रोज सुबह
जैसे उठ कर वह बुद्ध
के चरणों में सिर
रखता था। जिस
दिशा में
बुद्ध होते, रोज सुबह
उठकर उनके
चरणों में सिर
रखता। उसके
शिष्य उससे
पूछते, सारिपुत्त
अब तो तुम भी
स्वयं बुद्ध हो
गये, अब तुम
किस के चरणों
में सिर रखते हो?
अब क्या है जरूरत?
सारिपुत्त कहता,
जिनके कारण
मैं मिट सका जिनके
कारण मै
समाप्त हुआ, जिनके कारण मैं
शुन्य हुआ।
फिर उसके
शिष्य कहते, लेकिन बुद्ध
तो बहुत दूर है,
सैंक्ड़ोमील
दूर है, यहां
से तुम्हारे
चरणों में
किये गये
प्रणाम कैसे
पहुंचेंगे? तो
सारिपुत्त
कहता, अगर
वे दूर होते
तो मैं उन्हें
छोड़कर ही न
आता। छोड़कर आ
सका इसी भरोसे
कि अब कहीं भी
रहूं वे मेरे
पास है।
एक
संबंध है बाहर
का जो शरीर से
होता है। शरीर
कितने ही निकट
आ जाये तो भी
दूरी बनी रहती
है। शरीर के
साथ कोई
निकटता हो ही
नहीं पाती।
कितने ही निकट
ले जाओ, आलिंगन कर
लो किसी का, फिर भी बीच
में फासला बना
ही रहता है।
दो शरीर कभी
भी एक शरीर
नहीं, नहीं
हो सकते। शरीर
का होना ही
पार्थक्य है।
फिर एक और आंतरिक
सामीप्य है।
सारिपुत्त
उसी की बात कर
रहा है। वह कह
रहा है, अब
फासले टूट गये,
अब कोई
स्पेस, कोई
जगह बीच में
नहीं है। अब
मैं नहीं हूं
बुद्ध ही है, या कहूं कि
मैं हूं बुद्ध
नहीं है, एक
ही बात है।
इससे
भी ज्यादा
मजेदार घटना
तो तब घटी, कहते है,
महाकाश्यप
अपने ही पैर
छू लेता था।
लोगों का बहुत
अजीब लगता
होगा।
महाकाश्यप
बुद्ध का
दूसरा शिष्य
था और शायद उनके
सारे शिष्यों
में अदभुत था।
महाकाश्यप
अपने ही पैर
छू लेता था और
लोगों ने उससे
कहां, यह
तुम क्या करते
हो? वह
कहता है कि
बुद्ध के चरण
छू रहा हूं।
लोग कहते है, ये पैर
तुम्हारे हैं।
महाकाश्यप
कहता कि अब
उनसे इतनी
निकटता हो गयी
कि वह भीतर ही
है, पैर
उनके ही हैं।
महाकाश्यप
कहता, मैं
किसी के भी
पैर छुंऊ, बुद्ध
के ही पैर है।
इतनी समीपता
भी बन सकती है।
इस सामीप्य
में ही संवाद
है। इसलिये
महावीर कहते
हैं, उनके
पास रहता हो, उनके निकट
होता हो।
इस
निकटता में
भौतिक निकटता
ही
अंतर्निहित नहीं
है, आंतरिक
सामीप्य भी है,
वही है
वस्तुत: अंत
में।
'गुरु
के इंगितों को
ठीक—ठीक समझता
हो।’ हम तो गुरु
के शब्द को भी
ठीक से नहीं
समझ पाते, इंगित
तो बड़ी और बात
है। इंगित का
अर्थ है, इशारा,
जो कहां
नहीं गया है, फिर भी दिया
गया है। शायद
इतना बारीक है
कि कहने में
टूट जायेगा, इसलिए कहां
नहीं गया है।
सिर्फ दिया
गया है। शायद
इतना सूक्ष्म
है कि शब्द
उसके सौंदर्य
को नष्ट कर
देंगे। स्कूल
बना देंगे।
इसलिए सिर्फ
इशारा दिया
गया है।
जो
गुरु है, वह धीरे—धीरे
शब्दों का
सहारा छोड़ता
जाता है। जैसे—जैसे
शिष्य विनीत
होता है, जैसे—जैसे
शिष्य झुकता
है, वैसे—वैसे
गुरु शब्दों
का सहारा
छोड़ता जाता है।
इंगित
महत्वपूर्ण
हो जाते हैं, इशारे
महत्वपूर्ण
हो जाते हैं।
शब्द भी सहारे
है, लेकिन
बहुत स्कूल, बहुत ऊपरी।
बुद्ध
कैसे चलते हैं, महावीर
कैसे बैठते
हैं, महावीर
कैसे उठते है,
महावीर
कैसे सोते है
इन सब में
उनके इंगित
हैं। बुद्ध
कैसे हाथ
उठाते हैं, कैसे आंख
उठाते हैं, कैसे आंखें
उनकी झपती है,
उस सबमें
उनके इंगित
हैं। धीरे—
धीरे जो उनके
पास है, उनके
शरीर की भाषा
को समझने लगता
है। हमारी भी
शरीर की भाषा
तो होती है, हमें भी पता
नहीं होता।
हमारे शरीर की
भी भाषा होती
है, और अब
तो पश्चिम
में एक साइंस
ही किनेटिक्स
निर्मित हो
रही है, जो शरीर
की भाषा पर
निर्भर है, बाडी
लैंग्वेज।
और हम
सब शरीर से भी
बोलते रहते
हैं। कभी आपने
खयाल न किया
होगा, बच्चे
शरीर की भाषा
को बिलकुल ठीक
से समझते है।
फिर धीरे—
धीरे शब्द
सीखने लगते
हैं और शरीर
की भाषा भूल
जाते हैं।
इसलिए बच्चों
के साथ मां—बाप
को कभी—कभी बड़ा
स्ट्रेंज, बड़ा
विचित्र
अनुभव होता है
कि मां मुस्कुरा
रही है चेहरे
से लेकिन
बच्चा समझता
है कि वह
क्रोध में है।
मां कह रही है,
थपका रही है
खिलौने ले
आऊंगी बाजार
से, और बड़ी
प्रसन्नता
दिखा रही है
जैसे कि बच्चे
से बडा प्रेम
हो, लेकिन
बच्चे समझ
लेते हैं कि यह
सब धोखा है।
क्योंकि वह जो
कह रही है, उसके
हाथ की थपकी
से पता नहीं
चलता। बच्चे
पहले तो बाडी
लैंग्वेज
सीखते हैं, शरीर की
भाषा सीखते है।
बच्चे जानते
हैं कि मां जब
उन्हें दूध
पिला रही है, तो उसके
स्तन का इशारा
भी बच्चे
समझते हैं कि इस
वक्त वह
प्रसन्न है, नाखुश है, पिलाना
चाहती है, नहीं
पिलाना चाहती,
हट जाना
चाहती है कि
पास आना चाहती
है। वह सब
समझते है।
क्योंकि पहली
भाषा उनकी
शरीर की भाषा
है। वह मां को
देखकर समझते
हैं। अभी वह
बोल नहीं सकते,
न मां क्या बोलती
है, उसे
समझ सकते हैं।
लेकिन मां की
गेस्वर, उसकी
मुद्राएं
उनके खयाल में
आने लगती हैं।
और इसलिए
बच्चों को
धोखा देना
बहुत मुश्किल
है। जब तक कि
बच्चे थोड़े बड़े
न होने लगें।
छोटे बच्चों
को धोखा नहीं
दिया जा सकता।
फिर
धीरे— धीरे
भाषा आरोपित
हो जाती है और
हम शरीर की भाषा
भूल जाते हैं।
और तब बड़ी
मजेदार
घटनाएं घटती
हैं। अकसर
आपको खयाल में
नहीं है। कभी
किसी फिल्म
में आपको खयाल
में आया हो तो
आया हो। कभी
फिल्म में ऐसा
हो जाता है कि
भाषा और भाव—भंगिमा
का संबंध टूट
जाता है।
एक
नाटक में ऐसा
हुआ कि एक
आदमी को गोली
मारी जानी थी, लेकिन
गोली का घोड़ा
अटक गया।
मारने वाले ने
बहुत घोड़ा
खींचा, लेकिन
जैसे उसने
घोड़ा खींचा
जिसको मरना था,
वह धड़ाम से
गिरकर मर गया।
जब वह मर चुका
और चिल्ला
चुका कि हाय, मैं मरा! बाद
में घोड़ा छूटा
और गोली चली।
संबंध टूट गया,
कृत्य में
और भाषा में।
आपको
पता नहीं, आपके
कृत्य और भाषा
में संबंध
नहीं होता।
आपके होंठ
मुस्कराते है।
आपकी आंख कुछ
और कहती है।
आप हाथ से हाथ
मिलाते हैं, आपके हाथ के
भीतर की ऊर्जा
पीछे हटती है;
हाथ आगे बढ़ा
है, ऊर्जा
पीछे हट रही
है, आप
मिलाना नहीं
चाहते। हाथ
मिलाना नहीं
चाहते तो भीतर
की ऊर्जा पीछे
हट रही है। और
आप मिला रहे
हैं हाथ।
लेकिन अगर
दूसरा आदमी
भाषा समझता हो
शरीर की तो
फौरन पहचान
जायेगा। कि
हाथ मिलाया
गया और ऊर्जा
नहीं मिली।
ऊर्जा भीतर
खींच ली।
लेकिन हम सभी
भाषा भूल गये
हैं। इसलिए
कोई पता नहीं
चलता है। एक
आदमी को गले
मिलाते हैं और
पीछे हट रहे
हैं। आपको खुद
पता चल जायगा।
जरा खयाल करना
अपने कृत्यों
में कि जो आप
कर रहे है, अगर
वह नहीं करना
चाहते हैं तो
भीतर उससे
विपरीत हो रहा
है। उसी वक्त
हो रहा है। वह
तो कोई शरीर
की भाषा नहीं
जानता। भूल
गये हैं हम सब।
शायद भूल जाना
जरूरी है, नहीं
तो दुनिया में
दोस्ती बनाना,
प्रेम करना
बहुत मुश्किल
हो जाये। अगर
हमारे शरीर की
भाषा सीधी—सीधी
समझ में आ
जाये तो बड़ा
मुश्किल हो
जाये। इसलिए
हम सब पर्त
बना लिए है।
उन शब्दों की
पर्त में हम
जीते हैं।
जब हम
किसी आदमी से
कहते हैं, मैं
तुम्हें
प्रेम करता
हूं तो बस वह
इतना ही सुनता
है। न हमारे
ओंठ की तरफ
देखता कि जब
ये शब्द कहे
गये, तो
ओठों ने भी
कुछ कहां? असली
कंटेंट ओठों
में है, शब्दों
में नहीं। जब
ये शब्द कहे
गये तब आंखों
ने कुछ कहां? असली विषय—वस्तु
आंखों में है,
शब्दों में
नहीं। जब ये
शब्द कहे गये
तब इस पूरे
आदमी के रोयें—रोयें
में पुलक क्या
थी? आनंद
क्या था? ये
कहने से प्राण
इसके आनंदित
हुए? कि
मजबूरी में
इसने कहकर
कर्तव्य
निभाया!
लेकिन
शायद खतरनाक
है। जैसा
हमारी सभ्यता
है, समाज
है, धोखे
का एक लंबा
आडंबर। इसलिए
हम बच्चों को
जल्दी ही ठोंक—पीटकर
उनकी जो समझ
है उनके ऊपर
आरोपण करके, उनकी
वास्तविक समझ
को भुला देते
हैं।
गुरु
के पास रहकर
फिर शब्दों की
भाषा भूलनी पड़ती
है। फिर शरीर
की भाषा सीखनी
पड़ती है।
क्योंकि जो
गहन है, वह शरीर से कहां
जा सकता है।
वह जो गहन है
वह भाव—भंगिमा
से कहां जा
सकता है।
इसलिए एक पूरा
का पूरा शास्त्र
मुद्राओं का,
गेस्चर्स
का निर्मित
हुआ। अब पश्चिम
में उसकी पुन:
खोज हो रही है।
जिसको वह शरीर
की भाषा कहते
है वह हमने
मुद्राओं में
काफी गहराई तक
खोजी है।
आपने
बुद्ध की
मूर्तियां
देखी होंगी
विभिन्न
मुद्राओं में।
अगर आप किसी
एक खास मुद्रा
में बैठ जायें
तो आप हैरान
होंगे कि आपके
भीतर भाव
परिवर्तन हो
जाता है। आपकी
मुद्रा भीतर
भाव परिवर्तन
ले आती है।
आपका भाव
परिवर्तन हो
तो मुद्रा
परिवर्तित हो
जाती है। जैसे
बुद्ध पदमासन
में बैठते हैं, हाथ पर
हाथ रखकर, या
महावीर बैठते
हैं पदमासन
में। सिर्फ
वैसे ही आप
बैठ जायें, तो आप
तत्काल
पायेंगे कि जो
आपके मन की
धारा चल रही
थी वह उसमें
विघ्न पड़ गया।
बुद्ध
ने अनेक
मुद्राएं अभय, करुणा, बहुत—सी
मुद्राओं की
बात की है।
अगर उस मुद्रा
में आप खड़े हो
जायें तो आप
तत्काल भीतर
पायेंगे कि
भाव में अंतर
पड़ गया। अगर
आप क्रोध की
मुद्रा में
खड़े हो जायें
तो भीतर क्रोध
का आवेश आना
शुरू हो जाता
है। शरीर और
भीतर जोड़ है।
गुरु के भीतर
सारे धोखे मिट
गये है। उसके
भीतर भाव होता
है, उसके
शरीर तक वह
जाता है।
इसलिए
महावीर कहते
है, शिष्य
को, गुरु
के इंगितों को
ठीक—ठीक समझता
हो। क्या गुरु
कह रहा है, इसे
ठीक—ठीक समझता
हो, शरीर
से भी।
रिन्झाई
अपने गुरु के
पास था। चौबीस
घंटे रुकने के
बाद उसने कहां, आप कुछ
सिखायेंगे
नहीं? गुरु
ने कहां, चौबीस
घंटे मैंने
कुछ और किया
ही नहीं सिवाय
सिखाने के तो
रिन्हाई ने कहां,
एक शब्द आप
बोले नहीं! या
तो मै बहरा
हूं जो मुझे
सुनाई नहीं
पड़ा! लेकिन
अभी आप बोल
रहे है, मैं
ठीक से सुन
रहा हूं। आप
एक शब्द नहीं
बोले।
गुरु
ने कहां, मेरा सब कुछ
होना बोलना ही
है। तुम जब
सुबह मेरे लिए
चाय लेकर आये
थे, तब
मैंने कैसे
तुमसे हाथ से
चाय ग्रहण की
थी, और
मेरी आंखों
में कैसे
अनुग्रह का
भाव था! वह
तुमने नहीं
देखा। काश, तुम वह देख
लेते! तो जो
नहीं कहां जा
सकता, वह
मैंने कह दिया
था। जब सुबह
आकर तुमने
मेरे चरणों
में सिर रखा
था और नमस्कार
किया था तो
मैंने किस
भांति तुम्हारे
सिर पर हाथ रख
दिया था। काश,
तुम वह समझ
लेते तो बहुत
कुछ समझ में आ
गया होता।
शास्त्र
नहीं कह सकते, जो एक
इशारा कह सकता
है।
महावीर
कहते है, जो गुरु के
इंगितों को
समझता हो, कार्य
विशेष में
गुरु की
शारीरिक अथवा
मौखिक मुद्राओं
को ठीक—ठीक
समझ लेता हो, वह मनुष्य
विनय संपन्न
कहलाता है।
तो
हमारी तो बड़ी
कठिनाई हो
जायेगी। हम तो
महावीर
चिल्ला—चिल्लाकर, डंका बजा—बजाकर
कहें कि ऐसा
करो, तो भी
समझ में नहीं
आता। समझ में
भी आता है तो
हमारी समझ में
वही आता है जो
हम समझना
चाहते है। वह
क्या कहना
चाहते है इससे
कोई लेना—देना
नहीं है। हम
अपने पर इस
बुरी तरह आरूढ़
है, हम
अपने आपको इस
तरह पकड़े हुए
है कि जो हम
समझते है, वह
हमारी
व्याख्या
होती है, इन्टरप्रिटेशन
होता है। क्या
महावीर कहते
है, वह हम
नहीं समझते।
हम क्या समझना
चाहते है, हम
क्या समझ सकते
है, हमारी
समझ हम उनके
ऊपर आरोपित
करके जो
व्याख्या कर
लेते है। फिर
हम उसके
अनुसार चलते
है और हम
सोचते है कि हम
महावीर के अनुसार
चल रहे हैं।
हम अपने ही
अनुसार चलते
रहते हैं।
कभी
आपने खयाल
किया, मैं
यहां बोल रहा
हूं मैं एक ही
बात बोल रहा
हूं लेकिन
यहां जितने
लोग है, उतनी
बातें समझी जा
रही है। यहां
हर आदमी अपने
भीतर इंतजाम
कर रहा है, समझ
रहा है, अपनी
बुद्धि को जोड़
रहा है, अर्थ
निकाल रहा है।
अभी
मनोवैज्ञानिक
कहते है कि हम
इतने चालाक है
कि जो हमारे
मतलब का होता
है, हम
उसे जल्दी से
समझ लेते हैं।
जो हमारे मतलब
का नहीं होता,
हम उसको बाई
पास कर जाते
है। उस पर हम
ध्यान ही नहीं
देते। जिससे
हमारा लाभ
होता हो उसे
हम तत्काल पकड़
लेते है। जिसमें
हमें जरा भी
हानि दिखायी
पड़ती हो, हम
उसको सुनते ही
नहीं। हम उसे
गुजार जाते है।
ऐसा नहीं कि
हम सुनकर उसे
गुजार जाते, हम सुनते ही
नहीं। हम उस
पर ध्यान ही
नहीं देते। हम
अपने ध्यान को
एक छलांग लगा
देते है, हम
आगे बढ़ जाते
है
जब मैं
आपसे बोल रहा
हूं तो उसमें
से पांच
प्रतिशत भी
सुन लें तो
बहुत कठिन है।
उसमें से पांच
प्रतिशत भी आप
वैसा सुन लें
जैसा बोला गया
है, बहुत
कठिन है। आप
अपने को
मिलाते चले
जाते है, इसलिए
अंत में जो आप
अर्थ निकालते
है, ध्यान
रखना, वह
आपका ही है।
उसका मुझ से
कुछ लेना—देना
नहीं।
महावीर
कहते हैं कि
जो शारीरिक, मौखिक
मुद्राओं तक
को ठीक—ठीक
समझ लेता हो, वह मनुष्य
विनय—संपन्न
कहलाता है। वह
आदमी विनीत है,
वह आदमी
हम्बल है।
क्या मतलब हुआ
विनीत का? विनीत
का मतलब हुआ
कि आप बीच—बीच
में न आते हों,
आप अपने को
घुमा—घुमा कर
बीच में न ले
आते हों। जो कहां
जा रहा हो, उसको
ही समझ लेते
हों अपने को
बीच में लाये
बिना, तो
आप शिष्य है।
विद्यार्थी
को मनाही नहीं
है, वह
अपने को बीच
में लाये, मजे
से लाये।
शिष्य को
मनाही है, क्योंकि
विद्यार्थी
केवल सूचनाएं
ग्रहण कर रहा
है। अपने लाभ
के लिए। जो
उसके लाभ का
हो ग्रहण कर
ले, जो
उसके लाभ का न
हो छोड़ दे।
इसलिए शिक्षक
और
विद्यार्थी
के बीच संबंध
लाभ—हानि का
है। जो मेरे
काम का नहीं
है वह मैं छोड़
दूंगा जो मेरे
काम का है वह
चुन लूंगा यह
उचित ही है।
लेकिन शिष्य
और गुरु के
बीच संबंध लाभ—हानि
का नहीं है।
यह गुरु को
पीने आया है।
इसमें यह अगर
अपने को बीच—बीच
में डालता है
तो जो भी यह
निष्कर्ष
लेगा वह इसके
अपने होंगे।
गुरु से कोई
संबंध न हो
पायेगा।
इसलिए
कई बार ऐसा
होता है कि
गुरु के पास
लोग वर्षों
रहते है और
फिर भी गुरु
को बिना छुए
लौट जाते हैं।
वर्षों रहा जा
सकता है। वर्ष
बड़े छोटे हैं, जन्मों
रहा जा सकता
है। वे अपने
को ही सुनते
रहते है।
विनय
का यह तो बहुत
गहरा अर्थ हुआ।
विनय का अर्थ
हुआ, अपने
को सब भांति
छोड़ देना। असल
में
विद्यार्थी
होना हो तो अज्ञान
शर्त नहीं है।
शिष्य होना हो
तो अज्ञानी
होना शर्त है।
अपने सारे
ज्ञान को
तिलांजलि दे
देना, खाली
स्लेट की तरह,
खाली कागज
की तरह खड़े हो
जाना, ताकि
गुरु जो लिखे
वही दिखायी
पड़े। आपका
लिखा हुआ पहले
से तैयार हो
कागज पर, और
फिर गुरु और
लिख दे तो सब
उपद्रव ही हो
जायेगा और जो
अर्थ
निकलेंगे वे
अनर्थ सिद्ध
होंगे।
यह
अनर्थ घट रहा
है, यह
हर आदमी पर घट
रहा है। हर
आदमी एक भीड़
है। उसमें न
मालूम कितने
विचार है। और
जब एक विचार
उस भीड़ में
घुसता है तो
वह भीड़ तत्काल
उस विचार को
बदलने में लग
जाती है, अपने
अनुकूल करने
में लग जाती
है। जब तक वह
विचार अनुकूल
न हो जाये, तब
तक आपका
पुराना मन
बेचैनी अनुभव
करता है। जब
वह अनुकूल हो
जाये, तब
आप निश्चित
हो जाते हैं।
गुरु
के पास आप जब
जाते है तब
गुरु जो विचार
देता है, उसको आपके
पूर्व
विचारों के
अनुकूल नहीं
बनाना है, बल्कि
इस विचार के
अनुकूल सारे
पूर्व विचारों
को बनाना है, तब विनय है, चाहे सब
टूटता हो, चाहे
सब जाता हो।
आपके
पास है भी
क्या। हम बड़े
मजेदार लोग
हैं, जिसको
बचाते रहते है,
कभी यह
सोचते नहीं है,
है भी क्या!
मेरे पास लोग
आते हैं। वे
कहते है, मेरा
विचार तो ऐसा
है। मैं उनसे
पूछता हूं अगर
यह विचार
तुम्हें कहीं
ले गया हो तो
मजे से पक्के
रहो, मेरे
पास आओ ही मत।
नहीं, वे
कहते है, कहीं
ले तो नहीं
गया। तो फिर
इस मेरे विचार
को कृपा करके
छोड़ दो। जो
विचार
तुम्हें कहीं
नहीं ले गया
है, उसी को
लेकर अगर तुम
मेरे पास भी
आते हो और मैं तुमसे
जो कहता हूं
उसी विचार से
उसकी भी जांच करते
हो तो मेरा
विचार भी
तुम्हें कहीं
नहीं ले
जायेगा। तुम
निर्णायक बने
रहोगे। लोग
सुनते ही नहीं।
मार्क
ट्वैन ने एक
मजाक की है, बड़ा
संपादक था, बड़ा लेखक था
और एक हंसोडू
आदमी था। और
कभी—कभी हंसने
वाले लोग गहरी
बातें कह जाते
है जो कि रोने
वाले लाख
रोयें तो नहीं
कह पाते। उदास
लोगों से
सत्यों का
जन्म नहीं
होता। उदास
लोगों से
बीमारियां
पैदा होती हैं।
मार्क ट्वैन
ने कहां है, कि जब कोई
किताब मेरे
पास आलोचना के
लिए, क्रिटिसिज्य
के लिए भेजता
है, तो मैं
पहले किताब
पड़ता नहीं, पहले आलोचना
लिखता हूं।
क्योंकि
किताब पढ़ने से
आदमी अगर
प्रभावित हो जाये
तो पक्षपात हो
जाता है। पहले
आलोचना लिख
देता हूं फिर
मजे से किताब
पढ़ता हूं।
उसने सलाह दी
कि आलोचक को
कभी भी आलोचना
करने के पहले
किताब नहीं पढ़नी
चाहिए
क्योंकि उससे
आलोचक का मन
अगर प्रभावित
हो जाये तो
पक्षपात हो
जाता है।
सुना
है मैंने, मुल्ला
नसरुद्दीन
बुढ़ापे में
मजिस्ट्रेट हो
गया, जे पी।
पहला ही आदमी
आया। मिल गया
होगा। किसी
स्वतंत्रता
दिवस के अवसर पर,
उसको जे पी होना।
पहला ही आदमी
आया, पहला ही
मुकदमा था। एक
पक्ष बोल पाया
था कि उसने जजमेंट
लिखना शुरू किया।
कोर्ट क्लर्क
नेकहां, महानुभाव,
यह आप क्या कर
रहे हैं। अभी आपने
दूसरे पक्ष को
तो सुना ही नही।
नसरुद्दीन
ने कहां, अभी मेरा मन
साफ है और अगर
मैं दोनों को
सुन लूं तो सब
कन्फूयजन हो
जायेगा, जब
तक मन साफ है, मुझे निर्णय
लिख लेने दो, फिर पीछे
दूसरे को भी
सुन लेंगे।
फिर कुछ गड़बड़
होने वाली
नहीं है। हम
सब ऐसे ही कन्फयूजन
में हैं, और
हम किसी की भी
नहीं सुनता
चाहते है कि
कहीं कच्छ न
हो जायें। हम
अपने को ही
सुने चले जाते
हैं। जब हम
दूसरे को भी सुन
रहे है तब हम पद
की ओट से सुनते
है छांटते रहते
हैं, क्या छोड़
देना है, क्या
बचा लेना है? फिर जो बचता है,
वह आपका ही
चुनाव है। लोग
अपने विचार को
पकड़ कर चलते
हों, तो
गुरु से उनका
कोई संबंध
नहीं हो सकता।
वे लाख गुरुओं
के पास भटकें
वे अपने इर्द—गिर्द
ही पस्कि्रमा
करते रहते है।
वे अपने घर को
कभी नहीं छोड़
पाते, उसके
आस—पास ही
घूमते रहते
हैं। इसलिए
महावीर ने कहां
है, कहता
हूं उसे विनय
संपन्न, जो
गुरु की मुद्राओं
तक को वैसा ही
समझ लेता हो, जैसी वे है।
फिर पंद्रह
लक्षण महावीर
ने गिनाये।
निम्नलिखित
पंद्रह
लक्षणों से
मनुष्य शुविनीत
कहलाता है।
इनमें से कुछ
महत्वपूर्ण
है—
'उद्धत
न हो', एग्रेसिव
न हो, आक्रमक
न हो। क्योंकि
जो आक्रमक है
चित्त से वह
ग्रहण न कर पायेगा।
रिसेटिव हो, ग्राहक हो, उद्धत न हो।
अलग—अलग
बात...स्थितियां
है। जब आप
उद्धत होते है
तब आप दूसरे
पर आक्रमण कर रहे
हैं। लोग आते
हैं, उनके
प्रश्न ऐसे
होते हैं, जैसे
वे प्रश्न न
लाकर, एक
छुरा लेकर आये
हों। प्रश्न
पूछने के लिए नहीं
होते, हमला
करने के लिए होते
है। प्रश्न कुछ
समझने के लिए
नहीं होते है।
कुछ समझाने के
लिये होते है
तो अगर शिष्य
गुरु को
समझाने आया हो,
तो कुछ भी
होने वाला
नहीं है। यह
तो नदी जो है, नाव के ऊपर
हो गयी, अगर
शिष्य गुरु को
समझाने आया हो।
हालांकि ऐसे
शिष्य खोजना
मुश्किल है जो
गुरु को
समझाने न आते
हों। तरकीब से
समझाने आते है
और फिर भी यह
मन में माने
चले जाते हैं
कि हम शिष्य
हैं।
महावीर
कहते हैं, उद्धत न हो,
नम्र हो।
आक्रमक न हो, ग्राहक हो, कुछ लेने
आया हो। चपल न हो,
स्थिर हो। क्योंकि
जितनी चपलता
हो, उतना
ही ग्रहण करना
मुश्किल हो
जाता है। चपल
आदमी का चित्त
वैसे होता है जैसे
फूटी बाल्टी
हो। ग्राहक भी
हो तो किसी
काम की नहीं, पानी भरा
हुआ दिखायी
पड़ेगा जब तक
पानी में डूबी
रहे। ऊपर
निकालो पानी
सब गिर जाता
है। चपल चित्त
छेद वाला चित्त
है। जब वह गुरु
के पास भी बैठा
हुआ है तब तक वह
हजार जगह हो
आया। बैठे है
वहाँ न मालूम कहां—कहां
का चक्कर काट
आये। तो जितनी
देर वह कहीं
और रहा उतनी
देर गुरु ने जो
कहां, वह
तो सुनायी भी
नहीं पड़ेगा।
'स्थिर
हो, मायावी
न हो, सरल
हो',...किसी
तरह का धोखा
देने की इच्छा
में न हो।
हम सब
होते है। गुरु
के पास जब कोई
जाता है तो वह
बताता है कि
मैं बिलकुल
ईमानदार हूं
सच्चा हूं।
नहीं, वह
जो हो उसे बता
देना चाहिए।
क्योंकि गुरु
को धोखा देने
से वह अपने को
ही धोखा देगा।
यह तो ऐसा हुआ,
जैसे किसी
डाक्टर के पास
कोई जाये। हो
कैंसर और
बताये कि कुछ
नहीं, जरा
फोड़ा—फुसी है।
तो फोड़ा—फुसी
का इलाज हो
जायेगा।
डाक्टर
को हम धोखा
नहीं देते
बीमारी बता
देते है वही
जो है। तो ही
डाक्टर किसी
उपयोग का हो
पाता है। गुरु
तो चिकित्सक
है। उसके पास
जाकर तो सब
खोल देना
जरूरी है, तो ही निदान
हो सकता है।
लेकिन हम उसके
साथ भी वही
धोखा चलाये जाते
है जो हम दुनिया
भर में चला
रहे है। उसके
साथ भी हम वह दिखाये
चले जाते है जो
हम नहीं हैं, तो बदलाहट
कभी भी संभवन हीं
होगी।
गुरु के पास
तो पूर्ण नग्न—जो
हम हैं सब
उघाड़कर रख
देने का है।
उसमें कुछ भी
छिपाने का
नहीं है। यह
अछिपाव का
अर्थ ही सरलता
है।
'कुतूहलता
न हो, गंभीर
हो।’
जिज्ञासा
गंभीर बात है, कुतूहल
नहीं है, क्युरिआसिटी
नहीं है।
इन्क्रवायरी
और क्युरिआसिटी
में फर्क है।
बच्चे
कुतूहली होते
हैं, कुतूहली
का आप मतलब
समझते हैं? कुछ करना नहीं
है पूछकर, पूछने
के लिए पूछना
है। आ गया
खयाल कि ऐसा
क्यों है पूछ
लिया। इससे
क्या उत्तर
मिलेगा, उससे
जीवन में कोई
अंतर करना, यह सवाल
नहीं है।
इसलिए बच्चों
के बड़े मजेदार
सवाल होते हैं।
एक सवाल
उन्होंने
पूछा उसका आप
उत्तर भी नहीं
दे पाये कि
द्वत सवाल पूछ
लिया। आप जब
उत्तर दे रहे
है, तब
उन्हें कोई रस
नहीं है, उनका
मतलब पूछने से
था।
मेरे
पास लोग आते
हैं। मै बहुत
चकित हुआ। वह
एक सवाल—कहते
है कि बड़ा
महत्वपूर्ण
सवाल है, आपसे पूछना
है। वे पूछ
लेते है।
उन्होंने
सवाल पूछ लिया।
मैं उनसे
पूछता हूं पत्नी
आपकी ठीक, बच्चे
आपके ठीक? वे
कहते है, बिलकुल
ठीक हैं। वे
सवाल ही भूल
गये इतने में।
वे घंटे भर
जमाने भर की
बातें करके
बड़े खुश वापस
लौट जाते हैं।
मैं सोचता हूं
सवाल का क्या
हुआ जो बड़ा
महत्वपूर्ण
था, जो
मैंने इतने से
पूछने से कि
बच्चे कैसे है,
समाप्त हो
गया। फिर
उन्होंने
पूछा ही नहीं।
कुतूहल था, आ गये थे
पूछने, ईश्वर
है या नहीं? मगर इससे
कोई मतलब न था,
इससे कोई
संबंध न था।
शायद यह पूछना
भी एक रस
दिखलाना था कि
मैं ईश्वर में
उत्सुक हूं।
यह भी अहंकार
को तृप्ति
देता है कि
मैं कोई साधारण
आदमी नहीं हूं
ईश्वर की खोज
कर रहा हूं।
मार्पा
अपने गुरु के
पास गया, नारोपा के
पास। तो
तिब्बत में
रिवाज था कि
पहले गुरु की
सात पस्किमाएं
की जायें, फिर
सात बार उसके
चरण छूये
जायें, सिर
रखा जाये, फिर
साष्टांग लेट
कर प्रणाम
किया जाये, फिर प्रश्न
निवेदन किया
जाये। लेकिन
मार्पा सीधा
पहुंचा, जा
कर गुरु की
गर्दन पकड़ ली
और कहां कि यह
सवाल है।
नारोपा ने कहां
की मार्पा, कुछ तो
शिष्टता बरत,
यह भी कोई
ढंग है? परिक्रमा
कर, दष्डवत
कर, विधि
से बैठ, प्रतीक्षा
कर। जब मैं
तुझसे पूछूं
कि पूछ, तब
पूछ।
लेकिन
मार्पा ने कहां, जीवन है
अल्प। और कोई
भरोसा नहीं कि
सात
पस्किमाएं
पूरी हो पायें!
और अगर मैं
बीच में मर
जाऊं तो
नारोपा, जिम्मेवारी
तुम्हारी कि
मेरी?
तो
नारोपा ने कहां
कि छोड़ परिक्रमा, पूछ।
परिक्रमा
पीछे कर लेना।
नारोपा
ने कहां है कि
मापी जैसा
शिष्य फिर
नहीं आया। यह
कोई कुतूहल न
था, यह तो
जीवन का सवाल
था। यह कोई
कुतूहल नहीं
था। यह ऐसे ही
पूछने नहीं
चला आया था।
जिंदगी दांव
पर थी। जब
जिंदगी दांव
पर होती है, तब जिज्ञासा
होती है। और
जब ऐसी
खुजलाहट होती
है दिमाग की, तब कुतूहल
होता है।
'किसी
का तिरस्कार न
करे।’
इसलिए
नहीं कि
तिरस्कार
योग्य लोग नहीं
है जगत में, काफी है।
जरूरत से
ज्यादा है।
बल्कि इसलिए
कि तिरस्कार
करने वाला
अपनी ही आत्महत्या
में लग जाता
है। जब आप
किसी का
तिरस्कार
करते हैं तो
वह तिरस्कार
योग्य था या
नहीं, लेकिन
आप नीचे गिरते
है। जब आप
तिरस्कार
करते है किसी
का, तो
आपकी ऊर्जा
ऊंचाइयां छोड़
देती है और
नींचाइयों पर
उतर आती है।
यह बहुत मजे
की बात है कि
तिरस्कार जब
आप किसी का
करते है तो
आपको उसी के
तल पर भीतर
उतर आना पड़ता
है।
इसलिए
बुद्धिमानों
ने कहां है, मित्र
कोई भी चुन
लेना, लेकिन
शत्रु सोच—समझ
कर चुनना।
क्योंकि आदमी
को शत्रु के
तल पर उतर आना
पड़ता है।
इसलिए अगर दो
लोग जिंदगी भर
लड़ते रहें, तो आप आखिर
में पायेंगे
कि उनके गुण
एक जैसे हो
जाते हैं।
क्योंकि
जिससे लड्ना
पड़ता है, उसके
तल पर होना
पड़ता है, नीचे
उतरना पड़ता है।
इसलिए
महावीर
कहेंगे, अगर प्रशंसा
बन सके तो
करना, क्योंकि
प्रशंसा में
ऊपर जाना पड़ता
है, निंदा
में नीचे आना
पड़ता है। यह
सवाल नहीं है
कि दूसरा आदमी
निंदा योग्य था
या प्रशंसा
योग्य था, यह
सवाल नहीं है।
सवाल यह है कि
जब आप प्रशंसा
करते हैं तो
आप ऊपर उठते
हैं और जब आप
निंदा करते है,
तो आप नीचे
गिरते है। वह
आदमी कैसा था,
यह तो
निर्णय करना
भी आसान नहीं
है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, कि
किसी का
तिरस्कार न
रखता हो, क्रोध
को अधिक समय
तक न टिकने
देती हो।
यह
नहीं कहते कि
अक्रोधी हो, क्योंकि
शिष्य से यह
जरा ज्यादा
अपेक्षा हो जायेगी।
इतना ही कहते
हैं, क्रोध
को ज्यादा न
टिकने देता हो।
क्रोध क्षण भर
को आता हो, तब
तक जाग जाता
हो और क्रोध
को विसर्जित
कर देता हो।
धीरे—धीरे
क्रोध नहीं
आयेगा, लेकिन
वह दूर की बात
है। यात्रा के
पहले चरण में
क्रोध को अधिक
न टिकने दे, इतना ही
काफी है।
आपको
पता है, आप क्रोध को
कितना टिकने
देते है? कुछ
लोग है, उनके
बाप—दादे लड़े
थे, अभी तक
क्रोध टिका है।
अभी तक वे लड़
रहे है, क्योंकि
वह दुश्मनी
बाप—दादों से
चली आ रही है।
आज आपको क्रोध
हो जाये, आप
जिंदगी भर
उसको टिकने
देते हैं। वह
बैठा रहता है
भीतर। कब मौका
मिल जाये, आप
बदला ले लें।
क्रोध
अगर एक क्षण
में उठने वाली
घटना है और खो जाने
वाली तो पानी
का एक बुलबुला
है। बहुत
चिंता की
जरूरत नहीं है।
एक लिहाज से
अच्छा है।
इसलिए वे लोग
अच्छे होते
हैं जो क्रोध
कर लेते हैं
और भूल जाते
है, बजाय
उन लोगों के
जो क्रोध को
दबाये चले
जाते हैं। ये
लोग खतरनाक
हैं। ये आज
नहीं कल कोई
उपद्रव
करेंगे। इनकी
केटली का ढक्कन
भी बंद है और
नीचे आग भी जल
रही है।
विस्फोट होगा।
ये किसी की
जान लेंगे।
उससे कम में
ये माननेवाले
नहीं हैं।
केटली अच्छी
है जिसका ढक्कन
खुला है। भाप
ज्यादा हो
जाती है, ढक्कन
थोड़ा उछल जाता
है, भाप
बाहर निकल
जाती है, केटली
अपनी जगह हो
जाती है।
हर
आदमी एक उबलती
हुई केटली है, जिंदगी
की आग नीचे जल
रही है। ढक्कन
थोड़ा ढीला
रखना अच्छा है।
बिलकुल चुस्त
मत कर लेना, जैसा संयमी
लोग कर लेते
हैं। फिर वे
जान लेऊ हो
जाते है। खुद
तो मरेंगे, दो चार को
आसपास मार
डालेंगे।
महावीर
कहते है, जिसका ढक्कन
थोड़ा ढीला हो।
भाप ज्यादा
होती हो, छलांग
लगाकर बाहर
निकल जाती हो,
ढक्कन
वापस अपनी जगह
हो जाता हो।
क्रोध
बिलकुल न हो, यह शिष्य
से अपेक्षा
नहीं की जा
सकती, यह
तो आखिरी बात
है। लेकिन
क्षण भर टिकता
हो, बस
इतना भी काफी
है। असल में
क्रोध इतनी
बीमारी नहीं
है जितना टिका
हुआ क्रोध
बीमारी है
क्योंकि टिका
हुआ क्रोध
भीतर एक
स्थायी धुआं
हो जाता है।
कुछ लोग ऐसे
हैं जो
क्रोधित नहीं
होते, उनको
होने की जरूरत
नहीं है। वे
क्रोधित रहते
ही है। उनको
होने वगैरह की
आवश्यकता
नहीं है, वे
हमेशा तैयार
ही हैं। वे
तलाश कर रहे
है कि कहां
खूंटी मिल
जाये, और
हम अपने को
टांग दें। तो
खूंटी न मिले
तो भी वे कहीं
खिड़की, दरवाजे
पर कहीं न
कहीं टलेंगे,
निर्मित कर
लेंगे खूंटी।
क्रोध
निकल जाता हो, क्षण भर
आता हो तो
बेहतर है।
वैसा आदमी
भीतर क्रोध की
पर्त निर्मित नहीं
करता। यह बड़ी
महत्वपूर्ण
बात है, महावीर
के मुंह से यह
बात कि क्रोध
को अधिक समय
तक न टिकने
देता हो। बड़ी
महत्वपूर्ण
बात है।
'मित्रों
के प्रति
सदभाव रखता हो।’
यह बड़ी
हैरानी की बात
है। हम कहेंगे
कि मित्रों के
प्रति सदभाव
होता ही है।
बिलकुल झूठ है।
मित्रों के
प्रति सदभाव
रखना बड़ी कठिन
बात है।
क्योंकि
मित्र का मतलब, जिसको हम
जानते हैं, जिसको हम
भलीभांति
पहचानते है।
जिसको नहीं
पहचानते उसके
प्रति सदभाव
आसान है।
जिसको जानते
है, उसके
प्रति सदभाव
बड़ा मुश्किल
है। मित्रों
के प्रति
सदभाव बड़ा
मुश्किल है।
मार्क
ट्वैन ने कहां
है कि हे
परमात्मा!
शत्रुओं से
मैं निपट लूंगा, मित्रों
से तू मुझे
बचाना।
मित्र
बड़ी अदभुत चीज
है। जिसे हम
जानते है, जिसका सब
कुछ हमें पता
है, उसके
प्रति कैसे
सदभाव रखें?
अज्ञान
में सदभाव
आसान है, ज्ञान में
मुश्किल हो
जाता है।
इसलिए जितना
हमारे कोई
निकट होता है
उतना ही दूर
भी हो जाता है।
और हम मित्रों
के संबंध में
भी इधर—उधर जो
बातें करते
रहते है, वे
बताते है कि
सदभाव कितना
है। पीठ पीछे
हम क्या कहते
रहते है, उससे
पता चलता है, सदभाव कितना
है। महावीर
कहते है, मित्रों
के प्रति
सदभाव रखता हो,
पूरा सदभाव
रखता हो।’शास्त्रों
से ज्ञान पाकर
गर्व न करता
हो।’
क्योंकि
शास्त्रों से
ज्ञान का कोई
मूल्य ही नहीं
है। इसलिए
गर्व व्यर्थ
है। और
शास्त्रों के
ज्ञान से गर्व
पैदा होता है, इसलिए
विशेष रूप से
यह सूचन किया
है, क्योंकि
शास्त्रों से
जब ज्ञान मिल
जाता है तो लगता
है मैंने जान
लिया, बिना
जाने। अभी
जानना बहुत
दूर है। अभी
किताब में पढ़ा
कि पानी प्यास
बुझाता है, अभी पानी
नहीं मिला।
अभी किताब में
पढ़ा कि मिठाई
बड़ी मीठी होती
है, अभी
स्वाद नहीं
मिला। अभी
किताब में पढ़ा
कि सूरज उगता
है और प्रकाश ही
प्रकाश होता
है, जिंदगी
अभी अंधेरे
में है। तो
किताब को पढ़
कर जो गर्व न
करता हो।
लेकिन किताब
को पढ़ कर गर्व
आ ही जाता है।
लगता है, जाना।
इसलिए शास्त्रीय
आदमी हो और
अहंकारी न हो,
बड़ा
मुश्किल है।
शास्त्र
अहंकार के लिए
बोझिल है।
इसलिए पंडित
की चाल देखें,
पंडित की आंख
देखें, उनकी
भाव—भंगिमा
जरा पहचानें,
तो वे जमीन
पर नहीं चलते।
वे चल नहीं
सकते। जमीन और
उनके बीच बड़ा
फासला होता है।
इसलिए दो
पंडितों को
पास बिठा दें,
तो जो घटना
दो कुत्तों के
बीच घट जाती
है, वही घट
जाती है।
क्या
हो जाता है? एकदम
कुत्तों के
गले में खराश
आ जाती है।
एकदम भौंकना
शुरू कर देते
है। जब तक एक
हार न जाये, तब तक दूसरे
को शांति नहीं
मिलती।
मैंने
तो सुना है कि
पंडित मर कर
कुत्ते बिल्लियां
हो जाते हैं।
वे पुरानी आदत
वश भौंकते चले
जाते हैं।
क्या
हो जाता होगा? शास्त्र
इतना भौंकता
क्यों है? शास्त्र
नहीं भौंकता।
शास्त्र से अहंकार
पोषित हो जाता
है। लगता है, मैं जानता
हूं और जब ऐसा
लगता है कि
मैं जानता हूं
तो फिर कोई और
जान सकता है, यह मानने का
मन नहीं होता।
फिर कोई और भी
जानता है जो
मुझसे भिन्न
जानता है, तो
शत्रुता
निर्मित हो
जाती है। फिर
सिद्ध करना
जरूरी हो जाता
है कि मैं ठीक हूं।
पंडित सत्य की
खोज में नहीं
होता, मैं
ठीक हूं इसकी
खोज में होता
है।
महावीर
कहते है— 'शास्त्री को
पाकर गर्व न
करता हो, किसी
के दोषों का
भंडाफोड़ न
करता हो।’
कोई
प्रयोजन नहीं
है। किसी के
दोष पता भी चल
जायें तो उनकी
चर्चा का क्या
अर्थ है? आपकी चर्चा
से उसके दोष न
मिट जायेंगे।
हो सकता है, बढ़ जायें।
अगर आप सच में
ही चाहते है
कि उसके दोष
मिट जायें तो
इन दोषों की
सारे जगत में
चर्चा करते रहने
से कोई मतलब
नहीं। लेकिन,
एक मामले
में हम बड़े
सृजनात्मक
लोग है। किसी
का जरा—सा दोष
दिख जाये तो
हमारे पास
मैग्रीफाइड़
ग्लास है, हम
उसको फिर इतना
बड़ा करके
देखते हैं कि
सारा ब्रह्मांड़
का विस्तार
छोटा मालूम
पड़ने लगता है।
सुना
है मैंने, मुल्ला
ने एक दिन
अपनी पत्नी को
फोन किया। फोन
करना पड़ा, क्योंकि
ऐसी घटना हाथ
में लग गयी थी।
बताया कि
पड़ोसी अहमद के
मित्र रहमान
की पत्नी को
लेकर भाग गया।
दोनों के
बच्चे सड्कों
पर भीख मांग
रहे है। और
बहुत—सी बातें
बतायीं।
पत्नी भी रस
से भर गयी।
क्योंकि
पत्नियों को
वियतनाम में
क्या हो रहा
है, इससे
मतलब नहीं, पड़ोसी की
पत्नी कहां
भाग
गयी, यह बड़ा
महत्वपूर्ण
है।
पली ने कहां, कि जरा
मुल्ला
विस्तार से बताओ।
मुल्ला ने कहां,
'विस्तार
में मत ले जाओ
मुझे, जितना
मैंने सुना है
उससे तीन गुना
तुम्हें बता
ही चुका हूं।
अब और विस्तार
में मुझे मत
ले जाओ।’
जब
किसी का दोष
हमें दिखायी
पड़ जाये, तब हम
तत्काल उसे
बड़ा कर लेते हैं।
इसमें भीतरी
एक रस है। जब
दूसरे का दोष
बहुत बड़ा हो
जाता है तो
अपने दोष बहुत
छोटे दिखायी पड़ते
हैं। और अपने
दोष छोटे
दिखायी पड़ते
हैं तब बड़ी
राहत मिलती है
कि हम क्या, हमारा पाप
भी क्या?
दुनिया
में यही एक घट
रहा है चारों
तरफ? तो
हम बड़े
पुण्यात्मा
मालूम पड़ते है।
इसलिए दूसरे
के दोष बड़ा कर
लेने में अपने
दोष छोटा कर
लेने की तरकीब
है। खुद के
दोष छोटा करना
बुरा नहीं है,
लेकिन
दूसरे के बड़े
करके छोटा
करने का खयाल
करना पागलपन
है। खुद के
दोष छोटे करना
अलग बात है।
लेकिन
दो तरकीबें
हैं, या
तो खुद के दोष
छोटे करो, तब
छोटे होते हैं,
या फिर
पड़ोसियों के बड़े
कर लो, तब
भी छोटे
दिखायी पड़ने
लगते हैं। यह
आसान है
पड़ोसियों के
बड़े करना।
इसमें कुछ भी
नहीं करना
प्रड्ता है।
महावीर
कहते हैं, 'भंडाफोड़
न करता हो, मित्रों
पर क्रोधित न
होता हो।’
शत्रुओं
पर हमारा इतना
क्रोध नहीं
होता, जितना
मित्रों पर
होता है।
इसलिए मित्र
की सफलता कोई
भी बर्दाश्त
नहीं कर पाता।
यह बड़ा मजाक
है आदमी का मन।
मित्र जब
तकलीफ में
होता है तब
हमें
सहानुभूइत
बताने में बड़ा
मजा आता है।
लेकिन मित्र
अगर तकलीफ में
न हो सफल होता
चला जाये, तब
हमें बड़ी पीडा
होती है। जो
आदमी अपने
मित्र की
सफलता में सुख
न पाता हो, जानना
कि मित्रता है
ही नहीं।
लेकिन हमें
बड़ा मजा आता
है। अगर कोई
दुखी है तो हम
संवेदना
प्रकट करने पहुंच
जातेहैं।
संवेदना में
बड़ा मजा आता
है। कोई दुखी
है, हम
दुखी नहीं है।
कभी आपने देखा
है? जब आप
संवेदना
प्रगट करने
जाते हैं तो
भीतर एक हल्का—सा
रस मिलता है।
किसी
के मकान में
आग लग जाये तो
आपकी आंख से आंसू
गिरने लगते
हैं। और किसी
का मकान आकाश
छूने लगे, तब आपके
पैरों में नाच
नहीं आता। तो
जरूर इसमें
कुछ खतरा है।
क्योंकि अगर
सच में ही
किसी के मकान
में आग लगने
से हृदय रोता
है तो उसका
मकान
गगनचुंबी हो जाये,
उस दिन पैर
नाचने चाहिए।
लेकिन
गगनचुंबी
मकान देख कर
पैर नाचते
नहीं। आग लग
जाये तो आंखें
रोती हैं। निश्चित
ही उस रोने के
पीछे भी रस है।
इसलिए लोगों 'ट्रेजेडी', दुखांत नाटक
और फिल्मों को
देख कर इतना
मजा पाते हैं,
नहीं तो दुख
को देखने में
इतना मजा क्या
है!
दुख को
देख कर एक राहत
मिलती है कि
हम इतने दुखी
नहीं है। अपना
मकान अभी भी
कायम है, कोई आग नहीं
लगी है। दूसरे
को सुखी देख
कर जब हम सुखी
होते हैं तब समझना
कि मित्रता है।
मित्रता
सूक्ष्म बात
है।
महावीर
कहते हैं, 'मित्रों
पर क्रोधित न
होता हो।’ यह
भी ध्यान रखना
कि शत्रुओं पर
तो क्रोधित
होने का कोई
अर्थ नहीं
होता आप क्रोधित
हैं। मित्रों
पर क्रोधित
होने का अर्थ
होता है, क्योंकि
रोज—रोज होना
पड़ता है।
'मित्रों
पर क्रोधित न
होता हो, अप्रिय
मित्र की भी
पीठ—पीछे भलाई
ही गाता हो।’
क्यों
आखिर? यह
तो झूठ मालूम
होगा न। आप
कहेंगे, बिलकुल
सरासर झूठ की
शिक्षा
महावीर दे रहे
हैं। अप्रिय
मित्र की भी
पीठ पीछे भलाई
गाता हो, पीछे
भले की ही बात
करता हो। नहीं,
झूठ के लिए
नहीं कह रहे
हैं। कोई आदमी
इतना बुरा
नहीं है कि
बिलकुल बुरा
हो। कोई आदमी
इतना भला नहीं
है कि बिलकुल
भला हो। इसलिए
चुनाव है। जब
आप किसी आदमी की
बुराई की
चर्चा करते
हैं तो इसका
यह मतलब नहीं
कि उस आदमी
में भलाई है
ही नहीं। आपने
बुराई चुन ली।
जब आप किसी
आदमी की भलाई
की चर्चा करते
है तब भी यह
मतलब नहीं
होता है कि
उसमें बुराई
है ही नहीं।
आपने भलाई चुन
ली।
महावीर
कहते हैं कि
ऐसा बुरा आदमी
खोजना कठिन है, जिसमें
कोई भलाई न हो।
क्योंकि
बुराइयों के
टिकने के लिए
भी भलाइयों की
जरूरत है। तो
तुम चुनाव
करना भलाई की
चर्चा का।
क्यों आखिर?
क्योंकि
भलाई की जितनी
चर्चा की जाये, उतनी खुद
के भीतर भलाई
की जड़ें गहरी
बैठने लगती
हैं। बुराई की
जितनी चर्चा
की जाये, बुराई
की जड़ें गहरी
बैठनी लगती
हैं। हम जिसकी
चर्चा करते
हैं, अंततः
हम वही हो
जाते हैं।
लेकिन हम सब
बुराई की
चर्चा कर रहे
है। अगर हम
अखबार उठा कर
देखें तो पता
ही नहीं चलता
कि दुनिया में
कहीं कोई भलाई
भी हो रही
होगी। सब तरफ
बुराई हो रही
है। सब तरफ
चोरी हो रही
है, सब तरफ
हिंसा हो रही
है। अखबार देख
कर लगता है कि
शायद अपने से
छोटा पापी जगत
में कोई भी
नहीं है। यह
सब क्या हो
रहा चारों तरफ?
और चेहरे पर
एक रौनक आ
जाती है। यह
सारी बुराई आप
संचित कर रहे
हैं, अपने
भीतर। यह सारी
बुराई आपके
भीतर प्रवेश
कर रही है।
अगर
हमें एक अच्छी
दुनिया बनानी
हो और अच्छे
आदमी का जन्म
देना हो तो हमें
भलाई संचित
करनी चाहिए, भलाई की
फिक्र करनी
चाहिए। और जब
हम बुराई की
चर्चा करते
हैं तब हमें
पता नहीं कि
वह बुराई का
संस्कार हम पर
निर्मित होता
चला जाता है।
यह आदमी चोर
है, वह
आदमी चोर है, सारी दुनिया
चोर है। जिस
दिन आप चोरी
करने जाते है
भीतर आपको कुछ
ऐसा नहीं लगता
कि आप कुछ नया
करने जा रहे
हैं। सभी यही
कर रहे हैं।
चोरी की जड़
मजबूत होती है।
जब आप
कहते हैं, फलां
आदमी अच्छा है,...
जब आप चुनते
है अच्छा तो
आपके भीतर
अच्छे की मूल्यवत्ता
निर्मित होती
है। और जब
बुराई करने
जाते हैं तो
आपको लगता है,
आप क्या कर
रहे हैं! दुनिया
में ऐसा कोई
भी नहीं कर
रहा है। तो
महावीर कहते
है, ' अप्रिय
मित्र की भी
पीठ पीछे भलाई
ही गाता हो।’
हम तो
प्रिय मित्र
की भी पीठ
पीछे बुराई ही
गाते हैं।
'किसी
प्रकार का
झगड़ा—फसाद न
करता हो।’
झगड़ा—फसाद
की एक वृत्ति
होती है। कुछ
लोग फसादी
होते हैं।
फसादी का मतलब
यह कि आप ऐसा
कोई कारण ही
नहीं दे सकते
उन्हें, जिसमें से
वह झगड़ा न
निकाल लें। वह
झगड़ा निकाल ही
लेंगे। झगड़ा
निकालने की एक
कला है, एक
कुशलता है।
कुछ लोग उसमें
इतने कुशल हो
जाते है कि वे
किसी भी चीज
में से झगड़ा
निकाल लेते
हैं।
मैं
अपने एक मित्र
को जानता हूं।
उनके पिता बड़े
अदभुत थे। ऐसे
कुशल थे जिसका
कोई हिसाब
नहीं। अगर
उनका बेटा नहा
धोकर, साफ—सुथरे
कपड़े पहन कर
दुकान पर आ
जाये तो वह
ग्राहकों को
इकट्ठा कर
लेते थे, कि
देखो इनको, बाप मर गया
कमा—कमा कर, ये मौज उड़ा
रहे हैं। हमने
कभी साबुन न
देखी, आप
देवी देवताओं
को लजा रहे
हैं। देखें।
तो
मैंने उनके
बेटे को कहां
कि तू एक दिन
बिना ही नहाये
पहुंच जा, गंदे ही
कपड़े पहन कर
पहुंच जा!
क्यों उनको
बार—बार कष्ट
देता है। वह
पहुंच गया।
पिता ने फिर
भीड़ इकट्ठी कर
ली और कहां, देखो, जब
मैं मर जाऊं
तब इस हालत
में घूमना।
अभी मैं जिंदा
हूं अभी नहाओ
धोओ, अभी
ठीक से रहो।
फिर
बहुत प्रयोग
किये हमने, सब तरह के
प्रयोग किये,
लेकिन पिता
को.. .उनकी
कुशलता
अपरिसीम थी।
कुछ भी करो, उसमें से
फसाद निकाला
जा सकता है।
महावीर
कहते है, 'झगड़ा—फसाद न
करता हो।’ नहीं
तो सीख न
पायेगा, जीवन
को बदल न
पायेगा।
ऊर्जा नष्ट हो
जाती है, इन
मूढ़ताओं में।
अपनी ही शक्ति
नष्ट होती है,
किसी और की
नहीं। लेकिन
व्यर्थ हो
जाती है।
'बुद्धिमान
हो।’
बुद्धिमानी
का अर्थ ही है
कि झगड़ा—फसाद
न करता हो, जीवन—ऊर्जा
का विध्वंसक
उपयोग न करता
हो, सृजनात्मक,
क्रिणटिव
उपयोग करता हो।
'अभिजात
हो।’
अभिजात
कीमती शब्द है।
अरिस्टोक्रेटिक
हो। बड़ा अजीब
लगेगा, समाजवाद की दुनियां
है, वहां
अरिस्टोक्रेसी
कैसी? अभिजात्य।
लेकिन महावीर
के अर्थ में
कुलीनता और
अभिजात्य का
अर्थ है, कता
पर ध्यान न
देता हो, शालीन
हो। खताओं को
नजर से बाहर
कर देता हो, श्रेष्ठता
पर ही ध्यान
रखता हो।
व्यर्थ को
चुनता न हो और
दूसरे में
श्रेष्ठ होना
चाहिए। इसकी
तलाश करता हो।
अकुलीन
का अर्थ होता
है, जो पहले
से मान कर
बैठा है लोग
बुरे है।
कुलीन का अर्थ
है, जो
पहले से मान
कर बैठा है कि
लोग भले है।
मूलतः कभी—कभी
भले हो जाते
है, यह बात
और है।
कुलीन
आदमी, अभिजात्य
चित्त वाला
व्यक्ति, दो
दिनों के बीच
में एक रात को
देखता है।
अकुलीन
व्यक्ति दो
रातों के बीच
में एक दिन को
देखता है।
कुलीन
व्यक्ति
फूलों को
गिनता है, कांटों
को नहीं। और
मानता है कि
जहां फूल होते
है वहां थोड़े
कांटे भी होते
है। और उनसे
कुछ हर्जा
नहीं होता, कांटे भी
फूल की रक्षा
ही करते है।
अकुलीन
चित्त कांटों
की गिनती करता
है, और
जब सब कीटों
को गिन लेता
है तो वह कहता
है, एक दो
फूल से होता
भी क्या है!
जहां इतने
कांटे है, वहां
एक दो फूल
धोखा है।
कुलीन, अकुलीनता
चुनाव का नाम
है, आप
क्या चुनते है?
श्रेष्ठ का
दर्शन
आभिजात्य है,
अश्रेष्ठ
का दर्शन
शूद्रता है।
'अभिजात
हो, आंख की
शर्म रखने
वाला स्थिर
वृत्ति हो।’
मैने
सुना है कि
अकबर के तीन
पदाधिकारियों
ने राज्य को
धोखा दिया।
राज्य के
खजाने को धोखा
दिया। पहले
पदाधिकारी को
बुलाकर अकबर
ने कहां, तुमसे ऐसी
आशा न थी! कहते
है, उस
आदमी ने उसी
दिन सांझ जाकर
आत्महत्या कर
ली।
दूसरे
आदमी को साल
भर की सजा दी।
तीसरे आदमी को
पंद्रह वर्ष
के लिए
जेलखाने में
डाला और सड़क
पर नग्न
करवाकर कोड़े
लगवाये।
मंत्री बड़े
चिंतित हुए।
जुर्म एक था, सजाएं
बहुत भिन्न हो
गयीं।
अकबर
से पूछा
मंत्रियों ने, 'यह कुछ
समझ में नहीं
आता, यह
न्याययुक्त
नहीं मालूम
होता। तीनों
का जुर्म एक
था। एक को
आपने सिर्फ
इतना कहां, तुमसे इतनी
आशा न थी!'
अकबर
ने कहां, 'वह आंख की
शर्म वाला
आदमी था। इतना
बहुत था। इतना
भी जरूरत से
ज्यादा था।
सांझ उसने
आत्महत्या
कर ली।
'दूसरे
को आपने साल
भर की सजा दी!'
अकबर
ने कहां, 'वह थोड़ी
मोटी चमड़ी का है।’
'और
तीसरे को नग्न
करके कोड़े
लगवाये, और
जेल में ड़लवाया!'
अकबर
ने कहां, 'कि जाकर
तीसरे से मिलो,
तुम्हें
समझ में आ
जायेगा।’
एक
मंत्री भेजा
गया जेलखाने
में, जिसके
कोड़े के निशान
भी अभी नहीं
मिटे थे, वह
वहां बड़े मजे
में था, और
उसने कहां कि
पंद्रह ही वर्ष
की तो बात है, और जितना
मैंने खजाने
से मार दिया, उतना पंद्रह
वर्ष नौकरी
करके भी तो
नहीं मिल सकता
था। और पंद्रह
ही वर्ष की तो
बात है फिर
बाहर आ जाऊंगा।
और इतना मार
दिया है कि
पीढ़ी दर पीढ़ी
बच्चे मजा
करें। कोई ऐसी
चिंता की बात
नहीं। फिर
यहां भी ऐसी
क्या तकलीफ!
मंत्रियों
ने कहां, 'बड़े पागल हो,
सड़क पर
कोड़े खाये।’
उस
आदमी ने कहां, 'बदनामी
भी हो तो नाम
तो होता ही है।
कौन जानता था
हमको पहले। आज
सारी दिल्ली
में अपनी
चर्चा है।’
आज
इतना ही।
पांच
मिनट रुके, कीर्तन
करें।
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