अध्याय
36
जीवन
की लय
सत्ता
से जिसे
गिराना है,
पहले
उसे फैलाव
देना पड़ता है।
जिसे
दुर्बल करना
है,
पहले
उसे बलवान
बनाना होता
है।
जिसे
नीचे गिराना
है,
पहले
उसे शिखरस्थ
करना होता है।
जिससे
छीन लेना है,
पहले
उसे दे देना
होता है।
-- यही
सूक्ष्म
प्रकाश या
दृष्टि है।
शक्ति
पर भद्रता की
विजय होती है:
मछली
को गहरे पानी
में ही रहने
देना चाहिए;
और
राज्य के तेज
हथियारों को
वहां
रखना चाहिए
जहां उन्हें
कोई देख न
पाए।
जन्म
के साथ मृत्यु
को देखना कठिन
है। लेकिन दिखाई
पड़े या न
दिखाई पड़े, जन्म
मृत्यु की
शुरुआत है; वह मृत्यु
का ही पहला
कदम है। पर
जन्म पर हम प्रसन्न
होते हैं; मृत्यु
में हम दुखी
होते हैं। काश,
हम देख पाएं
कि जन्म ही
मृत्यु का
प्रारंभ है तो
जन्म की खुशी
भी समाप्त हो
जाए
और मृत्यु
का दुख भी।
क्योंकि
मृत्यु इसीलिए
दुखद मालूम
होती है कि
जन्म सुखद
मालूम हुआ था।
और भ्रांति
इसलिए चलती
चली जाती है
कि जन्म और
मृत्यु के बीच
जो फासला है, उस फासले के
कारण हम उनका
एक होना नहीं
देख पाते। एक
ही चीज के दो
छोर हैं; एक
छोर को हम
जन्म कहते हैं,
दूसरे को
मृत्यु; एक
पर हम सुखी होते
हैं, दूसरे
पर हम दुखी।
और दोनों के
बीच एक का ही
विस्तार है।
असल में, जन्म
का अर्थ है कि
मृत्यु हो गई।
कितनी ही देर
लगे अब प्रकट
होने में, कितना
ही समय लगे
हमें अनुभव
करने में कि
मृत्यु हुई, लेकिन जन्म
के साथ मृत्यु
हो गई।
जीवन
की लय कहता है
लाओत्से इसे।
लय जीवन की
विपरीत से बनी
है,
द्वंद्व से
बनी है। और लय
के लिए जरूरी
है कि विपरीतता
हो। लय अकेले
एक स्वर की
नहीं हो पाएगी;
विपरीत
स्वर चाहिए
उभारने के
लिए। अगर हम
जीवन के सत्य
की तलाश करें
तो पहला सत्य
हमें यही अनुभव
होगा कि जीवन
विपरीत से
निर्मित है।
इसके
बहुत गहरे
परिणाम हैं।
अगर जीवन
विपरीत से निर्मित
है तो एक को
चाहना और
दूसरे को न
चाहना नासमझी
है,
अज्ञान है।
एक को चुनना
और दूसरे को
छोड़ना नासमझी
है। क्योंकि
अगर जीवन
विपरीत से ही
बना है तो जब
हम एक को
चुनते हैं तब
हमने दूसरे को
भी चुन लिया।
अन्यथा वह एक
भी जीवन में न
हो सकेगा। जब
हम दिन को
चुनते हैं तो
हमने रात को
चुन लिया, और
जब हम प्रेम
को चुनते हैं
तो हमने घृणा
को भी चुन
लिया। और जब
हमने मित्र
बनाया तब हमने
शत्रु बनाने
की शुरुआत कर
दी। और जब हम
प्रसन्न हुए
तो हमने उदासी
के बीज बो
दिए। अब दूसरी
बात से बचना
संभव न होगा।
क्योंकि हमने
लहर का एक छोर
पैदा कर दिया,
अब लहर का
दूसरा छोर भी
अनिवार्य है।
जो हमें दिखाई
पड़ रहा है वह
प्रकट है; जो
दूसरा छोर है
वह अप्रकट है
और नीचे ही
छिपा है।
यदि यह
दिखाई पड़ जाए
कि जीवन
विपरीत से बना
है तो चुनाव
बंद हो जाए, च्वाइस
बंद हो जाए।
और जिस
व्यक्ति के
जीवन से चुनाव
गिर जाता है
उस व्यक्ति के
जीवन से सब पीड़ाओं
का अंत हो
जाता है। उसकी
फिर कोई चिंता
न रही; उसके
लिए फिर कोई
दुख न रहा।
यह बड़ी
अदभुत बात है:
हम दुख से
बचना चाहते
हैं,
और दुख बढ़ता
चला जाता है; हम सुख पाना
चाहते हैं, और सुख
मिलता नहीं, दुख मिलता
है। क्योंकि
सुख की चाह
में हमने दुख
को भी चुन
लिया। जीवन
विपरीत से बना
है, और एक
को अलग किया
नहीं जा सकता।
वह जो विपरीत है
उससे अलग करने
का कोई उपाय
नहीं। वे एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
तो जब आप सुख
की मांग करते
हैं तब आपको
पता नहीं कि
आपने दुख की
भी प्रार्थना
कर ली। वह दूसरा
हिस्सा भी
प्रकट होगा।
वह भी आज नहीं
कल बाहर आएगा
अस्तित्व के।
तब आप विषाद
से भर जाएंगे।
क्योंकि आपने
चाहा था सुख
और मिला दुख।
आपने चाहा था
जीवन, बनाना
चाहा था जीवन
को एक सुंदर
काव्य, एक
गीत; लेकिन
अंत में मृत्यु
सब संगीत तोड़
देती है, सब
बिखर जाता है
सौंदर्य, सब
कुरूप हो जाता
है। और आखिर
में चिता ही
हाथ लगती है।
वे सब फूल जो
हमने जीवन के
सपनों में देखे
थे, वे सब
स्वप्नवत
तिरोहित हो
जाते हैं; आखिर
हाथ में राख
लगती है।
लाओत्से
कहता है, जीवन
की लय को अगर
हम समझ लें कि
वह विपरीत से
बनी है, जहां
भी एक है उससे
विपरीत उसके
पीछे छिपा है,
उसके बिना
वह हो ही नहीं
सकता, तो
हमारा चुनाव
गिर जाए। फिर
चुनाव का क्या
अर्थ है? अगर
सुख को चुनने
में दुख
उपलब्ध होने
वाला है तो
सुख को चुनने
का अर्थ ही
क्या रहा? तब
एक दूसरी घटना
घटती है: जो
चुनाव नहीं
करता वह आनंद
को उपलब्ध हो
जाता है।
सुख और
दुख का
द्वंद्व है; वे
जीवन के
हिस्से हैं।
आनंद जीवन का
हिस्सा नहीं
है। और आनंद
के विपरीत कुछ
भी नहीं है।
आनंद उस घड़ी
का नाम है जब
हम द्वंद्व
में से कुछ भी
नहीं चुनते।
तब जीवन की लय
समाप्त हो जाती
है; जीवन
की लय शून्य
हो जाती है।
और जहां जीवन
की लय शून्य
हो जाती है, जहां जीवन
की धुन बंद हो
जाती है, वहीं
मोक्ष के स्वर,
शून्य स्वर
का अनुभव होता
है।
तो
पहले तो यह
समझ लें कि यह
द्वंद्व सब
तरफ से घेरे
हुए है। हमारा
मन निरंतर
कहेगा कि नहीं, ऐसा
नहीं है। जब
हम प्रेम करते
हैं तब हम
कहां घृणा
करते हैं? लेकिन
कभी आपने खयाल
किया कि जिसको
आपने प्रेम
नहीं किया
उसको आप घृणा
नहीं कर सकते
हैं। या कि कर
सकते हैं? जिससे
आपका प्रेम
नहीं उससे आप
घृणा नहीं कर
सकते। तो घृणा
के लिए प्रेम
पहला कदम है।
और जिससे आपकी
मित्रता न रही
हो उससे
शत्रुता कैसे
घटित हो सकती
है? तो
मित्रता
शत्रुता की
पहली
व्यवस्था है।
वहां से हम
यात्रा पर
निकलते हैं।
सभी
मित्रताएं शत्रुताओं
में बदल जाती
हैं। चाहे आप
समझें और न
समझें, चाहे
आप पहचानें
और न पहचानें,
चाहे आप झुठलाए
चले जाएं, चाहे
आप अपने को
भुलाए चले
जाएं, लेकिन
सभी
मित्रताएं शत्रुताओं
में बदल जाती
हैं। इसीलिए
तो मित्रता का
इतना सम्मान
है, लेकिन
वह फूल कहीं
मिलता नहीं।
इतना सम्मान इसलिए
है कि वह फूल
आकाश का फूल
है; वह
पृथ्वी पर
खिलता नहीं।
सभी प्रेम घृणाओं
में बदल जाते
हैं। फिर हम
अपने का छिपा
सकते हैं इस
तथ्य की
जानकारी से कि
प्रेम घृणा बन
गया। हम हजार
तरह के रेशनलाइजेशन,
बुद्धियुक्त तर्क खोज
सकते हैं, लेकिन
इस तथ्य को झुठलाया
नहीं जा सकता
कि सभी प्रेम
घृणा बन जाते
हैं। इसीलिए
तो प्रेम की
इतनी प्रशंसा
है। लेकिन वह
प्रेम का फूल
भी इस पृथ्वी
पर खिलता
नहीं।
जहां
द्वंद्व है, और
जहां जीवन
होता ही
द्वंद्व में
है, वहां
जो भी हम
करेंगे, उसका
विपरीत भी साथ
में जुड़ गया।
लेकिन एक निर्द्वंद्व
जगत भी है।
लेकिन वहां
जीवन का सब स्वर
शांत हो जाता
है; वहां
जीवन की कोई
धुन नहीं रह
जाती। फिर
वहां द्वंद्व
भी नहीं है।
इस क्षण को
मुक्ति का
क्षण कहें, मोक्ष का
क्षण कहें या
परमात्म-अनुभव
का क्षण कहें।
लाओत्से
के सूत्र में
प्रवेश करने
के पहले यह खयाल
में रख लें।
लाओत्से के
कहने के ढंग
अपने हैं। वह
बहुत तरकीब से
किसी बात को
कहता है।
इस
सूत्र में
उसने कहा है, "सत्ता
से जिसे
गिराना है, पहले उसे
फैलाव देना
पड़ता है।'
जिसे
गिराना हो, पहले
उसे चढ़ाना
होगा। नहीं तो
गिराइएगा
कैसे? पहले
सहारा देना
होगा कि ऊंचे
शिखर पर पहुंच
जाए; तभी
गिराया जा
सकता है
खाइयों में।
तो लाओत्से
कहता है कि
अगर गिरना न
हो तो चढ़ने
से सावधान
रहना। लोग तो चढ़ाएंगे, क्योंकि वे
गिराना
चाहेंगे। वे
तो तुम्हें सहारा
देंगे कि बढ़ो।
और जब वे चढ़ा
रहे हैं तब
तुम यह देख भी
न पाओगे कि वे
गिराने का
इंतजाम कर रहे
हैं। और जब वे
तुम्हें हाथ
का सहारा दे
रहे हैं तब
तुम बड़े प्रसन्न
हो रहे हो; लेकिन
तुम्हें
दूसरे पहलू का
कुछ भी पता
नहीं है। जो
तुम्हें मान
देते हैं वे ही
तुम्हारा
अपमान करेंगे;
जो तुम्हें
आदर देते हैं
वे ही
तुम्हारे
अनादर का कारण
हो जाएंगे।
क्योंकि आदर
का दूसरा हिस्सा
अनादर है।
जैसे जन्म
मृत्यु में
बदलेगा ही, वैसे ही आदर
भी अनादर में
बदलेगा।
इमर्सन
ने एक बहुत अनूठी
बात लिखी है।
इमर्सन ने
अपने जीवन भर
के अनुभव के
बाद लिखा है।
लिखा है: एवरी
ग्रेट मैन फाइनली
टर्न्स
टु बी ए बोर; सभी
बड़े लोग अंततः
बोर सिद्ध
होते हैं, उबाने
वाले सिद्ध
होते हैं।
इधर
पिछले
तीस-चालीस
वर्षों के
इतिहास से हम
समझ सकते हैं
कि क्या है
इसका अर्थ।
आपको खयाल है
कि पिछले
तीस-चालीस
वर्षों में
जितने बड़े लोग
पैदा हुए जमीन
पर,
एक दिन
लोगों ने
उन्हीं को
सम्मानित
किया, शिखर
पर उठाया, और
उनके ही जीवन
के अंतिम
क्षणों में
उन्हें उतार
कर नीचे डाल
दिया।
चर्चिल
की कैसी
प्रतिष्ठा थी
दूसरे
महायुद्ध में!
लेकिन युद्ध
के बाद चर्चिल
सत्ता में
वापस नहीं आ सका।
और जिन्होंने
उसे पूजा था
और सोचा था कि
इंग्लैंड के
इतिहास में
इससे बड़ा
महापुरुष नहीं
हुआ,
वे ही उसे
सत्ता में
लाने से
रुकावट डालने
को तैयार हो
गए। दि गॉल को
उतरना पड़ा
सत्ता से युद्ध
के बाद।
स्टैलिन ने
रूस को बचाया
और बनाया।
शायद ही किसी
एक आदमी ने
किसी राष्ट्र
को इस भांति
बनाया। उसने
जो पाप भी किए
वे भी उसी
राष्ट्र को
बनाने के लिए
किए। उस एक
आदमी के हाथ
की मेहनत ही
पूरा सोवियत
रूस है। लेकिन
युद्ध के बाद
रूस ने
स्टैलिन को
अपदस्थ कर
दिया। और मरने
के बाद, आपको
पता है, क्रेमलिन
के बाहर के
चौराहे से
उसकी लाश भी
वापस हटा दी
गई। लेनिन के
पास ही उसकी
लाश रखी गई थी;
वह भी मरने
के बाद हटा दी
गई। उसको
क्रेमलिन के
चौराहे पर
नहीं रहने
दिया। क्या
कारण होगा?
क्या
आपको पता है
कि महात्मा
गांधी के साथ
आपने क्या
किया? कोई सोच
भी नहीं सकता
था कि कोई
हिंदू गांधी
को मारेगा। लेकिन
वह भी गौण बात
है, क्योंकि
मृत्यु कोई
बहुत बड़ी बात
नहीं। गांधी
को तो मरना ही
होता। लेकिन
गांधी मरने के
पहले कहने लगे
थे कि मेरे
मानने वालों
में अब मेरा
सिक्का नहीं
चलता; मेरे
मानने वाले भी
सब मेरे
विपरीत हो गए
हैं; मेरी
कोई सुनता
नहीं है। मैं
खोटा सिक्का
हो गया हूं।
गांधी
को पूजा आपने, और
फिर गांधी को
खुद कहना पड़े
कि मैं खोटा
सिक्का हो गया
हूं; अब
मेरा कोई चलन
नहीं है। क्या
बात होगी? गांधी
चाहते थे कि
एक सौ पच्चीस
वर्ष जीएं,
लेकिन मरने
के पहले
उन्होंने
कहना शुरू कर
दिया था कि अब
मेरी और जीने
की कोई इच्छा
नहीं है।
क्योंकि
जिनके लिए मैं
जीना चाहता था
उन्होंने सब
पीठ फेर ली।
क्या अर्थ
क्या है इसका?
हम इन दोनों
तथ्यों को जोड़
कर कभी नहीं
देखते।
च्यांग
काई शेक
को चीन ने
इतना आदर दिया
था जिसका
हिसाब नहीं। च्यांग
काई शेक
अब जिंदा है, लेकिन
चीन में कोई
पूछने वाला
नहीं। चीन की
जमीन पर च्यांग
काई शेक
पैर भी नहीं
रख सकता है।
चीन की जनता
उसको नंबर एक
दुश्मन मानती
है। रूजवेल्ट
ने अमरीका को बचाया;
दूसरे
महायुद्ध में
विजय के निकट
लाया। सारी दुनिया
को युद्ध से
बचाने में
रूजवेल्ट का गहनतम हाथ
था। लेकिन
युद्ध के बाद
अमरीकी संसद
ने एक संशोधन
किया अपने
विधान में और
उस संशोधन के
द्वारा
रूजवेल्ट
वापस प्रेसिडेंट
न हो जाए, इसकी
व्यवस्था कर
ली।
क्या
होगा इस सबके
पीछे राज? व्यक्तियों
का सवाल नहीं
है। लाओत्से
जिस जीवन के
द्वंद्व की
बात कर रहा है,
और जिस लय
की, उसका
सवाल है। आदर
के पीछे छिपा
है अनादर; सम्मान
के पीछे छिपा
है अपमान।
"सत्ता
से जिसे
गिराना है, पहले उसे
फैलाव देना
पड़ता है। और
जिसे दुर्बल करना
है, पहले
उसे बलवान
बनाना होता
है। जिसे नीचे
गिराना है, पहले उसे
शिखरस्थ करना
होता है। जिससे
छीन लेना है, पहले उसे दे
देना होता है।'
और जो इस
राज को समझ
लेता है, उसे
लाओत्से कहता
है, "इस राज
को समझ लेना
सूक्ष्म
दृष्टि है।'
और यह
राज गहन है।
क्योंकि यह
राज अगर समझ
में आ जाए तो
आप पहले चरण
को इनकार कर
देते हैं; दूसरे
चरण का कोई
सवाल नहीं
उठता।
लाओत्से
निरंतर कहता
था, मुझे
कोई भी हरा
नहीं सकता, क्योंकि मैं
पहले से ही
हारा हुआ हूं।
लाओत्से कहता
था, मुझे
कोई धक्के
देकर पीछे
नहीं हटा सकता,
क्योंकि
मैं सबसे पीछे
खड़ा ही होता
हूं; उसके
पीछे कोई जगह
नहीं है।
लाओत्से कहता
है, अगर
पहला कदम उठा
लिया तो दूसरा
कदम मजबूरी है;
फिर उससे
रुका नहीं जा
सकता। पहले
कदम पर सावधानी!
तो फिर वह
जीवन का जो
द्वंद्व का
संगीत है, जो
कि वस्तुतः विसंगीत
है, संगीत
नहीं, क्योंकि
कलह है और एक
आंतरिक तनाव
है और एक बेचैनी
है और एक
संताप है। जो
पहले कदम पर
सम्हल जाता है,
दूसरे कदम का
कोई सवाल
नहीं।
लेकिन
पहला कदम बड़ा
प्रलोभक है और
सम्हलना अति
जटिल है और
बहुत कठिन है।
पहले कदम का
प्रलोभन भारी
है,
क्योंकि तब
यह खयाल भी
नहीं आता कि
मैं और खोटा
सिक्का हो जाऊंगा!
इसकी कल्पना
भी नहीं उठती
कि मैं और
अनादृत हो जाऊंगा!
कि मुझे और
घृणा मिलेगी!
जब कोई प्रेम
से आपके गले
में बांहें
डाल देता है
तो आप सोच भी
तो नहीं सकते
कि इससे
शत्रुता निकल
सकती है।
असंभव है! यह
कल्पना ही
नहीं पकड़ती।
और इसीलिए तो
इतने लोग दुख
में हैं।
क्योंकि पहले
कदम पर जो चूक
जाता है; दूसरे
कदम में
मजबूरी है, फिर उससे
बचने का कोई
उपाय नहीं।
ध्यान
रहे,
जिसने पहला
कदम उठा लिया
उसे दूसरा
उठाना ही पड़ेगा।
वह नियति का
हिस्सा हो
गया। और जो
पहले पर
सावधान हो गया
उसके लिए
दूसरे का कोई
सवाल ही नहीं
है।
महत्वाकांक्षा
दुख में ले
जाती है; क्योंकि
महत्वाकांक्षा
पराजय में ले
जाती है।
अहंकार पीड़ा
बन जाता है, नरक बन जाता
है। क्योंकि
अहंकार ऊपर
उठाता है, फुलाता
है, और तब
गिरने का उपाय
हो जाता है।
निरहंकार का सूत्र
लाओत्से से
समझें तो बहुत
अनूठा है। लाओत्से
यह कह रहा है
कि अहंकार
बुरा है, ऐसा
हम नहीं कहते
हैं; हम
इतना ही कहते
हैं कि अहंकार
पहला कदम है, और दूसरे
कदम पर गहन
अपमान है। वह
दूसरा कदम भी
अगर तुम राजी
हो, तो
पहला उठाना।
इसको थोड़ा समझ
लें। दोनों
तरह से यह बात
हो सकती है।
अगर दूसरे के
लिए भी आप राजी
हैं और इतने
ही प्रसन्न
रहेंगे तो फिर
कोई डर नहीं
है। तो जब लोग
आपको ऊपर
उठाएं तो उठ
जाना। लेकिन
ध्यान रहे कि
गिरते वक्त भी
आप इतने ही
आनंदित रहना।
तो फिर कोई
दिक्कत नहीं
है।
तो दो
रास्ते हैं।
एक रास्ता है
कि आप फिक्र मत
करना, क्योंकि
विपरीत को
स्वीकार कर
लेना। तो फिर
पहला कदम उठा
सकते हैं। तो
जब जन्म आए तो
जन्म; और
जब मृत्यु आए
तो मृत्यु। और
जब प्रेम मिले
तो प्रेम; और
जब घृणा मिले
तो घृणा।
दूसरे को आप
उतनी ही शांति
और उतने ही
सौमनस्य से
स्वागत कर
सकेंगे जितना
पहले का; फिर
कोई अड़चन नहीं
है। अगर दूसरे
का स्वागत न हो
सकता हो और
आपका मन डरता
हो कि दूसरे
का स्वागत
कैसे होगा, तो फिर पहला
कदम मत उठाना।
ये दो उपाय
हैं। इन दो
उपायों में ही
सारे संसार की
धार्मिक
साधनाएं छिपी
हैं। जो पहला
कदम उठाने से
रुक जाता है, वह एक
मार्ग। और जो
दूसरे कदम को
भी उसी रस से स्वीकार
करता है जिससे
पहले कदम को, वह दूसरा
मार्ग।
पहला
मार्ग महावीर
को चलते हुए
हम देखते हैं, बुद्ध
को चलते हुए
देखते हैं; दूसरा मार्ग
हम जनक को
चलते हुए
देखते हैं। दूसरे
कदम की चिंता
नहीं है। और
बोध है पूरा
कि पहले के
बाद दूसरा
आएगा; इसको
जान कर ही
उठाया है, इसको
मान कर ही
उठाया है। तब
कोई अड़चन नहीं
है। इसलिए जनक
या महावीर, ये दो
विकल्प हैं।
या तो पहला ही
मत उठाना और
या फिर दूसरे
के लिए भी
पूरी तरह राजी
रहना; उसमें
रंच मात्र
फर्क मत करना।
दोनों का परिणाम
एक है।
क्योंकि जिसे
दूसरे और पहले
में कोई फर्क
नहीं है, उसने
उठाया; उसका
उठाना न उठाने
के बराबर है।
कोई अंतर न रहा।
लाओत्से
कहता है कि
यही सूक्ष्म
दृष्टि है।
"शक्ति
पर भद्रता की
विजय होती है।
मछली को गहरे
पानी में ही
रहने देना
चाहिए; और
राज्य के तेज
हथियारों को
वहां रखना
चाहिए जहां
उन्हें कोई
देख न पाए।'
शक्ति
पर भद्रता की
विजय होती है।
दिखाई नहीं पड़ता
हमें ऐसा।
हमें तो ऐसा
ही दिखाई पड़ता
है कि भद्रता
पर सदा शक्ति
की विजय होती
है। हमारी
आंखों में, हमारी
समझ में, हमारे
मापत्तौल
में लाओत्से
का सूत्र कभी
भी दिखाई नहीं
पड़ता कि
भद्रता शक्ति
पर जीतती हो।
सदा हमें
शक्ति जीतती
हुई दिखाई
पड़ती है।
भद्रता कहां
जीतती हुई
दिखाई पड़ती है?
लेकिन उसका
कारण यही है
कि जीत का भी
अर्थ हमें ठीक
से पता नहीं
है। और जीत भी
हम जिसे कहते
हैं वह हमारा
अधूरा ज्ञान
है। वह पहले
कदम का ही
ज्ञान है। इसे
थोड़ा समझ लें।
जब
शक्ति भद्रता
पर जीतती है
तो वह पहला
कदम है, और
वहीं हम जीत
समझ लेते हैं
कि जीत हो गई।
लेकिन दूसरा
कदम भी शीघ्र
ही आएगा जो कि
हार का है।
भद्रता लड़ती
ही नहीं; इसलिए
पहला कदम उठता
ही नहीं। और
दूसरे का कोई
उपाय नहीं है।
जीसस
भद्रता के
प्रतीक हैं।
निश्चित ही, शक्ति
उन पर जीतती
हुई दिखाई
पड़ती है। जीसस
को सूली लग
गई। सूली के
कुछ क्षण पहले
पायलट ने जीसस
को कहा भी कि
लोग कहते हैं
कि तुम ईश्वर
के पुत्र हो!
तो यह मौका है,
तुम
चमत्कार दिखा
दो तो तुम
मुक्त हो जाओ;
यह मृत्यु
से तुम बच जाओ;
और मैं भी
इस पाप से बच
जाऊं कि
तुम्हारी
मृत्यु में
सहयोगी हूं।
तुम चमत्कार
दिखा दो।
और लोग
यही सोच रहे
थे,
लाखों लोग
इकट्ठे हो गए
थे--आज जरूर
कोई चमत्कार
होगा। और जीसस,
जिसके बाबत
खयाल था कि
बीमार को छू
दे तो बीमार
ठीक हो जाए और
मुर्दे को छू
दे तो मुर्दा
जाग जाए।
निश्चित ही, ऐसा व्यक्ति
जो दूसरे को
छूकर जीवन दे
सकता है, जब
उस पर खुद
मुसीबत आएगी
और आखिरी
परीक्षा का
क्षण आएगा तो
चमत्कार घटने
ही वाला है।
इसमें कोई शक
न था। इसमें
जीसस के
शिष्यों को भी
कोई शक न था।
सभी इस आशा
में खड़े थे कि
अब चमत्कार
हुआ! सूली पर
जीसस लटकाए
जाएंगे और
उनका वास्तविक
रूप प्रकट
होगा। वे
पुनरुज्जीवित
हो जाएंगे। और
सारा जगत उनके
अनुशासन को
स्वीकार कर
लेगा।
लेकिन
जीसस सूली पर
चुपचाप मर गए, जैसे
कोई भी मर
जाता है। और
मैं इसको
चमत्कार कहता
हूं; मैं
इसको चमत्कार
कहता हूं। और
इसको ईसाइयत को
बहुत समय लगा
समझने में, फिर भी ठीक
से समझ में
बात आ नहीं
सकी है। ऐसा लगता
ही है मन में
कि कहीं न
कहीं कोई गड़बड़
हो गई, क्या
ईश्वर ठीक
वक्त पर जीसस
को दगा दे गया?
क्या
चमत्कार की
शक्ति उनकी खो
गई? या कि
वह सब पाखंड
ही था? वे
जो उनके पास
चमत्कार घटित
हुए थे वे
किसी मूल्य के
न थे? झूठी
खबरें हैं? कहानियां
हैं? क्योंकि
जो मुर्दों को
जिला सकता था
वह अपनी मौत
को क्यों न
रोक पाया? और
यह तो घड़ी थी
परीक्षा की।
इसके साथ ही
तो विजय की
घोषणा होती।
लेकिन
जीसस की सारी
कला इसमें है
कि वे शक्ति के
द्वारा जीतने
को राजी नहीं
हैं;
वे भद्रता
के द्वारा
जीतने को राजी
हैं। शक्ति के
खिलाफ वे
शक्ति को खड़ा
न करेंगे।
क्योंकि
शक्ति से जो
जीती गई है
बात, वह आज
नहीं कल, हार
में परिवर्तित
हो जाएगी।
शक्ति
द्वंद्व का
हिस्सा है, संसार का
हिस्सा है। तो
जीसस शक्ति का
उपयोग न
करेंगे, वे
केवल साक्षी
रहेंगे, वे
केवल चुप
रहेंगे, वे
देखते
रहेंगे। वे
सिर्फ भद्रता
का, हंबलनेस का, विनम्रता
का उपयोग
करेंगे। वे
झुक जाएंगे। जब
शक्ति उन पर
हमला करेगी तो
वे पूरे झुक
जाएंगे; उनके
मन में कहीं
कोई प्रतिरोध
न होगा।
और मजे
की बात यही है
कि यही जीसस
की विजय का कारण
बन गई बात।
जीसस को कोई
जानता भी नहीं; जीसस
को कोई कभी
पहचानता भी
नहीं; जीसस
का नाम भी
किसी को पता न
चलता, अगर
सूली पर यह
भद्रता घटित न
होती। इस भद्रता
के कारण ही
जीसस जीते।
लेकिन यह जीत
किसी और लोक
की है। शक्ति
हार गई; शक्ति
अपने आप बिखर
गई। जीसस को
जो मार डालना चाहते
थे, मिटा
डालना चाहते
थे, वे मिट
गए, और
जीसस एकदम अमर
हो गए, अमृत
को उपलब्ध हो
गए। यह केवल
ऐतिहासिक
अर्थों में ही
नहीं, बल्कि
जीसस के अंतस्तल
में भी यही
घटित हुआ। जो
बड़े से बड़ा
चमत्कार जगत
में हो सकता
था वह हुआ।
क्योंकि जीसस
परम जीवन को
अनुभव करते
हुए भी, परम
शक्तिशाली
होते हुए भी
झुक गए भद्रता
में।
लाओत्से
कहता है, भद्रता
अंततः जीतती
है। अंततः!
प्रारंभ में तो
शक्ति जीतती
हुई मालूम
होती है। और
इसीलिए हम
शक्ति पर
भरोसा करते
हैं। क्योंकि
अंततः तो हम
देख ही नहीं
पाते; हमें
तो जो प्रथम
है वही दिखाई
पड़ता है।
हमारे पास
आंखें तो बहुत
पास देखने
वाली हैं, दूर
तक हमें कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता है। तो
सब तरफ हम इसी
कोशिश में लगे
रहते हैं कि
कैसे शक्ति
उपलब्ध हो। वह
शक्ति चाहे धन
की हो, चाहे
ज्ञान की हो, चाहे तंत्र
की, मंत्र
की हो, लेकिन
कैसे शक्ति
उपलब्ध हो।
चारों तरफ
हमारी एक ही
खोज होती है
पूरे जीवन में
कि हम शक्तिशाली
कैसे हो जाएं।
लेकिन शक्ति
का करिएगा क्या?
शक्ति की
इतनी
आकांक्षा
क्यों है?
नीत्शे
ने एक किताब
लिखी है।
अनूठी किताब
है,
दि विल टु
पावर। और
किताब में
उसने सिद्ध
करने की कोशिश
की है कि
प्रत्येक
आदमी की आत्मा
एक आकांक्षा
है शक्ति के
लिए, विल
टु पावर, और
कुछ भी नहीं।
हर आदमी शक्ति
पाना चाहता है;
शक्ति के
रूप कुछ भी
हों। जब आप
ज्यादा धन इकट्ठा
करना चाहते
हैं तो आप
क्या चाहते
हैं? अनेक
लोग पूछते हैं,
ज्यादा धन
इकट्ठा करके
क्या करिएगा?
लेकिन
उनको पता नहीं
कि वे क्या
पूछ रहे हैं। धन
धन नहीं है, धन
शक्ति का
संचित रूप है।
एक रुपया आपकी
जेब में पड़ा
है तो सिर्फ
रुपया नहीं
पड़ा है, शक्ति
संचित पड़ी है।
इसका आप
तत्काल उपयोग
कर सकते हैं।
जो आदमी अकड़
कर जा रहा था, उसको रुपया
दिखा दीजिए, वह झुक गया; वह रात भर
आपके पैर दबाएगा।
उस रुपए में
यह आदमी छिपा
था जो रात भर
पैर दबा सकता
है। रुपए की
इतनी दौड़ रुपए
के लिए नहीं है।
रुपया तो
संचित शक्ति
है, कनडेंस्ड पावर है। और अदभुत
शक्ति है।
क्योंकि अगर
आप एक तरह की
शक्ति इकट्ठी
कर लें तो
उसको दूसरी
शक्ति में नहीं
बदला जा सकता।
रुपया बदला जा
सकता है। एक
रुपया आपकी
जेब में पड़ा
है, चाहें
आप किसी से
पैर दबवा
लें, चाहें
किसी से सिर
की मालिश
करवाएं, चाहे
किसी से कहें
कि पांच दफे
उठक-बैठक करो।
उसके हजार
उपयोग हैं।
अगर आपके पास
एक तरह की
शक्ति है तो
वह एक ही तरह
की है, उसका
एक ही उपयोग
है। रुपया
अनंत आयामी
है।
इसलिए
इतना पागलपन
है रुपए के
लिए। पागलपन
ऐसे ही नहीं
है,
जैसा
साधु-संन्यासी
समझाते हैं कि
आप व्यर्थ ही
पागल हैं। लोग
व्यर्थ पागल
नहीं हैं, लोग
बड़े गणित से
पागल हैं।
चाहे उन्हें
भी पता न हो, चाहे उन्हें
भी स्पष्ट न
हो कि वे
क्यों पागल हैं,
क्यों इतना
रस है रुपए
में, क्यों
रुपए को पकड़ने
और बचाने की
इतनी
आकांक्षा है।
शायद उन्हें भी
साफ न हो; दौड़
अचेतन हो; उन्हें
चेतना न हो
पूरी की वे
क्या कर रहे
हैं। लेकिन
बात बिलकुल
साफ है। और
बात इतनी है
कि वे धन के
माध्यम से
शक्ति इकट्ठी
कर रहे हैं।
कोई
आदमी किसी और
ढंग से शक्ति
इकट्ठी कर रहा
है। एक आदमी
युनिवर्सिटी
में पढ़ रहा है, शिक्षित
हो रहा है; वह
भी शक्ति
इकट्ठी कर रहा
है। वह ज्ञान
के द्वारा शक्ति
इकट्ठी कर रहा
है। एक तीसरा
आदमी कुछ और
उपाय कर रहा
है। लेकिन अगर
सारे लोगों को
हम देखें तो
अलग-अलग
रास्तों से वे
शक्ति की तलाश
कर रहे हैं।
एक
आदमी मंत्र
सिद्ध कर रहा
है बैठ कर; वह
भी शक्ति की
तलाश में है।
वह भी सोचता
है कि मंत्र
सिद्ध हो जाए
तो लोगों को
आंदोलित कर
दूं, प्रभावित
कर दूं, कि
हजारों लोग
चमत्कृत हो
जाएं कि जो
चाहूं वह करके
दिखा दूं। वह
भी उसी कोशिश
में लगा है। जो
आदमी
प्रार्थना कर
रहा है, पूजा
कर रहा है, ठीक
से समझें तो
वह क्या कर
रहा है? वह
भी शक्ति की
तलाश कर रहा
है। वह ईश्वर
को प्रभावित
करना चाहता है,
मुट्ठी में
लेना चाहता है,
और उससे कुछ
करवाना चाहता
है कि वह कुछ
मेरे लिए कर
दे। तो पूजा
करेगा, घुटने
टेकेगा, मंदिर
में गिरेगा।
लेकिन आयोजन
क्या है उसका?
रोएगा, कहेगा
कि मैं पतित
हूं, तुम
पावन हो। सब
कहेगा; लेकिन
उसका प्रयोजन
क्या है? प्रयोजन
है कि वह
ईश्वर को अपने
हाथ में लेकर
संचालित करना
चाहता
है--अपनी
मर्जी के
अनुसार। इसलिए
तथाकथित
धार्मिक लोग
कहते सुने
जाते हैं कि क्या
क्षुद्र
शक्तियों की
तलाश में पड़े
हो, परम
शक्ति को
खोजो।
लेकिन
क्षुद्र को
खोजो या परम
को,
लेकिन
शक्ति को जरूर
खोजो--पावर!
शक्ति का क्या
उपयोग है?
शक्ति
से स्वयं को
तो कुछ भी
नहीं मिलता, लेकिन
दूसरे की
तुलना में बल
मालूम पड़ता
है। शक्ति
तुलनात्मक
है। यह दूसरा
सत्य शक्ति के
संबंध में समझ
लेना चाहिए।
वह हमेशा
तुलनात्मक
है। किसी को
आप शक्तिशाली
नहीं कह सकते
सीधा; आपको
कहना पड़ेगा कि
अ, ब से
ज्यादा
शक्तिशाली
है। क्योंकि अ
शक्तिशाली है,
इतना कहने
से कुछ हल
नहीं होता।
क्योंकि स ज्यादा
शक्तिशाली हो
सकता है। तो
शक्तिशाली
हमेशा तुलना
में, कंपेरिजन
में। आपको
सिर्फ इतना
कहना ठीक नहीं
कि आप धनी हैं,
क्योंकि आप
किसी की तुलना
में गरीब हो
सकते हैं। तो
यह बताना
जरूरी है कि
आप किसकी तुलना
में धनी हैं।
सब शक्तियां
तुलनात्मक
हैं। किसी को
यह कहना काफी
नहीं है कि यह
विद्वान है; यह बताना
जरूरी है कि
किसकी तुलना
में विद्वान
है। क्योंकि
किसी की तुलना
में यह मूढ़
हो सकता है।
सारी
शक्तियां
रिलेटिव हैं,
सापेक्ष
हैं। शक्ति का
मजा अपने आप
में नहीं है, शक्ति का
मजा दूसरे को
कमजोर करने
में है। शक्ति
से आप
शक्तिशाली
नहीं होते, लेकिन दूसरा
कमजोर दिखता
है। दूसरे के
कमजोर दिखने
से आपको एहसास
होता है कि
मैं शक्तिशाली
हूं।
इसलिए
धन का असली
मजा धन में
नहीं है, दूसरों
की गरीबी में
है। अगर कोई
भी गरीब न हो, धन का मजा ही
चला जाता है।
कोई रस नहीं
है फिर उसमें।
थोड़ा समझिए कि
कोहनूर हीरा
आपके पास है।
उसका मजा क्या
है? मजा
सिर्फ यह है
कि आपके पास
है, और
किसी के पास
नहीं है। सबके
पास कोहनूर
हीरा है, बात
व्यर्थ हो गई।
आप इस कोहनूर
हीरा को
बिलकुल फेंक
देंगे। इसका
कोई मूल्य ही
न रहा। यह वही
कोहनूर हीरा
है, लेकिन
अब इसका कोई
मूल्य नहीं
है। इसका
मूल्य इसमें
था कि दूसरों
के पास नहीं
था। यह बड़े मजे
की बात है!
आपके पास है, इसमें मूल्य
नहीं है; दूसरे
के पास नहीं
है, इसमें
मूल्य है।
तो
सारी शक्ति
दूसरे पर
निर्भर है, और
दूसरे की
तुलना में है।
अमीर अमीर है,
क्योंकि
कोई गरीब है।
ज्ञानी
ज्ञानी है, क्योंकि कोई
अज्ञानी है।
शक्तिशाली
शक्तिशाली है,
क्योंकि
कोई निर्बल
है। शक्ति की
दौड़ आत्म-खोज
नहीं बन सकती
है। क्योंकि
शक्ति की दौड़
दूसरे से बंधी
हुई है; दूसरे
की तुलना में
है। और एक मजे
की बात है कि जो
दूसरे की
तुलना में है
वह दूसरे पर
निर्भर भी है।
इसलिए बड़े से
बड़ा
शक्तिशाली
आदमी भी अपने
से कमजोर
लोगों पर
निर्भर होता
है। यह हमको
भी दिखाई नहीं
पड़ता। जब आप
एक सम्राट को
चलते देखते
हैं और उसके
पीछे गुलामों
को चलते देखते
हैं तो आपको
खयाल नहीं होता
कि सम्राट
गुलामों का
उतना ही गुलाम
है जितना
गुलाम सम्राट
के गुलाम हैं।
शायद सम्राट ज्यादा
गुलाम भी हो।
क्योंकि
गुलामों को
मौका मिले तो
वे छोड़ कर
सम्राट को भाग
जाएं और स्वतंत्र
हो जाएं, लेकिन
सम्राट
गुलामों को
छोड़ कर नहीं
भाग सकता।
क्योंकि
गुलामों के बिना
वह सम्राट ही
नहीं रह जाएगा;
उसका सम्राटपन
गुलामों पर
निर्भर है। वह
गुलामों की भी
गुलामी है।
म्युचुअल स्लेवरी, पारस्परिक
गुलामियां
हैं। जिसको भी
आप गुलाम
बनाते हैं, उसके आप
गुलाम बन जाते
हैं। जिस पर
भी आप कब्जा
करते हैं, आप
उसके कब्जे
में हो जाते
हैं। और जिसको
भी आप अपने से
निर्बल कर
देते हैं, आप
उससे भी
निर्बल हो
जाते हैं। यह
गहरा हिसाब
है। यह ऊपर से
दिखाई नहीं
पड़ता, लेकिन
हम सब
एक-दूसरे पर
निर्भर हो
जाते हैं।
जो
व्यक्ति
शक्ति की खोज
करता है वह
निर्भरता की
खोज कर रहा है, वह
परतंत्रता की
खोज कर रहा
है। इसलिए बड़े
से बड़ा धनी भी
धनवान नहीं हो
पाता। और बड़े
से बड़ा पंडित
भी ज्ञानवान
नहीं हो पाता।
क्योंकि सब तुलना
में सारा
मामला है।
उसका
पांडित्य मूढ़ों
पर निर्भर है।
मूढ़ अगर
विदा हो जाएं,
उसका
पांडित्य
विदा हो जाए।
साधु
असाधु पर
निर्भर है।
असाधु न रह
जाएं, साधु का
कोई मूल्य
नहीं रह जाता;
वह खो जाता
है। इसलिए
साधु कोशिश
बहुत करते हैं
कि दुनिया में
असाधु न रहें,
लेकिन अगर
वे समझेंगे
गणित को, तो
उनको पता नहीं
वे क्या कर
रहे हैं। वे
आत्मघात में
लगे हैं। उनकी
साधुता
असाधुता पर
निर्भर है। वह
जो बेईमान है,
जो चोर है, वही उनकी
गरिमा बना रहा
है, वही
उनको गौरव दे
रहा है।
क्योंकि वे
बेईमान नहीं
हैं, वे
चोर नहीं हैं।
एक आदमी चोर
है और बेईमान
है। वह जो चोर
और बेईमान है,
वही साधु की
चमक है। थोड़ी
देर के लिए
कल्पना करें
कि कोई बेईमान
नहीं है, कोई
चोर नहीं है।
क्या ऐसे समाज
में जहां कोई बेईमान
और चोर नहीं
होगा, कोई
साधु हो सकता
है? साधु
का क्या अर्थ
होगा? कौन
पूछेगा साधु
को? कौन
सम्मान देगा?
दुनिया से
जिस दिन भी
असाधु को
मिटाना हो उस
दिन साधु को
मिटाने की
तैयारी
चाहिए। वे
परस्पर
गुलामियां हैं।
ऐसा
खयाल में साफ
आ जाए कि
शक्ति
तुलनात्मक है, शक्ति
दूसरे पर
निर्भर है, तो शक्ति
कभी भी मुक्ति
नहीं बन सकती।
मुक्ति का तो
अर्थ यह है कि
मैं बिलकुल
अकेला रह जाऊं,
मुझ पर कोई
निर्भरता, किसी
के ऊपर मेरी
निर्भरता न रह
जाए; मैं
अकेला ही
परिपूर्ण
आप्तकाम हो
जाऊं। मेरे
भीतर ही सब
कुछ हो जो
मुझे चाहिए; मेरी चाह की
पूर्ति कहीं
भी बाहर से न
होती हो।
यह
शक्ति से तो
नहीं होगा, यह
शांति से
होगा। और
शांति बिलकुल
अलग बात है।
शक्ति में
दूसरे को
दबाना है, दूसरे
को जीतना है; शांति में
किसी को दबाना
नहीं, किसी
को जीतना नहीं।
अपने को भी
दबाना नहीं, अपने को भी
जीतना नहीं।
शांति का अर्थ
है कि मेरी जो
ऊर्जा है, मैं
जैसा हूं, मैं
जो हूं, वह
पर्याप्त हूं;
इससे
अन्यथा की कोई
मांग नहीं है।
मैं राजी हूं
और प्रसन्न
हूं और
अनुगृहीत हूं,
जो भी मैं
हूं वही मेरा
आनंद है। ऐसी
प्रतीति में
शक्ति की खोज
तो समाप्त हो
गई और दूसरे
से कुछ
लेना-देना न
रहा; दूसरे
से कोई संबंध
न रहा। यही
संन्यास है।
जब तक दूसरे
से लेना-देना
है, जब तक
दूसरे पर
निर्भरता है,
तब तक संसार
है; वह
निर्भरता
किसी भी ढंग
की हो।
लाओत्से
कहता है, शक्ति
पर भद्रता की
विजय। भद्रता
का क्या अर्थ
लाओत्से के
विचार में है,
वह हम ठीक
से समझ लें।
क्योंकि जो भी
हम समझते हैं
भद्रता से, जो लिखा है
शब्दकोशों
में, वह
लाओत्से का
प्रयोजन नहीं
है। हमारी
भाषा की
कठिनाई है। और
उस कठिनाई के
कारण ही
लाओत्से जैसे
लोग बोलने में
भी अड़चन अनुभव
करते हैं कि
वे कैसे कहें
जो कहना चाहते
हैं। क्योंकि
आपके ही
शब्दों का
उपयोग करना
पड़ेगा। और
आपके सब शब्द
दूषित हो गए
हैं। और आपने
उनको एक अर्थ
दे दिया है।
जैसे
भद्रता, विनम्रता।
तो जब भी हम इन
शब्दों का
उपयोग करते
हैं तो हमारे
मन में क्या
अर्थ होता है?
हम कहते हैं,
फलां आदमी
बहुत विनम्र
है। क्यों? क्योंकि हम
कहते हैं कि
वह अहंकारी
नहीं है, अकड़ा
हुआ नहीं है; झुका हुआ
है। तो हमारे
मन में जो भी
विनम्रता का
और भद्रता का
अर्थ है वह
अहंकार से ही
जुड़ा हुआ
है--कि जो आदमी
विनीत है, कम
अहंकारी है, नहीं
अहंकारी है, वह आदमी भद्र
है। लेकिन
लाओत्से की
विनम्रता और
भद्रता, जिसको
वह जेंटिलनेस
कह रहा है, वह
अहंकार से
नहीं तौली जा
सकती है। वहां
न तो अहंकार
है जिसे हम
जानते हैं और
न वहां विनम्रता
है जिसे हम
जानते हैं।
हमारा
विनम्र आदमी
भी छिपा हुआ
अहंकारी होता है।
और जिसको हम
विनम्र आदमी
कहते हैं वह
अक्सर चालाक
होता है, हिसाबी-किताबी
होता है। उसकी
विनम्रता भी
उसकी कुशलता
है। उसकी
विनम्रता भी
उसका व्यवहार
का ढंग है।
उसकी
विनम्रता भी
आपको जीतने का
उपाय है। उसकी
विनम्रता भी
शक्ति है।
डेल कार्नेगी
की एक किताब
है: हाउ टु
विन फ्रेंड्स
एंड इनफ्लुएंस
पीपुल।
तो उसमें वह
कहता है कि
विनम्र होना
चाहिए; जितने
आप विनम्र
होंगे उतना ही
लोगों को जीत
सकते हैं।
निश्चित
ही,
लाओत्से और
डेल कार्नेगी
में अगर
बातचीत हो तो
लाओत्से की
बात डेल कार्नेगी
को बिलकुल समझ
में नहीं
आएगी।
क्योंकि वह
कहता है, विनम्रता
का मतलब ही यह
है, फायदा
ही यह है कि
उससे आप दूसरे
को जीत लेते हैं।
क्यों जीत
लेते हैं? क्योंकि
उसके अहंकार
को आप फुसलाते
हैं। वह एक
तरह की खुशामद
है। जब आप
दूसरे आदमी के
सामने विनम्र
होकर झुकते
हैं तो आप
उसके अहंकार
को बढ़ावा देते
हैं। और वह
बिलकुल
प्रसन्न होता
है। वह कहता
है, आप
कितने विनम्र
आदमी हैं।
लेकिन उसे पता
नहीं कि उसको
यह विनम्रता
पता क्यों चल
रही है? क्योंकि
उसका अहंकार
आगे बढ़ाया जा
रहा है--कोई
झुक गया; कितना
विनम्र आदमी
है! आपको यह
विनम्रता
इतनी प्रीतिकर
क्यों लग रही
है? प्रीतिकर
इसलिए लग रही
है कि आपका
अहंकार तृप्त
हो रहा है। और
कोई आदमी झुका
नहीं और अकड़ा
खड़ा रहा। आपको
यह अहंकार इतना
कष्ट क्यों दे
रहा है? इस
आदमी का
अहंकार कष्ट
नहीं दे रहा; आपके अहंकार
को गड़ रहा है।
इसलिए
सामाजिक व्यवस्था
में जो
होशियार हैं,
कुशल हैं, चालाक हैं, वे विनम्रता
का उपयोग करते
हैं। झुकेंगे,
विनम्र
होंगे; सब
भांति आपके
अहंकार को
फुसलावा
देंगे। लेकिन
भीतर वे गहन
अहंकारी हैं,
और आपके
विजय की
चेष्टा कर रहे
हैं।
डेल कार्नेगी
जिस भाषा में
विनम्रता का
उपयोग करता है
वह तो अहंकार
का उपाय है।
लाओत्से का जो
अर्थ है वहां
न तो अहंकार
है आपका और न
आपकी तथाकथित
विनम्रता है।
डेल कार्नेगी
वाली
विनम्रता
वहां नहीं है।
वहां दूसरे को
जीतने का, या
दूसरे से
हारने का, दोनों
ही सवाल नहीं
हैं। वहां
दूसरा है ही
नहीं। आदमी
सिर्फ स्वयं
है। वह न आपको
जीतने की फिक्र
कर रहा है और न
आपसे हारने के
लिए डरा हुआ
है। वह आपकी
चिंता नहीं कर
रहा है। वह जैसा
है वैसा है।
वह सरल है।
यह जो
विनम्रता
हमारी है, यह
बड़ी जटिल है।
अगर यहां आपको
लोगों को
जीतना है तो
विनम्र होना
पड़ेगा। यह तो
बड़े मजे की बात
हुई! यहां अगर
आपको अपने
अहंकार को आगे
ले जाना है तो
विनम्र होना
पड़ेगा। आप
जितने विनम्र
होंगे उतने ही
अहंकार को आप
सफल हो सकते
हैं; उतना
ही अहंकार आप
अपना मजबूत कर
सकते हैं। आदमी
सब तरह से
अपने अहंकार
को तृप्त करने
की कोशिश करता
है। वह
विनम्रता से
भी करता है।
और तब
आपको हर गांव
में ऐसे लोग
मिल जाएंगे जो
विनम्रता की
मूर्ति हैं।
लेकिन अगर आप
उनका थोड़ा सा
परीक्षण करें
तो पाएंगे कि
भीतर उनके गहन
अहंकार की
लपटें जल रही
हैं। और यह
विनम्रता की
मूर्ति जो वे
बने हुए हैं, उसी
अहंकार के लिए
बने हुए हैं।
और जब सारा गांव
उन्हें कहता
है कि धन्य
हैं आप, कि
आप जैसा
विनम्र आदमी
नहीं, तब
वे फूले नहीं
समाते। वह कौन
फूलता है भीतर?
जो सुनता है
कि आप जैसा
कोई विनम्र
नहीं, आप
परम विनम्र
हैं। आप जैसा
कोई भद्र नहीं,
सरल नहीं, आप जैसा कोई
साधु नहीं। तो
कौन फूलता है
भीतर? वह
जो फूल रहा है,
वह जो
प्रसन्न हो
रहा है, वही
अहंकार है।
और अगर
यह आपको समझ
में आ जाए तो
फिर उचित यही
है कि अगर
आपको अपनी अकड़
पूरी करनी हो
तो विनम्र
होकर पूरी
करें।
क्योंकि
विनम्र होकर
ही पूरी करना
आसान होगी। आप
अकड़े तो
दूसरे लोग
आपकी अकड़ को
तोड़ने की
कोशिश में लग
जाते हैं। आप अकड़े ही
नहीं तो कोई
तोड़ने की
कोशिश ही नहीं
करता; आपको सब
सम्हालते
हैं। इस गहरी
चालाकी को अगर
आप समझ लें तो
मन के धोखे से
बच सकते हैं।
लाओत्से
की भद्रता, विनम्रता
अहंकार और
विनम्रता
दोनों का अभाव
है। हमारी
विनम्रता
अहंकार की ही
एक व्यवस्था
है। हमारा
अहंकार भी
विनम्रता का
ही एक जोड़ और
उसकी ही एक
डिग्री, उसकी
ही एक मात्रा
है। जहां
दोनों नहीं
हैं, वहां
भद्र व्यक्ति
का जन्म होता
है।
लाओत्से
बैठा है। कनफ्यूशियस
उससे मिलने
आया। कनफ्यूशियस
डेल कार्नेगी
की बात बिलकुल
ठीक से समझता।
कनफ्यूशियस
तो बिलकुल
मर्यादा पुरुषोत्तम
था। हर चीज की
मर्यादा थी; हर
चीज का नियम
था। और आप
जानते हैं, चीन में तो
लोग या जापान
में लोग झगड़ें
भी तो भी पहले
झुक-झुक कर
नमस्कार करते
हैं। झगड़ा
भी झुक-झुक कर
नमस्कार से
शुरू होता है।
इतने विनम्र
हो गए हैं।
कनफ्यूशियस
आया;
उसने झुक कर
नमस्कार किया।
लेकिन वह बड़ा
चौंका।
क्योंकि
लाओत्से बैठा
था, और
बैठा ही रहा।
न उसने झुक कर
नमस्कार का
उत्तर दिया, न वह खड़ा
हुआ। कनफ्यूशियस
थोड़ा बेचैन
हुआ, और
उससे नहीं रहा
गया। और उसने
कहा कि आप
समाज के किसी
नियम और
व्यवस्था को
नहीं मानते
हैं?
तो
लाओत्से हंसा
और उसने कहा, तो
तुम व्यवस्था
और नियम के
कारण झुक रहे
हो? लाओत्से
ने कहा, औपचारिक
का क्या उतर
देना! फार्मल
का क्या उत्तर
देना! हार्दिक
के उत्तर की
कोई बात होती
है। तुम सिर्फ
झुक रहे थे
क्योंकि नियम
है! तो सब थोथा
हो गया।
हार्दिक का
उतर हो सकता
है; औपचारिक
का क्या उत्तर?
और अच्छा था
कि तुम्हें
तुम्हारी
औपचारिकता का
पता चल जाए, क्योंकि
औपचारिकता
झूठ है। तुम
जरा भी नहीं झुके,
और झुक कर
तुमने
दिखाया। तुम
झुकते तो मैं
झुका ही हुआ
हूं; कोई
बाधा नहीं है।
और तुम मेरे
झुके हुए होने
को नहीं देख
सकते क्योंकि
तुम सिर्फ
औपचारिक
झुकने को
पहचानते हो।
मुझे उठ कर
खड़े होने और
झुकने की
जरूरत नहीं।
तुम मुझे देखो,
मैं झुका
हुआ हूं। खड़े
होकर झुकने की
तो उसे जरूरत
है जो भीतर
झुका न हो, और
बाहर से आयोजन
कर रहा हो, प्रदर्शन
कर रहा हो।
कनफ्यूशियस
बहुत घबड़ा गया
होगा। उसकी
थोड़ी सी जो
चर्चा लाओत्से
से हुई है, वह
लौट कर अपने
शिष्यों से
उसने कहा कि
इस आदमी के
पास दुबारा मत
जाना; यह
आदमी बहुत
खतरनाक है।
लाओत्से
का भद्रता से
अर्थ है
स्वभाव की
भद्रता।
इसे हम
समझने की
कोशिश करें।
क्योंकि
हमारे पास
बहुत ऐसे शब्द
हैं जो धोखे
के हो गए हैं।
एक आदमी लंगोटी
लगा लेता है
तो हम कहते
हैं,
कितना सादा
आदमी है!
सादगी लंगोटी
लगाने से हो
जाती है।
लेकिन जो आदमी
लंगोटी लगा
रहा है, वह
क्यों लंगोटी
लगा रहा है? उसकी लंगोटी
लगाने में कोई
लोभ है? कोई
प्रलोभन है? कुछ पाने की
आकांक्षा है?
तो फिर
सादगी न रही; फिर तो यह
व्यवस्था हो
गई, व्यवसाय
हो गया, इनवेस्टमेंट हो गया। वह
लंगोटी लगा कर
कुछ पाने की
कोशिश कर रहा
है। या यह हो
सकता है कि आप
सादगी को आदर
देते हैं, इसलिए
वह लंगोटी लगा
कर खड़ा है। तो
वह आपसे आदर
पाने की कोशिश
कर रहा है।
तो
फर्क क्या हुआ? एक
आदमी कीमती, खूबसूरत टाई
बांध कर खड़ा
हुआ है, वह
भी इस आशा में
कि आप आदर
देंगे; और
एक आदमी
लंगोटी लगा कर
खड़ा हुआ है, वह भी इस आशा
में कि आप आदर
देंगे। दोनों
की लंगोटियों
में फर्क क्या
है? बुनियादी
आकांक्षा! वे
प्रतीक्षा
क्या कर रहे
हैं? आप
सुंदर वस्त्र
पहन कर खड़े हो
सकते हैं, आप
नग्न खड़े हो
सकते हैं; इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। यह फर्क
तो बहुत ऊपरी
है। लेकिन
भीतर
आकांक्षा
क्या है? भीतर
आकांक्षा है
सम्मान पाने
की, समादर
पाने की, इज्जत
पाने की? दूसरे
देखें और
जानें कि आप
कौन हैं, क्या
हैं, आप
महत्वपूर्ण
हैं, विशिष्ट
हैं? तो
अगर यह आकांक्षा
भीतर है, सादगी
के पीछे भी, तो सादगी
सादगी न रही; फिर सादगी
तो जटिल हो गई,
उसमें
उलझाव हो गया।
मैं
अनेक सादगी
वाले लोगों को
जानता हूं।
उनकी सादगी
बिलकुल
आरोपित है, आयोजित
है। और ऐसा
नहीं कि वे
आदमी बुरे
हैं। उन्हें
पता ही नहीं
कि वे...वे भी
मान कर चल रहे
हैं कि यह
सादगी है।
सादगी
होती है हृदय
की। लंगोटियों
से उसे नापने
का कोई उपाय
नहीं है। और
हृदय सादा हो
तो बात और है।
हृदय सादा न
हो तो आप
कितना ही
इंतजाम कर लें, सादगी
फलित न होगी।
उसमें भी आप
हिसाब लगा रहे
हैं--स्वर्ग, मोक्ष, क्या
मिलेगा, क्या
नहीं मिलेगा।
क्योंकि आपने
लंगोटी लगा ली
है। गजब का
सौदा कर रहे
हैं! एक
लंगोटी लगा कर
लोग बिलकुल
मोक्ष का
इंतजाम कर
लेते हैं। या
कि कोई नग्न
खड़ा हो गया तो
वह सोचता है
कि परम दिगंबरत्व
उपलब्ध हो
गया। अब, अब
तो क्या कमी
रही! तो सिर्फ
इतनी ही कमी
थी कि आप कपड़े
पहने थे; वे
बाधा डाल रहे
थे मोक्ष में।
या आप एक बार
खाना खा सकते
हैं; तो
सादगी नहीं हो
जाएगी।
अभ्यास की बात
है।
अफ्रीका
में एक पूरी
की पूरी जाति
एक ही बार भोजन
करती है। जब
उनको पहली दफा
पता चला, योरोपियन वहां
पहुंचे और
उनको पता चला
कि चार-चार, पांच-पांच
दफा दिन में
खाते हैं--कभी
चाय, कभी
नाश्ता, कभी
खाना--तो वे
हैरान ही हो
गए। उनको पता
ही नहीं था, सदियों से
वे एक ही बार
खा रहे थे, जैसे
आप दो बार खा
रहे हैं। तो
पेट उसके लिए
राजी हो जाता
है, फिर
चौबीस घंटे
में एक बार
भूख लगती है।
दो बार खाते
हैं तो दो बार
लगती है; पांच
बार खाते हैं
तो पांच बार
लगती है। पेट
हर चीज से
राजी हो जाता
है।
तो जो
पांच बार खा
रहा है, उसका
भी पांच बार
का अभ्यास है।
जो एक बार खा रहा
है, उसका
एक बार का
अभ्यास है।
अभ्यास बदलने
में थोड़ी
तकलीफ हो सकती
है शुरू में, लेकिन थोड़े
ही दिनों में
कंडीशनिंग हो
जाती है, अभ्यास
हो जाता है।
फिर कोई अड़चन
नहीं है। लेकिन
सादगी से इसका
कोई संबंध
नहीं है।
सादगी से
संबंध इसका
नहीं है कि आप
क्या करते हैं;
सादगी से
संबंध है कि
आप क्या हैं।
एक
मित्र थे मेरे, उनके
साथ एक दफा
यात्रा पर
गया। तो वे
भोजन के लिए
इतना उपद्रव
मचाते
थे--सादा
भोजन। उसके
लिए वे इतना
उपद्रव मचाते
थे कि मैंने
कोई उपद्रवी
नहीं देखा जो
भोजन के लिए
इतना ऑब्सेशन
से भरा हो।
सादा भोजन के
लिए वे इतना
उपद्रव मचाते
थे कि
गैर-सादा भोजन
वाला इतना
उपद्रव कभी
करता ही नहीं।
चौबीस घंटा
उनका भोजन में
ही चिंतन में
लगता।
कितने
घंटे पहले दूध
लगाया गया गाय
से! क्योंकि
उनका हिसाब कि
इतने घंटे के
बाद उसमें
जीवाणु पड़
जाएंगे, यह हो
जाएगा। घी
कितने घंटे
पहले का
निकाला हुआ!
गाय का ही है
दूध? भैंस
का न होना
चाहिए, गाय
का ही चाहिए।
पानी कौन भर
कर लाया? वे
सारा हिसाब कर
लेते थे। और
लोग कहते, कितना
सादा जीवन! और
वे चौबीस घंटे
सादा जीवन में
ही लगे हैं।
उनका कुल एक
ही लक्ष्य हो
गया है कि
चौबीस घंटे वे
इसकी
व्यवस्था जमाएं।
और उससे
उन्हें
सम्मान मिल
रहा है, उन्हें
आदर मिल रहा
है। लोग कष्ट
उठा रहे हैं, सब तरह का
इंतजाम कर रहे
हैं। और उनको
बड़ा सम्मान
मिल रहा है।
और वे चौबीस
घंटे भोजन को
ब्रह्म मान कर
चिंतन कर रहे
हैं।
सादगी
वहां मुझे जरा
भी न दिखाई
पड़ी। यह तो बहुत
ही गैर-सादा
जीवन मालूम
पड़ा। यह तो
बहुत उलझा हुआ
मालूम पड़ा। और
अकेले का ही
नहीं उलझा, और
अनेक लोगों का
उलझाए
हुए हैं। और
सब भयभीत हैं,
डरे हुए हैं,
कि जरा
भूल-चूक हो
जाए तो वे
भोजन नहीं
लेंगे, वे
भूखे रह
जाएंगे। उनका
भूखा रहना ऐसा
है जैसे सबके
ऊपर अपराध है।
और सब अनुभव
करेंगे कि भूल
हो गई, अपराध
हो गया; बड़ा
कष्ट हो गया।
आप
सादगी को भी
जटिलता कर
सकते हैं, अगर
आपका जटिल मन
है। और अगर
आपका सादा मन
है, सादा
हृदय है, तो
कितनी ही
जटिलता में आप
रह सकते हैं, जटिलता पैदा
नहीं होगी।
इसलिए असली
सवाल यह नहीं
कि आप क्या
खाते हैं, क्या
पीते हैं, क्या
पहनते हैं।
असली सवाल यह
है कि कैसा
आपके पास हृदय
है, कैसे
आप हैं। और आप
उलझे हुए तो
नहीं हैं! गणित
तो नहीं बिठा
रहे हैं!
सुना
है मैंने कि
एक सूफी फकीर
यात्रा कर रहा
था,
मक्का जा
रहा था। और
उसने और उसके
मित्रों ने एक
महीने का
उपवास किया
हुआ था। उपवास
तोड़ेंगे
वे मक्का
जाकर। एक गांव
में आए, लेकिन
बड़ी मुश्किल
हो गई। चार-छह
दिन ही हुए थे
यात्रा के। और
गांव के एक
गरीब आदमी ने,
जो उस सूफी
का भक्त था, अपना सब
खेती, जमीन,
मकान, सब
बेच दिया।
क्योंकि सूफी
आ रहा था, उसके
साथ सौ फकीर आ
रहे थे, और
उसके भक्त ने
सब बेच कर
पूरे गांव को
भोजन दे दिया,
भोज कर
लिया। सब फूंक
दिया जो उसके
पास था। उसका
गुरु आ रहा
था।
जब गुरु
को पता लगा तो
शिष्य बड़ी
बेचैनी में
पड़े। शिष्यों
ने कहा, अब
क्या होगा? हम तो
उपवासे हैं।
गुरु का उपवास
है; उपवास
टूट सकता
नहीं। चाहे
जान रहे कि
जाए, उपवास
नहीं टूट
सकता। ये जटिल
आदमी के लक्षण
हैं कि जान
रहे कि जाए; ये कोई सरल
आदमी के लक्षण
नहीं हैं।
गुरु सुनता
रहा, वह
कुछ बोला
नहीं। लेकिन
जब पहुंचा तो
वह खाने के
लिए बैठ गया; और जब गुरु
बैठ गया तो
शिष्यों को
मजबूरी में बैठना
पड़ा। लेकिन
उन्होंने बड़े
दुख में खाया,
बड़े परेशान,
पसीना-पसीना,
आत्म-ग्लानि,
पाप--कि यह
क्या हो रहा
है! गुरु भूल
गया या क्या हुआ?
उपवास है एक
महीने का, और
ये छह दिन में
ही टूट गया।
जब सब
विदा हो गए, भोज
समाप्त हो गया,
रात अकेले
शिष्य और गुरु
रह गए, तो
शिष्यों ने
कहा कि यह
हमारी समझ के
बाहर है। यह
तो बड़ी भारी
दुर्घटना है
कि हमने उपवास
किया महीने भर
का और छह दिन
में टूट गया!
गुरु ने कहा, घबड़ाने की क्या बात
है? आज से
हम फिर शुरू
करते हैं; एक
महीना चलेगा।
लेकिन उस गरीब
आदमी ने सब
कुछ फूंक डाला;
उससे यह
कहना कि हम
उपवासे
हैं--अकारण
जटिलता पैदा
होती, उसे
दुख होता।
इसकी क्या
जरूरत है? इसकी
बात ही क्यों
उठानी? फायदा
ही हुआ हमको, एक महीने छह
दिन का उपवास
का फायदा हुआ।
कल से हम फिर
उपवास करेंगे,
और एक महीना
उपवास चलेगा।
यह सरल
आदमी है। वे
शिष्य सरल
आदमी नहीं
हैं। सरलता
गणित नहीं
बिठाती।
सरलता सहज स्पांटेनियस
स्फुरणा है।
और जो घटनाएं घटें, उनके
साथ बिना
भविष्य का
गणित बिठाए
सहज जो संवाद
है, सहज जो
प्रत्युत्तर
है, वही।
लाओत्से
कहता है, "शक्ति
पर भद्रता की
विजय होती है।'
वह
भद्रता--हृदय
की भद्रता।
वहां कोई मन
बैठ कर सोच
नहीं रहा है
कि भद्र होने
से शक्ति पर
विजय मिलेगी।
अगर आपने इसको
गणित का नियम
बनाया कि भद्र
होने से शक्ति
पर विजय
मिलेगी तो
आपको कभी विजय
नहीं मिलेगी।
और तब आप
कहेंगे कि यह
सूत्र गलत था।
क्योंकि
शक्ति पर विजय
पाने के लिए
भद्रता कोई
उपाय नहीं है।
भद्र विजय पा
लेता है, यह
परिणाम है।
मैं एक
विद्यालय में
गया--धार्मिक
विद्यालय। वहां
एक मुनि
विराजमान थे।
उन मुनि के
पीछे एक तख्ती
पर एक वचन
लिखा हुआ था।
वचन लिखा हुआ
था कि विद्वान
की सर्वत्र
पूजा होती है।
तो मैंने उनसे
पूछा कि यह
वचन यहां किसलिए
लगा रखा है? इसीलिए
न कि जिनको भी
पूजा चाहनी
हो वे विद्वान
हो जाएं!
क्योंकि
विद्वान की सर्वत्र
पूजा होती है।
राजा तो अपने
देश में ही
पुजता है, लेकिन
विद्वान की
सर्वत्र पूजा
होती है। क्या
मतलब क्या है इसका?
अगर पूजा का
भाव जगाना है
कि मेरी पूजा
होगी सब जगह, इसलिए
विद्वान हो
जाऊं, तो
आप विद्वान
कैसे हो
पाएंगे? या
फिर वह
विद्वत्ता
कचरा होगी।
ज्ञान तो नहीं
हो सकती; पांडित्य
हो सकता है।
लेकिन उस
पांडित्य के पीछे
अहंकार ही खड़ा
होगा, और
उस पांडित्य
का कुल उपयोग
आभूषण का होगा
कि अहंकार के
लिए आभूषण बन
जाए।
हम
प्रत्येक चीज
में
कार्य-कारण का
संबंध बना लेते
हैं;
उन चीजों
में भी जहां
कार्य-कारण का
संबंध नहीं
होता। इसे हम
थोड़ा समझें, क्योंकि
हमारे पूरे
जीवन में यह
छिपा हुआ है।
मैं
किसी को कहता
हूं कि आओ, इस
खेल को खेलो; इस खेल के
खेलने से बड़ा
आनंद मिलता
है। आप आनंद
पाने के लिए
खेलने आ गए।
आपने सोचा कि
आनंद मिलता है
तो चलो, आनंद
तो चाहिए, इसलिए
खेलें। तो आप
खेलेंगे तो
नहीं; आप
पूरे वक्त
सोचेंगे कि
अभी तक आनंद
नहीं मिला!
अभी तक आनंद
नहीं मिला! अब
आनंद कब
मिलेगा? और
यह हाथ-पैर
चलाने से, फुटबाल
को यहां से
वहां फेंकने
से, या वालीबाल
को यहां से
वहां करने से
कैसे आनंद
मिलेगा? एक
गेंद को इस
तरफ से उस तरफ
नेट के करने
से आनंद कैसे
मिल सकता है? लेकिन कोशिश
करें, कहते
हैं, शायद
मिले। तो आप
परेशान हो
जाएंगे, दुख
पाएंगे। और
बाद में आप
कहेंगे कि गलत
कहा, आनंद
नहीं मिलता।
खेल से
आनंद मिलता है, इसमें
कार्य-कारण का
संबंध नहीं है,
कि आप
खेलेंगे तो
आनंद मिलेगा,
कि आनंद
पाने के लिए
आप खेलें तो
आनंद मिल जाएगा।
नहीं, आप
आनंद को तो
सोचें ही मत, आप सिर्फ
खेलें। आनंद
की तो बात ही
मत उठाएं।
आनंद मिलेगा,
यह भी ध्यान
मत रखें। आनंद
चाहिए, इसकी
भी बात छोड़
दें। आनंद को
भूल ही जाएं, सिर्फ
खेलें। तो
आनंद मिलेगा।
क्योंकि आनंद खेल
के पीछे छाया
की तरह आता है;
कार्य की
तरह नहीं, छाया
की तरह आता
है। लेकिन
छाया ऐसी चीज
नहीं है कि आप
झपट्टा मार
दें। अगर आप
चुपचाप खेलते
रहें तो छाया
चारों तरफ घिर
जाएगी; आप
आनंदित हो
उठेंगे।
जीवन
में जो लोग भी
इस बात को
नहीं समझ पाते, वे
बड़ी कठिनाई
में पड़ते हैं।
कहीं संगीत चल
रहा है। और
कोई आपको कहता
है संगीत का
प्रेमी, कि
आओ, बहुत
आनंद है। अब
आप वहां बैठे
हैं रीढ़ को, कुंडलिनी को
बिलकुल जगाए
हुए--आनंद
कहां है? यह
आदमी शोरगुल
मचा रहा है, इसमें आनंद
कहां है? कब
मिलेगा आनंद?
कितनी देर
और लगेगी? आप
बार-बार घड़ी
देख रहे हैं
कि अभी तक
नहीं मिला!
अभी तक नहीं
मिला! आपको
कभी भी नहीं
मिलेगा। क्योंकि
जो आप कर रहे
हैं उससे आपका
संगीत का
संबंध ही नहीं
बन पा रहा है।
अगर आप
सोचते हैं कि
भद्रता से
विजय मिलेगी, तो
भद्रता ही
नहीं मिलेगी,
विजय तो
बहुत दूर है।
क्योंकि वह
विजय की आकांक्षा
ही तो भद्रता
का अभाव है।
इसलिए इन
सूत्रों को आप
कार्य-कारण के
सूत्र मत समझना।
इन सूत्रों का
अर्थ परिणाम
का है। अगर कोई
व्यक्ति भद्र
है तो विजय
उसके पीछे
छाया की तरह
चलती है।
लेकिन जो
व्यक्ति विजय
के लिए सोचता
है उसने तो
विजय को आगे
ले लिया, भद्रता
को पीछे कर
दिया। उसके
पीछे फिर विजय
नहीं चलती।
सुना
है मैंने कि
स्वामी राम के
पास एक आदमी
आया करता था।
और राम उससे
कहते थे कि जब
मेरा एक घर था
और मैं एक घर
को पकड़े
हुए था तो वह
घर भी बचाना
मुझे मुश्किल
हो गया था। और
अब मैंने सब
घर छोड़ दिए तो
सारी दुनिया के
घर मेरे हो गए
हैं। और जब
मैं धन को पकड़ता
था कौड़ी-कौड़ी
तो कौड़ी
भी हाथ में
नहीं टिकती
थी। और जब
मैंने धन की
पकड़ छोड़ दी तो
सारी दुनिया
की संपदा मेरी
हो गई।
उस
आदमी ने कहा, मैं
भी कोशिश
करूंगा। उसने
सोचा कि अगर
ऐसा मामला है
तो यह पहले ही
क्यों नहीं
बताया गुरुजनों
ने?
राम
उसे देख कर डर
गए होंगे।
उन्होंने कहा, ठहर!
तू कोशिश में
मत पड़ जाना, नहीं तो तू
मुझ पर मुकदमा
करेगा। अगर
तूने धन छोड़ा
इस आशा में कि
सारी दुनिया
का धन हो जाए तो
तेरे हाथ का
धन भी चला
जाएगा, दुनिया
का तो मिलने
वाला नहीं। उस
आदमी ने कहा, और अभी आप कह
रहे थे कि जब
मैंने छोड़
दिया क्षुद्र
तो विराट मेरा
हो गया! तो मैं
भी कोशिश करके
देखना चाहता
हूं।
हम सब
भी यही करते
हैं। लाओत्से
जैसे परम चैतन्य
व्यक्तियों
के वचन जब हम
पढ़ते हैं तो
हमें बड़ी
कठिनाई यही हो
जाती है कि हम
सोचते हैं कि बिलकुल
ठीक,
यह तो हम भी
चाहते हैं कि
विजय मिले, और लाओत्से
सूत्र बता रहा
है कि भद्र को
मिलती है, तो
हम भद्र हो
जाएं।
एक तो
चेष्टा से
भद्र आप हुए
तो वह झूठ
होगा। वह
हार्दिक न
होगा, औपचारिक
होगा। और विजय
की आकांक्षा
से कोई भद्र
कैसे हो सकता
है? कोई
विनम्र कैसे
हो सकता है? कि अगर आप
विनम्र हो
जाएं तो सब
जगह आदर मिलेगा।
तो आदर पाने
की आकांक्षा
से कोई विनम्र
कैसे होगा? विनम्र तो
आप बिना किसी
आकांक्षा के
ही हो सकते
हैं। आदर मिले
कि अनादर, कुछ
मिले कि न
मिले, यह
सब असंगत है; भद्र होने
का आनंद मैं
लेना चाहता
हूं; भद्रता
में ही मुझे
रस है।
और
निश्चित ही, भद्रता
अपने आप में
इतना बड़ा रस
है कि कोई विजय
की उससे अतिरिक्त
कोई जरूरत
नहीं है। अगर
कोई भद्र हो
गया तो उसे
विजय की कोई
जरूरत नहीं है;
कोई विजय
फिर उसके
मुकाबले
मूल्य नहीं
रखती। सब विजय
फीकी हैं। और
जिस आदमी को
धन छोड़ने का मजा
आ गया, उसको
सारी दुनिया
का धन भी मिल
जाए तो पकड़ने
का अब सवाल
नहीं है।
लेकिन
कई लोग सुन लेते
हैं सूत्र कि
लक्ष्मी को छोड़ो तो
लक्ष्मी फिर
पैर दबाती है।
कई झंझट में
भी पड़ जाते
हैं छोड़ कर।
मैं कई
संन्यासियों
को जानता हूं
जो बेचारे इस
आशा में छोड़
बैठे हैं कि लक्ष्मी
पैर दबाएगी।
वे बड़ी देर से
लेटे हैं
बिलकुल
शेष-शय्या बना
कर;
लक्ष्मी
आती नहीं; कोई
पैर दबाता
नहीं। अब वे
बड़े बेचैन
हैं। अब उनकी
नैया बिलकुल
बीच में अटक
गई है। अब वे न
यहां के रहे, न वहां के
रहे। अब वे
लौट भी नहीं
सकते; अब
वे आगे भी
नहीं जा सकते।
लेकिन
आकांक्षा उन्होंने
जो की थी वह
गलत हो गई।
लक्ष्मी जरूर
पीछे-पीछे आती
है, लेकिन
आप पीछे लौट
कर भर मत
देखना। आपने
पीछे लौट कर
देखा कि आ रही
कि नहीं, तो
बस आप चूक गए।
फिर आप कितनी
ही कोशिश करो,
फिर
लक्ष्मी आने
वाली नहीं।
तो यह
सूत्र खयाल
रखना: लक्ष्मी
चाहिए हो तो पीछे
लौट कर मत
देखना; आप तो
चलते ही चले
जाना। मगर
इसका मतलब यह
भी नहीं कि आप
बिलकुल
सम्हाले रहना
अपने को कि
कहीं पीछे लौट
कर न देख लें; क्योंकि वह
भी पीछे लौट
कर ही देखना
है। गर्दन
बिलकुल फंसा
ली, प्लास्टर
करवा लिया सब
तरफ से; उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ेगा। वह
पीछे मन लौट
कर न देखे, उससे
कोई प्रयोजन
नहीं है, तो
जरूर लक्ष्मी
पीछे आती है।
इन सारे
सूत्रों के
साथ अड़चन है
कि हम इनको
मानने को राजी
हो सकते हैं, लेकिन
जो उनकी शर्त
है वह हमारी
समझ में नहीं आती।
वह शर्त यही
है--अब शर्त
आपको समझा
दूं--शक्ति पर
भद्रता की
विजय होती है;
और भद्रता
का अर्थ है, जिसको विजय
की आकांक्षा
नहीं। तब आपको
साफ हो जाएगी
बात। भद्रता
का अर्थ है, जिसको विजय
की आकांक्षा
नहीं।
निश्चित ही तब
शक्ति पर
भद्रता की
विजय होती है।
"मछली
को गहरे पानी
में ही रहने
देना चाहिए।'
और वह
जो भद्रता है
उसको, लाओत्से
कहता है, जैसे
मछली को गहरे
पानी में रहने
देना चाहिए, उस भद्रता
को भी बाहर उछालते
नहीं फिरना
चाहिए।
क्योंकि वह तब
छिछोरापन है।
अहंकार को लोग
बाहर उछालते
हैं, उसी
तरह भद्रता को
भी उछालते हैं;
यह बड़ा मजा
है। लेकिन
दोनों बड़ी
विपरीत चीजें हैं।
एक
आदमी अकड़ कर
खड़ा होता है, वह
समझ में आता
है। क्योंकि
भीतर तो अकड़
बच नहीं सकती;
बाहर ही हो
सकती है। अकड़
तो दूसरे को
दिखाने के लिए
है। इसलिए
अहंकारी तो
बाहर दिखाता
है, वह समझ
में आता है।
जिसके पास महल
है वह महल दिखाएगा।
जिसके पास
स्वर्ण के
आभूषण हैं वह
स्वर्ण के
आभूषण दिखाएगा।
जिसके पास
हीरे-जवाहरात
हैं वह उनको दिखाएगा।
क्योंकि उनका
मूल्य ही
देखने वाले की
आंख में जो
चमक आती है
उसमें है। वह
जो दूसरे में
दीनता पैदा
होती है, वह
जो दूसरे में
वासना जगती है,
वह जो दूसरे
में तृषा पैदा
हो जाती है कि
मेरे पास भी
होता, और
नहीं है, वह
जो दूसरे में
अभाव हो जाता
है, वह जो
दूसरा भिखारी
की तरह खड़ा हो
जाता है उसमें
उसका रस है।
इसलिए अहंकार
तो दिखावा
होगा ही। उसका
प्रदर्शन
जरूरी है।
उसके बिना वह
बच ही नहीं
सकता। अगर आप
अहंकार का
प्रदर्शन न
करें तो वह मर
जाएगा। उसको
भोजन मिलता है
प्रदर्शन से।
लेकिन
विनम्रता, भद्रता,
अगर आप
प्रदर्शन
करें तो मर
जाएगी; वह
झूठी ही है, मरने का भी
सवाल नहीं।
अहंकार
बाहर-बाहर
होता है, वहीं
उसका जीवन है;
भद्रता
भीतर-भीतर
होती है, वहीं
उसके प्राण
हैं। जितनी
गहरी हो!
इसलिए लाओत्से
उठ कर खड़ा
नहीं हुआ।
लेकिन समझना
बहुत मुश्किल
है। आप भी गए
होते तो आपको
भी लगता कि बेचारा
कनफ्यूशियस
ठीक है, झुक
कर नमस्कार कर
रहा है, और
यह लाओत्से
बिलकुल--बिलकुल
गंवार मालूम
होता है कि
बैठा ही हुआ
है। खड़े होकर
कम से कम, जब
कोई घर में
अतिथि आए...।
लेकिन
लाओत्से कहता
है,
मछली को
गहरे पानी में
रहने देना
चाहिए। लाओत्से
कहता है, विनम्रता
को दिखाना
क्या! है तो
है। वे जड़ें उसकी
गहरी छिपी
रहें। और जो
देख सकता है
वह उसको देख
लेगा। और जो
नहीं देख सकता
उसको दिखाने
से भी कोई
अर्थ नहीं है।
सिर्फ उसके
अहंकार को रस
आएगा, और
कुछ भी न
होगा।
"मछली
को गहरे पानी
में रहने देना
चाहिए।'
इस
सूत्र को और
दृष्टियों से
भी समझ लेना
कीमत का है। जो
भी मूल्यवान
है आपके भीतर, और
जिसको भी आप
चाहते हैं कि
बचाना है, उसे
गहरे में डाल
देना। नष्ट
करना हो तो
बाहर; बचाना
हो तो भीतर।
वृक्ष ऊपर
दिखाई पड़ता है;
जड़ें जमीन
में छिपी रहती
हैं। जड़ें
मूल्यवान हैं।
वृक्ष जड़ों को
दिखाने बाहर
ले आए तो मौत हो
जाएगी। वह जो
भी गहरा और
मूल्यवान है
उसे भीतर!
उसका किसी को
पता ही न चले।
इसका यह अर्थ
नहीं है कि
पता नहीं
चलेगा; जितना
गहरा होगा
उतनी जल्दी
पता चलेगा।
लेकिन आप पता
चलाने की, चलवाने
की कोशिश मत
करना।
क्योंकि आपकी
कोशिश बताती है
कि गहरा नहीं
है।
लाओत्से
से जब उसके
शिष्यों ने
पीछे पूछा कि
आप बैठे रहे!
आपने ऐसा क्यों
किया? तो
लाओत्से ने
कहा, मैं
सोचता था कि कनफ्यूशियस
अगर थोड़ा भी
गहरा होगा तो
समझ जाएगा, देख लेगा।
लेकिन वह इतना
ही देख सका कि
मैं बैठा हुआ
हूं, खड़ा
नहीं हुआ। बस
उसे आकार
दिखाई पड़ा, उसे और कुछ
भी दिखाई नहीं
पड़ा। तो वह
सिर्फ आकार
में जी रहा
है। नियम, व्यवस्था,
शासन, औपचारिकता,
शिष्टाचार,
सभ्यता, संस्कृति,
उसमें ही जी
रहा है। धर्म
का उसे कोई
पता नहीं है।
अगर उसे पता
होता तो उसे
दिखाई पड़ जाता
कि मैं तो
झुका ही हुआ
हूं; बैठूं,
या खड़ा होऊं,
या न होऊं, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। यह झुका
हुआ होना मेरा
स्वभाव है।
एक
पहाड़ तो झुक
भी सकता है, लेकिन
एक गङ्ढा
कैसे झुकेगा?
एक पहाड़ झुक
सकता है, लेकिन
एक गङ्ढा
कैसे झुकेगा?
लाओत्से गङ्ढे की
तरह है, अब
झुकने का भी
क्या उपाय है।
जो अकड़ा है, वह झुक भी
सकता है; लेकिन
जो अकड़ा ही
नहीं है, वह
कैसे झुकेगा?
लेकिन
हम भी नहीं
पहचान पाते।
हमें भी कनफ्यूशियस
पहचान में आ
जाता।
क्योंकि हम भी
कनफ्यूशियस
की ही परंपरा
में खड़े हैं।
दुनिया में सौ
में से
निन्यानबे
आदमी कनफ्यूशियस
के पीछे खड़े
हैं। कभी कोई
एकाध आदमी समझ
पाता है।
अन्यथा हम सब
उपचार समझते हैं, ढंग
समझते हैं, नियम समझते
हैं।
"मछली
को गहरे पानी
में ही रहने
देना चाहिए।'
धर्म
को,
ध्यान को, विनम्रता को,
सादगी को, सरलता को
जितने गहरे
रहने दें उतना
अच्छा। क्योंकि
जितनी होगी
गहरी उतना ही
उसके द्वारा रूपांतरण
आपकी आत्मा का
होगा। आपकी
विनम्रता दूसरे
को दिखाने के
लिए नहीं है; आपकी
विनम्रता
आपको ही बदलने
के लिए है।
आपकी सादगी
कोई बाजार में
प्रदर्शन
नहीं है; आपकी
सादगी आपकी ही
आत्मा का
रूपांतरण है।
वह आपके ही
लिए है।
सूफी
फकीर कहते हैं
कि जब सब सो
जाएं, सारी
दुनिया सो जाए,
तब चुपचाप
अपनी
प्रार्थना कर
लेना। मस्जिद
में जाकर मत
करना; क्योंकि
वहां डर है कि
शायद तुम
प्रार्थना करने
नहीं जा रहे, तुम सिर्फ
दिखाने जा रहे
हो कि तुम भी
प्रार्थना
करते हो। वह
जो भीड़ इकट्ठी
होती है, वे
जो लोग इकट्ठे
होते हैं, उन्हें
तुम भी दिखाना
चाहते हो कि
तुम भी धार्मिक
हो। एक रिस्पेक्टबिलिटी
धर्म से मिलती
है, एक आदर
मिलता है कि
यह आदमी भला
है, आदमी
ईमानदार है, यह आदमी
सादा है, धार्मिक
है, ईश्वर
की प्रार्थना
में लीन रहता
है। ईश्वर की
प्रार्थना, सूफी फकीर
कहते हैं, चुपचाप
अंधेरे में, जब कोई भी न
जाने, तुम
कर लेना। उसे
भीतर गहरे में
डाल देना; वह
कोई बाहर
उछालने की बात
नहीं है। उससे
दूसरे को कोई
लेना-देना
नहीं है; तुम्हारी
अपनी बात है।
लेकिन
हम,
जो व्यर्थ
है उसे भीतर
डालते हैं; कचरे को
भीतर इकट्ठा
करते हैं। जो
सार्थक है, जो भीतर
होता तो शायद
जड़ें पकड़ लेता,
बीज फूटता,
भूमि में
गहरा चला जाता,
गर्भ
निर्मित हो
जाता जिसके
आस-पास, उसे
हम दिखाते
फिरते हैं। यह
मजे की बात है!
अगर आपको
क्रोध आता है
तो आप उसको
भीतर दबाते हैं।
और विनम्रता
ऊपर दिखाते
हैं।
स्वभावतः, जो
आप दबाते हैं,
वही आप हो
जाते हैं।
क्रोध है तो
उसे भीतर दबाते
हैं। अच्छा भी
नहीं मालूम
पड़ता क्रोध को
प्रकट करना; कोई क्या
कहेगा? लोग
क्या कहेंगे
कि आप जैसा
संत पुरुष, और क्रोध कर
रहा है? तो
आप मुस्कुराए
चले जाते हैं;
क्रोध को
भीतर सरकाए
चले जाते हैं।
लाओत्से जो
कहता है कि
मछली को गहरे
पानी में रहने
देना चाहिए; आप भी मछली
को गहरे पानी
में रखते हैं,
लेकिन
सिर्फ सड़ी
हुई मछलियों
को, मरी
मछलियों को, मुर्दा
मछलियों को, जिनको आप
बाहर ही फेंक
देते तो बेहतर
था।
और जब
आप किसी पर
क्रोध रोकते
हैं तो इसलिए
नहीं कि क्रोध
बुरा है, बल्कि
क्रोध से
प्रतिष्ठा
जाती है।
इसलिए जहां
आपके क्रोध से
प्रतिष्ठा
नहीं जाती
वहां आप बराबर
प्रकट करते
हैं। अगर आपका
मालिक, दफ्तर
में आपका बॉस
क्रोध करता है
तो वहां आप मुस्कुराते
रहते हैं खड़े
होकर। आपके
पास पूंछ होती
तो आप हिलाते।
बिलकुल
मुस्कुराते
हैं। लेकिन घर
जाकर आप अपनी
पत्नी पर टूट
सकते हैं; वहां
कोई डर नहीं
है प्रतिष्ठा
का। और पत्नी
की आंख में
किसकी
प्रतिष्ठा
होती है? भय
का कारण भी
क्या है? कोई
प्रतिष्ठा
वहां है ही
नहीं पहले से।
कुछ गंवाने का
सवाल भी नहीं
है। छोटे, घर
में जाकर, बच्चे
पर टूट पड़ते
हैं। कोई भी
बहाना खोज
लेते हैं।
वह
क्रोध तो
निकलेगा ही; वह
कहीं न कहीं
निकलेगा।
क्योंकि
क्षुद्र को
भीतर रखा नहीं
जा सकता। उसके
लिए कोई जगह
नहीं है वहां।
वहां केवल विराट
को ही रखा जा
सकता है।
क्षुद्र तो
बाहर आएगा।
क्षुद्र बाहर
के लिए है। और
अच्छा ही है
कि आप सफल
नहीं हो पाते
भीतर रखने में,
नहीं तो वह
नासूर बन
जाएगा। और जो
रखने में सफल
हो जाते हैं
उनके भीतर
नासूर हो जाता
है। वे फिर
गहरे रोग से
भीतर घिर जाते
हैं। उनके पास
हृदय नहीं
होता फिर, फफोले
ही होते हैं
भीतर। और वे
उन्हीं के साथ
जीते हैं, उन्हीं
से धड़कते
हैं, उन्हीं
से श्वास लेते
हैं। उनकी
जिंदगी एक महारोग
हो जाती है।
लेकिन श्रेष्ठ
को हम दिखाते
फिरते हैं, निकृष्ट को
दबाते फिरते
हैं।
श्रेष्ठ
को दबाएं!
जितना
श्रेष्ठ
बहुमूल्य हीरा
हो उसको उतने
भीतर रख दें; उसका
पता भी न चले
किसी को। वह
बड़ा होगा वहां,
वहां उसे
गर्भ मिल
जाएगा, वह
फैलेगा और
आपकी पूरी
आत्मा पर
प्रकाश बन जाएगा।
लाओत्से
कहता है, "मछली
को गहरे पानी
में ही रहने
देना चाहिए।
राज्य के तेज
हथियारों को
वहां रखना
चाहिए जहां उन्हें
कोई देख न
पाए।'
लाओत्से
राज्य के पक्ष
में नहीं है।
न सेनाओं के
पक्ष में है, न
हिंसा के पक्ष
में है, न
युद्ध के पक्ष
में है।
लाओत्से
मानता है कि सब
युद्ध, सब
सेनाएं, सब
राज्य
मनुष्य-जीवन
की विकृतियां
हैं। तो लाओत्से
कहता है कि
राज्य को, समाज
को, वह जो
भी खतरनाक
है--शस्त्र
हैं, अस्त्र
हैं--उन्हें
ऐसी जगह हटा
देना चाहिए जहां
उन्हें कोई पा
भी न सके। यह
थोड़ा समझने
जैसी बात है
कि आदमी की
विकृति उतनी
नहीं हुई है
जितना आदमी के
पास विकृति को
उपयोग में
लाने के साधन
बढ़ गए हैं।
अगर हम आदमी
की तरफ देखें
तो आज से दस
हजार साल पहले
भी आदमी ठीक
ऐसा था जैसे
आप हैं। आप
में और दस
हजार साल
पुराने आदमी में
कोई फर्क नहीं
है। फर्क
सिर्फ एक है
कि अगर उस
झगड़े में आ
जाता वह आदमी
और क्रोध में
आ जाता तो
शायद नाखून से
आपके शरीर को नोंच लेता,
और आपके पास
एटम बम है।
अगर आप क्रोध
में आ जाएं तो
नाखून से नहीं
नोचेंगे;
आप शायद
सारी पृथ्वी
को नष्ट कर
देने के लिए तैयार
हो जाएंगे।
और एक
मजा है।
आमने-सामने
लड़ने में एक
रस था; एटम बम
फेंकने में कोई
रस नहीं है, सिर्फ मूढ़ता
है। दो आदमी
जब सामने लड़
लेते हैं तो
यह बात नैसर्गिक
है, इसमें
कुछ बहुत
अस्वाभाविक
नहीं है। यह न
होती तो बहुत
अच्छा, लेकिन
हो तो कुछ
बहुत बुरा
नहीं हुआ जा
रहा है। लेकिन
एक आदमी
हिरोशिमा पर
जाकर बम पटक
देता है। वह
किन पर बम पटक
रहा है, कोई
दिखाई नहीं
पड़ता। मित्र
पर, शत्रु
पर, बच्चों
पर, स्त्रियों
पर--किस पर!
बूढ़ों पर, अंधों
पर, किस पर
बम गिर रहा है,
कोई मतलब
नहीं है उसे।
उसे मतलब ही
नहीं है कि यह
बम क्या करेगा;
उसके अंतिम
परिणाम का भी
उसे कोई बोध
नहीं है। वह
एक बटन दबाता
है और हवाई जहाज
से बम गिर
जाता है।
जिस
आदमी ने
नागासाकी-हिरोशिमा
पर बम गिराया और
एक रात में
तीन,
साढ़े तीन लाख
लोगों की
हत्या का कारण
बना--दुनिया के
इतिहास में
किसी आदमी ने,
एक आदमी ने,
एक क्षण में
इतनी बड़ी
हत्या नहीं
की--वह रात बड़े
आराम से सोया।
और जब सुबह
उससे अखबार वाले
लोगों ने पूछा
कि तुम्हें
रात नींद आ
सकी? क्योंकि
तीन लाख
आदमियों की
हत्या!
आप एक
तीन आदमियों
की हत्या का
तो विचार करके
सोचिए! और तीन
आदमियों की
हत्या करके आप
रात भर सो
पाएंगे? बहुत
मुश्किल है।
बड़े से बड़ा
हत्यारा भी
नहीं कर सकता
यह काम। वह भी
रात भर बेचैन
रहेगा। लेकिन
यह आदमी तीन, साढ़े तीन लाख
आदमियों की
हत्या करके
बेचैन नहीं हुआ।
क्या यह आदमी
पागल है? यह
पागल नहीं है।
लेकिन संबंध
ही नहीं जुड़ता;
जो मरे हैं
उनसे इसका कोई
संबंध नहीं जुड़ता।
उसने
तो कहा, मैंने
अपनी डयूटी
पूरी की। एक
विशेष जगह पर
हवाई जहाज को
ले जाकर मुझे
बम गिरा देना
था; उससे
ज्यादा मुझे
कोई आज्ञा
नहीं थी। उससे
ज्यादा मेरा
कोई संबंध
नहीं था। काम
पूरा करके, जैसा आदमी
दिन भर का थका
रात सो जाता
है, ऐसा
मैं सो गया।
अपना काम पूरा
हो गया।
तीन
लाख आदमियों
को मारने पर
भी कोई बेचैनी
नहीं
होती--शस्त्र
यह सुविधा
जुटा देते
हैं। जब मैं
आपके निकट से
नाखून से आपको
नोचूं, तो
आप सामने होते
हैं, खून
सामने बहता
है। जिंदगी
सामने बनती और
मिटती है। और
मैं अपनी
जिंदगी भी
दांव पर लगाता
हूं, तभी
आपकी जिंदगी
लेने का विचार
कर सकता हूं।
यह सीधा
आमना-सामना
है। यह बात प्राकृतिक
है। सभी पशु
ऐसा कर रहे
हैं। आदमी भी
पशु है; ऐसा
कर सकता है। न
करे तो देवता
हो जाता है।
लेकिन
अस्त्र-शस्त्र
उसे शैतान बना
देते हैं; वह
पशु भी नहीं
रह जाता।
क्योंकि तब
कोई सवाल ही
नहीं है। आपको
मैं देखता ही
नहीं; आपकी
आंख का मुझे
पता नहीं; आपके
रोने का पता
नहीं; आप जलेंगे, क्या होगा, कुछ पता
नहीं।
लाओत्से
अस्त्र-शस्त्र
के बहुत
विपरीत है। वह
कहता है कि
उन्हें इस जगह
डाल दो जहां
लोग खोजें भी
तो उन्हें न
पा सकें।
प्रयोजन इतना
ही है कि आदमी
जितना
नैसर्गिक हो, जितना
सहज हो, जितना
स्वाभाविक
हो। निश्चित
ही, जीवन
में संघर्ष भी
हो सकता है।
लेकिन वह भी स्वाभाविक
होना चाहिए।
और दो आदमी
आमने-सामने लड़ते
हैं, उसमें
एक गरिमा भी
है, एक
गौरव भी है।
जब तक लोग
आमने-सामने
लड़ते थे तब तक
लोगों में एक
गरिमा थी, एक
शान थी।
अब
लड़ाई तो चलती
है,
लेकिन
आमने-सामने
कोई भी नहीं
है। इधर भी
यंत्र है, उधर
भी यंत्र है, और पूरी
मनुष्यता बीच
में है। और
किसी को किसी
से कोई
प्रयोजन नहीं
है। कौन किसको
मार रहा है, इससे कोई
संबंध नहीं
है। अपनों को
मार रहा है तो
भी पता नहीं
है। अभी
वियतनाम के
युद्ध में बहुत
से अमरीकी
अमरीकियों के
द्वारा ही
मारे गए।
क्योंकि नीचे
भूल से, उनका
ही अड्डा है, और वे बम
फेंक आए। अपने
ही आदमी मरे, यह भी सुबह
जाकर पता चला।
अंधेरे में
सारी बात हो
गई है।
लाओत्से
कहता है, आदमी-आदमी
के बीच सीधा
संपर्क होना
चाहिए; बीच
में कुछ भी न
हो। बीच में
कोई एजेंसी
अस्त्र की, शस्त्र की, राज्य की, कुछ भी न हो; आदमी
आमने-सामने
सीधा-सीधा हो।
तो आदमी ज्यादा
प्राकृतिक
होगा। और जो
देखेगा उस पर
सोचेगा भी; और जो करेगा
उससे विचार भी
पैदा होगा; और उसके
कृत्य उसके
लिए सूचक हो
जाएंगे कि वह अपने
को बदले, न
बदले।
"शक्ति
पर भद्रता की
विजय होती है।'
इसलिए
भी,
लाओत्से
कहता है, अस्त्र-शस्त्रों
को हटा दो; क्योंकि
उनसे तुम जीतोगे
नहीं, हारोगे
ही।
लाओत्से
की बात शायद
दुनिया अब
सुनने को राजी
हो जाए।
क्योंकि जब
उसने यह कहा
था,
आज से कोई
तीन हजार, ढाई
हजार साल पहले,
तब तो
अस्त्र-शस्त्र
भी कुछ बड़े
नहीं थे। अब तो
अस्त्र-शस्त्र
इतने बड़े हैं
कि लाओत्से की
बात समझ में आ
सकती है। पूरी
मनुष्यता
उनके कारण आत्महत्या
कर सकती है; अस्त्र-शस्त्र
इतने बड़े हैं।
लाओत्से की
बात समझ में आ
सकती है कि
उन्हें हटा
दो। आदमी-आदमी
के बीच से जो
भी, जितने
उपकरण हट सकें,
वे हट जाएं;
आमने-सामने
आदमी हो जाए।
तो जीवन
ज्यादा
निसर्ग के अनुकूल
होगा। और
निसर्ग के
अनुकूल आत्मा
के जन्म की
संभावना है।
फिर
शक्ति से कोई
विजय उपलब्ध
नहीं होती; और
शस्त्र शक्ति
दे सकते हैं, भद्रता
नहीं।
पांच
मिनट कीर्तन
करें और फिर
जाएं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें