दिनांक
29 जनवरी, 1977;
श्री
ओशो आश्रम,
कोरेगांव
पार्क पूना।
अष्टावक्र
उवाच।
निरोधादीनि
कर्माणि जहांति
जडधीर्यदि।
मनोरथान्
प्रलापांश्न
कर्पुमाम्मोत्यतत्सणात्।।
251।।
मंद:
श्रुत्वापि
तद्वस्तु न जहांति
विमूढताम्।
निर्विकल्पो
बहिर्यत्नादन्तर्विषयलालस।।
252।।
ज्ञानादगलितकर्मा
यो
लोकद्वष्टआपि
कर्मकृत्।
नामोत्यवसरं
कर्तुं
वक्तुमेव न
किंचन।। 253।।
क्य तम:
क्य प्रकाशो
वा हान क्य न न
किचन।
निर्विकारस्थ
धीरस्थ
निरातंकस्थ
सर्वदा।। 254।।
क्य
धैर्य क्य
विवेकित्व
क्य
निरातंकतायि
वा।
अनिर्वाव्यस्वभावस्थ
निःस्वभावस्थ
योगिनः।। 255।।
न
स्वगों नैव
नरको
जीवन्युक्तिर्न
चैव हि!
बहुनात्र
किमुक्तेन
योगद्वष्टधा
न किंचन।। 256।।
नैव
प्रार्थयते
लाभ
नालाभेनानशोचति!
गौतम बुद्ध ने
साम्राज्य
छोड़ा, धन—
वैभव छोड़ा। एक
अति से दूसरी
अति पर चले
गये। सब
त्यागा।
शरीर को
जितने कष्ट
दिये जा सकते
थे, दिये।
शरीर सूखकर
काटे जैसा हो
गया। इतने
दुर्बल हो गये
कि उठना—बैठना
मुश्किल हो
गया। निरंजना
नदी को पार कर
रहे थे कि पार
न कर सके।
धारा प्रबल थी
और शक्ति नहीं
थी पार करने
की। एक वृक्ष
की जड़ों को
पकड़कर लटक रहे।
खयाल
आया मन में, सब मेरे
पास था तब
मुझे कुछ न
मिला। सब
मैंने गंवा
दिया तो भी
मुझे कुछ न
मिला। कहीं
कुछ चूक हो
रही है। कहीं
कुछ निश्चित
भूल हो रही है।
भोग से त्याग
की तरफ चला
गया, न भोग
से मिला न
त्याग से मिला।
कहीं और भी
कुछ मौलिक बात
है जो मेरी
दृष्टि में
नहीं पड़ रही
है।
ऐसे
जड़ों को पकड़कर
लटके थे कि
पास से कुछ
ग्रामीण
स्त्रियां
गांव का गीत
गुनगुनाती
निकलती थीं।
उनके गीत के
स्वर थे
सितार
के तारों को
ढीला मत छोड़
दो
स्वर
ठीक नहीं
निकलता
पर
उन्हें इतना
कसो भी मत कि
टूट जायें
जो
सदगुरुओं के
पास नहीं हो
सका था वह उन
गंवार
स्त्रियों के
गीत को सुनकर
हो गया। एक
किरण फूटी। जड़
से लटके —लटके
निरंजना में
बुद्ध को बोध
हुआ कि मैं
अतियों के बीच
तो चला गया, मध्य में
नहीं रुका।
शायद मार्ग
मध्य है। उसी
रात, जैसे
एक दिन राज्य
छोड़ दिया था, उन्होंने
त्याग भी छोड़
दिया। जैसे एक
दिन धन छोड़
दिया था वैसे
ही उन्होंने ध्यान
भी छोड़ दिया।
जैसे एक दिन
संसार छोड़
दिया था वैसे
ही निर्वाण की
कामना भी छोड़
दी। और उसी
रात घटना घटी।
सुबह गौतम
बुद्ध हो गये।
मन प्रबुद्ध
हुआ, गौतम
बुद्ध हुआ।
एक
जागरण! जागरण
घटा मध्य में।
जिन्होंने
भी सत्य को
जाना है उन
सभी ने अति को
वर्जित किया
है। अति
सर्वत्र
वर्जयेत। और
मन अति के
प्रति बड़ा
आतुर है। एक
अति से दूसरी
अति पर जाना
मन के लिए बड़ा
सुगम है। इससे
ज्यादा और कोई
सुगम बात नहीं।
घड़ी के
पेंडुलम की
तरह है—बायें
से दायें, दायें से
बायें डोलता
रहता। लेकिन
जब मध्य में
रुक जाता तो
घड़ी रुक जाती।
घड़ी रुक गई, समय रुक गया।
कालातीत हुए।
वहीं है समाधि।
वहीं है
समाधान।
इन
सूत्रों को
समझें। पहला
सूत्र है:
निरोधादीनि
कर्माणि जहांति
जडधीर्यदि।
मनोरथान्
प्रलापांश्यच
कर्तुमाम्नोत्यतत्कणात्।।
'यदि
अज्ञानी
चित्तनिरोधादि
कर्मों को
छोड़ता भी है
तो वह तत्क्षण
मनोरथों और
प्रलापों को
पूरा करने में
प्रवृत्त हो
जाता है।’
ऐसा
हमारा मन है।
किसी तरह अगर
भोग छोड़ते हैं
तो योग में
प्रवृत्त हो
जाते हैं। फिर
अगर कोई
ज्ञानी मिल
जाये, सत्युरुष
मिल जाये और
कहे कि क्या
पागलपन में पड़े
हो? त्याग
से कहीं होगा?
तो हम तत्क्षण
त्याग भी छोड़
देते हैं। फिर
हम भोग में
लौट जाते हैं।
अष्टावक्र
तुम्हें
सावधान कर रहे
हैं इस सूत्र
से कि मेरी
बातों को
सुनकर तुम यह
मत समझ लेना
कि मैं
तुम्हारे भोग
का समर्थन कर
रहा हूं; मैं तो
तुम्हारे
त्याग का भी
समर्थन नहीं
कर रहा हूं
तुम्हारे भोग
के समर्थन की
तो बात ही
नहीं है।
अष्टावक्र
तुम्हारा
समर्थन कर ही
नहीं सकते।
और यही
अज्ञानी की
जड़ता है। वह
हर चीज को
अपने समर्थन
में लेता है।
वह सोचता है
कि चलो, धन से नहीं
मिला तो ध्यान
से, धर्म
से, दान से।
पद से नहीं
मिला तो त्याग
से। सुख—सुविधा
से नहीं मिला,
कांटो की
शथ्या पर
लेटकर
पायेंगे, लेकिन
पाकर रहेंगे।
लेकिन मैं
पाकर रहूंगा।
सब छोड़ता—पकड़ता
है, एक मैं
को नहीं छोड़ता।
बड़ा
प्रसिद्ध वचन
है राबिया— अल—
अदाबिया का।
एक गुमराह
आदमी ने
राबिया से कहा
कि यदि मैं धर्म
के मार्ग पर
लग जाऊं तो
क्या ईश्वर
मेरी तरफ
झुकेगा, उगख होगा? 'व्हेदर गाड
वुड इनक्लाइन
टुवर्ड्स मी
इफ आय गेट
कनवटेंड?' राबिया
ने कहा, नहीं
कभी नहीं।’नो,
इट इज जस्ट
द अपोजिट। इफ
ही स्थ
इनक्लाइन
टुवर्ड्स यू
देन यू कैन बी
कनवटेंड।’ इससे
ठीक उलटी बात
है। प्रभु
तुम्हारी तरफ
झुके तो तुम
धर्ममार्ग में
संलग्न होओगे।
तुम्हारे
झुकने से नहीं, तुम्हारे
धर्ममार्ग
में प्रवृत्त
होने से नहीं;
तुम्हारे
किये तो कुछ
भी न होगा।
तुम ही तो
तुम्हारा सब
अनकिया हो।
तुम्हारा यह
अहंकार ही तो
तुम्हारे
जीवन का कारागृह
है।
तो
पहले तुम धन
इकट्ठा करते
हो, फिर
त्याग इकट्ठा
करने लगते।
संसार जोड़ते
हो, फिर
मोक्ष जोड्ने
लगते, मगर
तुम बने रहते।
तुम बने ही
रहते। यह जो
तुम्हारा
अहंकार है यह
केवल मध्य में
जाता है; जब
न इस तरफ, न
उस तरफ। उन
सबको सावधान
करने के लिए।
ये तो
अब अंतिम
सूत्र आ रहे
हैं
अष्टावक्र के।
तो उन्हें जो
कहना था, धीरे— धीरे
सब कह चुके
हैं। अब आखिरी
चेतावनियां
हैं। पहली
चेतावनी—
'यदि
अज्ञानी
चित्तनिरोधादि
कर्मों को
छोड़ता भी है...।’
पहले
तो अज्ञानी
भोग ही नहीं
छोड़ता। किसी
तरह भोग छोड़
दे तो जिस
पागलपन से भोग
में लगा था
उसी पागलपन से
योग में लग
जाता है। वही
धुन! विषय तो
बदल जाता है, वृत्ति
नहीं बदलती।
सिक्के
इकट्ठे करता
था तो अब
पुण्य इकट्ठा
करता है, मगर
इकट्ठा करता
है। इस जगत
में सुख चाहता
था, अब
परलोक में सुख
चाहता है, मगर
सुख चाहता है।
इस जगत में
भयभीत होता था
कि कोई मेरा
सुख न छीन ले, अब परलोक
में भयभीत
होता है, कोई
मेरा सुख न
छीन ले।
भय
कायम है। लोभ
कायम है। पहले
प्रार्थनायें
करता था, प्रभु और दे—बडा
साम्राज्य, और धन, और
पद, और
प्रतिष्ठा।
अब कहता है, प्रभु, यह
सब कुछ नहीं
चाहिए। अब तो
स्वर्ग में
बुला ले। अब
तो स्वर्ग का
ही सुख चाहिए;
मगर चाहिए
अभी भी। पहले
भी प्रभु का
उपयोग करना
चाहता था, अब
भी करना चाहता
है। नहीं, राबिया
ठीक कहती है।
अगर प्रभु
तुम्हारी तरफ
झुके तो तुम
धार्मिक हो
सकोगे।
तुम्हारे
धार्मिक होने
से प्रभु
तुम्हारी तरफ
नहीं झुकेगा।
पुराना
वचन है इजिप्त
के फकीरों का
कि जब तुम गुरु
को चुनते हो
तो भूलकर ऐसा
मत कहना कि
मैंने तुझे
चुना; क्योंकि
वहीं भूल हो
गई। जब तुम
गुरु को चुनते
हो तो यही
कहना कि धन्यवाद,
कि आपने
मुझे चुना।
इजिप्त
के पुराने
सूत्रों में
एक और सूत्र
है कि जब भी
कोई शिष्य
गुरु को चुनता
है तो उसके पहले
ही गुरु ने
उसे चुन लिया
है, अन्यथा
वह गुरु की
तरफ आ ही न
सकता था।
मौलिक
आधारभूत बात
यह है कि किसी
तरह से तुम्हारा
अहंकार
निर्मित न हो।
अल—हिल्लाज
मंसूर को सूली
पर लटका दिया।
उसके हाथ—पैर
काट डाले, उसे मार
डाला।
क्योंकि उसने
एक ऐसी
उदघोषणा की
अनलहक की—कि
मैं ईश्वर हूं;
कि मुसलमान
बरदाश्त न कर
सके।
एक
मुसलमान फकीर
अस सिमनानी ने
एक गीत लिखा
है। उस गीत
में उसने लिखा
है कि जिस दिन
अल—हिल्लाज
मंसूर को सूली
लगी, उस
रात उस गाव के
एक साधु आदमी
ने स्वप्न
देखा। स्वप्न
में उसने देखा
कि अल—हिल्लाज
स्वर्ग ले
जाया जा रहा
है। यह उसे
भरोसा न आया।
यह भी उस भीड़
में मौजूद था,
जिसने
पत्थर फेंके
थे, जिसने
अल—हिल्लाज को
सूली देने के
लिए नारे
लगाये थे। इसे
तो भरोसा न
आया, अल—हिल्लाज
और स्वर्ग ले
जाया जा रहा
है! तो उसने परमात्मा
से पूछा—सिमनानी
की कविता ऐसी
है—उसने
परमात्मा से
कहा:
OGood! Why was a pharoh condiment to the
flimes
For crying out: “I am god!”
And Hallaj is wrept away to heaven
For crying out the same words:
“I am God!”
The he heard a voice speaking:
When pharoh spoke those words
He thought only of himself
he had forgotten me.
When Hallaj uttered those words_the same
words
He had forgotten himself
He thought only for me.
Therefore the ‘I am in pharoh’s mouth’
Was a curse to him
And in Hallaj’s the “I am”
Is the effect of my grace.
एक
आदमी ने
स्वप्न देखा, जिस रात मंसूर
को सूली लगी, कि मंसूर
स्वर्ग ले
जाया जा रहा
है। वह बेचैन
हुआ। उसने
चिल्लाकर
परमात्मा से
पूछा, कि
फेरोह ने भी
कहा था—फेरोह,
इजिप्त के
सम्राट—उन्होंने
भी दावा किया
था कि हम
ईश्वर हैं।
फेरोह ने भी
कहा था, मैं
ईश्वर हूं।
लेकिन हमने तो
सुना है कि
फेरोह को नर्क
की अग्नि में डाला
गया। और फेरोह
को बड़ा दंड
दिया गया और
बड़ा कष्ट दिया
गया। और तू
बड़ा नाराज हुआ
था। और फेरोह
निंदित हुआ।
और हिल्लाज ने
भी वही शब्द
कहे हैं कि
मैं ईश्वर हूं।
फिर इस
हिल्लाज को
क्यों स्वर्ग
की तरफ ले जाया
जा रहा है?
तो
ईश्वर ने कहा: 'जब फेरोह
ने कहा था, मैं
ईश्वर हूं तो
मुझे बिलकुल
भूल गया था।
मैं
अनुपस्थित था
उसकी आवाज में,
वही मौजूद
था। वह अहंकार
की घोषणा थी।
और जब हिल्लाज
ने कहा तो बात
बिलकुल उल्टी
थी। शब्द वही
थे, बात
बिलकुल उल्टी
थी। मैं मौजूद
था, हिल्लाज
बिलकुल मिट
गया था। शब्द
वही थे। फेरोह
के शब्दों में
फेरोह था, मैं
नहीं था।
हिल्लाज के
शब्दों में
मैं था, हिल्लाज
नहीं था। मेरी
गैर—मौजूदगी
फेरोह के लिए
अभिशाप बन गई
और मेरी मौजूदगी
मंसूर के लिए
आशीष बन गई।’
सब
निर्भर करता
है एक छोटी—सी
बात पर। एक
छोटी—सी बात
पर सब
दारोमदार है :
तुम जो करते
हो उससे मैं न
भरे। तो बिना
किये भी आदमी
परमात्मा तक
पहुंच जाता है।
और तुम करते
हो लाख करो जप—तप, यज्ञ—याग,
कुछ भी न
होगा। अगर तुम
करनेवाले
मौजूद हो, तो
तुम अकड़ते
जाओगे। तुम
जितने वजनी
होते हो, परमात्मा
उतना दूर हो
जाता है। तुम
जितने मौजूद
होते हो उतना
परमात्मा गैर—मौजूद
हो जाता है।
जब
मेरे पास कोई
आकर कहता है
कि ईश्वर कहां
है, हम
देखना चाहते
हैं! तो बड़ी
कठिनाई होती
है उन्हें यह
बात समझाने
में कि ईश्वर
को तुम तब तक न
देख सकोगे, जब तक तुम हो।
तुम्हारी
मौजूदगी परदा
है। ईश्वर पर
कोई परदा नहीं
है, ईश्वर
उघड़ा खड़ा है, नग्न खड़ा है।
परदा
तुम्हारी आंख
पर है और परदा
तुम्हारा है।
अष्टावक्र
कहते हैं, खयाल
रखना :
निरोधादीनि
कर्माणि जहांति
जडधीर्यदि।
लोग
ऐसे जड़बुद्धि
हैं कि एक तो
बहुत मुश्किल
है कि वे भोग
से बाहर
निकलें। फिर
कभी निकल आयें
किसी सौभाग्य
के क्षण में तो
उसी अंधेपन से
योग में पड़
जाते है।
चित्त के
निरोध में लग
जाते हैं।
पहले चित्त का
भोग, फिर
चित्त का
निरोध। पहले
चित्त के
गुलाम बनकर
चलते, अब
चित्त की छाती
पर चढ़कर
जबरदस्ती
चित्त को शांत
करना चाहते
हैं।
और अगर
ये मूढूधी, ये
जड़बुद्धि लोग
राजी भी हो
जायें, समझ
में इनके आ
जाये तो भी ये
गलत समझ लेते
हैं। कहा कुछ,
सुन कुछ
लेते हैं।
अष्टावक्र
के सूत्रों को
पढ़कर बहुत बार
तुम्हारे मन
में भी उठा
होगा, अरे!
तो फिर ध्यान
इत्यादि की
कोई जरूरत
नहीं है? तो
फिर मजा करें।
तो फिर जैसे
हैं वैसे
बिलकुल ठीक
हैं।
अष्टावक्र
यही नहीं कह
रहे हैं।
अष्टावक्र
ध्यान से नीचे
गिरने को नहीं
कह रहे हैं, ध्यान से
ऊपर जाने को
कह रहे हैं।
दोनों हालत
में ध्यान छूट
जाता है, लेकिन
नीचे गिरकर मत
छोड़ देना, ऊपर
उठकर छोड़ना।
अल—हिल्लाज
और फेरोह के शब्द
एक जैसे हैं।
फेरोह नीचे
गिरकर बोला, हिल्लाज
अपने से ऊपर
उठकर बोला।
ध्यान के पार
भी लोग गये
हैं। जो गये
हैं वही
पहुंचे हैं।
लेकिन ध्यान
से नीचे गिरकर
तो तुम भोग
में गिर जाओगे।
'यदि
अज्ञानी
चित्त—निरोधादि
कर्मों को
छोड़ता भी है
तो वह तत्थण मनोरथों
और प्रलापों
को पूरा करने
में प्रवृत्त
हो जाता है।’
वह फिर
वापिस लौट गया।
वही पुराने
मनोरथ, वही दबी—बुझी
कामनायें।
वही पीछे राख
में जो छिप
गये थे अंगारे,
फिर प्रगट
हो जाते हैं; फिर आग धू—धूकर
जलने लगती है।
फिर पुराना
धुआ उठता है।
फिर पुराना
प्रलाप, वह
पुराना पागलपन
फिर वापिस आ
गया। वह कहीं
गया तो नहीं
था। निरोध से
कभी जाता भी
नहीं है।
जबरदस्ती
किसी तरह
रोककर बैठे थे।
किसी भांति
बांध—बूंधकर
अपने को तैयार
कर लिया था।
यह कोई संतत्व
नहीं है, सैनिक
हो गये थे।
कवायद सीख ली
थी। अभ्यास कर
लिया था।
सैनिक भी कैसे
शांत मूर्तिवत
खड़े हुए मालूम
पड़ते हैं
वर्षों के अभ्यास
से। लेकिन तुम
उनको बुद्ध मत
समझ लेना। वे
कोई संत नहीं
हैं। भीतर आग
जल रही है।
खड़े हैं, भीतर
ज्वालामुखी
सुलग रहा है।
तुम्हारे
तथाकथित साधु—मुनि, तुम्हारे
महात्मा, सैनिक
हैं, संत
नहीं। अपने से
लड़—लड़कर, किसी
तरह उन्होंने
सुखा—सुखाकर,
अपने भीतर
की वासनाओं को
दबा—दबाकर एक
आयोजन कर लिया
है, एक
अनुशासन बिठा
लिया है। बुरे
नहीं हैं, यह
बात सच है।
अपराधी नहीं
हैं, यह
बात सच है।
अगर उन्होंने
कोई अपराध भी
किया होगा तो
अपने खिलाफ
किया है, किसी
और के खिलाफ
नहीं किया है।
लेकिन मुक्त
भी नहीं हैं।
संत नहीं हैं,
ज्यादा से
ज्यादा सज्जन
हैं। दुर्जन
नहीं हैं यह
बात सच है।
किसी के घर
चोरी करने
नहीं गये और
किसी की हत्या
नहीं की, लेकिन
हत्यारा भीतर
छिपा बैठा है।
और चोर भी
मौजूद है। और
किसी भी दिन
ठीक अवसर पर
वर्षा हो जाये
तो प्रगट हो
सकता है।
तुमने
यह खयाल किया? राह से
तुम जा रहे हो,
एक रुपया
किनारे पर पड़ा
है; तुम
नहीं उठाते।
तुम कहते, मैं
कोई चोर थोड़े
ही! फिर सोचो
कि एक हजार
रुपये पड़े हैं
तो थोड़ा—सा
ललचाते हो। पर
फिर भी हिम्मत
बांध लेते हो
कि मैं कोई
चोर थोड़े ही!
लेकिन एक—दो
दफे लौटकर
देखते। फिर दस
हजार पड़े हैं,
तब हाथ में
उठा लेते हो।
उठाते हो, रखते
हो। कि यह मैं
क्या कर रहा
हूं? मैं
कोई चोर थोडे
ही हूं! जाने
की हिम्मत
नहीं होती। अब
छोड्कर जाने
की हिम्मत
नहीं होती।
आसपास देखते
हो, कोई
देख भी तो
नहीं रहा, उठा
क्यों न लूं? लेकिन अगर
दस लाख पड़े
हैं तो फिर
झिझक भी नहीं
होती।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन एक
स्त्री से
बोला—दोनों चढ़
रहे थे लिफ्ट
में किसी मकान
की—एकांत पाकर
उसने कहा कि
क्या विचार है?
अगर एक रात
मेरे साथ रुक
जाये तो हजार
रुपये दूंगा।
उस स्त्री ने
कहा, तुमने
मुझे समझा क्या
है? तो
उसने कहा, अच्छा
दो हजार ले
लेना। स्त्री
थोड़ी नरम पड़ी
पर फिर भी
नाराज थी।
मुल्ला ने कहा,
अच्छा तो
पांच हजार ले
लेना। तब
बिलकुल नरम हो
गई। मुल्ला ने
कहा, पाच
रुपये के
संबंध में
क्या खयाल है?
वह स्त्री
तो भनभना गई।
उसने कहा, तुमने
मुझे समझा
क्या है? मुल्ला
ने कहा, वह
तो हम समझ गये
कि तू कौन है।
तेरी कीमत तो
तूने बता दी।
तू कौन है यह
तो पता चल गया,
अब तो मोल—
भाव करना है।
पांच हजार में
तो तू राजी थी
तो तू कौन है
यह तो पता चल
गया, अब
मोल— भाव..! अब
पांच से शुरू
करते हैं।
तुम्हारी
जीवन की जो
सज्जनता है
उसकी सीमायें
हैं। संत की
सज्जनता की
कोई सीमा नहीं
है। तुम्हारी
सज्जनता
सशर्त है। कुछ
शर्तें बदल
जायें, तुम्हारी
सज्जनता बदल
जाती है। संत
की सज्जनता
बेशर्त है।
तुम्हारे बीज
हैं, ठीक भूमि
मिल जाये और
वर्षा हो तो
तुम अंकुरित
हो जाओगे।
इसलिए
पतंजलि ने संत
को कहा है :
दग्धबीज।
उसका बीज जल
गया है। अब
चाहे वर्षा हो, चाहे ठीक भूमि
मिले, चाहे
न मिले। चाहे
माली मिले
कुशल से कुशल
और लाख उपाय
करे तो भी
दग्धबीज से अब
अंकुर पैदा
होने को नहीं है।
तो
अष्टावक्र की
बातों को
सुनकर
तुम्हारे भीतर
वे जो छुपे
हुए प्रलाप
हैं वे कहेंगे, अरे, हम
भी कहा परेशान
हो रहे थे! कहा
पतजलियों के चक्कर
में पड़ गये थे!
छोड़ो भी!
अष्टावक्र ने
ठीक कहा। तो
अपना लौट चलें।
वही पागलपन, वही पुराना
जीवन, वही
ठीक है।
अष्टावक्र
यह नहीं कह
रहे हैं। ऐसी
भूल में मत पड़
जाना।
अष्टावक्र
भोग के पक्ष
में नहीं हैं।
अष्टावक्र तो
योग तक के
पक्ष में नहीं
हैं। क्योंकि
अष्टावक्र
कहते हैं, भोग से भी
अहंकार ही
भरता। भोग में
भी कर्ता—
भोक्ता, और
योग में भी
कर्ता—योगी।
दोनों से
अहंकार भरता।
और उसी
घड़ी परमात्मा
उतरता, जहां अहंकार
नहीं है।
'मंदमति
उस तत्व को
सुनकर भी
मूढ़ता को नहीं
छोड़ता है। वह
बाह्य
व्यापार में
संकल्परहित
हुआ विषय की
लालसावाला
होता है।’
मंद:
हत्वापि
तद्वस्तु न जहांति
विमूढताम्।
निर्विकल्पो
बहिर्यत्नात्
अंतर्विषयलालस।।
मंदमति
का अर्थ
मंदमति का
अर्थ मूढ़ नहीं
होता, जैसा
हम मूढ़ का
उपयोग करते
हैं। मूढ़ का
तो अर्थ होता
है, मूर्ख;
जो सुनकर
समझ ही न पाये।
जो यह भी न समझ
पाये कि क्या
कहा गया।
मंदमति का
अर्थ होता है,
जो समझता तो
है लेकिन समय
निकल जाने पर
समझता है; जरा
देर से समझता
है। सुस्तमति।
जब समझना
चाहिए तब नहीं
समझता। जब समय
निकल जाता है
तब समझता है।
जैसे, वासना व्यर्थ
है यह अगर
बुढ़ापे में
समझा तो
मंदमति; जवानी
में समझा तो
तेजस्वी।
बुढ़ापे में तो
समय निकल गया।
अब पछताये होत
का, चिड़िया
चुग गई खेत!
बुढ़ापे में तो
सभी समझदार हो
जाते हैं, क्योंकि
नासमझ होने का
उपाय ही नहीं
रह जाता। के
होते —होते तो
वासनायें
स्वयं ही क्षीण
हो जाती हैं
तो फिर
वासनामुक्त
होने का मजा
अहंकार लेने
लगता है। के
जवानों पर
हंसते हैं और
समझते हैं, मूढ़ हैं। और
ठीक यही
मूढ़तायें
उन्होंने
अपनी जवानी में
की हैं और
उनके के उन पर
हंस रहे थे।
और उन को के
साथ भी पहले
यही हो चुका
है।
जो के
होने की वजह
से बुद्धिमान
हो गये हैं
उनकी
बुद्धिमानी
दो कौड़ी की है।
क्योंकि
बुढ़ापे से
बुद्धिमानी
के पैदा होने
का कोई भी
संबंध नहीं है।
बुढ़ापे से तो
एक ही बात
होती है कि अब
तुम कुछ बातें
करने में विवश
हो गये, अब नहीं कर
सकते। अवश हो
गये हो। अब इस
अवशता को तुम
सुंदर शब्दों
में ढांककर
त्याग—तपश्चर्या
बनाते हो।
काफ्का
की एक बड़ी
प्रसिद्ध
कहानी है कि
एक सर्कस में एक
आदमी था जो
उपवास करने
में बड़ा कुशल
था। लेकिन
सर्कस बहुत
बडा था और एक
राजधानी में बहुत
महीनों तक
रुका। और
उपवास करने की
वजह से उसकी
तरफ कोई
ज्यादा ध्यान
भी नहीं देता
था। उसको न
१ााएजन की
जरूरत थी, न कोई
चिंता थी। वह
तो अपने घास
का एक बिस्तर
बना लिया था, उसमें पडा
रहता था।
कुछ
ऐसा हुआ कि
सर्कस के
शोरगुल में
लोग भूल ही
गये। मैनेजर
उसका खयाल ही
भूल गया। बड़ा
उपद्रव था, भारी
राजधानी थी, बड़ी भीड़— भाड़
थी। कोई दस—पंद्रह
दिन बीत गये
तब एक दिन
मैनेजर को
खयाल आया कि
उस उपवास करनेवाले
का क्या हुआ? और उसका था
भी तंबू आखिर
में। तो वह
भागा हुआ गया।
वह आखिरी
सांसें गिन
रहा था उपवास
करनेवाला।
पंद्रह दिन न
तो कोई देखने
आया, न
किसी ने फिक्र
ली।
मैनेजर
तो हैरान हुआ, उसने कहा,
पागल! तूने
भोजन क्यों
नहीं कर लिया?
न कोई देखने
आया, न
तेरी कोई
फिक्र की। तू
जाकर भोजन कर
लेता।
तो
उसने कहा, आज एक राज
की बात तुमसे
कहें। उसकी
आवाज बहुत
धीमी हो गई थी,
वह
मरणासन्न था।
मैनेजर को पास
बुलाकर उसने
कान में कहा
कि असल बात यह
है कि भोजन
करने में मुझे
रस ही नहीं है।
कोई उपवास
थोड़े ही कर
रहा हूं! मैं
किसी एक महाबीमारी
से ग्रसित हूं
कि मेरा स्वाद
मर गया है।
भोजन मैं कर
ही नहीं सकता।
यह उपवास तो
अब इस मजबूरी
को भी जीवन को
चलाने का
आयोजन बनाने
में काम ला
रहा हूं। यह
उपवास तो
सिर्फ बहाना
है। लोग आते
थे, देखते
थे, तो मैं
प्रसन्न रहता
था। इन पंद्रह
दिन में कोई
भी नहीं आया
तो मैं बिलकुल
सिकुड़ गया हूं।
वही मेरा मजा
था। वह जो
अहंकार की
तृप्ति होती
थी कि लोग आ
रहे हैं, वही
मेरा भोजन था।
भोजन तो मैं
कर ही नहीं
सकता। भोजन
करना संभव
नहीं है। यह
उपवास मेरा
कोई तप नहीं
था। यह मेरी
एक दुर्बलता
थी।
तुम्हारे
बहुत —से साधु —संन्यासी
अनेक तरह की
दुर्बलताओं
से ग्रसित हैं।
इन
दुर्बलताओं
को उन्होंने
नये —नये
आभूषण पहना
रखे हैं।
अब मैं
तुमसे कहूं,अगर बुद्ध
जैसा कोई
व्यक्ति कहे
कि सत्य को
तर्क से नहीं
पाया जाता, समझ में आता
है। महावीर
जैसा कोई
व्यक्ति कहे
कि सत्य को
तर्क से नहीं
पाया जा सकता,
समझ में आता
है।
अष्टावक्र
कहें, सत्य
को तर्क से
नहीं पाया जा
सकता, समझ
में आता है।
लेकिन कोई
बुद्ध जिसको
तर्क का अ ब स
नहीं आता वह
कहे कि सत्य
को तर्क से
नहीं पाया जा
सकता तो यह
बात सिर्फ
दुर्बलता को
छिपाने की है।
इसका कोई
मूल्य नहीं है।
ये
बातें एक जैसी
लगती हैं।
इसलिए अनेक
मूढ़ों को भी
यह सुविधा है
कि वे भी कह
दें, तर्क
में क्या रखा
है? तर्क
तो करना आता
नहीं। तर्क
करना कोई
साधारण बात तो
नहीं है।
प्रखर बुद्धि
चाहिए, तलवार
की तरह धार
चाहिए, मेधा
चाहिए।
तो
तर्क में कोई
सार नहीं है
यह कोई भी कह
सकता है। दस
में नौ मौकों
पर यह झूठ
होता है। तर्क
में कोई सार
नहीं है यह
उसी को कहने
का हक है
जिसने तर्क
किया हो और
पाया हो कि
सार नहीं है।
कमजोरियों
को मत छिपाना।
बुढ़ापे में
अक्सर हो जाता
है; वीर्य
—ऊर्जा समाप्त
हुई, लोग
ब्रह्मचर्यं
की बातें करने
लगते हैं।
जवानों को मूढ़
कहने लगते हैं।
अब जो स्वयं
नहीं कर सकते
उसको कम से कम
गाली तो देने
का मजा ले
सकते हैं। एक
गहरी ईर्ष्या
पकड़ जाती है।
इस ईर्ष्या के
कारण जो
मंतव्य दिये
जाते हैं उनका
कोई भी मूल्य
नहीं है।
मंदबुद्धि
का अर्थ होता
है, मंदमति
का अर्थ होता
है, अवसर
बीत जाता है
तब अकल आती है।
जब वर्षा बीत
गई तब उन्हें
खयाल आता है
कि अरे, वर्षा
बीत गई, फसल
बो देनी थी।
लेकिन अब फसल
नहीं बोयी जा
सकती, अब
समय जा चुका।
मंदबुद्धि
का एक ही अर्थ
होता है, जब क्षण
मौजूद हो वहां
तुम मौजूद
नहीं। प्रखर
बुद्धि का एक
ही अर्थ होता
है, जब
चुनौती मौजूद
हो तब तुम
मौजूद हो। उस
चुनौती को
अंगीकार करने
को, उस
चुनौती के लिए
प्रति—उत्तर
देने को
तुम्हारा
प्राण तत्पर
है। तुम पूरे —पूरे
मौजूद हो।
बुद्धिमानी
एक तरह की
उपस्थिति है—प्रेजेन्स
आफ माइंड।
चैतन्य की एक
उपस्थिति है।
'मंदमति
उस तत्व को
सुनकर भी
मूढ़ता को नहीं
छोड़ता है।’
तो
मंदमति सुनता
हुआ मालूम
पड़ता है। ऐसा
लगता है, सुन भी लिया
उसने। यह भी
हो सकता है, तोते की तरह
रट भी ले, लेकिन
फिर भी क्रांति
नहीं घटती है।
और जब तक
क्रांति न घटे
तब तक जानना, सुना हुआ
सुना हुआ नहीं
है। सुने हुए
का कोई मूल्य
नहीं है। तुम
लाख सुनते रहो,
क्या होगा?
कानों में
थोड़ी—सी आवाज
के गूंजने से
थोडे ही कोई क्रांति
होती है! फिर
आवाज किसकी थी
इससे भी फर्क
नहीं पड़ता।
बुद्धपुरुषों
को तुमने सुना
है और कुछ भी
नहीं हुआ।
जिनों के पास
से तुम गुजरे
हो और कुछ भी
नहीं हुआ।
परमहंसों की
हवा में तुम
उठे—बैठे हो
और कुछ भी
नहीं हुआ।
तुम्हें कुछ
छूता ही नहीं।
क्योंकि जहां
से छू सकता है वहां
तो तुम मौजूद
नहीं हो। वहां
तो बुद्धि
बहुत मंद है।
वहां तो तुम
इतने शिथिल हो, जिसका
हिसाब नहीं।
इसके
परिणाम होते
हैं। इसका एक
परिणाम यह
होता है कि जब
क्राइस्ट मौजूद
होते हैं तो
लोग सुनते
नहीं, जब
मर जाते हैं
तब पूजा करते
हैं—यह
मंदबुद्धि।
जब बुद्ध होते
हैं तब
गालियां देते
हैं, जब
बुद्ध चले
जाते हैं तब
मुर्तियां
बनाते हैं।
इनको बड़ी देर
से अकल आती है।
अब बुद्ध की
मूर्ति के
सामने सिर
पटकने से कुछ
भी न होगा। और
ये वे ही लोग
हैं, जिन्होंने
पत्थर फेंके
बुद्ध पर। अब
ये बुद्ध की
मुर्तियां बनाते
हैं। अब इनको
बड़ा
पश्चात्ताप
हो रहा है कि
हमने यह क्या
कर लिया! और
अगर बुद्ध फिर
आ जायें, ये
फिर पत्थर
फेंकेंगे।
क्योंकि जो है
उससे तो इनका
तालमेल नहीं
बैठता। जो जा
चुका, जो
मर चुका...।
इसीलिए
तो लोग
परंपरापूजक
हो जाते हैं।
जितना पुराना
उतना ही
ज्यादा पूजा
करते हैं।
उतना ही उनकी
अकल में आता
है। उनकी अकल
इतनी पिछड़ी
हुई है, समसामयिक
नहीं है। जैसे
कोई आदमी वेद
लिए बैठा है
और वेद दोहरा
रहा है। और
इसकी फिक्र ही
नहीं कर रहा
है कि कहीं न
कहीं पृथ्वी
पर अब भी वेद
फिर—फिर जन्म
ले रहा है।
इसकी फिक्र
नहीं कर रहा
है, वेद
दोहरा रहा है।
यह पांच—छह
हजार या दस
हजार वर्ष
पुरानी
बुद्धि है इसके
पास। इनको दस
हजार साल में
चेतना आई कि
अरे! कुछ ऋषि हो
गये। ये दस
हजार साल पीछे
चल रहे हैं
समय से। इनके
बीच और समय
में दस हजार
साल का फासला
है। ये मुझे
भी सुनेंगे दस
हजार साल बाद।
तब ये उठाकर
देखेंगे कि
अरे! कुछ हो
गया, हमें
पता ही न चला।
मंदबुद्धि
का अर्थ होता
है, जो
पीछे—पीछे
घिसटता है समय
के। उपस्थित
होना चाहिए
समय के साथ तो
प्रतिभा; और
जो समय के भी
थोड़ा आगे होता
है तो
बुद्धत्व।
इन
तीनों बातों
को समझ लो।
मंदबुद्धि
समय से पीछे
घिसट रहा है।
यह तो कुछ कर
ही नहीं सकता।
यह जो भी
करेगा, चूक जायेगा।
इसका तीर कभी
निशाने पर
नहीं लगेगा, लग ही नहीं
सकता। इसका
तीर कहीं चलता
है, निशाना
कहीं और है।
इनमें कभी
तालमेल नहीं
होता।
फिर जो
समय के साथ
खड़ा है ठीक
शुद्ध
वर्तमान में, वह
प्रतिभावान।
इसकी संभावना
ज्यादा है।
इसका तीर लग
जायेगा। इसका
तीर और निशाना
एक ही दिशा
में है।
फिर
ऐसा भी चैतन्य
का आखिरी चरण
है जो समय के आगे
है। इसलिए
बुद्धपुरुषों
की वाणी हमेशा
समय के आगे
होती है।
तुम्हें
उन्हें समझने
में हजारों
वर्ष लग जाते
हैं। उसका कुल
कारण इतना है
कि वे जो कहते
हैं वह उनके
सामने जो लोग
मौजूद हैं, उनसे
बहुत आगे की
बात होती है।
हजारों वर्ष
पहले जैसे कोई
बात कह दी गई।
लोग अभी तैयार
ही न थे।
बुद्धत्व
का अर्थ है. जो
होनेवाला है
उसे देख लेना।
समझो
इसको। किसी ने
गाली दी, बुद्ध वह है
जो अभी न पकड़
पायेगा। जब
उसे कोई कहेगा,
अरे, इस
आदमी ने गाली
दी, क्या
बैठे सुन रहे
हो? तब उसे
अकल आयेगी।
बुद्धिमान वह
है जो अभी
पकडेगा। अभी
दी, यहीं
पकड़ेगा। जो
कुछ करना उचित
होगा, अभी
कर लेगा।
बुद्ध
वह है कि गाली
दी भी नहीं गई
और पकड़ ली। उठ
ही रही थी कि
पकड़ ली। यह तो
बाहर की बात।
भीतर
की भी बात—तुम्हें
किसी ने गाली
दी, दफ्तर
में गाली दी, घर आकर
क्रोधित हुए।
इतनी देर लग
गई तुम्हें
संवेदित होने
में। जब तुम
क्रोधित हो
गये तब भी
तुम्हें पता
नहीं चलता। जब
तुमने अपने
बेटे की पिटाई
ही कर दी तब
तुमको खयाल
आया कि अरे, तुम किसको
मार रहे हो!
तुम्हें
मारना किसी और
को था, यह
बेटे को मार
रहे हो। यह
क्रोध गलत जगह
आरोपित हो गया।
तुम्हें
क्रोध का भी
पता तब चलता
है जब कृत्य बन
जाता है।
क्रोध
की तीन
अवस्थायें
हैं। एक तो
क्रोध के आने
की पहली
अवस्था; जैसे सूरज
अभी उगा नहीं,
प्राची
सिर्फ लाल हुई।
उगने के करीब
है —ब्रह्ममुहूर्त।
ऐसा क्रोध का
ब्रह्ममुहूर्त।
अभी क्रोध हुआ
नहीं, होगा;
होने ही
वाला है। फिर
सूरज निकल आया,
क्रोध हो
गया। फिर सूरज
सिर पर चढ़ आया,
क्रोध
कृत्य बन गया;
जलाने लगा,
झुलसाने
लगा।
तो एक
तो क्रोध है, कृत्य बन
जाता है तभी
लोगों को पता
चलता है, वे
मंदबुद्धि।
जब तुमने किस
को मार डाला
तब तुम्हें
अकल आई कि यह
मैंने क्या कर
दिया? यह
तो मैं चाहता
भी नहीं था और
यह हो गया। अब
मैं क्या करूं?
यह मेरे
बावजूद हो गया।
फिर तुमसे
बेहतर वह आदमी
है, जब
क्रोध उठ रहा
होता है तब
जानता है। तब
कुछ किया जा
सकता है; ज्यादा
नहीं किया जा
सकता, क्योंकि
जो उठ आया, उठ
आया। फिर भी
थोड़ा किया जा
सकता है। कम
से कम कृत्य
बनने से रोका
जा सकता है।
विचार तो बन
गया। तुम तो
विकृत हो गये।
तुम्हारे
भीतर तो जहर
फैल गया। इतना
तुम कर सकते
हो कि दूसरे
तक जहर फैलने
से रोक लो।
फिर
तीसरा वह
प्रतिभावान बुद्धत्व
को उपलब्ध
व्यक्ति है कि
क्रोध अभी उठा
भी नहीं और
जानता है। वह
अपने को भी
विषाक्त होने
से बचा लेता
है। जिसने बीज
को पकड़ लिया
वह वृक्ष से
बच जाता है।
'मंदमति
उस तत्व को
सुनकर भी
मूढ़ता को नहीं
छोड़ता है।’
कितनी
बार तुमने
सुना नहीं!
मगर कुछ बात
है कि छूटती
नहीं, गले
में अटकी ही
रहती है।
सुनते —सुनते—सुनते
शब्द याद हो
जाते हैं, अर्थ
पकड़ में नहीं
आता। सुनते —सुनते
पंडित हो जाते
हो, प्रज्ञा
का जन्म नहीं
होता।
'…...वह
बाह्य
व्यापार में
संकल्परहित
हुआ विषय की
लालसावाला
होता है।’
और तब
कभी—कभी ऐसा
भी हो जाता है
कि सुनते—सुनते, साधु—संतों
का सत्संग
करते —करते
तुम्हें भी
लगता है कि
कुछ सार नहीं
है संसार में,
भोग में कुछ
पड़ा नहीं है।
ऐसा ऊपर—ऊपर
लगने लगता है,
खोपड़ी में
लगने लगता है।
तुम्हें भीतर
अभी ऐसा कुछ
हुआ नहीं है।
तो तुम बाहर
के संसार को
छोड़ देते हो, जंगल भाग
जाते हो। बैठ
जाते गुफा में।
सोचते संसार
की, बैठे
गुफा में हो।
हाथ में माला
लिये गिनती
मनकों की करते,
भीतर गिनती
रुपयों की
चलती। बाहर
कुछ, भीतर
कुछ हो जाता
है। और जो
व्यक्ति बाहर
कुछ, भीतर
कुछ हो गया, वह रुग्ण हो
गया, बुरी
तरह रुग्ण हो
गया। वह
विक्षिप्त हो
गया क्योंकि
खंडित हो गया।
अखंड में है
स्वास्थ्य, खंडित में
है
विक्षिप्तता।
फिर जितने
तुम्हारे
भीतर खंड हो
जायें उतने ही
तुम रुग्ण
होते चले जाते
हो।
मैंने
पंद्रह—बीस
वर्षों में न
मालूम कितने
साधु—संतों को
करीब से देखा।
उनमें से
निन्यानबे
प्रतिशत लोग
रुग्ण हैं।
उनको इलाज की
आवश्यकता है।
वे महात्मा तो
हैं ही नहीं, विमुक्त
तो हैं ही
नहीं, विक्षिप्त
अवस्था है।
लेकिन उनकी
विक्षिप्त
अवस्था की भी
पूजा चल रही
है। और जब
पूजा चलती है
तो वह आदमी
भीतर— भीतर
अपने को किसी
तरह सम्हाले
रहता है...
सम्हाले रहता
है। अब यह
पूजा भी छोड़ते
नहीं बनती। यह
अहंकार के लिए
मजा आना शुरू
हो गया।
प्रतिष्ठा
मिलती, पद
मिलता, आदर
मिलता। उपवास
भी करता, जप—तप
भी करता, सब
किये चला जाता
और भीतर एक
ज्वालामुखी
धधकता है।
निर्विकल्पो
बहिर्यत्नात्.....।
बाहर
के व्यापार
में ऐसा लगता
है, अब
इसको कोई रस
नहीं।
अंतर्विषयलालस:।
लेकिन
भीतर लालसा ही
लालसा की
लपटें उठती
रहती हैं।
इसलिए
असली पहचान
तुम अपने लिए
पकड़ लेना, कसौटी
बना लेना.
असली सवाल
भीतर है, बाहर
नहीं है। अगर
भीतर लालसा
उठती हो तो
संसार ही
बेहतर है, कहीं
भागना मत। कम
से कम धोखे से
तो बचोगे।
किसी को धोखा
तो न दोगे।
सच्चे तो
रहोगे।
संसारी होकर
ही सच्चे रहना,
संन्यासी
होकर झूठे मत
हो जाना। कम
से कम सचाई है
तो किसी दिन
संन्यास भी
आयेगा; सचाई
के पीछे
आयेगा। झूठ के
पीछे तो
संन्यास कभी आ
नहीं सकता।
इसलिए
मैंने अपने संन्यासियों
को छोड्कर
जाने को नहीं
कहा है। उनसे
कहा है, जहां हो
वहीं डटकर
रहना, भागना
मत। भगोड़ापन
कायर का लक्षण
है। वह भयभीत
आदमी की धारणा
है। भागना मत,
जहां हो
वहीं डटकर खड़े
रहना। इतना ही
खयाल रखना कि
भीतर की लालसा
समझ में आने
लगे। छोड़ने की
भी नहीं कह
रहा हूं। और
अष्टावक्र भी
नहीं कह रहे
हैं कि तुम
कुछ छोड़ दो, समझो।’ज्ञान
से नष्ट हुआ
है कर्म जिसका
ऐसा ज्ञानी लोकदृष्टि
में कर्म
करनेवाला भी
है लेकिन सच में
वह न कुछ करने
का अवसर पाता
है, न कुछ
कहने का ही।’
'शान
से नष्ट हुआ
है कर्म
जिसका.।’
दो तरह
से कर्म नष्ट
हो सकता है.
जबरदस्ती से, कर्म से
ही कर्म नष्ट
कर दिया तो
धोखे में पडोगे।
समझो, थोड़ी
बारीक बात है।
तुम्हारे
भीतर क्रोध
उठा; इस
क्रोध को तुम
दो तरह से
नष्ट कर सकते
हो—एक तो कर्म
से, कि तुम
चढ़ बैठो इस
क्रोध के ऊपर।
इसकी छाती पर
बैठ जाओ, इसको
हिलने—डुलने न
दो, जाने न
दो बाहर।
सम्हाल लो
अपने को, नियंत्रण
कर लो अपने को।
सब तरफ से
अवरुद्ध कर लो।
कहो कि नहीं
करेंगे, चाहे
कुछ भी हो
जाये!
कर
सकते हो ऐसा; लेकिन
तुमने कर्म से
क्रोध को रोका
तो कितनी देर
तक तुम कर्म
करते रहोगे? शिथिल होओगे
न! सुस्ताओगे
या नहीं
सुस्ताओगे? रात सोओगे
तो? तब तो
नियंत्रण
ढीला हो
जायेगा। फिर
सपने में तुम
किसी की हत्या
कर दोगे। वह
क्रोध वहां
निकलेगा। या
फिर क्रोध इस
ढंग से निकलने
लगेगा, तुम्हें
पता भी न
चलेगा। तुम
दरवाजा
खोलोगे और
क्रोध से
खोलोगे। और
तुम्हें पता
भी नहीं चलेगा।
क्योंकि
दरवाजे से तो
कोई क्रोध है
नहीं, क्रोध
तो पत्नी से
था। पत्नी के
प्रति तो
तुमने अपने को
रोक लिया, अब
तुम दरवाजा
जोर से खोलते
हो।
तुमने
देखा? स्त्री
तुम पर नाराज
हो, उस दिन
ज्यादा कप—बशी
टूट जाती हैं।
तुम पर सीधा
तो कुछ कह
नहीं सकती। मन
तो था
तुम्हारा सिर
तोड़ दे, लेकिन
यह तो पति
परमात्मा हैं
और इनका सिर
तो तोड़ा नहीं
जा सकता। कुछ
तो तोड़ना ही
होगा। ऐसा कुछ
सोचकर करती है
ऐसा नहीं कह
रहा हूं। ऐसा
कुछ हिसाब
लगाती है ऐसा
नहीं कह रहा
हूं। ये अचेतन
प्रक्रियायें
हैं। हाथ से
बशी छूटने
लगती है।
ज्यादा छूटती
है उस दिन, चाहे
ऊपर से कुछ भी
न कहे।
तुमने
देखा? जिस
दिन पत्नी
नाराज है, शायद
एक शब्द न कहे,
लेकिन चाय
इस ढंग से
ढालेगी कि तुम
पहचान सकते हो
कि क्रोधित है।
चाय के ढालने
में हो जायेगा।
सब्जी में नमक
ज्यादा पड
जायेगा—नहीं
कि उसने डाला।
इतना होश कहां
है कि होश से
डाले, डल
जाएगा। क्रोध
यहां—वहां
छिटकने लगेगा।
जिसे तुमने
बीज से पकड़कर
रोक लिया है
वह कोई कोने—कातर
से रास्ते
खोजने लगेगा।
कहीं से तो
बहेगा!
कोई
झरना बहता है, तुम एक
चट्टान उस पर
लगा दो तो अब
शायद मूल धारा
टूट जाये
लेकिन छोटे —छोटे
झरने फूटने
लगेंगे।
आसपास से
चट्टान के
छोटी—छोटी
धारायें
निकलने
लगेंगी।
निकलेगा तो
क्रोध कहीं से।
कर्म
से क्रोध नहीं
रुकता।
क्योंकि कर्म
से क्रोध के
रुकने का कोई
संबंध ही नहीं
है। और कभी—कभी
ऐसा हो जाता
है कि जो आदमी
बहुत क्रोधी
होता है वही
आदमी कर्म से
क्रोध को
रोकने में समर्थ
हो जाता है; क्योंकि रोकने
के लिए भी
क्रोध चाहिए—क्रोध
पर क्रोध।
अष्टावक्र
कहते हैं, 'ज्ञान से
नष्ट हुआ है
कर्म जिसका।’
नहीं, कर्म से
कर्म को विजय
कर लिया तो
कुछ विजय न हुई।
क्योंकि
अंततः तो कर्म
ही रहा, कर्ता
ही रहे।
'ज्ञान
से नष्ट हुआ
है कर्म
जिसका..।’
जिसने
जानकर, पहचानकर, बोध को
जगाकर, क्रोध
को देखकर, क्रोध
का स्वभाव
समझकर, बिना
किसी चेष्टा
के, बिना
किसी आयोजन के,
बिना किसी
यत्न के, प्रयास
के, क्रोध
को भर नजर से
देखकर जिसको
यह समझ आ गई कि क्रोध
व्यर्थ है।
और
किसको समझ न
आयेगी? एक दफा भर
नजर देखो भर।
क्रोध को एक
बार ठीक से देखोगे
तो कैसे करोगे?
रोकने का तो
प्रश्न ही
नहीं है, करोगे
कैसे? फर्क
समझ लेना।
कर्म से
रोकनेवाला
क्रोध को
रोकता है बिना
समझे। और
ज्ञान से
जागनेवाला
क्रोध को
रोकता ही नहीं,
क्रोध
रुकता है अपने
आप। क्योंकि
क्रोध उठता था
अज्ञान से, मूढुता से, मूर्च्छा से।
वह मूर्च्छा
टूट गई। क्रोध
का मूल आधार
छिन्न—भिन्न
हो गया। यह
सूत्र समझो।
ज्ञानाद्गलितकर्मा
यो
लोकदृष्टद्यापि
कर्मकृत्।
नाप्पोत्यवसरं
कर्तुं
वस्तुमेव न
किंचन।।
ज्ञानाद्गलितकर्मा......।
जिसका
कर्म ज्ञान से
गलित हुआ है; कर्म से
नहीं, किसी
आयोजना से
नहीं, सिर्फ
बोध से, समझ
से। जिसने दबा
नहीं लिया है,
जो भी भीतर
है उसे ठीक—ठीक
देखा है और
देखने में ही
कोई क्रांति
घटित हुई।
देखने से ही क्रांति
घटित हुई।
देखने से क्रांति
घटती है।
आधुनिक
भौतिकविद एक
बड़ी अनूठी खोज
पर पहुंचे हैं।
और वह खोज यह
है कि जब तुम
किसी चीज को
देखते हो तो
तुम्हारे
देखने के कारण
ही उस चीज में
गुणधर्म
रूपांतरित
होता है—चीज
में भी!
तुम एक
वृक्ष को देख
रहे हो गौर से, यह अशोक
का वृक्ष खड़ा
है पास, इसे
तुम गौर से
देखोगे तो तुम
सोचते हो, हम
देख रहे हैं, वृक्ष को क्या
मतलब? वृक्ष
को क्या होगा
इससे? वृक्ष
थोड़े ही बदल
जायेगा।
लेकिन अब उपाय
हैं इस बात को
जानने के कि
वृक्ष बदल
जाता है। जब
इतने लोग इसे
प्रेम से
देखते हैं तो
वृक्ष एक और
तरंग में होता
है। इतने लोग
अगर क्रोध से
देखें तो
वृक्ष और अवस्था
में होता है।
कुल्हाड़ी लेकर
आ जाये इस
वृक्ष को
काटने के लिए
कोई—तो अभी
काटा नहीं, अभी
कुल्हाड़ी
लानेवाला ला
ही रहा है, लेकिन
कुल्हाड़ीवाले
के मन में जो
विचार उठ रहे
हैं इसको
काटने के, उनकी
तरंगें उस तक
कुल्हाड़ी से
पहले पहुंच जाती
हैं। और वृक्ष
भयभीत हो जाता
है, कैपने
लगता है, दुखी
हो जाता है।
जब
माली आता है
वृक्ष के पास, जो रोज
पानी देता है,
तो दूर से
ही माली को
आते देखकर
वृक्ष तृप्त होने
लगता है। अब
इस पर
वैज्ञानिक
परीक्षण हो
गये हैं। और
वैज्ञानिक
परीक्षणों ने
तय कर दिया है
कि वृक्ष भी
अनुभव करते
हैं। और देखने
मात्र से
रूपांतरण हो
जाता है।
तुमने
खयाल किया
अपने जीवन में? अगर चार
लोग तुम्हें
प्रेम से
देखें तो तुम
बदलते हो या
नहीं? और
चार लोग
तुम्हें
क्रोध से
देखें तो तुम
बदलते हो या
नहीं? क्या
तुम वही रहते
हो जब चार लोग
तुम्हें क्रोध
से देखते हैं,
घृणा से
देखते हैं, अपमान से
देखते हैं? या चार
व्यक्ति
तुम्हें
परिपूर्ण
प्रेम और आदर
और सम्मान से
देखते हैं? तुम्हारे
भीतर
रूपांतरण
होते हैं।
तुम्हारे
भीतर सूक्ष्म
भेद पड़ते हैं।
और ये
तो बाहर की
नजरें हैं।
भीतर की नजर
का तो कहना
क्या! भीतर तो
नजरों की नजर
है। भीतर तो आंखों
की आंख है। उस आंख
को ही तो हमने
तीसरी आंख कहा
है। वहां तो
शिवनेत्र है।
अगर तुमने
भीतर सब बाहर
की आंख बंद
करके उस तीसरे
नेत्र से, उस भीतर
की आंख से, उस
भीतर की
दृष्टि से
अपनी किसी भी
चित्त की दशा
को देखा तो
तुम पाओगे, रूपांतरण हो
गया।
ज्ञानियों
ने यही कहा है—ज्ञानाद्गलितकर्मा—तुम
वासना को
देखोगे और
वासना गई। तुम
क्रोध को
देखोगे और
क्रोध गया।
तुम लोभ को
देखोगे और लोभ
गया। तब तो
तुम्हारे हाथ
में कुंजी लग
गई—कुजियों की
कुंजी कि तुम
जिसको देखोगे
वही गया।
फिर एक
और मजे की बात
है, सभी
देखने से नहीं
चला जाता। कुछ
चीजें हैं जो
देखने से
विकसित होती
हैं और कुछ
चीजें हैं जो
चली जाती हैं।
अगर तुम
अध्यात्म का
आधार समझना
चाहो तो जो तुम्हारी
दृष्टि के
सामने न टिक
सके और चला
जाये, वही
पाप। और जो
तुम्हारी
दृष्टि में न
केवल टिके
बल्कि फलने —फूलने
लगे, वही
पुण्य। यह
पुण्य और पाप
की परिभाषा।
तुमने
बहुत
परिभाषायें
सुनी होंगी, वे सब
कचरा हैं।
पुण्य और पाप
की एक ही
परिभाषा है.
तुम्हारे अवलोकन
में जो बढ़ने
लगे और
तुम्हारे
अवलोकन में जो
क्षीण होने
लगे—बस, समझ
लेना। अगर
तुमने गौर से
प्रेम को देखा
तो प्रेम बढ़ता
है, जाता
नहीं। यही तो
मजा है। और
क्रोध को देखा
तो क्रोध चला
जाता है; बढ़ता
नहीं, घटता
है। जिस
मात्रा में
बोध बढ़ता है
उसी मात्रा
में क्रोध
घटता है। जिस
मात्रा में
बोध कम होता
है, क्रोध
ज्यादा होता
है। बोध एक
प्रतिशत, क्रोध
निन्यानबे
प्रतिशत। बोध
पचास प्रतिशत,
क्रोध पचास
प्रतिशत। बोध
साठ प्रतिशत,
क्रोध
चालीस
प्रतिशत। बोध
निन्यानबे
प्रतिशत, क्रोध
एक प्रतिशत।
बोध सौ
प्रतिशत, क्रोध
शून्य।
मगर
ऐसी बात प्रेम
के साथ नहीं
है। प्रेम के
साथ और ही
अनुभव होता है।
करुणा के साथ
और ही अनुभव
होता है। शांति
के साथ और ही
अनुभव होता है।
ध्यान के साथ
और ही अनुभव
होता है। जैसे—जैसे
तुम्हारा बोध
बढ़ता है वैसे—वैसे
शांति बढ़ती है।
जैसे —जैसे
तुम्हारा बोध
बढता है. बोध
सौ प्रतिशत तो
सौ प्रतिशत
प्रेम। बोध एक
प्रतिशत तो एक
प्रतिशत
प्रेम। बोध
शून्य तो
प्रेम शून्य।
जो बोध के साथ
बढ़े वही पुण्य।
जो बोध के साथ
न बढ़े, घटने
लगे, वही
पाप।
जो बोध
के साथ न बढ़े न
घटे, उससे
तुम्हारा कोई
संबंध नहीं।
उसकी तुम
चिंता ही छोड़
देना। उससे
कुछ लेना—देना
ही नहीं है।
जो बोध के साथ
न घटे न बढ़े, उससे कुछ
लेना—देना
नहीं है। न
उसे घटाना है,
न बढ़ाना है,
उससे
तुम्हारे
जीवन का कोई
लेना—देना
नहीं है। उस
संबंध में तुम
तटस्थ हो जाना।
जैसे
अगर तुम अपने
शरीर को
देखोगे तो न
तो घटेगा, न बढ़ेगा।
जैसा है वैसा
रहेगा। तो
शरीर से कुछ
लेना—देना
नहीं है। अपने
आप है, अपने
आप रहेगा, अपने
आप चला जायेगा।
तुम्हारे बोध
से कुछ लेना—देना
नहीं है। तुम
बोधपूर्वक
देखोगे सूरज
को तो न घटेगा,
न बढ़ेगा।
जैसा है वैसा
रहेगा।
तथ्य है, न पुण्य है, न पाप है।
पुण्य
बढ़ता, पाप
घटता। और जो
ऊर्जा पाप के
घटने से मुक्त
होती है, पाप
में संलग्न थी,
मुक्त हुई,
वही ऊर्जा
पुण्य में
संलग्न हो
जाती है। इधर
घृणा घटती है,
क्रोध घटता
है, तो उधर
करुणा और
प्रेम बढ़ने
लगता है।
ऊर्जा
तुम्हारे पास
उतनी ही है
उसे चाहो जहां
नियोजित कर दो।
गलत जगह लगा
ली तो ठीक जगह
लगाने को नहीं
बचती है।
ज्ञानाद्गलितकर्मा।
ज्ञान
से तुम्हारे
कर्म गलित हों
इस पर ध्यान रखना।
कर्म से गलित
करने की कोशिश
मत करना।
अन्यथा क्या
होगा, जबरदस्ती
क्रोध को रोक
लिया तो क्रोध
नष्ट तो नहीं
होता, भीतर
दबकर बैठ जाता
है। और मजा यह
कि पहले जितनी
शक्ति क्रोध
करने में लगती
थी, अब
उससे ज्यादा
लगेगी। जितनी
क्रोध में लगी
थी वह तो
क्रोध में लगी
ही है, और
अब उसको दबाने
में जो लग रही
है वह भी
क्रोध में लग
गई।
इसलिए
ऐसा आदमी हानि
में पड़ता है।
ऐसे आदमी का
आध्यात्मिक
विकास तो नहीं
होता है, हास होता है।
इससे तो बेहतर
है, नैसर्गिक;
जब हो क्रोध,
कर लेना।
तुमने फर्क
देखा? जो
आदमी जब क्रोध
होता है कर
लेता है, वह
आदमी तुम भला
पाओगे, अच्छा
आदमी पाओगे।
और जो आदमी
हमेशा क्रोध
को रोके रखता
है, उस
आदमी को तुम
खतरनाक पाओगे।
वह किसी दिन
फूटेगा।
विस्फोट होगा
तो छोटा—मोटा
उपद्रव नहीं
करेगा, कोई
बडा उपद्रव
करेगा। जो रोज—रोज
छोटी—मोटी
बातों में
नाराज हो जाते
हैं, फिर
ठीक हो जाते
हैं, ऐसे
लोग बड़े अपराध
नहीं करते; हत्यायें
नहीं करते, न
आत्महत्यायें
करते हैं। ये
सीधे—सादे लोग
हैं। ये
सामान्य
नैसर्गिक लोग
हैं। ये कोई
आध्यात्मिक
लोग नहीं हैं,
मगर कम से
कम स्वस्थ हैं।
तुम
जरा अपने
महात्माओं की आंखों
में गौर से
देखना, बजाय शांति
के तुम एक तरह
की मुर्दगी
पाओगे। मरघट
की शांति
पाओगे, फूलों
की, उपवन
की शांति नहीं,
मरघट की।
क्यों? क्योंकि
कुछ तो शक्ति
क्रोध में लगी
थी, कुछ
क्रोध को
दबाने में लग
गई। कुछ घृणा
में लगी थी, कुछ घृणा को
दबाने में लग
गई। कुछ लोभ
में लगी थी, कुछ लोभ को
दबाने में लग
गई।
सांसारिक
आदमी को भी
तुम थोड़ा
प्रफुल्ल
पाओगे; उतना भी तुम
अपने महात्मा
को न पाओगे।
यह और मुश्किल
में पड़ गया है।
होना तो उल्टा
चाहिए था। और
जो शक्ति
क्रोध में लग
गई, क्रोध
को दबाने में,
लोभ में, लोभ को
दबाने में, मोह में, मोह
को दबाने में,
काम में, काम को
दबाने में
सारी शक्ति
नियोजित हो गई।
इसके पास
प्रेम के लिए
जगह नहीं बचती।
तुम्हारे
महात्माओं के
जीवन में तुम
प्रेम न पाओगे।
तुम्हारे
महात्माओं के
जीवन में तुम
करुणा न पाओगे।
तुम्हारे
महात्माओं के
जीवन में तुम
कोई सृजनात्मकता
न पाओगे। उनसे
कुछ निर्मित
नहीं होता। न
एक सुंदर गीत
रचा जाता है, न एक मूर्ति
बनती है, न
एक चित्र बनता
है। उनसे कुछ
रचा नहीं जाता।
बस वे मुर्दे
की तरह बैठे
हैं। उनका कुल
काम इतना है
कि वे दबाकर
बैठे हैं, क्रोध
को, लोभ को,
मोह को। मगर
यह जीवन अकारथ
है उनका।
इसमें कुछ भी
सौंदर्य नहीं
है। इसमें कोई
भी गरिमा और
प्रसाद नहीं
है।
क्रांति
का नाम तभी
दिया जा सकता
है तुम्हारे
जीवन—रूपांतरण
को, जब
गलत में
नियोजित
शक्ति अपने आप
शुभ की ओर प्रवाहित
होने लगे। जो
तुमने शैतान
के चरणों में
चढ़ाये थे फूल,
वे
परमात्मा
के चरणों में
गिरने लगें।
ज्ञानाद्गलितकर्मा
यो
लोकदृष्टधापि
कर्मकृत्।
फिर
ऐसा ज्ञानी
चाहे औरों की
दृष्टि में
संसार में खड़ा
हुआ ही क्यों
न दिखाई पड़े, इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। अपनी
तरफ से वह
संसार के बाहर
हो गया, वही
असली बात है।
लोकदृष्टि
में वह
सामान्य ही
दिखाई पड़ेगा।
नान्नोत्यवसरं
कर्तुं वस्तुमेव
न किंचन।
ऐसे
व्यक्ति को
करने का मौका
ही नहीं बचा।
और न यह कहने
का मौका बचा
कि मैंने यह
किया, मैंने
यह किया। अवसर
ही नहीं है।
ऐसे व्यक्ति
को तो एक बात
समझ में आ गई
कि बोध से
अपने आप चीजें
होती हैं, करनेवाला
कौन है?
इसको
अगर तुम भक्त
की भाषा में
कहो तो कहो, भगवान के
द्वारा अपने
आप होती हैं।
भगवान का कोई
और अर्थ है भी
नहीं; इस
संपूर्ण जगत
की जो इकट्ठी
प्रशा है, इस
संपूर्ण जगत
का जो इकट्ठा
बुद्धत्व है,
इस संपूर्ण
जगत का जो
इकट्ठा बोध है,
उसी का नाम
तो भगवान है।
भगवान का कोई
और अर्थ नहीं
है।
भगवान
से होता, भक्त कहता।
ज्ञानी कहता,
बोध से होता।
मैं कर्ता
नहीं। एक बात
में दोनों
राजी हैं—मैं
करनेवाला
नहीं!
अब अगर
तुम कहो, मैंने तप
किया, तो
चूक गये। तो
उसका अर्थ हुआ
कि अभी शान के
द्वारा कर्म गलित
नहीं हुआ।
कर्म के
द्वारा ही
कर्म की छाती
पर चढ़कर बैठ गये।
कर्ता तुम अभी
भी हो। एक
आदमी अकड़ता है,
मेरे पास
लाखों हैं; और एक आदमी
अकड़ता है, मैंने
लाखों को लात
मार दी। दोनों
की अकड़ बराबर
है। जरा भी
भेद नहीं है।
और दूसरे की
शायद पहले से
ज्यादा
खतरनाक है।
क्योंकि पहले
की अकड़ तो
सीधी—सादी है,
दूसरे की
बड़ी जटिल है।
पहले की अकडू
तो सांसारिक
है, दूसरे
की
आध्यात्मिक
का रंग लिये
हुए है। यह और
जहरीली है!
इसे
खयाल में ले
लेना प्रयत्न
से नहीं, जो भी हो, बोध
से हो तो शुभ; प्रयत्न से
हो तो अशुभ।’सर्वदा
निर्भय और
निर्विकार
ज्ञानी को कहां
अंधकार है, कहां प्रकाश
है, और
कहां त्याग है?
कुछ भी नहीं
है!'
क्य तम:
क्य प्रकाशो
वा हार्न क्य
च न किंचन।
निर्विकारस्य
धीरस्य
निरातंकस्य
सर्वदा।।
सदा
तुमने सुना है
कि परमात्मा
प्रकाश है।
कभी—कभी कुछ
थोड़े —से
रहस्यवादियों
ने ऐसा भी कहा
है, परमात्मा
अंधकार है, पर बहुत
थोडे।
अष्टावक्र
कहते हैं, वह
परम सत्य न तो
प्रकाश जैसा
है न अंधकार
जैसा है। वहां
कहां अंधकार,
कहां
प्रकाश!
द्वंद्व वहां
नहीं है। तो
जहां दो नहीं
हैं वहां सब
दो गिर गये।
तुमने जितने
भी अब तक जाने
थे जोड़े, वे
सब गिर गये—जीवन—मृत्यु,
अंधकार—
प्रकाश, लाभ—हानि,
सफलता—
असफलता, सुख—दुख,
अपना—पराया।
सब गिर गये। वहां
दो के सब जोड़े
गिर गये। वहां
तो दोनों मिल
गये एक में।
अब जरा
सोचो, अगर
प्रकाश और
अंधकार मिल
जायें तो क्या
होगा? कहने
का कोई उपाय
नहीं है, क्या
होगा। एक बात
तय है कि वह तो
न प्रकाश जैसा
होगा, न
अंधकार जैसा
होगा। कुछ
होगा
बिलकुल अनूठा, अपूर्व, रहस्यमय, अनिर्वचनीय;
जिसको कहा न
जा सके।
हम तो
जो भी कहेंगे
वह दो में बंट
जायेगा। किसी
को कहा सुंदर, तत्थण
कुरूपता भीतर
आ गई। किसी को
कहा ऐसा, तो
उससे विपरीत
समाविष्ट हो
गया। हम तो
विपरीत से बच
ही नहीं सकते।
बोले कि
विपरीत से
फंसे। भाषा तो
विपरीत में
उलझी है। भाषा
तो द्वंद्व की
है। इसलिए तो
मौन का इतना.
इतना
बहुमूल्य आदर
किया गया है।
मौन का
अर्थ है, भाषा के
बाहर होना।
ऐसी जगह
पहुंचना भीतर,
जहां शब्द न
हों। जहां
शब्द नहीं
वहीं ब्रह्म
है। जहां शब्द
खो गया वहीं
ब्रह्म है। वहां
एक बचा। वहां
कहने का कोई
उपाय नहीं।
कोई कोटि नहीं
बनती, कोई
गणित नहीं
बैठता।
'सर्वदा
निर्भय और
निर्विकार
ज्ञानी को
कहां अंधकार
है, कहां
प्रकाश है, कहां त्याग
है? कुछ भी
नहीं है।’
न
किंचन!
क्योंकि
जो कुछ भी हम
कहेंगे उसमें
द्वंद्व और
द्वैत आ
जायेगा।
ज्ञानी को कुछ
भी नहीं है।
न
किंचन
और यह
भी हम समझें
कि सौ में
निन्यानबे
शास्त्रों ने
परमात्मा को
प्रकाश कहा है।
उसका कारण
शास्त्र में
नहीं है, उसका कारण
मनुष्य के भय
में है। आदमी
बहुत डरा हुआ
है अंधकार से।
अंधकार में
घबड़ाहट होती
है। प्रकाश हो
जाता है तो
थोड़ा भरोसा
आता है। कुछ
दिखाई तो पड़ता
है। अंधकार
में तो उसी को
घबड़ाहट नहीं
होती जिसको
अपने भीतर
दिखाई पड़ता है।
जिसको सिर्फ
बाहर ही देखने
का पता है और
जिसके भीतर तो
कुछ भी प्रकाश
नहीं है वह
अंधकार में
बहुत घबड़ा
जाता है।
क्योंकि
अंधकार हुआ तो
अंधे हुए। अब
कुछ दिखाई
नहीं पड़ता।
सारा संसार खो
गया, जो
दिखाई पड़ता था।
दृश्य खो गया।
अंधकार में
दृश्य खो जाता
है। अंधकार
में तो सिद्ध
ही राजी हो
सकता है।
क्योंकि
अंधकार हो कि
प्रकाश हो, दृश्य में
सिद्ध को कोई
रुचि नहीं है।
वह तो द्रष्टा
में लीन है।
वह तो
देखनेवाले
में है।
तुमने
कभी ख्याल किया, कितना ही
गहन अंधकार हो,
तुम तो होते
हो न! तुम तो
नहीं खो जाते!
सूफियों की एक
पुरानी कहानी
है। एक गुरु
के पास दो
युवक आये और
उन्होंने
दीक्षित होने
की प्रार्थना
की। गुरु ने
कहा, इसके
पहले कि
तुम्हें
दीक्षित करूं,
एक परीक्षा।
यह लो—एक
कबूतर तू ले, एक कबूतर तू
ले—और दोनों
जाओ और ऐसी
जगह मारकर
कबूतर को आ
जाओ, जहां
कोई
देखनेवाला न
हो।
एक
युवक तो भागा, जल्दी
बाहर गया, बगल
की गली में
पहुंचा, वहां
कोई भी नहीं
था। उसने
जल्दी से गरदन
मरोड़ दी, लौटकर
आ गया। उसने
कहा, लो
गुरुदेव।
दीक्षा दो।
गुरु ने कहा
कि रुक। दूसरा
युवक कोई तीन
महीने तक न
लौटा। और पहला
युवक बड़ा
परेशान होने
लगा कि हद हो
गई। अभी तक
इसको ऐसी जगह
न मिली जहां
यह मार लेता, जहां कोई
देखनेवाला न
हो! और बगल की
गली काफी है।
मैं उसमें
मारकर आया हूं।
गुरु कहता, तू चुप रह।
तू बैठ! और जब
तक दूसरा न
लौट आयेगा तब
तक मैं तुझे
कुछ उत्तर न
दूंगा। उसको
आने दे।
अब तो
दूसरा आता ही
नहीं। पहला
घबड़ाने लगा।
उसने कहा, मुझे तो
दीक्षा दे दें।
तीन
महीने बाद
दूसरा युवक
लौटा कबूतर को
साथ लेकर। हाल
बेहाल था।
शरीर सूख गया
था लेकिन आंखों
में एक अपूर्व
ज्योति थी।
गुरु के चरणों
में सिर रखकर
उसने कबूतर
लौटा दिया कि
यह हो नहीं
सकता। आपने भी
कहां की उलझन
दे दी! तीन
महीने परेशान
हो गया। सब
जगह खोजा। ऐसी
कोई जगह न
मिली जहां कोई
देखने वाला न
हो।
फिर
मैं एक अंधेरे
तलघरे में चला
गया। वहां कोई
भी न था। ताला
लगा दिया।
रोशनी की एक
किरण न
पहुंचती थी, देखने का
कोई सवाल ही
नहीं था।
लेकिन यह
कबूतर देख रहा
था। इसकी
टुकुर—टुकुर आंखें,
इसके हृदय
की धड़कन!
मैंने कहा, यह तो मौजूद
है। तो फिर
मैंने इसे ऐसा
बंद किया
डब्बों में कि
इसकी धड़कन न
सुनाई पड़े, न इसकी आंख
दिखाई पड़े।
फिर इसे लेकर
मैं गया, लेकिन
तब भी हार हो
गई क्योंकि
मैं मौजूद था।
आपने कहा था, कोई भी
मौजूद न हो।
यह भी क्या
शर्त लगा दी? मेरी
मौजूदगी तो
रहेगी ही, अब
मैं इसको कहीं
भी ले जाऊं।
मैं हार गया।
अब मैं ले आया।
आप चाहे
दीक्षा दें, चाहे न दें!
लेकिन इस
परीक्षा में
ही मुझे बहुत
कुछ मिल गया
है। एक बात
मेरी समझ में
आ गई कि
एकमात्र ऐसी
मौजूदगी है जो
कभी भी नहीं
खोयेगी, वह
मेरी है। मुझे
आत्मा का थोड़ा
स्वाद आपने दे
दिया।
गुरु
ने कहा, तू दीक्षित
कर लिया गया।
पहले से कहा, तू भाग जा।
अब दुबारा इस
तरफ मत देखना।
तुझे कोई अकल
ही नहीं। तू
बिलकुल
मंदबुद्धि है।
तू बगल की गली
में मार लाया?
तुम
गहरे से गहरे
अंधकार में भी
बैठोगे तो तुम
हो। एक चीज
अंधकार में भी
अनुभव होती
रहती है, वह है मेरा
होना—वह
अंधकार के पार
है। उसे जानने
के लिए प्रकाश
की कोई जरूरत
नहीं। उसका
अपना निजी
प्रकाश है। वह
स्वयं —प्रकाशी
है। उसके लिए
किसी प्रमाण
की कोई जरूरत
नहीं। वह
स्वत: प्रमाण
है।
आंख
बंद करके जिसे
उस भीतर के
प्रकाश का बोध
होने लगा वही
अंधकार में
नहीं
घबडायेगा।
लोग अंधकार से
घबड़ाते हैं
इसलिए
परमात्मा को प्रकाश
कहा।
या
जिन्होंने
भीतर के सत्य
को जानकर भी
परमात्मा को
प्रकाश कहा है
उन्होंने भी
इसी अर्थ में
कहा है कि जब
तुम बाहर से
भीतर आते...
बाहर एक तरह
का प्रकाश है, फिर एक
तरह का प्रकाश
भीतर है। और
भीतर का
प्रकाश बाहर
के प्रकाश से
ज्यादा गहरा
है। लेकिन यह
भी अंतिम बात
नहीं है, यह
भी यात्रा की
ही बात है।
पहला
अनुभव—बाहर
प्रकाश है, संसारी
का अनुभव है, बहिर्मुखी
का। दूसरा
अनुभव—भीतर
प्रकाश है, अंतर्मुखी
का अनुभव है।
लेकिन
अष्टावक्र तो
परम वाक्यों
में भरोसा रखते
हैं। वे कहते
हैं, जहां
अंतर और बाहर
भी छै गये, बहिर्मुखी—
अंतर्मुखी भी
मिट गये; वह
भी द्वंद्व
गया, फिर वहां
कैसा अंधकार,
कैसा
प्रकाश!
तो
भीतर से भी
भीतर एक जगह
है। पहले बाहर
से भीतर आना
है, फिर
भीतर से भी
भीतर जाना है।
बाहर से तो
मुक्त होना ही
है, भीतर
से भी मुक्त
होना है। एक
ऐसी भी घड़ी है
जब न तो तुम
बाहर रहोगे, न भीतर
रहोगे। उस घड़ी
ही परम क्रांति
घटती है। वहां
न प्रकाश है, न अंधकार है।
'अनिर्वचनीय
स्वभाववाले
और
स्वभावरहित
योगी को कहा
धीरता है, कहां
विवेकिता है
अथवा कहा
निर्भयता है!'
यह
सूत्र बहुत
अनूठा है।
'अनिर्वचनीय
स्वभाववाले
और
स्वभावरहित.....।’
एक ही
साथ दो बातें
कही हैं
अनिर्वचनीय
स्वभाववाले
और स्वभावरहित।
समझना।
क्य
धैर्य क्य
विवेकित्व
क्य
निरातकतापि
वा।
अनिर्वाव्यस्वभावस्य
निस्वभावस्य
योगिन:।।
योग की
परम व्याख्या, योगी की
परम व्याख्या।
जो
अनिर्वचनीय
स्वभाव को
उपलब्ध हो गया
है और साथ ही
साथ स्वभाव से
मुक्त हो गया
है। जो अपने
से एक अर्थ
में मुक्त हो
गया है और एक
अर्थ में अपने
को जिसने पा
लिया है। यह
बडी
विरोधाभासी
बात है। वही
पाता है जो
अपने को खोता
है। स्वयं को
खोये बिना कोई
स्वयं को पाता
नहीं। जब हम
स्वयं को पूरी
तरह खो देते
हैं, डुबा
देते हैं, तब
जो मिलता है
वही स्वयं है।
'अनिर्वचनीय
स्वभाववाले
और
स्वभावरहित।’
एक ऐसी
घड़ी आती है जहां
तुम यह भी
नहीं कह सकते
कि मैं हूं।
जब तक तुम कह
सकते हो मैं हूं,तब तक अभी
तुम भटके हो।
अभी तुम दूर
हो। अभी घर
नहीं लौटे।
क्योंकि सब
मैं तू की
अपेक्षा रखते
हैं। मैं भी
द्वंद्व है तू
का।
मनोवैज्ञानिक
एक खोज किये
हैं कि जब
बच्चा पैदा
होता है तो
उसे जो पहला
अनुभव होता है
वह मैं का
नहीं है, पहला अनुभव
तू का है।
उसकी नजर पहले
तो मां पर
पडती है। अपने
को तो बच्चा
देख ही नहीं
सकता। वह तो
दर्पण देखेगा
तब पता चलेगा।
बच्चे को अपना
चेहरा तो पता
नहीं चलता।
बच्चे को
अनुभव पहले
मां का होता
है, तू का
होता है।
डाक्टर को
देखता होगा, नर्स को
देखता होगा, मां को
देखता होगा, दीवाल, मकान
को देखता होगा,
रंग—बिरंगे
लटके खिलौनों
को देखता होगा,
लेकिन तू।
मैं का तो अभी
पता नहीं चलता।
तुमने
छोटे बच्चे को
देखा कभी? बड़े दर्पण
के सामने रख
दो तो वे उसको
भी ऐसे देखते
हैं जैसे कोई
दूसरा बच्चा।
टटोलते हैं, थोड़े चिंतित
भी होते हैं, थोड़े डरते
भी हैं, क्योंकि
अभी यह भरोसा
तो हो ही नहीं
सकता कि मैं
हूं। क्योंकि
मैं का तो कोई
पता ही नहीं
है। आईने के
पीछे जाकर
देखते हैं
सरककर कि कोई
बैठा? किसी
को न पाकर बड़े
किंकर्तव्यविमूढ़
हो जाते हैं।
छोटे
बच्चे अपना ही
अंगूठा पीते
हैं, तुमने
देखा? पैर
का ही अंगूठा
पकड़कर चूसने
लगते हैं, हाथ
का अंगूठा
चूसने लगते
हैं। तुम्हें
पता है कारण? कारण यह है
कि उनको ये भी
चीजें मालूम
पड़ती हैं। कि
यह कोई चीज
पड़ी है, उठा
लो। जैसे वे
और चीजें
उठाकर मुंह
में डाल लेते
हैं वैसा अपना
अंगूठा उठाकर
मुंह में डाल
लिया। अभी
अपना तो पता
नहीं है। यह
अंगूठा अपना
है इसका बोध
तो थोड़ी देर
से होगा। यह
तो एक चीज है
जो यहां दिखाई
पड़ती है आसपास
हमेशा। इसको
उठा ली, मुंह
में डाल ली।
बच्चा
हर चीज मुंह
में डालता है।
क्योंकि उसके
पास अभी एक ही
अनुभव का
स्रोत है, मुंह।
तुमने खिलौना
दिया, वह
जल्दी से मुंह
में डालता है।
क्योंकि उसकी
अभी एक ही
इंद्रिय
सक्रिय हुई है—स्वाद।
वह चखकर देखता
है कि है क्या!
क्योंकि
बच्चे की पहली
इंद्रिय मुंह
है, जो
सक्रिय होती
है। उसे दूध
पीना पड़ता है।
वह उसका पहला
अनुभव है। उसी
अनुभव से वह
सारी चीजों की
तलाश
करता है।
वह अपने ही
हाथ का अंगूठा
अपने मुंह में
डालकर चूसने
लगता है, इस खयाल में
कि कोई चीज है
जिसको .चूस
रहा है। यह तो
धीरे— धीरे
उसे समझ में
आना शुरू होता
है कि यह अपना
हाथ है। अपना
हाथ तो तब पता
चलता है जब
अपना पता चलता
है। यह तो
नंबर दो है
अपना हाथ।
और
अपना पता चलता
है तब, जब
तू का धीरे—
धीरे साफ पता
होने लगता है
कि कौन—कौन तू
है। इन तू के
मुकाबले वह
सोचने लगता है,
मैं कुछ
भिन्न हूं।
क्योंकि मां
कभी होती है, कभी चली
जाती है। वह
मां को जाते
देखता, आते
देखता। फिर
धीरे — धीरे
अहसास होता है
कि मैं तो
यहीं रहता हूं।
जब मां नहीं
होती तब भी
रहता हूं,इतना
कुछ ऐसे
विचारों में
और शब्दों में
सोचता है ऐसा
नहीं, ऐसा
धीरे — धीरे
अनुभव
परिपक्व होता
है।
अब तुम
ध्यान रखना, जैसे
पहले तू आता
है और मैं
पीछे आता है
ऐसे ही आध्यात्मिक
प्रक्रिया
में पुन: जब
फिर से नया जन्म
होगा तो तू
पहले जायेगा,
फिर मैं
जायेगा। जब तू
चला गया तो
मैं ज्यादा
देर नहीं टिक
सकता। यह मैं
तो तू की छाया
की तरह ही आया
था और यह तू की
छाया की तरह
चला जायेगा। इसलिए
अगर कोई
ज्ञानी कहता
हो 'मैं ', तो समझना
अभी तू गया
नहीं है। अभी
तू कहीं आसपास
ही खड़ा होगा।
उसकी छाया पड़
रही है। मैं
तू की छाया है।
और तू ज्यादा
मौलिक है मैं
से। क्योंकि
मैं पीछे आता,
तू पहले आता।
तू के चले
जाने पर मैं
चला जाता है।
इस घड़ी
में स्वभावरहित
हो जाता है
योगी। वह यह
नहीं कह सकता
कि यह मैं हूं।
यह बड़े विरोध
की और बड़े मजे
की बात है। जो
है वही नहीं
कह सकता कि
मैं हूं और जो
बिलकुल नहीं
है वह घोषणा
किये चला जाता
है कि मैं हूं।
मेरे होने की
घोषणा उनसे
उठती है जो
नहीं हैं। और
जो हैं उनका
मैं बिलकुल शून्य
हो जाता है।
तब बड़ी
अनिर्वचनीय
दशा पैदा होती
है, अब
इसे क्या कहें?
न तू कह
सकते हैं न
मैं; न
अंधेरा न
प्रकाश, न
जीवन न मृत्यु;
न पदार्थ न
परमात्मा।
कुछ भी नहीं
कह सकते। सब
कहना व्यर्थ
मालूम होने
लगता है। और
जो भी कहें, गलत हो जाता
है।
लाओत्से
ने कहा, सत्य को कहा
कि झूठ हो
जाता है। बोले
कि चूके। तो
ऐसी स्थिति का
नाम है
अनिर्वचनीय।
अब इसका
निर्वचन नहीं
हो सकता।
अनिर्वाच्च
स्वभावस्य।
आ तो
गये अपने घर
में, लेकिन
ऐसा है कुछ यह
घर कि वहां
कोई निर्वचन
काम नहीं आता।
कोई व्याख्या,
कोई
परिभाषा काम
नहीं पड़ती।
निस्वभावस्य
योगिन:।
और
योगी स्वभाव
से मुक्त होकर
अनिर्वचनीय
स्वभाव को
उपलब्ध हो
जाता है। एक
छोटे क्षुद्र
स्वभाव से
मुक्त हो जाता
है और विराट
के स्वभाव को
उपलब्ध हो
जाता है।
यही है
अर्थ जीसस का, जब जीसस
बार —बार कहते
हैं, 'ब्लेसेड
आर द मीक।’ वे
जो नहीं हैं, धन्यभागी
हैं। निर्बल
के बल राम। वह
जो इतना
निर्बल हो गया
कि अब मैं हूं
इतना भी नहीं
कह सकता। इतनी
भी दावेदारी न
रही। उसी को
मिलते प्रभु।
हारे को
हरिनाम। वह जो
इस तरह हार
गया, और सब
तो गया ही गया,
खुद भी अपने
को हार गया।
दाव पर सब लगा
चुका।
पाडवों
ने तो द्रोपदी
को दाव पर
लगाया था। वह
सिर्फ तू को
दाव पर लगाया।
जरा चूक गये।
आखिरी
करीब—करीब आ
गये थे। यह जो
दाव है, यह जीवन के
वास्तविक
युद्ध का, यहां
मैं को भी
दांव पर
लगा देना है।
मैं
अकिंचनबन गया
हूं द्वार पर
आकर तुम्हारे
दर्द
की सरिता
उफनती ढह रहे
मन के कगारे
मैं
जिधर भी देखता
हूं बेबसी आंचल
पसारे
आज
निष्फल हो रहे
हैं धैर्य के
परितोष सारे
धार का तृण
बन गया हूं
द्वार पर आकर तुम्हारे
आंसुओ
के पालने में
पीर ने मुझको
झुलाया
याद के
गीले करों ने
थपकियां देकर
सुलाया
लोरियों
के संग गाते
दूध—मुंहें
सपने बिचारे
धूल का कण
बन गया हूं द्वार
पर आकर तुम्हारे
मैं
अकिंचन बन गया
हूं द्वार पर
आकर तुम्हारे
जैसे—जैसे
द्वार प्रभु
का करीब आता
वैसे ही वैसे
व्यक्ति
अकिंचन, नाकुछ।
जिसको
अष्टावक्र
कहते हैं, 'न
किंचन।’ जो
जरा भी नहीं
है, ऐसा
व्यक्ति
अकिंचन।
किंचन का अर्थ
होता है, जो
थोड़ा—सा है; किंचित्।
अकिंचन का
अर्थ है, जो
थोड़ा—सा भी
नहीं है।
रेखमात्र भी न
बची। शून्यवत।
मैं अकिंचन बन
गया हूं द्वार
पर आकर
तुम्हारे
धार का
तृण बन गया
हूं द्वार पर
आकर तुम्हारे
धूल का
कण बन गया हूं
द्वार पर आकर तुम्हारे
जैसे
धार में एक
तिनका बहा
जाता है। जैसे
हवा के बवंडर
में धूल का एक
कण उड़ा जाता है।
अष्टावक्र ने
कहा, जिस
दिन कोई सूखे
पत्ते की
भांति हो जाता
है, हवा
जहां ले जाये।
ऐसी अकिंचनता
में धन्यभाग।
ऐसी अकिंचनता
में, जहां
सब कुछ खो गया
वहीं सब कुछ
मिलता है।
समस्त धनों का
धन!
'योगी
को न स्वर्ग
है, न नर्क
है, और न
जीवनमुक्ति
ही है। इसमें
बहुत कहने से
क्या प्रयोजन
है? योगी
को योगदृष्टि
से कुछ भी
नहीं है।’
न
स्वर्गों नैव
नरको
जीवन्तुक्तिर्न
चैव हि।
बहुनात्र
किमुक्तेन
योगदृष्टधा न
किंचन।।
दो
शब्द हैं :
स्वर्ग और नर्क।
ईसाइयत, यहूदी धर्म,
इस्लाम इन
दो शब्दों के
आसपास बना है।
भारत ने एक
तीसरा शब्द
खोजा, मोक्ष।
मोक्ष के लिए
पश्चिम की
भाषाओं में
कोई शब्द नहीं
है। क्योंकि
वह धारणा ही
कभी पैदा नहीं
हुई।
इसलिए
पश्चिम के
धर्म
प्राथमिक
सीढ़ियों जैसे
हैं। आखिरी
शिखर तो पूरब
में छुआ गया :
मोक्ष। नर्क
का तो अर्थ है
दुख का ही
विस्तार; वह हमारे
अनुभव के भीतर
है। और स्वर्ग
का अर्थ है
हमारे सुख का
विस्तार, वह
भी हमारे
अनुभव के भीतर
है। जीवन में
हमने सब जाने.
हैं सुख—दुख।
सुख एक तरफ
छांट लिये, दुख एक तरफ
छांट लिये, दोनों की
राशियां लगा
दीं, बन
गये स्वर्ग—नर्क।
स्वर्ग में
हमने वह—वह
बचा लिया है, जो हम चाहते
हैं; और
नर्क में वह—वह
डाल दिया है, जो हम नहीं चाहते।
इस संसार को
हमने दो
हिस्सों में
बांट दिया—सुख
और दुख में, तो स्वर्ग
और नर्क बन
गये। स्वर्ग
और नर्क कोई
पारलौकिक बात
नहीं है, इसी
संसार के
अनुभव हैं।
इसीलिए
तो तुम नर्क
में क्या
पाओगे? नर्क में
पाओगे कि लोग
आग की लपटों
में जलाये जा
रहे हैं। यह
हमारे जीवन का
जो ताप है, लपटें
हैं, उनकी
ही धारणा है।
स्वर्ग में
क्या पाओगे? कि लोग शराब
के चश्मों के
पास बैठे शराब
पी रहे हैं।
सदा हरे रहने
वाले वृक्षों
के नीचे बैठे
मौज कर रहे
हैं, अप्सरायें
नाच रही हैं।
मगर यह तो
यहीं का सब
मामला है। यह
कुछ बहुत नया
नहीं है। जो
यहां चलता है
छोटे —मोटे
परिमाण में
उसको ही बड़े
परिमाण में
तुम वहां चला
रहे हो। इसमें
कुछ भेद नहीं
है। यह संसार
के पार बात न
गई।
तो
पूरब ने एक
नया शब्द खोजा, मोक्ष।
मोक्ष का अर्थ
है, सुख—दुख
दोनों के पार।
मोक्ष का अर्थ
है, स्वर्ग
—नर्क दोनों
के पार।
लेकिन
अष्टावक्र ने
हद कर दी।
अष्टावक्र
कहते हैं, परम
अवस्था में
स्वर्ग—नर्क
तो होते ही
नहीं, मोक्ष
भी नहीं होता।
उन्होंने
मोक्ष के पार
की भी एक बात
कही है। इससे
पार कभी किसी
ने और कुछ भी
नहीं कहा है।
इसीलिए तो
अष्टावक्र के
इन वक्तव्यों
को मैंने
महागीता कहा
है। कृष्ण
मोक्ष तक ले
जाकर छोड़ देते
हैं बात को।
मोहम्मद
स्वर्ग तक ले
जाकर छोड़ देते
हैं बात को।
ऐसा ही जीसस
भी। अष्टावक्र
मोक्ष के भी
पार ले जाते
हैं।
अष्टावक्र
कहते हैं, स्वर्ग
और नर्क नहीं
हैं यह तो बात
ठीक। ये तो
चित्त की
दशायें हैं।
फिर मोक्ष जो
है, वह जब
हम चित्त की
दशाओं से
मुक्त होते
हैं उसका
अनुभव है।
लेकिन वह
अनुभव तो
क्षणभंगुर है।
समझो, एक आदमी
जेल में बंद
था बीस वर्ष, तुमने उसे
मुक्त किया।
जेल की
दीवारों के
बाहर लाये, हथकड़ियां
खोल दीं, उसको
उसके कपड़े
वापिस लौटा
दिये। वह राह
पर आकर खड़ा हो
गया। तो
निश्चित ही
राह पर आकर
खड़े होकर वह
परम स्वतंत्रता
का अनुभव
करेगा। लेकिन
कितने दिन तक?
घडी—दो घड़ी,
दिन—दों दिन।
बीस वर्ष के
कारागृह के
कारण ही सड़क
पर खड़ा होकर
वह अनुभव कर
रहा है। जो
लोग सड़क पर चल
ही रहे हैं और
कभी जेल में
नहीं गये हैं
उनको कुछ भी
पता नहीं चल
रहा है स्वतंत्रता
का।
अगर वह
आदमी एकदम
नाचने लगेगा
तो लोग कहेंगे, तू पागल
है। वह कहेगा,
मैं मुक्त
हो गया। यह
खुला आकाश, यह सूरज, ये
चांद —तारे!
अहा! तो लोग
कहेंगे, तेरा
दिमाग खराब है?
ये सूरज
चांद—तारे सब
ठीक हैं, यह
खुला आकाश भी
ठीक है, हम
सदा से यहीं
हैं। ऐसा कुछ
नाचने की बात
नहीं है।
इस
आदमी को जो
अनुभव हो रहा
है
स्वतंत्रता
का वह बीस
वर्ष के
कारागृह की
पृष्ठभूमि
में हो रहा है।
यह क्षण भर की
बात है। दस—पांच
दिन बाद जब
तुम इसे
मिलोगे तो तुम
नाचता न पाओगे।
बात खतम हो गई।
जब
कारागृह ही
खतम हो गया तो
स्वतंत्रता
भी खतम हो गई।
स्वतंत्रता
क्षणभंगुर है।
अष्टावक्र
कहते हैं, जब कोई
व्यक्ति
संसार के अनंत
जाल से मुक्त
होता है, जन्मों—जन्मों
के जाल से, तो
अहोभाव से, धन्यभाव से
नाच उठता है
कि अहा!
स्वतंत्र हो गया।
मुक्त हो गया।
लेकिन
यह भी
क्षणभंगुर
बात है। यह
संसार के ही
पृष्ठभूमि
में वक्तव्य
है। थोड़े दिन
बाद यह बात
खतम हो गई।
अगर
तुम को अब
बुद्ध—महावीर
मिल जायें
कहीं, तो
तुम उनको
नाचते थोड़े ही
पाओगे! अगर अब
भी नाच रहे
हों तो दिमाग
खराब है। ठीक
था जब इस
कारागृह से
छूटे थे।
जन्मों—जन्मों
पुराना
कारागृह!
अपूर्व आनंद
हुआ होगा। पग
घुंघरू बांध
मीरा नाची।
निश्चित हुआ
होगा। कबीर
कहते हैं, 'अब
हम घर चले
अविनाशी।’ बड़ा
आनंद हुआ होगा।
लेकिन यह
तो क्षण की ही
बात है। और
ठीक से समझना, तो संसार
की ही अपेक्षा
में है। यह
संसार से
मुक्त होकर भी
अभी संसार से
बंधी बात है।
यह आदमी जेल
से बाहर निकल
आया, यद्यपि
बाहर निकल आया
लेकिन अभी बीस
साल जो जेल
में रहा है, वह छाया
इसके सिर में
घूम रही है।
उसी छाया के
कारण यह बाहर
का आकाश इतना
मुक्त मालूम
हो रहा है। वह
सींखचों के
भीतर से देखा
गया आकाश अभी
भी छूट नहीं
गया है।
सींखचों के
बाहर आ गया है,
आंखों पर
सींखचे जड़े रह
गये हैं, अटके
रह गये हैं।
और जब यह
देखता है खुला
आकाश—और कोई
रोकने वाला
नहीं, हाथ
में जंजीरें
नहीं। हाथ में
झकझोर कर
देखता है, पुराना
बोझ छूट गया
है लेकिन अभी
कहीं पुराने बोझ
की छाया मौजूद
है; उसी की
तुलना में।
संसार की
तुलना में ही
मोक्ष। लेकिन
यह तुलना
ज्यादा देर तो
नहीं टिक सकती।
संसार ही चला
गया तो संसार
से उत्पन्न
होनेवाली जो
धारणा है, वह
भी चली जायेगी।
इसलिए
अष्टावक्र
कहते हैं, 'योगी को
न स्वर्ग है
और न नर्क, और
न जीवगक्ति ही
है। इसमें
बहुत कहने से
क्या प्रयोजन
है? योगी
को योग की
दृष्टि से कुछ
भी नहीं है।’
बहुनात्र
किमुक्तेन
योगदृष्टधा न
किंचन।
बड़ी
अपूर्व बात है।
अष्टावक्र
कहते हैं, योग की दृष्टि
से योगी को
कुछ भी नहीं
है। न स्वर्ग
है न नर्क है; मोक्ष भी
नहीं है। न
सुख है न दुख, आनंद भी
नहीं है। योग
की दृष्टि से
योगी को कुछ
भी नहीं है।
योगदृष्टधा
न किंचन।
योगी
ही नहीं बचा, अब और
क्या बचेगा? बुद्ध ने
इसे महाशून्य
कहा है, निर्वाण
कहा है। बुझ गया
दीया अहंकार
का। हो गया
दीये का
निर्वाण। अब
कुछ भी न बचा।
जहां कुछ भी न
बचा वहीं सब
बचा। सीमा न
रही, असीम
हुआ। स्वयं
मिटे, अनिर्वचनीय
का जन्म हुआ।
'धीर
पुरुष का
चित्त अमृत से
पूरित हुआ
शीतल है।’
समझना; क्योंकि
अष्टावक्र के
एक—एक शब्द
बड़े बहुमूल्य
हैं।
'धीर
पुरुष का चित
अमृत से पूरित
हुआ शीतल है।
इसलिए न वह
लाभ के लिए
प्रार्थना
करता और न हानि
होने की कभी
चिंता करता है।’
नैव
प्रार्थयते
लाभ
नालाभेनानुशोचति।
धीरस्य
शीतल
चित्तममृतेनैव
पूरितम्।
'धीर
पुरुष का
चित्त अमृत से
पूरित शीतल है।’
शीतल
शब्द बड़ा
बहुमूल्य है।
जब अमृत से
पहली दफा
संबंध होता है, जब
शाश्वत से
पहली
दफा
मिलन होता है, तब तो
अपूर्व
हर्षोन्माद
होता है।
एक्सेसी घटती
है। आदमी
समाधिस्थ हो
उठता है। आदमी
नाचने लगता है।
हजार—हजार
सूरज, कबीर
ने कहा है, एक
साथ निकल आये
हैं। हजार—हजार
कमल, कबीर
ने कहा है, एक
साथ खिल गये
हैं। सुगंध ही
सुगंध है।
अनंत तक
सौंदर्य ही
सौंदर्य है।
एक अपूर्व
दृश्य
उपस्थित होता
है।
उत्तप्त
हो जाता होगा
योगी, जब
ऐसा अमृत
बरसता है। एक
क्षण को जब
बूंद में सागर
उतरता है तो
बूंद नाचेगी
नहीं? नाच
उठती होगी।
जीवन की
लगी आग दिग—दहत
दहके
पवन
आदोलित हुलास
छल—छल छलके
विलास
सौरभ के
मेले हैं ठौर—ठौर
आसपास
पुष्प
को मिला सुहाग
मधु महंत महके
दिग—दहंत
दहके....
कनबतियां
कलियों की
बरजोरी अलियो
की
मौसम के
अधरों पर
गजलें
रंगरलियो की
जयजयवंती
बिहाग रागवत
चहके
दिग—दहत
दहके.....
सब
खिला उठा। सब
तरफ दिग—दिगत
दहक उठे। एक
अपूर्व ऊर्जा
का विस्फोट
हुआ। गया सब
धूल— धवांस
भरा। गया सब
जराजीर्ण।
नित नूतन से
मिलन हुआ। गई
मृत्यु। गया
वह जीवन, जिसमें
मृत्यु घटती
थी। गये जन्म
और मृत्यु के
चक्कर। अमृत
उपलब्ध हुआ।
अब नहीं कभी
मिटना है। अब
न कहीं जाना
है, अब न
कहीं आना है।
तो
पहले क्षण में
तो अर बज उठती
होगी। पायल बज
उठती होगी।
नृत्य जागता
होगा।
हर्षोन्माद
शब्द ठीक है।
हर्ष में
उन्मत्त हो
उठता होगा कोई।
पागल हो उठता
होगा।
उड़ते
स्वर के फाहे
गीत बने
चरवाहे
घूम रहे
गलियों में गज
रहे चौराहे
अंतस पर
थाप पड़ी गमकी मंजीर
लड़ी
फिर आया
है मौसम
अपनापन खोने
का
भीगने —भिगोने
का
कलियों
के तन चिटके
परिमल के कण
छिटके
मलयानिल
ने रह—रह
सुरभित आचल
झिटके
जाग उठे
बन सोये
किरणों ने
मुंह धोये
फिर आया
है मौसम
वल्लरी
पिरोने का
भीगने—भिगोने
का
अमृत
की वर्षा होने
लगी। फिर आया
है मौसम भीगने
—भिगोने का।
डूबने लगे। रोंआ—रोंआ
आनंद
में डूबने लगा।
मगर यह कोई
स्थिर बात तो
नहीं है। यह
भी शीतल हो
जायेगी।
इसलिए शीतल
शब्द का उपयोग
किया है।
यह तो
बड़ी उत्तप्त
है।
हर्षोन्माद!
यह तो बड़ा
उत्तप्त है।
इसमें तो बड़ा
नाच है, बड़ा रंग है।
बड़ी गजल। बड़ी
रंगरलियां।
पहली दफा जीवन
के उत्सव ने
अपने द्वार
खोले हैं।
पहली बार, जिसकी
सदा—सदा से
तलाश थी उससे
मिलन हुआ है।
प्रियतम के
हाथ में हाथ
पड़ा है।
कबीर
ने कहा है, हम राम की
दुल्हनिया।
भांवर पड़ गई।
अब तो हम राम
के साथ चल पड़े।
अब तो राम के
साथ हम जुड़
गये, एक हो
गये।
कोई
कैसे नहीं
नाचेगा? कोई कैसे
नहीं गुनगुनायेगा?
कैसे नहीं
संगीत का जन्म
होगा? नाद
जगेगा, वादन
होगा, कीर्तन
होगा। लेकिन
यह ज्यादा देर
नहीं, इसलिए
शीतल।
'धीर
पुरुष का
चित्त अमृत से
पूरित हुआ
शीतल है।’
अंतिम
अवस्था में
थोड़ी ही देर
में यह सब
शांत हो जायेगा।
सब शीतल हो
जायेगा। सब
शून्य हो
जायेगा।
'इसलिए
न वह लाभ के
लिए
प्रार्थना
करता है, न
हानि होने से
कभी चिंता
करता है।’
अब न
अपनी उसकी कोई
प्रार्थना है
लाभ के लिए, न हानि की
कोई चिंता है।
अब न कुछ खोने
को है, न
कुछ पाने को
है। अब न कहीं
जाने को है।
यात्रा
समाप्त हुई।
गंतव्य आ गया।
अब कोई गति
नहीं है। अब
कोई गतिवान
नहीं। अब सब
ठहरा। अब सब
परम अवस्था
में ठहरा। इसे
ही कहें समाधि।
पतंजलि
ने समाधि के
दो रूप कहे
हैं। एक को
कहा, सविकल्प
समाधि। एक को
कहा, निर्विकल्प
समाधि।
सविकल्प
समाधि में
हर्षोन्माद
होगा। निर्विकल्प
समाधि में कोई
हर्ष न रह
जायेगा, कोई
उन्माद न रह
जायेगा।
निर्विकल्प
समाधि शीतल
होगी। कोई
विकल्प न बचा।
यह परम
शून्यता
लक्ष्य है। और
जिसने इसे पा
लिया उसने
पूर्ण को पा
लिया है।
शून्य के
द्वार से आता
है पूर्ण। तुम
मिटो तो प्रभु
हो सकता है।
आज इतना
ही।
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