ओशो
अज्ञात की
पुकार हैं। सच
में देखा जाए
तो यह पता ही
नहीं चलता कि
आखिर ओशो के
साथ हम जा
कहां रहे हैं।
ओशो स्वयं
हमें अनेक बार
अज्ञात की ओर
ले चलने की
बात करते हैं।
लेकिन इस चलने
भर का, इस
यात्रा का
अपने आप में
इतना मजा है, इतना आनंद
है कि यह किसे
पता कि जाना
कहां है? और
पूछे कौन? इसी
भाव दशा में
एक बार ओशो से
कविता के
माध्यम से
अपने भाव
व्यक्त किये,
तब ओशोबोले
:
प्रश्न
:
ओशो,
हम
चल तो पड़े हैं
जज़बा—ए दिल
जाना
है किधर मालूम
नहीं
आगाज़े—सफर
पर नाज़ां हैं
अन्तामे—सफर
मालूम नहीं
हम
चल तो पड़े हैं
जज़बा—ए दिल...
कब
जाम भरे, कब
दौर चले
कब
आए इधर मालूम
नहीं
उट्ठे
भी अगर, ठहरे
भी कहां,
साकी
की नजर मालूम
नहीं
हम
चल तो पड़े हैं
जज़बा—ए दिल...
हम
अक्ल की हद से
भी गुजरे,
सहरा—ए—जुनूं
भी छान लिया
अब
और कहां ले
जाएगी
साकी
की नजर मालूम
नहीं
हम
चल तो पड़े हैं
जज़बा—ए दिल...
मुमकिन हो
तो एक लमहें
के लिए
तकलीफे
तबस्तुम कर
लीजे
हममें से
अभी तक कितनों
को
मफहूमे
सहर मालूम
नहीं
हम चल तो
पड़े हैं जजबा—
ए दिल...
जजबात
के सौ आलम
गुजरे
एहसास की
सदियां बीत
गईं
आंखों से
अभी उन आंखों
तक
कितना है
सफर मालूम
नहीं
हम चल तो
पड़े हैं जज़बा—ए
दिल...
जाना है
किधर मालूम
नहीं
आग़ाज़े—सफर पर
नाज़ां हैं
अन्तामे—सफर
मालूम नहीं
हम चल तो
पड़े हैं जज़बा—ए
दिल...
स्वभाव!
संन्यास का
यही अर्थ है—एक
अज्ञात
यात्रा। भीतर
चलना ऐसा नहीं
है जैसा बाहर
चलना होता है।
बाहर तो सीधे—साफ
रास्ते हैं।
मील के पत्थर
लगे हैं। नक्शो
उपलब्ध हैं।
अतर्यात्रा
तो आकाश की यात्रा
है।
अभी—अभी
धनी धरमदास का
पद तुमने सुना
ही—उडियो पंख
पसार! वह आकाश
की यात्रा है।
आकाश में
रास्ते नहीं
होते।
पगडंडियां भी
नहीं होतीं।
बनाना भी चाहो
तो नहीं बन
सकतीं। मील के
पत्थर भी नहीं
होते। पक्षी
आकाश में उड़ते
हैं तो उनक पद
चिन्ह भी नहीं
छूट जाते।
बुद्ध
ने कहा है कि
बुद्धों का
कोई पद—चिह्न
नहीं छूट जाता, क्योंकि
उनकी यात्रा
आकाश की
यात्रा है।
इसलिए कोई
चाहे कि उनके
पद—चिह्नों पर
चल सके तो
नहीं चल सकता।
पद—चिह्न बनते
ही नहीं आकाश
में। तो ऐसे
ही चलना होता
है अज्ञात में।
मंजिल साफ
नहीं होती, बहुत धुंधली
होती है।
सिर्फ एक
प्रबल
अभीप्सा होती
है, प्रायों
में एक प्यास
होती है। जल
है भी या नहीं,
यह भी पक्का
नहीं। मगर
इतना भर भरोसा
होता है कि
अगर प्यास है
तो जल भी होगा
ही। क्योंकि
इस जीवन का यह
नियम है यहां
भूख है तो भूख
के पहले भोजन
है।
तुमने
देखा नहीं, मां
के पेट में
बच्चा आता है
तो जैसे ही
बच्चा पैदा
होता है वैसे
ही मां के
स्तन दूध से
भर जाते हैं!
बच्चे के आते
आते, अभी
बच्चा आ ही
रहा है कि
तैयारी हो गयी।
अभी बच्चा
पैदा भी नहीं
हुआ और स्तन
दूध से भर गए।
अभी बच्चे की
भूख भी नहीं
जगी और भोजन
तैयार हो गया।
मां के पेटे
में बच्चे की
आखे तैयार हो
जाती हैं; अभी
देखने को कुछ
भी नहीं है।
पैदा होगा, तब आंखें
खुलेंगी। तब
सारा दृश्य, सारा जगत
देखने को होगा।
इस
जगत का नियम
यह है, शाश्वत
नियम यह है कि
यहां जिस बात
की भी अभीप्सा
है, अभीप्सा
के पहले ही
उसका कुछ
आयोजन है। यह कोई
अराजकता नहीं
है। यहां एक
गहरी अन्तर—व्यवस्था
का नाम ही
धर्म है। धर्म
का अर्थ है वह
नियम, जो
सारे जीवन को
सम्हाले हुए
है। अगर
तुम्हारे
भीतर सत्य की
प्यास है तो
सत्य होना ही
चाहिए। तो
चलना तो ऐसा
ही होगा।
'हम चल तो पड़े
हैं जज़बा—ए
दिल
जाना है
किधर मालूम नहीं।’
मालूम
हो भी नहीं
सकता। और
जिसने सोचा हो
कि पहले से सब
मालूम कर लेंगे
तब चलेंगे, वह
चल नहीं सकता।
वह कायर है।
वह तो ऐसा
आदमी है जो
कहता है कि जब
तक मैं तैरना
न सीख लूं तब
तक पानी में न
उतरूंगा। मगर
तैरना सीखोगे
कैसे, अगर
पानी में न
उतसेगे? पानी
में उतसेगे, तो ही तैरना
सीखोगे। बिना
पानी में उतरे
कोई तैरना सीख
नहीं सकता।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं कि जब तक
हमें पूरा
पक्का न हो
जाए कि ध्यान
से उपलब्ध
क्या होगा, इसका
पूरा प्रमाण न
मिल जाए, तब
तक हम ध्यान न
करेंगे। तो
मैं उनसे कहता
हूं : तुम फिर
ध्यान कभी भी
न कर सकोगे, क्यों कि ये
बातें प्रमाण
की नहीं हैं।
तुम्हारे
भीतर अभीप्सा
हो तो तलाश
देखो, खोज
देखो। इतना
तुमसे कह सकता
हूं कि मैंने
खोजा और पाया।
इतना तुमसे कह
सकता हूं कि
जिन्होंने भी
खोजा
उन्होंने
पाया। जिन
खोजा तिन
पाइया! लेकिन
खोजने वाले को
इतना
दुस्साहस तो
करना ही होता
है कि एक दिन
चल पड़ना होता
हैं—सिर्फ
अभीप्सा के
आधार पर, आकांक्षा
के आधार पर, प्यास के
आधार पर।
'हम चल
तो पड़े हैं
जज़बा—ए दिल!'
भावना
से चलना होता
है,
तर्क से
नहीं। हृदय से
चलना होता है,
बुद्धि से
नहीं। प्रेम
से चलना होता है,
प्रमाण से
नहीं। तर्क से
नहीं चलना
होता। जो तर्क
से चलना
चाहेगा, चलता
ही नहीं, किनारे
पर ही खड़ा रह
जाएगा। वह तो
विचार ही करता
रहेगा, सोच—विचार
में ही उलझा
रहेगा। वह तो
कदम भी नहीं
उठा सकता।
पहला कदम भी
नहीं उठा सकता।
आग़ाज़े—सफर
पर नाला हैं
अन्नामे—सफर
मालूम नहीं।’
बस
यही जरूरी भी
है। यही
संन्यास की
आधारशिला है
कि यात्रा के
प्रारंभ पर
नाज होना
चाहिए, कि हम
चल पड़े, कि
हमने हिम्मत
की, कि
हमने साहस
जुटाया, कि
हमने नाव छोड़
दी अनंत सागर
में, अब
दूसरा किनारा
है भी या नहीं,
क्या पता!
मगर कहीं एक
किनारा होता
है? किनारे
दो होते ही
हैं। दिखे कि
न दिखे, धुंध
में छिपा हो
कि इतने दूर
हो कि वहां तक
आख न पहुंचती
हो, मगर
किनारे तो दो
ही होते हैं।
दूसरा किनारा
भी है। पर अभी
तो सिर्फ
श्रद्धा, कि
दूसरा भी होगा।
इसका कोई
निर्णीत
निश्चय आज
नहीं हो सकता।
नाव
छोडनी पड़ती है
और तूफान भी
है। और इस
किनारे पर
सुरक्षा भी है, यह
भी ख्याल रखना।
नाव बंधी हो
किनारे पर, डूबने का डर
नहीं है।
तिरने की
संभावना नहीं
है, डूबने
का भी डर नहीं
है। और जब
तैरना चाहोगे,
तिरना
चाहोगे तो
डूबने का खतरा
उठाना ही पडेगा।
हालाकि इतना
तुमसे मैं
कहना चाहूंगा
कि जो हिम्मत
से चल पड़े हैं,
अगर वे डूब
भी जाएं, मझधार
में भी डूब
जाएं तो भी
उन्हें
किनारा मिल
जाता है।
उन्हें डूबने
से भी किनारा
मिल जाता है।
एक ऐसा किनारा
भी है जो
डूबने से ही
मिलता है। एक
ऐसा किनारा भी
है जो मिटने
से ही मिलता
है। एक ऐसी
पूर्णता है जो
शून्य होने से
मिलती है। एक
ऐसा जीवन है
जो अहंकार की
मृत्यु से ही
उपलब्ध होता
है।
'हम चल तो पड़े
हैं जज़बा—ए
दिल,
जाना है
किधर मालूम
नहीं
आगाज़े—सफर
पर नाजां हैं
अन्नामे—सफर
मालूम नहीं।’
किसको
मालूम है, मालूम
हो भी कैसे
सकता है
अन्नामे—सफर,
कि अंत क्या
होगा यात्रा
का? सिर्फ
भरोसा हो सकता
है, श्रद्धा
हो सकती है; प्रमाण तो
कुछ भी नहीं
हो सकता।
जिन्होंने पा
लिया है, उनकी
मौजूदगी में
प्रीति जग
सकती है, श्रद्धा
उमग सकती है, प्यास पैदा
हो सकती है, मगर प्रमाण
नहीं मिल सकता।
बुद्ध
से किसी ने
पूछा है कि
क्या आप
प्रमाण दे
सकते हैं परम
सत्य का? उन्होंने
कहा. ' नहीं।
प्यास दे सकता
हूं प्रमाण
नहीं।’ और
प्यास ही असली
चीज है। और
प्यास सबके
भीतर है।
सदगुरू का काम
है कि उसे
प्रज्जलित कर
दे, उसमें
ईंधन डाल दे।
सदगुरु के
शब्द ईंधन बन
जाते हैं।
उसकी मुद्रा,
उसकी
भावदशा, उसकी
उपस्थिति
ईंधन बन जाती
है। तुम्हारे
भीतर एक प्यास
प्रज्जलित
होकर जलने
लगती है; पैर
तडूफने लगते
हैं चल पड़ने
को, नाव
छूटने को आतुर
होने लगती है;
जंजीरें
टूटने लगती
हैं अपने से।
दूसरे किनारे
की अहर्निश
पुकार आने
लगती है, कि
आओ! जाना ही
होगा! ऐसा
आमंत्रण सघन
हो उठता है, कि सब दांव
पर लगाने की
तैयारी हो
जाती है।
'कब जाम भरे
कब, दौर
चले
कब आए इधर
मालूम नहीं
उट्ठे भी
अगर, ठहरे
भी कहां
साकी की
नजर मालूम
नहीं।’
कुछ
भी पहले से तय
नहीं हो सकता, स्वभाव।
काश तय होता
सब तो बात
सस्ती हो जाती।
तय होता तो
सांसरिक हो
जाती। तय होता
तो बीमा—कम्पनी
बीमा कर देती।
तय नहीं हो
सकता है। यही
तो मजा है, यही
तो राज है, यही
तो रहस्य है।
कुछ पक्का
नहीं है—' कब
जाम भरे, कब
दौर चले!'
जाम
लिए बैठे रहो, प्रतीक्षा
करो। जाम को
साफ करो। अपनी
अंजुलि को
निखारो और राह
देखो—शांत, मौन, प्रार्थनापूर्ण!
'कब जाम भरे, कब दौर चले।’
हमारे
हाथ में नहीं
कि कब दौर चले।
मगर एक बात
पक्की है कि
जब भी किसी के
भीतर का पात्र
तैयार हो जाता
है तो दौर
चलता है। सदा
चला है।
तुम्हारे साथ
ही अपवाद नहीं
हो सकता। जब
भी कोई राजी
हो गया है
परमात्मा को
झेलने को, परमात्मा
उतर आया है। जब
तक न उतरे, जानना
कि अभी हम
राजी न थे; जानना
कि अभी हम
तैयार न थे; हमारे पात्र
में कहीं खामी
थी, कहीं
छिद्र थे। देर
लगती है हमारे
कारण, उसके
कारण नहीं।
लोगों
ने कहावत बना
रखी है कि देर
है अंधेर नहीं।
देर भी नहीं
है,
अंधेर भी
नहीं है। अगर
देर है तो हमारे
कारण और अगर
अंधेरा है तो
भी हमारे कारण।
उसकी तरफ से न
देर है न
अंधेर है। वह
तो सुराही लिए
खड़ा ही हुआ है।
साकी तो मौजूद
है, तुम्हारे
सामने खड़ा है,
मगर तुम आख
बंद किए बैठे
हो। और
तुम्हारा
पात्र अभी इस
योग्य नहीं कि
उसमें अमृत
ढाला जा सके।
उसमें तुम जहर
ही भरते रहे—घृणा
का, ईर्ष्या
का, माया
का, मोह का,
मत्सर का, क्रोध का, घृणा का, लोभ
का। तुमने सब
तरह के जहर
उसमें भरे हैं।
तुम्हारे
पात्र में जगह
भी कहां है?
झेन
कथा है, प्रसिद्ध
झेन फकीर
नानिन के पास
एक विश्वविद्यालय
के प्रोफेसर
ने जाकर
प्रार्थना की
कि मुझे ईश्वर
के संबंध में
कुछ समझाएं, निर्वाण के
संबंध में कुछ
समझाएं। यह
ध्यान का राज
क्या है, इस
संबंध में कुछ
समझाएं!
उसने
तो एक सांस
में सब कुछ
पूछ डाला—ईश्वर, निर्वाण,
ध्यान, कुछ
बचा ही नहीं।
फकीर ने क्या
कहा? फकीर
ने कहा: 'आप
थके मांदे, पहाड़ चढ़ कर
आए, माथे
पर पसीने की
बूंदें, बैठे
जाएं, थोड़ा
सुस्ता लें।
तब तक मैं चाय
बना दूं। एक
प्याली चाय पी
लें, फिर
फुर्सत से बात
हो। थोड़ा
यात्रा का बोझ
कम हो जाए, थकान
मिट जाए, थोड़ा
विश्राम हो
जाए, तो
फिर बात कर
लेंगे। और यह
भी हो सकता है
कि शायद चाए
पीते—पीते ही
बात हो जाए।’
अरे
कौन जाने—नानिन
ने कहा कि
प्याली में
चाय ढालते—डालते
ही बात हो जाए!
प्याली में
चाय डालने में
ही बात हो जाए।’
प्रोफेसर
तो थोडा हैरान
हुआ कि आदमी
पागल तो नहीं
मालूम होता!
निर्वाण, ईश्वर,
ध्यान—प्याली
में चाय डालते—ढालते
बात हो जाएगी!
मैं भी कहां
चला आया! इतनी
लम्बी यात्रा
करके आया हूं।
भर दोपहरी में
पहाड़ा चढ़ा हूं।
ठीक, लेकिन
अब आ ही गया
हूं तो कम से
कम चाय तो पी
ही लूं। और तो
कुछ ज्यादा
आशा नहीं
दिखती। नानिन
ने चाय बनायी,
प्याली हाथ
में दी।
प्याली में
केतली से चाय
डाली और चाय
ढालता ही गया।
प्याली भर गयी,
प्याली से
चाय गिरने लगी।
बसी भी भर गयी।
फिर तो बसी से
भी चाय गिरने
को होने लगी
तो प्रोफेसर
चिल्लाया कि
रूकिए, आप
होश में हैं, पागल हैं! अब
चाय फर्श पर
गिर जाएगी। अब
एक बूंद भी
चाय इस प्याली
में नहीं रखी
जा सकती।
फकीर
ने कहा: 'मैं
तो सोचता था
कि तुम में
बुद्धि नहीं
है, लेकिन
तुम
बुद्धिमान
आदमी हो!
तुम्हें यह
बात समझ में आ
गयी कि प्याली
इतनी भरी है
कि इसमें एक
बूंद भी चाय
नहीं बन सकती।
और तुम्हारी
भीतर की
प्याली में
तुम सोचते हो
निर्वाण समा
सकता है, ध्यान
समा सकता है, ईश्वर समा
सकता है? तुमने
कभी नजर की कि भीतर
की प्याली
कितनी भरी है?
लबालब भरी
है! अरे, मेरे
फर्श पर चीजें
गिर रही हैं
तुम्हारे भीतर
की प्याली से!
तुम जब जाओगे,
मुझे फर्श
की घिस—घिस कर
सफाई करनी
पड़ेगी। पहले
प्याली साफ
करके आओ, फिर
पूछना ऐसे
गहरे सवाल। ये
सवाल नहीं हैं
कि जिनके कोई
भी जवाब दे दे।
पात्रता
चाहिए!'
'कब जाम भरे, कब दौर चले!'
स्वभाव, जाम
भी भरेगा, दौर
भी चलेगा।’ कब आए इधर
मालूम नहीं!' आना भी होगा
उसका। आया ही
हुआ है।’ उट्ठे
भी अगर, ठहरे
भी कहां!' मत
घबड़ाओ कि साकी
कहीं ऐसा न हो
कि तुम्हें छोड़
कर ही चला जाए,
कि किसी
दूसरे के पात्र
में ढाल दे और
तुम्हारा
पात्र खाली ही
रह जाए। साकी
की नजर मालूम
नहीं, कहां
रूके, कहां
न रूके, हम
पर रूके न
रूके।
नहीं, न
वहां देर हैं
न अंधेर है
परमात्मा की
तरफ से।
परमात्मा
चाहो तो
परमात्मा कहो,
जीवन का परम
नियम कहना
चाहो तो परम
नियम कहो—तुम्हारी
मौज। ये सिर्फ
शब्दों की
बातें हैं।
धर्म कहना
चाहो तो धर्म
हो। ये
सूफियों के
शब्द हैं—'साकी
की नजर'।
ये सूफियों के
शब्द हैं— 'जाम',
'दौर का
चलना'। ये
सूफियों के
प्रतीक—शब्द
हैं। यह
सूफियाना
भाशा है। मगर
बडी प्यारी!
बड़े पते की
बातें हैं!
मत
घबड़ाओ! बस
अपने पात्र को
निखार कर रखो।
तुम्हारी
श्रद्धा में
कमी न हो, तुम्हारा
समर्पण पूरा
हो। फिर बात
होती है। होना
अपरिहार्य है।
'कब जाम भरे, कब दौर चले
कब आए इधर
मालूम नहीं
उट्ठे भी
अगर, ठहरे
भी कहां
साकी की
नजर मालूम
नहीं
हम चल तो
पड़े हैं जज़बा—ए
दिल...।’
बस
तुम चलते चलो।’ हम
अक्ल की हद से
भी गुजरे!' गुजरना
ही पड़ता है।
अक्ल की हद
में जो रह गए, वे तो
व्यर्थ जीए और
व्यर्थ मरे।
अक्ल की हद तो
बड़ी छोटी हद
है। खोपड़ी की
बिसात कितनी!
बडी छोटी सी
चीज है।
हम अक्ल की
हद से भी
गुजरे
सहरा—ए—जुनूं
भी छान लिया
अब और कहां
ले जाएगी
साकी की
नज़र मालूम
नहीं
हम चल तो
पड़े हैं जज़बा—ए
दिल...।’
जहां
ले जाए उसकी
नजर—अक्ल की
हद से
गुजारेगी, पागलपन
में भी ले
जाएगी, दीवानेपन
में भी ले
जाएगी—लेकिन
ध्यान रखना, अक्ल के भी
पार जाना होता
है और
दीवानेपन के भी
पार जाना होता
है! अक्ल से
पार जाने के
लिए दीवानापन
काम आ जाता है।
दीवानापन ऐसा
ही है जैसे
पैर में एक
कांटा लगा हो
और दूसरे
कांटे से हम
पहले कांटे को
निकाल लें।
इसलिए भक्त
दीवाना हो
जाता है।
दीवानेपन से
अक्ल का कांटा
निकल जाता है।
मगर फिर
दीवानेपन को
मत पकड लेना।
दोनों कांटे
बेकार हैं।
दोनों कांटे
फेंक देना।
अक्ल के भी
पार जाना है
और दीवानेपन
के भी पार जाना
है। तभी
पहुंचना होता
है। दीवानापन
भी अक्ल का ही
दूसरा पहलू है;
इसका ही
नकारात्मक
पहलू है।
और
जहां ले जाए
उसकी नजर, चलते
चलो। अपने पर
भरोसा करके
बहुत तो देख
लिया, कहां
पहुंचे? अब
उस अज्ञात पर
भरोसा करके
देखो। और उस
अज्ञात पर
भरोसे का मजा
ही और है!
'मुमकिन हो
तो एक लमहें
के लिए
तकलीफे—तबस्सुम
कर लीजे
हममें से
अभी तक कितनों
को
मफहूमे—सहर
मालूम नहीं
हम चल तो
पड़े हैं जज़बा—ए
दिल.......
जजबात के
सौ आलम गुजरे
एहसास की
सदियां बीत
गईं
आंखों से
अभी उन आंखों
तक
कितना है
सफर मालूम
नहीं
हम चल तो
पड़े हैं जज़बा—ए
दिल.......
सफर
बहुत नहीं है।
आंखों में आंखें
पड़ी हैं, सामने
ही आंखें हैं।
मगर हमारी आंखें
पर पर्दे हैं,
परमात्मा
की आंखों पर
कोई पर्दे
नहीं हैं और न
कहीं
परमात्मा बहुत
दूर है। हमारी
आंखों पर
पर्दे हैं।
हमारी आंखों
पर जाले हैं।
हमारी आंखों
पर न मालूम
कितने जाल हैं—सिद्धांतो
के, शास्त्रों
के, शब्दों
के, न
मालूम कैसे—कैसे
जाल हैं! ये
सारे जाल काट
देने जरूरी
हैं। एक छोटे
बच्चे की तरह
सरल भाव पैदा
कर लेना जरूरी
है।
धन्यभागी
हैं वे छोटे
बच्चों की
भांति सरल हो जाते
हैं। ध्यान की
पूरी
प्रक्रिया ही
यही है कि
तुम्हें छोटे
बच्चों की
भांति सरल कर
दे,
निर्मल कर
दे, स्वच्छ
कर दे, दर्पण
से सारी धूल
पोंछ डाले।
फिर देर नहीं
लगती, तत्क्षण
आंखों से आंखें
मिल जाती हैं।
तत्क्षण
हृदय से हृदय
मिल जाता है।
तत्क्षण बूंद
उसके सागर में
लीन हो जाती
है।
और
लीन होने में
तुम कुछ खोते
नहीं, ख्याल
रखना। लीन
होने में तुम
पाते ही हो।
बूंद की तरह
मिट जाते हो, लेकिन सागर
हो जाते हो।
यह कोई खोना
हुआ? यह तो
पाना ही पाना
है।
परमात्मा
के रास्ते पर
पाना ही पाना
है,
लेकिन अगर
बुद्धि से
पूछा तो
मुश्किल खड़ी
हो जाती है।
बुद्धि कहती
है : 'खोना
ही खोना है।
सम्हलो, बचो!'
बुद्धि की
दृष्टि से सब
खोना ही खोना
है; हृदय
की दृष्टि से
पाना ही पाना
है।
ध्यान
तुम्हें
बुद्धि से
हटाता है और
हृदय में ले
आता है। और
जैसे—जैसे तुम
हृदय के करीब
आते हो वैसे—वैसे
ही पात्रता
निर्मित होती
है। संन्यास
का केवल इतना
ही अर्थ है, स्वभाव—सरलता,
श्रद्धा; यह जो अनंत
अस्तित्व है,
इस पर आस्था।
और वह आस्था
मुक्तिदायी
है, निर्वाणदायी
है, आनंददायी
है!
(उडियो
पंख पसार)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें