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बुधवार, 1 मार्च 2017

समाधि के द्वार पर-प्रवचन-02 (ओशो)




दूसरा प्रवचन
समाधि के तीन चरण

फूल किसी से पूछते नहीं--कैसे खिलें। तारे किसी से पूछते नहीं--कैसे जलें। आदमी को पूछना पड़ता है कि कैसे वह वही हो जाए, जो होने को पैदा हुआ है। सहज तो होना चाहिए परमात्मा में होना। लेकिन आदमी कुछ अदभुत है, जिसमें होना चाहिए उससे चूक जाता है और जहां नहीं होना चाहिए वहां हो जाता है। कहीं कोई भूल है। और भूल भी बहुत सीधी है: आदमी होने को स्वतंत्र है, इसलिए भटकने को भी स्वतंत्र है। शायद यह भी हो सकता है कि बिना भटके पता ही न चले। बिना भटके पता ही न चले कि क्या है हमारे भीतर। शायद भटकना भी मनुष्य की प्रौढ़ता का हिस्सा हो।
मैं एक छोटी सी कहानी से समझाऊं। फिर हम समाधि के प्रयोग के लिए बैठें।

एक आदमी था, बहुत धन था उसके पास, लेकिन शांति न थी। जैसा कि अक्सर होता है। धन की तलाश करता है आदमी कि शांति मिलेगी। धन तो मिल जाता है, पर शांति जितनी दूर थी, शायद उससे भी ज्यादा दूर हो जाती है। सब पा लिया था, लेकिन आनंद की कोई खबर न मिली थी। अब वह बूढ़ा होने आ गया था। तो उसने बहुत से लाखों-करोड़ों के हीरे-जवाहरात अपने घोड़े पर ले लिए और खोजने निकल पड़ा। खोजने नहीं, कहना चाहिए, आनंद को खरीदने निकल पड़ा। जो आनंद दे दे उसे ही वे सारे हीरे-जवाहरात दे देना चाहता था।
बहुत लोगों के पास गया, जहां-जहां खबर सुनी वहां-वहां गया, लेकिन किसी को आनंद की कोई खबर न थी। लोगों ने आनंद की बातें तो कीं। लेकिन उसने कहा, बात नहीं, मुझे आनंद चाहिए। और मैं सब कुछ देने को तैयार हूं। लेकिन कई जगह उसे लोगों ने खबर दी कि तुम कुछ ऐसा काम करने निकले हो कि सिर्फ एक फकीर है फलां-फलां गांव में, अगर वह कर दे तो कर दे, और कोई न कर पाए।
फिर आखिर वह उस गांव में भी पहुंच गया। सांझ का समय था, अमावस की रात थी, सूरज ढल गया था। गांव के बाहर ही एक वृक्ष के नीचे वह फकीर मिल गया। उस अमीर आदमी ने घोड़े से उतर कर वह थैली उस फकीर के पैरों के पास पटक दी और कहा, करोड़ों रुपये के हीरे-जवाहरात हैं, मुझे आनंद चाहिए! एक झलक मिल जाए, मैं सब देने को राजी हूं!
उस फकीर ने कहा, पक्का इरादा करके आए हो?
उस आदमी ने कहा, पक्का? महीनों से घूम रहा हूं, और उदास हो गया हूं, तुम पर ही आशा टिकी है!
उस फकीर ने कहा, सच में ही आनंद चाहिए? बहुत दुखी हो?
उस आदमी ने कहा, दुख का कोई हिसाब नहीं, आनंद की कोई किरण ही नहीं मिलती।
यह बात ही चलती थी कि अचानक उस अमीर ने देखा कि यह क्या हुआ! उस फकीर ने वह झोली उठाई और भाग खड़ा हुआ! एक क्षण तो अमीर सकते में आ गया। अमीर सिर्फ उन फकीरों पर विश्वास करता है जो पैसे न छुएं। इसलिए अमीर उनकी पूजा करता है जो पैसे से बिलकुल दूर रहें। क्योंकि अमीर उनसे आश्वस्त रहता है। इनसे कोई खतरा नहीं है। यह फकीर कैसा कि झोले को लेकर ही भाग गया? एक क्षण तो उसकी समझ में भी न आया। फिर वह चिल्लाया कि मैं लुट गया! मैं मर गया! मेरी सारी जिंदगी की कमाई लिए जा रहे हो! तुम चोर हो। तुम कैसे ज्ञानी हो? और पीछे भागा। क्योंकि अंधेरी रात थी, और सन्नाटा था, और गांव के बाहर थे। लेकिन फकीर खुद ही गांव में चला गया भागता हुआ। और अमीर पीछे गया। गली-गली में फकीर भागने लगा और अमीर पीछे चिल्लाने लगा कि पकड़ो! चोर है, बेईमान है! और मैं समझा था कि ज्ञानी है। मैं लुट गया, मैं मर गया। मैं बहुत दुखी हो गया हूं, मेरा सब छिन गया। गांव के लोग भी सम्मिलित हो लिए। गांव के लोग भी भागने लगे। लेकिन फकीर के रास्ते जाने-माने थे और अमीर रास्ते जानता न था। पराया गांव था। इसलिए फकीर ने बहुत चक्कर दिए। फिर आखिर फकीर उसी झाड़ के पास वापस लौट आया। झोले को पटक दिया जहां से उठाया था वहीं और झाड़ के पीछे अंधेरे में खड़ा हो गया। अमीर आया पीछे हांफता हुआ, भागता हुआ, चिल्लाता हुआ--लुट गया! मर गया! हे भगवान, मेरा सब छिन गया! झोले को देखा, उठा लिया, छाती से लगा लिया। उस अमीर की आंखों में उस समय आनंद की झलक थी। फकीर बाहर निकला और उसने कहा, मिला कुछ आनंद? यह भी एक तरकीब है आनंद को पाने की। उस अमीर ने कहा, बड़ी शांति मिली, बड़ा आनंद! इतना सुखी मैं कभी भी न था।
लेकिन यह थैली इसके पास पहले भी थी। पर यह कहता है, इतना सुखी मैं पहले कभी न था। और कहता है, बड़ी शांति मिली। और यह थैली पूरी की पूरी इसके पास थी घड़ी भर पहले भी। इस घड़ी भर में क्या हो गया?
इस घड़ी भर में इसने खोया। जब तक हम खो न दें उसे जो हमारे पास है, हम उसे पा नहीं सकते हैं। जब तक हम खो न दें उसे जो हमारे भीतर है, तब तक हम उसे पहचान नहीं सकते हैं। शायद इसीलिए मनुष्य को खोना पड़ता है स्वयं को, ताकि वह पा सके। हम सबने खो दिया है। हम उस फकीर और उस अमीर की कहानी में उस जगह हैं, जहां थैली फकीर ले भागा है। भला फकीर था, थैली पटक गया। हमारा मन भी ले भागा है सब कुछ। पता नहीं पटकेगा, नहीं पटकेगा। लेकिन पटक सकता है। थोड़ी तैयारी हमें दिखानी पड़े।
उस फकीर ने थैली कब पटकी? जब अमीर और दौड़ने की हिम्मत छोड़ दिया। जब अमीर बिलकुल थक गया, तब उस फकीर ने झोली पटक दी। अगर हम भी बिलकुल थक गए हों, तो वह हमारा मन झोली पटक सकता है। और हम उसे उपलब्ध हो सकते हैं, जो संपदा है, समाधि है; जो सत्य है, जो परमात्मा है। और जिस दिन हम उसे पा लेंगे, उस दिन कहेंगे, बहुत आनंद मिला। और साथ ही यह भी कहेंगे, बड़ी आश्चर्य की बात है, लेकिन जो मिला है यह सदा से मेरा ही था। लेकिन मुझे कभी पता न था।
समाधि उसकी खोज है जो हमें मिला ही हुआ है। समाधि पुनर्स्मरण है, रिमेंबरिंग है। याद है उसकी जो हमारा ही है। लेकिन यह खो देना भी जरूरी है। क्या करें इस समाधि को लाने के लिए? बहुत कुछ नहीं किया जा सकता, इतना ही कर सकते हैं कि अपने को रिसेप्टिव बना लें, ग्राहक बना लें, अपने को खुला छोड़ दें। और अगर आता हो सत्य तो आ जाए, और परमात्मा अगर आता हो तो आ जाए। इतना ही करें।
मैंने सुना है कि एक आदमी एक रात एक झोपड़े में बैठ कर, छोटे से दीये को जला कर कोई शास्त्र पढ़ता रहा था। फिर आधी रात गए थक गया, फूंक मार कर दीया बुझा दिया। और तब बड़ा हैरान हो गया! जब तक दीया जल रहा था, पूर्णिमा का चांद बाहर ही खड़ा रहा, भीतर न आया। जब दीया बुझ गया, उसकी धीमी सी टिमटिमाती लौ खो गई, तो चांद की किरणें भीतर भर आईं। द्वार-द्वार, खिड़की-खिड़की, रंध्र-रंध्र से चांद भीतर नाचने लगा। वह आदमी बहुत हैरान हो गया! उसने कहा कि एक छोटा सा दीया, इतने बड़े चांद को बाहर रोके रहा?
हम भी बहुत छोटे-छोटे दीये जलाए हैं अपने अहंकार के, मैं के, उनकी वजह से परमात्मा का चांद बाहर ही खड़ा रह जाता है। समाधि का अर्थ है: फूंको और बुझा दो इस दीये को, हो जाने दो अंधेरा। मिटा दो यह ज्योति जिसे समझा है मैं, और तत्काल चारों तरफ से वह आ जाता है, सब तरफ से आ जाता है, जो हमारे इस छोटे से अहंकार ने, मैं ने रोक रखा है।
इसलिए समाधि के तीन चरण मैंने आपसे कहे--अंधकार, अकेला होना, और मिट जाना। बुझ जाए दीया, प्रकाश परमात्मा का तत्काल मिल जाता है।
पहला चरण है: अंधकार।
अगर कोई पहले चरण को ही पूरा कर ले, तो सब बात हो जाए। अगर कोई पूरे अंधकार में ही डूब जाए पूरी तरह, तो खुद भी मिट जाए, अंधेरा ही रह जाए। पहला चरण भी पूरा हो जाए, तो सब बात हो जाए। लेकिन वह पूरा नहीं हो पाता, इसलिए दूसरा करना पड़ता है। दूसरा भी पूरा हो जाए कि सच में ही मुझे ज्ञात हो जाए कि मैं बिलकुल अकेला हूं, तो वह हमें मिल जाएगा जो सदा से अकेला ही है। लेकिन वह भी नहीं हो पाता, इसलिए तीसरा चरण उठाना पड़ता है--मिट गया हूं। अगर मिट जाऊं पूरा तो अभी मिल जाए, वह जिसकी तलाश है। वह खुशी जो मुझे कभी न मिली, क्योंकि मैं ही तो दुख का कारण था। मुझे खुशी मिलेगी भी नहीं। वह रोशनी जो मुझे कभी दिखाई न पड़ी, क्योंकि मैं ही तो टिमटिमाता दीया था, जिसने कि बड़े सूरज को रोक दिया। वह स्वर, वह संगीत जो मुझे कभी सुनाई न पड़ा, अभी सुनाई पड़ जाए। लेकिन मेरे मैं की धुन बहुत मजबूत है, और उसी में हम लीन हैं। वहां हम भीतर मैं और मैं और मैं कहे चले जा रहे हैं।
कबीर ने कहा है कि देखा था एक बकरा जो मैं-मैं-मैं-मैं किए जाता था। फिर मर गया वह बकरा। उसकी चमड़ी से किसी ने तानपूरे के तार बना लिए। और मैं उस रास्ते से गुजरता था। और मैंने उस तानपूरे पर ऐसा गीत सुना जो मैंने कभी न सुना। तो मैंने रोका उस आदमी को और कहा कि कहां से पाए ये तानपूरे? उसने कहा, देखा नहीं, एक बकरा था यहां जो मैं-मैं-मैं किए जाता था। यह वही है। मर गया मैं करने वाला। अब तानपूरे का तार हो गया। अब बड़ा संगीत पैदा हो रहा है।
लेकिन जब तक मैं-मैं पैदा होती थी, तब तक वह संगीत पैदा नहीं होता था। वह मैं-मैं भीतर हम भी कहे जा रहे हैं, तो हम वीणा नहीं बन पाते परमात्मा की कि उसमें वह संगीत पैदा हो जाए। लेकिन हो सकता है।
कबीर खूब हंसने लगे कि यह तो खूब रही, जिंदा बकरा संगीत न गा सका, सिर्फ मैं-मैं करता रहा, और मरा बकरा संगीत पैदा कर रहा है!
कबीर ने लौट कर अपने साथियों से कहा, क्या अच्छा न हो कि हम भी मर जाएं! छोड़ दें मैं-मैं, मर जाएं! अभी मैं देख कर आ रहा हूं चमत्कार! एक जिंदा बकरा कभी गीत न गा सका, मर कर गीत गा रहा है। तो हम भी मर जाएं न!
वही मैं कह रहा हूं कि मिट जाएं! तो फिर रह जाए संगीत। हमारे मिटते ही रह जाता है।
मिटने के तीन चरण हम उठाएंगे। पहले चरण में पांच मिनट तक परिपूर्ण अंधकार का भाव करेंगे। ध्यान रखें, कोई किसी को छू न रहा हो, अगर छू रहा हो तो थोड़ा हट कर बैठ जाएंगे। कोई भी किसी को छूता हुआ नहीं हो।
आंख बंद कर लें, शरीर ढीला छोड़ दें। शरीर ढीला छोड़ दें, आंख बंद कर लें। और देखें, अंधकार ही अंधकार है...चारों ओर अंधकार ही अंधकार है...अनंत अंधकार है...सब ओर, सब दिशाओं में अंधकार ही अंधकार है...भाव करें, देखें, अनुभव करें, अंधकार ही अंधकार है...सब मिट गया, बस अंधकार ही अंधकार रह गया। चारों ओर घुप्प अंधकार है। इस अंधकार को पांच मिनट तक अनुभव करते रहें, अंधकार ही अंधकार है...। न कुछ सूझता, न कुछ दिखाई पड़ता, बस अंधकार ही अंधकार है...। और जैसे-जैसे अंधकार गाढ़ा होगा, और जैसे-जैसे अंधकार घना होगा, और जैसे-जैसे अंधकार ही अंधकार रह जाएगा, वैसे-वैसे एक अपूर्व शांति सब तरफ से उतरने लगेगी। रोएं-रोएं में, हृदय की धड़कन-धड़कन में, श्वास-श्वास में शांति उतर आएगी।
देखें, अनुभव करें, अंधकार ही अंधकार है...अंधकार ही अंधकार है...एक पांच मिनट के लिए बस अंधकार को ही देखते रहें, और देखते-देखते ही मन शांत होता जाएगा। अंधकार ही अंधकार है...अंधकार ही अंधकार है...अनंत अंधकार है...सब ओर अंधकार है...अंधकार ही अंधकार है...। और मन शांत होता जा रहा है, मन शांत हो रहा है, मन शांत हो रहा है, मन शांत हो रहा है, मन बिलकुल शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया...अंधकार ही अंधकार है...अनंत अंधकार है...चारों ओर अंधकार है...अंधकार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। मन शांत हो गया है, मन शांत हो गया है। अंधकार ही अंधकार है...बस केवल अंधकार है...और मन शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया...मन शांत हो गया है, मन बिलकुल शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया। अंधकार ही अंधकार है...चारों ओर अंधकार है...अनंत अंधकार है...। और मन, और मन बिलकुल शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया। इस अंधकार को ठीक से पहचान लें। समाधि का पहला चरण है: परिपूर्ण अंधकार, जहां कुछ देखने को नहीं, जहां कुछ खोजने को नहीं, अंधकार, केवल अंधकार है। और मन शांत हो गया।
अब धीरे-धीरे आंखें खोल लें...जैसी शांति भीतर है वैसी ही बाहर भी दिखाई पड़ेगी। धीरे-धीरे आंख खोलें...बाहर भी सब शांत है, धीरे-धीरे आंख खोल लें...
फिर दूसरा चरण समझें, और उसके लिए तैयार हों।
समाधि का दूसरा चरण है: अकेले होने का बोध।
अकेले होने से ज्यादा सुंदर कुछ भी नहीं है।
मैंने सुना है कि किसी देश में, किसी गरीब माली के घर में, बहुत से सुंदर फूल खिले थे। सम्राट तक खबर पहुंच गई थी। सम्राट भी प्रेमी था फूलों का। उसने कहा, मैं भी आऊंगा। कल सुबह जब सूरज ऊगेगा, तो तेरी बगिया में फूल देखने मुझे भी आना है।
माली ने कहा, स्वागत है आपका।
दूसरे दिन सुबह सम्राट पहुंचा। वजीरों ने कहा था, मित्रों ने कहा था, हजारों फूल खिले हैं। लेकिन जब सम्राट पहुंचा तो बहुत चकित रह गया--सारे बगीचे में बस एक डंठल पर एक ही फूल था! सम्राट ने माली से कहा, मैंने तो सुना था बहुत फूल खिले हैं। वे सब फूल कहां हैं?
तो वह माली हंसने लगा, उसने कहा, भीड़ में सौंदर्य कहां! एक को ही बचा लिया है। क्योंकि सुना है जानने वालों से कि अकेले के अतिरिक्त और सौंदर्य कहीं भी नहीं।
पता नहीं वह सम्राट समझा या नहीं समझा, लेकिन निश्चित ही वह माली केवल फूलों का माली न रहा होगा, वह आदमियों का भी माली रहा होगा। जीवन में जो भी सुंदर है वह अकेले में ही खिलता है, फूलता है, सुगंधित होता है। जीवन में जो भी श्रेष्ठ है वह सब अकेले में पैदा हुआ है। भीड़ ने कुछ भी महान को जन्म नहीं दिया--न कोई गीत, न कोई सौंदर्य, न कोई सत्य, न कोई समाधि। नहीं, भीड़ में कुछ भी पैदा नहीं हुआ। जो भी जन्मा है, एकांत में, अकेले में जन्मा है।
लेकिन हम अकेले होते ही नहीं। हम सदा भीड़ में घिरे हैं। या तो बाहर की भीड़ से घिरे हैं या भीतर की भी भीड़ से घिरे हैं। भीड़ से हम छूटते ही नहीं। क्षण भर को अकेले नहीं होते। इसलिए जो भी महत्वपूर्ण है जीवन में, वह चूक जाता है।
समाधि में तो केवल वे ही जा सकते हैं, जो बाहर की ही भीड़ से नहीं, भीतर की भीड़ से भी मुक्त हो जाते हैं, बस अकेले रह जाते हैं। निपट अकेले, टोटली अलोन, कुछ है ही नहीं, बस अकेला हूं, अकेला हूं, अकेला हूं। सत्य भी यही है। अकेले ही जन्मते हैं, अकेले ही मरते हैं, अकेले ही होते हैं, लेकिन भीड़ का भ्रम पैदा कर लेते हैं कि चारों तरफ भीड़ है। उस भीड़ के बीच इस भांति खो जाते हैं कि कभी पता ही नहीं चलता कि मैं कौन हूं।
तो दूसरा चरण है: अकेले हो जाने का भाव। पांच मिनट तक हम अकेले हो जाने का भाव करेंगे।
आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। एक मिनट तक अंधकार का भाव करें, चारों ओर अंधकार ही अंधकार है, अनंत अंधकार है, अंधकार, अंधकार, अंधकार। न कुछ दिखाई पड़ता, न कुछ सूझता, बस अंधकार ही अंधकार है। कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता--लेकिन मैं हूं, अंधकार है और मैं हूं, और मैं बिलकुल अकेला हूं। न कोई संगी है, न कोई साथी है। अकेला हूं, बिलकुल अकेला हूं। मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं। श्वास-श्वास में, शरीर के रोएं-रोएं में, मन के कोने-कोने में, बस एक ही भाव बैठ जाने दें: मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं। और जैसे-जैसे यह भाव गहरा होगा, वैसे-वैसे अपूर्व शांति जन्मने लगेगी, भीतर सब शांत हो जाएगा।
मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं। न कोई संगी, न कोई साथी, रास्ता सूना है, निर्जन है, अंधकार है और मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं...पांच मिनट के लिए बिलकुल अकेले हो जाएं...मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं...
मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं...मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं...मन बिलकुल शांत हो गया है, मन बिलकुल शीतल और शांत हो गया है...मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं...
मन शांत हो गया है, मन बिलकुल शांत हो गया है, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया। मैं अकेला हूं। डूब जाएं, बिलकुल डूब जाएं, अंधेरा है, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं। कोई नहीं, कोई नहीं, कोई संगी नहीं, साथी नहीं, मैं अकेला हूं। और अकेले होते-होते सब शांत हो जाता है...
मन शांत हो गया है, मन शांत हो गया है, मन शांत हो गया है, मन शांत हो गया, मन बिलकुल शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया। मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं। और जैसे-जैसे अकेले हो जाएंगे, वैसे-वैसे ही शांत हो जाएंगे। श्वास-श्वास शांत हो गई है, रोआं-रोआं शांत हो गया है, मन शांत हो गया है। मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं। देखें, भीतर देखें, सब कैसा शांत हो गया, सब कैसा शांत हो गया। इस अकेले होने को ठीक से पहचान लें, समाधि का दूसरा चरण है। ठीक से पहचान लें, यह अकेला होना क्या है, यह अकेले होने की शांति क्या है। मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं। और मन शांत हो गया, मन शांत हो गया है, मन शांत हो गया है, मन शांत हो गया है।
अब धीरे-धीरे आंख खोलें...जैसी शांति भीतर है, वैसी ही शांति बाहर है। और जो भीतर अकेला होना पहचान ले, वह फिर बाहर की भीड़ में भी अकेला है। देखें...आंख खोलें...बाहर देखें...कितने लोग हैं चारों ओर, लेकिन फिर भी मैं तो अकेला हूं। धीरे-धीरे आंख खोलें...देखें...कितने लोग हैं चारों ओर, फिर भी मैं तो अकेला हूं।
अब तीसरे प्रयोग को समझ लें, फिर उसे करें।
तीसरा प्रयोग है: मरने का, मिटने का, ना-कुछ हो जाने का।
जाता था कोई बुद्ध के पास, पूछता था, ज्ञान कहां पाएं? बुद्ध कहते, चले जाओ मरघट में। चौंकता वह आदमी! सोचता, सुनने में भूल हो गई। फिर पूछता, समझा नहीं। आनंद पाना है, सत्य पाना है। कहां जाऊं? कैसे पाऊं? बुद्ध कहते, मरघट में। तब भूल की गुंजाइश न रहती। सोचता, शायद मजाक करते होंगे। लेकिन बुद्ध हंसते और कहते, मजाक नहीं करता, जाओ महीने, दो महीने, चार महीने मरघट में ही रह जाओ। अनेक भिक्षुओं को मरघट में रहने भेज देते।
सोचें, तीन-चार महीने मरघट में रहना पड़े आपको, सुबह से सांझ, सांझ से सुबह। सूरज भी वहीं निकले, सूरज वहीं ढले, रात वहीं आए, दिन वहीं आए, सांझ वहीं, सुबह वहीं, अंधेरा वहीं घिरे, प्रकाश वहां फैले। और दिन भर कोई आए, रोते हुए लोग आएं, लाशें आएं, अरथियां आएं, आग पर चढ़ें, चिता में जलें, और दिन भर यही चले, और आप देखते रहें, देखते रहें। क्या यह असंभव है कि कुछ दिन में किसी क्षण आपको यह खयाल आ जाए कि यह और कोई नहीं जल रहा, मैं ही जल रहा हूं, समय का थोड़ा फासला है। आज जो जल रहा है, कल मैं जलूंगा।
क्या मुश्किल है कि मरघट पर खयाल न आ जाए? और जिसे यह खयाल आ जाए कि मैं भी मरूंगा, उसकी जिंदगी में बड़ा फर्क हो जाता है। तब फिर वह वैसा ही नहीं जीता जैसा कल तक जीता था। और जिसे यह खयाल आ जाए मैं मरूंगा ही, उसे यह भी पता चल जाता है कि जो मरेगा ही वह मरा हुआ होगा ही, अन्यथा मरेगा कैसे? और जिसे यह खयाल आ जाए कि कुछ है मेरे भीतर जो मरेगा ही, उसकी यह खोज भी शुरू हो जाएगी कि होगा जरूर कुछ--शायद हो या न हो, पता तो लगाएं--जो नहीं मरेगा। लेकिन इसका पता तो बिना मरे कैसे लगे? मरें तो ही पता लगे कि कुछ बचता है या नहीं बचता है?
तो समाधि का गहरा से गहरा जो चरण है, वह है मर जाने की प्रतीति--मर गया हूं मैं, समाप्त हो गया हूं मैं। और जैसे ही कोई देख ले अपने को ही मरा हुआ, पड़ा हुआ, वैसे ही उसे उसकी पहचान भी हो जाती है जो देख रहा है। खुद को ही मरा हुआ जो देख रहा है वह मैं नहीं हूं, वह वही है जो है। या ऐसा कहें कि वही मैं हूं जो असली मेरा मैं है--जो देखता है, जो जानता है, जो मरते समय यह भी देखेगा कि मैं मर रहा हूं।
सुकरात मरा, जहर दिया था उसे, लेट गया था जहर पीकर। मित्र रो रहे थे चारों तरफ, और सुकरात कहता था, रोओ मत, देखो मैं मर रहा हूं। लेकिन उन्हें कहां फुर्सत थी देखने की! सुकरात कहता था, देखो मेरे पैर तक मैं मर गया हूं, घुटने तक मर गया हूं, अब घुटने तक का मुझे पता नहीं चलता कि शरीर है। लेकिन बड़ा आश्चर्य है, घुटने तक मैं मर गया हूं, लेकिन मैं तो जितना था उतना ही अब भी मालूम हो रहा हूं! फिर सुकरात कहने लगा, कमर तक मर गया हूं, अब कमर तक मुझे पता नहीं चलता। लेकिन सुनो, आश्चर्य, कि मैं तो उतना ही हूं जितना था! फिर सुकरात कहने लगा, हाथ भी शिथिल हो गए है, हाथ भी मर गए हैं, अब हाथ हिला नहीं सकता। लेकिन मैं तो अब भी हूं! जो हाथ को हिलाता था वह अब भी है! तब सुकरात कहने लगा, जल्दी ही हृदय की धड़कन भी बंद हो जाएगी। शायद मैं तुमसे कहने को न बचूं कि अब भी हूं। लेकिन जब पैर के मरने पर मैं न मरा; जब हाथ के मरने पर मैं न मरा; जब कमर तक सब समाप्त हो गया, मैं न मरा; और जब मेरी आंखें नहीं खुल रहीं और मैं हूं; तो शायद जब मेरा हृदय भी बंद हो जाएगा, तब भी मैं होऊंगा। लेकिन मैं शायद बचूं न कहने को।
ध्यान की, समाधि की गहरी प्रतीति में ऐसा ही होगा। लगेगा: यह रहा शरीर, मर गया। यह पड़ा है शरीर, यह धड़कन चल रही है--दूर हमसे, मीलों फासले पर। यह श्वास भी चल रही है, लेकिन जैसे कोई और लेता हो। और यह रहा मैं, और देखता हूं, जानता हूं, साक्षी हूं। मैं कुछ और हूं और जिसे मैंने समझा था कि मैं हूं वह मैं नहीं हूं। लेकिन तीसरा प्रयोग गहरे में उतरे बिना खयाल में नहीं आ सकता है। इसलिए अब हम तीसरा प्रयोग करें। फिर चौथे प्रयोग में तीनों प्रयोगों को इकट्ठा करेंगे।
आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। एक मिनट देखें: अंधकार ही अंधकार है, चारों ओर अंधकार ही अंधकार है। चारों ओर अंधकार ही अंधकार है...अनंत अंधकार है...। फिर एक मिनट जानें--मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं। और अब तीसरा प्रयोग करें, मैं मर रहा हूं। भाव करें, मर रहा हूं। यह शरीर, यह श्वास, यह प्राण, यह धड़कन, यह सब जा रही, सब जा रही। मैं मर रहा हूं, मैं मर रहा हूं, मैं मिटता जा रहा हूं, मैं मर रहा हूं, मैं मिट रहा हूं, मैं समाप्त हो रहा हूं। मैं मर गया हूं, मैं हूं ही नहीं। मैं मिट गया हूं, मैं हूं ही नहीं। पांच मिनट के लिए इस न होने में डूब जाएं। मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं। और जैसे-जैसे डूबेंगे, वैसे ही अपूर्व शांति सब तरफ से घेर लेगी। मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं हूं ही नहीं। मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं। और मन बिलकुल शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया। मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं। मन शांत हो गया, मन बिलकुल शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया है, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया है, मन शांत हो गया है, मन बिलकुल शांत हो गया है। मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया। मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं बिलकुल नहीं हूं। मन शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया। मैं नहीं हूं, वही रह गया जो सदा है। मैं नहीं हूं, वही बच रहा जो सदा है। मैं नहीं हूं, लहर खो गई, सागर ही रह गया, लहर खो गई, सागर ही रह गया। इस भाव को ठीक से पहचान लें, समाधि का तीसरा चरण, इसे ठीक से प्राणों में सम्हाल लें। मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, वही रह गया है वही रह गया है जो है, जो सदा है, जो सब में है।
फिर धीरे-धीरे आंख खोलें...देखें...सदा देखा है, मैं था, ऐसे...आंख खोलें, ऐसे देखें जैसे मैं नहीं हूं, तब भीतर से वही देखता है, जो बाहर भी दिखाई पड़ रहा है। धीरे-धीरे आंख खोलें...देखें...ऐसे जैसे मैं नहीं हूं, तब वही है भीतर और वही है बाहर, वही है देखने वाला, वही है जो दिखाई पड़ रहा है। धीरे-धीरे आंख खोलें...।
ये तीन चरण हैं। समाधि इन तीनों का इकट्ठा प्रतिफलन, इकट्ठा जोड़ है। एक ही साथ अंधेरा--अकेला होना और फिर मिट जाना--इन तीनों को इकट्ठा करेंगे। और जब तीनों को इकट्ठा करें, तो परिपूर्ण भाव से करना है। पूरे भाव से छोड़ ही देना है अपने को। कुछ बचाना ही नहीं, छोड़ ही देना, छोड़ देना, सब छोड़ देना, ताकि वही रह जाए जिसे हम छोड़ना भी चाहें तो नहीं छोड़ सकते हैं।
आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें और समाधि में प्रवेश करने की तैयारी करें। शरीर को ढीला छोड़ दें, आंख बंद कर लें। शरीर गिरे तो गिर जाए, चिंता न करें; झुके तो झुक जाए, चिंता न करें; ढीला छोड़ दें, आंख बंद कर लें।
पहला चरण: अंधकार ही अंधकार है, बस अंधकार ही अंधकार है, चारों ओर अंधकार ही अंधकार है...। छोड़ दें, बिलकुल अंधेरे में छोड़ दें, चारों ओर अंधकार ही अंधकार है, अंधकार ही अंधकार है...। शरीर शिथिल होता जाएगा, छोड़ दें...शरीर शिथिल हो रहा, शरीर शिथिल हो रहा, सब शिथिल हो जाएगा। बस अंधकार ही अंधकार है...और सब शांत हो गया। श्वास भी धीमी और शांत हो जाएगी, उसे भी छोड़ दें। श्वास भी शांत होती जा रही है। मैं अकेला हूं, मैं बिलकुल अकेला हूं, कोई संगी नहीं, कोई साथी नहीं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं...
और मैं भी खोता जा रहा हूं, जैसे बूंद सागर में गिरे और खो जाए, मैं भी खो रहा हूं, मैं भी मिट रहा हूं, मैं भी मर रहा हूं। सब समाप्त होता जा रहा है। मैं मर रहा हूं, मैं मर रहा हूं, मैं मिट रहा हूं। न यह शरीर हूं मैं, न यह श्वास हूं मैं, न यह मन हूं मैं, यह सब मिट रहा है, यह सब समाप्त हो रहा है, यह सब मर रहा है...
मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं। छोड़ दें, अपने को बिलकुल छोड़ दें, मिट जाएं। मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं। और भीतर, और भीतर, और गहरे में छोड़ दें अपने को, कहीं कोई पकड़ न रखें, मिट ही जाएं। मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं। सब शांत, सब मौन हो गया है। सब शांत, सब मौन हो गया है। सब शून्य हो गया है।
इसी शून्य में जागता है, इसी शून्य में उठता है आनंद। सब तरफ से घेर लेगा। शांति और आनंद सब तरफ बरसने लगेंगे। मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं मिट गया हूं, मैं समाप्त हो गया हूं। एक अपूर्व शांति, एक अपूर्व आनंद की लहर दौड़ने लगेगी। मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं...वही रह गया जो सदा है...वही रह गया जो मेरे पहले था और मेरे बाद भी होगा...मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं...मन शांत हो गया, प्राण शांत हो गए, सब शांत हो गया। आत्मा की झील पर कोई लहर नहीं, सब शांत हो गया। आत्मा के सागर पर एक भी लहर नहीं, सब शांत हो गया। और पहचानें, देखें--भीतर कैसा आनंद! पहचानें--भीतर कौन है यह जो जान रहा, देख रहा? कौन है यह साक्षी, जो स्वयं को ही मरा हुआ देख रहा? कौन है? भीतर, और भीतर, और भीतर देखें--कौन है जो जान रहा? कौन है जो ज्ञाता है? कौन है जो द्रष्टा है? यही है, यही है सत्य। आत्मा आनंद से भर गई है।
अब धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें। प्रत्येक श्वास आनंद से, शांति से भरी हुई रहेगी। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें, धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें। प्रत्येक श्वास शांति और आनंद से भर गई है। फिर धीरे-धीरे आंख खोलें। जो भीतर है वही बाहर भी है।
इस प्रयोग को रात सोते समय करें, और करते-करते ही सो जाएं। और ऐसा न समझें कि मेरे साथ दो-चार दिन कर लिया तो हो गया, उसे रोज करते रहें रात सोते वक्त। धीरे-धीरे गहरे से गहरा उतर जाएगा, और आप कब दूसरे आदमी हो गए, यह आपको पता भी नहीं चलेगा। कब कली फूल बन गई, कहां पता चलता है! कब पक्षी उड़ गया और पंख फैला दिए आकाश में, कब पता चलता है! लेकिन जब फैल जाते हैं आकाश में पंख, तो सब बदल जाता है। एक जिंदगी है जमीन पर सरकने की, और एक जिंदगी है मुक्त आकाश में उड़ने की। और जब खिल जाती है कली--शोर नहीं होता, आवाज नहीं होती, किसी को पता नहीं चलता, कहीं खटका नहीं होता--लेकिन सुगंध बिखर जाती है चारों ओर, और धन्य हो जाता है फूल खिल कर पूरा, आनंद से विभोर, वह प्रभु के चरणों में समर्पित हो जाता है। धीरे-धीरे रोज करते रहें रात सोते समय, कभी भी, कभी भी घटना घट सकती है।
और कल के लिए एक सूचना। तीन रात हमने ध्यान किया, हम समझ गए कि क्या करना है। कल एक चौथा अलग ही प्रयोग करेंगे। लेकिन कल सिर्फ वे ही लोग आएंगे जो तीन दिन आए हैं, किन्हीं नये मित्रों को न ले आएं। कल होगा मौन पूरे घंटे भर। साइलेंट कम्युनिकेशन। शब्द से बहुत कुछ कहता हूं, लेकिन जो कहने योग्य है वह शब्द से नहीं कहा जा सकता है। तीन दिन हम चुप बैठे हैं यहां, कल घंटे भर मेरे पास चुप बैठेंगे। न मैं बोलूंगा कुछ, न आप बोलेंगे कुछ। लेकिन फिर भी मैं बोलूंगा--उसी मौन से! और फिर भी आप सुनेंगे--उसी मौन से! चुपचाप बैठ कर सुनने की प्रतीक्षा भर करना, शांत हो जाना, जैसे हम ध्यान करते हैं, ऐसा ही चुपचाप घंटे भर कल बैठेंगे। मैं मौजूद रहूंगा, किसी के मन में अचानक लगे कि मेरे पास आना है, तो वह चुपचाप मेरे पास आ जाएगा, दो मिनट मेरे पास बैठेगा, फिर अपनी जगह लौट जाएगा। लेकिन कोई आ रहा है दूसरा, यह देख कर कोई न आए। किसी को आने जैसा लग जाए, आ जाए। और किसी को आने जैसा लगे, तो संकोच में रुके भी न, आ ही जाए।


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