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बुधवार, 1 मार्च 2017

तृषा गई एक बूंद से-प्रवचन-03 (ओशो)



तीसरा प्रवचन
संकल्प की कुंजी

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक बगीचे में मैं गया था। एक ही जमीन थी उस बगीचे की। एक ही आसमान था उस बगीचे के ऊपर। एक ही सूरज की किरणें बरसती थीं। एक सी हवाएं बहती थीं। एक ही माली था। एक सा पानी गिरता था। लेकिन उस बगीचे में फूल सब अलग-अलग खिले हुए थे। मैं बहुत सोच में पड़ गया। हो सकता है कभी किसी बगीचे में जाकर आपको भी यह सोच पैदा हुआ हो।
जमीन एक है, आकाश एक है, सूरज की किरणें एक हैं, हवाएं एक हैं, पानी एक है, माली एक है। लेकिन गुलाब पर गुलाबी फूल हैं, चमेली पर सफेद फूल हैं। सुगंध अलग है। एक ही जमीन और एक ही आकाश से और एक ही सूरज की किरणों से ये अलग-अलग फूल, अलग-अलग रंग, अलग-अलग सुगंध, अलग-अलग ढंग कैसे खींच लेते हैं?

मैं उस माली को पूछने लगा। उसने कहा, सब एक है, लेकिन खींचने वाले बीज अलग-अलग हैं।
छोटा सा बीज लेकिन क्या खींच लेता होगा?
जरा सा बीज, इतने बड़े आकाश और इतनी बड़ी जमीन और इतने बड़े सूरज और इतनी हवाओं को, इन सबको एक तरफ फेंक कर अपनी ही इच्छा का रंग खींच लेता है! इतनी बड़ी दुनिया को एक तरफ हटा कर एक छोटा सा बीज अपनी ही इच्छा की सुगंध खींच लेता है! एक छोटे से बीज का संकल्प इतना बड़ा है, जितना आकाश नहीं, जितनी पृथ्वी नहीं! और एक बीज वही हो जाता है जो होना चाहता है! एक छोटे से बीज के भीतर ऐसा क्या हो सकता है?
हर बीज की अपनी इच्छा है, अपना विल, अपना संकल्प है। वह छोटा सा बीज वही खींचता है जो खींचना चाहता है, और सब पड़ा रहे, वह उसे छूता भी नहीं। गुलाब गुलाब बन जाता है, चमेली चमेली बन जाती है। पास में ही चमेली बन गई है चमेली, पास में ही गुलाब गुलाब बन गया है। एक ही मिट्टी से दोनों ने ताकत खींची है। गुलाब की सुगंध अलग है, चमेली की सुगंध अलग है, रंग-ढंग सब कुछ अलग है।
जिंदगी में अनंत संभावनाएं हैं। लेकिन हम वही बन जाते हैं जो हम उन संभावनाओं में से अपने भीतर खींच लेते हैं। अनंत विचारों का विस्तार है, अनंत विचारों की तरंगें हैं चारों तरफ। लेकिन हम उन्हीं विचारों को अपने पास खींच लेते हैं, जिन विचारों को खींचने की क्षमता, मैगनेट, जिन विचारों को खींचने की रिसेप्टिविटी हमारे भीतर होती है।
इसी दुनिया में एक आदमी बुद्ध हो जाता है। इसी दुनिया में एक आदमी जीसस हो जाता है। इसी दुनिया में एक आदमी कृष्ण हो जाता है। और इसी दुनिया में हम कुछ भी नहीं होते और ना-कुछ होकर मिट जाते हैं और खतम हो जाते हैं। और जिस दुनिया से खींची जाती हैं सारी चीजें, वह बिलकुल एक है--वह आकाश एक, वह जमीन एक, वह चारों तरफ की हवाएं एक, वे सूरज-चांदत्तारे एक--वह सब एक, और हर आदमी अलग-अलग कैसे हो जाता है? और हमारी शक्ल-सूरत भी एक सी मालूम पड़ती है, हमारे शरीर भी एक से मालूम पड़ते हैं, हमारी हड्डी-मांस-मज्जा भी एक सी मालूम पड़ती है। फर्क कहां पड़ जाता है? आदमी के व्यक्तित्व अलग-अलग कहां हो जाते हैं? कोई आदमी बुद्ध कैसे हो जाता है? कोई आदमी अंधकार में कैसे खड़ा रह जाता है? कोई आदमी प्रकाश में कैसे उठ जाता है?
वह जो मैंने कल कहा उस बात को समझ लेना जरूरी है। मैंने कल कहा कि मनुष्य के व्यक्तित्व में सात केंद्र हैं, सात चक्र हैं। और जो केंद्र सक्रिय होता है वह अपने अनुकूल चारों तरफ से सब कुछ खींच लेता है। केंद्र एक रिसेप्टिविटी बन जाता है, एक ग्राहकता बन जाता है। अगर क्रोध का केंद्र सक्रिय है, तो वह आदमी अपने चारों तरफ से क्रोध की सारी लहरों को समाविष्ट कर लेगा। अगर प्रेम का केंद्र सक्रिय है, तो चारों तरफ से प्रेम की धाराएं उस आदमी की तरफ दौड़ने लगेंगी। अगर काम का केंद्र सक्रिय है, तो सारे चारों तरफ से कामवासना उसकी तरफ दौड़ने लगेगी। वह एक खड्ड की तरह बन जाएगा और चारों तरफ की धाराएं, जो उसने मांगा है उसकी तरफ आनी शुरू हो जाएंगी।
परमात्मा प्रत्येक को वही दे देता है जो हम चाहते हैं। और कभी भूल कर परमात्मा को यह मत कहना कि यह तूने हमें कैसे दे दिया जो हमने नहीं चाहा था! आज तक किसी आदमी को वह नहीं मिला है जो उसने न चाहा हो। लेकिन हमें पता ही नहीं होता कि हम क्या चाहते हैं। हम बहुत अंधेरे में चाहते रहते हैं और वही होता चला जाता है जो हम चाहते हैं। फिर हम दोष देते हैं।
अगर चमेली का बीज यह दोष दे परमात्मा को कि तूने मुझे सफेद फूल क्यों दे दिया? सुर्ख फूल के लिए पागल थी मैं! तो वह चमेली गलत कहती है। क्योंकि उसके बीज ने कभी सुर्ख फूल चाहा ही नहीं था। हम जो हैं वह हमारी चाह का परिणाम है। हमने जो चाहा है वही हमारे चारों तरफ से खिंच कर हमारे पास आ गया है। हम जो हो गए हैं वह हमारे बीज ने मांगा है, पुकारा है इसलिए हो गए हैं।
फिर एक आदमी क्रोध में जीता है, अशांति में जीता है, लोभ में जीता है, भय में, वासना में, और फिर वह पूछता है--कहां है ईश्वर? कहां है परमात्मा? कहीं दिखाई नहीं पड़ता!
ख्रुश्चेव के पहले अंतरिक्ष यात्री जब चांद के पास के फोटो लेकर आए थे, तो ख्रुश्चेव ने अपने एक भाषण में कहा कि मैं खुश हूं दुनिया को यह खबर देते हुए कि मेरे अंतरिक्ष यात्री चांद के पास होकर आ गए हैं, वहां उन्होंने किसी तरह का ईश्वर नहीं पाया।
ख्रुश्चेव को उत्तर देना मुश्किल है। क्योंकि जो लोग समझते हैं कि चांद पर या किसी तारे पर या किसी ग्रह पर ईश्वर मिल जाएगा, वे समझ लें अच्छी तरह से: आज नहीं कल, ख्रुश्चेव नहीं कोई और यह घोषणा कर देगा कि सब चांदत्तारे देख लिए गए, वहां कहीं ईश्वर नहीं है। और बड़े मजे की बात है, ऐसे लोग रहे हैं कि इसी जमीन पर उनको ईश्वर दिखाई पड़ने लगता है। और ऐसा आदमी भी है कि चांदत्तारों पर भी जाकर ईश्वर दिखाई नहीं पड़ता।
चमेली को चाहे चांद पर जाकर बो दो और चाहे जमीन पर, वह गुलाब नहीं हो जाएगी। उसे वही दिखाई पड़ेगा जो वह हो सकती है, वह वही हो जाएगी जो हो सकती है। दुनिया के किसी कोने में हम चले जाएं, हम वही होंगे जो हम थे। क्योंकि वहां भी हम वही खींच लेंगे, वही हमें दिखाई पड़ेगा, वही अनुभव होगा, जो हम खींच सकते हैं। आंख रोशनी खींचती है। कोई आंख के पास आकर कितना ही सितार बजाए, आंख सितार बजाने को नहीं सुन पाएगी। और कान के पास कोई कितने ही दीये जलाए, कान को कुछ भी पता न चलेगा कि बाहर रोशनी है और दीये जल गए हैं। और कान कहता रहेगा: कहां है रोशनी? कहीं सुनाई नहीं पड़ती। अब रोशनी सुनी जाती है कहीं! और आंख कहेगी: कहां बजती है वीणा? कुछ दिखाई नहीं पड़ता; कहां है संगीत? संगीत देखा नहीं जाता!
हम जिस यंत्र से, जिस उपकरण से जीवन को पहचानने और देखने जाते हैं, वही हमें उपलब्ध होना शुरू हो जाता है।
यह दुनिया वही बन जाती है जो हम हैं। और कल जैसा मैंने कहा कि हमारे सात केंद्र हैं। पहला और अंतिम केंद्र, पहला और सातवां केंद्र शक्ति के संग्रह हैं। वे कुछ करते नहीं, वे केवल शक्ति के आलय हैं, वे शक्ति के संग्रहालय हैं। वहां शक्ति संगृहीत है, पहले और सातवें केंद्र पर। दूसरा केंद्र शक्ति को बाहर फेंकने का केंद्र है। सेक्स का केंद्र शक्ति को बाहर फेंकने का केंद्र है। वह एक्जिट है, वहां से शक्तियां बाहर फिंक जाती हैं। इसलिए उस केंद्र पर ही जो जीवन भर जीता है, वह निरंतर अशक्त, निरंतर अशक्त होता चला जाता है। धीरे-धीरे उसकी सारी ऊर्जा बह जाती है और वह ऊर्जाहीन और शक्तिहीन हो जाता है।
छठवां केंद्र, जिसको मैंने आज्ञा कहा--मस्तिष्क में, कपाल में दोनों आंखों के बीच में--वह काम के केंद्र से ठीक उलटा केंद्र है, वह एनट्रेंस है, वह प्रवेश द्वार है। वहां से शक्तियां भीतर प्रवेश करती हैं। काम के केंद्र से शक्तियां बाहर फिंकती हैं, आज्ञा के केंद्र से शक्तियां भीतर प्रविष्ट होती हैं।
इसलिए जो आदमी वासना के जितना निकट जीएगा, उस आदमी के पास संकल्प की शक्ति उतनी ही कम होगी, क्योंकि वह आज्ञा के केंद्र से सर्वाधिक दूर होगा। जो आदमी आज्ञा के केंद्र के पास ज्यादा जीएगा, जिसका ध्यान वहां होगा, उस आदमी को पता भी नहीं चलेगा कि वासना उसके चित्त से धीरे-धीरे क्षीण हो गई है और वासना धीरे-धीरे विलीन हो गई है। क्योंकि आज्ञा का केंद्र शक्तियों का निमंत्रक है, बुलाने वाला है, अपशोषित करने वाला है, उनको पी जाने वाला है। और जितनी शक्ति आज्ञा के केंद्र पर पी ली जाती है, उतना ही व्यक्तित्व मजबूत, शक्तिशाली, ऊर्जस्वी और प्रबल और संकल्पवान होता चला जाता है।
ये दो केंद्र--सेक्स का केंद्र शक्ति के निष्कासन का, आज्ञा का केंद्र शक्ति के आमंत्रण का केंद्र है। इन दोनों के बीच के तीन केंद्र नाभि से लेकर कंठ तक--नाभि, हृदय और कंठ--वे तीनों केंद्र अंतरक्रिया के केंद्र हैं, जो शरीर की भीतरी क्रियाओं को गतिमान रखते हैं।
इन सातों केंद्रों की ठीक-ठीक समझ साधक के लिए बहुत अनिवार्य है। लोग कहते हैं: ईश्वर नहीं दिखाई पड़ता! आत्मा नहीं दिखाई पड़ती! वह जिस केंद्र से परमात्मा का संबंध जुड़ सकता है, वह सातवां केंद्र है। उस केंद्र के सक्रिय होते ही जगत विलीन होने लगता है और परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है। ऐसा नहीं कि जगत नहीं रह जाता, बल्कि ऐसा कि जगत तो रह जाता है, लेकिन जगत की भांति नहीं, जगत परमात्मा की भांति ही रह जाता है।
राबिया थी एक फकीर औरत सूफी। उसने अपने धर्मग्रंथ में पढ़ा कि शैतान को घृणा करो! उसने उस किताब में वह लकीर काट दी। एक मित्र फकीर हसन उसके घर मेहमान था। उसने सुबह-सुबह धर्मग्रंथ खोला और देखा कि उसमें तो धर्मग्रंथ में सुधार किया है किसी ने। तो उसने राबिया को पूछा कि तू पागल हो गई है, तूने सुधार किया है यह? धर्मग्रंथ में कहीं सुधार किया जा सकता है?
राबिया ने कहा कि मुझे बड़ी मजबूरी हो गई, इसलिए सुधार करना पड़ा। जब से मुझे परमात्मा दिखाई पड़ना शुरू हुआ, मुझे शैतान दिखाई ही नहीं पड़ता है। और इस किताब में लिखा है: शैतान को घृणा करो! शैतान मुझे दिखाई ही नहीं पड़ता है, अब तो जो भी दिखाई पड़ता है परमात्मा ही दिखाई पड़ता है। शैतान भी सामने खड़ा हो जाए तो परमात्मा ही दिखाई पड़ता है। एक तो यह कठिनाई हो गई। और दूसरी कठिनाई यह हो गई कि जब से परमात्मा ही दिखाई पड़ता है, तब से प्रेम के अतिरिक्त मेरे भीतर कुछ रह नहीं गया; घृणा नहीं रह गई। अब मैं घृणा कैसे करूं? एक तो शैतान दिखाई नहीं पड़ता, दूसरी मेरे भीतर घृणा नहीं रह गई, इसलिए इस लकीर को मैंने काट दिया कि यह लकीर मेरे लिए अव्यावहारिक हो गई है।
जिस दिन सातवां केंद्र सक्रिय होता है, उस दिन वह सब जो कभी नहीं दिखाई पड़ा था, वह सब जो कभी अनुभव नहीं हुआ था, वह अनुभव होना शुरू हो जाता है।
लेकिन क्यों हो जाता है?
एक छोटा बच्चा पैदा होता है, उसे अभी कामवासना की कोई भी खबर नहीं है। अभी वह केंद्र सक्रिय नहीं है। वह जब केंद्र सक्रिय होगा तब अचानक दुनिया बदलती हुई नजर आएगी। दुनिया एकदम दूसरी शक्ल ले लेगी, जो उसमें कभी भी नहीं थी। वह केंद्र भीतर सक्रिय हुआ और बाहर की दुनिया बदलनी शुरू हो गई। दुनिया कल भी ऐसी ही थी, दुनिया आज भी वैसी है। बदलाहट कहां हो गई? दुनिया में कोई बदलाहट नहीं हो गई, उस व्यक्ति के भीतर एक केंद्र जो सोया था वह सक्रिय हो गया।
ठीक ऐसे ही जिस दिन सातवां केंद्र, ब्रह्म-केंद्र जिस दिन सक्रिय हो जाए, उस दिन भी दुनिया यही है, वही थी, लेकिन कुछ नया ही दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। हम वही अपने भीतर ग्रहण कर लेते हैं, जो हम ग्रहण कर सकते हैं। मौजूद तो सब कुछ है। जो बुद्ध ने ग्रहण किया होगा इस दुनिया में, वह आज भी मौजूद है। और आज भी बुद्ध होने में कोई कठिनाई नहीं है। आज भी महावीर होने में कोई कठिनाई नहीं है। आज भी राम और कृष्ण हो जाने में कोई कठिनाई नहीं है। वह सब मौजूद है जो उन्होंने ग्रहण किया होगा। लेकिन हमारे पास वह केंद्र सक्रिय होना चाहिए, जो उसको ग्रहण कर सके।
लेकिन हम उलटी बातें पूछते हैं। हम कहते हैं: कहां है परमात्मा? हम यह नहीं पूछते कि कहां है वह केंद्र, जिसके सक्रिय होने से किसी को परमात्मा का अनुभव होता है और जिसके निष्क्रिय होने से परमात्मा से हम चूक जाते हैं।
हमारे चारों ओर अनंत विस्तार है--अनंत अनुभवों का, अनंत ज्ञानों का, अनंत विचारों का। वे विचार चौबीस घंटे हमारे चारों तरफ घूम रहे हैं। हम जिस विचार को भीतर जगह देते हैं और जिस केंद्र को सक्रिय कर लेते हैं, उसके अनुकूल विचार हमारी तरफ दौड़ने लगते हैं, हमें पकड़ लेते हैं, हमें घेर लेते हैं।
यह कभी समझने जैसा है। अगर सुबह आप क्रोधित हो गए हों, तो आप दिन भर हैरान होंगे यह बात जान कर कि उस दिन, दिन भर में न मालूम कितने क्रोध के मौके आ जाते हैं। क्या हो जाता है उस दिन? कहते हैं: आज सुबह से ही कुछ खराब हो गया, कुछ भाग्य खराब हो गया। भाग्य खराब नहीं हो गया है; सुबह से जो सक्रिय हो गई है वृत्ति वह अपने ही अनुकूल घटनाओं को चारों तरफ से खींचती चली जाती है। वह फिर दिन भर खींचती रहती है।
इसलिए जो जानते हैं वे कहेंगे कि रात सोते समय अत्यंत ध्यान की अवस्था में सो जाना, ताकि रात भी...पूरी रात भी विचार आपकी तरफ आकर्षित होते हैं, चाहे आप सोए रहें। रात भर आप सपने देखते हैं। और सपने उन विचारों से निर्मित हो रहे हैं जो आप चारों तरफ से खींचते हैं।
आपके पड़ोस में सोया हुआ आदमी सपना देख सकता है साधु होने का और आप उसके ही पड़ोस में सोए हुए सपना देख सकते हैं चोर होने का। आप यह मत सोचना कि हम दोनों ही सपने देख रहे हैं, सपने का क्या मूल्य है? लेकिन एक आदमी आपके पड़ोस में साधु होने का सपना देख रहा है, आप चोर होने का सपना देख रहे हैं। आप वही सपना देख रहे हैं जो मन सक्रिय है और जो चारों तरफ से खींच पा रहा है।
रात जो ध्यान में सोएगा, वह रात भर ध्यान के अनुकूल, शांति के अनुकूल विचार अपने चारों तरफ से आकर्षित करेगा। सुबह उठ कर ही ध्यान करना जरूरी है, ताकि फिर दिन भर आपकी यात्रा उन्हीं विचारों को अपने पास खींच सके जिनसे आपने यात्रा शुरू की है। लेकिन अक्सर लोग सुबह बड़े गलत ढंग से शुरू करते हैं और रात सोते भी बहुत गलत ढंग से हैं। ये दो समय बहुत ध्यान कर लेने जैसे हैं। रात के सोते समय का क्षण अत्यंत ध्यान, शांति, मौन और आनंद में और प्रार्थना में डूबते हुए व्यतीत होना चाहिए। तो रात के छह घंटे या आठ घंटे--कुछ नई ही दुनिया के, कुछ नये ही आलोक को, कुछ नये ही विचारों को अपने भीतर खींचेंगे। और सुबह उठने की पहली घड़ी फिर पुनः ध्यान में व्यतीत होनी चाहिए, ताकि चौबीस घंटे, जागने का दिन, पूरे दिन की यात्रा फिर पुनः उसको खींचे जो शुभ है, जो सुंदर है, जो सत्य है। इन दो घड़ियों को जो सम्हाल ले, वह चौबीस घंटे को सम्हाल सकता है।
इसलिए जिस ध्यान की प्रक्रिया के लिए मैं आपसे कह रहा हूं, उसे रात सोते समय करें और सुबह उठते समय करें। जागने का प्रारंभ ध्यान से हो, नींद का प्रारंभ ध्यान से हो। ये दोनों संधिकाल अगर ठीक से सम्हाले जा सकें, तो व्यक्तित्व में शांति और क्रांति आनी शुरू हो जाएगी।
और ध्यान रहे, जैसा मैंने कहा, हमारे चारों तरफ विचार का सागर लहरा रहा है। जब तक रेडियो का आविष्कार नहीं हुआ था, हमें पता भी नहीं था कि मास्को में जो बोला जाता है वह माटुंगा से भी गुजरता होगा। हमें पता भी नहीं था। मास्को वालों को भी पता नहीं होगा कि माटुंगा में जो बोला जाता है वह मास्को से गुजरता है। लेकिन अब हम जानते हैं। अभी हम यहां बैठे हैं, अभी हमें कुछ नहीं सुनाई पड़ रहा कि मास्को या पेकिंग या न्यूयार्क क्या बोलते हैं? लेकिन एक रेडियो को हम सामने रख लेते हैं और पकड़ शुरू हो जाती है। रेडियो कुछ आवाज को ले नहीं आता यहां; आवाज गुजरती है यहां से, रेडियो सिर्फ पकड़ता है।
हमारे चारों तरफ बहुत कुछ मौजूद है। हम जो पकड़ पाते हैं वही पकड़ जाता है, जो नहीं पकड़ पाते वह छूट जाता है। और हम वही पकड़ते हैं, जिस तल पर, जिस वेवलेंथ पर, जिस टयूनिंग पर हमारा चक्र काम करता है। फिर हमें वही पकड़ में आना शुरू हो जाता है, वही हमें दिखाई पड़ने लगता है, वही हमें सुनाई पड़ने लगता है, वही हमें चारों तरफ से घेरना शुरू कर देता है।
यह जो चारों तरफ विचार का अनंत जाल है।...ध्यान रहे कि कोई भी शब्द कभी मरता नहीं। इस जगत में कोई भी चीज कभी नहीं मरती। अभी मैं जो बोल रहा हूं, यह कभी नहीं मरेगा अब, इसके मरने का कोई भी उपाय नहीं है। यह जो बोला गया, वह सनातन और शाश्वत हो गया। अनंत काल तक उसकी प्रतिध्वनि इस सारे ब्रह्मांड में घूमती रहेगी, घूमती रहेगी, घूमती रहेगी। वह कभी समाप्त नहीं होगी। जो प्रतिध्वनि पैदा हो गई है, वह गूंजती ही रहेगी अनंत काल तक, अनंत-अनंत लोकों में उसकी गूंज पैदा होती रहेगी।
इस बात की बहुत संभावना वैज्ञानिक मानते हैं कि किसी दिन वे ऐसे यंत्र भी ईजाद कर सकेंगे, जिसमें कृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र में जो कहा हो, वह पकड़ा जा सके। इस बात की बहुत संभावना है कि जीसस ने जो कहा हो, वह पकड़ा जा सके। महावीर ने जो कहा हो बिहार में, वह पकड़ा जा सके। क्योंकि वह ध्वनि आज भी कहीं न कहीं गूंजती होगी।
लेकिन वैज्ञानिक वह यंत्र किसी दिन तैयार कर पाएं या न कर पाएं, वह दूर की बात है। लेकिन जो सातवें केंद्र को सक्रिय करने में सक्षम हो जाते हैं, वे बिना किसी यंत्र के आज भी जगत में जो भी श्रेष्ठ विचार कभी जन्मे हैं, उनको पकड़ने में समर्थ हो जाते हैं। जो भी श्रेष्ठ जगत की संपदा है तरंगों की, वे उसे पकड़ने में समर्थ हो जाते हैं। उन तरंगों में जीना एक अनुभव ही दूसरा है।
नीत्शे ने कहा है कि एक क्षण ऐसा हुआ कि मुझे लगा कि मैं हजारों मील समय के ऊपर खड़े होकर जी रहा हूं।
हजारों मील समय के ऊपर? समय के ऊपर कोई हजारों मील कैसे खड़ा हो सकता है? जिन लोगों को भी उस तल पर थोड़ा सा अनुभव होगा, उनको लगेगा कि सारी दुनिया किसी खाई में, किसी खंदक में, किसी घाटी में भटकी रह गई है और हम किसी एवरेस्ट पर खड़े होकर जी रहे हैं।
वह जो ऊंचाई पर खड़े होने का अनुभव है, वह जो ऊंचाई पर जीने का अनुभव है, वह जो अंतिम हमारा ऊंचे से ऊंचा चक्र है उसके सक्रिय होने से शुरू होता है। वह चक्र सक्रिय हो सकता है। वह चक्र कैसे सक्रिय हो सकता है? उस चक्र के सक्रिय हुए बिना अंतस-जीवन में, सत्य जीवन में, प्रभु के मंदिर में कोई प्रवेश नहीं है। वह चक्र संकल्प से ही सक्रिय होगा। और संकल्प से पहले आज्ञा चक्र सक्रिय होगा। फिर संकल्प की गहराई, और गहराई, और गहराई, और अंतिम गहराई में वह अंतिम चक्र को भी गतिमान कर देता है।
यह जो ध्यान की प्रक्रिया मैंने कही है, इस ध्यान की प्रक्रिया को हम जितनी गहराई तक ले जा सकें--अंतिम गहराई तक, चरम गहराई तक--उतने ही दूर तक हम अंतिम चक्र को सक्रिय करने में समर्थ हो सकते हैं। और यह खयाल रहे कि वह चक्र अनायास सक्रिय नहीं होता है, हम करेंगे तो ही हो सकता है।
हां, अनायास भी शायद कभी होगा। करोड़ों वर्ष बाद, जीवन की जो सहज विकास की प्रक्रिया है, उसमें कभी वह अनायास भी शायद सक्रिय होगा। लेकिन तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। साधना का एक ही अर्थ है कि प्रकृति जिस विकास को करोड़ों वर्षों में कर पाती है, साधक उसे तीव्रता से, बहुत शीघ्र, अल्प समय में पूरा कर लेता है। बुद्ध को, महावीर को जो स्थिति मिली है, इस बात की पूरी संभावना है कि अरबों-खरबों वर्ष बाद प्रत्येक आदमी जन्म के साथ ही शायद उस स्थिति में पैदा हो सके। लेकिन प्रकृति की प्रक्रिया बहुत लंबी, बहुत धीमी, बहुत आहिस्ता है। जो व्यक्ति उसको तीव्र गति देना चाहता है उसे कुछ करना पड़ेगा। उसे स्वयं सक्रिय होना पड़ेगा, उसे स्वयं कुछ करना पड़ेगा।
लेकिन हम स्वयं कुछ भी नहीं कर रहे हैं। हमारी हालत ऐसी है, जैसे नदी में बह रहे हों, जहां भी नदी ले जाएगी चले जाएंगे। लेकिन हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं। और हमारा यह न करना, हमारा यह बहे-बहे जाना, हमारा यह सुस्त चुपचाप प्रकृति की धारा में जीते चले जाना, यही अगर हम ठीक से समझें तो जीवन की व्यर्थता का मूल सूत्र है। इस व्यर्थता को तोड़ना हो तो कुछ करना पड़ेगा।
क्या करना पड़ेगा? मंदिरों में जाकर पूजा करनी पड़ेगी? गुरुओं के चरण पकड़ने पड़ेंगे? तिलक-टीका लगाना पड़ेगा? यज्ञ-हवन करने पड़ेंगे?
यह फिर हमने असली चीज को करने से बचने का खयाल खोज लिया। जो करना है, वह यह करना नहीं है। इस करने से कुछ भी नहीं होगा। इस करने से सिर्फ एक धोखा पैदा होगा कि हम कुछ कर रहे हैं। उससे तो पहली हालत ही अच्छी थी कि बहे जा रहे थे। कम से कम यह धोखा तो नहीं था कि हम कुछ कर रहे हैं। कम से कम यह तो था मन में कि हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं। तो शायद कभी मन को यह आकांक्षा पकड़ लेती कि कुछ करें।
लेकिन यह जो कुछ भी करने लगते हैं लोग--माला फेरने लगें, जाकर मंदिर में पूजा करने लगें--इन लोगों को एक भ्रम पैदा होता है कि हम कुछ कर रहे हैं। और इस भ्रम के कारण, वह जो आकांक्षा कभी पैदा हो सकती थी कि हम कुछ करें, वह आकांक्षा भी कभी पैदा नहीं हो पाती।
इसलिए दुनिया को जितना नुकसान धर्म के नाम पर प्रचलित क्रियाकांड ने पहुंचाया है, उतना नुकसान और किसी ने भी नहीं पहुंचाया। और धर्म के नाम पर प्रचलित क्रियाकांड के जो दलाल हैं, उन्होंने मनुष्य-जाति का जितना अहित किया है, उतना और किसी ने भी नहीं किया है। जिनके आदमी पैर पकड़ते हैं और जिनकी पूजा करते हैं, उन लोगों ने ही आदमी की गर्दन पर हाथ कस कर रखे हुए हैं। वे ही आदमी के प्राणलेवा हैं।
लेकिन यह दिखाई नहीं पड़ता। उन्होंने जो करना चाहिए, संकल्प को सजग करने की कोई साधना, उस तरफ से तो हटा दिया है, लेकिन कुछ थोथे धंधे हाथ में पकड़ा दिए हैं, जिन्हें करने से न कोई संकल्प विकसित होता, न कोई आत्मबल जागता; जिनकी चेष्टा से न कोई केंद्र सक्रिय होते, जिनके प्रयास से न भीतर के प्राणों में कोई नई गति आती। लेकिन उस तरह की हजारों हजार क्रियाएं सारी दुनिया में चल रही हैं।
धर्म के नाम पर सब्स्टीटयूट रिलीजन, धर्म के नाम पर धर्म को पूरा कर देने वाला सूडो रिलीजन, एक झूठा धर्म सारी दुनिया में विकसित हो गया है। इस झूठे धर्म ने मनुष्य को धार्मिक होने में एकदम बाधा डाल दी है। क्योंकि आदमी को लगता है--मैंने कर लिया, मैं मंदिर हो आया।
एक और मंदिर है जो भीतर है, जहां जाना था।
लेकिन होशियार और कनिंग और चालाक आदमी ने एक मंदिर बाहर बनाया हुआ है। जहां वह होकर घर लौट आता है और कहता है: मैं मंदिर हो आया। और उसे पता ही नहीं कि मंदिर कहां है। और उसे पता ही नहीं कि मंदिर में जो एक बार हो आता है वह कभी लौटता नहीं मंदिर से, वह मंदिर में ही रहने लगता है। वह पॉइंट ऑफ नो रिटर्न है; वहां से कभी कोई वापस नहीं लौटता।
लेकिन यह जो बाहर मंदिर बना है, उसमें हम सुबह जाते हैं और लौट आते हैं। सच तो यह है कि उसमें हम जाएंगे कैसे? हम वही होते हैं जो हम घर से निकले थे। वही हम उस मंदिर में प्रविष्ट हो जाते हैं, वही हम वापस लौट आते हैं। मंदिर में हमारा जाना कहां हुआ?
मंदिर में जाने का अर्थ है: हम कुछ ऐसी जगह पहुंच जाएं जहां हम वही न रह जाएं जो हम थे, तो हम मंदिर में गए, अन्यथा मंदिर में नहीं गए। मंदिर में जाने का क्या मतलब? कि एक आदमी जाए अपने मकान से निकल कर और एक क नाम के मकान में प्रवेश करे या ख नाम के मकान में और वापस लौट आए, वह मंदिर में हो आया? आदमी भी अपने को धोखा देने में, अपने आपको धोखा देने में अदभुत कुशल मालूम पड़ता है।
मंदिर में जाने का अर्थ है: इनर कनवर्शन। मंदिर में जाने का अर्थ है: एक ऐसी चित्त-दशा में जाना जहां कि हम कुछ और हो जाएं, जो कि जाने के पहले हम नहीं थे। और ध्यान रहे, उस दशा से लौटने के बाद हम वही कभी नहीं हो सकते, जो हम पहले थे। यह असंभव है। मंदिर से कोई भी वापस नहीं लौटा है। और लौटता है तो मंदिर साथ आ जाता है। फिर वह मंदिर में ही जीने लगता है।
लेकिन मंदिर का हमें पता नहीं है। हमने मंदिर बाहर बनाया हुआ है। मंदिर का इंतजाम हमने बाहर कर लिया हुआ है। उस मंदिर की हम पूजा कर आते हैं, प्रार्थना कर आते हैं, लौट आते हैं।
नहीं, मंदिर वहां नहीं है; यह जो मैं सातवां चक्र कह रहा हूं, यह मंदिर है। इस सातवें चक्र में पहुंच जाना मंदिर में प्रवेश है।
लेकिन बाहर का मंदिर भी, जो लोग जानते होंगे, जिन्होंने भीतर के मंदिर की चर्चा की होगी, उनको सुन कर हमने बना लिया है। मंदिर में आप जाते हैं भीतर। मंदिर की बाहर की दीवालें हैं। भीतर मंदिर में गर्भगृह होता है, जहां मूर्ति स्थापित होती है भगवान की। उस गर्भगृह के चारों तरफ प्रदक्षिणा का चक्कर होता है। उस प्रदक्षिणा में आप सात चक्कर लगा कर वापस लौट आते हैं। लेकिन कभी आपने सोचा नहीं कि ये सात चक्कर क्यों लगाने? कभी आपने सोचा नहीं कि किसके हम चक्कर लगा रहे हैं? चक्कर लगाने की जगह के बीच में भगवान की स्थापना क्यों है? इसको हम गर्भगृह क्यों कहते हैं? यह गोल क्यों है? इस मंदिर की गुंबज गोल क्यों है? यह सब क्या है?
यह जिन लोगों ने भीतर के मंदिर की बात की थी, उनकी बात हमने सुन कर, ठीक वैसा ही मंदिर बाहर बना लिया। वह जो गुंबज आपको दिखाई पड़ता है मंदिर के ऊपर, वह मनुष्य के सिर का प्रतीक है। जिसके भीतर, जिसके भीतर कहीं परमात्मा का निवास है। लेकिन वह परमात्मा का निवास किसी गोल चक्कर के बीच में है। ऐसी कुछ बात की होगी जिन्होंने-जिन्होंने जाना। और उस चक्कर में घूम जाने पर ही, प्रदक्षिणा पूरी हो जाने पर ही, जो भीतर है उसका अनुभव होता है, वह कहा होगा। हमने बाहर एक स्थापना कर ली है। हम उसका चक्कर लगा कर अपने घर वापस आ जाते हैं। और साधु-संत और जिनको हम महात्मा कहते हैं--आधे ही महात्मा होंगे--वे सब हमें प्रेरणा देते हैं कि जाओ मंदिर! मंदिर जरूर जाना चाहिए!
वे भी बेचारे दोहरा रहे हैं हजारों वर्ष से कि मंदिर जरूर जाना चाहिए। मैं भी कहता हूं कि मंदिर जरूर जाना चाहिए। लेकिन जिस मंदिर की तरफ वे इशारा कर रहे हैं, वह मंदिर ही नहीं है; मंदिर कहीं और है--कहीं और, स्वयं के भीतर।
मैंने एक घटना सुनी है। मैंने सुना है, एक घर में छोटे-छोटे बच्चे थे। जब उनकी उम्र बहुत थोड़ी थी, एक नाव की दुर्घटना में बाप की और मां की मृत्यु हो गई। बच्चे छोटे थे, फिर भी उन्होंने सोचा कि हमारे मां-बाप तो मर गए, वे जो करते थे वह हमें भी करते रहना चाहिए। आखिर पता नहीं क्या रहस्य रहा हो उनके करने में। तो बच्चे छोटे थे, उन्होंने देखा था कि पिता खाने के पहले, खाने के बाद, एक आले पर से जाकर कुछ लकड़ी उठा कर, पता नहीं क्या करते थे।
वे खाने के बाद अपने दांत साफ करते थे। एक छोटी सी लकड़ी की सींक वहां रख छोड़ी थी। लड़कों को यह तो पता था नहीं, छोटे बच्चे थे, कि वे करते क्या थे! और लड़कों के दांत भी ऐसे नहीं थे कि उनको सींक से साफ करने की जरूरत हो। उस पता का कारण भी न था। लेकिन इतना मालूम था कि एक सींक वे एक आले में रखते हैं और बड़े नियमित रूप से दोनों वक्त आले के पास जाते हैं।
तो उन्होंने सोचा कि जरूर भोजन करने से और इस आले के पास जाने का कोई संबंध है। और जरूर इस लकड़ी की सींक में कोई राज है। तो उन्होंने एक लकड़ी की सींक वहां रख ली। अब उन्हें तो यह पता भी नहीं था। तो वे रोज जाकर, हाथ जोड़ कर, खाने के पहले-पीछे उस लकड़ी की सींक को नमस्कार कर आते थे। वह नियमित क्रम हो गया।
वे बड़े हो गए। फिर उन्होंने नया मकान बनाया। तो उन्होंने कहा, यह कहां की छोटी सी लकड़ी की सींक रखे हो; एक अच्छी चंदन की लकड़ी बनवा लो! क्योंकि रोज इसके हाथ जोड़ने पड़ते हैं। उन्होंने एक चंदन की लकड़ी बना कर--नये मकान में एक सुंदर छोटी मढ़िया बनाई, एक मंदिर ही बना लिया आले की जगह, एक चंदन की बढ़िया खुदावदार लकड़ी उस पर लगा दी। रोज सुबह-शाम वे उसको खाने के आगे-पीछे हाथ जोड़ आते थे।
फिर ऐसी पीढ़ियां गुजर गईं। उनके और लड़के पैदा हुए, उन्होंने और बड़े मकान बनाए। लड़के तो बड़े मकान बनाएंगे। वह छोटा सा जो आला था, वह धीरे-धीरे बड़ा मंदिर हो गया। वह छोटी सी जो सींक थी, धीरे-धीरे एक पूरा स्तंभ हो गई। फिर कोई पूछा कभी उन लोगों से कि तुम यह करते क्या हो?
उन्होंने कहा, यह हमारे यहां सदा से होता चला आया है। यह कोई धार्मिक क्रिया है। और इसको जो नहीं करता वह बहुत अधार्मिक है। कुछ लड़के हमारे घर के बिगड़ गए हैं, वे मानते ही नहीं, वे इसको हाथ ही नहीं जोड़ते। जो लड़के हाथ नहीं जोड़ते थे वे बिगड़ गए, जो हाथ जोड़ते थे वे बहुत धार्मिक थे।
करीब-करीब ऐसा ही हुआ है, हो रहा है। जीवन के जो अंतस सत्य हैं, वे प्रतीकों में ही कहे जा सकते हैं। हमारे हाथ में प्रतीक पकड़ जाते हैं, उनको लेकर हम बैठ जाते हैं। और उन प्रतीकों की पूजा चल पड़ती है। और भूल जाते हैं हम कि प्रतीक इंगित करते थे किसी ओर; प्रतीक ही सत्य नहीं हैं, किसी और, किसी और तरफ इंगित हैं।
वह जो सातवें चक्र की मैंने बात कही, वही, वही मंदिर है, जहां प्रवेश करना है। उसका द्वार, उस मंदिर का द्वार आज्ञा चक्र है, जहां से प्रवेश होगा। इस आज्ञा चक्र पर कैसे श्रम किया जाए? क्या किया जाए? किस भांति इस चक्र को हम जीवंत, सक्रिय और परिपूर्ण खिला हुआ कर दें, इसकी पूरी फ्लावरिंग हो जाए?
तीन छोटे सूत्र समझ लेने चाहिए। एक: जीवन में जितना संकल्प होगा, उतना ज्यादा यह द्वार खुलेगा। संकल्प का अर्थ क्या है? संकल्प का अर्थ है कि कुछ भी करना हो तो समग्र शक्ति उसमें समायोजित हो जानी चाहिए, भीतर खंड-खंड नहीं होने चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि आधा मन कहता है करो, आधा कहता है मत करो। अगर मन टुकड़ों में बंटा है, डिसइंटिग्रेटेड है, खंड-खंड है, तो आपस में टुकड़े लड़ जाएंगे और संकल्प नष्ट हो जाएगा। और हम सबके मन टुकड़ों में बंटे हुए हैं। यहां तक कि ऐसी छोटी-छोटी चीजों में टुकड़ों में बंटे हुए हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं। न तो हमारे भीतर सीधा हां है, न हमारे भीतर सीधा न है। हमारे भीतर दोनों एक साथ हैं। न हम बाएं जाना चाहते हैं, न हम दाएं। हम दोनों तरफ एक साथ जाना चाहते हैं। तब धीरे-धीरे पूरा संकल्प क्षीण हो जाता है।
हमारा मन ऐसा है जैसे बैलगाड़ी में हमने चारों तरफ बैल जोत दिए हों। वे चारों तरफ बैलगाड़ी को खींचते हैं। बैलगाड़ी कहीं जाती नहीं, सिर्फ उसके अस्थिपंजर ढीले होते हैं। और इतना घमासान मचता है कि बैल भी धीरे-धीरे थक जाते हैं और घबड़ा जाते हैं कि यह क्या हो रहा है!
अगर आप अपनी जिंदगी पर खयाल करेंगे, तो आप पाएंगे कि आपकी गाड़ी में भी चारों तरफ बैल जुते हुए हैं। कोई संकल्प नहीं है भीतर। पच्चीस संकल्प एक साथ हैं। कभी आपने खयाल भी न किया होगा कि एकदम विरोधी संकल्प एक साथ हैं। जिसको आप प्रेम करते हैं, उसी को आप घृणा करते हैं।
एकदम से चौंकाने वाली बात लगेगी। लेकिन आपने कभी खयाल नहीं किया होगा कि जो अभी मित्र है, वह एक क्षण में शत्रु हो सकता है। अभी इससे इतना प्रेम था, एक क्षण में इतनी घृणा कैसे आ गई? उस प्रेम के ठीक नीचे घृणा बैठी थी, वह घृणा प्रतीक्षा करती थी--कब प्रेम हट जाए और मैं मौजूद हो जाऊं।
इसलिए दुश्मन से उतना खतरा नहीं होता जितना मित्रों से खतरा होता है। क्योंकि दुश्मन अगर अब आगे कुछ भी बन सकता है तो मित्र बन सकता है, उसके भीतर मित्र छिपा रहता है। और मित्र अगर अब कुछ भी बन सकता है तो एक ही पासिबिलिटी है कि दुश्मन बन सकता है, उसके भीतर दुश्मन छिपा रहता है। इसलिए दुश्मन से तो एक आशा होती है, मित्र से कोई आशा नहीं होती।
जिसको आप श्रद्धा करते हैं, उसके ही लिए आपके मन में पूरी अश्रद्धा भीतर मौजूद होती है। अश्रद्धा मौके की तलाश में होती है कि कुछ पता चल जाए तो प्रकट हो जाऊं। श्रद्धा एक तरफ फिंक जाए, अश्रद्धा ऊपर आ जाए।
इसलिए श्रद्धा करने वाले से बहुत सावधान रहना चाहिए। वह तैयारी कर रहा होगा भीतर कि कब अश्रद्धा करूं।
हमारे मन की पूरी स्थिति एक आंतरिक कलह से भरी हुई है। हम ऊपर कुछ हैं, भीतर कुछ हैं, जो हैं उसी वक्त कुछ और हैं। जब आप किसी का हाथ में हाथ लेकर कहते हैं कि मैं तुम्हें बहुत प्रेम करता हूं। थोड़ा भीतर झांक कर देखना कि मन उसी वक्त क्या कह रहा है? मन उसी वक्त कह रहा होगा--क्या झूठी बातें बोल रहे हो! क्यों ऐसी बातें बोल रहे हो? मन उसी वक्त कह रहा होगा।
एक फकीर था नसरुद्दीन। उसके गांव का जो राजा था उसकी पत्नी से उसका प्रेम था। वह एक रात उस पत्नी से विदा ले रहा है। विदा लेते वक्त उसने उस स्त्री को कहा कि तुझसे ज्यादा सुंदर कोई स्त्री ही नहीं है! और तुझे मैंने जितना प्रेम किया है--आह, ऐसा प्रेम न मैंने कभी किसी को किया, न मैं कभी कर सकता हूं। तू अदभुत है!
जैसा कि पुरुष स्त्रियों से कहते हैं और स्त्रियां खुश होती हैं। वह स्त्री खुश हो गई, बहुत खुश हो गई। उसने कहा, सच!
उसको इतना खुश देख कर वह जो नसरुद्दीन था--वह बड़ा सच्चा आदमी था--उसने कहा, ठहर! क्योंकि मेरे भीतर जो चल रहा है, वह भी मैं तुझे बता दूं। जब मैंने यह कहा कि तुझसे ज्यादा सुंदर स्त्री कोई भी नहीं है--तब मैंने कहा, अरे कहां की साधारण स्त्री को क्या कह रहे हो! बहुत स्त्रियां हैं। मेरा मन भीतर यह कह रहा था। और जब मैंने तुझसे कहा कि तुझे मैं बहुत प्रेम करता हूं, तुझसे ज्यादा प्रेम मैंने कभी किसी को नहीं किया। तब मेरा मन भीतर हंस रहा था, वह कह रहा था, यह तो मैंने और स्त्रियों से पहले भी कहा है। बिलकुल यही कहा है।
आदमी का मन पूरे वक्त इनर कंट्राडिक्शंस से भरा हुआ है, भीतरी द्वंद्व से भरा हुआ है। भीतरी द्वंद्व है तो संकल्प कभी पैदा नहीं होगा। क्योंकि संकल्प का अर्थ है: एक मन। संकल्प का अर्थ है: एक मन, इंटीग्रेशन। संकल्प का अर्थ है: एक आवाज। संकल्प का अर्थ है: एक स्वर।
और हम चौबीस घंटे विरोधी स्वरों से भरे हैं। इसकी समझ चाहिए कि धीरे-धीरे हमारे विरोधी स्वर समाप्त हों। जब हम कहते हैं कि मैं बहुत दृढ़ विश्वास करता हूं, तभी पक्का हमारे भीतर संदेह मौजूद होता है। अजीब बात है! हम जो कहते हैं, ठीक उससे उलटा हमारे भीतर मौजूद होता है। यह ठीक उलटा भीतर मौजूद है, यह निगेट कर देता है, जो हम कहते हैं उसे काट डालता है। तब हमारा पूरा व्यक्तित्व इन विरोधों में उलझ कर समाप्त हो जाता है।
क्या यह हो सकता है कि हमारे चित्त के विरोध क्रमशः कम होते चले जाएं?
यह हो सकता है। एक तो इसका बोध रखना पड़ेगा कि हम चित्त में विरोधों को न पालें। तो मैं निरंतर जो कह रहा हूं, वह यह कह रहा हूं: मैं कह रहा हूं, श्रद्धा मत करो, ताकि अश्रद्धा न करनी पड़े। विश्वास मत करो, ताकि संदेह न करना पड़े। मित्र मत बनो, ताकि शत्रु न बनना पड़े। शिष्य मत बनो, नहीं तो गुरु बनने की दौड़ शुरू हो जाएगी; वह बच नहीं सकती, वह जारी है, वह जारी रहेगी।
वह जो विरोध हैं, दोनों से बचने की कोशिश करो, ताकि अविरोध चित्त की दशा खड़ी हो जाए। विरोध में तोड़ो ही मत। मत कहो अपने को कि मैं आस्तिक हूं। क्योंकि जैसे ही तुमने कहा कि आस्तिक हूं, तुम्हारा आधा मन फौरन नास्तिक हो जाएगा। बड़े से बड़ा आस्तिक खोज लो, उसके भीतर नास्तिक मौजूद होगा; नास्तिक मर नहीं सकता, सिर्फ दबा रहेगा भीतर। बड़े से बड़े नास्तिक को खोज लाओ, उसके भीतर आस्तिक है, वह आस्तिक मर नहीं जाएगा।
न आस्तिक रहो, न नास्तिक। विरोध को जाने दो, विरोध में बांटो ही मत अपने को। जितना ही व्यक्ति इस बात को गहराई से समझ ले और विरोधों से बचता चला जाए, एक अदभुत शांति की, समता की स्थिति खड़ी होनी शुरू होती है। एक अविरोध की, अखंड; टूटी टुकड़ों में नहीं, बंटी हुई नहीं; गैर-बंटी हुई, इकट्ठे मन की एक स्थिति पैदा होना शुरू होती है। उस स्थिति का नाम ही संकल्प है। और उस स्थिति का जितना बढ़ावा होगा उतना ही हमारा भीतर प्रवेश शुरू हो जाएगा।
लेकिन नहीं, हम तो हमेशा बांट कर देखते हैं। हम तो कहते हैं, या तो हम मित्र होंगे, या हम शत्रु होंगे, बीच में हम नहीं हो सकते। और हमें पता ही नहीं कि बीच में होना ही असली होना है। हम तो कहते हैं कि या तो हम श्रद्धा करेंगे, या अश्रद्धा करेंगे; या तो हम आदर करेंगे, या हम अनादर करेंगे। हम दो में से कुछ एक करेंगे। लेकिन दो में से जो एक कर रहा है, वह दूसरे को भी करना जारी रखेगा। पहलू बदलते रहेंगे। जैसे घड़ी का पेंडुलम कभी इस कोने से उस कोने चला जाता है।
लेकिन ध्यान रहे, वह उस कोने पर इसीलिए गया है, ताकि वापस अपने कोने पर लौट आए। वह चलता रहेगा। जब वह दूसरी तरफ जा रहा है, तब ध्यान रहे कि वह इस तरफ आना भी शुरू हो गया है। उसकी दूसरी तरफ जाने की जो गति है, जो मोमेंटम है, वही मोमेंटम उसे इस तरफ वापस ले आएगा। इसलिए जो ठीक से जीवन को जानते हैं--जब उनसे कोई कहता है, मैं आपका मित्र हूं, तब भी हंसते हैं; जब उनसे कोई कहता है, मैं आपका शत्रु हूं, तब भी हंसते हैं। जो जीवन को जानते हैं--जब कोई उनके चरणों में सिर रखे, तब भी हंसते हैं; और जब कोई उनके सिर पर जूता फेंक दे, तब भी हंसते हैं। क्योंकि यह पेंडुलम है जो आदमी का चलता है, इस पेंडुलम का कोई बहुत अर्थ नहीं है। लेकिन हंसी इस बात पर आती है कि उस घूमते पेंडुलम में आदमी को पता नहीं चलता कि वह क्या कर रहा है, सिर्फ घूम रहा है।
चित्त की एकाग्र, चित्त की एक, चित्त की समग्र, चित्त की इकट्ठी दशा का नाम संकल्प है। और उस संकल्प की दशा में जो भी होता है, वह मंदिर में प्रवेश करा देता है। संकल्प को अगर ठीक से समझें तो वह "की' है, वह चाबी है, जिससे वह चक्र खुल जाएगा जिसको मैं ब्रह्म चक्र कह रहा हूं। लेकिन संकल्प की कुंजी हमारे पास नहीं है। बिलकुल नहीं है हमारे पास संकल्प की कुंजी।
मैंने सुना है, एक बहुत प्राचीन कुलीन परिवार में, एक छोटा बेटा शिक्षा के लिए बाहर जाने को है। उसकी उम्र सिर्फ सात वर्ष है। उसका बाप उससे कहता है कि हमारे घर से आज तक जो भी आदमी पढ़ने गया है, वह कभी बिना पूरी शिक्षा किए हुए वापस नहीं लौटा। और हमारे घर का यह रिवाज और यह संस्कार रहा है कि छोटे से बच्चे को भी जब हम घर से विदा करते हैं शिक्षा के लिए गुरुकुल जाने को, तो बच्चा पीछे लौट-लौट कर नहीं देखता। क्योंकि पीछे लौट-लौट कर देखने के हम बहुत दुश्मन हैं। हम जब घर से किसी को विदा करते हैं बच्चे को शिक्षा के लिए...जब मेरे बाप ने मुझे विदा किया था, तो उसने कहा था: आंख में आंसू न आएं! क्योंकि आंख में अगर आंसू आए तो फिर यह घर तेरा नहीं है, फिर लौटना नहीं हो सकेगा। हम रोते आदमियों को घर में प्रवेश नहीं देते। यही मैं तुझसे कहता हूं कि कल सुबह चार बजे तुझे भेजा जाएगा गुरुकुल। एक नौकर तुझे घोड़े पर बिठा कर छोड़ने जाएगा। एक मील दूर पर मोड़ आता है, वहां तक तुझे घर दिखाई पड़ेगा, लेकिन लौट कर पीछे मत देखना। हम छत पर खड़े हुए देखेंगे कि तूने पीछे लौट कर तो नहीं देखा। क्योंकि पीछे लौट कर देखने वाले व्यक्ति का कोई भरोसा नहीं। पीछे लौट कर देखना ही मत!
सात वर्ष का छोटा बच्चा! वह बहुत घबड़ाया। उसकी मां ने उसे रात कहा कि घबड़ाओ मत, यही सदा होता रहा है। और एक बार हमने ऐसा सुना है कि किसी ने पीछे लौट कर देख लिया था, फिर यह घर उसका नहीं रहा। पीछे लौट कर मत देखना!
वह सात वर्ष का बच्चा रात भर सो नहीं सका कि मां-बाप को पीछे लौट कर नहीं देखेगा! अपने घर को लौट कर नहीं देखेगा! आंख में आंसू नहीं लाने हैं, पीछे लौट कर नहीं देखना है। सात वर्ष के बच्चे से ऐसी आशा? हम कहेंगे: बड़े कठोर थे वे लोग, बड़े दुष्ट थे। हम होते तो लाड़-प्यार करते, चाकलेट खिलाते। रोते खुद भी, उसको भी रुलाते और बड़ा प्रेम जाहिर करते।
प्रेम नहीं है यह, यह उस बच्चे के व्यक्तित्व से संकल्प को नष्ट करना है।
आज तो सारी दुनिया में यही खयाल है। सारी दुनिया में यही खयाल है कि बच्चे के आगे-पीछे नाचो-कूदो। बच्चे से ज्यादा बचकाना तुम अपनी हालत दिखाओ। ऐसे बच्चे के भीतर कभी भी वह ठोस कोई चीज खड़ी नहीं हो पाती, जो खड़ी होनी चाहिए। रीढ़ नहीं बन पाती उसकी आत्मा में।
वह बच्चा चार बजे बिदा हुआ। चार बजे उसकी मां और उसके पिता भी उसको द्वार पर छोड़ने नहीं आए हैं। बड़े कठोर लोग रहे होंगे, बड़े दुष्ट। उस बच्चे को घोड़े पर बिठाल दिया गया है। चार बजे की अंधेरी रात, सन्नाटा, सुबह की ठंडी हवाएं। नौकर जो उसके साथ है, वह कहता है: बेटे, पीछे लौट कर मत देखना! पीछे लौटने की मनाही है देखने की। अब तुम छोटे नहीं हो; हम तुमसे बड़ी आशाएं करते हैं। और जो पीछे लौट कर देखता है, उससे क्या आशा की जा सकती है! तुम्हारे पिता ऊपर खड़े होकर देख रहे हैं। वे कितने आनंदित होंगे कि उनके बेटे ने मोड़ तक भी पीछे लौट कर नहीं देखा।
उस लड़के की सोचते हैं हालत क्या होती होगी! कितना मन पीछे लौट-लौट कर नहीं देखने को होता होगा! सात वर्ष का छोटा सा नन्हा बच्चा! लेकिन वह बिना मुड़े, बिना देखे, मोड़ से गुजर जाता है।
उस बच्चे ने बाद में लिखा कि कितनी अदभुत आनंद की अवस्था मुझे मालूम हुई--जब एक मील गुजर गया और मैंने पीछे लौट कर नहीं देखा!
वह स्कूल पहुंचा है, सुबह-सुबह अपने गुरुकुल पहुंचा है। उस गुरुकुल का जो भिक्षु है, जो उसे दीक्षा देगा, वह उसको दरवाजे पर मिलता है और कहता है कि प्रवेश के नियम हैं, हर कोई प्रविष्ट नहीं हो जाता। दरवाजे पर आंख बंद करके बैठ जाओ और जब तक मैं दुबारा न आऊं और खुद न पूछूं, तब तक आंख भी मत खोलना और उठना भी मत। और अगर तुमने बीच में आंख खोल दी, और तुम भीतर आ गए, या तुमने आस-पास देख लिया, तो तुम्हें वापस घोड़े पर लौटा दिया जाएगा, तुम्हारा नौकर बाहर प्रतीक्षा कर रहा है। और ध्यान रहे, तुम जिस घर से आते हो, उस घर का कोई बच्चा कभी वापस लौट कर नहीं गया है! और यह प्रवेश-परीक्षा है।
सात वर्ष के छोटे से बच्चे को द्वार पर बिठा दिया है। कोई पूछता नहीं उससे कि तुम्हारी मां दुखी होती होगी, आओ बेटे तुम्हारा इंतजाम करें। उसको कोई पूछता नहीं। उसका सामान रखा है, उसका घोड़ा बाहर बंधा है, उसका नौकर प्रतीक्षा कर रहा है। उस बच्चे को दरवाजे पर आंख बंद करके बिठाल दिया गया है, सात साल के बच्चे को। वे शिक्षक भी बड़े कठोर और क्रूर रहे होंगे। लेकिन जो जानते हैं--कि उन मां-बाप और उन शिक्षकों से दयावान और कोई भी नहीं था।
वह बच्चा बैठा है। स्कूल में बच्चे आ रहे हैं, कोई उसको धक्का मारता है, कोई कंकड़ मारता है। बच्चे बच्चे हैं। कोई छेड़खानी करता है। लेकिन उसे आंख बंद रखनी है, चाहे कुछ भी हो जाए। क्योंकि आंख अगर बंद नहीं रही तो वापस लौटना पड़ेगा। किस मुंह से पिता के सामने खड़ा हो जाएगा कि मैं वापस आ गया! उस घर में कभी कोई वापस नहीं लौटा है।
वह छोटा सा बच्चा। सुबह की धूप बढ़ने लगी है, मक्खियां उसके चारों तरफ घूम रही हैं, बच्चे पत्थर मार रहे हैं, जो निकलता है वही धक्का मारता चला जाता है। वह आंख बंद किए है। भूख जोर की लग रही है, प्यास लग रही है। लेकिन न आंख खोलनी है, न उठना है। दोपहर हो गई, सूरज ऊपर आ गया, सिर पर छा गया। पता नहीं क्या हो रहा है? कोई आता नहीं, कोई बोलता नहीं। वह आंख बंद किए बैठा है, बैठा है। उसने आंख नहीं खोली; झपक कर भी आंख नहीं देखी।
सूरज ढलने के करीब आ गया, सांझ आ गई, वह भूख से तड़पा जा रहा है। वह गुरु और दस-पंद्रह और भिक्षु आते हैं, उसे उठा लेते हैं और कहते हैं, तू प्रवेश-परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया। तेरे पास संकल्प है। अब आगे कुछ हो सकता है। तू भीतर आ।
वह युवक हो गया बाद में तब उसने लिखा कि आज मैं याद करता हूं उनकी जो इतने कठोर मालूम पड़े थे; आज जानता हूं उनकी करुणा अदभुत थी।
हमारी करुणा बहुत अदभुत है। और हमारी करुणा सब लोच-पोच कर देती है, सब इंपोटेंट कर देती है। और हम दूसरे के प्रति भी ऐसे ढीले हैं और अपने प्रति भी ऐसे ही ढीले हैं। ऐसे संकल्प पैदा नहीं हो जाता। संकल्प पैदा होने का अर्थ है: कुछ करना पड़ेगा, कुछ दांव लेने पड़ेंगे, कुछ निर्णय करना पड़ेगा, कहीं रुकना पड़ेगा, कहीं ठहरना पड़ेगा; उस दबाव में ही वह संकल्प जागता है।
अब इधर मैं ध्यान करने के लिए कहता हूं। पंद्रह मिनट इतने मुश्किल हो जाते हैं कि मुझे दस मिनट में मुझे ही खतम कर देना पड़ता है। पंद्रह मिनट नहीं बैठते आप, इस खयाल में मत रहना। वह दस मिनट में ही आपकी हालत देख कर खत्म कर देना पड़ता है। पंद्रह मिनट में कितनी दफा आंख खोल कर देख लेते हैं, पता है आपको? संकल्प ऐसे जन्मेगा? पंद्रह मिनट आदमी आंख बंद करके नहीं बैठ सकता, इससे ज्यादा कमजोरी की और क्लीव और नपुंसक कोई अवस्था हो सकती है? पंद्रह मिनट आंख बंद करके बैठना मुश्किल है।
पड़ोस में किसी की देखने की इच्छा होती है कि वहां क्या हो रहा है? पीछे क्या हो रहा है? कोई की श्वास जोर से चल रही है, उसको क्या हो रहा है? सबको क्या हो रहा है, यह फिकर है आपको। और इसकी जरा भी फिकर नहीं है कि पंद्रह मिनट आप आंख बंद करके नहीं बैठ पा रहे हैं, यह क्या हो रहा है? कोई चिंता नहीं है इसकी। हमें कोई फिकर ही नहीं है कि हमारे पास कोई संकल्प जैसी स्थिति नहीं रह गई है।
पाम्पेई में विस्फोट हुआ ज्वालामुखी का और पाम्पेई का पूरा नगर जल गया। एक सिपाही जो चौरस्ते पर खड़ा था रात पहरा देने को, सुबह छह बजे उसकी डयूटी बदलेगी, दूसरा सिपाही सुबह छह बजे आकर उसकी जगह खड़ा होगा। सारा पाम्पेई भाग रहा है, रात के दो बजे ज्वालामुखी फूट गया, सारा पाम्पेई कंप रहा है। आग उगल रही है, सारा नगर जल रहा है, सारे गांव के लोग भाग रहे हैं। भागते लोग उस सिपाही को कहते हैं, यहां किसलिए खड़े हो? वह कहता है कि सुबह छह बजे डयूटी बदलने का वक्त है। उसके पहले कैसे हट सकता हूं?
अरे! लोग कहते हैं, पागल हो गए हो? अब डयूटी वगैरह का कोई सवाल नहीं है, मर जाओगे! सुबह छह कभी नहीं बजेंगे, आग लग रही है पूरे गांव में।
उसने कहा, वह तो ठीक है। यही तो मौका है! तब पता चलेगा कि मैं सिपाही हूं या नहीं? छह बजे के पहले कैसे हट सकता हूं? छह बजे तक जिंदा रहा तो डयूटी सम्हाल दूंगा, छह बजे तक जिंदा नहीं रहा तो भगवान जाने। फिर मेरा कोई कसूर नहीं है।
कहते हैं वह सिपाही उसी जगह खड़ा हुआ जल गया! पाम्पेई का पूरा नगर भाग गया। उन भागे लोगों की स्मृति में कोई मूर्ति नहीं है। उस सिपाही की मूर्ति बनानी पड़ी उस जगह। उस नगर में एक ही आदमी था जिसको आदमी कहें, जिसके भीतर कुछ बल था, जिसके भीतर कोई मन था जो खड़ा रह सकता है।
लेकिन हम! कहां पाम्पेई, कोई पड़ोस में सिगरेट जला ले, और आंखें खुल जाएंगी। कोई पड़ोस में जरा सा खांस दे, और आंखें खुल जाएंगी। कैसा यह व्यक्तित्व है? इस व्यक्तित्व को लेकर किस मंदिर में प्रवेश की इच्छा है?
नहीं, किसी मंदिर में कहीं प्रवेश नहीं हो सकेगा। हो सकता है, कोई रुकावट नहीं है सिवाय हमारे। थोड़ा संकल्प, थोड़ा बल, थोड़ी हिम्मत, थोड़ी इस बात की कोशिश कि मैं जो कर रहा हूं, कुछ करूं तो।
रोज मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, एक दिन ध्यान किया, अभी तो कुछ नहीं हुआ। बड़े मजे की बातें कहते हैं। बड़े अदभुत, बड़े गजब के लोग हैं। एक दिन ध्यान किया, बड़ी कृपा की भगवान पर। लिख गई होगी उसकी किताब में कि बड़ा ऋण हो गया आपका। अभी कुछ नहीं हुआ, अभी दर्शन नहीं हुआ, अभी भगवान नहीं मिले। क्योंकि आप पंद्रह मिनट आंख बंद किए बैठे रहे, पंद्रह दफा आंख खोल कर देखा, और कुछ भी नहीं हुआ।
हमारे व्यक्तित्व में जिसको कहें पुकार, जिसको कहें आवाज, वह है ही नहीं। और नहीं है, तो धर्म के रास्ते पर कोई गति नहीं हो सकती।
इसलिए कहना चाहता हूं: संकल्प है पहला बुनियादी सूत्र। और दूसरी बात है: संकल्प क्या है, यह समझ लेना जरूरी नहीं है; संकल्प क्या है, इसके छोटे प्रयोग करने जरूरी हैं। प्रयोग करेंगे तो ही वह विकसित होगा, अन्यथा वह कभी विकसित नहीं होगा। और कल की प्रतीक्षा करेंगे, तो वह कभी विकसित नहीं होगा। उसे आज से और अभी से शुरू कर देना पड़ेगा, तो उसमें विकास होंगे।
तो दूसरा सूत्र है: संकल्प हो या न हो, संकल्प की दिशा में प्रयोग शुरू कर दें। वह बढ़ेगा, धीरे-धीरे बढ़ेगा।
कोई आदमी नदी के किनारे खड़े होकर कहे कि मैं तैरना सीखना चाहता हूं। सिखाने वाला कहे कि आओ, नदी में उतर जाओ। वह कहे कि जब तक तैरना सीख न जाऊं, मैं उतरूंगा नहीं। क्योंकि खतरा कौन मोल लेगा? तैरना सीख जाऊं, फिर मैं उतरने को राजी हूं। जब तक तैरना न सीखूं, मैं उतर नहीं सकता।
अब सिखाना बहुत मुश्किल हो गया। क्योंकि सिखाने के लिए भी उतारना जरूरी है। और बिना तैरना जाने ही पहली दफा उतरना पड़ेगा! क्योंकि उसी उतरने से उस तैरने का विकास होने वाला है। तैरना कोई ऐसी चीज थोड़े ही है कि आकाश से मिल जाएगी। वह तो हम तैरेंगे तो मिलेगी। वह तो तैरने का ही परिणाम है। वह तो हम हाथ-पैर फड़फड़ाएंगे तो मिलेगी।
लोग पूछते हैं: ध्यान मिल जाए! समाधि मिल जाए!
वह कैसे मिल जाएगी? वह कहीं रखी है कि आप जाएंगे और मिल जाएगी! वह कहीं रखी नहीं है, वह आपकी ही सतत चेष्टा का सृजन है। वह आपका ही क्रिएशन है। और आप कोशिश करेंगे तो मिल जाएगी। आज हाथ-पैर फड़फड़ाइए थोड़े, कल और गति होगी, परसों और गति होगी, वह वक्त करीब आता चला जाएगा जब आपको लगेगा कि हाथ-पैर का तड़फड़ाना बदल गया, उसने तैरने की शक्ल ले ली। तैरना क्या है? वही हाथ-पैर का तड़फड़ाना है, थोड़ा कुशलता से, थोड़ी व्यवस्था से। वह पहले दिन भी आदमी को पानी में पटक दो, वह भी हाथ-पैर फेंकता है, सिर्फ अव्यवस्थित होता है हाथ-पैर फेंकना। वही रोज-रोज फेंकने से व्यवस्थित हो जाता है।
आज बैठेंगे, अव्यवस्थित होगा संकल्प। कल बैठेंगे--आगे बढ़ेगा। परसों बैठेंगे--आगे बढ़ेगा। फिर इतनी जल्दी क्या है? फिर इतनी फिकर क्या है कि वह आज हो जाए? जीवन की क्षुद्र चीजों के लिए हम वर्षों प्रतीक्षा करते हैं।
पहली बात: संकल्प।
दूसरी बात: संकल्प समझने से नहीं, कुछ करने से, डूइंग से उपलब्ध होगा।
और तीसरी बात: संकल्प के विकास में प्रतीक्षा सबसे बड़ी बात है। आपने चाहा और नहीं हो जाएगा। गहरी प्रतीक्षा और धैर्य!
और जितना धैर्य होगा, उतने जल्दी हो जाएगा। और जितना अधैर्य होगा, उतना मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि अधैर्य खबर देता है कि संकल्प निर्मित नहीं हो पा रहा है। अधैर्य बताता है कि संकल्प निर्मित नहीं हो पाएगा; क्योंकि अधैर्य की भूमि पर कोई भी चीज निर्मित नहीं होती है।
मैंने सुना है, एक नदी के किनारे कोरिया में दो भिक्षु नदी पार किए थे। नाव से उतरे हैं। सांझ डूबने को सूरज है। दूर गांव है। बीच में जंगली रास्ता है, पहाड़ है। जल्दी उस गांव पहुंच जाना है। उन्होंने मांझी को पूछा, उन दोनों भिक्षुओं ने--एक बूढ़ा भिक्षु, एक जवान भिक्षु; बहुत से ग्रंथ लिए हुए हैं--हमें जल्दी उस गांव पहुंच जाना है, सूरज डूबने के पहले। क्योंकि सुना है हमने, सूरज डूबते ही उस गांव का द्वार बंद हो जाता है। फिर रात जंगल में खतरा होगा। क्या हम पहुंच जाएंगे?
उस नाव को बांधते हुए, धीमे से, आहिस्ता से उस मांझी ने कहा, जरूर पहुंच जाएंगे, लेकिन धीरे जाना। जल्दी गए तो मैं नहीं जानता कि पहुंच सकेंगे कि नहीं पहुंच सकेंगे।
उन लोगों ने कहा, किस पागल से हम पूछ रहे हैं! वह सज्जन सलाह दे रहे हैं कि धीरे-धीरे जाना तो पहुंच जाएंगे और जल्दी गए तो मैं नहीं जानता कि पहुंच सकेंगे, नहीं पहुंच सकेंगे।
वे दोनों भागे। सूरज डूबने के करीब है। भागते वक्त भी उस मांझी ने कहा, दोस्तो, तेजी से मत जाना! मैंने तेजी से चलने वाले को कभी पहुंचते नहीं देखा। इतनी बात सुन कर वे और भी तेजी से भागे। आदमी का मजा यह है, आदमी का दिमाग ऐसा है। उनको लगा कि यह तो बड़ा गड़बड़ आदमी है, यह कहता है कि धीरे-धीरे। वे भागे। थोड़ी दूर पर ही, सूरज ढलने के करीब है, अंधेरा घिरने लगा, बूढ़ा आदमी है एक भिक्षु, वह गिर पड़ा एक चट्टान पर, दोनों घुटने टूट गए, ग्रंथ के पन्ने बिखर गए, हवाओं ने ग्रंथ के पन्ने उड़ा दिए। वह जवान लड़का ग्रंथ को इकट्ठा करता फिर रहा है।
तब वह मांझी धीरे-धीरे गीत गाता हुआ, अपनी डांडी लिए किनारे से गुजरता है। कहता है, अरे, वही हुआ जो मैंने कहा था। इतना अधैर्य क्या था? मैंने कहा था कि तेजी से मत जाना, पहाड़ी रास्ता है, इतना अधैर्य मत दिखाना, तो पहुंच भी सकते हो। अक्सर यह होता है, अक्सर यह होता है कि लोग रोज आते हैं, पूछते हैं कि जल्दी पहुंच जाएं! उनको मैं कहता हूं, नहीं मानते, गिर जाते हैं।
उस बूढ़े भिक्षु ने कहा, उस वक्त हमें खयाल नहीं आया।
बहुत प्रतीक्षा की, बहुत धैर्य की जरूरत है भीतर जाने में। अनंत प्रतीक्षा की जरूरत है, क्योंकि अनंत की खोज है यह। यह कोई दो कौड़ी की चीज नहीं है कि हम बाजार में गए और खरीद लिए। दौड़े और मिल गई। मिलती है जरूर, मिल सकती है, आज और अभी मिल सकती है। लेकिन जो आज और अभी ही चाहे, वह चल ही नहीं पाएगा। अत्यंत धैर्य से!
लेकिन धैर्य का मतलब? धैर्य का मतलब यह नहीं कि तीव्रता में कमी हो। धैर्य का मतलब यह नहीं है कि शक्ति में कमी हो। शक्ति पूरी लगे, तीव्रता पूरी हो; लेकिन प्रतीक्षा अनंत हो। राह देखने की तैयारी हो--आज नहीं कल, कल नहीं परसों, परसों नहीं नरसों--हम प्रतीक्षा करेंगे।
छोटे-छोटे बच्चे जाकर बीज बो देते हैं कभी आम का। फिर घड़ी भर में जाकर उखाड़ कर देखते हैं कि अभी तक उसमें अंकुर निकल आया कि नहीं? अब बड़ी बेचैनी है। घंटे भर भी कैसे गुजारें? फिर घंटे भर बाद जाकर उखाड़ कर देखते हैं, अभी तक कुछ नहीं? बड़ी निराशा होती है मन को। कभी नहीं निकलेगा। निकलेगा भी नहीं। क्योंकि निकलने के लिए उसे जमीन में पड़ा रहना जरूरी है। वह पड़ा रहे चुपचाप घुप्प अंधकार में, ताकि अपने को तोड़ सके, फूट सके।
वैसी छोटे बच्चों जैसी हमारी हालत है। दोत्तीन मिनट कहा: मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? फिर सोचा: अरे, अभी तक कुछ हुआ नहीं। खोद लिया जमीन से वापस। फिर देखा कि दूसरे लोग अभी तक कर रहे हैं, चले नहीं गए; फिर दोत्तीन मिनट किया। फिर सोचा: अरे, अभी तक हो नहीं रहा, बड़ी देर लग रही है। तो फिर नहीं होगा, नहीं हो सकता है।
ये तीन बातें ध्यान रख लें: संकल्प चाहिए, संकल्प के लिए क्रिया चाहिए, क्रिया के लिए प्रतीक्षा चाहिए। और अगर ये तीन बातें पूरी हैं, तो कोई वजह नहीं है कि मंजिल को दूर समझा जाए। मंजिल हमेशा निकट है। पहुंचने वाले में कुशलता हो, तो आज और अभी पहुंच सकता है। और पहुंचने वाले में कुशलता न हो, तो जन्मों-जन्मों तक आदमी भटकता है और नहीं पहुंचता है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। अब हम प्रयोग के लिए बैठेंगे।


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