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गुरुवार, 30 अगस्त 2018

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(ओशो) 

क्रांति का आधार सूत्र हैः विचार

हजारों लोग उस आदमी के पीछे थे। औरंगजेब ने अपने महल की खिड़की से झांक कर देखा और पूछा कौन मर गया? नीचे से लोगों ने कहा कौन पूछते हैं, भलीभांति पता होगा आपको, संगीत की मृत्यु हो गई। औरंगजेब हंसा और उसने कहाः बहुत अच्छा हुआ कि संगीत की मृत्यु हो गई। अब जरा मरे हुए संगीत को गहराई से गाड़ देना, ताकि वह वापस न निकल आए। यह घटना आपने सुनी होगी। आज ऐसा लगता है कि फिर दिल्ली में अरथी निकालनी चाहिए और जब आज के औरंगजेब पूछे बाहर झांक कर, तो कहना चाहिए कि विचार की मृत्यु हो गई। पक्का है कि आज के औरंगजेब भी यहीं कहेंगे कि थोड़ा ठीक से गाड़ देना, यह विचार कहीं निकल न आएं।
विचार की हत्या के प्रयास बहुत पुराने हैं। और इस देश में, इस देश में तो विचार को ठीक से जन्म ही नहीं मिल पाया। और जिस देश में विचार का जन्म न हो, उस देश में क्रांति की कोई भी उम्मीद नहीं है। क्योंकि क्रांति का मौलिक सूत्र है विचार। क्रांति का आधार सूत्र है विचार। विचार के खिलाफ क्यों हैं औरंगजेब? चाहे किसी जमाने के हों। और ऐसा ही नहीं है कि इस दुनिया के औरंगजेब ही, सारी दुनिया के औरंगजेब विचार के क्यों खिलाफ हैं? फिर चाहे वे चीन के औरंगजेब हों, चाहे रूस के, और चाहे भारत के, और चाहे अमेरिका के। औरंगजेब हमेशा ही विचार के खिलाफ क्यों है?


सत्ताधिकारी विचार का शत्रु क्यों हैं? धर्मगुरू, नेता, शोषक सभी विचार के दुश्मन क्यों हैं? कुछ कारण है। विचार में विद्रोह के बीज, विचार में क्रांति की शुरूआत है। इसलिए आज तक सदा यह कोशिश की गई है कि मनुष्य बिना विचार के हो। विचार खतरनाक है, इसलिए मनुष्य में और सब हो, विचार न हो। न आदमी सोचे, न आदमी समझे, न आदमी पूछे आदमी सिर्फ माने। जो मानता है वह अच्छा आदमी है। जो पूछता है, वह आदमी अच्छा नहीं है, वह संदिग्ध है।
यह जो स्थिति हजारों साल से चल रही है, दूसरे देशों ने तो इस स्थिति को तोड़ना शुरू कर दिया है, लेकिन इस देश में वह स्थिति अभी भी है। दूसरे देशों ने तो विचार करना शुरू कर दिया है, इस देश ने विचार करना अभी भी शुरू नहीं किया। हम आजाद भी हुए तो भी हम हमारे गुलाम हैं। मन हमारे सोचते ही नहीं। और जो सोचता नहीं है, उसकी स्वतन्त्रता का क्या अर्थ हो सकता है? दूसरे मुल्कों ने तोड़ी है हालत और इसलिए दूसरे मुल्कों के समाज में रूपान्तरण शुरू हुआ है। हजारों वर्ष की बंधी हुई समाज की धारा वहां बदली है, उसने मोड़ लिये हैं, जरूरी नहीं है कि वह मोड़ शुभ की ही दिशा में हों, लेकिन जब अशुभ की दिशा में भी मोड़ लेने की सामथ्र्य आ जाती है, तो बहुत दूर नहीं है वह दिन जब शुभ की दिशा में मोड़ लिये जा सकें। लेकिन जो मोड़ ले ही नहीं सकते, जो बदल ही नहीं सकते, उनके जीवन में तो शुभ की कोई आशा नहीं हो सकती। विचार को रोकने की तरकीबें, क्या हैं, अगर हम यह समझ लें तो विचार को जन्म भी मिल सकता है। और यह भी समझ लेना जरूरी है कि क्यों, आखिरी विचार को रोकने की इतनी चेष्टा क्यों चलती है? गांधीवाद हो तो विचार को रोकने की कोशिश चलेगी, माक्र्सवाद हो तो विचार को रोकने की कोशिश चलेगी, माओवाद हो तो विचार को रोकने की कोशिश चलेगी। सभी वाद विचार से डरते हैं। क्योंकि जहां विचार होगा तीव्र, वहां वाद नहीं बस सकता। वाद मरे हुए विचार का नाम है, वाद उस विचार का नाम है, जो कभी उपयुक्त था, परिस्थितियां बदल गईं, अब वो अनुपयुक्त हो गया है।
लेकिन वह मरने से इंकार करता है, वह कहता है हम जिंदा रहेंगे। सभी विचार किसी परिस्थिति में अर्थपूर्ण होते हैं, फिर परिस्थिति बदल जाती है, परिस्थिति रोज बदल जाती है। परिस्थिति एक क्षण नहीं ठहरती। लेकिन वाद, वाद ठहर जाते हैं। वो बढ़ना बंद कर देते हैं। महावीर ने जो बात कही थी वो पच्चीस सौ साल पहले रूक गई थी। और पच्चीस सौ साल से महावीर के वाद को मानने वाले वहीं ठहरे हुए हैं, इंच भर वहां से आगे नहीं बढ़े। पच्चीस सौ साल में इतिहास नहीं रूका, समय नहीं रूका। पच्चीस सौ साल में जिंदगी नहीं रूकी, जिंदगी एक क्षण नहीं रूकती है, जिंदगी किसी की फिक्र नहीं करती कि तुम कहां रूके हो। जिंदगी आगे बढ़ती चली जाती है। जो रूके हैं, वो मुर्दा हो जाते हैं। जिंदगी उनके लिए नहीं रूकती। जिंदगी आगे बढ़ती चली जाती है। जो मोहम्मद के साथ रूक गए, मोहम्मद का वाद बनाकर, चैदह सौ साल पहले रूक गए हैं। जो जीसस के साथ रूक गए, वे दो हजार साल पहले रूक गए हैं। हमेशा दुनिया में जो लोग सोचते हैं, वो कोई उत्तर देते हैं। लेकिन वो उत्तर उस परिस्थिति के लिए होता है, फिर परिस्थिति बदल जाती है। उत्तर छाती पर पत्थर बनके बैठ जाता है। वाद का मतलब है उत्तर जो कभी सार्थक थे और कभी के व्यर्थ हो गए। वह मनुष्य की गर्दन से लटक जाते हैं। जो आदमी भी किसी बात को मानता है, वो आदमी अपनी आत्मा को नहीं मानता। जो आदमी भी किसी वाद से बंधा हुआ आदमी है, उसने अपने विचार का गला घोंट दिया है। जो आदमी भी कहता है मैं वादी हूं ,हिन्दू हूं , मुसलमान हूं , जैन हूं , कम्युनिस्ट हूं ,गांधीस्ट हूं जो किसी भी इ.ज्म और वाद और संप्रदाय का नाम लेता है, उस आदमी ने सोचना बंद कर दिया है। शायद उसने कभी सोचा ही नहीं। दूसरों ने सोचा है, दूसरी परिस्थितियों में, वह उन्हीं उत्तरों को पकड़ कर रूक गया है। ध्यान रहे, जिंदगी रोज नए सवाल खड़े करती है। और हमारे सब पुराने होते हैं। पुराने उत्तर नए सवालों का जवाब नहीं बनते, बल्कि ये सवाल को समझने में भी बाधा डालते हैं।
एक छोटी सी कहानी कहूं। वह कहानी जरूर सुनी होगी, छोटे-छोटे बच्चे भी उसे पढ़ते हैं। बूढ़े बाप जरूर कहते होंगे कि बच्चे उनको पढ़ें। लेकिन वह कहानी जैसी बताई जाती है, अधूरी है और आधी है, और आधे सत्य झूठ से भी खतरनाक होते हैं। आधा सत्य, असत्य से भी बदतर होता है। क्योंकि असत्य को पहचाना जा सकता है, आधे सत्य को पहचानना भी मुश्किल हो जाता है।
सुनी होगी जरूर ये कहानी कि एक सौदागर था, टोपियां बेचता था। बाजार से लौटता था, कुछ टोपियां बची थी उसकी टोकरी में, सो गया है एक वृक्ष के नीचे, खुली नींद तो देखा कि बंदर उसकी टोपियां ले गए हैं, बहुत चिंतित हुआ, लेकिन फिर उसे एक ख्याल आया, कि बंदर तो नकलची होते हैं, अपनी टोपी उसने निकाल कर सड़क पे फेंक दी, सभी बंदरों ने टोपियां फेंक दीं, उसने टोपियां इकट्ठी की, अपने घर चला गया। इतनी ही कहानी सुनी होगी, यह कहानी आधी है। और आधी कहानी खतरनाक है। आधी कहानी और मैं आपको बताना चाहता हूं। वह सौदागर मरा। उसका लड़का बड़ा हुआ। लड़के ने भी वही काम किया, जो उसका बाप किया करता था। सभी नासमझ लड़के वही करते हैं, जो उनके बाप करते हैं। बेटे में थोड़ी समझ हो तो बाप से आगे जाता है। बेटे में समझ न हो तो, बाप की सीमा को लक्ष्मण रेखा समझ लेता है। और वहीं रूक जाता है।
बुद्धिहीन बेटों के कारण दुनिया रूकती है। बुद्धिमान बेटों के कारण दुनिया बढ़ती है। लेकिन बाप कभी भी बुद्धिमान बेटों को पसंद नहीं करते, बाप हमेशा बुद्धिहीन बेटों को पसंद करते हैं। क्योंकि बुद्धिमान बेटा बाप के अहंकार को चोट पहुंचाता है। बुद्धिमान बेटा कहता है हम आगे बढ़ेंगे। बुद्धिहीन बेटा कहता है, पिता तुम्हारी जो सीमा है वही विकास की सीमा है, उससे आगे कोई कैसे बढ़ सकता है। तुम्हीं अंतिम हो, तुम्हीं परम हो। तुम्हीं चरम हो। जो बेटा कहलाने के योग्य भी नहीं। दुनिया में बहुत कम बुद्धिमान पिता हैं, जो बुद्धिमान हैं पिता, वो उन बेटों को आदर करेगा जो, पिता को पीछे छोड़ देते हैं। वह उस बेटे को आदर करेगा, जिसके समझ पिता भूल जाए। वह उस बेटे को सम्मान देगा, जिसके कारण दुनिया कहे कि अब, जहां पिता ने छोड़ा था उससे बहुत आगे ले गया, उसका बेटा। पिता पिछड़ जाए यही सच्चे पिता की कामना हो सकती है। लेकिन नहीं, अहंकार बहुत मजबूत है। उस बाप ने भी यही चाहा था कि मेरा बेटा भी टोपी बेचे, क्योंकि उसने कहा था कि मेरे बाप भी टोपी बेचते थे। उनके बाप भी टोपी बेचते थे। उनके बाप भी टोपी बेचते थे। हम सदा से टोपी बेचते हैं। हम दूसरा काम कभी नहीं किया, हमारे बाप-दादों ने नहीं किया तो तुम कैसे करोगे? जो बाप ने किया है, वही करना नियम है, वही धर्म है वही शास्त्र है।
बेटे ने भी टोपियां बेची। वह भी गया, उसी झाड़ के नीचे रूका, जिसके नीचे बाप रूका था। क्योंकि दूसरे झाड़ के नीचे रूकना ठीक नहीं था, पता नहीं पुरखे नाराज हो जाएं। पुरखे नाराज हो जाएं और कहने लगें, कैसे नालायक हो? जहां बाप रूका था, वहां नहीं रूकते। उसी झाड़ के नीचे उसी जगह उसने अपनी टोकरी रखी। और सो गया, जहां बाप ने रखी थी। बंदर उतरे, बन्दरों के बाप भी मर चुके होंगे। उनके बेटे थे, जो उनके बाप ने किया वही उनको भी करना था। वह उतरे और उन्होंने टोपियां लगाई और झाड़ पे चढ़ गए। बेटे की नींद खुली, याद आई कहानी, बाप ने बताया। बंदर नकलची होते हैं। उसे याद नही रहा कि बंदर ही नकलची नहीं होते, वह खुद भी नकलची था। उसने अपनी टोपी निकाल कर सड़क पर फेंक दी, लेकिन चमत्कार हुआ। एक बंदर नीचे उतरा, उस टोपी को भी लेकर झाड़ पर चढ़ गया। आदमी नहीं बदला था, बंदर अब तक बदल चुके थे। और बंदरों ने समझ लिया कि नकल करना खतरनाक है। और समझ गए थे, सीख गए थे तरकीब कि आदमी टोपी फेेंकता है, तब टोपी नहीं फेंकनी चाहिए। हमारे बाप-दादों ने भूल की थी, अब हम ये भूल नहीं करेंगे। बन्दर वादी नहीं थे। बेटा वादी था।
हिन्दुस्तान हजारों साल से वादों से परेशान और पीड़ित है। पुराने वाद ही बहुत महंगे पड़ रहे हैं। और ये गांधी का नया वाद भी खड़ा हो गया। गांधी बहुत प्यारे हैं। गांधीवाद जरा भी नहीं। गांधी बहुत अदभुत हैं, गांधीवाद जरा भी नहीं। महावीर बहुत प्यारे हैं, महावीर का वाद जरा भी नहीं। जीसस अद्भुत हैं, लेकिन क्रिश्चयनिटि नहीं होनी चाहिए दुनिया में।
आदमी पैदा होते हैं जमीन पर सुगंध से भरे हुए, वह तो विदा हो जाते हैं, लेकिन उसने आस-पास नकलचियों का, बंदरों का गिरोह इकट्ठा हो जाता है। और वह एक वाद, एक रेखाबद्ध रूपरेखा, जकड़ी हुई पैटर्न, एक बंधा हुआ ढांचा खड़ा करते हैं, और कहते हैं बस अब ऐसा ही होना चाहिए। अब ऐसा ही किया जाना चाहिए। अब यही उत्तर है, प्रमाणित, ओथोरिटेटिव, यही, बाकी सब गलत। लेकिन जिंंदगी किसी वाद के लिए ठहरी। जिंदगी रोज नये सवाल खड़े कर देती है। जो सवाल गांधी के समय में जिंदगी ने पूछे थे, वह हमारे समय में जिंदगी नहीं पूछ रही है। जो हमारे सामने पूछेगी, जिंदगी सवाल, वह आने वाले बच्चों के सामने नहीं पूछेगी। लेकिन भूल के अपने बेटों को प्रेम तो देना, लेकिन अपने बेटों को अपने सिद्धान्त मत देना। प्रेम तो ठीक है, सिद्धान्त खतरनाक है। क्योंकि प्रेम तो मुक्त करता है, सिद्धान्त बाध लेते हैं। बाप से कहना चाहता हूं बेटों को प्रेम देना, सिद्धान्त मत देना। बेटों को कहना चाहता हूं, बाप को आदर देना, लेकिन जो बाप ने किया, जैसा बाप था, जो बाप था, उसको अपने जीवन की लक्ष्मण रेखा मत बना देना। बाप बेटे को प्रेम दे, ये समझ में आता है, बेटे बाप को आदर दें यह समझ में आता है, लेकिन बाप बेटों को बांधने का कारण बने, और बेटे बाप से बंध जाएं, तो समाज में कभी कोई क्रंाति कभी कोई विकास नहीं होता। समाज अवरूद्ध हो जाता है, रूक जाता है। ठहर जाता है। भारत का समाज रूका हुआ समाज है, जैसे कोई डगरा बन गया हो। नदी नहीं है, भारत का समाज। उसमें बहाव नहीं है, उसमें गति नहीं। वह किसी अज्ञात सागर की खोज में प्रवाह नहीं है। फर्क देखा है, नदी में और तालाब में, तालाब बंधा हुआ डगरा होता है। वह कहीं जाता नहीं। जहां उसका बाप था, वह वहीं रहता है। जहां उसके और बाप-दादे रहे, वह वहीं रहता है। डगरा एक ही जगह ठहरा हुआ है। नदी भागती है, आगे की तरफ, अंजान रास्तों पर, अपरिचित मार्गों पर। अंजाने, अनपहचाने, नामालूम किस सागर की तरफ? अज्ञात, अननाॅन, नदी उस तरफ भागती है, इसलिए नदी जिंदा है। क्योंकि नदी, अपरिचित का आलिंगन करने को तत्पर है। जो परिचित के साथ रूकता है, वह मर गया। जो अपरिचित के साथ आगे बढ़ता है, वह जिंदा है। अपरिचित, अननाॅन, इंसिक्योरिटि जहां है, असुरक्षा जहां है। जहां हमें पता नहीं कि क्या है रास्ता, क्या है मार्ग, क्या है नक्शा? अनचार्टर, जहां कोई हिसाब नहीं, कोई रेखा नहीं, कोई मार्ग के चिह्न नहीं, कोई रास्ता बंधा हुआ नहीं, वहां, वहां जो बढ़ते हैं, वह जीवित है। और जो कहते हैं, हम बंधी हुई लीक पर चलेंगे, हम राजपथ पर चलेंगे, हम उसी रास्ते पर चलेंगे, जिसपे हमेशा चले हैं, वे कहीं जाते नहीं, वेे गोल-गोल चक्करों में घूमते रहते हैं। तालाब की तरह, अपने ही भीतर चक्कर लगा लेते हैं। सड़ते हैं, गलते हैं, नष्ट होते हैं, और उनकी जिंदगी में न कोई सुबास होती है, न ताजगी होती है, न स्वच्छता होती है।
भारत एक डगरा है। डगरा किसने बनाया? ये डगरा कैसे बन गया? यह वाद के आग्रह ने भारत को डगरा बनाया। क्योंकि वाद आते हैं अतीत से और, जिंदगी जाती है भविष्य की तरफ, यह कभी ख्याल किया है? सिद्धांत आते हैं पीछे से, जीवन जाता है आगे। जिंदगी कभी पीछे नहीं लौटती, और सिद्धान्त सब पीछे से आते हैं। वेद पीछे से आता है। गीता पीछे से आती है। कुरान पीछे से आती है, बाइबिल पीछे से आती है। सब पीछे से आते हैं सिद्धान्त। और जिंदगी, जिंदगी पीछे की तरफ कभी नहीं जाती। जिंदगी सदा आगे, सदा आगे, और आगे, जिंदगी जाती है आगे की तरफ, और हमारे चित्त बंधे होते हैं पीछे की तरफ, तो एक कश्मकश, एक काॅन्फेक्ट, समाज की चेतना में एक द्वंद्व पैदा हो जाता है। उस द्वंद्व के कारण टूट पैदा होती है, गति नहीं होती। जिस समाज का चित्त आपस में ही खंडित, टूटा हुआ होता है, उसकी हालत ऐसी है, जैसे हमने एक ही बैलगाड़ी में दोनों तरफ बैल जोत दिये हों। दोनों तरफ बैल जुते हैं, बैल दोनों तरफ बैलगाड़ी को खींचते हैं। बैलगाड़ी कहीं जाती नहीं। जा भी नहीं सकती, जाएगी कैसे? लेकिन बैलगाड़ी के अस्थि-पंजर टूटने लगते हैं। दोनों तरफ बैल खींचते हैं तो क्या होगा? कैसे चलेगी बैलगाड़ी? वहीं घसीटेगी, एक ही जगह पर रहेगी, वहीं टूटेगी और नष्ट होगी। भारत की जिंदगी में ऐसा ही है। ऐसा ही कंट्रिडिक्शन, ऐसा ही विरोध, द्वंद्व पैदा हो गया है।
जीवन आगे की तरफ, सिद्धांत पीछे की तरफ। चित्त पीछे की तरफ, ऊर्जा आगे की तरफ। सारा देश पीछे की तरफ खिंचा हुआ है, हजारों साल से। जाओ, रूस के बच्चों से पूछो, क्या सोचते हो? तो वो सोचते हैं चांद-तारों पे बस्ती कैसे बसाएं? पूछो अमेरिका के बच्चों से, तो वह सोचते हैं मंगल को कैसे जीत लें? और देखो भारत के बच्चों की तरफ, वे रामलीलाएं देख रहे हैं। रामलीला बहुत सुंदर है, लेकिन कब तक देखते रहेंगे? और कितनी बार देखी जा चुकी रामलीला। और देखते जा रहे हैं, देखते जा रहे हैं। हर साल एक घूमता हुआ चक्र है, कोल्हू के बैल हैं हम, और हम उसको देखते रहेंगे। बहुत प्यारे हैं राम। जरूर, तभी उनकी याद बहुत सुंदर है। लेकिन अभी और राम पैदा होंगे, भविष्य में। जो अतीत के रामों से भी प्यारे हो सकते हैं। अभी बहुत रामलीलाएं होंगी, जो इस पृथ्वी पर ही नहीं चांद-तारों पर भी खेली जा सकती हैं। लेकिन वो रामलीलाएं दूसरी कौमों के बच्चे खेलेंगे। वो रामलीलाएं हम नहीं खेलेंगे। हमारी रामलीला हो चुकी। एक बार हमने खेल ली, अब बार-बार खेलने से क्या मतलब। अब हम उसका नाटक कर लेते हैं, और काम चला लेते हैं। राम एक दफा हो गए, अब बार-बार राम जैसे आदमियों की क्या जरूरत है? अब तो हम अपने हर गांव में राम बना लेते हैं।
यह जो अतीतोन्मुखी, यह जो अतीत की तरफ देखती हुई आंखे हैं, ये जो अतीत पे ठहर गया भारत का चित्त है, तो कभी भी भारत की जिंदगी में कोई क्रांति नहीं हो सकती। क्रान्ति होती है, भविष्योन्मुख चित्त से। आगे की तरफ जाने वाला, आगे की तरफ देखने वाली आंखें, भविष्य को घूरने वाली अंाखे,ं भविष्य की खोज में उत्सुक और आतुर, लेकिन जो बार-बार पीछे लौटके देखता है, पीछे लौटके बार-बार देखता है, कहना ही गलत है, जो पीछे ही देखता है। वह कैसे आगे जा सकता है? हम पीछे क्यों देखते हैं लेकिन? यह पीछे देखने का पागलपन हमें क्यों सवार है? ये हमारी गर्दन को लकवा क्यों लग गया है? ये पैरालिसिस क्यों, जो आगे की तरफ देखती ही नहीं। कुछ कारण हैं। कभी आपने ख्याल न किया हो शायद, छोटे बच्चे सदा आगे की तरफ देखते हैं। बूढ़े सदा पीछे की तरफ देखते हैं। छोटे बच्चों के आगे भविष्य होता है। बच्चे का मतलब है, जिसको आगे भविष्य। बूढ़े का, बूढ़े का कोई भविष्य नहीं होता, सिर्फ अतीत होता है। आगे, आगे तो सिर्फ मौत होती है। उससे डर कर वह आगे की तरफ देखता नहीं। वह पीछे की तरफ देखता है, वह देखता है बचपन, जवानी। वह गीत जो कभी गाए। वह सपने जो कभी देखे। वह फूल जो कभी बरसे थे। वह वीणा, जो कभी बजी थी। वह सब पीछे देखता है। आंख बन्द करके स्मृति में खोया रहता है। क्योंकि आगे आंख खोल कर देखे तो मौत है। बूढ़ा आदमी आगे नहीं देखता। और जो आदमी आगे नहीं देखता, समझ लेना, वो बूढ़ा हो गया है। और अगर कोई बूढ़ा आदमी आगे देखता रहे, तो शरीर तो बूढ़ा होता है, आत्मा कभी बूढ़ी नहीं होती। और अगर कोई जिद करे कि पीछे नहीं देखेंगे, आगे ही देखेंगे, तो वह आदमी मरते वक्त तक भी बच्चा होता है।
सुकरात को जहर दिया जा रहा था। अब जिसे जहर दिया जा रहा है, उसको तो पीछे लौट कर देख लेना चाहिए। अब तो मौत दूर भी नहीं है, बाहर आवाज आ रही है, जहर घोला जा रहा है। सुकरात के मित्र रो रहे हैं, उनको शायद पीछे की याद आ रही होगी कि वह दिन जो सुकरात के साथ उन्होंने बिताए थे। वह बातें, जो उससे सुनी थी। वह अमृत, जो उससे बहा था। वह आंखे जो कल तक चांद-तारों से भी ज्यादा रोशन थी। वह आदमी जिसकी धड़कन में प्रेम था और सबकुछ था, जो सुंदर, श्रेष्ठ, शुभ वो खत्म हो जाएगा। वो सब पीछे खाए होंगे। उनकी आंखों से आंसू टपक रहे हैं। सुकरात, सुकरात उठ-उठके बार-बार दरवाजे पे जाता है, और जहर पीसने वाले से पूछता है, कितनी देर और है? कितनी देर और है? बहुत देर लगा रहे हो मित्र। उस जहर पीसने वाले ने कहा, पागल हो गए हो तुम? मैं तुम्हारी वजह से धीरे-धीरे पीस रहा हूं कि थोड़ी देर तुम और जी लो। थोड़ी देर और श्वांस ले लो। इतनी जल्दी क्या है, मरने की? सुकरात कहता है जल्दी? जल्दी बहुत है, जिंदगी तो जानी हुई है, मौत अपरिचित है। अपरिचित को जानने की बड़ी आतुरता है। क्या है आगे? मौत के आगे क्या है? उसको देखने के लिए मन बड़ा आतुर है।
यह आदमी बूढ़ा हो सकता है? यह मौत के पार भी आगे देखता है? यह मौत के पार भी आगे देखता है। यह आदमी बूढ़ा हो सकता है? यह मरते क्षण भी निर्दोष बालक है। एक इन्नोसेन्ट चाइल्ड है। जिसकी जिंदगी में अभी कोई अतीत नहीं है। जिसकी ंिजंदगी में अतीत की कोई लकीर नहीं। जिसकी जिंदगी की पट्टी पर लकीर नहीं खिंच गई है। अभी खाली-खाली साफ आकाश है उसके मन का। अभी आगे वो देखने को तैयार है। न केवल व्यक्तियों का, बल्कि समाजों का भी, जो समाज सदा आगे देखने को तत्पर रहता है, वो समाज जवान होता है, युवा होता है, ताजा होता है। जो समाज पीछे देखने लगता है, वो बूढ़ा हो जाता है। भारत एक बूढ़ा देश है। इसलिए हम पीछे देखते हैं, बार-बार। और जब तक हम ये न समझ लें कि हम बूढ़े हो गए हैं, तब तक हम फिर से पुनर्यौवन नहीं पा सकते। लेकिन हम तो अपने बुढ़ापे का बड़ा गौरव करते हैं। हम तो यह कहते हैं, हमसे पुराना कोई भी नहीं।
रोम मिट गया, इजिप्ट मिट गया, बेबीलोन कहां है? असीरिया कहां हैं? हम अब भी, वह मिट नहीं गए साहब, वो बदल गए। रोम अब भी है। असीरिया अब भी है। इजिप्.ट अब भी है। वह बदलते चले गए। वह बदलते चले गए, वह रोज नए होते चले गए। और हम, हम पुराने के पुराने बने रह गए। ये गौरव की बात नहीं है, यह इस बात का सबूत है कि हमने बदलने की क्षमता और सामथ्र्य खो दी। हमने बदलना बंद कर दिया। जो बदलना बंद कर देगा, वह बूढ़ा हो जाता है। आपको पता है बूढ़े होने का मतलब क्या होता है? बूढ़े होने का मतलब होता है, जिसमें बदलने की लोच, लैक्सिबिलिटि चली गई जो अब बदल नहीं सकता। जो या तो मर सकता है या ऐसा ही रह सकता है। लेकिन बदल नहीं सकता। बच्चा कितने जोर से बदलता है? बच्चा कितने जोर से बदलता है? कल जो था आज नहीं है, आज जो है कल नहीं होगा। सुबह जो था, सांझ नहीं है। बच्चे को देखो कैसे बदलता है? कैसी बदलाहट है उसकी जिंदगी। लेकिन बूढ़ा जो कल था, वही आज है। जो आज है, वही कल होगा। बस अब एक ही बदलाहट आएगी उसकी जिंदगी में, उस बदलाहट का नाम मौत है। मौत बदलाहट नहीं है, मौत है बदलाहट का रूक जाना। मौत है ऐसी घड़ी, कि जिस आदमी ने बदलना बंद कर दिया, तो भगवान कहता है उठा लो इसे, अब इसने बदलना बंद कर दिया। अब ये जिंदा नहीं है। मौत का मतलब होता है वह जो बदलाहट थी, वह बन्द हो गई। वह जो लैक्सिबिलिटि थी, लोच थी, जिंदगी में वह खो गई। समाजों के साथ भी यही सत्य है। जब कोई समाज बदलना छोड़ देता है तो बूढ़ा होता चला जाता है। जब बहुत बूढ़ा हो जाता है, तो आदमी तो मर जाता है, व्यक्ति तो मर जाता है, लेकिन समाज मरते नहीं, इसलिए समाज बूढ़े से बूढ़ा होता चला जाता है। फिर भी जिंदा रहता है, फिर भी जिंदा रहता है। समाज मर नहीं सकता। समाज तो जिंदा ही रहेगा। लेकिन बूढ़े होकर समाज का जिंदा रहना बहुत दुःख का कारण हो जाता है।
भारत एक हजार साल गुलाम रहा। कोई जवान कौम एक हजार साल गुलाम रह सकती है? भारत हजारों साल से दरिद्र है। कोई जवान कौम इतने दिन दरिद्र रह सकती है। लेकिन नहीं, हम जैसे है, हैं। हम कोई बदल नहीं सकते। हिन्दुस्तान हजारों साल से गरीब है, कभी ये सोचा। लेकिन हम कहेंगे, नहीं-नहीं, एक जमाना था, भारत सोने की चिड़िया थी। झूठी हैं ये बातें, भारत कभी सोने की चिड़िया नहीं थी। हां, कुछ लोगों के लिए थी, तो कुछ लोगों के लिए आज भी है। कुछ लोगों के लिए सोने की चिड़िया थी। कुछ के लिए आज भी है। और कुछ लोगों के लिए कोई देश सोने की चिड़िया तभी हो सकता है, जब सारे देश का जीवन, सारे देश का जीवन जब कुछ लोगों के हाथ में इकट्ठा हो जाए, और सारे देश के प्राण जब कुछ लोगों के लिए सोने के ढेरे बन जाएं, और सारे देश की आत्मा जब बिक जाए, और कुछ लोगों के पास सोने की तिजोरियां हो जाएं, तब कुछ लोगों के लिए देश सोने की चिड़िया हो सकती है, जरूर है। बिरला के लिए सोने की चिड़िया है, आज भी। लेकिन हम कहेंगे बिरला 1947 में आजाद हुआ देश, उसके पास केवल तीस करोड़ की सम्पत्ति थी। फिर अब, अब उसके पास साढ़े तीन सौ करोड़ से ऊपर सम्पत्ति है। बीस वर्ष में तीन सौ करोड़ की सम्पत्ति इकट्ठा करने का रिकाॅर्ड नहीं है मनुष्य जाति के इतिहास में। अमेरिका में भी नहीं, जहां सोना बरसा है। वहां भी एक परिवार ने बीस वर्षों में तीन सौ, सवा तीन सौ करोड़ रूपये कमाएं हों, इसका कोई रिकाॅर्ड नहीं है। लेकिन शास्त्रों में लिखा है सत्संग का बहुत लाभ होता है। वही सिद्ध होता है। गांधीजी का सत्संग किया, अब लाभ उठा रहा है, सत्संग का लाभ तो सदा होता है। सत्संग तो कभी खाली नहीं जाता।
तो बिरला के लिए सोने की चिड़िया आज भी हो सकती है। दस-पच्चीस परिवारों के लिए आज भी भारत सोने की चिड़िया है। लेकिन भारत के लिए सोने की चिड़िया भारत कब था? कभी भी नहीं। भारत हमेशा से गरीब है।
काउंट किसल्ली नाम का एक जर्मन यात्री भारत से वापस लौटा। उसने अपनी डायरी प्रकाशित की है, मैंने उसकी डायरी पढ़ी, तो मैं एक लकीर पर जाके चैंक के रूक गया। लिखा है एक वाक्य, वह मेरी समझ में एकदम से नहीं पड़ा। मैंने सोचा, कहीं छापेखाने की भूल भी हो सकती है। लेकिन फिर ख्याल आया कि किताब जर्मनी में छपी है, और छापेखाने की भूल तो यह अपने ही देश में होती है। तो फिर मेरी ही कोई गलती होनी चाहिए। यहां तो यह है कि हर किताब छपती है उसके पहले शुद्धिपत्र छाप देना पड़ता है। उसको किताब के ऊपर ही लगा देते हैं, और अगर, शुद्धिपत्र को गौर से पढ़िये तो उसमें भी अशुद्धियां रहती हैं।
यह तो जर्मनी में छपी, मैंने सोचा कैसे इसमें भूल रह गई? भूल तो हो नहीं सकती, फिर मैं ही भूल पर होना चाहिए। फिर बार-बार उसके वाक्य को पढ़ा, फिर ख्याल आया कि वह मजाक कर रहा है। उसने एक वाक्य लिखा है अपनी किताब में। उसमें लिखा है कि ‘इण्डिया इ.ज रिच लैण्ड, वेयर पूअर पीपल लिव।’ हिन्दुस्तान एक अमीर देश है, जहां गरीब आदमी रहते हैं। तो यह तो बड़ी मुश्किल बात हो गई। अगर देश अमीर है तो गरीब आदमी क्यों रहते हैं वहां? और अगर आदमी गरीब रहते हैं तो देश को अमीर कहने का मतलब क्या है? लेकिन वह ठीक मजाक कर रहा है। वह कह रहा है देश तो अमीर है, लेकिन रहने वाले इतने बूढ़े हैं, कि वह गरीब ही रहना उनका भाग्य है। वह जवान होते तो देश की अमीरी बरस जाती, लेकिन वह बूढ़े हैं, वह कुछ भी नहीं कर सकते। वह सिर्फ बैठके देखते रह सकते हैं कि जो हो रहा है। ंिजंदगी को हम एक तमाशबीन की तरह देख रहे हैं, इसलिए बूढ़े होते चले गए हैं। जिंदगी को जी नहीं रहे, जिंदगी के साथ लड़ नहीं रहे, जिंदगी के साथ संघर्ष नहीं कर रहे। जिंदगी को देख रहे हैं, एक दर्शक की भांति कि नाटक चल रहा है और दर्शक बैठे हुए देख रहे हैं। देखने वाले को कुछ करना नहीं पड़ता। हम पार्टिसिपेंट नहीं हैं, हम जिंदगी के भागीदार नहीं हैं। और इसलिए हम बूढ़े होते चले गए हैं। और यह बुढ़ापा हमारा इतना ज्यादा बढ़ गया है, कि अब, अब शायद हाथ-पैर भी नहीं हिलते। लेकिन हम इसको तोड़ने के लिए भी कुछ न सोच रहे हैं, न विचार कर रहे हैं। बल्कि अगर कोई आदमी इसको सोचने को कुछ कहे, तो हम नाराज होते हैं। हम बहुत क्रोध से भर जाते हैं, कि नहीं ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिएं। हमारे महात्माओं की आलोचना नहीं करनी चाहिए। हमारे महापुरूषों की आलोचना नहीं करनी चाहिए। हमारे भगवान जो कह गए, बिल्कुल ठीक है, हमारे शास्त्र में जो लिखा है, सब ठीक है। हमें पता नहीं, कि अगर हम विचार नहीं करेंगे, तो हम जवान नहीं हो सकते, और हम जवान नहीं हो सकते तो हम नहीं बदल सकते। कैसी क्रांति? क्रांति कौन करेगा? क्रांति कैसे होगी? लेकिन हम विचार करने से डर गए हैं। अगर गांधीजी पर कुछ कहो, कि सोचें उन पर हम, तो उनके पीछे जाल खड़ा हुआ है, वह कहता है नहीं। हमारा एक मात्र काम है कि हम पूजा करें। उनकी मूर्ति बना कर चैरस्ते पर खड़ी करें, फूल चढ़ाएं, हमारा यह काम है। विचार वगैरह करना हमारा काम ही नहीं है। हम विचार करना ही नहीं चाहते, विचार की जरूरत क्या है? जो है वो ठीक है, जो है, वह सच है। इसलिए विचार क्या करना है? हमारे सिद्धांत सब ठीक हैं, अगर गलत है तो आदमी गलत है। सिद्धांत तो हमेशा से ठीक हैं हमारे, आदमी गलत है, आदमी को बदलो, सिद्धांत को बदलने की क्या जरूरत है? हमारे मुल्क की ये धारा है, आज तक की ट्रेडिशन है, हम कहते हैं सिद्धांत सब ठीक हैं, आदमी गलत है। अगर बदलना है तो आदमी को ठीक-ठाक करो। सिद्धांतों को ठीक करने की जरूरत नहीं है। लेकिन पांच हजार साल से हम जिन सिद्धांतों की बात कर रहे हैं, उनके अनुकूल न तो हम आदमी को ढाल पाए, और न हम उन सिद्धांतों को बदलने को राजी हैं। तो ये खीझ पैदा हो गई है एक। ये कैसे टूटेगी? मैंने एक छोटी सी कहानी सुनी।
मैंने सुना है, एक राजमहल के नीचे से एक, गर्मी की दुपहर में, एक पंखा बेचने वाला निकल रहा था। वह जोर-जोर से चिल्ला रहा था, कि बहुत अनूठे पंखे, ऐसे पंखे आपने कभी देखे ही नहीं होंगे। सम्राट ने सुना एक बार, दो बार, तीन बार उसके पास बहुत सुन्दर पंखे थे, श्रेष्ठतम पंखे थे, जो भी दुनिया में मिल सकते थे, सब थे। उसने खिड़की से झाँक के देखा, कि कैसे अनूठे पंखे हैं जो आदमी चिल्ला रहा है। देखकर और हैरानी हुई, साधारण पंखे जो दो-दो पैसो में मिलते हैं। फिर भी वह आदमी चिल्ला रहा है कि ऐसे पंखे आपने देखे भी नहीं होंगे। सम्राट ने कहा, इस आदमी को ऊपर बुला लाओ। वह पंखे वाला ऊपर आया। सम्राट ने कहा क्या खूबी है तेरे पंखे की? उस आदमी ने कहा, यह पंखे देखने में साधारण, भीतर से असाधारण। दुनिया को धोखा देने का यह रास्ता बहुत अच्छा है। उस आदमी ने कहा, यह ऊपर से साधारण, भीतर से बहुत असाधारण हैं। शरीर पर मत जाइए, आत्मा पर जाइए। राजा ने कहा पंखों की भी आत्मा? लेकिन, अच्छा, उसने कहा ठीक है, क्या खूबी है इनकी असाधारण आत्मा की? उस आदमी ने कहा, यह सौ साल चलते हैं। सौ साल में यह टूट नहीं सकते। राजा ने कहा, चमत्कार कर रहे हो? यह पंखा ऐसा ढीला-फोला दिखता है कि दो दिन नहीं चल सकता। उस आदमी ने कहा, सौ साल की गारण्टी। दाम क्या है? राजा ने पूछा। उसने कहा, सौ रूपये। राजा ने कहा, ठीक खूब लूट रहे हो लेकिन तुम जानते हो फांसी पर लटकवा दूंगा, अगर यह बात झूठ निकली। और अगर बेईमानी हुई। उस आदमी ने कहा, महाराज रोज यहीं पंखे बेचता हूं,, रूपये पीछे भी ले सकता हूं। सौ साल चलेगा यह। लेकिन अगर मैं मर गया तो क्या होगा? इसलिए रूपये अभी लेता हूं। इसकी वजह पंखे के कारण नहीं, अपने कारण हैं। आपका क्या भरोसा? मेरा क्या भरोसा? पंखा तो सौ साल चलेगा। गारंटी सौ साल की है। और रोज निकलूंगा, जब टूट जाए तो मुझे बुलाकर आप बात कर सकते हैं।
सौ रूपये उसे दे दिये गए। राजा जानता था, पंखा खरीद लिया गया है। लेकिन दूसरे ही दिन, उस पंखे की डंडी तो निकल गई। असाधारण पंखा था। साधारण होता तो दो-चार दिन भी चल सकता था। राजा ने कहा, लेकिन अजीब आदमी है, बड़े, जोश से और हिम्मत से और प्रामाणिकता से कहा है, शायद आज आएगा नहीं। लेकिन ठीक समय पर पंखे वाले की आवा.ज सुनाई पड़ी। राजा ने उसे बुलाया। और कहा, महाशय! ये पंखा तो टूट गया। उस आदमी ने गौर से पंखे को देखा और राजा को ऊपर से नीचे तक और गौर से देखा। और कहा, महाराज! मालूम होता है आपको पंखा झलना नहीं आता। राजा ने कहा, क्या कहते हो, पंखा झलना नहीं आता। यह और एक नई बात सुनी। उस आदमी ने कहा, कृपा करके पंखा झल कर बताइये, क्योंकि मुझे हैरानी में डाल दिया। सौ साल जिस पंखे की गारंटी है, उसको एक दिन में तोड़ कैसे डाला? यही एक आश्चर्य। आपने कैसे पंखा किया? राजा ने कहा, तुम आदमी होश में हो कि पागल हो? क्या मुझे पंखा करना नहीं आता? उस आदमी ने कहा, निश्चित नहीं आता। आप पंखा झल कर बताइये। राजा ने पंखा झल कर बताया। उस आदमी हंसने लगा, उसने कहाः मैं समझ गया, यह झलने की बातें नहीं हैं। यह कोई झलने का ढंग नहीं है। उसने कहा फिर क्या ढंग है? उस आदमी ने कहा पंखे को संभाल के पकड़िये और सिर को हिलाइये। पंखा सौ साल चलेगा। आप खत्म हो जाओगे, मैं खत्म हो जाऊंगा। पंखा खत्म होने वाला नहीं। पंखा तो गारंटीड है। आप गड़बड़ हैं।
यह ही हम पूरे मुल्क में हजारों साल से कह रहे हैं। हमारे सिद्धांत तो सब ठीक हैं, आदमी गड़बड़ है, आदमी को बदलो। सिद्धांत को छूना मत। ये बहुत नासमझी हो चुकी। नहीं, आदमी गलत नहीं है, आदमी कभी गलत नहीं था, आदमी गलत पैदा होता ही नहीं है। लेकिन अगर आदमी के ऊपर गलत सिद्धांत थोपे जाएं, तो आदमी गलत हो जाता है। आदमी अपने आप में ठीक पैदा होता है। आदमी अपने आपमें गलत पैदा होता ही नहीं। लेकिन अगर गलत ढांचे में आदमी को ढालने की कोशिश की जाए, तो आदमी गलत हो जाता है। और भारत का आदमी गलत हुआ है। उसके गलत होने का कारण वह खुद नहीं है, उसके गलत होने का कारण, हमारे समाज का हमारे जीवन का ढांचा, हमारे सिद्धांतों की गलत पकड़ है।

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