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गुरुवार, 30 अगस्त 2018

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-04)

प्रवचन-चौथा-(ओशो)

किनारों से जंजीर भी छूट जाना जरूरी है

और कुछ लड़के एक मौजूदा आलम में इकट्ठे हुए। आधी रात गए तक उन्होंने शराब पी, फिर बाहर गए, चांद को देख कर मन में खयाल आया कि चलें नदी तक, नौका विहार करें। वे नदी पर गए, मछुए अपनी नावें बांध कर घर जा चुके थे। उन्होंने देखा एक बड़ी नाव थी, पतवारें खोली, नाव को खेना शुरू किया, नशे में धुत थे, चांदनी रात थी, मौज में थे, गीत गाने लगे। पतवार चलाने लगे। जोर से उन्होंने पतवार चलाईं, नाव खेई। पता नहीं कितनी देर तक नाव खेते रहे, कितनी दूर तक। जब सुबह की हवाएं बहने लगीं, और नशा कुछ उतरा तो खयाल आया। न मालूम कितनी दूर निकल आए वह। अब वापस लौट चलना चाहिए।
कहा किसी एक ने कि नाव को देख लो, कि वह किस दिशा में चले आए हैं। क्योंकि नशे में थे हम, हवाओं की दिशा का कोई हिसाब नहीं, कोई ठिकाना नहीं।
हम पूरब आए कि पश्चिम, हम अपने गांव से कितनी दूर हैं, कुछ पता नहीं। एक मित्र नाव से उतरा और जमीन पे खड़ा होकर हंसने लगा, दूसरे मित्रों ने पूछा हंस रहे हो क्या हुआ? तो उसने कहाः तुम भी उतरो।

और वे सब एक-एक करके उतरे और वह किनारा हंसी से गूंजने लगा। क्या हो गया था? पास-पड़ोस से लोग भी जाग कर भीड़ लगा ली। पूछने लगे, क्या हो गया? पागल हो गए हो। पागल होने जैसी बात हो गई थी। नाव वहीं खड़ी थी जहां रात उन्होंने उसे पाया था। असल में नावों की जंजीर किनारों से छोड़ना वे भूल गए थे। नाव किनारे से बंधी हुई थी।
पतवार को चलाने से नाव नहीं चलती है। किनारों से जंजीर भी छूट जानी जरूरी है। समाज की जंजीर अगर किनारे से बंधी है तो समाज में क्रांति नहीं हो सकती। और समाज की नाव जंजीर से बंधी है बहुत जोर से। लेकिन जंजीरें इतनी पुरानी हैं, और नाव सदा से बंधी है कि हम भूल गए हैं कि जंजीरें क्या हैं, और नाव क्या है? नाव और जंजीर एक ही, दो हिस्से मालूम पड़ने लगे हैं। जंजीर को शायद हम नाव का आभूषण समझते हैं। शायद हम नाव की सजावट समझते हैं। श्रम हम बहुत करते हैं, बहुत पतवार चलाते हैं, लेकिन समाज की जिंदगी कहीं आगे जाती मालूम नहीं पड़ती। वह जहां खड़ी है, वहीं खड़ी रहती है। हजारों साल से वहीं खड़ी है। भारत के समाज ने हजारों साल से कोई यात्रा नहीं की। लेकिन श्रम तो हमने बहुत किया है। पतवार तो हमने बहुत खेई। जंजीर किनारे से बधी है। वह कौन सी जंजीर है? अगर उसे हम न पहचान सके तो भारत के समाज की नाव किसी यात्रा पर नहीं जा सकेगी। जहां जीवन के खजाने हैं, जहां सत्य के खजाने हैं, जहां आनंद के खजाने हैं। उन अनंत क्षणों को भी भारत का समाज नहीं छू सकेगा, कभी जहां खुशी है, जहां गीत है, जहां नृत्य है। लेकिन पहले जंजीर को पहचान लेना जरूरी है। जंजीरें भी बहुत पुरानी हों तो पहचानना बहुत मुश्किल हो जाता है। बीमारी भी बहुत दिन चल जाए, तो आदमी उस बीमारी को स्वास्थ्य समझने लगता है।
मैंने सुना है, एक मछुआ राजधानी में मछलियां बेचने आया था। दोपहर में मछलियां बेच कर जब वह वापस लौटने लगा तो उसने सोचा कभी राजधानी में नहीं आया हूं, आज थोड़ा राजधानी घूम कर देखूं। कैसे जीते हैं, राजधानी देख लेने का मन हुआ। वह राजधानी के बड़े-बड़े राजपथों से गुजरा। फिर वह उस गली में प्रविष्ट हुआ जहां उस राजधानी के सुगंध बेचने वालों की गली थी। परयूम बेचने वाले लोगों की दुकानें थीं। उस राजधानी में दुनिया की श्रेष्ठतम सुगंधें बिकती थीं। वह जब सुगंध वाली गली में प्रविष्ट हुआ तब उसे बहुत घबड़ाहट होने लगी, बहुत दुर्गंध आने लगी, क्योंकि वह एक ही सुगन्ध जानता था, मछलियों की। और उसे किसी सुगंध का कुछ पता न था। उसे बाकी सब गंधें सदा से दुर्गंध मालूम होती रहीं।
वो बहुत हैरान हुआ कि राजधानी के लोग कैसे पागल हैं? ये क्या दुर्गंध बेचने की दुकानें खुलवा रखी हैं। वह जैसे-जैसे उस गली में भीतर प्रविष्ट हुआ, वैसे बड़ी दुकानें थी, .ज्यादा कीमती सुगंधें थी, सारी हवाएं सुगंध से डोल रहीं थी। उसने अपनी नाक पर हाथ रख लिया, उसी तरह भागने लगा, निकल जाए बस्ती से बाहर इतनी घबड़ाहट होने लगी। भागने में घबड़ाहट में, दौड़ने में पसीना भी आया, सुगंध भी आई वो बेहोश होके जमीन पर गिर पड़ा। आस-पड़ोस के लोग इकट्ठेहो गए। दुकानदार इकट्ठे हो गए। वह दुकानदार अपनी तिजोरियों में से कीमती से कीमती सुगंधें ले आए, उसे सुंघाने लगे कि होश आ जाए। उन बेचारों को क्या पता कि वह सुगंध से ही बेहोश और परेशान है। वह उसे, सुगंधें उसकी नाक पर छिड़कने लगे, वह आदमी बेहोशी में हाथ पैर पटकने लगा, सिर पटकने लगा, उसके प्राण छटपटाने लगे। भीड़ इकट्ठी हो गई, किसी की समझ में कुछ भी नहीं आया। तब एक आदमी भीड़ को चीर के बाहर आया। वह आदमी भी मछुआ था। उसने कहा ठहर जाओ, तुम इसकी जान ले लोगे। तुम यह क्या कर रहे हो ? तुम्ही उसको बेहोश कर रहे हो। मछुए की गिर गई थी टोकरी नीचे, वह कपड़ा जिस में मछलियां बांधके लाया था, उस दूसरे मछुए ने पानी छिड़का टोकरी पर, कपड़े पर उस टोकडी, कपड़े को बेहोश मछुए की नाक पर रख दिया। उसने गहरी सांस ली, आंख खोली और कहा, दिस इज रीयल परयूम। यह है असली सुगंध। ये लोग तो मेरी जान ले लेते थे। कौन आ गया मसीहा, जिसने मुझे बचा लिया ?
दुर्गंध भी बहुत दिन साथ रहे तो सुगंध मालूम पड़ने लगती है। बीमारियां भी बहुत दिन साथ रहें तो स्वास्थ्य बन जाती हैं। जंजीरें भी बहुत दिन बंधी रह जाएं तो आभूषण बन जाती हैं। भारत की नाव में एक सरकमात जंजीर बंधी है, जो आभूषण बन गई है। शास्त्र उसकी प्रशंसा करते हैं, गुरू मंदिरों में, मठों मेें बैठ कर उसके गुण-गान गाते हैं। नेता और समझदार जिनको कहें वो उसकी प्रशंसा करते हैं, उसी जंजीर की, जिसकी वजह से भारत की जिंदगी किनारे से बंधी रह गई है। वह जंजीर क्या है? उस जंजीर का नाम है श्रद्धा, उस जंजीर का नाम है विश्वास, उस जंजीर का नाम है बिलीफ। भारत का व्यक्तित्व क्रांतिकारी नहीं हो सकता क्योंकि भारत के व्यक्तित्व को बांध दिया हमने विश्वास की खूंटी से। क्रंाति आती है विचार से। विश्वास विचार की हत्या है। क्रांति आती है विचार से, विचार है विद्रोह। विचार में छुपा है एक बंधन, जब विचार पैदा होता है तो विप्लव हो जाता है। जब विचार पैदा होता है, जिंदगी आगे बढ़ जाती है। क्यों? क्योंकि विचार अंधा नहीं होता। विचार के पास आंखें होती हैं। और विश्वास अंधा होता है। और विश्वास के पास कोई अपनी आंख नहीं होती। विश्वास दूसरे को मानता है, और जो दूसरे को मानता है वह कभी क्रांतिकारी नहीं हो सकता। विश्वास अतीत को मानता है, जो जा चुका, बीत चुका। विश्वास की श्रद्धा हमेशा अतीत में होगी। विश्वास पकड़े रहता है, बीते हुए चरणों को। विश्वास होने का अतीत उन्मुख होता है। क्रांति सदा भविष्य उन्मुख होती है। इसलिए विश्वास और क्रांति के बीच कभी कोई संबंध नहीं हो सकता। विश्वास करने वाला आदमी प्रतिगामी होता है। विश्वास करने वाला आदमी अंधे की तरह भविष्य से चिपके रहता है। विचार ले जाता है, भविष्य में, विचार ले जाता है क्रांति में। भारत में कोई क्रांति कभी नहीं हो सकी। और आगे भी नहीं हो सकेगी, अगर विश्वास का जहर ये हम अपने बच्चों को पिलाएं चले जाते हैं। विश्वास क्या कहता है ? विश्वास कहता है खुद मत सोचना। विश्वास कहता है कि स्वयं सोचने की जरूरत नहीं। जो भी सोचा जाने योग्य था, वह सोचा जा चुका है। ऋषि-महाऋषि, महात्मा उस सब को सोच चुके हैं। अब सबको कोई श्रम करने की जरूरत नहीं। जो उन्होंने कहा है, चुपचाप उन्हें स्वीकार कर लेना। और अगर कोई संदेह आता हो ध्यान रहे भटक जाओगे अगर संदेह किया। संदेह किया तो नर्क जाओगे। संदेह किया तो जिंदगी खो दोगे। संदेह मत करना। और आपको पता है, जो कभी संदेह नहीं करता, वो कभी विचार भी नहीं करता। संदेह विचार की पहली सीढ़ी है। डाउट, संदेह, विचार का पहला कदम है। जो आदमी संदेह करता है, वह विचार करता है। क्योंकि संदेह करने वाले को विचार करना ही पड़ता है। विश्वास करने वाले को विचार करने की क्या जरूरत।
मैंने सुना है, एक छोटे से गांव में एक, सुबह एक बड़ी अद्भुत घटना घट गई। हो सकता है आप भी उस गांव में रहे हों। क्योंकि उस गांव के सब आदमी इसी गांव में रहते हैं। उस गांव में एक छोटा सा विचारक था। वह विचारक सुबह-सुबह गांव के तेली की दुकान पर तेल खरीदने गया। तेली के सामने जाकर उसने बर्तन रख दिया कि मुझे तेल दे दो। तेली तेल तौलने लगा। उस विचारक नेे देखा की तेली की पीठ के पीछे कोल्हू चल रहा है। कोल्हू को एक बैल चला रहा है। लेकिन वह बैल को चलाने वाला, हांकने वाला कोई भी नहीं है। वह विचारक बहुत हैरान हुआ, उसने कहा कि महाशय! दुकानदार से कहा, महाशय! यह इतना धार्मिक बैल आप कहां से पा गए हैं? बिना किसी चलाने वाले के चल रहा है। ऐसा चमत्कार तो हिंदुस्तान में बिल्कुल नहीं होता। चपरासी से लेकर राष्ट्रपति तक जब तक पीछे कोई हांकने वाला न हो कोई चलता ही नहीं। यह बैल कहां मिल गया? किस नस्ल का बैल? इतना धार्मिक बैल पा कहां गए इस हिन्दुस्तान में। यह बिना चलाने वाले के चल रहा है। वह तेली हंसने लगा। उसने कहा, बैल यह नहीं चल रहा है, बैल का मालिक चला रहा है। तो उस विचारक ने कहा, आप तो बैठे हुए हैं। उसने कहा, मालिक को चलाने के लिए, मौजूद होना जरूरी नहीं। इस तरह का तंत्र बनाया जा सकता है कि बैल चलते रहें और मालिक अपना काम करता रहे। उस विचारक ने कहा, वह तंत्र मुझे दिखाई नहीं पड़ता। कोई चलाता हुआ मालूम नहीं पड़ता है। उस तेली ने कहा जरा बुद्धि से काम लो, देखते नहीं, बैल की आंख पर हमने पट्टियां बांध दी हैं। बैल की आंख पर पट्टियां बंधी और तेली ने कहा, बैल की आंख पर पट्टियां और उसे पता नहीं चलता कि कोई चलाने वाला पीछे है या नहीं। उस तेली ने कहा कि ध्यान रहे, जिसका सोचना बंद करना हो पहले उसकी आंख पर पट्टी बांध लेना जरूरी होता है।
उस विचारक ने कहा, बात तो तुम पते की कहते हो। मैंने भी बहुत से आंख पर पट्टी बंधे हुए लोग देखे हैं। और मैं समझ गया कि जरूर कुछ लोग शोषण कर रहे होंगे कि आंख पर पट्टियां बांधी। लेकिन मैं यह पूछना चाहता हूं, बैल कभी खड़ा होकर भी तो पता लगा सकता है कि कोई है या नहीं। तो उस तेली ने कहा महाशय! अगर बैल में इतनी बुद्धि होती तो, हम कोल्हू चलाते, बैल तेल बेचता। आप सुन नहीं रहे हैं, देख नहीं रहे हैं, हमने बैल के गले में घंटियां बांध रखी हैं, जब तक बैल चलता रहता है, घंटी बजती रहती है। हम जानते हैं कि बैल चल रहा है, जैसे ही घंटी रूकती है बैल खड़ा हुआ, हमने छलांग लगाई, पीछे गए और बैल को हांका। बैल को पता भी नहीं चल पाता कि पीछे कोई मौजूद नहीं था। घंटी बंद होते ही हम हांकने को मौजूद हो जाते हैं। विचारक भी जिद्दी था, और विचारक जिद्दी होते हैं। उस विचारक ने कहा, घंटी हमें सुनाई पड़ रही है, लेकिन बैल कभी खड़े होकर सिर नहीं हिला सकता है कि घंटी बजती रहे। तो उस तेली ने कहा, महाराज! थोड़े धीरे बोलो, बैल ने अगर सुन लिया तो हमारी जान पर बन आएगी। और आगे कृपया तेल और कहीं से ले लें। और ऐसे आदमियों का आना-जाना ठीक नहीं, सौबत का असर पड़ता है।
मैंने जब यह कहानी सुनी थी तो मैं हैरान हो गया। मैंने कहा उस तेली के पास बड़ा अद्भुत बैल था। क्योंकि भारत में जो आदमी हैं, उसके कानों के पास ढोल पीटकर बजाओ, वह नहीं सुनता, बैल कैसे सुन सकता है? आदमी नहीं सुनता इस मुल्क में बैल कैसे सुन सकता है? आदमी की आंख पर भी विश्वास की पट्टियां हैं। और आदमी की जिंदगी पर भी विश्वास का शोषण यंत्र है। न धर्मगुरू चाहते हैं, न गाॅड नेता चाहते हैं कि आदमी सोचे। दुनिया का कोई भी शोषक नहीं चाहता कि आदमी विचार करे। क्योंकि जैसे ही आदमी विचार करेगा, शोषण के सारे यंत्र तत्क्षण नष्ट कर दिये जाएंगे। जैसे ही आदमी विचार करेगा, समाज की हजारों साल से चलती हुई रूढ़ियां तोड़ी जाएंगी, जैसे ही आदमी विचार करेगा, वैसे ही आदमी को गुलामी में रखना असंभव है। आदमी को गुलाम रखना हो, आदमी को आत्मा को काराग्रह में रखना हो, तो सबसे बड़ी जरूरत की बात है कि उसकी विचारक की आंख मत खुलने देना। उसे विश्वास दिलाना, विश्वास में बांधना और विश्वास में बड़ा करना। छोटे से बच्चे को हम विश्वास दिलाना शुरू कर देते हैं। निरीह बच्चों के साथ जो अत्याचार किया जाता है, विश्वास देकर, उसका हिसाब लगाना कठिन है। क्योंकि जब उनके भीतर विचार की आत्मा ही नहीं चलती, तभी उन लोगों के भीतर विचार-विश्वास की जंजीरें थोपना शुरू कर देते हैं। हिन्दू बाप बेटे को हिंदू बनाना शुरू कर देता है, मुसलमान बाप बेटे को मुसलमान बनाना शुरू कर देता है। ईसाई बाप बेटे को ईसाई बनाने लगता है। इससे पहले कि उसमें विचार जगें, विश्वास भर देना जरूरी है। अगर विश्वास जग गया, तो फिर किसी बच्चे को हिन्दू, मुसलमान और ईसाई बनाना बहुत मुश्किल है। क्योंकि इस तरह की बीमारियां विचार स्वीकार करने को राजी नहीं हो सकता। इसीलिए विचार आए उसके पहले ही निर्बोध-अबोध बच्चों में भर देना विश्वास, इसलिए सारे लोग उत्सुक रहते हैं कि बच्चों को धार्मिक शिक्षा दी जानी चाहिए। ताकि बच्चे हिंदु बन जाएं, मुसलमान बन जाएं, इसाई बन जाएं, इन बीमारियों से पृथ्वी परेशान हो गई है। लेकिन इन बीमारियों को जारी रखने की तकलीफ अब भी जारी है, वो बंद नहीं होती। कोई बच्चा हिन्दू की तरह पैदा नहीं होता, कोई बच्चा मुसलमान की तरह पैदा नहीं होता। लेकिन इसके पहले कि बच्चे को होश आए, उसे जंजीरें थमा दी जाती हैं। और वह जिंदगी भर ये कहेगा कि मैं हिन्दू हूं, गौरव के साथ। इसलिए मैं कह रहा हूं कि जंजीरों को हम आभूषण समझ रहे हैं। जो आदमी कहता है गौरव के साथ मैं हिन्दू हूं, वह आदमी पागल, जो आदमी कहता है मैं मुसलमान हूं, जैन हूं वह आदमी पागल है। क्योंकि उसे पता नहीं वह क्या कह रहा है? चैनों की गुलामी को गौरव समझ रहा है। मनुष्य सिर्फ मनुष्य है। और मनुष्य को बांधने वाली सारी जंजीरें खतरनाक हैं। लेकिन जंजीरें तब तक बांधी जाती हैं, हिंदुस्तान में भी और रूस में भी, और अमेरिका में भी। हिन्दुस्तान में हिन्दू होने की जंजीर बांधी जाती है, रूस में कंयूनिस्ट होने की जंजीर बांधी जाती है, लेकिन बचपन से बांध दी जाती हैं, कि उसे होश आ जाए और आदमी बिगड़ न जाए।
मेरे एक मित्र रूस गए उन्नीस सौ छत्तीस में। एक छोटे से बच्चे से स्कूल में उन्होंने पूछा, ईश्वर है ? तो उसने कहा, है। था, अब है कहां? उन्नीस सौ सत्रह के पहले हुआ करता था। क्रांति के बाद गांव ईश्वर है अब। अब ईश्वर नहीं है। छोटे बच्चों को सिखाया जा रहा है कि ईश्वर नहीं है। नास्तिकता है। छोटे से बच्चों को जहर वहां भी डाला जा रहा है। वो नास्तिकता का जहर है। हम यहां जहर डालते हैं आस्तिकता का, हिंदू का, मुसलमान का, जैनी का। यह सवाल नहीं है। बच्चे को बिना उसकी समझ को विकसित किए जो भी हम उसके भीतर भर देते हैं, वह सब उसको आंख पर पट्टी बांधने वाला सिद्ध होता है। आस्तिक भी हो, नास्तिक भी हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आप क्या दिखाते हैं, ईश्वर का होना या ईश्वर का ना होना, यह सवाल नहीं है, आप बच्चे को जो भी विश्वास की भांति सिखाते हैं, जिसे बच्चे के विचार भी मिल जाते, जो निस्पंद नहीं होता। जो बच्चे के विचार और तर्क से सिद्ध नहीं होता, जो बच्चे की चेतना का साक्षात नहीं बनता, तो जो भी आप सिखाते हैं वह उसकी आंख पर पट्टी बांधने वाला सिद्ध होता है। और पट्टियां इतनी अदभुत हैं कि बांध दी जाएं तो बिलकुल दिखाई नहींे पड़तीं। यह खयाल ही नहीं आता।
एक आदमी कपड़े के टुकड़ों को डंडे पर लगाए हुए है और कहता है कि यह हमारा राष्ट्रीय झंडा है। अगर यह नीचे झुक गया, हम अपनी जान भी दे देंगे। आदमी पागल है कि कपड़े के टुकड़ों के लिए जान दे सकता है। कपड़ों के टुकड़ों के लिए, चिथड़ों के लिए। कौमें मर सकती हैं, हजारों लोगों की हत्याएं हो सकती हैं, क्योंकि किसी का झंडा नीचा हो गया। आदमी को देख कर शक होता है कि आदमी में बुद्धिमानी नाम की कोई चीज है, कि नहीं है? कपड़ों के टुकड़ों के लिए, आदमी की जान लेने का विचार है। लेकिन नहीं, बचपन से अगर सिखा दिया जाए, यह जहर कि यह राष्ट्रीय झंडा है, इसका ऊंचा होना सब कुछ है, यह कहीं नीचा न हो जाए। तो यह जहर दिमाग में बैठ जाएगा और आदमी को कभी पता भी न चलेगा कि सिर्फ कपड़े का टुकड़ा है और कुछ भी नहीं। लेकिन अगर विचार दुनिया में पैदा होगा तो एक बात कि झंडा नहीं टिक सकता। कपड़े के टुकड़े रह जाएंगे, और अगर विचार दुनिया में पैदा होगा तो न भारत हो सकता है, न चीन, न पाकिस्तान क्योंकि जमीन कहीं की भी बटी नहीं है। सिवाय राजनीतिज्ञों की शरारत के जमीन को बांटने का कोई भी कारण नहीं है। जमीन को खंड-खंड टुकड़ों में बाटा हुआ है। क्यों? क्योंकि जब तक जमीन खंड-खंड टुकड़ों में बंटी रहेगी तभी तक जमीन के झगड़े कर सकते हैं आप, और जब तक झगड़े कर सकते हैं तब तक राजनीतिज्ञ की पूजा हो सकती है। जिस दिन झगड़े बंद हो जाएंगे, राजनीतिज्ञ की मृत्यु हो जाएगी। दुनिया में जब तक युद्ध है, तब तक पालिटीशियन रहेगा, जिस दिन दुनिया में युद्ध खत्म उस दिन पाॅलिटीशियन भी गया। क्योंकि पाॅलिटिक्स सिवाय युद्ध के खेल के और कुछ भी नहीं।
लेकिन ये युद्ध चलेगा क्योंकि जमीन को टुकड़ों में बांटा गया है। उन्नीस सौ सैंतालीस से पहले करांची में जो बच्चा पैदा होता था, वो हमारा भाई था। अब भी वह वहां पैदा होता है, लेकिन वह हमारा दुश्मन है। कराची वही है, अहमदाबाद भी वही है। जमीन कहीं भी बंट नहीं गई। लेकिन अब अहमदाबाद में बच्चे पैदा होंगे, वे कराची के बच्चों की हत्या करेंगे। और कराची में बच्चे पैदा होंगे वे अहमदाबाद के बच्चों की हत्या करेंगे। यह क्या पागलपन है, यह कौन सिखा रहा है? भारत और पाकिस्तान, और चीन और जापान। ये सीमाएं कहां हैं? यह सीमाएं सब विश्वास में हैं। मनुष्य का विचार जगेगा, ये सीमाएं विलीन हो जाएंगी। हजारों सीमाएं, हजारों झूठी बातें, जिनकी कोई सच्चाई नहीं है, वह आदमी को सिखा दी जाती हैं। और आदमी सीमाओं में बंध के जी लेता है। और जब पूरा समाज इस तरह की जंजीरों से बंध जाता है, तो क्रांति कैसे होगी? शोषक नहीं चाहता कि विचार हो। इसलिए मैं दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं, विश्वास नहीं, चाहिए विचार। विश्वास नहीं, चाहिए संदेह। विश्वास नहीं, चाहिए अथक चिंतन, क्षमता, अथक तर्क। चाहिए जिंदगी को पूछने, खोजने, अनिवेचन करने का साहस। और एक भी ऐसी चीज मानना मनुष्यता का अपमान है, जो आपके विचार, और आपके तर्क, और आपकी बुद्धि के योग्य नहीं। जो आपके तर्क, आपकी बुद्धि की कसौटी पर कसी नहीं जाती है। हिन्दुस्तान में इसीलिए क्रांति नहीं हो सकी कि विचार पैदा नहीं हुआ, और इसीलिए विज्ञान पैदा नहीं हो सका, क्योंकि विज्ञान भी विचार से पैदा होता है। पांच हजार वर्षाें में हमने कोई विज्ञान पैदा नहीं किया, कोई साइंस पैदा नहीं की। साइंस पैदा होती है विचार से, साइंस विश्वास से पैदा नहीं होती। विश्वास करने वाले लोग न कोई अविष्कार करते हैं, न कुछ खोज करते हैं, न छिपे हुए जीवन के राज खोलते हैं। वे तो आँख बंद करके विश्वास किये चले जाते हैं, आंख बंद करके जीते हैं और मर जाते हैं। उन्हें जिंदगी एक खोज नहीं है, उन्हें जिंदगी एक अंधापन है। एक अंधेरा है। हम विश्वास करने के लिए इस भांति तैयार हो गए हैं। इसलिए विज्ञान पैदा नहीं हो सका, आज भी। आज भी हम विज्ञान की शिक्षा ले रहे हैं। हमारे बच्चे विज्ञान पढ़ रहे हैं, डाॅक्टर और इंजीनियर बन रहे हैं, लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं उनमें भी वैज्ञानिक बुद्धि पैदा नहीं हुई। साइंटिफिक माइंड पैदा नहीं हुआ। भीतर बड़े विश्वास करने वाला आदमी बैठा है।
बी एससी में पढ़ता है एक लड़का और परीक्षा के वक्त हनुमान जी के मंदिर के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाता है, आश्चर्य, इस लड़के को बी एससी कक्षाओं में असली चूक गया।
सुना है एक डाक्टर के घर कलकत्ते में मेहमान थे, वे डाक्टर हैं। पश्चिम से शिक्षा लेके लौटे बड़े कीर्ति प्राप्त सर्जन, सांझ को मुझे मीटिंग में लेकर निकलते थे कि उनकी लड़की को छींक आ गई। मुझसे कहा कि रूक जाइए। एक-दो मिनट रूक जाइए। मैंने उनसे कहा, महाशय! आप तो भलीभांति जानते होंगे कि छींक क्यों आती है? आप तो डाक्टर हैं। और आपकी लड़की के छींक आने से तीन कालों में भी मेरा कोई संबंध नहीं है। और अगर तुम्हारी लड़की के छींक आने से मुझे रूक जाना चाहिए तो सारी दुनिया को रूक जाना चाहिए। क्योंकि छींक आ गई इस दुनिया में। चांद-तारों को ठहर जाना चाहिए। सब ठहर जाना चाहिए। तब तो एक मिनट काम करना मुश्किल होगा, क्योंकि किसी न किसी को छींक आ रही है। वह कहने लगे कि मैं समझता हूं कि छींक क्यों आती है? लेकिन फिर भी रूकने में हर्ज क्या है? यह वैज्ञानिक चित्त कैसे पैदा होगा? वह कहते हैं, सोचता हूं, लेकिन रूकने में हर्ज क्या है? एक-दो मिनट रूक गया। यह भीतर बैठा है वही अंधविश्वासी भारतीय। वही अंधविश्वासी समाज का टुकड़ा। ऊपर से यह के एक आदमी को डाक्टर बना दिया है, पर भीतर यह आदमी वही का वही।
अभी मैं जालंधर में एक मकान का उदघाटन करने गया। एक बड़े इंजीनियर ने एक बड़ी कोठी बनाई है। शायद उतनी सुंदर कोठी जालंधर में दूसरी नहीं होगी। उनके मकान का फीता काट रहा था कि देखा कि मकान के सामने एक हंडी लटकी है, आदमी का चेहरा बना है। बड़े-बड़े बाल लटके हुए हैं। मैंने पूछा कि यह क्या है? वह कहने लगे कि कहीं मकान को नजर न लग जाए। इसलिए हंडी लटका दी है। सिर्फ संदेह का मन होता है। इस देश में क्या विचार कभी पैदा नहीं हुआ होगा। क्या इस देश के विचार की क्षमता बिल्कुल ही मर गई है ?
पश्चिम से एक आदमी आया भारत, बिन्नी.ज नाम का। डाक्टर था। उसने स्वामी शिफानंद की एक किताब पढ़ी थी। उस किताब में स्वामी शिफानन्द ने लिखा हुआ है, कि ओउम का पाठ करने से सब तरह की बीमारियां दूर हो जाती हैं। यही नहीं, ओउम का पाठ अगर परिपूर्ण एकाग्रता और परिपूर्ण संकल्प से किया जाए तो मनुष्य मृत्यु को भी जीत सकता है। स्वामी शिफानंद ने ही ऐसा लिखा है, ऐसा नहीं, और बहुत किताबें हैं, जिनमें इस तरह की बातें लिखी हैं। वह कोई कटु बात नहीं है। हमारे मुल्क में मौलिक भूल कोई कर नहीं सकता, कटु कोई नहीं करता। भूलें भी दूसरे करते हैं और उनको हम दोहराते हैं।
बिन्नीज ने किताब पढ़ी तो उसको पता चला कि स्वामी शिफानंद तो पहले खुद भी डाक्टर रह चुके हैं। तो जब डाक्टर रहने वाला यह आदमी लिखता है, तो जरूर कुछ सच्चाई की बात लिखता होगा। और सत्य की बात लिखता होगा। वह बेचारा भागा हुआ ऋषिकेश पहुंचा कि जब यह सूत्र खोज लिया गया कि ओउम के पाठ से बीमारी दूर हो सकती है, अगर इतनी बड़ी तरकीब खोज ली गई है तो फिर सारी दुनिया को सिखाना चाहिए। और सब मैडिकल काॅलेज वगैरह बंद कर देना चाहिए। छोटा सा नुस्खा सारा काम कर देगा। और हद की बात यह है कि लिखा है कि इसको जाप करने से मृत्यु तक को जीता जा सकता है। तब तो दुनिया के सामने एक महान अविष्कार हो गया। इस मनु को अब तक नोबल प्राइ.ज क्यों नहीं दी गई।
वह बेचारा भागा हुआ ऋषिकेश पहुंचा। जाके उसने, एकदम से जाके सर्वेन्ट को कहा कि मैं स्वामी जी के दर्शन करना चाहता हूं, इसी वक्त। सरवेंट ने कहा अभी आप नहीं मिल सकते, स्वामी जी बीमार हैं और डाक्टर उनकी परीक्षा कर रहा है। उस आदमी पर क्या गुजरी होगी उस समय? उसकी समझ के बाहर हो गया, उसने कहा यह हो नहीं सकता कि स्वामी जी कभी बीमार पड़ जाएं। स्वामी जी ने तो लिखा है ओउम के पाठ से सब बीमारियां दूर हो जाती हैं। असंभव है यह। बाद में उसने लिखा कि पीछे मुझे पता चला, भारत के लोगों को तथ्यों के विचार से कोई संबंध नहीं है। वह कुछ भी कह सकते हैं, कुछ भी लिख सकते हैं। और हमारे मुल्क में किसी आदमी ने ऐतराज नहीं उठाया होगा इस बात पर, कोई नहीं गया होगा, आपको पता चालीस...ऋषिकेश की खबर करने, कि यह जो बात लिखी है, यह हो सकती है? और अगर हम जाते भी, और स्वामी जी बीमार दिखाई पड़ जाते, तो हम कहते कि स्वामी जी लीला दिखा रहे हैं। स्वामी जी कभी बीमार पड़ सकते हैं, सब लीला कर रहे हैं ताकि भक्तों की परीक्षा हो सके कि कौन विश्वास करने लगा है? कौन संदेह करने लगा है? यह हमारी चित्त की दशा हो गई है।
हमने सोचना ही बंद कर दिया है। हम तथ्यों को कोई ध्यान ही नहीं देते। हमने जिंदगी से तर्क करने का संघर्ष बंद कर दिया है। हम बस बैठ गए हैं। हम गोबर के पुतलों की तरह बैठे रह गए हैं। कैसे क्रांति होगी ? क्रांति के लिए चाहिए तीव्र चिंतन, तीव्र विचार, तथ्यों में विचार, थिंकिंग इन फैक्ट्स। तथ्यों की खोज, तथ्यों का देखना, परखना, पहचानना, जानना और बंधी हुई धारणाओं के आधार पर स्वीकार नहीं कर लेना। जब तक कि तथ्यों की खोज पड़ताल से नई धारणा का, समृद्ध धारणा का जन्म न हो जाए, विचार न बने तो विज्ञान पैदा नहीं हुआ। विचार न करने से जिंदगी को बदला जा सकता है। यह खयाल ही हमारा हो गया है। और जब हमने विचार नहीं किया, विश्वास किया तो उसका स्वाभाविक परिणाम हुआ, भारतीयता का। जो समाज विश्वास करता है, वो समाज भाग्यवादी हो हो जाता है। क्योंकि विश्वास करने वाले आदमी को खुद तो कुछ करना नहीं पड़ता, जो विचार ही नहीं करता वह और क्या करेगा? फिर सब चीजें घटती हैं, स्वीकार कर लेना पड़ता है कि भाग्य जो कुछ कर रहा है, हो रहा है। देश गुलाम हो जाए तो भाग्य, देश दरिद्र हो जाए तो भाग्य, देश मरे तो भाग्य, जो भी हो, वह भाग्य है। भगवान कर रहा है, और हमारा काम सिर्फ बैठ कर देखते रहना है। जो हो रहा है, उसे हम देख रहे हैं। जिंदगी का कारवां, इतिहास का रथ निकलता जाए, हम किनारे बैठे दूर उसकी ओर देखते रहेंगे कि जो हो रहा है, उसे हम देखते रहेंगें। हम किनारे बैठ गए हैं रास्ते पर इतिहास के। रास्ते से उठकर वापस खड़ा होना है। और खड़े होने के लिए दूसरा सूत्र है, विश्वास को जहर समझो। विश्वास को छोड़ दो बिलकुल, भूल से भी कभी विश्वास मत करना। खोजना, संदेह करना, संदेह करना, यकीन मत करना। लेकिन जो आदमी संदेह करता है, लेकिन जो आदमी संदेह करता है, एक दिन संदेह गिर जाता है, और सत्य का जन्म होता है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मैं कभी अपने गांव जाता हूं, जिन शिक्षकों ने बचपन में मुझे पढ़ाया था, जब गांव जाता हूं जब गांव जाता हूं तो उनके पास भी जाता हूं। जब मैं इस बार गांव गया तो शिक्षक के पास गया। दूसरे दिन उन्होंने चिट्ठी भेजी अपने लड़के के हाथ, कि अब कल से मेरे घर मत आना।

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