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बुधवार, 29 अगस्त 2018

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-01)

धर्म की यात्रा-(विविध)-ओशो 

पहला-प्रवचन-(दूसरा कोई उत्तर नहीं दे सकता)

बहुत से प्रश्न आए हैं, बहुत से प्रश्न आए हैं। प्रश्नों का पैदा होना बड़ी अर्थपूर्ण बात है। प्रश्न पैदा होने लगें तो विचार और खोज का कारण हो जाते हैं। दुर्भाग्य तो उन्हीं लोगों का है जिनके भीतर प्रश्न पैदा ही नहीं होते, और उतना ही दुर्भाग्य नहीं है। कुछ लोग तो ऐसे हैं जिनके भीतर उत्तर इकट्ठे हो गए हैं, और प्रश्नों की अब कोई जरूरत नहीं रही। बहुत लोग ऐसे हैं जिनके भीतर उत्तर तो बहुत हैं, प्रश्न बिल्कुल नहीं हैं। और होना यह चाहिए कि उत्तर तो बिलकुल न हों, और प्रश्न रह जाएं।
लेकिन प्रश्नों का उत्तर दूं उसके पहले आपको यह कह दूं कि मेरा उत्तर, आपका उत्तर नहीं हो सकता है। इसलिए कोई इस आशा में न हो कि मैं जो उत्तर दूंगा, वह आपका उत्तर बन सकता है। प्रश्न आपका है तो उत्तर आपको खोजना होगा। प्रश्न आपका हो और उत्तर मेरा हो; तो आपके भीतर द्वंद्व, कांफ्लिक्ट पैदा होगी, आपके भीतर समाधान नहीं आएगा।

और यही हमेशा से हुआ है। प्रश्न हमारा होता है, उत्तर महावीर का होता है, बुद्ध का होता है, कृष्ण का होता है। और जब उत्तर दूसरे का होता है, तब हमारा प्रश्न नष्ट तो नहीं होता--दब जाता है। इसलिए मैं जिनके उत्तर दे रहा हूं इस खयाल से नहीं कि आप मेरे उत्तर को पकड़ लेंगे। वह भूल हजारों वर्ष से हो रही है, किसी के भी उत्तर को पकड़ना नहीं है।

उसने पूछा हैः एक प्रश्न मुझसे पूछा है कि फिर मैं क्यों समझा रहा हूं? फिर मैं क्यों कह रहा हूं? फिर मैं क्यों उत्तर दे रहा हूं? अगर मैं मानता हूं कि दूसरा मनुष्य कोई उत्तर नहीं दे सकता, तो मेरे उत्तर देने का क्या प्रयोजन?

मेरे उत्तर देने का प्रयोजन भी आपको मैं स्पष्ट कर दूं। मेरे उत्तर देने का प्रयोजन यह नहीं है कि आप उसे स्वीकार कर लें; मेरे उत्तर देने का केवल इतना ही प्रयोजन है, आपके भीतर विचार पैदा हो जाए। हममें से बहुत से लोगों ने सोचना बंद कर दिया है। हम सोचते ही नहीं हैं, हमने सोचना दूसरों पर छोड़ दिया है।
मैं एक उपन्यास पढ़ता था। उस उपन्यास में, वह कोई पांच सौ वर्ष बाद आने वाली दुनिया का उपन्यास है। उसमें एक आदमी कहता है अपने नौकर कोे कि--जाओ, मेरी पत्नी से प्रेम कर आओ। क्योंकि मुझे प्रेम करने की फुरसत नहीं।
जरूर एक वक्त आएगा कि हम प्रेम भी दूसरों से करवाने लगेंगे। जब हमें फुरसत नहीं होगी तो हम किसी से कहेंगे कि जाओ और प्रेम करो, हमारी तरफ से प्रेम करो। हमको हंसी आती है इस बात को जान कर कि कभी ऐसा वक्त भी आ सकता है कि प्रेम हम दूसरों से करवा लें, क्योंकि हमारे पास समय की कमी है। लेकिन वही काम आप सत्य के संबंध में बहुत दिनों से कर ही रहे हैं। आप दूसरों से करवा लेना चाहते हैं।
मेरा प्रयोजन यह नहीं है कि मैं आपका काम कर दूं। मेरा प्रयोजन यह है कि आपको यह स्मरण दिला दूं कि आपका काम आपके अतिरिक्त और कोई भी नहीं कर सकता है। मेरे उत्तर आपके उत्तर नहीं होंगे, लेकिन मेरे उत्तर आपके भीतर प्रश्न को पैदा करने में सहयोगी हो सकते हैं। उत्तर नहीं हो सकते, लेकिन प्रश्नों को गहरा और स्पष्ट करने में सहयोगी हो सकते हैं। और दुनिया के जो भी बड़े-बड़े लोग हुए हैं, उनका असली काम आपके उत्तर देना नहीं, आपके भीतर प्रश्न को जगा देना था।
बुद्ध या महावीर या कृष्ण ने कोई उत्तर नहीं दिए हैं, बल्कि आपके भीतर प्रश्नों को जगा दिया है। जो प्रश्न आपके भीतर छुपे थे, उन्होंने प्रकट कर दिए हैं। और जब किसी के भीतर प्रश्न जग जाए, पैदा हो जाए तो प्रश्न पीड़ा देने लगता है, परेशान करने लगता है, उसका हल खोजना ही होगा। लेकिन हम सारे लोग तरकीबें निकाल लेते हैं, किसी उत्तर को मान लेते हैं। और प्रश्न से जो पीड़ा पैदा होती है उसको नष्ट कर देते हैं। मैं आपके प्रश्नों को नष्ट करने को नहीं हूं, वे और सजग, तीव्र, पैने और तीखे हो जाएं--वही मेरी आकांक्षा है। इसलिए मेरे उत्तर को आप अपने मन में न रख लेना, वह आपके मन में रखने के लिए नहीं हैं। वह तो आपके मन के भीतर सिर्फ एक विचार है, एक इफर्ट है। एक होश पैदा कर सके तो उसकी सार्थकता है।

ये पूछा है कि मैं क्यों बोल रहा हूं?

निश्चित ही महावीर से भी पूछा गया होगा--क्यों बोल रहे हैं? बुद्ध से भी पूछा गया होगा--क्यों बोल रहे हैं? क्राइस्ट से भी पूछा गया होगा--क्यों बोल रहे हैं? यह किसी से भी पूछा जाएगा। सच में ही ये बात बड़ी ही विचारणीय है। ये प्रश्न बिलकुल ठीक है कि जब मैं मानता हूं कि किसी से किसी को सत्य नहीं दिया जा सकता, तो फिर मैं क्यों बोल रहा हूं? और यह जो उन्होंने पूछा है एक प्रश्न में कि जिसको समाधि उपलब्ध हो गई है, वह क्यों बोलेगा? उसे बोलने का प्रयोजन ही क्या है?
वस्तुतः हम जीवन में जो भी करते हैं किसी प्रयोजन से करते हैं। कोई न कोई उसके अंत में लाभ हमारी दृष्टि में होगा। अगर महावीर से और बुद्ध से अगर हम यह पूछें कि महावीर क्यों बोल रहे हैं, कौन से प्रोफिट की, कौन से लाभ की इच्छा है? बोलने से उनका प्रयोजन क्या है, लाभ क्या है?
हमें यह खयाल ही नहीं है कि जीवन में ऐसी क्रियाएं भी हो सकती हैं जिनका होना अपने आप में आनंद है, जिनके बाहर कोई लक्ष्य नहीं है। आप किसी को प्रेम करते हैं। आपने सोचा कि मैं प्रेम किसलिए कर रहा हूं? और अगर आप उत्तर दे सकें कि मैं इसलिए प्रेम कर रहा हूं, तो आपका प्रेम गर्क हो जाएगा--कोई प्रेम है ही नहीं।
जो किसी कारण से हो, वह प्रेम नहीं है। क्योंकि कारण से आपका संबंध हो जाएगा, प्रेम विलीन हो जाएगा। अगर आप किसी को इसलिए प्रेम कर रहे हैं कि वह सुंदर है, तो सौंदर्य के विलीन होने से प्रेम बदल जाएगा। अगर आप किसी को प्रेम करते हैं कि वह गुणवान है, कल अगर उसके गुण, गुण बदल जाएं, तो प्रेम चला जाएगा। अगर आप किसी को इसलिए प्रेम कर रहे हैं कि उसके पास बहुत धन है--तो आप धन से प्रेम कर रहे हैं, गुण से प्रेम कर रहे हैं, सौंदर्य से प्रेम कर रहे हैं। लेकिन ये प्रेम नहीं है। ये प्रेम ....।
जीवन में हम क्योंकि हर चीज प्रयोेजन से करते हैं, इसलिए हम पूछते हैं कि हर चीज का प्रयोजन होना चाहिए। लेकिन जीवन में जब कोई भी शांति का और आनंद का अनुभव हो, तो क्रियाएं प्रेम से शून्य हो जाती हैं। क्रियाएं प्रेम से निस्पंद होने लगती हैं; आनंद से निस्पंद होने लगती हैं।
अकबर ने...एक घटना अकबर के उल्लेख में है, मुझे खयाल आती है कि आपको कहूं। मैंने बहुत से लोगों को उस बात को कहा, और मुझे लगा कि वह बात को समझा दूं। अकबर ने अपने संगीतज्ञ तानसेन को एक दफा पूछा था कि तुम इतना अच्छा, इतना अच्छा बजाते हो कि मुझे कई दफा यह विचार उठता है कि अगर तुम्हारे गुरु को मैं सुन पाता, तो न मालूम और कितना अच्छा बजाते। हालांकि मुझे विश्वास नहीं आता कि तुमसे अच्छा बजाने वाला भी हो सकता है। लेकिन यह मेरे मन में जिज्ञासा उठती है, क्या तुम्हारे गुरु जीवित हैं?
तानसेन ने कहा: मेरे गुरु तो जीवित हैं, लेकिन उनको सुनना आसान नहीं। वे अपनी मौज से बजाते हैं, किसी की आकांक्षा से नहीं बजाते। फिर भी मैं कोशिश करूंगा कि आप उन्हें सुन सकें। उसके गुरु तो एक फकीर थे और यमुना के किनारे रहते थे। रात को चार बजे ....उठ कर वह अपना सितार बजाते थे।
तानसेन और अकबर ने झोपड़े के बाहर चोरी से सितार को सुना। सुनने के बाद अकबर की आंखों से आंसू की झड़ी लग गयी, रास्ते भर वह बोला नहीं। महल में प्रवेश करते वक्त उसने तानसेन से कहाः मैं तो बिलकुल अवाक रह गया हूं। तुम तो अपने गुरु के मुकाबले कुछ भी नहीं हो। लेकिन तुम्हारा गुरु इतना अदभुत और अलौकिक बजाने में कैसे समर्थ है, उसके संगीत में ये भिन्नता क्यों है?
तानसेन ने कहाः मैं इसलिए बजाता हूं कि बजाने के बाद मुझे कुछ मिल जाएगा, उस पर मेरी आशा लगी हुई है। और मेरे गुरु इसलिए बजाते हैं कि बजाने के पहले उन्हें कुछ मिल गया है। और वह जो मिल गया है, वह बिखरना चाहता है, बंटना चाहता है। मेरी आकांक्षा है, मेरा आनंद है--बजाने के बाद, उनका आनंद है--बजाने के पहले। उनका आनंद बजाने में प्रकट हो रहा है, और मैं आनंद पाने के लिए बजा रहा हूं। बजाना मेरा साधन है, उनका साधन नहीं।
और निश्चित ही जीवन में अगर भीतर आनंद उपलब्ध हो, तो आनंद का एक लक्षण है--वह बंटना चाहता है। दुख का एक लक्षण है--वह सिकुड़ना चाहता है। जब आप दुखी होते हैं, आप चाहते हैं कोई मिले नहीं, आप अकेले ही चले जाएं, एक अधेंरी कोठरी में बंद हो जाएं। अगर बहुत ही दुख है तो आप मर जाना चाहते हैं, आत्महत्या कर लेना चाहते हैं। ताकि किसी से मिलने की कोई संभावना ही न रह जाए। दुख में आप अकेले होना चाहते हैं, और आनंद में आप सबके साथ होना चाहते हैं।
जो मनुष्य परिपूर्ण आंनद से भर जाता है, वह सारे जगत के साथ हो जाता है। इसलिए आपने देखा होगा, जब महावीर और बुद्ध और कृष्ण और क्राइस्ट दुखी हैं, जब उनके जीवन में दुख है; तो हम पाते हैं वे एकांत की तरफ जा रहे हैं। और जब उनके जीवन में आनंद है; तो हम पाते हैं वे बस्ती की तरफ वापस लौट रहे हैं। महावीर बारह वर्षों तक जंगल में थे, जब वे दुख में थे। और जब उन्हें आनंद उपलब्ध हुआ तो वे बस्ती की तरफ वापस लौट आए।
आनंद बंटना चाहता है। और रहस्य यह है कि आनंद जितना बंटता है, उतना बढ़ता चला जाता है। यह कोई प्रयोग नहीं है; कोई डाक का प्रश्न नहीं है; कोई अर्थ नहीं है इसके पीछे। लेकिन अगर किसी को आनंद मिले, तो यह अनिवार्य हो जाता है कि वह लोगों से कह दें कि आनंद कैसे मिला है? अगर किसी को दिखाई पड़ता हो कि सामने रास्ते पर गड्ढा है, और आप उस तरफ जा रहे हों, तो उसके प्राण कहेंगे कि वह आपको कह दे--कि यह गड्ढा है।
आप कहेंगे कि तुम्हारा प्रयोजन क्या है? वह कहेगा, कि मेरा हृदय तुम्हें गड्ढे में जाते देखना संभव नहीं कर पाता; नहीं सह पाता। मेरी श्वासें नहीं बरदाश्त कर पातीं कि तुम गड्ढे में जाओ, और मेरा प्रेम नहीं सह पाता है कि तुम गड्ढे में गिरो, और कोई इसमें रीजन नहीं है।
जो मैं आपसे कह रहा हूं उसमें कोई भी डेफिनेशन नहीं है, कोई भी अर्थ नहीं है। मुझे जो दिखाई पड़ता है, मुझे लगता है वह शायद आपका भी आनंद बन जाए और उसे कहने में, उसे आपको बता देने में--मेरा आनंद घटता नहीं है, और बढ़ जाता है। कोई भी प्रयोजन नहीं है, कोई लक्ष्य नहीं है। आपको कुछ छीनना नहीं है, आपको कुछ बदलना नहीं है, आपके लिए कोई नया संगठन नहीं बनाना है, कोई संप्रदाय नहीं बनाना है।

पूछा है मुझसे कि क्या आप चाहते हैंः कोई मत, कोई संप्रदाय खड़ा हो जाए?

यह तो पागलपन की बात है। मैं तो सारे लोगों को चाहता हूं कि वे भी नहीं बनाएं। और अगर मैं भी एक मत खड़ा करूं, तो वह मत तो मेरी ही बात का खंडन होगा। मैं तो कहता हूं: दुनिया में सारे मत विलीन हो जाने चाहिए। विवेक विकसित होना चाहिए--मत नहीं। ज्ञान विकसित हो जाना चाहिए--संप्रदाय नहीं। संगठन विकसित नहीं होने चाहिए; प्रेम विकसित होना चाहिए। प्रेम और संगठन में जमीन और आसमान का फर्क है।
संगठन घृणा पर खड़े होते हैं। तो जितने भी संगठन हैं दुनिया में, सब घृणा पर खड़े होते हैं। दुनिया में कोई ऑर्गनाइजेशन प्रेम का ऑर्गनाइजेशन नहीं है। हिंदू इकट्ठे होते हैं मुसलमानों के खिलाफ, मुसलमान इकट्ठा है हिंदू के खिलाफ, जैन इकट्ठे हैं किसी और के खिलाफ, कोई और इकट्ठा है किसी और के खिलाफ--हम हमेशा किसी के विरोध में इकट्ठे हैं। इसलिए दुनिया में अगर विरोध होता है, हम एकदम इकट्ठे हो जाते हैं।
अभी मैं दिल्ली में था, लोगों ने मुझसे कहा कि पाकिस्तान और भारत के झगड़े के समय सारा हिन्दुस्तान संगठित हो गया। उन्होंने बड़े गौरव से कहा। मैंने उनसे कहा कि ये सब संगठन घृणा क ा है; विरोध और हिंसा का है। जब भी किसी के प्रति घृणा पैदा हो तुम इकट्ठे हो, और जब घृणा विलीन हो जाए तुम्हारा संगठन विलीन हो जाता है। महाराष्ट्रियन इकट्ठे हो सकते हैं गुजरातियों के खिलाफ, कम्युनिस्ट इकट्ठे हो सकते हैं हिंदुस्तानी के खिलाफ, हिंदुस्तानी इकट्ठे हो सकते हैं पाकिस्तानी के खिलाफ, कम्युनिस्ट इकट्ठे हो सकते हैं पूंजीपतियों के खिलाफ। जहां भी घृणा है, वहीं संगठन इकट्ठा हो जाता है। इसलिए आज मैं संगठन के मैं विरोध में हूं, क्योंकि धर्म का कोई संगठन कैसे हो सकता है? अगर, अगर, अगर धर्म में प्रेम है तो धर्म का कोई संगठन नहीं हो सकता। कोई धार्मिक .ऑर्गनाइजेशन जैसी चीज,सेल्फकंट्राडिक्टरी है। धार्मिक संगठन हो ही नहीं सकता। क्योंकि संगठन का मतलब होगा किसी के खिलाफ इकट्ठे हो गए।
सब संगठन राजनैतिक होते हैं। और इसलिए धर्म के नाम पर खड़े हुए सारे संगठन किसी न किसी रूप में राजनैतिक हो गए हैं। और राजनैतिक ही संगठन हो सकता है; संगठन धार्मिक नहीं हो सकता। प्रेम का कोई संगठन नहीं हो सकता। तो मैं तो न संगठन खड़ा करना चाहता हूं ,न कोई संप्रदाय, न कोई पंथ। मैं तो अपनी बात से आपको कह देना चाहता हूं, इसलिए नहीं कि आप उसे रोक लें, केवल इसलिए कि आपके भीतर एक विचार, एक खोज पैदा हो जाए। अगर खोज पैदा हो जाए तो उसके जीवन में बहुत कुछ संभव हो सकता है।

एक प्रश्न पूछा हुआ है कि मनुष्य के भीतर वासनाएं हैं, उनका तो संयम करना ही होगा, व्रत लेने होंगे। तो क्या मेरी दृष्टि में व्रत और संयम का कोई उपयोग है?

नहीं; न तो व्रत का कोई उपयोग है और न संयम का कोई उपयोग है। निश्चित ही आपको बात थोड़ी परेशान करने वाली लगेगी। क्योंकि हम तो मानते हैं अगर संयम नहीं होगा तो जीवन व्यर्थ है। हम तो मानते हैं कि व्रत नहीं होगा तो जीवन व्यर्थ है। लेकिन मैं आपको कहूं जो संयम किया जाता है, जो व्रत किया जाता है, वह मेरे विचार में झूठा होता है।
एक आदमी हिंसक है, और वह संयम करता है और कोशिश करता है कि मैं अहिंसक हो जाऊं। एक आदमी क्रोधी है, और वह संयम करता है और व्रत लेता है कि मैं अक्रोधी होऊं। एक आदमी लोभी है, और संयम करने की कोशिश करता है कि मेरा लोभ कम हो जाए। लेकिन आप हैरान होंगे, उसका यह संयम केवल दमन बन जाएगा, केवल सप्रेशन बन जाएगा। उसके भीतर कोई परिवर्तन तो नहीं होगा, वह एक दमित व्यक्ति हो जाएगा।
और दमित व्यक्ति के बड़े खतरे हैं। क्योंकि उसने जिस चीज को दबाया है, वह हर बार बाहर निकलने की चेष्टा करेेगी, चैबीस घंटे बाहर निकलने की चेष्टा करेगी। और उसके विरोध में उसकी विरोधी प्रतिक्रियाएं बाहर निकलनी शुरू हो जाएंगी।
मैं एक जगह गया। एक साधु मेरे पहले वहां कुछ लोगों को समझाते थे। उन्होंने लोगों को समझाया कि अगर तुम्हें स्वर्ग पाना है तो तुम सब तरह के लोभों का त्याग कर दो। अब यह थोड़ी विचारणीय बात है। उन्होंने कहा, अगर तुम्हें स्वर्ग पाना है तो तुम सारे लोभों का त्याग कर दो। मैंने कहा कि इनमें से जो लोभी होंगे, वह स्वर्ग पाने के लोभ से लोभ को त्यागने की कोशिश में लग गए। लेकिन लोभ, लोभ फिर भी भीतर मौजूद रहेगा। आप ... यह मत समझ लेना जो आदमी संसार छोड़ कर सन्यासी हो गया, वह लोभी नहीं है। हो सकता है वह आपसे ज्यादा लोभी हो, इसलिए सन्यासी हो गया है। उसका लोभ जो इतने में इतना बड़ा हो गया है, उसकी जो ग्रिप है बह‏ुत गहरी है। वह परमात्मा को भी पाना चाहता है, स्वर्ग को भी पाना चाहता है, मोक्ष को भी पाना चाहता है, सब ही पाना चाहता है।
एक क्षूद्र बुद्धि आदमी परमात्मा को पाने चला है। एक क्षूद्र सी बुद्धि का आदमी मोक्ष पाना चाहता है। आपका लोभ तो संदिग्ध ही मालूम होता है कि धन पाना चाहते हैं, पद पाना चाहते हैं--उसका लोभ बहुत असम्यक है, वह मोक्ष पाना चाहता है। छोटी सी बुद्धि का कैसा अदभुत पागलपन है कि हम परमात्मा को पाना चाहते हैं। लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं, हमें परमात्मा को पाना है।
यह बहुत गहरे लोभी लोग हैं, उनकी ग्रिप का कोई अंत नहीं है। कोई छोटी-मोटी दुकान पाने से संतुष्ट नहीं हैं, कोई छोटे-मोटे मकान को पाने से संतुष्ट नहीं हैं, ये तो पूरे स्वर्ग का राज्य ही चाहते हैं। लेकिन ये सारे लोग लोभ को छोड़ने में लग जाएंगे, और उनको लगेगा कि हम निर्लोभी हो गए।
ये लोग निर्लोभी बिलकुल नहीं हैं। और यह सत्य है कि इन लोगों ने जो स्वर्ग की कल्पना की है, उसको आप देखें उसमें क्या है? उसमें एक कल्पवृक्ष है, जिसके नीचे बैठ कर जो भी इच्छा होगी उसी वक्त पूरी हो जाएगी। जरूर किसी लोभी ने यह कल्पना की होगी। यह किसी लोभी की कल्पना हो सकती है कि स्वर्ग में कल्पवृक्ष है, उसके नीचे बैठ कर जो जो भी इच्छा कर ले, एकदम पूरी हो जाएगी, देर नहीं लगेगी। आपने इच्छा की और पूरी हो गई।
ये जरूर बहुत अदभुत लोग होंगे, ये कल्पना की होंगी। स्वर्ग की कल्पना में अप्सराएं हैं,अप्सराएं हैं। इनकी जो स्वर्ग की कल्पना है, वहां शराब के चश्में बहते हैं। जो यह कहते हैं कि जमीन पर शराब मत पीओ, वे कहते हैं कि वहां स्वर्ग में शराब के झरने बह रहे हैं--ये लोभियों की कल्पना नहीं तो और क्या हैं? जो कहते हैं यहां स्त्री को देखना मत, वहां सारी क्षूद्र स्त्रियां और अप्सराएं स्वर्ग में नाच रही हैं--उन्हें देखने और पाने के लिए उन्होंने संयम किया है।
यह इनकी दमित कल्पनाएं, दमित वासनाओं का रूपांतरण है। जो अपनी वासनाओं को दबा रहे हैं, वह उन वासनाओं की तृप्ति के विचार कर रहे हैं। स्वप्न देख रहे हैं कि स्वर्ग में अप्सराएं नाचेंगी, शराब के झरने बहेंगे, कल्पवृक्ष होगा। इस आशा में, इस लोभ में बेचारे छोटे-मोटे, छोटे-मोटे सुखों को, छोटी-मोटी तकलीफों को सह रहे हैं, तपश्चर्या कर रहे हैं, नियम ले रहे हैं, व्रत ले रहे हैं--यह सब लोभ का खेल है।
और लोभ का ही दूसरा रूप होता है--दंड। इन्हीं लोभियों ने कल्पना की है कि नरक में बहुत तकलीफ दी जाएगी, बहुत परेशान किया जाएगा। और क्योंकि हर मुल्क में तकलीफें अलग-अलग होती हैं, इसलिए हर मुल्क के लोगों की नरक की कल्पना भी अलग-अलग हैं। अगर आप तिब्बतियों से पूछें कि नरक में क्या होता है? तो वे कहेंगे: नरक में बहुत ठंड होती है, क्योंकि तिब्बत में ठंड तकलीफ है। अगर हिंदुओं से पूछें कि नरक में क्या होता है, तो वहां अग्नि की लपटें जल रही हैं। क्योंकि हिंदुस्तान में अग्नि तकलीफ है, गर्मी तकलीफ है। अगर हिंदुस्तानियों को कहीं तिब्बतियों के नरक में पहुंचा दिया जाए तो एअर कंडीशन मालूम होगा--वहां बड़ी शीतलता है, बड़ी ठंडक है। अगर तिब्बतियों को हिंदुस्तानियों के नरक में पहुंचा दिया जाए, तो उन्हें स्वर्ग मालूम होगा--वहां आग जल रही है, बड़ी गर्मी, बड़ा...।
सारी दुनिया में हमारे लोभ ने अनगिनत कल्पनाएं कर ली हैं। और फिर बहुत से लोग इनसे प्रभावित हो जाते हैं, बहुत गहरे तक .... प्रभावित हो जाते हैं। और इस लोभ के लिए वे उस लोभ को छोड़ने लगते हैं। वे कहते हैं कि वे सही हैं कि उन्होंने घर छोड़ा, क्योंकि बड़ा घर पाने की इच्छा में लगे हैं। और फिर इस तरह के लोग जब दमन करेंगे, अपने भीतर की इच्छाओं को दबा लेंगे, तो इच्छाएं नष्ट नहीं होतीं; दमन करने से कोई इच्छा नष्ट नहीं होती है। दमन करने से कैसे नष्ट होगी?
एक आदमी अपने सेक्स का दमन कर ले, तो नष्ट कैसे हो जाएगा? चैबीस घंटे वह आदमी सेक्स ही सेक्स के संबंध में सोचने लगेगा। जिन-जिन कौमों में सैक्स के प्रति दमन का भाव है, उन कौमों के लोग चैबीस घंटे सेक्स का ही विचार करते हैं। इस मुल्क में तो यह हुआ है। इस मुल्क के दिमाग भी बड़े सेक्सुअल हैं; जमीन पर और किसी मुल्क के नहीं हो सकते। आप जितना ज्यादा सोचते हैं सेक्स के बाबत, कोई नहीं सोचता। सोचेगा ही नहीं।
आपने एक दमन की आदत पैदा कर ली है। एक बचपन से ही इस आदत को दिमाग में भर लिया है और उस आदत में इतनी तीव्रता से आप दमन करते चले जाते हैं कि वह इकट्ठा होता चला जाता है। और उसके परिणाम ..... होते हैं--आपका व्यक्तित्व विकृत हो जाता है, और टूट जाता है। जरूर मेरी बातें सुन कर ऐसा लगेगा, .....खुद ही छोड़ दें यह मैं नहीं कर रहा। मेरी बात सुन कर यह लगेगा कि असहनीय हो जाएगी, जो करना है कर लें, ये भी मैं नहीं कह रहा हूं।
मैं ये कह रहा हूं कि संयम लादा नहीं जाता; संयम ज्ञान से आता है। कोई व्यक्ति सेक्स से लड़ कर ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं होता; बल्कि अगर सेक्स की सारी प्रक्रिया को बोधपूर्वक जान ले,परिचित हो जाए, सेक्स की सारी शक्ति से उसका अंतर्संबंध हो जाए, वह ज्ञान से भर जाए सेक्स के प्रति--तो उसके भीतर ब्रह्मचर्य आना शुरू हो जाएगा।
अगर कोई व्यक्ति अपने क्रोध को जान ले--क्रोध से रिक्त हो जाता है। क्रोध के दमन से कोई क्रोध समाप्त नहीं होता; क्रोध के ज्ञान से क्रोध समाप्त होता है। आप कहेंगे कि हम तो रोज क्रोध को जानते हैं; मुक्त तो नहीं होते। आपने कभी क्रोध जाना ही नहीं होगा। क्योंकि जो आदमी एक दफा क्रोध को जान लेगा, दुबारा क्रोध नहीं कर सकता है।
हां आप क्रोध से गुजरते हैं, लेकिन क्रोध को जानते नहीं हैं। और जानते इसलिए नहीं है कि जब आप क्रोध से गुजरते हैं, तो आप करीब-करीब मूर्छित और बेहोश होते हैं। आपने ध्यान दिया, बड़े से बड़ा क्रोधी क्रोध करने के बाद पछताता है, दुखी होता है, पश्चाताप करता है। सोचता है बहुत बुरा किया, अब नहीं करूंगा।
जरा विचार की बात है। अभी थोड़ी देर पहले इस आदमी ने क्रोध किया, और यही आदमी अब पश्चाताप क्यों कर रहा है? क्या आपको कई बार ऐसा अनुभव नहीं होता कि आपको लगता हो कि मैंने अपने बावजूद क्रोध कर लिए। मैं नहीं चाहता था....  इसका अर्थ है कि क्रोध में आप मूच्र्छित होते हैं, होश में नहीं होते हैं।
दुनिया का कोई आदमी होश में रह कर क्रोध नहीं कर सकता। आप जरा कोशिश करिए, जब क्रोध आए तो होश में रहिए और क्रोध करिए, आप पाएंगे कि दो में से एक ही बात हो सकती है--या तो क्रोध हो सकता है या तो होश।
तो मैं क्रोध के दमन को नहीं कहता हूं, मैं कहता हूं क्रोध के बोध को। क्रोध पर संयम मत लाइए, क्रोध को जानिए और परखिए भी। अगर आप क्रोध की पूरी शक्ति से परिचित हो जाएं, तो परिचित होने से ही परिवर्तन और ट्रांसफार्मेशन शुरू हो जाता है। जिस वृत्ति को आप ठीक से जान लेते हैं, उसी वृत्ति के बाहर हो जाएंगे। जिस वृत्ति से आपका परिचय हो जाएगा, आप उसी वृत्ति के मालिक हो जाएंगे। और जिस वृत्ति से आप अपरिचित हैं, जानते ही नहीं--उससे लड़ेंगे।
देखें, अगर मित्र अपरिचित हो, चल सकता है। शत्रु अपरिचित नहीं होना चाहिए। अपरिचित मित्र से कोई नुकसान नहीं होता, लेकिन अपरिचित शत्रु से बहुत नुकसान हो जाता है। शत्रु पूरी तरह परिचित होना चाहिए। विजय का सूत्र है--परिचय। जो परिचित नहीं है, वह हार जाएगा।
आप अपने क्रोध से परिचित हैं? आप अपने सेक्स से परिचित हैं? आप अपने अहंकार से परिचित हैं? आपको अपने लोभ का परिचय है? परिचय तो कुछ भी नहीं है। पागल की तरह लोभ पकड़े हुए हैं, फिर घबड़ा जाते हैं, उपदेश सुनते हैं, फिर पागल की तरह लोभ के खिलाफ खड़े हो जाते हैं।
एक दफा मूच्र्छित लोभ में थे; फिर दूसरी दफा मूच्र्छित अलोभ में हो जाते हैं। एक दफा क्रोध में मूच्र्छित थे; फिर अक्रोध की साधना में मूच्र्छित हो जाते हैं। एक दफा अहंकार में पागल थे; फिर विनय में पागल हो जाते हैं। एक दफा वृत्ति में पागल थे; फिर संन्यास में पागल हो जाते हैं। एक दफा पकड़ने में पागल थे; फिर छोड़ने में पागल हो जाते हैं--लेकिन पागलपन बना ही रहता है।
सवाल अमूच्र्छा का है। जिंदगी प्रत्येक व्यक्ति को सजग रूप में जानने और पहचानने का है। अगर आप जानने और पहचानने में सफल हो जाएं, तो जीवन में क्रांति हो जाएगी। कैसे उसको जान सकते हैं, उसकी मैं चर्चा कर रहा हूं। उसकी मैं तीन-चार दिनों में मैंने भूमिका बनाई है, कल आपसे बात करूंगा कि कैसे आप अपनी सारी वृत्तियों को जान लें।
मैं संयम के पक्ष में नहीं हूं--क्यों? क्योंकि मैं दमन के पक्ष में नहीं हूं। लेकिन इससे कोई यह न समझे कि मैं संयम का मूल्य नहीं मानता। जो व्यक्ति दमन नहीं करता, जो व्यक्ति जानता है, पहचानता है--वृत्तियों को, वही व्यक्ति एक अदभुत रूप से संयम को उपलब्ध होता है, वही व्यक्ति संयम को उपलब्ध होता है।
दो तरह के असंयम हैं दुनिया में। एक असंयम है--भोग का, और दूसरा असंयम है--त्याग का। एक असंयम है--गृहस्थी का, दूसरा असंयम है--त्यागी का, संन्यासी का। ये दोनों ही असंयम हैं। ये दोनों ही जीवन... हैं। भोगी भोग में पागल है, त्यागी त्याग में पागल है। एक आदमी स्त्री के पीछे भागा जा रहा है, उसको भी मैं पागल मानता हूं। दूसरा आदमी स्त्री से बच कर भागा जा रहा है, उसको भी मैं पागल मानता हूं। दोनों मानते हैं कि स्त्री में मूल्य है। एक आदमी धन को इकट्ठा करने के पीछे पागल है, एक आदमी धन को छोड़ने के लिए पागल है। ये दोनों ही मानते हैं कि धन की वेल्यू है, धन का मूल्य है। ये दोनों ही असंयमी हैं।
एक साधु के बाबत मुझे लोगों ने कहा कि उनके सामने रुपया-पैसा ले जाएं तो वह मुंह फेर लेते हैं, आंख बंद कर लेते हैं। तो मैंने कहाः उनको रुपये-पैसे से लगाव होगा, अन्यथा और क्या कारण हो सकता है। रुपये-पैसे से लगाव न हो, तो कोई आदमी रुपये-पैसे से मुंह क्यों फेरेगा? रुपये-पैसे से कोई लगाव होगा।
वहां एक साधु पीछे हुआ। एक गांव में लकड़हारा था, लकड़ियां काटता और बेचता। और सारा जीवन उसी भांति व्यतीत किया। एक बार बहुत वर्षा हुई, बहुत दिन पानी गिरा, इकट्ठा पानी गिरा और वह लकड़ियां नहीं ला पाया। भिक्षा मांगने का उसका नियम नहीं था, पैसा पास नहीं रखता था। जो लकड़ी बिकती थी, उसके जो शाम को पैसा आता था, उससे ही जीवन चलाता था। तो फिर उसने सात दिन बाद जब पानी बंद हुआ वह लकड़ियां काटने गया, उसकी पत्नी भी उसके साथ थी। वे लकड़ियां काट कर लौटे, पति आगे था, पत्नी पीछे थी। रास्ते के किनारे पर, पगडंडी के पास ही एक अशर्फियों से भरी हुई थैली पड़ी हुई थी। वह पति आगे था, पत्नी पीछे थी। पति ने सोचा इस थैली पर मुझे तो कोई मोह नहीं आएगा, क्योंकि तो मैंने तो स्वर्ण पर विजय पा ली है, मैंने तो जीत लिया है सोने को। लेकिन कहीं मेरी पत्नी है, भूखी-प्यासी है, परेशान है, उसका लोभ आ जाए तो व्यर्थ ही पाप लगेगा। इसलिए उसने उसे गड्ढे में डाल दिया और मिट्टी ढंक दी। पीछे से उसकी पत्नी आ पहुंची उसने पूछा, ये क्या कर रहे हैं? सत्य बोलने का उसका नियम था।
स्मरण रखिए, सत्य बोलने का उसका नियम था।
तो उसने...अब सत्य बोलना पड़ा। उसने कहा, इसलिए मैंने यहां रुपये थे, मैंने उसको ढंक दिया कि कहीं तेरा मन उस पर लोभ से न भर जाए। तो वह पत्नी हंसने लगी और आगे बढ़ गई। उसके पति ने पूछा: क्या बात है?
उसने कहा: मैं हैरान हूं, तुम्हें अभी स्वर्ण दिखाई पड़ता है? और मुझे बड़ा दुख भी हुआ कि तुम मिट्टी पर मिट्टी डाल गए! और तुम्हें मिट्टी पर मिट्टी डालते हुए शर्म नहीं आई!
वह आदमी जो सोने पर मिट्टी डाल रहा है, अभी सोने को मानता है। अभी सोने का उसे स्वीकार है। जो आदमी सोने को छोड़ कर भाग रहा है, वह आदमी सोने को मानता है, सोने से भयभीत है, डरा हुआ है। मैं भागने वालों के पक्ष में नहीं हूं, मैं बदलने वालों के पक्ष में हूं। भागने वाला उसी वृत्ति से पीड़ित होता है, जिस वृत्ति से भोग करने वाला पीड़ित होता है। दोनों की दिशाएं बदल जाती हैं, लेकिन पागलपन नहीं बदलता है। दोनों के अर्थ बिलकुल विपरीत दिखाई पड़ते हैं, लेकिन दोनों के अर्थ बिलकुल समान होते हैं और एक ही चीज से बने होते हैं। जीवन बोध से बदलता है, व्रत से नहीं।
व्रत तो बंधन है, और बोध मुक्ति है। और जिसे मुक्त होना हो, वह व्रतों में बंध जाए तो और परेशान हो जाएगा। और बड़ी जो दिक्कत की बात है, वह यह है कि व्रतों में बंधा हुआ व्यक्ति, संयम से बंधा हुआ व्यक्ति, अपने ऊपर नैतिक आचरण को थोप लिया हुआ व्यक्ति--वास्तविक नैतिक जीवन से वंचित हो जाता है। उसके जीवन में कभी वह सहज, स्फूर्त, स्पांटेनियस नैतिकता का कभी जन्म नहीं हो सकेगा। नैतिका का सहज, स्फूर्त जन्म बड़ी दूसरी बात है, उसका ही मूल्य है। आपके भीतर सत्य आना चाहिए, अहिंसा आनी चाहिए, प्रेम आना चाहिए। लेकिन प्रेम, अहिंसा और सत्य आपको थोपने नहीं चाहिए। उन्हें ओढ़ने नहीं चाहिए, वे कोई वस्त्र नहीं हैं कि आप ओढ़ लें और सत्यवादी हो जाएं। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण हो, भीतर से आना चाहिए।
अगर हम लोगों से कहें कि एक-दूसरे को प्रेम करो, और ऐसा कहा गया, ऐसा कहा गया: अपने पड़ोसी को प्रेम करो, सारे जगत को प्रेम करो।

अभी एक प्रश्न पूछा है, मनुष्यता को प्रेम करो।

कितनी फिजूल की बात! क्या कोई प्रेम करने की बात है? क्या आपने कोशिश की और पड़ोसी को प्रेम करने लगे! क्या आपने कोशिश की और सारे नगर को प्रेम करने लगे! प्रेम कोई एक्शन है क्या? कि आपके करने से ...कि आपने कर लिया। मेरे मन में आया कि चलो आपको प्रेम कर लिया। प्रेम कोई एक्शन नहीं है, कोई क्रिया नहीं है। .... है। आपके भीतर की अवस्था है।
एक आदमी प्रेम में होता है, तो जो भी उसके निकट आए उसको प्रेम करेगा। प्रेम का होना पड़ता है, प्रेम किया नहीं जाता, वह कोई क्रिया नहीं है। ऐसे ही सत्य भी कोई क्रिया नहीं है। वह बोला नहीं जाता; सत्य में हुआ जाता है। ऐसे ही अहिंसा कोई क्रिया नहीं है। आपके करने से अहिंसा का कोई संबंध नहीं है; आपके होने से है। आपके भीतर, आपके भीतर एक स्थिति आनी चाहिए। एक सत्य का साक्षात होना चाहिए। उसके माध्यम से आपके हृदय में क्रांति होगी। वैसी क्रांति वास्तविक होगी, कि यह जो क्रांति हमें नैतिक दिखाई पड़ती है?
यह सब दमन की क्रांति है। इसलिए नैतिक मनुष्य, संयमी मनुष्य--बड़ी पीड़ा और बड़े श्रम और बड़े संघर्ष से होता है। उसके भीतर निरंतर झगड़ा चलता रहता है, उसकी वासनाएं कहती रहती हैं हमको पूरा करो; उसकी बुद्धि कहती है वासनाओं को दबाओ। और अपने भीतर वह निरंतर लड़ता है, जिसके भीतर रोज-रोज कांफ्लिक्ट है, उसका मस्तिष्क लड़ने के कारण रोज-रोज शिथिल होता जाता है। जो अपने भीतर बहुत लड़ता है, उसके मस्तिष्क की ताजगी, स्फूर्ति नष्ट हो जाती है। और सत्य को जानने के लिए मस्तिष्क की स्फूर्ति और ताजगी बहुत जरूरी है। अपने भीतर निरंतर-निरंतर समस्याओं से घिरे हैं--कोई अर्थ नहीं है। और जबरदस्ती अपने ऊपर बातें मत लादो।
अगर अहंकारी अपने ऊपर विनय को लाद लेगा, तो यह अहंकार नष्ट नहीं होगा। वरन, विनय में भी वह आदमी इस अहंकार का मजा लेना शुरू कर देगा। आपको ऐसे लोगों का पता होगा, जो कहेंगे कि हम बिल्कुल विनम्र हैं, हमारे भीतर तो कोई अहंकार नहीं। हम तो कुछ भी नहीं हैं, हम तो आपके पैर की धूल हैं। और जब हम ये सारी बातें कह रहे हैं, तब आप उनके भीतर पाएंगे कि अहंकार मौजूद है--और रस ले रहा है। अहंकारी इस बात का रस ले रहा है कि वह बिलकुल निर-अहंकारी है। हम तो कुछ भी नहीं हैं, हम तो विनय हैं। यह, इससे, इससे कोई हल नहीं होता। इससे कोई जीवन की समस्या का समाधान नहीं होता।
इसलिए मैं, इसलिए मैं किसी तरह के दमनयुक्त संघर्ष, जबरदस्ती आरोग्य के पक्ष में नहीं हूं। जीवन में एक विकास होना चाहिए। क्रोध को जानें, परिचित हों, पहचानें। अहंकार से परिचित हों, पहचानें और आप पाएंगे, आपके पहचान करने से ही एक परिवर्तन शुरू हो जाता है। आप क्रोध को जानते-जानते पाएंगे--कि क्रोध गया। आप भय को जानते-जानते पाएंगे--कि भय गया। जहां भी ज्ञान का प्रकाश पड़ेगा चित्त में, वहीं परिवर्तन हो जाएगा।
यहां हम बैठे हुए हैं। यहां अंधकार हो जाए और आप अकेले बैठे हों, आपको बहुत भय मालूम पड़ेगा। फिर यहां प्रकाश जल जाए, भय विलीन हो जाएगा। क्या भय विलीन करना पड़ा, या कि प्रकाश के आने से विलीन हो गया? और एक आदमी इस अंधकार में बैठा रहे कि मैं बिलकुल भयभीत नहीं होता, मैं किसी से डरता नहीं हूं।
मेरे एक शिक्षक थे। जब मैं पढ़ता था तो मेरे एक शिक्षक थे। या यूं कहूं कि बहुत भयभीत आदमी थे, उनकी बातों से ये लगता था। वे मुझसे एक दिन बोले: कल रात को, अंधेरी रात को बिलकुल अकेला चला गया। मैं बिलकुल डरा नहीं। मैंने कहा: आप बहुत डरपोक आदमी मालूम होते हैं, अन्यथा यह बात ही आप न कहते कि मैं अंधेरी रात में बिलकुल अकेला चला गया, मैं बिलकुल डरा नहीं। आप बहुत डरे हुए आदमी मालूम पड़ते हैं।
अगर डर न हो तो यह भी पता नहीं चलेगा कि मैं डरता नहीं हूं। अगर अहंकार न हो तो यह भी पता न चलेगा कि मैं विनीत हूं। यह विनय तो अहंकार की ही छाया है। अगर लोभ न हो तो यह भी पता नहीं चलेगा कि मैं निर्लोभी हूं। अगर गृहस्थी से चित्त मुक्त हो जाए, तो यह पता ही नहीं चल सकता कि मैं संन्यासी हूं। क्योंकि संन्यासी तो उसी गृहस्थी का रिएक्शन है। वह तो उसी की प्रतिक्रिया है, उसी की प्रतिछाया है। जो सच में संन्यासी होते हैं उन्हें कभी पता नहीं चलता कि वे संन्यासी हैं, ये पता ही नहीं चल सकता। जो सच में सत्य को उपलब्ध हो जाता है, उसे पता ही नहीं चलता कि मैं सत्य बोलता हूं। जिसको पता चलता है कि मैं सत्य बोलता हूं, उसके भीतर झूठ अवश्य ही उठ रहा होगा। वैसे यह खोज कैसे होगी कि वह असत्य बोल रहा है, सत्य बोल रहा है। जिसका हृदय प्रेम से भर जाता है, उसे कभी पता नहीं चलता कि मैं प्रेम करता हूं। क्योंकि प्रेम का पता चलने के लिए भीतर घृणा होनी जरूरी है। अप्रेम होना जरूरी है।
तो मैं जो कह रहा हूं, दमन करने वाले आदमी को हमेशा पता चलेगा--मैं विनीत हूं, मैं लोभी नहीं हूं, मैं साधु हूं, मैं ऐसा हूं, मैं वैसा हूं। क्योंकि दूसरी चीजें उसके भीतर सब मौजूद हैं। और उनके विरोध में वह कुछ हो रहा है। अपने भीतर ही जो विरोध में है, वह टूट जाएगा। अगर मैं अपने दोनों हाथों को लड़ाऊं, तो इन दोनों हाथों में कौन जीत सकता है? कोई भी नहीं जीतेगा। लेकिन उनके लड़ाने से मेरी शक्ति जरूर व्यय हो जाएगी। जब आप क्रोध से लड़ रहे हैं तो किससे लड़ रहे हैं? कौन लड़ रहा है?
आपकी ही शक्ति दो हिस्सों में बंट कर लड़ रही है--क्रोध की तरफ से भी, और अक्रोध की तरफ से भी। आप ही अपने दोनों हाथों को लड़ा रहे हैं। जब आप अपने सेक्स से लड़ रहे हैं तो कौन लड़ रहा है? आप ही लड़ रहे हैं दोनों तरफ से--अकेले आप ही। बिलकुल पागलपन है ये।
अभी मैं ट्रेन में था। और एक, एक सज्जन अकेले थे। मेरे साथ थे वे मेरे डब्बे में। उन्होंने बहुत मुझसे कोशिश की कि बातचीत करें, .... आंख बंद देख कर उन्होंने अपने ताश के पत्ते निकाले और अकेले ही खेलना शुरू कर दिए। खुद ही दोनों तरफ से खेल रहे थे। अब यह आदमी ..... ये पागल है। इसमें कोई जीत-हार हो ही नहीं सकती। और हो भी जाए, तो इसका कोई मतलब नहीं है।
लेकिन दुनिया में ऐसे लोग हैं जो खुद ही पत्ते बिछाए दोनों तरफ से खेल रहे हैं। क्रोध की तरफ से भी वही खड़े हैं; अक्रोध की तरफ से भी वही खड़े हैं। वासना की तरफ से भी वही खड़े हैं; वासना के विरोध में भी वही खड़े हैं। और जो आदमी अपने भीतर दो .... से लड़ता है, वह आदमी पागल हो जाएगा। उसके, उसके जीवन में सारा आनंद, सारा सौंदर्य नष्ट हो जाएगा। सारा सौंदर्य, सारा आनंद तो संगीत से पैदा हो जाएगा .....।
इसलिए मैं कहूं, आपको किसी वासना से लड़ना नहीं है। वासना को जानना, पहचानना, परिचित होना। और परिचित होने से, ज्ञान का प्रकाश फैलने से आप पाएंगे कि आपके भीतर प्राण .... हो गए। कैसे प्रस्तुत होंगे, उस पर हम विचार करेंगे।

जीवन में जो कर्तव्य होते हैं उन्हें हम कैसे पूरा करें?

अगर मेरी बातों को आप ठीक से समझेंगे तो आपको जानना चाहिए कि मैं कर्तव्य के पक्ष में कैसे हो सकता हूं? मैं प्रेम के पक्ष में हूं; कर्तव्य के पक्ष में नहीं हूं। जहां प्रेम नहीं होता वहां कर्तव्य का विचार पैदा होता है? जब आप कहते हैं अपने पिता के प्रति कर्तव्य को कैसे पूरा करूं? उसका अर्थ है पिता के प्रति आपके मन में प्रेम नहीं है। अगर मैं पूछूं कि अपनी मां के प्रति कर्तव्य को कैसे पूरा करूं? इसका अर्थ है: मेरे मन में मां के प्रति प्रेम नहीं है। प्रेम के अभाव से ड्यूटी का खयाल, कर्तव्य का खयाल आता है। और जिसके मन में प्रेम होता है, उसे ड्यूटी का कभी भी खयाल नहीं आता। प्रेम की कमी है, इसलिए मां के ....आप कर्तव्य करें। मैं कहूंगा: प्रेम को पूरा करें, प्रेम को बढ़ाएं। कर्तव्य की फिकर छोड़ दें, कर्तव्य तो अपने आप पूरा हो जाएगा।
मैं कल ही एक कहानी कह रहा था। एक भारतीय संन्यासी थे, वे वहां अफ्रीका में थे। फिर वह भारत यात्रा पर आए और हिमालय पर गए। हिमालय पर जिस दिन चढ़ाई गई दोपहर को बहुत धूप थी, वह अपने छोटे के बिस्तर को बांधे हुए पहाड़ पर चढ़ते थे। और अचानक उन्होंने देखा कि सामने एक पहाड़ी लड़की, दस-ग्यारह वर्ष उसकी उम्र होगी, वह भी पहाड़ पर चढ़ रही है। पसीने से लतपथ है, थक गई है, उसकी श्वास बढ़ गई है, कंधे पर अपने भाई को बांधे हुए है। भाई की उम्र कोई छोटी .....। लड़की छोटी सी, संन्यासी ने सोचा कि इस लड़की को कितनी परेशानी हुई होगी। वह खुद भी तो अपने बोझ से परेशान था, अपने बिस्तर से परेशान था। उसके करीब जब पहुंचा, तो उस संन्यासी ने कहा उस लड़की को कि बेटा, बहुत वजन तुझे मालूम पड़ रहा है। उस लड़की ने संन्यासी की तरफ आंख उठा कर देखा और उसने कहा: स्वामी जी, वजन आप लिए हुए हैं यह तो मेरा छोटा भाई है।
छोटे भाई में और वजन में फर्क है। .... तराजू पर तौलने में कोई फर्क नहीं पड़ता। तराजू पर बिस्तर में भी वजन होगा, छोटे भाई में भी वजन होगा। यह भी हो सकता है कि बिस्तर ही कम वजन का हो, और छोटा भाई ज्यादा वजन का हो। तो तराजू बता देगा कि वजन किसमें ज्यादा है या कितना है? लेकिन हृदय के कांटे पर छोटे भाई में कोई वजन नहीं है; और बिस्तर में वजन है। प्रेम के कांटे पर चीजें बदल जाती हैं।
जब भी हम पूछते हैं कि कर्तव्य कैसे पूरा करें, तब इस बात की सूचना है कि आपके हृदय में प्रेम नहीं है। एक पति पूछता है कि अपनी पत्नी के प्रति कर्तव्य कैसे पूरा करूं? यह क्या बेवकूफी की, बेहूदगी की बात है! इसका मतलब है: प्रेम नहीं है तो आप कर्तव्य का विचार कर रहे हैं। और कर्तव्य हमेशा बोझ होगा। प्रेम बोझ नहीं है; प्रेम आनंद है।
जब दुनिया में प्रेम की कमी पड़ जाती है तो कर्तव्य को सिखाने वाले टीचर्स, उपदेशक पैदा होते हैं। वे कहते हैं: यह कर्तव्य करो, वह कर्तव्य करो, यह कर्तव्य करो, वह कर्तव्य करो। ऐसा करो, वैसा मत करो। जब दुनिया में प्रेम कम हो जाता है तो कर्तव्य की चर्चा शुरू होती है। कर्तव्य बड़ी पतित स्थिति है। प्रेम ही का सवाल है।
यह मत पूछिए कि मैं, मैं, मैं कर्तव्य कैसे करूं? यह समझें जब कर्तव्य का खयाल आ गया है, तो पहचान लें कि आपके हृदय में प्रेम की कमी पड़ रही है। आपके भीतर प्रेम नहीं है। प्रेम को जगाने का, प्रेम को उठाने का, भीतर प्रेम के स्रोत को खोलने का विचार करें। अगर वह विचार नहीं .करने वाला, और कर्तव्य का विचार करें, तो हर कर्तव्य आपको परेशान करता जाएगा। हर कर्तव्य में आप इतने परेशान और बेचैन हो जाएंगे। क्योंकि आपका करने का मन तो नहीं होगा, और करना पड़ रहा है। और जहां भी मन के विपरीत करना पड़े, वहीं जीवन बोझ हो जाता है।
करीब-करीब हम सबका जीवन बोझ इसीलिए है कि हम कर्तव्य ढो रहे हैं। प्रेम के समझौते का सवाल नहीं है, कर्तव्य का बोध हमारे दिल में भरा ह‏ुआ है। हम कोई प्रेम की यात्रा नहीं कर रहे हैं। और यही कर्तव्य का बोध जब बहुत घबरा देता है तो आदमी सोचता है छोड़ो सब ये कर्तव्य--संन्यासी हो जाओ, साधु हो जाओ। वह प्रेम को तो नहीं सोचता, साधु और संन्यासी होने की सोचता है। जब कर्तव्य बह‏ुत घबड़ा देता है, तो यह पत्नी और बच्चे, सब असार हैं, ये सब बोझ हैं--इनको हटाओ।
ये बोझ नहीं हैं, महानुभाव! आपके भीतर प्रेम की कमी है इसलिए ये बोझ हैं। इनका कोई भार नहीं है, आपके हृदय में प्रेम का कांटा ही नहीं है इसलिए ये भारी पड़ते हैं। यह पूरा संसार भी प्रेमी के लिए भारी नहीं है, और अप्रेमी के लिए जरा सा बोझ भी भारी हो जाता है। आप भाग सकते हैं दुनिया से लेकिन बोझ से मुक्त नहीं होंगे। क्योंकि अपने इस एटिट्यूट को कहां ले जाएंगे? तब आप परमात्मा के प्रति भी कर्तव्य करेंगे--ड्यूटी! वहां भी प्रेम नहीं है। सुबह रोज भजन कर रहे हैं, छह बजे करना चाहिए, कर्तव्य है इसलिए कर रहे हैं। वह भी बोझ हो जाएगा। और रोज रामायण पढ़ रहे हैं वह भी बोझ हो जाएगा, क्योंकि ठीक वक्त पढ़नी है।
मेरे एक मित्र हैं, वे रोज नियमित पूजा करते हैं। वे मेरे घर मेहमान थे। ठीक वक्त से जरा देर होने लगी, उन्होंने कहा: जल्दी चल कर पूजा करनी चाहिए, नहीं तो कर्तव्य से चित्त हो जाएंगे। मैंने कहा: आप चित्त हो गए। कोई प्रार्थना और प्रेम भी समय को देख कर किए जाते हैं? कि ठीक छह बज गए हैं, अब मुझे प्रेम करना चाहिए। कि ठीक छह बज गए हैं, अब मुझे प्रार्थना करनी चाहिए, नहीं तो कर्तव्य से चित्त हो जाएंगे।
ये सब हमारी अत्यंत ही ...., हृदयहीन चित्त की दशा है। उसका यह सारा का सारा परिणाम है। लेकिन परमात्मा इस सारे संसार के बोझ को तो ढोता ही होगा--अगर है कहीं। उसको यह बोझ नहीं हुआ, अभी तक उसने संन्यास नहीं लिया!
ये आपको पता है, परमात्मा ने अभी तक संन्यास नहीं लिया? अगर परमात्मा संन्यास ले ले, संसार समाप्त हो जाएगा। लेकिन आप ... संन्यास लेते हैं। परमात्मा अगर कहीं होगा तब वह प्रेम से भरा होगा। उसका हृदय पूरा का पूरा प्रेम होगा--इसलिए झेलता है, आनंद से झेलता है। उसने झेलना भी नहीं है, सहना भी नहीं है, उसका आनंद यह है। लेकिन हम, हम भाग खड़े होते हैं। अगर आपके भीतर प्रेम हो तो सब बदल जाएगा।
गांधी कोई उन्नीस सौ पैंतीस या छत्तीस में कभी श्रीलंका गए। उनके साथ कस्तूरबा भी गईं। और वहां शंकरी और महादेव के नाम से कोई होगा। लेकिन उनको भूल हुई और वे लोगों ने नहीं बता पाए कि कस्तूरबा गांधी की कौन हैं? ‘बा’--बापू भी उनको कहते। गांधी जी कहते, उनको बा कहते थे। तो वहां के लोगों ने समझा कि गांधी की मां हैं। जिस आदमी ने परिचय दिया उनका सभा में, उसने कहा: गांधी तो आए ही हैं बड़ी खुशी की बात, उनकी मां भी उनके साथ आई हैं।
महादेव बहुत घबड़ा गए होंगे, भूल उनकी थी, उनको बताना चाहिए था कि साथ में कौन हैं? बापू क्या कहेंगे? बहुत डांटेंगे, तुमने यह क्या पागलपन करवाया? पत्नी को मेरी मां कहलवा दिया।
लेकिन गांधी बोलने खड़े हुए। उन्होंने कहा कि एक भाई ने भूल से एक सच्ची बात कही। कोई कुछ वर्षों से, कुछ वर्षों के पहले बा मेरी पत्नी थीं, कुछ वर्षों से बा मेरी मां हो गई हैं।
जब प्रेम गहरा होगा तो पत्नी को छोड़ कर नहीं भागेंगे--पत्नी मां हो जाएगी। जब प्रेम बहुत गहरा होगा तो पत्नी को छोड़ कर नहीं भागेंगे--पत्नी मां हो जाएगी। जब प्रेम बहुत गहरा होगा, प्रार्थना बहुत सच्ची होगी, मकान को छोड़ कर नहीं भागेंगे--मकान मंदिर हो जाएगा। और हो जाना चाहिए।
अन्यथा आदमी भाग-दौड़ करता रहता है और आप मंदिर में भी घुसेंगे, और आप वहां घुसते हैं तो मंदिर मकान हो जाते हैं। तो फिर मंदिर क्या करेगा? सवाल तो भीतर हृदय का है, सवाल तो भीतर हृदय का है। आपके सब मंदिर मकान हैं; क्योंकि आपके हृदय में प्रार्थना नहीं है, प्रेम नहीं है। और ऐसे लोग भी जमीन पर हुए हैं, और होते हैं जिनका कोई मंदिर नहीं है। लेकिन जिनके हृदय में प्रेम है; जहां बैठते हैं वहीं मंदिर बन जाता है।
सवाल तो प्रेम का है। लेकिन आप पूछते हैं--कर्तव्य? बिलकुल मत पूछें। कर्तव्य न पूछें, और अगर कर्तव्य का खयाल आता हो तो पहचान लें कि प्रेम की कमी है भीतर। कर्तव्य का खयाल प्रेम के न होने की सूचना से ज्यादा नहीं है। फिर कर्तव्य को थोपें नहीं; पहचान जाएंगे बीमारी भीतर है, प्रेम नहीं है। फिर प्रेम को जगाने के लिए कुछ करने की बात नहीं।
प्रेम जगता है, प्रेम मनुष्य का स्वभाव है--इसलिए। प्रेम मनुष्य का स्वभाव है, ऐसा प्राणी खोजना कठिन है। मनुष्य क्या, प्राणी भी--जो प्रेम न करता हो, ऐसा कोई प्राणी खोजना कठिन है--जो प्रेम न करता हो। और जब हम प्रेम चाहते हैं, तो क्यों चाहते हैं? कहीं हमारे प्राणों के प्राण में कहीं कोई प्यास है--प्रेम की। कहीं प्रेम की बड़ी गहरी-गहरी आकांक्षा है।
और गहरी से गहरी आकांक्षा वही हो सकती है जो हमारा स्वरूप है, जो अंततः हम हैं। प्रेम हमारा स्वरूप है, इसलिए प्रेम की आकांक्षा है। प्रेम हमारे बहुत गहरे में हमारा स्वरूप है। इसलिए हम प्रेम मांगते हैं और प्रेम देना चाहते हैं। घर से भी जो भाग जाते हैं, संसार को भी जो छोड़ देते हैं, वे भी परमात्मा से प्रेम करते हैं और परमात्मा से प्रेम मांगते हैं। प्रेम से भागा हुआ मनुष्य आज तक कहीं देखा नहीं गया है। सब कहीं से भाग जाए, लेकिन प्रेम से नहीं भागता।
मीरा अपने पति को छोड़ कर भाग गई होगी, तो कृष्ण को पति कहने लगी--प्रेम की आकांक्षा नहीं गई। महावीर ने अपना घर छोड़ दिया होगा, जिनको वे प्रेम करते थे, उनको छोड़ दिया। फिर जितने लोग उनको मिले सबको प्रेम किया और...अहिंसा। बुद्ध ने अपनी पत्नी को छोड़ दिया होगा, प्रेम से भागे होंगे। लेकिन जब जीवन में ज्ञान का उदय हुआ तो सारे जगत में उनकी करुणा और उनके प्रेम की भांति दिया।
सवाल हमेशा प्रेम का है। और प्रेम से कभी कोई भाग ही नहीं सकता। यह प्रेम मनुष्य के बहुत गहरे स्वरूप का हिस्सा है। अगर हम अपने भीतर प्रवेश करें, अगर हम अपनी गहराइयों में जाएं--तो हमारे भीतर प्रेम के झरने फूटने शुरू हो जाएंगे। इसलिए ज्ञानी का लक्षण प्रेम है; अज्ञानी का लक्षण अप्रेम है। और अगर कभी कोई ज्ञानी आपको प्रेम शून्य दिखाई पड़ता है; समझना ये जड़ है, उसको कोई ज्ञान उत्पन्न नहीं हुए।
 ज्ञानी का लक्षण प्रेम है। फिर चाहे उसे अहिंसा कहें, सत्य कहें, कुछ और कहें, लेकिन ज्ञान जब आता है तो प्रेम उसके साथ ही आ जाता है। ज्ञान भीतर फलित होता है; प्रेम चारों तरफ बाहर फैल जाता है। तो मैं आपको कर्तव्य की बात नहीं कह सकता, मैं तो यह कह सकता हूं कि आपके भीतर प्रेम कैसे पैदा हो? अगर आप स्वयं को जानने में समर्थ हो जाएं--तो प्रेम पैदा होगा, और प्रेम ही सब कुछ है। प्रेम ही कर्तव्य है, प्रेम ही पुण्य है, और प्रेम ही धर्म है।
ऑगस्टीन हुआ, एक साधु ह‏ुआ।.... उसने पाप करने बंद कर दिए। आप मुझे लिखित आज्ञा दे दें, मैं वे-वे पाप बंद कर दूं। और मैं कौन-कौन से पुण्य करूं, वह भी आप लिखित आज्ञा दे दें, मैं वे ही, वे ही पुण्य करना शुरू कर दूंगा। ऑगस्टीन ने कहा कि तुम जरा सात दिन बाद आओ, क्योंकि सात दिन में मुझे सोचना पड़ेगा कि कितने पाप मनुष्य कर सकता है, कितने पुण्य कर सकता है। अगर कहीं एकाध होती...बात छूट गए उस लिस्ट में से, तो जिम्मा मेरे ऊपर होता है कि तुमने तो लिस्ट ही छोड़ दिए, कि सारे पाप बता दो कि ये नहीं करना चाहिए--नहीं करूंगा।
सात दिन बाद वह आदमी लौटा ऑगस्टीन ने कहा: बड़ा कठिन काम है। पाप तो अनगिनत हैं। मैं गिनती करके बता दूंगा, जो शेष रह जाएंगे, उनका क्या होगा? पुण्य भी अनगिनत हैं। मैं गिनती करके बता दूंगा, तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाऊंगा।
उस आदमी ने कहा: मैं क्या करूं? मैं तो पूछने तैयार हूं। कोई भी बता दे कि कितने पाप छोड़ देने हैं, और कितने पुण्य करने हैं--करूंगा।
ऑगस्टीन ने कहा कि तू सात दिन और कृपा कर ले, जरा और सोच लूं। सात दिन बाद फिर आया तो ऑंगस्टीन ने कहा: मैं तो बह‏ुत घबड़ा गया, लेकिन फिर एक मुझे खयाल आ गया--तू प्रेम कर। उससेे कहा कि बस इतना ही काफी है कि--तू प्रेम कर। जो तेरे प्रेम के विरोध हो जाए समझना कि पाप है, और जो तेरे प्रेम के पक्ष में पड़ जाए, समझ लेना पुण्य है। लिस्ट नहीं बनाई जा सकती।
तो वस्तुतः कोई कर्तव्य नहीं है, कोई अकर्तव्य नहीं है। प्रेम कर्तव्य है, और अप्रेम अकर्तव्य है। अगर प्रेम है तो आप जो भी करेंगे--वह ठीक होगा, और अगर प्रेम नहीं है तो आप जो भी करेंगे--वह गलत होगा। अपने भीतर टटोल लेना और देखना कि प्रेम है या नहीं। अगर प्रेम नहीं है जो भी आप कर रहे हैं, गलत है; और अगर प्रेम है तो जो भी आप कर रहे हैं, वह सत्य है।
इसी संबंध में एक बात और पूछी है। पूछा है, कि सारी दुनिया में इस वक्त इतनी दरिद्रता है, इतनी परेशानी है और ये धार्मिक लोग मंदिर में बैठ कर पूजा-प्रार्थना करते हैं? ये सब ....की शिक्षाएं हैं, खास कर इस मुल्क में तो उससे न कोई सेवा करता है, न कोई दरिद्रता को मिटाने की कोशिश करता है।
 ठीक पूछा है। बिलकुल ही ठीक बात है। अगर ये प्रार्थनाएं सच्ची हों तो उन्हें .... होनी चाहिए। अगर प्रेम सच्चा हो, अगर धर्म भीतर हो, तो सेवा में बदलनी चाहिए।
जापान में एक भिक्षु था। उसने सबसे पहले बुद्ध के वचनों को जापान में अनुवादित करवाया। बहुत बड़ा काम था, बुद्ध के सारे ग्रंथों का जापानी में अनुवाद--बहुत बड़ा काम था। वह फकीर तो भिखमंगा था। उसके पास तो एक पैसा नहीं था। बहुत बड़े-बड़े स्कॉलर और बड़े-बड़े पंडित, कहा लाकर अनुवाद करता हूं। बहुत हजारों रुपये का खर्च। उस फकीर ने गांव-गांव घूम कर रुपये इकट्ठे किए। दस हजार रुपया दस साल में वह इकट्ठा कर पाया। तभी जब रुपये इकट्ठे हुए, तो उसके क्षेत्र में अकाल पड़ गया। उसने सारा रुपया अकाल में लगा दिया। फिर वह गांव-गांव घूमा, दस साल फिर बीते, फिर उसने दस हजार रुपये इकट्ठे किए। तब ये वहां भूकंप आ गया और उसने फिर दस हजार रुपये भूकंप में लगा दिए। तब वह सत्तर वर्ष का हो चुका था।...... फिर वह गांव-गांव निकला। लोगों ने कहा: तुम अजीब पागल हो, बार-बार आ जाते हो।
उसने कहा: दो एडीशन तो निकल गए भगवान की वाणी से, एक और निकालनी है। उसने कहा: दो एडीशन, दो संस्करण भगवान की वाणी से निकल गए, अब एक और निकालनी है। और श्रेष्ठ तो निकल चुके हैं, जो पता है अश्रेष्ठ है--उसको भी निकालने हैं। फिर उसने दस हजार रुपये इकट्ठे किए। जब वह नब्बे वर्ष का हुआ, तब कहीं वह रुपया काम में लग पाया। कुछ ग्रंथ प्रकाशित ह‏ुए।
जब लोगों ने उससे कहा कि तुम प्रसन्न हो अपने काम पर?
उसने कहा कि जो दो पहले निकल चुके हैं, उनका कोई मुकाबला नहीं। ये सब ठीक है, ये भी ठीक है।
ये, ये आदमी धार्मिक आदमी है। धार्मिक आदमी परमात्मा को पहले रखे, और मनुष्य को पीछे रखे; ये हो ही नहीं सकता। धार्मिक आदमी मनुष्य को, पीड़ित मनुष्य को परमात्मा के हमेशा आगे और ऊपर रखेगा। एक दफा परमात्मा को छोड़ने को राजी हो जाएगा, दुखी और पीड़ित मनुष्य को नहीं। क्योंकि उसकी निकटता में भी, उसकी प्रार्थना में भी, उसके प्रेम में भी, उसकी सेवा में भी--उसी-उस का दर्शन होगा जो सत्य की तरह छिपा है।

क्रूर होना...यह क्रूर मन है जिनमें कि मुल्क भूखा मरता हो और वह यज्ञ में पैसा बर्बाद करते हों। ये सब... होंगे कि मुल्क भूखा मरता हो और वे बैठ कर किसी प्रतिमा और रामायण की प्रतियां छाप-छाप कर करोड़ों रुपये खर्च करते हों, उन लोगों में बांटते हों। ये क्रूर वाइलेंस है, हिंसक मन हो सकते हैं। मनुष्य भूखा मरते हो, और मंदिरों में धन इकट्ठा होता हो, और वहां संगमरमर के महल खड़े हों। मनुष्य मरता हो और भगवान की सेवा हो रही हो, ये वाइलेंस माइंड, हिंसक मन का लक्षण है। ये कोई धार्मिक मन का लक्षण नहीं है।

यह ठीक पूछा है, यह होना चाहिए, धार्मिक जीवन का लक्षण सेवा होनी चाहिए।
लेकिन इससे कोई ये न समझ लें, ये जो मुल्क में तथाकथित सेवक हैं, इनके मैं विपक्ष में हूं। ये जो तथाकथित सेवक हैं, ये कहते हैं हम सेवा करना चाहते हैं--इनके मैं कोई पक्ष में नहीं हूं। क्योंकि मैं मानता हूं अगर भीतर ज्ञान न हो, सेवा का नाम तो शोेषण ही होगा। सेवा के नाम से भी दंभ का ही पोषण होगा। सेवक भी कुछ दिखने और होने की कोशिश में सेवा करेगा। सेवा साधन होगी, उपलब्धि से अहंकार की तृप्ति भी होगी। भीतर ज्ञान हो तो ही जीवन में सेवा होगी; और नहीं तो सेवा झूठी होगी। सेवा का तो कोई मूल्य नहीं रह जाएगा।
सेवा का तनिक फायदा ह‏ुआ है? सारी दुनिया में एक हिसाब है--क्या करना है ध्यान से, क्या करना है प्रेम से, क्या करना है प्रार्थना से--सेवा करो।
ठीक है, सेवा जरूर होनी चाहिए, लेकिन सेवा निकलनी चाहिए। जैसा मैंने कहा, कर्तव्य निकलना चाहिए, सेवा निकलनी चाहिए।
जब कोई व्यक्ति भीतर प्रेम से भर जाता है तो उसका उठना, उसका बैठना, उसका श्वास लेना भी सेवा हो जाता है। और जब कोई व्यक्ति भीतर ज्ञान और प्रेम से भरा ह‏ुआ नहीं होता, तो वह चाहे सेवा भी करे, उसका उठना-बैठना, उसका श्वास लेना सब विषाक्त होता है। सबसे वह पॉइ.जनिंग फेंकता है विचारों पर। असल में जो हमारे भीतर नहीं है, उसे हम बाहर दे कैसे सकते हैं? बाहर देने के लिए भीतर होना चाहिए। अगर हम कुएं में बाल्टियां डालें, उसमें पानी ही न हो, तो बाल्टियां खाली वापस लौट आएंगी। जो कुएं में है वही बाहर आ सकता है। जो मेरे भीतर है वही मेरे रिएक्शन्स में, मेरी क्रियाओं में बाहर आ सकता है। भीतर अगर प्रेम नहीं है तो बाहर सेवा कैसे आएगी? बाहर सेवा नहीं आ सकती।
तो मैं सेवा के पक्ष में हूं, लेकिन उस सेवा के नहीं जो प्रचलित है। उस सेवा के पक्ष में हूं जो प्रेम से पैदा हो, प्रेम से निष्पंद हो, जो प्रार्थना से आए, जो ध्यान से आए, जो आत्म-जागरण से आए--वही सेवा सच्ची हो सकती है।
इसलिए मनुष्य का सबसे बड़ा सेवक वही होता है, जो सबसे पहले अपनी सेवा में पूरा होता है। इसलिए वही व्यक्ति केवल परार्थ कर सकता है जो कम से कम इतना स्वार्थ साध ले, कि स्वयं को जान ले। जो स्वयं को जानने के स्वार्थ को भी पूरा नहीं किया है, उसके परार्थ की सब बातें बकवास होंगी। उनसे दुनिया में लाभ कम हानि ज्यादा होगी।
और दुनिया में अगर ये दुनिया का सुधार करने वाले सेवक, दुनिया को बदलने वाले लोग, समाज में क्रांति लाने वाले लोग कम हों, तो दुनिया में उपद्रव कम हो जाएं। इन सारे लोगों ने बहुत उपद्रव फैला रखा है। ये जो हिताकांक्षी है, ये जो कुशल-क्षेम चाहने वाले लोग हैं; ये उपद्रव की बहुत गहरी जड़ हैं। सबसे बड़ी बात है कि व्यक्ति अपने को बदले, उसकी बदलाहट से उसके आस-पास क्रांति और परिवर्तन शुरू होंगे।
जब कोई फूल खिलता है तो गंध बिखरती है। और जब कोई दीया जलता है तो प्रकाश फैलता है। कोई प्रकाश फैलाने के लिए दीये को जाना नहीं पड़ता। और न फूल को गंध फैलाने के लिए किसी की सेवा करनी पड़ती है। गंध...बह‏ुत गंध फैलती है, और फैलना सेवा हो जाता है। अगर आपके भीतर प्रेम है, तो आप जो भी करेंगे--वही सेवा है। आपसे जो भी होगा, वही सेवा है। और प्रेम से निस्पंद सेवा ही प्रार्थना है। वही परमात्मा के निकटतम पहुंचने का मार्ग है।

पूछा है, अंतिम दो प्रश्नों पर और बात कर लेता हूं, प्रश्न तो बहुत हैं, .... लेकिन मेरी दृष्टि अगर आपको खयाल में आ जाए, तो आप मान ले सकते हैं कि मैंने उनका भी उत्तर दिया है जिनका कि उत्तर नहीं दे रहा हूं। मेरी दृष्टि आपके खयाल में आ जाए तो उनके उत्तर भी आप विचार कर सक ते हैं कि मैं क्या कहना चाहता हूं। पूछा हैः सत्य क्या है? और कैसे जाना जा सकता है? उसका अनुभव क्या है? सत्य ईश्वर है क्या? या ईश्वर सत्य है?

जब भी पूछते हैं कि सत्य क्या है, तो ऐसा खयाल होता है हम सत्य से अलग हैं, और सत्य हमसे अलग। हम जानने वाले हैं, और सत्य जानी जाने वाली चीज है। जब भी हम पूछते हैं, सत्य क्या है? तो हम ऐसे ही पूछते हैं--फर्नीचर क्या है, मकान क्या है, दुकान क्या है? हम अलग हैं और ये चीजें अलग हैं।
सत्य इस तरह की बात नहीं है कि आप उससे अलग हैं। अब आप सत्य से अलग नहीं, सत्य से एक ही हैं। इसलिए सत्य को दूर खड़े होकर नहीं देखा जा सकता। और इसलिए सत्य को डिफाइन करना भी मुश्किल है। सत्य की परिभाषा इसलिए नहीं हो पाती कि उसे हम दूर खड़े होकर देखते हैं। जब हम सत्य को जानने का सब्र खोते हैं, तब दो नहीं होते वहां, जानने वाला और वह जाना गया--ऐसा कुछ अलग नहीं होता, एक ही रह जाता है, जानना ही रह जाता है।
सत्य कोई ऑब्जेक्ट नहीं है। कोई ऐसी चीज नहीं है कि उसे हमने देखा और जाना। सत्य आपसे अलग नहीं है, आपसे पृथक नहीं है--आप सत्य ही हो। आप स्वयं ही अपनी...में सत्य हो। तो सत्य को आप जान नहीं सकोगे, क्योंकि जानने के लिए दूरी कहां होती है, पस्र्पेक्टिव कहां होता है, फासला कहां होता है?
हम उसे जान सकते हैं जो हमसे दूर है। और यही तो दिक्कत है हम संसार को बिल्कुल मजे से जान रहे हैं; और सत्य को नहीं जान रहे हैं। सत्य को नहीं जान रहे इसीलिए कि सत्य को ऑब्जेक्ट, वस्तु नहीं बनाया जा सकता। उसे दृश्य नहीं बनाया जा सकता। आप खुद ही वही हैं।
तो सत्य को जानने का अर्थ होगाः जब आपका सब जानना बंद हो जाए, आप कुछ भी न जान रहे हों। क्योंकि जब तक आप कुछ भी जान रहे हैं, तब तक कोई न कोई चीज मौजूद रहेगी जिसको आप जान रहे हैं। और जब तक कोई चीज मौजूद रहेगी, तब तक आप अपने को नहीं जान सकेंगेे। सत्य को जानने का अर्थ हुआ, जब आप कुछ भी नहीं जान रहे हैं। जब बाहर जानने को कुछ भी शेष नहीं रह गया, बाहर सब खाली है, हम शून्य हैं बाहर, और कुछ भी जानने को शेष नहीं है, कोई ऑब्जेक्ट नहीं है। उस घड़ी आपके भीतर जो शेष रह गए--आप, उसका आपको बोध होगा, स्मरण होगा। एक स्मृति जगेगी कि हम कौन हैं? और वही स्मृति सत्य है। वही बोध सत्य है।
मैं सदा एक कहानी कहता हूं, मुझे प्रीतिकर रही है। कुछ बात उससे शायद साफ हो।
एक साधु हुआ। वह एक पहाड़ी के किनारे चुपचाप खड़ा है। बहुत देर से तीन मित्र वहां घूमने निकले हैं, वे देख रहे हैं कि वहां खड़ा है। और उन्होंने सोचा कि वह आदमी वहां क्या करता होगा? एक ने कहा कि मुझे ऐसा मालूम होता है उसके पास एक गाय है, वह कभी-कभी खो जाती है। वह ऊपर पहाड़ी पर जाकर ढूंढता है कि गाय कहां है? शायद वह गाय खोजने के लिए आज फिर गाय हो। शायद आज फिर गाय खो गई है।
दूसरे मित्र ने कहाः उसे देख कर ऐसा नहीं लगता। वह तो आंख भी नहीं घुमा कर देखता है कहीं कि कुछ खोजता हो। उसकी आंखों से खोज का पता नहीं चलता। वह ऐसा मालूम पड़ता है कोई मित्र साथ घूमने गया होगा, वह पीछे छूट गया है। वह रुक कर उसकी प्रतीक्षा कर रहा है, वह आ जाए तो आगे बढ़े।
तीसरे ने कहाः उसे देख कर ऐसा भी नहीं लगता कि वह प्रतीक्षा में है। क्योंकि वह पीछे लौट कर एक दफा भी नहीं देखता। जो प्रतीक्षा में होता है वह पीछे लौट-लौट कर देखता है कि शायद कोई आ न जाए, शायद अब करीब आ गया हो। वह प्रतीक्षा में नहीं मालूम होता है। मुझे तो ऐसा लगता है कि वह परमात्मा के ध्यान में है, परमात्मा की प्रार्थना में है।
वे तीनों मित्र नहीं कर सके तोे उसके पास गए। और उन्होंने कहा, अच्छा हो हम उसी से पूछ लें कि तुम ये क्या कर रहे हो? उन्होंने जाकर उससे पूछा कि महानुभव! आप यहां खड़े हुए क्या कर रहे हैं? उस पहले आदमी ने कहा: क्या आपकी गाय खो गई है?
उसने कहा: कैसी गाय, किसकी गाय? उस आदमी ने कहा: कैसी गाय, किसकी गाय? कौन खोजने वाला, कौन खोजे जाने वाला? मैं कुछ नहीं खोज रहा।
दूसरे आदमी ने कहा: ठीक है, मैंने पहले ही कहा था। क्या आप किसी मित्र की प्रतीक्षा कर रहे हैं?
उसने कहा: कैसा मित्र, कैसा शत्रु? कैसी प्रतीक्षा? कौन प्रतीक्षा करेगा? मैं किसी की प्रतीक्षा नहीं कर रहा हूं।
तीसरे आदमी ने कहा: मैंने पहले ही कहा था कि दोनों बातें गलत हैं। निश्चित ही अब तीसरी बात सही है। आप ईश्वर की प्रार्थना, ईश्वर का ध्यान कर रहे हैं।
 उसने कहा: कैसा ईश्वर? कैसी प्रार्थना? कैसा ध्यान? मैं कुछ भी नहीं करता। मैं तो बस खड़ा हूं, जस्ट स्टेंडिंग। कुछ भी नहीं कर रहा, मैं तो बस खड़ा हूं।
जरा कल्पना करें। अब यह तो कल्पना ही कर सकते हैं, एक आदमी कि जो बस खड़ा है और कुछ भी नहीं कर रहा है, जिसके मन में कुछ भी नहीं हो, न कोई खोज है, न कोई प्रतीक्षा है, न कोई ध्यान है, न कोई प्रार्थना--वह तो बस मौन खड़ा है।
जिसकी मन की ज्योति बिलकुल ठहर गई हो, जिसके भीतर कोई कंपन नहीं है, कोई टहल नहीं है--ऐसी मनोस्थिति में भाव-दशा है, उसमें जो जाना जाता है--वह सत्य है। ऐसे मनुष्य की जो भाव-दशा है, उसमें जो जाना जाता है--वही ईश्वर है।
सत्य और ईश्वर दो शब्द नहीं हैं। सत्य और ईश्वर दो चीजें नहीं हैं, कहने के दो ढंग हैं। आत्मा कहें, कुछ और कहें, कुछ और कहें, कोई कहने से फर्क नहीं पड़ता। क्या आप नाम देते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन उस क्षण जो जाना जाता है, वही जानने योग्य है। वही है, जो जाना जाए। और उस एक के जान लेने से, उस शांत निस्पंद की दशा को, उस एक को पहचान लेने से, वह जो शेष रह जाता है उससे परिचित हो जाने पर--सब ज्ञान के द्वार खुल जाते हैं, सारा अज्ञान खिसक लेता है।
तो सत्य क्या है? यह नहीं कहा जा सकता। सत्य कैसे जाना जा सकता है? यह जरूर कहा जा सकता है।
एक अंधा आदमी पूछे, प्रकाश क्या है? क्या कहिएगा? यह तो नहीं कहा जा सकता है कि प्रकाश क्या है? लेकिन यह कहा जा सकता है कि आंखें कैसे खोली जा सकती हैं? अगर आप आंख बंद किए खड़े हों बाहर, और मुझसे पूछें, प्रकाश क्या है? तो मैं क्या कहूंगा? मैं कहूंगा कि यह थोड़े ही कहा जा सकता कि प्रकाश क्या है? लेकिन यह बताया जा सकता है कि आंखें कैसे खोली जा सकती हैं।
और आंख खुल जाए, तो जो अनुभव में आता है--वह प्रकाश है। चित्त खुल जाए तो जो अनुभव आता है--वह प्रकाश है, वह सत्य है, वह ईश्वर है। इसलिए जो ईश्वर की परिभाषा करते हैं; वे एक गलत धारणा में हैं। ईश्वर की परिभाषा करने वाले लोग ईश्वर को नहीं जानते हैं। जो बता देते हैं कि ईश्वर क्या है? वे पंडित हैं, शास्त्रों को पढ़ने वाले हैं, लेकिन ईश्वर को जानने वाले नहीं हैं।
 ईश्वर कोई वस्तु नहीं है कि इशारा कर दिया कि ये हैं। जिस चीज की तरफ भी इशारा किया जा सके, वह कुछ भी हो, ईश्वर नहीं होगा। और जिस चीज की भी परिभाषा की जा सके, वह कुछ भी हो ईश्वर नहीं होगा। और जिस चीज को भी शब्द दिए जा सकें, वह कुछ भी हो ईश्वर नहीं होगा। ईश्वर को कुछ भी कहना संभव नहीं है। क्योंकि जब हम जानते हैं, तो हम उसे अलग नहीं जानते हैं--अपने ही होने में, अपनी ही सत्ता में, अपनी ही ऑथेंटिक एक्झिसटेंस में हम उसे एक .... हैं।
एक, रामकृष्ण एक बात कहा करते थे, वह मैं आपसे कहूं।
रामकृष्ण कहा करते थे, एक बार ऐसा हुआ एक समुद्र के किनारे बहुत बड़ा मेला था। समुद्र था गहरा, अथाह था पानी। बहुत थी भीड़, मेले में बहुत थे लोग। वे सब समुद्र के किनारे गए, उसमें कुछ ग्रामीणजन भी थे। उन्होंने सोचा, ये समुद्र कितना गहरा होगा? कोई पता लगाए? और तभी वहां घूमता ह‏ुआ उस मेले में एक नमक का पुतला भी आ गया। और उसने कहा: पता लगाना है, मैं कूदा जाता हूं। अभी पता लगा जाएगा। वह नमक का पुतला उस समुद्र में कूद गया, सारा मेला वहां इकट्ठा हो गया। एक आदमी समुद्र का पता लगाने गया था। लेकिन वह पुतला कभी लौटा नहीं। क्योंकि नमक का पुतला था, वह समुद्र का पता लगाने गया, पिघल कर समुद्र के साथ एक हो गया। उसने कोई लौट कर खबर नहीं दी कि समुद्र कितना गहरा था और क्या था?
जिन लोगों ने ईश्वर को खोजने की कोशिश की है, वे नमक के पुतले सिद्ध हुए हैं। और ईश्वर समुद्र से भी गहरा है। वे जब उसमें गए तो पाया कि वे ही पिघल कर विलीन हो गए हैं, लौट कर खबर देने को कुछ नहीं रहता। इसलिए आज तक ईश्वर के संबंध में जो भी कहा गया है--वह असत्य है। और जो नहीं कहा गया है--वही सत्य है। जो भी परिभाषा की गई है वह व्यर्थ है, दो कौड़ी की है। और जो अपरिभाषित छूट गया है, इंडिफाइन्डेबल जो छूट गया है--वही सत्य है, उसका ही मूल्य है।
मैं कोई परिभाषा नहीं करता, न की जा सकती है। और अगर कभी कोई करे, तो संदिग्ध हो जाना, सचेत हो जाना कि बात गड़बड़ है--यह पुतला शायद फिर अभी पानी में उतरा नहीं है--परिभाषा आसान। जब उतरेंगे गहरे, तब पानी की कोई परिभाषा नहीं है, खुद का ही मिट जाना है। जहां आप बिलकुल मिट जाएं, और आपका कुछ भी शेष न रह जाए--समझना कि ईश्वर का मकान आ गया। जहां आप बिलकुल मिट जाएं, और आपका कुछ भी शेष न रह जाए, आपका नमक का पुतला बिलकुल पिघल जाए और खोजे से भी न मिले--समझना सागर की गहराई आ गई।
तो क्या मुझे यह कहने की आज्ञा देंगे, जहां आप बिलकुल मिट जाते हैं--वहीं ईश्वर है। और क्या मुझे कहने की आज्ञा देंगे कि जहां आप मिट जाते हैं--वहीं आपका वास्तविक होना है। जो मिटता है, वह पा लेता है; जो खो देता है, प्रभु को वह उपलब्ध हो जाता है।
जैसा मैं निरंतर कहता हूं, उस बात को कहूं और चर्चा को पूरी करूं। बूंद जब सागर में अपने को खो देती है तो सागर हो जाती है। और उसका सागर हो जाना ही उसका आंतरिक सत्य है। क्योंकि हर बूंद अपनी आंतरिक गहराई में सागर ही है। हर सत्ता अपनी आंतरिक गहराई में ईश्वर है, सत्य है। और जब हम अपनी इन परिस्थिति बोध को छोड़ देंगे, उसे जानने में समर्थ हो जाएंगे।

मेरी इन बातों को प्रेम से सुना है उसके लिए बहुत अनुग्रहीत हूं। सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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