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गुरुवार, 30 अगस्त 2018

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(ओशो)

दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ेगी

मैं मानता ही ऐसा हूं कि पूंजीवाद का काम ही यह है कि इतनी संपत्ति पैदा कर जाए कि समाजवाद संभव हो सके।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
नहीं ऐसा नहीं है क्योंकि माक्र्स के ख्याल में ऐसा है, कि पूंजीवाद समाजवाद नहीं लाएगा। पूंजीवाद अपने अंतर्कलह पैदा करेगा। और अंतर्कलह समाजवाद लाएंगे। मेरी ऐसी धारणा नहीं है। माक्र्स का ख्याल यह है पूंजीवाद ऐसी स्थिति पैदा कर देगा कि अभी जो तीन वर्ग हैं समाज में, पूंजीपति का वर्ग, पूंजीहीन का वर्ग और मध्यम-वर्ग, पूंजीवाद का शोषण मध्यम-वर्ग को नष्ट कर देगा। मध्यमवर्ग का बड़ा हिस्सा सर्वाहारा हो जाएगा। छोटा सा हिस्सा पूंजीवादी हो जाएगा और समाज सीधा दो हिस्सों में कट जाएगा। जिस दिन समाज दो वर्गाें में सीधा कट जाएगा, उस दिन पूंजीवाद की अन्तर्कलह ही पूंजीवाद की मृत्यु बन जाएगी।

मेरी दृष्टि बिलकुल भिन्न है, मेरी समझ ऐसी है कि जैसे-जैसे पूंजीवाद विकसित होगा, मघ्यमवर्ग नष्ट नहीं होता, जैसे-जैसे पूंजीवाद विकसित होता, मजदूर का वर्ग नष्ट होता है। और अन्ततः एक ऐसी समाज स्थिति बनती है जहां, वह मध्यमवर्ग ही रह जाता, जिसके एक छोर पर धनी रहता है, दूसरे छोर पर निर्धन रहता है, लेकिन मध्यवर्ग अकेला वर्ग रह जाता है।

और जहां मध्यवर्ग अकेला वर्ग रह जाएगा, जहां मजदूर के पास भी कुछ खोने को होगा, बिल्कुल सर्वाहारा ही होगा मजदूर। और जहां मध्यवर्ग धीरे-धीरे फैलते-फैलते अपने दोनों छोरो को आत्मसात कर लेगा, यह जो स्थिति बनेगी यह अंतर वर्ग कलह से, इनर क्लास इस्ट्रगल से समाजवाद नहीं आएगा, बल्कि पूंजीवाद की पूरी सफलता से समाजवाद आएगा।

प्रश्नः टू फाॅर्मूलेटिड इन अदर वे, वाॅट यू आर नाॅट एग्री विद, पे दि जैनेरेशन आॅफ इंटीपेसिस दि माक्र्स एक्सप्लेनेशन, दि कांटेक्ट आॅफ ए कैपिटलिज्म, आॅलदो यू आर एडमिटिंग टू हिस्टोरिकल प्रोसेस विच इ.ज इनएडिटेबल।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

नो, ऐतिहासिक प्रक्रिया कि तो मैं बात कर रहा हूं लेकिन ऐतिहासिक डिटरमिनिज्म की नहीं। जैसे ही हम ऐतिहासिक डिटरमिनिज्म की बात करते हैं, तब हिस्ट्री अपने आप में एक बड़ी दैवी शक्ति बन जाती है, ईश्वरीय हो जाती है। और मनुष्य के हाथ के बाहर हो जाती है, और मनुष्य उसके हाथ में एक खिलौना हो जाता है। जब मैं ऐतिहासिक प्रक्रिया की बात कर रहा हूं तो मेरा मतलब कुल इतना है कि जीवन के विकास के चरण हैं और प्रत्येक विकास का चरण, एक खास दिशा में इंगित करता है कि जहां इतिहास जा सकता है, लेकिन फिर भी वहां जाएगा या नहीं जाएगा ये मनुष्य की चेतना सदा ही चुनाव करती है। और ऐसा मैं नहीं मानता हूं कि पूंजीवाद से अनिवार्य रूप से समाजवाद फलित होगा, पूंजीवाद से समाजवाद फलित हो सकता है, फलित होने से रोका भी जा सकता है। यह मनुष्य की चेतना ही तय करेगी कि वह समाजवाद को फलित होने दे या न होने दे। अगर आदमी दर्शक की भांति खड़ा रहे, तो जरूर इतिहास की प्रक्रिया धीरे-धीरे समाजवाद को ले आएगी। लेकिन आदमी दर्शक नहीं है, पार्टिसिपेंट है। और आदमी सिर्फ हिस्टोरिकल नैसेसरी से नहीं जी रहा है, बल्कि आदमी हिस्ट्री को पैदा भी कर रहा है। और ये दोनों बातें बड़ी अंतरनिर्भर हैं। क्योंकि हमें हिस्ट्री पैदा करती है, और हम हिस्ट्री को पैदा करते हैं। हिस्ट्री हमें एक सीमा तक डिटर्मिन करती है, और एक सीमा तक हम हिस्ट्री को डिटर्मिन करते हैं। इसलिए अकेला हिस्टोरिक डिटर्मिनिज्म मुझे घातक मालूम पड़ता है। ज्यादा उचित होगा कहना कि यह एक इंटरडिपेन्डिंग डिटर्मिनिज्म है, जिसमें आदमी पूरे वक्त निश्चय कर रहा है। और ये हो सकता है कि अगर आदमी तय कर ले तो समाजवाद कभी भी न आए। और ये भी हो सकता है अगर आदमी तय कर ले तो समाजवाद पूंजीवाद की आधी अवस्था मे भी थोप दिया जाए। यह दोनों हो सकता है। जैसे रूस में मैं मानता हूं कि हिस्टोरिक डिटर्मिनि.ज्म से नहीं समाजवाद आ गया है। आदमी के...आया है। क्योंकि रूस में न तो पूंजीवाद था, न पूंजीवाद की कोई विकसित अवस्था थी, और न कोई सर्वहारा का वर्ग था, और न काई पूंजीपति का वर्ग था। रूस तो एक सोसाइटी थी। चीन में भी ऐसी ही सोसाइटी थी। यह हमारी सोसाइटी भी अभी तक वैसी सोसाइटी है। चीन जैसे बिलकुल किसानों के देश में भी समाजवाद लाया जा सका, आया या नहीं, यह दूसरी बात है। पूरी तरह आया नहीं, यह भी दूसरी बात है। लेकिन मनुष्य की चेतना भी निर्धारक है। और छोटी-मोटी निर्धारित नहीं है और जैसे-जैसे आदमी विकसित हो रहा है, वैसे-वैसे मनुष्य के निर्धारण की क्षमता बढ़ती है और इतिहास के निर्धारण की क्षमता कम होती है। जितना मनुष्य की चेतना का विकेास होगा, तो एक एस्टीनिरेटिंग ताकत है, जो मनुष्य के पास आती जा रही है, और अब यह हम कह सकते हैं कि यह हो सकता है, कि आने वाले सौ-दो सौ वर्षों में, ऐतिहासिक डिटर्मिनिज्म का कोई बहुत गहरा अर्थ न रह जाए। मनुष्य की चेतना बहुत कुछ निर्धारक हो जाए।
प्रश्नः कमिशन कैपिटलिज्म की होनी जरूरी नहीं है, सोशियलिज्म के लिए, तो कैपिटलिज्म...देगा बाद में, मन हो फिर भी सोशियलिज्म आ सकता है। जैसा लंदन में और वाशिगंटन में हुआ है, स्वीडन में हुआ है। दूसरी बात आपने बताई कि जो कैपिटलिज्म है, उससे इंडिविजुअल कैपिटलिज्म आप चुनाव करते हैं उसका, उसे प्रिफर करते हैं। तो स्टेट कैपिटलिज्म इ.ज...टू इंडिविजुअल कैपिटलिज्म, आप पसंद करते हैं, तो उसमें जो...का प्राॅब्लम है, वह खत्म नहीं होता है।
पहली बात तो यह कि मैं यह कहता हूं कि पूंजीवाद अगर पूरी तरफ विकसित न हो तो भी सोशियलिज्म लाया जा सकता है। लेकिन यह अलग बात है। अब आप समझें, यह लाया जा सकता है, यह बिल्कुल लाया जा सकता है, लेकिन अगर ऐतिहासिक स्थिति तैयार नहीं है तो भी मनुष्य की चेतना इसे ला सकती है। लेकिन तब मनुष्य की चेतना को बहुत कुछ जबरजस्ती करनी पड़ेगी इतिहास की प्रक्रिया के साथ।
वाॅयलेंस से मेरा मतलब सिर्फ इतना ही नहीं होता कि हम बंदूक चलाएं, गोली बनाएं, खून गिराएं। ना, वाॅयलेंस से मेरा मतलब होता है कि जहां भी हमें, फोस्र्ड कुछ करना पड़े, जरूरी नहीं है कि आपके ऊपर मैं छुरा चलाऊं, तभी वायलेंस हो। यह जरूरी नहीं है। कोयर्सन को मैं वायलेंसी कहता हूं।

प्रश्नः पर कोअर्सन कैपिटलिज्म में इनहैरंट है।

हां, वह तो सभी जगह, सभी समाज की व्यवस्थाओं में रहेगा। असल में, जब तक व्यवस्था रहेगी, कोअर्सन इनहैरेंट रहेगा। वो तो एक स्टेटलेस सोसाइटी में ही कोअर्सन नहीं हो सकता। क्योंकि कोयर्सन से बाॅडी नहीं हो सकती।
समाजवाद कैपिटलिज्म के पूर्व भी लाया जा सकता है। इसे मैं इस अर्थ में कह रहा हूं जब मनुष्य की चेतना इतिहास को इस भांति निर्धारित कर सकती, लेकिन इस निर्धारण करने में चूंकि इतिहास की प्रकिृया तैयार न होगी, हम जो भी करेंगे, उसमें हमें कोअर्सन का उपयोग करना पड़ेगा। क्योंकि स्थितियां तो तैयार न होंगी, मनुष्य की चेतना स्थितियों को तैयार करने की जबरदस्ती करेगी।
दूसरी बात, दूसरी बात जो व्यक्तिगत हाथों में, पूंजी या राज्य के हाथों में पूंजी, इन दोनों में व्यक्ति के हाथों में पूंजी को पसंद करता हूं। और व्यक्ति के हाथों से किसी दिन जाए तो समाज के हाथों में जाए, इसे पसंद करता हूं। राज्य का जो मध्यस्थ एजेंसी है, उसके हाथ में पूंजी की सत्ता न जाए ये मैं चाहता हूं। और इन तीनों बातों को मैं कहना चाहूंगा। व्यक्ति के हाथ में, राज्य के हाथ में, समाज के हाथ में। और यह तीनों अलग-अलग बातें हैं। व्यक्ति के हाथ में तो पूंजीवाद के बाद है, अगर हम जबरदस्ती, यानि इतिहास की प्रक्रिया पूरी न हुई हो, और यह व्यक्तिगत पूंजी को समाप्त करना चाहें, और समाज के हाथों में पहुंचाना चाहें तो समाज के हाथ में पहले नहीं पहुंचेगी। पहले राज्य के हाथ में पहुंचेगी। क्योंकि कोई ऐसी बाॅडी चाहिए जो व्यक्ति के हाथ से छीने, और समाज के हाथ में देने की तैयारी करे। जरूरी नहीं है, कि एक दफा राज्य अपने हाथ में लेकर, समाज के हाथ में दे। यह दूसरी बात है। लेकिन वह यह तो दिखाए कि हम व्यक्ति के हाथ से छीन कर, राज्य के हाथ में देते हैं। समाज के हाथ में देते हैं, और जब व्यक्ति के हाथ से छीन लें तो राज्य दे या न दे, यह बहुत सी बातों पर निर्भर करेगा।
यह जरूरी नहीं होगा कि वायदा पूरा किया जाए। और मेरी समझ यह है कि वायदा पूरा करना बहुत कठिन पड़ेगा। कठिन इसलिए पड़ेगा कि एक बार राज्य के हाथ में, राज्य की भी ताकत हो, और धन की भी ताकत हो, यह दोनों ताकत जब राजनीतिज्ञ के हाथ में इकट्ठी हो जाएं, तो राज्य यह पसंद करेगा या नहीं, यह तो उस राजनीतिक ग्रुप के ऊपर निर्भर करेगा और यह भी एक अर्थों में मनुष्य की चेतना निर्धारित होगी कि क्या हो? इसके बाबत नहीं कहा जा सकता कि यह कोई हिस्टोरिकल डिटर्मिनिज्म से तय नहीं हो जाएगा कि राज्य अपने आप हाथ में सौंप दें। दूसरी बात, जैसे ही हम व्यक्ति की संपत्ति को राज्य के हाथ में देते हैं, हम व्यक्ति की हैसियत को भी खत्म करते हैं, व्यक्ति की बगावत की हैसियत को भी खत्म करते हैं, व्यक्ति के विद्रोह की हैसियत को भी खत्म करते हैं, व्यक्ति के चिंतन की सामथ्र्य को भी क्षीण करते हैं। क्योंकि राज्य के हाथ में...सारी शक्ति आ जाती है। मैं इसके पक्ष में नहीं हूं। मैं जरूर इस पक्ष में हूं कि एक दिन व्यक्ति के हाथ से समाज के हाथ में संपत्ति चली जाए। लेकिन वह कैसे जाएगी? वह अगर राज्य के द्वारा नहीं जाती, तो दूसरा क्या उपाय हो सकता है? मेरी दृष्टि में, संपत्ति उसी दिन व्यक्ति के हाथ से राज्य के हाथ में सहज रूप से जा सकती है, बिना राज्य के बीच में आए, जिस दिन संपत्ति इतनी अधिक हो कि संपत्ति पर व्यक्तिगत मालकियत बेमानी हो जाए। इसके पहले नहीं जा सकती।
संपत्ति पर मालकियत का मजा तभी तक है, जब तक संपत्ति कम है और उपभोक्ता ज्यादा हैं। जब तक संपत्ति न्यून है और लोग ज्यादा हैं। अगर कल हम टेक्नोलाॅजिकल रेवोल्यूशन से इतनी संपत्ति पैदा कर सकें, जो कि हो सकती है कि संपत्ति को व्यक्तिगत बनाने का कोई भी अर्थ न रह जाए। तो ही व्यक्ति के हाथ से समाज के हाथ में संपत्ति जाएगी।

प्रश्नः मायने क्या? समाज के हाथ में जायगी, किसके पास जाएगी, कहां रहेगी?

जब भी हम पूछते हैं, किसके पास जाएगी, कहां रहेगी? तो हम उसी भाषा में पूछ रहे हैं कि या तो व्यक्ति के पास रहे, या राज्य के हाथ में रहे। असल में जब समाज के हाथ में जाएगी, तो बताना मुश्किल हो जाएगा कि लोकस कहां है। समाज का मतलब ही यह होता है। जब तक हम लोकस बता सकते हैं कि यहां है, तब तक किसी के हाथ में है। समाज के हाथ में नहीं है। समाज के हाथ में जाने का मतलब ही यह है कि नाओ प्रोपर्टी इस नो वेअर, बिकाॅज इट इ.ज एवरीवेयर। जब भी जब तक हम बता सकते हैं, समवेयर, तब तक आप समझना कि समाज के हाथ में नहीं गई है। अभी हम कह सकते हैं, बिरला के पास है, सिंघानिया के पास है, टाटा के पास है, रूस में हम कह सकते हैं राज्य के पास है, चीन में हम कह सकते हैं राज्य के पास है। जिस दिन समाज के हाथ में संपत्ति जाएगी, उस दिन हमारे पास होगी। हमारे पास का मतलब क्या हुआ, हमारे पास का मतलब ये हुआ कि हम ऐसा पर्टिकुलराइज नहीं कर सकते कि इसके पास, सम्पत्ति उस दिन बना, आज हवा किसके पास है? अगर हम पूछने जाएं कि हवा किसके पास है? तो हमें कहना पड़ेगा, हवा किसी के पास नहीं है। जिस दिन हम संपत्ति को इतना पैदा कर लें कि वह हवा की तरह अतिरेक में हो जाए, लूएंट हो जाए, उसी दिन समाज के हाथ में होगी, उससे पहले नहीं होगी।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

असल में आॅर्गेनिज्म भी बहुत प्रकार के हैं। एयर का अपना आॅर्गेनिज्म है, वह बेबी की तरह नहीं है। बेबी का अपना आॅर्गेनिज्म है। सोसाइटी का अपना आॅर्गेनिज्म है, न तो वह एयर की तरह है, और न वो बेबी की तरह है। लेकिन सोसाइटी एक इंटररिलेशनशिप है। और उस इंटररिलेशनशिप में हमारे संबंध तब तक संपत्ति के संबंध होंगे, जब तक हमारी संपत्ति कम है। जिस दिन हमारी संपत्ति ज्यादा है उस दिन हमारे संबंध संपत्ति के नहीं रह जाएंगे क्योंकि वो बात मीनिंगलैस है, उसे बीच में लाना अर्थहीन हो जाएगा। आज मैं अकड़ कर कहना चाहता हूं कि यह मकान मेरा है, क्योंकि बहुत लोग हैं, जिनके पास मकान नहीं है। या बहुत लोग हैं जिनके पास मकान नाम मात्र को है, जिसे मकान कहना बेकार है। तब तक तो मुझे यह मकान मेरा है कहने में एक रस है, लेकिन अगर मकान सबके पास हैं, तो यह इस बात के कहने में रस खो जाता है कि यह मकान मेरा है। और इसको जगह-जगह जाकर बता कर, और नेम प्लेट लगा कर खबर करने का कोई अर्थ नहीं रह जाता कि यह मकान मेरा है। और मकान अगर कल इतने हो जाएं कि लोग कम पड़ें और मकान ज्यादा हो जाएं, तब तो यह भी व्यर्थ की बात है कि मैं इस मकान का ठेका लिये बैठा रहूं , कि मैं इसको अपने बेटे के नाम लिख कर जाऊंगा। असल में संपत्ति न्यून है, उपभोक्ता ज्यादा है, इसीलिए व्यक्तिगत मालकियत का अर्थ है। अब यह मालकियत दो तरह से विसर्जित हो सकती है, या तो व्यक्ति से छीन कर राज्य के हाथों में चली जाए, और अगर हम जल्दी करेंगे, तो राज्य के हाथों के सिवा कोई हाथ नहीं हैं जो इसको संभाल लें। समाज के पास कोई हाथ नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

असल में आॅर्गेनिज्म इज डिरेंट वे एंड देयर आर सो मैनी टाइम्स आॅफ आॅर्गेनिज्म। एक तो जैसे मेरी बाॅडी है, यह एक आॅर्गेनिज्म है। यह एक और तरह का आॅर्गेनिज्म है। यह मेरा मतलब आप समझ रहे हैं ना। लेकिन फिर भी मैं कहता हूं कि सोसाइटी एक लिविंग आॅर्गेनिज्म है। लेकिन यह जो आॅर्गेनिज्म है सोसाइटी, यह अब तक हमारी, जिसको हम सोसाइटी कहते हैं, इतनी क्लासेज में बंटी है कि बजाए यह कहने के कि यह एक आॅर्गेनिज्म है, कहना चाहिए यह बहुत से काॅन्लैक्टिंग आॅर्गेनिज्म हैं। जब तक ये क्लासेज में बंटी है, तब तक कहना चाहिए कि ये बहुत काॅन्लैक्टिंग आॅर्गेनि.ज्म है, जैसे मेरा शरीर है।

प्रश्नः देट इज, देट इन दी आॅर्गेनिज्म, द रिलेशनशिप बिटविन पार्ट इ.ज प्रीडिपार्ट एंड डोंट हैव इंडीपेंडेंट एग्जिसटेंस।

यह जो बात है ना, यह तब तक बात सही है, इसलिए मैं कह रहा हूं,, सोसाइटी इज ए डिफरेंट टाइप आॅफ आॅर्गेनिज्म। असल में सोसाइटी जो है, इट इज नाॅट समथिंग फिक्स, इट इज समथिंग लाइक ए प्रोसेस। सो नो पार्ट केन हैव ए डिफाइंड रोल टू प्ले। एवरी मूवमेंट, एवरी मूवमेंट, एवरी रोल इ.ज चेन्जिंग।

प्रश्नः देयर इट इ.ज नाॅट एन आॅर्गेनिज्म?

न-न, आर्गेनिज्म इज ए डिफरेंट सेंस, एज ए प्रोसेस। असल में हमारी तकलीफ क्या है, हम जब भी आॅर्गेनिज्म को सोचते हैं, तो एक फिक्स्ड एन्टाइटी की तरह सोचते हैं। एक नदी है, यह भी एक आॅर्गेनिज्म है। लेकिन नदी का रोल उस तरह से फिक्स्ड नहीं जैसा तालाब के पानी का फिक्स्ड है। तालाब के पानी का और तालाब के किनारे करीब-करीब तय हैं। लेकिन नदी का किनारा भी तय नहीं है, नदी का रोल भी तय नहीं है। कल वह किस तरफ मुड़ेगी यह भी तय नहीं है। कहां से जाएगी, निकलेगी यह भी तय नहीं है। नदी के पास भी एक आॅर्गेनिज्म है, लेकिन वह एक लैक्सिबिल आॅर्गेनिज्म है। सोसाइटी जो है, हजारों साल तक डेड, और फिर से आॅर्गेनिज्म की तरह ही है। लेकिन जब भी सोसाइटी में कोई टैक्नोलाॅजिकल रेवोलूशन उपस्थित होती है, तो सोसाइटी के आर्गेनिज्म और उसके पाट्र्स पर रोल बदलना शुरू होता है। वह तत्काल बदलना शुरू होता है। जैसे उदाहरण के लिए, हिन्दुस्तान में तीन हजार साल तक ब्राह्मण का रोल फिक्स्ड रोल था। और तीन हजार साल तक हमें कभी शक भी पैदा नहीं हुआ था कि ब्राह्मण के रोल में कोई फर्क हो सकता है।
शूद्र का रोल फिक्स्ड रोल था, इसलिए वर्णो में बंटी हुई जो समाज व्यवस्था थी, इट वाज मोर आॅर्गेनिज्मिक, देन ए वक्र्स। ज्यादा आॅर्डड थी, डिसिप्लिन थी, सब रोल बटे हुए थे। एक आदमी पैदा होते से जानता था कि क्या वह है, और क्या उसे करना है? एक-एक की आयडेंटिटी तय थी। इसलिए उपद्रव कम था। मनु ने जो सोसाइटी कल्पना की थी, वह बिलकुल ही आॅर्गेनिक थी। उसमें एक-एक पार्ट तय था कि पैर कौन है, और पेट कौन है, और सिर कौन है। लेकिन हमने पाया कि वैसा सोसाइटी डेड सोसाइटी और स्टेग्नेंट हो जाती है। तब हमने पाया कि सोसाइटी को आॅर्गेनिज्मिक भी हो और लोइंग भी हो। आॅर्गेनिज्म तो सोसाइटी होनी ही चाहिए, नहीं तो फिर इंडीविजुअल सी रह जाती हैं, सोसाइटी नहीं रह जाती है। तब टूटे हुए इंडीविजुअल आयरलैंड्स बन जाते हैं। सोसाइटी तो एक आर्गेनिज्म है, बट, इट शुड बी ए लोइंग आॅर्गेनिज्म, ए.ज ए प्रोसेस नोट एज ए बींग, बट एज ए बीकमिंग और जहां बीकमिंग होगी, वहां पार्ट सुनिश्चित, रोल नहीं हो सकता उनका। वहां रोल प्रतिदिन बदलता हुआ होगा। रोज पैटर्न बदलता हुआ होगा, रोज पैटर्न बदलता हुआ होगा, तथा रोज रोल बदलता हुआ होगा। आज जो एक शूद्र के घर में पैदा हुआ, आज नहीं कल ब्राह्मण हो सकता है, कोई बहुत तकलीफ नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

नो, आई एम नाॅट सेइंग देट कैपिटलिज्म इज प्रिकंडीशंड आॅफ द सोशलिज्म।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

इफ देयर इ.ज ऐनी पाॅसिबिलिटी...देन इट मस्ट कम फुल्ली ग्रोन कैपिटलिस्ट सिस्टम वाय। डेमोक्रेसी का जो हमारा मतलब है, अगर एक बार हम ये तय करें, कि डेमोक्रेटिक सोशियलिज्म हो सकता है, तो उसका मतलब ही यह हुआ कि स्टेट जो है वह कोयर्स नहीं करेगी। स्टेट के हाथ में...ताकतें नहीं होंगी। और स्टेट के हाथ में मुल्क की संपत्ति की आॅनरशिप नहीं होगी। क्योंकि एक बार मुल्क की संपत्ति की आॅनरशिप स्टेट के हाथ में गई तो उसकी टोटिलिटि नहीं होने से रोकने का कोई उपाय नहीं है। बहुत सी चीजें है स्टेट..।

प्रश्नः स्टेट के हाथ में जाएगी, उसका मतलब क्या है?

सवाल दो-तीन चार आदमियों का नहीं है।

प्रश्नः बैंक किया हमने तो उसकी सम्पत्ति मालिकी किसकी है?

ये जो कहते हैं हम सबकी हुई, ये बड़ी भ्रांत बात कहते हैं, यह हम जब कहते हैं, हम सबकी है तो ये भ्रांत है इसलिए...।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

दो-तीन बातें खयाल में लें। एक, इस स्टेट से मतलब है, यह जो बड़ी सोसाइटी है, यह समाज है, यह समाज अपने को सुनियोजित स्वयं नहीं कर सकता इसलिए, एक रिइंसटेटिव बाॅडी से अपने को सुनियोजित करवाता है। और यह जरूरी भी है, क्योंकि इतनी बड़ी सोसाइटी को सीधे मैनेज करने को कोई उपाय नहीं है। तो हम दस लोगों के हाथ में, पचास लोगों के हाथ में, सौ लोगों के हाथ में, एक मशीनरी के हाथ में, इस मुल्क के फंग्शन को देते हैं।
चैरस्ते पर एक पुलिसवाला खड़ा हुआ है, वह ट्रैफिक को मैनेज कर रहा है, वह स्टेट फंग्शनिंग है उसकी कि रास्ते पर कोई आदमी बाएं से ही चले, दाएं से न चले, कोई टकरा न जाए। टकरा जाए तो उसकी रिपोर्ट की जा सके। टकरा जाए तो उसे दंड दिया जा सके। लेकिन यह चैरस्ते का पुलिस वाला कल यह कहता है कि बेहतर यह होगा कि सारी कारें, जो चलती हैं इनकी आॅनरशिप मेरी हो जाए, तो उससे मैं ज्यादा अच्छे ढंग से मैनेज कर सकूंगा। क्योंकि जब तक आॅनरशिप दूसरे की है, तब तक थोड़ी गड़बड़ होती ही है। आॅनरशिप अगर मेरी ही हो जाए, जो ट्रैफिक कन्ट्रोल का आदमी है, तो मैं ज्यादा ढंग से व्यवस्थित कर सकूंगा। और अगर यह सारे लोग जो रास्ते पर चलते हैं, यह भी मेरी आॅनरशिप में हो जाएं, तब तो फिर कोई खतरा नहीं रहेगा इनको दंड देने के लिए मौका नहीं आएगा। क्योंकि बाएं-दाएं चल भी नहीं सकेंगे मेरी बिना आज्ञा के। चैराहे पर खड़े आदमी को हमने एक फंग्शन की तरह खड़ा किया था, कि वह चैराहे पर चलने की सुविधा जुटाए। अंततः वह यह कहता है कि चलने की मैं पूरी सुविधा जुटा दूंगा, चलने वालों की मालकियत मेरे हाथ में आ जाए। मैं जो उदाहरण ले रहा हूं, इसलिए ले रहा हूं कि स्टेट को इसी भांति मैं स्वीकार करता हूं। उसका फंग्शन समाज की सेवा करने का है, समाज की मालकियत करने का नहीं है। समाज की आॅनरशिप के लिए नहीं है, स्टेट समाज की सर्विस के लिए है।
लेकिन सर्वेंट के हाथ में अगर ताकत हो तो तय करना मुश्किल हो जाता है कि वह आॅनरशिप बनने की कोशिश नहीं करेगा। सर्वेंट को हमें ताकत तो देनी ही पड़ती है, क्योंकि वह आखिर कुछ काम करेगा तो उसके पास ताकत चाहिए। और जैसे-जैसे स्टेट को ताकत मिल रही है सर्विस करने की, धीरे-धीरे हमको पता चला है कि स्टेट, जो कि सर्वेंट है, एक-एक इंडीविजुअल मालिक से ज्यादा ताकतवर है, स्वभावतः। पचास करोड़ का मुल्क है, और हमने नए राज्य की व्यवस्था की है, यह राज्य की व्यवस्था हम सबकी नौकर है, लेकिन एक-एक मालिक के मुकाबले बहुत ताकतवर है। क्योंकि बाकी चालीस करोड़ लोगों से बात करें, तब मेरी ताकत मुझे मिलती है। वह मेरी ताकत है एक। स्टेट की ताकत मुझसे सदा ज्यादा है। पुलिस वाला जो खड़ा है, उसको दी गई ताकत सदा मेरी है। लेकिन रास्ते पर जब वह मुझे रोकता है तो वह मुझसे बहुत ज्यादा ताकतवर है। क्योंकि उसको चालीस करोड़ लोगों का हाथ भी है उसको ताकत देने में। धीरे-धीरे स्टेट को यह पता चलता चला गया है, निरंतर कि समाज की सेवा करने के मार्ग से, धीरे-धीरे स्टेट और पोलिटीशियन समाज की मालकियत तक पहुंच सकता है। और सोशियलिज्म की बात उसे बड़ी सरलता से रास्ता बन जाती है कि वह मालकियत तक पहुंच जाए। और जो दो कंट्रीज में हुआ है, रूस में या चीन में, वह बहुत साफ है, कि किस भांति स्टेट आॅनरशिप धीरे-धीरे स्टेट कैपिटलिज्म बन गई। और किस भांति स्टेट को आप कहते हैं, दो-चार लोग नहीं, दो-चार लोगों ने ही उन्नीस सौ सत्रह से लेकर और आज तक रूस में पूरी की पूरी ताकत को अपने हाथों में केंद्रित रखा है। और फिर छीनने का कोई उपाय नहीं रह जाता। ताकत देना एक दफा आपके हाथ में है, छीनने का उपाय फिर नहीं रह जाता। क्योंकि छीनने के लिए भी ताकत चाहिए।
तो मेरे हिसाब से, डेमोक्रेसी का मतलब ही यह है कि हम कभी भी स्टेट के हाथ में इतनी ताकत नहीं दे रहे हैं कि वह मालिक बन बैठे। डेमोक्रेसी की इंट्रन्जिप क्वालिटी यह है कि स्टेट जो है, वह बेसिकली सर्वेंट है और उसको किसी भी हालत में मालकियत नहीं देनी है। और हम उसे देते हैं भी पांच साल के लिए एक प्रतिनिधि को तो वह आॅन लीव, मालकियत है। वह मालकियत तत्काल छीनी जा सकती है। और ज्यादा डेमोक्रेटिक मुल्कों में जैसे स्विटजरलैंड में उसे बीच में भी बुलाया जा सकता है। और मैं मानता हूं कि वही डेमोक्रेसी का हिस्सा होना चाहिए कि अगर मैंने मुझे आपने चुन कर भेजा, और आप पन्द्रह दिन बात पाते हैं, अनुभव करते हैं कि यह आदमी पांच साल तक भी ताकत में रखने लायक नहीं है, तो आप मुझे वापस भी बुला लें। डिमोक्रेसी इज पावर अॅान लीव।

प्रश्नः बट इन दैट केस यू विल आॅल सो अगेन पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी, बिकाॅज इट टू सम एक्टेंडिड इनवाॅल्व, सम एप्लीकेशन आॅफ पावर इज द पार्ट आॅफ विन?

नहीं-नहीं, वह तो होगा ही, क्योंकि वह हमारी मजबूरी, वह नेसेसरी इविन है। आज सोसाइटी उस हालत में नहीं है कि हम पार्लियामेंट्री स्थिति को भी छोड़ दें। किसी दिन छोड़ी जा सकती है, जैसे किसी दिन यूनान में, नगर का संभव हो सकता था। अगर किसी दिन दुनिया में नेशन्स विदरअवे हो जाएं, तो हो सकता है एक-एक गांव अपना, अपनी व्यवस्था कर ले लेकिन किसी भी हालत में रिप्रिजेंटेटिव से बचना मुश्किल है। यह जो मैं कह रहा हूं, तो स्टेट मेरे लिए एज ए सर्वेंट तो डेमोक्रेसी में है, लेकिन जैसे ही स्टेट के हाथ में, इकोनोमिक फोर्सेस भी कंसंट्रेट होनी शुरू होती हैं, उसको सर्वेंट रखना असंभव है। इसलिए मैं कहता हूं डेमोक्रेटिक सोशियलिज्म जैसी कोई चीज नहीं हो सकती। क्योंकि सोशियलिज्म पहले कोशिश करेगा कि स्टेट के हाथ में आॅनरशिप जाना शुरू हो, मींस आफ प्रोडक्शन के। और जैसे ही मींस आॅफ प्रोडेक्शन की ताकत स्टेट के हाथ में जानी शुरू हुई, यह हो भी सकता है कि वह राज्य, वह ताकत, वह पोलिटीशियन, जिन डेमोक्रेसी के द्वारा वहां तक आए हों, लेकिन वह डेमोक्रेसी की हत्या करने के प्रारंभ को शुरूआत कर देंगे। और या फिर जैसा इंग्लैंड में हुआ है यह हालत होगी। यह होगी, जिससे कि सोशियलिज्म-वोशियलिज्म कुछ आता नहीं। आज सोशियलिस्ट पार्टी गई है, आज टारी हो गए। अब उस वक्त पूरा का पूरा हिसाब खराब कर देंगे। प्रभावित करने वाले हैं। असल में सोशियलिज्म आपको लाना हो, अगर प्रिमेच्योर कैपिटलिज्म में, तो आपको कोयर्सन का उपयोग करना पड़ेगा। और या फिर ये अल्टरनेटिंग पार्टी कुछ भी नहीं होने देंगी। मेरी समझ ये है कि सोशियलि.ज्म ए.ज स्कोंटेनियस, तो तभी संभव है, जब कैपिटलिज्म इस सीमा तक संपत्ति पैदा कर देता है कि व्यक्तिगत संपत्ति अपने आप में मीनिंगलैस हो गई है। अगर नहीं हो गई है मीनिंगलैस तो कोयर्सन जरूरी हो जाएगा।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
प्रश्नः दि मोमेंट यू टाॅक आॅफ सोशियलिज्म दि स्टेट हैज गाॅन बियोंडिड वापर्स? नो दि आॅनर।

डेमोक्रेटिक हैं, कुछ भी कहें, सोशियलिज्म जैसे ही आप बात करते हैं, स्टेट इज बाउंड टू टेक दि आॅनरशिप। और द मूवमेंट इज द टेक्स आॅनरशिप इट हैज गान, बियोंड द सर्वेंट एंड द।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

डेमोक्रेटिक तो हैं कुछ भी कहें, सोशियलिज्म जैसे ही बात करते हैं, स्टेट इज बाउंड टू टेक दि आॅनरशिप। और दि मूवमेंट इ.ज टेक्स आॅनरशिप। इट हैज गाॅन बियोंड द आॅफ द सर्वेंट, हैज बिकम दि मास्टर।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

आप एक दफा, एक दफा, इकोनोमिक फोर्सेस स्टेट के हाथ में केन्द्रित हो गई हैं, तो पीपुल की कोई ताकत नहीं है अब गवरमेंट को फेंकने की। एक बार..।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

ये इसीलिए कि इंडीविजुअल प्रोपर्टी मौजूद है, इंडीविजुआ प्रोपर्टी अगर विदा हो जाए, तो इंडीविजुअल उसके साथ ही एकदम इंपोटेंट होना शुरू हो जाएगा।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

नो।

प्रश्नः वाय नाॅट?

इसलिए नहीं कि इंडीवीजुअल प्रोपर्टी खत्म नहीं की गई है। मीनिंगलैस हो गई है। इन दोनों में फर्क है। आप से मैं यह कपड़ा छीन लूं तब आप नंगे होते हैं, लेकिन यह कपड़ा बेकार हो जाए और आप छोड़ दें, तब आपकी नग्नता में बहुत फर्क है। आप कपड़ा जब छोड़ते हैं, तब आपकी नग्नता में एक सौंदर्य है और एक अर्थ है। और वह आपकी एक स्वतंत्रता है। और जब यह कपड़ा आपसे जबरदस्ती छीन कर आपको नंगा किया जाता है, तो यह वैविचार है। और यह नग्नता आपको सौंदर्य नहीं देती, कुरूपता दे जाती है। मेरा मानना ऐसा है, इंडीविजुअल प्रोपर्टी शुड विदर अवे। शुड नाॅट बी टेकन।

प्रश्नः बट इट मींस दैट आई विल बी कैपेबल आॅफ किलिंग अप माइ शर्ट, ओनली वेन आई हैव पेनल्टी आॅफ शर्ट।

इसके पहले नहीं संभव है। इसके पहले संभव नहीं है।

प्रश्नः वाॅट...आॅफ द प्रोपर्टी? कहां तक कैपिटल हो जाए जमा व्यक्ति के पास जब वह छोड़े?

इसमें दो-तीन बातें हैं। एक तो जैसे ही संपत्ति जिसको मैं अलुएंट कहूं, अलुएंट संपत्ति तभी हो सकती है, जब मनुष्य के श्रम पर ही हमें संपत्ति पैदा करने के लिए निर्भर न रहना पड़े। उसके पहले कभी भी संपत्ति अलुएंट नहीं हो सकती। संपत्ति अलुएंट उसी दिन होगी जिस दिन हम, इस टैक्नोलाॅजिकल रेवुलेशन से गुजर जाएं, जो कि व्यक्ति के श्रम को मुक्त कर दे। व्यक्ति के श्रम की जरूरत न रह जाए, संपत्ति के पैदा करने में। क्योंकि व्यक्ति के श्रम की सीमाएं हैं, और व्यक्ति के श्रम की सीमाएं ही संपत्ति के पैदा करने की सीमाएं भी हैं। जैसे कि हल से एक आदमी खेत में काम कर रहा है, तो एक सीमा है हल की। संपत्ति उतनी पैदा होती है। ट्रैक्टर से काम कर रहा है, तो एक सीमा है ट्रैक्टर की, संपत्ति उतनी पैदा होती है। कैपिटलिज्म की आखिरी अवस्था में, सारा का सारा आॅटोमेटिक यंत्रों की माध्यम से ही संपत्ति पैदा हो, तो अलुएंट सोसाइटी पैदा होगी। यह जो व्यक्तिगत श्रम मुक्त हो जाए आदमी, व्यक्ति को श्रम करने का कोई जरूरत न रह जाए, तो एक तो बहुत बड़ी दीनता श्रम करने से पैदा होती है, कंपलसरी श्रम करने से वो विदा हो जाती है। और जिस दिन हम आॅटोमैटिक संपत्ति पैदा कर सकते हैं, उस दिन हम कितनी ही संपत्ति पैदा कर सकते हैं। आज तक जो हमारी धारणा है कि किस लिमिट तक संपत्ति हमारी अतिरेक हो गई, उसका कारण है, क्योंकि संपत्ति अतिरेक कभी नहीं हुई और हमारी इच्छाएं संपत्ति से सदा ज्यादा रही हैं। और संपत्ति सदा थोड़ी रही हैं। तो धीरे-धीरे एक ऐसी हालत पैदा हो गई कि हम सोचने लगे कि इच्छाएं अनंत हैं। और संपत्ति बहुत सीमित है। और किसी भी सीमा पर ऐसा नहीं हो सकता, जिस सीमा पर जाकर, संपत्ति अनंत हो जाए और इच्छाएं सीमित पड़ जाएं। मेरी समझ उलटी है। मैं मानता हूं कि चूंकि संपत्ति हम नहीं पैदा कर पाए, वह स्वाभाविक था कि कोई टैक्नोलोजिकल रेवुलेशन नहीं हो गई थी कि अनंत संपत्ति पैदा की जा सके, अब संभावना बढ़ती है, और अनंत संपत्ति भी पैदा की जा सकती है, कि आपकी इच्छाएं कम पड़. जाएं। और मजा यह है कि हमारी संपत्ति की इच्छा में जो दौड़ है, वह दौड़ भी संपत्ति की न्यूनता के कारण ही है।
अगर इस घर में भोजन की कमी हो, तो भोजन के प्रति एक दौड़ शुरू हो जाएगी। और अगर हम इस घर के लोगों को समझाएं कि इस बुरी तरह चैंके की तरफ मत दौड़ो, पागल मत बनो। और एक दिन ऐसा वक्त आ जाएगा कि चैके में इतना भोजन होगा कि तुम्हें दौड़ना नहीं पड़ेगा। तुम आहिस्ता से जा सकोगे, तो वह कहेंगे ऐसा वक्त कितना भोजन होगा तब आएगा? निश्चित वह कहेंगे क्योंकि वह समझ ही नहीं सकते कि ऐसा वक्त भी कभी आ सकता है कि चैके की तरफ कभी दौड़ना न पड़े। क्योंकि दस आदमी हैं और एक आदमी के खाने के लायक रोटी। लेकिन हमें पता है, दस आदमियों से ज्यादा खाना हो सकता है। आखिर आदमी की चाहें कितनी है? सच बात तो यह है कि धर्मगुरूओं ने बहुत सी भ्रांत बातें कहीं, उनमें एक भ्रांति अनंत इच्छाओं की है। आदमी की अनंत इच्छाएं नहीं हैं। असल में आदमी की कोई इच्छा पूरी नहीं हो रही, इसलिए कंवर्ड होके अनंत होती मालूम पड़ती है। भोजन चाहिए, कपड़ा चाहिए, मकान चाहिए, शिक्षा चाहिए, थोड़ी संस्कृति चाहिए। कुछ और वैल्यूज का सुख चाहिए। आदमी की इच्छाएं बहुत अनंत नहीं है। और इन सारी इच्छाओं को पैदा करने योग्य संपत्ति बिल्कुल सहजता से पैदा की जा सकती है। और जैसे ही ये पैदा हो जाए...।
अभी मैं आपने शायद रीडर्स डाइजेस्ट में पढ़ा हो, एक छोटा सा आयरलैण्ड है, पैसेफिक में, जिसके पास फाॅस्फोरस की खदाने हैं। और कोई काम नहीं है। फाॅस्फोरस की खदानों से फाॅस्फोरस निकालने का जो काम है, वो सब यंत्रों से होता है। ज्यादा आबादी नहीं कोई दस हजार लोगों की आबादी है, नौ हजार लोगों की आबादी है। और प्रत्येक व्यक्ति को महीने में कोई सात हजार की आमदनी है। और यह सारा काम होता है मशीन से। और कोई नौ हजार की आमदनी है, इस नौ हजार में से प्रत्येक व्यक्ति को कोई साढ़े चार हजार रूपये खर्च करने को मिल जाते हैं, और साढ़े चार हजार जमा किये जा रहे हैं क्योंकि दो सौ साल में वो फाॅस्फोरस खत्म हो जाएगा, तो दो सौ साल के बाद उस आयरलैंड पर रहने वालों के पास कुछ भी साधन नहीं बचेंगे, तो उसके लिए वह साढ़े चार हजार रूपये जमा किये जा रहे हैं। उनके पास अरबों-खरबों डाॅलर जमा हैं। जिनसे उनका अंदाज है कि उनको हजारों साल तक कोई पैसे की जरूरत नहीं पड़ेगी। उस आयरलैंड पर बड़ी अजीब घटना घट गई है और वह घटना यह है कि एक-एक आदमी के पास इतना सामान है कि अगर आप किसी के घर में जाके कह दें कि यह टेपरिकाॅर्डर बहुत अच्छा, तो वह तत्काल आपको भेंट कर देता है। किसी के घर की किसी चीज की तारीफ करनी हो तो उसका मतलब यह है कि वह आपको भेंट कर देगा। यह नियम का हिस्सा हो गया है। क्योंकि हमें इसमें कोई मतलब नहीं है। वह टेपरिकाॅर्डर कोई कीमत नहीं रखता, पैसे ज्यादा हैं, सबके पास कारें हैं, टेपरिकाॅर्डर हैं, रेडियो हैं, टेलिविजन, और पैसे चले आ रहे हैं। और इन पैसे का क्या करना? तो जब आप एक टेलीविजन से मुझे मुक्त करवा देते हैं, तो मुझे सुविधा बनाते हैं थोड़ी-सी कि मैं नया टेलीविजन ले आऊं।
आप एक कार पसंद कर लेते हैं, और वो आदमी, आपने कार पसंद की कि उसने कहा कि आप ले जाइये, जब आपको पसंद आ गई तो आपकी हो गई। ये धीरे-धीरे नियम बन गया उस आयरलैंड पर कि जो ची.ज जिसको पसंद आ जाए, वो उसकी मालकियत हो गई। क्योंकि पसंद के बाद फिर उसको रोकना, ज्यादती है थोड़ी। आपने कहा कि अच्छी लगी, अब इसके बाद यह मेरे घर में रहे हर चीज तो, मैंने आपके साथ शिष्टता का व्यवहार नहीं किया।
अब यह एक छोटा सा आयरलैंड मेरे लिए आधार है सोचने का कि यह स्थिति पूरी पृथ्वी पर क्यों नहीं हो सकती? इसमें कोई अड़चन नहीं है। लेकिन यह स्थिति, जबरजस्ती से पैदा होने वाली नहीं है। यह स्थिति अतिरिक्त संपत्ति से पैदा होने वाली है। अब कितनी संपत्ति है उनके पास, कोई बहुत अतिरिक्त नहीं है। अगर साढ़े चार हजार एक आदमी की आमदनी है तो फिर कोई बहुत बड़ी आमदनी नहीं है। वह कोई मार्जन या अफोर्ड नहीं है, लेकिन आप हैरान होंगे यह जान कर कि फोर्ड या बिरला या टाटा भी, अगर मैं उनकी कार पसंद कर लूं तो देने की हिम्मत नहीं जुटा सकते। कुछ कारण हैं इसमें। यह आदमी फोर्ड और बिरला नहीं है। इस आदमी की कोई बहुत बड़ी हैसियत नहीं है। लेकिन यह चारों तरफ सबके पास सब कुछ है। बिरला की जो धन पर पकड़ है, वह पकड़ भी पास में एक गरीब आदमी खड़ा है उसकी वजह से है। और इस बात का पक्का पता है कि अगर बिरला ये व्यवहार करे कि जिसको जो पसंद आ जाए दे दे, तो वह भी कल सड़क पर भीख मांग रहा होगा। यह इंसीक्योरिटी घबराए दे रही थी। ये इंसीक्योरिटी जोर से पकड़ने को कहती है। अब इस आयरलैंड के सब आदमियों के पास सब है, मजा तो यह है कि कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई आके कहे कि मुझे पसंद पड़ा आपका यह। क्योंकि सभी के पास सब है। और इससे कोई इंसीक्योरिटी पैदा नहीं होती, कोई घबड़ाहट पैदा नहीं होती।
मेरी दृष्टि में सोशियलिज्म के लिए एक ही संभावना है, सहज जाप सोशियलिज्म के लिए। गर्भपात से नहीं, सहज जाप। और वह संभावना एक है कि कैपिटलिज्म अपनी पूरी शक्ति से विकसित हो, और कैपिटलिज्म समाज को, आॅटोमैटिक यंत्र की व्यवस्था दे दे। तो कैपिटलिज्म मरेगा, वह करना किसी क्लासकाॅनलिक से नहीं होगा, वो कैपिटलिज्म के पक जाने से होगा।
माक्र्स के दिमाग में जो खयाल है वह यह खयाल है कि किसी न किसी तल पर अंतरद्वंद्व, डायलेक्टिक, भीतर की स्ट्रगल, ही कैपिटलिज्म को गिराएगी। मुझे जो खयाल है वह ऐसा है जैसा एक आम पक जाता है और पक कर फिर कोई लड़ता नहीं है, उस आम को गिराने के लिए। आम का पका होना ही गिर जाना है। दी राइपनैस इज इनफ, वह चूंकि पक गया है, इसलिए गिरता है। और तब पके हुए आम के गिरने में जो सौंदर्य है, वह कच्चे आम को वृक्ष से छीन कर तोड़ लेने में नहीं है। और कच्चा आम तोड़ लेने पर भी कच्चा है, फिर उसे पकाने के लिए फोर्सफुल उपाय करना पड़ता है। अब उसको कि गर्मी दो, कुछ और इंतजाम करो, और फिर भी पकाया हुआ, जबरदस्ती पकाया हुआ, आम अपने ढंग से वृक्ष पर पके आम के सौंदर्य को, आनंद को, रस को उपलब्ध नहीं होता है।
तो मेरा जो, मेरा जो कुल कहना है, वह इतना है कि एक एसिलिरेटिंग कैपिटलिज्म विकसित होना चाहिए। वह इतना एसिलिरेटिव होना चाहिए, क्योंकि कोई भी चीज इस जगत में स्थाई नहीं है और कोई भी चीज पकके मरती है। मैं हूं मैं भी कल मरूंगा, यह मरना मेरे बच्चे मुझे जबरदस्ती भी मार डाल सकते हैं कि मैं घर में अतिरिक्त परेशानी का कारण बन जाऊं। मेरे बच्चे मुझे सारी सुविधाएं दें तो भी मैं मरूंगा क्योंकि आखिर हर चीज जो जन्मती है, मरती है। समाज की भी कोई भी व्यवस्था स्थाई नहीं है, अनंत नहीं है, वह जननी है, अपना काम उसका जैसे पूरा होगा, वह पकेगी और मरेगी। कैथेलिज्म की मृत्यु मैं देखता हूं पके हुए आम के गिरने की भांति और यह उसी दिन संभव है, जिस दिन अतिरिक्त संपत्ति कैथेलिज्म पैदा कर जाए, यह अतिरिक्त संपत्ति कितनी होगी इसके आंकड़े कहने मुश्किल हैं, लेकिन इतना मैं जानता हूं कि आदमी की बेसिक जरूरतें बहुत ज्यादा नहीं हैं, बहुत थोड़ी हैं, यह दूसरी बात है कि हम उनको भी पूरा न कर पाए। एक उपाय तो यह, यह जो बेसिक जरूरतें हैं आदमी की यह निश्चित ही पूरी होनी चाहिएं। यह पूरी नहीं हो रहीं यह बड़ा अशुभन और कुरूप है लेकिन इसकी कुरूपता का जिम्मा मैं कैथेलिज्म पर नहीं डालता हूं, इसकी कुरूपता का जिम्मा मैं कैथोलिज्म कहूं, हम गति से विकसित नहीं कर रहे इस पर डालता हूं। यह जो इतनी दरिद्रता, इतनी दीनता, इतना दुख है, इसका जिम्मा मैं कैथेलिज्म पर नहीं डालता हूं। इसका जिम्मा मैं इस बात पर डालता हूं कि कैथेलिज्म जितना वाइडर और जितना एथलाइज्ड होना चाहिए, उतना नहीं है और सोशेलिज्म के बीच में आई हुई बातें उसके वाइडर एप्लीकेशन को रोकने का कारण बनती हैं क्योंकि हम यह मानकर चलने लगते हैं कि इसकी वजह से सारी तकलीफ हैं। जबकि सच्चाई बिल्कुल उल्टी हैं। कैथेलिज्म ने पहली दफे गरीब को यह पता दिया है कि तू गरीब है। लेकिन उसको गरीब होने का ही पता नहीं है। वह अपनी गरीबी को बिल्कुल स्वीकार करके जी रहा है। कैथोलिज्म ने पहली बार यह संभावना पैदा की कि तू गरीब नहीं भी हो सकता है। इस संभावना ने ही उसके मन में यह ख्याल पैदा हुआ है कि मैं गरीब हूं, नहीं तो हमारे मुल्क में अंबेदकर के पहले एक शूद्र पैदा नहीं हो सका।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

नहीं-नहीं जो मरना है, जो व्यवस्था आदमी को मरने नहीं देना, कैथेलिज्म को विकसित करना है। नहीं, नहीं विकसित क्यों न हो, नहीं विकसित होगा अगर सोशियलिज्म की बातें चलीं, नहीं विकसित होगा। एक तो कैपिटलिज्म को विकसित करना है और कैपिटलिज्म को विकसित करना ही होगा। यह जितनी तीव्रता से विकसित हो, उतनी जल्दी पकने के करीब पहुंचे और वह जो लोग कहते हैं कि क्या आदमी को मरने देना है अगर मरने देना है आदमी तो कैपिटलिज्म को विकसित होने से रोको तो वह देर तक मरता रहेगा। कैपिटलिज्म को शीघ्रता से विकसित करो तो उसके मरने को रोका जा सकता है वह जो आदमी मर रहा है। उस तक संपत्ति पहुंचायी जा सकती है, उस तक संपत्ति के लाभ भी पहुंचाये जा सकते हैं और दूसरी बात यह, यह जो आप कहते हैं कि सोशलिज्म ने गरीब को ख्याल दिया तो थोड़ा समझने जैसा। मजा तो यह है कि सोशलिज्म का ख्याल भी कैपिटलिज्म ने दिया। सोशलिज्म का कोई ख्याल था दुनिया में कभी? वह बाइप्रोडक्ट है कैपिटलिज्म के। कैपिटलिज्म ने पहली दफे यह ख्याल दिया कि जब कुछ लोग अमीर हो सकते हैं तो सब क्यों नहीं हो सकते। सोशलिज्म खुद कैपिटलिज्म का ख्याल है। मेरे हिसाब से तो कैपिटलिज्म की संतति है।

प्रश्नः कैपिटलिज्म को देखा नहीं था, गरीब को देखा तो...?

गरीब को देख कर कभी आपको ख्याल नहीं आता, ख़्याल हमेशा कंपरेटिव है। आप थोड़ा ख़्याल कर लें, इस पर थोड़ा ख्याल कर लें, अगर आपको सिर्फ गरीब ही गरीब चारों तरफ दिखाई पड़ें, तो आपको कभी पता नहीं पड़ेगा कि गरीबी है। आपको वह जो एक अमीर दिखाई पड़ता है, उससे पता चला..। मेरी आप बात समझ लें, अगर आप चारों तरफ बीमार लोग देखें तो आपको कभी पता नहीं चलता कि बीमारी है। बीमारी का पता, स्वस्थ आदमी को देख कर पता चलता है। कैपिटलिज्म ने पहली दफा, कैपिटल के अंबार पैदा किये। थोड़ी सी जगह कैपिटल इकट्ठी की। और पहली दफा पता चलना शुरू हुआ कि आदमी गरीब है। आदमी की गरीबी का बोध कंपरेटिव है। वह कैपिटलिस्ट को देख कर पैदा हुआ है। और कैपिटलिज्म को देख कर पैदा हुआ है, गरीबी का बोध और कैपिटलिज्म अगर बढ़ता चला जाए, तो गरीबी का जो बोध है, वह तीव्र होगा, दो प्रकार से वह तीव्र हो सकता है। या तो हम कैपिटलिज्म के खिलाफ उसको तीव्र करें, अर्थात सोशियलिज्म के पक्ष में तीव्र करें। इस हालत में कैपिटलिज्म के विकास में बाधाएं पड़ती हैं, पड़ेंगी हीं। दूसरा रास्ता यह है कि गरीब को भी हम पूंजी पैदा करने के लिए उत्प्रेरित करें और कैपिटलिस्ट होने के लिए उत्प्रेरित करें। उस हालत में पूंजी के पैदा करने की संभावनाएं बढ़ेंगी और गहरी होगी। इस बोध के दो उपयोग हो सकते हैं, माक्र्स ने उसका गलत उपयोग किया, रूग्ण और परवर्टिड उपयोग है वह। गरीब और अमीर को देखके गरीब में अगर यह उत्प्रेरणा पैदा की जाए कि वह भी अमीर हो सकता है, और अमीर के होने के लिए सुविधाएं जुटाने का राज्य इंतजाम करे, गरीब के अमीर होने का, तब तो कैपिटलिज्म विकसित होता है। और अगर गरीब इस आशा से भर जाए कि वह कैपिटलिस्ट को मिटा कर अमीर होने वाले हैं, तो फिर राज्य का उपयोग करे वह अमीर को मिटाने के लिए। मजा यह है कि अमीर मिट जाए, तो गरीब को राहत बहुत मिलेगी, गरीबी नहीं मिटेगी। राहत यह मिलेगी कि अब कोई चुनने का उपाय नहीं रहा कि अब हम गरीब हैं।
मैं आपको कहता हूं कि इसके इतने अजीब आदमी के मन का हिसाब है, जब तक दुनिया सच में गरीब थी, तब तक गरीबी के खिलाफ कोई आवाज नहीं थी दुनिया में, जब से दुनिया में थोड़ी सी सुविधा, संपन्नता आई तबसे गरीबी के खिलाफ बात आई। क्योंकि जब सच में ही गरीब थी, तो गरीबी स्वीकृत थी।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मेरे लिए सोशियलिज्म बाइप्राडक्ट है एफेल्यूएंस के इसलिए मैं उसकी बात नहीं करता। उसमें कोई मतलब ही नहीं है।

प्रश्नः इररेलेवेंट है?

हां, इररेलेवेंट है। एफेन्यूएंस आता है तो, तो सोशियलिज्म इज जस्ट लाइक ए शैडो। क्योंकि इंडिवीजुअल नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मीनिंगलैस ही है, क्योंकि मीनिंग तो सोशियलि.ज्म के खिलाफ है। तौर पर मीनिंग है नहीं, उसमें अपना मीनिंग नहीं है। मीनिंग इज राइड, अगेंस्ट कैपिटलिज्म। अगर कैपिटलिज्म विदर अवे होता तो सोशियलिज्म का कोई मतलब नहीं है, वह तो गया। जो स्थिति बचेगी, वह मैं मानता हूं कि अगरीबी की, नाॅनपावरटी की, जो स्थिति बचेगी, वह स्थिति जिसको सोशियलिस्ट उडुबिया कल्पना में ले रहा है। और मैं मानता हूं सोशियज्मि जिसे नहीं ला सकता, वह स्थिति बची रह सकती है। एफेल्यूएंस की। मेरे मन में समृद्धपूर्ण हो जाए, तो समाजवाद के लिए जिन आकांक्षाओं से हम प्रेरित हैं, वह फलित हो जाएंगी। उनके लिए हमें अलग से कोई श्रम करने की जरूरत नहीं है। श्रम अगर हमें करना है, तो वी हैव टू एक्सेलिरेट दी कैपिटलिस्टिक सिस्टम। उसको कैसे एक्सेलिरेट करें कि वह पूरी गति से, तीव्रता से प्रयोग में आ जाए। और इसमें मैं मानता हूं कि सोशियलिज्म की बातचीत सोसाइडल है। इसमें सोशियलिज्म की बात सोसाइडल है।

प्रश्नः आॅल दिस वेसी माॅडर्न थाॅट, एंड बिहाइंड आॅल दीज वेरी वैस्टर्न, वेली लाॅडेबल सोर्ट आॅफ आइडिया.ज, इट सींस टू मी, एंड आई मे बी रोंग, देट व्हाट यू आर सेइंग, स्मैक लिटिल बिट दी इंडियन माइंड, इन दि वे, यू टाॅक अबाउट दि नेचुरल प्रोसेसे.ज, दे राइट बनिंग आॅफ दि मैंगो, इट आॅल मोस्ट फाइंड लाइक हिन्दू फिलोसफी?

इट साउंड, बट इट इज नाॅट। एंड साउंड कैन बी अपियरिंग एंड इलुजन।

प्रश्नः माइ इम्प्रेश्न?

हां, ऐसा लग सकता है। क्योंकि भाषा हमें बोलनी पड़ती है। इसलिए लगता है, अगर हम चुप रहें तो साउंड बिल्कुल नहीं होगी। ऐसा लग सकता है। और फिर मेरे मन में ऐसा भी नहीं है, ऐसा भी नहीं है कि इंडियन माइंड के पास कुछ भी नहीं है। ऐसा भी नहीं है।

प्रश्नः एलिमेंट आॅफ बीट कंपलीट? दैट इज व्हाट एंड आई टाॅक अबाउट इंडियन माइंड आई हेव वेरी स्पेसिफिक रेफरेंस, दी होल राइपनिंग प्रोसेस इ.ज आॅल मोस्ट पैटर्नस्टिक, व्हाट इ.ज दी ह्यूमन काॅशियसनैस गोइंग टू डू?

इट कैन हैल्प राइपनिंग। राइपनिंग इ.ज दी ट्रांसफोर्मेशन। यह सवाल नहीं है। ह्यूमन माइंड क्या कर सकता है, वह रोक भी सकता है राइपनिंग को, वह कच्चे फल को भी तोड़ सकता है, वह राइपनिंग को सहायता भी पहुंचा सकता है। वह राइप होते फल को सहयोगी भी हो सकता है। सुरक्षा भी दे सकता है। अब सवाल यह है, ये ठीक कहते हैं, इसमें थोड़ी सच्चाई है। असल में, मेरे मन में इंडियन माइंड पूरा का पूरा गलत है ऐसा ख्याल ही नहीं है। असल में जब इंडियन माइंड अपने को पूरा-पूरा सही मानता है तब ही गलत होता है। और कोई माइंड कभी दुनिया में इस तरह गलत नहीं होता। जब कोई भी माइंड अपने को पूरा का पूरा सही मानता है तब गलत हो जाता है। वह चाहे कंयुनिस्ट का माइंड हो, चाहे कैथेलिक का हो, चाहे हिन्दू का हो। मेरी नजर मे कहीं भी अगर कुछ सही है, तो उसकी मेरे मन में स्वीकृति है। और इंडियन माइंड में कहीं भी अगर कुछ सही है तो वह एतत सही है। और वह यह है कि जिंदगी को हमने काॅन्लैक्ट की तरह नहीं, काॅपरेशन की देखा है। और जिंदगी केा हमने डुअलिज्म की तरह नहीं, राइपनिंग सिंथोसिस की तरह देखा है। और मैं मानता हूं इसका मतलब...। वह व्याख्या हो सकती है कि युद्ध हो रहा है। और काॅन्लेक्ट सामने है। और एक व्याख्या हो सकती है क्योंकि युद्ध हो रहा है, इसलिए दोनों युद्ध के दलों को भीतर सहयोग करना पड़ रहा है, और काॅपरेशन के बिना युद्ध नहीं हो सकता। और मजे की बात यह है, इविन लीक्ट इज इंपोसिबल विदाउट काॅपरेशन। काॅपरेशन बेसिस में है, काॅन्लेक्ट से ज्यादा गहरा है। क्योंकि अगर मुझे आपसे लड़ना भी है तो किसी से काॅपरेट करना पड़ता है। लड़ने के लिए भी। लेकिन काॅपरेशन करने के लिए लड़ना पड़ता।

प्रश्नः व्हाट आई वाज रिपीट, आइडिया फाॅर एक्जांपल दादा धर्माधिकारी के, हमें उत्क्रांति चाहिए, क्रांति नहीं।

मुझे दादा धर्माधिकारी से कोई लेना-देना नहीं। यह करीब-करीब शब्दों के खेल हैं। उसको आप उत्क्रांति कहें या क्रांति कहें यह बड़ा सवाल नहीं है। मैं जो कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि क्रांति वस्तुतः एक राइपनिंग की ही प्रक्रिया है। और जिन्हें क्रांति चाहिए उन्हें राइपनिंग में सहयोगी होना चाहिए। वृक्ष से फल गिरेगा ये बड़ी क्रांति है। और यह फल तोड़ा न जाए, पकाया जाए, और गिरे, यह बड़ी स्वाभाविक क्रांति है। इसे तोड़ा जाए जबरजस्ती, वायलेंस से, कोयर्सन से यह भी क्रंाति है। लेकिन ये क्रांति कम क्योंकि कच्चा ही फल हाथ में पड़ता है, वृक्ष पे भी घाव रह जाता है, फल पर भी घाव रह जाता है। और फिर पकाना ही पड़ता है। मजा यह है कि फिर पकाना पड़ता है। जो काम वृक्ष पर बड़ी सफलता से होता था और जिस काम में वृक्ष सहभागी होता है, उसको फिर घर में, गेहूं में छिपाना पड़ता है। गेहूं की सहायता लेनी पड़ती है। जो कैपिटलिज्म कर सकता है, वह हमें जबरजस्ती लाए हुए सोशियलिज्म में करना पड़ेगा, और उसके लिए आर्टीफीशियल मेथड खोजने पड़ेंगे।
अब पूरे पचास साल रूस में हमको जबरजस्ती कोयर्सन करना पड़ा, जो काम कैपिटलिज्म कर सकता था, बिना दिक्कत के यह हमें बहुत दिक्कत उठा के करना पड़ा। और एक करोड़ आदमी के करीब हत्या करनी पड़ी, वह बेचारे इस्थेलिन को नाहक हत्यारा होना पड़ा। और हत्यारा होकर जिनके लिए उसने किया, उन्होंने उसकी कब्र खोद दी पीछे, खोदने ही वाले थे, वो क्योंकि उस आदमी ने बहुत परेशान किया पीछे। किया उनके ही हित में, लेकिन परेशान बहुत बुरी तरह किया। मेरा कहना यह है कि जब आम पक ही सकता है वृक्ष पर, तो बजाए यह कि आम को तोड़ने में ताकत लगाओ वृक्ष को पानी क्यों न दो। और वृक्ष को धूप क्यों न पहुंचाओ, वृक्ष की आड़ को अलग क्यों न करो, जिससे उसको धूप न मिल रही हो उसकी रूकावट को क्यों न हटाओ। जो काम हम वृक्ष से ही ले सकते हैं, इसमें इंडियन माइंड है। असल में इस मुल्क ने, इस मुल्क के आप ठीक ही कहते हैं कि वह इंडियन माइंड का बुनियादी सूत्र है कि जहां तक स्वाभाव से कुछ हो सके, वह शुभ है। और मैं भी मानता हूं कि स्वाभाव से कुछ होने...।
प्रश्नः एलिमेंट आॅफ फेथ?
नो, नो, देयर इ.ज ए नो एलिमेंट आॅफ फेथ। स्वाभाव का मतलब, नेचर का मतलब फेथ नहीं है। नेचर का मतलब ही यह है, अगर हम ठीक से समझें तो नेचर के साथ जो हम कर रहे हैं, वही साइंटिफिक भी है। फेथ का सवाल नहीं है। आखिर साइंस क्या करती है? अगर इस कमरे को उसने एयरकंडिशनर लगा के ठंडा कर दिया है, तो इसमें कुछ नेचर के खिलाफ नहीं हुआ है। असल में नेचर का नियम समझ लिया गया। और हवा कितने तापमान पर और कितने प्रेशर पर ठंडी हो सकती है, वह इस कमरे में व्यवस्था कर दी गई। यह नेचर के अनुकूल हो रहा है। लेकिन पश्चिम, वी विल टेक इट, एज काॅन्करिंग नेचर। इंडियन माइण्ड विल से दिस इज कंडिशनिंग अकोर्डिंग टू नेचर, और मैं मानता हूं दूसरी व्याख्या .ज्यादा शुभ है। हम कहेंगे कि हमने नेचर के साथ ज्यादा अनुकूल होने की व्यवस्था खोल ली इस कमरे में। तो हिमालय पर जो नेचर कर रहा है, वह हम इस कमरे में कर रहे हैं। लेकिन है वह नेचरल नियम। और उस नियम को हम पहचान गए हैं। सो वी हेव कम टू नो द मिस्ट्री आॅफ द नेचर, नाॅट दैट वी हैव काॅनकाॅर्डेट। वैस्टर्न माइंड है.ज बीन थिंगकिंग टम्र्स आॅफ कांकरिंग। और इंडियन माइंड हैज बीन थिंगकिंग इन टम्र्स।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

बहुत डिफरेंस है, बहुत डिफरेंस है, क्योंकि जैसे ही, जैसे ही हम जीतने की भाषा में सोचते हैं, वैसे ही हम मनुष्य को जीवन से अलग तोड़ लेते हैं। पहली बात। जीवन का जो विराट है, उसे हम अलग खड़ा कर लेते हैं। मनुष्य कुछ अलग हो जाता है। और जैसे ही जीतने की भाषा में सोचते हैं, वी क्रीएट ए सिचुएशन फाॅर इनर टेंशंस एंड इंजाएटी। क्योंकि जैसे ही हम आदमी को लड़ने की भाषा में सोचते हैं, सबसे लड़ना है, प्रकृति से लड़ना है, समाज से लड़ना है, राज्य से लड़ना है, सब तरफ लड़ना है, तो हम आदमी को टेंशन में डालते हैं। जिसको मैं भारतीय विचार कहूं, वह करेगा तो यही, लेकिन लड़ने की भाषा नहीं है।

प्रश्नः करेगा ही सही, वह मैं नहीं मानता हूं।

मैं जो उनसे कह रहा हूं, दोनों की बात की जो बात कर रहे हैं, दोनों में क्या फर्क है? दोनों में क्या फर्क है? वह सिर्फ उतने कह देने से बात तो एक ही है, लेकिन फर्क जो पड़ने वाला है, वह बेसिकली ह्यूमन माइंड की टेंशंस पर पड़ने वाला है। अगर इस विचार को स्वीकार किया जा सके, जिसको भारतीय मैं कहूं, तो हम मनुष्य के भीतर और प्रकृति के बीच एक इनर हार्मनी पैदा करते हैं। और यह इनर हार्मनी हम मनुष्य और प्रकृति के बीच ही पैदा नहीं करते, मनुष्य के माइंड को हम हार्मोनियस करते हैं, हम काॅन्लेक्ट की भाषा में सोचते नहीं। आज जरूर ये कह रहे हैं, करेगा जरूर ये पक्का नहीं है। इसमें थोड़े सच्चाइयां हैं, इसमें थोड़े सच्चाइयां हैं, क्योंकि यह कंडिशनर जो है, इंडियन माइंड ने बनाया नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

रमन को मिला होे, या जगदीश चन्द को मिला हो, या किसी को भी मिला हो ...।

प्रश्न: मैं क्या बात करता हूं यह काॅन्करिंग...?

इसको थोड़ा समझ लें, इसको थोड़ा समझ लें। यह मैं मानता हूं वह एक जो मिला वह भी नहीं मिलना चाहिए, और अगर किसी इंडियन को मिला, तो वह इंडियन नहीं रहा होगा, उसके पास वैस्टर्न माइंड होगा, तो मिलेगा। इंडियन घर इधर पैदा हो जाने से इंडियन नहीं हो जाता। असल में नाबल प्राइज वैस्टर्न माइंड की इजाद है। और वैस्टर्न काइंड का जो काॅन्लेक्ट का कंसेप्ट है, उसके अनुसार मिल रहे हैं। कितनी दूर तक प्रकृति जीती जा रही है। अगर इंडियन कभी नोबल प्रइज विकसित करे तो पश्चिम के एक आदमी को मिलना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि हम दूसरे डायमेंशन में उसको देंगे। एक।

प्रश्नः डोंगरे महाराज को...।

मेरी बात...। डोंगरे महाराज को देंगे या नहीं, यह पक्का नहीं है, नहीं ये जरूरी नहीं है। यह जरूरी नहीं है। लेकिन डोंगरे महाराज ही हिन्दुस्तान पैदा नहीं करता, बुद्ध भी हिन्दुस्तान पैदा करता है। और मैं नहीं मानता कि बुद्ध को नोबल प्राइ.ज मिलेगी, तो बेहतर होगा कि आइंस्टीन को मिलती, तो बेहतर होता। इतना आसानी से तय करना नहीं है आसान कि किसको मिलना चाहिए? मैं जो कह रहा हूं, नहीं वो डोंगरे महाराज की वजह से मैं कह रहा हूं। मैं डोंगरे महाराज की वजह से कह रहा हूं।
मैं जो आपके लिए बात कह रहा हूं उसके लिए थोड़ी बात करें। उसकी भी हम बात करें। असल में इंडियन माइंड ने एयर कंडिशनर तो पैदा नहीं किया, लेकिन इंडियन माइंड ने एयर कंडिशनिंग की धारणा बहुत दूसरी तरफ से पैदा की है। और निश्चित ही वह दूसरी तरफ से ही कर सकता था। क्योंकि उसमें प्रकृति को स्वीकार करने का भाव है। अगर आपको तिब्बतन हीट योग का थोड़ा ख्याल है, आप कर क्या रहे हैं, इस एयर कंडिशनिंग के साथ, एक यंत्र आपने इंतजाम किया हुआ है, उसे लगा दिया गया है, वह यहां कुछ हवा के साथ कर रहा है। इंडियन माइंड बेसिकली ह्यूमन बीइंग के साथ कुछ करता रहा है। और हमने ऐसे शरीर पैदा किये और ऐसे शरीर की योगिक प्रकिृयाएं भी पैदा की कि इस कमरे में गर्मी मालूम न पड़े। दूसरी तरफ से हमारी खोज है। और वह इनकी खोज से कम नहीं है, बल्कि हो सकता है, आने वाले सौ वर्षों में इनसे महत्वपूर्ण सद्धि हो। क्योंकि यह मशीन बंद हो सकती है, यह मशीन कल धोका दे सकती है।
हमने भी कुछ प्रकिृयाएं विकसित की हैं, जो प्रकिृयाएं इस कमरे में गर्मी न मालूम पड़ें उसमें सहयोगी है। अगर पश्चिम ने लिट विकसित की, अभी मैं हठ योग की प्रकिृया के बाबत आपसे कहूंगा। हठ योग की एक छोटी सी प्रकिृया है, जो कोई भी उपयोग कर सकता है। उसमें कुछ विशेष जानकारी की जरूरत नहीं है। आप हजार सीढ़ियां चढ़े, हठ योग का कहना है, चढ़ते वक्त आप श्वांस को भीतर की तरफ न लें, बाहर की तरफ फेंके। बस जस्ट डू दैट। एंथेसिस इज शुड बी आॅन द आउट गोइंग। आप भीतर न लें, बाहर फेंक दें। और भीतर ले जाने को अपने आप होने दें। और आप लाख सीढ़ियां चढ़ जाएं आपको तकलीफ नहीं होगी। मैं जो कह रहा हूं, वह यह कह रहा हंूं...। मैं सिर्फ एक उदाहरण दे रहा हूं। इस पर हजार बात हो सकती हैं। आज तिब्बत में हीट योग है, वह भारतीय प्रकिृया है। एक आदमी बर्फ में बैठा हुआ है, और उसका पसीना चू रहा है। नंगा बैठा हुआ है। इसने भी एक तरह की व्यवस्था की है, जो यंत्र निर्भर नहीं है। ये सिर्फ संकल्प है उसका। और यह सिर्फ विल फोर्स है कि वह सर्दी को मानने से इंकार कर रहा है। और मजा यह है, यह अगर पांच हजार का एयरकंडिशनर इस कमरे में लगाना पड़ता है तो पांच हजार का एयर कंडिशनर लगाना, और इस प्रकिृया को सीखना इतना महंगा नहीं है, जितना यह महंगा है। और अगर कोई सोचता हो कि वह बहुत व्यापक नहीं हो सकता तो गलती में है। वह व्यापक नहीं हुआ क्योंकि प्रचारित नहीं है। और इधर तीन सौ-चार सौ वर्षों में हिन्दुस्तान को कभी एयर कंडिशनर का ख्याल न आने का कारण था, हम लोग कुछ और तरह की कंडिशनिंग खोजें। उनमें हम जी रहे थे। उनमें हम सुख से थे। उसमें हम परेशान नहीं थे। हमारी तकलीफ क्या हो गई, वह कंडिशनिंग की व्यवस्था टूट गई, और एयरकंडिशनर हम सबको उपलब्ध नहीं करा पा रहे। यह कठिनाई है। और दूसरा, जिसे आप कहते हैं कि नोबल प्राइज लिटरेचर में, असल कठिनाई क्या है, कठिनाई यह है सदा ही कि जो भी कुछ प्राइजेज तय होती हैं, वह सारी की सारी प्राइजेज, एक विशेष ढांचे में और एक विशेष माइंड से तय की जा रही हैं। अगर आज शास्त्र को नोबल प्राइज मिल सकती है, तो इसका यह कारण नहीं है कि शास्त्र नोबल प्राइज के योग्य हैं, इसका कारण कुल इतना है कि जो पावर इस्फीयर है शास्त्र का और जो नोबल प्राइज का पावर इस्फीयर है, वह एक है। आज कत्थक करने वाले को नोबल प्राइज नहीं मिल सकता। वह भी एक आर्ट फार्म पैदा कर रहा है। हो सकता है रविशंकर को नोबल प्राइज नहीं मिल सकती, वह भी एक आर्ट फार्म पर मेहनत कर रहा है। लेकिन एक, पश्चिम के एक लेखक को, अब जैसे कि समझेंगे कि जिवागो को मिल सकती है।

प्रश्नः टागोर को मिला?

टागोर को मिला, और टागोर को मिलने का कारण अगर बहुत गौर से देखें, तो हम बहुत हैरान होंगे कि फिर भी वो इंडियन माइंड को नहीं मिलती। टागोर को जिस वजह से मिला है, और जो उसे मिला है, वह वैस्टर्न माइंड के अनुकूल पड़ सकती हैं। इसलिए टागोर को मिल सकता है। असल कठिनाई क्या है, अगर.., हो क्या रहा है, इस दुनिया में अगर आज कोई पांच-सात प्रकार के बड़े गहरे कल्चर एक साथ खड़े हो गए हैं। पावर इस्फीयर जिस कल्चर का है, उस कल्चर के सारे फांर्स को नोबल प्राइ.ज मिल सकती है। स्वाभावतः नोबल प्राइ.ज का बड़ा हिस्सा अमेरिका गया है। जाएगा। क्योंकि पावर इस्फीयर वह है। और सोचना और जजमेंट करने वाला, और नोबल प्राइज देने वाला भी वही है, उसी कंडिशनिंग में है। यह सारी कठिनाई...।

प्रश्नः रशिया को भी मिला है...?

हां-हां, मिले हैं बिल्कुल।

प्रश्नः पर आपकी पहले वाली बात, गर्मी की बात। अगर मैं ये मान लूं कि मुझे गर्मी नहीं लगती है, तो मुझे गर्मी नहीं लगेगी। आपने जो प्रकिृया की बात की, जो योग की बात की। जैसे मैं ये मान लूं कि गरीबी नहीं है, और गरीबी मुझे नहीं लगेगी?

नहीं, मान लेने से नहीं लगेगी ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं। आप मान लें और लगेगी। अगर मैं यह कहूं..।

प्रश्नः वो प्रोसेस में चलेगी?

न-न, आप मान लें तो नहीं लगेगी, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं।

प्रश्नः गर्मी की जो उपमा दी?

हां-हां, गर्मी भी आप मान लें, नहीं लग रही तो भी लगेगी। आपका मानना भर काफी नहीं है। उस प्रोसेस से गुजरेंगे तब तो नहीं लगेगी।

प्रश्न: गरीबी नहीं लगेगी?

उस प्रोसेस से गुजर कर गरीबी भी नहीं लगेगी।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

उस संबंध में भी योग ने बहुत सा काम किया। और योग ने खाने को बहुत ही सूक्ष्मतम कर दिया। और मैं मानता हूं कि उसका उपयोग किया जा सकता है। भविष्य में शायद उपयोग करना भी पड़े। जैसे की महावीर के बाबत उल्लेख हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

न, न, न। मेरी अपनी समझ यह है कि जिस दिन सोसाइटी एफेल्यूएंट होगी, जैसा मैंने सोशियलिज्म के लिए कहा कि वह बाइप्रोडक्ट बनेगी। जिस दिन सोसाइटी एफेल्यूएंट होगी, आप हैरान होंगे कि अचानक आपके माइंड योग की तरफ डायवर्ट होने शुरू हुए। कोई भी एफेल्यूएंस सोसाइटी, साधारण चीजों से क्योंकि तृप्त हो जाती है, इसलिए असाधारण की खोज पर निकल जाती है। और योग है, और मैडिटेशन है, और तंत्र है, और संगीत है, और सितार है, और इन सब पर निकलती है। सारा कल्चर जो है, वो आउट आॅफ एफेल्यूएंस पैदा होता है। कल्चर का मतलब ही यह है कि अब आपने फिजूल काम करने शुरू कर दिये। अब जरूरी काम करने जरूरी नहीं रह गए। तो मैं ये मानता हूं, मैं ये मानता हूं कि योग की बड़ी संभावनाएं हैं। ये सोशियलिज्म से कम नहीं, ज्यादा ही हैं। और सोशियलिज्म तो एक सौ वर्ष में चर्चा के बाहर हो जाएगा, कैपिटलिज्म के विदा होते ही, सोशियलिज्म चर्चा के बाहर हो जाएगा। लेकिन योग कभी बाहर नहीं होने वाला है। जब तक आदमी है, तब तक योग चर्चा के भीतर रहेगा। सोशियलिज्म तो सिर्फ एक फेज है और फैशन है। और एक वक्त की बात है, एक कंटेंप्रेरी प्राॅब्लम है। योग कंटेंप्रेरी प्राॅब्लम नहीं है। योग बेसिकली ह्यूमन प्राॅब्लम है, क्योंकि जब ह्यूमन माइंड है तब तक रहेगा। और मजा यह है कि जब तक हम छोटी चीजों से उल्झे हैं, खाना नहीं है, कपड़ा नहीं है, तब तक योग-वोग की बात करनी फिजूल मालूम होती है। जैसे ही खाना, कपड़े से हम मुक्त हुए कि योग के अतिरिक्त आपको उल्झाव का उपाय भी नहीं रह जाएगा। और उचित उस दिन आप एक्सपेरिमेंट कर सकेंगे बहुत से कि एयरकंडिशनिंग के बिना ये कमरा ठंडा कैसे हो सकेगा?

प्रश्नः दैट इ.ज दि प्वाइंट। व्हाट यू आर एडवोकेटिंग इ.ज क्रीयेटिंग इंटरनल कंडिशंस आॅफ होपिंग। वाय दैन क्रीयेट आॅल दिस टैैक्नोलाॅजिकल एड्वांटेज इन आॅल दैट?

इसके कारण हैं, इसके कारण हैं, क्योंकि बाहर की सुविधाएं अगर उपलब्ध न हों, तो भीतर का स्मरण भी नहीं आता। भीतर का स्मरण जो है, वो बाहर की सुविधाओें के बाद ही आता है। असल में में जो इनर डायमेंशन है, दैट इ.ज दि मोस्ट लग्जूरियस डायमेंशन। गरीब आदमी उसपे जा नहीं सकता। उसके कारण हैं, उसको स्मरण भी नहीं आता। असल में हमारे जीन के तल हैं। अगर मैं भूखा हूं तो बहुत मुश्किल है कविता की याद आए। और अगर आए भी तो भूख की ही कविता हो सकती है, ज्यादा से ज्यादा। और अगर मैं भूखा हूं, और आकाश में देखूं तो चांद में मुझे प्रेयसी की तस्वीर शायद ही दिखाई पड़े, रोटी दिखाई पड़ सकती है, तैरती हुई। जो स्वाभाविक है। जितनी जीवन की नीचे की जरूरतें हैं, जब तक वह हमें घेरे हुए हैं, तब तक जीवन के जो इनर डायमेंशंस हो सकते हैं, उनका हमारे पास कोई उपाय नहीं है। तो मैं इसलिए भी टैक्नोलाॅजी के पक्ष में हूं। मैं इसलिए भी पक्ष में हूं कि सारी दुनिया टैक्नोलाॅजिकल रेवल्यूशन से गुजर जाए, ताकि सारी दुनिया इनर डायमेंशन में गति कर सके। इधर मैं निरंतर कहता हूं कि हिन्दुस्तान में जैनियों के चैबीस तीर्थंकर, राजाओं के बेटे हैं। बुद्ध राजाओं के बेटे हैं, राम और कृष्ण हिन्दुओं के सब अवतार राजाओं के बेटे हैं। यह अकारण नहीं है। मैं मानता हूं इनकी सब नीचे की जरूरतें पूरी होंगी, अब और कोई उपाय नहीं रहा जिंदगी में। और पहली दफा जिंदगी दूसरी दिशाओं में यात्रा शुरू की। अभी तक हम पूरे समाज के लिए ऐसा इंतजाम नहीं कर पाए, यह दुखद है।

प्रश्नः कम बैक व्हाट इ.ज टाॅकिंग दिस। दी ह्यूमन काॅन्शियसनैस इ.ज इण्डिवीजुअल काॅन्शेसनैस, दैन इ.ज रिटर्निंग बाई माइ एक्सटर्नल कण्डिशन्स।

नो, इसको जब हम इदर-आर में तोड़ते हैं तो हम कठिनाई में पड़ते हैं। और इदर-आर में जिंदगी कहीं भी तोड़ी जाएगी, तो वह लाॅजिकल तो मालूम होती है, लेकिन वह जिसको कहना चाहिए कि वास्तविक एग्जेसटेंशीयल नहीं रह जाती। ऐसा सवाल नहीं है कि आदमी की चेतना को परिस्थितियां तय करेंगी, या परिस्थितियां आदमी की चेतना को तय करेंगी, या चेतना परिस्थितियों को तय करेगी। परिस्थितियां और चेतना, सर्कमस्टांसिस और काॅन्शेसनैस आर टू एक्स्टीम पोल्स आॅफ वन मूवमेंट। यह कोई दो चीजें नहीं हैं, मेरे हिसाब में। आप जिसको काॅन्शेसनैस कहते हैं, वह और आप जिसको सर्कमस्टांसेस कहते हैं वह, यह एक ही चीज के दो छोर हैं। और इसलिए मैं इसको काॅन्लैक्ट में नहीं ले पाता हूं। इसको भी नहीं ले पाता कि कौन किसको डिटर्मिन करेगा? यह सवाल तब उठता है, जब यह दो चीजें हों। जिसको हम आउट वल्र्ड कह रहे हैं, और जिसको इनर वल्र्ड कह रहे हैं, दो वल्र्ड नहीं हैं। यह एक ही वल्र्ड को दिमाग से दो हिस्सों में तोड़ कर कही गई बात है। ऐसा कोई आउट वल्र्ड और ऐसा कोई इन वल्र्ड जैसी बात नहीं है। यह दोनों एक ही ची.ज के मूवमेंट हैं।

प्रश्नः आइडिया कैन आॅल्सो बी ए मैटेरियल फोर्स?

बिलकुल हो सकता है। होता है।

प्रश्नः मैटेरियल फोर्स आॅल सो कैन क्रीयेट आइडिया?
प्रश्नः और एक और बात, यह हमारे मित्र ने जो कहा, हिन्दू माइंड की बात कही, और काॅपरेशन, कांकरिंग नहीं कही, काॅपरेशन, इसका नेट रिजल्ट आज की परिस्थिति में क्या होता है? यह आप यहाँ बहुत अर्से से आते हैं, और लोगों से ऐसा कहते थे कि असंतोष, असंतोष नहीं होना चाहिए। तभी प्रगति होगी, वगैरह। अब ये जो हिन्दू माइंड है, जिसकी यह करेक्टरस्टिक है कि कंसंटे्रशन अवोयड करना, जहां भी कंसंटे्रशन देखा, वह अवोयड करना। तो आप जानते होंगे कि कैपिटलिज्म को जितना भी हमारे देश में आज तक कुछ फ्रीडम मिला आॅपरेट करने का, तो उसने क्या किया है? विचार के स्तर पर भी, शिवसेना को पैसा कौन देता है? इतने डिवाइडिंग फोर्से.ज हैं, जितने एंटी माॅडर्न फोर्से.ज हैं, बिरला के पास पैसा हो तो वह काॅलेज बना दे, या कुछ ऐसा साइंटिफिक प्रोग्रेस के लिए पैसा देने के बजाए, वह मंदिर बनवाता है। क्योंकि वह जानता है, शायद जानता हो या ना भी जानता हो, लेकिन उसकी प्रवृत्ति इसी तरह की रहती है कि माॅडर्न जो आइडिया हैं, साइंस जो है, साइंटिफिक आइडिया, उसके प्रसार के लिए कैपिटलिस्ट बहुत उत्सुक होएं ऐसा मालूम नहीं पड़ता। बल्कि जो कुछ ट्रेडिशनल है, उसको सहाय देने की उसका उत्क्रष करने की डिवाइडिंग फोर्सेज हों, जर्निलिज्म हो, कास्ट हो और यह सब हो, अब उसके साथ एक दूसरी भी हमें, एक स्थिति ऐसी प्राप्त हुई है, इस देश में कि हम सब देखते हैं कि हम बहुत बैकवर्ड हैं। और पश्चिम के देश जो हैं, यह बहुत ही आगे निकल गए हैं। हमारी धीरज खत्म हो रही है। आइडेंटी का भी एक फैक्टर इसमें आ गया है कि हम सब भी माॅडर्न ऐज में प्रवेश करना चाहते हैं। आपने चाइना और रशिया का उदाहरण दिया कि वहां बल से लाया गया। वहां तो च्वाइस का सवाल ही नहीं पैदा होता। लेकिन हमारे देश में एक ऐसी स्थिति पैदा हुई है कि जहां च्वाइस है, आज हम विभेद कर सकते हैं कि क्या रखेंगे हमारे देश में कैपिटलिज्म या सोशियलिज्म? और कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि ये जो माॅडर्नाइजेशन का प्रोसेस है, अल्टीमेटली मेरा ख़्याल ऐसा है कि कंयूनि.ज्म हो या कैपिटलिज्म हो ऊंचे प्रकार का, दोनों में माॅडर्नाइजेशन होना चाहते हैं। ट्रेडिशनल सोसाइटी से टूटना चाहते हैं। और ऐसा लगता है कि कैपिटलिज्म जिस तरह से बिहेव करता है हमारे देश में, क्योंकि कैपिटलिस्ट जो हैं, वो भी बैकवर्ड सोसाइटी के निकट हैं, तो यह माॅडर्नाइजेशन के प्रोसेस को एक्सीलरेट करने के लिए सोशियलिज्म शायद ज्यादा कामयाब हो सके ऐसा लगता है।
अब आप भी ऐसा कहते थे लोगों को जो पुराने ख्यालात हैं, वो छोड़ने चाहिएं, जब आपने देखा कि कुछ पाॅलिटीशियन की कुछ पार्टियों के कुछ एक्शन से, कुछ कार्यों से यह जो असंतोष कंसंट्रेशन, पोलराइजेशन वैगरह चालू हो गए हैं, तो ऐसा मालूम पड़ता है कि आपका हिन्दू माइंड फिर एफर्ट कर रहा है। लोगों को फिर आप कह रहे हैं कि अब तो मैंने बहुत अभी तक कहा कि दौड़ो-दौड़ो, लेकिन जब सचमुच दौड़ने लगे तो आपने कहा, रूक जाओ। अब मत दौड़ो, अब काॅपरेशन की बात करो। कन्सन्टेशन अवोएड करो?

नहीं, मैं बिलकुल नहीं अवोएड कर रहा। इसको थोड़ा समझें, इस पर दो-तीन बातें ध्यान में ले लेनी चाहिएं। एक तो हिन्दू माइंड निश्चित ही एस्केपिस्ट है। मैं एस्केपिस्ट नहीं हूं। और वह जो सोशियलिज्म की बात करने वाले हैं, जो सोशियलिज्म की आज बात कर रहे हैं, उनमें हिन्दू माइंड ज्यादा है। सोशियलिज्म आज कैपिटलिज्म से एस्केप है। मैं कंसंट्रेशन की बात आज भी कर रहा हूं। लेकिन अगर मैं कैपिटलिज्म से कंसंट्रेशन की बात करूं, तो आपको समझ में आता है ये कंसंट्रेशन है। और अगर सोशियलिज्म से कंसंट्रेशन की बात करूं, तो आप समझते हैं हिन्दू माइंड लौट आया। मेरी बात अब भी कंसंट्रेशन की है। लेकिन मैं किससे कंसंट्रेशन करूं, यह सवाल है। आज मुझे लगता है कि सोशियलिस्ट ख्याल ही इस मुल्क के लिए आत्मघातक है। मैं उनको कंसंर्ट करूंगा। और डिसकंटेंट की बात मैं आज भी जारी रखे हुए हूं। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन डिसकंटेंट का मतलब यह नहीं है कि कोई भी नासमझी की बात को स्वीकार कर लूं। डिसकंटेंट का मतलब यह है कि अतीत की नासमझियां थी, उनके खिलाफ मैं लोगों से कह रहा हूं उनको छोड़ो, लेकिन भविष्य की नासमझियां भी हैं। इस मुल्क की पास्ट ट्रेडिशन में बहुत सी बेवकूफियां हैं, उनको मैं कहता हूं छोड़ें। लेकिन भविष्य मे भी बेवकूफियां दरवाजे पे खड़ी हैं उनको पकड़ मत लेना। तो जब मैं अतीत की बेवकूफियां छोड़ने को कहता हूं, तब आप समझते हैं, मैं क्रांति की बता कर रहा हूं और जब मैं भविष्य की बेवकूफियां न पकड़ें इसके लिए कहता हूं, तब आप कहते हैं, यह तो आदमी प्रतिक्रांतिवादी है। मेरी बात समझ लें पूरा।
मैं तो लड़ाई ही जारी रखे हुए हूं। लेकिन मेरे सामने दो सवाल हो गए हैं, अतीत में इस मुल्क ने बहुत दुःख उठाया और ये भविष्य में फिर दुःख उठा सकता है। और अतीत में यह मुल्क जिस तरह की गुलामी में और दीनता में जिया, ये भविष्य में फिर सोशियलिज्म के साथ उस तरह की दीनता और गुलामी में जी सकता है। जैसा आपने कहा कि अभी हम बैठ कर बात कर रहे हैं और हमारे सामने च्वाइस है कि हम कैपिटलिज्म को चुने कि सोशियलिज्म को चुनें। ध्यान रहे जब तक कैपिटलिज्म है, तभी तक ये च्वाइस है। जिस दिन सोशियलिज्म है, फिर यह च्वाइस नहीं है। अब आप क्या चुनें? इस च्वाइस को बनाए रखना हो, तो कैपिटलिज्म को बनाए रखना कि हम डिस्कस कर सकें यह यहां बैठ कर। नहीं तो एक दफा चुनाव कर लिया सोशियलिज्म का तो फिर हम डिस्कस न कर सकेंगे यहां बैठ कर कि अब क्या इरादा है? सोशियलिज्म को बदलना है, फिर यह बात नहीं चल सकेगी। यह डायलाॅग कैपिटलिज्म के भीतर चल सकता है। यह साशियलिज्म के भीतर नहीं चल सकता। तो अगर यह फ्रीडम बचाए रखनी हो, वही मैं कह रहा हूं क्योंकि आज हम यह बात कर पा रहे हैं, यह कैपिटलिस्ट सिस्टम के भीतर संभव है। यह सोशियलिस्ट सिस्टम के भीतर संभव नहीं है। सोशियलिस्ट सिस्टम एक बार तय कर लेगी आप से, और मजा यह है कि सोशियलिस्ट सिस्टम कैपिटलिस्ट फ्रीडम का फायदा उठा लेगी। और इसके बाद फिर मौका नहीं देगी कि आप फिर तय कर सकें या विचार कर सकें।

प्रश्नः व्हाट अबाउट युगोस्लाविया?

मैं बात करता हूं, मैं बात करता हूं। यह जो, जहां-जहां जैसे कि चिकोस्लाविया, युगोस्लाविया यह जो मुल्क हैं, अगर हम बहुत गौर से देखें, बहुत गौर से देखें, तो इनको कंयुनिस्ट या सोशियलिस्ट मैं न कहना पसंद करूंगा, और स्टेलिन भी पसंद न करता। हालांकि स्टेलिन से मेरा कोई भी कहीं भी तालमेल नहीं होता। लेकिन इस मामले में तालमेल है। इस मामले में तालमेल है। यह इनको सोशियलिस्ट और कंयूनिस्ट कहना पसंद न करता, मैं मानता हूं कि यह एक्सेलरेटिड कैपिटलिज्म ही है। और इसके लिए जो भी प्रयोग किये जा सकते हैं, वह किये जाने चाहिएं। दूसरी बात जो आपने उठाई कि हिन्दू माइंड जो है, वह सदा से भागता रहा है चीजों से निश्चित ही भागता रहा है। और डर मुझे यह है कि कहीं वह आज भी तो नहीं भाग रहा। जिसको आप नक्सलाइज्ड कहते है, मेरे लिए हिन्दू माइंड है। और जिसको आप पूंजीपति कहते हैं, आप कहते हैं पूंजीपति तो वही बैकवर्ड हिन्दूमाइंड से पैदा हुआ है। आप समझते हैं आपका कंयूनिस्ट उसी बैकवर्ड हिन्दू माइंड से पैदा नहीं हुआ है? वह दोनों उसी बैकवर्ड हिन्दू माइंड से पैदा हुए हैं। और लड़ाई दोनों से लड़नी पड़ेगी। इस भ्रांति में आप मत पड़ जाना कि कैपिटलिस्ट तो बैकवर्ड हिन्दू माइंड से पैदा हुआ है और कम्यूनिस्ट जो है वो मास्को से पैदा हुआ है। वो कहीं से पैदा नहीं हुआ, वह भी इसी बैकवर्ड हिन्दू माइंड का हिस्सा है। और जिसको आप कैपिटलिस्ट कह रहे हैं, वह तो बैकवर्ड माइंड से पैदा हुआ है, जिसको आप मजदूर कह रहे हैं, कह रहे हैं कि जो कि भविष्य की अब एतिहासिक शक्ति है, वह किससे पैदा हुआ है, वह और भी बैकवर्ड है। वह और भी बैकवर्ड हिन्दू माइंड है।
इधर तो हमें जो चुनाव करना है, इस मुल्क में हिन्दू माइंड के भीतर ही है। अब सवाल यह है कि उसमें करना क्या है? और जो यह माॅडर्नाइजेशन की बात है, यह मेरी समझ में पड़ती है। और मैं चाहता हूं कि कितनी जल्दी माॅडर्नाइजेशन हो, लेकिन हम चीजों से बच रहे हैं। अब यह सोशियलिज्म की बात हो, या कोई और बात हो, यह माॅडर्नाइजेशन से बचने की तरकीब है। आज माॅडर्नाइजेशन का मतलब एक ही है। और वह यह है कि जो व्यवस्था हमारे पास है उसको हम पूरी तरह एक्सेलिरेट करें। अगर हम उसको एक्सेलिरेट करते हैं, तो माॅडर्नाइजेशन संभव हो जाएगा। अगर हम उसको एक्सेलिरेट नहीं करते और डायवर्ट करते हैं मुल्क के माइंड को जो हमारी पुरानी हिन्दू आदतें हैं, तो हम उसको डायवर्ट कर सकते हैं। हम सोशियलिज्म की बात डायवर्ट कर सकते हैं।
दूसरी बात माॅडर्नाइजेशन इस मुल्क के लिए बड़ा भारी प्राॅब्लम है, और वो प्राॅब्लम बहुत सोचने जैसा है, उस माॅडर्नाइजेशन को कौन लाएगा? और वह कैसेे आए? और क्या है जो माॅडर्न है? और क्या है जो ओल्ड है? एक तो हमारी सारी जीवन व्यवस्था का जो ढांचा है, उस ढांचे में कुछ चीजें हैं जो माॅडर्नाइजेशन को नहीं आने देंगी। अब आज एक कंयूनिस्ट भी विवाह करता है, तो विवाह करने में उसका जो ढंग-ढौल में देखता हूँ सब वो वही का वहीं हिन्दू माइंड का है। और कंयूनिस्ट भी विवाह करता है, और उसकी पत्नी भी किसी के साथ हंसती हुई उसको मिल जाए, तो वह जो व्यवहार करता है वह बिल्कुल मनु महाराज का है। वह उसका अपना नहीं है। माॅडर्न माइंड का मतलब ही यह है कि एक तो हमारे सारे सैक्स की जो माॅरिलिटी है, वह हमें तोड़नी पड़े। माॅडर्न माइंड का मतलब यह है कि हमारा जो गैर चिंतन का लंबा इतिहास है वो हमें तोड़ना पड़े लेकिन वो बदल सकते हैं, बिना तोड़े।
एक आदमी हिन्दू से कंयूनिस्ट हो सकता है, और उसके माइंड का पूरा स्ट्रक्चर वही रहे। तो वह जिस भांति गीता को पकड़ता था, उस भांति कैपिटल को पकड़ ले। तो मुझे ऐसा दिखाई पड़ता है। अभी एक मित्र ने मुझे कहा, कंयूनिस्ट हैं, उन्हेंने कहा कि अब मैं आपको सुनने नहीं आ सकता। तो मैंने कहा कि बड़े मजे की बात है, कल अगर मुझे कोई एक धार्मिक आदमी कहता था कि आप धर्म के खिलाफ बोलते हैं, मैं आपको सुनने नहीं आ सकता और अगर एक कंयूनिस्ट भी मुझे यही कहता है कि कंयूनिज्म के खिलाफ बोलते हैं, मैं आपको सुनने नहीं आ सकता, तो मैं तुम दोनों में फर्क कहां करूं? यानि मुझे तुम सुनने नहीं आ सकते, क्योंकि मैं तुम्हारे खिलाफ कुछ बोल रहा हूं, तो फिर मैं तुममें फर्क कहां करूं? तुम फिर खिलाफ कुछ सुनना नहीं चाहते, उसी तरह जैसा कि वो हिन्दू नहीं सुनना चाहता। माॅडर्न माइंड जो है, वह सिर्फ...के फर्क से नहीं होगा। वह स्ट्रक्चरल फर्क है। और एंथेसिस तो बदली जा सकती है। एक आदमी हिन्दू से मुसलमान हो जाता है, मुसलमान से ईसाई हो जाता है, लेकिन बेसिक माइंड वही का वही रहता है। वही सब काम रहता है। मुझे नहीं दिखाई पड़ता कि हिन्दुस्तान में जिसको आप प्रोग्रेसिव एलीमेंट कहें, वह जरा भी प्रोग्रेसिव है। उसने सिर्फ एंथेसिस बदली है, स्ट्रक्चर उसके पास वही का वही है। और उसके भीतर सब दांव-पेच, सब दन-फन वही के वही हैं। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ गया। अगर शिवसेना के अदमी आपको गलत दिखाई पड़ते हों, तो वो गलत है हीं, सो दिखाई पड़ने चाहिएं। लेकिन शिवसेना के खिलाफ जो कंयूनिस्ट लड़ रहा है, वह भी सब उन्हीं तरकीबों को, उन्हीं जातिवाद का उपयोग कर रहा है। वही सब तरकीबोें को उपयोग कर रहा है, जो शिवसेना कर रही है। फिर सवाल यह है, और शिवाजी का पुतला लेके चलो कि माओं का पुतला लेकर चलो, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। पुतला लेके चलने वाला आदमी एक है।
आप दीवार पर शिवाजी के नारे लगा दो कि माओ का जय-जयकार कर दो, इससे अक्षर बदल जाते हैं, आप नहीं बदलते। और माओ भी वही माइंड लिख सकता है, जो शिवाजी को लिख रहा है। इस मुल्क को माॅडर्न होने का मतलब ही यह है कि पहली दफा ठीक से समझ लेना चाहिए कि हमारा ओल्ड क्या-क्या है। वह हमें बहुत साफ नहीं है। हमारा ओल्ड क्या-क्या है। एक तो हम बिलिविंग हैं, और हम आॅथोरिटी पे बड़ा भरोसा करते हैं। और मैं मानता हूं बड़ी अजीब बात है, कम्यूनिस्ट पार्टी का अगर हम पिछले बीस साल, तीस साल, चालीस साल का हिन्दुस्तान का इतिहास देखें, हमें बड़ी हैरानी होती है कि जैसे मास्को से एक सर्कुलर निकलता है यहां सबका दिमाग एकदम बदल जाता है। और उस सर्कुलर के पहले हम लाख उनको कहें कि ऐसा हो रहा है, उससे हम राजी नहीं होंगे। यह बड़ी अजीब सी बात है। हमारे पास भी कोई आंख है? अगर पचास साल का मास्को और हिन्दुस्तान की पार्टी के संबंधों का पूरा इतिहास देखे, तो मैं नहीं समझता यह आपके जिन महाराज का आपने नाम लिया, डोंगरे महाराज से बहुत भिन्न सिद्ध होगा। यह उससे भी गया। और डोंगरे महाराज तो कम से कम साफ दिखाई पड़ रहे हैं कि यह मरी दुनिया के हिस्से हैं। लेकिन यह कंयूनिस्ट ज्यादा खतरनाक सिद्ध होगा क्योंकि है बिल्कुल मरा, और साबित कर रहा है, वह भविष्य का हिस्सा है, और माॅडर्न माइंड है।
यह जो माॅडर्न और ओल्ड के बीच एक सवाल है, इसके लिए मैं निरंतर कोशिश करता हूं कि ओल्ड माइंड क्या है, वह हम साफ तौर से समझ लें। ताकि माॅडर्न होने का सवाल उठ जाए। माॅडर्न माइंड बहुत बड़ी बात है, सोशियलिस्ट क्रांति बहुत छोटी बात है। कैपिटलिज्म से सोशियलिज्म लाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, लेकिन माइंड को माॅडर्न करना, बहुत बड़ी...। मजा तो यह है कि जिनको आप पश्चिम के लोगों को माॅडर्न माइंड कह रहे हैं, उस गलती में भी आप मत पड़ना। वहां भी आज सड़क पर भजन कीर्तन शुरू हो गया है। आप इसको थोड़ा समझ लें, माॅडर्न माइंड आज वेस्ट के पास भी नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

यह जो है, स्थिति पश्चिम में भी जिसको हम माॅडर्न माइंड कह रहे हैं, वह भी थोड़े से लोगों का है। स्केप्टिकल माइंड का सवाल है, वह बहुत थोड़े से लोगों के पास है पश्चिम में। हम इस मुल्क में भी स्केप्टिक्स को कैसे पैदा करें, यह नहीं है सवाल। और ध्यान रहे स्केप्टिक्स अगर पैदा करने हों, तो ऐसा नहीं है कि वह स्केप्टिकल होंगे गीता के बाबत, वह कैपिटल के बाबत और स्केप्टिकल होंगे। स्केप्टिकल माइंड एज सच डाॅग्मेटिक नहीं हो सकता। तो न तो कम्युनिस्टों को उत्सुकता है स्केप्टिकल माइंड में, न सोशियलिस्टों को उत्सुक्ता है, न कैपिटलिस्टों को उत्सुकता है। आप जो कहते हैं कि बिरला मंदिर बनाता है। आप यह मत समझिए कि बिरला की ही यह उत्सुकता है कि मुल्क में बिलीविंग माइंड रहे, ये कम्युनिस्ट की भी यही उत्सुकता है कि बिलीविंग माइंड रहे। उसकी भी उत्सुकता स्पेक्टीकल माइंड में नहीं है। क्योंकि स्केप्टिकल माइंड कोई सीमाएं नहीं मानता। वह यह नहीं मानत कि हम गीता पह शक करेंगे और जब बाइबिल आएगी तो शक नहीं करेंगे। नाॅन-सेक्टेरियन हैं। असल में जिसको कहना चाहिए, नाॅन-इजमिक हैं। स्केप्टिकल माइंड जो है उसका कोई इज्म नहीं हो सकता। और वह अगर हमें पैदा करना ही पड़े, उसके बिना पैदा किये कोई रास्ता नहीं, लेकिन इसकी कोई जरूरत नहीं कि पूरा मुल्क स्पेक्टिकल हो। सच बात यह है कि मुल्क में अगर सिर्फ इंटेलिजेंसीया का एक आवांगार स्पेक्टीकल हो जाए, तो मुल्क में स्पेक्टिकलिज्म की धाराएं बहने लगेंगी। वह भी नहीं है।
अभी मैं देखता था कि आपका बंगाल के एक लेखक को, पदम श्री मिली। तो वह सज्जन अभी लिख रहे थे कि गांधी जो हैं वह सूअर के बच्चे थे। गांधी सूअरेर बच्चा। और उसको पदमश्री मिली तो उसने कहा कि वह जरा मेरी तबियत ठीक नहीं थी, मैं बीमार था, रूग्ण था और कंयूनिस्ट मित्र आ गए उन्होंने मुझसे लिखवा लिया। यह अवंगार था। गांधी को सूअर का बच्चा कहना है, तो बराबर कहो, लेकिन फिर पदमश्री तो लेने मत जाओ। और पदमश्री लेने पर क्षमा तो मत मांगो कि वह जरा मुझसे बीमारी में निकल गया था। इस मुल्क के पास एक इंटेलिजेंसिया का अवंगार चाहिए। न तो मजदूर यह कर सकेगा, न पूंजीपति यह कर सकेगा। यह दोनों नहीं कर सकते। यह दोनों की ट्रैडिशनल हैं कि होंगे ही। और जब पूंजीपति नहीं हो सकता, तो मजदूर कैसे नाॅन ट्रैडिशनल हो जाएगा। लेकिन इंटलेेक्ट का एक ट्रैडिशन जरूर खड़ा किया जा सकता है, वो हवा पैदा करेगा। और सारी क्रांति उसके पीछे आएगी।

प्रश्नः लड़ाई दोनों से करनी होगी, सोशियलिस्ट से भी लड़ाई करनी पड़ेगी, कैपिटलिस्ट से भी लड़ाई करनी होगी।

बिलकुल दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।

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