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बुधवार, 29 अगस्त 2018

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(तीन सूत्रः बहना, मिटना, सर्व-स्वीकार)

मेरे प्रिय आत्मन्!
ध्यान के संबंध में दो-तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। सबसे कठिन और सबसे जरूरी बात तो यह समझना है कि जैसा शब्द से मालूम पड़ता है तो ऐसा लगता है कि ध्यान भी कोई क्रिया होगी, कोई डूइंग होगी, कुछ करना पड़ेगा। मनुष्य के पास जो भी शब्द हैं वे सभी शब्द बहुत ऊंचाइयों पर जाकर अर्थपूर्ण नहीं रह जाते हैं। तो ध्यान से ऐसा ही लगता है कि कुछ करना पड़ेगा। जब कि वस्तुतः ध्यान कोई करने की बात नहीं है। ध्यान हो जाने की बात है। आप ध्यान में हो सकते हैं, ध्यान कर नहीं सकते।
इसे ऐसा समझिए कि जैसे हम प्रेम शब्द का उपयोग करते हैं तो उसमें भी यही भ्रांति होती है, समझ में आता है कि प्रेम भी करना पड़ेगा। आप प्रेम नहीं कर सकते हैं, प्रेम में हो सकते हैं। और होने और करने में बहुत फर्क है। अगर आप प्रेम करेंगे तो वह झूठा हो जाएगा। किए हुए प्रेम में सच्चाई कैसे होगी? किया हुआ प्रेम अभिनय और एक्टिंग हो जाएगा।

यही सबसे बड़ी कठिनाई भी है। क्योंकि जो चीज की जा सकती हो, हम कर सकते हैं। कठिनाई हो, पहाड़ हो, चढ़ना हो, मुश्किल पड़े, कर लेंगे। लेकिन जो चीज होने वाली है उसके लिए हम क्या करें?
जापान में एक बहुत बड़ा सम्राट हुआ।

उसने सुनी खबर कि पास के पहाड़ पर एक संन्यासी लोगों को ध्यान सिखाता है। बहुत लोगों ने खबर दी कि बहुत शांति मिली है, बहुत आनंद मिला है और प्रभु की झलक दिखाई पड़ी है। तो वह सम्राट भी गया। दूर-दूर तक पहाड़ में फैला हुआ आश्रम था। बीच में बड़ा भवन था, मंदिर था, चारों तरफ भिक्षुओं के रहने के स्थान थे। सम्राट ने जाकर उस संन्यासी को कहा, बूढ़े वृद्ध संन्यासी को, कि मुझे एक-एक बात समझा दें कि यहां साधक क्या-क्या करते हैं। और जहां जो करते हों, वह जगह मुझे बता दें। मैं पूरी बात समझने आया हूं।
तो वह संन्यासी उस सम्राट को लेकर आश्रम में घूमने लगा। उसने वह जगह बताई जहां भिक्षु भोजन करते थे, उसने कहा, यहां भोजन करते हैं।
सम्राट ने कहा, भोजन वगैरह में मुझे उत्सुकता नहीं है, असली बात करें।
जहां स्नान करते थे, उस भिक्षु ने कहा, यहां स्नान करते हैं।
उस सम्राट ने कहा, बेकार मेरा समय खराब मत करो।
यहां भिक्षु अध्ययन करते हैं; यहां सोते हैं।
उस सम्राट ने कहा, ये सब छोटी-छोटी चीजें छोड़ो, वह जो बीच में स्वर्ण-शिखर वाला मंदिर है, वहां क्या करते हैं?
लेकिन बड़ा आश्चर्य, जब भी वह सम्राट उस बीच के स्वर्ण-शिखर वाले मंदिर की बात करे, वह संन्यासी एकदम बहरा हो जाए! और सब सुने, उतनी बात भर न सुने! पूरा आश्रम घूम लिया गया, जो देखने योग्य मालूम पड़ता था, वह भवन भर छोड़ दिया गया। द्वार पर आकर संन्यासी ने सम्राट को विदा दी। सम्राट ने कहा, या तो मैं पागल हूं या आप पागल हैं। जो देखने जैसा मालूम पड़ता है, उस भवन के आप पास भी न ले गए। व्यर्थ की चीजें दिखाईं..स्नान कहां करते हैं, भोजन कहां करते हैं। इस बीच के भवन में क्या करते हैं? तुम बहरे क्यों हो जाते हो जब मैं उसके संबंध में पूछता हूं?
उस संन्यासी ने कहा, आपका प्रश्न मुझे बहुत मुश्किल में डाल देता है। आपने कहा था कि जहां जो करते हों वह मुझे बता दें। वह भवन तो उस स्थान के लिए बना है, जहां जब हमें कुछ भी नहीं करना होता तब हम चले जाते हैं। वह हमारा ध्यान भवन है, मेडिटेशन हॅाल है। वहां हम कुछ करते नहीं, वहां हम कुछ भी नहीं करते। जब तक हमें करना होता है तब तक ये सब स्थानों पर हम होते हैं। जब किसी व्यक्ति को न-करने में, नॅान-डूइंग में जाना होता है, तब वह उस भवन में चला जाता है। और आप पूछते हैं..क्या करते हैं? तो मैं मुश्किल में पड़ जाता हूं। अगर मैं कहूं ध्यान करते हैं, तो गलत होगा। क्योंकि ध्यान का मतलब ही यह है..मन की ऐसी स्थिति जब हम कुछ नहीं करते।
तो ध्यान के लिए पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि वह आपका करना नहीं है। और ख्याल रहे, जहां करना होगा वहां टेंशन होगा, तनाव होगा। न करने में ही विश्रांति और शांति हो सकती है। लेकिन न करने को हम बिल्कुल भूल गए हैं। हम चैबीस घंटे कुछ न कुछ कर रहे हैं। रात भी सपना देख रहे हैं, कुछ नहीं करने को बचा है तो सपने में ही कुछ कर रहे हैं। खाली होना मुश्किल है। न करने में एक क्षण को रुकना मुश्किल है।
लेकिन यह बड़े आश्चर्य की बात है कि करने से संसार में जो कुछ है वह सब मिल सकता है, लेकिन करने से परमात्मा नहीं मिल सकता। परमात्मा को पाना हो तो न करने में उतरना पड़ता है। उसका आयाम अलग है। उसकी यात्रा का रास्ता बहुत भिन्न है। क्यों ऐसी बात है?
असल में करने के द्वारा जो भी हम पा लेंगे, वह हमसे बड़ा नहीं हो सकता। हमारा किया हुआ हमसे बड़ा कैसे होगा? आप कितना ही बड़ा मकान बना लें, मालिक से बड़ा नहीं हो सकता। और आप कितने ही बड़े पद पर पहुंच जाएं, पद सदा आपके नीचे हो जाएगा, आप पद के ऊपर हो जाएंगे। असल में कोई आदमी ऐसा काम नहीं कर सकता जो उससे बड़ा हो, कैसे करेगा? अपने से बड़े को कैसे किया जा सकता है? हम जो भी करेंगे, अपने से छोटा होगा। परमात्मा हमसे छोटा नहीं है, इसलिए हमारी करने की पकड़ के बाहर हो जाता है, हम उसे कर नहीं सकते।
यह भी ध्यान रहे कि जब भी हम कुछ करते हैं, तो करने में हमारा अहंकार, ईगो मजबूत होता है। मैंने किया! तो मजबूत होता है। और परमात्मा की तरफ जिन्हें जाना है उनका अहंकार पिघल जाना चाहिए, मजबूत नहीं होना चाहिए। वह जितना मजबूत होगा उतना उससे मिलना मुश्किल है। इसलिए करने के द्वारा हम परमात्मा को कभी न पा सकेंगे, क्योंकि करना हमारे मैं को मजबूत करता है। एक आदमी बड़ा मकान बनाता है तो उसका मैं और बड़ा हो जाता है कि मैंने बनाया! एक आदमी धन कमा लेता है तो मैं मजबूत हो जाता है। एक आदमी बहुत सा ज्ञान इकट्ठा कर ले तो भी मैं मजबूत हो जाता है। परमात्मा की तरफ जिन्हें जाना है वे अहंकार को लेकर नहीं जा सकते, इसलिए करने से वहां रास्ता नहीं है।
यही सबसे बड़ी मुश्किल भी है। और मुश्किल इसीलिए है कि हम करने के आदी हैं और न करने का हमें कोई पता ही नहीं। ऐसे तो बात सरल होनी चाहिए, करना कठिन होना चाहिए, न करना सरल होना चाहिए। क्योंकि न करने में कुछ भी तो नहीं करना है, कठिन कैसे होगा? लेकिन आदत, पूरे जीवन हम करने में उलझे रहते हैं। न करने की हमें सूझ-बूझ ही खो गई है।
तो यहां इन तीन दिनों में, सुबह इस घंटे भर, हम न करने की यात्रा पर थोड़ी सी डुबकी लेंगे। पक्का नहीं है कि आप जा पाएंगे, क्योंकि अगर आपने करना जारी रखा तो आप अटक जाएंगे। तो मैं क्या कर सकता हूं? कैसे आपको न करने पर...क्योंकि आप कठिनाई समझ गए होंगे। करने की शिक्षा दी जा सकती है, न करने की शिक्षा कैसे दी जाए? तो न करने की शिक्षा निगेटिव ही हो सकती है, नकारात्मक ही हो सकती है। इतना ही कहा जा सकता है..यह मत करिए, यह मत करिए, यह मत करिए, और फिर छोड़ दीजिए, फिर जो हो जाए उसे हो जाने दीजिए।
एक किसान एक बीज बोता है। पानी डालता है, खाद डालता है, बागुड़ लगाता है। लेकिन अंकुर को निकाल नहीं सकता। अंकुर तो अपने से निकलेगा। तो जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं उसका अंकुर आप नहीं निकाल सकते, वह तो अपने से निकलेगा। आप सिर्फ परिस्थिति मौजूद कर दें जिसमें उसको निकलने में बाधा न रहे।
जैसे कल मैं कह रहा था। रात आप बिस्तर पर जाते हैं, रोज आप सोते हैं। और अगर कोई आपसे पूछ ले कि आप किस भांति सोते हैं, कृपा कर बताएं! तो कठिनाई शुरू हो जाएगी। सोना भी क्रिया मालूम पड़ती है। शब्द में तो ऐसा ही लगता है कि कुछ किया होगा आपने। सुबह आप उठ कर कहते हैं कि रात मैं सोया। तो आपने कुछ किया। अगर मैं पूछूं कि कैसे सोए? सोने के लिए क्या करना पड़ा? तो आप जो भी कहेंगे उसका सोने से कोई संबंध नहीं होगा। आप कहेंगे, बिस्तर पर लेट गया। लेकिन लेटना सोना नहीं है। आप कहेंगे, तकिए लगा लिए। लेकिन तकिए सोना नहीं है। तकिए के बिना भी सोना हो सकता है, तकिए के साथ भी नहीं हो सकता। आप कहेंगे, द्वार-दरवाजे बंद करके अंधेरा कर लिया। लेकिन अंधेरा करना सोना नहीं है, अंधेरे में जागना हो सकता है। तो मैं आपसे कहूंगा कि यह सब आपने सोने की तैयारी की, सोना नहीं है यह। हां, यह सब तैयारी होकर, फिर आपने क्या किया? सोना आया कैसे? आप कहेंगे, मैं सिर्फ पड़ रहा। लेकिन पड़ रहना सोना नहीं है, पड़ रहना प्रतीक्षा है, जस्ट अवेटिंग, कि नींद आ जाए। आप नींद को ला नहीं सकते, सिर्फ प्रतीक्षा कर सकते हैं। इंतजाम कर सकते हैं कि प्रतीक्षा करने के लिए मैं आराम से पड़ जाऊं, राह देखूं कि नींद आ जाए।
ध्यान के लिए भी प्रतीक्षा ही करनी पड़ती है। बाहरी इंतजाम हम कर सकते हैं। और वह बाहरी इंतजाम भी प्राथमिक सीढ़ियों में ही जरूरी होता है, धीरे-धीरे गैर-जरूरी हो जाता है, एक बार आपको पता चल जाए कि इस मनोदशा में ध्यान उतर आता है। तो ध्यान कुछ नहीं है जो आप करते हैं, आप तो कुछ और करते हैं, ध्यान उस करने के बीच उतरता है। तो ध्यान के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। और एक परिस्थिति जिसमें बाधाएं न रह जाएं।
अब जैसे एक आदमी, इसे थोड़ा समझ लें, अगर हम एक आदमी पर शर्त लगा दें कि तुम्हें क्रोध करने की आज्ञा है, लेकिन आंखें लाल करने की आज्ञा नहीं है, दांत भींचने की आज्ञा नहीं है, मुट्ठी बांधने की आज्ञा नहीं है; शरीर पर कुछ मत करो, बाकी तुम क्रोध करो। वह आदमी मुश्किल में पड़ जाएगा। क्योंकि क्रोध के लिए एक परिस्थिति चाहिए जिसमें वह उतर सकता है। अगर आप कहें कि हाथ मत भींचो, दांत मत भींचो, आंख लाल मत करो, चेहरे पर रेखा न आए, बाकी क्रोध करो। हालांकि क्रोध न तो हाथ का बांधना है, न दांत का दबाना है, न आंख का लाल होना है; क्रोध कुछ और है। लेकिन यह परिस्थिति पूरी हो तो ही क्रोध उतर पाता है, नहीं तो नहीं उतर पाता। वह आदमी मुश्किल में पड़ जाएगा।
अमरीका में तो एक विचारक हुआ, जेम्स। उसने तो यही कह दिया कि यह बात ही कुछ उलटी है। और उसने तो एक सिद्धांत ही, जेम्स-लेंगे का सिद्धांत एक प्रचलित किया। और उसमें बड़ी जान है। बात तो वह गलत है जो उसने कही है, लेकिन उसमें जान है।
हम आमतौर से यही कहते हैं कि आदमी जब भयभीत होता है तो भागता है। उसने कहा, भागने की वजह से भयभीत होता है। क्योंकि कोई बिना भागे और भयभीत होकर बता दे! हम कहते हैं कि एक आदमी भयभीत हो गया, घबड़ा गया, तो वह भागा। वह जेम्स और लेंगे ने कहा कि नहीं, यह उलटी बात है। वह भागा इसलिए भयभीत हो गया। क्योंकि भागे न, खड़ा रहे और भयभीत होकर बता दे! उनका कहना यह है कि शरीर में प्रकट न हो, फिर वह भय करके बता दे!
भय की भी परिस्थिति है, उसमें भय उतरता है। क्रोध की भी परिस्थिति है, उसमें क्रोध उतरता है। प्रेम की भी परिस्थिति है, उसमें प्रेम उतरता है। और ध्यान की भी परिस्थिति, एक सिचुएशन है, जिसमें ध्यान उतरता है। आप ध्यान ला नहीं सकते, सिर्फ सिचुएशन है। लेकिन आपने सिचुएशन भी पूरी कर ली हो और ध्यान न उतरे तो शिकायत भी नहीं कर सकते। यही समझना होगा कि कहीं परिस्थिति में भूल हो रही है। फिर प्रतीक्षा करनी होगी।
मैंने दरवाजा खोल दिया अपने घर का और सूरज घर के भीतर नहीं आया, तो मुझे समझना होगा कि अभी रात है, सूरज के उगने तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। दरवाजा खुला रखूं, सुबह सूरज उगेगा, आ जाएगा। सूरज की रोशनी को हम गठरियों में बांध कर भीतर नहीं ला सकते, लेकिन हम चाहें तो इतने बड़े सूरज को भी एक दरवाजा बंद करके बाहर रोक सकते हैं।
यह बड़े मजे की बात है। ध्यान हम लाने में असमर्थ हैं, लेकिन रोकने में समर्थ हैं। हम रोशनी को रोक सकते हैं, ला नहीं सकते। और लाने के लिए तो सिर्फ इतना ही करना पड़ेगा कि दरवाजा बंद न हो, दरवाजा खुला हो। फिर भी दरवाजा बेमौके खुला हो और रोशनी न आए तो शिकायत किससे करेंगे? कोई शिकायत सुनने को नहीं है! प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। सूरज निकलेगा, रोशनी भीतर आ जाएगी।
तो मेरी समझ में, पहली तो बातः ध्यान अक्रिया है, नॅान-एक्शन है। दूसरी बातः ध्यान अवेटिंग है, ध्यान प्रतीक्षा है। असल में अक्रिया प्रतीक्षा ही कर सकती है। क्रिया दावा कर सकती है कि आओ। लेकिन जो कुछ भी नहीं कर रहा वह सिर्फ प्रतीक्षा कर सकता है कि आ जाओ तो धन्यवाद, न आओ तो कोई शिकायत नहीं है। मेरा कोई वश नहीं है, मैं खींच कर न ला सकूंगा।
किसान क्या करता है? बीज को बोकर प्रतीक्षा करता है। परिस्थिति जुटा दी है उसने, पानी भी डाल दिया, खाद भी डाल दिया। अब राह देख रहा है बैठ कर कि बीज फूटे। और ध्यान रहे, अगर किसान जल्दी करे, जैसा कि कभी छोटे बच्चे करते हैं। छोटे बच्चे आम की गोई को बो देते हैं जमीन में, घंटे भर बाद उखाड़ कर देखते हैं..अभी तक पौधा नहीं उगा? फिर गड़ा आते हैं, फिर घंटे भर बाद लौट कर देखते हैं। प्रतीक्षा नहीं है, बड़ा अधैर्य है..जल्दी से पौधा उग आए! तो जिस आम के बीज को बच्चा घंटे-घंटे में देख आता हो, फिर वह कभी नहीं उगेगा, यह भी ध्यान रखना। क्योंकि घंटे भर बाद निकाल लिया, उतना घंटा बेकार हो गया। अब वह फिर डाला, वह फिर शुरुआत हुई।
बीज को पड़े रहने देना पड़ेगा जमीन में, एकांत में, अंधेरे में वह चुपचाप फूटे, बड़ा हो, राह देखनी पड़ेगी। और यह भी ध्यान रहे कि जितना कमजोर बीज होगा, जितना मौसमी होगा, उतने जल्दी आ जाएगा। जितना बड़ा वृक्ष होगा, जितनी लंबी उम्र का वृक्ष होगा, उतनी देर लग जाएगी। इसलिए जल्दी की बहुत बात नहीं है।
मेरे पास कई लोग आते हैं, वे कहते हैं कि दो दिन हो गए अब ध्यान करते, अभी तक परमात्मा का दर्शन नहीं हुआ!
उनसे कुछ भी कहना व्यर्थ है, क्योंकि उन्हें ख्याल ही नहीं है कि वे क्या कह रहे हैं। उन्होंने दो दिन आंख बंद करके पंद्रह मिनट बैठ गए हैं तो वे परमात्मा को पाने के दावेदार और हकदार हो गए हैं। अगर परमात्मा कहीं हो तो किसी सुप्रीम कोर्ट में वे मुकदमा चला सकते हैं..दो दिन मैं पंद्रह मिनट आंख बंद करके बैठा, तुम आए नहीं।
जिंदगी बहुत धैर्य है। और जितनी गहरी चीज खोजनी हो उतने ही धीरज की जरूरत है। और मजा तो यह है कि जितना धीरज हो उतना जल्दी मिल जाता है और जितना अधैर्य हो उतनी देर लग जाती है। अगर धैर्य अनंत हो तो इसी क्षण मिल सकता है और अगर धीरज बिल्कुल न हो तो अनंत जन्मों में भटक कर भी नहीं मिल सकता।
परिस्थिति कैसे बने? हाउ टु क्रिएट दि सिचुएशन? ध्यान नहीं; ध्यान को तो हम नहीं ला सकते, न पैदा कर सकते हैं। लेकिन ध्यान जिस द्वार से आता है, वह द्वार कैसे बने? उसके तीन सूत्र मैं आपको कहूं। उन तीन सूत्र का हम प्रयोग करेंगे और प्रतीक्षा करेंगे। वे तीन सूत्र जिस दिन पूरे हो जाते हैं उसी दिन आपको पता भी नहीं चलता कि कब आपकी जिंदगी बदल गई, ध्यान आ गया है।
और ऐसा नहीं है कि ध्यान धीरे-धीरे आता हो। ग्रेजुअल, डिग्री से आता हो, ऐसा नहीं है। ध्यान तो एक एक्सप्लोजन की तरह आता है। जब आपका द्वार खुला है और सूरज निकलेगा, तो ऐसा थोड़े ही है कि पहले एक किरण आएगी, फिर दूसरी किरण आएगी, फिर तीसरी किरण आएगी। न, द्वार खुला है और सूरज निकला है, तो पूरा सूरज उपस्थित हो गया, सब किरणें एक साथ घर में घुस गई हैं, एक एक्सप्लोजन हो गया है, विस्फोट हो गया है। प्रेम जब जीवन में आता है तो ऐसा थोड़े ही आता है एक-एक कदम रख कर। वह एकदम से उपस्थित हो जाता है। जैसे कि सौ डिग्री तक हम पानी को गरम करते हैं, फिर ऐसा थोड़े ही है...बस सौ डिग्री तक पानी गरम हुआ कि पानी की बूंद छलांग लगा कर भाप होने लगती है। फिर ऐसा नहीं है कि कोई बूंद अभी थोड़ी सी भाप हो गई है, अभी थोड़ी सी पानी है, ऐसा नहीं है। बूंद छलांग लगा कर भाप बनने लगती है। इधर पानी थी, इधर भाप, बीच में कोई डिग्री नहीं है। हां, पानी के गरम होने तक डिग्रियां हैं। सौ डिग्री तक डिग्रियां हैं।
तो ध्यान तो जब आता है, एकदम आ जाता है। लेकिन ध्यान के पहले परिस्थिति बनने में देर लग सकती है। वे डिग्रियां हैं, सौ डिग्री तक गरमी में देर लग सकती है। और यह बड़े मजे की बात है कि निन्यानबे डिग्री पर भी पानी पानी रहता है। अट्ठानबे पर भी पानी पानी रहता है। नब्बे पर भी पानी पानी रहता है। साढ़े निन्यानबे पर भी पानी पानी रहता है। जरा सरकते-सरकते जैसे ही सौ डिग्री पर पहुंचता है कि छलांग, जंप, वह पार हो गया। आधा डिग्री पहले भी पानी पानी ही था। सिर्फ गरम पानी था, कोई फर्क नहीं पड़ा था। ठंडे पानी और गरम पानी में क्या फर्क पड़ा था! इतना ही फर्क पड़ा था कि आधी डिग्री की छलांग अगर पूरी हो जाए तो साढ़े निन्यानबे डिग्री तक जो पानी पहुंच गया था वह भाप बन जाएगा और दस डिग्री पर जो पानी था वह भाप नहीं बनेगा। बाकी दोनों पानी हैं। और साढ़े निन्यानबे डिग्री से भी वापस लौट आना संभव है। अनिवार्यता नहीं है कि साढ़े निन्यानबे डिग्री पर आप पहुंच गए तो सौ पर पहुंच ही जाएंगे। वापस भी लौट सकते हैं। आधा डिग्री से भी सब खो सकता है। और मेरी अपनी समझ यह है कि परमात्मा को हम बहुत करीब-करीब से खोते हैं, बहुत दूर से नहीं, जस्ट बाइ दि कार्नर, बस चूक जाते हैं।
मैंने सुना है कि एक अंधा आदमी एक महल में था। उस महल में हजार दरवाजे थे। और वह अंधा आदमी एक-एक दरवाजे को टटोल रहा है। बाहर निकलने के लिए रास्ता खोज रहा है। वह नौ सौ निन्यानबे दरवाजे टटोल चुका है, अब एक ही दरवाजा बचा है जो खुला है। लेकिन जब उस दरवाजे के पास आया तो उसे खुजान आ गई। और उसने सिर खुजला लिया और आगे निकल गया। अब वह फिर बंद दरवाजों पर खोजने लगा। अब फिर नौ सौ निन्यानबे दरवाजों पर भटकेगा, तब कहीं वह फिर हजारवां दरवाजा आएगा। और पता नहीं उसको फिर चूक जाए। जरा सी खुजलाहट उठे और दो कदम आगे बढ़ जाए, फिर दीवाल है।
हम इतने ही करीब से चूकते हैं, ज्यादा दूर से चूकते नहीं हैं। बिल्कुल मुड़ते-मुड़ते मुड़ जाते हैं। जरा सी बात, और सब खतम हो जाता है।
तीन सूत्र इस तैयारी के लिए। ये सिर्फ भूमिका के सूत्र हैं। इस भूमिका में ध्यान उतर सकता है। पहला सूत्र है जिसे मैं कहता हूं: बहने का भाव।
नदी के किनारे अगर जाकर देखें, एक आदमी नदी में उतरे तो वह तैरेगा, पानी से लड़ेगा, कहीं पहुंचने की कोशिश करेगा। पास में ही एक सूखा पत्ता बहा जा रहा है। वह तैरता नहीं, उसे कहीं पहुंचना नहीं, वह सिर्फ बहा चला जा रहा है। देखें, उस सूखे पत्ते का मन बिल्कुल शांत होगा। क्योंकि तैरने की कोई चेष्टा ही नहीं है। जस्ट फ्लोटिंग, कोई लड़ाई नहीं है नदी से। नदी पर सवार हो गया सूखा पत्ता। वह नदी के कंधों पर बैठ गया। वह कहता है: जहां ले चलो, चलते हैं। हम न तैरेंगे। हम तैरने की झंझट क्यों लें? जब नदी ही इतने जोर से तैर रही है तो हम साथ चलते हैं। वह नदी से लड़ता नहीं है, वह नदी के साथ एक हो गया। लहरें ऊपर उठाती हैं, ऊपर उठ जाता है; बहाती हैं, बह जाता है।
एक दूसरा आदमी तैर रहा है। वह सारी ताकत लगा रहा है। वह नदी से लड़ रहा है।
चित्त की भी दो दशाएं हैं: तैरने की और बहने की। अगर तैरने की दशा में आप हैं तो आप एक्शन में चले जाएंगे, कर्म में चले जाएंगे। क्योंकि बिना तैरने के भाव के कोई कर्म में नहीं जा सकता। तो जितना एक्टिव माइंड होगा उतना तैरता रहेगा, जिंदगी में पूरे वक्त तैरता रहेगा, सब कामों में तैरता रहेगा। पूरे समय वह अनजानों से लड़ रहा है..नदियों की धाराओं से लड़ रहा है, जीवन की धारा से लड़ रहा है, लोगों से लड़ रहा है, स्थितियों से लड़ रहा है..वह लड़ रहा है। वह एक फाइटर है जो पूरे वक्त लड़ रहा है।
लेकिन मैं कह रहा हूं कि ध्यान है अक्रिया, नॅान-एक्शन। तो लड़ना छोड़ देना पड़े, बहना पड़े। एक सूखे पत्ते को ध्यान में कर लें जो नदी में बह रहा है। तो एक घड़ी भर के लिए ऐसे ही सूखा पत्ता हो जाना है कि बहे जा रहे हैं, लड़ नहीं रहे हैं। तो यह बहने की जो भावदशा है, यह ध्यान की बड़ी अनिवार्य शर्त है। अगर यह पूरी हो जाए तो ध्यान उतर सकता है।
लेकिन हम अगर ध्यान के लिए भी बैठेंगे तो उसमें भी एक भीतरी लड़ाई जारी रहेगी कि मुझे ध्यान करना है। हाथ बंधे रहेंगे, दांत भिंचे रहेंगे। आप किसी से लड़ने जा रहे हैं? ध्यान में आदमी बैठेगा तो अकड़ा रहेगा, स्टें्रड रहेगा। कोई लड़ाई कर रहे हैं? तैर रहे हैं?
नहीं, रिलैक्स छोड़ देना है, सब शिथिल छोड़ देना है। कुछ भी लड़ाई नहीं करनी, बस बह जाना है। तो पांच मिनट पहले इस प्रयोग को हम करेंगे, बहने के इस भाव को समझने के लिए। जब इस प्रयोग के लिए हम पांच मिनट करके समझ लेंगे कि क्या बहने का भाव है, फिर हम दूसरा प्रयोग, फिर तीसरा। तीन सूत्र अलग-अलग समझेंगे और फिर ध्यान के लिए इकट्ठा बैठेंगे, वह तीनों सूत्रों का इकट्ठा जोड़ होगा।
इस बहने के भाव में शरीर को एकदम शिथिल छोड़ देना जरूरी बात है। क्योंकि बहने के लिए तनाव की कोई जरूरत नहीं है। और सारे लोग एक-दूसरे से थोड़े-थोड़े फासले पर हो जाएं। कोई किसी को छूता हुआ न हो। कोई किसी को छूता न हो, इसका ख्याल कर लें। क्योंकि दूसरे का स्पर्श आपको कभी बहने की हालत में न आने देगा। दूसरे का स्पर्श आपको पूरे समय बहुत गहरे तनाव से भरता रहता है। स्पर्श तो बहुत दूर की बात है, दूसरे की मौजूदगी, दूसरे का होना भी आपको भीतरी तनाव से भर देता है।
आप अपने बैठकखाने में बैठे हैं अकेले, तब आप दूसरे आदमी होते हैं। और एक आदमी ने आकर बेल बजाई, घंटी बजाई, आप फौरन दूसरे आदमी हो गए। आदमी कमरे के भीतर आया, आप बदल गए। आपकी सब हड्डी, रग-रेशा, सब बदल गया, सब खिंच गया। अब आप वही आदमी नहीं हैं जो घड़ी भर पहले आराम से बैठा हुआ था। आप बाथरूम में दूसरे आदमी होते हैं, बैठकखाने में दूसरे आदमी होते हैं। बाथरूम में आप रिलैक्स्ड होते हैं, किसी की मौजूदगी का कोई सवाल नहीं है। तो बूढ़ा भी कभी-कभी बाथरूम में बच्चों जैसे काम करता है। कभी आईने में मुंह भी बिचका लेता है। लेकिन उसे अगर पता चल जाए कि की-होल से कोई झांक रहा है, सब बदल जाएगा। बच्चा गया, बूढ़ा फिर बूढ़ा हो गया, सख्त। तो दूसरे की मौजूदगी तक बाधा देती है। दूसरे का स्पर्श बाधा देता है। तो स्पर्श कोई किसी का न कर रहा हो। और इसीलिए फिर हम आंख बंद कर लेंगे, ताकि दूसरा भूला जा सके। आप अकेले हैं, ताकि आप पूरी तरह शिथिल हो सकें।
फिर यहां तो हम प्रयोग ही कर रहे हैं। इस प्रयोग को समझ कर, जब आप अकेले रात अपने बिस्तर पर लेटें तब इसको करें। अंधेरा हो गया है, सारी दुनिया बंद हो गई, द्वार बंद हो गया, अंधेरे में चुपचाप पड़े हैं। नींद आने के पहले इस प्रयोग को करें। इस प्रयोग को करते-करते ही सो जाएं।
आप सुबह अपनी नींद की क्वालिटी में फर्क पाएंगे, वह बदल गई। सुबह आप और तरह से उठेंगे। ज्यादा ताजे होंगे, ज्यादा शांत होंगे, ज्यादा आनंदित होंगे। क्रोध की संभावना कम हो जाएगी, तनाव की संभावना कम हो जाएगी। और यह तो स्थिति है, सौ डिग्री तक जब पहुंचेगी तब वह ध्यान भी घट जाएगा।

तो पहले पांच मिनट हम बहने का प्रयोग करेंगे।
आंख बंद कर लें। बंद कर लें, कहना गलत है। आंख बंद हो जाने दें। धीरे से पलक छोड़ दें। शरीर को ढीला छोड़ कर बैठ जाएं। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद हो गई है, शरीर को ढीला छोड़ दें, पलक को झुक जाने दें। पलक पर भी जोर न डालें, उतना जोर भी ठीक नहीं है। उसे धीरे से छोड़ दें, पलक बंद हो गया। शरीर को ढीला छोड़ दें और बिल्कुल आराम से बैठ जाएं। हम कोई काम में नहीं जा रहे हैं, एक बहने का प्रयोग करने जा रहे हैं, इसलिए बिल्कुल ढीला बैठ जाएं। कठिनाई जरा भी नहीं है, सिर्फ तैयारी पूरी दिखाएं, बहना हो जाएगा।
शरीर ढीला छोड़ दें, आंख बंद कर लें और एक छोटा सा चित्र अपनी कल्पना में देखना शुरू करें: सुबह है, सूरज निकला, उसकी धूप में दो पहाड़ चमकते हैं और पहाड़ के बीच से भागती हुई एक नदी है। सिर्फ कल्पना कर लें, ताकि बहने का भाव समझ में आ सके। दो पहाड़ों के बीच में, सूरज की चमकती रोशनी में एक नदी भागी जा रही है। नदी भाग रही है, बह रही है। इसे ठीक से देख लें, क्योंकि जल्दी ही हम भी इसमें उतर जाएंगे और हम भी इस नदी में बह जाएंगे। नदी बह रही है, बराबर दिखाई पड़ने लगेगी, दो पहाड़ हैं चमकते हुए, सूरज की रोशनी में भागती हुई बीच में नदी है। नदी भागी जा रही है, इसमें अपने को भी छोड़ दें, आहिस्ता से उतर जाएं। लेकिन तैरें नहीं, छोड़ दें सूखे पत्ते की भांति, बस बहने लगें, नदी के साथ बहने लगें। नदी भागी जा रही है, आप भी नदी में बहे जा रहे हैं। अपने को बहता हुआ देखते रहें, देखते रहें, देखते रहें। और बिल्कुल ढीला छोड़ दें, नदी ले जाएगी, आपको कुछ भी करना नहीं है। एक पांच मिनट एक ही भाव मन में रह जाए कि मैं बह रहा हूं, मैं बह रहा हूं। हाथ भी नहीं हिलाना है, तैरना नहीं है, कहीं पहुंचना नहीं है, नदी भागी जा रही है, मैं बह रहा हूं, मैं बह रहा हूं। एक पांच मिनट एक ही भाव मन में रह जाएः मैं बह रहा हूं, मैं बहा जा रहा हूं, कर कुछ भी नहीं रहा हूं, बस बह रहा हूं। और बहते-बहते ही मन हलका और शांत होने लगेगा, एक नई ताजगी भीतर भर जाएगी, बहते-बहते ही सब तनाव खो जाएगा। अभी पांच मिनट बाद जब नदी से बाहर निकलेंगे तो मन की पूरी परिस्थिति बदल जाएगी।
अब मैं पांच मिनट के लिए चुप हो जाता हूं। आप बहें और बहते जाएं, ढीला छोड़ते जाएं अपने को, बिल्कुल ढीला छोड़ दें। शरीर झुके, झुक जाए; गिरे, गिर जाए; शरीर की फिक्र ही न करें, बिल्कुल ढीला छोड़ दें, कोई तनाव न रखें। झुकेगा, झुक जाएगा; फिर आगे झुकेगा, पीछे झुकेगा; शरीर गिरेगा, गिर जाएगा; बिल्कुल ढीला छोड़ दें और बहें...
देखें, चेहरे पर कोई तनाव न लें, क्योंकि बह रहे हैं; माथे को न सिकोड़ें, क्योंकि बह रहे हैं; कोई भारी काम नहीं कर रहे हैं; काम ही नहीं कर रहे हैं, बस बहते जा रहे हैं...चेहरा हलका और शांत हो जाएगा, चेहरे की रेखा-रेखा शांत हो जाएगी, भीतर मन शांत हो जाएगा...मैं बह रहा हूं, मैं बह रहा हूं... श्वास-श्वास में एक ही बात रह जाए..मैं बह रहा हूं, मैं बह रहा हूं, मैं बहता जा रहा हूं...मन हलका और शांत हो जाएगा...मैं बह रहा हूं, नदी भागी जा रही है...मन बिल्कुल ताजा, नया और शांत हो जाएगा...मैं बह रहा हूं, कुछ कर नहीं रहा, बस बहता जा रहा हूं, एक सूखे पत्ते की भांति बहता जा रहा हूं...मैं बह रहा हूं...मन हलका और शांत हो जाएगा...
छोड़ दें, बिल्कुल छोड़ दें, बह जाएं, एक सूखा पत्ता हो जाएं...नदी भागी जा रही है, मैं बहा जा रहा हूं...मैं बह रहा हूं, मैं बह रहा हूं...कुछ कर नहीं रहा, सब हो रहा है..नदी बह रही है, सूरज निकला है, मैं भी बह रहा हूं... कुछ कर नहीं रहा हूं, सिर्फ बहता जा रहा हूं...और मन बिल्कुल शांत हो और हलका होता जाएगा...भीतर एक गहरी शांति का जन्म हो जाएगा, जैसे एक बोझ उतर गया, जैसे मन से एक भार उतर गया...मैं बह रहा हूं, मैं बह रहा हूं...मैं बह गया एक सूखे पत्ते की भांति, कुछ कर नहीं रहा हूं, सिर्फ बह रहा हूं...अपने को बहता हुआ देख लें, ठीक से पहचान लें, यह भीतर जो फीलिंग, जो भाव है बहने का, इसको पहचान लें, ध्यान की यह पहली कड़ी है...मैं बह रहा हूं, मैं बह रहा हूं...छोड़ दें, बिल्कुल छोड़ दें, जरा सी भी पकड़ न रखें अपने पर, जरा भी तनाव न रखें...मैं बह रहा हूं, मैं बह रहा हूं, मैं बह रहा हूं...मन एकदम शांत और हलका हो जाएगा...बहने में अशांति कहां? तैरने में अशांति हो सकती है। बहने में अशांति कहां? तैरने में तनाव हो सकता है। बहने में तनाव कहां? छोड़ दें, इस भाव को ठीक से पहचान लें, मैं बह रहा हूं...
फिर धीरे-धीरे नदी के बाहर निकल आएं...तट पर खड़े हो गए हैं...नदी अब भी बही जा रही है...लेकिन देखें, पांच मिनट के बहने से फर्क पड़ा है, मन हलका हुआ है...
फिर धीरे-धीरे आंख खोल लें। दूसरा प्रयोग समझें। और फिर हम दूसरे प्रयोग के लिए बैठेंगे। धीरे-धीरे आंख खोल लें।
बहने का ख्याल आ जाए तो मन के बोझ गिर जाते हैं, तैरने का ख्याल आ जाए तो मन के बोझ बढ़ जाते हैं। तैरने का ख्याल आ जाए तो यह दुनिया दुश्मन की तरह मालूम पड़ने लगती है। हम लड़ रहे हैं, सब चीजों से लड़ रहे हैं। बहने का ख्याल आ जाए तो यह दुनिया मां की गोद जैसी हो जाती है, हम उसमें लेट गए हैं, सो गए हैं, बह गए हैं। ध्यान में जिन्हें जाना है उन्हें बहने की कला सीखनी ही पड़े, उसके सिवाय कोई उपाय नहीं।

दूसरा सूत्र है: न हो जाने की, नहीं हो जाने की, मिट जाने की बात।
एक फकीर हुआ है, नसरुद्दीन। उसने एक दिन अपनी पत्नी को पूछा कि लोग मर जाते हैं, लेकिन जो मरता है उसे पता कैसे चलता होगा कि मैं मर गया?
तो उसकी स्त्री ने कहा कि तुम्हें न मालूम कहां-कहां की नासमझी के ख्याल उठते हैं। जब मरोगे तब पता चल जाएगा, अभी से क्या फिक्र लेनी!
पर नसरुद्दीन ने कहा, जब मरूंगा तब पता चला कि न चला। अभी जब तक होश में हूं तब तक पता तो लगा लूं कि मरने पर क्या होगा!
उसकी स्त्री ने सिर्फ बात टालने को कहा कि हाथ-पैर ठंडे हो जाएंगे तो अपने आप पता चल जाएगा।
नसरुद्दीन एक दिन सुबह-सुबह जंगल में लकड़ी काटने गया है। सर्द है, काफी सर्दी पड़ रही है, हाथ-पैर ठंडे होने लगे। तो उसने सोचा कि लगता है मरे। तो उसने मरे हुए लोगों को देखा था, कभी किसी मरे हुए आदमी को खड़ा हुआ नहीं देखा था। तो उसने सोचा कि मर ही रहे हैं तो लेट जाना चाहिए, क्योंकि सभी मुर्दे लेटे हुए देखे। तो उसने जल्दी से कुल्हाड़ी छोड़ दी और लेट गया। ठंडी सुबह थी, कुल्हाड़ी चला रहा था तो थोड़ी गरमी भी थी। कुल्हाड़ी भी छूट गई और लेट गया तो और ठंडा होने लगा। और ठंडा होने लगा तो उसने कहा, मामला खतम, अब कुछ बचने का उपाय नहीं। थोड़ी देर में बिल्कुल ठंडा हो गया तो उसने सोचा: मुर्दे न तो बोलते, न उठते, न चिल्लाते, न किसी से कहते कि मैं मर गया। वह तो लोगों को ही पता लगाना पड़ेगा कि मैं मर गया, क्योंकि मुर्दे को कभी कहते नहीं सुना कि मैं मर गया। तो वह पड़ा रहा। अकड़ गया बिल्कुल।
पास से कुछ लोग, यात्री गुजरते थे, उन्होंने देखा कि मालूम होता है कोई मर गया। तो उन्होंने खड़े होकर बात की। तो नसरुद्दीन ने कहा आ गए लोग। सदा लोग आ जाते हैं कोई मर जाए तो। उन्होंने अरथी बनाई कि अब इसको मरघट तक तो पहुंचा दें। उसे अरथी पर बांधा, अरथी पर बांध कर ले चले। लेकिन वे अजनबी लोग थे और उस गांव के रास्ते उन्हें पता न थे। जब वे चैरस्ते पर पहुंचे तो एक रास्ता गांव को जाता था, एक दूसरे गांव को जाता था। तो उन्होंने कहा, पता नहीं मरघट को कौन सा रास्ता जाता है? नसरुद्दीन को पता था। लेकिन उसने सोचा कि मुर्दे कभी बताते नहीं कि मरघट का रास्ता कहां जाता है। लेकिन उन्होंने कहा कि बड़ी मुश्किल हो गई, रास्ते पर कोई दिखाई नहीं पड़ता, कोई दिख जाए तो मरघट का रास्ता पूछ लें। फिर वे बड़े घबड़ा गए, उन्हें दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है। उन्होंने कहा, यह कहां की मुसीबत ले ली है। अब इस आदमी को मरघट तक तो पहुंचा ही देना चाहिए, लेकिन कोई दिखाई नहीं पड़ता। नसरुद्दीन ने बहुत बार सोचा कि बता दूं, मुझे तो पता है। लेकिन मुर्दों ने कभी बताया नहीं। लेकिन आखिर वे लोग जाने ही लगे छोड़ कर तो उसने कहा कि अब इमरजेंसी की हालत में तो बता ही देना चाहिए। तो उसने कहा कि सुनो भई, जब मैं जिंदा हुआ करता था तब लोग बाएं रास्ते से मरघट जाते थे। और फिर जल्दी से वह अपनी अरथी में सो गया। तो उन्होंने कहा कि तू कैसा पागल है! अगर तू बता सकता है तो उठ, हमें क्यों परेशान कर रहा है!
उसे उन्होंने उठा दिया। वह घर लौट आया। उसने अपनी पत्नी से कहा कि तूने भी क्या बात बताई थी कि हाथ-पैर ठंडे हो जाएं तो आदमी मर जाता है! हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए! न केवल हम मुश्किल में पड़े बल्कि चार आदमी और भी मुश्किल में पड़े! लेकिन तुझे मैं धन्यवाद देता हूं, क्योंकि एक बहुत अदभुत घटना घट गई!
उसकी पत्नी ने कहा, वह क्या हुआ?
उसने कहा कि जब मैंने मान लिया कि मैं मर गया, तो मैं इतना शांत हो गया जितना मैं कभी भी न था। हालांकि मैं जिंदा था। लेकिन जब मैंने मान लिया कि मैं मर ही गया, तो मैंने सोचा अब कैसी अशांति! जब मैं लेटा रहा उस वृक्ष के नीचे और जब मेरी अरथी बांधी गई, तब मैंने जिंदगी में जो शांति जानी वह मैंने कभी भी नहीं जानी थी। हालांकि तूने गलत बताया था कि हाथ ठंडे होने से आदमी मर जाता है। लेकिन अच्छा ही हुआ कि तूने बताया, नहीं तो इस शांति को मैं कभी भी न जान पाता। अब तो मैं ऐसे ही जीऊंगा जैसे मर ही चुका हूं।
उसकी पत्नी ने कहा, यह क्या पागलपन है?
उसने कहा, अब मैं वह जिंदा होने का बोझ अपने सिर पर लेने को राजी नहीं। मैंने इतना आनंद जाना है इस थोड़ी सी घड़ी में, जब मैं अरथी पर बंधा था, तब मुझे पता चला कि यह ख्याल कि मैं हूं, मेरी सारी मुसीबत की जड़ है। अब मैं तो मर ही गया, अब तू मुझे जिंदा मत समझ।
उस दिन से नसरुद्दीन की जिंदगी और जिंदगी हो गई!
तो दूसरी ध्यान के लिए जो बहुत गहरी शर्त है वह है मिट जाने का भाव। जब तक हमें यह ख्याल है कि मैं हूं, तब तक हम शांत नहीं हो सकते। यह ‘मैं हूं’ ही हमारी सारी अशांति है। यह स्वर हमारे भीतर गूंजता ही रहता है कि मैं हूं। और मजे की बात है कि यह स्वर हम गुंजाते हैं इसीलिए गूंजता है, अगर हम छोड़ दें तो यह चला जाता है। फिर भी हम होते हैं, लेकिन बहुत दूसरे अर्थों में। फिर हम ‘मैं’ होने के अर्थों में नहीं होते। फिर भी हम होंगे। नसरुद्दीन भी था, कोई हाथ-पैर ठंडे होने से मर नहीं गया था। और मजा तो यह है कि नसरुद्दीन ही नहीं मरा, हाथ-पैर ठंडे होने से कोई कभी नहीं मरा। जिनको आप अरथी में जला भी आए हैं, वे भी नहीं मरे। मरता तो कोई नहीं है। वे अगर अरथी में उसको जला भी आते तो भी कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं था। जो जल जाता है वह हमारा होना नहीं है। जो जलने के पीछे भी बच जाता है वही हम हैं।
लेकिन उसका हमें पता तब चलता है जब यह मैं का भाव छूट जाए। क्योंकि हमने इस मैं के भाव को इस शरीर से, मन से, विचार से, अहंकार से जोड़ा हुआ है कि यही मैं हूं। यह सब मिटने वाला है, यह सब मिट ही जाएगा। यह इसके पहले कि अपने आप मिटे, अगर किसी ने इसको मिटते हुए देख लिया, तो वह परम शांति को उपलब्ध हो जाता है।
तो दूसरा सूत्र है: मिटने का, न होने का, नथिंगनेस का भाव।
वह भी हम पांच मिनट के लिए प्रयोग करेंगे ताकि ख्याल में आ जाए। और एक दफे ख्याल में आ जाए तो आप फिर दूसरे ढंग से जीना शुरू कर देते हैं। नसरुद्दीन को फिर कोई गाली देता था तो वह कहता, अच्छा तुम उस नसरुद्दीन को गाली दे रहे हो जो मर गया? अगर होता, बेटे, तो तुम्हें मजा चखा देता। लेकिन अब वह है ही नहीं। नसरुद्दीन अपने रास्ते पर चला जाता।
लोग कहते, तेरा दिमाग तो खराब नहीं हो गया? हम तुझे गाली दे रहे हैं।
वह कहता कि सुना मैंने, लेकिन तुम उस नसरुद्दीन को गाली दे रहे हो जो मर चुका।
निश्चित ही, अब इस आदमी को गाली नहीं दी जा सकती। क्योंकि गाली पकड़ने वाला ‘मैं’ था, वह अब नहीं है। असल में गाली देने से कुछ भी नहीं होता, गाली पकड़ना आना चाहिए। अगर मैं आपको गाली भी दे दूं, आप न पकड़ें तो बेकार चली जाए। सवाल तो पकड़ने का है। और अगर मैं न भी दूं और आप पकड़ने में कुशल हों, तो मेरी आंख देख कर पकड़ लें, मेरी चाल देख कर पकड़ लें कि यह आदमी कुछ गाली देता मालूम पड़ रहा है! पकड़ने में कुशल हो आदमी तो जहां गाली नहीं दी जा रही वहां भी पकड़ सकता है और पकड़ना भूल जाए तो जहां दी जा रही है वहां भी नहीं पकड़ सकता। फिर क्या करेगा?
तो नसरुद्दीन हंसता रहता। वह कहता कि मरे हुए को गाली देते हो जो आदमी नहीं रहा! अरे कुछ तो शर्म खाओ कि जो आदमी रहा ही नहीं उसको क्या गाली देते हो! फिर नसरुद्दीन दुखी न हुआ। क्योंकि दुखी होने वाला ही मर गया। हमारे भीतर दुखी होने वाला एक सूत्र है, वह मैं है। वह दुखी होता चला जाता है।
तो आंख बंद कर लें..बंद कर लें नहीं, बल्कि बंद हो जाने दें..शरीर को फिर ढीला छोड़ दें और दूसरे सूत्र को समझने की कोशिश करें। नसरुद्दीन बन जाएं। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें...शरीर को ढीला छोड़ दें, आंख बंद कर लें...बिल्कुल ढीला छोड़ दें, कोई काम करने नहीं जा रहे हैं, हम मरने जा रहे हैं...बिल्कुल ढीला छोड़ दें, जैसे शरीर है ही नहीं...आंख बंद है, शरीर ढीला छोड़ दिया...झुके, झुके; गिरे, गिरे; लेटे, लेटे...छोड़ दें बिल्कुल ढीला...
अब एक दूसरा चित्र देखें: मरघट पर खड़े हैं; खड़े नहीं, लेटे हैं, अरथी में बंधे हैं। बहुत बार मरघट गए होंगे दूसरे को पहुंचाने, कभी-कभी अपने को पहुंचाने भी जाना अच्छा है। इस बार अपने को ही पहुंचाने आ गए हैं। मरघट है, मित्र-प्रियजन, सारे पहचान, जान-पहचान के लोग चारों तरफ घेरे खड़े हैं। अरथी रखी है, आप ही बंधे हैं, कोई और नहीं। मन तो कहेगा किसी दूसरे को देख लो। नहीं लेकिन, आप ही बंधे हैं, कोई दूसरा नहीं। इस अरथी पर कोई और नहीं बंधा, आप ही बंधे हैं। इस चेहरे को ठीक से पहचान लें, आईने में बहुत बार देखा है, वही चेहरा है। अरथी पर आप ही हैं। मैं ही हूं अरथी पर, ठीक से पहचान लें। अरथी पर बंधा हूं।
यह ख्याल भी कि मैं अरथी पर बंधा हूं, भीतर बहुत शांति ले आएगा। यह ख्याल भी कि अरथी पड़ी है मेरी ही, सब कुछ बदल जाएगा। अरथी को उन्होंने चिता पर चढ़ा दिया है, लकड़ियों के ढेर पर रख दिया है, अब वे आग लगा रहे हैं। आग लग गई है। देखें: अंधेरी रात, आग लग गई है, लपटें आकाश की तरफ भाग रही हैं, चिता जल रही है, धुआं फैल रहा है...लकड़ियां ही नहीं जल रही हैं, मैं भी जल रहा हूं...देखें, मैं भी जल रहा हूं...और मित्र-प्रियजन दूर हट गए, लपटें बहुत गरम हैं, अरथी जोर से जल रही है, थोड़ी देर में सब राख हो जाएगा...लपटें आकाश की तरफ भाग रही हैं और मैं जल रहा हूं, मिट रहा हूं...एक ही भाव मन में रह जाए..मैं मिट रहा हूं, मैं मिट रहा हूं, मैं समाप्त होता जा रहा हूं...और जैसे-जैसे लपटें बढ़ेंगी, राख होता जाएगा शरीर, वैसे-वैसे भीतर अपूर्व शांति आ जाएगी, सन्नाटा आ जाएगा। अब मिट ही गए तो अशांति कैसी?
पांच मिनट के लिए देखते रहें: मिट रहा हूं, मित्र जा चुके, मरघट पर सन्नाटा छा गया, लपटें जलती जा रही हैं...थोड़ी देर में सब राख हो जाएगा... सब राख होता जा रहा है...मैं मिट रहा हूं, मैं मिट रहा हूं...छोड़ दें अपने को, बिल्कुल मिट जाएं...जो मिटने वाला है वह मिट जाएगा, जो नहीं मिटने वाला है वह पार खड़ा होकर देखता रहेगा, अपने को ही मिटते और जलते देखता रहेगा...जो मिटता है उसे मिट जाने दें, जो नहीं मिटता है वह मिटेगा ही नहीं...
सब मिट रहा है, मैं मिट रहा हूं, मैं मिट रहा हूं...मन शांत और हलका होता जाएगा...मैं मिट रहा हूं, मैं मिट रहा हूं...मैं बिल्कुल मिट गया हूं...मैं मिट गया हूं...शांत, सब शांत हो गया है, लपटें भी बुझने लगीं, राख और अंगारों का ढेर रह गया है...मैं मिट गया हूं...मैं मिट गया हूं...मैं मिट गया हूं...मरघट पर सन्नाटा है, अंधेरा घना हो गया, अंगारे बुझते जा रहे हैं, बस राख का एक ढेर रह गया...इस ढेर को ठीक से देख लें, इसे ठीक से पहचान लें, इसकी पहचान बड़ी कीमती है...राख का ढेर रह गया, मैं बिल्कुल मिट गया हूं...मैं मिट गया हूं...मैं मिट गया हूं...और देखें, कैसी शांति, कैसा सन्नाटा भीतर घेर लेता है...
मैं मिट गया हूं...मैं मिट गया हूं...मैं मिट गया हूं...मैं मिट गया हूं... सब मिट गया...मैं मिट गया हूं...मैं मिट गया हूं...मैं बिल्कुल मिट गया हूं...मन शांत हो गया है, मन बिल्कुल हलका हो गया है, कोई बोझ नहीं, कोई भार नहीं, कोई तनाव नहीं। मैं मिट ही गया हूं..कैसा बोझ? कैसा तनाव? कैसी अशांति? मैं बिल्कुल मिट गया हूं...
मैं मिट गया हूं...मैं मिट गया हूं...एक ही भाव रह जाए..मैं मिट गया हूं...मैं मिट गया हूं...मैं मिट गया हूं...मैं नहीं हूं...मैं नहीं हूं...मैं नहीं हूं... इस भाव को ठीक से पहचान लें, ध्यान के मंदिर में प्रवेश की अनिवार्य सीढ़ी है। मैं रहते कोई ध्यान में प्रवेश नहीं कर सकता। मैं मिट गया हूं...मैं नहीं हूं... इस भाव को ठीक से पहचान लें...मैं नहीं हूं...मन बिल्कुल शांत हो गया...
फिर धीरे-धीरे आंख खोल लें। तीसरे प्रयोग को समझें और उसे करके देखें। मैं नहीं हूं, यह भाव जितना गहरा हो जाए उतनी वह परिस्थिति पैदा हो जाती है जिसमें ध्यान उतर सकता है। मैं के अतिरिक्त शायद और कोई पत्थर नहीं है जो उसे आने से रोकता हो। मैं नहीं हूं, यह दरवाजा खुल जाता है, खाली जगह पैदा हो जाती है, स्पेस बन जाती है जहां से ध्यान आ सके।

अब तीसरा सूत्र है, तीसरा सूत्र सर्व-स्वीकृति का है, टोटल एक्सेप्टेंस का है।
जीवन में हमारे बड़े अस्वीकार हैं। जीवन हमारा पूरा रेसिस्टेंस है। और हमें पता नहीं है कि रेसिस्टेंस से, प्रतिरोध से, अस्वीकार से हमने बड़ी अशांतियां इकट्ठी कर ली हैं।
मैं एक छोटे से रेस्ट हाउस में मेहमान था। उस प्रदेश के चीफ मिनिस्टर भी वहां ठहरे थे उस रात। रात मैं भी कोई साढ़े दस बजे लौटा, वे भी कोई पौने ग्यारह बजे लौटे। छोटा सा गांव है, छोटा सा रेस्ट हाउस है। पता नहीं क्यों, कोई दस-पंद्रह कुत्ते उस रेस्ट हाउस के आस-पास इकट्ठे हैं, लड़ रहे हैं, झगड़ रहे हैं। मैं तो सो गया, वे चीफ मिनिस्टर थोड़ी देर बाद मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि आपको सोया देख कर मुझे बड़ी ईष्र्या मालूम होती है। मैं इन कुत्तों को कई बार भगा आया, लेकिन ये हैं कि वापस लौट आते हैं। इतना शोर कर रहे हैं कि सोना कैसे संभव हो सकता है!
मैंने उनसे कहा, कुत्तों को पता भी नहीं होगा कि आप यहां मेहमान हैं। अखबार नहीं पढ़ते, रेडियो नहीं सुनते। कुत्तों को क्या खबर होगी कि चीफ मिनिस्टर यहां ठहरा है। उनको क्या मतलब आपको परेशान करने से! उनको ख्याल भी न होगा कि आपकी नींद को नुकसान पहुंचाना है। कुछ पिछले जन्मों के संबंध हों, तब तो बात अलग। बाकी इस जन्म का तो कोई संबंध दिखाई नहीं पड़ता कि वे आपको परेशान करने आएं। आप सो जाएं, उन्हें भौंकने दें।
उन्होंने कहा, यह कैसे हो सकता है? कुत्ते भौंकते रहें और मैं सो जाऊं!
मैंने उनसे कहा, कुत्तों के भौंकने से कोई बाधा नहीं पड़ती, कोई डिस्टरबेंस नहीं होता। लेकिन कुत्ते नहीं भौंकना चाहिए, इस भाव से बाधा पड़ती है। मैंने कहा, एक प्रयोग करके देखें। कुत्ते तो भागेंगे नहीं, कुत्तों को आप भगा आएंगे, लौट आएंगे। यह कब तक करेंगे रात भर? मेरी बात मानें, सो जाएं बिस्तर पर और कुत्तों के भौंकने को स्वीकार कर लें। स्वीकार कर लें कि कुत्ते भौंकते हैं, सुनें चुपचाप, राजी हो जाएं कि कुत्ते भौंकते हैं और मैं सोता हूं। इन दोनों में विरोध न बनाएं। कुत्तों के भौंकने में, आपके सोने में विरोध है भी नहीं। कुत्तों को भौंकने दें, आप स्वीकार कर लें। कुत्तों की आवाज गूंजेगी आपके भीतर और चली जाएगी। आप चुपचाप सुनते रहें, विरोध न करें, इनकार न करें, कुत्ते नहीं भौंकना चाहिए ऐसा भाव न करें।
उन्होंने कहा, इससे क्या होगा? कुत्ते भौंकते रहेंगे। मेरे इस भाव से कुत्ते कैसे रुकेंगे?
मैंने कहा, कुत्ते नहीं रुकेंगे, आप रुक जाएंगे।
कोई रास्ता न था। एक-दो बार उन्होंने और भगाए कुत्ते, लेकिन वे वापस लौट आए। फिर मेरी बात मानने के सिवाय कोई उपाय न देख कर वे बिस्तर पर लेट गए। पता नहीं कब सो गए।
सुबह कोई छह बजे मुझे उन्होंने उठाया और उन्होंने कहा, आश्चर्यजनक है यह बात! मैं लेट गया और मैंने स्वीकार कर लिया कि ठीक है, कुत्ते भौंकते हैं, मेरा कोई विरोध नहीं। मैं कुत्तों के भौंकने को भी शांति से सुनता रहा। पता नहीं कब नींद लग गई। और न केवल नींद लगी बल्कि बरसों बाद इतना गहरा मैं सोया हूं।
क्योंकि नींद अविरोध में, नॅान-रेसिस्टेंस में जब आ जाए तो बहुत गहरी हो जाती है। ध्यान में नॅान-रेसिस्टेंस, अविरोध बड़ी गहरी जरूरत है। आमतौर से कोई आदमी ध्यान करने बैठे तो बहुत परेशान हो जाता है..कहीं कुत्ते भौंकते हैं, कहीं कौवे आवाज करते हैं, कहीं बच्चा रोता है, कहीं घर में बर्तन गिर जाता है। एक घर में एक आदमी पूजा, प्रार्थना, ध्यान करने लगे तो पूरे घर को परेशान करने लगता है। और वह आदमी ध्यान करने जितना अशांत गया था, उससे ज्यादा अशांत ध्यान करने के बाद ध्यान के कमरे के बाहर निकलता है क्योंकि सारी दुनिया से लड़ाई ले रहा था वह।
अब सारी दुनिया आपके ध्यान के लिए रुकेगी? कोई प्रयोजन भी नहीं है। दुनिया चलती रहेगी, रास्ते पर कारें गुजरेंगी, हॅार्न बजेगा, कोई आवाज करेगा, कोई बात करेगा, आपके ध्यान से किसी को क्या लेना-देना है!
नहीं लेकिन, ध्यान की यह वृत्ति ही गलत है कि यह सब बंद हो जाए। डिस्टरबेंस न हो, इससे बड़ा और कोई डिस्टरबेंस नहीं है..यह ख्याल कि डिस्टरबेंस न हो। यह दुनिया चलती रहेगी। इसमें बुद्ध पैदा हों, महावीर पैदा हों, कृष्ण, क्राइस्ट पैदा हों, दुनिया चलती रहेगी। अगर कृष्ण को कृष्ण बनना है तो यह दुनिया जैसी है इसको ऐसा ही स्वीकार करके बनना होगा। अगर बुद्ध को शांत होना है तो ये सारे कुत्ते भौंकते रहेंगे, कौवे आवाज करते रहेंगे, इनको मान कर ही शांत होना पड़ेगा। अगर किसी बुद्ध ने यह चाहा कि सब चुप हो जाएं तब मैं चुप होऊंगा, तो यह चुप होना असंभव है, यह किसी जन्म में संभव नहीं हो पाएगा।
तो ध्यान के लिए सबसे बड़ी बाधा हमारी अपेक्षाएं हैं कि यह न हो, यह न हो, यह न हो, तब ध्यान हो पाएगा। आपकी कोई अपेक्षा पूरी नहीं होगी। असल में अपेक्षा छोड़ कर ध्यान में जाना पड़ेगा। पर बहुत अदभुत रस है जब हम स्वीकार करते जाते हैं।
तो पांच मिनट के लिए हम यह तीसरा प्रयोग करेंगे। अब सड़क पर आवाजें हैं, पक्षी आवाज कर रहे हैं, इस सबको हम सुनेंगे और स्वीकार करेंगे। मित्र-भाव से इसको भीतर जाने देंगे। इसके प्रति कोई विरोध बीच में नहीं रह जाएगा। हम इनकार नहीं करते। अब वह कौआ आकर आवाज करेगा, वह गूंजेगी आवाज, वह चली जाएगी। और बड़े मजे की बात है कि जैसे रास्ते पर आप जा रहे हों, अंधेरी रात हो और कार आ जाए, तो कार की रोशनी आंख में पड़ती है, फिर कार निकल जाती है, अंधेरा और घना और गहरा हो जाता है। अगर आपने स्वीकार कर ली कौवे की आवाज, सड़क पर बजता हुआ हॅार्न, तो आप हैरान होंगे यह बात जान कर कि हॅार्न बजेगा और बंद हो जाएगा और आप जितनी शांति में हॅार्न बजने के पहले थे उससे ज्यादा गहरी शांति में प्रवेश कर जाएंगे। वह जो स्वीकार है वह गहरे में ले जाता है।
आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें, बंद हो जाने दें, और बिल्कुल ढीला छोड़ दें। शरीर से भी क्या दुश्मनी! उसको ढीला छोड़ दें। झुकेगी गर्दन, झुक जाएगी; गिरेगा शरीर, गिर जाएगा। छोड़ दें बिल्कुल ढीला, रिलैक्स कर दें। और अब पांच मिनट के लिए एक भाव में डूब जाएं.. सब स्वीकार है।
देखें, स्वीकार करते ही छोटी-छोटी चिड़ियों की आवाज सुनाई पड़ने लगेगी, जो अभी तक सुनाई नहीं पड़ रही थी। जरा-जरा सी आवाज सड़क से आने लगेगी, पक्षियों की टीवी-टुटटुट सुनाई पड़ने लगेगी। चारों तरफ एक जगत है, वह सब वाणी परमात्मा की, वे सब आवाजें परमात्मा की, मैं विरोध करने वाला कौन? स्वीकार कर लें, सब स्वीकार कर लें...
स्वीकार...स्वीकार...एक ही भाव मन में रह जाए..सब मुझे स्वीकार है। कोई विरोध नहीं, कोई विरोध नहीं, सब मुझे स्वीकार है। और तब सब तरफ से शांति भीतर आने लगेगी, तब चारों तरफ से शांति भीतर प्रवेश करने लगेगी। अब पांच मिनट के लिए मैं चुप हो जाता हूं। स्वीकार कर लें, सुनते रहें, जानते रहें, पक्षी आवाज कर रहे हैं, सड़क पर कोई शोर है, रास्ते से कोई गुजरा है, आवाज है, स्वीकार कर लें...और मन एकदम गहरी शांति में छलांग लगा जाएगा...स्वीकार कर लें...देखें, पक्षी की आवाज बहुत प्यारी है...
एक पांच मिनट के लिए स्वीकार में डूब जाएं, यह ध्यान की बहुत गहरी से गहरी जरूरत है...सब स्वीकार है, सब स्वीकार है...श्वास-श्वास में एक ही भाव रह जाए..सब स्वीकार है। मैं राजी हूं...जैसा है, जो है, राजी हूं...सब सुंदर है, सब स्वीकार है...सब स्वीकार है, सब स्वीकार है...और मन गहरा शांत हो जाएगा...सब स्वीकार है, फिर कैसी अशांति? सब स्वीकार है, फिर कोई बाधा नहीं, फिर मन अपने आप शांत हो जाता है...
सब स्वीकार है...छोड़ दें, छोड़ दें, बिल्कुल डूब जाएं, कोई विरोध नहीं, सब स्वीकार है...जैसा है, सुंदर है...जैसा है, राजी हूं...जो है, राजी हूं...पक्षी आवाज करते हैं, सूरज की गरम किरणें सिर पर पड़ती हैं, मैं राजी हूं...जो भी है, मैं राजी हूं, परमात्मा के सब कुछ से मैं राजी हूं...और राजी होने का ख्याल ही सब शांत कर जाता है...
मैं राजी हूं, मैं राजी हूं, मैं राजी हूं, मैं राजी हूं...सब स्वीकार है, सब स्वीकार है, सब स्वीकार है...मन बिल्कुल शांत हो गया...मन शांत हो गया... अब कोई बाधा न रही, मन शांत हो गया...मन शांत हो गया है, इस भाव को ठीक से पहचान लें, यह ध्यान की अनिवार्य सीढ़ी है, मन शांत हो गया है... सब स्वीकार है, सब स्वीकार है, सब स्वीकार है...मन एकदम शून्य में चला गया है...सब स्वीकार है, सब स्वीकार है...
इस भाव को ठीक से पहचान लें, फिर धीरे-धीरे आंख खोलें, फिर हम अंतिम प्रयोग के लिए बैठेंगे...धीरे-धीरे आंख खोल लें...मन बिल्कुल शांत हो गया है...
ये तीन सूत्र हैं जो परिस्थिति को बनाते हैं, जहां ध्यान उतर सकता है। ये सूत्र जिस दिन पूरे हो जाएं उसी दिन ट्यूनिंग हो जाती है। उसी दिन हम उस अनंत से जुड़ जाते हैं। जुड़े सदा हैं, जैसे कि रेडियो है और सदा ही सारी दुनिया के रेडियो स्टेशंस जो कह रहे हैं वह उसके करीब से गुजर रहा है, लेकिन फिर भी ट्यूनिंग चाहिए, आपके रेडियो को ठीक उस बिंदु पर केंद्रित होना चाहिए जहां से कुछ पकड़ा जा सके।
ध्यान सिर्फ ट्यूनिंग है, अनंत की चारों तरफ सब क्षणों में वर्षा हो रही है, परमात्मा चारों तरफ सब तरफ से गुजर रहा है। जीवन हर घड़ी सब तरफ मौजूद है। लेकिन हम किसी बिंदु पर उससे पूरी तरह जुड़ जाएं तो उसका हमें पूरा पता चल जाए। अन्यथा हम अनजान रह जाते हैं।
ये तीन सूत्र ख्याल में लेंगे और इन तीनों सूत्रों पर थोड़ा प्रयोग करते रहेंगे। रात सोते समय तीनों का प्रयोग करें और करते-करते सो जाएं। धीरे-धीरे पूरी नींद ध्यान में बदल जाती है। अब इन तीनों का हम इकट्ठा प्रयोग करेंगे दस मिनट के लिए और फिर विदा हो जाएंगे। इन तीनों का इकट्ठा प्रयोग करेंगे एक साथ।
शरीर को ढीला छोड़ दें। किसी को लेटने जैसा लगता हो तो वह लेट जा सकता है, क्योंकि ढीला छोड़ना बहुत आसान हो जाता है। रात को तो जब आप करें, बिस्तर पर लेट कर ही करें। शरीर को बिल्कुल ढीला छोड़ दें, आंख बंद कर लें। हां, किसी को भी लेटना है तो बिल्कुल लेट जाएं, उसमें दूसरे की चिंता न करें। किसी को फिक्र नहीं है कि आप लेट गए हैं। किसी को मतलब भी नहीं है। आप लेटें, बैठें, जैसा आपको लगे कर लें। पूरी तरह छोड़ देना है दस मिनट के लिए, तीनों प्रयोग एक साथ कर लेने हैं।
शरीर को ढीला छोड़ दें, आंख बंद कर लें...शरीर को ढीला छोड़ दें, बिल्कुल ढीला छोड़ दें...शरीर को छोड़ दें...बिल्कुल ढीलेपन में बह जाएं जैसे नदी में बह गए थे...एक दो मिनट तक मैं सुझाव देता हूं, उनको अनुभव करें और शरीर को ढीला छोड़ते जाएं।
शरीर शिथिल हो रहा है, रिलैक्स हो रहा है...छोड़ दें बिल्कुल ढीला... शरीर शिथिल हो रहा है, शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ दें, शरीर शिथिल हो रहा है...झुके, झुक जाए...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...छा.ेड़ दें, शरीर को बिल्कुल शिथिल हो जाने दें, जैसे नदी में बह गए थे, ऐसा छोड़ दें, बह जाएं...शरीर शिथिल हो रहा है, शरीर शिथिल हो रहा है, शरीर बिल्कुल शिथिल हो गया...
श्वास को भी ढीला छोड़ दें, श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...रोकना नहीं है, ढीला छोड़ दें...अपने आप जितनी आए आए, जाए जाए...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास बिल्कुल शांत चलने लगी है...श्वास शांत हो रही है...छोड़ दें बिल्कुल ढीला...श्वास शांत हो रही है...जैसे मर ही गए थे, जैसे मिट ही गए थे, जैसे चिता पर जल गए थे, ऐसा बिल्कुल छोड़ दें, जैसे राख के ढेर हो गए, हैं ही नहीं, मिट ही गए...श्वास शांत हो गई है...श्वास शांत हो गई है...
और अब सर्व-स्वीकार के भाव में दस मिनट के लिए डूब जाएं, जो भी है स्वीकार है, जो भी है स्वीकार है, जो भी है स्वीकार है...और इस स्वीकृति के द्वार से बहुत कुछ आएगा, सब स्वीकार कर लें, जो भी है स्वीकार है... स्वीकार करके जानते रहें, सुनते रहें, जो भी है स्वीकार है...भीतर से सब विरोध छोड़ दें, दस मिनट के लिए इस सारे जगत के साथ एक हो जाएं... आवाजें भी हमारी हैं, सड़क पर शोरगुल भी हमारा है, हवाएं भी हमारी हैं, सूरज की किरणें भी हमारी हैं, सब हमारा है, इसके साथ एक हो जाएं...
सब स्वीकार है...मैं सिर्फ जानने वाला रह गया हूं, साक्षी मात्र रह गया हूं, सब जान रहा हूं, सब पहचान रहा हूं, लेकिन सब स्वीकार है, कोई विरोध नहीं है...मैं सिर्फ जानने वाला हूं, देख रहा हूं, पहचान रहा हूं, साक्षी रह गया हूं... और मन एकदम शांति के गहरे, गहरे से गहरे में उतर जाएगा, मन बिल्कुल शांत हो जाएगा...मन शांत हो गया है, मन शांत हो गया है, मन शांत हो गया है...छोड़ दें, बिल्कुल छोड़ दें, सब स्वीकार कर लिया, सब स्वीकार है...मन बिल्कुल शांत हो गया...एक अनूठी शांति का भीतर दीया जलने लगेगा, जैसी शांति कभी नहीं जानी वैसी भीतर पैदा होने लगेगी, रोएं-रोएं में, श्वास-श्वास में एक नई ही शांति छा जाएगी...सब स्वीकार है...सब स्वीकार है...
मन बिल्कुल शांत हो गया है...सन्नाटा हो गया है, भीतर शून्य छा गया है...एक बिल्कुल ही नया अनुभव होने लगेगा जैसा कभी नहीं हुआ, सब शांत हो गया है...इस शांति में ही कभी ध्यान उतर आता है, इस शांति में ही कभी परमात्मा निकट आ जाता है...सब शांत हो गया है, सब शांत हो गया है...सब स्वीकार है, मैं सिर्फ जानने वाला साक्षी मात्र रह गया हूं, जस्ट ए विटनेस...सब स्वीकार है...कोई विरोध नहीं, कोई विरोध नहीं, मैं सबके लिए राजी हूं, जो है, जैसा है, सुंदर है...मन बिल्कुल शांत हो गया है...मन बिल्कुल कोरा हो गया है...मन बिल्कुल हलका ताजा हो गया है...सब स्वीकार है...सब स्वीकार है...श्वास-श्वास में, रोएं-रोएं में एक ही भाव रह जाए, सब स्वीकार है... सब स्वीकार है...और मन बिल्कुल शांत, गहरी से गहरी शांति में उतर जाता है, उतर गया है...
इस शांति को ठीक से पहचान लें, रोज रात सोते समय इसका प्रयोग करते-करते ही सो जाएं, पता नहीं कब उसका आगमन हो, प्रतीक्षा करनी पड़ती है, धैर्य से राह देखनी पड़ती है।
अब धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें, प्रत्येक श्वास बहुत आनंददायी मालूम होगी। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें, प्रत्येक श्वास बहुत शांतिदायी मालूम होगी। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें, फिर उतने ही धीरे-धीरे आंख खोलें, जो भीतर है वही बाहर भी है। धीरे-धीरे आंख खोलें, शांत मन को बाहर भी कुछ और ही दिखाई पड़ता है। धीरे-धीरे आंख खोलें, जो भीतर है वही बाहर भी है। भीतर भी शांति है, बाहर भी शांति है। भीतर भी परमात्मा है, बाहर भी परमात्मा है।
इस संबंध में, ध्यान के संबंध में कोई भी प्रश्न, जिज्ञासाएं हों, तो कल सुबह लिख कर आप दे देंगे। यहां तो तीन दिन हम जो प्रयोग करेंगे, वह आपकी समझ में आ जाए, इसी ख्याल से कर रहे हैं। लेकिन यह नहीं सोचेंगे कि यह यहां तीन दिन कर लिया तो बात समाप्त हो गई। यहां तो सिर्फ हम समझ पाएं कि क्या करने जैसा है, फिर उसे जारी रखें, रात सोते समय दस-पंद्रह मिनट उसे करते-करते सो जाएं। एक तीन-चार महीने में ही अनुभव होना शुरू होगा कि रात बदल गई, सुबह दूसरा आदमी उठने लगा, दिन में दूसरा आदमी जीने लगा। लेकिन थोड़ी प्रतीक्षा और धीरज की जरूरत है।
हमारी सुबह की बैठक पूरी हुई।  

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