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रविवार, 26 अगस्त 2018

गूंगे केरी सरकरा-(प्रवचन-10)

दसवां-प्रवचन-(संन्यास परम सुहाग है)

दिनांक  20-01-1975, ओशो आश्रम पूना।

सूत्र:

डगमग छाड़ि दे मन बौरा।
अब तो जरें बनें बनि आवै, लीह्नों हाथ सिंधौरा।।
होई निसंक मगन ह्वै नाचै, लोभ मोह भ्रम छाड़ौ।
सूरो कहा मरन थें डरपै, सती न संचै भाड़ौ।।
लोक वेद कुल की मरजादा, इहै गलै मै पासी।
आधा चलि करि पीछा फिरिहैं, ह्वै ह्वै जग में हासी।।
यह संसार सकल है मैला, राम कहैं ते सूचा।
कहै कबीर नाव नहिं छाड़ौ, गिरत परत चढ़ि ऊंचा।।
कबीर के वचनों के पूर्व कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
पहली बात..
मन न तो बीमार होता है और न तो स्वस्थ, चूंकि मन ही बीमारी है। मन कभी शांत नहीं होता। और, इसीलिए यह कहना भी व्यर्थ हैं कि मन कभी अशांत होता है। अशांति ही मन है।

मन कभी पागल नहीं होता, क्योंकि पागल तो वही हो सकता है जो पागल न हो। मन तो पागलपन है। मन तो डगमग होता ही रहेगा, क्योंकि मन का स्वभाव डगमगाहट है। लहर कंपेगी न, तो लहर ही न रह जाएगी; कंपती है, इसीलिए तो लहर है।
शांत लहर का क्या अर्थ होगा? अशांति में ही लहर का अस्तित्व है।
कभी इस तरह मत सोचना कि मन कैसे शांत हो जाए; मन कभी शांत नहीं होता। जब तक मन रहता है, अशांति रहती है। मन जब नहीं हो जाता है तब जो शेष रह जाता है, वही शांति है। मन का अभाव शांति है।
मन तो डगमगाता रहेगा, सदा अनिश्चित रहेगा। अगर तुमने मन के निर्णय की प्रतीक्षा की कि जब मन निर्णय करेगा तब मैं कुछ करूंगा तो तुम कुछ कर ही न पाओगे। अनिर्णीत होना मन का ढंग है। मन सदा आधा-आधा रहेगा; कुछ खंड पक्ष में होंगे, कुछ खंड विपक्ष में होंगे, क्योंकि मन के भीतर एक अंतरकलह है, एक संघर्ष है, एक द्वंद्व है। वह द्वंद्व क्या है? उस द्वंद्व का आधार समझ लेना जरूरी है।
तुम्हारे भीतर तीन घटनाएं हैं। एक तो तुम्हारा शरीर है। वह सत्य है। पदार्थ की वास्तविक सत्ता है। फिर तुम्हारे भीतर तुम्हारे चैतन्य की धारा है..तुम्हारी आत्मा है। वह भी सत्य है। उन दोनों के मध्य में मन है जो कि असत्य है। मन थोड़ा शरीर है, थोड़ी आत्मा है; मन दोनों के बीच पैदा हुआ संयोग है। इसलिए मन कभी पूरा तो एक पक्ष में हो ही नहीं सकता। उसके होने का ढंग आधा-आधा है। आधा वह शरीर के पक्ष में होगा, आधा आत्मा के पक्ष में होगा। वह दोनों से मिल के बना है। इसलिए पूरा मन शरीर के पक्ष में नहीं होता।
पापी के मन में भी संत होने की कामना उठती रहती है। बड़े से बड़े पापी के मन में भी पुण्य की वासना छिपी रहती है। बुरे से बुरा काम भी करने जाओगे, जन्मों-जन्मों से बुरा काम कर रहे होओगे तो भी मन आवा.ज देता रहेगा, मत करो, बुरा है। चोर चोरी को जाता है, मन कहता है, रुको, मत करो, बुरा है। क्योंकि, मन अगर शरीर ही होता तो कुछ भी बुरा न था। शरीर के तल पर न कुछ बुरा है, न कुछ भला है; न कोई पुण्य है, न कुछ पाप है। अगर मन सिर्फ आत्मा ही होता, तो भी न कुछ पुण्य है न पाप है। ज्ञानी के लिए दोनों मिट जाते हैं; अज्ञानी के लिए दोनों नहीं हैं। अज्ञानी में दोनों के होने की संभावना नहीं है। ज्ञानी वहां पहुंच गया है जहां दोनों पीछे छूट जाते हैं।
और, जब तुम प्रार्थना करोगे, पूजा करोगे, तब भी मन कहेगा, क्यों समय गंवा रहे हो? यही मन चोरी करते वक्त कहता है, क्या पाप कर रहे हो? यही मन दान करने वक्त कहता है, क्यों फिजूल लुटा रहे हो? तब तुम बड़ी दुविधा में पड़ जाते हो कि मन चाहता क्या है?
जब तुम पुण्य करते हो तब मन का आधा हिस्सा तो प्रसन्न होता है जो आत्मा से जुड़ा है और मन का आधा हिस्सा अप्रसन्न होता है जो शरीर से जुड़ा है। जब तुम पाप करते हो तो मन का आधा हिस्सा तो प्रसन्न होता है जो शरीर से जुड़ा है, आधा हिस्सा अप्रसन्न होता है जो आत्मा से जुड़ा है।
मन सेतु की भांति है; एक किनारा आत्मा है, एक किनारा शरीर है; दोनों को जोड़ने वाला सेतु है, आधा-आधा दोनों के तरफ है। इसलिए अड़चन सदा रहेगी।
अगर मन की मान के चले तो तुम डगमगाते ही रहोगे। तुम जो भी करोगे मन पछताएगा। अच्छा करोगे तो पछताएगा, बुरा करोगे तो पछताएगा। और तब तुम बड़ी बिगूचन में और विक्षिप्तता में पड़ जाओगे कि करें क्या? कभी जोश में आ जाओगे तो एक तरफ झुक जाओगे। कभी जोश खो जाएगा, दूसरी तरफ झुक जाओगे, और इन दोनों के बीच में, जैसे दो चक्की के पाट के बीच पत्थर भी पिस जाते हैं, ऐसे तुम पिस जाओगे। कबीर ने कहा हैः ‘दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय।’ वे दो पाट तुम्हारे भीतर हैं, तुम्हीं हो वह चक्की। कबीर कहते हैंः ‘चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोय।’ और वह चक्की सब तरफ चल रही है। अगर तुम थोड़ी-सी भी समझ को जगाओगे तो अपने भीतरा उस चलती हुई चक्की को देख पाओगे, और देखोगे अपने को फिरते हुए।
दोनों पाटों को जोड़ने वाला मन है। मन के कारण ही लगता है, मैं शरीर हूं और मन के कारण ही ये विचार भी चलते हैं कि मैं आत्मा हूं। और जब मन गिर जाता है तो यह भ्रांति तो टूट ही जाती है कि मैं शरीर हूं, यह विचार भी विसर्जित हो जाता है धुएं की भांति कि मैं आत्मा हूं..कहने वाला ही नहीं बचता। तुम बचते हो, आत्मा बचती है, तुम्हारा परम स्वभाव बचता है; लेकिन कहने वाला नहीं बचता।
और कहना क्या? जब शरीर ही न रहा तो आत्मा किसको कहना? क्योंकि, आत्मा तो हम उसी को कहते थे जो शरीर के विपरीत है। तब सन्नाटा हो जाता है, तब शून्य हो जाता है। तब परम मगनता का उदय होता है।
तो पहली तो यह बात समझ लो कि मन कभी भी अखंड नहीं हो सकता, खंडित ही रहेगा। और अगर तुमने तय किया कि मन की पूरी स्वीकृति ले के कुछ करेंगे, तुम कुछ भी न कर पाओगे..न पाप और न पुण्य, न धर्म और न अधर्म, न संसार और न संन्यास..तुम कुछ भी न कर पाओगे। मन तो बिगूचन में ही खड़ा रहेगा; वह सोचता ही रहेगा।
एक बहुत बड़ा दार्शनिक दूसरे महायुद्ध में सैनिकों की कमी के कारण युद्ध के मैदान पर भेजा गया। वह भरती कर लिया गया। स्वैच्छिक बात न थी; जबरस्ती भरती कर लिया गया। लेकिन दार्शनिक बड़ा था और जिंदगी सोचने-विचारने में ही बिताई थी; कभी कुछ किया न था; सिर्फ सोचा था। सोचने का जगत ही अलग है। सोचो तो मन बिल्कुल राजी रहता है, क्योंकि करते नहीं तो कोई पछतावे का सवाल नहीं है। चाहे पाप सोचो तो भी कोई हर्ज नहीं है, किसी को नुकसान नहीं पहुंचता; चाहे पुण्य सोचो तो भी कोई हर्ज नहीं है, किसी को लाभ नहीं पहुंचता। तुम बैठे रहते हो अपनी जगह। कृत्य के कारण कुछ होता है; सोच के कारण तो कुछ भी नहीं होता। इसलिए दार्शनिक सोचते बहुत हैं; जन्म गंवा देते हैं, करते कभी कुछ नहीं। तुम न तो उन्हें पापियों की कतार में खड़ा पाओगे और न पुण्यात्माओं की कतार में खड़ा पाओगे; तुम उन्हें कतार के बाहर किनारे बैठे देखोगे। वे राह के किनारे हैं; वे चलते नहीं, वे सिर्फ सोचते हैं। और सोचते-सोचते जीवन बीत जाता है, कुछ निर्णय नहीं हो पाता।
यह बड़ा दार्शनिक था। जिस जनरल के हाथ पड़ा वह भी इसे पहचानता था, इसकी किताबें पढ़ी थीं। उसने कहा कि यह क्या कर पाएगा? यह गोली चलाने के पहले हजार बार सोचेगा, इतनी देर में तो दूसरे रुकेंगे नहीं। उसकी शिक्षा शुरू हुई और जब उससे कहा गया, बाएं घूम, दाएं घूम, तो हजारों लोग तो घूम जाते, वह वहीं का वहीं खड़ा है। तो उससे पूछा कि क्या करते हो? उसने कहा, बिना सोचे मैं कुछ कर नहीं सकता। बाएं घूम, तो मैं पूछता हूं क्यों? किसलिए? क्या कारण है? न घूमें तो हर्ज क्या है? घूमें तो लाभ क्या होगा?
अब अगर सैनिक यह पूछे कि बाएं घूम, दाएं घूम..हर्ज क्या है? लाभ क्या है? न घूमें तो क्या होगा? घूमें तो क्या होगा? इतनी देर में तो सारी दुनिया सैनिक की घूम जाती है।
कोई उपाय न देख कर, और दार्शनिक बड़ा प्रसिद्ध था, कोई छोटा-मोटा काम देने को जनरल ने सोचा, तो कहा कि जो फौज का चैका है, वहां तुम काम करने लगो। पहले ही दिन उसे मटर के दाने अलग-अलग करने को दिए कि बड़े दाने अलग कर लो, छोटे दाने अलग कर लो। घंटे भर बाद जब जनरल पहुंचा तो वह आंख बंद किए थाली के पास वैसा ही बैठा था जैसा उसे छोड़ गया था।
दाने वैसे ही रखे थे; न तो अलग किए गए थे, न उसने हाथ हिलाया था। वह बड़ा ध्यानमग्न था। वह विचार कर रहा था। जनरल ने पूछा, तुम क्या कर रहे हो? उसने कहा, एक मुसीबत आ गई है; एक बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है। बड़े एक तरफ कर दें, छोटे एक तरफ कर दें; कुछ मझोेले हैं, उनको कहां करे? और जब तक सब तय न हो जाए, तब तक कुछ करना उचित नहीं है।
मन बड़ा दार्शनिक है। और मन कुछ भी तय नहीं कर पाता। दार्शनिक कभी कुछ तय नहीं कर पाए।
तुम ऐसा समझो, शरीर से जो जुड़ा हुआ शास्त्र है वह विज्ञान; मन से जुड़ा हुआ जो शास्त्र है वह दर्शन; और चेतना से जुड़ा हुआ जो शास्त्र है वह धर्म। विज्ञान भी कुछ कर पाया है, बहुत कर पाया है। धर्म ने भी बहुत किया है। दार्शनिक कुछ भी नहीं कर पाए; वह मन से जुड़ा हुआ तत्त्व है। वे सिर्फ सोचते रहते हैं। वे पक्ष-विपक्ष का हिसाब लगाते रहते हैं और उसका कोई अंत नहीं आता; उस सिलसिले का कोई अंत है ही नहीं। इसीलिए तो हजारों-हजारों साल सोच कर दर्शनशास्त्र किसी निर्णय पर नहीं पहुंचा; एक भी निर्णय नहीं है, प्रश्न ही प्रश्न हैं; हजारों प्रश्न हैं, एक भी उत्तर नहीं है।
मन को राजी करने की चिंता में मत पड़ना, अन्यथा तुम्हारा जीवन खो जाएगा। मन को छोड़ देना। तुम मन से दूर हट जाना, तो ही तुम्हारे जीवन में सार्थकता आएगी। मन से जुड़े-जुड़े तुम नष्ट हो जाओगे।
यह बात पक्की है। इससे अन्यथा हो ही नहीं सकता। क्योंकि अगर तुम समझोगे ठीक से तो मन केवल विचार की प्रक्रिया है; कृत्य का उससे जन्म नहीं होता। सोचता बहुत है..मन सोचता रहता है। कभी-कभी तुम इस भ्रांति में भी पड़ते हो कि मन ने निर्णय लिया। तुम मंदिर में जा के कसम खा लेते हो, व्रत ले लेते हो, संकल्प कर लेते हो कि अब से झूठ न बोलेंगे। और मन अंधेरे कोने में छिपा तुम पर हंस रहा है, क्योंकि यह आधे मन का निर्णय है और आधे मन से तुमने अभी पूछा ही नहीं है। बाजार में जाओगे, दुकान पर बैठोगे, काम की दुनिया में उतरोगे और वह जो आधा मन छिपा है, वह तुम्हें झूठ बोलने में लगाएगा। उसके लिए चुनौती है तुम्हारा व्रत; तुमने उससे पूछा ही नहीं। वह तुम्हारे व्रत को तोड़ कर रहेगा। और तुमने बहुत बार व्रत लिए हैं और बहुत बार तोड़े हैं। और कारण सिर्फ इतना है कि तुम मन से ही व्रत लेते हो। व्रत का जन्म होता है जब तुम मन को छोड़ देते हो।
तो, दो तरह के व्रत हैं। एक व्रत तो है जिसे तुम मन से सोच के लेते हो। किसी साधु को सुना, सतपुरुष को सुना, वाणी मधुर लगी..किसको लगी? वह भी मन को लग रही है। मन का आधा हिस्सा जो आत्मा के निकट है, आत्मा का पड़ोसी है, वह प्रसन्न हो रहा है सुन के; वह आह्लादित हो रहा है; वह इन बातों में पड़ जाएगा; वह जोश-खरोश में आ जाएगा; उत्साह में व्रत ले लेगा। यह व्रत मन से लिया गया है और आधे मन से तुमने पूछा नहीं। वह आधा मन बदला लेगा; वह तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेगा। तुम व्रत ले भी न पाओगे कि वह आधा मन अपना काम का ताना-बाना बुनना शुरू कर देगा कि तुम्हारा व्रत टूटे।
छोटी-छोटी बातें भी बड़ी चुनौतियां बन जाती हैं। किसी ने तय कर लिया कि धूम्रपान न करूंगा, यह भी चुनौती हो जाती है। तुमने तय किया कि आज उपवास करेंगे तो शरीर वाला आधा हिस्सा कहता है, तोड़ के रहेंगे। वह दिन भर तुम्हें भोजन ही भोजन करवाता है; ह.जार सपने खड़े करता है, ह.जार तरह से मन को लुभाता है।
और इससे विपरीत भी सही है। तुमने शरीर की मान के कुछ तय कर लिया तो दूसरा हिस्सा तुम्हें कष्ट में डाले रहेगा। मन पर जो सवार है वह दो नावों पर सवार है और दोनों नावों की दिशा अलग-अलग है। उसके प्राण सदा संकट में रहेंगे; वह त्रिशंकु की भांति मध्य में अटका रहेगा; न वह यहां का होगा, न वहां का; न घर का, न घाट का; न तो वह पृथ्वी का हो पाएगा और न आकाश का।
एक दूसरा व्रत है जिसे मैं महाव्रत कहता हूं। वह दूसरा व्रत मन से नहीं लिया जाता; वह दूसरा व्रत मन की पूरी समझ के आधार पर कि मन तो द्वंद्वग्रस्त है, मन तो द्वैत है, मन तो कलह और संघर्ष है, इस बोध के कारण, इस परिपूर्ण बोध के कारण मन को एक तरफ करके जो व्रत उठता है...। मन कसम नहीं खाता कि मैं अब सच बोलूंगा; मन को समझ के तुम्हारी चेतना में जो भाव उठता है, वह भाव कोई व्रत नहीं है कि अब मैं झूठ न बोलूंगा। वह भाव इतना ही है कि मैंने समझ लिया कि झूठ क्या है और मैंने समझ लिया कि मन क्या है।
तुम्हारी समझ ही तुम्हारा महाव्रत बन जाती हैं।
जिसने समझ लिया कि धूम्रपान क्या है...क्या कर रहा है? हाथ से सिगरेट गिर जाती है, छोड़नी नहीं पड़ती। जिसने समझ लिया है कि शराब क्या है, हाथ से बोतल छूट जाती है। छोड़ी तो मन छोड़ता है; छूट गई तो महाव्रत। छोड़ी तो तुम फिर पकड़ोगे।
मुल्ला नसरुद्दीन एक सभा में बोलने गया।
जैसा कि अक्सर हो जाता है और तुम बराबर परेशान रहे होओगे कि बोलने वाले लोग बोलते कुछ हैं, करते कुछ हैं। कसूर नहीं है उनका। तुम सोचते हो, शायद तुम्हें धोखा दे रहे हैं तो तुम गलती में हो। बोलते वक्त मन का वह हिस्सा बोलने लगता है जो आत्मा के करीब है। क्योंकि बोलते वक्त कौन पाप कि चर्चा करेगा। बोलना ही है, करना तो नहीं है, पुण्य की चर्चा हो सकती है। चर्चा ही करनी है; कोई दांव पर तो कुछ लगता नहीं है; कोई स्वार्थ को तो हानि पहुंचती नहीं है। तो बोलते वक्त आदमी लोभ की बात नहीं बोलेगा, अलोभ की; हिंसा की बात नहीं बोलेगा, अहिंसा की; असत्य की बात नहीं बोलेगा, सत्य की। बोलने वाला साधु हो जाता है; बोलते क्षण में तो हो ही जाता है।
तो मुल्ला ने बड़ी ज्ञान की बातें की..अहिंसा, सत्य, अचैर्य। सभी सुनने वाले हैरान थे। मुल्ला का बेटा भी मौजूद था, वह भी हैरान था। और मुल्ला ने समझाया कि ये सत्य, अचैर्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इन्हीं की सीढ़ियों पर चढ़ के कोई आदमी मोक्ष तक पहुंचता है। और इस पृथ्वी पर ठीक तुम्हारे सामने से सीढ़ी लगी है। तुम चढ़ना शुरू करो।
दूसरे दिन सुबह मुल्ला के लड़के ने कहा कि मैंने रात एक सपना देखा। (मैं मौजूद था जब लड़के ने यह बात अपने बाप को कही। ) मैंने रात एक सपना देखा कि जिस सीढ़ी की आप बात कर रहे थे, वह सीढ़ी मुझे दिखाई पड़ी। मुल्ला बहुत उत्सुक हो गया कि मेरी बात का इतना प्रभाव पड़ा है बेटे पर। उसने पूछा कि और आगे कहो, फिर क्या हुआ?
उस बेटे ने कहा, सीढ़ी स्वर्ग की तरफ जा रही थी। दूर आकाश में दूसरा छोर खोया हुआ था। और सीढ़ी के नीचे एक तख्ती लगी थी और तख्ती के पास एक-एक हाथ लंबी चाक खड़िया मिट्टी रखी थी। और तख्ती पर लिखा था कि जो भी इस पर चढ़े, अपने साथ एक चाक लेता जाए और सीढ़ी के हर कदम पर अपने एक-एक पाप के लिए एक-एक निशान बनाता जाए।
मुल्ला और भी उत्सुक हो गया। उसने कहा, और आगे कहो, फिर क्या हुआ?
लड़के ने कहा, मैंने एक चाक ली, निशान लगानी शुरू की और मैं ऊपर चढ़ने लगा। थोड़ी ही दूर गया था कि मुझे सुनाई पड़ा कि कोई आदमी नीचे आ रहा है। पैरों की चाप सुनाई पड़ी।
मुल्ला ने कहा, वह कौन आदमी था?
लड़के ने कहा, मैं भी यही सोच रहा था। जब मैंने देखा आंख उठा कर देखा, तो आप नीचे की तरफ आ रहे हैं।
मुल्ला ने कहा, मैं और नीचे की तरफ? मैं किसलिए नीचे की तरफ आ रहा हूं?
उस लड़के ने कहा, मैंने भी आपसे पूछा सपने में, आप नीचे किसलिए जा रहे हैं, तो आपने कहा, और चाक लेने!
कृत्य पाप का हो सकता है। कृत्य तो पाप से ही भरे हैं; चर्चा पुण्य की चलती रहती है। इस तरह तुम अपने पाप को सहारा दिए रहते हो। करते रहते हो पाप, नियम-व्रत लेते रहते हो पुण्य के..इस तरह मन के दोनों हिस्से संतुष्ट रहते हैं। मन के शरीर के पास वाला हिस्सा पाप से संतुष्ट रहता है; चर्चा से विचार से, शास्त्र से मन का दूसरा हिस्सा तृप्त रहता है। और तुम दोनों नावों पर सवार बड़े प्रसन्न यात्रा करते हुए मालूम पड़ते हो। कहीं पहुंचते नहीं, पहुंच नहीं सकते; दो नावों पर कोई कभी नहीं पहुंचा है। लेकिन कठिनाई यही है कि तुम दो में से एक भी नाव चुनोगे तो मुश्किल में रहोगे, क्योंकि दोनों नावें मन की हैं।
इसलिए तो कबीर कहते हैं कि जो नाव चढ़े वे डूबे। यह जीवन का सागर ऐसा है कि नाव पर चढ़े कि डूबे। तैर कर ही गुजरना होता है; नाव की कोई जरूरत ही नहीं है। दोनों नावें मन की है। पाप-पुण्य दोनों नावों के नाम हैं। और तुम अगर पाप को पकड़े तो पुण्य का हिस्सा तुम्हें खींचता रहेगा, पछताता रहेगा। पुण्य को पकड़े तो पाप का हिस्सा तुम्हें खींचता रहेगा, पछताता रहेगा। तुम दुविधा में रहोगे।
दुकान पर बैठे आदमी को मैं दुविधा में देखता हूं; आश्रम में बैठे आदमी को भी उतनी ही दुविधा में देखता हूं। दुकान पर जो बैठा है वह पुण्य की सोचता है, पाप करता है; आश्रम में जो बैठा है वह पुण्य करता है और पाप की सोचता है। लेकिन दुविधा में कोई भेद नहीं है; दोनों अड़चन में हैं।
मन में से तुमने कुछ भी चुना तो तुम मुसीबत में रहोगे। मन विक्षिप्तता है। पूरे ही मन को छोड़ना होगा। और यह जो छोड़ना है, बोध, समझ, अंडरस्टैंडिंग की बात है। जितना तुम मन के स्वभाव को समझोगे उतना ही आसान हो जाएगा।

अब तुम समझने की कोशिश करो कबीर के वचन।
‘डगमग छाड़ि दे मन बौरा।’
कबीर कहते हैंः पागल मन! डगमगाहट छोड़।
मन पागल है..यह कोई काव्य नहीं है। कबीर जो कह रहे हैं वे सीधे जीवन के तथ्य हैं। मन विक्षिप्तता का नाम है। और किसी को तुम्हें समझाने की जरूरत ही नहीं; तुम अपने मन से भलीभांति परिचित हो।
अगर तुम में जरा भी देखने की क्षमता है तो अपने मन को थोड़ा देखो, तुम समझ लोगे कि मन पागल है। जो काम तुम बहुत बार कर चुके हो और हर बार पाया कि कुछ सार नहीं है, मन फिर उसी को करने को कहता है। पागलपन का और क्या अर्थ होगा? रेत से तुम तेल को निकालने की चेष्टा कर चुके बहुत बार, नहीं निकलता, जान भी चुके कि रेत रेत है, तेल निकलेगा कैसे? रेत कोई तिला तो नहीं है। फिर निकाल रहे हो। पागल नहीं हो तो और क्या है?
शरीर के भोग को कितनी बार जाना और पहचाना; कुछ भी पाया नहीं, कोई वीणा न बजी हृदय की, कोई घंुघरू न बजी आत्मा की; मरुस्थल की यात्री थी; प्यासे और तड़फे, रोए-पछताए, कहीं पहुंचे नहीं। फिर मन कह रहा है कि चलो उसी यात्रा पर। पागल नहीं तो और क्या है? जिसे बार-बार देख लिया और पाया कि व्यर्थ फिर भी मन उसी में लगाए रखता है।
पागलपन का अर्थ होता है, जहां असार देख लिया, फिर भी कर रहे हैं। पागलपन का अर्थ होता है, जहां सार की झलक मिलती है, फिर भी उस तरफ नहीं जा रहे हैं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान कुछ दिन किया, फिर छोड़ दिया। मैं उनसे पूछता हूं, कुछ दिन किया, कैसे लगा? वे कहते हैं, बहुत आनंद मालूम हुआ, बड़ी शांति मालूम हो रही थी। फिर बड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है कि जिसमें शांति मालूम पड़ रही थी, उसे छोड़ क्यों दिया? वे कहते हैं, मन ही तो है।
जहां दुख मिलता है, उसे छोड़ता नहीं। कितनी बार क्रोध कया है, और कभी क्रोध से आनंद पाया है एक बार भी? जब भी पाया तब दुख पाया। और मन उसे छोड़ता नहीं। ध्यान कभी किया, कभी प्रार्थना की, कभी मंदिर में जा के मौन शांत बैठे, सुख लगा; फिर भी मन कहता है, छोड़ो भी, और तुम छोड़ देते हो। आनंद की जहां से खबर मिलती हैं, मन कहता है, छोड़ो भी, और तुम छोड़ देते हो। और दुख की जहां से सतत धारा बहती है, और तुम जानते हो कि दुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता और मन कहता है, और करो; कौन जाने, अभी तक न मिला हो, आगे मिले; अब तक न निकल पाया हो रेत से तेल, आगे निकल आए, कौन जानता है! भविष्य कोई तय है? और जो अब तक नहीं हुआ वह आगे भी नहीं होगा, ऐसा किसने कहा है? बहुत सी बातें नहीं हुई हैं; आगे होंगी; खोदे जाओ, खोदे जाओ..मरुस्थल की यात्रा करवाए रखता है।
पागल का और क्या अर्थ होगा?
कभी बैठ के अपने मन को देखो, क्या चल रहा है वहां? तुम कोई फर्क कर पाओगे इसमें और पागल के मन में?
पागलखाने चले जाओ और पागल से पूछो कि तेरे मन में क्या चलता है और लिख लो। फिर अपने मन में घंटे भर देखो, क्या चलता है और लिख लो। और किसी को बताओ कि इन दोनों में कुछ भेद कर सकता है? किसी को पूछो कि इसमें कौन से वचन पागल के हैं और कौन से पागल के नहीं है? तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे? जिसको भी दिखाओगे, वह कहेगा, दोनों पागल के हैं। कम-ज्यादा पागल हो सकते हैं, लेकिन दोनों पागल के हैं। और तुम खुद भी ऐसा ही पाओगे।
मन पागल है। मात्राओं के फर्क होंगे। कोई अस्सी डिग्री का पागल है, कोई नब्बे डिग्री का पागल है, कोई निन्यानबे डिग्री पर उबलने के करीब है, कोई सौ डिग्री का पागल है; कोई पार हो गया है एक सौ एक, वह पागलखाने के भीतर बंद है।
एक धर्मगुरु एक पागलखाने में बोलने गया। उसने बड़ा समझाया, बड़े विस्तार से समझाया। सोच के कि पागल हैं, इसलिए छोटी-छोटी बात समझाई, ठोक-ठोक के समझाई, सब तरफ से समझाई। और एक पागल टकटकी लगाए देख रहा है और इतनी आतुरता से सुन रहा है कि धर्मगुरु भी प्रभावित हो गया। ऐसा तो कभी किसी ने नहीं सुना। सांस जैसे उसकी बंद है, इतना तल्लीन है। सभा पूरी हुई। धर्मगुरु ने देखा कि वह पागल सुपरिनटेंडेंट के पास गया पागलखाने के और उसके कान में कुछ कहा, तो उसे लगा कि जरूर उसने मेरे प्रवचन के संबंध में कुछ कहा होगा। इतने ध्यान से सुना है! जैसे ही मौका मिला, उसने सुपरिनटेंडेंट से पूछा कि इस पागल ने क्या कहा? क्या मेरे व्याख्यान के संबंध में कुछ कहा? सुपरिनटेंडेंट ने थोड़ा झिझकते हुए कहा कि हां, कहा तो आपके ही व्याख्यान के संबंध में।
धर्मगुरु बेचैन हो उठा। उसने कहा, कहें, क्या कहा उसने?
बताना जैसे नहीं चाहता था सुपरिनटेंडेंट, लेकिन इतना आग्रह किया तो उसने कहा कि वह आया मेरे पास और कान में कहने लगा, देखो संसार का खेल, यह आदमी बाहर, हम भीतर! अन्याय हो रहा है।
जो बाहर हैं और जो भीतर हैं, उनमें कुछ बहुत फर्क नहीं है; दीवाल का ही फर्क है। तुम कभी भी भीतर हो सकते हो। दीवाल के पास ही खड़े हो। दरवाजा सदा खुला है। भीतर से आने वालों के लिए बंद रहता है; बाहर से आने वालों के लिए बंद नहीं है। वह जो पागलखाने के दरवाजे पर संतरी खड़ा है, वह तुम्हें रोकने के लिए नहीं खड़ा है; वह भीतर जो हैं, वे बाहर न आ जाएं, उन्हें रोकने के लिए खड़ा है। तुम्हारे लिए तो स्वागत है। और देर-अबेर तुम पागलखाने पहंुच जाओगे। चमत्कार है कि तुम अभी तक कैसे नहीं पहुंचे। और तुम भी भलीभांति जानते हो, इसलिए तो तुम भीतर-भीतर छिपाए रहते हो, अपने को प्रकट नहीं करते। और कभी-कभी अगर अबोध क्षणों में तुम प्रकट हो जाते हो तो तुम भी जानते हो कि यह पागलपन हो गया। क्रोध में कभी तुम प्रकट हो जाते हो तो तुम बाद में कहते हो, क्षमा करना, पागलपन ने पकड़ लिया था। ऐसा कहीं मैं कर सकता हूं। हो गया! लेकिन कैसे हो गया? तुम नहीं कर सकते हो तो हो कैसे गया? तुम्हीं ने किया है। क्रोध में भी तुम्हीं थे; कोई दूसरी आत्मा प्रवेश नहीं कर गई थी, कोई भूत-प्रेत ने तुमसे नहीं करवा लिया था।
लेकिन फर्क क्या है क्रोध में और जब तुम क्रोध में नहीं होते? फर्क इतना ही है कि क्रोध के बेहोशी के क्षण में तुम्हारे भीतर जो चलता रहता है, उसकी थोड़ी सी झलक बाहर आ जाती है। साधारणतः तुम अपने को सम्हाल कर रखते हो, संयम से जीते हो। सौ चीजें चलती हैं, उसमें से एक तुम बाहर प्रकट करते हो, वह भी सोच-समझ कर कि करनी की नहीं करनी।
मन पागल है। मन से मुक्त हुए बिना कोई पागलपन से मुक्त नहीं होता।
‘डगमग छाड़ि दे मन बौरा।’
ऐ पागल मन! डगमगाहट छोड़ दे, चंचलता छोड़ दे।
लेकिन यही मजा है कि अगर डगमगाहट छूट जाए, चंचलता छूट जाए..मन खो जाता है। मन के रहते तो डगमगाहट छूटती ही नहीं। डगमगाहट छूट जाए, मन विलीन हो जाता है..लहर सो गई, सागर में खो गई!
कबीर कहते हैं कि इस तरफ से जो मन है वही उलटी तरफ से परमात्मा है, सनातन है; जब तक बेचैन है तब तक मन है। और जब तक बेचैन है तब तक संसार से जोड़े हुए है। जब मन चैन में आ गया, शांत हो गया, तो रहा ही नहीं; सनातन का वास हो गया। वही परमात्मा से जुड़ने का सूत्र हो गया।
‘डगमग छाडि दे मन बौरा।
‘अब तो जरें बनें बनि आवै लीह्नो हाथ सिंधौरा।’
ये प्रतीक समझने जैसा है। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के पहले पति के मर जाने पर पत्नी सती हो जाती थी। सौ में निन्यानवे मौके पर तो जबरदस्ती होती थी। इसलिए कानून बनाना पड़ा। लेकिन एक मौके पर जबरदस्ती नहीं होती थी, और कानून के कारण अब उस एक मौके पर जबरदस्ती हो रही है। सती की प्रथा जब शुरू हुई तो वह बड़े प्रेम और बड़ी गहन आत्मीयता से जन्मी थी। दुनिया में ऐसी घटना कहीं भी नहीं घटी है, भारत में घटी; क्योंकि भारत ने प्रेम की बड़ी ऊंचाइयां जानी हैं। आत्मभाव की, एकात्म की गहरी-से-गहरी क्षमता को भारत ने अनुभव किया। उसी गहराई और ऊंचाई से सती का जन्म हुआ था। अगर प्रेम इतना प्रगाढ़ हो कि वही प्रेम ही जीवन का पर्याय बन गया हो तो मृत्यु के सिवा प्रिय के मर जाने पर कोई उपाय नहीं बचता। पति चल बसा, उसी क्षण पत्नी का जीवन चल बसा..अगर प्रेम रहा हो। अब बचने का कोई अर्थ न रहा। सुबह अब भी होगी, लेकिन अब सुबह में कोई सौंदर्य न हो सकेगा। रातें अब भी आएंगी और तारे अब भी निकलेंगे; लेकिन अब इस पत्नी के लिए, अब इस विधवा के लिए किसी रात में कोई सितारा न होगा। दिन अंधेरा हो गया, रात तो अंधेरी थी, और अंधेरी हो गई। सब रोशनी बुझ गई। जब प्रेम का दीया ही बुझ गया तो जीवन में कोई अर्थ न रहा।
तो पत्नी अपनी स्वेच्छा से पति की चिता पर चढ़ जाती थी। चढ़ते वक्त..वह अपने हाथ में सिंदूर का एक पात्र ले लेती थी। ‘लीह्नो हाथ सिंधौरा’..हाथ में सिंदूर का पात्र लेकर खड़ी है सती..सती होने वाली पत्नी; चिता सज गई है; आग की लपटें उठ गई हैं। सिंदूर प्रतीक है सुहाग का? यह जो पत्नी है और जिसका पति चल बसा है, इसके लिए यह चिता चिता नहीं है, इसका सुहाग है। और यह मरने नहीं जा रही है; यह अपने पति से मिलने जा रही है। इन चिता की लपटों के उस तरफ इसके प्रेमी की प्रतिमा है। यह बीच का द्वार है। यह इसके लिए मृत्यु नहीं है; यह इसके लिए जीवन का द्वार है। इसलिए सुहाग सिंदूर को अपने हाथ में लेकर स्त्री चिता पर चढ़ जाती थी।
कबीर कहते हैंः अब तो जैसे भी हो, अब तो जैसे भी हो, अब पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं है। अब तो मैं वैसा ही खड़ा हूं जैसे कोई सती अपने हाथ में सिंदूर का पात्र लिए खड़ी हो। अगर लपटों से गुजरना पड़े तो मैं राजी हूं। अगर तू लपटों के पार है तो मैं गुजरने को राजी हूं। अगर तू मृत्यु के उस तरफ है तो मैं मृत्यु में से आने का राजी हूं, मैं मरने को तैयार हूं। अब तो जैसे भी हो...। तो वे मन से कह रहे हैं कि तू अब डगमग छोड़ दे। अब तू व्यर्थ ही डगमगा रहा है; अब तो मैं यह चला। अब तो यह आखिरी घड़ी आ गई। अब तो मैं मौत से गुजरने को रा.जी हूं, लेकिन जीवन को जान के रहूंगा। तू छोड़ दे पागलपन की बातें; बहुत हो चुका; तेरी बहुत सुन लिए हैं।
कबीर मन को शांत नहीं कर रहे हैं। वे उससे यह कह रहे हैं कि अब तू व्यर्थ ही परेशान हो रहा है। मैं तो चला, कदम उठ चुका; हाथ में सिंदूर का पात्र ले लिया; दूसरा कदम और चिता...। मैं मरने को तैयार खड़ा हूं, क्योंकि मेरी प्रीतम उस तरफ से बुला रहा है। अब तू डगमग छोड़ दे पागल। अब तू किसलिए डगमगा रहा है? अब तेरी डगमगाहट से भी कुछ न होगा। तैयारी मेरी पूरी-पूरी है। अब मैं तेरी न सुनूंगा।
और जब ऐसी घड़ी आती है, जब तुम इतने तैयार हो कि मन कुछ भी कहे और तुम न सुनोगे, तभी मन डगमगाहट छोड़ता है, उसके पहले नहीं। जब तक मन को थोड़ी-सी भी आशा रही कि तुम सुनोगे तब तक वह तुम्हें फुसलाएगा। मन से बड़ा सिड्यूसर, फुसलाने वाला दूसरा नहीं है। तब तक मन समझाएगा कि यह क्या कर रहे हो। जरा पीछे तो लौट के देखो..जिंदगी पड़ी है, सूरज निकलते रहेंगे, चांद-तारे होंगे, खुशियां होंगी; और तुम क्या करने जा रहे हो? और थोड़ा और भोग लिया तो हर्ज क्या है? और क्या पता, अब तक नहीं मिला, आगे मिला जाए! और क्या पक्का भरोसा है कि इस चिता के पार कुछ मिलेगा? कहीं ऐसा न हो कि सिर्फ जल जाओ, राख पड़ी रह जाए और उस तरफ कुछ हो ही न। किसने बताया तुम्हें कि प्रीतम है? किसी ने लौट कर कभी कहा है चिता के पार से कि उस तरफ कुछ है? किसी ने कहा कि परमात्मा है, कि आत्मा बचती है, कि मोक्ष है? यह सब बकवास है, यह सब बातचीत है। किनकी बातों में पड़े हो?
मन आखिरी दम तक तुम्हारे पल्ले को पकड़ के समझाने की कोशिश करता रहेगा कि रुक जाओ। और मन की बातें तुम्हें ऐसी लगेंगी जैसे किसी हितैषी की हैं। क्योंकि वह इतना ही तो कह रहा है कि क्यों मरने की तैयारी कर रहे हो? थोड़ी देर और जी लो। वह जीवन के सारे प्रलोभन खड़े करेगा। वह सब तरह के सपने संजोएगा। वह अपनी सारी ताकत डाल देगा सम्मोहन की। लेकिन यह तभी संभव है कि तुम उससे बच पाओ, जब तुम कह दो कि तू कुछ भी कहे, अब कोई फर्क नहीं पड़ता।
कबीर यही कह रहे हैं। हाथ में लिए खड़े हैं सिंदूर का पात्र। वे कह रहे हैंः ‘डगमग छाड़ि दे मन बौरा’..अब पगले! तू चुप हो जा। अब तू नाहक परेशान हो रहा है। सुनने वाला जा चुका। यात्रा शुरू हो गई है। अब लौटने का कोई उपाय नहीं। तू बकवास बंद कर।
और जब मन बिल्कुल आश्वस्त हो जाता है कि अब लौटना नहीं हो सकेगा, तभी मन चुप होता है।
मेरे पास लोग आते हैं। वह कहते हैं, संन्यास लेना चाहते हैं, लेकिन अभी मन डगमग है, अभी मन हजार बातें समझाता है। वह कहता है, अभी बच्चे हैं, पत्नी है, समाज है, इन गेरुए वस्त्रों में घूमेंगे, लोग हंसेगे, कोई क्या कहेगा? मरना तो दूर, आग की लपटें तो दूर, लपटों के रंग के वस्त्र तक पहनना मुश्किल है।
हिंदुओं नें लपटों के रंग में ही गैरिक वस्त्र चुने हैं। वह आग का रंग है। कभी आग में उतरना हो तो पहले कदम की तरह उपयोगी हैं। और जब मन अग्नि के वस्त्र ही नहीं पहनने देता तो अग्नि में क्यों उतरने देगा? जब अग्नि के वस्त्र पहनने में इतना डगमगाता है और तुम उसकी सुन लेते हो...। ये वस्त्र तो सिंदूर के रंग के वस्त्र हैं, ये सुहाग के वस्त्र हैं..इनसे परम सुहाग घटित होगा। लेकिन यह मरने की शुरुआत है। और अगर मन की तुमने सुनी तो तुम लौट-लौट आओगे। और मन कभी भी तुम्हें मौका न देगा। कोई उपाय नहीं है मन की तरफ से।
दो स्थितियां हैं। या तो मन की सुनो..पक्ष में सुनो तो भी मन की सुन रहे हो; विपक्ष में सुनो तो भी मन की सुन रहे हो। अगर तुमने विरोध भी किया मन से कि कोई फिकर नहीं, हम तो लेंगे, अगर तुमने जिद की तो जिद भी मन की है, यह दूसरा हिस्सा मन का बोल रहा है। नहीं, कबीर अब जिद नहीं कर रहे हैं, मन से वे यह नहीं कह रहे हैं कि मैं तुझसे लडूंगा।
यह वचन समझने जैसा है। कबीर मन के साथ ऐसा कह रहे हैं जैसे कोई छोटे बच्चे से कह रहा हो कि अब बस चुप हो जा। कोई झगड़ा भी नहीं है, रोता रहे तो ठीक, तेरी मर्जी; चिल्लाता रहे तो तेरी मर्जी; तुझे इसमें सुख आ रहा हो तो कर; मेरा कुछ लेना-देना नहीं है।
‘डगमग छाड़ि दे मन बौरा।’ ऐ पगले, अब चुप हो जा। अब तू किसके लिए चिल्ला रहा है? न हम तेरे पक्ष में हैं, न तेरे विपक्ष में। चैसे सांप केंचुली को छोड़ कर निकल जाता है ऐसे ही कबीर मन को छोड़ कर अलगा हो रहे हैं। केंचुली पड़ी रह जाएगी, ऐसा ही मन पीछे पड़ा रह जाएगा। और जब मन परिपूर्ण आश्वस्त हो जाता है कि तुम जा चुके, तभी चुप होता है। जब तक उसे जरा भी आशा रहती है कि लौटाए जा सकते हो, जरा सा भी सेतु बना रहता है कि अभी संभावना है, फुसलाए जा सकते हो, तब तक वह फुसलाएगा, डर दिखलाएगा, लोभ दिखलाएगा, क्रोध दिखलाएगा, माया-मोह, सब रूप खड़े कर देगा।
मन को पागल कहने का अर्थ है कि अब हम न पक्ष में सुनते हैं, न हम विपक्ष में। एक आदमी जा रहा है पागल, वह सड़क पर खड़े होकर गालियां बक रहा है। तुम उससे नाराज भी नहीं होते। तुम कहते हो, पागल है और घर चले आते हो। पता चल जाए कि आदमी पागल नहीं है, तुम लड़ने खड़े हो जाओगे कि मेरा अपमान कर दिया। लेकिन पागल है, पता चल गया, पागल है, बात खत्म हो गई। अब क्या झगड़ा करना? वह कुछ होश में थोड़े ही है। वह कुछ जान के थोड़े ही कह रहा है। उसके कहने में कोई मतलब थोड़े ही है।
ऐसा हुआ कि अकबर निकलता था एक शोेभा-यात्रा में और एक आदमी किनारे खड़ा हो गया रास्ते के और गालियां देने लगा। अकबर ने उसे पकड़वा बुलाया। रात भर जेल में रहा वह, सुबह अकबर के सामने मौजूद हुआ। अकबर ने कहा, तूने गालियां क्यों बकीं? उसने कहा कि मैंने बकीं? बात गलत! मैं शराब पीए हुए था। जिसने बकीं उसकी जिम्मेवारी मुझ पर है ही नहीं। हां, शराब पीने का दंड मुझे दे सकते हो, लेकिन गालियां बकने का नहीं। वे शराब ने बकीं।
अकबर सोच में पड़ गया। उसने उस आदमी को माफ कर दिया। उसकी सोच को देख कर उसके दरबारियों ने पूछा कि आप इतने सोच में क्यों पड़ गए? तो उसने कहा, सोचने जैसा था; जब उसने होश में ही नहीं किया तो जिम्मेवारी क्या?
अकबर के लिए अपमान न रहा, अगर बेहोशी में गाली दी गई है। अब कोई झगड़ा भी नहीं है, बात ही खत्म हो गई। होश में दी गई होती तो झगड़ा था। गाली वही है..होश से निकले तो अर्थपूर्ण हो जाती है; बेहोशी से निकले तो व्यर्थ हो जाती है।
कबीर कह रहे हैंः ‘डगमग छाड़ि दे मन बौरा।’ ऐ पगले मन, चुप हो जा! या तुझे डगमगाने में आनंद आता हो तो डगमगाता रह, लेकिन हम चले! ‘हम ब्याही चले हैं, पुरुष एक अविनासी।’ तुझे डगमगाना हो, डगमगाता रह। यहां बारात सज गई है। यहां घोड़ा तैयार है। हम चले!
‘अब तो जरें बनें बनि आवै, लीह्नों हाथ सिंधौरा।’ अब तो जो हो, हो। अब तू मत समझा। अब इधर-इधर की बातें मत कर। अब पक्ष-विपक्ष का समय न रहा। अब तो जो भी हो, हो; जैसे भी हो, हो। अब तो सती ने हाथ में सिंदूर ले लिया। अब लौटने का कोई उपाय नहीं।
‘होई निसंक मगन ह्वै नाचै, लोभ मोह भ्रम छाड़ौ। सूरो कहा मरन थें डरपै, सति न संचै भाड़ौ।’
कबीर कहते है, अब तो निशंक हो के नाचो। मगन होके नाचो। ‘लोभ मोह भ्रम छाड़ौ’..छोड़ दो लोभ, मोह, भ्रम। ‘सूरो कहा मरन थें डरपै’..और वीर पुरुष कहीं मरने से डरते हैं?
मन समझा रहा है कि यह तुम मरने के रास्ते पर चले हो। मौत ही हाथ लगेगी और कुछ न पाओगे। कोई परमात्मा नहीं है और न कोई मोक्ष है। मनगढंत बातें हैं, चालबाजों ने गढ़ी हैं।
चार्वाक ने कहा है कि वेद चालबाजों की गढंत है, और मोक्ष और परमात्मा, ये सब कुशल और शैतान लोगों की ईजादें हैं। चार्वाक ने कहा है कि अगर उधार ले के भी घी पीना पड़े तो पी लेना, क्योंकि लौट के कोई नहीं आता; न किसी के चुकाना है, न कोई चुकाने का डर है; न कोई पुण्य है, न कोई पाप है। ये सब कुछ कुशल और चालबाज लोगों की तरकीबें हैं जिनसे उन्होंने तुम्हें फांस रखा है।
और यही बात आधुनिक युग मेें माक्र्स ने कही कि धर्म अफीम का नशा है। यह गरीबों का शोषण करने का उपाय है। जो चार्वाक ने कहा था तीन हजार साल पहले, ठीक वही बात। लेकिन मन तो सभी के भीतर चार्वाक की तरह बोलता है। मन तो सदा कम्युनिस्ट है। मन तो सदा नास्तिक है। अगर मन की सुनी तो वह यह कहेगा, कहां जा रहे हो? क्यों हाथ की आधी छोड़ते हो? माना कि आधी है तो भी है तो, और दूर आकाश के कुसुमों में भटकोगे पूरी पाने की आशा में, आधी छूट जाएगी। पूरी तो पाओगे नहीं, आधी भी हाथ से चली जाएगी।
कबीर कह रहे हैंः ‘होई निसंक मगन ह्वै नाचै।’ कबीर कह रहे हैं, अब मेरे नाचने की घड़ी है, अब तू नाहक डगमग मत हो। अब यह क्षण कुछ उदासी में, सोच-विचार में खोने का नहीं है। अब तो मैं मगन हुआ जा रहा हूं मौत को करीब देख कर। मिटने की घड़ी को करीब पा कर मैं मगन होकर नाच रहा हूं। क्यों? क्योंकि, मिट कर ही मिलन होगा। खोऊंगा अपने को तो ही उसे पा सकूंगा। यह मेरा अहंकार जलेगा चिता में तो उस राख के ऊपर ही मेरी आत्मा का जन्म होगा।
‘होई निसंक मगन ह्वै नाचै, लोभ मोह भ्रम छाड़ौ? ’
मन की तरकीबें तीन हैं। या तो वह लोभ खड़ा करता है। वह कहता है, अभी यह मिल सकता था और अब तुम मिलने के करीब पहुंच रहे थे और तुम कहां चले? इतने दिन की यात्रा सफल होने के करीब थी; फसल लग गई थी और फसल काटनी थी। अब तुम कहां चले? सारा श्रम व्यर्थ हुआ जा रहा है। बस एक दिन की बात और थी। जरा और ठहर जाते, और जो-जो मैंने कहा था, सभी आश्वासन पूरे होने के करीब थे।
तो या तो मन लोभ को पकड़ाएगा या मोह को; कहेगा, किन को छोड़ रहे हो, अपनों को छोड़ रहे हो, अकेले जा रहे हो? प्रियजन हैं, मित्र हैं, पत्नी है, बच्चे हैं, सगे-संबंधी हैं, समाज है..इसे छोड़ कर कहां तुम अकेली उलटी राह पर चले? और जहां इतने लोेग नहीं जा रहे हैं, वहीं जाना निश्चित ही गलत होगा। तुम अकेले बुद्धिमान हो?
और कबीर कहते हैं कि जो राजपथ पर चला वह लुटा; और जो उलटा चला वह पहुंचा। तो मन कहेगा कि राजपथ पर चलो; यहां चोर नहीं, लुटेरे नहीं, कैसे लुटोगे? फिर भीड़ भी है, बचाव के उपाय हैं, अकेले में लुट जाओगे। किसकी बातों में पड़े हो? या तो लोभ या मोह, आसक्ति या भ्रम या मन नये भ्रम और इल्युजन खड़े करेगा। मन सपनों का जन्मदाता है। उससे बड़ा कुशल कारीगर नहीं। वह तुम्हें बड़े सपने देता है। वह कहता है, एक बार तो और रुक जाओ। एक बार दांव और लगा लो।
जुआरी की यही तो मुसीबत है जो तुम्हारी मुसीबत है। जुआरी जीते तो मुसीबत में, हारे तो मुसीबत में। जीतता है तो मन कहता है, एक दाव और अब तक जीते हो; एक लाख हाथ में है, लगा दो तो दो लाख होते हैं। जीतने वाला जीतने पर चढ़ जाता है; नशे में आ जाता है; सोचता है अब जीत ही रहा रहा हूं तो हारूंगा कैसे? हारने वाले का मन कहता है कि इस बार हार गए, कोई बात नहीं, एक प्रयास और कर लो; हार के लौटना क्या उचित है? और कौन जाने, अभी हारे हो, अभी हार जीत बन जाए! हारे को मन कहता है, एक दांव और, शायद जीत जाओ; जीते को कहता है, एक दांव और, क्योंकि जीत रहे हो, ऐसा बीच में छोड़ के चले जाना कहीं उचित है? इसलिए जुआरी हर हालत में फंसा रहता है..जीते तो मुसीबत, हारे तो मुसीबत।
मन भ्रम खड़े करता है।
‘सूरो कहा मरन थें डरपै’..और मन का आखिरी जो उपाय है, वह यह है कि वह तुमसे कहे कि मर जाओगे, इस रास्ते पर चले अगर। यह मौत का रास्ता है। और सभी संत कह रहे हैं, जो अपने शीश को उतार के रख दे उसी के लिए है, कि खड्ग की धार है। जीसस कहते हैं, अपने को मिटाओ तो ही बचोगे; बचाया कि मिट जाओगे। मरे बिना कभी किसी ने अमृत नहीं पाया। तो मन साफ कहेगा कि किन बातों में पड़े हो? ये सब मौत के दलाल हैं, जो समझा रहे हैं कि मरो। और मैं तुम्हारे जीवन का पक्षपाती, मैं तुम्हारा मित्र और तुम शत्रुओ को गुरु माने बैठे हो।
और उसकी बात समझ में पड़ेगी। तुम्हारा भय भी कहेगा कि ठीक कहता है मन, और जब तक जी रहे हो तब तक जी लो, फिर आगे की आगे सोचेंगे। इतनी जल्दी क्या है? और मौत तो अपने-आप आनेवाली है, उसके पहले मरने का कारण क्या है? और कबीर कहते हैैं, जो जीते-जी मर गया, उसी ने पाया अमृत को। तो मन कहेगा, मरोगे ही, मौत आ ही रही है; जल्दी क्या है, अपने हाथ से करने की जरूरत क्या है?
‘सूरो कहा मरन थें डरपै, सति न संचै भाड़ौ।।’ कबीर कहते हैं कि शूरवीर कहीं मरने से डरा है, पागल! वे मन से कह रहे हैं कि तू मुझे मौत से डरा रहा है?
मौत चुनौती है, भय नहीं! मौत की चुनौती में खेल कर ही जीवन का परम रस अनुभव होता है।
‘सति न संचै भाड़ौ’..और सती शरीर रूपी बर्तन को इकट्ठा नहीं करती, न सजाती है, न संवारती है। सती तो जानती है कि शरीर तो मिट्टी का घड़ा है और तू कह रहा है इस घड़े के लिए बचाऊं? और इस घड़े को बचाने में उसको दांव पर लगा दूं जो कि मेरा सर्वस्व है? और मेरा प्रेमी उस पार है लपटों के।
निश्चित ही जब कोई सती मरने जाती होगी तो मन कहता होगा, यह तू क्या कर रही है? अभी तो जवान थी; और एक प्रेमी मर गया तो क्या सभी प्रेमी मर गए? अभी प्रेम फिर पैदा हो सकता था, थोड़ा घाव भर जाने दे। इतनी जल्दी क्या है? जीवन फिर लौट आएगा; साल छह महीने की बात है, समय की बात है। घाव भर जाएगा, तू भूल जाएगी; नये प्रेम का उदय होगा या नया पति होगा; नया संसार बसेगा। इतनी जल्दी क्या है? इतनी सुंदर काया, ऐसी स्वर्ण सी देह तू आग में जलाने चली है? जिसे अब तक संवारा था और जिस देह को अब तक हजार बार दर्पण में निहारा था और जिस पर लोग दीवाने थे, और जैसे पतंगे ज्योति की तरफ दौड़ते हों, ऐसी आंखें तेरी तरफ दौड़ती थीं..इस देह को जलाने तू चली है?
कबीर कहते हैं, मन तो यह सब कहेगा। ‘सति न संचै भाड़ौ’..लेकिन जो सती खड़ी हो गई है हाथ में सिंदूर लेकर, मरने की जिसकी तैयारी है, जिसने पहला कदम उठा लिया, और जिसने आग की लपटों में अपने सुहाग को देखा, और जिसने उस पार खड़े प्रेमी की प्रतिमा को पहचान लिया है..वह कुछ शरीर को संवारने, इस मिट्टी के घड़े को संवारने की बातों में नहीं पड़ती। तुम भी मत पड़ना।
‘डगमग छाड़ि दे मन बौरा।’ यह कबीर का मन ये सब बातें कह रहा है। यह तुम्हारा मन भी कहेगा। यह सभी साधकों के मन ने कहा है, इसके पहले कि वे सिद्ध हो जाएं। यह मन का स्वभाव है।
‘लोक वेद कुल की मरजादा, इहै गलै मै पासी। आधा चलि करि पीछा फिरिहैं, ह्वै ह्वै जग में हासी।।’
लोक, समाज, वेद, शास्त्र, परंपरा, कुल की मर्यादा, परिवार, वंश की इज्जत..ये सब गले में फांसी हैं.. ‘इहै गलै मैं पासी।’ क्योंकि मन कहेगा, यह तुम क्या कर रहे हो? यह समाज के विपरीत है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम संन्यस्त होना चाहते हैं, लेकिन समाज का भय है।
कौन है यह समाज? कहां है यह समाज? तुम जैसे ही भयभीत लोगों की भीड़ भय के कारण एक-दूसरे को पकड़ के खड़ी है। वे खुद ही भयभीत हैं, लेकिन जो भी भयभीत होता है वह दूसरे को भी भयभीत करता है। वे तुम्हें भी डरा रहे हैं कि छोड़ के मत जाना भीड़ को। भीड़ कभी पसंद नहीं करती कि कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को उपलब्ध हो जाए, आत्मा को उपलब्ध हो जाए। क्योंकि, जो व्यक्ति भी अपने व्यक्तित्व की तलाश में जाता है, वह भीड़ के मार्ग को छोड़ देता है। उसे पगडंडी खोजनी पड़ती है। उसे निज का मार्ग खोजना पड़ता है। उसे अपने ही पैरों पर भरोसा करना पड़ता है। उसकी दूसरों की निर्भरता धीरे-धीरे क्षीण हो जाती है। और अगर वह निर्भर भी होता है तो परमात्मा पर, समाज पर नहीं। अगर वह देखता भी है किसी की तरफ तो परमात्मा की तरफ, समाज की तरफ नहीं। अज्ञानियों की भीड़! उसकी तरफ देख के मिलेगा भी क्या?
तो कबीर कहते हैंः लोक, समाज एक फांसी है।
कबीर ने, बुद्ध ने, महावीर ने, सभी ने समाज को फांसी की तरह पाया। वह गले में फंदा है। उसे तुम जीवन समझ रहे हो। वह तुम्हें जकड़े हुए हैं; तुम उसकी वजह से गुलाम हो।
‘लोक वेद कुल की मरजादा।’
फिर वेद है, परंपरा है, शास्त्र है, लोग कहेंगे, यह शास्त्र के विपरीत है; लोग कहेंगे शास्त्र में तो लिखा है, संन्यास लेना आखिरी वक्त, जब मौत करीब ही आ जाए; अंतिम चरण में संन्यासी होना। जवान हो के संन्यासी हो रहे हो? शास्त्र में लिखा नहीं है। यह वेद के विपरीत है।
एक बूढ़े आदमी मेरे पास आए। उनकी उम्र होगी कोई अठहत्तर वर्ष। उनके लड़के ने संन्यास ले लिया। लड़का भी कोई लड़का नहीं है; लड़के की उम्र है कोई पचास वर्ष। वे बड़े नाराज आए। वे कहने लगे, आप लड़के-बच्चों को संन्यास दे रहे हैं?
‘कौन सा लड़का बच्चा? ’
अपने लड़के को भी साथ लाए थे। उसकी उम्र पचास साल की है। वे कहने लगे, यह तो वेद के प्रतिकूल है। शास्त्र में साफ लिखा है कि अंतिम चरण में संन्यस्थ होना चाहिए। पहला चरण ब्रह्मचर्य, दूसरा गृहस्थ, तीसरा वानप्रस्थ, चैथे आखिरी चरण में आदमी को संन्यस्थ होना चाहिए।
मैंने कहा, छोड़ो, लड़के को; आपका क्या इरादा है? आपका आखिरी चरण आया? अगर आप संन्यास लेते हों तो लड़के को मैं समझाता हूं कि न ले।
कहने लगे, जरा सोचूंगा। फिर दुबारा आऊंगा। जरा सोचने-समझने दें।
अठहत्तर वर्ष की उम्र में भी अभी सोचने-समझने के लिए रास्ते बना रखे हैं हमने। बेटा ले तो कहते हैं कि आखिरी में लेना; खुद आखिरी में हैं। बेटे को आखिरी में लेना, यह नहीं कह रहे हैं; वह सिर्फ इतना कह रहे हैं, अभी मत ले। उसके लिए आखिरी का बहाना है।
संन्यास कहीं उम्र देखता है? जागने के लिए कोई उम्र का बंधन हो सकता है? और अगर तुम जवानी में न जाग सके तो बुढ़ापे में जागना बहुत मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि जागने के लिए भी ऊर्जा चाहिए, शक्ति चाहिए। जब तुम अशक्त हो जाओगे, सूख चुके होओगे, जब तुम्हारे पास कुछ न बचेगा, तब तुम परमात्मा के चरणों में अपने को चढ़ाने जाओगे। चढ़ाना था तब जब फूल अपनी उमंग में था। चढ़ाना था तब जब कोई सुगंध थी जीवन में। चढ़ाना था तब जब कुछ देने योग्य था पास। जब कुछ भी न बचेगा, जब मौत तुमसे छीनने को दरवाजे पर ही खड़ी रहेगी, तब तुम चढ़ाओगे? वह चढ़ाना झूठा होगा। धोखा तुम किसको दे रहे हो। ‘धोखा कासूं कहिए।’
कबीर कहते हैंः ‘लोक वेद कुल की मरजादा, इहै गलै मै पासी। आधा चलि करि पीछा फिरिहैं, ह्वै ह्वै जग में हासी।’
और यह सती आ गई, चिता के द्वार पर खड़ी हो गई, एक कदम और, और सब स्वाहा हो जाएगा। और मन समझा रहा है, लौट चल; लौट चल, अभी भी वक्त है; अभी भी समय है, अभी भी सुविधा है, लौट चल।
और कबीर कहते हैं कि आधा चल के जो पीछे लौटेगा, सारा जग हंसेगा।
यह जग समाज नहीं है। समाज के लिए कबीर ने लोक शब्द का उपयोग किया। जग है अस्तित्व। अगर ऐसी घड़ी से कोई पीछे लौटेगा, समाधि के करीब से अगर कोई पीछे लौटेगा तो सारा जग, पूरा अस्तित्व हंसेगा। और अगर कोई समाधि में छलांग लगा ले तो सारा जग मगन, मस्त हो के नाच उठेगा।
‘आधा चलि करि पीछा फिरिहैं, ह्वै ह्वै जग में हासी।’
‘यह संसार सकल है मैला, राम कहैं ते सूचा।’
यह सारा संसार अपवित्र है, क्योंकि मन से जन्म है। मन कलह है और अपवित्रता है। ‘राम कहैं ते सूचा’..केवल वे ही इस संसार में पवित्र हैं जिनके हृदय में राम का उच्चार है; जिनकी वाणी में राम का वास है..‘राम कहैं ते सूचा’..केवल वे ही सच्चे, पवित्र, शुद्ध हैं।
‘कहै कबीर नाव नहिं छाड़ौ गिरत परत चढ़ि ऊंचा।।’
सिर्फ उसका नाम मत छोड़ना। गिरना-पड़ना, फिर उठ-उठ के खड़े हो जाना; नाम भर मत छोड़ना। नाम को पकड़े रहना। फिर कोई फिक्र मत करना। गिरना भी होगा, पड़ना भी होगा, उठना भी होगा; तुम एक नाम को भर पकड़े रहना तो मंजिल सुनिश्चित है। पहुंच ही जाओगे। और गिरने से मत डरना।
‘गिरत परत चढ़ि ऊंचा।’
जो गिरने से डरता है, वह तो चलता ही नहीं है; फिर भय के कारण बैठा रह जाता है। गिरने से मत डरना। भूल करने से मत डरना। एक ही बात ख्याल रखना, एक ही भूल दुबारा मत करना। एक ही ढंग से बार-बार मत गिरना, क्योंकि वह तो बेहोश आदमी का लक्षण है। गिरना हर बार; नये ढंग से गिरना, फिर उठ आना। गिरन-उठने में एक चीज समान रखना..उसके नाम का स्मरण। वह अहर्निश गूंजता रहे। अंधेरे में रहो तो, रोशनी में रहो तो; उठो तो, गिरो तो..उसकी गूंज बनी रहे। वह एक धागा न छूटे हाथ से, बस। नाम की नाव न छूटे, फिर लहरें ऊपर ले जाएं, नीचे ले आएं। ‘गिरत परत चढ़ि ऊंचा’..लेकिन गिरते-पड़ते एक दिन तुम उस ऊंचाई पर पहुंच जाओगे जहां परमात्मा है। सिर्फ उसका नाम न छूटे, उसका स्मरण न छूटे।
‘सुन्न मरै अजपा मरै, अनहद हु मरि जाय। राम सनेही ना मरै कहे कबीर समुझाय।’
शून्य जैसा सुख का, महासुख का अनुभव भी मर जाता है। अजपा का, ओंकार का नाद भी मर जाता है। अनहद, असीम की प्रतीति भी मर जाती है। सिर्फ एक राम का प्रेम कभी नहीं मरता।
‘यह संसार सकल है मैला, राम कहैं ते सूचा। कहै कबीर नाव नहिं छाड़ौ, गिरत परत चढ़ि ऊंचा।।’
एक उसकी याददाश्त को बनाए रखना..वही सहारा है। हर घड़ी में, होश में, एक चीज बनी ही रहे; कितने ही गिर जाओ, हाथ से उसका धागा न छूटे। उस धागे के सहारे फिर उठ जाओगे..एक छोटा सा धागा।
ऐसा हुआ कि एक सम्राट नाराज हो गया अपने मंत्री पर और उसने उसे आजन्म कारावास दे दिया। और गांव के बाहर उसने एक बहुत बड़ी मीनार बना रखी थी, जिस मीनार पर उसे कैद कर दिया। उस मीनार से भागने का कोई उपाय न था। अगर वह भागने की कोशिश करता तो गिरता और मरता। कोई पांच सौ फीट ऊंची मीनार थी। मीनार पर सख्त पहरा था। उसकी पत्नी बड़ी परेशान हुई कि क्या करें। कैसे छुटकारा हो। जीवन भर और अभी जवान था मंत्री; आधी जिंदगी और शेष थी!
तो, पत्नी एक फकीर के पास गई और फकीर से कहा, कुछ रास्ता बताओ। फकीर ने कहा, हम तो एक ही रास्ता जानते हैं, उसका ही थोड़ा उपयोग कर लो..धागे को पहुंचा दो। क्योंकि हम तो एक धागा जानते हैं राम-स्मरण का, और हम संसार की कैद से बाहर हो गए। तो यह तो छोटी कैद है। तुम एक धागा पहुंचा दो।
पत्नी ने कहा, मैं कुछ समझी नहीं। आप पहेलियां मत बूझें। तो उसने कहा, तुम ऐसा करो, एक कीड़े को पकड़ लो..एक ऐसे कीड़े को जिसको गंध आती है और उस कीड़े की मूछों पर मधु लगा दो। मधु की गंध आएगी, कीड़ा उपर की तरफ चढ़ने लगेगा। और चूंकि मूछों पर लगी है मधु, जैसा कीड़ा ऊपर चढ़ेगा वैसे मधु आगे हटती जाएगी? गंध उसे खींचती रहेगी। कीड़े की पूंछ पर थोड़ा सा पतला धागा बांध दो।
ऐसा ही किया। वह कीड़ा चढ़ने लगा। मधु की गंध उसे खींचती है। वह गंध में ऊपर की तरफ जाता है, पतले धागे को अपने पीछे लिए आता है। वजीर तो उत्सुक था ही, चैबीस घंटे विचार कर रहा था कि कोई न कोई उपाय मित्र, पत्नी, कोई न कोई खोजेगा। तो वह सचेत था। उसने एक कीड़े को चढ़ते देखा। और कीड़े की पीछे बंधा हुआ एक धागा आ रहा है, पहचान गया कि कोई उपाय हो गया है। धागा पकड़ के उसने धागा खींचना शुरू कर दिया। धागे में एक पतली रस्सी बंधी आ रही है। रस्सी को पकड़ लिया, रस्सी में एक मोटी रस्सी बंधी आ रही है। मोटी रस्सी से वह उतर गया और भाग गया।
उसने अपनी पत्नी से पूछा, यह तरकीब तुझे किसने बताई?
उसकी पत्नी ने कहा कि एक फकीर ने बताई। उसने कहा कि हम भी धागे को पकड़ के बाहर हो गए..राम नाम का धागा! तो यह भी तो छोटी सी कैद है! हम तो बड़ी कैद के बाहर हो गए!
उस वजीर ने कहा कि अब मैं घर नहीं जाता; मुझे फकीर के पास ले चल, जिसने इस कैद से छुड़ा लिया। अब क्या घर लौटना! अब पूरी ही कैद के बाहर हो जाना उचित है। और राज उसे पता है।
यही है राजः
‘यह संसार सकल है मैला, राम कहैं ते सूचा। कहै कबीर नाव नहिं छाड़ौ, गिरत परत चढ़ि ऊंचा।।’

आज इतना ही।


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