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सोमवार, 27 अगस्त 2018

चित चकमक लागे नाहिं-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(अविचार)

मेरे प्रिय आत्मन्!
कल रात्रि को मृत्यु के संबंध में थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कही थीं। जीवन की खोज में मृत्यु से ही प्रारंभ किया जा सकता है। जीवन को जानना और पाना हो तो केवल वे ही सफल और समर्थ हो सकते हैं...जो मृत्यु के तथ्य से खोज को प्रारंभ करते हैं। ये देखने में उलटा मालूम पड़ता है। ये बात उलटी मालूम पड़ती है कि हमें जीवन को खोजना हो तो हम मृत्यु से प्रारंभ करें लेकिन ये बात उलटी नहीं होती। जिसे भी प्रकाश को खोजना हो उसे अंधेरे से ही प्रारंभ करना होगा। प्रकाश की खोज का अर्थ है कि हम अंधेरे में खड़े हैं और प्रकाश हमसे दूर है अन्यथा उसकी खोज ही क्यों करें। प्रकाश की खोज अंधकार से ही शुरू होती है और जीवन की खोज मृत्यु से। जीवन की हमारी खोज है इसका अर्थ है कि हम मृत्यु में खड़े हैं और जब तक इस तथ्य का स्पष्ट बोध न हो तब तक कोई कदम आगे नहीं बढ़ाए जा सकते। इसलिए कल प्रस्ताविक रूप से प्राथमिक रूप से मृत्यु के संबंध में थोड़ी सी बात मैंने आपसे कही। और निवेदन किया कि मृत्यु को पीछे न रखें सामने ले लें। मृत्यु से बचें नहीं उसका सामना करें। मृत्यु से भागें नहीं, उसे भुलाएं नहीं, उसकी सतत स्मृति ही सहयोगी हो सकती है।

इन तीन दिनों में तीन बातों पर सुबह मैं आपसे चर्चा करूंगा और संध्या आपके प्रश्नों का उत्तर दूंगा। आज सुबह मृत्यु पर जो चर्चा थी उसके भी संदर्भ में दो बातें एक ही पेड़ पर आपसे कहना चाहता हूं। पेड़ होगा और अविचार तीनों शब्द इन तीन दिनों के चर्चा के लिए चुने हैं। आज अविचार पर चर्चा करूंगा, कल विचार पर, परसों निर्विचार पर। और विचार का अर्थ है चित्त की ऐसी दशा जहां हम अंधे होकर जीते हैं और कोई विचार नहीं करते। विचार से अर्थ है चिंतनपूर्वक सचेतन रूप से जीना और निर्विचार का अर्थ है विचार से भी ऊपर उठ जाना और समाज में जीना। तीन सीढ़ियां हैं, आज अविचार पर आपसे बात करूंगा। साधारणतः हम सब अविचार की स्थिति में हैं। जीवन में हमारे कोई विचार नहीं हैं। हम जीते हैं अंधी आकांक्षाओं की प्रेरणा पर। जीते हैं अंधी वासनाओं के धक्के पर। उन सारी वासनाओं के लिए हम उत्तर नहीं दे सकते कि क्यों? क्योंकि क्यों का उत्तर वहीं दिया जा सकता है जहां जीवन में विचार का प्रारंभ हुआ हो। भूख लगती है, प्यास लगती है, वासनाएं उठती हैं, हम उन्हें पूरा करने में संलग्न भी होते हैं लेकिन क्यों? क्यों का कोई उत्तर देना संभव नहीं है। भूख लगती है इसलिए भोजन की खोज करते हैं लेकिन भूख की क्या जरूरत है और भोजन की क्या जरूरत है, ये हमारे विचार का हिस्सा नहीं बनता और न बन सकता है?
विचारशील से विचारशील व्यक्ति को भी भूख लगती है और उसका कोई उत्तर नहीं है। जैसे पूरी प्रकृति अंधे होकर जी रही है, हम भी जीते हैं। वर्षा होती है, धूप निकलती है, सूरज निकलता है, रात होती है, क्यों? कोई उत्तर नहीं है। बीज से अंकुर पैदा होता है, वृक्ष बनता है, पत्ते लगते हैं, फूल लगते हैं, फल लगते हैं क्यों? कोई उत्तर नहीं है। पशु हैं, पक्षी हैं, कीड़े-मकोड़े हैं मनुष्य भी हैं क्यूं? ये सारा अस्तित्व जिस तल पर हम जी रहे हैं बिना किसी उत्तर के। हम हैं और जीने की बहुत प्रबल आकांक्षा है इसलिए जी जाते हैं लेकिन क्यों हैं और जीवन की प्रबल आकांक्षा क्यूं है इसका कोई उत्तर हमारे पास नहीं है और किसी मनुष्य के पास कभी नहीं रहा है। ये अविचार का तर्क है मैं आपको गाली देता हूं आपके भीतर क्रोध पैदा होता है, ये क्रोध क्यों पैदा होता है, गाली देने से। आपको कोई धक्का देता है आपके मन में हिंसा पैदा होती है, क्यों पैदा होती है? कोई आपको सुंदर मालूम पड़ता है, क्यों मालूम पड़ता है? कोई असुंदर मालूम पड़ता है क्यूं? कोई पसंद पड़ता है, कोई नापसंद। कोई प्रीतिकर लगता है, कोई दूर भागने जैसा लगता है। किसी को निकट रखने की इच्छा होती है किसी को दूर हटा देने की। शायद ही आपने पूछा हो यह सब क्यों हैं? और पूछेंगे तो भी कोई उत्तर उपलब्ध नहीं होगा। खाली प्रश्न गूंजता रह जाएगा और कोई उत्तर नहीं पाया जा सकता। शरीर के तल पर प्रकृति के तल पर कोई उत्तर नहीं है। निरुत्तर हम जीए जाते हैं। और इसलिए जब मौत भी आएगी तो उसके लिए भी कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता। न जन्म के लिए कोई उत्तर था कि मैं क्यूं पैदा हुआ न मृत्यु के लिए कोई उत्तर होगा कि मैं क्यूं मर गया? न भूख के लिए कोई उत्तर था, न प्यास के लिए, न वासना के लिए, न किसी और गति के लिए कोई उत्तर था तो अंत में मृत्यु के लिए भी उत्तर नहीं हो सकता। जैसे जन्म को स्वीकार किया है वैसे ही एक दिन मृत्यु को भी स्वीकार कर लेने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। इस तल पर उत्तर है ही नहीं। यह शरीर का तर्क है और विचार का तर्क है, मृत्यु का तर्क है यहां कोई उत्तर नहीं है। अधिक लोग इसी तल पर जीते हैं, बिना किसी उत्तर के जीते हैं और जो जीवन बिना उत्तर के है वो व्यर्थ है उसकी सार्थकता स्वयं के समक्ष भी प्रकट नहीं है।
मेरे एक मित्र थे अभी-अभी उन्होंने आत्मघात कर लिया। विचारशील थे, बहुत सोचते थे। मरने के कोई दो दिन पहले मुझे मिलने आए थे और वर्षों से मरने का भी चिंतन करते थे। और बार-बार सोचते थे कि अपने को समाप्त कर लूं। मुझसे पूछने आए थे कि मैं अपने को समाप्त करना चाहता हूं। जिस तरह का जीवन है उसमें मुझे कोई अर्थ, कोई मीनिंग नहीं दिखाई पड़ता। मुझसे पूछने आए थे कि आपकी क्या राय है, आपकी क्या सलाह है? मैंने उनसे कहा कि अगर आपको मृत्यु में कोई अर्थ दिखाई पड़ता हो तो जरूर अपने को समाप्त कर लें। जीवन में तो कोई अर्थ दिखाई नहीं पड़ता, मृत्यु में कोई अर्थ दिखाई पड़ता है। वे बोलेः उसमें भी मुझे कोई अर्थ दिखाई नहीं पड़ता है। तो मैंने कहा, कोई फर्क न होगा इस जीवन को समाप्त कर लें, तो भी कोई फर्क न होगा, व्यर्थता वहीं की वहीं खड़ी रहेगी, जीवन भी व्यर्थ है मृत्यु भी व्यर्थ होगी। चोरों का कोई कारण नहीं है और हममें से भी हम अधिक लोग इसलिए जीए जाते हैं कि मर कर भी क्या करेंगे, मरने से भी क्या होगा। इसलिए जीते हैं, ये कोई जीवन नहीं है मृत्यु के विकल्प में भी कोई अर्थ नहीं है इसलिए जीए चले जाते हैं। फिर तो उन्होंने दो महीने बाद आत्मघात कर ही लिया। मुझे एक पत्र लिखा उस पत्र में लिखा है कि मैं तो अंततः इसी निर्णय पर पहुंचता हंू कि अपने को समाप्त कर लूं।
इधर पचास वर्षों में बहुत से लोगों ने अपने को समाप्त किया है। ऐसे लोगों ने जिन पर कोई कष्ट या कोई दुख नहीं था। जो कोई आर्थिक असुविधा में नहीं थे लेकिन सिर्फ इसलिये समाप्त किया कि जीवन का कोई अर्थ नहीं मालूम पड़ा। आप भी विचार करेंगे, आप भी सोचेंगे, आप भी चिंतन करेंगे तो शायद ही कोई अर्थ पाएं कि मैं क्यूं जीऊं और अगर आपके पास जीने के लिए कोई उत्तर नहीं है तो आपके जीवन में न कोई गहराई हो सकती है न कोई रणभूमि हो सकती है। ये जीना और न जीना करीब-करीब बराबर है। हैं तो ठीक, नहीं हैं तो ठीक। मेरे देखे शरीर के तल पर जीवन का कोई भी उत्तर नहीं मिल सकता है और हम सारे लोग शरीर के तल पर ही जीते हैं। भूख लगती है, प्यास लगती है, वस्त्र चाहिए, मकान चाहिए इसलिए जीते हैं।
थोड़ी देर के लिए सोचिए यदि आपके लिए सब मिल जाए भूख तृप्त हो जाए, प्यास तृप्त हो जाए, आपकी वासनाएं तृप्त हो जाए। जो आपको चाहिए वो मिल जाए फिर आप क्या करेंगे, सिवाय मरने के आपके पास कोई उपाय नहीं होगा। अगर आपकी सारी इच्छाएं तृप्त हो जाएं तो आप क्या करेंगे? क्या फिर एक क्षण भी आप जी सकेंगे? सो जाएंगे, अनंत निद्रा में सो जाएंगे। अभी भी जब तक आपकी इच्छा आपको दौड़ाती है दौड़ते हैं। जब कोई काम नहीं तो सिवाय सोने के आपके पास कुछ भी काम नहीं रह जाता। अगर आपकी सारी इच्छाएं तृप्त कर दी जाएं तो सिवाय मरने के आपके पास कुछ भी नहीं होगा। शरीर के तल पर कुछ परेशानियां हैं उनको पूरा करने के लिए हम जीते हैं लेकिन जाने शरीर तो मरेगा क्योंकि तो शरीर जन्मा है, जो जन्मा है उसकी तो मृत्यु होगी जो शुरू हुआ है उसका अन्त होगा। शरीर के तल पर जो जीवन है वो अनिवार्य रूप से मृत्यु में ले जाने वाला है। इसमें कोई दो मत न हैं न हो सकते हैं। क्या इसके ऊपर भी कोई जीवन हो सकता है। शरीर के तल पर तो कोई अर्थ, कोई मीनिंग नहीं पाया जा सकता है। क्या और किसी तल पर कोई मीनिंग कोई अर्थ पाया जा सकता है। शरीर तो बिलकुल प्रकृति का बंधा हुआ यंत्र है। प्रकृति जैसे यांत्रिक रूप से चलती है, वैसा ही शरीर भी चलता है, वहां कोई स्वतंत्रता नहीं है। वहां सब परतंत्र है। महावीर का शरीर भी परतंत्र है, कृष्ण और क्राइस्ट का भी, मेरा और आपका भी क्योंकि महावीर भी मर जाते हैं और कृष्ण भी और क्राइस्ट भी।
शरीर के तल पर आज तक कोई भी स्वतंत्र नहीं हुआ है। और न शरीर के तल पर आज तक अमृत जीवन को पाया जा सका है। किसी ने भी नहीं पाया था और न कभी कोई पा सकेगा। शरीर मरणधर्मा है, अमृत वहां नहीं है। शरीर मृत्यु का घर है जीवन वहां नहीं है। यदि हम उसी घेरे में घूमते हैं, तो जैसा मैंने कल रात आपको कहा हम कुछ भी करें हम मृत्यु में पहुंच जाएंगे। शरीर बिल्कुल परतंत्र है वहां कोई स्वतंत्रता नहीं है। शरीर के ऊपर, शरीर के पास हमारे भीतर क्या कुछ है। जरूर मन की कुछ छद्म नीति है हर मनुष्य को अपने मन का बोध होता है। विचार के चरण पद-चिह्न सुनाई पड़ते हैं। चिंतन चलता है, सोच-विचार होता है। मन की कुछ खबर मिलती है, मन है। शरीर मैंने कहा अनिवार्य रूप से परतंत्र है। मन अनिवार्य रूप से परतंत्र नहीं है। मन स्वतंत्र हो सकता है। लेकिन सामान्यतः मन भी परतंत्र है। मन के तल पर भी हमारे जीवन में कोई स्वतंत्रता नहीं है। मन के स्तर पर भी हम परतंत्र हैं शरीर के तल पर वासनाएं, गतियां पकड़े हुए हैं, मन के तल पर विश्वास पकड़े हुए है। मन के तल पर शब्द और शास्त्र और सिद्धांत पकड़े हुए हैं। मन भी दास है और मन भी परतंत्र लकीरों पर दौड़ता है और चलता है। वहां भी कोई स्वतंत्रता नहीं है। लेकिन मन स्वतंत्र हो सकता है। यह फर्क है शरीर और मन में। शरीर परतंत्र है और स्वतंत्र नहीं हो सकता है। मन भी परतंत्र है, लेकिन स्वतंत्र हो सकता है। उसके पास भी एक तत्व है उसकी मैं चर्चा करूंगा। उस दिशा में हम काम करेंगे, उसे आत्मा कहा है। कुछ और भी कहा जा सकता है आत्मा स्वतंत्र है और परतंत्र नहीं हो सकती है। ये तीन तल हैं जीवन के। शरीर परतंत्र है और स्वतंत्र नहीं हो सकता है। मन परतंत्र है लेकिन स्वतंत्र हो सकता है। आत्मा स्वतन्त्र है और परतंत्र हाने में असमर्थ है। लेकिन इस आत्मा को जो अनिवार्य रूप से स्वतंत्र है और जीवंत है, जो अमृत है और जिसकी कोई मृत्यु और कोई जन्म नहीं, इसे जानने में केवल वही मनुष्य समर्थ हो सकता है जो स्वतंत्र हो यदि मन परतंत्र हो तो शरीर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जान पाएगा परतंत्र मन परतंत्र शरीर के बाहर आंख नहीं उठा सकता है। मन जब तक परतंत्र है तब तक हम जानेंगे कि हम शरीर से ज्यादा नहीं है मन यदि स्वतंत्र हो तो स्वतंत्र मन की आंखें उस आत्मा की तरफ भी उठनी शुरू हो जाएगी जो कि स्वतंत्र है और जो कि जीवंत है। इसलिए न तो प्रश्न शरीर का है और न प्रश्न आत्मा का है, सारा प्रश्न जीवन की साधना का है मन पर केंद्रित है। मन परतंत्र है तो जीवन शरीर से ऊपर नहीं हो सकता। अर्थात जीवन मृत्यु से ले जाएगा।
मन यदि स्वतंत्र है तो जीवन की आंख अनंत की तरफ उठनी शुरू हो सकती है। क्या हमारे मन स्वतंत्र हैं या परतंत्र? हमारे मन आम तौर से परतन्ंत्र हैं। हमारे मनों ने कोई स्वतंत्रता नहीं जानी है। हम केवल वस्त्र ही दूसरों जैसे नहीं पहनते हैं, भोजन ही दूसरों जैसा नहीं करते हैं, हम विचार भी दूसरों जैसा ही करते हैं। विचार के तल पर भी हम अनुगामी हैं किसी के, जो अनुगामी हैं जो परतंत्र हैं। जो किसी को फैलो करता है जो किसी के पीछे चलता है वो परतंत्र है। शरीर के तल पर हम परतंत्र हैं। मन के तल पर भी हम अपने को परतंत्र बनाए हुए हैं। क्या एकाध विचार कभी आपने कभी सोचा है या कि सब विचार आपने उधार ले लिए हैं। क्या कभी एकाध विचार का आपके भीतर जन्म हुआ है या कि सब विचार आपने इकट्ठे कर लिए हैं। बहुत विचार आपके मन में होंगे उन पर थोड़ा देखें और देखेंगे तो पाएंगे कि वे कहीं से आए हैं आपके भीतर इकट्ठा हो रहे हैं। जैसे वृक्षों पर सांझ को पक्षी आकर बैठ जाते हैं ऐसे ही हमारे मन में भी विचारों ने अपने डेरे बनाए हुए हैं। वे सब विचार दूसरों के लिए बनाए गए हैं और उधार केवल वही मनुष्य अपने को मनुष्य कहने का हकदार बनता है जो एकाध विचार की अनुभूति को स्वयं उत्पन्न करने में समर्थ हो जाता है। उसके भीतर स्वतंत्रता की शुरुआत होती है अन्यथा हम परतंत्र हैं। सारे मनुष्य परतंत्र हैं और उनकी परतंत्रता का आधार इस बात में है कि उन्होंने खुद कभी कोई विचार नहीं किया है। उन्होंने सब विचार स्वीकार कर लिए हैं। उन्होंने हां भर दी है। उन्होंने आस्था कर ली है, उन्होंने श्रद्धा कर ली है, उन्होंने विश्वास कर लिया है। हजारों वर्षों से विश्वास सीखाया जाता है, विचार नहीं। हजारों वर्षों से श्रद्धा सिखाई जाती है, चिन्तन नहीं। हजारों वर्षों से मानो आस्था, मान्यता सिखाई जाती है मनन नहीं और परिणाम यह हुआ है कि मनुष्य की जाति निरंतर परतंत्र से परतंत्र होती चली गई।
हमारे लोग जंजीरों में जकड़ गए हैं, जो केवल दोहराते हैं, रिपीट करते हैं, कुछ सोचते नहीं। अगर मैं आपसे कोई भी प्रश्न पूछूं, तो जो भी उत्तर आप देंगे, वह करीब-करीब दोहरावट होगी, पुनरुक्ति होगी, रिपीटिशन होगा, चिंतन नहीं होगा। अगर मैं आपसे पूछूं, ईश्वर है, तो आपके भीतर जो उत्तर आएगा विचार करिए वह उत्तर आपका है? अगर मैं आपसे पूछूं, आत्मा है और आपके भीतर जो भी उत्तर आए चाहे यह उत्तर आए कि आत्मा है, चाहे यह उत्तर आए कि आत्मा नहीं है, क्या वह आपके विचार से जन्मा है? या कि आस-पास की हवाओं से आपमें प्रविष्ट हो गया है। आपने किसी शास्त्र से समझ लिया है, किसी धूल से स्वीकार कर लिया है या आपने जाना अगर वो उत्तर आपको ज्ञात हो कि आपका जाना हुआ नहीं है तो आप समझना कि आपका मन परतंत्र है। ये तो आत्मा और परमात्मा दूर की बात है। जीवन के बहुत सहज अनुभव भी हमारे अपने नहीं होते, वो भी हम दोहराते हैं। अगर मैं एक गुलाब के फूल को आपके सामने रखूं और पूछूं कि क्या ये सुंदर है, तो शायद आप कहेंगे सुंदर है। लेकिन इस पर भी थोड़ा विचार करना कि ये भी आपने स्वीकार किया है या स्वयं जाना है। क्योंकि दुनिया में अलग-अलग कौमें अलग-अलग फूलों को सुंदर समझती हैं। और दुनिया में अलग-अलग चेहरे, अलग-अलग कौमों में सुंदर समझे जाते हैं। और उन कौमों में जो बच्चे पैदा होते हैं वे सौंदर्य की उन्हीं परिभाषाओं को सीख लेते हैं और जीवन भर दोहराते हैं। जो नाक ईरान में सुंदर हो सकती है वह चीन में सुंदर नहीं। तो फिर शक हो जाता है कि सौंदर्य की अनुभूति हमारी है या हमारे समाज से हमें उपलब्ध हो गई है। जो चेहरा हिंदुस्तान में सुंदर है वह जापान में नहीं। और जो निग्रो चेहरा निग्रो कौम में सुंदर मालूम होगा वह हिंदुस्तान में नहीं सुंदर मालूम होगा। हिंदुस्तान में पतले होंठ सुंदर है और निग्रोस के लिए चैड़े ओंठ सुंदर हैं। निग्रो बच्चा जीवन भर यही दोहराता रहेगा कि ये ओंठ सुंदर हैं और भारत में पैदा हुआ बच्चा यही दोहराता रहेगा कि यह ओंठ सुंदर हैं। कौन सा ओंठ सुंदर है, कौन सा चेहरा, कौन सा फूल। ये भी हमारी अपनी अनुभूति नहीं है यह भी हम दोहरा रहे हैं।
अगर मैं आपसे पूछूं कि प्रेम क्या है, तो वो भी आप दोहराएंगे, वह भी आपने किसी शास्त्र में पढ़ा होगा। वह भी शायद ही आपने जाना हो और खोजा हो। यदि हमारा व्यक्तित्व और हमारा चित्त इस भांति दोहराने वाला है, समाज की प्रतिध्वनि करने वाला है तो फिर वो स्वतंत्र नहीं होगा? कैसे स्वतंत्र होगा? हम केवल ईकोइंग पॉइंट हैं हम केवल दोहराने वाले बिंदु हैं। समाज की आवाजें हमसे गूंजती रहती हैं, उनको दोहराते रहते हैं, हम व्यक्ति नहीं हैं, हम इंडिविजुअल नहीं हैं। हमारे भीतर व्यक्तित्व का जन्म ही नहीं हुआ। और जिसके भीतर व्यक्तित्व का जन्म नहीं हुआ वह अमृत को कैसे पा सकेगा? आपके पास है क्या जिसे आप बचाना चाहते हैं। क्या है आपके पास जिसे आप कह सकें मेरा। मैंने जाना और मैंने जीया। अगर ऐसा कुछ भी नहीं है तो मृत्यु तो निश्चित है। यह सब जो समाज से आया है, वापस लौट जाएगा। आपने क्या जन्माया है जो समाज से न आया हो, जो किसी दूसरे से न आया हो, जिसे आप कह सकें प्रमाणित रूप से मेरा है, अगर ऐसा कुछ भी नहीं, तो आपके भीतर आत्मा का दर्शन कैसे हो सकेगा। प्रमाणिक रूप से जब चित्त में कुछ मेरा होता है तो फिर आत्मा की और गति शुरू होती है। मैं पात्र होता हूूं आत्मा को जानने में समर्थ होता हूँ। व्यक्तित्व का जन्म स्वतंत्र चित्त के बिना संभव नहीं है। और हमारे चित्त बिलकुल परतंत्र हैं हमारा मन बिलकुल गुलाम है। और मन की गुलामी बहुत गहरी है और हजार-हजार रास्तों से हमें गुलामी के लिए तैयार किया जा रहा है। सब भांति हमें गुलाम बनाने की चेष्टा रही है। चेष्टा में कुछ कारण हैं। समाज के हित में है कि व्यक्ति गुलाम हो। राज्य के हित में है कि व्यक्ति गुलाम हो। धर्मों-संप्रदायों के हित में है कि व्यक्ति गुलाम हो। पुरोहितों-पंडितों के हित में है कि व्यक्ति गुलाम हो। व्यक्ति जितना गुलाम हो उतना ही उसका शोषण किया जा सकता है और व्यक्ति जितना गुलाम हो उतना ही उससे विद्रोह की संभावना समाप्त हो जाती है।
व्यक्ति का मन अगर बिल्कुल परतंत्र हो तो खतरनाक भी रह जाता है। विद्रोह और क्रांति असंभव हो जाती है। समाज नहीं चाहता कि किसी व्यक्ति का चित्त स्वतंत्र हो। इसलिए समाज बचपन से ही व्यक्ति को परतंत्र करने के सारे उपाय करता है। सारी शिक्षाएं और सारे संस्कार व्यक्ति के चित्त को गुलाम बनने की आधारभूमि बन जाते हैं। इससे पहले कि हमें होश आए हम करीब-करीब जंजीरों में जकड़ दिए गए होते हैं। जंजीरों के नाम कुछ भी हो सकते हैं हिंदू हो सकता है, जैन हो सकता है, भारतीय हो सकता है, अभारतीय हो सकता है, ईसाई, मुसलमान हो सकता है। जंजीरों पर कोई भी मार्क हो सकते हैं, कोई भी निशान हो सकते हैं, कोई भी नाम हो सकते हैं लेकिन हजार-हजार तरह की जंजीरें हमारे मन को पकड़ लेती हैं और फिर हम उनके ऊपर सोचना बंद कर देते हैं। बहुत कम लोग हैं जो सोचते हैं। अधिकतम लोग दोहराते हैं, फिर चाहे वे महावीर को दोहराएं, चाहे बुद्ध को, चाहे गीता को, चाहे कुरान को। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता जब तक आप दोहराते हैं तब तक आप अपनी आत्मा के साथ सबसे बड़ा पाप करते हैं। जब तक आप किसी को भी दोहराते हैं तब तक आप स्वतंत्र होने की तैयारी नहीं कर रहे हैं। लेकिन कहा तो यही जाता है कि जो श्रद्धा नहीं करेगा उसे आत्मा नहीं मिलेगी। कहा तो यही जाता है कि जो विश्वास नहीं करेगा वह मोक्ष नहीं पा सकेगा लेकिन कितनी मूढ़तापूर्ण बात है। विश्वास है अंधापन, विश्वास है परतंत्रता और मोक्ष है परम स्वतंत्रता। विश्वास से कैसे मोक्ष मिलेगा, विश्वास से कैसे आत्मा मिलेगी। विश्वास तो है अंधापन उसी तल का अंधापन, जिस तल का अंधापन शरीर पर है। वासनाओं में उसी तल का अंधापन मन पर पैदा हो जाए तो विश्वास है।
मैं निवेदन करता हूं कि विश्वास पर छोड़िए और विचार को जन्म दीजिए। विश्वास की स्थिति अविचार की स्थिति है। लेकिन हम विश्वास क्यों कर लेते हैं यह तो समझ में आ जाती है बात कि समाज के हित में है विश्वास। शोषण के हित में है विश्वास, मंदिरों-पुजारियों इनके हित में है विश्वास। क्योंकि इनका सारा व्यापार विश्वास पर है। जिस दिन विश्वास नहीं है उस दिन यह सारा व्यापार टूट जाएगा। यह तो समझ में आता है कि उनके हित में है लेकिन हम क्यों विश्वास कर लेते हैं, मैं और आप क्यों विश्वास कर लेते हैं? हम इसलिए विश्वास कर लेते हैं कि विश्वास बिना मेहनत के उपलब्ध होता है, बिना श्रम के। विचार के लिए परिश्रम करना होगा। विचार के लिए पीड़ा से गुजरना होगा। विचार के लिए चिंता में पड़ना होगा। विचार के लिए कष्ट सहना होगा। विचार के लिए संदेह में पड़ा रहना होगा। विचार में आप अकेले रह जाएंगे। विश्वास में सारी भीड़ आपके साथ है। विश्वास में एक सुरक्षा है, विश्वास में एक सिक्योरिटी है, एक तरह का सहारा है। विचार में बड़ी असुरक्षा है। भटक जाने का डर है। भूल हो जाने की संभावना है, मिट जाने का डर है। एक तो विश्वास की दुनिया में जहां राजपथ पर हजारों लोग चल रहे हैं, वहां हम भी चलते हैं, उस भीड़ में हमें कोई डर नहीं मालूम होता, चारों तरफ लोग ही लोग होते हैं। विश्वास का रास्ता तो भीड़ का रास्ता है। विचार का रास्ता अकेलेपन का रास्ता है। वहां आप अकेले होंगे। वहाँ कोई सहारा नहीं होगा। वहां आस-पास कोई भीड़ नहीं होगी।
भीड़ ऐसे विश्वास तक करा सकती है जिनकी आप कल्पना नहीं कर सकते। अरस्तू ने लिखा है कि स्त्रियों के दांत पुरुषों के दांत से कम होते हैं। ये आदमी बहुत समझदार है और पश्चिम में तर्क का जन्मदाता समझा जाता है। पिता समझा जाता है। और उसकी एक औरत नहीं थी। उसकी खुद की दो औरतें थीं लेकिन उसने कभी गिनने की फिकर नहीं की कि औरत का मुंह खोल कर वह गिन लेता कि दांत कितने थे। लेकिन हजारों वर्षों से यूनान में यह विश्वास था कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। असल में स्त्रियों की सब चीजें कम होनी ही चाहिए पुरूषों से। क्योंकि स्त्री तो कोई नीचे किस्म का पशु है। पुरूष कुछ ऊंचे किस्म का। तो स्त्री के दांत पुरूष के बराबर हो ही कैसे सकते हैं ये बात साफ थी इसलिए किसी ने गिनती की फिकर नहीं की। और यूनान में हजार वर्षों तक यह समझा जाता रहा कि स्त्रियों के दांत पुरूषों से कम होते हैं। और स्त्रियां तो इतनी दयनीय हैं कि पुरूष जो कहता है उसे स्वीकार कर लेती हैं। उन्होंने खुद भी अपने दांत नहीं गिनें। अरस्तु जैसे समझदार व्यक्ति ने भी अपनी किताब में लिख दिया कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। अरस्तु के मरने के एक हजार वर्ष बाद तक भी यूरोप यही मानता था कि स्त्रियों के दांत कम होते हैं। लेकिन किसी समझदार को ये खयाल न सूझा कि मैं गिन लूं। गिनने का खयाल तो तभी पैदा हो सकता है। जब किसी में विचार पैदा हो लेकिन अगर विश्वास हो तो गिनने का कोई सवाल ही नहीं है। भीड़ ने हजारों तरह की बेवकूफियां हजारों साल तक मानी है। और उस भीड़ में समझदार से समझदार लोग भी सम्मिलित रहे। और उन्हें कभी खयाल नहीं उठा, क्योंकि संदेह नहीं उठा। जिसके मन में संदेह नहीं उठता उसके मन में विचार पैदा नहीं हो सकता है।
संदेह से बड़ी आध्यात्मिक और कोई क्षमता नहीं है। श्रद्धा से बड़ा पाप नहीं, संदेह से बड़ा धर्म नहीं। संदेह उठना चाहिए क्योंकि संदेह नहीं उठेगा तो आप समाज से भीड़ से मुक्त नहीं हो सकते। स्वतंत्र नहीं हो सकते। भीड़ तो समझाती है कि संदेह मत करना, क्योंकि जो संदेह करेगा वह नष्ट हो जाएगा। मैं आपसे निवेदन करता हूं जिसने संदेह किया है, उसी ने पाया है, और जिसने विश्वास किया है, वह तो विश्वास करते ही नष्ट हो गया। हो जाने का सवाल ही नहीं आया। क्योंकि विश्वास का अर्थ है कि मैं अंधा हूं और मैं मानता हूं जो कहा जाता है। और संदेह का अर्थ है कि मैं अंधा होने को राजी नहीं हूं, मैं विचार करूंगा और जब तक खुद न अनुभव कर लूं तब तक विश्वास करने के लिए राजी नहीं हूंगा। संदेह में साहस है, विश्वास में आलस्य है। आलस्य के कारण हम विश्वास किए हुए हैं। कौन खोजे इसलिए, जो दूसरे कहते हैं उसे हम विश्वास कर लेते हैं। फिर हजारों वर्ष की जब परंपरा होती है तो उसमें बल होता है। क्योंकि ये खयाल होता है कि हजारों वर्ष तक लोग गलत तो नहीं सोच सकते। तो जब हजारों वर्ष तक करोड़ों-करोड़ों लोगों ने एक ही तरह सोचा है तो उन्होंने ठीक ही सोचा होगा। भीड़ सेंशन बन जाती है किसी चीज की सच्चाई का जब कि भीड़ कहीं किसी चीज की सच्चाई का। कोई प्रमाण नहीं है। अक्सर तो भीड़, जो मर गए हैं उनका अनुगमन करती रहती है। भीड़ कोई अनुभव नहीं करती। भीड़ के पास अनुभव करने का कोई उपाय भी नहीं है। व्यक्ति अनुभव करता है, समाज कुछ भी अनुभव नहीं करता। समाज के पास अनुभूति की कोई आत्मा नहीं है। समाज तो निष्प्राण यंत्र है। इसलिए समाज पर जो निर्भर होता है वह खुद भी धीरे-धीरे एक यंत्र हो जाता है और उसका व्यक्तित्व नष्ट हो जाता है। समाज से मुक्त हुए बिना कोई धार्मिक नहीं हो सकता।
ये तो बात सुनी होगी कि संन्यासी समाज को छोड़ कर चले जाते हैं लेकिन वे छोड़कर जाते नहीं। घर छोड़ कर चले जाते हैं। परिवार छोड़ कर चले जाते हैं लेकिन समाज को कोई संन्यासी छोड़ता नहीं। जब कोई संन्यासी समाज को ही छोड़ देता है तो जरूर सत्य उसे उपलब्ध होता है। समाज कोई इसलिए नहीं छोड़ता कि जैन धर्म में बंधा हुआ कोई व्यक्ति जब संन्यासी हो जाता है तो संन्यासी कहता है मैं जैन होने के बाद भी साहब हूं। घर तो उसने छोड़ा लेकिन समाज उसने नहीं छोड़ा। पत्नी उसने छोड़ी लेकिन गुरु उसने नहीं छोड़ा। शरीर के तल पर वो भागा लेकिन मन के तल पर वो गुलाम है। शरीर के तल पर भागने का कोई अर्थ नहीं है सवाल तो मन के तल पर भागने का है। वो धर्म जो बचपन से उसे सिखाया गया वह अब भी उसके मन को पकड़े हुए है, वे जो उत्तर उसे बताए गए अब भी उसके मन में बैठे हुए हैं। वे शास्त्र जो उसे बताए गए थे वो अब भी उन्हें दोहराता है। वह मन के तल पर गुलाम है। मैं आपसे कहता हूं शरीर के तल पर मत भागें। शरीर के तल पर कोई भाग नहीं सकता। वह जो संन्यासी भाग गया शरीर के तल पर वो भी नहीं भागा है क्योंकि रोटी मांगने वो समाज में वापस आता है। कपड़ा मांगने समाज में वापस आता है। शरीर के तल पर तो कोई समाज से भागेगा कैसे, मन के तल पर मुक्त हो सकता था। उस तल पर मुक्त नहीं हुआ, जिस तल पर मुक्त हो ही नहीं सकता, उस तल पर झूठे दंभ में पड़ गया है। शरीर के तल पर तो कोई भाग नहीं सकता कहीं भी। शरीर के तल पर तो समूह में जीएगा। बड़े से बड़ा ज्ञानी भी समूह पर जीएगा। लेकिन मन के तल पर मुक्त हो सकता था। उस तल पर मुक्त नहीं हुआ है। वहीं मुक्त होना है।
मैं आपसे नहीं कहता कि कोई घर-बार छोड़ कर चला जाए वो सब पागलपन है लेकिन मन की दीवारें गिरा दे, मन के तल गिरा दे और मन के भीतर जो बनाए हुए घेरे हैं वो तोड़ दें। और मन के भीतर जो जंजीरें हैं उनको नष्ट कर दें तो उसके जीवन में स्वतंत्रता की शुरुआत होगी। पहला तथ्य है कि संदेह करें, जो भी दिखाया गया है उस पर संदेह करें। इसलिए नहीं कि वो गलत है। इस बात को समझ लें ठीक से। महावीर पर संदेह करें, बुद्ध पर संदेह करें। इसलिए नहीं कि बुद्ध और महावीर जो कहें वो गलत है। इसलिए नहीं, नहीं विश्वास करना गलत है। इस बात को समझ लें। कुरान पर संदेह करें, बाइबिल पर संदेह करें, गीता पर संदेह करें, इसलिए नहीं कि जो लिखा है वो गलत ये मैं नहीं कह रहा हूँ। मैं ये कह रहा हूं कि विश्वास करना गलत है। और अगर विश्वास कर लेंगे तो जो उनमें लिखा है, जो उनमें कहा है, उसे कभी नहीं जान पाएंगे और अगर संदेह करेंगे तो एक दिन जरूर वो सत्य आपके सामने भी उद्घाटित होगा जो महावीर और बुद्ध के सामने भी उदघाटित हुआ है। संदेह अविचार को तोड़ता है। श्रद्धा अविचार को घनीभूत कर देती है।
विश्वास अविचार का समर्थक है। संदेह अविचार की स्थिति को तोड़ता है लेकिन विचार में तो पीड़ा होगी। विचार तो एक तप है, उपवास तप नहीं है। भूखे रह जाना कोई बड़ी तपस्या नहीं है। प्यासे रह जाना कोई बड़ी तपस्या नहीं है। सर्कस में भी कोई कर सकता है। लेकिन संदेह करना बहुत बड़ा तप है। संदेह न करने का अर्थ है असुरक्षा में खड़े होने को राजी होना। अज्ञान में खड़े होने को राजी होना। खुद के पैरों पर खड़े होने को राजी होना। सारे सहारे छोड़ देना। और स्मरण रखें जब तक कोई सहारों को लेकर चलता है जब तक उसके पैर कभी भी चलने में समर्थ नहीं हो सकते, और जब तक कोई मन के तल पर विश्वास करता है तब तक उसका खुद का मन सत्य को खोजने की शक्ति नहीं जुटा सकता। हम शक्ति जुटाते तभी हैं जब हम असुरक्षा में पड़ जाते हैं। शक्ति इकट्ठी तभी होती है, जागती तभी है जब हम असुरक्षा में पड़ जाते हैं। आपसे मैं कहूं कि दौड़ें, आप दौड़ेंगे, बहुत धीमे दौड़ेंगे। आपसे मैं कहूं पूरी ताकत लगा कर दौड़ें, तभी भी आप बहुत धीमे दौड़ेंगे लेकिन अगर आपके प्राणों के पीछे कोई बंदूक लेकर पड़ जाए तो आपके पैरों में वो गति आएगी, जिसकी आपको खुद भी कोई कल्पना नहीं थी।
एक बार ऐसा हुआ जापान में एक बहुत बड़े राजा का नौकर उस राजा की रानी के प्रेम में पड़ गया। जैसे ही राजा को पता चला ये तो बहुत असहन और अपमान की बात थी एक साधारण सा नौकर, एक गुलाम उसकी रानी को प्रेम करे और रानी उसके प्रेम में पड़ जाए हालांकि प्रेम जानता नहीं कि कौन गुलाम है और कौन नौकर? लेकिन समाज के हिसाब हैं। प्रेम को कुछ पता नहीं चलता कि कौन राजा है, कौन नौकर। प्रेम तो जिसे हो जाए उसे ही राजा बना देता है और जिसे ना हो जाए वो नाखुश रहता है। लेकिन राजा ने सोचा कि ये क्या गड़बड़ बात है और ये बड़े अपमान की बात है, और ये अफवाह फैलेगी तो बहुत बुरा होगा। उसने नौकर को बुलाया नौकर सच में बहुत प्यारा था और राजा भी उससे बहुत प्रेम करता था। उसने नौकर को कहा कि उचित तो यही था कि मैं तलवार उठाऊं और तेरे सिर को तेरे शरीर से अलग कर दूं लेकिन मैंने भी तुझे प्रेम किया है और तू अदभुत व्यक्ति था, इसलिए तुझे मैं एक मौका दूंगा। तलवार उठा और मेरे सामने आ, हम दोनों तलवार से लड़ें और जो मर जाए वो मर जाए, जो बच जाए वो मालिक हो जाए, ये बड़ी दया की बात थी, राजा के लिए ये अनिवार्य न था कि वो नौकर से लड़ें और उसे भी एक मौका दें। उसे वह वैसे ही मार डाल सकता था। नौकर ने कहाः आप कहते तो ठीक हैं लेकिन बात वहीं की वहीं रही। क्योंकि मैंने तो कभी तलवार उठाई ही नहीं। तो मैं तलवार उठाके भी आपसे कितनी देर जीत पाऊंगा और आप तो बड़े कुशल, आपका तो दूर-दूर तक नाम है, आप जैसा तलवार चलाने वाला नहीं है।
तो आप कहते तो हैं कि मुझ पर दया कर रहे हैं लेकिन ये कोई दया ना हुई क्योंकि मैं सोचता हूं कि इसका मतलब, इसका अंत क्या होने वाला है। मैंने तो कभी तलवार पकड़ी भी नहीं मुझे तो पता भी नहीं कि तलवार कैसे पकड़ी जाती है, मैं आपके मुकाबले में कैसे जीतूंगा। फिर भी राजा ने कहाः आज्ञा थी इसलिए उसे तलवार उठानी पड़ी। सारे दरबार के लोग खड़े होकर देखते थे। राजा ने अपने जीवन में बहुत से द्वंद्व जीते थे। दूर-दूर तक उसका नाम था, उस जैसा तलवार चलाने वाला कुशल व्यक्ति नहीं था। लेकिन लोग भी हैरान हुए, राजा खुद भी हैरान हुआ, उस नौकर के सामने तलवार चलाना मुश्किल हो गया वह तलवार चलाना जानता भी न था लेकिन राजा हर घड़ी पीछे हटने लगा। नौकर ऐसे वार कर रहा था कि वो घबड़ा गया, वह वार बिलकुल अकुशल थे। वह आक्रमण बिल्कुल ही गड़बड़ था। पद्धति के बाहर था। लेकिन नौकर के सामने एक ही विकल्प था मरना या मारना। उसकी सारी शक्तियां इकट्ठी हो गई थीं। उसके सारे सोए प्राण जाग गए थे। उसके सामने दूसरा कोई सवाल नहीं था। वह मरेगा यह तय था इसलिए वह मारने के लिए कुछ भी कर रहा था। और अंत में राजा को चिल्लाना पड़ा कि ठहरो! राजा ने कहा कि मैं हैरान हूँ, मैंने तो ऐसा आदमी नहीं देखा कभी, मैं तो हैरान हूं। ये क्या हुआ कि एक साधारण सा नौकर इतनी शक्ति को उपलब्ध हो गया। उसके बूढ़े वजीर ने कहा कि मैं तो पहले से ये सोच रहा था कि आज आप मुसीबत में पड़ जाएंगे। क्योंकि आप सिर्फ कुशल हैं लेकिन आपके सामने मृत्यु का सवाल नहीं। वो व्यक्ति कुशल नहीं हैं लेकिन उसके सामने मृत्यु का सवाल है। आपकी पूरी शक्तियाँ नहीं जाग सकतीं, उसकी पूरी शक्तियाँ जाग गई हैं, उससे जीतना असंभव है। जब भी मनुष्य के सामने उसके सारे सहारे समाप्त हो जाते हैं तभी उसके भीतर की शक्तियाँ जागती हैं। जब तक हम सहारों को पकड़ते हैं, तब तक हम अपने आपसे भीतर सोई हुई शक्तियों को जगने का मौका नहीं देते।
विश्वास आत्मघाती है, क्योंकि विश्वास आपके विवेक और आपके विचार को जन्म नहीं देता है। डरने की कोई जरूरत नहीं रह जाती, कोई मौका नहीं रह जाता। लेकिन अगर आप सारे बिलिव्स को सारे विश्वासों को हटा दें तो क्या होगा ? आप विवश हो जाएंगे विचार करने को। प्रतिक्षण विचार करने को विवश हो जाएंगे। एक-एक छोटी-छोटी चीज भी आपके भीतर विचार करने का मौका बन जाएगी, आपको सोचना ही पड़ेगा। क्योंकि बिना सोचे जीना असंभव हो जाएगा। बिना सोचे एक क्षण जीना असंभव हो जाएगा। विश्वास को हटा दें, आपके भीतर सोई हुई विचार की शक्ति में अदभुत जागरण शुरू होगा। जो सब विश्वासों को हटा देता है, वही विवेक को उपलब्ध होता है। मेरी दृष्टि में अब तक जो भी मनुष्य विवेक को उपलब्ध हुए हैं उन्होंने सब तरह के विश्वास को हटा कर ही विवेक को उपलब्ध किया है। अब हम नहीं हो सकते उपलब्ध। क्योंकि हम विश्वास को पकड़ते हैं। विश्वास को पकड़ते हैं आलस्य के कारण, भय के कारण। विश्वास को पकड़ते हैं कि बिना सहारे के क्या होगा। बिना सहारे के तो हम गिर जाएंगे! मैं आपसे कहता हूं कि बिना सहारे के गिर जाना भी किसी के सहारे से खड़े रहने से बेहतर है। क्योंकि तब आप गिरते हैं, कम से कम आप कुछ तो करते हैं, गिरते हैं। कुछ तो आपसे होता है। गिरना ही होता है लेकिन फिर भी वो कृत्य आपका है। और जब आप गिरते हैं तो उठने के लिए कुछ करेंगे ही। क्योंकि कौन गिरा रहना चाहता है ? लेकिन जब आप सहारे के खड़े रहते हैं, तब वो कृत्य आपका नहीं है, खड़ा होना आपका नहीं है, वो किसी के सहारे पर है, वो झूठा है, वो खड़ा होना बिलकुल मिथ्या है। अपना गिरना भी सच है, दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर खड़े रहना भी झूठा है। इसलिए सारे सहारे छोड़ दें, अगर जीवन को पाना ही है, तो सारे सहारे छोड़ दें। हटा दें सारे विश्वासों को, और मौका दें कि आपके विचार की शक्ति सक्रिय हो जाए, काम में आ जाए। मौका दें एक कि आपके भीतर विचार पैदा हो जाए।
कभी अगर आप तैरना सीखना चाहते हों तो बेसहारे पानी में गिर जाना काफी है। और जो भी इस संबंध में जानते हैं और किसी को तैरना सिखाते हैं वो एक ही काम करते हैं कि आपको धक्का देते हैं। हर आदमी के भीतर अपने को बचाने की तीव्र आकांक्षा है, वही तैरना बन जाती है। लेकिन कोई अगर ये सोचता हो बिना तैरे पानी में कभी न उतरूंगा। तो फिर वह समझ ले कि वो तैरना कभी सीख नहीं सकता। एक दिन तो बिना तैराक, बिना तैरे जाने हुए पानी में उतरना ही होगा। एक दिन तो अज्ञात-अंजान पानी में कूदना ही होगा। उससे ही तैरने की क्षमता जगेगी लेकिन हमारा मन निरंतर सहारे खोजता है। सहारे खोजने वाला मन गुलामी खोज रहा है। जिसका भी हम सहारा खोजते हैं, उसके ही हम गुलाम हो जाते हैं। उसके ही हम गुलाम हो जाते हैं जिसका भी हम सहारा खोजते हैं। फिर चाहे वह गुुरु हो, चाहे अवतार हो, चाहे तीर्थंकर हों, चाहे भगवान हों, चाहे कोई भी हो। जिसका भी हम सहारा खोजते हैं उसके ही गुलाम हो जाते हैं। सब सहारा छोड़ दें, आपके भीतर वो मौजूद है जो जागेगा। आपके भीतर वो शक्ति छिपी है जो उठेगी। और बड़ी तीव्रता से उठेगी मन के तल पर यदि स्वतंत्र होने का निर्णय ले लें तो इस दुनिया में आपको आत्मा से जानने से कोई वंचित नहीं रख सकता है। लेकिन वो निर्णय लेना होगा कि मैं मन के तल पर स्वतंत्र होने का निर्णय करता हूं। मैं निर्णय करता हूं कि मैं अपने विचार के तल पर किसी की गुलामी को स्वीकार नहीं करूंगा। मैं निर्णय करता हूं कि मैं किसी का अनुयाई नहीं बनूंगा। कोई शास्त्र और कोई सिद्धांत मेरे मन पर बोझ नहीं बन सकेंगे। मैं केवल उसी सत्य को सत्य जानूंगा जिसे मैं पा लूंगा। अन्यथा मैं जानूंगा कि वो और किसी के लिए सत्य हो, मेरे लिए सत्य नहीं है। इतना साहस न हो तो जीवन को नहीं पाया जा सकता। क्योंकि इतना साहस न हो तो मन स्वतंत्र ही नहीं हो सकता। और ये भी आपसे निवेदन कर दूं बहुत दिनों की गुलामियां प्रीतिकर हो जाती हैं। बहुत दिन की जंजीरें सुखद लगने लगती हैं, उनके तोड़ने में घबड़ाहट होती है, छोड़ने में डर होता है। गुलामी के मिटने में जो सबसे बड़ी बाधा है, वह गुलाम खुद गुलामी को प्रेम करने लगता है। और कोई किसी दूसरे को स्वतंत्र थोड़े ही कर सकता है। गुलाम खुद गुलामी को प्रेम करने लगता है। यहां तक कि वो अपनी गुलामी को बचाने के लिए जान दे सकता है। गुलामों ने जानें दी हैं गुलामी को बचाने के लिए। सारी दुनिया में हजारों वर्ष से ये होता रहा है।
वेस्टील का किला फ्रांस के क्रांतिकारियों ने तोड़ रखा है, उस किले में बहुत से कैदी बंद थे। सैंकड़ों वर्षों से फ्रांस का सबसे पुराना किला था। और सबसे जघन्य अपराधियों को वहां बंद कर देते थे। जिनको अजन्म कारावास होता, उनको बंद कर देते। कोई तीस साल, कोई चालीस साल, कोई पचास साल से वहां बंद था। क्रांतिकारियों ने सोचा कि वहां जाएं और उसे तोड़ दें कितने में ही कैदी मुक्त होकर प्रसन्न हो गए। उन्होंने जाकर द्वार तोड़ दिए कोठियों से कैदियों को बाहर निकाला, उनके हाथों में जंजीरें, पैरों में जंजीरें थीं कोई चालीस साल से, कोई पचास साल से कोई बीस साल में कैद हुआ था अब अस्सी साल उसकी उम्र थी, साठ साल उसने जंजीरों में बिताए, उन्होंने जंजीरें तोड़ दीं और उन कैदियों से कहा कि जाओ अब तुम प्रसन्न हो, अब तुम मुक्त हो लेकिन वे कैदी ठगे से खड़े रह गए और उन्होंने कहा कि नहीं हम तो यहां ठीक हैं और हमें तो बाहर बहुत बुरा मालूम होगा। पचास साल हमने अंधेरी कोठियों में बिताए। ये अंधेरी कोठियां भी हमें प्रीतिकर हो गई हैं, हमारे घर हो गई हैं। बाहर तो बड़ा भय मालूम होता है, वहां क्या करेंगे। कौन खाने को देगा, कौन पीने को देगा। वहां मित्र परिजन तो वहां कोई भी नहीं हैं लेकिन क्रांतिकारी जिद्दी थे उन्होंने जबरदस्ती उनको बाहर निकाला। जबरदस्ती वे एक दिन भीतर लाए गए थे। जबरदस्ती उन्होंने उनको बाहर निकाल दिया। जब आए थे तब भी वे रो रहे थे कि हम भीतर नहीं जाना चाहते। जब निकाले जा रहे थे तब भी वे परेशान थे कि हम बाहर नहीं जाना चाहते। सांझ होते-होते आधे कैदी वापस लौट आए।
यह इतिहास की एक अदभुत घटना थी और उन्होंने कहा कि क्षमा करें, हम यहीं ठीक हैं। हमें बाहर अच्छा नहीं मालूम होता। नहीं अच्छा मालूम होगा। उन कैदियों ने कहा बिना जंजीरों के हाथ ऐसे लगते हैं जैसे नंगे हैं। बिना जंजीरों के ऐसे लगता है जैसे वजन खो गया है शरीर का। उनके बिना अच्छा नहीं लगता है। शरीर के तल पर जंजीरें हैं, मन के तल पर भी जंजीरें हैं, उनके बिना भी अच्छा नहीं लगता है।
अगर आपसे मैं कहूं कि थोड़ी देर के लिए हिंदू होना बंद कर दें तो भीतर बड़ी बेकली, जैन होना बंद कर दें, मुसलमान होना बंद कर दें। आदमी होना शुरू करें। हिंदू, जैन, मुसलमान, ईसाई सब गुलामियां हैं। ये होना बंद करें, तो भीतर बड़ी बेचैनी होगी और लगेगा कि बिना हिंदू हुए मैं हो ही कैसे सकता हूं? बिना मुसलमान हुए मैं हो ही कैसे सकता हूं? बिना किसी संप्रदाय से बंधे हुए मेरा होना कैसे होगा? मैं तो बड़ा खाली-खाली हो जाऊंगा। मैं तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाऊंगा। भीतर जंजीरें हजारों साल की हैं, वो मन को जकड़े हुए हैं। थोड़ा सोचें, थोड़ा विचार करें, थोड़ा साहस जुटाएं, थोड़ा संकल्प करें। एक संकल्प जरूरी है धर्म की, सत्य की खोज के लिए। अगर वही किसी दिन पाना है, जिसे पाकर महावीर जिन हो जाते हैं, गौतम सिद्धार्थ बुद्ध हो जाते हैं। जीसस, क्राइस्ट हो जाते हैं। अगर वही किसी दिन पाना है तो स्मरण रखें कोई भी जंजीर घातक है, बाधा है।
वीत्से ने एक बात लिखी है, लिखा है कि पहला और अंतिम ईसाई सूली पर लटका और मर गया। पहला और अंतिम। क्राइस्ट के बाबत लिखा है कि पहला और अंतिम क्रिश्चियन सूली पे मर गया तो ये बाद के क्रिश्चियनों का क्या हिसाब है? तो ये बाद के ईसाईयों के बाबत क्या मामला है। क्या हैं फिर बाद के ईसाई बाद के ईसाई ईसा नहीं हो सकते, क्योंकि ईसा होने के लिए सब तरह से स्वतंत्र व्यक्तित्व चाहिए। और ये तो ईसा के ही गुलाम हैं। महावीर के पीछे चलने वाला जैन कभी महावीर नहीं हो सकता। क्योंकि महावीर होने के लिए तो स्वतंत्र आत्मा चाहिए और यह तो महावीर का ही गुलाम है। बुद्ध के पीछे चलने वाला कभी बुद्ध नहीं हो सकता। असल में पीछे चलने वाला कभी भी कुछ नहीं हो सकता। क्योंकि पीछे चलने वाले ने एक बुनियादी उपद्रव कर लिया है, एक बुनियादी भूल कर ली कि वह किसी के पीछे गया, उसी क्षण उसने अपनी आत्मा को खोना शुरू कर दिया। उसने स्वतन्त्रता बेच दी, वो गुलामी के लिए राजी हो गया। तो आज की सुबह मैं ये निवेदन करना चाहता हूं। अविचार, विश्वास, श्रद्धा, आस्थाएं, बिलिव्स मनुष्य को, उसके मन को स्वतंत्र नहीं होने देतीं। परतंत्र बनाए रखती हैं। और परतंत्र जो मन है वो शरीर को ही जान सकता है, उसके ऊपर कुछ नहीं जान सकता। यदि मन स्वतंत्र हो जाए तो वो उसको जान सकता है जो हमारे भीतर परम स्वतंत्रता का जो मूल स्रोत है। जिसे हम आत्मा कहें, परमात्मा कहें, कुछ और कहें। स्वतंत्र मन ही स्वतंत्रता को जानने में समर्थ हो सकता है। स्वतंत्र मन ही स्वतंत्र आत्मा की तरफ आंखें उठा सकता है। परतंत्र मन परतंत्र शरीर की तरफ ही देखने में समर्थ हो सकता है।
मैंने कहा, शरीर अनिवार्य रूप से परतंत्र है, आत्मा अनिवार्य रूप से स्वतंत्र है। मन स्वतंत्र भी हो सकता है, परतंत्र भी हो सकता है। ये आपके हाथ में है कि मन कैसा हो स्वतंत्र हो या परतंत्र हो। अगर मन को परतंत्र ही रखना है तो आप शरीर के ऊपर कुछ भी नहीं जान सकेंगे और शरीर की मृत्यु होगी और मृत्यु के ऊपर आप कुछ भी नहीं जान सकेंगे। लेकिन यदि मन स्वतंत्र हो सके तो आत्मा जानी जा सकती है। और आत्मा अमृत है उसका तो न कोई जन्म है न कोई मृत्यु है। लेकिन ये भी मेरे कहने से नहीं हो सकता। ये मैं कहूं कि आत्मा का न कोई जन्म है न कोई मृत्यु है, तो आप दोहराएं तो खतरा हो गया है इसमें कोई अर्थ न रहा ये तो विश्वास हो गया।
मैं तो आपसे कहता हूं कि मानना ही मत आत्मा है। अभी यह भी मत मानना। अभी तो इतना ही जानना जरूरी है कि मेरा मन परतंत्र है। और इस आकांक्षा से स्वयं को भरना जरूरी है कि मैं इसे स्वतत्र करूंगा। जिस दिन मन स्वतंत्र होगा उसी दिन भीतर की आत्मा की झलक आनी शुरू हो जाएगी। जिस दिन मन पूरा स्वतंत्र होगा उस दिन आत्मा में प्रतिष्ठा हो जाएगी। वही जीवन है, वही अमृत है, वही है सारा मूल केंद्र। सारे जगत का, सारी सत्ता का, सारे अस्तित्व का, वही है छिपा अर्थ। लेकिन उस अर्थ को वे ही जान सकते हैं जो स्वतंत्र होने को तैयार हैं। जीवन सत्य को जानने के लिए स्वतंत्रता का मूल्य चुकाना अनिवार्य है। उसकी तैयारी है तो जीवन सत्य को जाना जा सकता है। नहीं तैयारी है तो मृत्यु के अतिरिक्त कुछ भी जानने का कोई उपाय नहीं है।
यह मैंने अविचार के संबंध में, विश्वास के संबंध में कुछ बातें कही हैं। कल कैसे ये मेरा चित्त, कैसे स्वतंत्र हो सकता है, उस दिशा में बात करूंगा, कल विचार के संबंध में बात करूंगा और परसों निर्विचार के संबंध में। चूंकि विचार एक सीढ़ी है उस पर रुक नहीं जाना है, उस पर पार हो जाना है। जैसे किसी छत पर हम चढ़ते हैं तो सीढ़ी पर जाते हैं लेकिन अगर हम सीढ़ी पर रुक जाएं तो फिर हम छत पर नहीं पहुंचते। सीढ़ी पर जाते भी हैं और सीढ़ी को छोड़ भी देते हैं। आत्मा तक पहुंचने के लिए अविचार से विचार पर जाना होगा और विचार को छोड़ देना होगा। निर्विचार को उपलब्ध करना होगा। परसों सुबह मैं निर्विचार के बाबत बात करूंगा। इस संबंध में जो भी प्रश्न हों और खूब प्रश्न होने चाहिएं क्योंकि मैं कहता हूं संदेह करें। मेरी बात पर अगर संदेह न करें तो प्रश्न ही नहीं उठेंगे, संदेह करें तो प्रश्न उठेंगे। खूब संदेह करें, जितना संदेह कर सकते हैं, अंतिम रूप से संदेह करें। जितना संदेह करेंगे उतना आपके भीतर विचार का जागरण होगा। मैंने जो कहा है उसे मान न लें, उसे स्वीकार न कर लें, उस पर संदेह करें। मैंने जो कहा है उस पर संदेह करें और प्रश्न उठाएं सोचें और विचार करें। मैं यहां कोई आपको उपदेश देने को नहीं हूं। उपदेश से ज्यादा खतरनाक और कोई बात नहीं हो सकती। मैं यहां कोई उपदेश देने को नहीं हूं, मैं कोई नहीं हूँ, मैं कोई टीचर नहीं हूं। मैं तो आपके भीतर कुछ जगाने को हूँ, इसलिए आपको कोई सत्य दे सकता हूं, उपदेश नहीं। कोई शॉक दे सकता हूं, उपदेश नहीं। उस धक्के से आपकी नींद टूटे और शायद कुछ जमगे। शायद आपके भीतर कुछ परेशानी हो, कुछ बेचैनी हो, कुछ जगे। सुबह-सुबह मैं उठ कर बैठा एक मित्र ने आके कहा रात मैं कुछ सोचता रहा मृत्यु के बाबत, तो फिर तो मैं रात भर सो ही नहीं सका। और मैं इतना बेचैन और परेशान हो गया कि मुझे लगा कि ये तो बात ठीक है अगर मृत्यु है तो मैं जो भी कर रहा हूं, वह व्यर्थ है तो क्या फिर मैं निष्क्रिय हो जाऊं, क्या मैं सब करना छोड़ दूं? मैं खुश हुआ कि उनकी रात की नींद विलीन हो गई, आपकी पूरी जिंदगी से नींद चली जाए तो ये परमात्मा के लिए सबसे बड़ा धन्यवाद होगा। आपमें इतनी चिन्ता आ जाए, आपमें इतना संदेह आ जाए, आपमें इतना विचार जग जाए कि आप सो न पाएं, तो आपके जीवन में कुछ हो सकता है। लेकिन आप तो इतने निश्चिंत सो रहे हैं कि वो अब संभावना कर ले कि कुछ हो सके।
एक छोटी सी कहानी से मैं सुबह की चर्चा पूरी करूंगा।
भीखू एक गांव में गए थे। एक गांव में बोलते थे। संध्या को बोलते थे, जब बोलते थे तो सामने एक आदमी सोया हुआ था। शायद आसू जी उसका नाम था। तो उन्होंने बीच में उससे पूछा आसू जी क्या सोते हो? उसने जल्दी से आंख खोली और उसने कहा कि नहीं। नहीं कहां सोता हूं? कोई सोने वाला आदमी ये मानने को कभी राजी नहीं होता कि वो सोता है। सो यद्यपि वह सोता था लेकिन उसने जल्दी से आंख खोली और उसने कहाः नहीं मैं नहीं सोता हूं। फिर थोड़ी बात चली लेकिन सोने वाला कितनी देर जागेगा। वो फिर सो गया। भीखू ने उससे फिर कहा कि आसू जी सोते हो। फिर उसने आंख खोली अब कि बार उसने नहीं और जोर से कहा। क्योंकि अगर वह धीमे कहेगा तो संदेह की बात होगी अब कि बार और जोर से कहा कि बिलकुल नहीं सोता हूं, आप क्या बार-बार सोने का कहते हैं क्योंकि और गांव के लोग भी थे तो अगर ये पता चले कि आसू जी सोता है तो बदनामी होगी। लेकिन इससे क्या होता था। थोड़ी देर फिर बात चली। फिर नींद आ गई उसे। भीखू ने जो पूछा बहुत अदभुत पूछा। भीखू ने पूछा आसू जी जीते हो। उसने कहा कि नहीं! क्योंकि नींद में उसने सुना था कि शायद वह फिर पूछते कि आसू जी सोते हो। उसने कहा नहीं, बिलकुल नहीं। भीखू ने कहा कि अब तुमने बिलकुल ठीक उत्तर दिया। जो आदमी सोता है, वह जीता भी नहीं। वो चाहे कितना ही कहे कि नहीं, नहीं उसके नहीं का कोई मूल्य नहीं। और फिर किसी से कहने का कोई सवाल नहीं है, ये तो अपने भीतर देखने और विचारने का सवाल है। कि क्या मैं जिंदगी में सो रहा हूँ। क्या मैं सोए चले जा रहा हूं, न कोई स्वप्न पैदा हो रहे हैं, न कोई चिंता पैदा हो रही है। न जीवन के संबंध में कोई बेचैनी पैदा हो रही है, न कोई असंतोष पैदा हो रहा है, न कोई अशांति पैदा हो रही है। लोगों ने आपसे कहा होगा कि धार्मिक आदमी शांत होता है, संतुष्ट होता है, मैं आपसे नहीं कहता। धार्मिक आदमी बहुत असंतुष्ट होता है, बहुत अशांत होता है। ये जीवन उसे एकदम असंतुष्ट कर देता है, ये जीवन उसे कहीं भी शांति नहीं मिलती। ये सारा जीवन उसे व्यर्थ मालूम पड़ता है। उसके भीतर गहरी पीड़ा पैदा होती है, गहरा संताप पैदा होता है, उसके सारे प्राण कंपने लगते हैं, उसके सारे प्राण चिंता से भर जाते हैं। उसी चिंता से, उसी चिंतन से, उसी विचार से उसके भीतर शुरुआत होती है किसी नई दिशा की, वो किसी नई खोज में जाता है।
धन्य हैं वे जो असंतुष्ट थे। जो संतुष्ट थे वो तो करीब-करीब मर ही चुके थे। उनके भीतर कुछ होने की गुंजाइश नहीं थी। तो मैं आपको कोई उपदेश नहीं देना चाहता। असंतोष देना चाहता हूं। और आपमें से बहुत से लोग इस खयाल में आए होंगे कि यहां शांति उपलब्ध करनी है। मैं आपको अशांति देना चाहता हूं। क्योंकि जो ठीक से अशांत नहीं होता वह कभी शांति को कभी पा ही नहीं सकेगा और जो ठीक से असंतुष्ट नहीं होता। संतोष उसके भाग्य में नहीं है। परमात्मा करे आप असंतुष्ट हो जाएं, आपकी नींद टूट जाये, आपको सब व्यर्थ मालूम होने लगे। आप जो कर रहे हैं वह आपको ठीक न दिखे, आप जहां चल रहे हैं, वो रास्ता, रास्ता न मालूम पड़े। आपके जो मित्र हैं वे मित्र न मालूम पड़ें, आपके जो संगी-साथी हैं, वे संगी-साथी न मालूम पड़ें। आपके जीवन में जो सहारे हैं वो सब टूट जाएं। आप बिलकुल बेसहारा, असुरक्षित खड़े हो जाएं तो आपके भीतर विचार का जन्म हो सकता है।
इस संबंध में और जो प्रश्न होंगे, वह हम रात में विचार करेंगे।

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