कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(ओशो)

राजनीति का सम्मान कम हो

अभी हुआ क्या है कि आज से पहले शिक्षा थी कम, काम था ज्यादा। भले आदमियों ने अनिवार्य शिक्षा कर दी। अनिवार्य शिक्षा करके शिक्षित तो ज्यादा पैदा कर रहे हैं और काम हम पैदा नहीं कर पा रहे हैं। शिक्षित बढ़ता जा रहा है काम बिलकुल नहीं है। वह बिलकुल परेशानी में पड़ गया है।
उससे जब हम बातें करते हैं ऊंची तो उसे हम पर क्रोध आता है बजाए हमारी बातों को पसंद करने के। और जब हमारा नेता उसे समझाने जाता है तो उसका मन होता है इसकी गर्दन दबा दो।
कुछ भी नहीं होगा समझाने से। और वह गर्दन दबा रहा है जगह-जगह। और दस साल के भीतर हिंदुस्तान में नेता होना अपराधी होने के बराबर हो जाने वाला है।

एक चोर का तो जुलूस निकल सकेगा, नेता का नहीं निकलेगा।...क्योंकि नेता दुश्मन मालूम पड़ रहा है। खुद तो कब्जा करके बैठ गया है किसी जगह पर और दूसरों को त्याग इत्यादि के उपदेश दे रहा है। खुद तो मजे से बैठा है अपनी सीट को बिलकुल सिक्योर करके और दूसरों को कह रहा है, तुम त्याग करो देश के लिए। और खुद तो कोई त्याग कर नहीं रहा है। और कठिनाई इसकी भी होती है जो नेता है इसको हमने, इसके साथ भी हमारी भ्रांति हो गई है।


गांधी जी की वजह से बड़ी भ्रांतियां हुईं। एक तो गांधी जी ने हिंदुस्तान में जो आजादी का आंदोलन चलता था। उस आंदोलन में ऐसे आदमी पैदा किए जिनको त्याग की धारणा दी। असल में जब भी कोई आंदोलन शक्ति पाने के लिए चलता तब त्याग करना सदा आसान है। एकदम आसान है क्योंकि आगे शक्ति पाने का लक्ष्य सामने खड़ा होता है, सपना आगे होता है। जो आदमी हिंदुस्तान में लड़ रहा था आजादी के लिए उसके सामने शक्ति पाने का, सामने साफ सीधा मौका था। उसके सामने एक भविष्य था। भविष्य के मौके पर त्याग करना सदा आसान है। जिसकी भविष्य में कोई...
तो आजादी इतना बड़ा...पड़ती थी। सारी शक्ति हमारे हाथ में आने को थी। सारे देश की ताकत हजारों साल के बाद लौटने को थी तो हम संघर्षरत हम त्याग कर सकते थे, जेल जा सकते थे, भूखे रह सकते थे, भूखे मर सकते थे। लेकिन न गांधीजी को खयाल में न उनके और साथियों को खयाल था कि यह बात आजादी के पहले की है। आजादी मिलते ही सब बदल जाएगा।
आजादी मिलते ही वह जो त्यागी था वह एकदम कहेगा कि मुझे वाइसराय की जगह चाहिए। वाइसराय का भवन चाहिए। कहेगा ही। और फिर उससे आप त्याग की अपेक्षा न कर सकेंगे। क्योंकि त्याग उसने किया था किसी..किसी बड़ी आकांक्षा, वह आकांक्षा तो अब समाप्त हो गई। अब त्याग का कोई सवाल नहीं। अब वह त्याग भंजाएगा। अब उसने जो नोट त्याग के इकट्ठे कर लिए हैं वह इनका बाजार में बदला चाहेगा। वह बदला ले रहा है। वह बदला ले रहा है। और दूसरे युवकों को कह रहा है, त्याग करो। और उन युवकों के सामने कुछ भी पाने योग्य नहीं है जिसके लिए त्याग किया जाए।
तो इस वजह से एक कठिनाई स्वभावतः होने वाली थी, अब यह जो, यह जो स्थिति है इस स्थिति को हम कहां से तोड़ना शुरू करें। इस स्थिति को मैं मानता हूं कि बराबर तोड़ा जाए। लेकिन हमें कुछ आकांक्षाएं जो हजारों साल से सप्रेस की हैं उनको मुक्त कर देना पड़ेगा। अब यहीं तक कठिनाई है हमारे युवक की कि वह अपने मन की पत्नी भी तो नहीं पा सकता।
आप उसको जीवन में क्या भरोसा दिलाने जा रहे हैं। वह एक लड़की को प्रेम भी तो नहीं करने की स्वतंत्रता है उसको। और सब मामला और दूर है। एक आदमी जिंदगी में शायद मैं समझता हूं कि नब्बे प्रतिशत प्रेम की तृप्ति मांगता है। और दस प्रतिशत ये जो मांगता है वह उसके प्रेम के आस-पास होती है। वह दस प्रतिशत भी वह प्रेम की ही...हो सकता है। लेकिन उसकी भी अभीप्सा हम युवक में पैदा नहीं कर पाते हैं। अगर हिंदुस्तान में सिर्फ प्रेम का ही हम मार्ग खुला छोड़ दें तो भी हिंदुस्तान का युवक और अधिक सक्रिय हो जाए।
वाॅनगाग की जिंदगी में एक पेंटर हुआ डच। उसकी जिंदगी में एक बड़ी अदभुत घटना है। वह कुरूप था कोई लड़की उससे कभी प्रेम नहीं कर पाई, करना मुश्किल था। अतिकुरूप था। न वह कपड़े ढंग के पहनता था न वह स्नान करता था न वह किसी से कभी कुछ बोलता था न वह ठीक से खाना खाता था। वह एकदम पागलों की भांति घूमता रहता। एक दुकान पर काम करता था वहां भी वैसे गंदे और बेवक्त और कभी भी पहुंच जाता। और दुकान उसको अलग करने का ही सोच रही थी कि उसे अलग कर दिया जाए।
लेकिन अचानक एक दिन दुकान का मालिक हैरान हुआ कि वह अच्छे कपड़े पहन कर, नहा कर बाल-वाल कटा कर दा.ढ़ी-वा.ढ़ी साफ करके इत्र-वित्र लगा कर हाजिर हो गया।
 उस मालिक ने पूछा कि चमत्कार! हम तो विश्वास ही नहीं कर सकते कि तुम और स्नान करोगे और बाल कटा लोगे, और तुम कभी कपड़े धुला कर पहनोगे! हो क्या गया है? तो उसने कहा कि मत पूछिए, एक लड़की मेरी जिंदगी में आ गई है।
यह जो आदमी की जो सामान्य दुनिया है उसमें प्रेम एक तत्व है जो उसे व्यवस्था देता है। हमने इतने अच्छे कपड़े ईजाद किए, वे हमने किसी को अच्छे लगेंगे इसलिए ईजाद किए। हमने अच्छे मकान बनाए उसमें जिसको हम प्रेम करते हैं वह रहेगा इसलिए बनाए। हमने सुगंधें ईजाद की, स्नान ईजाद किया, सब ईजादें। इसलिए अगर एक संन्यासी नहाना बंद कर देता है, तो कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं है। वह नहाए किसके लिए। सच बात ये है कि आदमी अपने लिए नहाता भी नहीं। वह भी किसी के लिए नहाता है। एक संन्यासी अगर कुरूपता में जीने लगता है तो बहुत स्वाभाविक है। क्योंकि अब सुंदर होने का प्रयोजन भी क्या है!
हिंदुस्तान के युवक को प्रेम का जो कि युवक के लिए सबसे बड़ा सपना है। वह भी नहीं है। वह भी उसका बाप तय कर रहा है। वह भी जन्म-कुंडली मिलाई जा रही है। तो ठीक था कि दस साल के लड़के का आप जन्म-कुंडली मिला देते तो उसको पता नहीं था कि आप क्या कर रहे हो। पच्चीस साल के लड़के की जन्म-कुंडली मिला रहे हो। तुम उसको मुश्किल में डाल रहे हो। तुम अपने खिलाफ उसको खड़ा कर रहे हो। और उसकी जिंदगी में जाल बो रहे हो जो उसको नुकसान पहुंचा देंगे। और उसकी जिंदगी में में फ्रस्ट्रेशन डाल रहे हो। न प्रेम है उसकी जिंदगी में न धन है उसकी जिंदगी में न ही इतनी समझ है कि अगर धन न हो और प्रेम हो तो भी आदमी जीता है, जी सकता है।
लेकिन प्रेम भी नहीं है और धन है नहीं। कोई महत्वाकांक्षा पूरी होती दिखाई नहीं पड़ती। तो इधर हमें कुछ चीजों पर बुनियादी चोट करनी चाहिए।
जैसे मेरा मानना है कि हिंदुस्तान में प्रेम-विवाह के लिए हमें जगह बनानी चाहिए। उस साधारण अरेंज-मैरिज की व्यवस्था तोड़नी चाहिए। युवक को कहना चाहिए कि यह पाप है, गुनाह है कि तुम अरेंज-विवाह करो। यह उसी को कहना चाहिए कि गुनाह है, पाप है यह। है भी पाप। क्योंकि जिसको तुमने प्रेम नहीं किया उसके साथ जिंदगी भर रहना तुम अपनी जिंदगी और दूसरे आदमी की जिंदगी बिगाड़ने की तैयारी कर रहे हो। हमारा जो बाल-विवाह था उसमें सुविधा थी। सुविधा इसलिए थी कि पत्नी भी उसी भांति मिलती थी उस विवाह में जैसे बहन मिलती है, मां मिलती है गिवन। उसमें चुनाव की कोई बात न थी। उसमें पति और पत्नी एक साथ बड़े होते थे। जब वे होश में आते थे तब वे पाते थे कि पत्नी भी मिली है, मां भी मिली है, बहन भी मिली है। जैसे हम मां का कोई चुनाव नहीं करते और बाद में इससे पीड़ित भी नहीं होते कि मुझे दूसरी मां क्यों नहीं मिली। इसी तरह हमें दूसरी पत्नी क्यों नहीं मिली ये भी पीड़ा नहीं होती थी क्योंकि पत्नी हमारी उसके पहले मिल गई होती थी।
लेकिन यह संभव नहीं रहा। अब होश आ गया है और पत्नी दी जा रही है। और हमने इतनी महत्वाकांक्षाएं जगा दी हैं उनको पूरा करने का हमारे पास कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता है तो हम उन महत्वाकांक्षाओं को जगाएं जो हम पूरी कर सकते हैं। जैसे मेरी समझ में यह है कि आजादी के बाद हिंदुस्तान में सिर्फ राजनीति एक मात्र महत्वाकांक्षा का द्वार रह गई। इस एक द्वार से कितने लोग निकल सकेंगे? ये पचास करोड़ का मुल्क है इसमें पचास करोड़ मिनिस्टर तो नहीं हो सकते? हालांकि कोशिश मेरी यही है और कुछ हैरानी न हो कि भारत ऐसा इंतजाम कर ले कि पचास करोड़ मिनिस्टर हो जाएं। यह अगर ठीक से न हो सके तो रोटेशन में होना पड़े, इसलिए रोटेशन चल रहा है। इसलिए हर पंद्रह दिन में मिनिस्टरी बदलनी चाहिए क्योंकि रोटेशन जितना होगा उतने लोग मिनिस्टर होने का सुख लेने में भी कोई हर्ज नहीं है, पांच दिन मिनिस्टर हुए तोभी हुए तो।
यह जो एक ही द्वार रहा अगर हमारे सामने तो हमारा युवक सक्रिय नहीं हो सकता, सृजनात्मक नहीं हो सकता। मेरी अपनी समझ में यह साहित्य है, कला है, संगीत है, ये सबके सम्मानित द्वार हमें खोलने चाहिए। अब यह मेरी समझ में ऐसा आता है कि रूस में पिछले चालीस, तीस, चालीस-पचास साल में अगर विद्रोह का स्वर पैदा नहीं हो सका जो कि स्टैलिन जैसी हुकूमत में...हो गया होता है, तो उसका एक मात्र कारण है कि रूस ने अपने साहित्यकार को इतना सम्मान दिया जितना कि दुनिया में कहीं भी नहीं मिला। और सारी क्रांतियां साहित्यकार से शुरू होती हैं, सारा उपद्रव उससे आता है। क्योंकि जो विचारते हैं, वे उपद्रव पैदा करते हैं। असल में विचार जो है वह विद्रोह है।
जो कौम अपने साहित्यकार को तृप्त कर देती है उस कौम में बगावतें बहुत मुश्किल हो जाती हैं। हिंदुस्तान में पांच हजार साल तक नहीं हुई क्योंकि हमने अपने ब्राह्मण को तृप्त किया हुआ था। कोई शूद्र बगावत नहीं करते हैं और न कोई क्षत्रिय बगावतें करते हैं। क्षत्रिय लड़ते हैं युद्ध, क्रांतियां नहीं करते। क्रांतियां ब्राह्मण करवाते हैं करते वे नहीं। लड़वाते हैं वे क्षत्रियों को। लड़ेगा शूद्र, लड़ेगा वैश्य। लेकिन क्रांति का स्वर ब्राह्मण पैदा करेगा। वह जो दिमाग है वह बगावत पैदा करता है। हिंदुस्तान में बड़ी तरकीब की कीमिया होती है। उसकी कीमिया ये थी कि ताकत थी क्षत्रिय के हाथ में आदर था ब्राह्मण के हाथ में। हमने एक डिवीजन आॅफ रिस्पेक्ट...आदर का एक बहुत गहरा विभाजन किया था। ताकत दे दी थी क्षत्रिय के हाथ में वह ताकत से तृप्त था। उसके पास सब कुछ था। लेकिन सिर उसका रखवा दिया था ब्राह्मण के पैरों में।
एक ब्राह्मण भी राजा के महल नहीं जाता। जाना पड़ता है राजा को ब्राह्मण के झोपड़े पर। फिर ब्राह्मण अपने झोपड़े में भी आनंदित था। उसका झोपड़ा महल से ऊपर था नीचे नहीं था। ब्राह्मण की जो अकड़ थी वह किसी बादशाह की भी नहीं थी। वह सड़क पर जिस शान से चलता था सिकंदर भी नहीं चल सकता था। हालांकि वह कुछ भी नहीं था। ब्राह्मण दीन था दरिद्र था न पैसा था न खाना था न मकान था लेकिन कुछ और तृप्ति थी जो इससे भी गहरी थी और इसके लिए वह राजी था।
तो हिंदुस्तान को अपने-अपने विभाजन करने पड़े सम्मान के। राजनीतिज्ञ अकेला अगर सम्मान का हकदार है तो हिंदुस्तान में सृजन नहीं होने वाला। तब हिंदुस्तान में नक्सलाइट पैदा होंगे। हजार तरह के नक्सलाइट पैदा होंगे। ये हिंदुस्तान का ब्राह्मण है,जो दिक्कत डालेगा। और आज ब्राह्मण युनिवर्सिटी में है स्वभावतः वहां सब ब्राह्मण पैदा हो रहे हैं। और एक-एक युनिवर्सिटी में बीस-बीस हजार लड़के इकट्ठे हो गए हैं जो इंटेलिजेंसिया हैं।
दुनिया में इतने ब्राह्मण कभी भी इकट्ठे नहीं थे। पांच ब्राह्मणों का इकट्ठा करना मुुश्किल था...तो जहां बीस हजार बुद्धिशाली लोग इकट्ठे हो जाएं वहां से उपद्रव के सूत्र पैदा होने शुरू हो जाएंगे।
और उनकी कोई आकांक्षा की तृप्ति नहीं होने वाली है। तो ऐसा मुझे लगता है कि हम अगर साहित्य को, संगीत को, कला को, चित्रकला को, मूर्तिकला को इनको हम इतना सम्मान दें कि राजनीतिज्ञ नंबर दो हो जाना चाहिए नंबर एक नहीं। राजनीतिज्ञ को नंबर दो होने में तृप्त होना चाहिए। क्योंकि उसके पास नंबर एक की ताकत है। उसको नंबर दो होने में परेशान नहीं होना चाहिए क्योंकि है वह नंबर एक। ताकत उसके पास नंबर एक की है। इसलिए उसे नंबर दो का नंबर लगाकर लेने में हर्ज नहीं होना चाहिए, दिक्कत नहीं होनी चाहिए। उसके नंबर दो में खड़े रहने में ही सुविधा है उसकी। नंबर एक की ताकत है उसके पास। वह चाहे तो सभी साहित्यकारों के गर्दन कटवा दे और वह चाहे तो सभी चित्रकारों को जेल में डाल दे। और वह चाहे तो सबको नुकसान पहुंचा दे। ताकत उसके पास नंबर एक है। और इसलिए नंबर एक के आदमी को नंबर एक का तमगा नहीं चाहिए। नंबर एक का तमगा उसको दे दो जिसके पास नंबर एक की ताकत नहीं है।
फिर तो हम तृप्ति को विभाजित करते हैं। और ये तृप्ति जितने बड़े पैमाने पर विभाजित हो जाएगी उतना फ्रस्ट्रेशन कम होगा। उतनी सक्रियता बढ़ जाएगी।
और जैसा आपने कहा, ये जो हमारा युवक है इसके अगर हम सिर्फ बुद्धि के ही विकास पर जोर दे रहे हैं तो हम बड़े गहरे खड्डे को अपने हाथ से खोद रहे हैं। जिसमें मुल्क बुरी तरह गिरेगा। क्योंकि अकेली बुद्धि जो है वह बहुत महंगी चीज है अकेली बुद्धि। उसके साथ हृदय का विकास चाहिए नहीं तो बुद्धि खतरनाक सदा हो जाती है। क्योंकि बुद्धि के पास कोई दया और ममता नहीं होती। बुद्धि बहुत क्रूर है। इसलिए ब्राह्मण जितना क्रूर हो सकता है उतना क्षत्रिय नहीं हो सकता। एक दफा उसके हाथ में ताकत हो तो उसकी नजर में जितनी तलवार होती है, उतनी क्षत्रिय की नजर में नहीं होती। क्षत्रिय के हाथ में होती है। लेकिन ब्राह्मण की नजर में होती है। ब्राह्मण की गर्दन में तलवार होती है। ब्राह्मण जितना क्रूर हो सकता है उतना कोई क्षत्रिय कभी नहीं होता। अकेली बुद्धि जो है बड़ी कठोर हो सकती है क्योंकि उसके पास सोचना विचारना...
अब जैसे मेरा मानना है कि स्टैलिन इतना कठोर हो सका क्योंकि वह ब्राह्मण है। स्टैलिन जो है वह कठोर हो सकता है, वह ब्राह्मण है। उसकी सब भाषा ब्राह्मण की है। पंडित को जो भाषा बोलनी चाहिए वह भाषा बोलता है।...स्क्रप्चर कोट करता है। उसको लेनिन और माक्र्स...कंठस्थ हैं। वह जो भी बोल रहा है वह हमेशा थ्योरेटिकल है। वह बहुत कठोर हो सका। इतना कठोर लेनिन शायद नहीं हो सकता था। और कोई भी ये जानता है कि...इससे भी ज्यादा कठोर हो सकता है। क्योंकि और भी बड़ा ब्राह्मण था।
ये जो सिर्फ बुद्धि है ये बहुत कठोर हो सकती है। इसके पास कोई हृदय नहीं है। तो हम हृदय को कैसे विकसित करें। इसकी हमें चिंता लेनी पड़े और हृदय के विकास के भी वैसे ही नियम हैं जैसे बुद्धि के विकास के नियम हैं।
लेकिन हम अपने युवक के हृदय को विकसित करने के लिए कुछ नहीं कर पाते हैं। न हम उसे बागवानी सिखा रहे हैं न हम उसे फूलों का प्रेम सिखा रहे हैं। न हम उसे वीणा का संगीत सिखा रहे हैं। जहां कि हृदय जन्मता है। न हम उसे प्रेम करने दे रहे हैं। जहां से हृदय का द्वार खुलता है। हम उसके हृदय को सब भांति बंद कर देते हैं। हृदय उसके पास रह जाता है तीन-चार साल के बच्चे का। बुद्धि हो जाती है पच्चीस साल के जवान की। दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं रह जाता। हृदय पड़ा रह जाता है, बुद्धि दिन-रात उसको कठोरता में, चालाकी में, कनिंगनेस में ले जाती है। अकेली बुद्धि चालाक हो जाती है।
तीसरी बात, जैसा आपने कहा, वह भी ध्यान देने की है कि हमें हमारे युवक के शरीर पर बहुत सम्हालने की जरूरत है। हमारे युवक के पास शरीर नहीं हैएक अदभुत। शरीर का हमारा हमें खयाल नहीं है। शरीर का खयाल न होने का भी...कारण है। क्योंकि हम शरीर विरोधी कौम हैं। हम शरीर सौष्ठव, शरीर सौंदर्य उसकी हमें ज्यादा फिकर नहीं है।
इधर हिंदुस्तान से काउंट केसरलिंग वापस लौटा। उसने अपनी किताब में लिखा कि हिंदुस्तान में जाकर मुझको पता चला कि बीमार होना अध्यात्म है। ठीक पता चला उसको। अगर हमारा साधु और संन्यासी पीले चेहरे का न दिखाई पड़े तो हमें शक होगा कि कुछ गड़बड़ है। ठीक से खाता होगा, ठीक से सोता होगा, ठीक से पीता होगा। इतना खून साधु-संन्यासी में देख कर हम बरदाश्त नहीं कर सकते। वह पीले चेहरे का चाहिए तभी हमें त्यागी मालूम पड़ेगा। वह हरा पत्ता नहीं पीला पत्ता चाहिए। मरता हुआ पत्ता चाहिए।
हिंदुस्तान हजार साल से शरीर का दुश्मन है इसलिए आप देखें जिस कौम ने शरीर का, आनंद का उस कौम ने जिसे शरीर...ये यूनान ने पैदा किए।
अब यूनान की मूर्तियों को देख कर तबीयत खुश हो जाती है क्योंकि वे उन लोगों ने बनाई थीं जो शरीर को इंच-इंच प्रेम करते थे। और शरीर के एक-एक अनुपात को प्रेम करते थे। यानी किसी आदमी का जरा भी शरीर अनुपात के बाहर गया था तो सारे गांव की नजर उस पर चली जाती कि वह अनुपात के बाहर चला गया शरीर। यानी वह आदमी एक आदमी एक अर्थ में अप्रतिष्ठित हो जाता। तो बुढ़ापे तक आदमी फिकर करता था कि उसके शरीर का सौष्ठव न खो जाए। उसके शरीर का गठन न खो जाए, उसके शरीर का अनुपात न खो जाए। उसके शरीर का सौंदर्य न खो जाए। लोग एक दूसरे के शरीर की वैसे ही प्रशंसा करते थे जैसे एक-दूसरे की बुद्धि की करते हैं। अगर आप किसी से कहें कि बहुत बुद्धिमान हो तो इसमें कोई कठिनाई नहीं होती। लेकिन किसी से हम कहें बहुत सुंदर हो तो जरा बेचैनी शुरू होती है कि बात क्या है, ऐसा क्यों कहा गया? पुरुष से तो अलग है बात अगर हम किसी स्त्री को कहें कि बहुत सुंदर हो तो वह भी चैंक कर खड़ी हो जाती है! हैरानी की बात है!
एक स्त्री सुंदर है तो किसी को उसे जरूर कहना चाहिए। और इसमें उसके पति का ठेका नहीं है कि वही उसको कहे। जिसको भी दिखाई पड़ती है, उसका भी हक है कि वह कहे कि तुम सुंदर हो। और ये कहना उसे सुंदर बनाने में सहयोगी होगा। और ये चारों तरफ की नजर उसके सौंदर्य को बचाने में सहयोगी होगी नहीं तो...क्या होता है।
जब तक शादी न हो लड़की सुंदर होती है। शादी के बाद कुरूप होना शुरू हो जाती है। क्योंकि अब सुंदर की कोई जरूरत नहीं, वह बिक गई। इसलिए शादी के बाद में मुश्किल से देखते हों कि कोई स्त्री सुंदर रह जाती हो। पति को तो सुंदर बताने का कोई कारण नहीं है, यह तो कांट्रेक्ट हो चुका। और किसी को सुंदर बताने की कोई वजह नहीं क्योंकि कोई और सुंदर कहे तो झगड़ा हो सकता है।
इसलिए मैं देखता हूं कि स्त्रियां, पत्नियां, पतियों के सामने भूत-प्रेत बनी बैठी रहती हैं। कोई...क्योंकि उससे कोई मतलब नहीं है वह तो अब जैसी भी है, बरदाश्त करेगा। और पुरुष को तो सुंदर होने की कोई जरूरत ही नहीं है। पुरुष को तो सौंदर्य का कोई बोध ही नहीं है कि पुरुष को भी सुंदर होना चाहिए। क्योंकि स्त्री उसका धन पूछती है, उसकी पदवी पूछती है, उसके सौंदर्य को कभी पूछती नहीं। कोई स्त्री इसकी फिक्र नहीं करती कि उसका पति सुंदर है। वह इसकी फिकर करती है उसकी जेब गरम है? नहीं है गरम। उसे कोई मतलब नहीं है इस बात से। उसके पास बड़ा मकान है, बड़ी कार है? चलेगा। वह आदमी है या नहीं इससे कोई मतलब नहीं है।
तो स्त्रियां पुरुष के शरीर को नहीं पूछतीं इस मुल्क में और अगर पूछें तो पुरुष भी बेचैन होता है क्योंकि हम शरीरवादी नहीं हैं। हमको खयाल है हम अध्यात्मवादी हैं। और अध्यात्म में कोई सौंदर्य नहीं होता। अध्यात्म में निराशा। उसका कोई आकार नहीं होता, उसका कोई अनुपात नहीं होता। उसमें कोई मोटी और पतली आत्मा नहीं होती। उसमें कोई स्वस्थ और बीमार आत्मा नहीं होती क्योंकि उसकी कोई चिंता की बात नहीं आत्मा सबके पास है।
तो सौंदर्य का बोध न होने से शरीर के संबंध में हमने बड़ी कठिनाई पैदा कर ली है। हमें यह बोध फिर से पैदा करना पड़ेगा। हमें मूर्तियां गढ़नी पड़ें, हमें इसकी प्रतियोगिताएं निर्मित करनी पड़ें, हमें शरीर को फिर से सोचना शुरू करना पड़े कि शरीर का भी अपना मूल्य है। और जब शरीर पैदा हो तो वह किसी की बपौती नहीं हो जानी चाहिए। वह किसी की बपौती नहीं है।
अभी-अभी एक मित्र ने मुझे कहा कि वे इटली गए हुए थे। बहुत घबड़ा गए। एक स्त्री ने आकर एकदम उनके गालों पर हाथ रख दिया और कहा कि इतने अच्छे फीचरस मैंने कभी देखे नहीं। एक अपरिचित स्त्री ने सड़क पर। और उसने कहा कि क्या मजाक!...
परिचित हाथ हो तो घबड़ाहट होती है। अपरिचित हाथ...वह तो बहुत घबड़ा गया। उसने कहा, ये क्या कर रही हो.. उसने हाथ फेर लिए थे तो वह आंख बंद किए उसके चेहरे पर हाथ फेर लिए। अपने रास्ते पर चली गई, उनको धन्यवाद दे गई कि मैंने इतना सुंदर चेहरा कभी नहीं देखा! उस पर मैं हाथ फेरना चाहती थी।
अब मैं मानूंगा कि ये एक सुसंस्कृत स्त्री का लक्षण हुआ। ये आदमी असंस्कृत सिद्ध हुआ उस स्त्री के सामने।...नहीं है। ये उसको धन्यवाद भी नहीं दे सका कि उसे धन्यवाद देता। बल्कि हो सकता है कि ये गिल्टी अनुभव किया हो कि शक्ल जरा खराब होती तो अच्छा होता। तो जरूर कहीं न कहीं इसके अंतःगृह में लगा होगा कि ये तो बड़ा गड़बड़ है।
यह हमें, इस मुल्क को शरीर का प्रेम पैदा करवाना पड़े। और हमारे युवक और युवतियां एक अर्थ में हमारी पिछली किसी भी पीढ़ी से ज्यादा सुंदर संभव है, उनकी संभावना है। तो उसका हमें अब जैसे कि आज भी, आज भी हिंदुस्तान में शरीर सौष्ठव की, सौंदर्य की न कोई प्रतियोगिताएं हैं बड़ी।
अब मैं इधर देखता हूं कि हिंदुस्तान से जो भी प्रतियोगिता होती है स्त्रियों के शरीर-सौंदर्य की उसमें अक्सर साधारण औरतें दिखाई पड़ती हैं। और कुछ ही औरतें भाग लेती हैं जिनको हम बाजारू ढंग की स्त्रियां कहें, उसमें अच्छे घरों की कोई स्त्री भाग नहीं लेती। हिंदुस्तान में बहुत सुंदर स्त्रियां हैं। लेकिन हिंदुस्तान से जो स्त्री हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व करने जाती है अमरीका, वह बहुत साधारण होती है। वह कभी विजेता नहीं बनकर लौटती विश्व-सौंदर्य में। वह नहीं बन सकती क्योंकि अमरीका में अच्छे घर की लड़की वहां आती है यहां से तो बाजारू ढंग की लड़की जाती है। उसमें प्रतियोगिता में कोई जोड़ नहीं बैठता।
हमारा बोध जो है उस बोध को जगह-जगह से अगर हम बदल सकें और...तोड़ा जा सकता है, बदला जा सकता है इसे खयाल...
तो आप जो करना चाह रहे हैं बिलकुल ही करें, मेरा जो भी सहयोग चाहिए मैं सहयोग दूंगा। और एक व्यापक अभियान चलाएं और उस अभियान को बहुत से पहलुओं से लें। और सारे पहलुओं पर चिंतन चलाएं और उस पर नये-नये...और नये-नये खयाल।
काम तो बहुत बड़ा हो सकता है। और अब करना जरूरी है। अगर हम दस-पंद्रह-बीस साल में हम नहीं कर पाए तो हम हमारा इस पृथ्वी पर अस्तित्व बिलकुल अन-अस्तित्व जैसा हो जाएगा, हम आदिवासी हालत में हो जाएंगे।...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें