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सोमवार, 27 अगस्त 2018

जीवन की कला-(विविध)-प्रवचन-04

चौथा-वचन -(आकाश का आनंद)

मेरे प्रिय आत्मन्!
मैं अत्यंत आनंदित हूं, लायंस इंटरनेशल के इस सम्मेलन में कि शांति के संबंध में थोड़ी सी बातें आपसे कर सकूंगा। इसके पहले कि मैं अपने विचार आपके सामने रखूं, एक छोटी सी घटना मुझे स्मरण आती है, उसे से मैं शुरू करूंगा।
मनुष्य-जाति के अत्यंत प्राथमिक क्षणों की बात है। अदम और ईव को स्वर्ग के बगीचे से बाहर निकाला जा रहा था। दरवाजे से अपमानित होकर निकलते हुए अदम ने ईव से कहा, तुम बड़े संकट से गुजर रहे हैं। यह पहली बात थी, जो दो मनुष्यों के बीच संसार में हुई, लेकिन पहली बात यह थी कि हम बड़े संकट से गुजरे रहे हैं। और तब से अब तक कोई बीस लाख वर्ष हुए, मनुष्य-जाति और बड़े और बड़े संकटों से गुजरती रही है। यह वचन सदा के लिए सत्य हो गया। ऐसा कोई समय न रहा, जब हम संकट में न रहे हों, और संकट रोज बढ़ते चले गए हैं। एक दिन अदम को स्वर्ग के राज्य से निकाला गया था, धीरे-धीरे हम कब नर्क के राज्य में प्रविष्ट हो गए, उसका भी पता लगाना कठिन है।

आज तो यह कहा जा सकता है, इधर तीन हजार वर्षों का इतिहास ज्ञात है। तीन हजार वर्षों में साढ़े चार हजार युद्ध हुए हैं। यह घबड़ाने वाली और आश्चर्य कर देने वाली बात है। तीन हजार वर्षों में मनुष्य ने साढ़े चार हजार लड़ाइयां लड़ी हों तो यह तो जीवन शांति का जीवन नहीं कहा जा सकता। अब तक हमने कोई शांति काल नहीं जाना है। दो तरह के हिस्सों में हम मनुष्य के इतिहास को बांट सकते हैं--युद्ध का समय, और युद्ध के लिए तैयारी का समय। शांति का कोई समय, कोई खंड अभी तक ज्ञात नहीं है। निश्चित ही, कोई बहुत गहरी विक्षिप्तता, कोई बहुत गहरा पागलपन मनुष्य को पकड़े होगा। कोई रास्ता अब खोज लेना जरूरी है। पुरानी लड़ाइयां बहुत छोटी लड़ाइयां थीं और उनके बाद भी हम बचते चले आए हैं। लेकिन अब शायद जो युद्ध होगा, उसमें मनुष्य को बचने का भी। कोई उपाय न हो।
अलबर्ट आइंस्टीन से मरने के पहले किसी ने पूछा, तीसरा महायुद्ध में किन शास्त्रों का उपयोग होगा? आइंस्टीन ने कहाः तीसरे के प्रति कहना कठिन है, लेकिन चैथे के संबंध में कहा जा सकता है। सुनने वाला, पूछने वाला हैरान हुआ। उसने पूछा चैथे में किन शास्त्रों का उपयोग होगा? अगर मनुष्य बचा रहा--क्योंकि बचने की कोई संभावना नहीं है, अगर बचा रहा, तो फिर से पत्थर के हथियारों से लड़ाई शुरू करनी पड़ेगी। चूंकि तीसरा महायुद्ध, बहुत संभावना इस बात की है कि सारी मनुष्य-जाति को ही नहीं, बल्कि समस्त जीवन मात्र को समाप्त कर दे।
पिछले महायुद्ध में पांच करोड़ लोगों की हत्या हुई। पांच करोड़ लोग छोटी संख्या नहीं है। दोनों पिछले युद्धों में मिला कर दस करोड़ लोग मारे गए। शायद हमें खयाल भी नहीं है कि इन दस करोड़ लोगों की हत्या करने में हमारा भी हाथ है। हम जो यहां बैठे हैं, हम जिम्मेवार है। कोई भी मनुष्य इस जिम्मेवारी और उत्तरदायित्व से बच नहीं सकता। जो भी जमीन पर हो रहा है, उस सब में हमारे हाथ हैं। दो महायुद्ध हमारे भीतर से पैदा हुए और हमने इतनी बड़ी हत्या की । और अब तो हमारी तैयारी बहुत बड़ी है। मैं उस तैयारी के संबंध में भी दो शब्द कहना चाहूंगा।
उन्नीस सौ पैंतालीस में हिरोशिमा और नागासाकी पर जो अणु बम गिराए गए, वे बहुत घातक थे। एक लाख के करीब लोग उन अणु बमों के गिराने से नष्ट हुए। इधर बीस वर्षों में बहुत विकास हुआ है और हिरोशिमा पर जो बम गिराया गया था, बच्चों के खिलौनों से ज्यादा नहीं है, अब। अब हमारे पास उससे बहुत शक्तिशाली बम हैं। ऐसे उदजन बम कोई चालीस हजार वर्ग मील घेरे के समस्त जीवन को नष्ट कर सकता है। और ऐसे उदजन बमों की संख्या हमारे पास में उन्नीस सौ साठ में पचास हजार थी। निश्चित ही छह वर्षों में यह संख्या और बहुत ज्यादा बढ़ गई होगी, हम रुके नहीं हैं।
पचास हजार उदजन बम क्या अर्थ रखते हैं, शायद आपको खयाल न हो। यह जमीन बहुत बड़ी है। पचास हजार उदजन बमों को नष्ट करने के लिए यह जमीन बहुत छोटी है। इस तरह की सात जमीनें हों तो पचास हजार उदजन बम उन्हें नष्ट कर सकेंगे। अभी आदमी की संख्या कोई तीन अरब है। इक्कीस अरब आदमियों को मारने के लिए हमारे पास व्यवस्था है। यह थोड़े हैरानी की बात है कि इतनी बड़ी व्यवस्था से हम क्या करेंगे। शायद यह डर हो कि कोई आदमी मरने से बच जाए तो उसे दुबारा मारा जा सके, तीसरी बार मारा जा सके या सात बार मारा जा सके। हालांकि भगवान का कुछ ऐसा इंतजाम है कि एक आदमी एक ही बार में मर जाता है, लेकिन फिर भी सात बार मरने का हमने इंतजाम कर रखा है कि कोई बच जाए, कोई अपवाद हो जाए तो व्यवस्था पूरी होनी जरूरी है। यह पचास हजार उदजन बस किसी भी दिन, किसी भी एक पागल राजनीतिज्ञ के दिमाग में खराबी आ जाने से खतरा बन सकते हैं। कोई एक आदमी का दिमाग खराब हो जाए तो सारी मनुष्य जाति नष्ट हो सकती है। और जैसे हमारे दिमाग हैं, हम करीब-करीब वैसे ही पागल हैं, इसलिए पागल होने की कोई बहुत ज्यादा जरूरत नहीं है।
आम आदमी इतना अशांत है, इतना दुखी है, इतना परेशान है कि उसके द्वार बहुत डर है कि वह कभी भी युद्ध के खतरे को मोल ले सकता है। हम छोटी-छोटी बात पर लड़ने को तैयार हो जाते हैं, बहुत छोटी-छोटी बात पर लड़ने को तैयार हो जाते हैं, बहुत छोटी-छोटी बातों पर, और हमारे भीतर से हमारा राजनीतिज्ञ भी पैदा होता है। उसकी बुद्धि भी हमसे ज्यादा बड़ी और हमसे श्रेष्ठ नहीं होती है। उसकी आत्मा भी हमसे ज्यादा विकसित नहीं होती है। अक्सर तो यह होता है, जो हमसे निम्नतम है, वे राजनीति में श्रेष्ठतम हो जाते हैं, और तब, तब खतरा और भी बढ़ जाता है। राजनीतिज्ञों के हाथ में दुनिया का होना एक ज्वालामुखी के ऊपर जैसे हम बैठे हों, ऐसी स्थिति में है।
क्या आपको पता है, ट्रूमैन की आज्ञा से हिरोशिमा और नागासाकी में एटम बम गिरा। दूसरे दिन सुबह पत्रकारों ने ट्रूमैन से पूछाः आप रात को ठीक से सो सके? एक लाख आदमी मर गए थे, स्वाभाविक था कि ट्रूमैन की नींद रात में शराब हुई होती, लेकिन ट्रूमैन ने कहाः मैं बहुत आनंद से सोया। सच तो यह है, उसने कहाः इधर तीन चार वर्षों में इतनी शांति से मैं कभी नहीं सोया। एक लाख आदमियों को मार कर अगर हमारे राजनीतिज्ञ शांति से सो सकते हैं तो इन राजनीतिज्ञों के हाथ में दुनिया का होना शुभ नहीं कहा जा सकता। और राजनीतिज्ञ के हाथ में दुनिया हजारों वर्ष से है और राजनीति बिना युद्ध के न तो जी सकती है और न जी है।
जिस दिन दुनिया से युद्ध समाप्त होंगे, उस दिन राजनीति का भाव भी समाप्त हो जाएगा। इसलिए यह बहुत स्वाभाविक है कि राजनीतिज्ञ युद्ध को जारी रखे, युद्ध को बनाए रखे, उसे जिंदा रखे। इस संबंध में विचार करना इसलिए बहुत-बहुत आवश्यक हो गया है, क्योंकि पिछले दिनों में राजनीतिज्ञ युद्ध से जो नुकसान पहुंचा सकते थे, इतने बड़े नहीं थे, लेकिन अब तो वे पूरी मनुष्य-जाति को नष्ट कर सकते हैं।
एक छोटी सी कहानी कहूं और फिर अपनी चर्चा को शुरू करूं। यह कहानी मैंने मुल्क के कोने-कोने में कही हैं। एक बिलकुल झूठी कहानी है।
एक बहुत बड़े महल के बाहर बड़ी भीड़ थी। भीतर कुछ हो रहा था, उसे जानने की सैकड़ों बड़ी भीड़ इकट्ठे थे। लेकिन वे साधारण जन नहीं थे। जो बाहर इकट्ठे थे, वे स्वर्ग के देवी और देवता थे और जो महल था वह खुद भगवान का महल था। भीतर वहां कोई बात चली थी, जिसको सुनने के लिए सारे लोग उत्सुक थे। उस बात पर बहुत कुछ निर्भर था। मैंने कहाः कहानी बिलकुल झूठी है, फिर भी बहुत अर्थपूर्ण है। भीतर ईश्वर का दरबार लगा हुआ था। और तीन आदमी दरबार में खड़े थे। ईश्वर ने उन तीन आदमियों से पूछाः मैं बहुत हैरान हो गया हूं, मनुष्य को बना कर मैं बहुत परेशान हो गया हूं। मैंने सोचा था, मनुष्य को बना कर दुनिया में एक आनंद, एक शांति, एक संगीत पूर्ण विश्व का जन्म होगा। जमीन एक स्वर्ग बनेगी। लेकिन मनुष्य को बना कर भूल हो गई। जमीन एक स्वर्ग बनेगी। लेकिन मनुष्य को बना कर भूल हो गई। जमीन रोज नरक के करीब होती जा रही है और ऐसा वक्त आ सकता है, नर्क में जो लोग पाप करें, उन्हें हमें जमीन पर भेजना पड़े। इसलिए ईश्वर ने कहाः मैं बहुत परेशान हूं और तुम्हें इसलिए बुलाया है कि मैं तुमसे पूछ सकूं कि क्या कोई उपाय मैं कर सकता हूं जिससे कि दुनिया ठीक हो जाए?
वे तीन लोग तीन बड़े देशों के प्रतिनिधि थे--अमरीका, रूस और ब्रिटेन के। अमरीका के प्रतिनिधि ने कहा, दुनिया अभी ठीक हो जाए। एक छोटी सी आकांक्षा हमारी पूरी कर दें। ईश्वर ने उत्सुकता से कहाः कौन सी आकांक्षा? अमरीका के प्रतिनिधि ने कहाः हे परमात्मा, जमीन तो रहे, लेकिन जमीन पर रूस का कोई निशान न रह जाए। इतनी सी आकांक्षा पूरी हो जाए, फिर और कोई तकलीफ नहीं, फिर और कोई कष्ट नहीं, फिर सब ठीक हो जाएगा और जैसा चाहा है दुनिया वैसी हो सकेगी।
ईश्वर ने बहुत वरदान दिए थे। ऐसे वरदान देने का उसे कोई मौका नहीं आया था। उसने रूस की तरफ देखा, रूस के प्रतिनिधि ने कहा कि महानुभाव, एक तो हम मानते नहीं कि आप हैं। उन्नीस सौ सत्रह के बाद हमने अपने मंदिरों और मस्जिदों और चर्चों से निकाल कर आपको बाहर कर दिया है। लेकिन हम पुनः आपकी पूजा शुरू कर देंगे और फिर आपके मंदिरों में दीये जलाएंगे और फूल चढ़ाएंगे। एक छोटी सी आकांक्षा अगर पूरी हो जाए तो वही प्रमाण होगा ईश्वर के होने का। ईश्वर ने कहाः कौन सी आकांक्षा? उसने कहा, हम चाहते हैं कि जमीन का नक्शा तो रहे, लेकिन अमरीका के लिए कोई रंग न रह जाए। ईश्वर ने हैरानी में और घबड़ा कर ब्रिटेन की तरफ देखा। ब्रिटेन के प्रतिनिधि ने कहा हे परम पिता, हमारी अपनी कोई आकांक्षा नहीं। इन दोनों की आकांक्षाएं एक साथ पूरी हो जाए तो हमारी आकांक्षा पूरी हो जाए।
यह तो बिलकुल ही झूठी कहानी मैंने आपसे कहीं। लेकिन दुनिया की स्थिति करीब-करीब ऐसी हो गई है। सारी दुनिया के राजनीतिज्ञ एक दूसरे के विनाश के लिए उत्सुक हैं। सारे दुनिया में लोग एक दूसरे की हत्या के लिए तत्पर हैं। सारी दुनिया की शक्ति--इतनी बड़ी शक्ति जिससे हम जमीन को न मालूम क्या बना सकते थे! जिससे जमीन की सारी दरिद्रता मिट सकती थी, सारी अशिक्षा मिट सकती थी, सारे दुख और बीमारियां मिट सकते थे, जिससे मनुष्य एक अदभुत रूप से स्वस्थ, शांत और सुखी संसार का निर्माण कर सकता था। वह सारी शक्ति इस बात में लगी है कि हम एक दूसरे को कैसे नष्ट कर दें। वह सारी शक्ति इस बात में लगी है कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य की हत्या करने में कैसे समर्थ हो जाए। यह कहानी तो झूठी है, लेकिन यह कहानी करीब-करीब हमारी दुनिया के संबंध में सच हो रही है। हम सारे लोग विनाश के लिए तत्पर हैं। क्यों? इसका जिम्मा, इसका उत्तरदायित्व किस पर है? और यह सारे राजनीतिज्ञों शांति की बातें भी करते हैं। यह भी आपको पता होगा, दुनिया के सारे युद्ध शांति के नाम पर हुए हैं। इसलिए शांति संबंध में भी विचार करना बहुत जरूरी है।
शांति के लिए भी युद्ध हो सकता है। और जब भी कोई लड़ता है तो शांति के लिए ही लड़ता है। अच्छे नाम, बुरे कामों को करने का कारण बन जाते हैं। अच्छे नामों की ओट में दुनिया में बुरे से बुरे पाप, बुरे से बुरे काम हुए हैं। धर्मों की ओट में हत्याएं हुए हैं। शांति के नाम पर युद्ध हुए हैं। इसलिए राजनीतिज्ञ जब शांति की बातें करता हो तो बहुत विचार करना जरूरी है। हो सकता है, शांति की आवाजें उठा कर वह केवल युद्ध की तैयारियां करवाना चाहता हो। अंत में वह कहेगा अब तैयार हो जाओ, शांति के लिए लड़ना जरूरी है। शांति की रक्षा के लिए युद्ध आवश्यक हो गया है।
यह जो सारे राजनीति की भाषा में सोचने वाले लोग हैं, यदि मनुष्य इस भाषा से, इस वृत्ति से सचेत नहीं होता है तो युद्ध से नहीं बचा जा सकेगा। मेरी दृष्टि में कोई राजनीतिक उपाय स्थायी रूप से शांत विश्व को जन्म देने में असमर्थ है। इसलिए असमर्थ है कि राजनीति मूलतः आकांक्षा है, एम्बीशन है। जहां राजनीति है, वहां दूसरे से आगे निकलने की होड़ है। प्रतिद्वंद्विता है और जहां आगे निकलने की दौड़ है, वहां आज नहीं कल, युद्ध अवश्यंभावी है। जब एक राष्ट दूसरे राष्ट से आगे निकलना चाहे, एक राष्ट्र से ऊपर निकलना चाहे तो अंत में युद्ध आ जाना स्वाभाविक है।
पहले महायुद्ध में हेनरी फोर्ड कुछ मित्रों का एक जत्था लेकर युद्ध की समाप्ति के लिए युरोप की तरफ आया। अमरीका से उसने एक जहाज लिया। कुछ मित्र इकट्ठे किए जो शांतिवादी थे और उस जहाज में उनको लेकर वह यूरोप की तरफ गया, ताकि वहां शांति की बातें और खबर पहुंचायी जा सके शांति का मिशन लेकर वह आया। लेकिन हेनरी फोर्ड, जैसे ही जहाज शुरू हुआ, पछताने लगा मन में। उससे भूल कर ली थी। जिन लोगों को लेकर वह जहाज में चला था शांति के लिए, वे अब आपस में लड़ने लगे। उसमें कई कई तरह के राजनीतिज्ञ थे। उसमें एक तरह का शांतिवादी था, उसमें दूसरे तरह के शांतिवादी थे। उसमें प्रजातंत्रवादी थे, उसमें साम्यवादी थे। उसमें कैथोलिक थे, उसमें प्रोटेस्टेंट थे। उसमें इन आइडियालाॅजी को मानने वाले थे, उस आइडियालाॅजी को मानने वाले थे। वह जहाज जैसे ही बंदर से छूटा, वे आपस में लड़ने लगे। हेनरी फोर्ड मन में पछताया और उसने सोचा, इन लोगों को ले जाकर शांति की बात करनी असंभव है। जो आपस में लड़ते हो, वे शांति के लिए क्या कर सकेंगे।
हम सारे लोग, जो मनुष्य के भविष्य के लिए विचार करते हों और जिनके मन में यह खयाल आता हो कि जीवन को बचाना और सुरक्षित करना आवश्यक है, उन्हें कुछ बातों पर विचार करना होगा। सबसे पहली बात तो यह विचार करनी होगी कि हम जो व्यक्ति गत रूप से छोटी छोटी बातों में लड़ते हैं और संघर्ष करते हैं। कहीं वही संघर्ष, कहीं वही लड़ाई अंततः बड़े पैमाने पर राष्ट्रों का युद्ध तो नहीं बन जाती है? हम जो व्यक्तिगत रूप से करते हैं, छोटे-छोटे रूपों में वही इकट्ठे होकर बड़े पैमाने पर युद्ध बन जाता है। कोई राजनीतिक, कोई समाज सुधार मूलतः अंतर नहीं ला सकेगा, अगर व्यक्तियों के चित्त इस बात को समझने में समर्थ न हो जाए कि उनके भीतर जब तक द्वंद्व है, जब तक संघर्ष है, जब तक प्रतियोगिता है, एंबीशन है, महत्वाकांक्षा है, तब तक मनुष्य-जाति युद्ध से मुक्त नहीं हो सकती। इसलिए मैं मनुष्य के, सामान्य के भीतर, जो युद्ध के मूल कारण हैं, उसके संबंध में बात करूंगा और कैसे मनुष्य के चित्त में शांति स्थापित हो सकती है, जिसके द्वारा सारे संसार में शांति स्थापित हो सके, उसकी भी बात करूंगा।
मनुष्य के हृदय में युद्ध का मूल कारण क्या है? यह तो आपने अनुभव किया होगा कि विनाश में हम सबकी उत्सुकता है। रास्ते पर कोई आदमी किसी को छुरा मार दे तो हम हजार महत्वपूर्ण काम छोड़कर उसे देखने को खड़े हो जाते हैं। क्यों? रास्ते पर कोई लड़ रहा हो, हम हजार महत्वपूर्ण काम छोड़ कर उसे देखने को रुक जाते हैं। लोग सुबह से ही अखबार और रेडियो की प्रतीक्षा करते हैं और युद्ध के समाचार पढ़कर उनकी आंखों में चमक आ जाती है। जब युद्ध चलता है तो लोगों में बड़ा उत्साह और बड़ी ताजगी और बड़ी चहल-पहल और बड़ी गति मालूम होती है। उनमें बड़ी जिंदगी मालूम होती है। और जब युद्ध शांत हो जात है, लोग फिर बोझिल हो जाते हैं, फिर उदास हो जाते हैं, फिर ढीले मन चलने लगते हैं।
क्या आपको यह पता है, जब पहला महायुद्ध हुआ, तो मनोवैज्ञानिक बहुत परेशान हुए। पहला महायुद्ध जितने दिनों तक चला उतने दिन तक युरोप में चोरियां कम हो गई, हत्याएं कम हो गई, आत्महत्याएं कम हो गई, लोग कम पागल हुए। हैरानी की बात है। मनोवैज्ञानिक समझ नहीं पाए कि इसका क्या कारण है? फिर महायुद्ध हुआ। तब तो और बड़े पैमाने पर यह हुआ। हत्याओं की संख्या एकदम कम हो गई आत्महत्याओं की संख्या कम हो गई। लोगों ने युद्ध के समय में पागल होना बंद कर दिया। कम। लोग पागल हुए। और क्यों? लोग इतने उत्साहित हो गए, लोग इतने आनंदित हो गए कि उन्हें हत्या करने की जरूरत नहीं पड़ी, आत्महत्या करने की जरूरत नहीं पड़ी। ऊब और बोर्डम कम हो गई। उदासी कम हो गई, लोग प्रफुल्लित थे।
युद्ध ऐसी क्या प्रफुल्लता लाता है? अगर युद्ध इतनी प्रफुल्लता लाता है तो उसका अर्थ है, हमारे भीतर, हमारे मन में युद्ध की कहीं चाह होगी। हम कहीं चाहते होंगे। हमारे भीतर कहीं कोई आकांक्षा होगी, जिससे युद्ध पैदा होता है और अगर सतत युद्ध चलता रहे तो हम बहुत प्रसन्न हो जाएंगे। यह बात अपने खयाल से आप निकाल दें कि युद्ध से आप उदास हो जाते हैं। आप खुद विचार करें--अभी हिंदुस्तान में चीन और पाकिस्तान की लड़ाइयां चलीं, तो आप खयाल करें, आप ज्यादा प्रसन्न थे। आप ज्यादा प्रफुल्लित थे, आप ज्यादा ताजगी से भरे थे। आप खबरों के लिए बड़े आतुर थे। आपकी जिंदगी में एक रस मालूम हो रहा था। क्यों? कुछ कारण है।
जो मनुष्य सामान्य जीवन से ऊबा हुआ है, वह मनुष्य युद्ध को चाहेगा, हिंसा को चाहेगा। बोर्डम जो हमारे जीवन की है, रोज सुबह से सांझ तक हमारे जीवन में न तो कोई रस है, न तो कोई आनंद है, न कोई प्रसन्नता है। जब तक कोई संशेसनल,जब तक कि कोई बहुत तीव्र संवेदना करने वाली बात न घट जाए, हमारे जीवन में कोई प्रफुल्लता, कोई जिंदगी नहीं आती। बर्नार्ड शाॅ से किसी ने पूछा कि किस बात को आप समाचार कहते हैं, न्यूज किसे कहते हैं? बर्नार्ड शाॅ ने कहाः अगर एक कुत्ता आदमी को काट खाए तो इसे मैं न्यूज नहीं कहता। लेकिन एक आदमी कुत्ते को काट खाए तो इसे मैं न्यूज कहता हूं। इसे मैं समाचार कहता हूं, एक आदमी अगर कुत्ते को काट खाए।
यह हमारी जिंदगी की जो ढीली-ढाली रफ्तार है, वह उसको चैंका देती है बात। हम चैंकाने के लिए उत्सुक है, हम चैंकाए जाएं। इसलिए डिटेक्टिव फिल्में हम देखते हैं, जासूसी उपन्यास और कथाएं पढ़ते हैं जिनमें हत्याओं का जोर हो। जिंदगी में भी युद्ध और लड़ाइयां चाहते हैं, संघर्ष और कलह चाहते हैं, ताकि हमारे भीतर वह जो उदासी, ऊब जिंदगी में छा गई है, वह टुट जाए। केवल वही मनुष्य का समाज युद्ध से बच सकता है, जो मनुष्य का समाज अत्यधिक आनंदित और प्रफुल्लित हो। स्मरण रखें, अगर हम उदास हैं, दुखी हैं, रसहीन हमारा जीवन है तो हम भीतर अनजाने भी, अचेतन, अनकांशस भी युद्ध के लिए तीव्र युद्ध के लिए प्यासे रहेंगे। हमारे भीतर कोई आग्रह कोई आकांक्षा बनी रहेगी कि जीवन को चैंका देने वाली कोई बातें हो जाए। युद्ध सबसे ज्यादा जीवन को चैंका देता है। इसलिए जीवन में एक लहर आ जाती है, एक गति आ जाती है। इसलिए सारी मनुष्य-जाति बहुत गहरे में युद्ध से प्रेम करती है। युद्ध की आकांक्षा करती है।
अभी हिंदुस्तान में जब चीन और पाकिस्तान से उपद्रव चला तो आपने देखा, हिंदुस्तान भर में कविताएं लिखी जाने लगीं, की आंखों में रौनक और चेतना आ गई। कैसा पागलपन है। कैसे पागलपन है! हम कितने उत्साहित हो गए।
हमारा नेता कितने जोर से बोलने लगा और हमारी तालियां कितनी जोर से पिटने लगी और हमारे प्राणों में जैसे गति और एक कंपन आ गया। ऐसा लगा जैसे सब मुर्दे जाग गए हो।
यह सारी की सारी स्थिति यह बताती हैं कि सामान्य जीवन हमारा बहुत दुखी और बहुत पीड़ित है। और यह भी स्मरण रखें, अगर सामान्य रूपेण हम दुखी हैं तो जो आदमी दुखी होता है, वह आदमी दूसरे को दुख देने में आनंद अनुभव करता है। इसे मैं फिर से दोहराता हूं, जो आदमी दुखी होता है वह दूसरे को दुख देने में आनंद अनुभव करता है। जो आदमी आनंदित होता है वह दूसरे को आनंद देने में आनंद अनुभव करता है। जो हमारे पास होता है, उस पे निर्भर होता है, हम दूसरे के साथ क्या करेंगे। चूंकि हम सारे लोग दुखी हैं, इसलिए हमारे जीवन में एक ही सुख है कि हम किसी को दुख दे पाए। इसलिए जब भी हम किसी को दुख देते हैं, सताते हैं, परेशान करते हैं तो हम सुख मिलता है।
एक मुसलमान फकीर था, बायजीद। वह बहुत परेशान था इस बात से कि ईश्वर ने नर्क बनाया ही क्यों? उसे यह परेशानी थी कि ईश्वर जो इतना दयालु है, उसने भी नरक क्यों बनाया उसने एक रात ईश्वर से प्रार्थना की कि मैं तो समझने में असमर्थ हूं, अगर तू ही मुझे बता सके कि तूने नरक क्यों बनाया, इतना बुरा नरक क्यों बनाया। वह रात सोया, उसे एक सपना आया। निरंतर सोचने के कारण ही वह सपना उसे आया होगा। उसने सपना देखा, वह स्वर्ग में गया है। वहां चारों तरफ संगीत ही संगीत है और आनंद ही आनंद है। वहां दरख्तों के ऊपर सुंदर फूल हैं, वहां चारों तरफ सुगंध है। लोग बड़े स्वस्थ है।
वह जब पहुंचा तो स्वर्ग के लोग भोजन कर रहे थे, घरों-घरों में भोजन चल रहा था। उसने कई घरों में झांक कर देखा, एक बात से वह बहुत परेशान हुआ। लोगों के हाथ बहुत लंबे हैं, लोगों के शरीर तो बहुत छोटे हैं, लेकिन हाथ बहुत लंबे हैं, इसलिए भोजन करने में उन्हें बड़ी तकलीफ होती है। उठाते हैं तो उनको मुंह तक ले जाने में बड़ी अड़चन है, मुंह तक खाना जा नहीं पाता। लेकिन फिर लोग स्वस्थ हैं तो वह हैरान हुआ। उसने जाकर देखा, उसने देखा, घर-घर में लोग एक दूसरे को खाना खिला रहे हैं। खुद तो खा नहीं सकते, उनके हाथ बहुत लंबे हैं, तो एक आदमी दूसरे आदमी को खाना खिला रहा है।
फिर वहां से वह नर्क गया। नरक में देखा उसने, वहां भी हाथ उतने ही लंबे हैं, दरख्त उतने ही सुंदर हैं और फूल खिले हुए हैं। वहां भी सुगंध है, वहां भी सब ठीक है, लेकिन लोग बिलकुल दुर्बल और परेशान और पीड़ित हैं। वह हैरान हुआ। उसने देखा, वहां हर आदमी अपना खाना खाने की कोशिश कर रहा है और बगल वाला न खा पाए, इसकी कोशिश भी कर रहा है। खुद के हाथ लंबे हैं, इसलिए खुद के मुंह तक नहीं पहुंचते इसलिए कोई आदमी खाना नहीं खा पा रहा है और किसी तरह थोड़ा बहुत खाना पहुंच भी जाए तो दूसरे लोग उसे धक्का दे रहे हैं। उसकी वजह से उसके पास खाना नहीं पहुंच पा रहा है। उसने देखा, स्वर्ग और नर्क तो बिलकुल एक जैसे हैं, लोग थोड़े अलग-अलग हैं। नर्क में कोई आदमी दूसरे आदमी को सुखी देखने के लिए उत्सुक नहीं है। हर आदमी दूसरे आदमी को दुख देना चाह रहा है।
हम सारे लोग भी एक दूसरे को दुख देना चाह रहे हैं। फोसडेग का नाम सुना होगा, एक बहुत विचारशील व्यक्ति हैं। वह एक थियोलाॅजीकल कालेज में बच्चों को पढ़ा रहा था, वह स्कूल, जहां ईसाई मिशनरी तैयार किए जाते हैं, उपदेश के लिए। वहां वह कालेज में उन लड़कों को पढ़ा रहा था। उसने पढ़ाते वक्त उनको कहा कि तब तुम स्वर्ग का वर्णन करने लगो; तुम कहीं उपदेश करने जाओ और बाइबिल में स्वर्ग का वर्णन आ जाए तो तुम प्रसन्नता जाहिर करना, चेहरे पर हंसी ले आना, आंखों में ताजगी ले आना, रोशनी ले आना। एकदम प्रफुल्लित हो जाना ताकि लोग समझ सकें कि स्वर्ग के वर्णन से तुम्हारा हृदय प्रफुल्लित हो गया। एक युवक ने खड़े होकर पूछा, और जब नर्क का वर्णन करना पड़े? तो फोसडेग ने कहाः तुम्हारी जो सूरत है, उससे ही काम चल जाएगा और कुछ सूरत बनाने की कोशिश मत करना।
हम सबकी सूरतें जैसी हैं, वैसी से नर्क का काम चल जाएगा। उसके लिए कोई और विशेष सूरत बनाने की जरूरत नहीं है। जमीन करीब-करीब दुखी, उदास, पीड़ित उस स्थिति में पहुंच गई है कि किसी मनुष्य को भीतर जीवन में न तो कोई रस है, न कोई आनंद है। फिर एक ही रस है कि वह दूसरे को सताए, दूसरे को परेशान करे।
चंगेज दिल्ली आया उसने आते से, दस हजार बच्चों के सिर कटवा दिए और और उनको भालों पर लगवाकर जुलूस निकलवाया आगे। लोगों ने पूछा, यह तुम क्या करते हो? उसने कहाः ताकि दिल्ली में लोगों को याद रहे कि कोई आया था। वह खुश था दस हजार बच्चों के सिर कटवा कर।
यह आदमी जरूर बहुत दुखी रहा होगा। इसके दुख का अंत न होगा। इसके भीतर नर्क ही रहा होगा, तभी तो इसे खुशी मिल सकी। जब हिंदुस्तान से वापस लौटा, बीच के एक गांव मग रुका। कुछ वेश्याएं, रात को उसके दरबार में नाचने आई। आधी रात में, दो बजे जब वेश्याएं लौटने लगी तो उन्होंने कहा, हमें डर लगता है, रास्ते में अंधेरा है। चंगीज ने कहाः अपने सैनिकों को, रास्ते में जितने गांव पड़ते हैं, सबमें आग लगा दो ताकि इन वेश्याओं को याद रहे कि चंगीज के दरबार में नाचने गई थीं तो आधी रात में भी उसने दिन करवा दिया। सारे गांव में आग लगा दी गई, कोई बीस गांव जला दिए गए। उसमें सोए लोग वहां जल गए। लेकिन वेश्याओं के रास्ते पर प्रकाश कर दिया।
यह आदमी जरूर भीतर गहरे नर्क में रहा होगा। चंगेज सो नहीं सकता था। हिटलर भी नहीं सो सकता था, स्टैलिन भी नहीं सो सकता था। भीतर एक गहरी पीड़ा रही होगी, कितना गहरा दुख रहा होगा कि दूसरे के दुख का दुख तो अनुभव नहीं हुआ, बल्कि दूसरे को दुख देने में एक खुशी अनुभव हुई। हम सारे लोग दुखी हैं। अगर आप दुखी हैं, तो आप स्मरण रखिए, आपका हाथ युद्ध में है। अगर आप दुखी हैं तो आप युद्ध की आकांक्षा कर रहे हैं। अगर आप दुखी हैं तो आप दूसरे के लिए दुख पैदा कर रहे हैं। हम सार लोग मिलकर दुख पैदा कर रहे हैं--सामूहिक रूप से, व्यक्तिगत रूप से, राष्टरें के रूप से। और जब सारी दुनिया बहुत दुख से भर जाती हैं, दस पंद्रह वर्ष में, दुख के सिवाय हमारे दुख के रिलीफ का, निकास का कोई रास्ता नहीं रह जाता। युद्ध राजनैतिक घटना मात्र नहीं है, हमारे पूरे मानसिक नरक का निकास है, रिलीफ है। जब भीतर बहुत पीड़ा इकट्ठी हो जाती है, एक दुख सारी दुनिया में हम पैदा कर देते हैं, पागलपन पैदा कर देते हैं। दस पंद्रह वर्ष के लिए फिर एक हल्की शांति छा जाती है। दस पंद्रह वर्ष में हम फिर इकट्ठे कर लेते हैं।
अगर कोई व्यक्ति इस बात के लिए उत्सुक है कि दुनिया में शांति हो और युद्ध न हो, हिंसा न हो तो सबसे पहले उसे इस बात पर विचार करना होगा कि उसके स्वयं के जीवन में दुख न हो। यह पहली बात है जो मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूं। अगर आप प्रफुल्लित और आनंदित हैं, अगर आप अपने जीवन में चैबीस घंटे खुशी बिखेर रहे हैं, फूल बिखेर रहे हैं, खुशबू और सुगंध बिखेर रहे हैं तो आप युद्ध के खिलाफ काम कर रहे हैं। आप एक ऐसी दुनिया के बनाने के काम में लगे हुए हैं, जहां युद्ध नहीं हो सकेंगे। अगर दुनिया में अधिक लोग खुश हो तो युद्ध असंभव हो जाएगा। युद्ध को रोकने के लिए और कोई रास्ता नहीं है, सिवाय इसके कि दुनिया में आनंद की गहरी पर्ते बिखेरी जाएं।
मैडम ब्लावटस्की जिस गांव में गई, जिस रास्ते में निकली, अपने साथ हमेशा एक झोले में बहुत से फूलों के बीज लिए रहती थी। बस में बैठी हो, कार में बैठी हो, ट्रेन में बैठी हो, रास्तों के किनारे, खेत में फूल के बीज फेंकती जाती थी। लोगों ने पूछा, तुम पागल हो। उसने लाखों रुपयों के फूलों के बीज अनजान रास्तों पर फेंक दिए। लोगों ने कहाः तुम पागल हो इन बीजों को फेंकने से फायदा? उस महिला ने कहाः जरूर वर्षा आएगी जल्दी ही, यह बीज फूटेंगे, इनमें फूल लगेंगे और कोई उन फूलों को देख कर खुश होगा। लोगों ने कहाः लेकिन तुम दुबारा इस रास्तों से न निकल सकोगी, और न उन लोगों को खुश देख सकोगी। उसने कहा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर एक बेहतर दुनिया बनानी है तो उसमें मुस्कुराहट बिखेरना जरूरी है, बहुत फूल फैला देने जरूरी हैं।
तो मैं आपसे कहूंगा, अगर आप प्रसन्न हैं और आपके जीवन से कांटे नहीं, फूल गिरते हैं, अगर आपके व्यवहार से, आपके विचार से, आपके संबंधों में खुशी बिखरती है तो आप एक ऐसी दुनिया में निर्माण में भागीदार हो रहे हैं, जिसमें युद्ध नहीं हो सकेंगे। जिसमें हिंसा नहीं हो सकेगी। यह बात अजीब लगेगी कि मैं युद्ध के रोकने के लिए यह कहूं । लेकिन मैं जानता हूं, सिवाय इसके कोई उपाय नहीं है। दुखी लोग युद्ध से नहीं बच सकते। दुखी लोग हिंसा से नहीं बच सकते, क्योंकि दुखी लोग दूसरों को दुख देने से नहीं बच सकते हैं। यह तो पहली बात है। और यह प्रत्येक व्यक्ति को स्मरण रखनी जरूरी है तो उसके जीवन से एक आनंद की फुआर, आनंद की गंध निरंतर उठती रहे। उसके सोते, उठते, बैठते उसके जीवन में एक आनंद प्रकट हो।
लेकिन यह आनंद कैसे प्रकट हो?
अगर यह भीतर न हो तो यह प्रकट कैसे होगा? झूठी खुशियों का कोई अर्थ नहीं है और झूठी मुस्कुराहटें बेमानी हैं। अगर मैं झूठा मुस्कराऊं, कोशिश करके हंसू और कोशिश करके सुखी और प्रसन्न दिखने की चेष्टा करूं तो वह सब झूठ होगा, वह अभिनय होगा, वह सब एक्टिंग होगी। उसका कोई बहुत अर्थ नहीं हैं। मेरे प्राणों से आनंद उठना चाहिए। लेकिन मेरे प्राण तो उदास और अंधकार में डूबे हुए हैं। उससे आनंद कैसे उठेगा?
जरूर कोई रास्ता है कि सारा जीवन आनंद का एक संगीत हो जाए, एक गीत हो जाए और प्राणों की धड़कनें निरंतर सतत एक अपूर्व आनंद में धड़कने लगें। रास्ता है। मार्ग है। कुछ लोगों ने इसी जीवन में वैसे आनंद को उपलब्ध किया है। कुछ लोगों ने वैसे जीवन में संगीत को उपलब्ध किया है। और तब फिर--तब फिर उनके जीवन से जो प्रकट हुआ प्रेम, उनके जीवन से जो प्रकट हुई अहिंसा, उसके वे आधार रखे हैं, जिससे मनुष्य का--नये मनुष्य का जन्म हो सके।
बुद्ध एक पहाड़ के करीब से गुजरते थे। एक हत्यारे ने वहां प्रतिज्ञा कर रखी थी, एक हजार लोगों को मारने की उसने नौ सौ निन्यानबे लोग मार डाले थे, लेकिन अब रास्ता चलना बंद हो गया था। लोगों को पता हो गया था और रास्ता चलना बंद हो गया था। अब उस रास्ते पर कोई भी नहीं निकलता था। बुद्ध उस रास्ते पर गए। गांव के लोगों ने, जो अंतिम गांव था। उन्होंने कहा मत जाओ क्योंकि हत्यारा वहां अंगुलीमाल है। वह आपका भी सिर काट डालेगा। वह रास्ता निर्जन है, वहां कोई भी नहीं जाता।
बुद्ध ने कहाः अगर वहां कोई भी नहीं जाता तो वह बेचारा हत्यारा, अकेला बहुत दुख में और पीड़ा में होगा। मुझे जाना चाहिए। अगर मेरी गर्दन कट जाए तो भी उसे खुशी होगी, उसका एक हजार का व्रत पूरा हो जाएगा। दूसरी बात, जो आदमी एक हजार आदमियों को मार कर भी दुखी नहीं हुआ है। उसके प्राण पत्थर हो गए होंगे। उसके पत्थर प्राण उसे कितनी पीड़ा नहीं देते होंगे। बुद्ध ने कहाः मुझे उन नौ सौ निन्यानबे लोगों के मर जाने की उतनी पीड़ा नहीं जितनी उस आदमी के हृदय की पीड़ा है, उसके हृदय पर कितना बड़ा पत्थर होगा। मुझे जाने दें। बुद्ध वहां गए। वहां एक छोटी सी घटना घटी।
बुद्ध को आते देख कर, उनकी सीधी और शांत आकृति देख कर अंगुलीमाल को थोड़ी सी दया आई। सोचा, भिक्षु है, भूल से आ गया। और तो कोई आता नहीं है। उसने दूर से चिल्ला कर कहा कि भिक्षु, वापस लौट जाओ। क्या तुम्हें पता नहीं, अंगुलीमाल का नाम नहीं सुना? और सभी हत्यारे चाहते हैं कि उनका नाम सुना जाए, उसी के लिए हत्या करते हैं। उसने चिल्लाकर कहाः अंगुलीमाल का नाम नहीं सुना। बुद्ध ने कहाः सुना है, और उसी की खोज में मैं भी आया हूं। अंगुलीमाल थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहाः क्या तुम्हें पता नहीं कि मैं तुम्हारी गर्दन काट दूंगा? नौ सौ निन्यानबे लोगों को मैंने मारा है। बुद्ध ने कहाः मैं भी मरूं, क्योंकि मृत्यु निश्चित है। आज नहीं कल मर जाऊंगा। लेकिन तुम्हें अगर थोड़ी खुशी मिल सके और तुम्हारा व्रत पूरा हो जाए तो मृत्यु मेरी सार्थक हो जाएगी। अंगुलीमाल थोड़ा परेशान हुआ। इस तरह की बातें उसने जीवन में कभी नहीं सुनी थी।
उसने दो तरह के लोग देखे थे--वे जो उसकी तलवार को देख कर भाग जाते हैं और वे जो उसकी तलवार को देख कर तल वार निकाल लेते थे। इस आदमी के पास न तो तलवार थी और न यह आदमी भाग रहा था, क्योंकि आ रहा था। यह बिलकुल तीसरी तरह का आदमी था जो अंगुलीमाल ने नहीं देखा था। बुद्ध करीब आए, अंगुलीमाल से उन्होंने कहा कि तुम इसके पहले कि मुझे मारो, क्या एक छोटा सा काम मेरा कर सकोगे? और एक करते हुए आदमी की याचना कौन इनकार करेगा? अंगुलीमाल भी इनकार नहीं कर सका। बुद्ध ने कहाः यह जो सामने वृक्ष है, इसके थोड़े से पत्ते तोड़ कर मुझे दे दो। उसने अपनी तलवार से एक शाखा काटकर बुद्ध के हाथ में दे दी। बुद्ध ने कहा, तुमने मेरी बात मानी। क्या एक छोटी सी बात और मान सकोगे? इस शाखा को वापस जोड़ दो।
वह अंगुलीमाल हैरान हुआ। उसने कहाः यह तो असंभव है। वापस जोड़ देना असंभव है। बुद्ध हंसने लगे और उन्होंने कहाः फिर तोड़ना तो बच्चे भी कर सकते थे, पागल भी कर सकते थे। इसमें कोई बहादुरी नहीं, इसमें कोई पुरुषार्थ नहीं कि तुमने तोड़ी। जोड़ो तो कुछ बात है। तोड़ना तो कोई भी कर सकता है। और बुद्ध ने कहाः स्मरण रखना, जो तोड़ता है, वह निरंतर दुखी होता जाता है। और जितना ज्यादा दुखी होता है, उतना ज्यादा तोड़ता है और जितना ज्यादा तोड़ता है, उतना ज्यादा दुखी होता जाता है। अंगुलीमाल ने पूछाः सच, मैं तो बहुत दुखी हूं। क्या कोई रास्ता भी है कि मनुष्य आनंदित हो सके? बुद्ध ने कहाः जो जोड़ता है, वह आनंद को उपलब्ध होता है। अंगुलीमाल ने वह तलवार फेंक दी। उसने कहा कि मैं जोड़ने का विज्ञान सीखूंगा।
मैं आपसे यह कहना चाहता हूं, जीवन में जो भी जोड़ता है, वह आनंद को उपलब्ध होता है। जो भी क्रिएट करता है, जो भी सृजन करता है, जो भी बनाता है, वह आनंद को उपलब्ध होता है। अगर आप दुखी हैं तो उसका अर्थ है, आपने केवल तोड़ना सीखा होगा, जोड़ना नहीं। अगर आप दुखी हैं तो आपने मिटाना सीखा होगा, बनाना नहीं। आपने जीवन में कुछ बनाया, कुछ सृजन किया, कुछ क्रिएट किया? आपके जीवन से कुछ निर्मित हुआ? कुछ सृजित हुआ, कुछ बना, कुछ पैदा हुआ? कोई एक गीत, जो आपके मरने के बाद भी गाया, जा सके, कोई एक मूर्ति जो आपके बाद भी स्मृति बनी रहे, कोई एक पौधा, जो आपके न होने के बाद भी छाया दे? आपने कुछ बनाया, कुछ निर्मित किया? जो आपसे बड़ा हो, जो आप मिट जाएं और रहे, जो आप न हों और फिर भी हो। जो मनुष्य सृजन करता है, वही मनुष्य शांति को और आनंद को उपलब्ध होता है। जिसके जीवन में जितनी सृजनात्मकता, जितनी क्रिएटिविटी होती है, उसके जीवन में उतनी ही शांति और उतना ही आनंद होता है। जो लोग केवल मिटाते और तोड़ते हैं, वे आनंदित नहीं हो सकते।
क्यों सृजन करने से मनुष्य को आनंद उपलब्ध होता है? जो व्यक्ति जितने दूर तक सृजन करता है, वह उतने दूर तक ईश्वर का भागीदार हो जाता है। ईश्वर है सृष्टा, और जब भी हम कुछ सृजन करते हैं, ईश्वर का एक अंश हमसे काम करने लगता है और जो व्यक्ति सारे जीवन को सृजनात्मक बना देता है, सारे जीवन को एक सृजनात्मक सेवा में समर्पित कर देता है, उसके जीवन में संपूर्ण रूप से ईश्वर प्रकट होने लगता है। उसका जीवन आनंद से प्रेम से भर जाता है।
सुख के लिए, आनंद के लिए सृजनात्मकता चाहिए।
कुछ निर्मित करें, कुछ बनाएं, जो आपसे बड़ा हो। आपका जीवन केवल समय का गुजरना न हो, बल्कि एक सृजन हो। वह सृजन चाहे छोटा सा क्यों न हो, वह आपके प्रेम का कृत्य हो। जो लोग जीवन में सृजनात्मक हो जाते हैं, जो लोग भी जीवन में छोटे से प्रेम के कृत्य को निर्माण दे पाते हैं, उनके प्राण आह्लादित हो उठते हैं, वे आनंद से भर जाते हैं। फिर वह आनंद ऊपर से थोपा हुआ नहीं होगा। फिर वह आनंद उनके प्राणों के अंतिम केंद्र से उठता है, फिर उनके प्राणों के केंद्र से उठता है और उनके सारे जीवन का भर देता है।
जो व्यक्ति निर्मित करने में संलग्न हो, स्मरण रखना होगा...क्योंकि सामान्यतया, हमें इस बात का स्मरण भी नहीं है कि सुख केवल उनका भाग्य बनता है, जो सृजन करते हैं। सुख तो हम सब चाहते हैं, लेकिन सृजन हम कोई भी नहीं करते। इसलिए सुख से हमारा भी कभी भी कोई संबंध नहीं हो पाता। कोई संबंध नहीं हो पाता सुख से हमारा। यदि हम सृजन कर पाए, तो सुख बाई प्रोडक्ट है सृजन की। सुख सीधा नहीं मिलता।
आनंद सीधा उपलब्ध नहीं होता। जो सृजन करता है, उसे उपलब्ध होता है। जैसे फूल सीधे नहीं मिलते। जो पौधा लगाता है, बीज बोता है, पानी डालता है, पौधे की रक्षा करता है, पौधे पर श्रम करता है, उसे फूल उपलब्ध होते हैं। फूल सीधे उपलब्ध नहीं होते। वैसे आनंद के फूल भी सीधे उपलब्ध नहीं होते। जो सीधा फूल ही चाहता हो, फूलों को बिना बोए, फूलो को बिना पानी डाले, उसे फूल नहीं मिलेंगे, उसके हाथ के फूल भी सड़ जाएंगे। फूल तो उपलब्ध होते हैं, बीज को बोने से। वैसे ही जो सृजन के बीज बोता है, उसे आनंद के फूल उपलब्ध होते हैं। कभी सृजन का कोई काम करके देखें, और स्मरण रखें, सृजन करने की शर्त क्या है? कौन लोग सृजन कर सकते हैं? एक आदमी मंदिर बनाता है और अपना नाम उसके ऊपर लगा देता है। बस फिर वह एक्ट क्रिएटिव नहीं रहा। फिर वह मंदिर का बनाना सृजनात्मक नहीं रहा, वह अहंकार का हिस्सा हो गया। उसे फिर कोई आनंद नहीं मिलेगा।
एक आदमी दान करता है और भागा हुआ अखबार के दफ्तर में जाता है, फिर वह कृत्य सृजनात्मक नहीं रहा, फिर वह केवल अहंकार की तृप्ति हो गई। और स्मरण रखें, अहंकार से ज्यादा डिस्ट्रक्टिव और कुछ भी नहीं है। अहंकार से ज्यादा विनाशात्मक कुछ भी नहीं है। अहंकार से ज्यादा हिंसात्मक, वायलेंट और कुछ भी नहीं है। अहंकार की पूर्ति के लिए किए गए काम सृजनात्मक नहीं रह जाते। अहंकार के द्वारा, ईगो के द्वारा मैं की तृप्ति के लिए मैं कुछ हूं। दिखाई पड़े, उसके लिए जो कुछ किया जाता है, वह सृजन नहीं है। सृजन तो तभी है जब मैं भूल जाता है। तब मैं कोई भी हनीं रह जाता। रवींद्रनाथ मर हरे थे। एक मित्र मिलने गया। और उसने पूछा कि रवि बाबू, आपके छह हजार गीत गाए। अब तक मनुष्य-जाति में किसी कवि ने गीत नहीं गाए, जो संगीत में बांधे जा सकें।शैली, जो कि महाकवि है उसके भी दो हजार सानेट हैं, जो संगीत में बांधे जो सकते हैं। रवींद्रनाथ ने छह हजार गीत गाए, जो सभी संगीत में बद्ध हो सकते हैं। किसी मित्र ने पूछा, मरते वक्त रवींद्रनाथ को, आपने छह हजार गीत गाए। रवींद्रनाथ ने कहा, क्षमा करो। जब उन्हें गाता था, तब मैं मौजूद ही नहीं था। जब वे पैदा हुए, तब मैं नहीं था। बाद में मेरा नाम उनसे जुड़ गया, लेकिन जब वे पैदा हुए, तब मैं बिलकुल भी हनीं था। जब मैं बिलकुल मिट जाता था और भूल जाता था, जब मुझे स्मरण भी नहीं रहता था कि मैं कौन हूं तब उसका जन्म हुआ। तब वे पैदा हुए। तब वे मेरे भीतर से गाए और फैले, इसलिए मेरा...हां, कोई भूल-चूक हुई होगी तो मेरी होगी। लेकिन गीत परमात्मा के हैं, मेरे नहीं हैं।
जिसने भी जीवन में कुछ सृजन किया है, उसे सदा ऐसा लगेगा कि वह उससे आया, लेकिन उसका नहीं है। वह माध्यम बना। वह रास्ता बना, कोई चीज उससे पैदा हुई, लेकिन वह उसकी नहीं है। अहंकार की छाप और हस्ताक्षर उस पर हनीं होंगे। जहां-जहां अहंकार जुड़ जाता है, वहीं-वहीं सृजन भी विनाशात्मक हो जाता है। इसीलिए तो इतने सारे मंदिर हैं दुनिया में, इतनी मस्जिद हैं, इतने चर्च हैं, लेकिन मंदिर, मस्जिद और चर्च अगर सृजन से पैदा होते तो मनुष्य की दुनिया मग प्रेम भर गया होता। लेकिन मंदिर और मस्जिद और चर्च घृणा, से पैदा हुए तो घृणा के अड्डे बने हुए हैं। इनसे ज्यादा खतरनाक तो अड्डे नहीं हैं दुनिया में। इन्होंने तो मनुष्य को लड़ाने में और हत्या करवाने में भाग लिया। निश्चित ही यह प्रेम से पैदा नहीं हुए होंगे। निश्चित ही यह अहंकार से आए होंगे और अहंकार लड़ाता है, इसलिए मंदिर और मस्जिद लड़ते हैं। वह अहंकार पर निर्मित हैं। उनके भीतर सृजनात्मक, पवित्रता, सृजनात्मक प्रेम प्रकट नहीं हुआ। तो एक अंतिम बात यह कहना चाहता हूंः
पहली बात मैंने यह कही कि यदि आप दुखी हैं तो दुनिया से हिंसा का अंत नहीं होगा। आपका आनंदित होना जरूरी है। दूसरी बात मैंने आपसे यह कही कि अगर आप आनंदित होना चाहते हैं तो आपका सृजनात्मक होना जरूरी है और तीसरी और अंतिम बात मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि अगर आप सृजनात्मक होना चाहते हैं तो आपका अहंकार शून्य होना जरूरी है। आपको यह जो खयाल हमारे भीतर पैदा हुआ है कि मैं कुछ हूं, यह भ्रम टूट जाना चाहिए, छूट जाना चाहिए। यह भ्रम मनुष्य को अंत तक पीड़ा ही देता है और इस भ्रम के कारण ही वह सत्य को भी नहीं जान पाता, जो उसके भीतर छिपा था। और उस स्वर से भी वंचित रह जाता है, जिसके वह द्वार पर ही खड़ा था।
यह मैं का अहंकार अदभुत है। श्वास पर भी हमारा कोई वश नहीं लेकिन हम कहते हैं, मैं श्वास लेता हूं। अगर मैं श्वास लेता हूं तो फिर तो मुझे मरने की कोई जरूरत नहीं है। मैं जब श्वास लेना चाहूंगा, लेता चला जाऊंगा। लेकिन एक दिन पाया जाता है, श्वास बाहर गई और अंदर नहीं आई, और फिर नहीं ले पाता हूं। तो यह कहना पागलपन ही होगा कि मैं श्वास लेता हूं। श्वास आती है, जाती है। यही तक ठीक है। उसके साथ मैं को जोड़ देना गलत है।
हम कहते हैं, मेरा गलत जन्म--मेरा जन्म-दिन, जैसे उस पर ही हमारा कोई अधिकार हो। न हमारा जन्म पर कोई अधिकार है, न मृत्यु पर हमारा कोई अधिकार है, न हमारे श्वासों पर हमारा कोई अधिकार है, फिर यह मैं को ठहरने की जगह कहां है? इस मैं को बड़े होने का स्थान कहां है? लेकिन जीवन भर इस मैं को खड़ा करते हैं। अनेक-अनेक रूपों मग इस मैं को मजबूत करते हैं। और फिर जब यह मैं मजबूत हो जाता है, जितना मजबूत हो जाता है, उतना बगल वाले मैं से इसकी टक्कर शुरू हो जाती है। व्यक्तियों के मैं लड़ते हैं, राष्ट्रों के मैं लड़ते हैं।
यह सारे झंडे जो हर राष्ट्र अपना ऊंचा किए हुए हैं, यह सब राष्ट्रों के अहंकार के झंडे है और लड़ाते हैं। यह टक्कर करवाते हैं। व्यक्तियों के झंडे हैं, वे लड़ाते हैं, राष्ट्रों के झंडे हैं, वे लड़ाते हैं। हम कहते हैं, हमारे मुल्क में कहते हैं कि भारत बड़ा महान देश है, पागलपन की बात हैं। जब तक कौमें इस तरह की बातें पत्थर पड़ रहे हैं। क्या कहते! उन सबने कहाः तुम अपनी आत्म-कथा लिखो। आॅटो-बायोग्राफी लिखो। तुम जैसा पत्थर हमारे पत्थरों में कभी पैदा ही नहीं हुआ। तुम तो जरूर ईश्वर पुत्र हो। तुम तो महात्मा हो। तुम तो धन्य हो, जरूर कोई ईश्वरीय शक्ति काम कर रही है। तभी तो तुम आकाश में उड़े शत्रु का विनाश किया, राजमहलों के अतिथि बने।
फिर आॅटो-बायोग्राफी लिखनी पड़ती है। आदमी को, और पत्थर से ज्यादा उनकी कहानी नहीं है। एक पत्थर से ज्यादा, यह जो पत्थर ने यात्रा की, इससे ज्यादा हमारी यात्रा है? इस पर थोड़ा विचारें, इसे थोड़ा सोचें। इस पत्थर से ज्यादा कथा नहीं दिखेगी और अब आत्म-कथाएं बचकानी और चाइल्डिश मालूम होंगी, सब मनुष्य की अहंकार मालूम होंगी।
यह अहंकार सबसे बड़ी डिस्ट्रेक्टिव फोर्स है, सबसे बड़ी विनाशात्मक शक्ति है। अगर यह सोच विचार आपको दिखाई पड़े, मैं तो कुछ भी ही हूं, अगर यह अनुभव में आए, मैं तो न कुछ हूं। प्रकृति के हाथ का खेल, या परमात्मा के द्वारा फेंका गया एक पत्थर, और सारी यात्रा और सारी कथा, और फिर पत्थर का वापस गिर जाना, इससे ज्यादा मैं कुछ भी नहीं हूं। ऐसा अगर दिखाई पड़े तो आपके जीवन में अहंकार विलीन हो जाएगा। और जैसे ही अहंकार विलीन हुआ वैसे ही, उसका जन्म होता है, जो प्रेम है, जो आनंद है। उसका जन्म होता है, जो आत्मा है। उसकी प्रतीति होती है, जो भीतर छिपा हुआ सत्य है, जो वास्तविक हमारी सत्ता है। और उसकी उपलब्धि होते ही सारे जीवन की दृष्टि कुछ और हो जाती है। फिर होता है सृजन। फिर आप उठते हैं तो सृजन होता है, फिर आप श्वास लेते हैं तो सृजन होता है, फिर आप प्रेम करते हैं तो सृजन होता है। आपका गुजर जाना, आपका होना मात्र एक सृजनात्मक सेवा हो जाती है।
यह तीन छोटी सी बात मैंने कहीं। हैरानी होगी कि इनको मैं विश्वशांति से कैसे जोड़ता हूं। निश्चित ही, इन्हें मैं विश्वशांति से जोड़ता हूं। इसलिए जोड़ता हूं कि एक-एक व्यक्ति से मिल कर हमारा यह सारा मनुष्य का विश्व बना है। एक-एक छोटे-छोटे व्यक्ति का जोड़ है। विश्व कहीं है नहीं। हम सारे लोग मिल कर इस विश्व को बनाते हैं, बनाए हुए हैं। हम सारे लोगों ने इसे निर्मित किया है। हम सारे लोगों को प्राण यदि बदले हमारे चित्त यदि बदलें, हमारे सोचने और जीने का ढंग यदि बदले तो ही यह संभव है कि हम एक दूसरे तरह की मनुष्यता को जन्म देने में समर्थ हो सकें। और स्मरण रखें, यह जिम्मा प्रत्येक व्यक्ति के ऊपर है, उसे टाला नहीं जा सकता। इसे किसी और पर टाला नहीं जा सकता। अगर मनुष्य की समाप्ति होगी तो मैं जिम्मेवार रहूंगा, आप जिम्मेवार रहेंगे। और अगर मनुष्य को बचाना है तो मुझे कुछ करना होगा, आपको कुछ करना होगा।
यह तीन छोटी सी बातें, अगर थोड़े से लोग जमीन पर करने में समर्थ हो जाए तो थोड़े से दिए जल जाएंगे अंधकार में थोड़े से प्रकाश के पैदा हो जाएंगे। और जब एक दिन जलता है तो दूसरे बुझे हुए दिए के प्राणों में भी जलने की आकांक्षा पैदा होने लगती है। और जब एक दिया जलता है तो उसके आलोक में अनेक दीयों को जलने की उत्प्रेरणा मिलनी शुरू हो जाती है। ईश्वर करे, आपके भीतर संकल्प पैदा हो, ईश्वर करे, आपके भीतर एक सृजनात्मक ऊर्जा पैदा हो, आपके भीतर एक प्रेम पैदा हो। ईश्वर करे, आपके भीतर उस प्रार्थना का जन्म हो जिसे हम एक नई तरह की दुनिया बना सकें। अब तक मनुष्य जैसा जीया है वह एकदम गलत है और अब तक मनुष्य ने जो भी किया है उससे हित नहीं हुआ। बिलकुल ही एक बड़ी क्रांति से गुजरे बिना कोई मार्ग नहीं है। और अगर राजनीतिज्ञों पर, राजनेताओं पर बात छोड़ दी गई तो दुनिया डूबेगी, दुनिया को बचने का फिर कोई मार्ग नहीं दिखाई पड़ता। लेकिन अगर एक-एक व्यक्ति अपने ऊपर बात ली तो कुछ हो सकता है। वह आशा करता हूं कि कुछ हो सकेगा। हम सारे छोटे-छोटे लोग भी उस बहुत बड़े के भागीदार बन सकते हैं।

मेरी इन बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है। उससे बहुत-बहुत आनंदित हूं, और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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