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रविवार, 26 अगस्त 2018

घाट भुलाना बाट बिनु-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(प्रेम नगर के पथ पर

प्रेम के गीत आदमी हजारों वर्षों से गाता रहा है। सुनने में वे आनंदपूर्ण होते हैं। उनमें भरा हुआ भाव और संगीत भी हृदय को छूता है। लेकिन यह बात स्मरण रहे कि आदमी ने अब तक प्रेम के गीत गाए हैं। प्रेम को नहीं जाना, और प्रेम के गीत के कारण यह भूल भी बहुत लोगों को पैदा हो गई कि मनुष्य के हृदय में प्रेम है और हम एक दूसरे को प्रेम करते हैं। अभी तक प्रेम का नगर बस नहीं सकता है। गीत सुंदर हैं लेकिन गीत सच्चे नहीं हैं! अभी प्रेम के नगर को बसने में देर है। यह सत्य कितना ही कटु मालूम हो लेकिन इस सत्य को सोच लेना जरूरी है कि गीतों में हम जो गाते रहे हैं कहीं वे झूठ तो नहीं हैं? कहीं वे मन को समझा लेने की बात तो नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि जीवन में जो नहीं है उसे गाकर हम पूर्ति कर लेते हैं? सच्चाई यही है कि गीत और हमारी जिंदगी में बड़ा फर्क है। अगर कोई हमारे गीतों को सुनेगा तो भ्रम में पड़ जाएगा।
शायद गीत खबर दे कि हम सच में ही प्रेम के नगर में रह रहे हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि अब तक का मनुष्य का पूरा इतिहास घृणा के नगर में रहने का इतिहास है, प्रेम के नगर में रहने का नहीं। प्रेम के गीत बहुत सुंदर है, लेकिन यह मत भूल जाना कि वह केवल सपना है सच्चाई नहीं है।
एक दिन सपने को पूरा करना है। वह सपना अभी पूरा नहीं हुआ। वस्तुतः हम घृणा, और हिंसा में जीते हैं। मैं चाहता हूं कि कभी एक नगर बसे जो प्रेम का हो, कभी एक पृथ्वी बसे जो प्रेम की हो। और जब मैं यह कह रहा हूं कि अभी यह नगर बसा नहीं है तो इस स्वप्न को बहुत समझ लेने की जरूरत है कि ऐसा क्यों हो रहा है?
पिछले तीन हजार वर्षों में 15 हजार युद्ध पूरी पृथ्वी पर हुए। क्या प्रेम करने वाले लोग, क्या प्रेम से भरे हृदय निरंतर हत्या को, हिंसा को उत्सुक होते हैं? एक वर्ष में पांच युद्ध प्रेम की खबर नहीं है। ये कोई छोटे-मोटे युद्ध नहीं थे, बहुत बड़े थे जिन्होंने जीवन को पूरी तरह नष्ट किया है, प्राणों को बहुत आघात पहुंचाए हैं, सब तरह की बरबादी और विनाश लाए हैं। पिछले महायुद्ध में पांच करोड़ लोगों की हत्या हुई। उससे पहले प्रथम महायुद्ध में साढ़े तीन करोड़ लोगों की हत्या हुई, और अब हम एक ऐसे युद्ध की तैयारी कर रहे हैं जिसमें संख्या का सवाल नहीं होगा, सब की हत्या होगी। तीसरे महायुद्ध की तैयारियां इतनी आत्मघाती हैं कि विश्वास करने में भी नहीं आता कि आगे दुनिया रहे। सारी जमीन पर अब तक हम अपनी शक्तियों का आधा हिस्सा युद्ध में लगाते रहे। दुनिया में इतनी गरीबी है, इतनी परेशानी है, इतने लोग नंगे और भूखे हैं, लेकिन जिनके पास धन हैं वे उस धन का उपयोग रोटी बांटने में नहीं, अणुबम बनाने में कर रहे हैं। इस समय कुल 50 हजार उदजन बम हैं।
इतने ज्यादा हैं, इतनी जरूरत से ज्यादा है जिसका कोई हिसाब नहीं। जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं¬ऐसी सात पृथ्वियों को अगर नष्ट करना हो तो ये बम काफी हैं। हमने युद्ध की इतनी सामग्री तैयार की है कि वे कम से कम 50 अरब लोगों की हत्या करने के लिए काफी हैं। एक वैज्ञानिक ने अभी-अभी कहा कि हम एक आदमी को सात बार मारने में समर्थ हैं। हालांकि एक आदमी एक ही बार में मर जाता है, दुबारा मारने की आज तक जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन फिर भी भूल-चूक के लिए इंतजाम कर लेना काफी है। कोई आदमी एक बार में बच जाए तो दुबारा मार सकें, दुबारा बच जाए तो तीसरी बार, पर सात बार में बहुत कम संभव है कि कोई आदमी बच जाए। हमने मृत्यु का अतिरिक्त इंतजाम कर रखा है। कैसे प्रेम करने वाले लोग होंगे ये? किसलिए इंतजाम? और इंतजाम इतना घातक है जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। 25 सौ डिग्री पर लोहा भाप बनकर उड़ता है और इस 10 करोड़ डिग्री के एक उदजन बम का कितनी दूर तक प्रचार क्षेत्र होगा? चालीस हजार वर्ग मील की सीमा के भीतर 10 करोड़ डिग्री गरमी का उत्ताप पैदा कर देगा। वहां सब जल कर राख हो जाएगा। ऐसे हमने 50 हजार उदजन बम तैयार कर रखे हैं। और हम प्रतीक्षा में हैं कि कब उनका प्रयोग करें। क्या ये प्रेम से रहने वाले लोगों के लक्षण हैं? क्या प्रेम ये सब ईजाद करेगा? क्या इससे खबर मिलती है कि आदमी का हृदय प्रेमपूर्ण है?
और तुम यह मत सोचना कि ये दूसरे मुल्कों की बात है। सारी पृथ्वी पर राजनीतिज्ञों का मन बहुत हिंसा से भरा हुआ है। राजनीतिज्ञ सारी पृथ्वी पर एक जैसे हैं। इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे किस मुल्क के हैं। उन सब की तैयारी अपनी-अपनी सीमाओं में यही है, यद्यपि वे बातें दूसरी करते हैं। वे यह नहीं कहते कि वे आक्रमण के लिए तैयारी करते हैं। वे कहते हैं कि हम रक्षा के लिए तैयारी करते हैं। तुम्हें पता होगा दुनिया में किसी मुल्क का भी युद्ध का विभाग रक्षा का विभाग कहलाता है। यह बात बिल्कुल झूठी है। अगर दुनिया के सब युद्ध-विभाग रक्षा के विभाग हैं, तो आक्रमण कौन करता है? अब तक जमीन पर आक्रमण कौन करता रहा? ये सब रक्षा करते हैं, तो क्या आक्रमण कोई आसमान से, चांद-तारों से करने आता है? आज तक दुनिया के किसी मुल्क ने यह नहीं माना है कि मैंने आक्रमण किया है। हर मुल्क यह कहता है कि हम अपनी रक्षा करते हैं। रक्षा के नाम पर की गई तैयारी अंत में हिंसा और युद्ध की तैयारी सिद्ध होती रही है। हमेशा घृणा को प्रेम के नाम पर फैलाने की कोशिश की जाती है, ताकि दिखाई न पड़े। सारी दुनिया में कहा जाता है अपने देश को प्रेम करो, राष्ट को प्रेम करो, मातृभूमि को प्रेम करो। पर ये प्रेम नहीं हैं। यह दूसरे मुल्कों को घृणा करने का पाठ है। जब कोई कहता है, ‘अपने देश को प्रेम करो’ उसकी बुनियाद में ‘दूसरे देशों को घृणा करो’, यह भाव छिपा है। जब कोई कहता है, ‘सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तां हमारा’, तो यह आदमी खतरनाक है, यह आदमी अच्छा नहीं है। जो कोई यह कहता है सारे जहां से हमारा हिंदुस्तां अच्छा है वह आदमी घृणा का जहर फैला रहा है। जिसका हमें कोई पता नहीं। हमें तो यही लगेगा कि यह अपने मुल्क से प्रेम करता है, इसलिए ऐसी बातें कह रहा है। एक मुल्क को प्रेम की बात सिखाना, एक धर्म को प्रेम की बात सिखाना, एक खास तरह की चमड़ी के रंगवालों को प्रेम की बात सिखाना, प्रेम के लिए सीमा बांधना, हमेशा घृणा सिखाने का उपाय रहा है। जब कोई कहता है, ‘सब इकट्ठे जो जाओ, हिंदुस्तानी इकट्ठे हो जाओ, प्रेम से सब इकट्ठे हो जाओ’ तो तुम इस भूल में मत पड़ जाना कि यह प्रेम की शिक्षा दी जा रही है।
आदमी आज तक प्रेम के लिए कभी इकट्ठे नहीं हुए है। हमेशा किसी को घृणा करने के लिए, किसी का अंत करने के लिए, किसी को समाप्त करने के लिए इकट्ठे होते हैं। वे कहते यह हैं कि हम आपस में प्रेम करते हैं, इसलिए संगठित हो रहे हैं लेकिन असलियत यह होती है कि वे किसी को घृणा करते हैं, इसलिए संगठित होते हैं। हिंदुस्तान पर कुछ वर्ष पहले हमला हो गया, तो हिंदुस्तान में एकता की लहर दौड़ गई। एक बहुत बड़े राजनीतिज्ञ ने कहा, ‘यह तो बड़े स्वागत की बात है। देखिए, सारा हिंदुस्तान कैसा इकट्ठा हो गया? कितनी प्रेमपूर्ण खबर है? ’ मैंने उनसे कहा, ‘इस धोखे में मत पड़ जाना कि यह प्रेम है। यह सिर्फ दुश्मन के प्रति घृणा है। घृणा में आदमी इकट्ठा हो जाता है। जब दुश्मन चला जाएगा, आदमी फिर स्थिर हो जाएगा। फिर सारी एकता समाप्त हो जाएगी।’ अगर गुजरातियों और महाराष्टीयों में झगड़ा हो तो गुजराती इकट्ठा हो सकता है, महाराष्टीय इकट्ठा हो सकता है। अगर हिंदी बोलने वालों और गैर-हिंदी बोलने वालों में झगड़ा हो तो वे इकट्ठे हो सकते हैं, हिंदू इकट्ठा हो सकता है मुसलमान के खिलाफ, मुसलमान इकट्ठा हो सकता है हिंदू के खिलाफ। लेकिन अब तक जमीन पर प्रेम का संगठन नहीं रहा है। सब संगठन मूलतः घृणा के संगठन रहे हैं। जब भी कोई बुरा काम करना हो तो नारा हमेशा अच्छा देना पड़ा है। अच्छे नारे की आड़ मग बुरे काम किए जा सकते हैं।
बुरा काम सीधा नहीं किया जा सकता, इसलिए घृणा फैलानी हो तो प्रेम का नारा देना पड़ता है। हिटलर ने जर्मनी में कहा कि जर्मनी के लोग इकट्ठे हो जाओ, एक दूसरे को प्रेम करो। किसी को पता नहीं था कि यह आदमी जर्मन कौम को प्रेम के नाम पर इकट्ठा कर रहा है। कल सारी जमीन को रूंध डालेगा। किसी को कल्पना नहीं थी कि यह होने वाला है। यह हुआ। आदमी के भीतर बड़ा धोखा है; वह जो बातें कहता है वही सच्ची नहीं होती हैं। भीतर कुछ ठीक उलटा छिपा होता है और उस उलटे को हम कभी नहीं पहचान पाते, क्योंकि ऊपर शब्द बहुत अच्छे हैं।
एक बहुत पुरानी कथा है। परमात्मा ने सारी दुनिया बनाई। फिर उसने एक सौंदर्य की देवी बनाई और एक कुरूप की देवी भी। उन दोनों को पृथ्वी पर भेजा। आकाश से जमीन पर आते-आते उनके कपड़े मैले हो गए। रास्ते की धूल जम गई। वे जमीन पर उतरीं तब सुबह सूर्य निकलने के करीब था। थोड़ी देर थी, भोर हो गई थी, पक्षी गीत गाते थे। वे सरोवर के किनारे आकर उतरीं और उन्होंने सोचा कि इसके पहले कि हम पृथ्वी की यात्रा पर जाएं, उचित होगा कि हम स्नान कर लें। वे दोनों देवियां कपड़े उतारकर सरोवर मग स्नान करने को उतरीं। सौंदर्य की देवी तैरती हुई आगे चली गई, उसे कुछ भी पता न था कि पीछे कोई धोखा हो जाने को है। कुरूपता की देवी किनारे पर वापस आई और सौंदर्य की देवी के कपड़े पहन कर भाग खड़ी हुई। जब लौटकर सौंदर्य की देवी ने देखा, तो वह हैरान हो गई। वह नग्न थी, सुबह होने के करीब था। सूर्य निकलने को था।
गांव के लोग जागने लगे थे। उसके कपड़े कुरूपता की देवी पहनकर भाग चुकी थी। कुरूपता के कपड़े पहनकर वह उसका पीछा करे, इसके सिवा और कोई रास्ता नहीं था। वह किनारे गई, मजबूरी में उसने कुरूपता के कपड़े पहने और भागी अपने कपड़े वापस लेने को। लेकिन कथा कहती है कि वह अब तक भी पकड़ नहीं पाई। कुरूपता अब भी सौंदर्य के कपड़ेे पहने घूम रही है। सौंदर्य की देवी उसका पीछा कर रही है, पर अभी तक पकड़ में नहीं आई। हमेशा कुरूपता सौंदर्य के वस्त्र पहन लेना पसंद करती है चूंकि तब उसे गति मिल जाती है, तब उसका सिक्का चल पड़ता है। घृणा प्रेम के वस्त्र पहन लेती है, असत्य सत्य के वस्त्र पहने लेता है, इसलिए वस्त्रों से सावधान हो जाने की जरूरत है। वस्त्रों को देखकर यह मत सोच लेना कि प्रेम का नगर बस गया है और हम उसके निवासी हैं। वस्त्र प्रेम के हैं पर भीतर आदमी पूरी तरह से घृणा से भरा हुआ है घृणा हजार तरह की है। चूंकि प्रेम के शब्दों में छिपा लिया गया है, हम पहचान भी नहीं पाते कि यह घृणा है और जब तक उसे न पहचानें तब तक उससे छुटकारा भी कैसे हो सकता है? मैं हिंदू हूं, तुम मुसलमान हो, तुम ईसाई हो, तुम जैन हो, तुम बौद्ध हो¬ये सब घृणा के रूपांतर है। तुम समझ लो कि जब मैं मनुष्यता के साथ इसी तरह का भेद अपने मन में रखता हूं, तो मैं कोई दीवाल खड़ी करता हूं। जब मैं कहता हूं कि मैं हिंदू हूं तब मैं यह कहता हूं कि मैं सारे लोगों से पृथक और भिन्न हूं। जब मैं कहता हूं कि मैं मुसलमान हूं तब भी यही कहता हूं। जब हम कहते हैं ‘हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई’ और ‘अल्लाह ईश्वर तेरे नाम’ तब ये बातें सत्य नहीं हैं क्योंकि यदि यह समझ में आ गा हो कि अल्लाह और ईश्वर एक ही शक्ति के नाम हद्द तो यह भी समझ में आ जाएगा कि सिर्फ इस बात को कहने का भी कोई अर्थ नहीं कि अल्लाह ईश्वर एक के ही नाम हैं, उसको दुहराने की भी जरूरत नहीं है।
हेनरी थोरी अमेरिका का एक बहुत बड़ा विचारक था। वह मरने के करीब था। वह कभी चर्च में नहीं गया था। उसे कभी किसी ने प्रार्थना करते नहीं देखा था। मरने का वक्त था, तो उसके गांव का पादरी उससे मिलने गया। उसने सोचा यह मौका अच्छा है, मौत के वक्त आदमी घबड़ा जाता है। मौत के वक्त डर पैदा हो जाता है, क्योंकि अनजाना रास्ता है मृत्यु का। न मालूम क्या होगा? उस वक्त भयभीत आदमी कुछ भी स्वीकार कर सकता है। मौत का शोषण धर्मगुरु बहुत दिनों से करते रहे हैं। इसलिए तो मंदिरों, मस्जिदों में बूढ़े लोग दिखाई पड़ते हैं। पादरी ने हेनरी थोरी से जाकर कहा, ‘क्या तुमने अपने और परमात्मा के बीच शांति स्थापित कर ली है? क्या तुम दोनों एक दूसरे के प्रति प्रेम से भर गए हो? ’ हेनरी थोरी मरने के करीब था। उसने आंखें खोलीं और कहा, ‘महाशय, मुझे याद नहीं पड़ता है कि मैं उससे कभी लड़ा भी हूं।
मेरा उससे कभी झगड़ा नहीं हुआ तो उसके साथ शांति स्थापित करने का सवाल कहां है? जाओ, तुम शांति स्थापित करो, क्योंकि जिंदगी में तुम उससे लड़ते रहे हो। मुझे तो उसकी प्रार्थना करने की जरूरत नहीं है। मेरी जिंदगी ही प्रार्थना थी।’ कोई मरा हुआ आदमी ऐसा कहेगा, इसकी हम कल्पना नहीं कर सकते, लेकिन बड़ी सच्ची बात उसने यह कही कि अगर मैं उससे लड़ा होता, अगर एक पल को मेरे और उसके बीच कोई शत्रुता खड़ी हुई होती तो फिर मैं शांति स्थापित करने की कोशिश करता। लेकिन नहीं, वह तो कभी हुआ नहीं है। किसके बीच, कैसी शांति, कैसे स्थापित करूं? अगर अल्लाह, परमात्मा और भगवान एक के ही नाम हैं तो इन दोनों को मिलाने की कोशिश नहीं हो सकती। कोई मिलाने की कोशिश नहीं हो सकती। कोई मिलाने का सवाल नहीं है। उन दोनों में कोई भिन्न बातें नहीं है लेकिन हम मिलाने की कोशिश कर रहे हैं। उस मिलाने की कोशिश के पीछे भेद है, वह भेद खड़ा हुआ है। उस भेद को हम गीत गाकर छिपाना चाहें तो वह छिपनेवाला नहीं है।
ज्यादा से ज्यादा इतना होता है कि उसको हम सहने लगते हैं। तुम मुसलमान हो, यह ठीक है, हम हिंदू हैं, यह ठीक है। हम एक दूसरे को सहते हैं लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हमारे बीच प्रेम पैदा हो गया। प्रेम पृथकता को जानता ही नहीं; और जहां पृथकता हो वहां समझ लेना प्रेम की बातें हैं, पर भीतर घृणा मौजूद है। प्रेम ने कभी पृथकता को नहीं जाना। प्रेम कभी फासले नहीं जानता, दूसरी नहीं जानता। लेकिन हम तो हर तरह से दीवालों में बंधे रहे हैं न मालूम कितने तरह की दीवालें हमने खड़ी कर रखीं है और ये दीवालें भी बढ़ाते चले जाते हैं। अगर प्रेम हमारे भीतर पैदा हुआ है या होने का है, उसके अंकुरित होने की शुरुआत हुई है, तो गिरा दो उन दीवालों को जो तुम्हें किसी भी मनुष्य से दूर करती हों। उन शब्दों को अलग कर दो जो तुम्हारे और दूसरे मनुष्य के बीच फासला पैदा करते हों और स्मरण रखो कि किसी भी तरह की सीमा-रेखा मूलतः हिंसात्मक मन का लक्षण है।
हमारा पुराना शब्द है संग्राम। शायद तुम्हें ख्याल भी न हो, शब्दकोश में पढ़ने जाओगे तो पता चलेगा¬संग्राम का अर्थ है ‘युद्ध’ लेकिन और गहरी खोज करोगे तो तुम्हें पता चलेगा संग्राम का मतलब होता है; दो गांवों की सीमा, दो गांवों को अलग करनेवाली रेखा। कब यह शब्द युद्ध का पर्यायवाची बन गया? कुछ पता नहीं है लेकिन यह बड़ा अर्थपूर्ण है। जहां दो गांवों के बीच सीमा है, वहां युद्ध भी है। जहां सीमा है वहां युद्ध भी है। जहां दो आदमियों के बीच सीमाएं हैं वहां भी युद्ध है। प्रेम की दुनिया तो उस दिन बन सकेगी, जिस दिन राष्ट की कोई सीमाएं न हों। भारत की, पाकिस्तान की, चीन की और जापान की कोई सीमाएं न हों।
सीमाएं हैं तो प्रेम की दुनिया नहीं बन सकती। हिंदू और मुसलमान, जैन और बुद्ध की कोई सीमा न हो, उस दिन कोई दुनिया बन सकेगी जो प्रेम की हो। स्त्री और पुरुष की कोई सीमा न हो, दरिद्र और अमीर की कोई सीमा न हो, तो उस दिन कोई जगत बन सकेगा जो प्रेम का हो। लेकिन इतनी सीमाओं वाला जगत प्रेम का कैसे हो सकता है? कण-कण पर सीमाएं हैं। इंच-इंच पर सीमाएं हैं। हजारों सीमाओं में आदमी विभाजित है, और फिर हम बैठ कर प्रेम का गीता गा लेते हैं; अच्छे लगते हैं वे गीत, लेकिन वे गीत सच्चे नहीं हैं।
सबसे पहले निश्चित ही प्रेम की एक दुनिया बनानी है। आने वाले नए बच्चे ही उसे बनाएंगे। पुराने लोग उसे नहीं बना सके। असफल हो गए। अगर तुमने भी पुराने लोगों का अनुकरण किया तो तुम भी नहीं बना सकोगे। तुम भी अगर अपने शिक्षक, अपने गुरु, अपने पिता, अपनी माता की दुनिया के अनुकरण करने वाले बने, तो तुम भी प्रेम की दुनिया नहीं बना सकते। उन्होंने जो बनाया है वह घृणा का जाल है और उनका ही अगर तुमने पीछा किया तो तुम समझ रखना कि तुम फिर एक ऐसी ही दुनिया बना लोगे जिसमें घृणा होगी, हिंसा होगी। हां, प्रेम के गीत होंगे, जो हमेशा से हैं, हजारों साल से हैं। कितने प्रेम के गीत, और कैसी दुनिया? दुनिया बिल्कुल उलटी है। गीत बिल्कुल अलग हैं। गीत से दुनिया का वास्ता नहीं है।
पिछली पीढ़ियों ने घृणा का संसार बसाया था, इस तथ्य को जान लेना चाहिए। पिछली पीढ़ियों से तुम्हारी पीढ़ी मग कोई चीज टूट जानी चाहिए, जिसका कोई संबंध न रह जाए। एक खाई पैदा हो जानी चाहिए तुम में और तुम्हारे मां-बाप की दुनिया में। तुम्हारे मां-बाप की दुनिया और तुम्हारे बीच कोईशृंखला खंडित हो जानी चाहिए। कोई नई कड़ी निर्मित होनी चाहिए और उस नई कड़ी का पहला सूत्र होगा ‘जीवन में जहां-जहां तुम्हें सीमा मालूम पड़े वहां-वहां अपने को सीमा से मुक्त करने की कोशिश करना।’ जहां-जहां सीमा मालूम पड़े¬जहां-जहां आ जाए दीवाल, तुम्हारे और दूसरे मनुष्य के बीच¬वहां-वहां स्मरण रखना कि दीवाल को हटा देना है और आत्मा को वहां तक फैलाना है जहां फिर कोई दीवाल न रह जाए। फिर चाहे वह दीवाल धर्म की हो, चाहे धन की हो, चाहे प्रतिष्ठा की हो, चाहे राष्ट की हो, चाहे कोई भी हो¬इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। दीवाल को पहचानने की कोशिश करना।
जिस चीज ने प्रेम के संसार को नहीं बसने दिया है, वह और भी गहरी है। वह हमारे भीतर है। वह और भी गहरी है। मनुष्य के चित्त में इतनी घृणा, इतनी ईष्र्या इतना द्वेष क्यों पैदा होता है? मनुष्य के भीतर से इतना अप्रेम क्यों निकलता है? हम एक बात पर अगर ध्यान न देंगे तो फिर प्रेम नहीं निकल सकता। वह बात है ‘महत्वाकांक्षा’। जिस आदमी का चित्त महत्वाकांक्षी है वह आदमी प्रेमपूर्ण नहीं हो सकता, क्योंकि महत्वाकांक्षा हमेशा दूसरे से संघर्ष करने को कहती है। और प्रेम? प्रेम दूसरे के लिए छोड़ने को कहता है, महत्त्वाकांक्षा दूसरे से छीनने को कहती है। अगर तुम एक कक्षा में हो तो बचपन से जहर पिलाना शुरू किया जाता है कि तुम हमेशा आगे होना, पीछे मत। पहले नंबर आना, और जो बच्चे पहले नंबर आते हैं वे पुरस्कृत होते हैं।
पीछे छूट जाते हैं वे अपमानित होते हैं। क्या तुम्हें पता है कि पहले आने का रोग तुम्हारे जीवन से प्रेम को हमेशा के लिए छीन लेगा? शायद तुम्हें ख्याल भी न होगा। शायद तुम कहोगे कि इससे और प्रेम से क्या संबंध? लेकिन इससे प्रेम का इतना संबंध है जितना और किसी बात से नहीं। जब हम किसी को पीछे करते हैं और आगे आने में सुख पाते हैं तो सुख में दूसरे का दुख छिपा हुआ होता है। जब मैं आगे आता हूं और मुझे खुशी होती है तो मुझे जानना चाहिए कि जो पीछे छूट गया है वह दुखी होता है। तो मेरे आगे आने का सुख दूसरे को दुख देने पर निर्भर है, और अगर मुझे बचपन से ही यह आदत हो गई कि मेरा सुख दूसरे को दुख देने पर निर्भर हो जाए तो क्या मेरे जीवन में कभी प्रेम हो सकेगा? प्रेम का अर्थ हैः मेरा सुख दूसरे को सुख देने पर निर्भर हो।
घृणा का अर्थ हैः मेरा सुख दूसरे को दुःख देने पर निर्भर हो। घृणा का अर्थ है मेरा सुख दूसरे को दुख देने पर निर्भर है, लेकिन तुम कहोगे हम तो पहले आने की कोशिश करते हैं, हमें किसी से क्या प्रयोजन! लेकिन क्या तुम नहीं कह सकोगे यह बात कि तुम्हारी आगे आने की कोशिश में ही दूसरे का पीछे छूट जाना अनिवार्य रूप से निहित नहीं है?
एक गांव में एक मेरे मित्र थे। उन्होंने एक बड़ा मकान बनाया था। वे बहुत खुश थे। उनका मकान बहुत बड़ा था, बहुत सुंदर था। उस गांव में वैसा कोई मकान नहीं था। वे कहने लगे, ‘मैं बहुत प्रसन्न हूं। सब सुविधा है मकान में। सब अच्छा है।’ मैंने उनसे कहा, ‘शायद तुम्हारी प्रसन्नता इस कारण से भी हो कि इस गांव में ऐसा कोई दूसरा मकान नहीं है।’ उन्होंने कहा, ‘नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है। मुझे दूसरे से क्या लेना-देना? मकान मेरा सुविधापूर्ण है, इससे मैं खुश हूं। दूसरे से इसका कोई संबंध नहीं।’ फिर भाग्य की बात वह घड़ी आ गई। उन्हें पीछे लौटकर जाना पड़ा अपने शब्दों से। तीन-चार वर्ष बाद मैं उनके घर फिर मेहमान हुआ। फिर उस मकान की बात चली। इस बात वे उदास थे, क्योंकि बगल में एक बड़ा मकान खड़ा हो गया था। वे कहने लगे, ‘आपने शायद ठीक ही कहा था। बगल के बड़े मकान ने मेरे चित्त को एकदम दुखी कर दिया। अब मैं समझ पाता हूं कि वह प्रसन्नता मेरे मकान के कारण न थी, वह शायद बगल में जो छोटे-छोटे झोपड़े थे उनके कारण ही थी।’ बड़े मकान, बड़े मकान का मजा नहीं, किसी के झोपड़े होने का मजा है। धन का मजा, धन है, इसका नहीं; दूसरे निर्धन हैं, इसका मजा है। अच्छे वस्त्र पहने लेने का मजा इतना ही नहीं कि मेरे पास अच्छे वस्त्र हैं; बल्कि इसका मजा है कि दूसरे लोग नंगे खड़े हैं। अगर महत्वाकांक्षा यह पाठ सिखाती है तो क्या दुनिया कभी प्रेम की बन सकती है?
पूछो अपने मन से। क्या यह संभव है? अगर महत्वाकांक्षा से भरा हुआ मन एक ही सुख को जानता हो कि दूसरों को कैसे पीछे छोड़ दूं; मैं कैसे आगे हो जाऊं, मकान में, पद में, प्रतिष्ठा में, यश में, तो वह किसी को प्रेम कर सकेगा? कैसे करेगा प्रेम? क्योंकि प्रेम कहता है हट जाओ। महत्त्वाकांक्षी चित्त कहता है हटाओ। क्राइस्ट ने एक वचन कहा है। वह बहुत अदभुत है। मनुष्य जाति के इतिहास में बहुत अदभुत वचन क्राइस्ट ने कहा है, ‘धन्य हैं वे लोग जो पीछे खड़े होने में समर्थ हैं।’ क्राइस्ट ने धन्यता मानी है इस बात की कि जो पीछे खड़े होने समर्थ हैं, वे धन्य हैं। लेकिन हम सब तो प्रथम खड़े होने के लिए विक्षिप्त हुए जा रहे हैं, पागल हुए जा रहे हैं। यह मत सोचना कि आगे होने की दौड़ एक ही दिशा में जाता है, तो आगे होना चाहता है। एक आदमी सेवा करता है समाज में, तो वह आगे होना चाहता है। वह भी चाहता है कि इस गांव में कोई सेवक न रह जाए। वह चाहता है कि इस नगर में मुझसे बड़ा कोई सेवा करनेवाला नहीं हो। मैं सेवक, मुझसे आगे कोई भी नहीं। अगर सेवा में आगे होने का ख्याल हो सकता है तब तो सेवा भी एक महत्वाकांक्षा होगी। और ऐसी महत्वाकांक्षा कितना दुख, कितना दरिद्रता पैदा करती है? कितनी दीनता पैदा करवाती है? यदि सभी लोग इस दौड़ में हों तो समाज एक युद्ध का स्थल न बन जाएगा तो क्या होगा? लेकिन यह हमें सिखाया जा रहा है हजारों साल से।
शिक्षा का केंद्र महत्वाकांक्षा है। जो जितना महत्वाकांक्षी होता है वह उतना ही सफल हो जाता है। वह विश्वविद्यालय से स्वर्ण पदक लेकर निकलता है। सम्मानित होकर निकलता है। फिर वह जिंदगी में दूसरी दौड़ में लग जाता है। चैबीस घंटे वह लोगों को हटा रहा है, हटो, मुझे रास्ता दो। यह मांग घृणा की ही मांग है, प्रेम की मांग नहीं है। इसलिए बाहर सीमाएं मिटानी हैं और भीतर महत्वाकांक्षा को बिदा देनी है। जिनको हम साधु और संत कहते हैं उनमें एक बड़ी दौड़ है कि कौन महा साधु हैं? कौन परम संत है! उनका मन भी ईष्र्याग्रस्त हो जाता है कोई कह दे आप कुछ भी नहीं, आपसे बड़ा अमुक आदमी है तो चित्त में वही ईष्र्या और जलन काम करने लगती है। वे भी इस दौड़ में पड़े हुए हैं कि मोक्ष में ऐसा न हो कि हम पीछे रह जाएं। अगर किसी ने दो कपड़े छोड़े हैं तो वे सारे कपड़े छोड़ कर नग्न खड़े हो जाते हैं कि कहीं हम पीछे न रह जाएं। पीछे रह जाने को कोई भी राजी नहीं है। सभी आगे जाने को उत्सुक हैं। धर्म के नाम पर वही उत्सुकता है। सेवा के नाम भी वही उत्सुकता है क्योंकि मनुष्य का चित्त महत्वाकांक्षी है। इस चित्त को हम न बदलें तो हम जो भी करेंगे उससे दुनिया में शरारत पैदा होगी। उससे दुनिया में दुख पैदा होगा। उससे दुनिया में परेशानी पैदा होगी। महत्वाकांक्षी अंधा हो जाता है, उसे एक ही धुन रह जाती है।
सेवक भी ऐसा ही कुछ करता रहा है इसलिए दुनिया अच्छी नहीं हो पाई। उसे सेवा करनी है। उसे सेवा में आगे जाना है। उसे कोई फिक्र नहीं है वह क्या कर रहा है। दो सेवकों में नहीं बनती है, कभी दो समाज-सुधारकों में नहीं बनती है। सबको आगे हो जाना है। सेवा और समाज-सुधार भी उनके लिए महत्वाकांक्षा के ही सूत्र हैं। उसमें कोई भेद नहीं है। एक आदमी दूकान खोल रहा है, एक सेवा की दूकान खोल देता है लेकिन महत्वाकांक्षी अगर पीछे है तो तुम जान लेना यह सेवा जहर है। उससे खतरे होंगे। उससे लाभ नहीं होनेवाला है।
करें क्या? चित्त तो महत्वाकांक्षी है ही। इस महत्वाकांक्षा को हम क्या करें? चित्त तो आगे होना चाहता है, लेकिन शायद कोई भूल हो रही है। रवींद्रनाथ ने गीत लिखे। मरने के कोई आठ दिन पहले किसी मित्र ने आकर पूछा कि आपने ये गीत क्यों लिखे? किससे आप आगे होना चाहते थे? रवींद्रनाथ ने कहा कि गीत मैंने इसलिए लिखे कि गीत मेरे आनंद थे। किसी से आगे और पीछे का सवाल न था। गीत मेरी खुशी थी। मेरा हृदय उनको गा कर आनंदित हुआ था। आगे और पीछे होने का सवाल न था। किसी से न आगे होना था, न किसी से पीछे। ‘वानगाग’ एक डच पेंटर था। किसी ने उससे पूछा, ‘क्यों तुमने ये चित्र बनाए? क्यों किया पेंट? क्यों इतनी मेहनत की? क्यों अपना जीवन लगाया? ’ वानगाग ने कहा कि और किसी कारण से नहीं। मेरा हृदय चित्रों को बनाकर परमानंद को उपलब्ध हुआ है।
महत्वाकांक्षा दूसरे से प्रतिस्पर्धा है, दूसरे से आगे होना है। लेकिन सच्ची शिक्षा मनुष्य को वह रहस्य सिखाएगी जिससे वह खुद से आगे होने में समर्थ हो जाए, रोज-रोज खुद से आगे, दूसरे से नहीं। कल सांझ को सूर्य जहां मुझे छोड़े, आज सुबह सूर्य उगते मुझे वहां न पाए। मैं अपने भीतर और गहरा चला जाऊं। जिस काम को मैंने चाहा है, उसमें मेरे पैर और दस सीढ़ियां नीचे उतर जाएं, जिस पहाड़ को मैंने चढ़ना चाहा है, मैं और दस कदम आगे चला जाऊं। किसी दूसरे से नहीं, अपने से। कल मैं जहां था, सांझ मुझे आगे पाए, तो मैं जीवित हूं। मुझे अपने को पार कर जाना है। लेकिन अब तक जो शिक्षा दी गई है वह, दूसरे को पार कर जाने की शिक्षा है। इसलिए दुनिया में घृणा है, इसलिए दुनिया में प्रेम नहीं है। एक ऐसी शिक्षा को जन्म देना है, जो व्यक्ति को खुद अपना अतिक्रमण सिखो। आदमी अपने को पार करे, दूसरे को नहीं। दूसरे से क्या प्रयोजन है?
दूसरे से क्या संबंध है? मेरी खुशी रोज गहरी होती चली जाए। मेरे जीवन की बगिया में रोज नए-नए फूल खिलते चले जाएं। मैं रोज उस नई ताजी जिंदगी के अनुभव करता चला जाऊं। मुझे कुछ सृजन होता चला जाए। दूसरे के इसका कोई संबंध नहीं। एक-एक व्यक्ति ऐसा जिए जैसे जमीन पर अकेला होता, तो जीता। तभी शायद हम मनुष्य को प्रेम पैदा करने में सफल बना सकेंगे। क्योंकि मनुष्य जब अपने को प्यार करता है तो रोज-रोज उसके पास बांटने को, लुटाने को, बहुत कुछ इकट्ठा हो जाता है, रोज बांटता है फिर भी पाता है। भीतर और इकट्ठा होता चला जा रहा है, क्योंकि वह रोज अपने को प्यार करता जा रहा है, क्योंकि वह रोज अपने जीवन के नए शिखरों को स्पर्श करता जा रहा है। वह नए आकाश को छू रहा है। नए क्षितिज को पार कर रहा है। उसके पास बहुत इकट्ठा हो जाता है। उसे वह क्या करे? उसे वह बांटता है। जो अपने को पार करने मग लगता है उसका जीवन एक बांटना ही हो जाता है। उसकी खुशी फिर बांटना हो जाती है और महत्वाकांक्षी की खुशी होती है संग्रह करने में। सबसे छीन लेना है और अपने पास इकट्ठा कर लेना है। जो व्यक्ति अपने को पार होने में समर्थ होता है उसकी खुशी हो आती है बांट देना, लुटा देना और हमेशा उसे ऐसा लगता है कि जितना मैं दे सकता था उससे मैं कम दे पाया।
रवींद्रनाथ के मरने के पहले किसी ने उनको कहा कि तुमने तो इतने गीत गाए, कहते हैं दुनिया में किसी न न गाए। छह हजार गीत, और एक-एक गीत ऐसा जो संगीत में बांधा जा सके। तुम तो महाकवि हो। काई ऐसा नहीं हुआ अब तक, जिसने छह हजार गीत गाए होंगे जो संगीत में बंध जाएं। रवींद्रनाथ की आंखों में आंसू आ गए। पूछनेवाले ने समझा कि वे प्रशंसा से प्रभावित हो गए हैं लेकिन रवींद्रनाथ ने कहा, ‘मैं रो रहा हूं दुःख से। तुम कहते हो मैंने गीत गाए और इधर मैं, मौत करीब आते देख आंख बंद करके परमात्मा से प्रार्थना करता हूं कि हे परमात्मा, अभी तो मैं केवल साज बिठा पाया था, अभी गीत गाया कहां? अभी तो तैयारी चलती थी। अभी तो मैं सितार ठोक-पीट कर तैयार कर पाया था। अब गाता और यह विदा का क्षण आ गया। मुझे एक मौका और देना कि जो मैंने इकट्ठा किया था उसे बांट सकूं। अभी तो बहुत-कुछ इकट्ठा था। मेरा हृदय एक बादल की तरह था जिसमें पानी भरा था और धरती प्यासी थी और मेरे विदा का वक्त आ गया और बदल ऐसी चली जाएगी भरी-भरी, और अब लुटा नहीं सकेगी जो उसके पास था। मैं तो उसे फूल की तरह था जो अभी कली था और जिसमें सुगंध बंद थी। अभी मैं खुलता और सुगंध बांटता। लोग कहते हैं मैंने गीत गाए, मैं तो अभी साज बिठा पाया था और यह विदा का वक्त आ गया।’ जो आदमी लुटा देगा, जो बांटेगा निरंतर, वह अनुभव करेगा कि उससे ज्यादा उसके भीतर बहुत घनीभूत हो आया था जो और लुट जाना चाहता था। ऐसे व्यक्ति का जीवन प्रेम का जीवन है।
आत्मदान प्रेम है। लेकिन बांटेगा कौन? जो छीनने को उत्सुक नहीं है वही। दूसरे को देगा कौन? जो दूसरे से आगे निकल जाने को आतुर नहीं हैं वही, दूसरे के लिए जीएगा कौन? जो दूसरे के जीवन को पीछे नहीं हटा देता। लेकिन हमारा सारा सम्मान तो उनके लिए आता है जो दूसरे को हटा देते हैं। राधाकृष्णन् के पहले जन्म दिन सारे मुल्क में शिक्षक दिवस माना गया। मैं भी एक नगर में था। भूल से मुझे भी कोई उस शिक्षक-दिवस पर ले गया। बड़ा गुणगान था इस बात का कि एक शिक्षक राष्टपति हो गया है। मैं बहुत हैरान था। मैंने कहा कि यह शिक्षक का सम्मान नहीं है कि एक शिक्षक राष्टपति हो गया। हां, एक राष्टपति अगर शिक्षक हो जाता तो शिक्षक का सम्मान था। लेकिन शिक्षक राजनीतिक हो जाए, एक पद पर पहुंच जाए, यह तो कोई शिक्षक का सम्मान नहीं है। एक राष्टपति अगर कहे कि मैं छोड़ता हूं यह राष्टपति का पद, और जाकर गांव में शिक्षक हो जाना चाहता हूं, तो उस दिन शिक्षक-दिन मनाना चाहिए। अभी शिक्षक-दिन मनाने का कौन-सा वक्त आ गया है? अभी तो एक शिक्षक ने कहा है कि छोड़ता हूं शिक्षक होना और जाता हूं राजनीति के रास्ते पर, जहां सबको अलग करके मैं आगे निकल जाऊं। यह महत्वकांक्षा की स्वीकृति और सम्मान है। शिक्षक की तो स्वीकृति और सम्मान इसमें नहीं है। दीन-हीन शिक्षक का इससे क्या संबंध? पागल है शिक्षक अगर सोचता हो कि उसका सम्मान है। और गलती में है वह क्योंकि इसका मतलब एक ही होगा कि बाकी शिक्षकों को भी यह नशा चढ़े कि हम भी निकलें आगे और पहुंच जाएं कहीं।
हम आगे निकलने वाले को बहुत सम्मान दे चुके। पीछे जो खड़े हैं उनका भी सम्मान हमारे मन में होना चाहिए। अगर हमारा हृदय प्रेम-पूर्ण हो तो उनके प्रति हमारा सम्मान होगा। जो पीछे खड़े रहे जाते हैं, जिन्हें शायद कोई कभी जानता भी नहीं, पहचानता भी नहीं, कोई अखबार जिनकी खबर नहीं छापते, कोई जिनको फूल-माला नहीं पहनाते, कोई सिंहासन जिनके चरणों के बोझ से बोझिल नहीं होता हैं, वे जो दूर खड़े रह जाते हैं, जहां सबके पद की धूल उड़ती है, वे जो पीछे खड़े रह जाते हैं, जहां सूर्य की रोशनी नहीं पहुंचती है, जहां अंधेरा है, वे जो छाया में छिपे रह जाते हैं, लेकिन प्रतीक्षा करते हैं और प्रेम करते हैं, अपने को चाहते हैं, किस दिन होगा वह सौभाग्य का दिन जब उनका भी सम्मान होगा? जिस दिन उनका सम्मान हमारे मन में होगा उस दिन प्रेम का नगर बस सकेगा। लेकिन उस सम्मान को कौन लाएगा? हम जो महत्त्वाकांक्षा से भरे हैं?
हम तो नहीं ला सकेंगे। लेकिन हम भी अगर अंतिम पंक्ति में खड़े होने के आनंद को, दूसरे से प्रतिस्पर्धा छोड़ पुलक को अनुभव कर सकें, हम भी अगर दूसरे की प्रतियोगिता और दूसरे की देने की तुलना को बिदा कर सकें तो शायद हम द्वार बन जाएंगे उनके सम्मान का जो कभी सम्मानित नहीं रहे। लिंकन अमेरिका का राष्टपति हुआ। उसका बाप एक गरीब चमार था। कौन सोचता था कि चमार के घर एक लड़का पैदा होगा, जो मुल्क में आगे खड़ा हो जाएगा? लेकिन अनेक लोगों के मन को चोट पहुंची। एक चमार का लड़का राष्टपति बन जाए! दूसरे जो धनी थे और सौभाग्यशाली घरों में पैदा हुए थे, वे पिछड़ रहे थे। जिस दिन सीनेट में पहला दिन लिंकन बोलने को खड़ा हुआ, तो किसी एक प्रतिस्पर्धी ने, किसी एक महत्वाकांक्षी ने, जिसका क्रोध प्रबल होगा, जो सह नहीं सका होगा, वह खड़ा हो गया। उसने कहा ‘सुनो लिंकन, यह मत भूल जाना कि तुम राष्टपति हो गए तो तुम एक चमार के लड़के नहीं हो। नशे में मत आ जाना। तुम्हारा बाप एक चमार था, यह ख्याल रखना।’ सारे लोग हंसे, लोगों ने खिल्ली उड़ाई, लोगों को आनंद आया कि चमार का लड़का राष्टपति हो गया था। चमार का लड़का कह कर उन्होंने उसकी प्रतिभा छीन ली। फिर नीचे खड़ा कर दिया। लेकिन लिंकन की आंखें खुशी के आंसुओं से भर गई। उसने हाथ जोड़ कर कहा कि मेरे स्वर्गीय पिता की तुमने स्मृति दिला दी, यह बहुत अच्छा किया।
इस क्षण में मुझे खुद उनकी याद आनी चाहिए थी। लेकिन मैं तुमसे कहूं, मैं उतना अच्छा राष्टपति कभी न हो सकूंगा, जितने अच्छे चमार मेरे बाप थे। वे जितने आनंद से जूते बनाते थे, शायद मैं उतने आनंद से इस पद पर नहीं बैठ सकूंगा। वे अदभुत व्यक्ति थे। मैंने उन्हें जूते बनाते और गीत गाते देखा था। मैंने उन्हें दरिद्रता में और झोपड़े में आनंद से मग्न देखा था। मेरी वह क्षमता नहीं, मेरी वह प्रतिभा नहीं। वे बड़े अदभुत थे, बहुत अलौकिक थे। मैं उनके समझ कुछ भी नहीं हूं।
यह जो लिंकन कह सका, एक दरिद्र वृद्ध चमार के बाबत जिसने गीत गा कर जूते बनाए थे और जो आनंदित था और जो अपे जीवन से तृप्त था। उसे उसने स्वीकार किया था। जीवन मग जो उसे मिला था, उसके अनुग्रह से वह भरा था। उसके प्राण निस्पंद थे। वह किसी की प्रतिस्पर्धा में न था। वह किसी की दौड़ में न था। वह अपनी जिंदगी के आनंद में मग्न था।
क्या तुम भी अपने जीवन में आनंद में मग्न होने के ख्याल को जन्म दे सकोगे? क्या प्रतिस्पर्धा को छोड़कर अपने में, निज में, निजता में, कोई खुशी का कारण खोज सकोगे? दूसरे के सुख में नहीं, अपने आनंद में क्या तुम कोई द्वार खोज सकोगे? अगर खोज सको तो एक दुनिया बन सकती है, जो प्रेम की नगरी है। अन्यथा नहीं।
मैंने एक-दो छोटी-सी बातें कहीं। सीमाएं तोड़ देना हैं अपने बाहर, और भीतर प्रतिस्पर्धा और महत्वाकांक्षा छोड़ देनी है। यह मत सोचना कि महत्वाकांक्षा छोड़ देंगे तो विकास रुक जाएगा क्योंकि हमारा सारा विकास यही है कि आगे निकलो। एक बुखार चढ़ा हुआ है, दूसरे से आगे निकलना है। उसमें हम दौड़-धूप कर लेते हैं। अगर हम किसी से आगे निकलने का ख्याल छोड़ देंगे फिर गति कहां होगी? विकास कहां होगा? यह मत सोचना। इस दौड़ में, इस ज्वर में कोई गति नहीं होती है। केवल हम दौड़ते दिखाई पड़ते हैं। गति कोई भी नहीं है इसें। क्योंकि हमारी सारी शक्ति संघर्ष में लीन हो जाती है। सारी शक्ति लग जाती है लड़ने में।
लेकिन जो आदमी किसी से लड़ने नहीं जा रहा है उसके प्राण बच जाते हैं, उसके भीतर बच रहा है शक्ति का अथाह सागर। वह शक्ति अपने आप काम शुरू करती है, क्योंकि शक्ति निष्क्रिय नहीं बैठ रह सकती। शक्ति की अपनी सक्रियता है। उस शक्ति की अपनी गति है। एक नदी में, धारा में, पानी है। पर्वत पर बहुत पानी गिरा है और नदी भरी हुई है। तो तुम सोचते हो वह आया हुआ पानी अपना मार्ग नहीं बना लेगा। वह चीर लेगा पहाड़ों को, तोड़ देगा मैदानों को, अपनी राह सागर तक खोज लेगा। मगर, नदी में ताकत होनी चाहिए। नदी किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं कर रही है। कोई दूसरी नदी से आगे निकल जाने का सवाल नहीं है। किसी दूसरी नदी का शायद उसे पता भी नहीं है कि कोई और नदी भी जमीन पर है, लेकिन उसकी शक्ति उसे सागर की तरफ ले जाती है।
क्या तुम भी एक ऐसी सरिता बनोगे जिसकी अपनी शक्ति उसे सागर तक ले जाए? जिसकी अपनी आत्मा, ऊर्जा उसे परमात्मा के सागर तक पहुंचा दे। लेकिन हम तो विक्षिप्त और बीमार लोग हैं। हम तो किसी से लड़ कर आगे निकलना चाहते हैं। पर लड़ने में हम वहीं रह जाएंगे, जहां हम थे और खो देंगे वह शक्ति जो कहीं ले जा सकती थी। महावीर का किससे द्वंद्व है? बुद्ध का किससे संघर्ष है? किससे प्रतियोगिता है? किसके मुकाबले वे खड़े हैं? किससे आगे निकलना है? किसी से भी नहीं। कोई नहीं है वहां। अकेले हैं वे। अपनी ऊर्जा से गतिमान, अपनी ही शक्ति से प्रवाहित, अपनी ही शक्ति के वेग से उनके चरण बढ़े चले जा रहे हैं। ऐसा ही जब कोई बढ़ता है तो उसका जीवन आनंदपूर्ण होता है। जब कली फूल बनती है तो आनंद से भर जाती है, जब बीज वृक्ष बनता है तब आनंद से भर जाता है। उसके आनंद की खबर ही उसके फूल और कली से प्रकट होती है। जब कोई व्यक्ति अपनी आत्म ऊर्जा में जीता है और परिपूर्ण विकसित होता है तब खुशी से उसके प्राण भर जाते हैं।
आनंद का लक्षण है बांटना। दुःख सिकुड़ना चाहता है, आनंद बंट जाना चाहता है। तुमने खुद देखा होगा। जब तुम दुखी हो जाओगे, तब एक कोने में बंद हो जाने का मन होगा। कोई न बोले। कोई बात न करे। कोई छोड़े न। अगर बहुत दुःख में होगे तो चाहोगे कि मर ही जाएं, ताकि कोई बीच में न आए। दुःख सिकोड़ता है, और आनंद बंट जाना चाहता है। अगर आनंद फलित होगा, तो द्वार खुल जाएंगे। घर से भाग पड़ोगे तुम उस जगह, जहां सब हैं और वहां जहां बांटने का अवसर है। जिस दिन तुम्हारे प्राण फूल की तरह खिलें, उस दिन तुम्हारा आनंद होगा, उस दिन आनंद बंटेगा। उस दिन वह बंट जाना ही तुम्हारी प्रार्थना है, वही परमात्मा के चरणों में तुम्हारा समर्पण। वे ही फूल हैं जो कोई मनुष्य परमात्मा के पैरों में रख कर अपनी कृतज्ञता का प्रमाण दे सकता है। वे ही फूल हैं तुम्हारे आनंद के, जो तुम बांट दोगे। वही सुगंध है जो तुमसे बिखर जाएगी। और उस दिन तुम्हें लगेगा कि जरूर प्रेम के नगर के तुम बासी हो गए हो।
कभी भगवान करे वह दुनिया बने जो प्रेम की हो। हमें सिर्फ प्रेम के गीत न गाने पड़ें, सारी जिंदगी प्रेम का एक गीत हो जाए।

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