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बुधवार, 29 अगस्त 2018

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(ध्यान में मिटने का भय)

रवींद्रनाथ ने एक गीत में कहा है कि मैं परमात्मा को खोजता था। कभी किसी दूर तारे पर उसकी एक झलक दिखाई पड़ी, लेकिन जब तक मैं उस तारे के पास पहुंचा, वह और आगे निकल चुका था। कभी किसी दूर ग्रह पर उसकी चमक का अनुभव हुआ, लेकिन जब तक मैंने वह यात्रा की, उसके कदम कहीं और जा चुके थे। ऐसा जन्मों-जन्मों तक उसे खोजता रहा, वह नहीं मिला। एक दिन लेकिन अनायास मैं उस जगह पहुंच गया जहां उसका भवन था, निवास था। द्वार पर ही लिखा था: परमात्मा यहीं रहते हैं। खुशी से भर गया मन कि जिसे खोजता था जन्मों से वह मिल गया अब। लेकिन जैसे ही उसकी सीढ़ी पर पैर रखा कि ख्याल आया..सुना है सदा से कि उससे मिलना हो तो मिटना पड़ता है। और तब भय भी समा गया मन में..चढूं सीढ़ी, न चढूं सीढ़ी? क्योंकि अगर वह सामने आ गया तो मिट जाऊंगा! अपने को बचाऊं या उसे पा लूं? फिर भी हिम्मत की और सीढ़ियां चढ़ कर उसके द्वार पर पहुंच गया, उसके द्वार की सांकल हाथ में ले ली। फिर मन डरने लगा..बजाऊं या न बजाऊं?

अगर उसने द्वार खोल ही दिया तो फिर क्या होगा? मैं तो मिट जाऊंगा। और तब प्राण इतने घबड़ा गए मिटने के ख्याल से कि सांकल धीरे से छोड़ दी कि कहीं भूल से आवाज न हो जाए, कहीं वह द्वार न खोल दे, पैर की जूतियां हाथ में ले लीं कि कहीं सीढ़ियों पर आवाज न हो जाए, कहीं वह द्वार न खोल दे, और फिर जो उस दिन से भागा हूं तो पीछे लौट कर नहीं देखा है।

अब मुझे भलीभांति पता है, रवींद्रनाथ ने इस गीत में कहा, अब भलीभांति पता है कि उसका मकान कहां है। फिर भी उसे खोजता हूं, सिर्फ उसके मकान को बचा कर निकल जाता हूं। और सब जगह खोजता फिरता हूं। और पता है भलीभांति कि उसका मकान कहां है। लेकिन उसके मकान के पास जाकर डरता हूं, क्योंकि मिटने की हिम्मत अब तक नहीं जुटा पाया हूं। भगवान को तो पाना चाहता हूं, लेकिन खुद मिटना नहीं चाहता हूं। इन दोनों में कोई तालमेल नहीं हो पाता।
ध्यान में जैसे ही प्रवेश करेंगे, उसके द्वार पर जैसे ही खड़े होंगे, आपके सामने भी वही सवाल खड़ा हो जाएगा..यह तो अपने मिटने का वक्त आ गया। और तब भय से पीछे मत लौट आइएगा, अन्यथा जन्मों-जन्मों खोजते रहिए, उससे मिलना न हो सकेगा। भय बहुत छोटे-छोटे हैं, लेकिन छोटे-छोटे भय बड़ी-बड़ी संपदाओं को रोक लेते हैं। उसके पास पहुंच कर क्या होगा, कहना मुश्किल है।
एक मित्र कल आए। कल कोई सौ मित्रों ने बड़ा गहराई से प्रयोग किया। उनमें से बहुत से मित्र मुझे आकर मिले हैं। एक मित्र ने कहा कि मुझे तो लगा कि अब मैं पागल तो न हो जाऊंगा!
वह वही डर है, वही डर कि कहीं मैं मिट तो न जाऊंगा। इस डर ने उन्हें रोक लिया। अपने को सम्हाल लिया। आंखें खोल लीं, दरवाजे से उतर आए, श्वासें छोड़ दीं, जूते पैर के उठा लिए कि कहीं आवाज न हो जाए। कहीं पागल तो न हो जाऊंगा! प्रेम में अगर पागल होने का डर ख्याल में आ जाए तो प्रेम मर जाता है। और परमात्मा के द्वार पर अगर यह भय समा जाए कि कहीं पागल तो न हो जाऊंगा...। परमात्मा के लिए भी अगर पागल नहीं हो सकते हैं तो फिर और किस चीज के लिए पागल होंगे? और मजा यह है कि परमात्मा को छोड़ कर जो बुद्धिमान बने बैठे हैं, वे उन पागलों के मुकाबले कुछ भी नहीं जो उसके द्वार पर नाचते हुए प्रवेश कर जाते हैं।
अगर पागल ही होना है, तो धन के पीछे पागल होने से, यश के पीछे पागल होने से, पद के पीछे पागल होने से..उन सब चीजों के पीछे पागल होने से, जो पागल तो बना देंगी, लेकिन जिनसे मिलेगा कुछ भी नहीं, हाथ खाली के खाली रह जाएंगे..उस परमात्मा के लिए पागल होना बेहतर है, क्योंकि उसके पागल होते से ही वह सब मिल जाता है जो फिर छीना नहीं जा सकता।
मैंने सुना है, सिकंदर मरा। जिस राजधानी में उसकी मृत्यु हुई और अरथी निकली, उस गांव के सारे लोग बहुत हैरान हुए! क्योंकि अरथी से दोनों हाथ, सिकंदर की अरथी के बाहर लटके हुए थे। हर कोई पूछने लगा कि कुछ भूल हो गई है मालूम होता है। ये हाथ बाहर क्यों लटके हुए हैं? और तभी गांव में लोगों को पता चला कि सिकंदर ने मरने के पहले खुद ही कहा था कि मेरे दोनों हाथ बाहर लटके रहने देना। यह उसकी वसीयत है।
लोगों ने पूछा, लेकिन ऐसी पागलपन की वसीयत का मतलब क्या है? हमने तो किसी अरथी के हाथ कभी बाहर लटके नहीं देखे। भिखारी भी मरते हैं तो हाथ भीतर होते हैं। सम्राट मरे तो हाथ बाहर रहें? सिकंदर को यह क्या पागलपन सूझा?
उसके सेनापतियों ने कहा, हमने भी यही कहा था उससे। उसने कहा कि नहीं, मेरे हाथ बाहर ही लटके रहने देना। ताकि लोग ठीक से देख लें कि मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं। जिंदगी भर पागल रहा और हाथ फिर भी खाली के खाली हैं। कुछ मिला भी नहीं, दौड़ा भी बहुत, लड़ा भी बहुत, परेशान भी बहुत हुआ, हाथ खाली के खाली जा रहे हैं। ये मेरे दोनों हाथ अरथी के बाहर लटके रहने देना। एक-एक आदमी देख ले कि सिकंदर भी खाली हाथ जा रहा है।
दो तरह के पागलपन हैं जमीन पर। एक जो परमात्मा की दिशा में जाता है, जहां हम अपने को खोकर सब पा लेते हैं। और एक जो अपने अहंकार की दिशा में जाता है, जहां हमें कुछ भी मिल जाए तो कुछ मिलता नहीं, अंततः हम खाली के खाली रह जाते हैं। तो अगर अहंकार के लिए ही पागल होना हो, तब तो हम सब पागल हैं। हम सब अहंकार के लिए पागल हैं। एक छोटे से मैं के लिए हम जिंदगी भर लगा देते हैं कि यह मैं कैसे मजबूत हो! यह मैं कैसे बड़ा हो! यह मैं कैसे लोगों को दिखाई पड़े! चुभे!
लेकिन वह पागलपन हमें दिखाई नहीं पड़ता; क्योंकि हम सभी उसमें सहमत और साथी हैं। वह नार्मल मैडनेस है, वह सामान्य पागलपन है जिसमें हम सब भागीदार हैं। और अगर एक गांव में सारे लोग पागल हो जाएं, तो फिर उस गांव में पता नहीं चलेगा कि कोई पागल हो गया है। बल्कि उस गांव में खतरा है कि किसी आदमी का अगर दिमाग ठीक हो जाए, तो सारा गांव विचार करने लगेगा कि मालूम होता है यह आदमी पागल तो नहीं हो गया!
सुना है मैंने ऐसा कि किसी गांव में एक जादूगर आया और उसने उस गांव के कुएं में कोई मंत्र पढ़ कर फेंक दिया, और कहा कि जो भी इसका पानी पीएगा, पागल हो जाएगा!
सांझ होते-होते तक सारा गांव पागल हो गया। एक ही कुआं था गांव में। एक कुआं और था, लेकिन वह सम्राट के महल में था। सम्राट बच गया, उसके वजीर बच गए, उसकी रानियां बच गईं, लेकिन पूरा गांव पागल हो गया। सम्राट बड़ा प्रसन्न था। और सांझ उसने अपने वजीरों से कहा, हम सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पास अलग कुआं है। अन्यथा हम भी पागल हो जाते, सारा गांव पागल हो गया है।
लेकिन वजीरों ने कहा, सम्राट, आपको पता नहीं है, इससे बड़ा खतरा पैदा हो गया है। गांव में एक अफवाह उड़ रही है कि मालूम होता है सम्राट का दिमाग खराब हो गया है।
सम्राट ने कहा, क्या कहते हो? हमने तो उस कुएं का पानी पीया ही नहीं!
वजीरों ने कहा, यही मुसीबत हो गई है। क्योंकि पूरे गांव ने तो उस कुएं का पानी पी लिया है। अब वह पूरा गांव अपने को ठीक समझ रहा है। आपको पागल समझ रहा है। और पागल का एक लक्षण होता है कि वह सदा अपने को ठीक समझता है और दूसरे को पागल समझता है।
सांझ होते-होते गांव के लोगों ने महल को घेर लिया और उन्होंने कहा, ऐसे सम्राट को हम पसंद न करेंगे। सिंहासन छोड़ो! हम दूसरे सम्राट को बिठाएंगे जिसका दिमाग ठीक हो!
अब सम्राट मुश्किल में पड़ा। उसके पहरेदार भी पागल हो गए, उसके सिपाही भी पागल हो गए, उसके सेनापति भी पागल हो गए। कौन उसे बचाएगा? सम्राट ने अपने वजीरों से कहा, अब क्या रास्ता है?
वजीरों ने कहा, हम थोड़ी देर इन पागलों को रोकने की कोशिश करते हैं। आप पीछे के दरवाजे से भागे जाएं और उस कुएं का पानी पी आएं जिसका पानी इन्होंने पीया है। अब और बचने का कोई रास्ता नहीं है।
सम्राट गया भागा हुआ पीछे के रास्ते से, उस कुएं का पानी पीकर लौटा। गया तब तो पीछे के रास्ते से गया था, आया तब तो सामने के रास्ते से आया। वह भी चला आ रहा था चिल्लाता हुआ, बड़बड़ाता, नाचता-चिल्लाता। गांव के लोगों ने कहा, आश्चर्य! मालूम होता है सम्राट का दिमाग ठीक हो गया है! उस रात उस गांव में जलसा मनाया गया। और सारे लोगों ने भगवान को धन्यवाद दिया कि तेरी बड़ी कृपा है कि हमारे राजा का दिमाग ठीक कर दिया।
अगर पूरा गांव पागल हो तो बड़ी मुश्किल हो जाती है।
इस जमीन पर ऐसा ही हुआ है। हम सब अहंकार के लिए पागल हैं। इसलिए जब कोई परमात्मा की दिशा में पागल होता है, तो हमें लगता है कि यह पागल हो गया। सच्चाई उलटी है। हम सब पागल हैं; परमात्मा की दिशा पर जाने वाले लोग ही बस पागल नहीं हैं। लेकिन हमें ये पागल दिखाई पड़ने शुरू होते हैं। हमसे अनजान, अपरिचित लोक में जो जाता है, हमसे भिन्न, हमसे अज्ञात रास्तों पर जो कदम रखता है, वह हमें पागल मालूम होने लगता है। इसलिए बुद्ध भी पागल मालूम होते हैं, महावीर भी, नानक भी, कबीर भी, क्राइस्ट भी, सब पागल मालूम होते हैं। उस जमाने के लोगों को लगता है कि यह आदमी पागल हो गया। स्वाभाविक है, सदा से यह हुआ है। दुर्भाग्य है, लेकिन यही हुआ है कि जो सच में स्वस्थ हो जाते हैं, वे इन बीमारों के बीच अस्वस्थ मालूम पड़ने लगते हैं। उसमें हिम्मत जुटाने की जरूरत है, उसके रास्ते पर पागल होने से डरने की जरूरत नहीं।
किसी एक बहन ने मुझे आकर कहा कि उसे लगा कि वह कहीं मर न जाए, समाप्त न हो जाए। सिंकिंग मालूम होने लगी, भेजा डूबने लगा, श्वास खो न जाए।
बचाएंगे भी कब तक श्वास को हम? वह खो ही जाएगी। और कब तक बचेंगे डूबने से। चारों तरफ रोज लोगों को डूबते देखते हैं। लेकिन ख्याल नहीं आता कि हम डूब जाएंगे। आदमी की सबसे ज्यादा अदभुत बातों में एक यह है कि रोज चारों तरफ कोई मरता है, लेकिन यह ख्याल नहीं आता कि मैं मर जाऊंगा। उसी क्यू में खड़े हैं जिस क्यू का नंबर एक का आदमी मर गया, नंबर दो मरने की तैयारी कर रहा है, नंबर तीन हम खड़े हैं। लेकिन हम कह रहे हैं..बेचारा मर गया! जैसे हम मरने के बाहर हैं। और हमें पता नहीं कि उसके मरने से क्यू थोड़ा आगे सरक गया, एक जगह खाली हो गई, हम और थोड़े आगे पहुंच गए मौत के करीब। जब भी आप मरघट पर किसी को पहुंचा आते हैं, तो आपका क्यू में नंबर आगे चला जाता है, आप थोड़े आगे सरक जाते हैं। लेकिन वह ख्याल नहीं आता। मरना है, मिटना पड़ेगा। इस तरह दो तरह के मिटने हैं। एक तो वह मिटना है जो मजबूरी में हम मरते हैं, तड़पते और चिल्लाते हुए, उसमें मिटने का मजा भी चला जाता है। एक और मिटना भी है..कि हम अपनी राजी से, हम अपनी खुशी से उसमें डूबते चले जाते हैं।
जीसस का वचन है, जो कीमती है। जीसस ने कहा, जो अपने को बचाएगा वह मिट जाएगा। और धन्य हैं वे जो अपने को मिटा देते हैं, क्योंकि फिर उनका मिटना असंभव है, फिर वे बचा लिए जाते हैं। उलटे हैं इस दुनिया के रास्ते, परमात्मा के रास्ते बिल्कुल उलटे हैं। वहां वही बचता है जो खोने को राजी है, यहां वही बचता है जो खोने से अपने को बचाता रहता है। लेकिन हमारा बचा हुआ भी खो जाता है, और उसमें खोया हुआ भी बच जाता है।
खोने से मत डरना, मिटने से मत डरना, अन्यथा उसकी सीढ़ियों से वापस लौटना हो जाता है।
और बहुत से मित्रों ने आकर कहा कि बहुत कुछ उनके भीतर होना शुरू हुआ, लेकिन उन्हें भय समाया कि कोई देख लेगा तो क्या कहेगा? अगर हम नाचने लगेंगे, रोने लगेंगे, हंसने लगेंगे, आंसू बहने लगेंगे, तो लोग पूछेंगे कि यह भले अच्छे आदमी को क्या हो गया?
यह भी समझ लेना जरूरी है कि हम सदा दूसरों की आंखों में देख कर ही जीते रहेंगे या कभी अपने भीतर देख कर भी जीएंगे? कब तक हम दूसरों के ओपीनियन से जीएंगे कि दूसरा क्या कह रहा है? यह दूसरा कौन है? और इस दूसरे से प्रयोजन क्या है? इस दूसरे के आप गुलाम हैं? अगर आप नाच रहे हैं और सारा गांव भी कह रहा है कि पागल है, तो यह उसकी मौज है, उसे कहने दें। लेकिन आप उनके दूसरों के विचारों के गुलाम हैं? आप नहीं सोच सकते कि आपके भीतर क्या हो रहा है?
नहीं, आप डर जाएंगे। आप कहेंगे, लोग क्या कहेंगे? ठहरो।
यह ‘लोग क्या कहेंगे’, यह परमात्मा के रास्ते पर सबसे बड़ी बाधा है। मीरा दीवानी हुई उसके रास्ते पर, लोगों ने क्या कहा? लोगों ने कहा, बिगड़ गई। मीरा को सुनना पड़ा कि लोग कहते हैं कि मीरा बिगड़ गई। लेकिन कहने दो लोगों को। अगर मीरा लोगों की बात मान कर लौट आए, तो लोग बड़े खुश होंगे। लेकिन मीरा डूब गई, मीरा गई।
लोग क्या कहते हैं, उनका ओपीनियन क्या है, यह परमात्मा के रास्ते पर कभी बीच में मत आने देना। अन्यथा एक कदम बढ़ाना मुश्किल है। एक कदम भी बढ़ाना मुश्किल है। क्योंकि लोग तो कुछ न कुछ कहेंगे।
जिस दिन महावीर नग्न खड़े हो गए, उस दिन उस गांव के लोगों ने उनको पत्थर मार कर बाहर कर दिया। क्योंकि लोगों ने कहा, नग्न हो गए हो! पागल हो गए हो! और महावीर इतने निर्दोष हो गए थे कि उन्हें याद भी न रहा कि वस्त्र पहनने जरूरी हैं, उनकी समझ में भी न आया कि लोग क्या कह रहे हैं।
स्वाभाविक है, कभी चित्त इतना सरल और निर्दोष हो सकता है कि वस्त्रों की भी याद न रह जाए।
लेकिन लोगों को तो रहेगी, क्योंकि लोगों को अपना नंगापन नहीं भूलता, तो दूसरे के वस्त्र कैसे भूलेंगे! हम सब कपड़ों के भीतर नंगे होते हैं। और हमारा नंगापन हमें इतना घबड़ाए रहता है कि हमें दूसरा आदमी नंगा दिख जाए तो हम उसे भूल कैसे सकते हैं? चाहे वह भूल जाए, हम नहीं भूल सकते। हम तो कहेंगे कि कुछ गड़बड़ हो गई है। क्योंकि अगर उसके साथ गड़बड़ नहीं हुई तो एक दूसरा सवाल उठेगा कि फिर क्या हमारे साथ गड़बड़ हो गई है? उस सवाल से बचने के लिए हम उसी पर गड़बड़ थोप देते हैं।
जिन मित्रों ने मुझे आकर कहा कि लोग क्या कहेंगे, उन्होंने अपना रास्ता रोक लिया। वे कब तक लोगों के लिए बैठे सोचते रहेंगे? लोग कुछ न कुछ कहते ही रहेंगे। और लोगों के लिए रुकने वाला बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है।
मैंने सुना है, एक पूर्णिमा की रात शंकर और पार्वती..पूरा चांद है..घूमने निकले हैं। साथ में उनका नंदी भी है। वे दोनों उसके साथ चल रहे हैं और नंदी चल रहा है। कुछ लोग मिले, उन्होंने कहा, देखते हो पागलों को! नंदी साथ है और पैदल चल रहे हैं दोनों! शंकर ने कहा कि लोग कुछ गड़बड़ बातें कह रहे हैं, हम दोनों बैठ जाएं। वे दोनों नंदी पर बैठ गए। रास्ते में दूसरे लोग मिले, उन्होंने कहा, देखते हो! बेचारा गरीब नंदी, और दो-दो उस पर सवार हैं! शंकर ने कहा, यह ठीक नहीं मालूम पड़ता, लोग कह रहे हैं कि दो-दो सवार हैं एक ही नंदी पर। पार्वती से कहा कि तू उतर जा। पार्वती उतर गई, अकेले शंकर सवार रहे। लोग रास्ते में मिले, उन्होंने कहा, देखते हो इस नासमझ को! औरत को नीचे चला रहा है और खुद नंदी पर बैठा हुआ है! पार्वती से शंकर ने कहा, लोग क्या कह रहे हैं, मैं नीचे उतरा जाता हूं, तू नंदी के ऊपर बैठ। पार्वती ऊपर बैठ गई, शंकर नीचे चले। रास्ते में लोग मिले, उन्होंने कहा, देखते हो इस औरत को! पति नीचे चल रहा है और खुद नंदी पर बैठी हुई है! शंकर ने कहा, बड़ी मुश्किल हो गई! तू भी नीचे उतर आ। लेकिन अब हम क्या करें? उन्होंने कहा, अब एक ही रास्ता है कि हम दोनों नंदी को उठा लें। क्योंकि अब तो और कोई रास्ता नहीं बचा, लोगों ने हर चीज में कुछ न कुछ कहा। अब हम नंदी को ऊपर उठा लें। अब वे दोनों नंदी को उठा कर चल रहे हैं। लोग बोले, देखते हो पागलों को! नंदी पर बैठना चाहिए था, तो उलटा नंदी को लेकर चल रहे हैं! शंकर ने कहा कि लोगो, हमें जीने दोगे कि न जीने दोगे? हम कुछ भी करें तो तुम मिल जाते हो।
लोगों के कोई चेहरे थोड़े ही हैं। लोग चारों तरफ मौजूद हैं। वे हर बात में कुछ कहेंगे। ऐसी कोई बात ही नहीं है जिसमें वे कुछ न कहें। अगर वे कुछ न कहें तो बहुत बुद्धिमान हैं। लेकिन इतने बुद्धिमान लोग कहां हैं? वे कुछ न कुछ कहेंगे ही। और अगर उनकी हर बात के लिए आप रुके रहे, तो रुक जाएंगे सदा के लिए।
लेकिन ध्यान रहे, आप रुक जाएंगे, मौत न रुकेगी उनकी बातें सुन कर। मौत न रुकेगी, वह यह न कहेगी कि लोग क्या कहेंगे, हम आपको ले जाएं कि न ले जाएं! वह ले जाएगी, लोगों की बिल्कुल फिकर न करेगी। और आप लोगों की फिकर करते रहेंगे और मौत लोगों की बिल्कुल फिकर न करेगी। आपका सौदा महंगा हो जाएगा। जब मौत लोगों की फिकर नहीं करती तो जिंदगी भी क्यों फिकर करे? जिंदगी को भी फिकर नहीं करनी चाहिए। जब मौत तक फिकर नहीं करती, तो जिंदगी को तो करनी ही नहीं चाहिए।
लेकिन हम डरे हुए हैं, हमें चारों तरफ लोगों के चेहरे ख्याल में रहते हैं। हम उन्हीं को देख कर कपड़े पहनते हैं, उन्हीं को देख कर हंसते हैं, उन्हीं को देख कर रास्तों पर चलते हैं। हमने एक मुखौटा बनाया हुआ है। हम एक एक्टिंग कर रहे हैं, जो चैबीस घंटे लोगों की मांग पूरी कर रही है। स्टेज पर जो एक्टर काम करते हैं, वे ही लोगों की मांग पूरी नहीं कर रहे हैं, हम भी लोगों की मांग पूरी कर रहे हैं। चारों तरफ लोग हैं, वे कह रहे हैं..ऐसे कपड़े पहनो, ऐसे उठो, ऐसे बैठो, ऐसे जीओ। सिर्फ एक बात वे छोड़ देते हैं, वे यह नहीं बताते कि कैसे मरो। क्योंकि उस पर उनका कोई बस नहीं है। जीना तो वे सब तरफ से घेर लेते हैं।
तो मैं ध्यान करने वाले मित्रों को कहूंगा, लोगों की फिकर मत करना।

एक और अंतिम प्रश्न, फिर हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
एक मित्र ने पूछा है कि आपने जो ध्यान के लिए कहा, इससे चरित्र में और जीवन में कोई फर्क होगा कि नहीं होगा?

जरूर होगा! और इसके अतिरिक्त चरित्र और जीवन में फर्क और किसी रास्ते से होते ही नहीं हैं। असल में ध्यान बदल देता है भीतर की चेतना को। और जब भीतर की चेतना बदलती है, तो बाहर का आचरण अपने आप बदल जाता है। रुक नहीं सकता बिना बदले। जब आप बदल जाएंगे तो आपका आचरण पुराना कैसे रह सकता है? बदलेगा। आपका पुराना आचरण आपकी चेतना से जुड़ा हुआ था। और जब चेतना ही बदल गई भीतर, तो आचरण वही नहीं रह सकता।
अब एक आदमी सिगरेट पी रहा है। सारी दुनिया उसको समझाए कि मत पीओ। मैं मानता हूं, वह रुकेगा नहीं। और अगर रुक जाएगा तो सिगरेट की जगह और कुछ इसी तरह का बेकार काम शुरू करेगा। अगर धुआं नहीं निकालेगा तो पान चबाएगा; अगर पान नहीं चबाएगा तो गाद चबाएगा; अगर गाद नहीं चबाएगा तो लोगों से बैठ कर बकवास करेगा। लेकिन वह होंठ चलाने की जो बेकाम आदत है वह जारी रहेगी। वह रुक नहीं सकता उससे। क्योंकि सिगरेट पीने वाला यह कह रहा है कि वह खाली नहीं बैठ सकता। खाली बैठने से बेचैनी होती है। सिगरेट खालीपन का सहारा है, नॅान आक्युपाइड के लिए आक्युपेशन है। जब आप बिल्कुल बेकार हैं और कोई काम नहीं, तब आप सिगरेट से काम खोज रहे हैं। और कोई नहीं कह सकता कि सिगरेट पीने वाला बुरा ही कर रहा है। क्योंकि अगर सब सिगरेट पीने वालों से सिगरेट छीन ली जाए, तो वे अनआक्युपाइड लोग और भी खतरनाक आक्युपेशंस खोज सकते हैं।
हिटलर सिगरेट नहीं पीता था। और मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि अगर वह सिगरेट पीता होता तो शायद दूसरा महायुद्ध न होता। हिटलर सिगरेट भी नहीं पीता, मांस भी नहीं खाता, अंडा भी नहीं खाता, हिटलर बड़ा साधु पुरुष था। पांच बजे सुबह उठता। कोई बुरी चीज नहीं खाता। चाय-काफी भी नहीं पीता। शराब तो बहुत दूर की बात है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि उसने अपने को इतना अच्छा बना लिया था, जब कि भीतर सब बुरा था, तो फिर बुरे को बहने के लिए नये रास्ते खोजने पड़ते हैं।
नहीं, ऐसे सिगरेट ऊपर से छीनी तो खतरा है। सिगरेट जानी चाहिए भीतर से। और अगर भीतर मन शांत हो जाए तो आपको अनआक्युपाइड होने में, खाली होने में इतना आनंद आने लगेगा कि सिगरेट के धुएं से आप उसको खराब नहीं करेंगे।
इसलिए मेरे लिए सवाल सदा भीतर से है। एक आदमी मांस खाता है। मैं नहीं कहता, मत खाओ। क्योंकि जो मांस खा रहा है वह खतरनाक आदमी है। अगर वह मांस नहीं खाएगा तो किसी आदमी की गर्दन दबाएगा। अगर सीधी नहीं दबाएगा, ब्याज लेकर दबाएगा। अगर ब्याज लेने की तरकीब न मिलेगी तो और कोई जाल खोजेगा जिसमें वह दबाए किसी को। उससे तो अच्छा है वह मांस ही खा ले। ये जितने लोग गैर-मांसाहारी हैं जन्म से, वे खतरनाक आदमी हो जाते हैं, अच्छे आदमी नहीं रह जाते। उसका कारण है कि उनको दबाना पड़ता है दूसरी तरफ।
नहीं, मैं कहता हूं, भीतर मन शांत हो, आनंदित हो, तो किसी को दुख देने की वृत्ति विलीन हो जाती है, तब आप मांस नहीं खा सकते। वह छोड़ना नहीं पड़ेगा, छूटेगा।
ध्यान का मूल सूत्र है कि आचरण बदलना नहीं पड़ता, बदल जाता है। आचरण बड़ी साधारण चीज है। असली चीज है अंतस। और जब भीतर आदमी बदलता है तो बाहर आचरण बदलता है। आचरण बदलेगा।

उन मित्र ने पूछा है कि कहीं यह थोड़ी देर के लिए एक विश्राम, थोड़ी देर के लिए एक मनोरंजन होकर तो न रह जाएगा?

नहीं, इसे थोड़ी देर होने दें, यह आपकी पूरी जिंदगी को पकड़ लेगा। यह ध्यान ऐसा मेहमान है कि एक दफे भीतर घुस जाए, फिर आप इसको बाहर न कर पाएंगे। एक दफे भीतर भर घुस जाए, फिर इसे आप बाहर कर ही न पाएंगे। क्योंकि अपने साथ इतना आनंद लाता है, आनंद को कौन बाहर कर सकता है? अपने साथ इतनी शांति लाता है कि शांति को कौन बाहर कर सकता है? एक बार प्रयोग करके इसे भीतर आ जाने दें, फिर यह कभी बाहर न जा सकेगा। और कोई अगर कहेगा भी कि इसे बाहर हम कर देते हैं और आप करोड़ रुपये ले लो, तो भी आप करोड़ रुपये लेकर इसे देने को राजी न होंगे।
सुना है मैंने कि महावीर के पास उस जमाने का एक सम्राट श्रेणिक मिलने आया। और उस श्रेणिक ने महावीर से कहा कि मैंने सब पा लिया है, अब मैं यह ध्यान की बड़ी चर्चा सुनता हूं, यह ध्यान क्या बला है? कितने में मिल सकता है? मैं खरीदने को तैयार हूं।
श्रेणिक था, सम्राट था, चीजें खरीदने का आदी था। महावीर ने कहा, खरीदने से न मिलेगा, क्योंकि गरीब से गरीब आदमी भी बेचने को राजी नहीं होगा।
उस सम्राट ने कहा, जीत लेंगे, फौजें लगा देंगे। यह है क्या बला ध्यान?
महावीर ने कहा, फौजें आदमी को काट डालेंगी, ध्यान को नहीं काट पाएंगी।
फिर भी, उसने कहा, मुझे कोई रास्ता बताओ! मैंने सब पा लिया, अब यह ध्यान भर रह गया है, यह खटकता है कि अपने पास ध्यान नहीं है। यह है क्या ध्यान?
महावीर ने कहा कि तुम धन पाने के आदी हो, जमीन पाने के आदी हो, उसी तरह ध्यान को पाने चले हो? उसी ढंग से? तुम नहीं पा सकोगे। तुम्हारे गांव में एक गरीब आदमी है, उसके पास चले जाओ। महावीर ने नाम बता दिया और कहा कि उसे ध्यान मिल गया है, उससे तुम खरीद लो।
तो श्रेणिक उसके दरवाजे पर गया, रथ से उतरा, उसने देखा बहुत गरीब आदमी का झोपड़ा है। उसने कहा, खरीद लेंगे, पूरे आदमी को खरीद लेंगे, ध्यान की क्या बात है! उसने बड़े हीरे-जवाहरात जाकर उसके दरवाजे पर डलवा दिए और कहा कि सम्हाल! और चाहिए हो तो और दे देंगे, जो तेरी मांग हो, ले ले। ध्यान दे दे!
उस आदमी ने कहा, बड़ी मुश्किल में डालते हैं आप। ध्यान तो आप अपना सारा साम्राज्य दे दें, तो भी मैं न दे सकूंगा। एक तो इसलिए न दे सकूंगा कि उससे बड़ी कोई संपत्ति नहीं। और इसलिए भी न दे सकूंगा कि वह मेरी आत्मा की आत्मा है उसे निकाल कर दे भी कैसे सकता हूं? अगर कोई लेना भी चाहे, उसे दे भी नहीं सकता हूं।
ध्यान, सब बदल जाता है, सब व्यक्तित्व। लेकिन साहस की जरूरत है।

अब हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
जो लोग सिर्फ देखने के लिए आ गए हों, वे बीच से हट जाएंगे और किनारे पर खड़े हो जाएंगे। देखने में कोई एतराज नहीं है। देखते-देखते भी उन्हें कुछ हो सकता है। लेकिन इतना ख्याल रखेंगे कि जो लोग भी किनारे पर खड़े रहें, उनके कारण किसी को बाधा न पड़े। इतनी सज्जनता बरतेंगे तो बड़ी कृपा होगी कि उनके कारण किसी को बाधा न पड़े। वे चुपचाप खड़े देख सकते हैं। लेकिन बीच में कोई ऐसा आदमी न खड़ा रहे जो ध्यान नहीं कर रहा है। क्योंकि उसके कारण, यहां जो सारी तरंगें पैदा होती हैं ध्यान करने वालों की, उसको बाधा पड़ती है। जिसको ध्यान नहीं करना है वह चुपचाप किनारे पर खड़ा हो जाए। और जिन मित्रों को ध्यान करना है वे अपनी-अपनी जगह खड़े हो जाएं और जगह बना लें और बातचीत बिल्कुल न करें।
बातचीत न करें, अपनी-अपनी जगह चुपचाप खड़े हो जाएं। थोड़ा-थोड़ा फासले पर खड़े होंगे जो ध्यान करने के लिए खड़े हो रहे हैं, ताकि कोई किसी को छुए नहीं। और अपने चारों तरफ थोड़ी जगह बना लें, क्योंकि आप हिलने-डुलने लगें, नाचने लगें, तो किसी को धक्का न लगे। और जिन लोगों को चुपचाप देखना हो, वे थोड़े दूर होकर खड़े हों, ताकि यहां जगह रह जाए। थोड़े हट कर खड़े हो जाएं।
और दर्शक मित्रों से फिर प्रार्थना कर देता हूं कि आपके कारण जरा भी बाधा न पड़े, इसका ख्याल रखेंगे, बात नहीं करेंगे, चुपचाप खड़े होकर देखते रहेंगे। जो दर्शक हैं वे थोड़ा दूर हट जाएं, ताकि साफ हो सके कि कौन ध्यान कर रहा है। जो दर्शक हैं वे थोड़े पीछे हट जाएं, उन्हें चुपचाप देखना है तो थोड़ा दूर हट कर खड़े हों, इतने पास खड़े न हों। और जो मित्र ध्यान करने खड़े हैं वे भी अपने आसपास थोड़ी जगह बना लें, क्योंकि आज दूसरा दिन है, आपको थोड़ी ज्यादा ताकत लगानी है। कल जिन्होंने हिम्मत नहीं की उन्हें भी आज हिम्मत करनी है।
सबसे पहले आंख बंद कर लें, जो लोग ध्यान में जा रहे हैं वे आंख बंद कर लें। यह आंख चालीस मिनट के लिए बंद हो रही है। अब इस चालीस मिनट में आंख नहीं खोलनी है। हां, बीच में खड़े हों तो आंख खोल कर न खड़े रहें। जो लोग यहां ध्यान के घेरे में खड़े हैं वे आंख बंद कर लें, वहां कोई एक व्यक्ति भी आंख खोले न खड़ा रहे। आंख बंद करिए, अन्यथा बीच से हट जाइए। और यह आंख चालीस मिनट के लिए बंद होती है। इस बीच कुछ भी हो जाए, आपको आंख नहीं खोलनी है, अन्यथा बाधा पड़ेगी।
आंख बंद कर ली है, अब तीन बार अपने मन में संकल्प कर लें..मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा; मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा; मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। इस संकल्प को चालीस मिनट तक कम से कम याद रखना। पूरी शक्ति लगाएंगे, तो ही परिणाम आना शुरू होगा। और लोगों को भूल जाना। प्रभु को स्मरण करना हो तो लोगों को भूल जाना जरूरी है। कौन क्या देख रहा है खड़े होकर, उसकी चिंता नहीं करना। अपने काम को पूरा कर लेना।
पहले दस मिनट फास्ट ब्रीदिंग करनी है, तेज श्वास लेनी और छोड़नी है। किन्हीं को सुविधा हो तो वे नाक से लेकर मुंह से भी छोड़ सकते हैं। किसी को सुविधा हो तो नाक से लेकर नाक से भी छोड़ सकता है। ध्यान में रखने की एक ही बात है कि इतने जोर से लेनी है कि धीरे-धीरे आपका पूरा शरीर और पूरा मन सिर्फ श्वास ही लेने लगे।
शुरू करें। दस मिनट के लिए अपनी पूरी शक्ति श्वास पर लगा दें। गहरी श्वास फेंकें बाहर, तेजी से भीतर ले जाएं, तेजी से बाहर फेंकें। बस फेफड़े में श्वास भर जाए, बाहर फेंक दें। रोकनी नहीं है। बाहर निकल जाए, फिर फेफड़े में ले जाएं। जो मित्र ध्यान करने खड़े हैं वे पूरी ताकत लगा दें। ऐसा लगने लगे कि आप सिर्फ एक धौंकनी रह गए हैं जो श्वास ले रही, छोड़ रही। एक दस मिनट गहरी श्वास लेने से तत्काल परिणाम शुरू हो जाएगा। गहरी श्वास फेंकें और लें, लें और छोड़ें...धीमे नहीं चलेगा, कोई धीमे कर रहा है तो बेहतर है न करे...जोर से लें और जोर से छोड़ें...जितने जोर से श्वास की चोट पड़ेगी, कुंडलिनी उतनी ही शीघ्रता से जाग्रत होनी शुरू होती है। और जब कुंडलिनी आपके भीतर जागेगी तो पूरा शरीर इलेक्ट्रिफाइड मालूम पड़ने लगेगा, जैसे बिजली दौड़ने लगी। यह बिजली दौड़ने लगे तो घबड़ाएं न...
हां, गहरी श्वास लें और छोड़ें, श्वास लें और छोड़ें...जितना फास्ट हो सके...अपने को थका डालना है पूरी तरह...जितना फास्ट हो सके...शरीर हिलता है तो फिकर न करें, श्वास तेजी से लेंगे, शरीर हिलने लगेगा...
तेज श्वास लें, तेज छोड़ें...तेज श्वास लें, तेज छोड़ें...और तेज, और तेज, और तेज...पूरी शक्ति लगा दें, यूं कि पसीना-पसीना हो जाएं...परमात्मा के द्वार पर थक कर गिरेंगे तो ही गिर पाएंगे...पूरी शक्ति लेगा देनी है, थका डालना है...
बहुत ठीक, बहुत मित्र बहुत ठीक से कर रहे हैं। कुछ मित्र धीरे कर रहे हैं, वे तेजी से लें। नहीं तो परिणाम नहीं होता, फिर करना बेकार हो जाता है। तेज श्वास लें और तेज छोड़ें...सारा शरीर कंपने लगे, उसकी फिकर न करें... श्वास लें और छोड़ें, श्वास लें और छोड़ें, श्वास लें और छोड़ें...सारा शरीर बिजली से भर जाएगा, मूव करने लगेगा, घूमने लगेगा, उसकी चिंता न करें...
और तेज, और तेज...आपसे ही कह रहा हूं, किसी और से नहीं...और तेज, और तेज, और तेज, और तेज, और तेज...श्वास ही श्वास रह जाए... बस श्वास ही ले रहे हैं, और कुछ भी नहीं कर रहे हैं...श्वास ही ले रहे हैं, और कुछ भी नहीं कर रहे हैं...और दूसरों की फिकर छोड़ दें, आप ही अकेले यहां हैं, ऐसा समझें और गहरी श्वास लें...
गहरी श्वास...भीतर शक्ति जगनी शुरू हो जाएगी...गहरी श्वास लें और शक्ति जगने लगे तो भयभीत न हों...शरीर शक्ति के साथ डोलने लगेगा, भयभीत न हों...गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, और गहरी श्वास... जितनी ताकत आपमें हो, पूरी लगा दें, कुछ पीछे बचाएं नहीं...
पांच मिनट बचे हैं, पांच मिनट पूरी ताकत लगा दें, फिर हम दूसरे चरण में प्रवेश करेंगे...और जब पहले में आप पूरे थक जाएंगे तभी दूसरे में जा सकेंगे।
और गहरी श्वास...शरीर छलांग लगाने लगे, हिलने लगे, हाथ-पैर ऊंचे-नीचे होने लगें, फिकर न करें...गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास...आंख बंद ही रहेगी, आप अपने शरीर की भी फिकर न करें देखने की, आंख बंद ही रहेगी...गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास...पूरी ताकत लगाएं, जरा भी अपने को बचाएं मत, मैं आपको थका ही डालना चाहता हूं, ताकि आखिरी चरण में प्रभु के द्वार पर थक कर गिर जाएं असहाय...और गहरी श्वास, और गहरी श्वास, और गहरी श्वास, और गहरी श्वास...
तीन मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं, फिर हम दूसरे चरण में प्रवेश करें...गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास...कोई चिंता न करें, शरीर हिलने लगे, हाथ-पैर ऊंचे-नीचे होने लगें, जो भी होता हो हो, आप अपनी श्वास पर पूरा ध्यान लगा दें, पूरी ताकत लगा दें...गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास...
दो मिनट बचे हैं, ताकत पूरी लगा दें...गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास...श्वास ही श्वास रह जाए, श्वास ही श्वास रह जाए, आप एक यंत्र मात्र रह जाएं श्वास के, और कुछ भी नहीं है, श्वास भीतर जाती, बाहर जाती। इसे पूरी ताकत से करें तो आप और श्वास अलग मालूम होने लगेंगे, साफ दिखाई पड़ने लगेगा..श्वास अलग, मैं अलग; श्वास अलग, मैं अलग; श्वास अलग, मैं अलग...लेकिन ताकत पूरी लगाएं तभी यह साफ फासला मालूम पड़ेगा...श्वास अलग, मैं अलग...शक्ति पूरी लगा दें...श्वास अलग, मैं अलग...गहरी श्वास...एक मिनट बचा है, पूरी ताकत लगाएं...मैं एक दो तीन कहूं तब आप पूरी ताकत लगा देंगे, जितनी आपकी सामथ्र्य हो...
एक! पूरी ताकत लगा दें। दो! पूरी ताकत लगा दें। तीन! पूरी ताकत लगा दें, पूरी ताकत लगा दें, श्वास ही श्वास रह जाए, श्वास ही श्वास रह जाए...

और अब हम दूसरे सूत्र में प्रवेश करते हैं। श्वास जारी रहेगी, श्वास तेजी से जारी रहेगी और अब शरीर को आप ढीला छोड़ दें। शरीर को जो करना हो करने दें। जैसे ही शरीर कुछ करने लगेगा, वैसे ही शरीर अलग, आप अलग, दिखाई पड़ने लगेगा। शरीर को छोड़ दें...रोता हो, रोए; हिलता हो, हिलता है; नाचता हो, नाचता है...जो भी हो रहा है, शरीर का कोई भी अंग कुछ भी करना चाहता है, उसे ढीला छोड़ दें, उसका सहयोग करें, उसे करने दें...शरीर मूव करने लगेगा, झूमने लगेगा, छोड़ दें...गहरी श्वास जारी रहे और शरीर को बिल्कुल मुर्दे की तरह छोड़ दें...जो भी शरीर में होना हो, होने दें...जब शरीर अपने आप यंत्र की तरह कंपने लगता है, नाचने लगता है, रोने लगता है, हंसने लगता है, तो भीतर साफ होने लगता है..मैं अलग, शरीर अलग। सुना है बहुत कि शरीर अलग है, उसे देखने का मौका है, उसे देख लें।
छोड़ें, दस मिनट के लिए अब शरीर को बिल्कुल छोड़ देना है...और वह जो भी करे उसमें सहयोग करें, उसे करने दें वह जो भी करे...रोने लगेगा कोई, रोए; हंसने लगेगा कोई, हंसे; नाचने लगेगा कोई, नाचे; गिर पड़ेगा कोई, गिर जाए...जो भी शरीर को करना है, आप उसमें जरा भी बाधा न दें...श्वास जारी रहेगी, श्वास जारी रहेगी, श्वास गहरी जारी रहेगी और शरीर को छोड़ दें...
हां, शरीर नाचे, नाचने दें; डोले, डोलने दें; गिर जाए, गिर जाने दें... ताकत पूरी लगाएं, छोड़ें...
और देखें बीच में एक भी व्यक्ति आंख न खोले, आपसे पहले कहा बाहर हट जाएं, कोई को अगर आंख खोलनी है, बीच के वातावरण को खराब न करें।
पूरी ताकत लगा दें, शरीर को जो होता है होने दें...ध्यान न लें कि कोई कहेगा पागल हो गए हैं, ध्यान न लें कि कोई कहेगा यह आप क्या कर रहे हैं, शरीर जो कर रहा है उसे करने दें...छोड़ें, संकोच न करें...बहुत से मित्र संकोच में रोक लेते हैं, फिर प्रयोग पूरा नहीं हो पाएगा...छोड़ दें...कुछ मित्रों ने छोड़ा है...छोड़ें, बाकी लोग भी छोड़ दें...
बातचीत न करें, जो मित्र देख रहे हैं वे कम से कम चुपचाप खड़े रहें, इतनी कृपा करें, चुपचाप देखते रहें।
छोड़ दें, छोड़ दें, छोड़ दें, छोड़ें...आपसे ही कह रहा हूं, किसी और से नहीं...बिल्कुल छोड़ दें, शरीर को जो होता है, होने दें...रोना आए, रोकें नहीं; हंसना आए, रोकें नहीं; शरीर नाचता हो, नाचने दें, रोकें नहीं...छोड़ दें, शरीर को बिल्कुल छोड़ दें...छोड़ें, छोड़ें, शरीर को बिल्कुल छोड़ दें...
पांच मिनट बचे हैं, शरीर को पूरी तरह छोड़ दें...शरीर को जो करना हो करने दें...शरीर को छोड़ दें, शरीर को छोड़ दें, शरीर को छोड़ दें...रोता है, रोए; हंसता है, हंसे; नाचता है, नाचे...छोड़ दें, शरीर को बिल्कुल छोड़ दें, छोड़ दें...बिल्कुल छोड़ दें, शरीर को बिल्कुल छोड़ दें...
देखें और दर्शक बीच में न आएं, अंदर न आएं, दर्शक बीच में अंदर न आएं, इतनी कृपा करें। बाहर खड़े रहें। इतना पागलपन न करें, बाहर खड़े रहें, बाहर से देखें, बीच में बाधा न डालें, बीच में न आएं।
छोड़ें...चार मिनट बचे हैं, पूरी तरह छोड़ दें, फिर हम तीसरे सूत्र में प्रवेश करें...छोड़ दें बिल्कुल शरीर को, जो होता है होने दें, जो होता है होने दें... शरीर हंसता है, हंसने दें; रोता है, रोने दें; चिल्लाता है, चिल्लाने दें; नाचता है, नाचने दें; शरीर की कोई भी क्रिया में बाधा न डालें, होने दें...छोड़ दें, छोड़ दें, छोड़ दें...शरीर जब अपने से काम करने लगेगा तब भीतर साफ दिखाई पड़ेगा..मैं अलग, शरीर अलग; मैं भिन्न, शरीर भिन्न...छोड़ें, छोड़ें...
और दर्शक कृपा करें, भीतर न प्रवेश करें, बाहर खड़े होकर देखते रहें।
छोड़ दें, छोड़ दें, छोड़ दें, छोड़ दें...पूरी तरह छोड़ें, अन्यथा चूक जाएंगे। कुछ मित्र एकदम छोड़े हुए हैं, कुछ अपने को रोके हुए हैं, रोकें नहीं, छोड़ दें, जो भी होता है होने दें...ठीक है, ठीक है, छोड़ें, बिल्कुल छोड़ दें, बिल्कुल छोड़ दें, बिल्कुल छोड़ दें...
तीन मिनट बचे हैं, पूरी तरह छोड़ें...शरीर डोलने लगे, नाचने लगे, रोने लगे, हंसने लगे, शरीर जो भी करता है करने दें, शरीर जो भी करता है करने दें, शरीर को बिल्कुल छोड़ दें...
देखें बात न करें आप, चुपचाप खड़े होकर देखते रहें।
छोड़ दें, शरीर जो करता है करने दें, शरीर जो करता है करने दें...रोकें नहीं और किसी का संकोच न लें, ये सब देखने वाले कोई भी साथी नहीं हैं, उन्हें देखने दें, उनका संकोच आप न लें...
और कृपा कर कोई बीच में न आए!
छोड़ दें, छोड़ दें, दो मिनट बचे हैं, छोड़ें, फिर हम तीसरे सूत्र में प्रवेश करें...छोड़ दें, बिल्कुल छोड़ दें, शरीर को छोड़ दें, जो हो रहा है होने दें, शरीर को जो हो रहा है होने दें...छोड़ दें, छोड़ दें, छोड़ दें, बिल्कुल छोड़ दें, शरीर जो कर रहा है करने दें, भीतर साफ दिखाई पड़ेगा..शरीर अलग, मैं अलग...
आप बात न करें, इतनी कृपा करें, चुपचाप खड़े रहें। चुपचाप खड़े रहें कम से कम, बात न करें, चुपचाप खड़े रहें। और दर्शक कोई बीच में न आएं, इतनी नासमझी न करें। देख रहे हैं, यही काफी नासमझी है; करते तो समझदारी होती। तो देखते रहें, बाहर खड़े रहें।
छोड़ें, एक मिनट बचा है, पूरी तरह छोड़ दें, शरीर जो करता है करने दें, फिर हम तीसरे सूत्र में प्रवेश करेंगे...छोड़ें, छोड़ें, शरीर को बिल्कुल छोड़ दें, हंसता है, रोता है, नाचता है, जो करता है करने दें...छोड़ें, छोड़ें, बिल्कुल छोड़ दें, जरा भी रोकें नहीं...मैं एक दो तीन कहूंगा, आप छोड़ें...
एक! छोड़ें पूरी तरह। दो! छोड़ दें। तीन! छोड़ दें, जो भी हो रहा है होने दें...छोड़ दें, छोड़ दें, जो भी हो रहा है होने दें...छोड़ दें, शरीर को बिल्कुल ढीला छोड़ दें...छोड़ दें, शरीर को बिल्कुल ढीला छोड़ दें...छोड़ दें...

अब तीसरे सूत्र में प्रवेश करना है, श्वास जारी रहेगी, शरीर की गति जारी रहेगी। अपने भीतर दस मिनट तक पूछना है..मैं कौन हूं? पूरी ताकत लगानी है कि मन थक जाए, मन के भीतर पूछें..मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मन के भीतर ही पूछें..मैं कौन हूं? और शक्ति पूरी लगा दें।
देखें, दर्शक भीतर न आएं। सब पढ़े-लिखे लोग हैं, आपको कहना नहीं चाहिए। बाहर रहें, दर्शक बाहर रहें, दूर से देखते रहें।
मैं कौन हूं? दस मिनट मन की पूरी ताकत भीतर लगा देनी है। श्वास से अलग हम हुए, शरीर से हम अलग हुए। मैं कौन हूं? दस मिनट तक तेजी से पूछें, मन से भी अलग हो जाएंगे। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ... श्वास जारी रहेगी, शरीर कंपता रहेगा, भीतर पूछें..मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...अपनी पूरी ताकत भीतर लगा दें..मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...कोई फिकर नहीं, पूरी ताकत लगाएं दस मिनट, फिर हम विश्राम करेंगे, दस मिनट अपने को थका लें, जो जितना थक जाएगा...
कितने पागल लोग हो, तुमसे कह रहे हैं कि बाहर रहो!
मैं कौन हूं? ...पूरी ताकत लगा दें, जितना थक जाएंगे उतनी शांति में प्रवेश हो सकेगा, दस मिनट के बाद फिर हम शांत हो जाएंगे...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...पूरी ताकत लगा दें..मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...पूरी ताकत लगा दें..मैं कौन हूं? पूछें अपने भीतर..मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...शरीर को घूमने दें, श्वास को तेज रहने दें, भीतर पूछें..मैं कौन हूं? ...
एक पांच मिनट की बात है, पूरी ताकत लगा दें..मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...कोई की फिकर न करें, अपनी फिकर करें..मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...थका डालना है बिल्कुल पांच मिनट में, ताकि हम गहरी शांति में जा सकें...मैं कौन हूं? ...थका डालें, थका डालें...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...
कितने नासमझ हो लड़के बिल्कुल तुम, बाहर निकलो!
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...पूरी ताकत लगा दें, पांच मिनट के लिए पूरी ताकत लगा दें...मैं कौन हूं? ...शरीर नाचे, नाचने दें; रोए, रोने दें; हंसे, हंसने दें...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ... बिल्कुल पागल हो जाएं, पूछें..मैं कौन हूं? एक तूफान उठा दें भीतर..मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...
बिल्कुल पागल हो जाएं, सब भूल जाएं, एक ही सवाल रह जाए..मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...पूरी ताकत लगा दें..मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...बिल्कुल तूफान उठा दें, जितना बड़ा तूफान, उतनी बड़ी शांति में जाना हो सकेगा, इस मौके को न चूकें, पूरी ताकत लगा दें...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं...तीन मिनट बचे हैं, ताकत बढ़ाएं...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...बिल्कुल पागल हो जाएं, अपने भीतर पूरी तरह पूछें..मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...पूरी ताकत लगा दें, दो मिनट बचे हैं, फिर हम विश्राम करेंगे...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...दो मिनट, पूरी ताकत लगा दें, बिल्कुल पागल हो जाएं... मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...
देखें, भीतर कोई प्रवेश न करे!
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...थका डालें, अपने को बिल्कुल थका डालें, सारी ताकत लगा दें, एक मिनट और बचा है, पूरी ताकत लगा दें, बिल्कुल पागल हो जाएं, अपने को बचाएं नहीं, पूरी ताकत लगा दें...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...
एक! पूरी ताकत लगाएं। दो! पूरी ताकत लगाएं। तीन! पूरी ताकत लगा दें। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ...

अब छोड़ दें, अब विश्राम में चले जाएं। अब दस मिनट के लिए सब छोड़ दें, शरीर को भी छोड़ दें, श्वास को भी छोड़ दें, पूछना भी छोड़ दें, दस मिनट के लिए बिल्कुल जैसे मुर्दा हो गए।
और देखें, दर्शक अब कम से कम दस मिनट कोई बात न करें। दस मिनट, दर्शक कम से कम दस मिनट अब चुप हो जाएं।
बिल्कुल दस मिनट के लिए जैसे मिट गए, समाप्त हो गए, जैसे मर गए, जैसे हैं ही नहीं। खड़े रहते बने, खड़े रहें; गिरने का भाव हो, लेट जाएं, बैठ जाएं। दस मिनट के लिए सब समाप्त हो गया, दस मिनट के लिए सब समाप्त हो गया, जैसे मिट ही गए, समाप्त ही हो गए, सब शून्य हो गया।
भीतर देखते रहें, भीतर देखते रहें, भीतर बहुत कुछ होगा, उसे देखते रहें...शरीर और आत्मा बिल्कुल अलग दिखाई पड़ेंगे, भीतर देखते रहें... भीतर प्रकाश ही प्रकाश भर जाएगा...
देखें, दर्शक जरा चुप रह जाएं। आश्चर्यजनक बात है! एक दस मिनट आप चुप रह जाएं या बात करनी हो तो चले जाएं।
भीतर प्रकाश ही प्रकाश शेष रह जाएगा और हृदय से आनंद की धारा उठने लगेगी...भीतर देखें, भीतर अनुभव करें, प्रकाश ही प्रकाश, आनंद ही आनंद, शांति ही शांति, सब मौन हो गया, तूफान जा चुका और गहरी शांति रह गई। इसी शांति में परमात्मा की अनुभूति शुरू होती है, इसी आनंद में प्रभु का द्वार खुलता है, इसी प्रकाश में उसका मार्ग दिखाई पड़ता है...भीतर देखें, भीतर देखें, भीतर देखें, प्रकाश ही प्रकाश, आनंद ही आनंद, शांति ही शांति रह गई है...भीतर देखें, भीतर देखें, भीतर जो भी हो रहा है उसे देखें...प्रकाश ही प्रकाश, शांति ही शांति, आनंद ही आनंद...भीतर देखें, भीतर देखें, यह मौका न चूकें, भीतर ठीक से पहचान लें..यह क्या हो रहा है...
सब मिट गया, सब शांत हो गया...भीतर देखें, भीतर देखें, आनंद ही आनंद, शांति ही शांति, प्रकाश ही प्रकाश...भीतर देखें, भीतर देखें...भीतर, भीतर, बहुत सुना है भीतर क्या है, मौका आया उसे देखें...प्रकाश ही प्रकाश, आनंद ही आनंद, शांति ही शांति...इसी प्रकाश में उसका द्वार दिखाई पड़ेगा, इसी शांति में उसका मार्ग मिलेगा, इसी आनंद में नाचते हुए उसके भीतर प्रवेश हो जाएगा...भीतर देखें, भीतर देखें, इसी आनंद में नाचते हुए उसके मंदिर में प्रवेश हो जाता है...भीतर देखें, भीतर देखें...
मिट गए हैं, समाप्त हो गए हैं, वही शेष रह गया है। आप तो मिट गए, आप तो खो गए, वही शेष रह गया है...भीतर, और भीतर...शांति ही शांति, आनंद ही आनंद, प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया...मिट गए, समाप्त हो गए, बूंद खो गई सागर में, अनंत शांति शेष रह गई है, असीम प्रकाश शेष रह गया है, अनंत आनंद शेष रह गया है...यही है द्वार उसका, यही है द्वार उसका, ठीक से पहचान लें भीतर...बाहर उसका कोई द्वार नहीं, बाहर उसका कोई मंदिर नहीं...यही है मंदिर उसका, यही है द्वार उसका, ठीक से पहचान लें...शांति ही शांति रह गई, आनंद ही आनंद रह गया, प्रकाश ही प्रकाश रह गया...

अब धीरे-धीरे आंख खोल लें। आंख न खुले तो दोनों हाथ आंख पर रखें और आहिस्ता से आंख खोलें। जो खड़े हैं वे दो-चार गहरी श्वास लेकर धीरे-धीरे बैठ जाएं। जो लेट गए हैं, गिर गए हैं, वे दो-चार गहरी श्वास लें और धीरे-धीरे उठ कर बैठ जाएं। कोई जल्दी न करें, बहुत आहिस्ता से करें, धीरे-धीरे। आंख न खुले तो पहले आंख पर हाथ रखें, बैठते न बने तो पहले दो-चार गहरी श्वास लें, उठते न बने तो पहले दो-चार गहरी श्वास लें। धीरे-धीरे बैठ जाएं, दो-चार बातें आपसे कहनी हैं वह कह दूं, फिर हमारी बैठक पूरी हो जाएगी।
जो पड़े हैं वे दो-चार गहरी श्वास लें, फिर धीरे-धीरे उठें। जो गिर गए हैं वे दो-चार गहरी श्वास लें, फिर धीरे-धीरे उठें। जो खड़े हैं वे भी दो-चार गहरी श्वास लें, फिर धीरे-धीरे बैठ जाएं। दो-चार गहरी श्वास लें, फिर धीरे-धीरे बैठ जाएं। जो पड़े हैं वे दो-चार गहरी श्वास लें, फिर धीरे-धीरे उठ आएं। दो-चार गहरी श्वास ले लें, श्वास लेकर आंख खोल लें, फिर बैठ जाएं, दो-चार गहरी श्वास ले लें, फिर आहिस्ता से बैठ जाएं।
दो-चार बातें आपसे कहनी हैं।
एक तो कल सुबह हम ध्यान का प्रयोग न कर सकेंगे, क्योंकि दर्शक इतनी भीड़-भाड़ करें, भीतर प्रवेश करें, तो संभव नहीं है। और अगली बार जब यहां ध्यान का प्रयोग हो तो जो लोग ध्यान में उत्सुक हैं, वे अपने नाम अभी से जीवन जागृति केंद्र को दे दें, ताकि उनको पास मिल सके, वे ही लोग भीतर प्रवेश कर सकें। कल ध्यान का प्रयोग सुबह नहीं होगा, सुबह चर्चा ही होगी, ध्यान के संबंध में जो आप पूछेंगे उसकी मैं बात कर लूंगा।
दूसरी बात, जिनको कुछ भी हुआ हो, और बहुत मित्रों को बहुत कुछ हुआ, कल से भी ज्यादा आपने मेहनत ली। वह तो दुर्भाग्य आपका कि आपका गांव बहुत नासमझ है, अन्यथा कल गति और आगे जा सकती थी, वह नहीं संभव हो पाएगा। जिन मित्रों को कुछ भी हुआ हो वे आज तीन से चार के बीच मुझसे आकर मिल लें, और उन्हें कुछ और आगे गति के लिए समझना हो तो समझ लें। लेकिन जो भी आपको हुआ हो उसकी बात किसी और से आप मत करना, वे नहीं समझ सकेंगे कि आपको क्या हुआ। आप मुझसे बात कर लें और प्रयोग को जारी रखें।
यह प्रयोग अगर तीन सप्ताह आपने किया तो आपकी जिंदगी में कुछ नया शुरू हो जाएगा। जिन्होंने कल ठीक से किया है उनके लिए कल से भी शुरू हुआ। जिन्होंने आज ठीक किया है उनके लिए आज से भी शुरू हुआ। और अगर तीन सप्ताह आपने किया तो फिर आप छोड़ न सकेंगे। घर में इसे कैसे करेंगे, वह मैं आपको समझा दूं। कमरे को बंद कर लें, छोटा कमरा बंद कर लें, सब द्वार-दरवाजे बंद कर दें। और संभव हो सके तो सारे वस्त्र अलग कर दें। वस्त्रों के कारण शरीर को पूरी गति लेने में बाधा पड़ती है। एक बिस्तर नीचे बिछा लें और उस पर खड़े हो जाएं। बैठ कर प्रयोग न करें, लेट कर न करें। जब प्रयोग आपको तीन सप्ताह में पूरा होने लगे, फिर आप बैठ कर, लेट कर, कैसे भी कर सकते हैं, लेकिन अभी खड़े होकर ही करें। खड़े हो जाएं, आंख बंद कर लें, घड़ी में अलार्म भर दें या घर में किसी को कह दें कि घंटा पूरा होने पर दरवाजा खटखटा दे। और घर के लोगों को कह दें कि रोने की आवाज आए, हंसने की आवाज आए, चिल्लाना आए, तो कोई चिंता नहीं करेगा, कोई दरवाजा नहीं खोलने की कोशिश करेगा। और स्नान करने के बाद ही करें, और करने के पहले पेट में कुछ न डालें तो ठीक होगा, अन्यथा वॅामिट हो सकती है। शरीर बहुत जोर से मूव करे तो जो आपने खाया-पीया है वह फिंक सकता है। इसलिए सुबह सबसे अच्छा है, खाली पेट करें। और रात अगर करना हो तो कम से कम खाने के तीन घंटे बाद करें या खाना फिर बाद में लें, इतना ख्याल रखें और तीन सप्ताह प्रयोग करें।
इस प्रयोग से किसी को भी कुछ पूछने जैसा लगे तो मुझे लिख कर पूछ ले सकता है। यह प्रयोग अदभुत है और यह प्रयोग आपके शरीर की न मालूम कितनी बीमारियों को विदा कर देगा, न मालूम कितनी बीमारियां आपके शरीर की अचानक समाप्त हो जाएंगी..जैसे जल गईं आग में। यह आपके मन के न मालूम कितने रोगों को ऐसे हटा देगा जैसे वे कभी थे नहीं। यह आपके चरित्र में सात दिन के भीतर परिवर्तन लाना शुरू करेगा, नहीं कहता सात साल! सात दिन के भीतर आपको फर्क दिखाई पड़ने लगेगा..जहां क्रोध आता था वहां क्रोध मुश्किल हो जाएगा, जहां झगड़े की वृत्ति थी वहां मैत्री की वृत्ति हो जाएगी, और जो जिंदगी के काम आपको बोझ मालूम पड़ते थे वे बोझ नहीं रह जाएंगे। और यह संसार आपको संसार नहीं, यह संसार आपको बहुत नई आंख से दिखाई पड़ने लगेगा। संसार और परमात्मा दो नहीं हैं, सिर्फ दो तरह की आंखें हैं। बीमार आंख संसार देखती है, स्वस्थ आंख परमात्मा को देखने लगती है, सिर्फ देखने के दो ढंग हैं। एक सात दिन मेरी मान कर करें, फिर आप छोड़ न सकेंगे। इक्कीस दिन मेहनत से करें, उसके बाद आपको करने के लिए मेहनत नहीं लगानी पड़ेगी, बल्कि आप ऐसे ही बैठेंगे द्वार बंद करके तो हो जाएगा।
परमात्मा करे आप सफल हो सकें, परमात्मा करे आप साहस कर सकें, परमात्मा करे आप संकल्प कर सकें।
हमारी सुबह की बैठक पूरी हुई।  

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