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शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(ओशो)

क्या मनुष्य एक रोग है?

मेरे प्रिय आत्मन्!
क्या मनुष्य एक रोग है? इ.ज मैन ए डि.जी.ज? इस संबंध में सबसे पहले जो बात मैं आपसे कहना चाहूं, मनुष्य अपने आप में तो रोग नहीं है, लेकिन मनुष्य जैसा हो गया है वैसा जरूर रोग हो गया है। अपने आप में तो इस जगत में सभी चीजें स्वस्थ हैं लेकिन जो भी स्वस्थ है उसे रुग्ण होने की संभावना है। जो भी स्वस्थ है वह बीमार हो सकता है। जीवित होने के साथ दोनों ही मार्ग खुले हुए हैं। सिर्फ मरा हुआ ही व्यक्ति बीमारी के भय के बाहर हो सकता है जिंदा व्यक्ति का अर्थ ही यही है कि वह बीमार हो सकता है इसकी पासिबिलिटी है, इसकी संभावना है। और मनुष्य बीमार हो गया है।

मनुष्य का पूरा इतिहास उसकी बीमारियों का इतिहास है। और मनुष्य की पूरी सभ्यता उसकी बीमारियों को छिपाने का प्रयास है। मनुष्य किसी भांति जी लेता है लेकिन जीने का नाम जिंदगी नहीं है। और हम किसी भांति जन्म से लेकर मृत्यु की यात्रा कर लेते हैं इसलिए अपने को जीवित समझ लेना काफी नहीं है।


मैंने सुना है, एक आदमी मरा और तभी उसे पता चला कि वह जीवित था। बहुत लोगों को मरने के क्षण में ही पता चलता है कि जीवन हाथ से निकल गया है। जीवन का सीधा कोई अनुभव ही नहीं होता। जैसा मनुष्य है रुग्ण, अस्वस्थ, तनाव से भरा हुआ। उसमें जीवन का अनुभव हो भी नहीं सकता है। लुइस...ने एक किताब लिखी है नाम उसका बहुत प्यारा है नाम है बी ग्लैड दैट यू आर न्यूरोटिक। प्रसन्न हों कि आप मानसिक रूप से बीमार हैं। मजाक उसकी गहरी है। कहना वह यह चाह रहा है कि इसलिए प्रसन्न हों क्योंकि मानसिक रूप से बीमार होना बहुमत में होना है, मैजारिटी में होना है। अधिक लोग मानसिक रूप से बीमार हैं। और...का खयाल है कि जैसे-जैसे आदमी आगे बढ़ रहा है, मानसिक बीमारी बढ़ रही है। और बहुत जल्द वह वक्त आ जाएगा जब मानसिक रूप से जो बीमार नहीं होगा उसकी गिनती नार्मल में नहीं हो सकेगी।
इसलिए वे लोग जो मानसिक रूप से बीमार हैं, उन्हें प्रसन्न होना चाहिए। क्योंकि मनुष्य की भविष्यता के वे साथ हैं। मनुष्य का भविष्य पागलों और बीमारों का ही भविष्य है। शायद बहुत जल्दी वह वक्त आ जाए कि हमें पागल लोगों के लिए पागलखाने न बनाने पड़ें बल्कि जो लोग पागल होने से बच जाएं उनकी रक्षा के लिए हम इंतजाम करना पड़े और अलग उनके ठहरने की व्यवस्था करनी पड़े। जिसे हम सामान्य रूप से स्वस्थ आदमी कहते हैं उसका केवल इतना ही मतलब होता है कि जितने सब लोग बीमार हैं मानसिक रूप से वह उतना ही बीमार है, उनसे ज्यादा नहीं। मानसिक रूप से विक्षिप्त और साधारण रूप से स्वस्थ आदमी में जो अंतर है, वह अंतर गुण का नहीं केवल मात्रा का है। वह केवल डिग्रीज का ही अंतर है। जैसे निन्यानबे डिग्री पर पानी गरम होता है, लेकिन भाप नहीं बनता। सौ डिग्री पर भाप हो जाता है। लेकिन सौ डिग्री गरम पानी में और निन्यानबे डिग्री गरम पानी में कोई गुण का भेद नहीं है। कोई क्वालिटेटिव फर्क नहीं है। जो फर्क है वह केवल डिग्रीज का है। एक डिग्री और, और पानी भाप बन जाएगा।
जिन्हें हम साधारण रूप से स्वस्थ लोग कहते हैं, उनमें और मानसिक रूप से बीमार आदमी में जो फर्क है वह डिग्री का ही है। एक डिग्री और, और कोई भी आदमी पागल हो सकता है।
विलियम जेम्स एक बड़ा मनोवैज्ञानिक था। जिंदगी भर उसने लोगों के मन के संबंध में विचार किया। मरने के कोई बीस वर्ष पहले वह एक पागलखाने को देखने गया। और पागलखाने से लौट कर एकदम उदास, परेशान सा हो गया। उसके मित्रों ने बहुत पूछा कि इतनी उदासी की क्या बात है? तो विलियम जेम्स ने कहा कि मैं इसलिए उदास हो गया हूं कि पागलखाने में पागलों को देख कर और अपने को देख कर। मुझे कोई बहुत बुनियादी फर्क नहीं मालूम होता। थोड़ा बहुत फर्क है लेकिन मैं निश्चित नहीं हो सकता हूं अब कि वह फर्क किसी भी दिन समाप्त हो जाए।
उसके मित्रों ने समझाया कि तुम पागल नहीं हो, तुम क्यों पागलपन में पड़ते हो। विलियम जेम्स ने कहा कि जिन लोगों को मैं देख कर आया हूं वे भी कल तक पागल नहीं थे और आज पागल हो गए हैं। मैं आज तक पागल नहीं हूं लेकिन कल पागल हो सकता हूं। क्योंकि जैसा मैं आदमी हूं ठीक ऐसे ही आदमी वे लोग भी कल तक थे जो आज पागल हो गए हैं। जो उनके भीतर चल रहा था वह मेरे भीतर भी चल रहा है। जो फर्क है वह इतना ही है कि जो मेरे भीतर चल रहा है वह उनके बाहर भी आना शुरू हो गया है। अगर आप आंख बंद करके दस मिनट के लिए अपने भीतर देखें तो ये सवाल बहुत अजीब नहीं मालूम पड़ेगा कि क्या आदमी एक बीमारी है? अगर दस मिनट कोई मौन होकर अपने भीतर झांके तो उसे पता चलेगा कि जिन-जिन बातों के लिए वह किसी को भी पागल कहेगा वे उसके भीतर मौजूद हैं और चल रही हैं। अगर आप द्वार बंद कर लें और एक कागज पर आपके मन में जो चलता हो उसे लिख डालें ईमानदारी से हालांकि हम दूसरों के साथ चाहे ईमानदार हो जाते हों अपने साथ ईमानदार होने वाले लोग बहुत कम हैं। ईमानदारी से लिख डालें जो आपके मन के भीतर चलता हो, तो अपने निकटतम मित्र को भी वह कागज बताना पसंद न करेंगे। क्योंकि आपको खुद ही हैरानी होगी कि यह सब मेरे भीतर चलता है, तो फिर मुझमें और पागल में अंतर क्या है?
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि शायद ही ऐसा आदमी खोजने से मिले जिसने जिंदगी में दो-चार बार आत्महत्या करने का विचार न किया हो। शायद ही ऐसा आदमी खोजने से मिले जिसने कभी किसी क्षण में किसी दूसरे की हत्या का विचार न किया हो। शायद ही ऐसा आदमी खोजने से मिले कि जिन बातों को हम पागलपन कहते हैं, अपराध कहते हैं, पाप कहते हैं, इन सब बातों को किसी न किसी क्षण में अपने मन में उसने न कर लिया हो। यह बात दूसरी है कि वह बाहर तक उन बातों को लाने की हिम्मत न जुटा पाया हो लेकिन इससे कोई बहुत बुनियादी फर्क नहीं पड़ता है।
कामू ने अपने बहुत प्रसिद्ध ग्रंथ की शुरुआत इस बात से की है कि जहां तक मैं समझता हंू, कामू ने कहा है, आदमी की जिंदगी में सबसे बड़ा सवाल आत्महत्या है, सुसाइड है। और कामू का खयाल है जो लोग भी बुद्धिमान हैं उनकी जिंदगी में आत्महत्या का विचार आता ही है। जिस आदमी को हम मानसिक रूप से रुग्ण और बीमार कहते हैं इस आदमी में और हम में कोई बहुत बुनियादी फर्क है। हालांकि हमें डर लगेगा यह बात सोचने में क्योंकि यह बात सोचना भी बहुत भयकारी है कि हमारे बीच और पागल के बीच कोई फर्क नहीं है।
दूसरे महायुद्ध में जितने लोग युद्ध में मरे उससे ज्यादा लोग सड़कों पर कारों के एक्सीडेंट में मरे। और अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि कार एक्सीडेंटों में मरने वाले साठ से अस्सी प्रतिशत लोग बेकार ही मर जाते हैं। वे चलाने वालों के पागलपन की वजह से मर जाते हैं।
हिटलर और फेसिस्ट मिल कर जितने लोगों को मार सके हैं उतने लोगों को साधारण लोग अपनी भीतरी विक्षिप्तता को एक्सीलेरेटर पर दबा कर मार डालते हैं। आपको भी खयाल होगा अगर आप क्रोध में हैं तो एक्सीलेरेटर जोर से दबने लगता है, साइकिल का पैडल जोर से चलने लगता है। आपके भीतर के रोग किन्हीं-किन्हीं रास्तों से निकलना शुरू कर देते हैं। साठ से लेकर अस्सी प्रतिशत अगर सड़क पर मरने वाले हमारे पागलपन के शिकार हैं तो जिन लोगों को हमने पागलखानों में बंद किया है उनके साथ शायद हम ज्यादती कर रहे हैं, और अन्याय कर रहे हैं।
यह जो आदमी है हमारा इस आदमी की तरफ अगर गौर से देखें तो न तो इस आदमी की जिंदगी में कोई खुशी है, न कोई आनंद है न कोई नृत्य है न कोई गीत है। इस आदमी की जिंदगी उदास मरुस्थल है। जिसमें फूल कभी खिलते हुए मालूम नहीं पड़ते। हां सिर्फ फूल के सपने चलते हैं। भविष्य में मालूम होते हैं फूल खिलते हुए। आज की उदासी को हम कल के फूलों के लिए झेल लेते हैं। और आज की मुसीबत को हम भविष्य की सुख और सुविधा के लिए बसदाश्त कर लेते हैं। लेकिन वह भविष्य कभी आता हुआ नहीं मालूम पड़ता है, कभी आता नहीं दिखाई पड़ता। क्योंकि जिनकी जिंदगी में वर्तमान में फूल नहीं खिलते उनकी जिंदगी में कभी भी फूल नहीं खिल सकते। हां लेकिन एक सुविधा हो जाती है हम कल की आशा में आज को जी लेते हैं। आज के आंसू हम झेल लेते हैं कल की मुस्कुराहट की आशा में। नहीं, आप कहेंगे हम आज भी मुस्कुराते हैं। लोग सब जगह मुस्कुराते हुए दिखाई पड़ते हैं। लेकिन जितनी ही लोगों की मुस्कुराहट में गहरा झांका जाए उतनी ही हैरानी होती है। मुस्कुराहटें ऊपर से चिपकाई हुई और झूठी हैं। नीत्शे निरंतर हंसता रहता था और किसी ने नीत्शे से पूछा कि तुम इतने खुश हो, तुम्हें कौन सी खुशी का खजाना मिल गया है? नीत्शे ने कहाः यह मत पूछो क्योंकि जैसा मैं अपने को जानता हूं उसमें हंसने का कारण खुशी नहीं है उसमें हंसने का कुल कारण इतना है कि अगर मैं न हंसूं तो सिवाय रोने के मेरे पास कुछ बचेगा नहीं। मैं हंसता रहता हूं ताकि रोने को छिपा सकूं। मैं हंसता रहता हूं कि कहीं रोने न लगूं।
अगर आप भी अपने से पूछेंगे कि आपकी हंसी कहीं रोने को छिपाने का उपाय तो नहीं है? और जब आप रास्ते पर किसी से कहते हैं कि बहुत ठीक हूं और उस बहुत ठीक के पीछे आई मुस्कुराहट सिर्फ आपको छिपाती है या उघाड़ती है या प्रकट करती है।
अभी मैं पढ़ रहा था एक मनोवैज्ञानिक ने पागल की परिभाषा में बहुत अजीब बात कही है उसने कहा है, पागल मैं उस आदमी को कहता हूं कि जो अगर दुखी होता है तो कह देता है कि मैं दुखी हूं, परेशान होता है तो कह देता है कि मैं परेशान हूं और रोता होता है तो रो देता है।
तब तो मैं बहुत हैरान हुआ! अगर पागल आदमी की ये परिभाषा है कि अगर वह दुखी हो कि कह दे कि मैं दुखी हूं और रोता हो तो रोने लगे तो फिर जिसको हम स्वस्थ आदमी कहते हैं वह क्या एक धोखा है, एक डिसेप्शन है? ऐसा मालूम पड़ता है कि जिसे हम स्वस्थ आदमी कह रहे हैं वह एक धोखा है। खेत में आपने धोखे के आदमी खड़े हुए देखे हैं। गांव के किसान हंडी को लटका कर कुर्ता लटका देते हैं लकड़ियों में। आदमी, कामचलाऊ आदमी पैदा हो जाता है। पक्षियों को डराने के लिए काफी होता है, खुद के लिए काफी नहीं होता खुद के लिए होता ही नहीं, सिर्फ दूसरों के लिए होता है। शायद आपने भी खेत में खड़े हुए झूठे आदमी को देखा होगा? उसकी जिंदगी दूसरों के लिए है, खुद के लिए उसकी कोई जिंदगी नहीं है। और अगर बहुत गौर से हम अपनी तरफ देखें तो हममें से शायद ही ऐसा आदमी होगा जिसने अपने लिए जिंदा रहना शुरू कर दिया हो। आमतौर से हम भी दूसरे के लिए जीते हैं। किसी दूसरे के लिए हंसते हैं और किसी दूसरे के लिए मुस्कुराते हैं और किसी दूसरे के लिए खुश मालूम होते हैं और किसी दूसरे के लिए रोते हुए मालूम होते हैं और धीरे-धीरे जिंदगी दूसरे के लिए जी जाकर समाप्त हो जाती है। लेकिन जो जिंदगी सिर्फ दूसरों को दिखाने के लिए जी गई हो वह एक अभिनय हो सकती है, एक एक्टिंग हो सकती है एक जिंदगी नहीं हो सकती। और जो जिंदगी अभिनय हो, सत्तर वर्ष का लंबा अभिनय वह अगर विक्षिप्त और पागल और डिजीज्ड हो जाए तो आश्चर्य नहीं है। हम इतने डर भी गये हैं अपनी जिंदगी जीने से और अपने को पहचानने से जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। हम सब डरे हुए लोग हैं। और हमारा धर्म और हमारा समाज और हमारी नीति और हमारा शिष्टाचार हम सब भयभीत लोगों के इंतजाम हैं भय को कम करने के । जैसे कि कोई आदमी अंधेरी गली में जाता है तो सीटी बजाने लगता है हालांकि उसके सीटी बजाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। अंधेरा कम नहीं होता और न उस अंधियारे में कोई भय की कमी होती है। लेकिन खुद सीटी बजा कर आत्मविश्वास बढ़ता हुआ मालूम होता है। आदमी अकेले में सीटी बजा कर अपने को ही धोखा दे लेता है। हम इस जिंदगी के रास्ते पर न मालूम कितने-कितने ढंगों से अपने को धोखा दे रहे हैं।
इस धोखे को मैं बीमारी कहता हूं। और जब तक आदमी इस तरह के सेल्फ डिसेप्शन में और आत्मवंचना में जीएगा तब तक आदमी स्वस्थ नहीं हो सकता है। और इस आत्मवंचना का कुल परिणाम इतना होता है कि हमारी कोई समस्या समाप्त नहीं होती। बल्कि हर हमारी समस्या के लिए खोजा गया समाधान दस नई समस्याओं को पैदा कर जाता है। जहां सारे लोग धोखे में जी रहे हों वहां अगर धोखे का एक जाल फैल जाए और उस धोखे के जाल में हर आदमी इस बुरी तरह फंस जाए कि उसे निकलना मुश्किल हो जाए या निकलने की कोशिश करे तो उसे नये जाल बनाने पड़ें और उनमें फंसता चला जाए और फिर एक विसियस सर्किल पूरी जिंदगी को लेकर डूब जाता है और आदमी जैसे था या नहीं था बराबर मालूम होता है।
इस विक्षिप्त स्थिति के लिए कौन जिम्मेवार है? और इस विक्षिप्त स्थिति के पैदा होने के कारण क्या हैं? हमारे अतिरिक्त और कोई जिम्मेवार नहीं है। और कारण भी हमने पैदा किए हैं। और बचपन से हम हर बच्चे के दिमाग में वे सब कारणों के बीज बो देते हैं जो उन्हें पागल कर देंगे। जिस भांति हमें हमारी पुरानी पीढ़ियां पागल कर गई होती हैं हम अपनी नई पीढ़ियों को पागल करते चले जाते हैं। अगर पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी को वसीयत में सबसे बड़ी कोई चीज मिलती है तो वह सदा से चला आया हुआ पागलपन मिलता है। न मालूम कितने झूठ जिनको हमने सच बना रखा है और न मालूम कितने सच हैं जिन्हें हमने झूठ बना रखा है। जहां दरवाजे नहीं हैं वहां हम दरवाजे समझाते हैं और जहां दीवालें हैं वहां हम दरवाजे बताते हैं। हमने सारी जिंदगी के आधार बचपन से इतने बड़े झूठों पर रखे हैं कि एक दिन फिर सच के दर्शन होने बंद हो जाते हैं। और अगर बचपन से ही अंधेरे को प्रकाश समझाया जाता हो और प्रकाश को देखने में भय बताया जाता हो तो बहुत आश्चर्य नहीं है कि आंखें बंद हो जाएं।
मैंने सुना है कि एक टैक्सी ड्राइवर शायद नया-नया ही टैक्सी चलाने निकला होगा। उसके चाल-ढाल को उसके ढंग को, उसकी भाग-दौड़ को देख कर उसके बैठे यात्री ने उस ड्राइवर से कहा कि कम से कम मोड़ पर तो थोड़ा सम्हल कर चलाओ। उस टैक्सी ड्राइवर ने कहा, घबड़ाएं मत, जो तरकीब मैं अख्तियार करता हूं वही आप भी करें। उस यात्री ने पूछा, वह क्या तरकीब है? उसने कहा, जब मोड़ आता है तो मैं आंख बंद कर लेता हूं। न उपद्रव दिखाई पड़ेगा न कोई डर रहेगा। जो तरकीब मैं काम में ला रहा हूं वो ही आप भी काम में लाएं। और जब आप घबड़ाने लगें तो आंख बंद कर लें।
यह हमें हंसने की बात मालूम पड़ती है लेकिन मनुष्य की पूरी जाति इसी तरकीब को काम में ला रही है। जहां-जहां जिंदगी के खतरे हैं वहां-वहां आंख बंद कर लेना हमारी तरकीब है, इंतजाम है। और हर बच्चे को हम इस तरह की व्यवस्था देते हैं कि उसके पास आंख भी रहें और वह अंधा भी हो जाए। आंखें कामचलाऊ रह जाती हैं, अंधापन बहुत गहरा हो जाता है। फिर पागल होना बिलकुल स्वाभाविक हो जाता है। ऐसे कुछ थोड़े से सूत्रों की मैं आपसे बात करूं जिनमें आदमी को एक डिसी.ज बना दिया है।
पहली तो बात ये कि न जाने किस दुर्भाग्य के क्षण में आदमी के ऊपर दुखवादियों का प्रभाव भारी रूप से पड़ गया है। नामालूम किस क्षण में सुख लेना पाप मालूम होने लगा। हर बच्चे को हम सुख न ले पाए इसका पूरा इंतजाम करते हैं। और इस तरह की स्थिति पैदा कर देते हैं कि सुख लेते वक्त उसको गिल्ट अपराध मालूम पड़ने लगे।
अभी इजराइल में एक छोटा सा प्रयोग वे करते हैं बच्चों के ऊपर किबुत्स। और उस प्रयोग में उन्होंने जो निष्कर्ष निकाले हैं उसमें एक निष्कर्ष जरूर सोचने जैसा है। उसमें उनका कहना यह है कि जब तक हम मां-बाप से बच्चों को न छुड़ा सकें तब तक हम दुनिया को खुशी से नहीं भर सकते हैं। बहुत अजीब बात है! अगर मां-बाप से बच्चों को न छुड़ा सकें तब तक दुनिया को खुशी से न भर सकें तब तो एक बार सोचना पड़ेगा कि मां-बाप और बच्चों के बीच जो...चल रहा है वह कहां तक स्वस्थ है। मुझे भी लगता है कि उनके कहने में दूर तक सचाई है। उसके कारण भी हैं। जैसे-जैसे उम्र ढलती जाती है वैसे-वैसे आदमी उदास होता जाए यह स्वाभाविक है। और अब तक पूरी मनुष्यता के बच्चे बूढ़ों के हाथ पाले गए हैं। और बूढ़े अपनी उदासी बच्चों के ऊपर थोप जाएं इसमें बहुत हैरानी नहीं है। यह अजीब सी बात है कि नये बच्चे बूढ़ों के हाथ में पड़ते रहे हैं। बूढ़ों की जिंदगी जा चुकी है। शायद कभी आई ही न हो उनके हाथों में। लेकिन एक बात तय है कि अब उनके हाथों में जिंदगी नहीं है। सूरज उनका ढलता है, रात होने के करीब है। मौत करीब आने लगी। और मौत की काली छायाएं उनके मन पर प्रभाव करने लगी हैं। इन बूढ़ों के हाथ में बच्चों को पालने का मौका आता है स्वभावतः इनके बीच पचास साल, चालीस साल, साठ साल का भी अंतर हो सकता है। इतने बड़े अंतर पर आने वाले बच्चों को ठीक वैसी ही हालत मिलती है जैसे कुम्हलाते हुए फूलों को नई कलियों को शिक्षा देने का मौका मिल जाए। मरते हुए पौधे अंकुरित होते हुए पौधों के लिए संदेश दे जाएं। डूबता हुआ सूरज उगने वाले सूरज के लिए पत्र छोड़ जाए। जो खतरा होगा वही खतरा है। मनुष्य-जाति के साथ हो गया है। डूबता हुआ आदमी उगते हुए आदमियों के लिए अपने संदेश दे जाता है। बूढ़े बच्चों के लिए उदासी की खबरें छोड़ जाते हैं। मनुष्य-जाति के सारे धर्मग्रंथ बूढ़ों के द्वारा निर्मित हुए हैं। और मनुष्य-जाति की सारी शिक्षाएं वृद्धों ने तय की हैं। और मनुष्य-जाति का सारा का सारा विचारतंतु का जो जाल है वह डूबते हुए लोगों के द्वारा अस्तित्व में आया है। और आते हुए बच्चों के ऊपर थोप दिया जाता है। बच्चे नाचना चाहेंगे लेकिन बूढ़े अब नहीं नाचना चाहेंगे। और तब बूढ़ों की आंखें बच्चों के नाच को अपराध बना दें तो बहुत हैरानी नहीं है। बच्चे आनंदित होना चाहेंगे लेकिन बूढ़ों के लिए आनंदित होना मजाक मालूम होने लगेगा। बच्चे प्रसन्न होना चाहेंगे लेकिन बूढ़ों के लिए प्रसन्नता दुखद होती चली जाएगी। और तब अगर सारे बूढ़े मिल कर जिनके हाथ में समाज है राह है वे अगर बच्चों की खुशियां छीन लें या बच्चों के मन में ऐसा भाव डाल दें कि वे कोई अपराध कर रहे हैं, कोई पाप कर रहे हैं, कुछ बुरा कर रहे हैं, तो इसमें हैरानी नहीं है।
इसलिए हर पीढ़ी आने वाली पीढ़ी के मन में उदासी के बीज छोड़ जाती है। हर आने वाली पीढ़ी जन्म के साथ मृत्यु के बीज छोड़ जाती है। हर पुरानी पीढ़ी खुशी में जहर डाल जाती है। और खुशी को अपराध कर जाती है।
स्वभावतः इसके परिणाम खतरनाक होने वाले हैं। इसका एक खतरनाक परिणाम तो यह हुआ कि अगर मैं आनंद भोगने में असमर्थ हो जाऊं तो सिवाय दुख भोगने के और कोई उपाय नहीं रह जाएगा। और दुख भोगने के लिए मन कभी राजी नहीं होता। स्वभावतः दुख भोगने के लिए आदमी बना नहीं है। दुख भोगने के लिए हमारे मन में गहरा विरोध है। सुख भोगने के संबंध में अपराधी हो जाएंगे दुख भोगने का विरोध है फिर यह आदमी एक तनाव में एक इनर टेंशन में उलझ जाएगा, जिससे सुलझना मुश्किल है।
और जो आदमी एक बार ऐसा समझ ले कहीं भी भ्रांति से भी उसके मन में ये बात प्रवेश कर जाए कि सुख अपराध है वह आदमी दूसरों का सुख भी बरदाश्त नहीं कर सकेगा। इसलिए सब साधु-संतों ने मिल कर जिन लोगों को भी सुख की जरा सी भी चाह है उन्हें नरक में डाला हुआ है। जिनके जीवन में भी सुख की जरा सी आकांक्षा है उनको पापी घोषित कर दिया है। धर्मों ने एक अजीब बात घोषणा कर रखी है कि जो आदमी दुख झेलने को तैयार है वही आदमी धार्मिक है। और जो आदमी अपने हाथ से अपने को दुखी करने में बहुत तैयारी दिखलाता है वह आदमी बहुत महान है। और जो अपने हाथ से दुख पैदा कर लेता है अपने चारों तरफ वह महात्यागी है, वह आदरणीय है।
जब हम दुख की इस भांति पूजा करेंगे तो पृथ्वी विक्षिप्त नहीं हो जाएगी तो क्या होगा? हमने अब तक दुख ही पूजा है। हमारी ये दुख की पूजा बहुत लंबी हो गई है, सनातन हो गई है। इस पृथ्वी पर दुख के देवता के अतिरिक्त हमने किसी देवता को खड़ा नहीं किया है। इसलिए हम सोच भी नहीं सकते कि साधु-संत हंसते हुए हों, मुस्कुराते हुए हों, आनंदित हों। हम सोच भी नहीं सकते कि साधु-संत नाचते हुए हों, हम सोच भी नहीं सकते कि साधु-संतों के हाथ में खिलते हुए फूल हों हम साधु-संतों के आस-पास मौत और मरघट को देखने के आदी हो गए हैं।
निश्चित ही जो लोग सबसे ज्यादा रुग्ण हैं वे ही लोग इस तरह के दुखवादी संसार में आद्रत हो सकते थे। हमने बीमारों को पूजा है और हमने स्वस्थ लोगों की निंदा की है। हमने सब तरह के स्वस्थ लोगों की भारी निंदा की है। अगर एक आदमी खाना खाने में आनंद ले रहा है तो निंदित हो गया है। और हमने अपने सिद्धांत बनाए हैं कि सिद्धांत है अस्वाद। अगर गांधीजी के ग्यारह सिद्धांतों को उठा कर देखें तो वे किसी भी आदमी को या तो पागल या पाखंडी बना देने के लिए काफी हैं।
अस्वाद भोजन करना लेकिन स्वाद मत लेना। अब यह किसी भी आदमी को पागल कर देने के लिए पर्याप्त है। या पाखंडी कर देगा, या तो मेडनेस आएगी, या हिपोक्रेसी आएगी। और हिपोक्रेसी मेडनेस से भी बुरी मेडनेस है। उससे तो बेहतर है आदमी पागल हो जाए। कि कम से कम पागल आदमी आनेस्ट तो होता है, ईमानदार तो होता है, धोखेबाज तो नहीं होता।
क्या अजीब बात है, मुंह और जीभ बनाई इसीलिए गई है कि आप स्वाद ले सकें। और जिस आदमी की जीभ काट दी जाएगी उसकी आत्मा का एक हिस्सा कट जाएगा। क्योंकि जो आदमी स्वाद नहीं ले सकता उस आदमी की जिंदगी में स्वाद से जो अनुभव आते हैं वह वंचित रह जाएगा। उसकी उतनी समृद्धि कम हो जाएगी।
आप ऐसा सोचें कि एक आदमी की जीभ भी काट दें, आंख भी काट दें, कान भी काट दें, क्योंकि ये सभी इंद्रियां अपने-अपने स्वाद लेती हैं। आंख रंग को देखना चाहती है, रूप को देखना चाहती है। आंख सौंदर्य का स्वाद लेना चाहती है चाहे वह फूल का हो, चाहे आदमी की शक्ल का हो, चाहे स्त्री की शक्ल का हो, चाहे चित्र में हो। कान गीत सुनना चाहते हैं, संगीत सुनना चाहते हैं। ये सब स्वाद हैं। आंख का स्वाद है, कान का स्वाद है। हाथ भी स्वाद लेना चाहते हैं, पूरा जीवन स्वाद लेना चाहता है। इस स्वाद को सब तरफ से काट दें तो आदमी में और अमीबा में फर्क क्या रह जाए! आदमी और अमीबा में कोई फर्क नहीं रह जाए। आदमी और पशुओं में जो अंतर है उसकी इंद्रियों की सेंसिविटी के विकास का अंतर है। आदमी की इंद्रियां जितनी संवेदनशील हैं उतनी उसकी आत्मा गहरी और समृद्ध होती चली जाती है।
ऐसा नहीं है कि बुद्ध की आंखें कम देखती हैं। बुद्ध की आंखें हमसे ज्यादा देखती हैं। ऐसा नहीं है कि बुद्ध की आंखों ने सौंदर्य देखना बंद कर दिया है, सचाई ये है कि बुद्ध की आंखों ने सौंदर्य को इतने गहरे देखा है कि अब कुरूपता में भी उन्हें सौंदर्य दिखाई पड़ने लगा है। ये बहुत दूसरी बात है। सूरदास ने आंखें फोड़ लीं हैं कि कहीं आंखें भटका न दें। लेकिन जो आत्मा इतनी कमजोर हो कि आंखों के देखने से इससे भटकने का डर मालूम पड़ता हो। क्या आंखें फोड़ने से वह आत्मा बहुत मजबूत हो जाएगी? आंखें रहते हुए जो भटक सकता है, आंखें खो जाने पर बच जाएगा भटकने से? आंखों वाले भटक जाएंगे तो अंधों का क्या होगा!
नहीं आंखें फोड़ लेने से कोई भटकने से नहीं बच सकता। आंखें फोड़ना सिर्फ इस बात की खबर है कि आदमी की आत्मा बहुत कमजोर है। आंखों से बच कर कोई रूप से बच सकता है? आंखें बंद कर लें तो रूप आंखों के भीतर पैदा होना शुरू हो जाता है। और आंखें बंद करके जैसा रूप दिखाई पड़ता है वैसा रूप खुली आंखों से कभी नहीं दिखाई पड़ता।
बंद आंखों से कोई भाग नहीं सकता। न कान फोड़ कर कोई संगीत से मुक्त हो सकता है। हां, एक बात पक्की हो सकती है कि इन द्वारों को बंद करके वह उसकी आत्मा दीन और दरिद्र हो सकती है।
स्वाद इतनी पूर्णता से लिया जा सकता है कि परमात्मा को धन्यवाद उससे पैदा हो। और मैं उस आदमी को धार्मिक कहता हूं जो इतना पूर्ण स्वाद ले सके कि परमात्मा के प्रति ग्रेटीट््यूट और धन्यवाद पैदा हो। मैं उस आदमी को धार्मिक कहता हूं जो आंखों से सौंदर्य देखते देखते उस सौंदर्य को भी देख ले जो आंखों से दिखाई नहीं पड़ता है। मैं उस आदमी को धार्मिक कहता हूं जो सुख को इस गहराई से भोगे कि सुख भौतिक न रहकर आध्यात्मिक होना शुरू हो जाए। एक फूल को देखते वक्त सिर्फ फूल ही दिखाई नहीं पड़ता जो देखना जानते हैं उन्हें फूल के पीछेे छिपी हुई आत्मा भी दिखाई पड़ने लगती है।
लेकिन अब तक की सारी की सारी व्यवस्था दुखवादियों की, पैसिमिस्ट की है उन दुखवादियों ने मनुष्य के पूरे मन को आक्रांत कर लिया है। और बचपन से हम एक-एक बच्चे के मन में दुख के बीज बो रहे हैं। शायद बूढ़ों की ईष्र्या भी काम करती है। और स्वाभाविक है। बूढ़ों से ज्यादा ईष्र्यालु और कोई भी पृथ्वी पर नहीं होता। असल में ईष्र्या और जेलसी पैदा ही तब होती है जब सामथ्र्य कम होती है। जितनी सामथ्र्य कम होती है उतनी ईष्र्या पैदा होती है। बूढ़े इस जिंदगी से छीने जाते हैं। उनके हाथ से सब छिन रहा है। वे ईष्र्या से भर गए होते हैं और बच्चे उनके सामने हंसते हुए और नाचते हुए मालूम पड़ें ये कष्टपूर्ण है। बूढ़े जाते-जाते इन बच्चों की खुशी को जहर से भर जाएंगे, पाय.जन से भर जाएंगे। लेकिन इससे कोई बूढ़ों का हित नहीं हो जाता। न बच्चों का कोई हित हो जाता है। होना तो इससे उलटा चाहिए कि आने वाले बच्चे बूढ़ों की जिंदगी को खुशी से भर दें। लेकिन अब तक हुआ उलटा है जाने वाले बूढ़ों ने बच्चों की जिंदगी को दुख से भर दिया है।
मैं एक छोटी सी किताब देख रहा था। एक अमरीकी बूढ़ी औरत जिसकी उम्र सत्तर वर्ष है वह एक छोटे से चार साल के बच्चे के साथ रहना शुरू करती है। और अपने पूरे संस्मरण उस चार साल के बच्चे के साथ रहने के, वह एक संकल्प करती है कि बच्चे को अपने साथ न रखेगी, खुद बच्चे के साथ रहेगी। ये संकल्प बहुत साधारण संकल्प नहीं है।
वह बूढ़ी औरत यह तय करती है कि बच्चा मेरे साथ नहीं रहेगा मैं बच्चे के साथ रहूंगी। इसलिए बड़ी कठिनाई होती है क्योंकि बच्चा रात दो बजे उठ आता है और उस बूढ़ी का हाथ पकड़ कर बाहर खींचने लगता है कि बाहर अंधेरे में तारे चमक रहे हैं लेकिन उस बूढ़ी ने तय किया है कि उसे बच्चे के साथ रहना है तो वह दो बजे रात उठती है उस बच्चे के साथ रात के अंधेरे में जाती है, तारों को देखती है, उस बच्चे के साथ झींगुर की आवाज सुनती है, उस बच्चे के साथ समुद्र के फैन से खेलती है। उस बच्चे के साथ दौड़ती, तितलियां पकड़ती है। दो वर्ष उस बच्चे के साथ उस बूढ़ी का जीवन और उसने एक संस्मरणों की किताब लिखी है, उसने लिखा है कि मैं फिर से वापस मेरा पुनर्जन्म, रिबर्थ हो गई है। दो वर्ष उस बच्चे के साथ रहना मेरी सब कुछ स्थिति बदल गई है अब मैं कह सकती हूं मैं बूढ़ी नहीं हूं और मौत जब आएगी तो मैं मौत को भी उतनी ही जिज्ञासा और आनंद से देख सकूंगी जैसा छोटे बच्चे के साथ मैंने तितली को, फूलों को, तारों को देखा है।
इस स्त्री का दो वर्ष में सारा व्यक्तित्व बदल गया। इसके चेहरे की रौनक बदल गई। इसके चलने का ढंग बदल गया क्योंकि उसको चार साल के बच्चे के साथ दौड़ना पड़ा, उसे चार साल के बच्चे के साथ नाचना पड़ा, उसे चार साल के बच्चे के साथ चिल्लाना पड़ा, उसे चार साल के बच्चे के साथ जंगल के झाड़ों पर चढ़ना पड़ा, उसे समुद्र में उतरना पड़ा, उसे नदी में तैरना पड़ा। वह इस चार साल के बच्चे के साथ दो साल उसने अपना संकल्प पूरा किय। वह बच्चा तो विकसित हुआ लेकिन उस बूढ़ी की जिंदगी में एक नयेपन का जन्म हुआ।
मेरी अपनी समझ है कि अगर हम मनुष्यता को सुखी करना है तो हमें पुराने क्रम को बदलना पड़ेगा। बूढ़ों के साथ बच्चे नहीं, बच्चों के साथ बूढ़े। बूढ़ों को सब कुछ बच्चों को सिखाने का खयाल छोड़ देना चाहिए बहुत कुछ है जो बच्चों से सीखने योग्य है। बहुत कुछ है जो बच्चे ही सिखा सकते हैं। बहुत कुछ है जो बच्चों के पास निर्दोष है, इनोसेंट है। बहुत कुछ है जो बच्चों के पास ताजा है, जिंदा है। बहुत कुछ है जो बच्चों के पास अभी अन-अल्ट्रेटेड है। अभी उसमें कुछ बिगाड़ा नहीं गया। कहा जा सकता है कि बच्चों की आंखों में अभी परमात्मा की झलक है। बच्चों के खेल में अभी परमात्मा की पुलक है। अभी बच्चों की अराजकता में भी अभी परमात्मा का जो बड़ा अराजक जगत है, उसकी झलक है।
लेकिन इसके पहले कि हम सीखें हम बच्चों को बिगाड़ देंगे। इसके पहले कि बच्चे हमें कुछ दे पाएं हम बच्चों को सुधार देंगे। इसके पहले कि बच्चों से हमें कुछ मिल पाए हम उनकी क्षमता को नष्ट कर देंगे।
मनुष्य की विकृति में अब तक की सारी शिक्षा बूढ़ों से बच्चों की तरफ गई है इसे मैं मूल आधार मानता हूं मनुष्य की बीमारी में इसे मैं बुनियादी आधार मानता हूं। काश हमारे साधु-संत भी हमारे बच्चों से सीख सकें। काश हमारे शिक्षक भी बच्चों से सीख सकें। क्योंकि एक बात तो पक्की है कि बच्चे अभी-अभी आ रहे हैं उस जगत से जहां से हमें आए बहुत देर हो गई है। बच्चे अभी-अभी उस ओरिजिनल सोर्स, उस मूल श्रोत से आ रहे हैं जहां से हमें आए बहुत वर्ष हो गए हैं। अभी बच्चों की स्मृति उस मूल-श्रोत के संबंध में हम से ज्यादा ताजी है। कहें कि वे परमात्मा से हमसे ज्यादा निकट हैं। ठीक ऐसे ही जैसे आप तीस साल पहले किसी परदेस गए हों और लौटे हों और तीस साल में आपकी सब स्मृतियां धुंधली हो गई हों। और आज ही कोई परदेस से लौटा हो फिर नई स्मृतियों के साथ। आप उससे सीखना चाहेंगे। लेकिन बड़े दुर्भाग्य की बात हुई है कि बच्चों को हमने सिर्फ सिखाना चाहा। मैं देखता हूं कि इसमें मनुष्य के रोग के बड़े गहरे आधार रख दिए गए हैं।
दूसरी बात, बच्चों को जो भी हम सिखा रहे हैं वह हम बिना जाने सिखा रहे हैं।
जीसस एक गांव में गए और उस गांव के लोगों ने उनकी भीड़ में, उन्हें घेर लिया है और उनसे कुछ बातें पूछी हैं। और एक बात जीसस से उस गांव के लोगों ने पूछी है कि तुम्हारे प्रभु के राज्य में कौन लोग प्रवेश कर सकेंगे तो जीसस ने एक बच्चे को उठाकर भीड़ में ऊपर किया है और कहा है कि वे जो इस छोटे बच्चे की भांति होंगे।
नहीं कहा कि जो छोटे बच्चे हैं वे बल्कि कहा कि जो इस छोटे बच्चे की भांति होंगे। एक बच्चे का भी आनंद उतना बड़ा नहीं हो सकता जितना एक बूढ़ा अगर फिर से बच्चा हो जाए तो उसका होगा। क्योंकि बच्चे के आनंद में अनुभव की कमी है। बच्चे के अनुभव में ज्ञान का विस्तार नहीं है। बच्चे के आनंद में जीवन की समृद्धि नहीं है। बच्चे का आनंद छिछला ही होगा। लेकिन एक बूढ़ा अगर फिर से अगर बच्चा हो जाए तो उसके आनंद का हम कोई हिसाब नहीं लगा सकते हैं।
एक छोटी सी कहानी से मैं समझाने की कोशिश करूं।
मैंने सुना है कि एक बहुत अमीर आदमी जिसने दुनिया में जो कुछ मिल सकता था वह सब पा लिया है लेकिन उसे सुख नहीं मिला। तो वह सुख की तलाश में निकला है और फिर वह एक गांव में गया है और उस गांव के बाहर लोगों से उसने पूछा है कि कोई आदमी तुम्हारे गांव में होगा जो मुझे सुख की कोई खबर बता सके? वह अपने घोड़े पर हीरे-जवाहरातों से भरा हुआ एक बड़ा थैला लिए हुए है। उसने कहा, मैं ये करोड़ों रुपये के हीरे-जवाहरात उसके चरणों में पटक दूंगा। तो गांव के लोगों ने कहा, हां, एक आदमी हमारे गांव में है, शायद वह कुछ काम में पड़ जाए। क्योंकि जब और कोई काम में नहीं पड़ता तब वह आदमी काम में पड़ जाता है तुम उसे खोजो गांव में पूछ लेना कि मुल्ला नसरुद्दीन कहां है। वह गांव का एक फकीर है। वह पूछता हुआ अमीर आदमी उस मुल्ला नसरुद्दीन के पास गया। वह एक झाड़ के नीचे बैठा है, सांझ सूरज ढल रहा है।
मुल्ला नसरुद्दीन से उसने कहा कि मेरी जिंदगी में सब कुछ है, सिर्फ सुख नहीं है। और मैं ये करोड़ों रुपये के हीरे-जवाहरात उस आदमी के चरणों में पटकने को निकला हूं जो मुझे सुख की एक झलक दिखा दे। नसरुद्दीन ने उस आदमी की तरफ देखा और कहा कि नीचे उतर आओ, झलक मैं दिखा दूंगा।
वह आदमी नीचे उतर आया। बहुत लोगों के पास गया किसी ने ये हिम्मत नहीं की कि झलक मैं दिखा दूंगा। लोगों ने बड़े उपदेश दिए, समझाया, लेकिन लोगों ने कहा, हम कैसे झलक दिखाएंगे? झलक तुम्हें देखनी पड़ेगी।
उस नसरुद्दीन ने कहाः तुम नीचे उतर आओ, झोला मेरे सामने रखो मैं झलक दिखा देता हूं। उस अमीर आदमी ने झोला नीचे रखा, उसे पता भी नहीं था कि ऐसा होगा। उसने झोला नीचे रख भी नहीं पाया था कि नसरुद्दीन झोला उठा कर भाग खड़ा हुआ।
एक क्षण तो वह अवाक रह गया फिर चिल्लाया और भागा और कहा कि चोर है यह आदमी। मैं लुट गया! मैं मर गया! मेरी जिंदगी की सारी कमाई गई! वह गांव में भाग रहा है नसरुद्दीन के पीछे। गांव नसरुद्दीन का परिचित है, गली-कूचेे उसे मालूम हैं। वह आदमी अजनबी है। चिल्लाता बहुत है लेकिन दौड़ नहीं पाता। और सारे गांव के लोग भी देख रहे हैं कि यह क्या हो गया? सारी दौड़ के बाद सूरज ढल गया है। नसरुद्दीन गांव के बाहर उसी झाड़ के पास आ गया है जहां घोड़ा खड़ा है अमीर का। थैली उसने घोड़े के पास पटक दी, झाड़ के पीछे छिप कर खड़ा हो गया।
वह अमीर आदमी भागा हुआ आया--हांफता हुआ, रोता-चिल्लाता, झोले को उठा कर छाती से लगाया और उसने कहा, हे भगवान! तेरा बड़ा धन्यवाद है!
नसरुद्दीन ने कहाः झलक मिली? उस आदमी ने कहा कि यह भी कोई ढंग है झलक दिखाने का?
नसरुद्दीन ने कहाः इसके अलावा कोई ढंग न था। तुमने कभी भगवान को धन्यवाद दिया था? नसरुद्दीन ने कहाः जरूरी था कि जो तुम्हारे पास है वह खो जाए ताकि तुम्हें पता चल सके कि वह तुम्हारे पास था। और जरूरी है कि वह तुम्हें वापस मिले ताकि तुम अनुगृहीत हो सको।
बच्चे के पास समृद्धि होती है, बूढ़े के पास खो गई होती है। और अगर कोई बूढ़ा फिर से बच्चा हो जाए तो परमात्मा के प्रति धन्यवाद से भर पाता है। उसे वापस मिल गया खजाना। उसे झलक दिखी। उसकी संपत्ति छिनी और वापस लौटी। लेकिन इसके पहले कि किसी बूढ़े को संपत्ति मिले हम सब मिल कर बच्चों की संपत्ति मिटाने की कोशिश में लग जाते हैं।
बच्चों के साथ जितना अन्याय हुआ है पृथ्वी पर उतना किसी के साथ नहीं हुआ है। ऐसा नहीं है कि आप ही कर रहे हैं आपके साथ भी किया गया है। ऐसा नहीं कि जिन्होंने आपके साथ किया है उन्होंने ही किया है उनके साथ भी ऐसा ही किया गया है।
हजारों साल से एक अदभुत चक्र है वह यह है कि बूढ़े बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं और बच्चों से बिलकुल नहीं सीख रहे हैं। जब कि बच्चों से जिंदगी की पुलक और जिंदगी का आनंद सीखना जरूरी है। एक जिंदगी, एक समाज जो सिर्फ बूढ़े बनाएंगे उदास और बीमार होगा। मरने के करीब पहुंचने वाले लोग सूत्र रचेंगे वे जिंदगी के सूत्र नहीं हो सकते। सांझ को जमीन पर गिर जाने वाले फूल कहानी लिखेंगे वे खिलने वाले फूलों की आवाज नहीं हो सकते।
लेकिन ऐसा हुआ है। अब इसके दो परिणाम हो रहे हैं एक परिणाम तो यह है कि आदमी पागल हुआ चला जा रहा है। दूसरा परिणाम यह है कि बच्चों ने बूढ़ों से सीखने से इंकार करना शुरू कर दिया। इसलिए सारी दुनिया में बच्चों की बगावत है। यह बगावत अर्थपूर्ण है। इस बगावत को सिर्फ नासमझी मत समझ लेना आप, कि यह बच्चों की नासमझी है। यह हजारों साल के बाद यह बहुत कीमती अवसर आया है कि बच्चे अब सीखने से इंकार कर रहे हैं। मैं इसे शुभ लक्षण मानता हूं। और अच्छा होगा कि जल्दी हम इस बात को समझ लें कि यह बगावत क्या सूचना दे रही है। ये चाहे हिप्पी हों, चाहे बीटनिक हों और चाहे नक्सली हों और चाहे इनका नाम दुनिया में कुछ भी हो। सारी दुनिया में पिछले दस वर्षों में एक चीज सघन होती जा रही है और वह ये है कि बच्चे बूढ़ों से सीखने से इंकार कर रहे हैं।
मैं मानता हूं कि यह बहुत बड़ी क्रांति का क्षण है। इससे शुभ फलित हो सकता है। इससे अशुभ भी फलित हो सकता है। अगर हमने इस बात की सार्थकता को नहीं समझा तो अशुभ फलित हो सकता है। अगर हमने इस बात की सार्थकता को समझा और इस क्रांति के क्षण का उपयोग कर लिया तो आने वाली मनुष्य-जाति अतीत के दुख के पार जा सकती है।
दूसरी बात, जो मैं आपसे कहना चाहता हूं वह यह कि हम प्रत्येक चीज में कंडेमनेशन का निंदा का एक दर्शन लिए बैठे हैं प्रत्येक चीज में। ऐसा कोई शास्त्र नहीं है जो ये कहता हो कि परमात्मा ने इस पृथ्वी पर आपको आपके किसी पुण्यफल को देने के लिए भेजा है। सभी शास्त्र कहते हैं कि पापों का फल भोगने के लिए पृथ्वी पर आना हुआ है। यह जेल की भांति जगह है। यह कारागृह है। यहां दंड भोग रहे हैं हम सब, तो स्वभावतः जेलखाने में आप जाकर देखें तो जैसी उदासी, जैसा दुख जैसी पीड़ा और जेलखाने में कोई जेलखाने को सजाता नहीं है। चाहे उस आदमी को दस साल उस कोठरी में रहना हो तो भी उस दीवाल पर एक चित्र नहीं बनाएगा। क्योंकि है वह जेल। वहां कोई रहना नहीं है वहां से जाना है। वहां से हर आदमी जाने की तैयारी में है।
मैंने तो सुना है कि एक आदमी जेलखाने में गया तो पहले जो उस कोठरी में आदमी मौजूद था उसने पूछा कि तुम्हें कितने साल की सजा हुई? उस आदमी ने कहा, मुझे सत्तर साल की सजा हुई है। तो उसने कहा कि तुम जरा पीछे बैठो। मुझे पचास साल की सजा हुई है, मेरे बाहर निकलने का मौका पहले आएगा। तुम पीछे ठहरो मैं जरा दरवाजे के पास रुकूं।
पचास साल! लेकिन पचास साल भी कोई जेल को घर नहीं बना सकता। सत्तर साल वाले को वह कह रहा है, जरा पीछे रुको मुझे दरवाजे के पास रहने दो। मेरे छूटने का मौका पहले आने वाला है।
जेल घर नहीं बन सकता। यह पृथ्वी घर नहीं बन पाई। यह आज तक घर नहीं बन पाई। क्योंकि सारे धर्म इसे पापों के दंड पाने की जगह बता रहे हैं। यह कालापानी है, अंडमान-निकोबार। यहां सब अपराधी भेजे जा रहे हैं। सारी दुनिया में जो अपराध हो रहे हैं उन अपराधियों को दंड भोगने के लिए पृथ्वी पर भेजा जा रहा है।
क्या पागलपन है? किन पागलों ने ये खयाल पैदा किए होंगे? और जब हम जिंदगी को कारागृह समझ लेंगे तो फिर जिंदगी उदास हो ही जाने वाली है। फिर जिंदगी से हम कभी रस और आनंद को उपलब्ध नहीं कर पा सकते हैं। और जहां आनंद न मिले वहां आदमी विक्षिप्त ही होगा और क्या हो सकता है?
इस जिंदगी को हमने अब तक स्वीकार नहीं कर पाए। एक अहोभाव पैदा नहीं कर पाए कि हम कह सकें कि एक अहोभाव है जो परमात्मा ने मुझे मौका दिया कि मैं भी इस पृथ्वी पर हो सकूं। और वसंत में फूल खिलें तो देख सकूं और पूर्णिमा को शरद पूनम का चांद हो तो उसके नीचे नाच सकूं। और लोग मेरे आसपास हों तो उन्हें प्रेम कर सकूं।
नहीं ये एक अवसर नहीं है परमात्मा की तरफ से, एक दंड है। मैं मानता हूं कि जिन्होंने भी ये फिलोसफी दुनिया को दी। उनका मन किसी न किसी तरह न्यूरोटिक उनका मन किसी न किसी तरह रुग्ण और पागल होना चाहिए। वे नाम कितने ही बड़े हों इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि बड़े मजे की बात है कि आमतौर से पागल जो भी काम करते हैं, बड़ी व्यवस्था से करते हैं। अगर वे फिलोसफी भी बनाते हैं तो बड़ी सिस्टमेटिक बनाते हैं। अगर वे दुनिया को कोई दर्शन दे जाते हैं, शास्त्र दे जाते हैं तो वे भी बहुत ढंग और तर्कपूर्ण दे जाते हैं।
हमने अपने दुखों को जस्टीफाई किया है। हमने अपने दुखों को स्वीकार कर लिया है। और हमने नियम खोज लिए हैं कि हम दुखी क्यों हैं। पहली तो बात कि हम दुखी हैं इसलिए कि हम पापों का फल भोग रहे हैं। अनंत जन्मों के पापों के फल हैं वे हमें भोगने मिल रहे हैं। यह दृष्टि इससे ज्यादा खतरनाक और दृष्टि क्या हो सकती है?
मैं आपसे कहना चाहता हूं हम किन्हीं पापों का फल नहीं भोग रहे हैं। हम सिर्फ परमात्मा के आनंद की लहरें हैं। कोई समुद्र में जो लहरें उठ रही हैं वे किसी पापों का फल नहीं हैं। और वृक्षों पर जो फूल खिल रहे हैं वे भी किसी पापों का फल नहीं हैं। तो यह आदमी जो पैदा हो रहा है ये पापों का फल है!
ये भी आनंद की लहरें हैं। यह भी इस जीवन-ऊर्जा का खेल है। यह भी लीला है। यह जो विराट जीवन की ऊर्जा है, यह जो विराट जीवन की एनर्जी है, जिसे एलन वाॅट कहता है...इसे हम परमात्मा कहना चाहें तो परमात्मा कहें। यह जो क्रिएटिविटी है जगत की, इसमें जैसे और सब चीजें अनंत-अनंत रूपों में खिल रही हैं वैसा मनुष्य भी खिल रहा है। लेकिन फूल अपने को स्वीकार करते हैं, तारे अपने को स्वीकार करते हैं, पक्षी अपने को स्वीकार करते हैं। मनुष्य अकेला प्राणी है जो अपने को स्वीकार नहीं करता। यह उसकी बेसिक डिजीज है। आदमी अपने को स्वीकार नहीं करता। वह निरंतर कहता है कि मुझे कुछ और होना है जो मैं हूं वह नहीं। उसकी एक ही विक्षिप्तता है कि मुझे कुछ और होना है। जो गरीब है उसे अमीर होना है। और बड़े मजे की बात है कि जो अमीर है वह गरीब होने की कोशिश में लग जाता है।
महावीर अमीर के घर पैदा होते हैं। बुद्ध अमीर के घर पैदा होते हैं, राजा के घर पैदा होते हैं। लेकिन जब तक वे सड़क पर भीख मांग लेते तब तक उनकी तृप्ति नहीं है। ये तो बड़े मजे की बात है। अगर अमीर के घर में कोई पैदा हो जाए तो उसे गरीब होना है। और गरीब के घर में कोई पैदा हो जाए उसे अमीर होना है। किसी को बिलकुल वस्त्र न हों तो उसे सम्राटों के वस्त्र चाहिए और किसी को सम्राटों के वस्त्र मिल जाएं तो उसे नग्न हुए बिना कोई रास्ता नहीं है। अगर आपको महल मिल जाए तो आप महल त्याग करने की कोई न कोई फिलासफी खोज लेंगे। अगर आपको झोपड़ी मिल जाए तो आप महल बनाने के लिए कोई न कोई दौड़ तैयार कर लेंगे।
आदमी जो है उसके लिए भर राजी नहीं है। यह तो मैंने मोटी बात कही, बहुत गहरे में भी भीतर आदमी जो है उसके लिए राजी नहीं है। कुछ और चाहिए। सबको कुछ और चाहिए। ऐसा नहीं है कि वह मिलने से कोई फर्क पड़ेगा, वह मिलते ही फिर कुछ और चाहिए। बहुत गहरे में हम अपने को स्वीकार नहीं कर पाते, अस्वीकार किए चले जाते हैं।
पक्षी आनंदित हैं वे सुबह गीत गा पाते हैं। हम सुबह थके-मांदे ही उठते हैं। सुबह हम गीत नहीं गा पाते। क्योंकि दिन हमारे लिए एक दौड़ की तरह आता है। सुबह फूल खिल जाते हैं लेकिन हम नहीं खिल पाते। दिन हमारे लिए फिर चिंताओं के बोझ की तरह आता है।
जिंदगी हमारे लिए एक टेंशन है। जिसमें दौड़े जाना है, दौड़े जाना है। इतनी भी फुरसत नहीं है हमसे बहुतों को कि हम कहां दौड़ रहे हैं और किसलिए दौड़ रहे हैं! और अगर कोई हमसे पूछे भी तो हम उससे कहेंगे कि बेकार की बातों में समय खराब मत करो इतनी देर में मैं और थोड़ा दौड़ लेता हूं। जोर से दौड़ना है।
हम सब दौड़े चले जा रहे हैं कुछ और होने का, बिकमिंग का एक पागलपन है जो पूरे वक्त हमें पकड़े हुए है। और आनंद के साथ एक कठिनाई है। आनंद सदा बीइंग के साथ है, बिकमिंग के साथ आनंद कभी भी नहीं है। जिस आदमी को कुछ होना है उसने दुखी होने का रास्ता खोज रखा है। जो जो है, उसके साथ आनंदित हो सकता है, वही आनंदित हो सकता है। मैं जो आज हूं अगर मुझे आज की शरद पूर्णिमा का आनंद लेना है तो शरद पूर्णिमा का चांद मुझे आनंद नहीं दे सकता। आनंद तो इस पूर्णिमा के नीचे खड़ा हुआ जो मैं हूं अगर वह मुझे स्वीकृत है तो ही मैं आनंदित हो सकता हूं। चांद आनंदित है क्योंकि उसे कुछ और होना नहीं, जो है वह है। हम दुखी उस चांद के नीचे चलते रहेंगे। क्योंकि हमें कुछ और होना है जब तक हम वह न हो जाएं तब तक चांद हमें दिखाई नहीं पड़ सकता।
जिंदगी को हम चूकते हैं कुछ और होने में। न गा पाते हैं, न नाच पाते, न धन्यवाद दे पाते हैं। न हम प्रेम कर पाते हैं न हम प्रेम ले पाते हैं। न हम सुखी हो पाते हैं न हम सुख दे पाते हैं। क्योंकि समय नहीं है। दौड़ है कल, कल कुछ करेंगे। सारे लोग कल के लिए भाग रहे हैं। यह कल, यह दौड़ धर्म के अर्थों में मोक्ष बन जाती है। वह भी कल है। स्वर्ग बन जाती है, वह भी कल है। धनी के अर्थों में कल बन जाती है कोई करोड़पति होना है, कोई अरबपति होना है। संन्यासी के लिए कल बन जाती है जब परमात्मा उसको मिलेगा तब वह खुश होगा। सबके लिए कल है। आज आज किसी के लिए नहीं है।
जीसस एक गांव से गुजरते हैं लिली के फूल खिले हैं। सुबह का वक्त और सूरज निकला है। और जीसस अपने साथियों से कहते हैं कि तुम ये लिली के फूल देखते हो? तुमने ये लिली के फूल देखे? सोलोमन सम्राट जब अपने पूरे यश-गौरव में था तब भी इतना सुंदर नहीं था जितने ये गरीब लिली के फूल। ये गरीब फूल जितने सुंदर हैं उतना सम्राट सोलोमन सुंदर नहीं था। लेकिन वे शिष्य थके से खड़े रह जाते हैं। उनकी समझ में कुछ भी नहीं आता। लिली के फूल तो गांव-गांव के बाहर लगे हैं। उन्हें उसमें कुछ खास दिखाई नहीं पड़ता। वे कहते हैं ये बड़े साधारण फूल हैं, ये तो गांव-गांव में सब जगह लगे रहते हैं। आप ऐसा क्यों कहते हैं, कहां सोलोमन और कहां लिली के साधारण फूल!
जीसस कहते हैं, गौर से देखो। सोलोमन इतना प्रसन्न कभी भी न था। क्योंकि सोलोमन आज में नहीं हो सकता था वह सदा कल था।
जो कल में है वह चिंता में होगा। कल ही चिंता का दूसरा नाम है। कल का अर्थ हैः एंजायटी। जो कल में जीएगा वह चिंता में जीएगा, परेशानी में जीएगा। जो आज जी सकता है वह खिल सकता है। सब फ्लावरिंग आज है। कल सिर्फ चिंता है। और ऐसा नहीं है कि कल कभी आएगा वह कभी आता भी नहीं। जब आप कल तक पहुंचेगे वह आज हो चुका होगा। और यह कल की आदत हैबिट। जब आप कल पहुंचेगे तब आगे वाले कल की चिंता शुरू हो जाएगी। कल को भी आप खोएंगे, आने वाले कल को भी खोएंगे। रोज आप खोते जाएंगे क्योंकि समय जब भी आता है तब वह आज की भांति आता है। समय कभी कल की भांति आता नहीं। और हम सब कल के मन से जीते हैं। तनाव, बेचैनी, परेशानी दुख के अतिरिक्त हमारी कोई नियति नहीं बन पाती।
ऐसा यह जो आदमी है ऐसा आदमी एक बीमारी है। ऐसा आदमी आदमी ही नहीं है। ऐसा लगता है कि आदमी जो हो सकता था वह होने से चूक गया है। कहीं कोई चीज चूक गई है। कहीं रास्ते से कोई पटरी उखड़ गई है। कहीं हम किसी और रास्ते पर चले गए हैं जो हमारा भाग्य नहीं है, जो हमारी नियति नहीं है। इसलिए हम कुछ भी हो जाएं बेचैनी हमारा पीछा करती है।
कहीं मैंने एक वचन पढ़ा है। पढ़ा है मैंनेः ‘आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना।’ बहुत हैरानी का वचन मुझे लगा--‘कि आदमी को आदमी होना संभव नहीं।’ तो आदमी को और क्या होना संभव हो सकता है? अगर आदमी आदमी नहीं हो सकता, तो और क्या हो सकता है? फिर तो और कुछ भी नहीं हो सकता। लेकिन आदमी सब कुछ होना चाहता है, सिर्फ आदमी नहीं होना चाहता। क्योंकि आदमी होना तो आज और अभी है। हियर एंड नाउ। वह तो इसी क्षण में होना होगा। इसी क्षण में हम हैं। काश हम स्वीकार कर सकें कि जो हम हैं उसके लिए राजी हो सकें तो जिंदगी तत्काल आनंद के द्वार खोल देती है। सब तरफ से मंदिर के द्वार खुल जाते हैं और मंदिर की घंटियां बुलाना शुरू कर देती हैं। सब तरफ से पूजा और आरती होनी शुरू हो जाती है, जो हम हैं। लेकिन हम जो हैं उससे राजी नहीं हैं। हम कहते हैं मुझे कुछ और होना है। और तब हम दौड़ते चले जाते हैं। और जो मंदिर हमें भीतर बुला सकता था उस मंदिर के चारों तरफ चक्कर काटते-काटते गिरते हैं और मर जाते हैं। जीवन एक अतृप्ति की लंबी कहानी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो पाता है।
ऐसा आदमी एक बीमारी है। लेकिन ऐसे आदमी आप हों यह आपका चुनाव है। न हो यह आपका निर्णय है। ऐसे हम हैं लेकिन हम चाहें तो इसको ट्रांसेंड कर सकते हैं, इसके पार जा सकते हैं। कल को भूल जाएं इसका यह मतलब नहीं है कि कल नहीं होगा। इसका यह भी मतलब नहीं है कि कल ट्रेन पकड़नी हो तो आज आप टिकट नहीं खरीदेंगे। इसका ये मतलब भी नहीं है कि कल कहीं जाना हो तो आज उसका विचार नहीं करेंगे। ये मैं नहीं कह रहा हूं।
नहीं, जीने के लिए कल नहीं है। जीना तो आज है। जीने के योजनाएं कल होंगी। लेकिन जीना आज है। जीने के काम कल होंगे लेकिन जिंदगी की पुलक आज है। हृदय को धड़कना आज है, श्वास अभी लेनी है, प्रेम अभी करना है, आनंदित अभी होना है, रस अभी लेना है, गीत अभी गाना है। जिंदगी के कामधाम की दुनिया कल भी फैलेगी लेकिन आपका होना, आपका अस्तित्व, आपका बीइंग जितने गहरे में आज के क्षण से जुड़ जाए उतने आपके विक्षिप्त होने की संभावना समाप्त हो जाएगी। उतने आप तृप्त, उतने आप संतुष्ट, उतने आप आनंद से भरे हुए।
ऐसा नहीं है कि इसका अर्थ होगा कि आप स्टग्नेंट हो जाएंगे कि रुक जाएंगे और मर जाएंगे। ऐसा नहीं है। नहीं, आज की धारा आपको कल भी ले जाएगी। गंगा भी बहती है। आने वाले कल का कोई फिकर नही है। लेकिन आज की धारा कल भी पहुंच जाती है। सूरज भी चलता है। कल सुबह उगेगा इसकी चिंता आज नहीं है। लेकिन आज का जीवन कल भी उगता ही है। कल तो होता ही रहा है होता ही रहेगा। सिर्फ सवाल ये है कि मेरा मन आज कल से अटक जाए? तो मैं चूक जाऊंगा आज से। और मेरा आज से चूक जाना मेरी डिसीज, मेरी बीमारी, मेरा पागलपन बन जाता है। और हम सब कल में उलझे हुए लोग हैं। इसलिए हम सब चिंतित और परेशान हैं। फिर अगर हम मंदिर भी पहुंचते हैं तो वह मंदिर भी कल के लिए है। अगर प्रार्थना भी करते हैं तो वह प्रार्थना भी कल के लिए है। अगर कोई ध्यान में भी बैठता है तो वह ध्यान भी कल के लिए है।
नहीं, न कोई ध्यान कल के लिए है, न कोई प्रार्थना, न कोई मंदिर, न कोई परमात्मा। परमात्मा है तो अभी और इसी क्षण में, उससे हम जुड़ सकते हैं। एक क्षण को भी कोई आदमी अपने को स्वीकार कर ले तो वह परमात्मा के द्वार पर खड़ा हो जाता है। और स्वास्थ्य की अनंत संभावनाएं प्रकट हो जाती हैं।
यह हमारा शब्द स्वास्थ्य बहुत अदभुत है, इसके संबंध में दो शब्द और अपनी बात मैं पूरी करूं। यह शब्द बहुत कीमती है। अंग्रेजी के ‘हेल्थ’ शब्द में वह बात नहीं है। अंग्रेजी का ‘हेल्थ’ शब्द तो मेडीसिन का शब्द है, औषधिशास्त्र का शब्द है। हीलिंग से बना है। घाव भर जाए। लेकिन हमारा ‘स्वास्थ्य’ शब्द बहुत अदभुत है, वह बहुत आध्यात्मिक है। स्वस्थ का अर्थ हैः जो स्वयं में है। वन हू इ.ज इन वनसेल्फ। उसका अर्थ हीलिंग नहीं है। उसका मतलब हैः जो अपने में जी रहा है, जो अपने में मौजूद है, जो अपने साथ है, जो अपने भीतर गहरे में है, जिसकी रूट्स अपने भीतर चली गई हैं, जिसकी जड़ें अपने में हैं। हां, जिसके फूल आकाश में खिलेंगे, लेकिन जिसकी जड़ें अपने भीतर हैं।
जो सेल्फ-रूटेड, जिसकी जड़ें भीतर स्वयं में पहंुच गई हैं, जो अपनी भूमि पर खड़ा है, ऐसे व्यक्ति को हम स्वस्थ कहते हैं। चाहे शरीर का सवाल हो, चाहे मन और चाहे आत्मा का। अगर शरीर अपने है तो स्वस्थ होता है, जब आपके सिर में दर्द होता है तो इसका इतना ही मतलब होता है कि शरीर अपने में नहीं है। जब आपके पैर पैरालाइज्ड हो जाते हैं तो उसका मतलब यही होता है कि शरीर अपने में नहीं है। शरीर चूक गया कहीं अपने होने से। जब आपका मन चिंता से भरता है, तो उसका अर्थ है कि मन अपने में नहीं है, मन चूक गया। जब आपकी आत्मा भी अपने में नहीं होती और कुछ और होना चाहती है तब आत्मा भी चूक जाती है। हम चूकते चले जाते हैं अपने में नहीं हो पाते।
अपने में हम हो जाएं तो हम स्वस्थ हो जाते हैं। और मनुष्य अपने में हो जाए तो इस पृथ्वी पर न तो इतना कोई सुंदर फूल है जैसा मनुष्य; और न कोई इतना चमकता हुआ तारा है जैसा मनुष्य; और न कोई गीत गाता हुआ झरना है जैसा मनुष्य; न कोई ऐसी चांदनी रात है जैसा मनुष्य; न कोई समुद्र की लहर इतने आनंद से भरी है जितना मनुष्य। क्योंकि से सब सोए हुए बेहोश हैं, आदमी जागा हुआ है, होश में है। उसका आनंद एक होशपूर्ण आनंद है। उसका गीत एक जाग्रत गीत है। लेकिन जो सबसे ज्यादा संभावना है जिसकी आनंद की ऊंचाइयों के लिए स्वभावतः सबसे ज्यादा गिर जाने की भी उसकी संभावना है। जो लोग जमीन पर सीधे चलते हैं उनके गिरने का डर कम है। लेकिन जो एवरेस्ट की चोटियां छूना चाहेें उनको एवरेस्ट जितनी गहरी खाइयों में गिरने की भी संभावना को भी स्वीकार करना पड़ता है। आदमी खाइयों में गिर गया है क्योंकि चेतना की बहुत ऊंचाइयों पर बहुत उठ सकता है। जो उसकी पोटेंसियलिटी है, जो उसकी संभावना है वही उसका दुख भी बन जाता है।
आदमी इतना ऊपर उठ सकता है कि परमात्मा हो जाए, इसलिए इतना नीचे भी गिर जाता है कि पक्षी और पत्थर भी नहीं रह जाता। पक्षी और पत्थर भी जितने आनंदित मालूम होते हैं उतना आनंदित भी नहीं रह जाता। यह मनुष्य की दोनों संभावनाएं हैं। इनमें हम क्या चुनते हैं यह हम पर निर्भर है। आज तक मनुष्य-जाति के बड़े हिस्से ने दुख चुना है, बीमारी चुनी है, चिंता चुनी है, पागलपन चुना है, साधारणतः हम भी वही चुने चले जाते हैं। और ऐसा लगता है कि धीरे-धीरे शायद पूरी पृथ्वी एक मेडहाउस होकर रहेगी। करीब-करीब हो गई है। कुछ नहीं कहा जा सकता किस दिन तय करना मुश्किल हो जाए कि अब कौन आदमी पागल नहीं है। करीब-करीब ऐसी हालत हो गई है। सारे राजनीतिज्ञ, सारे धर्मगुरु, सारे साहित्यिक, सारे कलाकार, ऐसा मालूम पड़ रहे हैं कि एक विक्षिप्तता की गहरे दौड़ में दौड़ रहे हैं। अगर चित्रकारों के चित्र देखें, अगर पिकासो के चित्र देखें तो ऐसा लगता है कि आदमी कहीं विक्षिप्त हो गया है। अगर इजरा पाउन की कविताएं पढ़ें, तो ऐसा लगता है आदमी कहीं विक्षिप्त हो गया है। अगर राजनीतिज्ञों की चालें की देखें, चाहे माओ की, चाहे निकसन की, तो ऐसा लगता है आदमी कहीं पागल हो गया है। चारों तरफ देखें, तो ऐसा लगता है कि आदमी सब तरफ से पागल हुआ जा रहा है।
क्या कोई संभावना आदमी के स्वस्थ होने की नहीं है?
मैं मानता हंू, संभावना है। वह आपसे शुरू होती है। वह प्रत्येेक से शुरू होती है। शायद पूरी पृथ्वी को हम स्वस्थ करने के पागलपन में नहीं पड़ सकते हैं, लेकिन अपने को स्वस्थ करने की समझदारी बरती जा सकती है। और ऐसा मुझे लगता है कि अगर एक आदमी भी हमारे बीच पूरी स्वस्थ हो, तो वह एक जलता हुआ दीया बन जाता है और आस-पास के बुझे दीयों के लिए भी प्रेरणा सिद्ध होता है।
मैंने ये थोड़ी सी बातें कहीं इस आशा में कि आप सोचेेंगे। मेरी बातों को मानने की जरा भी जरूरत नहीं है। क्योंकि पता नहीं मैं खुद भी एक पागल आदमी हंू और आपसे कुछ बातें कह रहा हंू। जरूरी नहीं है मेरी बातों को मानना।
मेरी बातों को सुना, पक्का नहीं है कि आपने सुना ही हो, क्योंकि बहुत ही कम लोग यहां मौजूद होंगे। वहां जा चुके होंगे कुछ लोग जहां उन्हें इसके बाद जाना है, कुछ लोग अभी वहीं होंगे जहां से वे आए हैं। शायद कोई यहां पहुंच हो आपमें से, तो उसने मेरी बातों को सुना होगा। उनसे मेरी प्रार्थना है जिन्होंने सुना हो, कि मान नहीं लेंगे सोचेंगे। बहुत बड़ा सोचने का क्षण आदमी के सामने आ गया। एक-एक कदम सोचने का उठाने जैसा है, क्योंकि खतरा बहुत ज्यादा है, और खाई बहुत निकट है, और जरा सी चूक और पूरी मनुष्यता समाप्त हो सकती है। लेकिन पूरी मनुष्यता समाप्त हो या न हो यह आपकी जिम्मेवारी नहीं है, एक जिम्मेवारी जरूर आपकी है कि आप इसके पहले कि समाप्त हों, अपने जीवन की गहराई, इसके पहले की समाप्त हों, अपने जीवन की ऊंचाई, इसके पहले ही समाप्त हों, जीवन के पूरी नृत्य, इसके पहले ही समाप्त हों, जीवन का पूरा अस्वाद और जीवन की पूरी निर्दाषता और जीवन की पूरी सरलता को अनुभव करके जा सकें, ऐसी मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हंू। क्योंकि अन्यथा हमारा आना बिलकुल व्यर्थ है। हमारा जाना व्यर्थ है। हमारा होना व्यर्थ है। यह सार्थक हो सकता है। थोड़ा सोचें और अपने को पागलों की दुनिया से थोड़ा बाहर हटाएं। और अपने पागल बढ़ते हुए कदमों को थोड़ा लौटाएं। और थोड़ा देेखें कि आपके पैर किस तरफ चले जा रहे हैं। एक छोटी सी कहानी, अपनी बात मैं पूरी कर दंू।
मैंने सुना है, एक आदमी एक युनिवर्सिटी को खोज रहा था। उसके आफिस को खोज रहा था। लेकिन ठीक युनिवर्सिटी के सामने ही एक पागलखाना भी था। जैसी है आज हालत, करीब-करीब सब युनिवर्सिटीज के सामने पागलखाना बनाना ही पड़ेगा। वे कुछ बुद्धिमान लोग रहे होंगे, उन्होंने वहां बना रखा था। वह भूल से आदमी युनिवर्सिटी के चपरासी के पास न जाकर पागलखाने के चपरासी के पास पहंुच गया। दोनों के दरवाजे एकसे थे। तो उसने पूछा कि मैं युनिवर्सिटी का आफिस खोज रहा हंू लेकिन दरवाजे दोनों एकसे हैं, इन दोनों में कौन सी जगह युनिवर्सिटी है? और दरवाजे एक से क्यों हैं? कुछ फर्क क्यों नहीं किया गया?
तो उस चपरासी ने कहा कि फर्क ज्यादा नहीं है, इसलिए दरवाजे एक से हैं। थोड़ा सा वैसे फर्क है। पागलखाने में जो भी आता है जब तक ठीक न हो जाए निकल नहीं सकता। इतना ही फर्क है। युनिर्सिवटी में जाकर हालत उलटी है, जब तक बिगड़ न जाए तब तक निकल नहीं सकता।
उसने कहाः मैं बहुत दिनों से यहां चपरासी का काम करता हंू, यही फर्क देख पाया हंू। और ज्यादा कोई फर्क मुझे दिखाई नहीं पड़ा है।
हमारे कदम पागलखानों की तरफ बढ़ते जा रहे हैं, वे न बढ़ेें इस तरफ जितना सचेत हम हो सकें उतना अच्छा है। खुद के लिए भी, सबके लिए भी, भविष्य के लिए भी।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हंू। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हंू। मेर प्रणाम स्वीकार करें।

समाप्त 











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