कुल पेज दृश्य

सोमवार, 27 अगस्त 2018

जीवन की कला-(विविध)-प्रवचन-06

छठवां-प्रवचन-(जीवन की कला के तीन सूत्र)

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं।
एक महानगरी में एक नया मंदिर बन रहा था। हजारों श्रमिक उस मंदिर को बनाने में संलग्न थे, पत्थर तोड़े जा रहे थे, मूर्तियां गढ़ी जा रही थीं, दीवालें उठ रही थीं। एक परदेशी व्यक्ति उस मंदिर के पास से गुजर रहा था। पत्थर तोड़ रहे एक मजदूर से उसने पूछाः मेरे मित्र क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने क्रोध से अपनी हथौड़ी नीचे पटक दी, आंखें ऊपर उठाईं जैसे उन आंखों में आग की लपटें हों, ऐसे उस मजदूर ने उस अजनबी को देखा और कहाः अंधे हैं, दिखाई नहीं पड़ता है, पत्थर तोड़ रहा हूं, यह भी पूछने और बताने की जरूरत है। और वापस उसने पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया।
वह अजनबी तो बहुत हैरान हुआ। ऐसी तो कोई बात उसने नहीं पूछी थी कि इतने क्रोध से उत्तर मिले। वह आगे बढ़ा और उसने मशगूल दूसरे मजदूर से, वह मजदूर भी पत्थर तोड़ता था, उससे भी उसने यही पूछा कि मेरे मित्र क्या कर रहे हो, जैसे उस मजदूर ने सुना ही न हो, बहुत देर बाद उसने आंखें ऊपर उठाईं, सुस्त और उदास हारी हुई आंखें, जिनमें कोई ज्योति न हो, जिनमें कोई भाव न हो, और उसने कहा कि क्या कर रहा हूं, बच्चों के लिए, पत्नी के लिए रोजी-रोटी कमा रहा हूं। उतनी ही उदासी और सुस्ती से उसने फिर पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया।


वह अजनबी आगे बढ़ा और उसने तीसरे मजदूर से पूछा, वह मजदूर भी पत्थर तोड़ता था। लेकिन वह पत्थर भी तोड़ता था और साथ में गीत भी गुनगुनाता था। उसने उस मजदूर से पूछाः मेरे मित्र क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने आंखें ऊपर उठाईं जैसे उन आंखों में फूल झड़ रहे हों खुशी से, आनंद से भरी हुई आंखों से उसने उस अजनबी को देखा और कहाः देखने नहीं भगवान का मंदिर बना रहा हूं। उसने फिर गीत गाना शुरू कर दिया और पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया।
वे तीनों व्यक्ति ही पत्थर तोड़ रहे थे, वे तीनों व्यक्ति ही एक ही काम में संलग्न थे, लेकिन एक क्रोध से तोड़ रहा था, एक उदासी से तोड़ रहा था, एक आनंद के भाव से। जो क्रोध से तोड़ रहा था उसके लिए पत्थर तोड़ना सिर्फ पत्थर तोड़ना था, और निश्चय ही पत्थर तोड़ना कोई आनंद की, कोई अहोभाग्य की बात नहीं हो सकती और जो पत्थर तोड़ रहा था स्वभावतः सारे जगत के प्रति क्रोध से भर गया हो तो आश्चर्य नहीं। जिसे जीवन में पत्थर ही तोड़ना पड़ता है, वह जीवन के प्रति धन्यता का, कृतज्ञता का भाव कैसे प्रकट कर सकता है। दूसरा व्यक्ति भी पत्थर तोड़ रहा था, लेकिन उदास था, हारा हुआ था। जो जीवन को केवल आजीविका बना ले, जो जीवन को केवल रोजी-रोटी का अवसर बना ले, वह स्वभावतः ही उदास और हारा हुआ हो जाने को है। जीवन आजीविका बन कर आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकता, तब जीवन होगा एक बोझ, तब जीवन होगा एक हारा हुआ उपक्रम, जिसमें प्रतिपल मृत्यु निकट आती चली जाती है, जिसे किसी तरह ढोना है और पूरा कर लेना है। वह आनंद का एक गीत नहीं, उदासी की एक कथा है; वह आनंद का एक उत्सव नहीं, कर्तव्य का एक बोझ है, जिसे निपटा देना है। तीसरा व्यक्ति आनंद से तोड़ता था, पत्थर को वह भी तोड़ रहा था। वे पत्थर भी ठीक वैसे ही पत्थर थे जैसे दूसरे मजदूर तोड़ रहे थे। उसके पत्थर तोड़ने के क्रम में भी कोई भेद न था, लेकिन वह भगवान का मंदिर बना रहा था, जीवन वह अगर आनंद को उपलब्ध हो जाए तो आश्चर्य कैसा।
जीवन वही हो जाता है जिस भाव को लेकर हम जीवन में प्रविष्ट होते हैं। जीवन वही हो जाता है जो हम उसे बनाने को आतुर, उत्सुक और प्यासे होते हैं। जीवन मिलता नहीं, निर्मित करना होता है। जीवन बना-बनाया उपलब्ध नहीं होता, सर्जन करना होता है। जन्म के साथ मिलता है अवसर, जीवन नहीं।
केवल जीवन पैदा हो सके, ऐसा अवसर उस अवसर को हम खो भी सकते हैं, साधारणतः खो ही देते हैं। उस अवसर को हम विकृत भी कर सकते हैं, साधारणतः कर ही देते हैं। वह अवसर दुर्भाग्य भी बन सकता है, साधारणतः बन ही जाता है। लेकिन उस अवसर को एक आनंद उत्सव में भी परिणत किया जा सकता था। किया जा सकता है शायद लेकिन उसके सूत्र बहुत स्पष्ट नहीं, पहली बात--इसलिए जीवन की कला में पहली बात आपसे कहना चाहूंगा, वह यह कि जो व्यक्ति ऐसा समझ लेता है वह यह कि जीवन इसे मिल गया है--जन्म के साथ वह जीवन की कला को कभी भी नहीं सीख पाएगा। कला तो उसकी सीखनी पड़ती है जो मिला नहीं है, जिसे अर्जित करना होता है, कला तो उसकी सीखनी होती है जो हाथ में नहीं है, लेकिन हाथ में आ सकता है। कला तो उसकी सीखनी होती है जो वास्तविक नहीं है, केवल संभावना है। लेकिन वास्तविक बन सकता है। लेकिन सारे जगत में हजारों वर्षों से हमारे मन में यह भाव सुदृढ़ हो गया है कि जीवन हमें उपलब्ध है। जन्म के साथ जीवन हमें मिल गया है, यह भ्रांति है। यह प्रथम से ही गलत आधार है। अगर जीवन मिल गया है तो जीवन को निर्मित और सजग करने का प्रश्न कहां जीवन? मिला नहीं है।
मैं किसी व्यक्ति को एक वीणा देख कर कह रहा था और वह व्यक्ति समझ ले कि संगीत मिल गया तो भूल हो जाएगी। वीणा संगीत है। संगीत के जन्म का एक अवसर जरूर है। एक मौका है कि वीणा संगीत बन सकती है, लेकिन वीणा संगीत नहीं है। और जो वीणा को ही संगीत समझ ले, वह फिर वीणावादन की कला सीखने को क्यों जाने को है। कोई खास कारण नहीं। फिर तो वीणा को ही ढोता फिरेगा, कभी उससे संगीत पैदा नहीं होगा। और कभी तार छू भी जाएंगे अनजाने में, तो विसंगीत पैदा करेंगे। तो आनंद नहीं, मन की शांति भंग करेंगे और वीणा को ढोना एक बोझ हो जाएगा और वीणा से छूटने की आकांक्षा मन में गहरी होने लगेगी। वीणा से मुक्ति पाने का उपाय और चेष्टा करने लगे तो वह भी स्वाभाविक है। जीवन को भी हमने वीणा की तरह कंधे पर रख लिया है, लेकिन उससे संगीत पैदा करने की कला न प्रश्न है, न विचार है और इसलिए जीवन धीरे-धीरे बोझ हो गया है।
सारे जगत में हजारों शिक्षक पैदा हुए, जिनकी शिक्षा का मूल आधार इतना ही है कि जीवन से मुक्त कैसे हुआ जा सकता है? जिनकी शिक्षा का कुल सूत्र, कुल केंद्र इतना ही है कि जीवन से छुटकारा कैसे पाया जा सके। मोक्ष कैसे मिल सकता है, मुक्ति कैसे मिल सकती है, आवागमन के बाहर कैसे हो सकते हैं, मनुष्य-जाति हजारों साल से इसी दुर्भाग्यपूर्ण विचार से नीचे जी रही है। जीवन से कैसे छूटा जाए? और यह बात इसलिए पैदा हो सकी, क्योंकि हम जीवन की कला को विकसित नहीं कर पाए। जीवन की कला विकसित हो, जीवन का अनुभव हो, वह जीवन ही मोक्ष है। जीवन के बिना कहीं कोई मोक्ष नहीं। जीवन का पूर्ण अनुभव हो तो जीवन ही परमात्मा है, जीवन से अन्यथा कोई परमात्मा नहीं।
लेकिन जीवन में हारे हुए लोग, जीवन में असमर्थ पराजित जीवन के विरोध में एक परमात्मा नहीं। लेकिन जीवन में हारे हुए लोग, जीवन में असमर्थ पराजित जीवन के विरोध में एक परमात्मा की कल्पना कर लिए हैं। वह परमात्मा मृत्यु का ही साकार रूप है। जीवन को न जीने में, जीवन को जी पाने में, जीवन की खोज में जो थक गए हैं, हार गए हैं, उन्होंने मोक्ष की कल्पना एक धारणा बना रखी है। वह मोक्ष की कल्पना परिपूर्ण मृत्यु के अतिरिक्त और भी नहीं है। चूंकि हम जीवन की कला विकसित नहीं कर पाए, इसलिए हमने मरने के ढंग विकसित किए और यही वजह है कि आज तक पृथ्वी के सारे धर्म जीने की कला नहीं सिखाते, मरने की व्यवस्था मरने का ढंग सिखाते हैं। सब सारे धर्म आत्मघाती हैं, सुसाइडल हैं। कैसे कोई व्यक्ति जीवन को छोड़ दे, कैसे जीवन की जड़ें टूट जाएं, कैसे हम जीवन से विमुक्त हो जाएं, कैसे जीवन से हमारा सारा संबंध विच्छिन्न हो जाए, हमने इसी प्रक्रिया को आज तक संन्यास और धार्मिक आदमी की साधना कहा है। न तो यह संन्यास है, न साधना है, न धर्म का स्वरूप। धर्म मृत्यु नहीं सिखाता। धर्म सिखाता है परिपूर्ण जीवन। धर्म भागना नहीं सिखाता है। धर्म सिखाता है जीना। धर्म मरना नहीं सिखाता, वरन विपरीत अमृत कैसे उपलब्ध हो सके, उसकी खोज। लेकिन हम जीवन के प्रथम चरण में ही गलत धारणा लेकर चलें, तो स्वभावतः यही परिणाम हो सकता है, जो हुआ। मनुष्य जाति आज तक जीवन की गलत धारणा लेकर चल रही है, और यह गलत धारणा यह है कि हमने मान लिया है कि हमें जन्म के साथ जीवन उपलब्ध हो गया है। जन्म के साथ किसी को भी जीवन उपलब्ध नहीं हुआ है, बीज में वृक्ष छिपा है लेकिन बीज वृक्ष नहीं है। और जो माली बीज को ही वृक्ष समझ ले, फिर उसकी बगिया में वृक्ष कैसे पैदा हो सकते हैं। बीज केवल संभव है कि वृक्ष बन जाए। बीज में छिपा है, कुछ जो वृक्ष बन सकता है और नहीं भी बन सकता। अगर वृक्ष के लिए सारी सुविधा हमने बीज के आस-पास जुटा ली, भूमि, खाद, पानी, सूरज का प्रकाश, सुरक्षा तो शायद बीज वृक्ष बन ही जाए। लेकिन बीज बिना वृक्ष बने नष्ट भी हो सकता है। और मनुष्य-जाति के अधिकतम बीज बिना वृक्ष बने नष्ट हो जाते हैं, क्योंकि हमने एक बुनियादी गलत धारणा से जीवन की शुरुआत की है, वह यह कि जीवन हमें मिल गया। हम अपने को जीवित समझ रहे हैं, यह भूल है। हम सिर्फ जन्मे हैं, जीवित अभी नहीं हैं। जीवित तो हम तब होंगे जब जीवन उपलब्ध होगा, जब वह जो बीज हमारे भीतर छिपा है, वह फूटेगा, टूटेगा, अंकुरित होगा और उसमें फूल आएंगे। हम अभी केवल जन्मे हैं। यह बात दूसरी है कि एक बच्चे को जन्मे हुए एक दिन हुआ है और बूढ़े को जन्में सत्तर वर्ष हुए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपको जन्में हुए कितना समय हो गया है। जीवित होना बात ही और है।
गौतम बुद्ध ने एक सुबह एक भिक्षु से पूछा, वह भिक्षु नया-नया ही दीक्षित हुआ था, संन्यासी हुआ था। बुद्ध ने पूछा कि भिक्षु तुम्हारी उम्र कितनी है, तुम्हारी उम्र कितनी है तुम्हारी अवस्था क्या है? वह भिक्षु हंसने लगा और उसने कहा कि अब तक तो मैं समझता था कि साठ वर्ष है, लेकिन जीवन का कोई अनुभव नहीं हुआ था कि जीवन की कोई किरण मेरे प्राणों तक प्रविष्ट नहीं हुई थी, जीवन का कोई भी संगीत नहीं सुना था, जीवन के किसी सौंदर्य के कोई दर्शन नहीं हुए थे। हृदय धड़कता था श्वास चलती थी, तो मैं समझता था यही जीवन है। अब कह सकता हूं, चार वर्ष है मेरी उम्र। और भी भिक्षु मौजूद थे, बुद्ध ने उन भिक्षुओं से कहाः तुम भी अपनी उम्र आज से इस भांति गिनना। मैं भी आपसे कहना चाहता हूं कि उम्र जन्म के साथ गिनना बिलकुल व्यर्थ है। वह जीवन की उम्र नहीं, जीवन के साक्षात्कार के बाद जीवन की उम्र शुरू होती है। लेकिन हम तो जन्म को जीवन समझ बैठे हैं।
तो पहली बात मैं कहना चाहता हूं कि जन्म जीवन नहीं है। अगर बहुत गौर से देखें तो जन्म जीवन तो बिलकुल नहीं है। लेकिन जन्म मृत्यु जरूर है। जिस दिन हम पैदा होते हैं, उस दिन मरना भी शुरू हो जाता है। जन्म का पहला दिन मृत्यु की ही यात्रा का प्रथम चरण है। कोई आदमी अचानक थोड़े ही मर जाता है। हम रोज धीरे-धीरे मरते रहते हैं। और एक दिन मरने की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। हम यहां बैठे हैं, हम प्रतिपल मर रहे हैं, कुछ हमारे भीतर टूट रहा है और नष्ट हो रहा है, जिसे हम जन्म कहते हैं वह मृत्यु का ही दूसरा छोर है, वह मृत्यु का ही प्रारंभ है, वह मृत्यु की ही शुरुआत है। तो जन्म जीवन तो कतई है ही नहीं। मृत्यु जरूर हो सकता है। और इसीलिए इस जन्म को ही जो लोग जीवन समझ लेते हैं उनका सारा समय मृत्यु की चेष्टा से बचने के अतिरिक्त और किसी चीज में व्यस्त नहीं होता। चारों तरफ देखें, आदमी क्या करता हुआ दिखाई पड़ता है। सारी चेष्टा मृत्यु से बचने की चेष्टा है। सारे आयोजन मृत्यु से बचने के आयोजन हैं। सारी व्यवस्था मृत्यु की सुरक्षा की व्यवस्था है। और जानते हुए कि मृत्यु से कोई सुरक्षा नहीं, मृत्यु से कोई बचाव नहीं, मृत्यु होनी है। लेकिन जिन लोगों ने जन्म को जीवन समझ लिया है, स्वभावतः उनका पूरा जीवन मृत्यु से बचने की प्रक्रिया में परिवर्तित हो जाएगा, क्योंकि जन्म मृत्यु की शुरुआत है--जीवन नहीं।
एक भिक्षु को किसी ने जाकर पूछा था कि मुझे जीवन और मृत्यु के संबंध में कुछ बताएं। वह भिक्षु हंसने लगा और उसने कहा अगर जीवन के संबंध में कुछ जानना हो तो मैं बता सकता हूं। मृत्यु के संबंध में बताने में असमर्थ हूं, क्योंकि मृत्यु को मैं जानता नहीं, पहचानता नहीं और जबसे मैंने जीवन को जाना है तब से मृत्यु जैसी कोई चीज रह नहीं गई। अगर मृत्यु से संबंध में कुछ जानना हो तो मुर्दे लोगों से पूछो जिनसे नगर भरे हैं और जीवन के संबंध में जानना हो तो जरूर मैं कुछ कह सकता हूं।
एक सूफी फकीर था इब्राहिम। एक गांव के बाहर रहता था। गांव के भीतर जाने वाले लोग उससे पूछते कि बस्ती का रास्ता कहां है? तो वह कहता था कि भूल कर भी बाएं मत जाना, बाएं की तरफ मरघट है और दाएं जाना, दाएं की तरफ बस्ती है। जो यात्री उसकी बात मान कर दाएं चले जाते--मील, दो-मील चल कर मरघट पहुंच जाते तो बहुत क्रोध में लौटते और कहते इब्राहिम से कि तुम पागल हो गए हो। तुमने हमें कहा दाएं जाना, वहां बस्ती है, बाएं मत जाना, वहां मरघट है। बाएं गए, वहां तो मरघट मिला, व्यर्थ हमें परेशान किया। इब्राहिम कहता कि मैं अपने अनुभव से कहता हूं कि जिसे तुम बस्ती करते हो वह मरघट है, क्योंकि वहां हर आदमी सिवाय मरने के और कुछ भी करने को नहीं, और जिसे तुम मरघट करते हो उसे मैंने बस्ती जाना, क्योंकि वहां जो एक बार बस गया उसे कभी उजड़ते नहीं देखा, जो वहां बस जाता है कभी छोड़ कर नहीं जाता है। तो जिसे हम जीवन समझ रहे हैं, वह जीवन नहीं है। अगर यह स्मरण न आए तो जीवन की कला का क, ख, ग, भी नहीं सीखा जा सकता है। अगर यह ही जीवन है तो बात समाप्त हो गई। फिर सीखने को कुछ नहीं बचता। लेकिन यह जीवन नहीं है और पहचान इस बात से हो सकती है कि इस प्रतिपल जी नहीं रहे हैं, केवल मृत्यु से बचने की सुरक्षा और आयोजन कर रहे हैं। भोजन जुटा रहे हैं, मकान बना रहे हैं, यश पद प्रतिष्ठा, धन, संपत्ति इकट्ठी कर रहे हैं। कोई पूछे कि यह सब अंततः इसका मूल्य क्या है? अंततः इसका मूल्य है कि मैं मर न जाऊंगा। मैं असुरक्षित न छूट जाऊं। कल भी जी सकूं, परसों भी जी सकूं इसलिए इंतजाम कर रहा हूं। लेकिन इस सारी व्यवस्था के बाद आदमी आखिर मृत्यु में पहुंच जाता है।
एक छोटी-सी कहानी मुझे स्मरण आती है। बल्ख में बल्ख के बादशाह ने एक रात एक सपना देखा रात उसने सपने में देखा कि कोई अंधेरी छाया, कोई काली छाया उसके कंधे पर हाथ रखे है। नींद में भी वह घबड़ा गया। उसने पूछा कि तुम कौन हो? उस काली छाया ने कहा कि मैं तुम्हारी मौत और आज सांझ तुम्हें लेने आती हूं। तुम ठीक जगह ठीक समय पर मुझे मिल जाना। सूरज डूबते ही डूबते मैं आने को हूं, ठीक जगह पर मुझे मिल जाना। यही खबर देने आई हूं। कि कहीं ऐसा न हो कि जहां मैं तुम्हें लेने आऊं, तुम वहां न मिलो।
उस सम्राट का मन था कि पूछ ले कि वह कौन सी जगह है कि जहां मैं मिलूं, इसलिए कि वहां से बच जाऊं, बल्कि इसलिए कि वहां से बच जाऊं। लेकिन नींद टूट गई। घबड़ाहट में और वह पूछ नहीं पाया मौत से कि मैं किस जग मिलूं। इसलिए नहीं कि मैं जाऊं, बल्कि इसलिए ताकि वहां से बच सकूं, उस जगह का पता चल जाए। लेकिन नींद टूट गई थी और मौत नहीं थी सामने। वह बहुत घबराया। आधी रात थी। उसने नगर में जो भी ज्ञानी थे, ज्योतिषी थे, पंडित थे, शास्त्रों को जानने वाले जीवन और मृत्यु के संबंध में बातें करते थे, उन सारे लोगों को आधी रात ही बुला लिया और उनसे कहा कि यह स्वप्न आया है, उसका क्या अर्थ है? क्या मैं आज सांझ मरने को हूं। अगर मरने को हूं, तो बचने का क्या इंतजाम है। कैसे बच सकता हूं। मौत से बचना जरूरी है। और ज्यादा देर नहीं है, थोड़ी ही देर में सुबह हो जाएगी और सूरज यात्रा शुरू कर देगा और फिर थोड़ी ही देर बाद सांझ हो जाएगी। वे पंडित अपने शास्त्र ले जाएगा। उन्होंने अपने शास्त्र खोले और वे विवेचन और व्याख्या में लग गए। लेकिन एक पंडित का विवेचन और व्याख्या दूसरे से मेल नहीं खाता, कभी-कभी नहीं खाया पंडितों के विवेचन और व्याख्या है मेल, उसमें कोई संबंध कभी भी नहीं रहा। उन्होंने विवाद किया है। लेकिन आज तक वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे। सुबह होने लगी और विवाद इतना बढ़ गया कि वह सम्राट बोला--जब मैं जागा था, नींद से, तब मुझे सपना कुछ स्पष्ट भी था। तुम्हारी बातें सुन कर और भी अस्पष्ट हो गया है। मैं और भी भ्रम में पड़ गया हूं। जल्दी करो। उन पंडितों ने कहा जल्दी तो हम कर रहे हैं, लेकिन विवाद बढ़ता चलता गया। सूरज उठने लगा तो सम्राट के प्राण कंपने लगे। सांझ-सांझ करीब आने लगी। उसके एक बूढ़े नौकर ने कहा कि इनकी बातों का निष्कर्ष शायद ही कभी निकले। सांझ जल्दी हो जाएगी और अच्छा यह हो कि उनको विवाद करने दें। आपने पास जो तेज घोड़ा है, उसको लेकर जितनी दूर इस महल से निकल सकें, निकल जाएं। चूंकि जिस रात महल में यह सपना आया है, संभव है कि मौत इसी महल में आती हो, तो हट जाएं इस महल से दूर। यह बात ठीक भी मालूम पड़ी।
उस सम्राट ने अपने घोड़े पर सवारी की और वह भागा। जाते साथ समय उसे खयाल भी न रहा उस पत्नी का, जिससे उसने अनेक बार कहा था कि तेरे बिना एक क्षण मैं जी भी नहीं सकता। उन मित्रों का कोई स्मरण न रहा, जिन्हें उनसे कहा था कि तुम ही मेरे जीवन हो, तुम ही मेरी खुशी हो, तुम ही मेरी-गीत हो, मौत सामने आती है, तो सारी बातें भूल जाती हैं। वह भागा और दिन भर भागता रहा। उस दिन न तो उसे प्यास लगी और न भूख। मौत सामने थी --कैसे भूख थी, कैसी प्यास और एक क्षण भी रुकना खतरनाक था। कौन जाने कितने निकट हो मौत महल के। इसलिए जितनी दूर निकल जाऊं उतना अच्छा। वह सांझ तक भागता रहा। बहुत तेज घोड़ा था उसके पास सैकड़ों मील दूर वह सांझ तक निकल गया, तो निश्चित हुआ। सूरज ढलता था। उसने एक बगीचे में अपना घोड़ा बांधा। वह घोड़ा बांध भी नहीं पाया था कि पीछे कंघे पर किसी का हाथ उसे मालूम पड़ा। लौट कर देखा तो घबड़ाया, वही काली छाया थी। उसने पूछाः तुम कौन हो? मृत्यु ने कहाः रात आई थी, फिर भी पहचाने नहीं! धन्यवाद तुम्हारे घोड़े को अगर इतना तेज घोड़ा तुम्हारे पास न होता तो आज बड़ी मुश्किल थी। इस जगह पहुंच जाना बहुत जरूरी था। मैं यहां प्रतीक्षा करती थी। और बहुत भयभीत थी कि पता नहीं तुम ठीक समय पर पहुंच पाओ कि न पहुंच पाओ, लेकिन धन्यवाद तुम्हारे घोड़े को, बहुत तेज घोड़ा है और ठीक समय पर ठीक जगह ले आया।
आदमी जीवन भर भागता है, उपाय करता है, व्यवस्था करता है, सुरक्षा करता है और आखिर में सारी व्यवस्था, सारी सुरक्षा मौत में जाकर खड़ा कर देती है। सोचता था जो मैं उपाय कर रहा हूं, उससे मौत से बचूंगा, मिटने से बचूंगा, न होने से बच जाऊंगा। लेकिन वे सारे उपाय, उसके सारे आयोजन उसे न होने में ही ले जाते हैं। हमने मौत की तरफ कदम उठाए, इसलिए चाहे हम तेज घोड़े पर चलते हों, चाहे सुस्त घोड़े पर चलते हों, चाहे गरीब का घोड़ा हो, चाहे अमीर का घोड़ा हो, सभी घोड़े ठीक जगह पर ठीक समय पर, पहुंचा देते हैं। हम शायद जो दिशा लें, वह दिशा ही मृत्यु की है।
दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं कि जीवन की दिशा को पहचान लेना अत्यंत आवश्यक है। पहली बात जन्म ही जीवन नहीं है, यह स्मरण होना चाहिए। दूसरी बात जीवन की दिशा क्या है? कहीं जिसे हम जीवन की दिशा समझते हैं, वह मृत्यु की ही दिशा तो नहीं। जीवन समझ कर जिसकी हम पूजा करते हैं, वह मृत्यु ही तो नहीं। जिस ओर हम दौड़ते हैं और श्रम करते हैं, वह हमें कहां पहुंचाता है। एक और छोटी सी कहानी से समझाने की कोशिश करूंगा।
एक जर्मन विचारक हेरिगेल पूरब की यात्रा को आया हुआ था। वह पूरब के मुल्कों में उन लोगों की तलाश में था, जिन्हें जीवन उपलब्ध हो गया हो। वर्षों भटकता रहा, लेकिन उसे वह आदमी दिखाई नहीं पड़ा, जिसे जीवन उपलब्ध हो गया हो। उसे संन्यासी मिले, उसे साधु मिले, लेकिन वे भी उसे मृत्यु की तरफ ही जाते हुए मालूम हुए। वे भी नहीं दिखाई पड़े। जिन्हें वह किरण, वह सूत्र मिल गया है, जो जीवन की तरफ ले जाने वाला है। फिर वह थक गया और वापस लौटने को था उन दिनों जापान में था और जिस दिन लौटना था--किसी ने कहा एक संन्यासी को मैं और जानता हूं। जाने के पहले उससे और मिल लें। इतने दिनों की खोज के बाद वह निराश हो गया था। फिर उसने सोचा कि क्यों एक मौका और है। एक मौका और खोजने का है। कई बार ऐसा होता है कि आदमी यात्रा के अंतिम चरण से वापस लौट आता है, कई बार ऐसा होता है कि एक हाथ और खोदा जाता और कुएं में पानी आ जाता। कौन जानता है यह आदमी, वही आदमी हो, जिसकी उसे खोज हो। उसने उस साधु के पास गया। उसे निमंत्रित किया भोजन के लिए उस जापान के छोटे नगर में, एक बड़े होटल में उस साधु को आमंत्रित कुछ और मित्रों को बुलाया। वे सात मंजिल मकान में लकड़ी के मकान में बैठ कर बातें करते थे। भोजन करते थे। उस साधु से कुछ पूछा था। वह उत्तर देता था, फिर अचानक भूकंप आ गया। सारे मकान कंप गए। पास के मकान गिर गए, हाहाकार मच गया। फिर कौन वहां बैठता, भोजन के लिए, कौन वहां साधु को सुनने को रुकता। सारे लोग भागे। सात मंजिल मकान था, लकड़ी का हवा में कंप रहा था, पत्ते की तरह, जो किसी भी क्षण गिरता और प्राण जाते। लोग भागे, लेकिन कोई पच्चीस-तीस लोग थे संकरी सीढ़ियां थीं और भीड़ हो गई और लोग रुक गए। हेरिडेल भी भागा। लेकिन भीड़ थी, रास्ता नहीं था, सीढ़ियों पर उसे खयाल आया, मैं मेजबान हूं, होस्ट हूं और मैं भागा जा रहा हूं। मेहमान का क्या हुआ, अतिथि कहां है, लौट कर उसने देखा जिस साधु को बुला लाए थे, वह अपनी जगह बैठा है, वह भागा नहीं है। उसके चेहरे पर भागने का कोई खयाल भी नहीं है। उसकी आंख जरूर बंद है और वह ऐसा भी नहीं मालूम होता जैसे कोई आदमी हो। इतना शांत मालूम होता है जैसे कोई मूर्ति हो।
हेरिगेल के मन में हुआ कि मैं भाग जाऊं मेहमान का खतरे में छोड़ कर यह तो शिष्टता न होगी, रुक जाना चाहिए। फिर यह भी खयाल आया कि जो उसका होगा वही मेरा भी होगा। किसी तरह अपने को रोक कर वह भी साधु की कुर्सी पर बैठ गया। हाथ-पैर कंपते हैं, उसके प्राण डरे हुए हैं। खतरा है, मौत का। लेकिन दस पांच क्षण और--और भूकंप चला गया। उस साधु ने आंख खोली और भूकंप के जाने से बात टूट गई थी, जहां से, वहीं से बात शुरू कर दी।
हेरिगेल तो हैरान हुआ जैसे कि भूकंप आया ही न हो। उसने उस साधु से कहा--हम भूल गए थे कि क्या बात होती थी भूकंप आने के पहले। इतनी बड़ी घटना घट गई, इतना बड़ा विनाश हो गया है, हम इतने घबड़ा गए हैं कि मुझे याद भी नहीं कि हमने क्या पूछा था। आप छोड़ें उस बात को अब अब तो मुझे दूसरी ही बात पूछनी है। भूकंप आया, आप भागे नहीं? भूकंप का क्या हुआ? उस साधु ने कहाः भागा तो मैं भी, भागे तुम भी, लेकिन तुम बाहर की तरफ भागे और मैं भीतर की तरफ भागा। और मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हारा भागना बिलकुल व्यर्थ था, क्योंकि तुम भाग रहे थे वहां भी भूकंप था। भूकंप से ही भूकंप में भागने का क्या अर्थ है? क्या प्रयोजन, क्या अभिप्राय है? शायद तुम पागलपन में भाग रहे थे, क्योंकि भूकंप से भूकंप में भागने से कौन सा अर्थ है? शायद तुम्हें कुछ सूझ नहीं पड़ता था। इसलिए भाग रहे थे। मैं उस जगह भागा जहां कोई मुकाम कभी नहीं पहुंचता है। मैं भीतर की तरफ भागा, मैं उस जगह भागा जहां मृत्यु की कोई छाया कभी नहीं पहुंचती। मैं जीवन की तरफ भागा। अगर हम जीवन में निरंतर बाहर की तरफ भाग रहे हैं तो स्मरण रहे कि जीवन की कला को कभी-भी नहीं सीखा जा सकता। बाहर मृत्यु है, बाहर भूकंप है, भीतर जरूर चेतना है, अंतर्गृह है, वहां जीवन स्पंदन है। यहां जहां से जीवन का बीज फूटता और अंकुरित होता है, वहां लौटें तो ही जीवन को जाना और जीया जा सकता है।
वृक्ष को हम देखते हैं, आकाश में फैला हुआ हवाओं में उसके फूलों की गंध होती है। सूरज की किरणों में उसके पत्ते नाचते हैं, लेकिन जड़ें जहां वृक्ष का जीवन है, पृथ्वी के नीचे वे जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं। वे अदृश्य में वृक्ष दिखाई पड़ता है, वे दिखाई नहीं पड़तीं। जो भी हमें दिखाई पड़ता है, वहां जीवन की जड़ें नहीं हैं, जो हमें नहीं दिखाई पड़ता है और अंतर्गृह में छिपा है, दूर भूमि के भीतर, वहां जीवन की जड़ें हैं। दो मार्ग है या तो मनुष्य की चेतना बाहर-बाहर, बाहर की यात्रा को निकलती है या तो अंदर की यात्रा को संलग्न होती हो। बाहर की यात्रा पर मृत्यु के अतिरिक्त अंतिम निष्पत्ति और कुछ भी नहीं। भीतर की यात्रा पर जीवन और गहरा जीवन और परम जीवन होता चला जाता है। और वहीं जहां मेरा होना है, जहां आपका होना है, जहां हमारा वास्तविक होना है, वहीं जीवन की परिपूर्णता का अनुभव उपलब्ध होता है। वह अनुभव ही परमात्मा है और जिसे एक बार भीतर दिखाई पड़ जाए उसे फिर तत्क्षण बाहर भी दिखाई पड़ने लगता है।
जिसे भीतर न दिखाई पड़े, जीवन उसे बाहर भी कभी दिखाई नहीं पड़ सकता। जो अपने भीतर ही जीवन को जानने में असमर्थ हुआ है, वह बाहर जीवन को कैसे खोज पाएगा, जो निकटतम को भी पहचानने में हार गया है, वह जो दूर है, उसे कैसे जान पाएगा। जो अत्यंत पास है, पास से भी पास है, जो मैं ही हूं, जो वहां भी नहीं जान सका, वह दूर में, अन्य में, भीड़ में, दूसरे कैसे खोज पाएगा। जीवन का पहला अनुभव आंतरिक है और एक बार अंतसतः में उसके दर्शन हो जाएंगे तो सारे जगत में मृत्यु विलीन हो जाती है। मृत्यु ही हमारा न जानना, वह है हमारा अज्ञान। जीवन है हमारा ज्ञान। वह है हमारा जानना और हम अपने को ही नहीं जानते तो जीवन की दिशा क्या है...सिकंदर हिंदुस्तान की तरफ आता था, रास्ते में वह एक फकीर डायोजनीज से मिलने गया। डायोजनीज लेटा था धूप में । सर्दी के दिन थे और धूप का आनंद ले रहा था नग्न। सिकंदर ने उसे लेटे देख कर कहा इतने खुश मालूम होते हो डायोजनीज और तुम्हारे पास जहां तक मैं देखता हूं, मैं तुमसे कह सकता हूं--तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। हालांकि तुम्हारे पास बहुत-कुछ दिखाई पड़ता है। मेरे पास जीवन है और तुम्हारे पास केवल मृत्यु से सुरक्षा की व्यवस्था की जो कुछ भी सुरक्षित नहीं कर पाएगा, क्योंकि जीवन का उसे कोई पता ही नहीं, जिसे सुरक्षित करना है, जैसे कोई अंधेरे से बचने का उपाय करे, और दिये का उसे पता न हो, क्या करेगा वह आदमी? अंधेरे से बचने के लिए। अंधेरे से बचने के लिए जो किया जा सकता है, सिवाय इसके लिए कि हम कल्पना कर लें कि अंधेरा ही प्रकाश है। इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं किया जा सकता और यही हमने किया है कि हम मृत्यु को ही जीवन कहने लगे हैं, जब कि हमें जीवन का कोई पता नहीं और मृत्यु से बचना अंधेरे से बचने को कोई भी उपाय नहीं होगा, सिवाय इसके कि प्रकाश आपके पास हो। प्रकाश है तो अंधेरा नहीं है। प्रकाश नहीं है तो अंधेरा है। प्रकाश का अभाव ही अंधेरा है। जीवन का हमें कोई पता नहीं, इसीलिए मृत्यु है। जीवन का हमें पता हो तो फिर मृत्यु नहीं, मृत्यु जीवन के अनुभव का अभाव है। मृत्यु की कोई सत्ता नहीं, अंधेरे की कोई सत्ता नहीं।
सिकंदर ने कहा, तुम्हारी बात तो ठीक मालूम होती है। लेकिन अभी तो मैं विश्व की विजय को निकला हूं। डायोजनीज हंसने लगा, जो अपने को भी नहीं जीता पाया, वह विश्व की विजय को निकल पड़ता है, जो अपने को भी नहीं जीत पाया, वह जगत को जीतने निकल पड़ा है। विक्षिप्त हो गए हैं आप। शायद सचाई यह है कि इस बात का हमें पता न चले कि मैं अपने के नहीं जीत पाया, इसलिए हम जगत को जीतने में संलग्न हो जाते हैं। जगत को जीतने में तो इस बात को भूले रहते हैं कि मैं अपने को भी नहीं जीत पाया हूं, लेकिन विस्मृति से कुछ भी नहीं होता। केवल जीवन अपव्यय होता है। सिकंदर ने कहाः ठीक कहते हो, शायद तुम लेकिन अब तो मैं आधी यात्रा पर निकल आया, अब कैसे बीच से लौट सकता हूं।
डायोजनीज कहने लगाः पता है बाहर की यात्रा कभी भी पूरी नहीं होती, हमेशा अधूरी रहती है। अब तक कौन बाहर की यात्रा पूरी कर पाया है? और सच यही हुआ, सिकंदर वापस नहीं लौट पाया अपने घर तक, बीच में ही मर गया। अभी दुनिया जीतने को शेष थी और वह अशेष हो गया, वह समाप्त हो गया। उसके मर जाने के बाद एक बड़ी मीठी कथा सारे यूनान में प्रचलित हो गई, जो कि संयोग की बात, जिस दिन सिकंदर मरा, उस दिन डायोजनीज भी मरा। किसी कवि ने यह कहानी प्रचलित कर दी होगी यूनान में कि दोनों मरने के बाद वैतरणी पार करते वक्त फिर से मिल गए थे, एक तो साथ मरे हों। सिकंदर थोड़ी देर पहले मरा था, वह आगे था। डायोजनीज थोड़ी देर बाद मरा था, वह पीछे था। सिकंदर ने पीछे आवाज सुनी किसी हंसी की और वह हंसी पहचानी हुई मालूम पड़ी। वह हंसी परिचित थी, वह हंसी डायोजनीज की थी। वैसा तो दुनिया में कोई भी आदमी नहीं हंस सकता था। वैसा तो वही हंस सकता है जो जीवन को अनुभव करता हो, मृत्यु से घिरा हुआ आदमी हंस कैसे सकता है, उसका हंसना ही भुलावा है, धोखा है, वंचना है। वैतरणी पर वह गूंजती हुई हंसी की आवाज, उसने लौट कर पीछे देखा, वह नंगा फकीर डायोजनीज आ रहा है। हंस क्यों रहा है, सिकंदर बहुत हतप्रभ हुआ और उसे खयाल आया कि डायोजनीज ने कहा था कि यह यात्रा अधूरी रह जाएगी और तुम समाप्त हो जाओगे, अपने को जीत लो, दुनिया को जीतने की यात्रा कभी पूरी नहीं होती है, और आज यह बात सच हो गई और वह शायद इसलिए हंस रहा है। लेकिन सिकंदर ने हिम्मत जुटाई, वह सम्राट था, एक फकीर के सामने हार जाएगा, उसने भी हंसने की कोशिश की। लेकिन हंसी बड़ी फीकी थी। हिम्मत बढ़ाने के लिए उसने जोर से चिल्ला कर डायोजनीज को कहाः बड़ा खुश हूं तुमसे मिल कर।
शायद ही वैतरणी पर ऐसी घटना कभी घटी हो। एक बादशाह और एक भिखारी का मिलना हो रहा है, शायद ही कभी ऐसा हुआ हो वैतरणी पर इतना बड़ा बादशाह और तुम जैसा नंगा भिखारी। यह अपने में हिम्मत जुटाने के लिए उसने कहा था। लेकिन डायोजनीज और-और जोर से हंसने लगा। उसने कहा, तुम ठीक कहते हो--कहने में कि कौन बादशाह है, कौन भिखारी है। बादशाह पीछे है और भिखारी आगे है।
सिकंदर आगे था, डायोजनीज कहने लगा, तुम ठीक कहते हो। एक बादशाह का एक भिखारी से मिलना, लेकिन जरा भूल करते हो, कौन बादशाह है, कौन भिखारी। मैं सब कुछ जीत कर लौट रहा हूं। क्योंकि मैंने जीवन को जाना है और तुम सब कुछ हार कर लौट रहे हो, क्योंकि तुमने जीवन के अतिरिक्त जो भी जीता जाता है, वह मृत्यु में विलीन हो जाता है और समाप्त हो जाता है। जीवन की विजय ही अकेली विजय है और जीवन की दिशा अंतरस्थ की, भीतर की दिशा है। और एक बार भीतर उदघाटन हो जाए जीवन का तो फिर सब तरफ उसके पर्दे उठ जाते हैं। सब दिखाई पड़ता है, वह सब जगह मौजूद है--फूल में भी, पत्थर में भी, चांद में भी, तारे में भी, मिट्टी में भी, कण-कण में वह जीवन है। फिर उसका नृत्य दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा, लेकिन पहले अपने में खोज लेना जरूरी है।
एक दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं--जीवन की दिशा क्या है? जीवन की दिशा अंतरस्थ की दिशा है और हमारा मन चैबीस घंटे बाहर और बाहर है, शायद ही कभी हम भीतर हैं। सच तो यह है कि जब तक मन काम करता है, हम बाहर ही होते हैं। जब मन कान नहीं करता तभी हम भीतर होते हैं। जब मन क्रिया में संलग्न होता है तब तक हम बाहर होते हैं, जब तक मन सोचता है तब तक हम बाहर होते हैं, जब तक मन कुछ भी करता है, तब तक हम बाहर होते हैं। मन की सारी क्रिया बाहर की यात्रा है, मन की अक्रिया भीतर की यात्रा है।
यह तीसरा और अंतिम आपसे कहना चाहता हूं कि मन को जानना है तो मन की अक्रिया का सूत्र जान लेना जरूरी है। मन की क्रिया बाहर की यात्रा है और मन की अक्रिया भीतर की यात्रा--वह आत्मा की, परमात्मा की, प्राणों की, प्राण की यात्रा है। वह प्रभु का द्वार खोलती है। मन कैसे शांत और शून्य हो जाए, मन कैसे मौन हो जाए, मन कैसे साइलेंट हो जाए, मन कैसे घोर चुप्पी में प्रविष्ट हो जाए, वहां से जीवन-द्वार खुलता है। शब्द बाहर ले जाते हैं, विचार बाहर ले जाते हैं, मौन और शून्य भीतर ले जाता है।
लेकिन कैसे?
विचार के साथ सहयोग बाहर जाने की व्यवस्था है। विचार से मित्रता छोड़ें। विचार की प्रक्रिया से विचार के प्रभाव में डूबना छोड़ें। किनारे पर खड़े होने की कला सीखें, यही जीवन की कला है--तटस्थ खड़े होने की कला। रास्ता चल रहा है और एक आदमी किनारे पर खड़े होकर रास्ते को देख रहा है। गंगा बह रही है, राजघाट पर खड़े होकर बहती गंगा को आप देख रहे हैं, मन की धारा बह रही है और किनारे खड़े होकर चुपचाप उसकी धारा को आप देख रहे हैं। यह देखना जितना गहरा, जितना सहज और जितना विशाल होता चला जाएगा, उतना ही यह अनुभव आएगा कि जितनी गहराई से, जितनी प्रगाढ़ता से मन की धारा देखी जाती है, उतनी ही तीव्रता से मन की धारा शून्य और शांत होती है। जिस दिन मन शांत है उसी दिन जीवन का द्वार खुल जाता है। जीवन क्या है, कहना कठिन है। जीवन कैसा है, बताना असंभव है। जीवन को तो जीकर ही जाना जा सकता है। लेकिन हम कैसे पहुंच सकते हैं जीवन के मंदिर तक--मन जहां निस्पंद है, मन जहां शांत है, मन जहां शून्य है, वहां उस मंदिर का द्वारा खुलता है।
तो अंतिम बात आपसे कहना चाहता हूं वह यह कि मन की धारा के तटस्थ दर्शन बनिए। मौन मन की धारा के खड़े किनारे, खड़े होने की बस केवल खड़े होने की, चुपचाप मन को देखते रहने की सामथ्र्य को विकसित करिए। यह सामथ्र्य जितनी विकसित होगी, मन के साक्षी बनने की उतनी ही जीवन में आप प्रविष्ट होते चले जाएंगे। और जीवन को जीकर ही जाना जा सकता है। प्रेम को करके ही जाना जा सकता है। जीवन का स्वाद भी जीवन में डूबने और कूद पड़ने से उपलब्ध होता है। अंत में फिर से दुहरा देता हूं।
पहली बात जन्म को जीवन नहीं मानना है, वही भूल है, जो सारे जीवन को नष्ट कर देती है। जीवन की दिशा खोजनी है। दूसरा सूत्र बाहर बाहर जीवन की दिशा नहीं है। अंतरस्थ में छिपी हैं जड़ें जीवन की--वहां भीतर चलना है और खोजना है। और तीसरी बात कैसे पहुंचेंगे उस भीतर के जगत में, जहां भूकंप नहीं पहुंचते, जहां मृत्यु नहीं पहुंचती, वहां आप कैसे पहुंचेंगे। आप वहां हैं, लेकिन मन की धारा में बहने के कारण इस बात का अनुभव नहीं हो पाता कि मैं कहां हूं? तो तीसरी बात, मन की धारा को निस्पंद निष्क्रिय मन की धारा को शून्य और शांत करना है। वह कैसे शांत और शून्य होती है, वह शांत होती है तटस्थ दर्शन से, वह शांत होती है मौन साक्षी के भाव से और जब वह शांत हो जाती है, तो सब मिल जाता है, जिसे पाने के लिए प्रत्येक मनुष्य पैदा हुआ है।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरा प्रणाम स्वीकार करें।





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें