कुल पेज दृश्य

रविवार, 26 अगस्त 2018

घाट भुलाना बाट बिनु-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(धर्म मनुष्य-केंद्रित हो)

हजारों वर्षों से धर्म के नाम पर खोज चलती है। किसकी खोज चलती है? परमात्मा की खोज चलती है, मोक्ष की खोज चलती है, लेकिन हजारों साल के बाद भी न तो परमात्मा का कोई पता है, न आत्मा का कोई पता है, न मोक्ष का कोई पता। मेरे देखे यह खोज ही गलत हो गई। यह खोज वैसे ही गलत हो गई है जैसे कोई अंधा आदमी प्रकाश की खोज करे। यह खोज इसलिए गलत नहीं हो गई है कि प्रकाश नहीं है। प्रकाश तो है, लेकिन अंधा आदमी प्रकाश की खोज कैसे करे? और अंधा आदमी अगर प्रकाश की खोज में पड़ जाए, तो एक बात निश्चित है कि अंधे को प्रकाश नहीं मिल सकता है। अंधे आदमी को प्रकाश की बात ही नहीं करनी चाहिए। अंधे आदमी को आंख की खोज करनी चाहिए। आंख होगी तो प्रकाश होगा, आंखें नहीं होंगी तो प्रकाश नहीं होगा। प्रकाश हो और आंख न हो तो भी प्रकाश नहीं है। धर्म की खोज को ईश्वर की दिशा में लगाने से ही धर्म जगत में विकसित नहीं हो पाया। असली सवाल ईश्वर नहीं है, असली सवाल मनुष्य है। मनुष्य की खोज धर्म का आधार बनानी चाहिए। जिस दिन मनुष्य अपने को खोज लेता है, जिस दिन मनुष्य अपने को जान लेता है, उस दिन ईश्वर अनजाना नहीं रह जाता है। उस दिन मोक्ष भी अपनाया नहीं रह जाता। धर्म का केंद्र मनुष्य होना चाहिए, ईश्वर नहीं।

धर्म का केंद्र मोक्ष नहीं होना चाहिए, पृथ्वी होनी चाहिए। और धर्म का केंद्र दूर आकाश की बातें नहीं होनी चाहिए, मनुष्य के मनुष्यत्व की बात होनी चाहिए। हजारों साल तक धर्म की बात करने के बाद भी दुनिया धार्मिक नहीं हो सकी, उसका कारण अधर्म नहीं है, उसका कारण नास्तिक भी नहीं है। उसका कारण है धर्म की दिशा का गलत होना। धर्म ने ऐसे लक्ष्य बना रखे हैं, जिन लक्ष्यों तक मनुष्य को नहीं ले जाया जा सकता है, जैसे अंधों को प्रकाश के दर्शन कराने का लक्ष्य कोई बना ले, और यह भूल ही जाए कि अंधों के पास आंख नहीं है। मनुष्य के पास मनुष्य ही नहीं है और तुम ईश्वर की बातें कर रहे हो। मनुष्य मनुष्य ही नई है और तुम मोक्ष की बातें कर रहे हो। मनुष्य खुद ही नहीं है अभी, खोजेगा किसे? खोज वह सकता है जो हो। हम खुद ही नहीं हैं, हम खोज क्या करेंगे?
एक अंधा मित्र एक घर में मेहमान हुआ। बहुत स्वागत-सत्कार हुआ उस अंधे मित्र का। भोजन के बाद वह अंधा मित्र पूछने लगा, ‘यह तुमने जो मुझे खिलाया, बहुत रुचिकर लगा। यह है क्या? ’ घर के लोगों ने कहाः ‘खीर है।’ वह अंधा आदमी कहने लगाः ‘खीर? खीर क्या है? ’ वे लोग कहने लगेः ‘दूध से बनी है।’ वह अंधा आदमी पूछने लगाः ‘दूध? दूध कैसा होता है? ’ घर के लोग हैरान हो गए क्योंकि उन्होंने जो भी उत्तर दिया, अंधे ने उसकी को प्रश्न बना लिया। लेकिन घर के लोग यह भूल गए कि अंधे को न खीर दिखाई पड़ती है, न दूध दिखाई पड़ता है। उसे दिए गए सारे उत्तर आंखवाले के उत्तर हैं। एक बुद्धिमान ने कहा..‘बगुला देखा है कभी? आकाश में उड़ता है वह। बगुले के सफेद पंखों की तरह शुभ्र होता है दूध।’ वह अंधा आदमी कहने लगा..‘मुश्किल से मुश्किल में डाल रहे हो मुझे। अब यह बगुला क्या होता है? यह सफेदी क्या होती है? ’ लेकिन घर के लोगों को फिर भी होश न आया कि हम अंधे से बात कर रहे हैं। आंख के बिना अंधेरा भी नहीं दिख सकता।
आप सोचते हैं हम आंख बंद कर लेते हैं तो हमको अंधेरा दिखता है। तो आप यह मत सोचना कि अंधे को भी अंधेरा दिखता है। आप जो आंख बंद करने पर अंधेरा दिखता है क्योंकि आंख खुली होने से आपको उजाला दिखता है। उजाले के दिखने की वजह से आपको अंधेरा दिखता है। लेकिन घर के लोगों ने कहा ‘बगुले की पंख की तरह सफेद’ तो अंधे आदमी ने कहाः ‘आप क्यों मुझे परेशान करते हैं? तुमने उत्तर दिया। मेरा दूसरा सवाल खड़ा हो गया कि खीर यानी क्या? तुमने उत्तर दिया। मेरा दूसरा सवाल खड़ा हो गया कि आखिर दूर यानी क्या? तुम उत्तर देते हो कि बगुले के सफेद पंख जैसा। अब और मुश्किल में डाल दिए, यह बगुला क्या है? यह सफेद पंख क्या हैं? यह शुभ्रता, यह सफेदी क्या है? ’
दिए गए सब जवाब प्रश्न बन गए। आज तक ईश्वर के संबंध में जितनी बातें कही गई हैं, सब प्रश्न बन गई हैं, कोई जवाब नहीं बना। आज तक मोक्ष के संबंध में जितनी बातें कही गई हैं, सुनने वालों ने उन्हें प्रश्न बना लिया है, कोई जवाब नहीं। इसका कुल कारण इतना है कि दो अलग आयामों पर बातचीत चल रही है। आदमी को ईश्वर से कोई मतलब है? आदमी को अपने से ही मतलब नहीं है, ईश्वर से क्या मतलब हो सकता है? आदमी को मोक्ष से कोई प्रयोजन नहीं है। फिर भी घर के लोग सोचने लगे कि कैसे समझाएं? तो अंधा कहने लगा..बगुले के संबंध में कुछ ऐसा समझाओ जो मैं समझ सकूं। एक समझदार आदमी ने कहा..हाथ पर हाथ फेरने से जैसा तुम्हें लगता है, बगुले की गर्दन पर भी हाथ फेरो तो ऐसा ही लगेगा, बगुले की गर्दन भी ऐसी ही सुडौल होती है। वह अंधा आदमी खड़ा होकर नाचने लगा। पता है क्यों? वह नाचने लगा क्योंकि वह समझ गया कि खीर कैसी होती है। वह समझ गया कि खीर मुड़े हुए हाथ की तरह होती है। क्या उसने गलत समझा?
उसने बिल्कुल ठीक समझा। खीर से सवाल उठा, हाथ पर जाकर जवाब खतम हुए। खीर और हाथ का मेल एक हो गया। घर के लोग अपना सिर पीटने लगे और कहने लगे कि इससे तो अच्छा था कि अंधा अज्ञान में ही रहता। यह ज्ञान तो और भी खतरनाक है। असल में दूसरे से मिला हुआ ज्ञान हमेशा ही खतरनाक होता है। जो हमने नहीं जाना है, वह हम दूसरे से ले लें, वह खतरनाक सिद्ध होता है। अज्ञान कम से कम हमारा होता है। ज्ञान उधार होता है। जो अपना है, वही ठीक है। अंधे आदमी को यह पता था कि मैं नहीं जानता हूं, बात ठीक थी, सत्य थी। अब वह समझता है कि मैं जानता हूं। लेकिन वह क्या जानता है? वह यह जानता है कि दूध मुड़े हुए हाथ की तरह होता है। सारी समझाने की कोशिश यहां ले आई। क्यों ऐसा हुआ? समझाने वालों ने एक भूल कर दी। समझाने की दिशा गलत थी। अंधे आदमी को समझाना था कि तेरे पास आंखें नहीं है। इसलिए हम कोई उत्तर न देंगे। आंखों का कोई भी उत्तर अंधों के लिए अर्थहीन है। अगर तुझे जानना ही है तो चल तेरी आंख का इलाज करें। आंख जिस दिन तेरे पास होगी तू जानेगा कि दूध कैसा है, तू जानेगा कि बगुला कैसा है, सफेदी कैसी है। फिर तुझे समझाना नहीं पड़ेगा, तू समझ जाएगा।
लेकिन दुनिया को धर्मगुरु समझा रहे हैं कि ईश्वर ऐसा है, मोक्ष ऐसा है, आत्मा ऐसी है, स्वर्ग ऐसे हैं, नर्क ऐसे हैं। सब फिजूल बकवास है। सवाल यह नहीं है कि मोक्ष कैसा है। सवाल यह नहीं है कि ईश्वर कैसा है। सवाल असल में यह है कि जिस आदमी को हम समझा रहे हैं वह बिल्कुल अंधा है इन चीजों के प्रति, वह अपने प्रति भी अंधा है। धर्म का मूल आधार सिर्फ मानस शास्त्र हो सकता है। दूर नहीं ले जाना है आदमी को, उसके पास ले जाना है। वह क्या है? उसकी खोजबीन करनी है। और जिस दिन कोई आदमी अपने को खोज लेता है, उस दिन इस दुनिया में अनखोजा कुछ भी नहीं रह जाता। जो अपने को जान लेता है, वह परमात्मा को भी जान लेता है। इसलिए धर्म का ईश्वर से कोई भी संबंध नहीं है। धर्म का संबंध मनुष्य से है।
धर्म का मनुष्य-केंद्रित होना चाहिए। अब तक वह ईश्वर-केंद्रित है। ईश्वर को धर्म की कोई भी जरूरत नहीं है, जरूरत है आदमी को। धर्म को आदमी से कोई मतलब नहीं है। धर्म की किताबों में आदमी से कोई संबंध ही नहीं है। धर्म की किताबें विस्तार से बातें करती हैं ईश्वर को सिद्ध करने की। धर्म की किताबें नर्क और स्वर्ग के नक्शे बनाती हैं। धर्म की किताबें मोक्ष के संबंध में विस्तीर्ण चर्चा करती हैं, लेकिन मनुष्य के संबंध में धर्म कोई भी बात नहीं करता। धर्म कहता है कि मनुष्य आत्मा है, लेकिन यह मनुष्य के बाबत चर्चा नहीं है। यह आत्मा के बाबत चर्चा है। इसलिए धर्म मनुष्य को रूपांतरित नहीं कर पाया और करीब-करीब व्यर्थ हो गया। मनुष्य के जीवन में धर्म से कोई क्रांति नहीं आती, ऐसा मालूम पड़ता है। मैं कितने लोगों से मिला हूं, पर मुझे अब तक ऐसा आदमी नहीं मिला जिसका सचमुच ही ईश्वर से कोई प्रयोजन हो।
हां, ईश्वर की बातें करने वाले लोग मिलते हैं और कहते हैं कि हमें ईश्वर को खोजना है। लेकिन अगर बहुत गौर से उनके साथ थोड़ी बातचीत की जाए तब पता चलता है कि ईश्वर से उन्हें कोई मतलब नहीं है। उनका चित्त दुखी है। वह दुख से मुक्त होना चाहते हैं। किसी किताब में उन्होंने पढ़ लिया है कि ईश्वर को जानने से दुख से मुक्ति हो जाती है। वे कहते हैं मुझे ईश्वर को खोजना है। उनका प्रयोजन है दुख से मुक्ति कैसे हो जाए। ईश्वर की बात किसी शास्त्र से सुन ली है। एक आदमी अशांत है। वह अशांति से छुटकारा चाहता है। वह कहता है मोक्ष कैसे मिले? मुक्ति कैसे हो? अगर उसके भीतर छानबीन करें तो पता चलेगा कि उसे मोक्ष से कोई मतलब नहीं है। उसने शास्त्रों से सुन लिया है, गुरुओं से सुन लिया है कि मोक्ष में ही शांति मिलती है। उसको शांति चाहिए। तो वह कहता है मोक्ष कैसे मिले?
जैसे एक आदमी बीमार है, टी. बी. से परेशान है और वह कहता है कि मुझे मोक्ष चाहिए, क्योंकि उसने किसी किताब में पढ़ लिया है कि मोक्ष में कोई बीमारी नहीं होती। असल में उसे टी.बी. से छुटकारा चाहिए और वह आदमी कहता है कि मुझे मोक्ष चाहिए। तो क्या उसके इस मोक्ष चाहने से मेडिकल साइंस विकसित होगी? कैसे विकसित होगी? अगर वह ठीक-ठीक आकर कहे कि मैं बीमार हूं, मुझे बीमारी से छुटकारा चाहिए तो मेडिकल साइंस विकसित होगी, नहीं तो नहीं विकसित होगी। धर्म का विज्ञान विकसित नहीं हुआ क्योंकि धर्म का मौलिक चाह क्या है, वह हम नहीं पकड़ पाए और उस चाह को गलत दिशा में संलग्न कर दिया। अशांत आदमी चाहता है मुझे ईश्वर चाहिए, पर अशांत आदमी ईश्वर को कभी नहीं पा सकता।
लोग कहते हैं, ईश्वर को पाने से शांति मिलेगी, यह बिल्कुल गलत कहते हैं। असली बात उलटी है। असली बात यह है कि जो शांत हो जाता है उसे ईश्वर मिलता है। ईश्वर के मिलने से शांति नहीं मिलती। अगर ईश्वर के मिलने से शांति मिलती हो तो इसका मतलब हुआ कि अशांत आदमी को ईश्वर मिल सकता है, और अगर अशांत आदमी को ईश्वर मिल सकता है तो हम सब काफी अशांत हैं। क्या और अशांत होना पड़ेगा, तब ईश्वर मिलेगा? अशांत आदमी को ईश्वर नहीं मिल सकता। इसलिए मैं कहता हूं कि ईश्वर के मिलने से शांति नहीं मिल सकती। हां, शांति मिल जाए तो ईश्वर मिल सकता है। इसलिए असली सवाल ईश्वर नहीं है, असली सवाल है शांत चित्त।
अगर ईश्वर को केंद्र बनाते हैं तो हिंदू अलग होगा, मुसलमान अलग होगा, ईसाई अलग होगा। दुनिया में 3000 धर्म हैं और अगर मनुष्य के चित्त की शांति को केंद्र बनाते हैं तो दुनिया में एक धर्म होगा, तीन सौ धर्म नहीं हो सकते, क्योंकि मन की अशांति लाने के नियम अलग नहीं हो सकते। हिंदू अशांत हो तो उसके नियम अलग नहीं हो सकते। शांति लाने के नियम और सूत्र तो समान हैं। अशांत की तो वैज्ञानिक प्रक्रिया है। हम कैसे अशांत होते हैं, यह हम जानते हैं, इसे हम खोज सकते हैं। हम कैसे शांत होंगे, इसे हम खोज सकते हैं। यह तो विज्ञान बन सकता है। धर्म उस दिन विज्ञान बन जाएगा जिस दिन हम धर्म को वास्तविक प्रश्नों से जोड़ेंगे। जब तक हम अवास्तविक प्रश्नों से जोड़ेंगे तब तक धर्म कभी विज्ञान नहीं बन सकता। ध्यान रहे, आनेवाली दुनिया विज्ञान की होगी। अगर धर्म वैज्ञानिक बनता है तो वह टिकेगा, अन्यथा वह जा चुका। अब वह बच नहीं सकता। धर्म का वैज्ञानिक नहीं बनने देगा वह आदमी जो कहता है कि ईश्वर का, मोक्ष का, निर्णय करना धर्म है।
मनुष्य के चित्त को बदलना तथा उसके चित्त की अशांति और दुख को रूपांतरित करना धर्म है। चित्त शांत हो जाए, मौन हो जाए, तो शांत और मौन चित्त में वैसे ही जीवन के सत्य झलक आते हैं जैसे शांत झील में ऊपर का चांद दिखाई पड़ने लगता है। निर्धूल दर्पण का आपका चेहरा बन जाए, ऐसे ही दर्पण जैसा चित्त जब शांत होता है तो जीवन के सत्य उसमें दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं। जीवन के सत्यों का निर्णय नहीं करना है। जीवन के सत्यों और हमारे बीच से जो धूल का, अशांति का, बड़ा पर्दा है वह कैसे दूर हो, असली सवाल यह है। क्या मुसलमान और तरह से अशांत होता है और हिंदू और तरह से अशांत होता है? पुरुष और तरह से अशांत होता है स्त्री और तरह से अशांत होती है, कभी आपने सोचा? अशांति के नियम तो जाहिर हैं। दुनिया में किसी को भी अशांत होना हो तो उन्हीं नियमों का पालन करना पड़ेगा, और शांत होना हो तो भी। धर्म क्यों इतने अलग-अलग हो गए? धर्म के अलग होने का कारण था कि धर्म को हमने हवाई बातों पर केंद्रित कर दिया। यह खतरनाक बात हो गई। फिर बंटवारा बिल्कुल स्वाभाविक था। अंधों को हमने प्रकाश-केंद्रित बना दिया और अंधे विचार करने लगे कि प्रकाश कैसा है? आंखवाला तो विनम्र भी हो सकता है। अंधे कभी विनम्र नहीं होते। क्योंकि अंधे को डर लगता है कि अगर हमने कुछ धीरे से कहा, विनम्रता से कहा तो कहीं शक न हो जाए कि यह आदमी नहीं जानता है।
जिन-जिन को भीतर शक होता है जानने में, वे दावेदार की तरह कहते हैं कि जो मैं कहता हूं वही है। इसे मैं सिद्ध कर दूंगा। सिद्ध सिर्फ अंधे करना चाहते हैं। आंख वाले हंस कर बात टाल देंगे। वे कहेंगे कि ठीक है। आंख वाला विनम्र हो सकता है क्योंकि प्रकाश को जानता है। अंधा विनम्र नहीं हो सकता क्योंकि प्रकाश को नहीं जानता, केवल दावा करता है। और जब दावा करना है तो दावा पूर्ण करना है, नहीं तो कमजोरी जाहिर होती है। दुनिया में इतने धर्मों की जरूरत नहीं है। और जब तक इतने धर्म दुनिया में हैं तब तक धर्म धर्म नहीं हो सकता।
दुनिया में आदमी को भटकने का जो रास्ता मिल गया है वह अधर्म के कारण नहीं मिल गया है, वह बहुत धर्मों के कारण मिल गया है। यह बहुत आश्चर्य की बात है कि सत्य अनिर्णीत है और असत्य बिल्कुल निर्णीत है। शांति अनिर्णीत है और अशांति बिल्कुल निर्णीत है। और जब सत्य पर झगड़ा हो, और इतना झगड़ा हो कि तय करना मुश्किल हो जाए कि क्या सत्य है तो आदमी असत्य की ओर चला ही जाएगा। वह कम से कम निश्चय तो हैं। उसमें कोई झगड़ा तो नहीं है। धर्म के संबंध में विराट झगड़ा है और इसलिए आदमी को अधर्म की दिशा मिल जाती है। अभी तो यह तय ही नहीं है कि धर्म क्या है, ईश्वर क्या है, है भी या नहीं।
धर्म अनिर्णीत है और अधर्म बिल्कुल निर्णीत है। जो निर्णीत है वह आदमी को आकर्षित कर लेता है। दुनिया में जिस दिन धर्म का विज्ञान होगा, उस दिन अधर्म की ताकत टूटने लगेगी। इसलिए मैं कहता हूं हिंदू, मुसलमान, जैन, ईसाई, बौद्ध सभी मिलकर दुनिया को अधर्म में डुबोए रखने का काम कर रहे हैं। जब तक ये विदा नहीं होते, तब तक दुनिया धार्मिक नहीं हो सकती। लेकिन ये चाहते भी नहीं कि दुनिया धार्मिक हो जाए। क्योंकि जिस दिन दुनिया धार्मिक हो जाएगी उस दिन पुरोहित के धंधे का अंत हो जाएगा।
एक डाक्टर एक मरीज का इलाज करता है। ऐसे ऊपर से वह पूरी चेष्टा करता है मरीज को ठीक करने की, चेतन मन से। लेकिन अचेतन मन चाहता है कि मरीज मरीज बना रहे। क्योंकि अगर सब मरीज ठीक हो जाएं तो डाक्टर पहले मर जाएगा, मरीज बाद में मरेगा। डाक्टर के लिए बहुत जरूरी है कि मरीज मरीज रहे, और अगर पैसे वाला मरीज है तो थोड़ी ज्यादा देर मरीज रहे। ऊपर चेतना मन से उसकी पूरी शिक्षा उसे कहती है कि ठीक करो और वह पूरे चेतन मन से ठीक करने की कोशिश करता है, लेकिन अचेतन मन में, गहरे में वह मरीज को देखकर खुश होता है। डाक्टर भी बात करते हैं आपस में कि इस वक्त सीजन चल रहा है।
मैंने सुना है एक रात एक होटल में तीन-चार लोगों ने खूब खाना खाया, खूब शराब पी। आधी रात तक वे जमे रहे। फिर जब आधी रात को वे बिल चुकाकर बाहर निकलने लगे तो होटल के मैनेजर ने अपनी पत्नी को कहा कि ऐसे जानदार ग्राहक रोज आ जाएं तो हम कुछ ही दिनों में खुशहाल हो जाएं। चलते वक्त जिस आदमी ने पैसे चुकाए थे उसने कहा, भगवान से प्रार्थना करो कि हमारा धंधा जोर से चले तो हम भी रोज आएंगे। चलते वक्त मैनेजर ने पूछा कि यह तो बता दीजिए कि आपका धंधा क्या है? उस आदमी ने कहा, मैं मरघट पर लकड़ी बेचने का काम करता हूं। भगवान से प्रार्थना करो कि धंधा जोर से चले। तो डाक्टर का अचेतन मन तो यह कहता है कि बीमारी फैले, और डाक्टर का चेतन मन कोशिश करता है कि बीमारी दूर हो। पुरोहित, साधु, संन्यासी ऊपर से तो बात करते हैं कि धर्म फैले, लेकिन अचेतन मन में चाहते हैं कि अधर्म रहे, क्योंकि अधर्म ही उसके व्यवसाय का आधार है। जिस दिन अधर्म मिट जाएगा, उस दिन पुरोहित कहां होगा?
मैंने सुना है कि एक पहाड़ी रास्ते से एक चर्च का पादरी किसी गांव में प्रवचन के लिए जाता था। पास की ही खाई में किसी आदमी ने जोर से आवाज लगाई कि मैं मर रहा हूं, मुझे किसी ने छुरे मारे हैं। ऐ पादरी, ऐ पुरोहित, आ मेरी सहायता कर। पादरी ने नीचे झांक कर देखा। एक आदमी खून में लथपथ पड़ा है। उसके निकट एक छुरा है। किसी ने छुरा मारा है। काफी घाव लगे हैं। खून नीचे बह रहा है। पादरी को जाकर ठीक समय पर चर्च में ‘प्रेम’ के ऊपर प्रवचन देना है। उसने सोचा कि अगर इस झंझट में पड़ा तो मेरे प्रवचन का क्या होगा। वह भागने लगा। लेकिन उस नीचे पड़े आदमी ने चिल्लाया कि मैंने तुम्हें भली भांति पहचान लिया है। मैं उसी गांव का रहने वाला हूं जिसमें तुम आज प्रेम पर प्रवचन देने जा रहे हो। मैं भी सुनने आने वाला था।
वहीं के लिए निकला था लेकिन यहां मुझे छुरे मार दिए गए। ध्यान रहे, अगर मैं बच गया तो सारे गांव में खबर कर दूंगा कि यह आदमी प्रेम पर प्रवचन देने को इतनी जल्दी में था कि एक आदमी मर रहा था और उसे उठाने नीचे नहीं उतरा। इसके प्रवचन का क्या अर्थ हो सकता है? पादरी डरा कि कहीं जाकर उसने गांव में यह खबर कर दी तो बड़ी मुश्किल होगी। पादरी नीचे उतरा। जाकर उसके खून से भरे चेहरे को पोंछा। चेहरा पोंछते वक्त उसके हाथ कंप गए क्योंकि यह तो पहचाना हुआ आदमी मालूम पड़ा। उसने कहा..तुम तो पहचाने हुए मालूम पड़ते हो। उस आदमी ने कहा..अच्छी तरह, क्योंकि तुम्हारे चर्च में मेरी तस्वीर लटकी हुई है, मैं शैतान हूं। पादरी तो एकदम घबरा गया। वह खड़ा हो गया, भगवान का नाम लेने लगा कि अच्छा है कि तुम मर जाओ। क्योंकि तुम्हारे मरने के लिए तो हम सारी चेष्टाएं कर रहे हैं निरंतर। अच्छा हुआ कि तुम मार डाले गए, तुम्हें किसी ने छुरे भोंक दिए हैं। तुम जल्दी मर जाओ। वह शैतान जोर से हंसने लगा। उसने कहा..पागल पादरी! मालूम होता है तुझे धंधे की पूरी खबर नहीं है। जब तक मैं हूं तब तक तेरा धंधा है। जिस दिन मैं मर जाऊंगा उस दिन तू भी मर जाएगा। मुझे बचाने की जल्दी कोशिश कर। तेरी दूकान चलती है, जब तक शैतान है। जिस दिन दुनिया में शैतान नहीं होगा, तेरी दूकान को कौन पूछेगा? पादरी को ख्याल आया, यह तो टेड सीक्रेट था। यह तो बात सच है। उसने जल्दी से शैतान को उठाया और कहा..मरो मत, ठीक से सांस लो। मैं तुम्हें अस्पताल ले चलता हूं। भाड़ में जाए वह प्रवचन और धर्म। क्योंकि तुम हो तभी तक हम है, यह हम समझ गए। दुनिया के धर्म-गुरु और साधु और संन्यासी की जमात नहीं चाहती कि समाज धार्मिक हो जाए। समाज को अधार्मिक बनाने की सबसे बुनियादी रास्ता यह है कि धर्म को निर्णीत मत होने दो, धर्म को विज्ञान मत बनने दो; धर्म का अंधविश्वास रहने दो।
जब तक धर्म अंधविश्वास है तब तक दुनिया धार्मिक नहीं हो सकती। लोग जितना अधार्मिक होते हैं उतना साधु, संन्यासी, पादरी और पुरोहित के लिए धर्म का प्रचार करने के लिए ठीक मौसम निर्णीत हो जाता है। आज तक धर्म को विज्ञान नहीं बनने दिया गया। धर्म तक विज्ञान बनेगा जब वह मनुष्य केंद्रित होगा, ईश्वर-केंद्रित नहीं। लेकिन पादरी-पुरोहित कहेंगे कि अगर धर्म मनुष्य-केंद्रित हो गया तो धर्म चला गया, क्योंकि हम तो ईश्वर की बात करते हैं, इसलिए धर्म धर्म है। पर यह बात झूठ है। ईश्वर की बातों से धर्म धर्म नहीं होता। धर्म होगा मनुष्य के व्यक्तित्व की सभी खोज-बीन के रूपांतर से। और जिस दिन मनुष्य बदलेगा, जिस दिन मनुष्य दूसरा हो जाएगा, उस दिन वह दूसरी तरह से दुनिया को देखेगा। अभी हम जिस तरह के आदम हैं हमें दुनिया में कहीं भी ईश्वर दिखाई नहीं पड़ सकता। यह ध्यान रहे, प्रकाश के कारण प्रकाश नहीं दिखाई पड़ता, हमारे पास आंख होनी चाहिए तो प्रकाश दिखाई पड़ता है।
हमें सिवा पदार्थ के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, हालांकि हम अध्यात्म की बातें करते हैं। बातें कितनी ही हम अध्यात्म की करें, हम सब पदार्थवादी हैं; क्योंकि पदार्थ दिखाई पड़ता है, परमात्मा तो दिखाई नहीं पड़ता। परमात्मा हमारा विश्वास है, पदार्थ हमारा अनुभव है, और अनुभव के मुकाबले विश्वास कभी नहीं जीतता है। इसीलिए रोज परमात्मा हारता है और पदार्थ जीतता है। परमात्मा के सामने जाकर आदमी प्रार्थना करता है कि मेरे लड़के की नौकरी लगा दो। इसे परमात्मा से कोई मतलब है? परमात्मा को वह एक एजेंट बना रहा है, लड़के को नौकरी दिलाने के लिए। असली सवाल नौकरी का है। कहता है मेरी बीमारी दूर कर दो, मेरी गरीबी मिटा दो। भगवान का इससे कोई संबंध है? भगवान के सामने खड़े होकर भी पदार्थ की मांग जारी रहती है। सारी दुनिया के लोग पदार्थवादी हैं। जब तक जीवन आमूल रूपांतरित न हो कोई आदमी आध्यात्मिक हो नहीं सकता, केवल बातचीत कर सकता है। इसलिए मैं कहता हूं कि पश्चिम के लोग ईमानदार भौतिकवादी हैं, पूरब के लोग बेईमान भौतिकवादी हैं। सारी दुनिया ईमानदारी से भौतिकवादी है और हम बहुत बेईमान हैं।
हमें दिखाई तो पदार्थ पड़ता है लेकिन बातें हम परमात्मा की करते हैं। हाथ परमात्मा की तरफ जोड़ते हैं, आंखें पदार्थ पर लगी रहती हैं। पूरे समय हमारा दिमाग एक दोहरी प्रक्रिया में चलता है। सारे समय भगवान की बात, और सारे समय पदार्थ की चिंता। भगवान की बात करेंगे और भगवान से उलटा जीएंगे। इससे तो बेहतर है कि जो दिखाई पड़ता है उसकी सचाई को स्वीकार करके जीना शुरू किया जाए। मुझे लगता है कि ठीक-ठीक ईमानदार भौतिकवादी कभी न कभी अध्यात्मवादी हो जाता है लेकिन बेईमान भौतिकवादी कभी अध्यात्मवादी नहीं हो पाता। वह तो भौतिकवाद और अध्यात्मवाद के बीच में एक स्वर्ण-पथ निकाल लेता है। रहता भौतिकवादी है, बातें अध्यात्म की करके उसे रास्ता मिल जाता है। उसने एक प्रवंचना का रास्ता खोज लिया। पश्चिम का भौतिकवाद वहां पहुंचा जा रहा है जहां 50 वर्षों में आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत हो जाएगी। पश्चिम का भौतिकवाद वहां खड़ा हो गया है जहां अध्यात्म का जन्म अनिवार्य होगा। लेकिन हमारे भविष्य में कोई धर्म का जन्म होगा, इसकी आशा नहीं बांधी जा सकती, क्योंकि धर्म के जन्म के लिए पहले तो हमें ईमानदार होना पड़ेगा, और ईमानदार होने की हमने हिम्मत खो दी है। क्योंकि ईमानदारी कहती है कि पदार्थ सत्य है और परमात्मा का कोई पता नहीं है। लेकिन हम बेईमान हैं। कहते हैं पदार्थ माया है और परमात्मा सत्य है। पदार्थ सत्य है, वह हमें सत्य दिखाई पड़ता है, 24 घंटे उसमें हम जीते हैं, उसको हम कहते हैं माया है और जिस परमात्मा का हमें बिल्कुल पता नहीं चलता, उसको हम कहते हैं सत्य है। हम कहते हैं ब्रह्म सत्य है और जगत माया है। ऐसा भी शीर्षासन कोई कौन कर सकती है? बहुत हैरानी की बात है। एक ईमानदार चिंतन भी नहीं है इसके पीछे। और जो शुरू से ही बेईमान है, वह कैसे धार्मिक हो सकता है?
धर्म को विज्ञान बनाए बिना मनुष्य जाति और धर्म के बीच कोई गहरा अंर्तसंबंध नहीं हो सकता। जब तक मनुष्य को धर्म न बदल सके, तब तक कुछ नहीं हो सकता। लेकिन कोई धर्म गुरु चाहता भी नहीं कि मनुष्य बदल जाए। मनुष्य जैसा है, ऐसा ही रहे; और नीचे गिर जाए तो खुशी होती है। क्योंकि जितना आदमी नीचे गिरता है उतना उपदेश रसपूर्ण हो जाता है। यह बड़े मजे की बात है कि किसी को ऊंचा उठाने में भी अहंकार को बड़ी तृप्ति होती है। किसी को नीचा देखने में भी बड़ा मजा आता है। जब समाज नीचे गिरता है तो कुछ लोगों को बहुत आंतरिक रस और आनंद मिलना शुरू हो जाता है कि समाज इतने नीचे गिर गया। इसको ऊंचा उठाना है। धार्मिक आदमी रोता है स्थिति देखकर। जो भीतर से अधार्मिक हैं, और ऊपर से धार्मिक, वे प्रसन्न होते हैं। उन्हें दिखाई पड़ता है कि यह अच्छा अवसर है। यह दशा ईश्वर को केंद्र में रखने से पैदा हुई। मनुष्य को रखना पड़ेगा। केंद्र में। मनुष्य को केंद्र में रखने का क्या मतलब होता है?
मनुष्य को केंद्र में रखना एक और ढंग से सोचना है। क्योंकि जब हम मनुष्य को केंद्र में रखते हैं तो सवाल यह नहीं है कि सृष्टि कब पैदा हुई? फिजूल है यह बात। इससे कोई प्रयोजन नहीं है कि सृष्टि कब बनी। सिर्फ नासमझ अपना समय और दूसरों का समय खराब करते हैं इस तरह की बातों में कि सृष्टि कब बनी है। बुद्धिमान आदमी जानता है जो है, वह है। वह कभी नहीं बनी। कभी कैसे बन सकती है? कहां से आएगी? कैसे बनेगी? जो है, वह है। इसलिए सृष्टि कब बनी या नहीं बनी, इस झंझट में नहीं पड़ता। वह इस झंझट में भी नहीं पड़ता कि किसने बनाई, क्योंकि उसे अपना ही पता-ठिकान नहीं है तब वह कैसे इस सारे विराट, अनादि, अनंत जगत को बनानेवाले का विचार करे? यह सिर्फ अहंकारी लोग विचार करते हैं। यह कभी आपने सोचा भी नहीं होगा कि मनुष्य सबसे बड़ा अहंकार क्या कर सकता है। वह यह कर सकता है कि मैं सब जानता हूं, मैं सर्वज्ञ हूं। एक धनी आदमी क्या अहंकार करेगा? यह कह सकता है कि मेरे पास इतने करोड़ रुपये हैं। लेकिन वह भी जानता है कि करोड़ रुपयों का महल रेत से ज्यादा बड़ा नहीं है। कभी भी खिसका जा सकता है। कल जो करोड़पति था, आज भिखमंगा है। मनुष्य ने जो सबसे बड़े अहंकार की घोषणाएं की हैं, वह सर्वज्ञता की है।
आइंस्टीन से किसी ने पूछा कि एक वैज्ञानिक में और एक धार्मिक व्यक्ति में आप क्या अंतर पाते हैं? आइंस्टीन ने कहा कि वैज्ञानिक आदमी से 100 बातें पूछिए तो 18 बातों में तो वह कह देगा कि मैं जानता हूं। दो बातों में मुश्किल से कहेगा कि मैं जानता हूं और वह भी इस शक के साथ कहेगा कि अभी इतना जानता हूं, कल बदल सकता है। लेकिन धार्मिक से 100 बातें पूछिए तो 100 के ही बाबत कहेगा कि मैं पूरा जानता हूं और जो जानता हूं उसमें बदलने का कोई सवाल नहीं, क्योंकि वह पूर्ण ज्ञान है। मैं आप से कहना चाहता हूं कि वैज्ञानिक के पास ज्यादा धार्मिक चित्त है और धार्मिक के पास बिल्कुल ही अधार्मिक चित्त है। क्योंकि वैज्ञानिक विनम्रता से यह कहता है कि वह मैं नहीं जानता हूं और जानता हूं वह भी संदिग्ध है क्योंकि कल ज्ञान की और नई धाराएं आएंगी। सब बदल जाएगा। इसलिए अब तक जो हम जानते हैं उसके आधार पर कहते हैं कि ऐसा है। लेकिन ऐसा ही है, ऐसा हम नहीं कह सकते हैं, और कैसा हो सकता है वह कल बताएगा।
ज्ञान रोज खुलता जाएगा। रोज नए ज्ञान के अवतरण होंगे। धार्मिक आदमी कहता है परमात्मा अनंत है, लेकिन फिर भी कहता है मैं परमात्मा को जानता हूं। सत्य बात यह है कि वैज्ञानिक की मान्यता कहती है कि जो है, वह अनंत है और जो अनंत है उसे हम कैसे जान सकते हैं? हम थोड़ा-बहुत जान पाते हैं। वह जान पाना भी कभी पूरा नहीं हो सकता। क्योंकि पूरे को हम कभी नहीं जानते। जैसे कि कोई आदमी एक उपन्यास का एक पन्ना पढ़ ले और सोचे कि मैंने पूरा महाकाव्य जान लिया। जैसे कि किसी आदमी को गीत की एक कड़ा हाथ लग जाए और वह समझे कि मैंने पूरा महाकाव्य जान लिया। हम इतना थोड़ा जानते हैं, और इतना बड़ा अनजाना छूट जाता है कि सिर्फ पागल और अज्ञानी और हद दर्जे के मूढ़ यह दावा कर सकते हैं कि सब जान लिया गया है। जो आदमी कहता है सब जान लिया गया है वह आदमी परमात्मा का अनंत नहीं मानता, क्योंकि अनंत कभी भी पूरा नहीं जाना जा सकता। सर्वज्ञ का दावा सिर्फ उस परमात्मा के प्रति हो सकता है जिसकी सीमा है क्योंकि जो भी जान लिया गया है वह सीमित हो गया। जानने ने उसकी सीमा बना दी। जो नहीं जाना गया वही असीम हो सकता है। एक तरफ हम कहते हैं परमात्मा अनंत है और दूसरी तरफ कहते हैं कि मैं परमात्मा को जानता हूं।
विज्ञान ने पहली बार इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि जो है वह अनंत है, और इसलिए मनुष्य उसे पूरा कभी नहीं जान पाएगा। हमें कुछ भी पता नहीं है कि जगत कैसे चल रहा है, हमें कुछ भी पता नहीं है कि जगत कैसे चलेगा, जीवन के सारे सूत्र अज्ञात हैं। जो थोड़ी-बहुत तोड़-जोड़ करके हम जान पाते हैं वह इतना कम है कि उसके कारण दावेदार नहीं हुआ जा सकता। विज्ञान ने पहली बार विनम्रता सिखाई। हालांकि सारे धर्म कहते हैं कि आदमी को विनम्र होना चाहिए, लेकिन किसी धर्म ने आदमी को आज तक विनम्रता नहीं सिखाई। धर्मों ने मनुष्य को अहंकार सिखलाया। उसी अहंकार ने हिंदू को मुसलमान से लड़ाया क्योंकि सब सर्वज्ञ थे। जहां सब सर्वज्ञ हों वहां बड़ी मुश्किल है, क्योंकि कोई झुकने को तैयार नहीं है कि दूसरा भी ठीक हो सकता है। धर्मों ने युद्ध करवाए पर उन्होंने बातें विनम्रता की कीं।
अगर मनुष्य को केंद्र बनाएं और परमात्मा को केंद्र न बनाएं तो चीजें बहुत सुलझ सकती हैं, क्योंकि मनुष्य जाना जा सकता है। फिर हम खुद मनुष्य है। हमें कहीं जानने के लिए दूर नहीं जाना पड़ेगा, हम अपने भीतर उतर सकते हैं। चीन में एक सम्राट था। उस सम्राट ने अपने राज्य में खबर भिजवाई कि मैं राज्य की मोहर बनवाना चाहता हूं और उस मोहर पर एक बोलता हुआ मुर्गा चाहता हूं। राज्य भर के चित्रकारों में जो श्रेष्ठतम चित्र बनावेगा उसको लाखों रुपए पुरस्कार मिलेंगे और वह चित्रकार ‘राज्य-कलागुरु’ भी हो जाएगा। हजारों चित्रकारों ने चित्र बनाए। जब सारे चित्र आए तो राजा दंग रह गया, क्योंकि तय करना मुश्किल था। सभी चित्र अदभुत थे। एक से एक सुंदर चित्र। कैसे निर्णय हो? राजा पहले तो सोचता था कि निर्णय आसान होगा लेकिन निर्णय बहुत मुश्किल था। राजा पहले तो सोचता था कि निर्णय आसान होगा लेकिन निर्णय बहुत मुश्किल हो गया। तब उसने पूछा कि कौन निर्णय करेगा? किसी कलागुरु को बुलाओ। एक बूढ़ा चित्रकार था जिसने प्रतियोगिता में भाग नहीं लिया था, उसे बुलाया गया। उस बूढ़े से कहा कि इन चित्रों को देखकर पहचानो कि कौन-सा चित्र ठीक है। उसको हम राज-मोहर पर रखना चाहते हैं। वह बूढ़ा अंदर बैठा गया। दरवाजे उसने बंद कर लिए और साथ में एक मुर्गा भी ले गया। राजा ने पूछा, इस मुर्गे को किसलिए ले जा रहे हो? उसने कहा कि वह आप नहीं जानते।
मैं कैसे पहचानूंगा कि कौन मुर्गा ठीक है? मुर्गा ही पहचान सकता है। राजा ने कहा..पागल हो गए हो। मुर्गा कैसे पहचानेगा? उस बूढ़े ने कहा, मैं जानता हूं। एक-एक चित्र खिड़की से बाहर खींचा जाने लगा। वे अस्वीकृत हो गए। अंत में सारे चित्र बाहर फेंक दिए गए तो राजा मुश्किल में पड़ा। पहले तो मुश्किल यह थी कि कौन-सा चित्र ठीक है। उस बूढ़े ने सब चित्र रद्द कर दिए। राजा ने पूछा, क्या मामला है? ये सब चित्र बेकार हैं? उस बूढ़े ने कहा, सब बेकार हैं। कसौटी क्या है, राजा ने पूछा। उसने कहा, मैं मुर्गे को भीतर लाया और हर चित्र के सामने मुर्गे को खड़ा किया। मुर्गे ने किसी भी चित्र में मुर्गे को देखा भी नहीं। चिंता भी नहीं की। अगर मुर्गे को चित्र जीवित मालूम पड़ता तो मुर्गा बांग देता, लड़ने को खड़ा हो जाता। लेकिन मुर्गे ने कोई फिक्र ही नहीं की। चित्र पड़ा रहा एक कोने में, मुर्गा कमरे में घूमता रहा। मुर्गे ने ख्याल नहीं किया कि दूसरा भी मुर्गा है। इसलिए बेकार है, चित्र जिंदा नहीं है।
राजा ने कहा, तब तो बड़ी मुश्किल हो गई, जिंदा चित्र कैसे बनेगा? आप बनाएं। उस बूढ़े ने कहा, मैं बहुत बूढ़ा हो गया और अब इस उम्र में बड़ी कठिनाई पड़ेगी। राजा ने कहा, क्या कठिनाई है? उस बूढ़े ने कहा, पहले मुझे मुर्गा बनना पड़ेगा, तब मैं मुर्गा बना सकता हूं। मुर्गे को बाहर से देखना है, उसकी आकृति को देखना है, पर उसकी आत्मा बाहर से नहीं देखी जा सकती। इसलिए मुर्गे को बाहर से देखकर जो चित्र बनाता है, वह मुर्गे के शरीर का चित्र बनाना है, मुर्गें की आत्मा का नहीं। मुर्गे की आत्मा का सिर्फ मुर्गा जान सकता है। उस बूढ़े ने कहा, बड़ी बात तो यह है कि तुम मुर्गा बनोगे कैसे? और अगर बन गए तो फिर मेरा चित्र कौन बनाएगा? क्योंकि मुर्गे तो बहुत हैं। उस बूढ़े ने कहा, मैं एक कोशिश करता हूं, लेकिन जल्दी नहीं। जल्दी नहीं हो सकता यह काम। अगर आदमी की तस्वीर बनवानी हो, तो मैं अभी बना दूं क्योंकि मैं आदमी हूं। मुर्गे की तस्वीर मैं कैसे बना सकता हूं? मुर्गे को जाना ही नहीं कि मुर्गा भीतर से कैसे अनुभव करता है। जब वह बांग देता है तो उसके भीतर क्या होता है, जब वह भयभीत होकर भागता है तो उसके भीतर क्या होता है, मुझे कुछ पता नहीं। मैं जानता हूं कि जब मैं भयभीत होता हूं तो क्या होता है, जब मैं क्रोध से भरता हूं तो क्या होता है, जब मैं प्रेम से भर जाता हूं तो भीतर क्या होता है, वह मैं जानता हूं। आदमी कैसा अनुभव करता है, वह मैं जानता हूं, आदमी क्या है, वह मैं जानता हूं। मुर्गे को जानने की मैं अब कोशिश करता हूं।
वह चित्रकार एक जंगल में चला गया, तीन साल की मोहलत मांग कर। राजा ने छह महीने बाद अपने आदमी भेजे कि देखो वह बूढ़ा है कि मर गया। आदमी ने वहां से लौटकर कहा कि आप पागल के चक्कर में पड़ गए है। वह जंगल मुर्गों के साथ बैठा हुआ है, कपड़े सब खो गए हैं, नंगा है। मुर्गों की तरह छलांग लगाता है, मुर्गों की तरह चिल्लाता है। हमें देखकर वह मुर्गे की तरह बांग देने लगा। हमने कहा, हो गया! इस पागल से कैसे चित्र बनेगा? यह मुर्गा हो जाएगा, यह तो ठीक है, लेकिन चित्र कैसे बनाएगा? साल भर बीत गया। फिर आदमी गए। दो साल बीत गए, तीन साल बीते। वह आदमी एक दिन दरबार में आकर खड़ा हो गया नंगा और मुर्गे की बांग दी। राजा ने अपने सिर पर हाथ मार लिया। उसने कहा, यह तो ठीक है कि आप मुर्गे की बांग सीख गए। लेकिन चित्र कहां है? उसने कहा, चित्र तो अब एक क्षण में बन जाएगा। चित्र बनाने में क्या देर लगती है?
मैंने मुर्गे का जीवन जीने की कोशिश की है। हालांकि वह पूरा प्रामाणिक नहीं होगा, क्योंकि फिर भी मैं आदमी हूं। लेकिन अब मैं मुर्गे के पास रहा हूं, मुर्गे से लड़ा हूं, मुर्गे को प्रेम किया है, मुर्गे से दुश्मनी की है, मुर्गे से दोस्ती की है, मुर्गे की भाषा मैं समझने लगा हूं, मुर्गे मेरी भाषा समझने लगे हैं। अब मैं कुछ थोड़ा मुर्गे को बना सकता हूं। उसने कलम उठाई और चित्र बना दिया। एक मुर्गे को अंदर बुलाया। चित्र देखकर मुर्गा दरवाजे पर ही ठहर गया और जोर से उसने बांग दी। कमरे के भीतर आने से मुर्गे ने इंकार कर दिया। कमरे के भीतर और भी जानदार मुर्गे हैं। मुर्गा डरा और भागने लगा। मुर्गे को भीतर लाने की कोशिश की, मुर्गा बाहर भागने लगा। उस चित्रकार ने कहा..बस, ठीक है, यह मुर्गा काम देगा, क्योंकि इसे मुर्गा भी मानता है कि यह मुर्गा है।
आदमी न ईश्वर को जान सकता है, न आदमी दूर की अनंत बातों को। आदमी अगर प्रामाणिक रूप से कुछ जान सकता है तो सिर्फ आदमी को। और अगर आदमी को जान ले तो आदमी इतनी बड़ी इकाई है कि आदमी को जितना जानता चला जाए उतनी नई-नई दिशाएं आदमी के भीतर से खुलती हैं। और उन दिशाओं से वह वहां तक की भी यात्रा कर सकता है जहां हमें नहीं दिखाई पड़ता कि आदमी जुड़ा हुआ है। हम अपने भीतर ही नहीं गए हैं। न हम अपने क्रोध को जानते हैं, न अपने प्रेम को, न अपनी चिंता को, न अपनी अशांति को, न अपने तनावों को, न अपनी नींद को, न अपने जागरण को, हम कुछ भी नहीं जानते अपने बाबत। हम सोते जरूर हैं लेकिन कोई अगर पूछ ले कि नींद क्या है, एक आदमी भी उत्तर नहीं दे सकता। हम कहेंगे कि हम सो जाते हैं। लेकिन नींद क्या है? यह कौन सी घटना है जो नींद में घट जाती है और आदमी एकदम किसी और दुनिया में चला जाता है।
जागरण क्या है? क्रोध क्या है? और प्रेम क्या है? मनुष्य के व्यक्तित्व को हम केंद्र बनाएंगे तो ये सारे आयाम खोजने पड़ेंगे। जितना हम इन आयामों में खोज करते हैं उतने ही नए-नए द्वार खुलते जाते हैं और एक दिन मनुष्य द्वार बन जाता है परमात्मा का और हम मनुष्य को जानकर उसे जान लेते हैं जिसे मनुष्य को जाने बिना जानने का कोई उपाय नहीं है। जिस दिन हम मनुष्य के व्यक्तित्व के सारे पहलू जान लेते हैं, उसी दिन मुक्ति शुरू हो जाती है। क्योंकि जो निरर्थक है, वह गिर जाता है और जो सार्थक है वह शेष रह जाता है। एक आदमी जानता है तो कांटों पर नहीं चलता, नहीं जानता है तो चला जाता है। जानता है तो फिर कांटों से बच कर चलता है। जैसे ही हम भीतर जानने लगते हैं, जीवन के जो कांटे हैं वे विसर्जित होने लगते हैं। अभी तो हमारी हालत ऐसी है कि हम कांटे बोते हैं, उनको पानी डालते हैं, उनको खाद डालते हैं, उनको बड़ा करते हैं और जब लहुलुहान हो जाते हैं तो चिल्लाते हैं कि हम इन अशांतियों से कैसे बचें? हम ही अशांतियों को पैदा करते हैं, निर्मित करते हैं, हम उनको जन्मदाता हैं, उनको पानी देते हैं और संभालते हैं, उनको बड़ा करते हैं। जब अशांति प्राणों को छेदने लगती हैं तो गुरु के चरणों में जाकर पूछते हैं कि शांत होने का रास्ता बताओ। वह हमें कह देता है कि जाओ, राम-रात जपो और शांत हो जाओ। जैसे राम-राम न जपने से अशांति पैदा हुई हो।
अगर राम-राम न जपने से अशांति पैदा हुई हो तो तब तो राम-राम जपने से चली जाएगी, लेकिन अशांति को पैदा करने के कारण बिल्कुल दूसरे हैं। उनके राम-राम से कोई संबंध ही नहीं। वे कारण मौजूद रहेंगे और आप राम-राज जपते रहेंगे। तब परिणाम यह होगा कि अशांति कायम रहेगी और राम-राम जपना एक नई अशांति हो जाएगी। सारी अशांति अपनी जगह है। वह सब अपनी जगह है और ऊपर से घृणा और क्रोध से भरा हुआ आदमी राम-राम भी जप रहा है। यह एक और परेशानी उसने मोल ले ली है। इसलिए तथाकथित धार्मिक आदमी और भी अशांत हो जाते हैं। एक साधारण आदमी उतना अशांत नहीं मिलेगा जितना धार्मिक आदमी शांत मिलेगा। एक साधारण आदमी उतना क्रोधी नहीं मिलेगा, जितना संन्यासी क्रोधी मिलेगा। उसका कारण है। क्योंकि सारी अशांतियों के कारण तो अपनी जगह मौजूद है और उन्होंने नए पागलपन ईजाद कर लिए हैं। इनकी अशांति गहरी हो जाएगी, दुगुनी हो जाएगी। कोई आदमी कभी इस तरह शांत नहीं हो सकता। ध्यान रहे, अशांत आदमी शांत हो ही नहीं सकता। आप कहेंगे फिर तो बड़ी मुश्किल हो गई। हम तो सब अशांत हैं फिर शांत कैसे होंगे? अशांत आदमी कभी शांत नहीं होता। अशांति को समझ लें तो अशांति गिर जाती है और जो शेष रह जाता है उसका नाम शांति है। शांति अशांति के विपरीत नहीं है कि आप अशांत हैं और शांत हो जाएं। शांति अशांति का अभाव है। जब आप अशांत नहीं रह जाते हैं तब जो घटना घटती है उसका नाम शांति है। इसलिए सवाल शांत होने का नहीं है, सवाल अशांति को जानने-पहचानने का है। अशांति को जितना कोई आदमी पहचान लेगा, उतना अशांत वह कम होगा। जितनी गहरी पहचान बढ़ेगी, अशांति गिरती चल जाएगी। एक दिन आएगा, अशांति के सारे कारण जान लिए जाएंगे, फिर कैसे कोई अशांत होगा? अशांति खत्म हो जाएगी। लेकिन हम अशांति खोना नहीं चाहते और शांति पाना चाहते हैं, तब एक अदभुत एक तनाव पैदा होता है जो जिंदगी को खो जाता है। हिंसा से भरा हुआ आदमी अहिंसक नहीं हो सकता। हां, हिंसा चली जाए तो जो शेष रह जाती है उसका नाम अहिंसा है।
आदमी अपने को जितना जाने, उतना ही वह बदलने लगता है। ज्ञान से तेरा मतलब वेद का ज्ञान नहीं, उपनिषद का ज्ञान नहीं। ज्ञान से मतलब मनुष्य का ज्ञान, वह जो मैं हूं, उसका ज्ञान जैसा मैं हूं। उस ज्ञान का मतलब यह नहीं है कि किताब में लिखा है कि मैं ब्रह्म हूं तो बैठ कर आत्मज्ञानी कह रहा है कि मैं ब्रह्म हूं। मैं ब्रह्म हूं, यह कोई ज्ञान नहीं है। किताब में लिखा है कि आप ब्रह्म हैं और आप भली भांति जानते हैं कि ब्रह्म आप बिल्कुल नहीं हैं। आप क्रोध हो सकते हैं, दुश्मन हो सकते हैं, जहर हो सकते हैं, ब्रह्म कहां? और आप ब्रह्म होते तो फिर यह दोहराने की क्या जरूरत भी बैठकर? ब्रह्म कहीं बैठ कर दोहराता होगा कि मैं ब्रह्म हूं? अगर कोई पुरुष किसी कोने में बैठकर दोहराने लगे कि मैं पुरुष हूं तो पास-पड़ोस के लोगों को शक होगा कि कुछ गड़बड़ है। क्योंकि अगर यह है, तो दोहराना क्या है। बात खतम हो गई। हम हमेशा वही दोहराते हैं जो हम नहीं होते। ध्यान रखना, हम हमेशा वही घोषणा करते हैं जो हम नहीं होते हैं। अज्ञानी ज्ञान की घोषणा करता है, मूढ़ सर्वज्ञ होने की घोषणा करता है, अहंकारी विनम्र होने की घोषणा करता है, हिंसक अहिंसक होने का दावा करता है। लेकिन जो होता है उसके दावे खो जाते हैं, उसे दावे का पता ही करता है। लेकिन जो होता है उसके दावे खो जाते हैं, उसे दावे का पता ही नहीं चलता। जिसके भीतर से हिंसा चली गई, उसे कैसे पता चल सकता है कि मैं अहिंसक हूं? होने का पता सिर्फ उनका चलता है जितनी हिंसा पूरी तरह मौजूद है। स्वयं के ज्ञान का मतलब यह नहीं है कि शास्त्रों में जो लिखा है उसे हम दोहराएं। स्वयं के ज्ञान का मतलब है जो हूं अपनी असलियत में, जैसा भी हूं।
बहुत नारकीय है यह स्थिति। उसे खोलेंगे तो बहुत दुर्गंध आएगी। लोग आम तौर से कहते हैं कि अगर हम शरीर को खोलेंगे तो हड्डी मांस-मज्जा मिलेगा। लेकिन अपनी आत्मा को खोलिएगा तो हड्डी, मांस-मज्जा से भी ज्यादा गंदगी मिलेगी, क्योंकि शरीर में कहीं भी क्रोध नहीं है, शरीर में कहीं भी घृणा नहीं है, शरीर में कहीं भी ईष्र्या नहीं है। ये सब कहां हैं? ये आप हैं। ये हमारे भीतर हैं। वहां खोलना पड़ेगा। वहां खोलने से बहुत घबराहट होगी। लेकिन उसे खोले बिना, उसे जाने बिना कोई रूपांतरण नहीं है। और जिस दिन हम शास्त्रों को नहीं, परमात्मा को नहीं, मनुष्य को केंद्र बनाएंगे, उस दिन हम मनुष्य को पूरा खोल सकेंगे। और ध्यान रहे जितना हम स्वयं को जान लें, उतने ही हम दूसरे होने शुरू हो जाते हैं। क्योंकि जानते हुए कोई भी आदमी दीवाल से निकलने की कोशिश नहीं करता, दरवाजा मालूम हो तो आदमी दरवाजे से निकलता है। दरवाजा मालूम न हो तो दीवाल से टकराता है। हमें पता ही नहीं कि हम क्या हैं? इसलिए जिंदगी में रोज टकराहट होती है। मनुष्य को जानने से एक दिन परमात्मा उपलब्ध हो जाता है।

समाप्त 


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें