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मंगलवार, 28 अगस्त 2018

जीवन की खोज-(विविध)-प्रवचन-03

तीसरा-प्रवचन-(द्वार)

मेरे प्रिय आत्मन्!
बीते दो दिनों में हमने सत्य की तलाश में दो सीढ़ियों की बातें कीं। एक तो जीवन में प्यास चाहिए, उसके बिना कुछ भी संभव नहीं होगा। और बहुत कम लोगों के जीवन में प्यास है। प्यास उनके ही जीवन में संभव होगी परमात्मा की या सत्य की जो इस जीवन को व्यर्थ जानने में समर्थ हो गए हों। जिन्हें इस जीवन की सार्थकता प्रतीत होती है, जब तक सार्थकता प्रतीत होगी, तब तक, तब तक वे प्रभु के जीवन के लिए लालायित नहीं हो सकते हैं। इसलिए मैंने कहा कि इस जीवन की वास्तविकता को जाने बिना कोई मनुष्य परमात्मा की आकांक्षा से नहीं भरेगा। और जो इस जीवन की वास्तविकता को जानेगा, वह समझेगा कि यह जीवन नहीं है, बल्कि मृत्यु का ही लंबा क्रम है। हम रोज-रोज मरते ही जाते हैं, हम जीते नहीं हैं। यह मैंने कहा। दूसरी सीढ़ी में हमने विचार किया कि यदि प्यास हो तो क्या अकेली प्यास मनुष्य को ईश्वर तक ले जा सकेगी? निश्चित ही प्यास हो सकती है और मार्ग गलत हो सकता है। उस स्थिति में प्यास तो होगी, लेकिन मार्ग गलत होगा तो जीवन और असंतोष और असंतोष से और भी दुख और भी पीड़ा से भर जाएगा। साधक अगर गलत दिशा में चले तो सामान्य जन से भी ज्यादा पीड़ित हो जाएगा, यह हमने दूसरे मार्ग के संबंध में विचार किया।

मार्ग के बाबत मैंने कहा कि विश्वास भी मार्ग नहीं है, क्योंकि विश्वास भी अंधा होता है, और अविश्वास भी मार्ग नहीं है, क्योंकि अविश्वास भी अंधा होता है। नास्तिक और आस्तिक दोनों ही अंधे होते हैं। और जिस के पास आंख होती है, वह न तो आस्तिक रह जाता है, और न नास्तिक रह जाता है। और जो व्यक्ति समस्त पूर्व धारणाओं से आस्तिक होने की, नास्तिक होने की, हिंदू होने की, मुसलमान होने की, यह होने की, वह होने की, समस्त वादों, समस्त सिद्धांतों और शास्त्रों से मुक्त हो जाता है, वही मनुष्य, उसी मनुष्य का चित्त स्वतंत्र होकर परमात्मा के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है। जो किसी विचार से बंधा है, जो किसी धारणा के चैखटे में कैद है, जिसका चित्त कारागृह में है, वह मनुष्य भी परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता। परमात्मा तक पहुंचने में केवल वही सुपात्र बन सकेंगे, जो परमात्मा की भांति स्वतंत्र और सरल हो जाएं। जिनके चित्त स्वतंत्रता को उपलब्ध होंगे, वे ही केवल सत्य को पा सकते हैं। यह हमने विचार किया। और आज तीसरी सीढ़ी पर द्वार के संबंध में विचार करना चाहते हैं।
परमात्म-जीवन का द्वार क्या है? किस द्वार से प्रवेश होगा? मार्ग भी ठीक हो, लेकिन अगर द्वार बंद रह जाए तो प्रवेश असंभव हो जाता है। प्यास हो, और मार्ग भी हो, लेकिन द्वार बंद हो तो प्रवेश नहीं होता। इसलिए द्वार पर विचार करेंगे। क्या द्वार होगा? निश्चित ही, जिस द्वार से हम परमात्मा से दूर होते हैं, उसी द्वार से हम परमात्मा में प्रवेश भी करेंगे। जो दरवाजा आपको भीतर लाया है इस भवन के, वही दरवाजा इस भवन के आपको बाहर ले जाएगा। द्वार हमेशा बाहर और भीतर जाने का एक ही होता है, केवल हमारी दिशा बदल जाती है, हमारी उन्मुखता बदल जाती है। जब हम बाहर जाते हैं तब और जब हम भीतर आते हैं तब दोनों ही स्थितियों में द्वार वही होता है, केवल हमारे चलने की दिशा बदल जाती है। कौन सी चीज हमें परमात्मा के बाहर ले आई है? उस पर अगर विचार करेंगे तो वही चीज हमें परमात्मा क े भीतर भी ले जा सकेगी।
सुना होगा आपने, बहुत पुरानी बाइबिल की कथा है..अदम और ईव स्वर्ग के राज्य से बहिष्कृत किए गए, एक छोटे से कसूर पर। और वह कसूर बहुत विचारणीय है। वे इस कसूर पर स्वर्ग के राज्य के बाहर किए गए कि उन्होंने ज्ञान के वृक्ष के फल को खा लिया। वह जो ट्री ऑफ नालेज था, अदम के बगीचे में एक वृक्ष था, जिसका नाम था..ज्ञान का वृक्ष। और परमात्मा ने कहा कि तुम सारे वृक्षों के फल खाओ, लेकिन इस ज्ञान के वृक्ष का फल मत खाना। लेकिन उन्होंने उस ज्ञान के वृक्ष का फल खा लिया और वे उस स्वर्ग के राज्य से बाहर निकाल दिए गए। यह कहानी तो कहानी ही है, काल्पनिक ही है, लेकिन बहुत गहरे अर्थ उसमें हैं। मनुष्य का निष्कासन हुआ है परमात्मा से, ज्ञान के फल के कारण। और अगर मनुष्य अपने ज्ञान को छोड़ने में समर्थ हो जाए तो वह परमात्मा में पुनः प्रवेश पा सकता है। ज्ञान आपको परमात्मा से दूर कर रहा है। आप सोचेंगे कि हम तो यह सोचते हैं कि ज्ञान हमें परमात्मा के निकट ले जाता है। मैं आपको कहूं आप जिसे ज्ञान समझते हैं, वही ज्ञान आपको परमात्मा से दूर करता है। अगर आप उस ज्ञान को छोड़ दें तो जो शेष रह जाएगा, या तो उसे डिवाइन इग्नोरेंस कहें, उसे दिव्य अज्ञान कहें, या फिर उसी को ज्ञान कहें, वह आपको परमात्मा से जोड़ देगा। हमारा मन हमें हमारी सत्ता से दूर ले जा रहा है। हम जितना विचार करते हैं, उतना ही अपने से दूर चले जाते हैं। और हम सारे लोग विचार कर रहे हैं। जो मनुष्य जितना ज्यादा विचार में उलझा होगा, वह उतना ही अपनी मूल सत्ता से दूर चला जाएगा।
रात आप स्वप्न देखते हैं, हो सकता है आप स्वप्न में अपने घर में सोए हों, लेकिन स्वप्न में आप बहुत दूर निकल जा सकते हैं, आप चांद पर जा सकते हैं। जाग कर आप पाएंगे आप अपने झोपड़े में प.ड़े थे, लेकिन स्वप्न में आप चांद पर चले गए थे। तो आपके घर और चांद के बीच की जो दूरी थी वह आपके स्वप्न ने पैदा कर दी थी। आपका स्वप्न आपको दूर ले गया था। इसी भांति हमारे विचार जहां हम हैं, वहां से हमें दूर ले जा रहे हैं। और जो मनुष्य विचार में जितना दूर चला जाता है, उतना ही अपने बीच और परमात्मा के बीच फासला कर लेता है। अगर हमारे सारे विचार शून्य हों, सारे विचार विलीन हो जाएं तो हम वहां होंगे जहां परमात्मा है। इसलिए परमात्मा की प्रार्थना में, या परमात्मा के ध्यान में और कुछ भी करने की बात नहीं है, कोई मनुष्य अगर सारे विचार छोड़ने में समर्थ हो जाए तो वह प्रभु में प्रवेश पा जाएगा। विचार के द्वार से हम परमात्मा से बाहर हुए हैं, विचार के द्वार से ही वापस लौट कर हम परमात्मा में प्रविष्ट हो सकते हैं।
एक, मैंने सुना है, एक कहानी मैंने सुनी है। एक आदमी को यह ख्याल हुआ कि मैं दुनिया का अंत खोजने जाऊं। उसने सोचा कहीं न कहीं दुनिया का अंत जरूर आता होगा। कहीं न कहीं दुनिया जरूर समाप्त होती होगी। वह आदमी खोजने गया, उसने बहुत वर्षों यात्रा की, उसके मित्रों ने, उसके प्रियजनों ने उसे रोका था, इस यात्रा पर मत जाओ, पता नहीं दुनिया कहीं समाप्त होती हो या न होती हो? लेकिन उस आदमी ने कहाः जब दुनिया है तो कहीं जरूर शुरू होती होगी और कहीं जरूर समाप्त होती होगी। वह इस जिद पर, इस तर्क पर दुनिया के अंत की खोज में चला गया। उसने बहुत यात्राएं कीं, वह युवा निकला था और बूढ़ा हो गया। थक गए उसके पैर, उसका मन भी घबड़ाने लगा कि पता नहीं दुनिया का अंत आएगा या पहले मेरा अंत आ जाएगा। लेकिन अंततः बहुत थका हुआ, बहुत यात्रा करने के बाद वह एक जगह पहुंचा, जहां एक तख्ती पर लिखा हुआ थाः हिअर एण्ड्स दि वल्र्ड। वहां लिखा हुआ थाः यहां दुनिया समाप्त हो जाती है। वहां तो कोई भी नहीं था, वहां तो गहरा सन्नाटा था। सिर्फ एक छोटा सा मंदिर था, और वह तख्ती लगी हुई थी। वह तख्ती से आगे बढ़ा और थोड़ी ही दूर जाकर उसने पाया कि दुनिया वहां समाप्त हो गई है। वहां सीमा-रेखा आ गई है। और उस तरफ तो क्यास है और कुछ भी नहीं है। उस तरफ तो कुछ भी नहीं है, अराजकता है, वहां तो निराकार, अंधकार, शून्य फैला हुआ है। उसने झांक कर देखा, उसके प्राण कंप गए। अगर आपने किसी पहाड़ से झांक कर देखा हो तो प्राण कंप जाते हैं। उसने तो वहां से खड़े होकर देखा जहां दुनिया समाप्त हो जाती थी। वहां अनंत खड्ढ था और नीचे कोई तल नहीं था। वहां ऊपर भी अनंत था और वहां भी कोई तल नहीं था। वहां आगे भी शून्य था और कोई तल नहीं था। उसने झांक कर देखा, उसके प्राण कंप गए। वह वापस भागा हुआ आया, वह मंदिर के द्वार पर जाकर गिर पड़ा। पुजारी ने उसे उठाया और उस पुजारी ने पूछा कि क्या हुआ?
उसने कहाः मैं दुनिया के अंत पर पहंुच गया था, मेरे प्राण कंप रहे हैं, मैं बहुत घबड़ा गया हूं। उस पुजारी ने कहाः अगर तुम उस जगह जहां सब समाप्त हो जाता है, कूद जाते तो तुम्हें वह मिल जाता जहां सब शुरू होता है। अगर तुम उस अनंत गड्ढे में कूद जाते जहां दुनिया समाप्त हो जाती है, तुम्हेें परमात्मा मिल जाता।
जहां दुनिया समाप्त होती है, वहीं परमात्मा का प्रारंभ है। जहां हमारे विचार की दुनिया टूटती है, समाप्त होती है, वहीं हम परमात्मा के जीवन में प्रवेश कर जाते हैं। जो आदमी विचार में है, वह आदमी दुनिया में है। और जो आदमी विचार के बाहर है, वह दुनिया के बाहर है। इसलिए कोई यह न सोचे कि एक आदमी घर छोड़ कर भाग जाए तो वह संन्यासी हो गया है। घर छोड़ कर भागने से कोई संन्यासी नहीं होता। लेकिन अगर कोई विचार को छोड़ दे तो जरूर संन्यासी हो जाता है। विचार को ही मैं घर कहता हूं। विचार को ही मैं गृहस्थी कहता हूं। विचार को ही मैं संसार कहता हूं। जो विचार से मुक्त हो जाता है, वह संन्यास में प्रविष्ट हो जाता है। और जो विचार को छोड़ने में समर्थ हो जाता है, उसका घर छूट जाता है। फिर वह कहीं भी हो, उसका कोई घर नहीं है। ये दीवालें जो आपको दिखाई पड़ती हैं, मिट्टी और पत्थर की, यह आपका घर नहीं है। ये दीवालें किसी को क्या रोकेंगी? आपके घर हैं आपके विचार, और विचारों की दीवालें। वे आपको रोके हुए हैं। तो मैं आपको कहना चाहूंगा, आज की इस चर्चा में कि विचार से मुक्त हो जाना द्वार है। और फिर विचार हमारे बहुत हैं, जन्म-जन्मों से, परंपराओं-परंपराओं से, सदियों-सदियों से विचार का पोषण हुआ है। हमने विचार सीखे हैं। हमने विचार इकट्ठे किए हैं। विचार की पर्त-पर्त हमारे मन पर इकट्ठी हो गई है। बहुत धूल इकट्ठी हो गई है, उसकी बहुत दीवालें बन गई हैं। अगर हम अपने भीतर जाएंगे तो सिवाय विचार के हमको कुछ भी नहीं मिलेगा।
यह आपने सुना होगा, लोग कहते हैं, पुराने ग्रंथ कहते हैं, पुराने ऋषि कहते हैं, अपने भीतर जाओ तो वहां आत्मा के दर्शन होंगे। कभी आप अपने भीतर गए? अगर आप अपने भीतर जाएंगे तो वहां विचारों के दर्शन होंगे। आत्मा का कोई दर्शन नहीं होगा। जब भी आप भीतर जाएंगे, आपको विचारों के दर्शन होंगे। आत्मा-वात्मा का कोई दर्शन आपको नहीं हो सकता, ये विचारों की ही पर्तें इतनी ज्यादा हैं, ये विचारों की लहरें ही इतनी ज्यादा हैं कि जब तक इनको प्रवेश करके भीतर न जाएं, तब तक आत्मा का दर्शन नहीं हो सकता। आप करीब-करीब, थोड़ा-बहुत घूम कर वापस लौट आएंगे। विचारों को अनुभव करके वापस लौट आएंगे। जैसे समुद्र पर बहुत लहरें हों, बहुत तूफान आया हो और कोई आदमी जाए और उन लहरों को ही समुद्र मान कर वापस लौट आए, वैसी ही गलती आपकी हो जाएगी। समुद्र लहरों में नहीं है, यद्यपि लहरें जरूर समुद्र में होती हैं। लहरें जरूर समुद्र में होती हैं, लेकिन समुद्र लहरों में नहीं है। समुद्र बहुत ज्यादा है। समुद्र बिना लहरों के भी हो सकता है, लेकिन लहरें बिना समुद्र के नहीं हो सकतीं। बिना विचार के आपकी आत्मा हो सकती है, लेकिन आपके विचार बिना आत्मा के नहीं हो सकते। पर वे विचारों से ही हम लौट कर आ जाते हैं।
वह डेविड ह्यूम हुआ वहां, एक अंग्रेज विचारक हुआ। उसने लिखा, मैंने सुना कि नो दायसेल्फ, मैंने सुना कि अपने को जानो, मैंने सुना कि अपने भीतर जाओ तो मैं बहुत बार अपने भीतर गया हूं, लेकिन सब बकवास है। वहां कोई आत्मा नहीं मिलती है, वहां तो सिर्फ विचार ही विचार मिलते हैं, कभी इस विचार से टकरा जाता हूं, कभी उस विचार से; कभी इस स्मृति से, कभी उस कल्पना से; कभी यह वासना, कभी वह विकार; इन्हीं से टकरा कर वापस लौट आता हूं। इन्हीं की भीड़ है भीतर, वहां कोई आत्मा नहीं है। उसने ठीक लिखा, उसने ईमानदारी की बात लिखी। यही है, जहां तक आप भीतर जाएंगे, इसी को पाएंगे। लेकिन इसके भीतर भी जाना संभव हो सकता है। और अगर ह्यूम मुझे मिला होता तो उससे मैं यही कहता कि यह तो तुम बिल्कुल ही ठीक कहते हो, कभी विचार से टकरा जाता हूं, कभी वासना से, कभी कल्पना से, लेकिन कौन टकरा जाता है। जो टकरा जाता है, वह विचार नहीं हो सकता है। कौन भीतर जाता है? वह जो बोध भीतर जाता है और देखता है कि विचार हैं, वह बोध क्या है? वह बोध विचार नहीं है। ह्यूम विचार नहीं है, ह्यूम तो देखने वाला है, जो अनुभव कर रहा है कि विचार मिल गए, कल्पनाएं मिल गईं, स्मृतियां मिल गईं; जिसके सामने ये विचार घूम रहे हैं, यह विचारों की फिल्म चल रही है, वह कौन है? निश्चित ही वह विचार नहीं है, वह देखने वाला जो द्रष्टा है, वह जो साक्षी है, वह जो विटनेस है, वह अलग है। और उसको ही जानना, सत्य में जाने का द्वार है। बिना विचार को छोड़े यह नहीं होगा, फिर स्मरण रखें कि हम विचार को क्यूं इकट्ठा करते हैं? अगर हम यह नहीं समझ सकेंगे तो हम विचार को छोड़ भी नहीं सकेंगे। तो कुछ विचार के बाबत समझ लेंगे, तो विचार को छोड़ने में, विचार से ऊपर उठने में आसानी हो जाएगी।
हम विचार को इकट्ठा क्यों करते हैं? असल में हम कोई भी चीज इकट्ठी क्यों करते हैं? हम धन क्यों इकट्ठा करते हैं? शायद कभी यह नहीं सोचा होगा कि हम धन क्यों इकट्ठा करते हैं? जरूरत है, एक सीमा पर जरूरत भी पूरी हो जाती है, फिर भी हम धन को इकट्ठा करते रहते हैं।
मैंने सुना, कितने दूर तक आपकी जरूरत होगी? एण्ड्रू कारनेगी अमरीकी करोड़पति मरा, तो कोई चार अरब की संपत्ति अपने पीछे छोड़ कर मरा। लेकिन अभी भी कमा रहा था। अभी भी इकट्ठा कर रहा था। चार अरब रुपये कि किसी को भी कोई जरूरत नहीं हो सकती है; जरूरत तो खत्म हो गई। लेकिन फि र भी रुपये इकट्ठे करने का पागलपन सवार है। आपकी जरूरत पूरी हो जाती है, फिर भी आप इकट्ठा करते हैं, क्यों? इकट्ठा करने से आपको अपने होने पर विश्वास आ जाता है। आपको लगता है, मैं कुछ हूं। आपको विश्वास आ जाता है कि मेरी भी कोई सत्ता है। आपको अनुभव होने लगता है कि मैं सुरक्षित हूं, मेरी सिक्योरिटी है। जितना ज्यादा संग्रह आपके पास होता है, आपको लगता है मैं कुछ हूं, मैं नकार नहीं हूं। आपको लगता है, मैं मृत्यु के मुकाबले खड़ा हो सकूंगा। आपको लगता है, मुझे मिटाया नहीं जा सकता, मेरे पास ताकत है।
संग्रह शक्ति को इकट्ठा होने का भ्रम दे देता है। इसलिए जितने शक्तिहीन लोग होते हैं, वे जरूर किसी न किसी तरह के संग्रह में पड़ जाते हैं। जितना दरिद्र आदमी होता है, उतना ही ज्यादा धन को इकट्ठा करने में लग जाता है। क्योंकि दरिद्रता को छिपाने का और कोई रास्ता नहीं है। दरिद्रता को छिपा लेने का और कोई रास्ता नहीं है, सिवाय इसके कि धन का संग्रह इकट्ठा हो जाए तो हम भूल जाएंगे कि हम दरिद्र हैं। लेकिन दरिद्रता मिटेगी नहीं। धन दरिद्रता को कभी न मिटाया है और न कभी मिटा सकता है। कितना ही धन इकट्ठा हो, आप अगर दरिद्र हैं तो दरिद्र रहेंगे और बिल्कुल ही आपके पास धन न हो, अगर आप भीतर समृद्ध हैं तो आप समृद्ध रहेंगे। इसलिए दुनिया में यह अदभुत घटना घटी है कि बादशाह यहां दरिद्र देखे गए हैं और यहां दरिद्र भी बादशाह देखे गए हैं।
एक फकीर एक गांव के एक रास्ते पर खड़ा था और उसने कहा कि मेरे पास कुछ पैसे हैं, और ये मैं पैसे इस नगर के सबसे गरीब आदमी को देना चाहता हूं। तो गांव के सारे लोग इकट्ठे हो गए, जो बहुत गरीब थे, उन्होंने आकर कहा कि हमें दे दो। गरीबों ने दावा किया कि हम सबसे ज्यादा गरीब हैं, हमें मिल जाएं। उस फकीर ने कहा कि रुपये तो मैं जरूर दूंगा, किसी न किसी गरीब को मुझे देना है, लेकिन सबसे बड़े गरीब को देना है। तो अभी जब सबसे बड़ा गरीब आएगा तो मैं दे दूंगा। तो भिखमंगे से भिखमंगे लोग आए। गांव में एक अंधा, लंगड़ा, अपाहिज भिखमंगा था, जिसके पास कुछ भी नहीं था, जिसके कपड़े भी नहीं थे, जो बिल्कुल नंगा पड़ा रहता था, वह भी घिसटता हुआ आया और उसने कहाः मुझे दे दो और मुझसे ज्यादा दरिद्र आदमी और कहां मिलेगा? उसने कहाः ठहर जाओ, दरिद्रो, ठहर जाओ, सबसे बड़ा दरिद्र आ जाए तो मैं उसे दूंगा। अब तो गांव में उससे बड़ा दरिद्र कोई भी नहीं था। लेकिन तभी राजा की सवारी निकली और उस फकीर ने अपने पैसे उस राजा की सवारी के ऊपर फेंक दिए। उस राजा ने कहाः यह क्या है? रुपये क्यों मेरे पास फेंके? और वह भिखमंगे चिल्लाने लगे कि तुमने तो वादा किया था, हम सबसे गरीब आदमी को देंगे और तुमने राजा को रुपये दे दिए हैं। उस फकीर ने कहाः इससे ज्यादा, दरिद्र, इससे ज्यादा गरीब, इससे ज्यादा निर्धन इस गांव में और कोई भी नहीं है। क्यों? क्योंकि इसे कितना भी मिल जाए, इसकी दरिद्रता पूरी नहीं होती। यह अभी और चाहता है। इसे अभी और चाहिए।
जो आदमी जितना ज्यादा मांग रहा है, वह उतना ज्यादा दरिद्र है। वह उतना ज्यादा भीतर भूखा है। उतनी ज्यादा भीतर उसके अभीप्सा है, संग्रह को इकट्ठा करने की इच्छा और वासना है। उतनी महत्वाकांक्षा है। तो जो बहुत दरिद्र होता है, वह बहुत धनिक होने की कोशिश में लग जाता है। ताकि जब धन उसके पास हो जाएगा तो वह अपनी आंखों में यह विश्वास कर ले कि मैं दरिद्र नहीं हूं। और इसी भांति जो बहुत अज्ञानी होता है, वह विचारों को इकट्ठा करने में लग जाता है, ताकि विचारें के संग्रह से ज्ञान का भ्रम पैदा हो जाए। ताकि बहुत विचार उसके पास हों, बहुत से शास्त्र उसे याद हो जाएं, बहुत से पाठ उसे कंठस्थ हो जाएं तो उसे यह भ्रम पैदा हो जाए कि मैं जानता हूं।
अज्ञान काटता है, अज्ञान अहंकार को चोट पहुंचाता है। यह जानना कि मैं नहीं जानता हूं, बड़ा कष्टपूर्ण है। तो फिर विचारों को इकट्ठा कर लेता है आदमी। और उधार विचारों को जो हमेशा दूसरों के होते हैं, उनको अपना मान लेता है। और कहता है, ये मेरे विचार हैं। एक भी विचार आपका नहीं है। विचार करेंगे तो एक भी विचार आपका नहीं है। कहीं न कहीं से उधार इकट्ठा किया गया है और उस संपत्ति को अपनी मान कर हम बड़ी मौज में ज्ञानी होने का मजा ले लेते हैं। ज्ञानी होने का दंभ ले लेते हैं। यह अहंकार की तृप्ति है। संग्रह सब प्रकार का संग्रह अहंकार की तृप्ति है। विचार का संग्रह भी अहंकार की तृप्ति है। इसका मतलब यह नहीं है कि जो संग्रह को छोड़ देते हैं, वे कोई अहंकार के ऊपर उठ जाते होंगे। अहंकार के रास्ते बड़े सूक्ष्म हैं। संग्रह भी अहंकार की तृप्ति है और संग्रह को छोड़ना भी अहंकार की तृप्ति है।
एक आदमी के पास बहुत संग्रह है तो वह सोचता है मैं कुछ हूं, फिर एक आदमी सारे संग्रह को छोड़ कर खड़ा हो जाता है और तब जानता है कि मैं भी कु छ हूं, मैंने सब त्याग दिया है। त्याग की चेष्टा भी अहंकार की ही पूर्ति है। इकट्ठा करने की चेष्टा भी अहंकार की पूर्ति है। तो विचार को इकट्ठा कर लें तो भी अहंकार हो जाता है और एक आदमी यह भी कह सकता है, मैं तो कुछ भी नहीं जानता हूं, मैं तो बिल्कुल सरल आदमी हूं, उसमें भी अहंकार हो सकता है। सवाल हमेशा दावे का है। जहां दावा है वहां अहंकार है। सब संग्रह और सब संग्रह का त्याग अहंकार की ही तराजू पर दोनों पलड़े झूलते रहते हैं। अहंकार का कांटा दोनों पलड़ों को झुलाता रहता है। मैं यह कहना चाहता हूं कि जब तक आपको यह न दिखाई पड़े कि अपने अज्ञान को छिपाने के लिए आप विचारों का संग्रह कर रहे हैं, तब तक आप विचारों से मुक्त नहीं हो सकते।
 अगर आप भीतर थोड़ा देखें, आप क्या जानते हैं? आत्मा के संबंध में जानते हैं, ईश्वर के संबंध में जानते हैं? नहीं जानते। लेकिन गीता को जानते हैं, कुरान को जानते हैं, बाइबिल को जानते हैं, महावीर को जानते हैं, कुंद-कंुद को जानते हैं और न मालूम किस-किस को जानते हैं। इनको जानने के कारण आपको यह भ्रम होता है कि मैं जानता हूं। जानते वे होंगे और आप भ्रम में पड़ जाते हैं कि मैं जानता हूं। विचार की प्रतिध्वनियां सदियों तक सुनी जाती हैं, महावीर पच्चीस सौ वर्ष पहले बोले होंगे, जरथुस्थ बोला होगा, मो.जेज बोलेहोंगे, हजारों वर्ष हो गए, लेकिन उनकी प्रतिध्वनियां अब तक हमारे मनों में गूंज रही हैं, और ज्ञान की प्रतिध्वनियों को हम ज्ञान समझ लेते हैं।
मैं एक पहाड़ के पास था। मेरे एक मित्र भी मेरे साथ थे। वहां एक ईको-पॉइंट था। वहां जाकर आप आवाज करें, तो पहाड़ उस आवाज को दोहरा देता। मेरे मित्रों ने आवाज की, पहाड़ ने आवाज दोहरा दी। लेकिन हमने तो आवाज की थी, पहाड़ ने कोई आवाज नहीं की। पहाड़ ने तो केवल इको कर दिया। प्रतिध्वनि कर दी। महावीर बोलते हैं, बुद्ध बोलते हैं, हम इको कर देते हैं। हम भी उसे दोहरा देते हैं। फिर हमारे बच्चे उसे दोहरा देते हैं। फिर उनके बच्चे उसे दोहरा देते हैं। ऐसा सेकेंड हैंड नहीं, हजारों-हजारों हाथ से होकर वह जो ईको है, वह जो प्रतिध्वनि है, वह फीकी होती जाती है, फीकी होती जाती है, उसी को हम विचार कहते हैं। विचार अनुभूति की प्रतिध्वनि है।
जिनको अनुभव हुआ होगा, उनसे वह फस्र्ट हैंड, सीधा उठता है। और फिर हमारे मन उसको प्रतिध्वनि करते रहते हैं। फिर क्रमशः पीढ़ी-पीढ़ी वह प्रतिध्वनि होती जाती है, उसी प्रतिध्वनि को पकड़ कर हम बैठे रह जाते हैं और उसी को हम विचार कहते हैं। यह प्रतिध्वनि बिल्कुल फीकी है और फिजूल है। इसका कोई मूल्य नहीं है। मूल्य अनुभूति का होता है। विचार का कोई मूल्य नहीं होता है। और आप स्मरण रखें कि अगर इस भांति विचारों को पकड़ कर आप बैठ गए तो आप छाया को पकड़े हुए हैं। एक बिल्कुल थोथी और मुर्दा चीज को पकड़े हुए हैं, जिसका कोई मूल्य नहीं है। और हम सारे लोग विचार को पकड़ कर बैठ जाते हैं। यह विचार की प्रतिध्वनि से मुक्त होना बहुत-बहुत जरूरी है। जब तक आप प्रतिध्वनि ही करते रहेंगे, स्मरण रखें, प्रतिध्वनि सतह से होती है और अनुभूति केंद्र से आती है। अगर एक पहाड़ के पास आप चिल्लाते हैं तो पहाड़ के प्राणों तक थोड़ी आपकी आवाज पहुंचती है, पहाड़ की ऊपर की पर्त ही आपकी आवाज को वापस लौटा देती है। अभी मैं बोल रहा हूं तो मेरी आवाज कोई थोड़ी आपके प्राणों तक पहुंच जाएगी! आपकी परिधि आपके बाहर का जो पर्त है, वही मेरी आवाज को वापस लौटा कर प्रतिध्वनि कर देगी। आपके प्राण अछूते रह जाएंगे, प्राण कभी विचार को नहीं छू पाते हैं। न कभी विचार प्राण को छू पाता है। और इसलिए विचार के माध्यम से सत्य की कोई उपलब्धि नहीं होती।
विचार के माध्यम से सत्य की कभी कोई उपलब्धि नहीं होती। हां, यह हो सकता है कि सत्य की उपलब्धि हो तो बताने का काम विचार कर सके। विचार अभिव्यक्ति का माध्यम हो सकता है, मीडियम ऑफ एक्सप्रेशन हो सकता है, लेकिन उपलब्धि का मार्ग नहीं। विचार बताने का मार्ग हो सकता है, लेकिन पाने का मार्ग नहीं है। सत्य को कोई पा ले तो विचार से कह सकता है, लेकिन विचार के द्वारा कोई सत्य को नहीं पा सकता। लेकिन यह भूल हो जाती है। यह हमको भूल हो जाती है कि हम विचार के द्वारा सत्य को पा लेंगे। इसलिए हम सारे लोग जो सत्य में उत्सुक होते हैं, वे विचार का संग्रह करने लगते हैं। विचार का संग्रह घातक है। और जो विचार के संग्रह के भ्रम में पड़ जाएगा, वह कुछ प्रतिध्वनियों को पकड़ कर बैठा रह जाएगा और जीवन उसका व्यतीत हो जाएगा।
ये प्रतिध्वनियां आपकी नहीं है, यह जानना चाहिए। ये प्रतिध्वनियां कितने ही बड़े लोगों की हों, इनका कोई मूल्य नहीं है। ये प्रतिध्वनियां ही हैं। और आप जब तक प्रतिध्वनि करते रहेंगे, तब तक आप एक यंत्र की भांति हैं, आपका अपना कोई जीवन नहीं है। और यह कितना अपमानजनक है कि मैं प्रतिध्वनि करता रहूं? दूसरे लोगों को ईको करता रहूं। दूसरे लोग बोलें और मैं उनको दोहराता रहूं। मैं रिपीट करता रहूं। यह कितना अपमानजनक है। एकाध अनुभूति तो मेरे भीतर से आनी चाहिए जिसे मैं कह सकूं कि यह मेरी है। और मैं इसे किसी से दोहरा नहीं रहा हूं। यह मेरे मन में आकर किसी की आवाज नहीं है, यह मेरी आवाज है। यह मेरे भीतर से आ रही है, मेरे प्राणों से यह फूल निकला है। कागज के फूल होते हैं, हम उन्हें ऊपर से चिपका लेते हैं। असली फूल होते हैं, वे भीतर से आते हैं, उनकी जड़े होती हैं।
 ये आपके जो विचार हैं, सब कागज के फूलों की भांति हैं, ये ऊपर से आपने चिपका लिए हैं। न इनसे सुगंध आ सकती है, न इनमें प्राण हैं। लेकिन इन फूलों को अगर फूल मान लिया तो जीवन व्यर्थ हो जाएगा। और असली फूल जो आपके भीतर से आ सकते थे, जिनके बीज आपके भीतर थे, उतने ही जितने कि महावीर, बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट के भीतर हैं, वही प्राण आपके भीतर भी बैठा है। वही परमात्मा आपकी गहराई में भी मौजूद है जो उन्हीं फूलों को पैदा कर सकता है। उन्हीं फूलों को, उन्हीं ध्वनियों को, उन्हीं सीधे अनुभवों को आपके भीतर भी जन्माया जा सकता है। लेकिन आप कागज के फूल लगा कर चुप बैठ जाएंगे तो वे बीज पड़े रह जाएंगे और कभी फूल नहीं बन सकेंगे। इन कागज के फूलों को हटा देना जरूरी है ताकि आपका मन मुक्त हो जाए, खुल जाए और आप अपने बीजों पर मेहनत कर सकें। जो दूसरों के विचारों पर विश्वास कर लेता है, वह अपनी अनुभूति को जगाने का ख्याल ही भूल जाता है।
इसलिए मैंने कहा कि विचार मार्ग नहीं है। स्वभावतः ख्याल उठेगा, तब क्या अविचार मार्ग है? क्या जड़ अज्ञानी जिसके भीतर कोई विचार नहीं उठते उसने सत्य को पा लिया है? क्या एक आदमी मूर्छा में पड़ा हो, मारफिया में पड़ा हो तो उसने सत्य को पा लिया है? क्योंकि उसके भीतर कोई विचार नहीं उठ रहे। स्वभावतः यह मुझसे जगह-जगह पूछा जाता है कि आप कहते हैं, विचार से सत्य नहीं मिल सकता तो क्या अविचार से सत्य मिलेगा? जो जड़ बुद्धि है, उसको सत्य मिल गया है? या एक आदमी जो बेहोश पड़ा हुआ है, उसको सत्य मिल गया है? या एक आदमी मूच्र्छित हो गया है, नशा कर लिया उसको सत्य मिल गया है? निश्चित ही जब मैं कहता हूं विचार मार्ग नहीं है, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि अविचार मार्ग है।
अविचार भी मार्ग नहीं है। लेकिन विचार मार्ग नहीं है, इसके कारण बहुत से इस बात के प्रचार के कारण कि विचार मार्ग नहीं है, अगर यह प्रचारित हो जाए, अगर यह ख्याल में आ जाए तो हम सोचते हैं, अविचार को साध लें तो फिर सत्य मिल जाएगा। अविचार के साधने से भी सत्य नहीं मिलता है। अविचार के साधने के अनेक-अनेक प्रयोग सारी दुनिया में प्रचलित हुए हैं। जितने प्रकार के कनसनट्रेशन हैं, जितने प्रकार की एकाग्रताएं हैं, सब अविचार का मार्ग है, अगर कोई मनुष्य अपने मन को किसी एक चीज पर बहुत गहराई से जबरदस्ती जमा ले, थोड़ी देर में उसके विचार खो जाएंगे। लेकिन विचार ही नहीं खोएंगे थोड़ी देर में उसका होश भी खो जाएगा। वे मूच्र्छित हो जाएंगे। जितने कनसनट्रेशन के प्रकार हैं, एक आदमी सूरज की तरफ आंखें खोल कर खड़ा हो जाए और सूर्य को देखता रहे, अपलक देखता रहे, टकटकी लगा कर देखता रहे तो थोड़ी देर में मूच्र्छित होकर गिर जाएगा। एक आदमी अगर दिए के पास बैठ जाए और उसे लौ को बिना आंखें झपकाए पांच मिनट तक देखता रहे तो अपने आप वहीं सो जाएगा।
 एक आदमी बैठा हुआ घंटे भर तक राम-राम, राम-राम करता रहे, करता रहे बिल्कुल दूसरे विचार को भीतर न घुसने दे, राम की ही, राम की ध्वनि को दोहराता रहे, जप करता रहे, जिसे जप कहते हैं, घंटे भर में मूच्र्छित हो जाएगा। इसीलिए मूच्र्छित हो जाएगा कि कोई भी एक चीज अगर चित्त को पकड़ ले तो चित्त उससे बोर हो जाता है, बोर्डम पैदा हो जाती है। घबड़ाहट, बेचैनी, परेशानी पैदा हो जाती है। उस परेशानी में एक ही रास्ता रह जाता है कि चित्त सो जाए। आप बच्चों को सुलाते हैं, एक गीत की कड़ी को दोहरा देते हैं। उसी-उसी कड़ी को बार-बार दोहराते हैं, बच्चा थोड़ी देर में सो जाता है। आप सोचते होंगे कि आपके संगीत के कारण सो रहा है, सो रहा है, एक ही कड़ी को बार-बार सुनने से उसके भीतर बोर्डम पैदा होती है, उसका चित्त घबड़ा जाता है, ऊब जाता है।
ऊबने की वजह से नींद आ जाती है। किसी भी चीज से ऊब जाएं तो नींद आ जाएगी। सभाओं में आपने देखा होगा, अनेक-अनेक लोग सो रहे हैं, बोलने वाले समझते हैं कि सोने वालों की गलती है। केवल बोलने वाला इस भांति बोल रहा है कि लोग ऊब गए हैं और नींद आ गई है, सुनने वालों की कोई गलती नहीं होती। वह बोलने वाला इस भांति बोल रहा है कि लोग ऊब गए हैं, ऊब की वजह से नींद आ गई है। अगर चित्त ऊब जाए तो चित्त सोना चाहता है। अगर चित्त सजग रहना चाहे तो उसके लिए ऊब नहीं होनी चाहिए। किसी भी भांति चित्त को ऊबा दें, घबड़ा दें, परेशान कर दें तो वह सो जाएगा।
यह तरकीब दुनिया में मिल गई तो लोगों ने न मालूम कितने प्रकार के जप निकाल लिए? कितने प्रकार की मालाएं निकाल लीं। अब एक ही माला के गुरियों को आप सरकाते रहें, वही-वही गुरिया बार-बार सरकेगा। अगर चित्त उसी में लगा रहा थोड़ी देर में चित्त सो जाएगा। और चित्त को सुला देने से विचार तो बंद हो जाएंगे, लेकिन विवेक नहीं जागेगा। विचार का बंद हो जाना ही काफी नहीं है, विवेक भी जागना चाहिए। कागज के फूल ही हट जाना काफी नहीं है, असली फूल के भी अंकुर आने चाहिए। नहीं तो कागज के फूल हटा देने से कुछ भी नहीं होगा। फिर तो बेहतर है कागज के फूल ही लगे रहें, कम से कम कोई रौनक तो होती है। कम से कम कुछ तो सुंदर मालूम होते हैं। कागज के फूल भी हट जाएं, असली फूल भी न आएं तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी।
अविचार साधने के बहुत उपाय सारी दुनिया में चले, आपको पता होगा साधु-संन्यासियों ने वेद के समय से लेकर, सोमरस से लेकर गांजे तक, सबका उपयोग किया है, सिर्फ इसीलिए कि किसी भांति विचार बंद हो जाएं। अभी अमरीका में और नये-नये सोमरस के प्रयोग हैं। लिसर्जिक एसिड है, मैस्कलीन है, उनके इंजेक्शन हैं। मैस्कलीन का इंजेक्शन ले लें, छह घंटे तक चित्त बिल्कुल सो जाता है। और पूर्ण शांति हो जाती है, विचार बंद हो जाते हैं। छह घंटे के बाद आप उठ कर कहेंगे, बड़ा आनंद था। क्योंकि न कोई विचार थे, न कोई चिंता थी, न कोई पीड़ा थी। सारे दुनिया में साधुओं का बहुत सा हिस्सा अफीम और गांजे का उपयोग इसीलिए करता रहा कि विचार को बंद करने में ये उपयोगी हैं। और अफीम और गांजा जो करते हैं, वही कनसनट्रेशन भी करता है, नाम का जप हो, दीये का ध्यान हो, सूरज की तरफ आंख लगाई हो, त्राटक किया हो; कुछ भी किया हो, ये सारी की सारी तरकीबें चित्त को सुला देने की, मूच्र्छित कर देने की हैं। मूच्र्छा से कोई सत्य तक नहीं पहुंचता है।
अविचार से भी कोई सत्य तक नहीं पहुंचता है। हां, अविचार में एक बात हो सकती है, आप किन्हीं कल्पनाओं को देखने में समर्थ हो सकते हैं। राम के दर्शन हो सकते हैं, कृष्ण के दर्शन हो सकते हैं। काली के दर्शन हो सकते हैं, बुद्ध, महावीर के दर्शन हो सकते हैं। जब चित्त बिल्कुल मूच्र्छित होता है, तब अगर कोई कल्पना बहुत गहरी मन में बैठी हो तो वह रूप लेने लगती है, और स्वप्न बन जाती है। लेकिन यह कोई सत्य का दर्शन नहीं है। सत्य के दर्शन के लिए विचार तो जाने चाहिए, लेकिन विवेक जगना चाहिए। इसलिए अविचार भी कोई मार्ग नहीं है, मात्र अविचार कर लेना, कोई मार्ग नहीं है। आप मूच्र्छित हो जाएंगे, बेहोश हो जाएंगे। बेहोशी से कुछ उपलब्धि नहीं है, जड़ता पैदा हो जाएगी। और इसलिए आपने देखा होगा, जितने लोग इस तरह के जप, इस तरह की एकाग्रताएं या कनसनट्रेशन करने के उपयोग करते हैं, ये सब तरकीबें अपने को मूच्र्छित करने की हैं। दुनिया से अपने को भुला देने की हैं। दुनिया की परेशानी भूल जाएगी अगर हम मूच्र्छित हो गए हैं, इसीलिए आदमी शराब पीता है और शराब पीने में और मंदिर जाकर प्रार्थना करने में बहुत फर्क नहीं है। बुनियाद में दोनों इनटाक्सिकेंट हैं। क्योंकि दोनों में ही आप अपने को भूल जाते हैं, दुनिया को भूल जाते हैं, भूल गए तो सोचा कि सब ठीक है।
वह शुतुरमुर्ग होता है रेगिस्तान में उसका कोई दुश्मन उस पर हमला कर दे, वह अपने सिर को रेत में खपा कर खड़ा हो जाता है। दुश्मन दिखाई नहीं पड़ता, वह शुतुरमुर्ग समझता है, दुश्मन नहीं है। जो नहीं दिखाई पड़ता, वह खत्म हो गया। अगर दुनिया का बोध मिट जाए तो हम समझते हैं कि दुनिया खत्म हो गई। अगर हमें चिंताएं भूल जाएं तो हम समझते हैं कि चिंताएं नष्ट हो गईं। लेकिन जैसे ही हम बाहर आएंगे, उसे नशे के, प्रार्थना के, भजन के, कीर्तन के; अब सारी दुनिया में यह है कि लोग झांझ मंजीरा पीट कर नाच रहे हैं, कूंद रहे हैं, नाचने-कूदने से, मंजीरा बजाने से, चिल्लाने से, ढोल पीटने से, धुआं करने से बेहोशी आती है। अगर एक बंद कमरे में बहुत धुआं कर दिया जाए, अगरबत्तियां जला दी जाएं, धूप जला दी जाएं, खूब ढोल बजाए जाएं और मंजीरे पीटे जाएं, घंटे बजाए जाएं, लोग नाचें, और कूदें, और चिल्लाएं थोड़ी देर में अपने आप मूच्र्छित हो जाएंगे। इस मूर्छा में, इस बेहोशी में वे समझेंगे कि कोई साक्षात हो रहा है, कोई सत्य मिल रहा है। ये सब बेवकूफियां बहुत प्रचलित हैं, लेकिन इनसे कोई, कोई सत्य को उपलब्ध नहीं होता, और न ही हो सकता है।
 इसलिए अविचार भी कोई मार्ग नहीं है। न तो विचार कोई मार्ग है, न अविचार कोई मार्ग है। तो निश्चित ही फिर मुझसे पूछा जाएगा कि फिर मार्ग क्या है? निर्विचार होना मार्ग है। निर्विचार बड़ी अलग बात है, अविचार बड़ी अलग बात है। विचार दूसरों के होते हैं, उनको बंद कर दें और सो जाएं तो अविचार हो जाते हैं। विचार दूसरों के होते हैं, वे विलीन हो जाएं और आपका बोध परिपूर्ण सजग हो, मूच्र्छा न हो तो जो स्थिति होती है, वह निर्विचार होती है। वह निर्विचार सजगता की स्थिति होती है। वह थॉटलेस अवेयरनेस की स्थिति होती है। विचार तो कोई नहीं होता, लेकिन आप जगे हुए होते हैं। चित्त पर कोई विचार नहीं होता, लेकिन आप परिपूर्ण होश में होते हैं, बेहोश नहीं होते। आप जान रहे होते हैं।
एक मुसलमान फकीर और कवि हुआ, हफीस। हफीस का नाम शायद आपने सुना हो। शायद परसिया में उससे कीमती काव्य और किसी व्यक्ति ने नहीं लिखा है। और शायद उससे गहरी अनुभूति जमीन पर बहुत थोड़े लोगों को हुई होगी। तो हफीस अपने गुरु के पास था। उसके पास ध्यान सीखने गया था। और बहुत से लोग उसके गुरु के आश्रम पर थे जो ध्यान सीख रहे थे। एक अंधेरी अमावस की रात उसके गुरु ने कहा कि आज मेरे सारे शिष्य इकट्ठे हो जाएं और वे ध्यान को बैठें। आधी रात गए ध्यान शुरू हुआ, कोई घंटे-डेढ़ घंटे बाद, उसके गुरु ने, उसके गुरु ने कहा था उन लोगों से कि विचार को तो शांत कर लेना, लेकिन होश को सजग रखना। सो मत जाना, क्योंकि सो जाना कोई ध्यान नहीं है। कोई घंटे-डेढ़ घंटे बाद जब उसने देखा कि अनेक शिष्यों के मुंह से अब तो खर्राटे निकलने शुरू हो गए हैं, स्नोरिंग शुरू हो गई है, तो उसने धीरे से कहाः हफीस। हफीस फौरन उठ कर आया। उसने कहाः क्या है? उसने कहाः कोई बात नहीं, जाओ फिर बैठ जाओ। उसके बाद उसने दूसरे शिष्य का नाम लिया, लेकिन उठ कर हफीस ही आया। उसके बाद उसने फिर थोड़ी देर बाद तीसरे शिष्य का नाम लिया, लेकिन उठ कर हफीस ही आया। ऐसा आधी रात बीतते धीरे-धीरे उसने दस-पंद्रह दफा, दस-पंद्रह लोगों को बुलाया। लेकिन जब आया तो हफीस ही आया क्योंकि बाकी सारे लोग तो सोए हुए थे। किसी का भी नाम लेता था, हफीस ही उठ कर आ जाता था। तो उसने कहाः बाकी सारे लोग तो सो गए, तुम अके ले जगे हुए हो, जगा हुआ होना, ध्यान में होना है। सो जाना ध्यान में होना नहीं है।
लेकिन जगे हुए रह कर अगर विचार कर रहे हैं तो फिर ध्यान में नहीं हैं। जगे हुए हैं और विचार नहीं कर रहे हैं। होश पूरा है और विचार कोई नहीं है। जैसे आकाश तो हो, लेकिन पक्षी कोई भी न उड़ता हो। आकाश तो हो, बदलियां बिल्कुल भी न हों; ऐसा ही होश तो हो, लेकिन होश पर विचार के कोई बादल न हों। विचार के कोई पक्षी न उड़ते हों। तो उस घड़ी में, उस घड़ी में, जब कि होश तो है और विचार कोई नहीं है, जीवन में एक परिवर्तन आना शुरू होता है, हम उस सत्ता के प्रति जागने शुरू होते हैं, जिसका नाम आत्मा है। या उस सत्ता को हम जानना शुरू करते हैं जिसका नाम परमात्मा है। हम स्वयं के आंतरिक प्राणों में प्रवेश करने में समर्थ हो जाते हैं। विचार हमें सतह पर रोके रखते हैं। विचार के छोड़ देने से भीतर गहराई आती है। लेकिन अगर विचार छूट जाएं और साथ ही होश भी छूट जाए तो गहराई तो जरूर आती है, लेकिन हम मूच्र्छित होते हैं। इसलिए गहराई का अनुभव नहीं हो पाता। नींद के गहरे क्षण में आप वहीं जाते हैं, जहां योगी समाधि में जाता है। कोई भेद नहीं है।
 जब आप बहुत गहरी नींद में हैं, तब आप वहीं जाते हैं, जहां योगी समाधि में जाता है। जहां ध्यानी ध्यान में जाता है। लेकिन आपको, आपकी नींद में और समाधि में बड़ा फर्क दिखाई पड़ेगा। नींद में आप मूच्र्छित होते हैं और समाधि में आप जाग्रत होते हैं। फर्क ऐसे ही है, जैसे हम एक आदमी को क्लोरोफार्म की हालत में एक बहुत सुंदर बगीचे में लाएं और वापस ले जाएं और एक आदमी जागा हुआ बगीचे में आए और वापस लौटे। दोनों ही बगीचे में आए, दोनों ही फूल के करीब से गुजरे, दोनों को सुगंध उनकी नाकों को छुई और स्पर्श किया, ठंडी हवाओं ने उनके शरीर को छुआ, लेकिन दोनों को बहुत बड़ा फर्क पड़ जाएगा। एक जो मूच्र्छित आया था, मूच्र्छित गया। उसने कुछ भी जाना नहीं और जो होश में आया था और होश में गया, उसने बहुत कु छ जाना। और ज्ञान जीवन को बदल देता है। नींद में हर व्यक्ति वहीं पहुंचता है, जहां समाधि में योगी पहंुचता है। लेकिन हम वहीं जाकर बेहोश होते हैं, वापस लौट आते हैं और हमें अनुभव नहीं हो पाता कि हम कहां गए? बहुत गहरी नींद में आप अपने केंद्र पर पहुंच जाते हैं, जब स्वप्न भी नहीं चल रहे होते, तब आप अपने केंद्र पर पहुंच जाते हैं। लेकिन हमें उसका कोई पता नहीं चलता।
 वहीं पहुंचना है होशपूर्वक, वहीं पहुंचना है जाग्रत रहकर। वहीं पहुंचना है सजग रहकर। वहीं पहुंचना है पूरे सचेतन। और सचेतन रूप से वहां पहुंचा जा सकता है। और पहुंचने का मार्ग है। द्वार निर्विचार सजगता है। निर्विचार सजगता द्वार है। न तो विचार द्वार है, न अविचार द्वार है; द्वार है निर्विचार सजगता। परिपूर्ण होश से लेकिन परिपूर्ण शून्य रह कर, जो खड़ा हो जाता है, वह द्वार पर खड़ा हो जाता है।
पुरानी कथा है, श्वेतकेतु गया था गुरुओं के आश्रम में ब्रह्म की खोज में। उपनिषदों के समय की बात है। वह गया एक ऋषि के आश्रम में गया और उसने कहाः मैं ब्रह्म को जानने आया हूं। उसके गुरु ने कहाः सच में ही तुझे ब्रह्म जानना है तो यहां गुरु के आश्रम में आने की क्या जरूरत थी? अगर ब्रह्म जानना है तो यहां गुरु के आश्रम में आने की क्या जरूरत थी? यहां तो हम विचार सिखाते हैं, शास्त्र सिखाते हैं। उसने कहाः फिर मैं कहां जाऊं? उसके गुरु ने कहाः तू ऐसा कर अगर तेरी हिम्मत है, अगर तेरा साहस है, अगर तू जीवन लगाने को राजी है तो इस आश्रम की चार सौ गऊएं हैं, उन्हें तू ले जा। और दूर जंगल में चले जाना। इतने दूर जहां कोई मनुष्य न हो। और जहां मनुष्य की कोई आवाज और विचार न पहुंचता हो। और जब ये गऊओं को लेकर तू वहां रहे, तो एक ही काम करना, गऊंओं की सेवा करना, होशपूर्वक रहना, और विचार मत करना। जब ये गऊवें चार सौ की हजार हो जाएं, इनके बच्चे हों और ये हजार की संख्या पर पहुंच जाएं, तब तू वापस लौट आना। श्वेतकेतु ने कहाः मैं जाता हूं। वह उन गऊओं को लेकर, चार सौ गऊओं को लेकर, अब वह कब हजार होंगी कुछ नहीं कहा जा सकता, कितनी उनमें से मर जाएंगी, कितने बच्चे बचेंगे, क्या होगा? कितने वर्षों में वे हजार हो पाएंगी? उसका कुछ पता नहीं है। वह युवक उन गऊओं को लकर वन में चला गया। बहुत दूर वन में चला गया जहां कोई मनुष्य नहीं, मनुष्य का कोई विचार नहीं, गऊएं थीं और वह था। थोड़े दिन पुराने विचार मन को आते रहे होंगे, घर के, परिवार के, सुने हुए, समझे हुए, लेकिन अगर विचार को नया भोजन न मिले तो पुराने विचार बहुत जल्दी घिस-पिट कर नष्ट हो जाते हैं। जैसे पुराने सिक्के चलते-चलते खराब होकर व्यर्थ हो जाते हैं, लेकिन नये सिक्के उनकी जगह भर देते हैं और सिक्के हमेशा चलते रहते हैं, वैसे ही चित्त में पुराने विचार तो घिस-घिस कर नष्ट होते जाते हैं, लेकिन नये उनकी जगह लेते जाते हैं।
आप जरा ख्याल करें, दस साल पहले जो विचार आपके भीतर चलते थे, अब नहीं चलते होंगे। कल जो विचार चलते थे, वे आज नहीं चल रहे हैं। लेकिन पुराने तो हट जाते हैं, नये आ जाते हैं। वह युवक वहां चला गया, उसने नये विचार का पोषण नहीं किया। चुपचाप था, काम ऐसा था उसमें बहुत विचार की जरूरत न थी। सेवा करता था गऊओं की, चुपचाप पड़ा रहता था, तारे देखता था, सूरज देखता था, दरख्त देखता था, झरनों पर नहा लेता था, सो जाता था। गऊओं की सेवा करता था, उन्हीं के बीच टिक कर, उन पर ही सिर टेक कर रात को विश्राम कर लेता था। वर्ष आए, माह आए, दिन आए और गए, धीरे-धीरे उसके विचार शांत हो गए। धीरे-धीरे विचार तो क्रमशः गिर गए, विचार तो विलीन हो गए, लेकिन बोध पूरा था। काम करता था, सजग था। चैबीस घंटे जागा हुआ था। अपना होश रखता था। कितने वर्ष बीत गए कुछ पता नहीं, जब गऊएं हजार हो गईं।
कहानी बहुत मीठी है। कहानी है कि वह तो संख्या ही भूल गया। क्योंकि जो विचार भूल गया, उसे संख्या कैसे याद रहेगी? वह संख्या भूल गया तो उसे ख्याल ही नहीं रहा कि गऊएं कब हजार हो गईं। तो कहानी कहती है कि उन गऊओं ने इकट्ठे होकर कहाः श्वेतकेतु, अब तो हम हजार हो गए। अब हमें वापस ले चलो। गुरु आश्रम वापस लौट चलो। तो वह गुरु आश्रम वापस लौटा। जब दूर ही गांव के बाहर वे हजार गऊएं आने लगीं और उनकी काठ की घंटियां बजने लगीं और धूल उठने लगी और उन हजार गऊओं का गांव में प्रवेश हुआ तो सारे गांव में खबर फैल गई कि श्वेतकेतु लौटता है। हजार गऊएं लौटती हैं। उनकी घंटियां बजती हैं। सारे आश्रम के लोग बाहर इकट्ठे हो गए। उस आश्रम के गुरु ने कहाः हजार? एक हजार एक गऊएं लौट रही हैं। उसके गुरु ने कहाः एक हजार नहीं, एक हजार एक गऊएं लौट रही हैं। जो उनके बीच लौट रहा है श्वेतकेतु, अब वह मनुष्य कहां रहा, अब वह भी गऊओं जैसा ही सरल और शांत हो गया। और सच में लोगों ने देखा कि एक हजार एक गऊएं लौट रही हैं। क्योंकि श्वेतकेतु मनुष्य जैसा नहीं लौट रहा, उनके बीच गऊओं जैसे ही लौट रहा है। गऊएं उसे धक्के दे रही हैं। वह उन्हीं के बीच चला आ रहा है, उसी भीड़ में। और उसके गुरु ने अपने शिष्यों को कहाः देखते हो, ब्रह्मज्ञानी कैसा होता है। वह ब्रह्म को पाकर लौट रहा है।
लेकिन उन शिष्यों ने कहाः इसको ब्रह्म किसने सिखाया होगा? तो उसके गुरु ने कहाः ब्रह्म क्या कभी सिखाया जाता है, जो सिखाया जा सकता है वह ब्रह्म नहीं हो सकता। जो सिखाया जा सकता है वह सत्य नहीं हो सकता। यह सीख कर नहीं लौट रहा है, यह जान कर लौट रहा है। सीखना दूसरों से होता है, जानना स्वयं होता है। इसने खुद अपने प्राण उघाड़े और जाना। उसके शिष्यों ने पूछाः यह किसलिए लौट रहा है अब? तो उन्होंने कहाः केवल शायद मुझे धन्यवाद देने आता होगा।
वह आया और उसने गुरु के पैर छुए और धन्यवाद दिया। तो गुरु ने कहाः मुझे किस बात का धन्यवाद देते हो, क्योंकि जाना तो तुमने है। बहुत अदभुत बात है। श्वेतकेतु ने कहा..आपने मुझे ब्रह्म के बाबत कुछ न बता कर जो कृपा की उसका धन्यवाद देता हूं। क्योंकि अगर ब्रह्म के संबंध में जान लेता तो शायद ब्रह्म को जानना संभव नहीं हो पाता। सब ‘जानना’ जब छूटा तब मैंने जो जाना वही ब्रह्म है। जो सब जानने से मुक्त हो जाता है तब जो जानता है, वही सत्य है। श्वेतकेतु ने जाग कर और शून्य होकर सत्य को जाना और अब तक जगत में जिन्होंने भी जाना है उन्होंने जाग कर और शून्य होकर जाना है। भीतर परिपूर्ण सजगज्योंति जलती रहे विवेक की और विचार का धुआं बिल्कुल न हो। विचार का धुआं न हो और विवेक की ज्योति हो तो जो जाना जाएगा वही सत्य है। उसे जानने को न तो विचार है और न अविचार हैं।
इसलिए न तो विचार को संग्रह करना है जैसा पंडित करता है। न विचार को मूच्र्छित करना है जैसा बहुत से तथाकथित साधु और संन्यासी करते हैं। विचार को जाने देना है और विवेक को आने देना है। विवेक हमारा स्वरूप है। विचार हम पर आक्रमण है बाहर का। विचार विजातीय है..फॉरेन है। विवेक हमारा स्वरूप है। विवेक जगना चाहिए और विचार जाना चाहिए। द्वार पर आप पहुंच जाएंगे। कैसे विवेक जागेगा, उसकी हम कल चर्चा करेंगे। क्योंकि वही प्रवेश है।
चार हिस्सों में मैंने चर्चा को रखा..आकांक्षा, मार्ग, द्वार और प्रवेश। द्वार है विचार शून्य हो और सजगतापूर्ण हो। होश पूरा हो और विचार कोई न रह जाए तो आप द्वार पर खड़े हो गए। और प्रवेश कैसे होगा, वह सजगता पूर्ण कैसे होगी, सउकी चर्चा हम कल करेंगे। कल हम विचार करेंगे, कैसे सजगता पूरी हो सकती है और कैसे प्रवेश हो सकता है। प्रवेश के अतिरिक्त परमात्मा में कभी पूरा पहुंचना नहीं होता। असल में प्रवेश ही पहुंचना है। लोग कहें कि हम परमात्मा को पा लिए हैं तो गलती हो जाएगी। पा लेने का अर्थ हुआ कि परमात्मा कोई छोटी सीमित चीज है कि आपने उसको पा लिया। कोई सागर कभी पाता है? सागर में कूदता भर है, प्रवेश भर करता है। सागर को पाया नहीं जा सकत। हां, मटकी भर पानी हो तो उसको पाया जा सकता है। सागर को नहीं पाया जा सकता। फिर सागर, फिर भी छोटा ही है। उसकी सीमा है। परमात्मा को कभी पाया नहीं जा सकता। उसको कभी पजेस नहीं किया जा सकता। इसलिए परमात्मा में प्रवेश ही होता है। या समझ लें कि प्रवेश ही पाना है। परमात्मा पर कभी अधिकार नहीं होता कि कोई आदमी कहे कि मैंने परमात्मा को पा लिया। अगर कोई कभी ऐसा कहे तो समझना कि परमात्मा से इसका दूर का भी कोई संबंध नहीं है। परमात्मा में सिर्फ प्रवेश होना है। जैसे बूंद सागर में गिरती है वैसे ही व्यक्ति की चेतना परमात्मा की चेतना में गिर जाती है। यही पाना है। यही प्रवेश है। इसलिए मैं अंतिम चरण में प्रवेश की बात करूंगा। उपलब्धि की बात नहीं करूंगा। उपलब्धि का अर्थ बहुत छोटा होता है। चीजें पाई जा सकती हैं..परमात्मा में तो केवल प्रवेश होता है। कोई प्रेम को कभी नहीं पाता। प्रेम में प्रवेश करता है। और कितना ही प्रवेश करता जाए प्रेम की और नई-नई, दिशाएं खुलती चली जाती हैं। परमात्मा में कोई कितना ही प्रवेश करता जाए, तब भी पाता है कि जो प्रवेश किया वह कम..जो शेष है वह बहुत ज्यादा है। इसी अर्थों में परमात्मा अनंत है। अनंत का अर्थ है..उसमें प्रवेश ही प्रवेश है। उपलब्धि पूरी कभी नहीं है। उपलब्धि केवल उसी की पूरी होती है जिसकी कोई सीमा हो। जो कहीं समाप्त हो जाता है। इसलिए परमात्मा कभी उपलब्ध नहीं होता है। परमात्मा में केवल प्रवेश होता है। उस प्रवेश की हम कल चर्चा करेंगे।
आज मैंने जो कहा है, निर्विचार सजगता थाटलेस अवेयरनेस या कंटेंटलेस, कांशसनेस। कोई कंटेंट न हो। कोई विचार न हो। मात्र चेतना रह जाए..यह द्वार है। वह चेतना कैसे रह जाए उस पर हम कल विचार करेंगे।

मेरी बातों को प्रेम से सुन रहे हैं..समझने की कोशिश कर रहे हैं। आशा करता हूं कि शायद कोई बात आपकी समझ का हिस्सा बन जाए तो आप एक दूसरे व्यक्ति हो सकते हैं। मेरे धन्यवाद को स्वीकार करें। सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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