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बुधवार, 29 अगस्त 2018

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-01)

धर्म साधना के सूत्र-(विविध)-ओशो

पहला-प्रवचन-(धर्म परम विज्ञान है)

प्रश्नः मैंने धर्मयुग में शायद, देर हो गई, एक आर्टिकल आपका पढ़ा था। उसमें आपने कहा कि आवागमन को न मानें, ऐसा मुझे लगा; कि कर्म और प्रारब्ध है, इसमें हमें नहीं पड़ना चाहिए। जब कि हिंदू धर्म में जो आवागमन है वह एक बेसिक बात है और जो आवागमन को नहीं मानता, हम समझें कि उसको हिंदू धर्म में फेथ नहीं है। इसके बारे में आपका क्या विचार है?
दो बातें हैं। एक तो आवागमन गलत है, ऐसा मैंने नहीं कहा है। आवागमन को मानना गलत है, ऐसा मैंने कहा है। और मानना सब भांति का गलत है। धर्म का संबंध मानने से है ही नहीं। धर्म का संबंध जानने से है। और जो मानता है, वह जानता नहीं है, इसीलिए मानना पड़ता है। और जो जानता है, उसे मानने की कोई जरूरत नहीं है। जानता ही है, तो मानने की कोई जरूरत नहीं है।

धर्म का मूल संबंध ज्ञान से है, विश्वास से नहीं।

तो जो आवागमन को जानता है, जो ऐसा अनुभव करता है, जिसकी ऐसी प्रतीति है, जिसका खुद का ऐसा अनुभव है कि आवागमन है, इस आदमी की जिंदगी में तो बहुत फायदे होंगे। लेकिन जो ऐसा सिर्फ मानता है कि आवागमन है, इसकी जिंदगी में बहुत नुकसान पहुंचेंगे।
सबसे बड़ा नुकसान तो यह पहुंचेगा कि जिस बात को हम बिना जाने मान लेते हैं, उसे जानने की खोज बंद हो जाती है। खोजते हम उसी को हैं जिसे हम मान ही नहीं लेते। इसलिए विज्ञान खोज बन जाता है। और विश्वास खोज के द्वार को बंद कर देता है।
मेरे लिए धर्म भी परम विज्ञान है, सुप्रीम साइंस है। इसलिए मैं नहीं कहूंगा कि धर्म का कोई भी आधार फेथ पर है। कोई आधार धर्म का फेथ पर नहीं है। धर्म का सब आधार नॅालेज पर है।

प्रश्नः यह भी साइंस है?

साइंस, सुप्रीम साइंस! लेकिन साधारणतः धर्म के संबंध में समझा जाता है कि वह विश्वास है, फेथ है। वह गलत है समझना, मेरी दृष्टि में। मेरी दृष्टि में, धर्म भी एक और तरह का ज्ञान है। और धर्म के जितने भी सिद्धांत हैं, वे किसी के ज्ञान से निःसृत हुए हैं, किसी के विश्वास से नहीं। इसलिए मेरा निरंतर जोर है कि मानें मत, जानने की कोशिश करें; और जिस दिन जान लें उसी दिन मानें। जान कर जो मानना आता है, उसका नाम तो श्रद्धा है; और बिना जाने जो मानना आता है, उसका नाम विश्वास है। श्रद्धा तो ज्ञान की अंतिम स्थिति है और विश्वास अज्ञान की स्थिति है। और धर्म अज्ञान नहीं सिखाता।
इसलिए मैंने जो कहा है कि आवागमन को मत मानें, पुनर्जन्म को मत मानें, इसका यह मतलब नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि आवागमन नहीं है। इसका यह मतलब भी नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि पुनर्जन्म नहीं है। मैं यही कह रहा हूं कि मान लिया अगर तो खोज बंद हो जाती है। जानने की कोशिश करें। और जानना तो तभी होता है जब सम्यक संदेह, राइट डाउट मौजूद हो। उलटा भी मान लें तो भी संदेह नहीं रह जाता। अगर मैं यह भी मान लूं कि पुनर्जन्म नहीं है, तो भी खोज बंद हो जाती है। अगर मैं यह भी मान लूं कि पुनर्जन्म है, तो भी खोज बंद हो जाती है। खोज तो सस्पेंशन में है। मुझे न तो पता है कि है, न मुझे पता है कि नहीं है। तो मैं खोजने निकलता हूं कि क्या है, उसे मैं जान लूं।
धार्मिक आदमी को मैं मानता हूं कि वह गहरी से गहरी इंक्वायरी है। उससे गहरी कोई और खोज नहीं है। लेकिन जिनको हम धार्मिक कहते हैं उनको मैं धार्मिक नहीं कहता। उनकी तो सब इंक्वायरी बंद है। वे तो अंधविश्वासी हैं।
सुपरस्टीशन रिलीजन नहीं है। अंधविश्वास धर्म नहीं है।

प्रश्नः तो इसका मतलब यह हुआ कि यह जो कहा गया है कि महाजनः येन गतः स पंथा, वह गलत था। इसके बारे में क्या है आपका कहना?

पहली तो बात यह है..कौन महाजन है? यह निर्णय करना बहुत मुश्किल है। और जब भी आप निर्णय करेंगे कि यह महाजन है, तो यह निर्णय आपका है; और आप महाजन के ऊपर हो गए, नीचे नहीं रहे। अगर आप कहते हैं राम महाजन हैं, तो यह निर्णय आपका है, यह आपका डिसीजन है। एक दूसरा आदमी कहता है कि राम महाजन नहीं हैं, बुद्ध महाजन हैं। यह निर्णय उसका है। जब भी आप कोई निर्णय लेते हैं, तो आप ही परम निर्णायक होते हैं, कोई महाजन निर्णायक नहीं होता, क्योंकि महाजन का निर्णय भी आप ही लेते हैं कि कौन महाजन है।
तो मेरा कहना है कि हमेशा आदमी अपने विवेक के पीछे चलता है, किसी महाजन के पीछे चलता नहीं। चल सकता नहीं। क्योंकि महाजन का निर्णय भी करना हो तो भी अपने ही विवेक से करना पड़ता है। दुनिया में हजार महाजन हैं, कैसे निर्णय करिएगा कि कौन महाजन है? जब भी निर्णय करिएगा तो जो अल्टीमेट डिसीसिव फैक्टर है वह आप हैं। तो जब आप ही अल्टीमेट डिसीसिव फैक्टर हैं तो मैं कहता हूं, सदा अपने पीछे चलिए। अगर आप किसी महाजन के पीछे चल रहे हैं, तो यह भी अपने ही पीछे चल रहे हैं। अगर आप कहते हैं कि नानक के पीछे चलूंगा, तो भी यह आप अपने ही निर्णय के पीछे चल रहे हैं, नानक के पीछे नहीं चल रहे। आदमी के पास कोई उपाय ही नहीं है कि अपने सिवाय किसी और के पीछे चल सके। यह इंपासिबिलिटी है।
मेरी आप बात समझे?
मैं जो कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि चूंकि हर निर्णय आपका ही निर्णय होगा और किसी महाजन के ऊपर लिखा हुआ नहीं है भगवान की तरफ से कि वह महाजन है...। क्योंकि जीसस ईसाइयों को महाजन मालूम पड़ते हैं और यहूदियों को सूली पर लटकाने योग्य मालूम पड़ते हैं। कृष्ण हिंदुओं को भगवान मालूम पड़ते हैं, जैनों को नरक भेजने योग्य मालूम पड़ते हैं।
महाजन कौन है? महाजन का निर्णय भी आपका निर्णय है। सच्चा शास्त्र कौन है? यह भी निर्णय आपका निर्णय है। जब सभी निर्णय आपके हैं, तो मैं कहता हूं, महाजन आप ही हैं अंततः। अंततः जो महाजन है, वह आपकी ही आत्मा है, आप उसकी ही आवाज का पीछा करें। फिर वह जो भी निर्णय दे! वह अगर यह कहे कि नानक के पीछे जाओ, तो नानक के पीछे जाएं।
लेकिन मेरा जोर इस बात पर है कि आप जा रहे हैं सदा अपने ही पीछे। इस धोखे में मत पड़ना कि आप किसी और के पीछे जा सकते हैं। इसका कोई उपाय ही नहीं है, यह असंभावना है। हर आदमी अपने ही पीछे जाता है, चाहे गड्ढे में जाए और चाहे मोक्ष में जाए, चाहे नरक में जाए और चाहे स्वर्ग में जाए। यानी मैं यह कह रहा हूं कि यह साइकोलाजिकली असंभव है कि कोई आदमी किसी दूसरे के पीछे चला जाए। कैसे जाएगा? अगर आप मेरी भी बात मानते हैं, तो भी यह आप अपनी ही बात मान रहे हैं, मेरी बात नहीं मान रहे हैं। अगर मेरी बात इनकार करते हैं, तो भी आप अपनी ही तरफ से यह कर रहे हैं।
व्यक्ति की चेतना ही अंतिम निर्णायक तत्व है, दि अल्टीमेट डिसीसिव फैक्टर। और इसलिए इसके ऊपर कोई फैक्टर नहीं है। अगर एक आदमी कहता है, मैं भगवान को मानता हूं। तो यह भी उसका निर्णय है। कल वह कह सकता है, मैं नहीं मानता हूं। तो भगवान कुछ बाधा नहीं डालते। अगर हम भगवान को भी मानते हैं, तो भी हम अपने को ही मानते हैं। इसके सिवाय उपाय नहीं है।
इसलिए मैं नहीं कहता कि महाजन के पीछे जाएं। जा नहीं सकते। मैं इतना ही कहता हूं, अपने विवेक के पीछे जाएं। उसके अतिरिक्त कोई रास्ता ही नहीं है।

प्रश्नः आपके खिलाफ कुछ डेमांस्ट्रेशंस हो रही हैं और कुछ पोस्टर भी लगे हैं, अमृतसर में भी लगे हैं। तो यह चार्ज है आपके खिलाफ कि आप वाममार्ग को फैलाते हैं, कम्युनिस्ट हैं, नास्तिक हैं। इसमें कोई चीज सत्य है? उनका जो इलजाम है, किस कदर कुछ सच है या नहीं है? और अगर गलत है तो क्या पोजीशन है? हम तो यह समझना चाहते हैं।

इसमें थोड़ी सच्चाइयां हैं, उनके इलजाम में थोड़ी सच्चाइयां हैं। लेकिन सच्चाइयों से ज्यादा झूठ है। और जिस झूठ में थोड़ा सच मिला होता है वह झूठ पूरे झूठ से ज्यादा खतरनाक हो जाता है। आधा सत्य पूरे असत्य से भी ज्यादा खतरनाक होता है, क्योंकि आधे सत्य में सत्य होने का भ्रम पैदा होता है।
तीन शब्द आपने कहे, नास्तिक...।
अब मेरी दृष्टि आपको समझाऊं तो ख्याल में आए। मेरी दृष्टि यह है कि नास्तिकता आस्तिकता का पहला चरण है। कोई आदमी बिना नास्तिक हुए आस्तिक नहीं हो सकता। हो ही नहीं सकता। क्योंकि जिस आदमी ने कभी इनकार नहीं किया, उसके स्वीकार का कोई मतलब नहीं है। जिसने कभी नो नहीं कहा, उसके यस का कोई मतलब नहीं है। जिसने बिना सोचे, बिना खोजे, बिना समझे स्वीकृति भर दी, उसकी स्वीकृति इंपोटेंट होगी। लेकिन जिसने खोजा, पूछा, प्रश्न उठाया, संदेह किया, इनकार किया, और सब इनकार और सब खोज के बाद कहा कि है, उसके है का कोई मतलब है।
तो मैं नास्तिक को आस्तिक का दुश्मन नहीं मानता हूं, यह मेरी तकलीफ है। मैं नास्तिकता को आस्तिकता का पहला चरण मानता हूं। जरूरी नहीं है कि सभी नास्तिक आस्तिक हो जाएं, पहले चरण पर भी रुक सकते हैं, तब वे भूल में पड़ गए। लेकिन अगर नास्तिक अपनी नास्तिकता में बढ़ता ही चला जाए और पूछता ही चला जाए, तो आज नहीं कल वह आस्तिकता पर पहुंच जाएगा। आस्तिकता पर पहुंचे बिना कोई उपाय नहीं है। नास्तिकता प्रारंभ है धर्म का और आस्तिकता अंत है।
तो मुझे कोई नास्तिक कह सकता है। लेकिन मैं समझता हूं कि मुझसे ज्यादा आस्तिक आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। क्योंकि मैं अपनी आस्तिकता में नास्तिकता को भी समा लेता हूं। और जो आस्तिक कहता है कि नास्तिक हमारा दुश्मन है, वह पूरा आस्तिक नहीं है। क्योंकि दुनिया का एक हिस्सा तो वह अपने बाहर छोड़ देता है। अगर परमात्मा कहीं भी है तो परमात्मा को नास्तिक उतना ही स्वीकार है जितना आस्तिक। अन्यथा नास्तिक के होने की जगह न रह जाएगी। वह बचेगा कहां? वह रहेगा कैसे? वह होगा कैसे?
तो साधारणतः जैसा समझा जाता रहा है कि नास्तिक और आस्तिक दुश्मन हैं, ऐसा मैं नहीं समझता। मैं तो समझता हूं कि नास्तिकता से आदमी शुरू करता है..प्रश्न, जिज्ञासा, संदेह। और आस्तिकता पर उपलब्धि करता है..जब सब प्रश्न गिर जाते हैं, सब संदेह गिर जाते हैं, सब जिज्ञासाएं गिर जाती हैं, तब उसके मन से हां का भाव उठता है कि परमात्मा है। इसलिए मुझे कोई नास्तिक कह सकता है, क्योंकि मैं कहता हूं कि नास्तिकता सीखनी पड़ेगी अगर आस्तिक होना है, नहीं तो आप बोगस आस्तिक होंगे जिसमें कुछ नहीं होगा।
दूसरा आपने कहा कि वे कहते हैं मैं वाममार्गी हूं।
इसमें भी थोड़ी सच्चाई है। सच्चाई इसलिए है कि मैं पूरे जीवन को स्वीकार करता हूं, दि टोटल लाइफ। मैं उसमें कुछ भी इनकार नहीं करता। मैं कहता हूं, परमात्मा ने जो भी दिया है, जो उसे इनकार करता है वह दुश्मन है। जो भी दिया है उसका दुरुपयोग और सदुपयोग हो सकता है, लेकिन जो भी दिया है उसकी सार्थकता है। इस जीवन में जो भी है उस सबकी सार्थकता है।
क्रोध है, काम है, वासना है, मेरा मानना है उसकी भी जीवन में सार्थकता है, अन्यथा वह होता नहीं। जीवन में सेक्स है, उसकी सार्थकता है। और सेक्स की जो एनर्जी है वही अगर वासना से मुक्त हो जाए तो ब्रह्मचर्य बनती है। ब्रह्मचर्य और वासना में एक ही शक्ति काम करती है, दो शक्तियां नहीं। अगर मनुष्य की कामवासना दूसरे के प्रति बहती रहे तो सेक्स बन जाता है और यही कामवासना की पूरी ऊर्जा अपनी तरफ बहने लगे तो ब्रह्मचर्य बन जाता है। अगर पदार्थ की तरफ बहती रहे तो सेक्स हो जाता है और अगर परमात्मा की तरफ बहने लगे तो ब्रह्मचर्य हो जाता है।
वाममार्गी इसलिए वे मुझे कह सकते हैं, क्योंकि वाममार्ग की एक आधारशिला में यह बात है कि जीवन में जहर का भी ठीक उपयोग किया जाए तो वह अमृत हो सकता है। जीवन में बुरा कुछ भी नहीं है, वाममार्ग कहता है। और सभी चीजें अच्छी तरफ उन्मुख की जा सकती हैं। अगर कुशलता से काम लिया जाए तो कांटे भी फूल बन सकते हैं और अकुशलता से काम लिया जाए तो फूल भी कांटे सिद्ध हो सकते हैं। जिंदगी कुशलता है। इसलिए वाममार्ग कहता है, हम किसी चीज को इनकार नहीं करते, सभी चीज को परमात्मा की तरफ उन्मुख करते हैं। जिसको हमने बुरा से बुरा कहा है उसको भी हम अच्छे की तरफ रूपांतरित करते हैं।
वाममार्ग की इस बात से मेरी सहमति है। और मेरा मानना है कि वाममार्ग ही ठीक बात कह रहा है इस संबंध में। जिनको हम विरोधी तत्व मानते हैं..जैसे हम कहते हैं क्षमा। वाममार्गी कहता है कि क्रोध का ही रूपांतरण क्षमा है। जो आदमी क्रोध नहीं कर सकता वह आदमी क्षमा भी नहीं कर सकता। असल में क्रोध ही ट्रांसफार्म होकर क्षमा बनता है। इसलिए वाममार्ग कहेगा, हमारा क्रोध से कोई विरोध नहीं। हम नहीं कहते हैं, क्रोध छोड़ो। हम कहते हैं, क्रोध को बदलो।
यह मेरा भी कहना है। मैं भी कहता हूं, जिंदगी में कुछ भी छोड़ने योग्य नहीं, सब बदलने योग्य है। जिंदगी में कोई चीज निगेट करने योग्य नहीं है कि उसको काट डालो, जिंदगी में सब चीजें ट्रांसफार्म करने योग्य हैं कि उनको ऊंचा उठाओ। मिट्टी-कीचड़ ही ऊंची उठ कर कमल बन जाती है। जीवन में जो भी बुरा है वह सब शुभ हो सकता है।
इसलिए कोई मुझसे कह सकता है कि मैं वाममार्गी हूं। लेकिन वाममार्ग से मेरा कोई लेना-देना नहीं। मेरा किसी मार्ग से कोई लेना-देना नहीं है। मेरे लिए तो जीवन पूरा का पूरा स्वीकृत है। टोटल एक्सेप्टबिलिटी को मैं धर्म मानता हूं। निषेध को, निगेशन को, इनकार को मैं नासमझी मानता हूं।
और हमारे पास कोई उपाय भी नहीं है। अगर कोई आदमी कहता हो कि हम किसी आदमी के सेक्स को बिल्कुल काट डालेंगे, तो वह गलत बातें कह रहा है..अवैज्ञानिक, अमनोवैज्ञानिक। न तो साइकोलॅाजी उससे राजी होगी, न साइंस उससे राजी होगी, न बायोलॅाजी उससे राजी होगी। सेक्स काटा नहीं जा सकता, सिर्फ बदला जा सकता है। इस जगत में कोई चीज नष्ट नहीं की जा सकती, यह विज्ञान का आधारभूत सिद्धांत है। यह धर्म का भी आधारभूत सिद्धांत है। इस जगत में सिर्फ चीजें बदली जा सकती हैं, नष्ट नहीं की जा सकतीं। अब हमारे पास इतनी ताकत है, लेकिन रेत के एक छोटे से कण को भी हम नष्ट नहीं कर सकते। हां, ज्यादा से ज्यादा हम दूसरी चीज में बदल सकते हैं। इस जगत में कुछ भी नष्ट नहीं होता, सिर्फ बदलता है।
तो मनुष्य के भीतर जो कुछ है उसके संबंध में हम दो रुख ले सकते हैं। एक तो प्यूरिटन का रुख है; जिसको हम कठोर नीतिवादी कहते हैं, उसका रुख है। वह कहता है, ये-ये काट डालो, ये-ये गलत है। तो वह कहता है, सेक्स को काट डालो, क्रोध को काट डालो, बुराई को अलग कर डालो।
मैं मानता हूं वह अवैज्ञानिक बातें कह रहा है। बुराई को बदलो, काटो मत; कट सकती नहीं, मिट सकती नहीं। सेक्स को रूपांतरित करो; क्रोध को क्षमा बनाओ। यह हो सकता है। यही हो सकता है! इसलिए मेरी सहमति है इतनी बात से। और मैं मानता हूं कि इतनी बात से कोई भी आदमी जो थोड़ा सोच-विचार करेगा वह सहमत होगा। जिसके पास थोड़ी भी वैज्ञानिक बुद्धि है वह यह कहेगा कि जिंदगी में कोई भी ऊर्जा, कोई एनर्जी नष्ट नहीं होती, सिर्फ ट्रांसफार्मेशंस होते हैं।
हम बिजली से पंखा भी चला सकते हैं। हम बिजली से रेडियो भी चला सकते हैं। हम बिजली से आदमी को मार भी सकते हैं। हम बिजली से मरते हुए आदमी को बचा भी सकते हैं। बिजली न तो अच्छी होती, न बुरी होती। बिजली तटस्थ है, वह न्यूट्रल है। हम क्या उपयोग करते हैं, इस पर सब निर्भर करता है।
मनुष्य के पास जो भी शक्तियां हैं, हम उनका क्या उपयोग करते हैं, इस पर सब कुछ निर्भर करता है। ऐसा क्रोध भी हो सकता है जो धार्मिक हो। और ऐसी शांति भी हो सकती है जो अधार्मिक हो जाए। जो मैं कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि ऐसे क्षण हो सकते हैं जिंदगी में जब कि तलवार धार्मिक हो जाए। और ऐसे क्षण हो सकते हैं जब कि अहिंसा अधार्मिक हो जाए।
तो मैं नहीं कहूंगा कि हिंसा को काट डालो। मैं कहूंगा, हिंसा को परमात्मा के लिए समर्पित कर दो। मैं जो कहूंगा वह यह कहूंगा कि जो भी हमारे पास है वह ईश्वर-उन्मुख हो जाए, बस। हर स्थिति में भेद पड़ जाएगा। इसलिए कोई रिजिड कानून मानने के मैं पक्ष में नहीं हूं। और जो लोग भी सख्त कानून मानते हैं, वे जिंदगी को नुकसान पहुंचाते हैं। क्योंकि वह परिस्थितियों का उनको कोई ख्याल नहीं रह जाता।
एक बार इस मुल्क ने तय कर लिया कि हम अहिंसा को ऊंचा मानते हैं, तो फिर गुलामी आ जाए तो भी अहिंसा को हम ढोए चले जाएंगे।

प्रश्नः इससे क्या अव्यवस्था नहीं फैलेगी, अगर हम किसी कानून को मानते नहीं हैं तो?

नहीं-नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं। इसी से व्यवस्था आएगी जो मैं कह रहा हूं। अव्यवस्था फैलती है सख्त नियमों से। जैसे हमने यह तय कर लिया कि इस घर के बाहर हम कभी न जाएंगे, और कल आग लग गई, तब अव्यवस्था फैलेगी। लेकिन अगर हमने यह तय किया हो कि आग लगी हो तो हम बाहर जा सकते हैं, तब कोई अव्यवस्था नहीं फैलेगी। अव्यवस्था हमेशा सख्त और मरे हुए डिसिप्लिन पैदा करवाते हैं। जब जरूरत बदल जाती है और ये बदलते नहीं, जब कि स्थिति बदल जाती है और नियम बदलता नहीं, तब अव्यवस्था पैदा होती है। अव्यवस्था नियम और स्थिति के बीच डिसहार्मनी का नाम है। लेकिन अगर हमारा नियम भी लोचपूर्ण हो और स्थिति के साथ बदलता हो, तो अव्यवस्था कभी नहीं फैलती।
दुनिया में जो अनार्की है, वह अनार्की उन लोगों की वजह से है जो व्यवस्था के लिए दीवाने हैं। वे इतनी सख्त व्यवस्था करते हैं कि जिंदगी तो रोज बदल जाती है और उनकी व्यवस्था नहीं बदलती, तब जिंदगी उनकी व्यवस्था को तोड़ देती है। अगर व्यवस्था लोचपूर्ण हो, फ्लेक्सिबल हो, तो अव्यवस्था कभी नहीं फैलेगी।
जैसे मेरी मान्यता है कि जैसे कि बाप है, वह अपने बेटे को सिखा रहा है। अभी बेटा छोटा है; शक्तिशाली नहीं है, शक्तिहीन है; अभी बाप बेटे को अनुशासन देगा। लेकिन कल बेटा रोज बड़ा होता चला जाएगा। और अगर बाप यही व्यवहार जारी रखता है..जो उसने दो साल के बेटे के साथ रखा था, वही वह पच्चीस साल के बेटे के साथ जारी रखता है..तो अव्यवस्था फैलेगी। क्योंकि बेटा अब दो साल का नहीं है, पच्चीस साल का है, लेकिन नियम दो साल वाले बेटे का लागू किया जा रहा है। अब उपद्रव होगा। नियम बदलना चाहिए, बेटा पच्चीस साल का हो गया। और एक हालत ऐसी भी आएगी कि बाप कमजोर हो जाएगा और बेटा ताकतवर हो जाएगा। उसके लिए नियम बदलता जाना चाहिए प्रतिपल।
जीवन बदलाहट है, जीवन एक फ्लक्स है, उसमें सब चीजें बदल रही हैं। इसलिए हमें, हमारे नियम को इतना लोचपूर्ण होना चाहिए कि किसी भी दिन जीवन को नुकसान न पहुंचाए, जीवन के साथ बदलता चला जाए, तो अव्यवस्था कभी नहीं फैलती।
जब हमने अहिंसा की बात तय की थी, तब हम एक स्वतंत्र मुल्क थे। तब हम अहिंसा की बात कर सकते थे। समृद्ध मुल्क थे, हम अहिंसा की बात कर सकते थे। फिर हमला हुआ, तब भी हम अहिंसा की बात जारी रखे, तब मुश्किल हो गई। तब अव्यवस्था फैली, क्योंकि हिंसा की हमारी हिम्मत न रही। क्योंकि हमने कहा कि हिंसा तो कभी ठीक हो नहीं सकती। लेकिन हमारी हिंसा ठीक नहीं होगी तो दूसरे की हिंसा ठीक हुई जा रही है, वह हमारे ख्याल में नहीं आया। अगर मैंने तलवार नहीं उठाई है वक्त पर, तो दूसरा तो उठा ही रहा है। और मैं अब भी हिंसा के सामने ही झुक रहा हूं, अहिंसा का नाम ले रहा हूं।
जीवन जो है वह प्रवाह है। उसमें सब रोज बदल जाता है। और उसकी रोज बदलाहट के साथ बदलाहट की तैयारी होनी चाहिए। इसलिए मैं किसी रिजिड कानून और किसी सख्त नीति के पक्ष में नहीं हूं।
इसका यह मतलब नहीं है कि मैं अनीति के पक्ष में हूं। मेरा मानना है, सख्त नीति ही अनीति पैदा करवाती है। तरल नीति चाहिए, लिक्विड मारेलिटी चाहिए, जो जिंदगी के साथ बदलने को सदा तैयार हो। जब सब बदल जाए, तो नीति को भी बदलने की हिम्मत रखनी चाहिए।
अब तीसरी बात और रह गई।

प्रश्नः आपके मुतल्लक कुछ अन्याय न हो जाए हमसे, इसलिए यह जो आपने वाममार्ग का समझाया है, वह तो हम समझ गए। लेकिन अखबार में इतना लंबा नहीं आना। जो उनकी स्थिति है, वह क्वेश्चन मैं डायरेक्ट आपको पुट कर देता हूं। वे यह कहते हैं, वाममार्ग से उनका मतलब यह है कि आप शराब वगैरह पीना और व्यभिचार जो है इसकी खुली इजाजत हो, ऐसा प्रचार। उनका मतलब वाममार्ग से ऐसा है। तो आपका क्या कहना है?

मैं समझा। आप सीधा सवाल कर रहे हैं, जिंदगी में कोई सवाल सीधा होता नहीं। बड़ी मुश्किल है। और अगर मैं सीधा जवाब दूंगा तो वह गलत ही होगा, कोई उपाय नहीं है, इसमें कोई उपाय नहीं है।
अब जैसे आप यह पूछ रहे हैं, आप यह पूछ रहे हैं कि वे कहते हैं कि मैं खुले व्यभिचार की छूट देता हूं।
न तो मैं देता हूं और न वाममार्ग देता है। बड़ी मजे की बात है। मैं तो देता ही नहीं हूं, वाममार्ग भी नहीं देता है। यह सवाल ही नहीं है। यह तो जो समझ ही नहीं सकते, मेरा तो मानना यह है कि व्यभिचार पैदा हो रहा है उनकी वजह से जो इतनी सख्त नैतिकता को थोपते हैं कि व्यभिचार के अलावा छुटकारे का रास्ता नहीं रह जाता।
आप जान कर हैरान होंगे कि रूस में वेश्याएं समाप्त हो गईं। सिर्फ एक वजह से समाप्त हो गईं, क्योंकि विवाह की जो सख्ती थी वह समाप्त कर दी गई। तो रूस में वेश्या नहीं रह गई। आज एक ही मुल्क है जमीन पर जहां वेश्या नहीं है। क्योंकि वेश्या का कोई मतलब नहीं रह गया। जहां हम सख्त विवाह थोपेंगे, वहां वेश्या पैदा होगी, वह बाइ-प्रोडक्ट है। जब हम पति और पत्नी को सख्ती से रोक देंगे एक-दूसरे के साथ, तो वेश्या पैदा हो जाएगी।
और यह बड़े मजे की बात है कि कोई सोचता होगा कि रूस में बहुत तलाक हो गए। तो रूस में सबसे कम तलाक है, पांच परसेंट तलाक है; अमेरिका में चालीस परसेंट तलाक है। और वेश्या विदा हो गई, क्योंकि विवाह की सख्ती को तरल कर दिया गया। ऐसा भी नहीं कि विवाह रोज टूट रहे हैं, ऐसा भी नहीं है।
जिंदगी के नियम बड़े उलटे हैं। जब हम किसी चीज को बहुत जोर से दबाते हैं तो उलटी प्रतिक्रिया भी पैदा होती है, रिएक्शन पैदा होता है।
मैं व्यभिचार के पक्ष में नहीं हूं। बल्कि मेरा मानना है कि जो तथाकथित नैतिकवादी हैं, ये व्यभिचार पैदा करवा रहे हैं। और इन्होंने सारी दुनिया को व्यभिचारी कर दिया है। ये ही व्यभिचारी हैं।
और वाममार्ग का तो व्यभिचार से कोई संबंध ही नहीं है। और वाममार्ग के शब्दों को नहीं समझ पाते, इसलिए बड़ी तकलीफ हो जाती है। वाममार्ग के सारे के सारे शब्द पारिभाषिक हैं, पर्टिकुलर डेफिनीशंस से बंधे हैं। जब वाममार्ग कहता है, शराब में पूरी तरह डूब जाओ, तो जो शराब बाजार में बिकती है उसकी वह बात नहीं कर रहा। वह उस शराब की बात कर रहा है जिसमें चैबीस घंटे डूबा जा सकता है।
लेकिन बड़ा मुश्किल है, वह उसका पारिभाषिक शब्द है। वह उसका पारिभाषिक शब्द है, वह यह कह रहा है कि एक ऐसी शराब भी है जिसमें चैबीस घंटे डूबा जा सकता है। जब वह कह रहा है, मैथुन करो, तब वह उस मैथुन की बात नहीं कर रहा है जो आप कर रहे हैं। वह तो आप कर ही रहे हैं। वह आपसे कहने की कोई जरूरत नहीं है। वह कह रहा है, एक और मैथुन भी है जो व्यक्ति के और परमात्मा के बीच घटित होता है। वह उसकी बात कर रहा है। लेकिन अब वे पारिभाषिक मामले हैं।
तो पहली तो बात मैं यह कहता हूं कि न तो वाममार्ग कहता है कि व्यभिचार करो और मेरा तो सवाल ही नहीं उठता कि मैं कहूं कि व्यभिचार करो। मैं तो कहता ही यह हूं कि जो मैं कह रहा हूं उससे ही सद-आचार पैदा हो सकता है।
और तीसरी बात आपने पूछी कम्युनिस्ट की। तो दो बातें हैं। एक तो मुझसे ज्यादा कम्युनिस्ट विरोधी आदमी खोजना मुश्किल है। इसलिए, क्योंकि मेरी मान्यता है, मैं व्यक्तिवादी हूं, इंडिविजुअलिस्ट हूं। मैं मानता हूं व्यक्ति परम मूल्य है, समाज परम मूल्य नहीं है। मैं ऐसा नहीं मानता कि व्यक्ति समाज के लिए है, मैं मानता हूं कि समाज व्यक्ति के लिए है। मैं राज्य विरोधी हूं, अनार्किस्ट हूं। मैं मानता हूं राज्य के हाथ में कम से कम ताकत होती जानी चाहिए। उसी दिन अच्छी दुनिया पैदा होगी, जिस दिन राज्य सबसे कम ताकतवर होगा, उसके पास कोई ताकत नहीं होगी। राज्य के हाथ में जितनी ताकत होगी, उतना व्यक्ति की आत्मा का हनन होता ही है, होगा ही।
तो मेरे तो कम्युनिस्ट होने का उपाय नहीं है..इस अर्थों में। क्योंकि कम्युनिस्ट जो है वह स्टेट पर भरोसा रखता है, इंडिविजुअल पर नहीं। उसका भरोसा है कि व्यक्ति की कोई कीमत नहीं है, कीमत राज्य की और समाज की है।

प्रश्नः स्टेट फस्र्ट है।

हां, स्टेट फस्र्ट है और स्टेट के लिए व्यक्ति को कुर्बान किया जा सकता है।
मैं उलटा आदमी हूं। मैं कहता हूं कि व्यक्ति के लिए स्टेट को कुर्बान करना हो तो किया जा सकता है, व्यक्ति को कभी कुर्बान नहीं किया जा सकता। उसके दो कारण हैं। एक तो कारण यह है कि व्यक्ति के पास जीवंत चेतना है, आत्मा है। स्टेट के पास कोई आत्मा नहीं, वह डेड मशीनरी है। और मशीनरी के लिए कभी भी आत्मा को कुर्बान नहीं किया जा सकता। समाज के पास कोई आत्मा नहीं है। वह सिर्फ कलेक्टिव नाम है। समाज कहीं है भी नहीं। जहां भी जाइएगा, व्यक्ति मिलेगा। समाज खोजने से कहीं मिलेगा नहीं। समाज एक झूठ है, एक फाल्सहुड, एक मिथ, जो है कहीं भी नहीं, लेकिन मालूम बहुत पड़ता है कि है। लेकिन जहां भी जाइए, व्यक्ति है।
तो मैं तो व्यक्तिवादी हूं। और चाहता हूं कि व्यक्ति को परम स्वतंत्रता होनी चाहिए, सब तरह की। कम्युनिज्म व्यक्ति के सख्त खिलाफ है। वह व्यक्ति की सब स्वतंत्रता को हड़प जाने के पक्ष में है। इस लिहाज से तो मैं पूरी तरह कम्युनिस्ट विरोधी हूं।
लेकिन एक और अर्थ में मुझे कम्युनिस्ट कहा जा सकता है, जिस अर्थ में सभी आध्यात्मिक लोग कम्युनिस्ट हैं। मुझे इस अर्थ में कम्युनिस्ट कहा जा सकता है कि मैं मानता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति के पास समान आत्मा है, प्रत्येक व्यक्ति के भीतर समान परमात्मा है, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में समान अवसर होना चाहिए। अवसर की असमानता जितनी कम हो, उतना हम व्यक्ति के भीतर छिपे परमात्मा को समान आदर देने का मार्ग बनाते हैं। तो मेरी दृष्टि में बुद्ध, क्राइस्ट, कृष्ण, नानक जिस अर्थ में कम्युनिस्ट हैं, मैं भी कम्युनिस्ट हूं। क्योंकि मेरी मान्यता यह है कि किसी व्यक्ति को किसी व्यक्ति के ऊपर होने का हक नहीं है। सभी व्यक्ति समान हैं। हायरेरकी के मैं विरोध में हूं कि कोई किसी के ऊपर हो सके। कोई किसी के ऊपर नहीं होता।

प्रश्नः लेकिन गवर्नमेंट ऐसे चल ही नहीं सकती।

मैं अभी यह नहीं कह रहा। अभी ये दूसरी बात जो पूछ रहे हैं वह मैं कर रहा हूं। पीछे आप वह पूछ लें। अभी तो मैं यह कह रहा हूं कि मैं कम्युनिस्ट होने के बाबत क्या कहता हूं।
आप जो पूछते हैं कि फिर गवर्नमेंट चल नहीं सकती। यह थोड़ा सोचने जैसा मामला है। यह बड़ा सोचने जैसा है। दो-तीन बातें समझने जैसी हैं।
एक तो समझने जैसी बात यह है कि हम अक्सर...अगर हम कहें कि सारे लोग स्वस्थ हो जाएं, तो कोई सवाल उठा सकता है कि फिर अस्पताल नहीं चल सकता। सवाल उठा सकता है। लेकिन अस्पताल चलाने की जरूरत क्या है? वह जरूरत ही इसलिए है कि लोग बीमार हैं।
गवर्नमेंट जो है वह नेसेसरी ईविल है। क्योंकि लोग ठीक नहीं हैं इसलिए गवर्नमेंट है। उसके होने की कोई जरूरत नहीं है। सड़क पर पुलिस, चैरस्ते पर पुलिसवाला खड़ा करना पड़ रहा है, क्योंकि हम चोर हैं। और कोई कारण नहीं है उसके वहां खड़े होने का। गवर्नमेंट जो है वह हमारे ठीक न होने का परिणाम है। गवर्नमेंट सदा चलनी चाहिए, यह वैसी ही खतरनाक बात है जैसे कि डाक्टर का धंधा रोज चलना चाहिए। यह वैसी ही खतरनाक बात है।
अच्छी दुनिया तो वह होगी कि डाक्टर का धंधा न चले। तब भी हम डाक्टर को तनख्वाह दे सकते हैं इसकी कि उसका धंधा नहीं चलता है, इससे बड़ी कृपा है उसकी, वह दूसरी बात है। लेकिन डाक्टर का धंधा चलाने के लिए आदमी बीमार रहे, यह नहीं सोचा जा सकता।
गवर्नमेंट है इसलिए कि व्यक्ति जैसा होना चाहिए वैसा नहीं है। जिस दिन हम व्यक्ति को बदलने की प्रक्रिया में जितने गहरे उतर जाएंगे, गवर्नमेंट उतनी ही गैर-जरूरी होती चली जाएगी। इसलिए नेसेसरी ईविल है। और जितनी गवर्नमेंट गैर-जरूरी होगी, उतना ही सबूत होगा कि आदमी ठीक हो रहा है। नहीं तो और कोई सबूत भी नहीं होगा। अभी आदमी जितना बिगड़ता है, गवर्नमेंट हमें उतनी सख्त चाहिए पड़ती है।
अब जैसे हमारा मुल्क है, अब हमारे मुल्क में एक-एक आदमी के मन की आवाज है कि गवर्नमेंट और सख्त होनी चाहिए। क्योंकि आदमी बिल्कुल बिगड़ी हालत में है। इस आदमी के साथ यह गवर्नमेंट कमजोर पड़ रही है। मगर इस आदमी के साथ! इस आदमी के साथ यह गवर्नमेंट कमजोर पड़ रही है। यह गवर्नमेंट नहीं सम्हाल पा रही है। अगर आदमी बुरा रहा तो गवर्नमेंट को मजबूत होना ही पड़ेगा, इसमें कोई उपाय नहीं है। अगर आदमी बीमार हुए तो हमें अस्पताल बढ़ाने ही पड़ेंगे, इसका कोई उपाय नहीं है। लेकिन चेष्टा हमारी यही होनी चाहिए कि अस्पताल कम से कम होते चले जाएं। और चेष्टा हमारी यही होनी चाहिए..दि लेस गवर्नमेंट दि बेटर। चेष्टा हमारी यह होनी चाहिए। और एक दिन ऐसा आना चाहिए...

प्रश्नः अगर गवर्नमेंट लेस हो, तो अनरेस्ट भी हो सकता है कंट्री में!

मेरी आप बात नहीं समझे। मैं आपकी बात समझा। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि गवर्नमेंट लेस हो। मैं यह कह रहा हूं कि गवर्नमेंट की लेस जरूरत हो। तब अनरेस्ट नहीं होगा। यानि गवर्नमेंट की जरूरत रोज कम होती चली जाए। वह तभी कम हो सकती है जब हम व्यक्ति को रोज ऊपर उठाते चले जाएं। उसके बिना नहीं कम हो सकती। गवर्नमेंट कम होती है, जब हम व्यक्ति को ऊपर उठाते चले जाएं। अगर बिना व्यक्ति को उठाए हम गवर्नमेंट को कम कर दें, तब तो अनरेस्ट हो जाएगा। और अनरेस्ट ज्यादा दिन तक नहीं चल सकता, इसलिए गवर्नमेंट फिर वापस..ज्यादा डिक्टेटोरियल गवर्नमेंट वापस लौट आएगी। जिंदगी सदा एक बैलेंस है। उसमें आप बैलेंस ज्यादा देर नहीं तोड़ सकते। अगर आप आज गवर्नमेंट को कमजोर कर दें तो कल आप एक डिक्टेटर को पैदा करने वाले बन जाएंगे अपने आप।

प्रश्नः तो आप, आपके ख्याल में हिंदुस्तान की कितनी हिफाजत है?

वह दूसरी बातें हो जाएंगी, आपकी मतलब की बातें नहीं रह जाएंगी। आप अपनी बातें पूछ लें पहले।

प्रश्नः एक बात है कि हिंदुस्तान की सारी हिंदू संस्थाएं आपके विरुद्ध हैं। क्या आप कोई नये मत की बुनियाद रखने जा रहे हैं?

पहली तो बात यह है कि संस्थाएं मेरे विरोध में हो सकती हैं, हिंदू मेरे विरोध में नहीं हैं। और संस्थाएं मुर्दा चीजें हैं, जो हमेशा विरोध में होती हैं। संस्थाएं तो सदा विरोध में होंगी, क्योंकि संस्थाएं हमेशा पास्ट ओरिएंटेड होती हैं। वे बनती हैं दस हजार साल पहले, कोई पांच हजार साल पहले। तो जब भी कोई बात कही जाएगी जो आज काम की होगी, उसके खिलाफ संस्था पड़ेगी ही। क्योंकि संस्था हमेशा अतीत की होती है और बात अगर काम की है तो आज की होती है।
लेकिन हिंदू मेरे विरोध में नहीं हैं। नहीं तो मुझे सुन कौन रहा है? समझ कौन रहा है? मुझे प्रेम कौन कर रहा है?
मुझे कौन प्रेम करेगा? कौन समझेगा? कौन सुनेगा? अगर हिंदू ही मेरे विरोध में हैं, तब तो विरोध की मेरे जरूरत ही नहीं है। मैं बेमानी हो गया, मेरा कोई मतलब ही नहीं। अगर मेरे विरोध की जरूरत पड़ती है तो उसका मतलब ही यह है कि मुझे कोई सुनने और समझने को राजी हो रहा है। वह विरोध मेरा नहीं है। मेरे विरोध से क्या मतलब है! मैं एक आदमी, अगर मुझे कोई सुनता न हो, प्रेम न करता हो, समझता न हो, तो मुझे कोई काला झंडा दिखाने की जरूरत नहीं है। काला झंडा तो उनको दिखाया जा रहा है जो मुझे सुन रहे हैं। मुझसे क्या लेना-देना है! मुझसे कोई संबंध ही नहीं है।

प्रश्नः तो नया मत नहीं बना रहे हैं आप!

नहीं, बिल्कुल भी नहीं। क्योंकि मैं मानता हूं कि सब मत बंधन बनाने वाले हो जाते हैं..सब मत। जैसे पुराने मत बंधन बनाने वाले हो गए हैं। तो मैं वही नासमझी करूं जो कि दूसरी संस्थाएं मेरे साथ कर रही हैं, तब तो पागलपन होगा। पुरानी संस्था किसी ने बनाई थी कभी, पुराना मत किसी ने कभी बनाया था। वक्त निकल जाता है, मत बैठा रह जाता है। फिर वह मत डिगता नहीं। वह कहता है, हम हटेंगे नहीं। उसकी सब जरूरत खत्म हो जाती है। वह अपरूटेड हो जाता है। उसकी कहीं कोई जरूरत नहीं रह जाती। लेकिन वह बैठा रह जाता है।
मैं किसी मत बनाने के पक्ष में नहीं हूं। मैं तो विचारशील आदमी के पक्ष में हूं, मत के पक्ष में नहीं हूं। मैं यह नहीं कहता कि सब लोग एक मत के हो जाएं। मैं यह कहता हूं कि सब लोग विचारशील हों। विचारशीलता तो एक फ्लूडिटी है और मत सदा एक रिजिडिटी है। मत हमेशा फिक्स्ड होता है और विचार कभी फिक्स्ड नहीं होता। मैं यह नहीं कहता कि आप एक पर्टिकुलर मत में बंध जाएं। मैं इतना सा ही कहता हूं कि आप सोच-विचार को मुक्त करें।
तो मैं किसी मत को जन्म देने वाला नहीं हूं। क्योंकि पुराने मतों ने ही हमें इतनी दिक्कत दे दी है कि और एक नया मत बीमारी को बढ़ाएगा, कम नहीं कर सकता। मैं सख्त खिलाफ हूं।

प्रश्नः नये मत भी ऐसे ही बनते हैं, वैसे भी...

बनते हैं। ...
और गंगा बड़ी स्वतंत्र है। आप रेल की पटरियां बिछा दो और गंगा से कहो कि इस पटरी पर बहो। तब वह परतंत्र होगी। गंगा अभी पूरी स्वतंत्र है। और अगर किनारे भी चुने हैं तो यह गंगा का चुनाव है, यह आपका चुनाव नहीं। आपकी नहरें परतंत्र हैं, वह आपका चुनाव है। तो नहरें सागर तक नहीं पहुंचतीं। नहरों को सागर कोई कैसे पहुंचाएगा? किसलिए पहुंचाएगा? नहरें परतंत्र हैं। बाढ़ स्वच्छंद है। गंगा स्वतंत्र है।
इन तीनों बातों को समझ लें। ये तीन अलग बातें हैं। स्वतंत्रता और स्वच्छंदता एक चीज नहीं हैं। और परतंत्रता ही स्वच्छंदता पैदा करती है। स्वच्छंदता सदा परतंत्रता से पैदा होती है। जब परतंत्रता बहुत ज्यादा हो जाती है तो स्वच्छंदता पैदा हो जाती है। वह एंटीडोट है। स्वतंत्रता पूरी हो तो स्वच्छंदता कभी पैदा नहीं होती। क्योंकि उसके पैदा होने की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
आदमी स्वस्थ हो तो दवा कभी नहीं लेता, बीमार हो तो ही लेता है। आदमी स्वतंत्र नहीं है, परतंत्र है। इसलिए स्वच्छंदता बार-बार लौटती है। मैं स्वच्छंदता के सख्त खिलाफ हूं। और अगर स्वच्छंदता के खिलाफ हूं तो मुझे परतंत्रता के खिलाफ होना पड़ेगा। क्योंकि परतंत्रता के कारण स्वच्छंदता पैदा होती है। वह उसका रूट कॅा.ज है। मैं स्वतंत्रता के पक्ष में हूं, बाढ़ के पक्ष में नहीं हूं। लेकिन गंगा अपना किनारा चुने, इस पक्ष में हूं।
मैं यह नहीं कह रहा कि किनारे तोड़ कर बहे। जब तोड़ कर बहती है तब भी बड़े किनारे चुन कर बहती है। आप ही को ख्याल में है कि तोड़ कर बहती है, क्योंकि आप जिसको किनारा समझे थे वह किनारा नहीं रह जाता। गंगा तो सदा किनारा चुन कर ही बहेगी। गंगा तो किनारा चुन कर ही बहेगी; जिसको भी बहना है, किनारा चुनना पड़ेगा। लेकिन किनारा चुना हुआ हो स्वयं का, फोस्र्ड न हो। अगर फोस्र्ड है, तो उपद्रव होगा।
अब तक आदमी के ऊपर हम परतंत्रता थोपते रहे हैं। इसलिए जब मैं स्वतंत्रता की बात करता हूं तो आपको तत्काल स्वच्छंदता ख्याल में आती है। क्योंकि अगर जेलखाने में जाकर स्वतंत्रता की बात करिए तो जेलर को फौरन ख्याल आएगा..इससे स्वच्छंदता हो जाएगी। लेकिन बस्ती में स्वतंत्रता की बात करिए तो किसी को ख्याल नहीं आता कि स्वच्छंदता हो जाएगी। क्योंकि जेलर कहेगा..स्वतंत्रता यानि स्वच्छंदता। क्योंकि परतंत्रता इतनी भारी है कि कोई भी स्वतंत्रता स्वच्छंदता में ही ले जाने वाली है। ये सब कैदी बाहर निकल कर भाग खड़े होंगे। तो वह कहेगा, यह स्वतंत्रता की बात मत करो, नहीं तो स्वच्छंदता हो जाएगी।
जो लोग भी स्वतंत्रता की बात को स्वच्छंदता का अर्थ देते हैं, वे जेलर की तरह समाज की छाती पर बैठे हुए हैं। वे संस्थाएं हों, धर्म हों, मत हों, आर्गनाइजेशंस हों, कुछ भी हों। उन्होंने समाज को एक कारागृह बनाया हुआ है। वे पूरे वक्त डरते हैं..कि जरा सी स्वतंत्रता कि बस स्वच्छंदता हुई।
और मेरा मानना है कि यही सारे लोग मिल कर कल स्वच्छंदता करा देंगे। सारी दुनिया में करवा रहे हैं। सारी दुनिया में करवा रहे हैं..चाहे यूरोप में हिप्पी पैदा हो रहा हो और चाहे बीटल पैदा हो रहा हो, बीटनिक पैदा हो रहा हो, और चाहे हिंदुस्तान में नक्सलाइट पैदा हो रहा हो, इसके जिम्मेवार वे लोग हैं जिन्होंने व्यक्ति को सब तरफ से गुलाम बनाया हुआ है।
यह बड़े मजे की बात है कि अगर गुलामी बहुत ज्यादा हो जाए तो आदमी दूसरी एक्सट्रीम पर चला जाता है। हमारी जिंदगी एक्सट्रीम में चलती है। अगर घड़ी का पेंडुलम बाएं जाता है तो फिर वह दाएं कोने तक जाता है। पेंडुलम को बीच में छोड़ दें तो न वह बाएं जाता है, न वह दाएं जाता है।
स्वतंत्रता अब तक स्वीकृत नहीं हो सकी है। मैं स्वतंत्रता के पक्ष में हूं, स्वच्छंदता के पक्ष में नहीं हूं। और चूंकि स्वच्छंदता के पक्ष में नहीं हूं इसीलिए परतंत्रता के विपक्ष में हूं।

प्रश्नः देखिए गीता और रामायण के मुतल्लक आपके बारे में ये बातें आई हैं कि आपने इन पर भी कुछ खंडन किया है, इनका खंडन किया है। या आपने यह कहा है कि इन किताबों से कोई ज्ञान प्राप्ति नहीं होती, बल्कि अज्ञान बढ़ता है। तो इसके बारे में आप अज्ञान का मतलब साफ करें।

एक बात, मैं शास्त्रों के विरोध में नहीं हूं, शास्त्रों के पकड़ने के विरोध में हूं, क्लिंगिंग। मैं इस बात के विरोध में नहीं हूं कि गीता मत पढ़ें, मैं इस बात के विरोध में हूं कि गीता को अंधे की तरह न पकड़ लें। हमारे दिमाग में क्लिंगिंग पैदा होती है, एक पकड़ पैदा होती है। यह जो पकड़ है, यह हमें स्वतंत्र नहीं करती, परतंत्र करती है, प्रिज्युडिस्ड बनाती है। गीता को जो आदमी बिना पकड़े पढ़ेगा, वह कुरान को भी पढ़ सकता है, उतने ही मौज और आनंद से। जो गीता को पकड़ कर पढ़ेगा, वह कुरान को उतने मौज और आनंद से नहीं पढ़ सकता। जो कुरान को पकड़ लेगा, वह फिर गुरुग्रंथ को उतने मौज और आनंद से नहीं पढ़ सकता। क्लिंगिंग से मेरा विरोध है।
मैं मानता हूं कि दुनिया के सभी शास्त्रों में, जिन्होंने कुछ जाना है, उन्होंने कुछ कहा है। इसलिए किसी एक शास्त्र को पकड़ लेने वाला आदमी, अपने को वृहत्तर अनुभवों से वंचित रख रहा है और अज्ञान की तरफ जा रहा है। उसकी ओपनिंग चाहिए, उसका मन सब तरफ खुला होना चाहिए। और वह खुला तभी हो सकता है जब एक की पकड़ न हो, एक।
दूसरी बात, दूसरा मेरा कहना यह है कि जिन्होंने भी सत्य को जाना..चाहे कृष्ण ने, चाहे क्राइस्ट ने..जैसे ही सत्य को कहा जाता है, वैसे ही हमारे पास तक सत्य नहीं पहुंचता, सिर्फ शब्द पहुंचते हैं। सत्य पहुंच नहीं सकता शब्दों से। जैसे मैंने किसी को प्रेम किया और मैंने आपसे कहा कि मैंने प्रेम किया और प्रेम बड़ा आनंदपूर्ण है। आपके पास प्रेम का अनुभव नहीं पहुंचता, सिर्फ प्रेम शब्द पहुंचता है। और अगर आपको प्रेम का कोई अनुभव न हो, तो यह प्रेम शब्द से आपको कुछ भी नहीं मिल सकता। कुछ मिल ही नहीं सकता, यह बिल्कुल कोरा शब्द रह जाएगा।
तो दूसरा मेरा कहना यह है कि जो लोग शास्त्रों को ही समझ लेते हैं कि इन्हीं से सत्य मिल जाएगा, खतरे में पड़ रहे हैं। इनसे शब्द ही मिल सकते हैं उनके जिनको सत्य मिला, सत्य नहीं मिल सकता। सत्य तो स्वयं ही खोजना पड़ेगा। जिस दिन सत्य मिल जाएगा, उस दिन ये शास्त्र गवाही बन जाएंगे बस..कि जो तुम्हें मिला है वही कृष्ण को भी मिला था, जो तुम्हें मिला है वही गीता में भी है, वही कुरान में भी है, वही बाइबिल में भी है। लेकिन कोई सोचता हो कि गीता कंठस्थ कर लेने से सत्य मिल जाएगा, तो यह गीता कंठस्थ तो कंप्यूटर को भी हो सकती है। यह सिर्फ मेमोरी का काम है, इससे ज्ञान का कोई लेना-देना नहीं है।
तो जब मैं कहता हूं कि शास्त्र से सत्य नहीं मिलेगा, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि शास्त्र में सत्य नहीं है। शास्त्र में सत्य है..कहने वाले के लिए। शास्त्र में सत्य नहीं है..पढ़ने वाले के लिए। पढ़ने वाले के लिए क्या हो सकता है? शब्द हैं! कोरे शब्द हैं! जिनका उसके पास कोई कॅारस्पांडिंग अनुभव नहीं है। और बड़े मजे की बात है कि अगर उसके पास कॅारस्पांडिंग अनुभव हो, तो वह गीता की फिकर ही न करेगा। अगर उसके पास अपना अनुभव हो, तो वह कहेगा कि ठीक है, होगा गीता में, होगा बाइबिल में। जिसके पास अपना अनुभव नहीं है वह गीता को छाती से लगा लेगा। और यह जो छाती से गीता को लगा लेना है, यह खतरनाक है। यह कृष्ण तक पहुंचने में बाधा बनेगा।
गीता पढ़ें, मुक्त मन से! समझें, मुक्त मन से! इतना जानते हुए कि जो हम समझ रहे हैं वे शब्द हैं; अभी सत्य की यात्रा नहीं हुई। सागर तक पहुंचना है तो किताब में लिखे सागर की बात से नहीं, सागर तक ही पहुंचना पड़ेगा। इतना ख्याल बना रहे इसलिए मैं जोर निरंतर देता हूं कि शास्त्र से जरा सावधान रहना। और ऐसा नहीं कहता कि गीता के ही शास्त्र से, मेरी किताब से भी उतना ही सावधान रहना। क्योंकि यह सवाल नहीं है कि वह किसकी किताब है।
भ्रांति इससे पैदा होती है कि आदमी चाहता है कि सत्य बिना खोजे कहीं से मिल जाए, खोजना न पड़े। उसको चोट लगती है। वह सोचता है..गीता से मिल जाएगा, जिंदगी भर पढ़ते रहेंगे तो मिल जाएगा। उसे चोट पहुंचती है। क्योंकि मैं यह कह रहा हूं कि खोजना पड़ेगा तो ही मिलेगा। सत्य इतना सस्ता नहीं कि तुम चश्मा लगा कर और थोड़ा सा मिट्टी का तेल जला कर और एक किताब पढ़ कर पा लोगे। मेरा मतलब यह नहीं है कि वहां सत्य नहीं है। जिसने कहा था, उसके लिए था। लेकिन तुम्हारे लिए उस दिन होगा, जिस दिन तुम जानोगे, उसके पहले नहीं हो सकता।

प्रश्नः आपने फरमाया कि गवर्नमेंटलेस सोसाइटी...क्योंकि रजोगुण, सतोगुण और तमोगुण, ये हमेशा इकट्ठे ही चलते रहे हैं हर सोसाइटी में। ऐसा समाज हमने आज तक न देखा, न सुना जिसमें महज सतोगुणी ही तमाम लोग हों, रजोगुण, तमोगुण वाले लोग ही न हों; और उनके लिए कोई गवर्नमेंटल बॅाडी की जरूरत न हो। अगर पंचायती बॅाडी भी कोई कभी हुई, जो गवर्नमेंट लेवल तक न पहुंचती हो, वह भी एक तरह की गवर्नमेंटल बॅाडी ही है। इसलिए मैं आपसे यह पूछना चाहूंगा कि क्या आपकी यह टॅाक, यह गवर्नमेंट लेस बॅाडी केवल आइडियलिस्टिक सोसाइटी के लिए है? यह प्रैक्टिकल भी है या महज आइडियलिस्टिक है?

पहली तो बात यह है कि ऐसा कभी हो ही जाएगा, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं। लेकिन ऐसे होने की आकांक्षा में बहुत कुछ हो जाएगा जो हितकर है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि ऐसा कभी हो ही जाएगा। यह भी नहीं कह रहा हूं कि एक दिन ऐसा आ ही जाएगा जिस दिन नो गवर्नमेंट की सोसाइटी हो जाएगी। लेकिन नो गवर्नमेंट का ख्याल हो तो लेस गवर्नमेंट की सोसाइटी पैदा होती है।
आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न? मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप एवरेस्ट पर पहुंच ही जाएंगे। लेकिन एवरेस्ट पर पहुंचने की आकांक्षा हो तो सतपुड़ा और विंध्याचल पर चढ़ना हो सकता है। इंपासिबल को लक्ष्य बनाना पड़ता है तो जो पोटेंशियल है वह पासिबल हो पाता है, नहीं तो नहीं हो पाता।
तो मेरी बात बिल्कुल आइडियलिस्टिक है, आप ठीक कह रहे हैं। यानि मैं बिल्कुल यूटोपियन बात कह रहा हूं कि यह तो आखिरी बात है कि जमीन पर अगर सारे लोग परमात्मा हो जाएं तो संभव होगी। जो कि संभव नहीं है। लेकिन अगर इसे ध्यान में रखा जाए तो हम लेसर गवर्नमेंट, एंड लेसर गवर्नमेंट की तरफ बढ़ते हैं।
और इस जगत में एब्सोल्यूट चीजें कभी नहीं होतीं। जब हम एक आदमी को कहते हैं कि सतोगुणी, तब भी कोई आदमी पूरा सतोगुणी नहीं होता। लेसर फर्क पड़ते हैं सिर्फ, रिलेटिव फर्क होते हैं। बड़े से बड़े आदमी में भी छोटे आदमी की छोटी मात्रा मौजूद होती है। और छोटे से छोटे आदमी में भी बड़े आदमी की छोटी मात्रा मौजूद होती है। रावण में भी राम मौजूद होता है और राम में भी रावण का एक हिस्सा मौजूद होता है। इस पृथ्वी पर एक्झिस्ट होने के लिए, सब चीजें रिलेटिव हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम रावण हो जाएं। इसका मतलब यह है कि लक्ष्य तो रहे कि राम बनते रहें। राम बनने का लक्ष्य हो तो रावण को कम करते जाएंगे। हालांकि पृथ्वी पर, अस्तित्व में कोई भी व्यक्ति होगा, तो रावण का भी एक हिस्सा उसके भीतर रहेगा ही। इस पृथ्वी पर जैसे ही कोई एब्सोल्यूट हुआ कि वह मुक्त हो जाता है, वह मोक्ष चला जाता है। उसकी इस जगह पर कोई जमीन पर जगह नहीं रह जाती।
तो मैं आपकी बात को स्वीकार कर रहा हूं। मैं कह ही यह रहा हूं कि मैं जो कह रहा हूं वह आदर्श है। और सभी आदर्श असंभव होते हैं, मेरा ही आदर्श नहीं। दूसरी बात कह रहा हूं कि सभी आदर्श असंभव होते हैं। और तीसरी बात यह कह रहा हूं कि असंभव आदर्श चुनना, जो संभव है उसे करने के लिए जरूरी है। और जब आप पूछते हैं कि कभी कोई ऐसी सोसाइटी थी?
कभी कोई ऐसी सोसाइटी नहीं थी। लेकिन जितनी कल्चर्ड सोसाइटी होगी, उतनी ही लेस गवर्नमेंट वाली सोसाइटी होगी। जितनी कल्चर्ड सोसाइटी होगी। क्योंकि कल्चर्ड का मतलब ही यह है कि जो काम गवर्नमेंट को करना पड़ता है, वह काम आदमी कर रहा है। अगर रास्ते पर बाएं चलाने के लिए पुलिसवाले की जरूरत पड़ती है, तो यह अनकल्चर्ड सोसाइटी है। और अगर यह कल्चर्ड सोसाइटी है, तो पुलिसवाला नहीं होगा, आदमी बाएं चलता है। जिस दिन सारे आदमी बाएं चलने लगेंगे, उस दिन हम पुलिसवाले को बेकार वहां खड़ा करके थकाना बेकार समझेंगे। हम उससे कहेंगे, तुमसे कोई और काम लिया जाए। कल्चर्ड सोसाइटी का मतलब ही यह है कि वहां गवर्नमेंट की कम जरूरत होगी।

प्रश्नः यह ज्यादा अच्छा होता कि अगर आप व्याख्यान में उसकी कमतर नीड को डिस्कस करते, उसकी एब्सोल्यूट नॅान एनटिटी को डिस्कस न करते।

उसकी एब्सोल्यूट नॅान एनटिटी को ही डिस्कस करना पड़ता है, तभी कमतर नीड डिस्कस होती है। उसके कारण हैं। उसके कारण हैं। अगर हमें यहां प्रकाश की बात करनी हो, तो अंधेरे के खिलाफ रख कर सोचना पड़ता है। अगर हम ऐसा कहें कि प्रकाश सिर्फ अंधेरे का ही एक रूप है, तो प्रकाश को समझना मुश्किल हो जाता है। है सच्चाई वही। दुनिया में अंधेरे और प्रकाश में कोई एब्सोल्यूट फर्क नहीं है, रिलेटिव फर्क है।
समझने के लिए और बात करने के लिए सदा हमें चीजों को दो पोलेरिटी में तोड़ना पड़ता है। नहीं तो हम बात नहीं कर सकते। इस हाथ को हम बायां कहते हैं, इसको हम दायां कहते हैं। लेकिन बहुत गौर से देखें तो ऐसा बांटना मुश्किल है। क्योंकि कहां से बायां शुरू होगा? कहां से दायां शुरू होगा? और जिस जगह से हम शुरू करेंगे वह जगह कहां होगी? बाईं होगी कि दाईं होगी? हम मुश्किल में पड़ जाएंगे।
जिंदगी की सारी भाषा, बात करना, सभी की सभी पोलेरिटी में होती है। ठंडे और गर्म की बात करनी पड़ती है। दुख और सुख की बात करनी पड़ती है। सच्चाई उलटी है सदा। सब दुखों में थोड़ा सुख होता है और सब सुखों में थोड़ा दुख होता है। वह रिलेटिव है, वह जिंदगी की असलियत है।
प्रश्नः मैं तो यह कह रहा था कि आपकी बहुत सी बातें जबरदस्त प्रैक्टिकल हैं। यह आपने आज एक आइडियलिस्टिक बात कह दी और खुद उसको आपने तस्लीम कर दिया!

मैं तस्लीम कर रहा हूं। मैं तस्लीम कर रहा हूं। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वह इम्प्रैक्टिकल है। मैं कह रहा हूं कि आइडियलिज्म की बात का अपना एक प्रैक्टिकल अर्थ है। और वह अर्थ यह है कि जब भी हम असंभव आदर्श चुनते हैं तो जो अॅाप्टिमम पासिबल है, वह संभव हो पाता है। जब हम एक आदमी से कहते हैं कि तुम परमात्मा हो जाओ, तब हम उसको श्रेष्ठ आदमी बना पाते हैं बस, और कुछ नहीं कर पाते। लेकिन अगर हम उस आदमी को कहें कि तुम श्रेष्ठ आदमी हो जाओ, तो हम उसको श्रेष्ठ आदमी न बना पाएंगे। जब हम आखिरी कोशिश करते हैं, तब हम थोड़ा सा पहुंच पाते हैं।

प्रश्नः इसलिए कहना पड़ता है।

इसलिए कहना पड़ेगा। और वह प्रैक्टिकल है, वह प्रैक्टिकल है।  

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