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बुधवार, 29 अगस्त 2018

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(स्वयं को जानना कौन चाहता है?)

अब वह कर्म-योग को भी मानने वाले लोग ऐसा समझते हैं और इस मुल्क में ढेरों उनके व्याख्याकार हैं, वे करीब-करीब ऐसे व्याख्याकार हैं जिनका कहना यह है कि कर्म करते रहो, आसक्ति मत रखो तो कर्म-योग हो जाएगा। ये बिलकुल झूठी बात है। अब मेरा कहना ये है कि कर्म में आसक्ति रखना और अनासक्ति रखना आपके बस की बात नहीं है। अगर आपको आत्म-ज्ञान थोड़ा सा है तो कर्म में अनासक्ति होगी; अगर आत्म-अज्ञान है तो कर्म में आसक्ति होगी। यानी आसक्ति रखना और न रखना आपके हाथ में नहीं है। अगर आत्म-ज्ञान की स्थिति है तो कर्म में अनासक्ति होती है और अगर आत्म-अज्ञान की स्थिति है तो कर्म में आसक्ति होती है। आप आसक्ति को अनासक्ति में नहीं बदल सकते हैं, अज्ञान को ज्ञान में बदल सकते हैं। वह मेरा मामला तो वही का वह है, वह मैं कहीं से भी कोई बात हो। मामला मेरा वही का वह है। बात मैं वही, एक ही है।

सतपुरुषों ने कहा हैः अपने को जानो। नो दाई सेल्फ। लेकिन इतनी महत्वपूर्ण बात भी, इतनी जरूरी और तत्क्षण अनुभव में आए।।

ऐसी बात भी बहुत कम लोग क्यों साधते हैं? बहुत कम लोग क्यों साधते हैं? बहुत कम लोग इस सत्य को उपलब्ध क्यों होते हैं? अधिक लोग क्यों नहीं हो पाते? प्रश्न तो बड़ा महत्वपूर्ण है। यह तो कितनी बार, रोज ही तो।।सारी चर्चा, सारे प्रवचन, सारे शास्त्र इसी बात से भरे हैं कि अपने को जानो।
लेकिन हम अपने को जान ही क्यों नहीं पा रहे? इसके दो कारण हैं। और अधिक लोग क्यों इसमें संयुक्त नहीं हो पाते, इसके दो कारण हैं। एक कारण तो यह है कि शास्त्रों को लगता होगा।।कि ये मोस्ट अरजेंट नीड है। और जिन्होंने अपने को जाना।।उन्हें लगता हो कि ये तत्काल उपलब्ध करने की चीज है।।यह आपको नहीं लगता।
आप सुनते हैं, सुनते वक्त प्रभावित हो सकते हैं। लेकिन आपको ऐसा नहीं लगता कि ये बिलकुल जरूरी चीज हैं जो इसी वक्त जाननी चाहिए। आपको लगता है कि अभी जरूरी चीजें और दूसरी हैं, इसको कल भी जाना जा सकता है, परसों भी जाना जा सकता है। जीवन की जरूरतें दूसरी हैं; आत्मा जीवन की जरूरत नहीं। आपको आत्मा जीवन की जरूरत नहीं मालूम होती। फिजूल समय की बातचीत मालूम हो सकती है। नहीं, आपके लिए वह अर्जेंट नहीं है। और अगर कोई आदमी आपसे कहे, एक दफा ऐसा हुआ है।
एक साधु ने एक सम्यक सभा के बीच खड़े होकर कहा कि जो-जो मोक्ष चाहते हैं वे तत्क्षण खड़े हो जाएं। क्योंकि मुझे कुछ ऐसा सूझा है कि अभी-अभी मोक्ष, इसी वक्त उन्हें दिलाया जा सकता है। उस सभा में एक आदमी खड़ा नहीं हुआ। और एक आदमी जो बहुत देर से मोक्ष के बाबत पूछता था।।उससे, उस साधु ने कहाः कम से कम तुम तो खड़े हो जाओ।
वह बोलाः मैं जरा कल सोच कर बताऊंगा।
क्योंकि सवाल यह है कि मोक्ष।।आप विचार बहुत करते होंगे। लेकिन अगर अब भी कोई देने को राजी हो जाए तो आप भाग ही खड़े होंगे उस आदमी से कि यह, यह ठीक नहीं है। तो मोस्ट अरजेंट नीड जो आपने लिखा।।लगती नहीं आपको, और लग नहीं सकती और न लगने का कारण है। और जो लोग आपको समझाते हैं, वे ही गलत रास्ते से समझाते हैं।।इसलिए नहीं लग सकती। आपको आत्मा को जानना तब आपकी आत्यंतिक जरूरत बनेगी, जब आप आपके भीतर जो दुख है उसका अनुभव करेंगे।
साधु वे नहीं हैं।।जो बतलाते हैं कि आत्मा को जानना चाहिए। साधु वे हैं जो आपको आपके दुख का साक्षात करा रहे हैं। अगर आपको अपने भीतर अपने दुख का पूरा साक्षात हो जाए, अपनी पूरी इस दुखद स्थिति का और मृत्यु से घिरे ह‏ुए जीवन का अनुभव हो जाए, आपको ज्ञात हो जाए कि आप किस फिसलती हुई रेत पर खड़े हैं, और आपको ज्ञात हो जाए कि किन कागज की नावों में आप समुद्र में यात्रा करने निकल पड़े हैं, अगर आपको नीचे पता चल जाए कि सब निराधार है और अधर में लटके हैं।।उस घबड़ाहट में पहली दफा आपको आत्मा जाननी है।।इसकी अरजेंट नीड पैदा होगी। उसके पहले नहीं हो सकती।
आप जिनके पास जाते हैं, जिनसे समझते हैं वे जरूर कहते हैं कि आत्मा को जानो, आत्मा को जानना बहुत जरूरी है। आत्मा को जानना बिलकुल जरूरी नहीं हो सकता जब तक कि आप उस दुख को न जान लें, उस पीड़ा को न जान लें, उस परेशानी को न जान लें।।जिसका उपाय आत्मा को जानना है। यानी जिसको मिटाने का उपाय आत्मा को जानना है। तो आप यह जो सुन लेते हैं।।जाकर, आत्मा को जानना वगैरह...। बजाय इससे आपको दुख का साक्षात होने के, आपके दुख से पलायन होता है।
यानी मेरा कहना हैः धार्मिक आप तब बनेंगे जब आपको दुख का साक्षात होगा। और अभी आप धार्मिक इसलिए बने फिरते हैं कि किसी भांति दुख का साक्षात न हो जाए। अभी आप तरकीबें निकाले हुए हैं। आप सुन लेते हैं कोई कहता हैः आत्मा अमर है, बड़ा अच्छा लगता है। क्योंकि मरने से बचना चाहते हैं, मरना नहीं चाहते। डर लगता है मृत्यु का। तो आत्मा की अमरता अच्छी मालूम होती है। आत्मा की अमरता दो तरह से मालूम हो सकती है। एक तो उनको।।जो मर कर देखेंगे। और एक उनको जो मरना नहीं चाहते और मरने से बचना चाहते हैं। जो मरने से बचना चाहते हैं और आत्मा की अमरता को मान लेते हैं।।वे कभी न जान सकेंगे। उनके लिए कोई जरूरत नहीं है। उनके लिए एक एस्केप है, एक पलायन है, एक बचाव है।
जो मरने की हिम्मत करेंगे। जो जीते-जी मरने की हिम्मत करेंगे। कल या परसों मैं इसके बाबत चर्चा किया हूं आपसे, जो जीते-जी मरने की हिम्मत करेंगे। सारा योग मरने की हिम्मत है। मरने की हिम्मत उस सबको छोड़ देने की जिसे हम जीवन समझते हैं। उस सबसे हटते जाने की जिसे हम जीवन समझते हैं। और उसमें डूबते जाने की जिसे दुनिया मृत्यु समझती है।
संन्यासी का नाम इसीलिए पहले बदल देते थे क्योंकि हम मान लेते थे वह आदमी मर गया। उसका दूसरा नाम रखने की जो परंपरा बनी। वह इसलिए बनी कि वह आदमी मर गया।।जिसे हम जानते थे। यह दूसरा आदमी है, इसको दूसरा नाम दे देते हैं। उसने सब तोड़ लिया अपना। वह सब जो वह जानता था कि जीवन है।।वह मर चुका है। और जो मुर्दे के संस्कार करते थे, वे ही संन्यासी के भी करते थे।।उसका सिर मूंड देना, उसे चिता के पास लिटा देना, उसे मरा हुआ घोषित कर देना। उसको नया नाम दे देना। यह तो, यह तो औपचारिकता थी। लेकिन मूल बात इतनी थी कि आदमी मर गया। वह जिस-जिस चीज को जीवन समझता था, अपने को उसने अलग कर दिया। इतना साहस जिसमें हो तो उसे दुख का बोध होगा, पीड़ा, परेशानी, भीतर इतनी ऐंग्विश क ा अनुभव होगा। आप इतने विक्षिप्त होने लगेंगे, इतने घबड़ा जाएंगे भीतर देख कर वह घबड़ाहट आपको पकड़ ले, तब आपको प्यास उठेगी कि मैं आत्मा को जानूं। क्योंकि उसको जाने बिना इस घबड़ाहट से छुटकारे का कोई उपाय नहीं होगा।
अब कोई आपको समझाए कि पानी बहुत जरूरी है, बहुत जरूरी है। शास्त्र के शास्त्र लिख डाले, समझा डाले। आप कहेंगे कि भई आप तो बहुत कहते हैं कि पानी बहुत जरूरी है, लेकिन हमको तो उसको खोजने की कोई इच्छा पैदा होती नहीं। पानी की जरूरत से पानी खोजने की इच्छा पैदा नहीं होती। प्यास से पानी खोजने की इच्छा पैदा होती है। और आत्मा को जानना बहुत अच्छा है, बहुत कीमती है।।इससे प्यास पैदा नहीं होती। वह पीड़ा का अनुभव होगा तो प्यास होगी। तो धर्म कुछ गलत रास्ते पर गया है।
पंडित आपको।।आत्मा अमर है, आत्मा को जानना चाहिए, ये समझाते हैं। संत जो थे, सतपुरुष जो थे, वे यह नहीं समझाते थे। वे आपको आपकी पीड़ा का और दुख का दर्शन कराते हैं। वह आपकी स्थिति क्या है वास्तविक, इसमें आपको प्रवेश देते थे। उस स्थिति में जो घबड़ाहट होती थी, आप पूछते थे: इस घबड़ाहट से मैं कैसे मुक्त हो जाऊं, कैसे इसके बाहर हो जाऊं, कैसे यह विसर्जित हो जाए।।तो आप में प्यास पैदा होती है।
यानी प्यास आत्मा के समझाने से पैदा नहीं होती। प्यास आपके भीतर जो दुख की स्थिति, जो नरक मौजूद है।।उसको जानने से पैदा होती है। वह अगर हो तो बड़ा फायदा हो सकता है। जिस साधु के पास से आप तृप्त और संतुष्ट लौटें।।समझना वहां जाना व्यर्थ है। और जिसके पास से जाकर आप अपने दुख के बोध से भर कर, असंतुष्ट, पीड़ित और प्यासे होकर लौटें।।समझना वहां जाना सार्थक हुआ। उससे पैदा होगी कोई बात। फिर कभी इस पर चर्चा करेंगे और भी बहुत बातें पूछी हैं, कभी इस पर बात करेंगे।
वह कोई अर्थ के नहीं रह जाते हैं, क्योंकि मैं वही समझा रहा हूं, क्योंकि मैं वही समझा रहा हूँ, क्योंकि मैं वही समझा रहा हूं।।उसका कोई खास मूल्य नहीं है, कोई खास मूल्य नहीं है मैं आपको...
अगर आपके चित्त की स्थिति परिवर्तित हो जाए। आपका असात्विक भोजन अपने आप छूटना शुरू हो जाएगा। यानी मेरा कहना है, असात्विक भोजन वह है।।जो शांत व्यक्ति न कर सके। अब मेरी जो परिभाषा हैः असात्विक भोजन वह है।।जो शांत व्यक्ति न कर सके। सात्विक भोजन वह है।।जो शांत व्यक्ति कर सके। ऐसा हुआ है।
मेरे पास एक वकील हैं।।मांसाहारी हैं। वे मेरे पास आते थे। मैंने उनसे कई दफा कहा कि आप कभी ध्यान के लिए आएं। ध्यान का शिविर था। वे बोले मैं आऊं तो मुझे यही डर लगता है कि जरूर आप वहां ये समझाएंगे कि मांस और शराब।।ये छोड़ देना चाहिए। ये मैं तो नहीं छोड़ सकता। अगर आप ठीक समझेंगे, ये चलते हुए ध्यान चल सके। मेरे जीवन को तो आप न छुएं, वह जैसा है रहने दें; और ध्यान चल सके, तो मैं जरूर आऊंगा।
मैंने कहाः मैं तो किसी के जीवन को नहीं छूता। वह जैसा है, आप जैसे हैं, वैसा चल रहा है। जब तक आप वैसे हैं, वैसे ही चलेगा। मैं उसे बिलकुल नहीं छूता। आप जो करते हों, बिलकुल किए चले जाएं।।मुझे उससे कोई मतलब नहीं है। मुझे तो आपसे मतलब है, आप आ जाएं।
वे आए, उन्होंने वे सात दिन प्रयोग करते थे, फिर तीन महीने तक उन्होंने सतत प्रयोग किया। तीन महीने के बाद उन्होंने मुझसे आकर कहा कि आपने मुझे धोखा दिया। आपने कहा: मैं आपके जीवन को नहीं छूऊंगा। लेकिन मेरा जीवन सब गड़बड़ हो गया।
मैंने उनसे कभी बात नहीं की।।उनके शराब और मांस के बाबत। लेकिन उनके चित्त में जो शांति का आगमन शुरू हुआ, वे मुझसे बोले कि मैं हैरान हूं अब यह सोच कर कि मैं मांस कैसे खाता रहा, कि मुझे खयाल नहीं आता कि मैं मांस खाता रहा, यानी मुझे कल्पना नहीं पड़ती कि मैं खाता रहा, मेरे लिए असंभव हो गया।
चित्त शांति में जो भोजन आप ले सकें; वह सात्विक आहार है। यानी सात्विक आहार से चित्त शांत नहीं होता। चित्त शांत हो तो सात्विक आहार हो जाता है। और असात्विक आहार से चित्त अशांत नहीं होता; चित्त अशांत होता है तो असात्विक आहार की इच्छा पैदा होती है। यानी मेरी बुनियादी बातें हैं।।जहां आपमें सब भीतर से बाहर की तरफ आता है, बाहर से भीतर की तरफ कुछ नहीं आता, कुछ भी नहीं।
जिसे खाना मिल गया है वह खाने के बाबत नहीं सोचता, सोचने की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि भूखा आदमी सोचेगा। आपको पानी मिल गया है तो आप पानी की बाबत नहीं सोचते। लेकिन प्यासा आदमी सोचेगा। तो स्वाभाविक भी है।
तो जिसको आप उपवास कह रहे हैं उस उपवास में आत्मा के निकट तो वह बिलकुल नहीं होता; शरीर के निकट जितना कभी नहीं था, उतना निकट होता है। उपवास से बिलकुल विपरीत है जिसे आप उपवास कह रहे हैं।
एक साधु मेरे पास उस दिन थे। एक हिंदू संन्यासी थे। वे मुझसे, मेरे पास जिस दिन आए थे तो मुझसे बोले: आज मैं... मैं खाने को जाता था। मैंने उनसे कहा: आप खाना लेंगे।
वे बोले मन भोजन कर रहा है और कुछ भी नहीं कर रहा।
तब मैं देखता हूं उपवास करने वाले को, पहले खूब खाएगा; फिर उपवास कर लेगा, फिर चिंतन करेगा, उस दिन पूरा कि कल क्या करना है, कल क्या खाना है? फिर कल सुबह होते ही से वह खाने में लग जाएगा। इसको उपवास कहिएगा? जिसके आगे भी खाना है, जिसके पीछे भी खाना है।।वह प्रताड़ना हो सकती है, उपवास कैसे हो सकता है? और बीच में भी चिंतन उसी का है, उसी का है!
उपवास की ही भांति हमारे सारे क्रियाकांड छोटे और दो कौड़ी के हैं। उनका कोई मूल्य नहीं है, और गलत हैं। वह जितनी जल्दी छूट जाए, दुनिया में आदमी को धार्मिक होना उतना आसान हो जाए। अब आपको दिक्कत यही लगेगी कि इसका मतलब यह हुआ कि मैं सब छोड़ देने को कहता हूं। सब क्रियाकांड छोड़ दूं, फिर हम क्या करें?
 मैं आपको सच में कुछ करने को नहीं कहता, मैं तो आपके भीतर जो आप हैं।।उसको अज्ञान से ज्ञान की तरफ जागृत करने को कहता हूं। वह जितना जागरण की तरफ होगा, उतना ही आप पाएंगे कि जीवन में बाहर अपने आप परिवर्तन होते चले जा रहे हैं। यही मेरी एनथ्रेसिसोजू है। अब इसे अगर ऊंची बात समझ कर टाल दें, तो बात अलग है।
कई दफे यूं होता है कि हम बहुत सी बातों को ऊंची इसलिए कह देते हैं कि करने से डरते हैं और करने से बचना चाहते हैं। एक एस्केप, एक पलायन खोजना चाहते हैं। जो बड़ी ऊंची बात है, इसे छोड़ो। और मैं इस संदर्भ में आपको कहूं कि महावीर को हमने भगवान बना दिया, क्राइस्ट को ईश्वर-पुत्र बना दिया, मोहम्मद को पैगंबर बना दिया, कृष्ण को स्वयं भगवान का अवतार बना दिया।।इसके पीछे आदर कम हैं, इसके पीछे तरकीबें ज्यादा हैं। हमने एक तरकीब खोज ली कि हम सामान्य लोग हैं।।ये सब ईश्वर और भगवान, तीर्थंकर, बड़े-बड़े लोग हैं। ये जो कर सकते हैं हम कैसे कर सकते हैं।

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