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गुरुवार, 30 अगस्त 2018

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-01)

नये भारत का जन्म-(राष्ट्रीय-सामाजिक) -ओशो 

पहला-प्रवचन-(झूठे शब्दों से सावधान) 

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।
ऐसा ही एक स्कूल था तुम्हारे स्कूल जैसा। बहुत छोटे-छोटे बच्चे थे उस स्कूल में। ऐसी ही एक सुबह होगी, स्कूल खुला होगा और एक इंस्पेक्टर स्कूल के निरीक्षण के लिए आया। उसे स्कूल की बड़ी कक्षा में ले जाया गया। उसने उस स्कूल के छोटे-छोटे बच्चों से कहा कि तुम्हारी कक्षा में जो तीन बच्चे सबसे ज्यादा आगे हैं, जो पहला हो, दूसरा हो, तीसरा हो, उन तीनों बच्चों को मैं एक के बाद एक बुलाऊंगा, वह आकर बोर्ड पर सवाल हल करे।
पहला बच्चा उठ कर आया और उसने सवाल हल किया। फिर दूसरा बच्चा भी उठ कर आया, उसने भी सवाल हल किया। फिर तीसरा बच्चा उठ कर आया, लेकिन उठते समय वह थोड़ा झिझका, डरा, बोर्ड के पास आकर भी ऐसा लगा जैसे भयभीत है।
फिर उसने बोर्ड पर सवाल शुरू किया। इंस्पेक्टर उसे देख कर थोड़ा हैरान हुआ। और उसे शक हुआ कि शायद यह तो पहला ही बच्चा है जो पहले भी आ चुका और अब फिर आ गया। उसने उस बच्चे को रोका और पूछा कि मुझे तुम्हारा चेहरा पहचाना हुआ मालूम पड़ता है। लगता है तुमने पहली बार भी आकर सवाल हल किया था।

क्या तुम वही लड़के नहीं हो? उस लड़के ने कहा कि मैं लड़का तो वही हूं लेकिन उस हैसियत से नहीं आया हूं, मैं अब हमारी कक्षा के तीसरे लड़के की जगह आया हूं। तीसरा लड़का हमारी कक्षा का क्रिकेट का मैच देखने चला गया है, मुझसे कह गया है कि उसकी कोई जरूरत पड़े तो मैं उसकी जगह काम कर लूं। इंस्पेक्टर तो बहुत नाराज हुआ। उसने कहाः कोई आदमी किसी दूसरे की जगह परीक्षा नहीं दे सकता है। यह तो बेईमानी सीखने की शुरुआत हो गई।
वह बहुत नाराज हुआ, उस बच्चे ने क्षमा मांगी, अपनी जगह जाकर बैठ गया। तब वह इंस्पेक्टर स्कूल के शिक्षक की तरफ मुड़ा। शिक्षक बोर्ड के पास चुपचाप खड़ा था। उस इंस्पेक्टर ने उस शिक्षक को कहा कि आप क्यों चुपचाप खड़े रहे? हो सकता था मैं न भी पहचान पाता और वह लड़का धोखा दे जाता। लेकिन आपको तो रोकना चाहिए था। आप तो लड़के को पहचानते ही होंगे? उस शिक्षक ने कहाः क्षमा करें, मैं इस कक्षा का शिक्षक नहीं हूं। मैं तो पड़ोस की कक्षा का शिक्षक हूं। लड़कों को मैं पहचानता नहीं। इस कक्षा का शिक्षक क्रिकेट का मैच देखने चला गया है और मुझे कह गया है कि अगर जरूरत पड़ जाए तो मैं उसकी जगह खड़ा हो जाऊं। मैं उसकी जगह खड़ा हुआ हूं।
वह इंस्पेक्टर तो और भी नाराज हुआ। उसने कहाः बच्चे ही दूसरे की जगह खड़े होकर धोखा नहीं दे रहे हैं आप भी धोखा दे रहे हैं। यह तो आपकी नौकरी नहीं चलनी चाहिए। उसने अपना रजिस्टर निकाल कर शिक्षक के खिलाफ लिखना चाहा, गरीब शिक्षक घबड़ा गया, हाथ जोड़ने लगा, पैर पड़ने लगा और कहा, अब दुबारा ऐसी भूल नहीं करूंगा। उस इंस्पेक्टर को दया आ गई और उसने कहा कि इस बार तुम बच जाते हो, क्योंकि मैं असली इंस्पेक्टर नहीं हूं, असली इंस्पेक्टर क्रिकेट का मैच देखने चला गया है। मैं उसका पड़ोसी हूं। मुझसे कह गया है कि कोई काम पड़े तो जाकर मैं निरीक्षण कर आऊं।
इस कहानी से क्यों मैं शुरू करना चाहता हूं? इस पूरे देश की कहानी ऐसी हो गई है। छोटे से बच्चे से लेकर देश के बड़े राष्ट्रपति तक, सब धोखा है, सब बेईमानी है। छोटे से आदमी से लेकर, बड़े से बड़े आदमी तक आत्मवंचना है, वंचना है। सारा देश एक बड़ी बेईमानी में, सारा देश एक बड़ी अनैतिकता में, सारा देश एक धोखाधड़ी में उलझा हुआ है। लेकिन कोई इसे कहना नहीं चाहता है। कोई इस बात को स्वीकार नहीं करना चाहता है। कोई इस बीमारी को साफ-साफ देखने को राजी नहीं है। और अगर कोई बीमारी ठीक-ठीक न पहचानी जा सके, तो उसका इलाज असंभव हो जाता है। लेकिन अगर हम बीमार को बीमार कहें, तो बीमार नाराज होता है। बीमार भी यही सुनना पसंद करता है कि वह बिलकुल स्वस्थ है। और हम तो इस देश में झूठी बातें सुनने के इतने आदी हो गए हैं, कि जिसका कोई हिसाब नहीं। शायद इसीलिए हम झूठी बातें सुनने के आदी हो गए हैं कि सच्ची बातें कहने जैसी हमारे व्यक्तित्व में बिलकुल नहीं हैं। झूठी बातों को कह कर ही हम मन को समझा लेते हैं। आज सारे देश में, गांव-गांव में, कोने-कोने में हिंदुस्तान के बच्चे गीत गाएंगे, सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा। और सारे जहां से बद्तर हालत है हिन्दुस्तान की। इस झूठ को हम दोहराएंगे। हिन्दोस्तां सारे जहां से अच्छा हो सकता है, है नहीं। और जब तक हम यह नहीं समझ लेते हैं कि है नहीं, तब तक वह हो भी नहीं सकता। यह समझ लेना जरूरी है कि हमारी हालत आज दुनिया में सबसे पिछड़ी हुई, सबसे दीन-हीन, सबसे बुरी है। यह दुखद है जानना। लेकिन इसे जाने बिना कोई रास्ता नहीं है कि हम इस देश को अच्छा बना सकें। सिर्फ अच्छा है, यह कह लेने से कोई देश अच्छा नहीं हो जाता। सिर्फ अच्छा है, यह दोहरा लेने से उस देश के भाग्य नहीं बदल जाते। लेकिन हम हजारों साल से बड़े-बड़े शब्दों का उपयोग करने के इस भाँति आदी हो गए हैं कि हमें यह ख्याल ही नहीं होता कि जो हम कह रहे हैं, वह सत्य है, या नहीं। उसमें कोई सच्चाई है, या नहीं।
हिंदुस्तान देश की तरह दुनिया में बढ़िया से बढ़िया देश है, लेकिन आदमियों के लिहाज से दुनिया में बदतर से बदतर देश है। हम से ज्यादा बुरा आदमी आज पृथ्वी पर खोजना बहुत कठिन है। हम से ज्यादा कमजोर और हारा हुआ आदमी भी खोजना कठिन है। हमसे ज्यादा धोखाधड़ी से भरा हुआ आदमी भी खोजना कठिन है। और हम से ज्यादा अच्छी बातें करने वाली कौम भी कहीं नहीं है। यह बड़ा चमत्कार मालूम होता है। जो कौम धर्म की दिन-रात बात करती हो, जो महावीर, बुद्ध, मोहम्मद और गांधी की चर्चा करती हो, जो कुरान, गीता और बाइबिल से नीचे बात ही न करती हो, अगर हम उसके चरित्र को और उसके व्यक्तित्व को देखें तो बहुत हैरान हो जाना पड़ता है?
मुझसे लोग कभी-कभी पूछते हैं कि इतनी धर्म की जहां बात चलती है, इतने अच्छे लोग जहां पैदा होते हैं, वह समाज अच्छा क्योंनहीं हो पाता? फिर धीरे-धीरे मुझे दिखाई पड़ने लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम इतने बुरे लोग हैं कि सिवाय अच्छी बातें करने के हम और कुछ भी नहीं कर सकते। कई बार ऐसा हो जाता है, जो कौम कुछ भी नहीं कर सकती, वह बातचीत ही करना शुरू कर देती है। फिर बातचीत के धुएं में ही अपने को भुलाने की हम कोशिश में लग जाते हैं। हमें खयाल ही भूल जाता है कि जिंदगी बातचीत से नहीं बनती, जिंदगी के तथ्य बातचीत करने से नहीं बदलते और अच्छी बातें कर लेने से अच्छा समाज निर्मित नहीं हो जाता है। बल्कि सच तो यह है कि जो समाज अच्छा नहीं है, वह अच्छी बातें करने का भी हकदार नहीं है।
मेरे एक मित्र पटना यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर हैं, वह पीछे स्वीडन गए। स्वीडन गए थे। वह भारत के धर्म के संबंध में समझाने। हिंदुस्तान के लोग हिंदुस्तान के बाहर जाते हैं धर्म को समझाने। और कोई उनसे दुनिया में नहीं पूछता, अगर मेरा बस चले तो दुनिया के लोगों से कहूं, हिंदुस्तान का कोई भी आदमी बाहर आए, तो उसकी गर्दन पकड़ लेना और पूछना कि पहले अपने मुल्क को धर्म समझाओ, फिर यहां आना। लेकिन हिंदुस्तान ने एक धंधा बना रखा है। हिंदुस्तान के बाहर जाकर धर्म की बातें करने का, वह मित्र भी स्वीडन गए थे धर्म की बातें करने।
वह जिस होटल में ठहरे थे, सुबह उठते ही उन्होंने होटल के बैरा को कहा कि मुझे शुद्ध दूध चाहिए, प्योर मिल्क चाहिए। उस बैरा ने कहा, प्योर मिल्क, शुद्ध दूध? हमारे मैन्यु में ऐसी कोई ची.ज नहीं है। पैश्चुराइज. मिल्क मिल सकता है, कंडेन्ड मिल्क मिल सकता है, लेकिन प्योर मिल्क, शुद्ध दूध जैसी कौन-सी चीज होती है, हमें पता नहीं है। आप पुनः समझा दें कि शुद्ध दूध यानि क्या? फिर उस बैरा ने कहा कि मैं बहुत पढ़ा-लिखा आदमी नहीं हूं, मैं अपने मैनेजर को बुला लाता हूं वह शायद समझ सकें कि आपके शुद्ध दूध से क्या मतलब है? क्योंकि यह शब्द मैंने अपनी जिंदगी में सुना ही नहीं।
शुद्ध दूध जैसा शब्द हिंदुस्तान के बाहर कहीं सुना भी नहीं जा सकता है। मैनेजर आया, उसने कहा कि क्षमा करिए, हम बहुत दुखी हैं कि आप शुद्ध दूध चाहते हैं और शुद्ध दूध क्या होता है, हमें यह ही पता नहीं। हम कैसे इंतजाम करें, आपका मतलब क्या है? आप थोड़े ब्यौरे से समझा दें। तो उन मित्र ने कहा कि मैं ऐसा दूध चाहता हूं, जिसमें पानी न मिला हो। तो उस मैनेजर ने कहा लेकिन दूध में पानी मिलेगा ही किसलिए? दूध में पानी के होने का सवाल ही क्या है? आप कैसी बातें कर रहे हैं? हम दूध में पानी क्यों मिलाएंगे?
उन मित्र ने कहा, आप नहीं मिलाते तो ठीक है, हम इसी तरह के दूध को शुद्ध कहते हैं, जिसमें पानी न मिलाया गया हो। तो वह मैनेजर पूछने लगा, आप आते कहां से हैं? क्या वहां दूध में पानी मिलाया जाता है? वे मित्र कहने लगे, पहले मिलाया जाता था, दूध में पानी, अब तो पानी में दूध मिलाया जाता है, जहां से हम आते हैं। वो मैनेजर उनसे कहने लगा और आप धर्म के संबंध में यहां बोलने आए हैं? आप धर्म के संबंध में यहां बोलने आए हैं?
अभी मैंने अखबारों में देखा कि स्वीड़न में अगर छह आने सेर दूध मिलता है, तो स्वीडन के ग्वालों से सरकार ने निवेदन किया है कि हम एक पैसा दाम बढ़ाना चाहते हैं। सवा छह आने सेर करना चाहते हैं। मैं दंग हुआ पढ़ कर, हमारे मुल्क का ग्वाला सरकार से कहेगा कि हम एक पैसा दाम बढ़ाना चाहते हैं? हिंदुस्तान का ग्वाला नहीं कहेगा, कोई नहीं कहेगा। एक छटांक पानी मिला देगा, आधा सेर पानी मिला देगा। एक पैसा बढ़ाने के लिए सरकार से निवेदन करने की जरूरत? और मैं और भी हैरान हुआ कि स्वीडन की पार्लियामेंट में इस पर विचार चला कि एक पैसा दाम बढ़ाने दिया जाए ग्वालों को, या नहीं। कमीशन नियुक्त हुआ और उसने जांच की कि ग्वालों की मांग सही है या झूठ? एक पैसे की मांग के लिए। और ग्वाले भी एक पैसे की मांग करते हैं? बड़े नासमझ ग्वाले हैं, बड़े भौतिकवादी ग्वाले हैं। धार्मिक ग्वाले तो पानी मिला देते हैं और पैसे का सवाल ही न था।
वह जो कृष्ण को मानने वाले ग्वाले हैं जो, कहते हैं कृष्ण गोपाल की पूजा करते हैं, और गौ को माता कहते हैं, वह पानी मिला देते हैं। हैरान होंगे हम जानके कि कलकत्ते में, बंगाल में गायों के साथ जबरदस्ती दूध निकालने के लिए जो किया जाता है, वैसा अनाचार दुनिया में कहीं नहीं किया जाता। उनकी योनि में डंडे डाल कर धक्के दिये जाते हैं, ताकि घबड़ाहट में उनका दूध ज्यादा छूट जाए। और हिंदुस्तान गौ को माता मानता है। और हिन्दुस्तान धार्मिक देश है। और स्वीडन के नास्तिक लोग भौतिकवादी मैटेरियलिस्ट, वह एक पैसा बढ़ाने के लिए सारे मुल्क के ग्वालों ने सरकार से कहा कि एक पैसा हमें बढ़ाना है। क्योंकि इतने में हमारा काम नहीं चलता। एक पैसा बढ़ाना जरूरी है। कमीशन ने रिपोर्ट दी कि उनकी मांग जायज है। वह एक पैसा बढ़ाया जाना चाहिए। अगर हिन्दुस्तान में किसी को एक पैसा बढ़वाना हो, तो एक रूपये की मांग करनी पड़ेगी। तब मुश्किल से एक पैसा बढ़ सकता है। क्योंकि सरकार भी जानती है कि कोई मांग जायज नहीं होती। और मांग करने वाले लोग भी जानते हैं अगर एक पैसा चाहना हो, तो कम-से-कम सौ पैसे की मांग करो, तब एक पैसा बढ़ सकता है। वह भी नाजायज मांग करते हैं। एक पैसे की मांग जायज थी, लेकिन कमीशन ने यह भी कहा कि जनता पर बहुत भार है, इसलिए जनता से एक पैसा नहीं लिया जा सकता, और ग्वालों की मांग सच है, उन्हें एक पैसा मिलना चाहिए। सरकार एक पैसा दे दे, ग्राहक पर बोझ नहीं पड़ना चाहिए।
सरकार ने तय किया और वो एक पैसा ग्वालों का बढ़ा दिया गया। लेकिन वह एक पैसा सरकार देगी, वह एक पैसा जनता नहीं देगी। हम सोच ही नहीं सकते कि एक पैसे के लिए पार्लियामेंट को इतने परेशान होने की जरूरत है। ये हमारी कल्पना के बाहर है। हम तो सस्ती तरकीबें निकालते हैं, शाॅर्टकट निकालते हैं। क्यों मुल्क के नेताओं को तकलीफ दो? क्यों पार्लियामेंट परेशान हो? थोड़ा पानी मिला दो, नल जगह-जगह हैं, थोड़ा खोल दो।
रवीन्द्रनाथ के पिता के घर में सौ आदमी थे। और रोज दस-पच्चीस मेहमान ठहरे रहते थे। मनों दूध उनके घर खरीदा जाता था। रवीन्द्रनाथ ने देखा कि दूध में पानी मिलाया जाता है, तो रवींद्रनाथ ने एक निरीक्षक नियुक्त कर दिया। एक इंस्पैक्टर नियुक्त कर दिया कि वह देख-रेख करे कि दूध में पानी न मिले। लेकिन दूसरे दिन देखा गया कि पानी और भी ज्यादा मिल गया, क्योंकि इंस्पैक्टर का भी उसमें हिस्सा जुड़ गया था। रवीन्द्रनाथ जिद्दी थे, उन्होंने कहा कि हम और एक सुपरवाइ.जर नियुक्त करेंगे। एक आदमी को और सुपरवाइजर रख दिया कि वह निरीक्षक को भी देखे और दूध को भी देखे। तीसरे दिन दूध में पानी भी आया और एक छोटी मछली भी आ गई। क्योंकि जिस पोखर से, बंगाल में घर-घर में पोखर होते हैं, जिनमें लोग मछलियां पालते हैं। उस पोखर में से पानी भरके डाला होगा मन भर दूध में, उसमें एक मछली भी आ गई। तो रवीन्द्रनाथ के पिता ने कहा कि निरीक्षकों को विदा कर दो, अगर तुमने अब और निरीक्षक रखे तो मगरमच्छ भी आने शुरू हो सकते हैं। क्योंकि सबका हिस्सा बढ़ता चला जाएगा।
उन मित्र को उस मैनेजर ने कहा कि मैं आश्चर्य में हूं कि आप धर्म की शिक्षा देने यहां आए हैं? और आपके मुल्क में लोग दूध में पानी मिलाते हैं, या पानी में दूध मिलाते हैं, बड़ी हैरानी की बात है? कैसे लोग हैं वे? जिनको धार्मिक होने का भ्रम है।
हमें धार्मिक होने का अदभुत भ्रम है। और हमारे व्यक्तित्व में धर्म का कोई भी संबंध नहीं। मंदिरों में हम जाते हैं, मस्जिदों में हम जाते हैं, धर्मगुरूओं के पास बैठते हैं, संतों और फकीरों की बाते सुनते हैं। लेकिन हमारे जीवन में सच्चाई का, ईमानदारी का, चरित्र का कोई भी हिस्सा नहीं है। क्या हो गया है? ये दुर्भाग्य क्यों हो गया? इस दुर्भाग्य के पीछे कुछ बुनियादी बातें होनी चाहिए। ये दुर्भाग्य आकस्मिक नहीं हो सकता, अचानक नहीं हो सकता। और अगर हम उन बुनियादी बातों की खोज-बीन नहीं करते हैं, तो ये दुर्भाग्य और बड़ा होता चला जाएगा, और हम अपने देश में कभी सौभाग्य का जन्म नहीं देख सकेंगे। उनमें पहली बात यह है कि हम बडे.-बड़े शब्दों का और झूठे शब्दों का प्रचार करने के आदी हो गए हैं। और ध्यान रहे, अगर बहुत प्रचार किया जाए, तो खुद को भी ख्याल नहीं आता कि जो हमने प्रचार किया था, वह झूठ था। सारी दुनिया के गुरू हैं हम, जगतगुरू हैं, हम अपने ही मुंह से प्रचार करते रहते हैं। और धीरे-धीरे हमें यह बात ही भूल गई है कि हमारी गुरू होने की कोई हैसियत नहीं है। हम दुनिया के शिष्य भी हो जाएं, जगत शिष्य भी हो जाएं तो ठीक है, हमें गुरू होने का तो कोई सवाल नहीं है। लेकिन हमें यह ख्याल ही नहीं आता।
मैं अभी एक छोटे से गांव में गया। उस गांव में छोटी सी मैंने एक दुकान देखी, वो दुकान लोहे की कुछ कुर्सियां वगैरह बनाती है, लेकिन बोर्ड उस पर लगा हुआ है इंटरनेशनल स्टील काॅरपोरेशन। अंतर्राष्ट्रीय स्टील निगम। गांव छोटा सा, फर्नीचर लोहे का बनाते हैं, छोटी सी दुकान है, लेकिन नाम है-अंतर्राष्ट्रीय स्टील काॅरपोरेशन।
एक गांव में पनागर का एक कवि इकट्ठा हो जाए, लखनाजोन का एक कवि इकट्ठा हो जाए, कालादेही का एक कवि इकट्ठा हो जाए, और अखिल भारतीय कवि सम्मेलन शुरू हो जाएगा। किसी को ख्याल ही नहीं आता कि शब्द का कोई अर्थ होता है। शब्द का कोई प्रयोजन होता है।
एक अंग्रेज यात्री भारत से वापस लौटा। और उसने अपनी डायरी में लिखा है कि भारत में शब्दों को कोई सीरियसली नहीं लेता। इसलिए भारतीय शब्दों का कोई बहुत अर्थ नहीं लेना चाहिए। मैं अभी उसकी डायरी पढ़ रहा था, मैं दंग हुआ। उसने यह उल्लेख किया है, कि भारतीय शब्दों का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि किन्हीं भी शब्दों का किसी भी तरह उपयोग किया जाता है। कोई शब्दों को बहुत गंभीरता से उपयोग नहीं करता। उसने लिखा है कि मैं ऋषिकेश गया और ऋषिकेश में मैंने सुना कि वहां एक योग फोरेस्ट यूनीवर्सिटी है। एक योग विश्वविद्यालय है, तो मैंने सोचा कि हजारों विद्यार्थी उस योग विश्वविद्यालय में पढ़ते होंगे। जैसे आॅक्सफाॅर्ड में पढ़ते हैं बारह हजार विद्यार्थी। ऐसा कोई विश्वविद्यालय होगा, तो मैं दर्शन करने गया। एक छोटे से मकान पर तख्ता लगा हुआ है और लिखा हुआ है योग फाॅरेस्ट यूनीवर्सिटी। योग विश्वविद्यालय। भीतर जाके मैंने पूछा, वहां कोई भी नहीं है, सिर्फ एक आदमी रहता है। और उस आदमी ने कहा कि अभी तो कोई विद्यार्थी नहीं, कभी-कभी कोई योग सीखने आ जाता है। तो यह विश्वविद्यालय कैसे हो गया?
लेकिन हमें ख्याल ही नहीं आता। हम अपने अहंकार की घोषणाएं किसी भी भांति करते चले जाते हैं। इसी तरह की ये भी घोषणा है कि सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा। कौन कहेगा यह? न हमारे पास वस्त्र है, न हमारे पास भोजन है, न हमारे पास स्वस्थ शरीर है, न हमारे पास उम्र है, आयु है, न हमारे पास रहने के मकान हैं, न हमारे पास काम है, न हमारे पास उत्पादन के साधन हैं, न हमारे पास आत्मा है, न हमारे पास बुद्धि का विकास है। फिर भी हम दुनिया में सबसे अच्छा अपने को कहे चले जाते हैं। ये झूठ बंद होने चाहिएं। हमें जानना चाहिए कि हम क्या हैं? और कहां हैं? माना कि असलियत बहुत दुखद है। यह भी माना कि उसे स्वीकार करने में भी मन को पीड़ा होती है। लेकिन घाव को देखना अच्छा है, बजाय ढांक लेने से। बीमारी को पहचानना अच्छा है, बजाय भुला देने के, क्योंकि भुलाने से और ढांक लेने से कोई घाव कभी भी समाप्त नहीं होता। जानने से, पहचानने से उसका इलाज भी किया जा सकता है। इस बात को समझ लेना बहुत ही जरूरी है कि आज हमसे दीन-हीन पृथ्वी पर और कोई भी नहीं है। और इसका कारण यह नहीं है कि हमारा देश दीन-हीन होने को मजबूर है, इसका कुल कारण इतना है कि देश को दीन-हीन बनाने में हम सारे लोग सहयोगी हैं। अन्यथा देश महान भी हो सकता है। समृद्ध भी हो सकता है। शक्तिशाली भी हो सकता है। लेकिन हमें ख्याल ही नहीं पैदा होता, इस बात का। हमें यह स्मरण ही नहीं आता। हमारी समझ ही कहीं जैसे भटक गई है, हजारों वर्ष से और हमें पहचान में भी यह बात नहीं रह गई है कि इस देश को सौभाग्यशाली बनाना है, तो कविताएं करके सौभाग्यशाली नहीं बनाया जा सकता। न ऊंचे गुणगान से सौभाग्यशाली बनाया जा सकता है। सौभाग्यशाली बनाना है, तो श्रम करना होगा, मेहनत करनी होगी, समझना होगा, जीवन के विज्ञान को विकसित करना होगा। एक बात इसलिए प्राथमिक रूप से यह कहना चाहता हूं, हम बड़े शब्दों का उपयोग बंद कर दें और अपनी स्थिति के अनुकूल शब्दों की खोज करें। दूसरी बात यह कहना चाहता हूं, कि इन बड़े शब्दों के व्यवहार के कारण, इन बहुत बड़े-बड़े शब्दों के निरंतर उच्चारण के कारण, इन बड़े-बड़े शब्दों की घोषणाओं के कारण, हम तथ्यों को देखने में धीरे-धीरे अंधे हो गए हैं। तथ्यों और फैक्ट के संबंध में हमारी कोई जानकारी, कोई पहचान, कोई प्रतिक्रिया नहीं रह गई। हम पहचान ही नहीं पाते कि तथ्य क्या हैं?
रूस की औसत उम्र अड़सठ वर्ष है। स्वीड़न की औसत उम्र बहत्तर वर्ष है। अस्सी वर्ष तक की औसत उम्र के लोग, दूसरी कौमें हैं। हमारी औसत उम्र तीस साल के आस-पास अटकी हुई है। हम अपनी औसत उम्र नहीं बढ़ा पाते हैं, तो हम मान लेते हैं कि भाग्य जितनी उम्र तय कर देता है, उतनी ही उम्र होती है। भाग्य से तय है कि आदमी की उम्र कितनी होगी? हिन्दुस्तान में एक आदमी की औसत आमदनी बीस नए पैसे से ज्यादा नहीं है। दुनिया में कोई विश्वास नहीं कर सकता है कि बीस नए पैसे औसत आमदनी का आदमी कैसे जिंदा रहता होगा? कैसे जीता होगा? क्या खाता होगा? क्या पीता होगा? बिहार में अकाल पड़ा, तो सारी दुनिया से बिहार के अकाल के लिए सहायता आनी शुरू हुई।
मैंने सुना है, अमेरिका में एक छोटी बच्ची अपनी मां से पूछती है कि अकाल का क्या मतलब होता है? क्योंकि अमेरिका में अकाल का बच्चों को पता ही नहीं कि इसका अर्थ क्या होता है। अमेरिका के बच्चों को अकाल का अर्थ पता नहीं है। हिन्दुस्तान के बच्चों को जन्म के साथ ही अकाल में ही जीना पड़ता है। वो अमेरिका की बच्ची को उसकी मां कहती है कि अकाल का मतलब यह है कि उन लोगों के पास रोटी नहीं है खाने को। तो वह छोटी बच्ची कहती है तो फिर बिस्कुट, आइसक्रीम, यह चीजें वे क्यों नहीं खा लेते? उसकी मां कहती है, पागल उनके पास बिसकुट, आइसक्रीम भी नहीं है, तो उनकी छोटी बच्ची कहती है कि उनके फ्रिज में फल वगैरह तो होंगे, वे फल क्यों नहीं खा लेते? वह बच्ची वही कहती है जो उसके घर में है। उसकी मां कहती है पागल उन्हें फ्रिज का पता ही नहीं कि फ्रिज क्या होता है? वह बच्ची कहती है बड़े अजीब लोग हैं, उनके पास फ्रिज भी नहीं, फल भी नहीं, बिस्कुट भी नहीं, रोटी भी नहीं, तो वे क्या कर रहे हैं, इतने दिनों से? यह चीजें कहां खो गईं? वे बाजार से क्यों नहीं खरीद लेते? उसकी मां कहती है, लेकिन उनके पास पैसे भी नहीं हैं।
लेकिन अमेरिकी बच्ची को, छोटी बच्ची को यह समझना बिल्कुल ही मुश्किल है, कि दुनिया में ऐसे अरबों लोग हैं, जिनको फ्रिज का पता ही नहीं है कि क्या होता है। करोड़ों बच्चे हैं जिन्हें बिस्कुट का कोई पता नहीं। करोड़ों बच्चे हैं जो अकाल में पैदा होते हैं, अकाल में ही जीते हैं, और समाप्त होते हैं।
आज अमेरिका के बच्चों को यह समझना बिल्कुल मुश्किल है। यह उनकी कल्पना के बिल्कुल बाहर है। यह उनके हिसाब के बाहर है। लेकिन यह क्या हो गया? क्या हमारी जमीन बांझ है? क्या हमारी जमीन पैदा नहीं कर सकती? क्या अमेरिका की जमीन में कोई विशेषता है? नहीं, हमारी जमीन बहुत समृद्ध है, बहुत पैदा कर सकती है। लेकिन हमारी बुद्धि बांझ है। हमारी शक्ति बांझ है। हमारी आत्मा मर गई है। हम कुछ भी नहीं कर पाते।
हिरोशिमा में एटम बम गिरा, बीस साल पहले। जिन लोगों ने जाकर उस एटम बम की जलती हुई बस्ती को देखा, राख हो गई बस्ती को, उन्होंने समझा कि अब हिरोशिमा में कभी भी कुछ नहीं होगा। वह हमेशा के लिए नष्ट हो गया। एक लाख बीस हजार लोग एकदम जल कर राख हो गए। मकान जमीन से मिल गए। वृक्ष समाप्त हो गए। पक्षी मर गए। वहां कोई जीवन न रहा, सपाट जला हुआ मैदान रह गया। आज बीस साल बाद जो हिरोशिमा देखने जाते हैं, वह दंग रह जाते हैं। आज हिरोशिमा से ज्यादा सुंदर बस्ती पृथ्वी पे दूसरी नहीं है। और हिरोशिमा के लोग अकड़ कर यह बात कहते हैं कि अच्छा हुआ एटम गिर गया, हमारा पूरा गांव नया हो गया। नई सड़कें, नए मकान, सब नए बगीचे, सब नया हो गया। आज जापान में हिरोशिमा और नागासाकी सुंदरतम गांव हैं। बीस साल पहले जो जल कर राख हो गए थे, बीस साल में वह फिर से स्वर्ग बन गए, हम न कभी जले, न हम कभी राख हुए, लेकिन फिर भी हम स्वर्ग नहीं बना पाते, फिर भी हम कुछ नहीं कर पाते।
जर्मनी हर पन्द्रह-बीस साल में युद्ध से गुजरा। हर बार बर्बाद हो गया। पंद्रह-बीस सालों में फिर शक्तिशाली हो जाता है। फिर खड़ा हो जाता है। हम महाभारत के बाद किसी बड़े युद्ध से नहीं गुजरे। और कौन जाने महाभारत कभी हुआ या नहीं हुआ? हो सकता है वो सिर्फ कहानी हो। और अगर हुआ भी होगा तो पांच हजार साल पहले कभी हुआ होगा। महाभारत के बाद हम किसी बड़े युद्ध से नहीं गुजरे। हमने कोई बर्बादी नहीं देखी। लेकिन हम बर्बाद ही बर्बाद होते चले जाते हैं। दुनिया में कौमें बर्बाद होती हैं, दस साल में पुनर्जीवित हो जाती हैं। मालूम होती है, उनके पास कोई आत्मा है। कोई आत्मा है, जो मरने से इंकार करती है, जो लड़ती है और फिर जीवित हो जाती है। हमें देख कर ऐसा लगता है हमारे पास कोई आत्मा नहीं है। ये आत्मा हमारी खो कैसे गई? और हम आत्मवादी लोग हैं, हम आत्मा ही आत्मा की सुबह से रात तक बात करते हैं, कि आत्मा अमर है, आत्मा मरती नहीं। और हमें कोई देखे तो पता चलता है कि हमारे भीतर कोई आत्मा ही नहीं है।
जापान या जर्मनी वाले लोग कह सकते हैं कि उनके पास आत्मा है। जर्मनी में एक करोड़ लोगों की हत्या हुई, पिछले महायुद्ध में। एक करोड़ लोग जब किसी मुल्क में हत्या होती है, तो लाशें पुर गई, लाशों को फेंकना मुश्किल हो गया। बर्लिन तक ठेठ सारे देश के मकान तक बर्बाद हो गए। सारे बड़े विश्वविद्यालय सारे मकान गिर गए। सब आग से जल गए। सब बर्बाद हो गया, आज कोई जाके देखे निशान नहीं मिलेगा कि कभी बीस साल पहले यहां बम गिरे थे। कोई निशान नहीं मिलेगा। सब नया हो गया, फिर उन्होंने बसा लिया, अजीब बात है। और ये सारे लोग चिल्ला के नहीं कहते फिरते कि उनका देश दुनिया में सबसे अच्छा है। उनके देश को देख कर लगता है कि वह अच्छा है। उनकी हिम्मत देख कर लगता है कि वह अच्छा है। हम सिर्फ बातचीत किए चले जा रहे हैं। नहीं ऐसे नहीं चलेगा, यह बातचीत बहुत हो चुकी अब आगे नहीं होनी चाहिए। आने वाले बच्चों को हम बातचीत करना नहीं सिखाना चाहते हैं। उन्हें हम कुछ तथ्यों को बदलने की हिम्मत और ताकत देना चाहते हैं। यह तुम छोटे-छोटे बच्चों के हाथ में होगा आने वाले दिनों में कि इस देश को कैसा बनाते हो। यह देश दुनिया में सबसे अच्छा बन सकता है, लेकिन अभी है नहीं। और अगर तुमने समझ लिया कि यह अभी है, तो फिर बनाने का कोई सवाल नहीं है, बात खत्म हो गई।
अगर भिखमंगा समझ ले कि वह सम्राट है, तो फिर भिखमंगा ही रहेगा। फिर सम्राट होने का प्रयत्न क्यों करेगा, जब सम्राट है ही। उसे प्रयत्न करने की क्या जरूरत है? हम चिल्ला कर कहते रहते हैं कि भारत सोने की चिड़िया है। मैंने बहुत खोज-बीन की मुझे वो सोने की चिड़िया कहीं भी दिखाई नहीं पड़ती। और कब थी भारत सोने की चिड़िया, वह भी मुझे दिखाई नहीं पड़ता? भारत हजारों साल से गरीब और दीन और दरिद्र है। आज जितना समृद्ध है भारत, अगर इसको समृद्ध कहें, इतना भी समृद्ध कभी नहीं था। क्योंकि समृद्धि का एक लक्षण होता है, जैसे ही देश समृद्ध होता है, उसकी जनसंख्या बढ़नी शुरू हो जाती है। हिन्दुस्तान की जनसंख्या हजारों साल तक ठहरी हुई थी। जनसंख्या बढ़ती नहीं। क्योंकि बच्चे पैदा होते और मर जाते, दस में से सात बच्चे मरते रहे। अमीर बच्चों में से दस में से एक बच्चा मरता है समृद्ध मुल्कों में। और वह कहते हैं कि और मुल्क समृद्ध होगा तो दस में से एक बच्चे को भी नहीं मरने देंगे। गरीब मुल्कों के दस में से सात बच्चे मरते हैं। हिन्दुस्तान की जनसंख्या बुद्ध के जमाने में दो करोड़ थी। और कोई दो हजार साल तक दो-ढाई, तीन करोड़ के बीच अटकती रही। संख्या इधर बढ़ी दो सौ वर्षों में। और आज जोर से बढ़ रही है, आज हमारे बच्चे एकदम मर नहीं जाते हैं, हालांकि जीते हैं मरे-मरे, लेकिन एकदम मर नहीं जाते। इतनी हमारी समृद्धि है कि मरे-मरे जीते चले जाते हैं।
अभी तुम बच्चों की शक्ल मैं देखता हूं। तुम कभी रूस के बच्चों की किताब उठाकर उनकी शक्ल देखना, उनकी किताब मैं पढ़ता हूं तो बंद कर देता हूं। मन होता है उसे देखना नहीं चाहिए, उनके बच्चों की तस्वीर दिखानी चाहिए। उनके बच्चों की तस्वीर को देखते ही छाती में तीर सा लगता है। हमारे बच्चे, उनके बच्चे, उनके बच्चे जीवित मालूम पड़ते हैं। उनके बच्चों की रौनक और है। उनके बच्चों की आंखों की चमक और है। उनके बच्चों का शरीर कुछ और है। और हमारे बच्चे, हमारे बच्चे ऐसे लगते हैं जैसे दिया जल रहा हो और तेल न हो भीतर। सब धुआं-धुआं फैलता हो, थोड़ी पीली-पीली रोशनी उठती हो, जो बत्ती के जलने से पैदा होती है, तेल के जलने से नहीं। ऐसा हमारा बच्चा दिखाई पड़ता है। उनके बच्चे कुछ और ही बात मालूम पड़ते हैं। ऐसा लगता है कि भीतर शक्ति का उबाल आया हुआ है। बच्चे कुछ करने को तत्पर हैं, बच्चे कुछ जीने के लिए तत्पर हैं, कुछ करेंगे, कुछ जियेंगे। लेकिन हमारे बच्चे तो इतने क्षीण शक्ति हैं कि उनसे हम क्या आशा करें कि वह जिएंगे, हम क्या आशा करें कि वे क्या करेंगे? वे जी रहे हैं, यह चमत्कार है। यह आश्चर्य है कि वे जिंदा हैं।
भारत हमेशा से गरीब था। आज भी गरीब है। आज गरीबी हमें और खलती है, क्योंकि सारी दुनिया भी पहले गरीब थी। हम भी गरीब थे तो बात इतनी नहीं खलती थी। तीन सौ वर्षों में सारी दुनिया तो समृद्ध हो गई और हम गरीब के गरीब बने रहे। तीन सौ वर्षों में सारी दुनिया ने अंबार लगा लिए, रूस की ट्रेनों में पिछले पांच-सात वर्षों तक कोयले की जगह गेहूं जलाया जाता रहा। हमारी कल्पना के बाहर है। यहां आदमी के इंजन में हम गेहूं नहीं डाल पाते, वो रेल में गेहूं जलाते हैं। पागल हैं क्या? लेकिन रूस का इंजीनियर जानता है कि कोयला बनने में बड़ी मुश्किल होती है। कोयला लाखों साल में बनता है जमीन के नीचे। कोयले को बनाना आसान और जल्दी संभव नहीं है। कोयले की संपत्ति तय है, लेकिन गेहूं तो हम पैदा कर लेते हैं। और उतना गेहूं पैदा कर लेते हैं कि गेहूं को जला देते हैं, कोयले की जगह।
आज अमेरिका दुनिया भर के गरीबों को भोजन दे रहा है। हम अपने लिए भोजन पैदा नहीं कर पाते। दूसरी कौमें, दूसरी कौमों को भोजन भेजती हैं। असल बात यह नहीं है कि अमेरिका हिन्दुस्तान पर दया करता है, अमेरिका के पास इतना गेहूं है, कि बिना दिए कोई चारा नहीं। या तो समुद्र में डुबा दो, या किसी को दे दो। तो मुत में अगर दया करनी पड़ती हो, तो दया को छोड़ना गलत है। आज अमेरिका के पास इतना गेहूं है कि उसका तुम क्या करोगे? उसे कैसे खाओगे? उसे देना पड़ेगा किसी को। और हम कृषिप्रधान देश, जहां सौ में से नब्बे आदमी गेहूं पैदा कर रहे हैं और फिर भी भूखे हैं। और जहां अमेरिका में सौ में से केवल पन्द्रह-बीस प्रतिशत लोग गेहूं पैदा करने में लगे हैं, वह अतिरिक्त गेहूं पैदा कर रहे हैं। मामला क्या है?
अमेरिका कृषिप्रधान नहीं है, और अमेरिका आपको गेहूं देता है। और आप कृषिप्रधान हैं और आपको गेहूं मांगना पड़ता है। सौ में से अस्सी-नब्बे आदमी खेती-बाड़ी में लगे हुए हैं। और अमेरिका में बीस प्रतिशत आदमी खेती-बाड़ी में लगे हुए हैं। सोचने जैसा मामला है कि यह बात क्या है? कुछ गड़बड़ है कहीं हमारे काम के ढंग में, हमारे जीने के ढंग में, हमारी विचार की पद्धति में। हमारे भीतर कहीं कोई बुनियादी भूल चल रही है हजारों वर्ष से। और वह भूल हमें डुबाए चली जाती है, और अगर हम उस भूल के प्रति नहीं जागते, तो हमारा आगे कोई भविष्य नहीं, वो भूल क्या है? वह भूल मैं इंगित करना चाहता हूं। वह भूल यह है कि हमने भौतिकता को जितना मूल्य देना चाहिए था, वह नहीं दिया है। हम थोथे अध्यात्म की बातों में बहुत समय जाया किये। मैं यह नहीं कहता हूं कि अध्यात्म की बातें व्यर्थ हैं; मैं यह कहता हूं लेकिन अध्यात्म की बातों के हकदार वे ही लोग हैं, जो भौतिक जीवन और जगत को जीतने में समर्थ हैं। उससे पहले अध्यात्म की बातें करना गलत है।
जैसे कोई आदमी एक मकान बनाए। नींव तो रखने के पत्थर न हों उसके पास, और मकान के शिखर बनाने की योजना करे। हम पागल कहेंगे। हम कहेंगे पहले नींव के पत्थर चाहिएं, फिर मकान का शिखर बनेगा। पहले मंदिर के नीचे का पत्थर रखो, दीवालें बनाओ, फिर शिखर बनाना, लेकिन वह आदमी कहे कि हम नींव वगैरह की बात नहीं करते, हम तो सिर्फ शिखर बनाना चाहते हैं। अध्यात्म जीवन का शिखर है। भौतिकता जीवन की ध्वनि है, जीवन की बुनियाद है। पश्चिम के मुल्क, दुनिया के मुल्क भौतिकवाद की बुनियाद रख रहे हैं। आज नहीं कल उनके आध्यात्मिक जीवन का शिखर भी प्रकट होगा। लेकिन हमारे पास भौतिकता की बुनियाद नहीं, हम भौतिकवाद के दुश्मन लोग हैं। हम जिस आदमी को भी देखते हैं, वह गाली देता हुआ मालूम पड़ता है कि भौतिकवाद में क्या रखा हुआ है? लेकिन शरीर भौतिक है। पेट के लिए रोटी चाहिए, वह भौतिक है। कपड़े चाहिएं, वह भौतिक है। सड़कें बनानी हैं, वह भौतिक हैं। इंजन बनाने हैं, वह भौतिक हैं। सब कुछ भौतिक है, जगत में सौ चीजें भौतिक हैं, उनमें से एक-आध चीज आध्यात्मिक है, और वह अध्यात्म भी निन्यानबे भौतिक चीजें जब इकट्ठी हों, तब उसके पैदा होने की संभावना होती है, अन्यथा उसके पैदा होने की संभावना भी नहीं होती। यह बड़े मजे की बात है कि जीवन में जो श्रेष्ठतम चीजें हैं वह निकृष्टतम चीजोें पर निर्भर करती हैं। निकृष्ट चीजें श्रेष्ठ के बिना भी हो सकती हैं। श्रेष्ठ चीजें निकृष्ट के बिना नहीं हो सकती।
मकान की नींव बिना शिखर के भी हो सकती है, लेकिन शिखर बिना नींव के नहीं हो सकता है। एक आदमी कविता कर सकता है, लेकिन बिना रोटी के कविता नहीं हो सकती। हालांकि बिना कविता के रोटी खाना हो सकता है।
रवींद्रनाथ के मस्तिष्क से गीतांजलि निकली। नोबल प्राइज मिली गीतांजलि को। लेकिन रवीन्द्रनाथ को रोटी देना बंद कर दो, गीतांजलि विलीन हो जाएगी। और रोटी को कोई नोबल प्राइ.ज ने देगा कि आदमी अच्छी तरह से खाना खाता तो उसको नोबल प्राइज दो। लेकिन रोटी के बिना गीतांजलि विलीन हो जाएगी। इससे गीतांजलि छोटी नहीं होती। इससे काव्य छोटा नहीं होता है। और न रोटी बड़ी होती है, इससे सिर्फ यही सिद्ध होता है कि दुनिया में जितनी ऊंची ची.ज हैं, वह उतनी नीची चीजों की बुनियाद पर खड़ी होती हैं, और निर्भर होती हैं। जीवन में जो श्रेष्ठ है, वह निकृष्ट पर खड़ा होता है। और हम निकृष्ट को छोड़कर बैठे हुए लोग, हमने शरीर को, हमने भूत को, हमने पदार्थ को कोई भी मूल्य नहीं दिया। हम सिर्फ परमात्मा की प्रार्थना कर रहे हैं, यह भूल बंद होनी चाहिए, अगर इस भूल को हम बंद नहीं कर पाते हैं, तो हम इस देश को कभी भी आगे उठाने में समर्थ नहीं हो सकेंगे।
एक छोटी सी कहानी, इस बात को मैं पूरा करूंगा। एक छोटी सी कहानी मुझे निरंतर प्रीतिकर रही है, मैंने सुना है कि रोम में एक बादशाह बीमार पड़ गया और वह बहुत बीमार था, वह इतना बीमार था कि उसके बचने की कोई उम्मीद न रही। चिकित्सक हार गए और उन्होंने कह दिया कि मौत निश्चित है। यह बादशाह बचेगा नहीं। तब किसी ने कहा कि एक फकीर आया हुआ है गांव में, वह फकीर मुर्दों को भी जिंदा कर देता है, तो आप तो अभी जिंदा हैं। शायद वो आपको बचा सके।
उस फकीर को लाया गया, उस फकीर ने कहा, यह बादशाह बच जाएगा। इसे कोई खतरनाक बीमारी नहीं है, एक छोटे से इलाज के इंतजाम की जरूरत है। अगर तुम्हारे रोम में, तुम्हारी बड़ी राजधानी में कोई एक समृद्ध और शांत आदमी मिल जाए तो उसके कपड़े ले आओ। वह कपड़े इसे पहना दो। यह ठीक हो जाएगा। वजीर भागे उन्होंने कहा, यह तो बहुत आसान है, राजधानी में आकाश छूते महल हैं, समृद्ध लोगों की भीड़ है, कोई कठिनाई नहीं होगी। वह नगर के सबसे बड़े धनपति के पास गए, बड़ा वजीर, वजीर के साथ राजा का बूढ़ा नौकर। वजीर ने जाकर उस समृद्ध धनपति को कहा कि आप अपने कपडे. दे दें, सम्राट मरणशय्या पर पड़ा है, और किसी फकीर ने कहा है कि बच सकता है, अगर किसी समृद्ध और शांत आदमी के कपड़े मिल जाएं। उस धनपति ने कहा, मैं अपने प्राण दे सकता हूं राजा को बचाने के लिए। उसका बचाया जाना बहुत जरूरी है। लेकिन मेरे कपड़े काम नहीं आ सकेंगे। समृद्ध तो मैं बहुत हूं, लेकिन शांति से मेरा कोई परिचय नहीं है। मेरे कपड़े व्यर्थ हैं।
फिर वजीर गांव भर में घूमता रहा, ना मालूम कितने धनपतियों के द्वार खटखटाए, लेकिन यही उत्तर। सांझ हो गई, सूरज ढलने लगा तो व.जीर घबराया उसने साथ दौड़ते नौकर से कहा मैं तो सोचता था इलाज सस्ता है, लेकिन इलाज खतरनाक मालूम पड़ता है, वह फकीर धोखा दे गया। यह बीमारी ठीक नहीं हो सकेगी। वह बूढ़ा नौकर कहने लगा, मैं तो पहले ही समझ गया था कि यह इलाज बहुत मुश्किल है। यह दवा खोजी नहीं जा सकती। आप इतनी देर से समझे? उस वजीर ने कहा तू कैसे समझ गया? उस बूढ़े नौकर ने कहा, जब आप सम्राट के बड़े व.जीर अपने कपड़े देने का विचार न करके, दूसरे से कपड़े मांगने निकले तभी मुझे शक हो गया था कि यह इलाज होना संभव नहीं है। तो उस वजीर ने कहा कि मेरे कपड़े काम में नहीं आ सकते। धन तो मेरे पास बहुत है लेकिन शांति मेरे पास कहां? फिर वे सांझ होते-होते राजमहल वापस लौटने लगे, अंधेरा बढ़ने लगा। वजीर डरता है, महल में घुसने पर राजा से क्या कहेंगे? और तभी महल के पीछे नदी के पास से किसी की बांसुरी की आवाज सुनाई पड़ी, कोई गीत गा रहा है, उस गीत में ऐसी शांति है कि वजीर ने सोचा कि कहीं इस आदमी को शांति न मिल गई हो। चलो इससे पूछ लें, एक आखिरी उपाय और कर लें। वह नदी पार करके उस आदमी के पास पहुंचे अंधेरी रात, एक पत्थर की चट्टान पे बैठकर वह आदमी बांसुरी बजाता है। उसकी बांसुरी में ऐसा आनंद है, उसके सुरों में ऐसी शांति है, कि व.जीर ने उसके पैर पकड़ लिए और कहा कि जरूर तुम्हें शांति मिल गई है। उस आदमी ने कहा शांति? मैं शांति में ही जीता हूं। शांति ही मेरा जीवन है। क्या चाहते हो? उसने कहा धन्य कि हम आ गए, राजा बच जाएगा। तुम अपने कपड़े दे दो। राजा मर रहा है, किसी ने कहा है कि शांत और समृद्ध आदमी के कपड़े चाहिएं। उस निर्जन रात में, वह बांसुरी बजाने वाला एकदम चुप हो गया। और उसने कहा, मैं अपने प्राण दे सकता हूं। लेकिन कपड़े, मैं नंगा बैठा हुआ हूं। अंधेरे में तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा। कपड़े मेरे पास नहीं हैं। शांत मैं हूं, लेकिन कपड़े, कपड़े मेरे पास नहीं हैं। उस रात वो राजा मर गया। लोग मिले जिनके पास धन था, लेकिन शांति न थी, एक आदमी मिला, जिसके पास शांति थी, लेकिन कपड़े न थे।
पश्चिम और पूरब के मुल्कों ने इसी तरह की भूल की है। पश्चिम के मुल्कों ने कपड़े इकट्ठे कर लिए हैं, धन इकट्ठा कर लिया है, शांति उनके पास नहीं है। हम शांति की खोज में पागल की तरह लग गए, कि हमने सब कुछ खो दिया। हम नंगे और दीन-हीन खड़े हैं। और ध्यान रहे, यह ध्यान रहे ठीक से कि पश्चिम की भूल हमसे ज्यादा खतरनाक भूल नहीं है। क्योंकि पश्चिम की समृद्धि के बीच आज वे शांति को खोजने की आकांक्षा से भर गए हैं। उन्होंने जमीन की बुनियाद बदली है, अब वह शिखर भी रख लेंगे। हमारी भूल ज्यादा खतरनाक है। हमारे पास शिखर की योजनाएं हैं। शिखर है ही नहीं, और .जमीन पर हमारे पास बुनियाद भी नहीं है। हम भटक गए हैं ज्यादा, भौतिकता पहली सीढ़ी है, अध्यात्म दूसरी। उन्होंने पहली सीढ़ी रख ली है, वह दूसरी सीढ़ी भी रख लेंगे। हमारे पास पहली सीढ़ी है नहीं, दूसरी सीढ़ी की सिर्फ बातचीत है, ब्लू-पिं्रट, दूसरी सीढ़ी भी नहीं है। और वह दूसरी सीढ़ी नहीं रखी जा सकती, जब तक हम पहली सीढ़ी न रख लें।
पश्चिम अध्यात्म की तरफ झुकना शुरू हो गया है। उसने अपनी भूल स्वीकार कर ली है। लेकिन हमने अपनी भूल अभी तक स्वीकार नहीं की है। हम भौतिकवाद की तरफ झुकने अभी भी शुरू नहीं हुए हैं। हमें यह भ्रम पैदा हो गया है कि भौतिकवाद की तरफ झुकना अध्यात्म का विरोध है। यह बात गलत है। यह सौ प्रतिशत गलत है। अध्यात्म और भौतिकवाद में विरोध नहीं है। भौतिकवाद अध्यात्म की सीढ़ी बनता है। भौतिकवाद सेतु है, जिससे हम अध्यात्म तक जाते हैं। शरीर में और आत्मा में विरोध? शरीर और आत्मा में विरोध नहीं है, शरीर के ही मार्ग से हम आत्मा की तरफ भी जाते हैं। शरीर के बिना आत्मा का भी कोई पता लगाना मुश्किल हो जाएगा। शरीर के ही द्वार से आत्मा में प्रवेश होता है। प्रकृति के द्वार से परमात्मा में प्रवेश होता है। विज्ञान के द्वार से अध्यात्म में प्रवेश होता है। क्योंकि हम भौतिक की तरफ हमने ध्यान नहीं दिया, इसलिए विज्ञान भी पैदा नहीं हो सका है। और जो देश वैज्ञानिक नहीं है, वह देश गरीब होने को मजबूर रहेगा। जो देश वैज्ञानिक नहीं है, वह कमजोर रहेगा। जो देश वैज्ञानिक नहीं है वो दीन-हीन भी रहेगा और गुलाम भी रहेगा। उसकी आजादी बहुत दिन तक टिकने वाली नहीं हो सकती है। क्योंकि कमजोर हाथों में आजादी का क्या मतलब हो सकता है। कविताओं से आजादी की रक्षा नहीं होती है। ताकत चाहिए।
हिंदुस्तान पर चीन का हमला हुआ, सारा हिंदुस्तान कविता करने लगा। सारा हिंदुस्तान कहने लगा, सोए शेरों को मत छेड़ो। हम ऐसा कर डालेंगे, हम वैसा कर डालेंगे। शेरों को कभी सुना है आपने कि शेर कहते हों कि सोए शेर को मत छेड़ो, हम ऐसा कर देंगे, हम वैसा कर देंगे। सोए शेर को छेड़ो और पता चल जाता है कि शेर क्या करता है। लेकिन हम कविताएं करने लगे कि हम ऐसा कर देंगे, हम वैसा कर देंगे। और हमने कुछ भी न किया, चीन लाखों वर्गमील जमीन पर कब्जा करके बैठ गया। और हमारे कवि थोड़े दिन कविता करते रहे, फिर जाके अपनी घर-गृहस्थी संभालने लगे। फिर हम छोड़ दिए वो झंझट। क्योंकि कविताओं से अगर चीन हट जाता, तो हट जाता, उससे ज्यादा तो हम कुछ कर नहीं सकते। अब तो हमारे नेता यह बात ही बंद कर दिए हैं। वह जो हजारों मील, लाखों मील जमीन चीन ने दबा ली है, उसका क्या हुआ? अब उसकी नेता बात ही नहीं करते। अब तो मैं दिल्ली में एक बड़े नेता से बात कर रहा था, उन्होंने कहा, उस जमीन में कुछ पैदा ही नहीं होता, बेकार जमीन है। देश का नेता अगर यह कहे, कि उस जमीन में कुछ पैदा ही नहीं होता, बेकार जमीन है। अपने मन को समझाने की बड़ी तरकीब निकाल रहे हैं। यह भी हम स्वीकार करने को राजी नहीं कि हम हार गए हैं। हम स्वीकार नहीं करेंगे, हारते चले जाएंगे, स्वीकार नहीं करेंगे। स्वीकार करने को शायद हमें ताकत जुटाने का खयाल पैदा हो। लेकिन ताकत ऐसे ही पैदा नहीं हो जाती, ताकत विज्ञान से पैदा होती है, टैक्नोलाॅजी से पैदा होती है। और हम विज्ञान के दुश्मन हैं। हम कैसे ताकत पैदा करेंगे? हम कैसे ताकत पैदा कर सकते हैं? नहीं, इन कविताओं को दोहरा लेने से नहीं चलेगा काम, हमें कुछ करना पड़ेगा। और उस करने की दिशा में सबसे बुनियादी बात यह है कि भारत को आने वाले पचास वर्षों में वैज्ञानिक होना है, और भौतिक जगत पर सामथ्र्य और शक्ति पैदा करनी है। और मेरा मतलब यह नहीं है, कि भौतिक जीवन पर शक्ति पैदा करने का अर्थ धर्म को खोना है। मेरा मतलब यह है कि धर्म का शरीर भी भौतिकवाद ही बनता है। और अगर हम भौतिक शरीर को नहीं संभाल पाते, तो आत्मा की हम बातें कर सकते हैं, आत्मा को भी सम्हाल नहीं सकते।
आने वाले पचास वर्षों में सारे मुल्क को इस श्रम में लग जाना है कि हम एक भौतिकवादी भवन को खड़ा कर लें। फिर हम उसमें भगवान के मंदिर को भी बनाएंगे, जरूर बनाएंगे। लेकिन मकान तो बन जाए, जिसमें हम भगवान की प्रतिमा को स्थापित करें। मंदिर ही नहीं हैं भगवान की प्रतिमा को स्थापित कहां करें? शरीर ही नहीं है, आत्मा के आनन्द को कहां खोजें? रोटी ही नहीं है पेट में, काव्य कैसे पैदा होगा?
यह थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। सूत्र-रूप में दो बातें मैंने कहीं। बड़े शब्दों से सावधान होने की जरूरत है, क्योंकि वे हमारी असलियत को छिपाते हैं। झूठे शब्दों से सावधान होने की जरूरत है, कहीं उनके कारण हम झूठी सांत्वना में पड़ कर अपने को नष्ट न कर लें। और दूसरी बात मैंने कही, धर्म की अति हो गई है, हमें भौतिकवादी जीवन चिंतन को भी जन्म देना होगा, ताकि इस अति का मुकाबला किया जा सके। दूसरी बात मैंने कही कि हमें जीवन की बाह्य सामथ्र्य, शक्ति, समृद्धि इनको विकसित करने में ही लगना होगा।
और कोई कारण नहीं है हमारे पास, शक्ति बहुत है, एक बार हम सक्रिय हो जाएं, तो उस शक्ति से एक बहुत बड़े देश को जन्म दिया जा सकता है। भारत अतीत में महान नहीं था, लेकिन भविष्य में महान हो सकता है। और भगवान नहीं कर देगा उसे महान, उसे हमें श्रम करना होगा, तो हम उसे महान कर सकते हैं। अतीत में हमारा स्वर्ण युग समाप्त नहीं हो गया। भविष्य में हमारा स्वर्ण युग आने को है, सतयुग बीत नहीं चुका, उसे हमें लाना है। एक अच्छा समाज, एक शक्तिशाली, समृद्ध, शांत, बढ़िया, भले, नैतिक, धार्मिक लोगों के व्यक्तित्व से भरे हुए समाज को जन्म देना है। अगर यह आकंाक्षा हमारे भीतर पैदा हो जाए, तो हम उसे जन्म दे देंगे। लेकिन हमने सपना देखना ही बंद कर दिया है।
नीत्शे ने कहीं एक वचन लिखा है, वह समाज मर जाता है, जो सपना देखना बंद कर देता है। हम सपना ही नहीं देखते भविष्य का कोई, कोई ड्रीम हमारे प्राणों में नहीं है कि भविष्य ऐसा हो? कैसा भविष्य उसकी कोई कल्पना, उसकी कोई आकांक्षा, उसकी कोई अभीप्सा हमारे प्राणों में नहीं है? जिस प्राण में भविष्य का सपना नहीं है, उस धनुष की प्रत्यंचा टूट गई हैं, उस धनुष की प्रत्यंचा पर सपने का तीर नहीं है। उस धनुष की प्रत्यंचा अब भविष्य के किसी निशाने को कभी भी पूरा नहीं कर पाएगी। भविष्य के किसी निशाने पर चोट नहींे पहुंचा पाएगी। भारत के प्राणों की प्रत्यंचा टूटी पड़ी है। उसे सपनों का तीर चाहिए। जो भविष्य की तरफ उन्मुख हो। और सारी शक्ति हम लगा दें, तो कोई कारण नहीं है, दुनिया के दूसरे लोग जो कर रहे हैं, वो हम न कर सकें। हमारे बच्चे अभी भी चांद को देख कर हाथ फैलाते हैं। उनके मां-बाप उन्हें समझाते हैं कि चांद को नहीं पाया जा सकता। चांद बहुत दूर है। चांद को मामा समझके हम चुप रह जाते हैं। दूसरे मुल्कों के बच्चों ने हाथ फैला लिये हैं चांद तक। वे चांद को मामा मानने को राजी नहीं हैं। वे चांद पर बस्तियां बसाएंगे, मकान बनाएंगे। दूसरे मुल्कों के बच्चे आज नहीं कल चांद पर उतर जाएंगे। हमारे मुल्के के बच्चे अपने छोटे, गरीब हाथों को फैलाते रहेंगे। और उनके मां-बाप समझाते रहेंगे, चांद मामा है, चंदा मामा है, बहुत दूर है, उसे पाया नहीं जा सकता। और अगर कोई बहुत बुद्धिमान मां-बाप हुए, तो पानी की थाली भरके रख देंगे, और उसमें चांद दिखला देंगे, और बच्चों से कहेंगे, इसे पकड़ लो। पानी की थाली के झूठे चांद बहुत पकड़े जा सकते हैं, अब हमें असली चांदों को पकड़ने का सपना देखना है। और अगर हम यह सपना देख सकते हैं, तो इस मुल्क के सौभाग्य का उदय हो सकता है।
मैंने ये थोड़ी सी बातें कहीं।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरा प्रणाम स्वीकार करें।

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