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गुरुवार, 30 अगस्त 2018

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-10)

दसवां-प्रवचन-(ओशो)

अध्यात्म बीमारी बन गया

भारत के दुर्भाग्य की कहानी तो लंबी है। लेकिन इस कहानी के बुनियादी सूत्र बहुत थोड़े, बहुत पंक्चुअल हैं। तीन सूत्रों पर मैं आपसे बात करना चाहूंगा। और एक छोटी सी कहानी से शुरू करूंगा।
सुना है मैंने एक ज्योतिषी, रात्रि के अंधेरे में, आकाश के तारों का अध्ययन करता हुआ, किसी गांव के पास से गुजरता था। आकाश को देख रहा था, इसलिए स्वभावतः जमीन को देखने की सुविधा न मिली। आकाश के तारों पर नजर थी, इसलिए पैर कहां मुड़ गए, यह पता न चला, और वह एक सूखे कुएं में गिर पड़ा। चिल्लाया बहुत, पास से किसी किसान की झोपड़ी से लोगों ने निकल कर उसे बचाया। किसान भी घर पर न था, उसकी बूढ़ी मां ही घर पर थी। किसी तरह उस ज्योतिषी को बाहर निकाला जा सका था। और जब वह बाहर निकल आया तो उसने स्वभावतः धन्यवाद दिया, और उस बूढ़ी औरत को कहा कि मां, अगर कभी ज्योतिष के संबंध में कुछ समझना हो, तो इस समय पृथ्वी पर तारों को मुझसे ज्यादा जानने वाला कोई भी नहीं, तुम आ जाना। उस बूढ़ी स्त्री ने कहाः क्षमा करो मुझे। जिसे अभी जमीन के गड्ढों का पता नहीं, उसके आकाश के तारों के ज्ञान का भरोसा नहीं हो सकता।

भारत के दुर्भाग्य का पहला सूत्र यह है कि हम बहुत लंबे समय से आकाश की तरफ देखने वाले लोग हैं और जमीन को देखना भूल गए। हमारी आंखे मोक्ष पर टिकी हैं, स्वर्ग पर टिकी हैं। पृथ्वी पर नहीं। इसलिए पृथ्वी पर कैसे जिएं यह हम न खोज पाए। हम ज्यादा से ज्यादा मरने के संबंध में विचार कर पाए हैं, कि कैसे मरें। कैसे जिएं ? इसका हमें कोई भी पता नहीं चल पाया। और क्योंकि हम मृत्यु के बाद क्या होगा ? इस संबंध में चिंतन करते रहे, इसलिए मृत्यु के पहले क्या हो, इस संबंध में हमारे विचार ने कोई गति नहीं की। क्योंकि हम आत्मा की बातें करते रहे, इसलिए शरीर को गंवा बैठे हैं। और चूंकि हम धर्म की बात करते रहे हैं, इसलिए धन को नहीं खोज पाए। और चूंकि हमने सिवाय रहस्य के, सपनों के, कल्पनाओं के, अपने मन में किसी और को बसेरा नहीं दिया, इसलिए विज्ञान को जन्म हम नहीं दे पाए।
अवैज्ञानिक, दीन, दरिद्र, दासता से भरा हुआ ये हमारा लंबा इतिहास, इस बात की खबर देता है कि आकाश की तरफ देखा जा सकता है कभी-कभी, लेकिन जो चैबीस घंटे आकाश की तरफ देखने लगते हैं, जमीन पर उनके रास्ते खो जाते हैं। कभी-कभी उचित है कि हम आकाश की तरफ देखें, लेकिन वह भी जमीन को सुंदर बनाने के लिए। कभी-कभी उचित है कि हम फूलों की तारीफ करें, लेकिन जड़ों को न भूल जाएं। और जो पौधा अपने फूलों की ही मस्ती में मस्त रहने लगे और जड़ों को भूल जाए, उस पौधे की जड़ें तो बचेंगी नहीं, फूल भी ज्यादा दिन नहीं बच सकते। क्योंकि फूलों के प्राण इन जड़ों में होते हैं, जो जमीन में अदृश्य हैं। और कैसा आश्चर्य है कि सुंदर फूलों के प्राण उन जड़ों में होते हैं, जो कुरूप हैं। कुरूप और अंधेरे में छिपी जड़ों में पौधों के प्राण हैं। फूल तो केवल ऊपर की सजावट है। और फूल बिना जड़ों के नहीं जी सकते। जड़ें जरूर बिना फूलों के भी जीना चाहें तो जी सकती हैं। जड़ों को भूल गए हैं, और जीवन की जो जड़ें थी, हमने उन सबको इंकार कर दिया है। फूलों के पक्ष में जड़ों को इंकार कर दिया है। बिना इस बात को समझे कि कोई फूल जड़ों के सहारे के बिना जीवित नहींे रह सकता।
हमने मंदिर के ऊपर के शिखर बचा लिए, स्वर्ण-शिखर। लेकिन मंदिर की नींव भी भरनी पड़ती है। नींव के पत्थर बचाना हम भूल गए। स्वर्ण-शिखर हमारे हाथों में रह गए, और मंदिर गिर गया। क्योंकि ये तो हो सकता है, कि मंदिर पर स्वर्ण-शिखर न हो, लेकिन यह नहीं हो सकता कि अकेले स्वर्ण शिखर हो, और मंदिर की नींव न हो। यह जीवन के बुनियादी सत्यों में से एक है कि जो निम्न है, वह श्रेष्ठ के बिना हो सकता है। लेकिन जो श्रेष्ठ है, वह निम्न के बिना नहीं हो सकता। आदमी का पेट भूखा हो तो कविता को कोई जन्म नहीं मिलता है। पेट भरा हुआ हो सकता है, कविता को जन्म मिले, यह जरूरी नहीं। लेकिन पेट अगर खाली है तो कविता को जन्म नहीं मिलता। बिना पेट के कविता का कोई अस्तित्व नहीं है। यद्यपि कविता के बिना पेट भली-भांति अस्तित्व में रह सकता है।
जीसस का एक वचन है, जिसमें उन्होंने कहा है ‘मैन कैन नाॅट लिव बाय ब्रेड अलोन’ आदमी अकेली रोटी के सहारे नहीं जी सकता है। यह बात अधूरी है। और इस अधूरी बात में खतरा हैै। भारत इसी खतरे को पांच हजार साल से झेल रहा है। मनुष्य अकेली रोटी ने नहीं जी सकता, यह आधा सत्य है। और ध्यान रहे आधे सत्य असत्यों से भी खतरनाक सिद्ध होते हैं। क्योंकि असत्य बहुत दिन तक टिक नहीं सकते। लेकिन आधे सत्य बहुत दिनों तक टिक सकते हैं। असत्य बहुत दिनों तक धोखा नहीं दे सकते, वह दिखाई पड़ जाते हैं कि असत्य हैं। लेकिन अर्द्धसत्य धोखा दे सकते हैं, क्योंकि असत्य भीतर होता है और अर्द्ध सत्य उनके ऊपर वस्त्रों का आवरण बन जाता है और धोखा लंबा हो सकता है। इसलिए उचित है कि कोई असत्यों में जी ले, क्योंकि असत्यों में जीने वाला किसी न किसी दिन असत्यों के ऊपर उठ जाएगा। लेकिन जिन्होंने आधे सत्यों में जीना शुरू कर दिया है, उनका भगवान के अतिरिक्त कोई सहारा नहीं है। और ध्यान रहे भगवान का कोई सहारा होता नहीं है। यह सिर्फ बेसहारा होने में, सांत्वना है कि भगवान का सहारा है। यह बेसहारा होने की खबर है।
जीसस का यह वचन कि आदमी अकेली रोटी से नहीं जी सकता, सच है आधा। आधा वचन और भी याद कर लेना चाहिए कि आदमी बिना रोटी के बिल्कुल नहीं जी सकता। और यह तो हो भी सकता है कि अकेली रोटी से जी जाए, लेकिन यह बिल्कुल असंभव है कि बिना रोटी के जी जाए।
इस देश के अध्यात्म ने, इस देश के जीवन को सुगंध नहीं दी, दुर्गंध दे दी। क्योंकि अध्यात्म अधूरा था। वह आकाश का था, फूलों का था, उसमें जड़ों और बुनियाद की कोई जगह न थी। हमने भौतिकवाद के विपरीत आध्यात्मिक होने की बड़ी लंबी चेष्टा की है। हमने शरीर के खिलाफ सिर्फ आत्मा होने की लंबी चेष्टा की है। हमने भूखे पेट कविता रचने का प्रयास किया है। बड़ा एडवेंचर था। बड़ा दुस्साहसपूर्ण काम था, लेकिन बुद्धिमत्तापूर्वक वो करने योग्य नहीं था। वह नहीं हो सकता था। वह नहीं हुआ। लेकिन जब कोई कौम हजारों साल तक एक सपने में जीती है तो उसे सपने को छोड़ना मुश्किल हो जाता है। और जब हजारों साल तक हम किसी सपने को अपने खून में बसाते हैं, हड्डी और मांस-मज्जा में प्रवेश कर देते हैं। तो धीरे-धीरे हम यह भूल ही जाते हैं, कि वह सपना है। वह सच ही मालूम होने लगता है। और हजारों साल तक कोई अगर सपनों के साथ रहे, तो उस सपने को छोड़ना कठिन हो जाता है। सपना तो दूर, अगर हजारों साल तक किसी को हम जंजीरों में रखें, तो जंजीरें आभूषण बन जाती हैं। और हजारों साल तब अगर कोई जंजीरों में रहे, तो वह जंजीरों पर सोने-चांदी की पाॅलिश कर लेता है। फूल-बूटे निकाल लेता है, चित्र बना लेता है और उनको आभूषण समझने लगता है। असल में हजारों साल तक जंजीरों में रहने के लिए जरूरी है कि जंजीरें जंजीरें न मालूम पड़ें, आभूषण मालूम पड़ने लगें।
मैंने सुना है, फ्रान्स की क्रांति के समय, वहां का जो सबसे खतरनाक कारागृह था, जहां आजीवन कैदी रखे जाते थे, क्रांतिकारियों ने उसे तोड़ दिया। उस कारागृह में ऐसे लोग बंदी थे, कोई बीस वर्ष से, कोई तीस वर्ष से, कोई पचास वर्ष से भी उस कारागृह की जंजीरें और बेड़ियां, सदा के लिए लगती थी। फिर जब आदमी मरता था, तो उसके हाथ तोड़ कर ही, खोली जाती थी। क्योंकि बीच में खुलने का कोई सवाल नहीं था, वह सिर्फ आजन्म कैदियों के लिए था। क्रांतिकारियों ने जाकर जेल की दीवारें तोड़ दीं, दरवाजे. तोड़ दिये, कारागृह में बंद कैदियों को बाहर निकाला। और जबरजस्ती उनकी जंजीरें तोड़ दीं। कई कैदियों ने इंकार भी किया। उन कैदियों ने कहा कि हम अपनी कोठरियों के बाहर हम नहीं आ सकते हैं। हम अंधेरे के आदि हो गए हैं। रोशनी में आंखों को तकली.फ होती है। लेकिन क्रांतिकारी नहीं माने। उन्होंने उनकी जंजीरें भी तोड़ दी, और उन्हें जेल खाने से बाहर कर दिया। एक चमत्कार घटा, लेकिन यह चमत्कार दुनिया को रहा होगा, हम समझ सकते हैं कि यह चमत्कार नहीं, बड़ा स्वाभाविक है। सांझ होते-होते आधे कैदी वापस लौट आए। और उन्होंने क्रांतिकारियों से कहा हम बाहर जाने से इंकार करते हैं। और बिना जंजीरों के हम जी नहीं सकते, क्योंकि वह हमारे शरीर के हिस्से हो गई हैं। अब जब हम चलते हैं तो हमें ऐसा लगता है हम नंगे-नंगे हैं, कुछ खाली-खाली है। हमारी जंजीरें हमें वापस लौटा दो। स्वाभाविक है, जिनके हाथ-पैरों में, सेरों व.जन की जंजीरे पड़ी रही हों, वर्षों तक जो उनके साथ सोए हों, उठे हों, जागे हों, बैठे हों, वह जंजीरें अब जंजीरें नहीं, उनके शरीर के हिस्से हो गई हैं। उनके बिना अब उन्हें नींद न आ सकेगी। ऐसा ही हमारे देश के साथ हुआ है। हमारा अधूरा अध्यात्म, सच है, लेकिन आधा सच। और हमने भौतिकवाद मैटेरियलिज्म को इंकार पर उसे खड़ा किया है। भारत के जिंदगी के अधिकतम दुर्भाग्य का कारण, भारत का भौतिकवाद को इंकार करना है। क्योंकि जैसे ही हम भौतिकवाद को इंकार करते हैं, पूरा जीवन अस्वीकृत हो जाता है। क्योंकि जीवन के सारे आधार भौतिक हैं। शरीर भी भौतिक है, मस्तिष्क भी भौतिक है, .जमीन भी भौतिक है, वृक्ष, पाधे, पशु-पक्षी यह सारा जीवन भौतिक है। इस भौतिक जीवन में अध्यात्म के फूल लगते हैं जरूर, लेकिन यह भौतिक जीवन जब सम्पन्न हो, समृद्ध हो, यह भौतिक जीवन जब संतृप्त हो, जब यह भौतिक जीवन पूरी तरह भरा-पूरा हो, ओवरलोइंग हो, असल में अध्यात्म भौतिक जीवन की ओवरलोइंग है। ऊपर से बह जाना है। मेरी दृष्टि मे अध्यात्म आखिरी लग्जरी है। आखिरी विलास है जो मनुष्य जाति उपलब्ध कर सकती है। लेकिन जिन्होंने भौतिक जीवन को इंकार कर दिया हो, एक आदमी अपने शरीर को इंकार करे, भोजन बंद कर दे, पानी देना बंद कर दे, श्वांस लेना बंद कर दे, क्योंकि यह सब भौतिक हैं। कितनी देर उसकी आत्मा टिकेगी ? और अगर उसकी आत्मा खो जाए, तो कौन जिम्मेदार होगा? आत्मा को बचाने की कोशिश में हमने आत्मा भी खो दी है। आत्मा की चर्चा हम करते रहे हैं, हमसे आत्महीन लोग खोजने कठिन हैं। क्योंकि एक हजार साल तक अगर लोग गुलाम रह सकते हों तो उनके भीतर आत्मा है, यह मानने में शक होता है। और अगर तीन हजार साल तक दीन, दरिद्र रह सकते हों तो यह मानने में थोड़ी सी हिम्मत जुटानी पड़ती है, कि वह जीवित हैं।
अध्यात्म हमने बीमारी की तरह पकड़ लिया। अध्यात्म बीमारी बन जाता है, अगर भौतिकता के विपरीत हो। तो मैं यह कहना चाहता हूं कि अगर भारत अपने दुर्भाग्य की कहानी बदलना चाहता हो तो उसे एक मैटेरियलिस्ट स्प्रीचुअलिज्म एक भौतिकवादी अध्यात्म विकसित करना अनिवार्य हो गया है। हमने एक एंटी मैटेरियलिस्ट स्प्रीचुअलिज्म में अपने दिन गुजारे हैं, हमने सब इंकार किया, जो भी जिंदगी में था, सबको कंडेन्ट किया, निंदा की, और धीरे-धीरे हम खुद निंदित हो गए। और इस पृथ्वी पर हम सम्मान योग्य नहीं रह गए। फिर हमने सम्मान की नई तरकीबें निकाली। और हम अपने को ही, अपनी प्रशंसा मंें दिन बिताने लगे। शायद पृथ्वी पर हमसे ज्यादा आत्मप्रशंसा करने वाली कोई भी कौम नहीं है। यह सूचक है। यह इस बात की खबर है कि अब हमें और कोई प्रशंसा करने वाला नहीं मिलता, अब हमें अपनी प्रशंसा खुद ही करनी पड़ती है।
शंकराचार्य मुझे पीछे मिले। वह जगतगुरू हैं। मैंने उनसे पूछा, कि जगत से पूछ कर आप गुरू हैं ? जगत ने कोई स्वीकृति दी है आपके गुरू होने की ? बहुत नाराज हो गए। नाराज होना स्वाभाविक है। क्योंकि जगत से पूछें हम जगतगुरू हैं। और एक आदमी हो तो हम समझ सकते हैं दिमाग खराब है। पूरा मुल्क जगतगुरू है। हम सबको यह ख्याल है कि हम सारी दुनिया के गुरू हैं। दुनिया से बिना पूछे। और दुनिया हमारे इन दावों पे हंसती है या, शायद अब हंसने योग्य भी नहीं समझती। वह अपेक्षा से गुजर जाती है। कोई फिक्र भी नहीं करता कि हम क्या दावे कर रहे हैं ? क्योंकि दावे उनके फिक्र किये जा सकते हैं, जिनके दावों के पीछे बल हो। हमारे निर्बल के दावे हैं। जिनके पीछे कोई बल नहीं है। कारण क्या है ? वजह क्या है ?
पहला आपसे कारण कहना चाहता हूं और वह यह है, कि जिंदगी अध्यात्म और भौतिकता का समन्वय है। जिंदगी में ये दो चीजें अलग नहीं हैं। आदमी में आत्मा और शरीर ऐसे दो अस्तित्व नहीं हैं। आदमी आत्मा और शरीर का संयुक्त जोड़ है। शायद यह संयुक्त जोड़ कहना भी ठीक नहीं है। यह हमारी पुरानी भाषा की कमजोरी है। इसलिए संयुक्त जोड़ कहना पड़ता है। .ज्यादा बेहतर होगा यह कहना, कि शरीर आत्मा का दिखाई पड़ने वाला हिस्सा है। और आत्मा शरीर का न दिखाई पड़ने वाला हिस्सा है। उचित होगा कहना कि आत्मा का जो हिस्सा आंखों और हाथों की पकड़ में आ जाता है, वह शरीर है। और आत्मा का जो हिस्सा हाथों और आंखों की पकड़ में नहीं आता, वह आत्मा है। आत्मा अदृश्य शरीर है, शरीर दृश्य आत्मा है। यह दो चीजें नहीं हैं, ऐसा नहीं है कि कहीं शरीर समाप्त होता है और आत्मा शुरू होती है। और ऐसा भी नहींे है कि आत्मा अलग-थलग शरीर से टूटकर जीती है। यह शरीर और आत्मा एक ही तरंग के दो रूप हैं। यह शरीर और आत्मा एक ही चीज की सघनताओं के भेद हैं। बहुत जो सघन कंडेन्स है, वो शरीर की तरह मालूम पड़ रहा है, बहुत विरल और तरल, और वायवीय जो है, वो आत्मा की तरह मालूम पड़ रहा है। लेकिन हम एक कठिनाई में जी रहे हैं, एक द्वंद्व में। हमने शरीर को अलग, और आत्मा को अलग मान रखा है। उस अलग मानने की वजह से स्वभावतः एक संघर्ष, एक आंतरिक द्वंद्व पैदा हो गया है। शरीर से लड़ों और आत्माओं को बचाओ। तो हमने शरीर से लड़ने की बहुत सी तरकीबंें विकसित की हैं। हमारा पूरा धर्म, हमारी पूरी तपश्चर्या, हमारी साधना की सारी व्यवस्थाएं शरीर से लड़ने की व्यवस्थाएं हैं। और जिसमें जीना है, उससे जो लड़ेगा, उसका जीवन अगर जहर से भर जाए, तो आश्चर्य नहीं है।
जिस घर में मुझे रहना है, उस घर की दीवालों से मैं लड़ूं, तो घर को नुकसान कम, मुझे ही नुकसान ज्यादा पहुंचने वाला है। और जिस जगह मुझे रहना है, उसे मैं इंकार करूं, दुश्मनी करूं, शत्रुता करूं, तो जीना कठिन हो जाएगा, जीना एक भार और एक बोझ बन जाएगा। इसलिए भारत का मन निरंतर एक बात सोच रहा है कि जीवन से छुटकारा कैसे हो ? जिस जीवन में हमें रहना है, हम उसे छुटकारे की भाषा में सोचते हैं, जिस जीवन में हमें आनंद और शांति और सुख खोजना है, उससे हम भागने की, मुक्त होने की भाषा में विचार कर रहे हैं, तो फिर कठिन हो जाएगा। हम जीवन, दुव्र्यवहार कर रहे हैं। हम जीवन के साथ वैसा ही व्यवहार कर रहे हैं, जैसा रेलवे स्टेशन पर, वेटिंग रूम के साथ यात्री करते हैं।
वे यात्री बैठे हैं अपनी ट्रेन की प्रतीक्षा में। उन्हें उस वेटिंग रूम से कोई प्रयोजन नहीं है। वह वहां छिलके भी डालते हैं, पान भी थूकते हैं, गंदगी भी फेंकते हैं। और अगर किसी यात्री से कहो, यह क्या कर रहे हो ? तो वह कहता है, यह हमारे बाप का घर है ? यह किसी का भी नहीं है, यह सिर्फ विश्रामालय है, यहां थोड़ी देर रूकना है, हमारी ट्रेन आएगी, हम चले जाएंगे। उसके पहले जो रूके थे, उन्होंने भी उसके साथ यही व्यवहार किया था। उनके बाद जो आएंगे, वह भी यही व्यवहार करेंगे। अगर जिंदगी गंदगी और कुरूपता से भर जाए तो कौन जिम्मेवार है ? भारत में हम जीवन के साथ विश्रामालय का व्यवहार कर रहे हैं, एक घर का नहीं। सबको मरने की प्रतीक्षा है, जल्दी से किसी को स्वर्ग जाना है। किसी को मजबूरी में नर्क जाना पड़े, वो बात दूसरी है। कोई मोक्ष जाने की तैयारी में बैठा है, सब अपनी-अपनी ट्रेन की प्रतीक्षा में यह जो घर है, यह जो जीवन है, इसे सजाने, इसे सुंदर बनाने, इसे सुखी बनाने के लिए कोई, कोई आकांक्षा नहीं है। यह आकांक्षा अगर न हो तो यह घर सुंदर न बन पाएगा। जीवन हमारा निर्माण है, जीवन हमारा सृजन है, वो हमारा क्रिएशन है। जीवन हमें रखा हुआ नहीं मिलता है, वह कोई रेडीमेड चीज नहीं है, जो मिल गई है। उसे रोज-रोज बनाना पड़ता है। जो कौमें बनाती हैं, वह बना लेती हैं। जो कौमें नहीं बनाती हैं, वह खो देती हैं। और ध्यान रखें जिंदगी का एक नियम ख्याल में रखने जैसा है, कि जो आगे नहीं बढ़ते, वह अपनी जगह खड़े नहीं रह जाते, वह पीछे हटते जाते हैं। जिंदगी में ठहराव जैसी कोई चीज नहीं होती।
एडिंगटन ने अपने संस्मरणों में लिखा है, कि कुछ शब्द हैं मनुष्य की भाषाओं में, जो बिल्कुल झूठे हैं। उनका पर्याय जिंदगी में होता ही नहीं। और उसने जो चार-छह शब्द गिनाएं हैं, उसमें पहला जो शब्द है, वह है रेस्ट, विश्राम। एडिंगटन ने कहा है कि विश्राम जैसा कोई क्षण जिंदगी में होता ही नहीं है। या तो आप आगे जाते हैं, या पीछे जाते हैं। या तो आप जीते हैं, या मरते हैं। या तो आप सुंदर होते हैं या कुरूप होना शुरू हो जाते हैं। ऐसा कोई क्षण नहीं है कि जहां आप हैं, और जो आप हैं, वही आप रह जाएं। अगर आप जीतते नहीं तो आप हारते हैं। ऐसा नहीं है कि आप एक जगह खड़े रह जाएं। अगर आप अमीर होने की कोशिश नहीं करते, तो आप गरीब होते चले जाते हैं। ऐसा नहीं है कि बाप बीच में ठहर जाएं कि न हम अमीर होंगे न हम गरीब होंगे। नहीं ऐसा रेस्ट जैसी जिंदगी में कोई स्थिति नहीं है। जिंदगी गति है। तो जो आगे गति करता है, ठीक नहीं करता तो पीछे गति करनी पड़ती है। जिंदगी गति है, जिंदगी कहती है गति करो। आगे तो ठीक अन्यथा पीछे जाओ। या तो जीतो, या हारो। या तो फैलो या सुकड़ो। या तो जियो या मरो। जिंदगी बीच को स्वीकार नहीं करती। जिंदगी में इन दोनों के मध्य में कोई ठहराव, कोई रूकाव, कोई विश्राम की जगह नहीं है। लेकिन हम, हमने आगे बढ़ने की सारी आकांक्षाएं छोड़ दी हैं। क्योंकि आगे बढ़ने का मतलब, आगे बढ़ने का मतलब भौतिकता हो गई। अगर बड़ा मकान बनाना है तो ये भौतिकवाद है। अगर ज्यादा धन पैदा करना है तो यह भौतिकवाद है। अगर अच्छा भोजन खाना है तो यह भौतिकवाद है। अगर अच्छे कपड़े पहनने हैं तो यह भौतिकवाद है। अगर शरीर को सुंदर बनाना है तो यह भौतिकवाद है। तो शरीर को सुंदर मत बनाओ, शरीर कुरूप होता चला जाएगा। अच्छे कपड़े मत पहनो, धीरे-धीरे पाओगे कि कपड़े बचे ही नहीं हैं, नंगे खड़े रह गए हैं। धन की दौड़ मत करो, आखिर में पाओगे कि भीख मांगने के सिवाय कोई उपाय नहीं रह गया है। और आज पृथ्वी पर हम पहले मुल्क हैं, व्यक्तिगत रूप से तो बहुत लोगों ने भीख मांगी है, मुल्क की हैसियत से, पूरा मुल्क अगर भिखारी की हालत में आ गया है तो वह हम हैं। वैसे यह बहुत गौरवपूर्ण है हमारे लिए। क्योंकि हमारे सब महापुरूष भीख मांगते रहे, हम पूरा-का-पूरा मुल्क अगर भीख मांगने लगा है तो हम अपने महापुरूषों के चरण चिह्नों पर ही चल रहे हैं। बुद्ध अगर भिक्षा का पात्र लेके गांव-गांव घूमते थे, तो बुद्ध को हमें कहना चाहिए कि अब तुम बिल्कुल निश्चिंत रहो, अब हम भिक्षा का पात्र लेकर पूरी पृथ्वी पे घूम रहे हैं, पूरा देश। अब भीख मांगने के सिवाय हमारा कोई नेचुरल करेक्टर नहीं है। एक ही चरित्र है हमारा राष्ट्रीय। और वह भीख मंागने का चरित्र है। लेकिन हम अपने भीख में भी गौरवांवित हैं। हमें कोई चिंता नहीं होती।
बिहार में अकाल पड़ा, और जो लोग जानते थे, उन्होंने सूचनाएं दी थी, कि इस अकाल के दुष्परिणाम भयंकर होंगे, और करीब दो करोड़ लोग मर सकते हैं, इस अकाल से। बिहार में अकाल फैलेगा तो आस-पास के प्रदेश भी प्रभावित हो जाएंगे। और दो करोड़ लोग मर सकते हैं। यह सूचनाएं दस साल पहले दे दी गई थीं। लेकिन हिन्दुस्तान ने कोई विचार नहीं किया। हमने सोचा हमें विचार करने की क्या जरूरत है ? जब अकाल पड़ेगा, तब हम भीख मांग लेंगे। और हमने भीख मांगी। बिहार के लिए हमने सारी दुनिया से भीख मांगी। और सारी दुनिया की सहानुभूति के परिणामस्वरूप केवल चालीस आदमी बिहार के अकाल में भूख से मरे। जहां करोड़ के मरने की संभावना थी। चालीस आदमी केवल भूख से मरे, कि सारी दुनिया से भीख मांग कर हमने बिहार को बचाया लेकिन अकाल खत्म हुआ, बिहार फिर वैसे ही जी रहा है, जैसे अकाल के पहले जी रहा था।
बुद्ध से लेकर आज तक बिहार ने सैंकड़.ों अकाल देखे, लेकिन बिहार के खेत पर कुआं नहीं है। हर अकाल के बाद हम फिर निश्चिंत जीने लगते हैं। वह बिहार की जमीन में जो पानी छिपा है, उसको खोदने की हम फिक्र नहीं करते। भिखारी कुछ भी नहीं करते। जब समय आता है, भीख मांग लेते हैं, और कुछ भी नहीं करते। फिर निश्चिंत हो जाते हैं।
यह थोड़ा सोचने जैसा है, अभी अमरीका के एक बहुत बड़े अर्थशास्त्री ने किताब लिखी हैः उन्नीस सौ अठहत्तर। और उस किताब में लिखा है कि उन्नीस अठहत्तर में हिन्दुस्तान में बहुत बड़ा अकाल पड़ेगा, जो पूरे हिन्दुस्तान को घेर लेगा। और उस अकाल में अंदाजन दस करोड़ से लेके बीस करोड़ लोगों तक की मृत्यु हो सकती है, अगर दुनिया से सहायता न मिली। दिल्ली में बड़े नेता से मैं कह रहा था कि आपने यह किताब पढ़ी है ? उन्होंने किताब मेरे पास थी, ऊपर देखा लिखा उन्नीस सौ अठहत्तर, उन्होंने कहा उन्नीस सौ अठहत्तर बहुत दूर है, अभी तो उन्नीस सौ बहत्तर की फिकर करो। यह किताब आप पढ़िए, उन्होंने कहा उन्नीस सौ अठहत्तर कहां, हम बचेंगे कि नहीं बचेंगे। उन्नीस सौ अठहत्तर की बात उन्नीस अठहत्तर के लोग जानें। ठीक है उन्नीस सौ अठहत्तर में हम फिर भीख मांगने खड़े हो जाएंगे। लेकिन ध्यान रहे, अब दुनिया की भीख देने की क्षमता कम होती जा रही है। कम हो जाने के कारण हैं क्योंकि अब दुनिया में सिर्फ एक ही मुल्क भीख देने में समर्थ रह गया है, अमेरिका। रूस ने भी भीख मांगनी शुरू कर दी है। और उन्नीस सौ अठहत्तर में सवाल होगा रूस को बचाना है, चीन को बचाना है, हिन्दुस्तान को बचाना है, किसको बचाना है? अभी तक यह विकल्प नहीं था, अभी तक भिखारी हम अकेले थे। अब धीरे-धीरे एशिया के और दूसरे हाथ भी, बढ़ते हुए अपना पात्र लिए हुए आ रहे हैं। अब भिखारियों में काॅम्पटीशन होगा उन्नीस अठहत्तर में। इसलिए उन्नीस अठहत्तर में हम यह बात मान कर नहीं चल सकते, कि हमको भीख मिलेगी। क्योंकि अगर अमेरिका को बचाना ही है तो, रूस को पहले बचाना उचित होगा। और जरूरी होगा। और मुझे भी अगर सवाल उठे कि हिन्दुस्तान को पहले बचाना है कि रूस को, तो मैं कहूंगा कि पहले रूस को बचा लो, क्योंकि हिन्दुस्तान के पास बचाने योग्य भी क्या है ? क्या है हमारे पास बचाने योग्य सिवाय भीड़ के ? बाकी बचाने योग्य कुछ नहीं है। अगर अमेरिका के आगे सवाल उठा तो रूस पहले बचाया जाएगा। हम आखिरी नंबर पर हो जाएंगे। फिर दूसरा यह है स्थिति कि हमें बचने के लिए शायद अमेरिका भी असमर्थ होता जाए। आज अमेरिका के जो चार किसान काम कर रहे हैं, उसमें से एक किसान की मेहनत हिन्दुस्तान को मिल रही है। अमेरिका की चैथाई उपज हम ले रहे हैं। अमेरिका के चार आदमियों की मेहनत, एक आदमी की मेहनत हमें मिल रही है। लेकिन उनको हमें कह देना चाहिए, तुम हमसे जीत न पाओगे। 1978 में तुम्हारे चारों किसान अगर हमें भोजन दें तो ही हमें बचा सकेंगे। क्योंकि 1978 तक हम शांत न बैठेंगे, हम रोज बच्चे पैदा करते चले जाएंगे। हम एक संबंध में बड़े उत्पादक हैं। वो बच्चे पैदा करने के संबंध में हमारे उत्पादन का कोई मुकाबला नहीं है। और जब हम बच्चे पैदा करते हैं, तब हमारा संयासी, हमारा साधु, हमारे महात्मा कहते हैं, बच्चे भगवान देता है। और जब अकाल आता है तो अकाल को बचाने के लिए भगवान कुछ भी नहीं करता। फिर हमें भीख मांगनी पड़ती है। तब यह सारे महात्मा भगवान से मिल कर कुछ भी नहीं दिलवाते। यह सिर्फ बच्चे ही दिलवाते हैं। यह नासमझी कुछ कारणों से पैदा हुई है। और उन कारणों में पहला कारण मैं आपसे कहता हूं, हम इतने दीन न हुए होते। हम इतने दरिद्र न हुए होते। सच तो यह है, हमसे ज्यादा समृद्ध होने की संभावना पृथ्वी पर किसी देश की नहीं है। हमारे पास अनंत स्रोत हैं। लेकिन हमारे पास उन स्रोतों का उपयोग करने वाली समझ नहीं है। और ऐसा नहीं कि हमारे पास समझ नहीं। हमारे पास समझ भी है, लेकिन हमारी समझ, हमारी समझ जो, उन अनंत स्रोतों के विरोध में खड़ी है। हम जीवन को समृद्ध करने की कला के दुश्मन हैं। हम उसे समृद्ध करने के लिए तैयार हैं। हम दीनता की पूजा कर रहे हैं। दरिद्रता की पूजा कर रहे हैं। त्याग की पूजा कर रहे हैं। हमारे मन में उपलब्धि की, भोग की, जीवन के रस को उपलब्ध करने की, कोई अभीप्सा नहीं है। अगर एक आदमी महल छोड़ कर सड़क पे भीख मांगने लगे, तो सारा गांव उसके पैरों में सिर छुका देगा। बिना इस बात की फिकर किये, कि जब हम भीख के लिए सिर झुकाते हैं, और जब हम आरोपित दरीद्रता के लिए नमस्कार करते हैं, तो हम बहुत गहरे में दरिद्रता को एक वच्र्यु, दरिद्रता को एक सदगुण बना रहे हैं। और जब कोई देश दरिद्रता को सदगुण बना देगा, और त्याग को महिमामंडित कर देगा, तो उस देश की उपलब्ध करने की क्षमता, विस्तार की क्षमता क्षीण हो जाने वाली है।
हमने सिर्फ त्यागी को आदर दिया है। गलत है यह बात, यह बहुत मैसोचिस्ट है। एक आदमी हुआ मैसोच, वह अपने को सताता था। पैरों में कांटे चुभाता था। आंच में हाथ डालता था। रात को जागके काटता था। कोड़े मारता था। उस मैसोच के नाम से एक वाद प्रचलित हुआ मैसोचिज्म। अपने को सताने वाला आदमी। हमारा मुल्क मैसोचिस्ट है। हम हजारों साल से अपने को सताने वाली कौम, इसलिए अगर एक आदमी, कांटों का बिस्तर बिछा कर उस पर लेट जाए, तो हमारे मन में बड़ी महिमा का उदय होता है। और हम उस आदमी को नमस्कार करने जाते हैं कि परम तपस्वी है। उस आदमी का मानसिक इलाज होना चाहिए। क्योंकि वह रूग्ण है, वो मानसिक रूप से बीमार है। क्योंकि मनुष्य के जीवन की सहज आकांक्षा फूलों का बिस्तर बनाने की है, कांटो का बिस्तर बनाने की नहीं है। यह आदमी साइकोटिक है। यह आदमी पैथालाॅजिकल है। यह आदमी रूग्ण है, यह स्वस्थ नहीं है, जो कांटे की सेज बनाकर नंगा होकर उसपे लेट गया है। लेकिन यह हमारे लिए आदरणीय है। हम कहेंगे यह महातपस्वी है। जब हम इसे आदर देते हैं तो उसका मतलब यह है कि सोना तो हम भी कांटों की सेज पर ही चाहते हैं, यह बात दूसरी है कि अभी इतनी ताकत नहीं जुटा पाए। जब जुटा लेंगे तो सोएंगे। लेकिन नमस्कार तो कर ही सकते हैं, आदर तो कर ही सकते हैं। हम जिस बात को आदर देते हैं, खबर भी देते हैं साथ में, कि हमारी आकांक्षा भी वही है। और अगर, कांटों पर सोने वाले लोगों को आदर देते-देते पूरा मुल्क कांटों पर सोने की हालत में आ गया, तो जिम्मेदार किसे ठहराइएगा ? शिकायत किससे करनी है ? अगर एक आदमी तीस दिन का उपवास कर ले तो, पूरे अहमदाबाद में जुलूस निकलेगा। बैंड-बाजे के साथ स्वागत-सत्कार होगा। इस आदमी को पागलखाने भेजना चाहिए, क्योंकि भोजन की इच्छा जीवन के विस्तार की इच्छा है। भोजन को छोड़ने की इच्छा, आत्मघाती है, सोसाइडल है। यह आदमी मरने के लिए आतुर है। और जब हम इसको आदर देंगे तो हम सोसाइडल, आत्महत्या के वातावरण को पैदा करेंगे। और अगर पूरा मुल्क धीरे-धीरे आत्महत्यावादी हो जाए, तो हम किसी से शिकायत भी तो नहीं कर सकते।
इस देश में प्रसन्न होना अपमानजनक है। उदास होना सम्मानजनक है। इस मुल्क में अगर रोती हुई शक्ल लेकर कोई पैदा हो तो उसके महात्मा हो जाने की पूरी संभावना है। असल में रोती हुई शक्ल बुनियादी क्वालिफिकेशन है महात्मा के लिए। वह योग्यता है, जिसके बिना कोई महात्मा नहीं हो सकता। हंसता हुआ आदमी, प्रसन्न आदमी, नाचता हुआ आदमी, हमें ना मालूम कैसे बुरे ख्यालों से भर देता है ? हमारा जवान भी नहीं नाच सकता। बूढ़े. न नाचें, यह समझ में आता है। नाचें तो बहुत स्वागत योग्य है। लेकिन हमारा जवान भी नहीं नाच सकता। और अगर नाचे तो वो भी अपराधी समझेगा अपने को कि कुछ गिल्ट, कोई पाप कर रहा है, कोई अपराध कर रहा है। अगर हम नाचते हैं तो गिल्टियां अनुभव होते हैं। अगर हंसते हैं तो ऐसा लगता है कोई अपराध कर रहे हैं जीवन के प्रति। जब रोते हैं तभी हम खुल कर रोते हैं। जब हम रोते हैं और उदास होते है तभी हमें ऐसा लगता है कि अब हम राष्ट्रीय कर्तव्य पूरा कर रहे हैं। इसके पीछे एक ही कारण है जो मैं आपसे कह रहा हूं और वह यह कि हमने शरीर के विपरीत आत्मा को स्वीकार किया है। शरीर के अनुकूल नहीं। शरीर के पक्ष में नहीं। ऐसा अध्यात्म जहरीला अध्यात्म है।
दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं, हमने एक दूसरा सूत्र, जिसके आधार पर हमारे दुर्भाग्य की घटनाएं फैलती चली गईं। हमारा दूसरा सूत्र है, विश्वास, श्रद्धा, बिलीफ, हम विचार करने वाली कौम हैं। हम विश्वास करने वाले लोग हैं। और हमारे शास्त्र कहते हैं कि जो संदेह करेगा, वह भटक जाएगा। और हमारे गुरू समझाते हैं कि जो विचार करेगा, वो आदमी धार्मिक नहीं हो सकता। धार्मिक आदमी होने के लिए अंधा होना आवश्यक है। आंख नहीं चाहिए। विचार नहीं चाहिए। तर्क नहीं चाहिए। संदेह नहीं चाहिए। और ध्यान रहे बिना संदेह के विज्ञान का जन्म नहीं होता है। विज्ञान की सारी-की-सारी शाखाएं-प्रशाखाएं, डाउट, संदेह के बीज से विकसित हुई हैं। कब वह क्षण आएगा जब हम भी संदेह कर सकेंगे ? अगर तीन सौ साल यूरोप के इतिहास में भी विश्वास के रहे होते, और अगर पिछले तीन सौ साल में यूरोप भी पोप और पादरियों के आस-पास चक्कर लगाता रहता, तो यूरोप भी आज उसी दीनता की हालत में होता, जिसमें हम हैं। आज अमेरिका के आदमी की औसत आमदनी, भारत के आदमी से सत्तर गुनी ज्यादा है। आज अमेरिका का गरीब आदमी भी हमारे अमीर आदमी से बेहतर हालत में है। आज हमारा अमीर आदमी भी अमेरिका के गरीब के सामने गरीब है। सेवरलेट गाड़ी हिन्दुस्तान में अमीर आदमी की गाड़ी है। अमेरिका में सेवरलेट नेबरहुड गरीब लोगों के मोहल्ले का नाम है। जहां सेवरलेट वाले लोग रहते हैं, वह गरीब इलाका है। तो गरीबों के मोहल्ले का नाम ही सेवरलेट नेबरहुड, सेवरलेट रखने वालों का मोहल्ला। कोई आदमी सेवरलेट वालेट वाले आदमी के पड़ौस में रहना पसंद नहीं करता, क्योंकि वह गरीब आदमी के पास कौन रहे।
हिन्दुस्तान में सेवरलेट गाड़ी अमीर आदमी की गाड़ी है। और बड़े मजे की बात है, अभी मुफतलाल परिवार के एक सज्जन मुझसे मिलने आए, तो वह कहने लगे कि सेवरलेट मर्सिटीज इनकी जरूरत क्या है ? एम्बेसिडर से काम चल जाता है। एंबेसेडर की भी क्या जरूरत है, बैलगाड़ी से भी काम क्यों नहीं चलता है। और बैलगाड़ी भी बहुत भोग का साधन है, पैदल ही बहुत अच्छा है। पैदल ही चलके जब मोक्ष तक पहुंच सकते हैं लोग तो बैलगाड़ी की भी क्या जरूरत है। साधारण आदमी आकर मुझसे कहे, लेकिन मफतलाल के परिवार का कोई आदमी मुझसे कहे कि क्या जरूरत है सेवरलेट की, एंबेसेडर क्या कम है ? तो सोचने जैसा हो जाता है। हिन्दुस्तान का अमीर आदमी भी जब इस भाषा में सोचता है कि हिन्दुस्तान के गरीब आदमी को हम क्या कहें? सिकुड़ने की भाषा है। लेकिन कसूर नहीं है। कसूर मफतलाल का नहीं है। कसूर महात्माओं का है, जो सिखा रहे हैं कि सिकुड़ो। फैलना पाप है, विस्तार पाप है, सिकुड़ो।
गांधी जी से किसी ने पूछा कि आप थर्ड क्लास में क्यों चलते हैं? तो उन्होंने कहा क्योंकि फोर्थ क्लास नहीं है। बड़े दुःख की बात है कि फोर्थ क्लास नहीं है। हमें बनाना चाहिए। लेकिन महात्मा फोर्थ क्लास से राजी न होंगे, वह कहेंगे फिथ क्लास कहां हैं? उनको कहीं भी नहीं रोका जा सकता। जब जिंदगी, जिंदगी के सारे नियम फैलने के हैं, तब हमारे सारे नियम सिकुड़ने के हैं।
एक बीज को बो दें, तो एक बीज से वृक्ष पैदा होगा, छोटा सा बीज बड़ा वृक्ष हो जाएगा। इतना बड़ा कि उसके नीचे हजार बैलगाड़ियां ठहर सकें। और एक बीज को बो दें तो वृक्ष में करोड़ंों बीज लगेंगे। एक बीज करोड़ बीज हो गया। अब आइंस्टीन के वाद को हम भली-भांति जानते हैं, सारा जगत एक्सपेंडिंग है। तारे भी अपनी जगह रूके नहीं हैं, वह भी फैल रहे हैं। हर दो तारों के बीच का फासला रोज अरबों मील बढ़ जाता है। सारा जगत फैल रहा है। जैसे कि कोई हवा भर रहा हो किसी गुब्बारे में। और गुब्बारा बड़ा होता जा रहा हो। ऐसा पूरा जगत फैल रहा है। फैलाव जिंदगी है। लेकिन फैलाव के लिए संदेह चाहिए। अन्यथा जिंदगी जड़ हो जाती है, विश्वास जड़ता है। विश्वास ठहरा लेता है। विश्वास कहता है, जो मान लिया वह ठीक है। और हमने कुछ बातें तीन हजार साल पहले मानी थी, वह अब भी ठीक हैं। तीन हजार साल में सब बदल गया। ना वह दिन रहे, न वह लोग रहे, न वह परिस्थितियां रहीं, न वह ज्ञान रहा, न वह बातें रहीं, सब बदल गया। तीन हजार साल पहले मानी गईं बातें, बीसवीं सदी में भी हमारे आधार हैं। हम जिंदा कैसे हैं ? यह भी प्रश्नवाची है। हम बड़े अद्भुत लोग हैं, कि हम तीन हजार साल पहले की बातों को पकड़ कर आज जिंदा कैसे हैं ?
मैं कलकत्ते में एक घर में ठहरा, एक डाक्टर के घर में, निकल रहा हूं बाहर, उनकी लड़की को छींक आ गई, उन्होंने कहा एक मिनट रूक जाएं। डाक्टर, डाक्टर को भी पता नहीं छीक क्यों आती है। डाक्टर पढ़ रहा है आज के मेडिकल कालेज में, लेकिन उसके पास बुद्धि तीन हजार साल पहले की है। जब छींक आती थी तो डर लगता था कि रूक जाओ। मैंने उस डाक्टर को कहा कि तुम तो भली-भांति जानते होंगे कि छींक क्यों आती है ? उसने कहा जानता क्यों नहीं, लेकिन रूकने में हर्ज क्या है ? यह एक आदमी नहीं बोल रहा है, यह दो सदियां बोल रही हैं, जिनके बीच तीन हजार साल का फासला है। यह आदमी सीजोफ्रैनिक, इस आदमी के भीतर दो स्वर हैं, जिनके बीच कोई संबंध नहीं है। वो कहता है, मुझे मालूम है। जिसे यह मालूम है कि छींक क्यों आती हैं, वह और आदमी है। और एक दूसरा आदमी उसके भीतर है, वह कहता है लेकिन रूकने में हर्ज क्या है? पता नहीं कुछ खतरा हो ही जाए, तो एक मिनट रूकने में हर्ज क्या है ? मैंने उससे कहा एक मिनट रूकने में कोई भी हर्ज नहीं, लेकिन यह जो मन है, जो कहता है एक मिनट रूकने में हर्ज क्या है, यह बड़ा खतरनाक है। यह बहुत नुकसान पहुंचाएगा। यह सारे मुल्क को रोक लेगा। और जो डाॅक्टर, मैंने कहा अगर मेरा बस चले तो तुम्हारे सारे सर्टिफिकेट आज ही जब्त करवा लूं। क्योंकि जो आदमी छींक से भी डरता है, इस आदमी से इलाज करवाना ठीक नहीं है। यह कब किस खतरे में...। मैंने कहा कि तुम आॅपरेशन कर रहे हो, और नर्स को छींक आ जाए, तो रूक जाना। तब तुमको पता चलेगा कि एक मिनट रूकने में हर्ज क्या है ? मैंने कहा आॅपरेशन करते वक्त क्या करोगे अगर छींक आ जाए ? उसने कहा यह तो सवाल मुझे उठा नहीं। मैंने कहा कभी भी उठ सकता है, छींक का कोई भरोसा है ? फिर करोगे क्या ? मैंने कहा, मैं जानता हूं तुम रुक जाओगे, और वह मरीज जो टेबिल पर पड़ा है, मरेगा। तुम तो रूकोेगे लेकिन बीमारी नहीं रूकेगी एक मिनट। तुम तो रूकोगे लेकिन आॅपरेटिड हड्डियां और कटा हुआ पेट नहीं रूकेगा।
मैंने उसे एक घटना कही, मैंने उससे कहा कि एफ.आर.सी.एस. की परीक्षा देने एक आदमी गया हुआ था। उसकी मुखाग्र, ओरल परीक्षा थी, वायवा था। सारी परीक्षा पूरी हो गई थी। और जब भीतर वह मैडिकल बोर्ड के सामने गया तो उन्होंने उससे कुछ पूछा कि यह दवा फलां किस्म के मरीज को कितनी मात्रा में देनी, उसने कुछ मात्रा बताई, फिर दरवाजे की तरफ बढ़ा, तभी उसे ख्याल आया कि इतनी मात्रा में देने पर तो मरीज मर जाएगा, यह जहर है। वह लौटा, उसने कहा कि माफ करिये, मैं जरा फर्क करना चाहता हूं। पर उन लोगों ने कहा कि मरीज मर चुका है। अब फर्क करने से कोई फायदा नहीं रहेगा। उसने कहा, मरीज है कहां ? उसने कहा यह तो परीक्षा हो रही है, लेकिन अगर मरीज होता तो मरीज अब तक मर चुका होता। सुधार का कोई उपाय न रहा, जहर दिया जा चुका है। अगले साल फिर परीक्षा देना, तब सुधार करना। यह मामला खत्म हो गया। मैंने उस डाक्टर को कहा कि तुम अगर इतना सोचने को भी रूक गए कि छींक के लिए रूकना चाहिए कि नहीं, तो भी मरीज मर जाएगा।
हमारे पास विश्वास करने वाला एक मन है, जिसे हमने हजारों साल में मजबूत किया है। वह हर चीज पर विश्वास कर लेता है। इसके खतरे बड़े अजीब हैं। इसके खतरे ऐसे हैं कि जिसका हिसाब लगाना मुश्किल। अभी मैं, बंगाल में था तो कुछ नक्सलाइज्ड मित्र मुझे मिलने आए। आम तौर से मुल्क में हम सोचते होंगे कि नक्सलाइज्ड जो युवक हैं, वह बड़े क्रांतिकारी हैं। इस भ्रांति में मत पड़ना। हमारा युवक कुछ भी हो जाए, क्रांतिकारी होना बहुत मुश्किल है। एक युवक जो आया हुआ था, उसके हाथ में माओ की किताब थी। वह उसने नीचे रख दी, और भूल से उसका पैर लग गया, तो उसने उसके पैर पड़ लिये। जैसे गीता का हम पड़ते हैं, वैसे माओ की किताब का पैर...। अब यह नक्सलाइज्ड क्रांतिकारी हैं या सिर्फ गीता की जगह माओ आ गया है। कुरान की जगह माक्र्स आ गए हैं। और उपनिषद की जगह एंजल्स आ गए हैं। यानि हममें कोई फर्क नहीं है, हमारे हाथ की किताब भी बदल जाए, तो हिन्दुस्तान का कंयुनिस्ट जितना खतरनाक हो सकता है, उतना दुनिया का कहीं का खतरनाक नहीं हो सकता, क्योंकि ये भी विश्वासी आदमी है। वो माक्र्स को भी भगवान मान कर पकड़ता है, जब पकड़ता है। हमारा चित्त पकड़ने वाला और विश्वासी है। लेकिन ध्यान रहे, इस जगत में ज्ञान का सारा विकास संदेह से हुआ है। दूसरों पर संदेह नहीं, अपने पर भी संदेह। दूसरे के विचारों पर संदेह नहीं, अपने विचारों पर भी निरंतर जो संदेह करता है, उसके विचार रोज सत्य के निकट, और निकट, और निकट पहुंचते चले जाते हैं।
आइंस्टीन से मरने के कोई पन्द्रह दिन पहले किसी ने पूछा कि आप एक धार्मिक आदमी में और वैज्ञानिक आदमी में क्या फर्क करते हैं ? तो आइंस्टीन ने कहा, अगर धार्मिक आदमी से सौ सवाल पूछो तो वह डेढ़ सौ सवाल देने के लिए हमेशा तैयार है। और वैज्ञानिक आदमी से अगर सौ सवाल पूछो तो निन्यानवे के संबंध में वह कहेगा मुझे पता नहीं, एक के संबंध में कहेगा कि थोड़ा सा मुझे पता है, वो भी अंतिम नहीं है। अल्टीमेट नहीं है। कल बदल सकता है। लेकिन इस जगत को जो समृद्धि, जो सुख, जो स्वास्थ्य, जो शक्ति मिली है, वह विज्ञान से मिली है। हम विज्ञान पैदा नहीं कर पाए, विश्वास करने वाली कोई कौम विज्ञान पैदा नहीं कर सकी। और ध्यान रहे बिना विज्ञान के, मनुष्य का पृथ्वी पर जीना बिल्कुल नारकीय हो गया है। बिना विज्ञान के हम पृथ्वी पे नहीं जी सकते। बिना विज्ञान के हम पशुओं के जैसे ही हो जाते हैं। आज जो लोग जमीन में छिपी हुई हड्डियों की खोज-बीन करते हैं, उन्होंने बहुत सी कहानियां खोद निकाली हैं। एक कहानी जो बहुत सोचने जैसी है और हिन्दुस्तान के एक-एक बच्चे को समझने जैसी है, वह यह है कि आज से कोई दो या तीन लाख वर्ष पहले .जमीन पर हाथियों से बड़े-बड़े जानवर थे। हाथियों से दस गुने शरीर वाले, जानवर थे। अचानक एक ही बार में वह सब नष्ट हो गए। बड़ी कठिन बात है कि वह क्यों मर गए ? कोई उनमें युद्ध नहीं हुआ, कोई उन्होंने एटमबम नहीं बनाया। कोई हाइड्रोजन बम नहीं बनाया। कोई चांद-तारों से किसी ने उन पर हमला नहीं किया। और जमीन पर उनका कोई मुकाबला नहीं था, जो उनको मिटा सके। वह मिट क्यों गए ? वह सिर्फ मिट गए, क्योंकि उन बड़े जानवरों ने बहुत बच्चे पैदा कर लिए, एक। उन्होंने इतने बच्चे पैदा कर लिये, जो भोजन के आगे निकल गए। और दूसरा उन बड़े जानवरों के पास, बड़े तो बहुत थे, लेकिन शरीर बहुत बड़ा था, दिमाग बहुत छोटा था। और शरीर इतना बड़ा था कि दिमाग उसके अनुपात में ना के बराबर था। जब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई, और प्राकृतिक साधन के बारे में चूक गए। तो वह भोजन के नए साधन न खोज पाए। मरने के सिवा कोई उपाय न रहा। आने वाले भविष्य में सारी दुनिया के विचारशील लोग, एशिया, भारत, चीन, अफ्रीका इनसे बहुत डरे हुए है। घबराहट इतनी ज्यादा है कि यह इतने बच्चे पैदा कर देंगे, और इतने अवैज्ञानिक बुद्धि है कि उनको कोई रोकने का न साधन खोज पाएंगे, ना भोजन का साधन खोज पाएंगे, वह इस सारी दुनिया पर हावी हो जाएंगे, सारी दुनिया को नष्ट करने का कारण बन जाएंगे।
विज्ञान का अर्थ है, प्रकृति के साथ जीने के नए उपाय खोजना। प्रकृति से नए रास्तों से नई सुविधाएं प्राप्त करना। प्रकृति से जीवन के सहारे और सहयोग के लिए नई-नई शक्तियों को जीतना। लेकिन यह वही कर पाएंगे, जो पुराने रास्तों पर संदेह करेंगे। जो पुराने रास्ते पर पूरा भरोसा करता है। वह कठिनाई में पड़ जाता है। अब जैसे उदाहरण के लिए अगर गांधी जी को पूछे, विनोबा जी को पूछें इस बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए हम क्या करें, तो वह पतंजलि की किताब खोल कर कहते हैं कि ब्रह्मचर्य सार्थक है। यह ब्रह्मचर्य शायद पतंजलि के जमाने में, संख्या की कोई समस्या न थी। सारी दुनिया की आबादी पतंजलि के जमाने में दो करोड़ से ज्यादा न थी, सारी दुनिया की आबादी। और अब तो दो करोड़ का कोई हिसाब ही नहीं है। डेढ़ लाख और दो लाख आदमी हम रोज बढ़ा लेते हैं। दो करोड़ तो हम महीनों में पैदा करते हैं।
हिन्दुस्तान-पाकिस्तान बंटा था, जितने लोग पाकिस्तान में गए थे, जिन्ना की आत्मा को हमें खबर कर देना चाहिए कि तुम बड़ी भूल में पड़े हो, उतने ही आदमी हमने फिर से पैदा कर लिए। हिन्दुस्तान उतना का उतना है। आदमी हमने कम नहीं होने दिये। हमने उतने आदमी पैदा कर लिए। तुम कितने ही पाकिस्तान काटो, हम दस साल में वापिस उतने आदमी पैदा कर लेंगे।
पतंजलि के जमाने में ब्रह्मचर्य का जो उपाय था, वह कोई जनसंख्या कम करने के लिए नहीं था। वह कुछ लोग जो जिंदगी के साथ प्रयोग करना चाहते थे, उनके लिए था। अब जब गांधी और विनोबा उस उपाय की बात इस बढ़ती हुई जनसंख्या को रोकने के लिए करते हैं, तब बड़ी हैरानी मालूम पड़ती है। गांधी जी अपने आश्रम के लिए सब लोगों को ब्रह्मचर्य के लिए राजी नहीं कर पाते। गांधी जी के आश्रम में भी, वैविचार की घटनाएं घट जाती हैं। इस पूरे मुल्क की तो बात छोड़ो। गांधी जी के सैक्रेटरी भी कोई स्त्री को लेकर भाग जाते हैं, पूरे मुल्क का तो हिसाब छोड़ें। गांधी जी जिनको कसमें दिलवाते हैं, वह भी प्रेम में पड़ जाते हैं।
अभी सरदार पृथ्वी सिंह मेरे पास आए। वी कह रहे थे कि जब मैं गांधी जी के आश्रम में गया, तो उन्होंने कहा कि आश्रम में सब स्त्रियों को बहन और मां और बेटी ही मानना है। इसकी कसम खा लो। वह बेचारा पृथ्वी ंिसंह, हिम्मतवर आदमी है, उसने कसम खा ली। और अपनी कसम पाली। लेकिन पीछे मीरा बहन, उसके प्रेम में पड़ गईं। गांधी जी को मीरा के बड़े शुभाशीष उपलब्ध थे और जब मीरा ने कहा कि मैं पृथ्वी सिंह के बिना जी नहीं सकती, तो गांधी जी ने पृथ्वी सिंह को बुला कर कहा कि तुम विवाह कर लो, तो पृथ्वी सिंह ने कहा कि आप कैसी बात करते हैं ? जब मैंने कसम खा ली, तो अपनी मां से विवाह करूं, कि अपनी बहन से, कि अपनी बेटी से। किससे विवाह करूं ? गांधी जी ने कहा, छोड़ो वह कसम, तो पृथ्वी ंिसंह ने कहा कि यह असंभव है। कसमें छोड़ी नहीं जाती। गांधी जी ने बहुत फुसलाने की कोशिश की तो एक रात पृथ्वी सिंह चुपचाप आश्रम से निकल भागे, कि कहीं वह फुसला ही न लें।
गांधी जी का आश्रम हो कि विनोबा का आश्रम हो, प्रेम एक सहज घटना है, और ब्रह्मचर्य एक असहज साधना है। चालीस-पचास करोड़ लोग ब्रह्मचर्य को साधेंगे, इस पागलपन में पड़ने की जरूरत नहीं है। लेकिन बर्थ कन्ट्रोल के यह खिलाफ हैं। क्योंकि वह नया साधन है। ब्रह्मचर्य पर शक करें तो बर्थ कन्ट्रोल पर राजी हो सकते हैं। लेकिन ब्रह्मचर्य पर जब पक्का भरोसा है, तो बर्थ कन्ट्रोल पर कैसे राजी हो सकते हैं। हमारा चिंतन पुराने को इतने जोर से पकड़ता है कि नए के लिए गुजाइश नहीं बचती कि वह प्रवेश कर जाए। और जिंदगी की रोज नई परिस्थितियों में, नए सब कुछ नये साधन खोज लेने पड़ते हैं। विज्ञान नए की खोज है। और जिसे हम धर्म कहते हैं, वह पुराने की पकड़ है। इसलिए जितना जोर से हम विश्वास घिरे रहेंगे, उतने ही अधिक दिनों तक हमारी मुसीबत और हमारे दुर्भाग्य का कोई अंत नहीं होगा। हिन्दुस्तान के अतीत की सारी पराजय, हिन्दुस्तान के अतीत की सारी दासता, हमारे अवैज्ञानिक होने के ऊपर आधारित है।
जब सिकन्दर हिन्दुस्तान आया, तो वो घोड़ों पर सवार था। और पौरस लड़ने गया वह हाथियों पर सवार था। हाथी बहुत पुराना ढंग था लड़ाई का। सिकंदर से पोरस की जीत मुश्किल है। पोरस हो सकता है सिकन्दर से ज्यादा ताकतवर हो, लेकिन .ज्यादा वैज्ञानिक नहीं है। घोड़ा हाथी से बहुत वैज्ञानिक है। कम जगह घेरता है, तेजी से चलता है, गति करता है, दौड़ता है, बचाव करता है। हाथी बारात के लिए बहुत अच्छा, बारात निकालनी हो, या किसी साधु-महात्मा का जुलूस निकालना हो, तो हाथी से बढ़िया कुछ भी नहीं है। लेकिन युद्ध के मैदान पर हाथी बेमानी है। सिकन्दर के सिपाही जो कपड़े पहनकर आए थे, वह वैज्ञानिक थे। पोरस के सिपाही जो कपड़े पहन कर गए थे, वह वैज्ञानिक नहीं थे। लड़ने के लिए और तरह के कपड़े चाहिएं। लड़ने के लिए ऐसे कपड़े चाहिएं, जो शरीर पर कसे हों, ढीले न हों, लड़ने के लिए ऐसे कपड़े चाहिए, जिनका पता भी चले कि शरीर पर हैं, इतने कसे हों। अगर ढीले-ढाले कपड़े पहनने हों, प्रार्थना के लिए, मेरे जैसे कपड़े, अगर प्रार्थना करनी हो तो बड़े बढ़िया हैं। लेकिन अगर युद्ध पर लड़ने इन कपड़ों में जाना है, तो घर बता कर जाना चाहिए कि हारने के लिए तैयार रहना। हम हारने जा रहे हैं, लड़ने नहीं जा रहे हैं।
पोरस के सिपाही अवैज्ञानिक कपड़े पहने हुए थे। हिन्दुस्तान में ही लड़ते थे तो ठीक था, क्योंकि दूसरी तरफ भी वही कपड़े पहने हुए लोग थे। हिन्दुस्तान में लड़ते थे तो ठीक था, वह उस तरफ भी हाथी थे, इस तरफ भी हाथी थे। जिसके पास .ज्यादा थे, वह जीत जाता था। जब हम दूसरी कौमों से लड़े, तब हमको पता चला कि यह काम नहीं चलेगा। जो घोड़े पर लड़ने आया है, उससे हाथी से नहीं लड़ा जा सकता। जब अंग्रेजों से हम लड़े, तब भी वही गलती की। अंग्रेज हैं विकसित, तोपें और बंदूकें लेकर आए। हमारे पास विकसित तोपें और बंदूकें न थी। अभी हम चीनियों से हार कर बैठ गए हैं। हालांकि जब चीनियों से हम लड़ रहे थे, तो हमने इतनी कविता पैदा की कि अगर हमारे सिर्फ कवि ही लड़ने चले जाते तो भी हम जीत जाते। इतनी कविता लिखी गई, कि मैं तो हैरान हो गया। घर-घर में कवि पैदा हो गए। और हर आदमी कविता करने लगा और कहने लगा कि हम सोए हुए सिंह है हमें छेड़ो मत। मैंने कई सिंहों से पूछा कि कभी किसी सिंह ने यह कहा है कि हम सोए हुए हैं, हमें छेड़ो मत। छेड़ो और पता चल जाता है। कहने की कोई जरूरत नहीं होती। कोई सिंह कविता नहीं करता, छेड़ो और पता चल जाता है कि सिंह को छेड़ दिया। लेकिन हम बड़े अजीब सिंह हैं,ं हम सब कविताएं कर रहे हैं, और हमने इतनी कविताएं की कि माओ भी शायद घबराया होगा, कि पता नहीं, इनके पास कोई आध्यात्मिक ढंग तो नहीं है, लड़ाई का। इतनी कविताएं कर रहे हैं, कविताओं से कोई तंत्र-मंत्र तो नहीं कर रहे हैं। लेकिन हम हारे बुरी तरह। और जब हम हार गए, और सैंकड़ों मील जमीन चीन के कब्जें में चली गई, तब वो कवि कहां हैं ? उनमें से कुछ पद्मभूषण हो गए। कोई भारत रत्न होने की कोशिश दिल्ली में कर रहे होंगे, लेकिन वह साए हुए सिंह कहां हैं, जिन्होंने कविताएं की थी। और उस जमीन का क्या हुआ ? पंडित नेहरू तक ने पीछे कहा है कि वह जमीन बेकार है। उसमें घास भी नहीं उगता। अगर पहले ही मालूम है तो कौन-कौन सी जमीन बेकार है, वह सब दे दो, फिजूल के झगड़े क्यों करते हो। अगर जमीन बेकार थी तो मुल्क के जवानों को क्यों कटवाया ? अगर जमीन बेकार थी तो खून क्यों गिराया ? और अगर जमीन बेकार थी तो माओ को इतनी तकली.फ क्यों दी ? कष्ट क्यों दिया, दुश्मनी क्यों की ? मित्रता भी रहती, जमीन भी देते। और अभी भी मुल्क में बहुत जमीन बेकार पड़ी हुई है, इसलिए सावधान होना जरूरी है। जिसमें घास भी नहीं उगता, उसको दे दो। कल फिर घास उगने वाली दे देना। क्योंकि सिर्फ घास ही उगता है। और परसों गंेंहूं उगने वाली भी दे देना, क्योंकि गेहूं भी घास की एक किस्म है। और क्या है ? आदमी अपने को समझाने की कैसी तरकीबें निकालता है?
हम हारते रहे निरंतर, और जब हम अपने नेताओं से पूछें कि हार का कारण क्या है ? तो वह कहते हैं फूट। फूट हार का कारण नहीं है। झूठी है यह बात। फूट हार का कारण नहीं है। हार का कारण है, नाॅन-टेक्नाॅलाॅजिकल माइंड। हार का कारण है, अवैज्ञानिक, तकनीक विरोधी मन। लेकिन इसको वह कैसे कहें ? क्योंकि वह चरखे के प्रस्तोता हैं। वह कहते हैं चरखा चलाओ, हल जोतो, घर-घर छोटा-छोटा अपना काम करो। खुद अपने कपड़े धोओ, खुद खाना बनाओ, खुद खाना पैदा करो। एक-एक आदमी को स्वावलंबी बनाने की चेष्टा में जो लोग लगे हैं, वह राष्ट्र को स्वावलंबी न बना सकेंगे, ध्यान रखना। ध्यान रहे कि आदमी का सारा विकास परावलंबन से हुआ है। हम एक-दूसरे पर जिस मात्रा में निर्भर होते हैं, उतने विकसित होते हैं। अगर एक-एक आदमी स्वावलंबी हो जाए, अपना कपड़ा बनाए, अपना खाना पैदा करे, तो बस वह कपड़ा और खाना ही पैदा कर ले पूरी जिंदगी में तो बहुत है। कपड़ा भी पूरा नहीं होगा, कभी टांग उघड़ जाएगी, कभी सिर उघड़ जाएगा। और खाना भी कभी पूरा नहीं होगा। कभी सुबह की जून मिलगा, कभी सांझ की जून मिलेगा। जगत का सारा विकास जो है, वह इंटरडिपेंडेंस है। वह स्वावलंबन नहीं है। हम एक-दूसरे पर जितना निर्भर होते हैं, उतना विकास होता है। और हम एक-दूसरे पर जितने निर्भर होते हैं, उतनी एकता पैदा होती है। हिन्दुस्तान एक नहीं हो सका वर भी टैक्नोलाॅजिकल विकास के रूकने की वजह से हुआ। अगर हिन्दुस्तान आगे भी गांव का देश रहेगा, तो एक नहीं हो सकता। क्योंकि एक होने के कारण नहीं हैं। एक गांव अपने भीतर जीता है। उसको कोई मतलब नहीं दूसरे गांव से। अगर दिल्ली हार जाए, तो एक छोटे गांव को क्या फर्क पड़ता है ? कोई फर्क नहीं पड़ता। दिल्ली पर उसकी जिंदगी निर्भर नहीं है। और एक गांव अपना खाना बना लेता है, अपना कपड़ा पैदा कर लेता है। अपना चमार है उसके पास, अपना बढ़ई है उसके पास। वह गांव राष्ट्र का हिस्सा नहीं वह गांव खुद ही एक राष्ट्र है। इसलिए तो हमारे मुल्क में कई तरह के राष्ट्र हैं, राष्ट्र के भीतर, महाराष्ट्र भी है। अब बड़ा खतरा है। जब राष्ट्र के भीतर महाराष्ट्र हो, तो बहुत खतरा है। पचास राष्ट्र हैं इसके भीतर, असल में एक-एक गांव अपनी हैसियत रखता है। फिर एक-एक जाति अपनी हैसियत रखती है। और सब स्वावलंबी हैं। और एक-एक आदमी स्वावलंबी है। और अभी भी हम समझाए जा रहे हैं, स्वावलंबन। स्वावलंबन ने हमें हराया। स्वावलंबन ने हमें मारा। गांव की छोटी अपनी हैसियत ने कभी इस मुल्क को बड़ी हैसियत न दी। कभी ये मुल्क इकट्ठा न हो सका और ध्यान रहे जब हम इकट्ठे होते हैं तो टैक्नोलाॅजी बदलनी चाहिए। जैसे-अगर बैलगाड़ी की दुनिया हो, तो बड़ा राष्ट्र पैदा नहीं हो सकता। बैलगाड़ी की दुनिया में छोटे-छोटे राष्ट्र ही हो सकते हैं। और अगर बैलगाड़ी की दुनिया हो तो ब्राह्मण और शूद्र को एक नहीं किया जा सकता। क्योंकि ब्राह्मण अपनी बैलगाड़ी में बैठा है, कोई जबरजस्ती नहीं कर सकता कि शूद्र को अपनी गाड़ी में बैठाया जाए। लेकिन रेलगाड़ी में ब्राह्मण और शूद्र एक हो जाएंगे। क्योंकि रेलगाड़ी में ब्राह्मण नहीं कह सकता कि मैं बैठा हूं तो शूद्र न चढ़े। रेलगाड़ी आएगी तो वर्ण व्यवस्था टूट जाएगी। बुद्ध समझाए नहीं टूटी, महावीर समझाए नहीं टूटी, हिन्दुस्तान के सब ब्रह्मज्ञानी कहते रहे कि सबमें ब्रह्म है, नहीं टूटी। रेलगाड़ी आई और टूटी। टैक्नोलाॅजी बदलती है तो समाज की व्यवस्था बदलती है। अगर आज जब इतने बड़े जेट प्लेन हमारे पास हैं, जो कि सारी जमीन में घंटेभर में घूम जाएं, आधा घंटे में घूम जाएं, तब ध्यान रहे दुनिया में राष्ट्र ज्यादा दिन जिन्दा न रह पाएंगे। यह दुनिया एक ग्लोबल विलेज हो गई है। एक बड़ा गांव हो गई है। अब अगर हम, इतने बड़े जैट हमने विकसित कर लिये हैं, जो कि पृथ्वी पर आधा घण्टे में चक्कर लगा लेते हैं, तो अब ये पृथ्वी अलग-अलग नहीं रह सकती। जितनी टैक्नोलाॅजी विकसित होती है, उतना आदमी निकट आता है, और बड़े समूह इकट्ठे होते हैं। हमारी टैक्नोलाॅजी अविकसित है, इसलिए हम इकट्ठे भी नहीं हो पाए। और आज भी अविकसित है। आज भी हिन्दुस्तान गांवो का देश है, और आज भी, हिन्दुस्तान के पास पांच हजार साल पुराने, तकनीक हैं, और उनकी प्रशंसा किये चले जा रहे हैं, कि चरखा कातना कोई गौरवपूर्ण काम है। चरखा कात रहा है हमारा नेता। और हमारा नेता जब चरखा कातता है तो कैमरामैन को जरूर बुला लेता है, क्योंकि बाकी वक्त तो वो चरखा कातता नहीं, जब चरखा कातता है तो फोटोग्राफर को बुला लेता है। और पूरी अदा से चरखा कात कर बता देता है। फिर भूल-भाल जाता है। कुदाली उठा के चला देता है। चांदी की कुदाली बनाई हैं, नेताओं ने, चांदी की कुदालियों से कोई मतलब है ? लेकिन फोटो उतरवाने के लिए चांदी की कुदाली बहुत अच्छी है। ऐसे ही कुदाली अब बेमानी है। इस देश के लिए अपनी पुरानी व्यवस्था पर सन्देह पैदा हो, पूराने टैक्नीक पर, पुराने विश्वासों पर, पुरानी मान्यताओं पर, तो हम कोई भी कारण नहीं है कि बीस वर्ष में एक माॅडर्न, एक आधुनिक देश न बन जाएं। और जब तक हम आधुनिक देश नहीं बनते हैं, तब तक हमारे दुर्भाग्य का अंत नहीं होता। लेकिन आधुनिक होने में एक बड़ी जिझ पैदा हो गई है। वो मैं थोड़ा आपसे बात करना चाहूंगा।
हमें एक बड़ी कठिनाई हो गई है, और वो कठिनाई ये हुई, कि अंग्रेजों से लड़ने के कारण, पश्चिम के प्रति हमारे मन में एक विरोध पैदा हो गया। और माॅडर्न और वैस्टर्न के बीच एक भ्रांति पैदा हो गई। जो पश्चिमी है, वो आधुनिक भी है। और चूंकि पश्चिम से हमारे मन में एक खिलाफत है इसलिए आधुनिक से भी हमारे मन में एक खिलाफत है। लेकिन हमें इसमें फर्क करना सीखना पड़ेगा। हमें जानना पड़ेगा आधुनिक और बात है, पाश्चिमात्य और बात है। और अगर पश्चिम ने आधुनिक को स्वीकार किया है, इसलिए हमने अगर पश्चिम के कारण आधुनिक को इंकार किया तो, हम आत्महत्या कर लेंगे। हम बच न सकेंगे। आज हर ची.ज में हम विरोध करते हैं, अगर हमारा लड़का आधुनिक कपड़े पहनता है, तो हम कहते हैं यह पश्चिमी ढंग इख्तियार कर रहा है। अगर हमारा गांव आज आधुनिक चीजों का प्रयोग करता है, तो हम कहते हैं यह वैस्टर्नाइज हो रहा है। हम माॅडर्न और वैस्टर्न में फर्क नहीं कर पा रहे। यह दोनों अलग चीजें हैं। माॅडर्न होना एकदम जरूरी है, अन्यथा हम टिक न पाएंगे जमीन पर। क्योंकि पिछले तीन सौ वर्षों में, सारी पृथ्वी धीरे-धीरे रूपान्तरित हो गई है। हम अरूपांतरित छूट गए हैं। हम एक आइलैंड बन गए हैं, जो रूपांतरित नहीं हुआ, और अब हमें रूपांतरित होने में भी भय लगता है। यह डर लगता है कहीं पश्चिम हमारी आत्मा पर हावी न हो जाए। कहीं पश्चिम हमें न पकड़ ले। इसी संबंध में मैं तीसरा सूत्र कहना चाहता हूं, जिसने भारत को दुर्भाग्य दिया। फिर मैं अपनी बात पूरी करूं। भारत निरंतर अपनी आइडेंटिटि अतीत से जोड़ रहा है, भविष्य से नहीं। हम सदा पीछे की तरफ देखते हैं, हम पूछते हैं भारत यानि क्या ? तो हम पीछे की तरफ देखते हैं। जब हम पूछते हैं भारतीयकरण तो हम पीछे की तरफ सोचते हैं। जब हम भविष्य के भी संबंध में बात करते हैं, तब भी हम अतीत के ही प्रतिकों को ले आते हैं। अगर हमें भविष्य में भी कोई समाज बनाना है, तो उसको भी हम रामराज्य का नाम देना पसन्द करते हैं। हम भविष्य की तरफ सोचते ही नहीं। हमारा भविष्य की तरफ कोई दृष्टि नहीं है। सिर्फ अतीत को पुनरूक्त करने को हम भविष्य माने बैठे हैं। अतीत की पुनरूक्ति नहीं हो सकती, समय पीछे नहीं लौटता, पूरी कौम भी कोशिश करे तो पीछे नहीं लौटता। जैसे बच्चा मां के पेट में वापस नहीं जा सकता, ऐसे कोई कौम पीछे लौटके अतीत में नही जा सकती। जहां से हम गुजर गए, गुजर गए सदा के लिए। जहां से हम निकल गए, निकल गए सदा के लिए। वहां कभी जाना नहीं हो सकता और ध्यान रहे, अगर पहुंच जाएं किसी तरकीब से, तो आज जितना दुःख है, इससे भी बड़े दुःख में पहुंच जाएंगे। अगर कोई जवान किसी तरकीब से, वैज्ञानिक व्यवस्था से, मां के गर्भ में वापस पहुंच जाए, तो जो दुःख पाएगा, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है।
बूढ़े अक्सर कहते सुने जाते हैं कि बचपन बहुत अच्छा था। लेकिन अगर कोई वैज्ञानिक टैक्नीक खोजा जा सके, और बूढ़ों को बच्चा बनाया जा सके, तो वह फौरन इंकार करेंगे, वो कहेंगे, हमको नहीं होना बच्चा। और अगर बच्चा हो जाएंगे तो, रोएंगे और हाथ-पैर जोड़ेंगे, कि हमें वापस जो थे, बना दो। क्योंकि बच्चा अच्छा था, यह बूढ़े की स्मृति है। अगर बूढ़े को बच्चा होना पड़े तब उसे तकलीफें पता चलेंगी कि बच्चे होने की तकलीफें क्या हैं ? कोई बच्चा, बच्चा होने में प्रसन्न नहीं है। सब बच्चे जल्दी बड़ा होना चाहते हैं। बच्चे बड़े होने की अनेक तरह की कोशिशें करते हैं।
मैं एक दिन एक पोस्ट आॅफिस के पास सुबह घूमने निकला था। एक छोटा सा बच्चा, मुंह में सिगरेट दबाए, छोटी सी मूंछ लगाए, हाथ में छड़ी लेके चल रहा था। मुझे देखा तो एक वृक्ष के नीचे भाग कर छिप गया। मैं उसके पीछे भागा, पीछे पहुंचा, जल्दी से उसने अपनी मूंछ निकाल कर खींसे में रख ली। मैंने कहा, तू यह क्या कर रहा है ? क्या बात है ? पर तू लग बहुत अच्छा रहा है। तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा कि मेरे डेडी जैसी मूछ लगा कर, और सिगरेट पी रहा था। और छड़ी लेकर चल रहा था। अब इस बच्चे को...। अधिकतम बच्चे, सिगरेट पीेते हैं, सिर्फ इस रस में, कि सिगरेट पी के आॅथोरिटी, और बड़े होने का मजा आता है। शायद ही कोई ऐसे बच्चे हों, जो सिगरेट सिगरेट के लिए पीते हों, अधिक बच्चे सिगरेट पीना शुरू करते हैं, क्योंकि सिगरेट के साथ युवा होने की, ताकतवर होने की, शक्तिशाली होने की बात जुड़ी है। बड़े अकड़के सिगरेट पी रहे हैं। तो छोटे भी एक कोने में जाकर अकड़ के सिगरेट पीकर बड़े हो जाते हैं। बच्चे बड़ा होना चाहते हैं, बूढ़े बचपन की याद कर रहे हैं। कोई बूढ़ा बच्चा होने के लिए राजी नहीं होगा, अगर किया जा सके तो। लेकिन हम इसी भाषा में सोचते हैं, पीछे-पीछे-पीछे, भविष्य की कोई आइडेंटिटी, कि ये देश भविष्य में कैसा हो, हमारे पास में इसके कुछ कारण हैं। हमने अपने देश के चित्त की जो विभाजन रेखा बनाई है, वो अतीत उन्मुख है। वो पास्ट ओरिएनटेड है। वो यूचर ओरिएनटेड नहीं है। पहले कलयुग बाद में सब कुछ अच्छा था, सब अच्छा पहले, सब बुरा बाद में। हमारे मुल्क में पतन हो रहा है, सारी दुनिया में विकास हो रहा है। हमारा पतन हो रहा है। अच्छे लोग हो चुके हैं, अच्छे तीर्थंकर, अच्छे अवतार, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर सब हो चुके। और आगे, आगे सिवाय शैतानों के और किसी के होने के लिए कोई उपाय नहीं है। आगे अंधेरा है। स्वर्ण युग बीत चुके। आगे तो सिर्फ पाप और नर्क है। पश्चिम की दृष्टि भिन्न है, वह समझ लेनी जरूरी है। वो यूचर ओरिएनटेड है। उटोपियन है। उनका उटोपिया, आगे आने वाला है, उनकी गोल्डन ऐज आगे आने वाली है। हमारी गोल्डन ए.ज बीत चुकी। इसको बदलना पड़ेगा। अगर किसी कौम के मन में यह ख्याल है, कि हमारा स्वर्ण युग पीछे बीत चुका, तो अब आगे क्या करना है ? सिर्फ बैठके दुर्भाग्य की प्रतीक्षा करनी है। नहीं, स्वर्ण युग सदा आगे ही होना चाहिए। और ध्यान रहे, स्वर्ण युग सदा आगे रहे तो ही विकास होता है। अगर हमें आगे कुछ अच्छा निर्मित करने की संभावना है, और हमें आगे कुछ आशा है, भरोसा है, कल्पना है, योजना है, तो हम उसे निर्मित कर लेंगे। और अगर कोई निर्माण की योजना आगे नहीं है, और हम सिर्फ पीछे देखने वाले लोग हैं, तो हम आगे भी दुर्भाग्य की कथा को लिखते जाएंगे और जब दुर्भाग्य आएगा, तब हम प्रसन्न होकर कहेंगे कि हमारे शास्त्रों ने पहले से ही कहा है कि कलयुग आ रहा है। पहले ही हमें पता है कि यह होने वाला है। दुर्भाग्य हम रचेंगे और शास्त्रों की गवाही हम बनेंगे। नहीं, ऐसे शास्त्रों से चाहिए छुटकारा। ऐसे विश्वासों से चाहिए मुक्ति, जो देश को भविष्य उन्मुख होने से रोक रहे हैं। नहीं कृष्ण से भी बेहतर कृष्ण हम भविष्य में पैदा करेंगे। और राम से भी बेहतर रामों की भविष्य में सम्भावना है। जगत चुक नहीं गया। और समय व्यर्थ नहीं हो गया, अगर परमात्मा पीछे बुद्ध और महावीर पैदा कर सकता है तो आगे और भी बेहतर बुद्ध और महावीर पैदा कर सकता है। आगे शून्य नहीं है, आगे इन्पोटेंस नहीं है। आगे सब निर्विचार नहीं हो गया है। आगे हम रोज और शक्तिशाली हो सकते हैं। एक बार यह भरोसा और, एक बार यह दृष्टि और एक बार यह स्वप्न, यह उटोपिया देश के मन को पकड़ ले और देश भविष्य उन्मुख हो जाए, तो इस देश के सौभाग्य की कहानी शुरू हो सकती है।
यह तीन बातें मैंने कहीं। इन तीन बातों को आपसे मानने के लिए नहीं कहा है कि मैं जो कहूं वह आप मान लेंगे। मानने का मैं विरोधी हूं। मैंने जा कहा है, उसे सोचेंगे, शक करेंगे, तर्क करेंगे, संदेह करेंगे। और जो उसमें कचरा हो, उसे यहीं छोड़ जाएंगे, उसे साथ भी नहीं ले जाएंगे। अगर कहीं सोच में, विचार में, तर्क करने, संदेह करने से कोई, एकाध बात भी, ठीक मालूम पड़ जाए, तो वह बात आपकी हो जाएगी, वह मेरी नहीं रह जाएगी। और जो सत्य आपका अपना हो जाता है, वह जीवन में सक्रिय हो जाता है।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुग्रहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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