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रविवार, 26 अगस्त 2018

गूंगे केरी सरकरा-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात)

दिनांक 12-01-1975 , ओशो आश्रम पूना।

सूत्र:

आतम अनुभव ग्यान की, जो कोई पूछै बात।
सो गूंगा गुड़ खाइके, कहै कौन मुख स्वाद।।
जो गूंगे के सैन को, गूंगा ही पहचान।
त्यों ग्यानी के सुक्ख को, ग्यानी होय सो जान।।
लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात।
दुलहा दुलहिन मिल गए, फीकी पड़ी बरात।।
जो देखै सो कहै नहिं, कहै सो देखे नाहिं।
सुनै सो समझावै नहीं, रसना दृग श्रुति काहि।।
भरो होय सो रीतई, रीतो होय भराय।
रीतो भरो न पाइए, अनुभव सोइ कहाय।।
ऐसो अ˜ुत मत कथो, कथो तो धरो छिपाय।
वेद कुराना ना लिखी, कहूं तो को पतियाय।।

एक-एक शब्द में गहरे चलें।
कहावत है ‘सागर को गागर’ मे भरने की; कबीर ने वही किया है..विराट को छोटे-छोटे शब्दों में समाया है। साधारण बोलचाल के शब्द हैं, पर कबीर ने बड़े अनूठे अर्थोंं की कलमें उन पर लगाई हैं। सुन कर ऐसा लगेगा कि सब परिचित है। सतह शब्द की परिचित भला हो, गहाराई परिचित नहीं है। और एक-एक शब्द अनंत यात्रा पर ले जा सकता है।
‘आतम अनुभव ग्यान की, जो कोई पूछे बात। सो गूंगा गुड़ खाइके, कहै कौन मुख स्वाद।।’
आत्मा, अनुभव, ज्ञान..
वस्तुओं का ज्ञान भी हो सकता है, लेकिन वह ज्ञान बाहर से होगा। हम वस्तुओें के चारों तरफ परिक्रमा कर सकते हैं और
मंदिर में तुम जाते हो तो परमात्मा की परिक्रमा करते हो; वह परिक्रमा भी बाहर से है, इसलिए झूठी हो गई। बाहर से हम कितना ही जान लें तो भी भीतर से कोई अनुभव उस जानकारी से न होगा। जब तक कि हम किसी वस्तु के प्राणों के प्राण में प्रवेश न पा जाएं, तब तक हमारी जानकारी सतह की होगी..जैसे कोई सागर को जाए देखने और लहरों को देख कर लौट जाए। लहरों के नीचे छिपा है सागर और उसकी गहराई, और उसके सारे खजाने। लहरों पर तो सिर्फ झाग है..कलह की, संघर्ष की, युद्ध की, वैमनस्य की। लहरों पर तो सिर्फ उपद्रव, तूफान है; असली सागर तो गहरे में छिपा है।
पर उस सागर को जानने का एक ही उपाय है कि कोई डुबकी लगाये, गहरे में जाये। और डुबकी एक ही लग सकती है..वह, अपने में। क्योंकि दूसरे में हम कितनी ही डुबकी लगायें, हम कभी दूसरे की आत्मा को स्पर्श न कर पायेंगे; बाहर-ही-बाहर हमारी परिक्रमा होगी। इसलिए सागर को भी पूरा जानना हो तो डुबकी ही काफी नहीं है; सागर के साथ मिल जाना होगा..जैसे नमक की डली को कोई सागर में डाल दे और नमक पिघले और सागर के साथ एक हो जाये..तभी सागर की अनंत गहराई का पता चलेगा।
तो ऐसा अनुभव, ऐसा ज्ञान तो सिर्फ अपना ही हो सकता है, दुसरेे का नहीं। दुसरे के तो हम सदा बाहर ही होंगे। किसी को हम प्रेम भी करें, तो भी उस प्रेम में हम उसके भीतर अंतरतम तक नहीं पहुंच पायेंगे; फिर भी हम बाहर ही होंगे, सीमा के बाहर होंगे।
यही तो तकलीफ प्रेमियों की है कि प्रेमियों को जितना लगता है कि करीब आ गये, उतना ही दूरी का पता चलता है। जैसे-जैसे करीब आते हैं, वैसे-वैसे लगता है, करीब होना असंभव है। दूरी तो बनी ही रहेगी। दूसरे से दूरी बनी ही रहेगी। इसलिए प्रेम कभी भी
दूसरे के साथ तृप्त नहीं होता, जब तक कि प्रेम परमात्मा के साथ न हो जाये; क्योंकि वह तुम्हीं हो, वह दूसरा नहीं है। वहां दूरी पूरी मिट जाती है। वहां एका पूरा सध जाता है। ऐसे अनुभव को कबीर कहते हैं ज्ञान। और ऐसा अनुभव तो केवल आत्मा का ही हो सकता है।
आत्मज्ञान ही एकमात्र ज्ञान है; शेष सब ज्ञान जानकारी है, इनफॉरमेशन है। ज्ञान तो वही जो मैंने चखा हो। और यह अनुभव के बिना न होगा।
बहुत-सी बातें हैं, दूसरे बता दें, अनुभव की कोई जरूरत नहीं है। इस संसार के संबंध में हम जो भी जानते हैं, वह दूसरों का बताया हुआ है। वैज्ञानिक बताते हैं तो विज्ञान हमारे हाथ आ जाता है; भूगोलविद् बताते हैं तो हम जान लेते हैं, हिमालय कहां है, तिब्बत कहां है..जानकारी हो जाती है।
संसार के संबंध में दूसरे के बताये हुए से काम चल जाता है; अपने संबंध में किसी का बताया हुआ काम न चलेगा। अपने संबंध में जो भी दूसरा बतायेगा, वह झूठा ही होगा। तो तुमने जितना जान लिया हो उपनिषद् से, वेद से, कुरान, बाइबल से, संतों से, ज्ञानियों से..अपने संबंध में उस पर भरोसा मत करना, क्योंकि तुम पराए नहीं हो। तुम्हारे संबंध में कोई दूसरा बताये, यह बात ही बड़ी बेहूदी है। तुम खुद अपने को भी न जान सको, इससे ज्यादा असमर्थता और क्या होगी? और तुम अपने कोे ही न पहचान सको, इससे ज्यादा अंधापन क्या और होगा? और क्या तुम इतने अंधेरे में डूबे हो कि तुम्हारे संबंध में भी बताने को कोई और चाहिए? कोई बताये कि तुम हो? अगर इसकी जरूरत पड़ती है तो साफ है कि तुम्हें अपने होने का भी कोई पता नहीं है। और दूसरा यह पता कैसे दे सकेगा? इसका कोई उपाय नहीं है, जब तक कि तुम्हीं अनुभव में न उतर जाओ।
गुरु इशारे कर सकता है कि कैसे तुम अपने में जाओ; तुम्हारे संबंध में कुछ बता नहीं सकता। तुम्हें ला कर खड़ा कर सकता है नदी के तट पर; पानी तो तुम्हें ही पीना पड़ेगा। और पानी पीओगे तो जो प्यास बुझेगी, वह अनुभव है।
पानी के संबंध में मैं तुम्हें बता दूंगा; पानी की सारी केमिस्ट्री समझा दूंगा कि कैसे पानी ऑक्सीजन-हाइड्रोजन से मिल कर बनता है; कि पानी की कितनी दशायें हैं; कि पानी कितनी डिग्री पर बर्फ हो जाता है, कितनी डिग्री पर भाप बन जाता है। सब तुम्हें बता दूंगा पानी के संबंध में, लेकिन बताया हुआ तुम्हारी प्यास को न बुझायेगा; तुम्हारा कंठ जलता ही रहेगा। कितनी ही जानकारी होगी; कंठ से उतार भी लोगे भीतर तो भी कंठ की प्यास न बुझेगी।
पानी के संबंध में कितना ही बताया जाये, उससे प्यास का कोई संबंध नहीं जुड़ता। इशारा समझ जाओ, पानी खोज लो और पीओ, कि जो पीकर प्रतीति होगी..वह जो कंठ शीतल हो जायेगा; वह जो जलन मिट जायेगी; वह जो विरह की अग्नि थी, वह खो जायेगी; वह जो बेचैनी थी, वह शांत हो जायेगी; तुम्हारे भीतर एक शांति, एक तृप्ति, एक संतोष का उदय होगा..वह अनुभव कोई भी दे नहीं सकता। तुम्हीं उस अनुभव को चाहो तो पा सकते हो। औैर तब तक तुमने यही कोशिश की है कि कोई और दे दे। तुम इतना भी कष्ट नहीं उठाना चाहते कि पानी पीओ। प्यास तुम्हारी है, मेरा पानी केैसे काम आयेगा? तुम्हें अपना पानी खोजना ही पड़ेगा।
इसलिए समस्त ज्ञानी कहते हैं कि अनुभव के अतिरिक्त और कोई ज्ञान नहीं है। और अगर अनुभव के अतिरिक्त तुमने कुछ ज्ञान इकट्ठा कर लिया तो जितनी जल्दी हो उससे छुटकारा पा लेना। जितनी देर वह बोझ तुम्हारे सिर पर रहेगा, उतनी देर तक तुम सरोवर की तलाश में न निकलोगे, क्योंकि तुम धोके में हो। तुम सोचते हो, बिना जाने तुमने जान ही लिया है; बिना पीये तुमने पी ही लिया है; बिना पाये तुमने पा ही लिया है। यह संभव नहीं है।
कबीर कहते हैं: ‘‘लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात।’’ कितना लिखा पड़ा है ज्ञान के संबंध में! और बहुत-से लोग उस लिखे को ही पकड़ कर बैठ गये हैं।
कबीर जहां थे..काशी में, वहां तो पंडितों का जमाव था। चारों तरफ वे ही लोग थे, जो सोचते थे ‘लिखालिखी’ की है बात, और वे जो वेद, उपनिषद्, शास्त्रों के ज्ञाता थे, वे कबीर को अज्ञानी समझते थे। कबीर एक अर्थ में अज्ञानी हैं। अगर पंडित ज्ञानी हैं तो कबीर अज्ञानी हैं। लेकिन पंडित का ज्ञान क्या है? ..बातें करेगा आत्मा की, अमरता की; मौत आयेगी तो कंपेगा, रोयेगा, चीखेगा, चिल्लायेगा। सारी अमरता खो जायेगी मौत के मुकाबले..क्योंकि अमरता तो जानी नहीं; पदी थी, देखी नहीं थी; सुनी थी, किसी और ने कही थी; किसी और का अनुभव रहा होगा, अपना अनुभव न था।
जीवन की कसौटी में तुम तभी पूरे उतरोगे जब तुम्हारे पास अपने अनुभव का सोना हो, अन्यथा दूसरे के अनुभव का सोना तुम्हारे हाथ में आते ही पत्थर, मिट्टी हो जाता है; जीवन की कसौटी पर न उतरेगा। भला तर्क की कसौटी पर उतर जाये, भला विश्वविद्यालय तुम्हें उपाधियां दे दें; भला और लोग तुम्हें कहने लगें कि तुम जानकार हो, बड़े जानकार हो; लेकिन तुम अपने गहनतम में तो जानोगे ही कि तुमने जाना नहीं है; वहां तो दीया बुझा है, अभी ज्योति वहां प्रविष्ट नहीं हुई।
पंडित दूसरे को धोखा दे दे, अपने को कैसे धोका देगा?
तुम्हारा ज्ञान ऐसा ही है।
बुद्ध कहते थे कि एक आदमी था एक गांव में। वह बैठा हुआ अपने दरवाजे पर दूसरे लोगों की जाती-आती गाय-भैंसों को गिनता रहता था कि गांव मे कितनी गाएं, कितनी भैंस। सुबह गाएं जातीं जंगल की तरफ, सांझ को लौटती, वह सदा हिसाब रखता था; लेकिन एक रत्ती दूध भी उसके हाथ नहीं आता था उसके हिसाब से। तो बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे, तुम उस आदमी जैसे मत हो जाना। सभी पंडित उस आदमी जैसे हैं। वे दूसरों का हिसाब रख रहें हैं..वेद में क्या कहा है, कुरान क्या कहता है, बाइबिल के क्या वचन हैं? दूसरों की गाय-भैंसें गिनते-गिनते जीवन बीत जाये तो भी एक बूंद दूध की हाथ न आयगी। अपना अनुभव चाहिए।
कबीर कहते हैं: ‘आतम अनुभव ग्यान की, जो कोई पूछै बात। सो गूंगा गुड़ खाइके, कहै कौन मुख स्वाद।।’ और बड़ी कठिनाई यह है कि जिसने जान लिया है, वह भी तुम्हें देना चाहे तो नहीं दे सकता। तुम्हें ज्ञानियों की पीड़ा का कोई भी पता नहीं; तुम एक ही पीड़ा जानते हो..अज्ञानी की। ज्ञानी की पीड़ा यह है कि उसे पता चल गया है, वह जानता है, और तुम्हें देखता है भटकता हुआ और चाहता है कि तुम्हें सब दे दे, लेकिन कोई उपाय नहीं है।
‘सो गूंगा गुड़ खाईके, कहै कौन मुख स्वाद।’ वह गूंगे की भांति हो गया है। गुड़ तो चख लिया है; तुम्हें देख रहा है कि तुम भी गुड़ की तलाश में भटक रहे हो। तुम्हें देख रहा है कि तुम गिरते हो जीवन में दुख पाते हो, पीड़ा है, कष्ट है, संताप है; तुम्हें भी स्वाद मिल जाये तो तुम्हारा भी स्वर्ग का द्वार खुल जाये। वह चाहता है कि तुम्हें सहारा दे। वह चिल्ला कर तुम्हें कह देना चाहता है..बड़ा मीठा है। लेकिन जैसे गूंगा नहीं चिल्ला पाता..कंठ अवरुद्ध है, ओंठ बोलते नहीं..वैसे ही ज्ञानी भी कठिनाई में अपने को पाता है। वह गूंगे से भी बड़ी कठिनाई है। क्योंकि गूंगे का तो कोई इलाज हो सकता है; ज्ञानी का कोई इलाज नहीं हो सकता। क्योंकि वह कठिनाई न बोलने की है; शारीरिक कठिनाई नहीं है। शारीरिक कठिनाई होती तो इलाज हो सकता था। वह कठिनाई तो आत्मज्ञान के अनुभव के स्वभाव की है। वह ज्ञान ही ऐसा है कि कहा नहीं जा सकता। तुम भी जान लो तो ही तुम पहचान सकोगे। और अगर ज्ञानी कहने की चेष्टाएं भी करे तो सब चेष्टाएं असफल हो जाती हैं; न केवल असफल हो जाती हैं, बल्कि दुष्परिणाम लाती हैं। क्योंकि वह कहता कुछ और है, कहा कुछ और जाता है; कहना वह कुछ और चाहता था, शब्द कुछ और ले जाते हैं; पहुंचाना कुछ और चाहता था, जब तुम्हारी तरफ देखता है तो देखता है कि कुछ और पहुंच गया। तुमने कुछ और ही समझ लिया। इसीलिए तो इतने संप्रदाय खड़े हुए हैं। ज्ञानियों ने कहा था धर्म, बन गये संप्रदाय। ज्ञानियों ने जो कहा था, वह पहुंचा ही नहीं। तुम तक पहुंचते-पहुंचते ही झूठ हो जाता है सत्य। तुम जैसे ही सुनते हो, तुम उसमें संयुक्त हो जाते हो। तुम्हारा मन व्याख्याएं शुरू कर देता है। तुम अपने अर्थ रोप देते हो। तुम वही अर्थ कर लेते हो जो तुम करना चाहते हो। धर्म और संप्रदाय में यही भेद है।
ज्ञानी तो चेष्टा करता है धर्म को तुम तक पहुंचाने की; जो पहुंचता है वह संप्रदाय है। ज्ञानी तो चाहता था, तुम्हें मुक्त कर दे; जो घटना घटती है वह यह कि तुम और बंध जाते हो। एक और उपद्रव शुरू हो जाता है। ज्ञानी तो चाहता था कि तुम्हारे जीवन में प्रेम का आविर्भाव हो; लेकिन जब तुम्हारी तरफ देखता है तो पाता है कि तुम प्रेम के नाम पर ही युद्ध करने को तैयार खड़े हो।
ईसाई हैं! जीसस कहते हैं, प्रेम परमात्मा है, और ईसाइयों ने जितने युद्ध किये, किसी ने भी नहीं किये। जीसस ने कहा कि एक गाल पर तुम्हारे कोई चांटा मारे तो दूसरा भी उसके सामने कर देना; और ईसाइयों ने तलवार उठा के लाखों लोगों को काट डाला। और जिन्होंने काटा, पता है आपको? ..एक हाथ में तलवार थी और एक-हाथ में बाइबिल थी। वे लोगों को धर्म देने के लिए ही तलवार लिये हुए थे।
इस देश में वेद-उपनिषद् के ऋषि कहते हैं: ‘‘एक ही ब्रह्म है सब में। सब में उसी एक का वास है। कण-कण में वही समाया हुआ है।’’ और हिंदुओं ने जो किया, वह बिल्कुल उलटा है। यह पंडित जो दुहराता है उपनिषद् की बात, वह भी अछूत को छूने को राजी नहीं। जाहिर है कि वह ब्रह्म को अछूत मानता है। अगर ब्रह्म सभी में है तो अछूत कौन? शूद्र कौन? कौन है जो अपवित्र है? लेकिन ऐसा घटा इस मुल्क में..ज्ञानियों के मुल्क में..कि शूद्र को तो छूना असंभव था ही, शूद्र की छाया भी अगर पड़ जाये ब्राह्मण के ऊपर तो शूद्र को दंडित किया जाता था। छाया! छाया भी अपवित्र हो सकती है? छाया तो है ही नहीं। ब्राह्मण बैठा हो, शूद्र निकलता हो और उसकी छाया ब्राह्मण को छूती हुई निकल जाए तो उस शूद्र को मारा-पीटा जा सकता है; इसकी हत्या भी की
जा सकती है। यह जघन्य अपराध हो गया कि शूद्र की छाया ने ब्राह्मण को छू लिया। ब्रह्मज्ञानी छाया से भयभीत है! और जिन्होंने कण-कण में ब्रह्म को बताया, उनकी यह कैसी दुर्बुद्धि? नहीं; जिन्होंने बताया उन्होंने तो ठीक ही बताया था; जिन्होंने सुना उन्होंने कुछ और ही सुना।
गुरु और शिष्य के बीच शब्द जरा-सी ही यात्रा करते हैं; उतनी ही यात्रा में सब विकृत हो जाता है। यह विकृति शारीरिक नहीं है, कंठगत नहीं है, मानसिक नहीं है, अन्यथा सुधार हो सकता था, हम कुछ परिष्कार कर सकते थे; यह स्वभावगत है। यह वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है कि हम वही कह सकते हैं और उसी से कह सकते हैं जो ठीक हमारी ही अनुभूति का हो। इसलिए कबीर कहते हैं: ‘जो गूंगे के सैन को गूंगा ही पहचान।’
गुरु का एक तल है, शिष्य का दूसरा तल है..बात हो कैसे सकती है? गुरु कहीं और खड़ा..किसी शिखर पर चैतन्य के; शिष्य खड़ा अंधकार में..किसी खाई में छिपा; दोेनों के बीच संवाद कैसे हो सकता है? गुरु जो कभी कहेगा, अपने स्वर्ण-शिखर से उसे उतरना पड़ेगा अंधेरे की घाटी में। वे शब्द जो वह छोड़ेगा, उतरेंगे तुम्हारे अंधकार में; तुम्हारा अंधकार उन शब्दोें से लिपट जायेगा। तुम तक पहुंचते-पहुंचते अंधकार ही पहंुचेेगा; वे शब्द खो जायेंगे। इसलिए कबीर कहते हैं, जब तक तुम भी उसी तल पर न खड़े हो जाओ....।
गूंगे गूंगे के सैन को समझ लेते हैं। अगर एक गूंगा दूसरे गूंगे को कहना चाहे कि ‘‘बड़ा मीठा है’’ तो कह देगा, इशारा कर देगा। उनकी एक ही भाषा है, एक ही तल है। एक ही उनका अनुभव है। इसका अर्थ हुआ कि जब तक अनुभव समान न हो तब तक संवाद नहीं हो सकता; विवाद हो सकता है, संवाद नहीं हो सकता। मैं तुमसे कुछ कहूं, तत्क्षण तुम्हारे भीतर विवाद उठ सकता है कि यह बात ठीक है या गलत। तुम तर्क-वितर्क में पड़ सकते हो, लेकिन संवाद नहीं होगा। संवाद का अर्थ तो है कि यहां कहा, जैसा कहा वैसा ही तुमने समझा, रत्ती भर भेद न हुआ। यह तो तभी होगा जब तुम ठीक उसी जगह खड़े हो जाओ जहां मैं खड़ा हूं। यह तो तभी होगा जब दोे व्यक्ति एक ही तल पर खड़े हों, रत्ती भर भी भेद न हो।
ज्ञानी ही ज्ञानी को समझा पायेंगे। लेकिन तब तो बड़ी व्यर्थता हो गई। ज्ञानी को समझाने की कोई जरूरत नहीं है। यह जीवन का विरोधाभास है। जो समझ सकता है उसे समझाने की जरूरत नहीं; जो नहीं समझ सकता उसे ही समझाने की जरूरत है, और उसे समझाया नहीं जा सकता।
तो क्या किया जाये? जिन्होंने जाना है, वे कैसे अपनी संपदा को बांटें? जिन्होंने जाना है वे किस भांति तुम्हें भी उस तरफ ले जाएं जहां जानने की घटना घटे? जिन्होंने चखा है स्वाद, वे तुम्हें कैसे पुकारें उस यात्रा के लिए? अनेक विधियां खोजी गई हैं। तुम्हारे और ज्ञानी के बीच के रास्ते को पाटने के लिए ही सारे योग हैं, सारी विधियां हैं, सारे मार्ग हैं। पतंजलि ने कहा है: ‘‘श्रद्धा पाट देगी। तब विवाद पैदा न होगा।’’
श्रद्धा का अर्थ है: जो कहा गया तुमने उसे स्वीकार कर लिया..जानते हुए कि तुम्हारी अभी ऐसी अवस्था नहीं, जानते हुए कि तुम अंधकार में खड़े हो तुमने प्रकाश की बात को स्वीकार कर लिया; तुमने विवाद न उठाया; तुमने भीतर तर्क का ऊहापोह न किया; तुमने पूछताछ न की। क्योंकि, तुमने तर्क उठाया, पूछताछ की तो उसी बीच जो कहा गया था, उसका अर्थ खो जायेगा। फिर तुम जो भी अर्थ निकाल लोगे वह तुम्हारा अपना होगा।
श्रद्धा का एक ही अर्थ है, वह है तरकीब गुरु और शिष्य के बीच के फासले को पाटने की। गुरु ने जो कहा,
तुमने सिर्फ सुन लिया, स्वीकार कर लिया; तुम चल पड़े; तुमने चर्चा न उठाई; तुमने इशारा देखा और तुमने यात्रा शुरू कर दी; तुमने एक क्षण को भी झिझक न की; तुम एक क्षण को भी रुक कर न सोचे कि पहले सोच लूंू..कहां जा रहा हूं, क्यों जा रहा हूं? तुमने अपने मन से कुछ भी न पूछा; तुमने मन को बाद दे दी।
श्रद्धा का अर्थ है मन को बाद दे देना। तुमने मन को कहा कि तू अपनी जगह। मुझे सीधा सुनने दे, तू बीच में मत आ। तू व्याख्या मत कर। तेरी व्याख्या की जरूरत नहीं हैै। तू चुप हो। तुझसे, जरूरत होगी, पूछ लेंगे; लेकिन तू बीच में मत आ, और बिन मांगी सलाह मत दे।
श्रद्धा का अर्थ है, मन तो कोशिश करेगा ही, क्योंकि उसकी सदा की आदत है। तुम कुछ भी करो तो वह कहेगा करना उचित है, नहीं है उचित। वह तुम्हारी सुरक्षा के लिए ही करता है इंतजाम। संसार में तो ठीक है, संसार के पार जाने में बाधा हो जाती है; क्योंकि जिसका उसे पता ही नहीं है, उस संबंध में कैसे बात करे, जो स्वाद उसने लिया ही नहीं? तो पहले तो वह यही कहेगा कि यह बात भरोसे की नहीं है, क्योंकि ऐसा कभी हुआ ही नहीं। और उसका कहना ठीक है। क्योंकि तुम्हें ऐसा कभी भी नहीं हुआ है और तुम्हें जो हुआ है उसी का संग्रह तुम्हारा मन है। तुम्हें अब तक जो-जो अनुभव हुए हैं, उनका ही जोड़ तुम्हारा मन है। मन तत्क्षण कहेगा कि ऐसा कभी हुआ नहीं; यह स्वाद होता ही नहीं। यह आदमी धोखा दे रहा है। इस आदमी की मर्जी कुछ और ही होगी। यह तुम्हें किसी जाल में फंसा लेना चाहता है। ऐसा तो होता ही नहीं है; यह तो तर्क के विपरीत है, बुद्धि के विपरीत है। मत सुनो। सम्हलो। सावधान हो जाओ। हट जाओ यहां से, भाग जाओ यहां से।
मन तुम्हारी सुरक्षा के लिए ही कह रहा है और गलत भी नहीं कह रहा। क्योंकि जो भी वह जानता है, उस अनुभव में ऐसे किसी स्वाद की कोई खबर नहीं है।
तो करना क्या है? अगर मन की सुन लेते हो तो अज्ञात के द्वार बंद हो जाते हैं। तो जो तुमने नहीं जाना है, वह फिर सदा ही अनजाना रह जायेगा। क्योंकि मन तो उसी के पक्ष में गवाही देगा जो उसने जाना है। कामवासना मन ने जानी है। उसका स्वाद उसे है। ब्रह्मचर्य का उसे कोई स्वाद नहीं है। अगर कोई ब्रह्मचर्य की बात करे तो मन कहेगा कि बकवास है। यह स्वाद तो जाना नहीं। यह तो अपनी कोई पहचान नहीं है। ऊर्जा को नीचे बहते देखा है। ऊर्जा के नीचे बहते हुए क्षण भर को मिले सुख को भी जाना है। लेकिन ऊर्जा को ऊपर उठते तो देखा नहीं। और ऊपर ऊर्जा उठ कैसे सकती है? कभी उठी नहीं।
जो कभी हुआ नहीं, मन कहता है, वह होगा कैसे? अगर हो सकता होता तो पहले ही हो गया होता। तुम्हारा मन यह कहता है कि सब हो चुका है और गुरु कहता है, अभी सब बाकी है। अभी जो भी हुआ है, वह न होने के बराबर है। अभी कुछ हुआ ही नहीं; अभी तुम बीज हो, वृक्ष नहीं। और मन कहता है, तुम तो वृक्ष हो; जो लगता था लग चुका है; जो होना था हो चुका है; तुम वृक्ष हो, बीज नहीं। मन कहता है, सब संभावनाएं समाप्त हो गई हैं। इसलिए तो मन इतना ऊबा हुआ है। मन सदा ही ऊबा हुआ रहता है, क्योंकि वह देखता है, सब हो चुका। जो भोजन करने थे कर लिए, जो स्वाद लेना था ले लिया; अब फिर पुनरुक्ति है। जो भोगना था, भोग लिया; अब फिर दोेहराना है। मन को तो साफ है कि एक चक्कर है जिसमें हम घूम रहे हैं, पुनरुक्ति है। लेकिन मन को पता नहीं..संसार मन से बहुत बड़ा है। सत्य ज्ञात से अनंत गुणा बड़ा है।
गुरु यही कह रहा है कि जो अभी हुआ है वह तो शुरुआत भी नहीं है। अभी तो तुम भवन के बाहर ही खड़े हो, सीदियां भी नहीं चदे। अभी महल के भीतर तो तुम्हारा प्रवेश बहुत दूर है।
अब सवाल यह है कि कैसे यह बात मानी जाये? अगर तुम मन की सुनो तो गुरु की नहीं सुन सकते; अगर तुम गुरु की सुनना चाहो तो मन को बाद देनी पड़ेगी। इसलिए पतंजलि ने श्रद्धा को पहला आधार बनाया और समस्त ज्ञानियों ने पहला आधार बनाया।
श्रद्धा का कारण?
श्रद्धा का कारण यह है जो कबीर कह रहे है: ‘आतम अनुभव ग्यान की जो कोई पूछे बात। सो गूंगा गुड़ खाईके, कहै कौन मुख स्वाद। जो गूंगे केसैन को गूंगा ही पहचान। त्यों ग्यानी के सुक्ख को, ग्यानी होय सो जान।’
वह जो महासुख ज्ञानी को मिला है, तुम्हारी भाषा में कोई शब्द भी तो नहीं कि उसके संबंध में इंगित किया जा सके। तुम्हारी भाषा तुम्हारी भाषा है, तुम्हारे अनुभव से बनी है। ज्ञानी कीे कोई भाषा अब तक नहीं है, क्योंकि ज्ञानी का सारा अनुभव मौन का है, शून्य का है, शांति का है। ज्ञानी का अनुभव विचार का नहीं है, निर्विचार का है। ज्ञानी ने जो भी जाना है, वह शून्य में जाना है। वहां कोई शब्द नहीं है। जिसे तुम शून्य में जानते हो, उसे शब्द में न कह पाओगे। जोे शून्य में उपजता है, वह शून्य में ही कहा जा सकता है। गूंगा ही गूंगे को कह सकेगा। लेकिन गूंगे को गूंगे से कहने की कोई जरूरत नहीं है।
बुद्ध और महावीर अनेक बार एक ही गांव में साथ ठहर जाते थे। एक बार तो एक ही धर्मशाला में साथ ठहरे। फिर भी मिलन न हुआ। जरूरत न थी। सवाल रहा है जैनों, बौद्धों के सामने कि क्यों नहीं मिले। अहंकारी मालूम होते हैं। जब दोेनों एक ही धर्मशाला में ठहरे थे तो मिल लेना था। महासौभाग्य का क्षण होता। दोनों मिलते तो पता नहीं कौन-सा फूल खिलता दोेनों के बीच। लेकिन मैं तुम्हें कहता हूं कि मिलने की कोई जरूरत नहीं थी। दोेनों गूंगे थे और दोेनों ने गुड़ का स्वाद लिया था। अब सैन करने का सरोकार क्या था? जो करता सैन वह नासमझ सिद्ध होता। जो बोलने की कोशिश करता, वह गलत सिद्ध होता। क्योंकि उसे अब यह इतना भी दिखाई नहीं पड़ रहा है कि दूसरा भी वहीं पहुंच गया है। मिलना नहीं हुआ, क्योंकि मिलने की कोई जरूरत ही न रही।
तीन तरह की संभावनाएं हैं। दो अज्ञानी मिलें तो बड़ी चर्चा होती है। चर्चा ही चर्चा होती है, और कुछ होने को होता भी नहीं। बकवास है, लेकिन चलती है; घंटों चल सकती है। या दोे ज्ञानी मिलें, चर्चा होती ही नहीं; सन्नाटा रहता है..मौन। दोेनों के बीच शून्य तिरता है..जैसे दोेनों दोे किनारे हैं, बीच में शून्य की नदी बहती है; कोई शोरगुल नहीं होता, कोई आवाज नहीं उठती, कोई बात नहीं उठती। या एक ज्ञानी और अज्ञानी मिलें। दोे अज्ञानी मिलें, चर्चा होती है, कोई सार नहीं। दोे ज्ञानी मिलें, सार रहता है, चर्चा नहीं। तीसरी संभावना है ज्ञानी और अज्ञानी की। वहां दोे उपाय हैं। या तो अज्ञानी बोले और ज्ञानी सुने..जो अक्सर होता है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे आते हैं पूछने और बताना शुरू कर देते हैं। आते हैं कि कुछ पूछना है। भूल ही जाते हैं पूछने की बात; कुछ बता के चले जाते हैं। जाते वक्त कह जाते हैं: ‘‘बड़ा आनंद आया। आपने कैसी अच्छी बातें कहीं!’’
एक यहूदी फकीर हुआ..बालसेन। एक आदमी आया..बकवासी। उसने इतनी बकवास की कि बालसेन
को समझ ही न आया कि अब उससे कैसे छुुटकारा लें। और वह बोले ही जा रहा है। वह इतना भी मौका नहीं देता है, संधि भी नहीं
देता है कि वे कहें कि ‘‘बस भाई, अब बहुत हुआ। मुझे कुछ दूसरा काम करना है।’’ अंततः उस बकवासी ने कहा, ‘‘मैं दूसरे गांव में गया था, फलां फकीर के पास। आपके संबंध में बात हुई। उन्होंने आपके संबंध में कुछ बातें कहीं।’’ मौका देख कर बालसेन ने कहा: ‘‘बिल्कुल झूठ, सरासर झूठ!’’ वह बकवासी भी हैरान हुआ। उसने कहा: ‘‘अभी तो मैंने बताया ही नहीं कि उन्होंने क्या कहा, और आप कहते हैं: सरासर झूठ, बिल्कुल झूठ।’’ बालसेन ने कहा कि निश्चित कहता हूं कि सरासर झूठ, क्योंकि तुमने उस फकीर को बोलने का मौका न दिया होगा, बतायेगा कैसे? हम अपने अनुभव से देख रहे हैं कि मौका ही नहीं है।
या तो अज्ञानी बोले, ज्ञानी सुने..जैसा कि अक्सर होता है। ज्ञानी सुन लेता है करुणावशात्। शायद तुम बोल के ही हलके हो जाओ। शायद इस तरह ही तुम्हारे मन का बोझ थोड़ा कम हो। बोलना भी तो रेचन है, कैथारसिस है। सुन लेता है।
इसी सुनने के आधार पर तो पश्चिम में एक बहुत बड़ा धंधा चल रहा है। इस समय बड़े-से-बड़ा धंधा साइकोएनालिसिस, मनोविश्लेषण है। बहुत महंगा काम है मनोविश्लेषण। और मनोविश्लेषक कुछ भी नहीं करता है, सिर्फ सुनता है।
फ्रायड ने अज्ञानियों के लिए बड़ी सुविधा खोजी है। फ्रायड का जो इंतजाम है मनोविश्लेषण का, उसने रुग्ण आदमी को, मानसिक रुग्ण आदमी को..और अज्ञानी यानी मानसिक रुग्ण..उसे सुला देते हैं कोच पर। मनोविश्लेषक कोच के पीछे बैठ जाता है और उससे कहता है: तुम्हें जो भी बोलना है बोलो..फ्री एसोसिएशन ऑफ थॉटस्..जो भी आता है मन में। अब तुम्हें यह भी चिंता करने की जरूरत नहीं कि संगत कि असंगत, कि सार कि असार, कुछ भी अनर्गल, बस आने दोे और तुम बोलते चले जाओ।’’ ऐसा मनोविश्लेषण कभी-कभी तीन साल, चार साल... हैसियत के ऊपर है, एक आदमी की, क्योंकि बहुत महंगा काम है... तीन-चार साल तक चलता है। रोज एक घंटा या सप्ताह में दोे घंटा या तीन घंटा... और मनोविश्लेषक केवल सुनता है और अनेक लोग तीन साल तक बकवास करके काफी शांत हो जाते हैं।
मनोविश्लेषक कुछ करता नहीं है, सिर्फ सुनता है। वह प्रोफेशनल सुननेवाला है..प्रोफेशनल श्रोता। तुमने प्रोफेशनल वक्ता देखे होंगे, वह प्रोफेशनल श्रोता है..सिर्फ सुनता है।
फ्रायड से उसका शिष्य एक दिन बोला..क्योंकि फ्रायड बूदा हो गया था और फिर भी दिन में आठ-दस घंटे काम करता था, आठ-दस आदमियों की बकवास सुनता था..एक नया युवक, जो अभी नया-नया दीक्षित हुआ है मनोविश्लेषण में, उसने कहा कि आप थकते नहीं हैं। और मैं तो दोे-तीन मरीजों के बाद ऐसा थक जाता हूं कि मर ही जाऊंगा। आप अ˜ुत हैं। आप सुने ही चले जाते हैं सुबह से शाम तक।
फ्रायड ने कहा: ‘‘मूरख! सुनता कौन है? मरीज बोलता है, वह ठीक; सुनता कौन है? नहीं तो थक ही जाओगे।’’
पश्चिम में मनोविश्लेषण एक बदता हुआ धंधा है, रोज बदता जाता है। उसके कारण हैं। जिंदगी में अब लोगों को इतनी सुविधा नहीं है कि एक-दूसरे को सुनें। समय की कमी है। कौन किसको सुनता है! पत्नी पति को नहीं सुनती, पति पत्नी को नहीं सुनता, फुर्सत भी नहीं है। तो एक धंधेबाज आदमी, जो सुनता है, तो उससे राहत मिलती है।
ज्ञानी अज्ञानी को सुन सकता है, सिर्फ इसलिए कि शायद तुम्हें थोड़ी राहत मिल जाये। लेकिन होना उलटा चाहिये..कि अज्ञानी ज्ञानी को सुने। पर वह तभी हो सकता है जब श्रद्धा बीच में हो। नहीं तो ज्ञानी जो भी कहेगा उसी पर अविश्वास आयेगा। वह जो भी कहेगा वह सभी अविश्वास लायेगा। मन कहेगा, यह हो नहीं सकता, यह असंभव है। और जो असंभव है, उस तरफ कदम क्यों उठाने? शक्ति क्यों व्यय करनी? उस दिशा में मन को क्यों लगाना?
श्रद्धा की जरूरत है ताकि तुम मन को बाद कर सको। मन तुम्हें अज्ञात के अनुभव में न जाने देगा। मन तुम्हें किनारे से अटकाये रखेगा, सागर में न उतरने देगा। क्योंकि मन कहेगा, दूसरा कूल कहां, किनारा कहां! जिस नाव पर तुम बैठ के जा रहे हो, क्या भरोसा कि उस पार पहुंचायेगी? वह पार दिखाई भी नहीं पड़ता। यह भी हो सकता है, हो ही न। कोई कभी पहुंचा है कि तुम झंझट में पड़ते हो? क्योंकि जो भी उस पार गये, लौट कर कोई कहते नहीं कि पहुंचे। नहीं पहुंचेे! और जिस आदमी की बातचीत में तुम पड़े हो, उसके पास नक्शा है? जिस अज्ञात की बात कर रहा है, कोई वास्तविक आधार है?
नहीं, गुरु तुम्हें कोई प्रमाण नहीं दे सकता, क्योंकि प्रमाण है नहीं। उसका अनुभव ही प्रमाण है। और उसके अनुभव में तुम तभी उतर सकते हो जब तुम्हारे में बड़ी गहन श्रद्धा हो। इतनी गहन श्रद्धा हो कि तुम अपने और उसके फासले को तोड़ दोे ताकि उसके अनुभव की तुम्हें सीधी-सीधी प्रतीती और साक्षात्कार होने लगे ताकि जो उसके भीतर धुन बज रही है वह तुम्हें भी सुनाई पड़ जाये; जो स्वाद उसके कंठ तक भर आया है, उसकी थोड़ी-सी झलक तुम्हें भी मिल जाये; वह जो हो गया है, उसकी ज्योति तुम्हें भी छू ले और तुम्हारे भीतर का अंधेरा थोड़ा-सा भी बिजली की कौंध से भर जाये; तुम भी देख पाओ एक क्षण को कि तुम कौन हो। पर इसके लिए मौका चाहिए। मौका श्रद्धा देगी।
‘सो गूंगा गुुड़ खाईके, कहै कौन मुख स्वाद। जो गूंगे के सैन को गूंगा ही पहचान। त्यों ग्यानी के सुक्ख को, ज्ञानी होय सो जान।।’
एक बात मन में बांध कर रख लेना, कोई तुम्हें न जंचे..कोई गुरु, कोई ज्ञानी, कोई संत न जंचे..तो हट जाना, लेकिन निर्णय मत लेना कि वह गलत है। क्योंकि तुम कैसे निर्णय लोगे? न जंचे तो चुपचाप हट जाना। कह देना कि यह मार्ग अपने लिए नहीं है। लेकिन निर्णय मत लेना। क्योंकि बहुत-से लोग बुद्ध के पास निर्णय लेकर लौट गये कि यह आदमी गलत है। बहुत से लोग महावीर के पास निर्णय लेकर लौट गये कि यह आदमी गलत है। बहुतों ने जीसस को सूली पर लटका दिया, यही मान कर कि यह आदमी गलत है।
तो तुम अपने को बहुत बुद्धिमान मत समझना। वे सब तुम्हारे जैसे ही बहुत बुद्धिमान लोग थे। क्या हुआ? जिन्होंने निर्णय लिया बुुद्ध के पास कि यह आदमी ठीक नहीं, ये बातें भरोसे की नहीं, वे तुम्हारे जैसे ही बुद्धिमान थे। यही तर्क, यही मन उनके पास था। यही अनुभव संसार का उनके पास था। दूसरे संसार का कोई अनुभव न था तो कैसे भरोसा करते? वह दूसरा किनारा दिखाई नहीं पड़ता। और बुद्ध दूसरे किनारे की बात कर रहे हैं..जो अनजान है, अज्ञात है; न केवल अज्ञात बल्कि अज्ञेय है; जिसे हम जान-जान कर भी कभी चुकता न कर पायेंगे; जो सदा जानने को शेष रहेगा; हम जानते जायेंगे और फिर भी शेष रहेगा, जो सदा अपूर्ण रहेगा। उसकी पूर्णता ऐसी है कि वह विकसित होता रहेगा। उसकी पूर्णता-अपूर्णता में विरोध नहीं है।
यह जो बुद्ध बात कर रहे थे, तर्कातीत थी; बहुतों को भरोसा नहीं आया। उन्होंने अविश्वास किया। उस अविश्वास से बुुद्ध का कुछ खोता नहीं। उस अविश्वास से वे ही वंचित रह जाते हैं, जो अविश्वास करते हैं। ध्यान रखना, तुम्हारे अविश्वास से किसी का कुछ नहीं खोता, सिर्फ तुम्हारी यात्रा कुंठित हो जाती है।
अगर तुम्हें कोई आदमी ठीक न भी लगे तो भी तुम बिना निर्णय लिये चुपचाप हट जाना, कहीं और खोजना। क्योंकि खतरा क्या है? ..अगर तुम निर्णय लो कि यह आदमी ठीक नहीं है, इसलिए मैं हट रहा हूं...; तुम इसलिए हटना कि शायद मुझे यह मार्ग नहीं जमता। इन दोेनों में फर्क है।
तुम मेरे पास आये हो। तुम्हें लगे कि बात तुम्हें नहीं जमती, तो तुम यही सोचना कि मुझे नहीं जमती और हट जाना। क्यों? क्योंकि तब तुम कहीं-न-कहीं कोई उपाय खोज लोगे, जो तुम्हें जम जाये। लेकिन, अगर तुमने यह निर्णय लिया कि यह आदमी गलत है, तो तुम्हारा मन मजबूत हो रहा है। तुम दूसरी जगह भी यही निर्णय लोगे कि यह आदमी गलत है। तीसरी जगह भी यही निर्णय लोगे। धीरे-धीरे यह निर्णय एक पत्थर की तरह तुम्हारी छाती पर बैठ जायेगा। तुम जहां भी जाओगे वहीं यह पत्थर द्वार पर, दरवाजे पर खड़ा हो जायेगा। अवरुद्ध कर देगा। अपनी भूल देख लेना। और ज्ञानी को तुम पहचान न पाओगे।
कबीर कहते हैं: ज्ञानी के सुख को केवल ज्ञानी ही जान सकता है। बुद्ध को पहचानने के लिए बुद्ध होने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। कृष्ण को समझना हो तो कृष्ण होना पड़े, इससे कम में काम न चलेगा। लेकिन हम बड़ी जल्दी निर्णय लेते हैं। हम अपनी घाटी में, अंधेरे में दबे, उन पहाड़ों के शिखरों के संबंध में निर्णय लेते हैं जिन तक हमारी आंखें ही नहीं पहुंचती हैं। यात्रा तो दूर, जिनकी झलक भी हमें नहीं मिलती..हम निर्णय ले लेते हैं।
निर्णय एक कारण से हम लेते हैं। हमारा मन चाहता है कि हर जगह पाये कि गलत है..क्योंकि अगर हर जगह गलत है तो कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं है; हम अपनी अंधेरी गली में पड़े रह सकते हैं..निशिं्चत। अगर कहीं भी कोई ठीक है तो यात्रा करनी पड़ेगी। यात्रा कष्टप्रद मालूम होती है; श्रम मालूम होता है।
मन आलस्य है। वह कहता है: सोओ; कहीं कोई जाने की जरूरत नहीं है। यह यही घाटी ही सब कुछ है। यह बाजार में धन कमा लेना, बच्चे पैदा कर लेना, थोड़ा नाम अखबारों में छप जाये, मरते वक्त सौ, दोे सौ लोग मरघट तक पहुंचायें..बस यही काफी है, पर्याप्त है, सफल हो गये तुम! कैसी सफलता है!
और बड़े मजे की बात यह है कि तुम बुद्धों पर शक करोगे, लेकिन इस मन पर शक न करोगे जो तुम्हें कीड़ा बना रहा है। तुम कभी यह न कहोगे कि मन यह क्या कर रहा है..कि बस यह काफी है कि दस-पांच बच्चे पैदा कर लिए; कि थोड़ा धन कमा लिया; कि तिजोड़ी भर ली; कि थोड़ा नाम-यश हो गया; फिर लोग गये और दफना आये..पर्याप्त हो गया। जीवन की इति श्री हो गई। उपलब्धि हो गई। यह मन तुमसे यही कह रहा है। प्रार्थना करने बैठते हो तो कहता है दुकान! घंटे भर में कितना न कमा लेते। पूजा के लिए बैठते हो तो जल्दी करता है। वेश्या के घर जाते हो तो कहता है, रात थोड़ी और लंबी होती तो अच्छा था। इस मन पर तुम कभी संदेह नहीं करते। संदेह ही करना हो तो इस मन पर करो। लेकिन इस पर तुम कोई संदेह नहीं करते। इससे तुम इतने लिप्त हो कि तुम यह भूल ही गये हो कि यह तुमसे अलग है। तुमने इसके साथ तादात्म्य कर लिया है।
संदेह तुम बुद्धों पर करोगे..क्योंकि उनके कारण यात्रा शुरू होगी, श्रम होगा, जीवन में तपश्चर्या आयेगी, रूपांतरण होगा, तुम्हें बदलना होगा, तुम जो हो वही न रह सकोेगे। वहां तुम हजार बहाने खोजते हो।
‘त्यों ज्ञानी के सुक्ख को, ज्ञानी होय सो जान।’
‘लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात।’ इससे प्यारे शब्द तुम कहां खोज सकोगे? ‘लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात।’..यह कोई लिखने का सवाल नहीं है। यह किताबों में नहीं है, शास्त्रों में नहीं है। आगम-निगम, कहीं भी इसे तुम न पाओगे। पद जाओ वेद, कंठस्थ कर लो, चारों वेदोें के ज्ञाता हो जाओ..कबीर कहते हैं..फिर भी तुम न पाओगे। लिखालिखी की बात ही नहीं है; देखने का सवाल है..ऐसे ही जैसे अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में जो भी लिखा हो, सब याद कर ले, प्रकाश की पूरी कीमिया समझ ले, जो-जो प्रकाश के संबंध में मनुष्य ने खोजा है, सब अपनी स्मृति में भर ले, तो भी क्या एक किरण पैदा होगी, तो भी क्या जरा-सा उजाला होगा? ..इतना कि दोे कदम चल सके। कोई उपाय नहीं।
लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात। देखना ही पड़ेगा। आंख खुलनी चाहिए। और जिन आंखों से तुम देख रहे हो, ये केवल बाहर की आंखें हैं; लेकिन भीतर भी आंखें हैं।
योग की आखिरी खोज और गहनतम खोज स्मरण रख लो। योग कहता है: जितनी क्षमताएं बाहर हैं, उतनी ही क्षमताएं भीतर हंै। होनी भी चाहिए, क्योंकि नदी एक किनारे की नहीं होती; दोे किनारे होंगे..चाहे दूसरा किनारा दिखाई पड़े, न दिखाई पड़े। रुपये में एक ही पहलू नहीं होता; दूसरा पहलू भी होता है..चाहे दूसरा पहलू दबा हो, दिखाई न पड़ता हो।
तुम आंख से बाहर देखते हो; इसका दूसरा पहलू और दूसरा किनारा भी होना ही चाहिए..कि तुम भीतर की आंख से भीतर देख सको। तुम कान से बाहर सुनते हो; जरूर वे कान भी होने चाहिए, जिनसे तुम भीतर सुन सको। तुम चीजों को स्पर्श करते हो, अनुभव करते हो हाथों से; जरूर भीतर भी स्पर्श की क्षमता होनी चाहिए ताकि तुम अपना अनुभव कर सको। अन्यथा बात बड़ी बेहूदी मालूम पड़ेगी कि हम और सब का तो अनुभव कर सकते है; अपना अनुभव नहीं कर सकते; और सब को तो देख सकते हैं, अपने को देख नहीं सकते; संसार भर का उपद्रव तो हम सुनेंगे, भीतर का संगीत हम न सुनेंगे।
नहीं, योग कहता है, सांख्य कहता है, इंद्रियां दो तरह की हैं। एक स्थूल इंद्रियां हैं जो बाहर की तरफ जाती हैं; दूसरी सूक्ष्म इंद्रियां हैं जो भीतर की तरफ जाती हैं। और भीतर तो कोई शास्त्र नहीं है जिसे तुम पद लो। बाहर तो वेद हैं, कुरान हैं, बाइबिल हैं; भीतर तो कोई शास्त्र नहीं है; भीतर तो सिर्फ आत्मा है; भीतर तो सिर्फ तुम हो..वही शास्त्र है। जब भीतर की आंख उस भीतर के शास्त्र को देख लेती है, उसको कबीर कहते हैं: ‘देखादेखी बात’..जब तुम अपने आमने-सामने खड़े हो जाते हो; जब तुम्हारी अपने से पहचान हो जाती है; जब तुम अपने को ऐसे देख लेेते हो कि देखने को कुछ और शेष न रह जाये।
‘देखादेखी बात, लिखालिखी की है नहीं’..और तुमने काफी समय गंवाया लिखालिखी में। कितना तो तुम जानते ही हो। ऐसे भी जानने को क्या बाकी रहा है? कितनी बार तुमने शास्त्र पदे! जन्मों-जन्मों से तुम शब्दोें में भटक रहे हो, फिर भी तुम्हें होश नहीं आता कि तुम जागो और शब्दोें को गिरा दोे। सूखे पत्ते हैं शब्द..जैसे जब सूख जाते है पत्ते और वृक्षों से गिर जाते हैं। शब्द उन ज्ञानियों से निकले हैं, जिनमें कभी अनुभव के हरे पत्ते लगे थे; फिर वे सूख गये। फिर वे गिर गये और तुम सूखे पत्ते इकट्ठे किये बैठे हो। आग लगा दोे और सेक लो; ठंडी रातें हैं, सुख होगा। शब्दोें को जो जलाना सीख जाये, वही अनुभव में उतरने की कला सीख पाता है।
‘लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात।’
ऐसा हुआ, झेन फकीर लिंची के संबंध में बड़ी अनूठी कथा है कि जिस दिन उसे ज्ञान हुआ, वह वृक्ष के नीचे बैठा था; भागा, भीतर गया अपने कक्ष में, शास्त्रों को उठा कर लाया..बुद्ध के बहुमूल्य वचन, पूरा त्रिपिटक, बाहर आकर आग लगा दी। भीड़ इकट्ठी हो गई। लोगों ने समझा, पागल हो गया। इससे ज्यादा और पाप का कृत्य क्या होगा कि बुद्ध के परम वचनों में आग लगा दी? और वह खिलखिला कर हंस रहा है। और आग बदती जा रही है और बुद्ध के वचन जलते जा रहे हैं। और लोग बुझाने की कोशिश कर रहे हैं आग को कि कुछ भी बचा लिया जाये। लेकिन वह हंस रहा है। वह कह रहा है: ‘‘पागलो, कोई बचाने की जरूरत नहीं; कुछ बचाने योग्य नहीं है!’’
पीछे लोगों ने उसे पूछा: ‘क्या तुम्हारा दिमाग खराब हो गया? इतनेे बहुमूल्य शास्त्र।’’ उसने कहा कि आज देख लिया और पता चल गया कि शास्त्रों में कुछ भी नहीं है। उस दिन अगर उसे कबीर के वचन का पता होता तो उसने कहा होता: लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात। ‘‘और इन शास्त्रों को जला रहा हूं’’ लिंची ने कहा..‘‘ताकि तुम भी सजग हो जाओ।’’
ऐसा नहीं कि शास्त्रों में कुछ भी नहीं है। शास्त्रों में उन्ही के वचन हैं जिन्होंने देखा था। लेकिन उनका दर्शन तो उनके पास रह जाता है, शब्दों में दर्शन तो आता नहीं। शब्द तो चली हुई कारतूस की तरह हैं। अब तुम उनको इकट्ठा किये रहो, वे किसी काम के नहीं हैं। शब्द से छुटकारा चाहिए सत्य तक पहुंचने को। शब्द से छुटकारे में ही मन से छुटकारा होेता है। शब्द से छुटकारा ही अनुभव की तरफ पहला कदम है।
‘दुलहा दुलहिन मिल गये, फीकी पड़ी बरात।’ बड़ा प्यारा वचन है। दूल्हा बरात के साथ जाता है..बैंड-बाजे, शोरगुल, उत्सव..अभी बरात बड़ी महत्त्वपूर्ण है; बुला-बुला कर मित्रों को, अतिथियों को इकट्ठा करता है। सब अपनों को, सगे-संबंधियों को लेकर बरात जाती है। फिर दूल्हा-दूल्हन मिल गये और जैसे ही विवाह हो गया, जो चीज पहले भूल जाती है, वह है बरात। फिर दूल्हा कहां फिक्र करता बरात की! बरात अब तक ठीक थी, जब तक दूल्हा-दुल्हन न मिले थे।
कबीर कह रहे हैं, ऐसे ही शास्त्र हैं, ऐसे ही शब्द हैं..बरात। और जब दुल्हा-दुल्हन मिल गये, फीकी पड़ी बरात..फिर वेद में क्या रखा है? राख। फिर सब शास्त्र बेकार। अब तक ठीक थे जब तक दुल्हन के द्वार तक न पहुंचे थे। दुल्हन के द्वार तक शास्त्र ले आयें तो काफी; बरात का काम कर दें, बस बहुत। पर जैसे ही दुल्हन मिल गई, फिर कौन फिक्र करता है बरात की! वहीं फीकी पड़ जाती है बरात। बात ही खत्म हो गई। आदमी पार कर गया, फिर नदी की, नाव की कौन चिंता करता है। पुल से गुजर गये, फिर पुल को कौन याद करता है। सीदी से चद गये, फिर सीदी को कौन दोये फिरता है!
‘लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात। दुल्हा-दुल्हन मिल गये, फीकी पड़ी बरात,
‘जो देखै सो कहै नहिं, कहे सो देखे नाहिं। सुनै सो समझावै नहीं, रसना दृग श्रुति काहिं।।’
शरीरशास्त्री, मनस्शास्त्री, दोेनों कबीर के इस वचन से सहमत हैं और आधुनिक विज्ञान भी। इस वचन का अर्थ है: आंखें
देखती हैं..जो देखै सो कहै नहिं..और आंखे बोलती नाहीं। कहै सो देखे नाहिं..जीभ बोलती है, लेकिन जीभ ने देखा नहीं है। सुनै सो समझावै नहीं..कान सुनता है और कान समझा नहीं सकता। तो ये आंख, कान, नाक, ये सारी इंद्रियां कैसे संयुक्त होती हैं? आंख देखती है, कान सुनते हैं, जीभ बोलती है; कहीं भीतर किसी एक केंद्र पर ये सब मिलने चाहिए। अन्यथा, यह संभव ही न हो पायेगा।
मैं बोल रहा हूं, आप कान से तो सुन रहे हैं और आंख से देख रहे हैं, लेकिन भीतर कहीं दोेनों मिल जाते हैं, और आपको लगता है कि वही आदमी बोल रहा है जिसको हम देख रहे हैं। आंख और कान अपने अनुभव को जा कर कहीं भीतर किसी एक केंद्र पर उंडेल देते हैं, जहां मिलन हो जाता है ..- वह जो इंद्रियों के भीतर छिपा हुआ पुरुष है; वह जो चैतन्य है, चेतना है, आत्मा है। आंख देखती है, कान सुनते हैं, नाक सुगंध लेती है, हाथ छूतेे हैं..सब अपने अनुभव को ले जा कर आत्मा में उंडेल देते हैं..जैसे चारों तरफ के द्वारों से नौकर-चाकर सामान लाते हैं और मालिक के पास चरणों में रख देते हैं।
इंद्रियां अपने-आप में तो कुछ भी नहीं कर सकतीं। जिस दिन भीतर का पक्षी उड़ जाता है, आंख बिल्कुल ठीक होती है, लेकिन देख नहीं सकती; कान बिल्कुल ठीक होते हैं, लेकिन सुन नहीं सकते; ओंठ बिल्कुल ठीक होतेे हैं, लेकिन बोल नहीं सकते। वह जो जोड़ था, जा चुका। जिसके कारण ये सब जुड़े थे एक सेतु में, वह सेतु बिखर गया।
जैसे माला के मनके हैं और भीतर एक धागा है; दिखाई नहीं पड़ता, पर वही आधार है। धागा टूटा और मनके बिखरे। इंद्रियां मनकों जैसी हैं; आत्मा धागे जैसी है..वही उन्हें सम्हाले हुए है। और तुम नौकरों के पीछे चल रहे हो। और मालिक की तुम्हें खबर ही नहीं। जो आंखंे कहती हैं, उन्हीं के पीछे तुम चल पड़ते हो। आंख कहती है, सुंदर स्त्री..भागे। कान कहता है, सुंदर संगीत..रुक गये। तुम इंद्रियों की सुन कर चल रहे हो, बिना यह जाने हुए कि इंद्रियों से ज्यादा असमर्थ और कौन है। इंद्रियां तो बिल्कुल असहाय हैं; किसी और के कारण उनमें ज्योति है; किसी और के कारण जीवन है; किसी और के कारण शक्ति है; कोई और ही असली मालिक है, जो भीतर छिपा है। वह दिखाई नहीं पड़ता; वह धागे की तरह अनस्यूत है। माला के मनके दिखाई पड़ते हैं, सब बिखर जायेंगे मनके; एक क्षण न लगेगा, भीतर का पक्षी भर उड़ जाये।
तो कबीर कहते हैं: ‘जो देखै सो कहै नहिं, कहै सो देखे नाहिं। सुनै सो समझावै नहिं, रसना दृग श्रुति काहि।।’ इनका क्या उपयोग है..आंख का, नाक का, कान का? तुम क्यों इनके पीछे दीवाने हो? तुम उसकी फिक्र लो जिसकी ये सेवा में रत हैं। मालिक को खोजो। वही मालिक आत्मा है।
‘भरो होय सो रीतई, रीतो होय भराय। रीतो भरो न पाइये, अनुभव सोई कहाय।।’
अनुभव की ऐसी व्याख्या दुर्लभ है। बड़े-बड़े ज्ञानियों ने अनुभव की व्याख्या की चेष्टा की है, लेकिन कबीर करीब-करीब सफल हो गये हैं।
इसे थोड़ा गहराई से समझने की कोशिश करें।
जीवन विपरीत का जोड़ है। दिन आता, रात आती; जन्म होता, मृत्यु होती; सुख-दुख, संपत्ति-विपत्ति, स्वास्थ्य-बिमारी..एक दूसरे में बदलते रहते हैं। अभी स्वस्थ हैं, घड़ी भर बाद बीमार हो गये। जब स्वस्थ थे तो सोच भी न सकते थे कि बीमारी आ सकेगी। जब बीमार हो गये तो भरोसा नहीं आता कि अब फिर कैसे स्वस्थ होंगे। घड़ी भर पहले प्रसन्न थे, अब उदास हो गये। जब प्रसन्न थे तो ऐसा लगता था कि अब कैसी उदासी; जीत लिया, पा लिया। अब उदास हो गये तो अब ऐसा लगता है, अब कैसे उबरेंगे इस
उदासी से? फिर कभी प्रसन्न हो पायेंगे कि न हो पायेंगे?
लेकिन अगर थोड़ा ही समझो, अगर लौट कर देखो, जीवन का विश्लेषण करो, तो पाओगे कि हर चीज अपने से विपरीत में बदल जाती है। न तो सुख टिकता है, न दुख टिकता है। सुख दुख में बदल जाता है; दुख सुख में बदलते रहते हैं। अगर यह समझ आ जाये तो न तो तुम दुख में दुखी होओगे; क्योंकि तुम जानते हो, थोड़ी देर में ही यह बदल जायेगा; और न तुम सुख ही में मतवाले हो जाओगे, सुख में इतने उत्तेजित न हो जाओगे कि भूल जाओ सब। तुम जानते हो कि थोड़ी देर में बदल जायेगा। दिन आया, रात आयेगी; रात आई, दिन आयेगा। इसको कबीर ने कहा है: ‘भरो होय सो रीतई’-जो भरा है वह खाली होगा। इससेे बचने का कोई उपाय नहीं है। यह जीवन का शाश्वत नियम है। जो जवान है, वह बूदा होगा; जो जीवित है वह मरेगा; जिसने पाया है वह खोयेगा; जो सफल है, वह असफल होगा; जो शिखर पर पहुंच गया है, खाई में गिरेगा।
‘भरो होय सो रीतई’-जो भरा है वह खाली होगा। ‘रीतो होय भराय’..और जो रीता है वह भरेगा।
पहाड़ गिरेंगे, झीलें बनेंगी; झीलें भरेंगी, पहाड़ उठेंगे..ऐसा होता ही रहा है। ‘रीतो भरो न पाइये, अनुभव सोई कहाय।’ तो एक ऐसी दशा पानी है जहां न तो हम रीते हों और न भरे..तभी मुक्ति, तभी मोक्ष, तभी परमानंद; क्योंकि फिर कोई फर्क न होगा।
‘रीतो भरो न पाइयेे।’
तो क्या तुम अपने भीतर एक ऐसी दशा भी खोज सकते होे, जब न तो तुम कह सको कि मैं रीता हूं और न कह सको कि भरा हूं; न तो कह सको कि दुखी हूं और न कह सको कि सुखी हूं; न तो कह सको शांत हूं, न कह सको कि अशांत हूं; न तो कह सको कि जीवित हूं और न कह सको कि मरा हूं। दोेनों के ठीक मध्य में अतिक्रमण है..ट्रांसेंडेंस है। दोेनों के मध्य में जिसने पा लिया, विपरीत के बीच में जो सम्हल गया..कहते हैं कबीर..‘अनुभव सोइ कहाय’; वही अनुभव है आत्मा का, अन्यथा सब अनुभव मन के हैं।
मन है द्वंद्व। मन है अपने विपरीत के साथ डोलना। मन या तो दुख या सुख; मन या तो प्रसन्न या अप्रसन्न; मन या तो हारा हुआ या जीता हुआ..मध्य में कभी नहीं टिकता। मन घड़ी के पेंडुलम की तरह घूमता रहता है। और जब घड़ी का पेंडुलम बीच में टिक जाता है तो घड़ी बंद हो जाती है। जिस दिन तुम मध्य में ठहर जाओगे, उसी दिन मन की घड़ी बंद हो गई; उसी दिन समय बंद हो गया; उसी दिन आवागमन बंद हो गया; उसी दिन तुम मुक्त हो गये।
मध्य में है मुक्ति। और मध्य को बदलने वाला कोई भी नहीं है। मध्य मे विपरीत कोई भी नहीं है। इसलिए बुद्ध अपने मार्ग को ‘मध्यम मार्ग’ कहते हैं..मज्झिम निकाय, दि मिडल वे। बीच में आ गये, सब पा लिया। लेकिन जिस भांति कबीर ने कहा है, इस भांति खोजना बहुत मुश्किल है।
ज्ञानियों को भी, समझाने के लिए, एक अति या दूसरी अति को चुनना पड़ा है। वेद कहते हैं; भर जाओ उस परिपूर्ण से, इतने भर जाओ कि जरा भी खाली न रहो। बुद्ध कहते हैं: खाली हो जाओ, शून्य हो जाओ; अहंकार से इतने खाली हो जाओ कि रत्ती भर अहंकार न रहे। बुद्ध खालीपन के द्वारा उस तरफ इशारा करते हैं: वेद भरेपन के द्वारा उस तरफ इशारा करते हैं..दोेनों का मतलब एक ही है। बुद्ध कहते हैं: अहंकार से खाली हो जाओ, शून्य हो जाओ। इसलिए बुद्ध का मत ‘शून्यवाद’ कहलाता है। उनका जो शून्य पर है। वे नकार और शून्य का प्रयोग करते हैं..अहंकार से खाली हो जाओ। फिर वे नहीं कहते कि तुम परमात्मा से भर जाओगे: वह अपने-आप हो जायेगा, उसकी चिंता न करो। अहंकार से खाली हो जाओ।
वेद, शंकर, वेेदांत दूसरी तरफ से चर्चा करते हैं: भर जाओ परमात्मा से। तुम खाली होने की चिंता ही मत करो। जब तुम बिल्कुल भर जाओगे, अहंकार बाहर फेंक दिया जायेगा अपने-आप। जब परमात्मा भरेगा तुममें, अहंकार को जगह न रहेगी टिकने की।
लेकिन कबीर बेमिसाल हैं। कबीर बेजोड़ हैं। कबीर बुद्ध से ज्यादा सफल हैं अनुभव की व्याख्या में; वेद से ज्यादा सफल हैं। वेदांत और बुद्ध दोेनों से ज्यादा बारीक उन्होंने बात कह दी है, और वह यह है: ‘भरो होय सो रीतई, रीतो होय भराय। रीतो भरो न पाइये, अनुभव सोइ कहाय।।’
‘ऐसो उ˜ुत मत कथो’..वे खुद भी समझ गये हैं इस बात को कि यह बात अ˜ुत है, अनूठी है, कभी कही नहीं गई है। ‘कथो तो धरो छिपाय’..यह एक ऐसी अनूठी बात है कि कबीर कहते हैं कि मैं इसे छिपा कर रखे हुए हूं..कि कोई पात्र मिले तो उसे कहूं।
वेद कुराना ना लिखी’..वेद और कुरान में लिखी नहीं है यह बात। कहूं तो को पतियाय’..और अगर मैं कहूं सबसे, कौन मेरी सुनेगा? वेद में लिखी हो तो शायद लोग मान भी लें, कुरान में लिखी हो तो शायद लोग मान भी लें; लेकिन न वेद में लिखी है, न कुरान में।
‘भरो होय सो रीतई, रीतो होय भराय। रीतो भरो न पाइयेे, अनुभव सोई कहाय।। ऐसो अ˜ुत मत कथो, कथो तो धरो छिपाय।’..कहना चाहता हूं यह अ˜ुत बात, मेरे ख्याल में है, लेकिन छिपा कर रखे हुए हूं। किसको कहूं? कौन पतियायेगा? कौन भरोसा करेगा? क्योंकि न तो लिखी है कुरान में, न लिखी है वेद में। वेद में होती, हिंदू मान लेतेे; कुरान में होती, कम-से-कम मुसलमान मान लेते; इसे कोई भी न मानेगा। सच तो यह है कि धर्म की बात न हिंदू मानेगा, न मुसलमान मानेगा; धर्म की बात तो वही मानेगा जो न अब हिंदू है, न मुसलमान है, न जैन है, न ईसाई है, न पारसी है, न सिक्ख है।
धर्म का कोई नाम नहीं। धर्म विशेषणरहित है। संप्रदायों के नाम हैं, और सभी संप्रदाय किसी एक पहलू पर जोर देते हैं। कोई भरे पर जोर देगा, कोई खाली पर जोर देगा। कबीर कहतेे हैं: ‘दोेनों पर जोर मत दोे। तुम बीच में ठहर जाओ और उस जगह को खोज लो...।’’
...और ऐसी जगह है, कैसे तुम खोजोगे?
जब दुख आये बस तुम शांत बैठ जाओ और दुख को देखो, कुछ करो मत दुख मिटाने के लिए या हटाने के लिए, लड़ने के लिए, भुलाने के लिए..कुछ भी मत करो। दुख आये, आंसू बहें, हृदय रोये..तुम बैठे भीतर गुफा में छिपे देखते रहो। तुम कोई कोशिश मत करो दुख को हटाने की। क्योंकि अगर तुमने दुख को हटाने की कोशिश की तो अर्थ हुआ कि तुम सुख को मांगने की कोशिश कर रहे हो। अगर दुख खालीपन था तो सुख भरापन होगा। जब सुख आये, तब भी तुम शांत बैठ कर देखो; पकड़ने की कोशिश मत करो। कोशिश मत करो कि बच जाये, ठहर जाये, और थोड़ी देर रुक जाये। देखते रहो..आये तो ठीक, जाये तो ठीक। क्योंकि अगर तुमने सुख को पकड़ने की कोशिश की, रोकने की कोशिश की, उसी कोशिश से दुख को निमंत्रण मिल जाता है। जितना तुम सुख को रोकना चाहोगे, उतने ज्यादा दुखी होओगे। दोेनों एक-दूसरे से जुड़े हैं। अगर तुम एक तरफ ज्यादा झुके, तत्क्षण दूसरा आ जायेगा।
तुमने कभी नट को रस्सी पर चलते देखा? बस सारा जीवन का खेल उस रस्सी में छिपा है। नट एक बांस को हाथ में ले लेता है, रस्सी पर चलते वक्त, ताकि अपने को बैलेंस, संतुलित कर सके। हर कदम पर खतरा है। जरा ही बाएं झुकता है कि घबड़ाहट पैदा होती है कि अब बाएं गिर जायेगा। तो जैसे ही बाएं झुका कि वह तत्क्षण अपने डंडे को दाएं झुकाने लगता है। जैसे ही खतरा पैदा हुआ कि अब बाएं अगर जरा और झुका तो गिरूंगा, वह तत्क्षण अपने को दाएं ले लेता है, ताकि संतुलन बन जाये। लेकिन फिर खतरा है, क्योंकि संतुलन कोई स्थायी चीज नहीं है; हर क्षण बनानी पड़ेगी, हर कदम पर बनानी पड़ेगी। अब वह दाएं झुक जायेगा, थोड़ा ज्यादा। तो फिर खतरा पैदा हुआ कि गिर जायेगा, फिर बाएं झुकाता है। बाएं झुकाता है ताकि दाएं न गिर जाये; दाएं झुकाता है ताकि बाएं न गिर जाये। ऐसे बीच में रस्सी पर सम्हलता है।
सुख और दुख दाएं-बाएं हैं। और अगर तुम शांत भीतर बैठ जाओ; न तुम दाएं झुको, न तुम बाएं झुको; तुम सिर्फ देखते रहो, साक्षी बन जाओ; दुख आये तो दुख को जानो..बिना किसी निर्णय के कि अच्छा हुआ, बुरा हुआ; होना था, नहीं होना था; सिर्फ जानो कि दुख है। उसकी प्रतीति करो। सुख को लाने की कोशिश मत करो, अन्यथा झुके तुम दूसरी तरफ। जब सुख आये, पकड़ने की कोशिश मत करो, अन्यथा झुके तुम दूसरी तरफ। और अगर तुम दोेनों को देखते रहो, देखते रहो, देखते रहो, एक दिन अचानक तुम पाओगे कि तुम दोेनों से पृथक हो, अचानक तुम पाओगे कि दोेनांे तुम्हारे आसपास हो रहे हैं और तुम दोेनोें के पार हो। यह जो पार-तत्व है, यही पारब्रह्म है। यह जो पार-तत्व है जो दोेनों को देखता है और दोेनोें नहीं है..यही है वह घड़ी ‘रीतो भरो न पाइये।’ फिर तुम न खाली हो और न भरे हो, क्योंकि न तुम सुख हो, न तुम दुख हो..‘अनुभव सोइ कहाय।’
‘ऐसो अ˜ुत मत कथो, कथो तो धरो छिपाय। वेद कुराना ना लिखी, कहूं तो को पतियाय।।’

आज इतना ही।

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