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रविवार, 26 अगस्त 2018

घाट भुलाना बाट बिनु-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन

कृष्ण की अनासक्ति, बुद्ध की उपेक्षा, महावीर की वीतरागता, क्राइस्ट की तटस्थता

क्राइस्ट की तटस्थता और बुद्ध की उपेक्षा, महावीर की वीतरागता और कृष्ण की अनासक्ति, इनमें बहुत सी समानताएं हैं। लेकिन बुनियादी भेद भी है। समानता अंत पर है, उपलब्धि पर है; भेद मार्ग में है। अंतिम क्षण में ये चारों बातें एक ही जगह पहुंचा देती हैं। लेकिन चारों के रास्ते बड़े अलग-अलग हैं। जीसस जिसे तटस्थता कहते हैं, बुद्ध जिसे उपेक्षा कहते हैं, इनमें बड़ी गहरी समानता है। यह जगत कैसा है, इस जगत की धाराएं जैसी है, इस जगत के अंतद्र्वंद्व जैसे हैं, इस जगत में भेद और विरोध जैसे हैं..उनके प्रति को तटस्थता हो सकती है। लेकिन तटस्थता कभी भी प्रसन्नता नहीं हो सकती। तटस्थता बहुत गहरे में उदासी बन जाएगी। इसलिए जीसस उदास हैं और अगर वे किसी आनंद को पाते भी हैं, तो वह इस उदासी के रास्ते से ही उन्हें उपलब्ध होता है। लेकिन उसका पूरा रास्ता उदास हैं। वे जीवन के पथ पर गीत गाते हुए नहीं निकलते। तटस्थता उदासी बन ही जाएगी।

और जीसस की तटस्थता बहुत उदासी बन गई है। अगर मैं न यह चुनूं, अगर कोई चुनाव न हो तो मेरे भीतर की बहनेवाली सारी धाराएं रुक जाएंगी। नदी न पूरब बहे, न पश्चिम बहे, न दक्षिण बहे, न उत्तर बहे, तटस्थ हो जाए तो वह उदास तालाब बन जाएगी। तालाब भी सागर तक पहुंच जाता है लेकिन नदी के रास्ते से नहीं, सूर्य की किरणों के रास्ते से पहुंचता है। लेकिन नदी, जो बीच का रास्ता नाचते हुए, गीत गाते हुए तय करती है वह भाग्य तालाब का नहीं है। तालाब सूखता है धूप में, गर्मी में उत्तप्त होता है, उड़ता है, भाप बनता है, बादल बनता है। सागर तक पहुंच जाता है। लेकिन नदी की मुदिता, उसकी प्रफुल्लता, उसकी ‘एक्सटैसी’ तालाब को नहीं मिलती। वह उदासी स्वाभाविक है। सूरज की किरणों में तपना और भाप बनाना उदासी हो सकती है। तालाब नाचता हुआ बादलों पर नहीं चढ़ता पर नदी नाचती हुई सागर में उतर जाती है और तालाब सीधा भी सागर तक नहीं पहुंचता, बीच में भाप बनता है, फिर पहुंचता है। तो जीसस एक उदास बादल की तरह हैं जो आकाश में मंडराता है और सागर की यात्रा करता है। नाचती हुई नदी की तरह नहीं हैं।
बुद्ध और जीसस की जीवन-व्यवस्था में थोड़ी निकटता है, लेकिन एकदम निकटता नहीं है। क्योंकि बुद्ध और तरह के व्यक्ति हैं। जहां जीसस की तटस्थता जीसस को उदास कर जाती है वहां बुद्ध की उपेक्षा बुद्ध को सिर्फ शांत कर जाती है, उदास नहीं। इतना फर्क है। बुद्ध की उपेक्षा सिर्फ शांत कर जाती है। न वहां उदासी है जीसस-जैसी, न वहां कृष्ण जैसा नाचता हुआ गीत है, न महावीर जैसा झरता हुआ अप्रकट सुख और आनंद है। बुद्ध शांत हैं, तटस्थ नहीं हैं। तटस्थता तो उदासी ले ही आएगी। वे सिर्फ तटस्थ नहीं हैं, वे उपेक्षा को उपलब्ध हैं। पाया है कि यह भी व्यर्थ है, पाया है कि वह भी व्यर्थ है। इसलिए उत्तेजित होने का उन्हें कोई उपाय नहीं रहा है। उन्हें कोई भी आल्टरनेटिव, कोई भी विकल्प उत्तेजित नहीं कर पाता। सब विकल्प समान हो गए हैं। जीसस के लिए तटस्थता है। विकल्प समान हैं, पर जीसस अभी भी कहेंगे, यह ठीक है और वह गलत है। यह करो और वह मत करो। यद्यपि वे दोनों से तटस्थ हैं, लेकिन बहुत गहरे में उनका चुनाव जारी है। बुद्ध अचुनाव को (च्वाइसलेसनेस) उपलब्ध होते हैं। बुद्ध को अगर हम ठीक से समझें तो बुद्ध के लिए न कुछ सही है न कुछ गलत है। सिर्फ चुनाव ही गलत है, और अचुनाव सही है। च्वाइस गलत है, च्वाइसलेसनेस सही है। इसलिए जीसस अपनी तटस्थता में होली, इनडिफरेंस में भी, मंदिर में जाकर कोड़ा उठा लेते हैं और सूदखोरों को कोड़े से पीप देते हैं, उनके तख्त उलट देते हैं। यहूदियों के मंदिर में, सिनागाग में पुरोहित ब्याज का काम भी करते थे। हर वर्ष लोग इकट्ठे होते थे मेले में, और तब वे उन्हें उधार देते थे और सूद लेते थे। सूद की दर इतनी बढ़ गई थी कि लोग अपना मूल तो कभी चुका ही नहीं पाते थे, ब्याज भी नहीं चुका पाते थे।
और जिंदगी भर मेहनत करके बस इतना ही काम करते थे कि वे हर वर्ष आकर पुरोहितों को उनके ब्याज का पैसा चुका जाएं। पूरे मुल्क का धन सिनागाग में इकट्ठा होने लगा। तो जीसस कोड़ा उठा लेते हैं, तख्ते उलट देते हैं सूदखोरों के। जीसस इनडिफरेंट हैं, तटस्थ हैं, लेकिन चुनाव जारी है। वे कहते हैं कि इस जगत के प्रति एक तटस्थता चाहिए। लेकिन इस जगत में अगर गलत हो रहा है, तो जीसस चुनाव करते हैं। लेकिन बुद्ध को हम हाथ में कोड़ा उठाए हुए नहीं सोच सकते। उनका कोई चुनाव नहीं है, उनका काई चुनाव ही नहीं है। अचुनाव के कारण वे गहरी साइलेंस को, गहरी शांति को उपलब्ध हुए हैं। इसलिए बुद्ध को समझते वक्त शांति सबसे महत्वपूर्ण शब्द है। बुद्ध की प्रतिमा से जो भाव प्रकट होता है और झरता है चारों तरफ, वह शांति का है। कहना चाहिए शांति बुद्ध में मूर्तिमंत हुई है। कोई उत्तेजना नहीं है। तालाब की उत्तेजना भी नहीं है। तालाब भी कम से कम धूप की किरणों में भाप बनता है और आकाश की तरफ उड़ता है। बुद्ध इतने शांत हैं कि वे कहते हैं कि मैं सागर की तरफ जाने की उत्तेजना नहीं लेता। सागर को आना हो तो आ जाए। वे इतनी भी यात्रा करने की तैयारी में नहीं हैं। उतनी यात्रा भी तनाव है। इसलिए बुद्ध ने सागरवाची जितने भी प्रश्न हैं सबको इंकार कर दिया। कोई पूछे ईश्वर है, कोई पूछे ब्रह्म है, कोई पूछे मोक्ष है, कोई पूछे आत्मा का मरने के बाद क्या होता है?
इस तरह के जितने भी प्रश्न हैं बुद्ध उनको हंस कर टाल देते हैं। वे कहते हैं यह पूछो ही मत। क्योंकि अगर कुछ भी है तो उस तक की यात्रा पैदा होती है और यात्रा अशांति बन जाती हैं। वे कहते हैं..मैं जहां हूं वहीं हूं। मुझे कोई यात्रा नहीं करनी है, मुझको कोई तनाव नहीं करना है। इसलिए अगर बुद्ध की उपेक्षा बहुत गहरे में देखें तो सिर्फ संसार की उपेक्षा नहीं है। जीसस की उपेक्षा सिर्फ संसार की उपेक्षा है, लेकिन परमात्मा का चुनाव जारी है। बुद्ध की उपेक्षा परमात्मा की भी उपेक्षा है। वे कहते हैं, परमात्मा को भी पाना है तो यह भी तो मन की डिजायर, तृष्णा और ईष्र्या है। आखिर नदी क्यों सागर को पाना चाहे और नदी सागर को पाकर भी क्या पा लेगी? अगर सागर में ज्यादा जल है तो मात्रा का ही फर्क पड़ता है। नदी में भी जल है, और सागर के जल में और नदी के जल में फर्क क्या है! बुद्ध कहते हैं, हम जो हैं..हैं; और वहीं शांत है। इसलिए बुद्ध की उपेक्षा यात्राविहीन है। बुद्ध के चेहरे पर, बुद्ध की आंखों में यात्रा नहीं देखी जा सकती है। वे स्थिर हैं, ठहर गए हैं, वहीं हैं, जैसे कोई ताल बिल्कुल शांत हो। न नदी की तरह भागता हो, न आकाश की तरफ उड़ता हो, बिल्कुल शांत हो। एक लहर भी न उठती हो, एक रिपल भी पैदा न होती हो। ऐसे बुद्ध का होना है।
स्वभावतः बुद्ध की शांति निगेटिव होगी, नकारात्मक होगी। उसमें कृष्ण का प्रकट आनंद नहीं हो सकता, उसमें महावीर का अप्रकट आनंद भी नहीं हो सकता। लेकिन जो इतना शांत होगा कि जिसे सागर तक पहुंचने की इच्छा भी नहीं है, क्या वह अंततः आनंद को उपलब्ध नहीं हो जाएगा? हो जाएगा। लेकिन वह बुद्ध की भीतरी दशा होगी। उनके अंतर तक में वह आनंद का दीया जलेगा, लेकिन बाहर उनकी सारी की सारी आभा, उनका प्रभामंडल है, वह शांति का होगा। दीए की गहरी ज्योति जहां होगी वहां तो आनंद होगा, लेकिन उसका प्रभामंडल सिर्फ शांति का होगा। बुद्ध से हिलते-डुलते सोचना भी कठिन मालूम पड़ता है। बुद्ध की कोई चिंतना करे, सोचे तो ऐसा भी नहीं लगता कि यह आदमी उठकर चला भी होगा। उनकी प्रतिमा देखें तो ऐसी लगती है जैसे यह आदमी सदा बैठा ही रहा हो। यह उठा भी होगा, हिला भी होगा, डुला भी होगा, इसने पैर भी उठाया होगा, इने ओठ ही खोला होगा, यह बोला भी होगा, ऐसा भी मालूम नहीं पड़ता।
बुद्ध की प्रतिमा ‘जस्ट स्टिलनेस’ की प्रतिमा है जहां सब चीजें ठहर गई हैं, जहां कोई मूवमेंट नहीं है, किसी तरह की कोई गति नहीं है। तो बुद्ध की आभा जो है वह शांति की है। फिर बुद्ध की उपेक्षा समस्त तनावों की उपेक्षा है। चाहे वे तनाव मोक्ष के ही क्यों न हों। कोई आदमी मोक्ष ही क्यों न पाना चाहे, बुद्ध कहेंगे, कि पागल हो! कहीं मोक्ष है? कोई कहे आत्मा को पाना है, तो बुद्ध कहेंगे, कि पागल हो! कहीं आत्मा है? असल में जब तक पाना है तब तक बुद्ध कहेंगे, तुम पा न सकोगे। तुम उस जगह खड़े हो जाओ जहां पाना ही नहीं है। तब तुम पा लोगे। लेकिन यह बात वे कभी साफ कहते नहीं है। क्योंकि अगर वे इतना भी कहें कि तब तुम पा लोगे, तो हत तत्काल पाने को दौड़ पड़ेंगे। तो बुद्ध सिर्फ निषेध करते जाते हैं। वे कहते हैं न परमात्मा है, न आत्मा है, न मोक्ष है, कोई भी नहीं है। है ही नहीं कुछ। क्योंकि जब तक कुछ है तक तक तुम पाना चाहोगे। और जब तक तुम पाना चाहोगे तब तक तुम न पा सकोगे। क्योंकि जो भी पाना है वह ठहर के, रुक के, मौन में, थिरता में, शून्य में पाना है। और तुम्हारी चाह, तुम्हारी तृष्णा तुम्हें दौड़ता रहेगी। तृष्णा मूल है बुद्ध के लिए, और उपेक्षा सूत्र है तृष्णा से मुक्ति का। चुनो ही मत, पूछो ही मत कि कहीं जाना है। मंजिल बनाओ ही मत, मंजिल नहीं है कोई।
जीसस के लिए मंजिल है। इसलिए जगत के प्रति वे एक होली इनडिफरेंस, पवित्र तटस्थता की बात करते हैं। लेकिन परमात्मा के प्रति उनकी इनडिफरेंस नहीं हो सकती। अगर वैसा कोई इनडिफरेंस है तो वह अनहोली इनडिफरेंस होगी। वह पवित्र तटस्थता न होगी। उनकी पवित्र तटस्थता संसार के प्रति है। अगर हम जीसस से पूछें कि बुद्ध तो कहते हैं, कोई परमात्मा नहीं है। कैसा परमात्मा? कोई आत्मा नहीं। है कैसी आत्मा? न कुछ पाने को है, न कोई पानेवाला है। इसलिए बुद्ध जो बात करते हैं वह बहुत अदभुत है। अगर उनसे पूछो कि कोई भी नहीं है, तो वे कहते हैं यह जो हमें दिखाई पड़ रहा है सिर्फ संघटन है, सिर्फ संघात है, सिर्फ एक कंपोजीशन है। जैसे रथ है..उसका चाक अलग कर लें, घोड़े अलग कर लें, बल्ली अलग कर लें तो फिर रथ पीछे नहीं बचता! रथ सिर्फ एक जोड़ है। ऐसे ही तुम भी एक जोड़ हो। यह सारा जगत एक जोड़ है।
चीजें टूट जाती हैं पीछे कुछ भी नहीं बचता। न कोई आत्मा, न कोई परमात्मा। और यही पाने योग्य है। लेकिन यह सदा बुद्ध भीतर कहते हैं। यह भी बाहर नहीं कहते। इसलिए जो बहुत गहरे समझ सकते हैं वही समझ पाते हैं; अन्यथा बुद्ध के पास से तृष्णालु व्यक्ति सभी लौट जाते हैं, जिसको कुछ भी पाना है। वह कहते हैं यह आदमी व्यर्थ है। इसके पास पाने को कुछ नहीं है शांत होने को हम नहीं आए हैं, हम कुछ पाने को आए हैं। और बुद्ध उन पर हंसते हैं। क्योंकि वे कहते हैं शांत होकर ही पाया जा सकता है। वह जो परमात्मा है, शांत होकर ही पाया जा सकता है। वह जो आत्मा है, उसे शांत होकर ही पाया जा सकता है। वह जो मोक्ष हैं, तुम उसको लक्ष्य मत बनाओ। तुम अगर मुझसे पूछोगे मोक्ष है? और मैं कहूं..है, तो तुम तत्काल लक्ष्य बना लोगे। और लक्ष्य की तरफ दौड़ता आदमी कभी शांत नहीं होता है। इसलिए बुद्ध की अपनी तकलीफ है। उनकी उपेक्षा शांति को ले जाती है..इतनी गहरी शांति में जहां कोई यात्रा ही नहीं है।
महावीर की वीतरागता, बुद्ध की शांति से मेल खाती है थोड़ी दूर तक। क्योंकि इस जगत में वे भी उपेक्षा के पक्ष में है। और थोड़ी दूर तक महावीर जीसस से मेल खाती है। क्योंकि उस जगत में मोक्ष के प्रति उनका चुनाव है। महावीर मोक्ष के प्रति अचुनाव में नहीं हैं। क्योंकि महावीर कहेंगे, अगर मोक्ष भी नहीं है तो फिर शांति होने का प्रयोजन ही क्या है? फिर अशांत होने में हर्ज भी क्या है? अगर कुछ पाने को ही नहीं है तो फिर चुप और मौन बैठने का प्रयोजन भी क्या है? महावीर कहेंगे कि सब छोड़ा जाए, तो कुछ पाने को है; और जो पाने को है उसी के लिए सब छोड़ा जो सकता है। इसलिए मोक्ष के प्रति महावीर की उपेक्षा नहीं है। वीतरागता उनकी, इस जगत का जो द्वंद्व है, उसके पार ले जानेवाली है, निद्र्वंद्व की उपलब्धि का मार्ग है।
लेकिन महावीर की वीतरागता किसी उपलब्धि का मार्ग है, बुद्ध की उपेक्षा अनुपलब्धि का द्वार है जहां सब शून्य हो जाएगा और सब खो जाएगा। बुद्ध का संन्यास एक अर्थ में पूर्ण है। उसमें परमात्मा की भी मांग नहीं है। महावीर के संन्यास में मोक्ष की जगह है। महावीर यह कहते हैं कि संन्यास संभव ही नहीं है, अगर मोक्ष नहीं है; तो फिर सब किस लिए? क्योंकि महावीर का चिंतन बड़ा वैज्ञानिक है। महावीर कहते हैं कि कार्य-कारण बिना कुछ होता ही नहीं। इसलिए वे बुद्ध से राजी नहीं होगे कि हम सिर्फ शांत हो जाएं बिना किसी वजह से। महावीर कहते हैं, अशांत होने की भी वजह होती है और शांत होने की भी वजह होती है। वे कृष्ण से भी राजी न होंगे इस बात के लिए कि हम सब कुछ स्वीकार कर लें। क्योंकि महावीर कहते हैं, अगर हम सब कुछ स्वीकार कर लेते हैं तो हम आत्मवान ही नहीं रह जाते हैं, हम तो पदार्थ की तरह हो जाते हैं। आत्मवान होने का अर्थ है डिसक्रिमिनेशन। महावीर कहते हैं, आत्मवान होने का अर्थ है विवेक..यह ठीक है, और यह गलत है, इस बात का विवेक ही आत्मवान होने का अर्थ है। और जो गलत है उसे छोड़ते जाना है। राग भी गलत है और विराग भी गलत है, इसलिए दोनों को छोड़ देना है और वीतरागता को पकड़ लेना है। महावीर के लिए वीतरागता उपलब्धि है, और वीतरागता से मोक्ष है।
तो महावीर सिर्फ शांत ही नहीं है..शांत तो हैं ही, लेकिन आनंदित भी हैं। मोक्ष की उपलब्धि की किरणें उनके भीतर ही नहीं फैलती, उनके शरीर के चारों ओर नाचने लगती हैं। इसलिए अगर महावीर और बुद्ध को साथ-साथ खड़ा करें तो बुद्ध बिल्कुल पैसिव साइलेंस में हैं, जैसे हों ही नहीं। महावीर एक्टिव साइलेंस में हैं, बहुत होकर हैं। बहुत मजबूती से हैं। हां, उनके होने में चारों तरफ आनंद की प्रखरता है। लेकिन अगर कृष्ण के पास महावीर को खड़ा करें तो महावीर का आनंद भी साइलेंट मालूम पड़ेगा, शांत मालूम पड़ेगा, और कृष्ण का आनंद आंदोलित मालूम पड़ेगा। कृष्ण नाच सकते हैं, महावीर नाच नहीं सकते। अगर महावीर के नाच को देखना है तो उनकी शांति और मौन को उनकी थिरता में ही देखना होगा। वह दिखाई पड़ सकता है उनके रोएं-रोएं से, उनकी सांस-सांस से, उनकी अ के हिलने-डुलने से, उनके चलने से। सब तरफ से उनका आनंद दिखाई पड़ेगा; लेकिन वे नाच नहीं सकते। यह नाच देखना पड़ेगा। यह इनडाइरेक्ट है, यह परोक्ष है। तो महावीर की वीतरागता प्रकट रूप से आनंद को घोषित करती है। इसलिए महावीर की प्रतिमा और बुद्ध की प्रतिमा में वही फर्क है। महावीर की प्रतिमा में आनंद प्रकट होता मालूम पड़ेगा। बुद्ध एकदम भीतर चले गए हैं, उनके बाहर कुछ जाता हुआ मालूम नहीं पड़ता। वह बिल्कुल ऐसे हो गए हैं जैसे ‘न हों’। महावीर ऐसे हो गए हैं जैसे ‘हों’। महावीर स्वयं हो गए हैं, जैसे पूरी तरह के हैं। उनके अस्तित्व की घोषणा समग्र है, इसलिए महावीर ईश्वर को इंकार कर देते हैं लेकिन आत्मा को इंकार नहीं कर पाते। महावीर कह देते हैं कोई परमात्मा नहीं है..हो भी कैसे सकता है?
मैं ही परमात्मा हूं। इसलिए महावीर कहते हैं, आत्मा ही परमात्मा है। तुम सब परमात्मा हो, कोई और अलग परमात्मा नहीं है। यह घोषणा उनकी प्रगाढ़ आनंद की एक्सटेसी से निकलती है। हर्षीन्माद में वे यह घोषणा करते हैं कि मैं ही परमात्मा हूं। कोई और ऊपर परमात्मा नहीं है। महावीर कहते हैं, अगर मुझसे ऊपर कोई भी परमात्मा है तो फिर मैं कभी पूरी तरह स्वतंत्र नहीं हो पाऊंगा। स्वतंत्रता की फिर कोई संभावना न रही। कोई एक परमात्मा ऊपर बैठा ही है। अगर मेरे ऊपर एक नियंता है, जिसके कानून से जगत चलता है, तो मेरी मुक्ति का क्या अर्थ है? कल अगर वह सोच ले कि वापस भेज दो इस मुक्त आदमी को संसार में, तो मैं क्या कर सकूंगा? इसलिए महावीर कहते हैं..स्वतंत्रता की गारंटी सिर्फ इसमें है कि परमात्मा न हो। परमात्मा और स्वतंत्रता दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते हैं। इसलिए परमात्मा को इंकार कर देते हैं; लेकिन आत्मा को बड़ी प्रगाढ़ता से घोषित करते हैं कि आत्मा की परमात्मा है। इसलिए महावीर मग प्रकट आनंद दिखाई पड़ता है। वह उनकी वीतरागता है। वीतरागता में वे बुद्ध से सहमत हैं अचुनाव के लिए। राग और विराग में चुनाव नहीं करना है; लेकिन संसार और मोक्ष में चुनाव नहीं करना है इस बात में वे बुद्ध से राजी नहीं हैं। वे कहते हैं.. संसार और मोक्ष में तो चुनाव करना ही है। इस मामले में वे जीसस से राजी हैं। इस मामले में जीसस की तटस्थता उनके करीब आती है। लेकिन जीसस का परमात्मा परलोक में है और मरने के बाद ही जीसस प्रसन्न हो सकते हैं, जब परमात्मा से मिल जाएं। महावीर का कोई परमात्मा परलोक में नहीं है। महावीर का परमात्मा भीतर है और वह यहीं पाकर प्रसन्न हैं। इसलिए जीसस उदास हैं पर महावीर उदास नहीं हैं।
कृष्ण की अनासक्ति का भी तीनों से कुछ तालमेल है और कुछ बुनियादी भेद भी है। कृष्ण को अगर हम इन तीनों के जोड़ से कुछ ज्यादा कहें तो कठिनाई नहीं है। कृष्ण की अनासक्ति उपेक्षा नहीं है। कृष्ण कहते हैं..जिसके प्रति उपेक्षा हो गई उसके प्रति हम अनासक्त नहीं हो सकते। क्योंकि उपेक्षा भी विपरीत आ सकती है। रास्ते से मैं गुजरा और मैंने आपकी तरफ देखा ही नहीं। देखने में भी एक आसक्ति है, न देखने में भी एक आसक्ति है। सिर्फ विपरीत आसक्ति है, कि नहीं देखूंगा। और फिर कृष्ण कहते हैं..उपेक्षा किसके प्रति? क्योंकि परमात्मा के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। जिसके प्रति भी उपेक्षा हुई, वह परमात्मा ही है। यह जगत पूरा का पूरा ही अगर परमात्मा है, तो उपेक्षा किसके प्रति? और उपेक्षा करेगा कौन? और जो उपेक्षा करेगा वह अहंकार से मुक्त कैसे होगा? उपेक्षा करेगा कौन? मैं करूंगा उपेक्षा? बुरे की उपेक्षा करूंगा अच्छे के लिए, संसार की उपेक्षा करूंगा मोक्ष के लिए? करेगा कौन? और करेगा किसकी? इसलिए उपेक्षा जैसे नकारात्मक और कंडेमनेटरी, निंदात्मक शब्द का उपयोग कृष्ण नहीं कर सकते। तटस्थता का भी उपयोग वे नहीं कर सकते।
क्योंकि कृष्ण कहेंगे परमात्मा खुद भी तटस्थ नहीं है, तो हम कैसे तटस्थ हो सकते हैं? तटस्थ हुआ नहीं जा सकता। कृष्ण कहते हैं..हम सदा धारा में हैं, तट पर हो नहीं सकते। जीवन एक धारा है। जीवन का कोई तट है ही नहीं जिस पर हम खड़े हो जाएं, और तटस्थ हो जाएं, और हम कह दें कि हम धारा के बाहर है। हम जहां भी हैं धारा के भीतर हैं; हम जहां भी हैं जीवन में हैं; हम जहां भी हैं अस्तित्व में हैं। तट पर हम खड़े हो नहीं सकते। होना ही..अस्तित्व ही धारा है। इसलिए तटस्थ हम होंगे कैसे? हां, नदी के किनारे हम तट पर खड़े हो जाते हैं। नदी बहती जाती है। हम तट पर खड़े रहते हैं। लेकिन जीवन की ऐसी कोई नदी नहीं है जिसके किनारे हम खड़े हो जाएं। जीवन की नदी का कोई किनारा ही नहीं है, तो तटस्थता शब्द का प्रयोग वह नहीं कर सकते। उपेक्षा शब्द का वे प्रयोग नहीं कर सकते। वीतराग शब्द का वे इसलिए प्रयोग नहीं कर सकते, क्योंकि वे यह कहते हैं कि अगर राग बुरा है, अगर विराग बुरा है तो है ही क्यों? बुरे का अस्तित्व भी कैसे हो सकता है? या तो हम ऐसा मानें कि जगत में दो शक्तियां हैं..एक शुभ की, परमात्मा की शक्ति है, एक अशुभ की, शैतान की शक्ति है। जैसा कि जरथुस्त्र मानते हैं, जैसा कि ईसाई मानते हैं, जैसा कि मुसलमान मानते हैं। उन सबकी तकलीफ यही है कि अगर जगत में अशुभ है तो फिर अशुभ की शक्ति हमें अलग करनी पड़ेगी परमात्मा से।
अन्यथा परमात्मा फिर अशुभ का भी स्रोत है। वह जरथुस्त्र नहीं सोच पाए, मोहम्मद नहीं सोच पाए। जीसस भी राजी नहीं हैं। इसलिए शैतान, डेविल, अशुभ के लिए हमें कोई जगह बनानी पड़ती है। कृष्ण यह कहते हैं कि अगर अशुभ भी है, अलग भी है, तो भी क्या वह परमात्मा की आज्ञा से है, या परमात्मा की आज्ञा के बिना है? उसके होने में भी परमात्मा के सहारे की जरूरत है, या वह स्वतंत्र रूप से है? तो वह ठीक परमात्मा के समतुल शक्ति हो गई। फिर इस जगत में शुभ कभी भी फलित नहीं हो सकता। फिर वह हारेगा भी क्यों? हारने की जरूरत भी क्या है? फिर इस जगत में दो परमात्मा होंगे। और इस जगत में दो परमात्मा की कल्पना असंभव है। इसलिए कृष्ण कहते हैं..शक्ति एक है और उसी शक्ति से सब उठता है। जिस शक्ति से स्वस्थ फल लगता है वृक्षों में, उसी शक्ति से सड़ा हुआ फल भी लगता है। उसके लिए किसी अलग शक्ति के होने की जरूरत नहीं है। और जिस चित्त से बुराई पैदा होती है उसी चित्त से भलाई पैदा होती है। उसके लिए अगल शक्ति की जरूरत नहीं है। शुभ और अशुभ एक ही शक्ति के रूपांतरण है। अंधकार और प्रकाश एक ही शक्ति के रूपांतरण हैं। इसलिए कृष्ण यह कहते हैं कि मैं दोनों को छोड़ने को नहीं कहता। दोनों को उनकी समग्रता में जीने को कहता हूं।
अनासक्ति का अर्थ, एक के पक्ष में दूसरे की आसक्ति नहीं, शुभ के पक्ष में अशुभ की आसक्ति नहीं। आसक्ति ही नहीं, चुनाव ही नहीं और जीवन जैसा है वह समग्र जीवन की पूर्ण स्वीकृति और इस समग्र जीवन के प्रति स्वयं का पूर्ण समापन, पूर्ण समर्पण। ‘आसक्ति’ का अर्थ यह है कि मैं अलग हूं ही नहीं, एक ही हूं इस जगत में। कौन चुने, किसको चुने? जगत जैसा करवा रहा है वैसा मैं लहर की तरह सागर में बहा जा रहा हूं। मैं अगल हूं ही नहीं। इसमें कुछ समानताएं मिलेंगी। कृष्ण, बुद्ध..जैसी शांति को उपलब्ध हो जाएंगे, क्योंकि कुछ उन्हें पाना नहीं है। जो भी है, वह पाया हुआ है। वे महावीर जैसे वीतराग दिखाई पड़ेंगे किन्हीं क्षणों में, क्योंकि उनके आनंद का कोई परावार नहीं है। वे जीसस जैसे परमात्मा की घोषणा करते दिखाई पड़ेंगे, इसलिए नहीं किस लोक में और ऊपर के लोक में परमात्मा कहीं बैठा है, बल्कि सब कुछ परमात्मा ही है।
कृष्ण की अनासक्ति समग्र समर्पण है, मैं का ‘न’ हो जाना है, ‘मैं’ है ही नहीं यह जानना है। इसके जान लेने के बाद, जो हो रहा है वह हो रहा है! इसमें कोई उपाय ही नहीं। इसमें हम कुछ कर सकते हैं, ऐसा है ही नहीं है। इसमें हमारे द्वारा कुछ हो सकता है, इसकी कोई संभावना ही नहीं है। कृष्ण अपने को एक लहर की तरह सागर में देखते हैं। कोई चुनाव नहीं करना है, इसलिए कोई आसक्ति नहीं है। अनासक्ति की यह स्थिति अगर ठीक से हम समझें तो स्थिति नहीं है, स्टेटस आफ माइंड नहीं है, यह समस्त स्टेटस आफ माइंड को छोड़ देना है। समस्त स्थितियों को छोड़ देना है और अस्तित्व के साथ एक हो जाना है। इसमें कृष्ण वहीं पहुंच जाते हैं जहां अपनी-अपनी संकरी गलियों से महावीर पहुंच जाते हैं, जीसस पहुंच जाते हैं, बुद्ध पहुंच जाते हैं। लेकिन उनके चुनाव पगडंडियों के हैं। कृष्ण का चुनाव राजपथ का है। पगडंडियों वाला भी पहुंच जाता है। पगडंडियों की सुविधाएं भी हैं, असुविधाएं भी हैं। राजपथ की सुविधाएं हैं, असुविधाएं भी हैं।
व्यक्तिगत चुनाव है। कुछ लोग हैं पगडंडियों पर ही चलना पसंद करेंगे। उन्हें चलने का मजा ही तब आएगा जब पगडंडी होगी, जब वे अकेले होंगे, जब न कोई आगे होगा, न कोई पीछे होगा। जब भीड़ के धक्के न होंगे, और जब प्रतिपल उन्हें रास्ते खोजने पड़ेंगे घने जंगल में, तभी उनकी चेतना को चुनौती होगी। वह पगडंडियों को खोज कर ही पहुंचेंगे। कुछ लोग हैं जो पगडंडियों पर चलना बिल्कुल आनंदपूर्ण न पाएंगे। अकेला होना उन्हें भारी पड़ जाएगा। सबके साथ होना ही उनका होना है, सबके साथ ही उनका आनंद है। आनंद उनके लिए सह-जीवन, सहयोग में, साथ में हैं, संग में हैं। राजपथ पर चलेंगे। निश्चित ही, पगडंडियों पर चलनेवाले उदास चित्त ही चल सकते हैं। राजपथ पर चलनेवाले उदासी से चलेंगे तो पगडंडियों पर धक्का दे दिए जाएंगे।
राजपथ पर, जहां लाखों लोग चलेंगे, तो पगडंडियों पर धक्का दे दिए जाएंगे। राजपथ पर, जहां लाखों लोग चलेंगे, वहां नाचते हुए ही चला जा सकता है, वहां गीत गाते हुए ही चला जा सकता है। पगडंडियों पर चलनेवाले शांति से चल सकते हैं, राजपथ पर चलने वालों पर अशांति के बादल भी आते रहेंगे। उनको उसके लिए भी राजी होना पड़ेगा। यही उनकी शांति होगी। पगडंडी पर नाचने वाले अपनी निपट निजता के आनंद में तल्लीन हो सकते हैं। राजपथ पर चलने वालों को दूसरों के सुख-दुख में भागीदार भी होना पड़ेगा। यह सब भेद होंगे। लेकिन कृष्ण, जैसा मैंने कहा, मल्टी डाइमेंशनल हैं। उनका चुनाव राजपथ का है। और ठीक से अगर हम समझें तो परमात्मा तक पहुंचने का कोई एक मार्ग नहीं बन सकता है कि वह परमात्मा तक पहुंचा दे। परमात्मा तक पहुंचने के लिए कोई बना हुआ मार्ग नहीं है। सब अपनी तरह से, अपने ढंग से पहुंच सकते हैं। पहुंचने पर, यात्रा एक ही मंजिल पर पूरी हो जाती है..उनकी भी, जो वीतरागता से जाते हैं, उनकी भी, जो तटस्थता से जाते हैं, उनकी भी, जो उपेक्षा से जाते हैं, उनकी भी, आनंद से जाते हैं।
मंजिल एक है, रास्ते अनेक हैं। प्रत्येक व्यक्ति को, उसके जो अनुकूल है, उसे चुन लेना चाहिए। उसे इसकी बहुत चिंता नहीं करनी चाहिए कि कौन गलत है, कौन सही है। उसे जानना चाहिए कि उसके अनुकूल, उसके स्वभाव के अनुकूल क्या है।

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