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गुरुवार, 30 अगस्त 2018

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

वैज्ञानिक चिंतन आना चाहिए

मैं तो अधिनायकशाही के पक्ष में ही नहीं हूं। वह सिर्फ मजाक में कही बात को...। कहा मैंने कुल इतना था कि जैसा लोकतंत्र चल रहा है, इस देश में इससे तो अच्छा होगा कि देश में तानाशाही हो जाए। वो तानाशाही भी इससे ज्यादा विनिवलेंट होगी। और ये सिर्फ मजाक में कहा कि इस लोकतंत्र से तो तानाशाही भी बेहतर हेागी। तानाशाही बेहतर होती है, यह मैंने कहा नहीं। लेकिन समझ यह लिया गया कि मैं तानाशाही को बेहतर मानता हूं। बिलकुल ही नासमझी है। मुझसे ज्यादा विरोध में तानाशाही के शायद ही कोई आदमी हो। और पाकिस्तान में असफल हो गई ऐसा नहीं। सारे इतिहास में, हमेशा असफल होती रही है। और कभी भी सफल नहीं होगी।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
हां, हां, मेरी आप बात समझे न। दुनिया में परतंत्रता सफल नहीं हो सकती है, उसका चाहे कोई भी रूप हो। परतंत्रता को असफल होना ही पड़ेगा। क्योंकि मनुष्य की आत्मा किसी तरह की परतंत्रता को स्वीकार करने को राजी नहीं है।
चाहे मजबूरी में थोड़ा बहुत दिन राजी करती भी हो, तो भी उसके खिलाफ विद्रोह शुरू हो जाएगा। रूस जैसे देश में भीं तानाशाही के विरोध में बहुत काम शुरू हुआ। और स्टैलिन के मरते ही, जैसे एक नया अध्याय शुरू हो गया। कहीं भी दुनिया में, थोड़ी बहुत देर मजबूरी की हालत में, कोई देश राजी हो सकता है। लेकिन सदा के लिए राजी नहीं हो सकता। और असफलता सुनिश्चित है। क्योंकि अन्ततः स्वतंत्रता ही सफल हो सकती है।
मेरी बातों के साथ कठिनाई क्या है कि अगर आपसे कुछ बात कर रहा हूं, उसमें से कोई एक टुकड़ा निकाल कर और उसको आप व्यापक प्रचार दे दें, तो मुझे बड़ा मुश्किल हो जाता है मामला। जैसे वहीं जिन पत्रकारों से ये बात हुई थी, उन्हीं पत्रकारों में से किसी ने मुझसे यह पूछा कि अब आप इस तरह की बातें कहते रहे हैं कि अगर आपको कोई गोली मार दे, आप गांधी के खिलाफ कह रहे हैं, कोई आपको गोली मार दे, मैं सिर्फ मजाक में कहा, मैंने कहा कि तब तो बड़ा मजा हो जाएगा, गाधी से मेरा मुकाबला ही हो जाएगा। अखबारों ने खबर छापी कि मैं गांधी से मुकाबला करना चाहता हूं। तो फिर बड़ा मुश्किल मामला हो जाएगा।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

न, मेरा मतलब कुल इतना है...।

प्रश्नः मजाक में आपने विकल्प तो तानाशाही का...?

न, बिलकुल भी नहीं। मेरा कुल कहना इतना है। मेरा कुल कहना इतना है कि जैसे लोकतंत्र आज है, पहली तो बात, वह लोकतंत्र नहीं है पूरा। दूसरी बात लोकतंत्र पूरा नहीं हो सकता, जब तक जब तक कि हम किसी न किसी रूप में आर्थिक समानता की कोई व्यवस्था देश को न दें। क्योंकि सिर्फ राजनैतिक समानता कभी भी लोकतंत्र को पूरा नहीं कर सकती। आर्थिक रूप से असमान लोग, राजनैतिक रूप से समान सिर्फ कहे जा सकते हैं, हो नहीं सकते। आर्थिक समानता ही जब तक न हो तब तक राजनैतिक समानता बातचीत की समानता है। और वह कुछ लोगों के हाथ का खेल होगी। इस मुल्क में लोकतंत्र है, अमेरिका जैसे मुल्क में भी लोकतंत्र है। लेकिन अमरीका का लोकतंत्र भी अधूरा है। वह लोकतंत्र भी तब तक पूरा नहीं होता, जब तक आर्थिक समानता की स्थिति पैदा नहीं होती। और मेरा कहना यह है, मेरा कहना यह है, अभी तक जो भी विकल्प दुनिया में चल रहे हैं, उनमें से कोई भी विकल्प सही अर्थों में लोकतंत्र नहीं है। तो रूस में जो विकल्प है, वह भी लोकतंत्र नहीं है। क्योंकि राजनैतिक समानता छीन ली गई है और आर्थिक समानता दे दी गई है। वो भी आधा लोकतंत्र है। वह उसको चाहे अधिनायकशाही कहते हों, या कुछ कहते हों, इससे फर्क नहीं पड़ता। जिन मुल्कों में राजनैतिक स्वतंत्रता है, लेकिन आर्थिक समानता नहीं है, उन मुल्कों में भी आधा ही लोकतंत्र है। अभी तक दुनिया में लोकतंत्र का अवतरण ही नहीं हुआ। वह जो मैं कह रहा हूं कि यह लोकतंत्र, उससे मेरा प्रयोजन ये नहीं है कि लोकतंत्र के मुकाबले कोई अधिनायकशाही विकल्प है, इस लोकतंत्र के सामने पूर्ण लोकतंत्र ही विकल्प है। और जब तक हम आर्थिक समानता की कोई सुनियोजना नहीं करते हैं, तब तक देश में लोकतंत्र बातचीत होगी, पीछे से अर्थ का तंत्र ही जारी रहेगा। तो हमको लगता है ऊपर से कि लोकतंत्र है, लेकिन धनपति हावी है और तंत्र को चला रहा है। और चलाएगा। और स्वाभाविक है कि चलाए। क्योंकि धन के तंत्र पे जिसका हाथ होगा, ये असंभव है कि वो सत्ता को छोड़ देगा। वह सत्ता को भी हाथ में रखेगा। लोकतंत्र दुनिया में कहीं भी नहीं है। न रूस में, और न अमरीका में, और न भारत में, और न पाकिस्तान में ।

प्रश्नः वाॅट इ.ज योर आइडिया आॅफ इकोनाॅमिक इक्वालिटी ?

सीधी सी बात है, मनुष्य को जितनी भी संपदा है, राष्ट्र की समाज की, पृथ्वी पर, वो सारी की सारी संपदा में, किन्ही भी कारणों से विशेष अधिकार नहीं होने चाहिएं, पहली बात। चाहे वह जमीन की संपदा हो, चाहे किसी और तरह की संपदा हो। विशेषाधिकार सभी के सभी किसी न किसी रूप में, हिंसा के द्वारा कायम किये गए हैं। किसी भी व्यक्ति को संपत्ति पर विशेषाधिकार नहीं होना चाहिए। संपत्ति सबकी है। यह तो भौतिक बात कि संपत्ति सबकी है, वह सबकी अर्जित, सबकी इकठ्ठी क्षमता है। और इस संपत्ति पर सबका हक है, और इस संपत्ति के द्वारा सबको जीवन में समान अवसर विकास की सुविधा होनी चाहिए। विस्तार में क्या होगा, वह दूसरी बात है, यह सिर्फ मैं बात कह रहा हूं कि राष्ट्र की संपत्ति को शोषण के माध्यम से इकट्ठा करने की सुविधा, लोकतंत्र नहीं है। किसी भी माध्यम से संपत्ति इकठ्ठी हो सकती हो, तो वह तंत्र लोकतंत्र नहीं है। लोकतंत्र संपत्ति पर अधिकार और व्यक्तिगत संपत्ति को इकठ्ठा करने का मौका नहीं दे सकता। क्योंकि जैसे ही किसी व्यक्ति के पास संपत्ति इकट्ठी हो जाती है, उस व्यक्ति के वोट का मतलब एक नहीं रह जाता। उस व्यक्ति के वोट का मतलब अनेक हो जाता है। और जिसके पास संपत्ति नहीं रह जाती, उसके वोट का मतलब भी एक नहीं रह जाता। उसके वोट का मतलब दो रूपये हो जाता है। संपत्ति जब तक विषम रूप से विभाजित है, और समाज की व्यवस्था ऐसी है कि विषम रूप से संपत्ति विभाजित होती चली जाए, तब तक लोकतंत्र बातचीत होगी, और ये लोकतंत्र अधिनायकशाही का विरोध करता रहेगा, लेकिन खुद भी एक तरह की अधिनायकशाही होगी।
तो दुनिया में अब तक जितने तंत्र हैं, वह किसी न किसी मात्रा में कम या ज्यादा अधिनायकशाही के रूप हैं। कोई भी तंत्र लोकतंत्र नहीं है। मैं जो विकल्प की बात कह रहा हूं, वह विकल्प इनके बीच नहीं कि हिन्दुस्तान का तंत्र कि पाकिस्तान का तंत्र, कि रूस का तंत्र, या अमेरिका का तंत्र मैं जो कह रहा हूं, वह यह कि लोकतंत्र की एक ऐसी अवधारणा है कि हम धीरे-धीरे प्रत्येक व्यक्ति को, इतना समान बना सकें आर्थिक हैसियत से, कि वह राजनैतिक हैसियत से भी समान हो सके। और जब राजनैतिक हैसियत से सारे लोग समान हों, तो लोकतंत्र हो सकता है, अन्यथा नहीं हो सकता। यह जो लोकतंत्र है, जो कहता है कि राजनैतिक रूप से आप स्वतंत्र हैं, और प्रत्येक व्यक्ति बराबर मूल्य का है, यह बराबर मूल्य सिर्फ विधान में होगा, यह बराबर मूल्य वास्तविक जीवन में नहीं हो सकता है। क्योंकि वास्तविक मूल्य आपका नहीं है जीवन में, वास्तविक मूल्य आपकी संपदा का है, जिसके आप मालिक हैं, तो वह जो मैं जो बात कहा था, इतने विस्तार में बात नहीं हुई थी, बात कुल इतनी हुई थी, और उतनी सी बात को, उठाकर, उस बात को, विस्तार दे दिया। न केवल विस्तार दे दिया, बल्कि किताबें भी लिख डाली उस बात पर कि जैसे मैं कोई, किसी अधिनायकशाही को इस मुल्क में लाना चाहता हूं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

नहीं कोई पोलिटिकल सेटअप को में...।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, आइडियल जरूर, आइडियल जरूर लेकिन जो मौजूद हैं, जो मौजूद हैं, वह करीब-करीब कुएं खाई जैसे विकल्प हैं। कुएं से बचिए और खाई में गिर जाइए। ये ऐसे विकल्प हैं।

प्रश्नः बुनियादी तरीके से ये जो चल रहे डेमोक्रेसी, किधर भी, या तो अमेरिका में, या तो ब्रिटेन में, या तो भारत में हुई एक प्रक्रिया है, जिसको आप बाजू रहके इसका बराबर अभ्यास करना चाहिए, और इसको क्या रूप देना चाहिए?

हां, यह बिलकुल ठीक है ना, यह तो ठीक ही है, सारी प्रक्रियाएं विकसती हुई प्रक्रियाएं हैं, लेकिन विकास वह तब ही करती हैं, जब उनको अंतिम मान लेते हों। विकास का मतलब ही यह होता है, कि जो है वह पूर्ण नहीं है। बीकमिंग की प्रोसेस का मतलब ही यह है कि वह अभी हो नहीं गई है, हो रही है। और हो रही है, वह तभी तक होती रहेगी, जब तक हम इसको अंतिम न मान लें, जो हो गई। इसके आगे लक्ष्य हमारे सामने बना रहे कि यह होना चाहिए, तो विकास होगा। लेकिन हुआ क्या है, अमेरिका में, उनको ख्याल यह हो गया है कि डेमोक्रेसी यह है, डेमोक्रेसी विकसित हो रही है ऐसा नहीं, बल्कि डेमोक्रेसी यह है। डेमोक्रेसी विकसित होने का मतलब यह ही होगा कि अभी जो डेमोक्रेसी है, उसमें नाॅन-डेमोक्रेटिक तत्व मौजूद हैं। तभी विकास होगा नहीं तो विकास नहीं होगा। और यही मेरा कहना है कि डेमोक्रेसी कहीं भी नहीं है। अमेरिका में भी वो रूक गई है, और भारत में तो वो पैदा ही नहीं हो पाई।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मैं समझा आपकी बात, असल बात यह है, असल बात यह है, कोई भी, कोई भी मौजूदा स्थिति को बदलने के लिए भी दो बातें जरूरी हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

न-न, उससे क्या फर्क पड़ता है कि कौन गाइड करता है। यह सवाल नहीं है। सवाल यह है, सवाल यह है कि अगर गलत है, तो गलत की हवा पैदा करनी चाहिए, गाइडेंस पैदा हो जाती है। सवाल यह नहीं कि मैं गाइड करूं या आप गाइड करें, लोकतंत्र में शायद गाइड कोई भी नहीं करता है, लेकिन हम सब मिल कर एक हवा पैदा करते हैं, जो गाइड करती है। वह जो मूवमेंट भी फ्रांस में हुआ विद्यार्थियों का, वह भी कोई एक विद्यार्थी या एक नेता गाइड कर रहा है ऐसा नहीं है, समाज की पूरी चेतना तैयार होती है, सोच कर, तो उससे क्रांति पैदा होनी शुरू होती है। अब जैसे कि अमेरिका में, वह जो लोकतंत्र स्वीकृत हो गया है, वह जो स्वीकृत लोकतंत्र है जब तक न टूटे, जब तक कि कुछ युवकों के मन में, नई पीढ़ी के मन में, वह स्वीकृत लोकतंत्र अस्वीकृत न हो जाए। तब तक कोई क्रांति पैदा नहीं होगी। वह जो फ्रांस में हो सका है, वह इसलिए हो सका है कि युवकों के मन में अस्वीकार खड़ा हो गया है। तो अस्वीकार खड़ा करने की ही मेरी कोशिश है। वह मुझसे सफल होगी, यह सवाल नहीं है। वह आपसे सफल होगी यह सवाल नहीं है। मेरी कोशिश यह है कि हम जो, जो चीजें मौजूदा हमें जकड़ लेती हैं और माइंड को स्टैटिक करती हैं और रोक देती हैं, वह स्वीकृत नहीं हो जानी चाहिएं, जिंदगी निरंतर अस्वीकार से गुजरती रहनी चाहिए, ताकि वो विकासमान हो। जिन चीजों को भी हम स्वीकार कर लेते हैं, वहीं हम रूक जाते हैं।
अब जैसे भारत का ही मामला है, हम नामालूम कितनी ची.जें हजारों साल से स्वीकार किए बैठे हैं ? हम अस्वीकार ही नहीं करते। वह जो फ्रांस में लड़के कर सके हैं, वह हमारे लड़के अभी शायद पांच सौ साल नहीं कर सकते। अस्वीकार का कोई बोध ही नहीं है। और अगर हम अस्वीकार भी करते हैं तो बहुत टुच्ची ची.जों को अस्वीकार करते हैं। कोई बेसिक वेल्यू.ज को अस्वीकार नहीं करते। जैसे लोकतंत्र की ही बात है, अभी तो लोकतंत्र की अवधारणा भी देश के मन में नहीं हो सकी है। क्योंकि एक हजार साल तक मुल्क गुलाम रहा हो तो उस मुल्क की कल्पना में भी लोकतंत्र का अर्थ नहीं होता। लोकतंत्र हमारे ऊपर बिल्कुल ऊपर से इंपोज्ड है। वो हमारे भीतर से कहीं से आया नहीं है। वो सारा का सारा हमारा लोकतंत्र का पूरा का पूरा विधान उधार है। वह हमने सब बाहर से इकठ्ठा करके खड़ा कर लिया है। मुल्क की आत्मा से वो कहींे जन्मा नहीं है। और वह जो ऊपर से हमने स्वीकार कर लिया है, उसे अगर हम स्वीकार करके बैठ गए, तो इस मुल्क में विकासमान धाराएं सब रूक जाएंगी, रूक गई हैं। कहीं कोई बढ़ नहीं रही हैं।
तो मेरा जो कहना है, कुल जमा यह कि विकासमान है, प्रत्येक अवस्था विकासमान रहेगी। कभी कोई ऐसी अवस्था नहीं आ जाने वाली है, जिसके आगे विकास न हो सके। इसलिए प्रत्येक अवस्था में ऐसे लोगों की जरूरत होगी, जो अस्वीकार करते रहें। ताकि विकास को गति देते रहें। अस्वीकार करने वाले लोगों की निरंतर जरूरत है। लेकिन हमारे मुल्क में क्या तकलीफ है अस्वीकार करने वाला आदमी हमें दुश्मन मालूम पड़ता है। स्वीकार करने वाला हमें मित्र मालूम पड़ता है। और स्वीकार करने वाला ही हमेशा घातक सिद्ध होता है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

दो-तीन बातें खयाल में लेनी चाहिए। पहली तो बात यह कि इस तरह के संपत्ति के विनाश को मैं बिलकुल क्रिमिनल वेस्ट कहता हूं। यह अत्यंत जघन्य अपराध है। इस तरह की संपत्ति का विनाश। और एक आदमी एक करोड़ रूपये की संपत्ति को आग लगा दे, वह उतना बड़ा अपराध नहीं है, जितना कि वो धार्मिक विधि से आग लगाए। क्योंकि एक करोड़ रूपये के मकान में अगर कोई आग लगा दे, तो वह अपने को भीतर अपराधी समझेगा। और हम सब भी उसे अपराधी समझेंगे। लेकिन धार्मिक विधि-विधान से एक करोड़ रुपये की संपत्ति को आग लगा दे, तो वह पायस क्रिमिनल है। वह समझेगा कि मैं पवित्र...। और उसको पता भी नहीं चलेगा कि मैं कोई पाप कर रहा हूं। और समाज भी उसका समर्थन देगा। तो जो करोड़ रूपये की संपत्ति को नुकसान करने वाले के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए, वही व्यवहार इस तरह के यज्ञों को प्रचलित करने और व्यवस्था देने वाले लोगों के साथ किया जाना चाहिए। लेकिन सिर्फ यज्ञ के ही एक अरब रूपया, एक करोड़ रूपया कितना ही रूपया कोई खराब कर रहा है, तब अगर हम सोचेंगे कि इसे रोका जाए, तो यह नहीं रोका जा सकता। जब तक की यज्ञ की मौलिक धारणा को हम तोड़ने की कोशिश नहीं करते। सिर्फ सम्पत्ति के लिए नहीं रूक सकता यह। अगर आप कहते हों कि यज्ञ तो ठीक है, लेकिन रूपये खराब नहीं करने चाहिएं; तो फिर यह रूकने वाला नहीं है।
तो मेरा कहना है कि पहली तो बात यह है कि यज्ञ के जैसी बात ही मूढ़तापूर्ण है। अवैज्ञानिक है, और मुल्क के भीतर जड़ता को स्थान देती है; इसकी हवा पैदा करनी चाहिए। क्योंकि यज्ञ से कुछ भी होने वाला नहीं। और जो लोग भी कहते हों कि यज्ञ से शांति आ सकती है, वर्षा हो सकती है, अकाल मिट सकता है ; उनको पकड़ कर दिल्ली की लेबोरेटरी में बैठा कर प्रयोग करवाना चाहिए और अगर वह सिद्ध कर सकें, तो फिर पूरे मुल्क में यज्ञ किये जाने चाहिएं। वह सिद्ध न कर सकें, तो बिलकुल गैर कानूनी होना चाहिए कि कहीं कोई आदमी यज्ञ नहीं कर सकेगा। करेगा तो अपराधी होगा, जैसे चोरी करने वाला होता है, हत्या करने वाला होता है। मेरा मतलब समझ रहे हैं न। एक मौका हमें देना चाहिए कि जो लोग कहते हैं यज्ञ से यह हो सकता है, वह प्रयोगात्मक रूप से करके दिखाएं कि यह कितना हो सकता है। अगर वह नहीं सफल होते हैं, तो ठीक है जो हम अपराधियों के साथ व्यवहार करते हैं, वह उनके साथ करना चाहिए। और अभी, इसकी पूरी हवा पैदा की जानी चाहिए। जहां-जहां यज्ञ होते हैं वहां युवकों के मण्डल खड़े किये जाने चाहिएं, जो अंशन करें, लेट जाएं, यज्ञ को न होने दें, यज्ञ में कूद का मर जाएं, लेकिन घी को न जलने दें, यज्ञ में। इसकी फिक्र करनी चाहिए। और मुल्क की पूरी हवा पैदा करनी चाहिए। लेकिन हवा पैदा नहीं होगी, क्योंकि हम करते क्या हैं, हम छोटी चीजों को तो इंकार करते हैं, एक करोड़ रूपये छोटी ची.ज है! वो सवाल बड़ा नहीं है, लेकिन जब एक करोड़ जलने लगेगा, तब हम चिंतित होंगे कि एक करोड़ नहीं जलना चाहिए, लेकिन हम इससे चिंतित नहीं होंगे कि यह जो यज्ञ का कंसेप्ट है, ये मूर्खतापूर्ण है, और ये कन्सेप्ट उखड़ना चाहिए मुल्क से कि कोई व्यक्ति कहीं आग जला कर मंत्र पढ़े तो इससे जगत के वातावरण में, कुछ भी हो सकता है। यह धारणा टूटनी चाहिए। वह चाहे एक पैसा जलाता हो कि एक करोड़ यह सवाल नहीं है। और ऐसा आदमी मुल्क को अविज्ञान की तरफ ले जाता है। जिसकी हमें फिकर करनी चाहिए। लेकिन हमारा अजीब हाल है, राष्ट्रपति तक! राजेन्द्र प्रसाद तक, जाकर काशी में दो सौ ब्राह्मणों के पैर धोए। राष्ट्रपति होते हुए! और हिन्दुस्तान में कोई बगावत नहीं फैल गई कि हम राष्ट्रपति को यह जघंय अपराध नहीं करने देंगे। राष्ट्रपति की हैसियत से एक आदमी जाकर दो सौ ब्राह्मणों के, जो उसे किसी भी स्थिति में पैर छूने योग्य नहीं हैं, कोई भी ऐरे-गैरे दो सौ ब्राह्मण खडे. हैं, लेकिन वे ब्राह्मण हैं, और राष्ट्रपति उनके पैर छूता है और मुल्क में कहीं कोई विरोध नहीं होता कि राष्ट्रपति पैर छूता है, दो सौ ब्राह्मणों के जाकर, और उनके पानी को सिर से लगाता है, उनके पैर के। यह बात राष्ट्रीय अपमान है। और ऐसे आदमी को राष्ट्रपति नहीं रहने देंगे। इसको नीचे उतारेंगे क्योंकि ये क्या पागलपन है ? या तो तुम सिद्ध करो कि ब्राह्मण के पैर छूने से राष्ट्र का कुछ हित होता है ? मेरा मतलब आप समझ रहे हैं ना। मेरा मतलब कुल इतना है, कि हमें बेसिक वैल्यूज पर जहां हमने, जहां हमने चीजों का...।

प्रश्नः क्या पक्का कंडीशन बीच में आएगा, राष्ट्रपति प्रमुखत्व बीच में आएगा ?

न, न, अगर उसका पर्सनल है, तो उसे राजेन्द्र प्रसाद की हैसियत से जाना चाहिए। उसके लिए राष्ट्रपति का इंतजाम नहीं होना चाहिए फिर बनारस में। और उसके लिए सारी मिलिट्री नहीं लगनी चाहिए। और उसके पीछे बाॅडीगार्ड नहीं होने चाहिएं। वह अपने राजेंद्र प्रसाद की हैसियत से जाकर, उसे जो भी करना हो, वह कर सकता है। लेकिन राष्ट्रपति की हैसियत से यह किया जाए और मुल्क चुपचाप देखे, तो फिर हम बेसिक वैल्यूज को नहीं बदल सकते। फिर बहुत मुश्किल मामला हो जाएगा।

प्रश्नः आप जो कहते हैं कि यह डेमोक्रेसी है, और यह वोट टेकिंग पीपल हैं, तो यह तो यह करेंगे ही, इन्हीं को तो वोट चाहिए। तो प्रजा कोई भी अगर मूर्खता भरी बात करेगी, गलती करेगी, तो यह तो जाएंगे ही। तो हम कैसे उन्हें रोकेंगे?

हां, तो लोकमानस तैयार करने की बात...। मैं भी वहीं करूंगा न, कोई भी वही करेगा। लोकमानस तैयार करने का सवाल है, कि लोकमानस तैयार किया जा सके। और लोकमानस तैयार किया जा सकता है। मैं नहीं मानता हूं कि जनता इतनी मूढ़ अब है कि हम लोकमानस तैयार करना चाहें और वो तैयार न हो सके। और आप तो हैरान होंगे, मैं छोटे, जैसा आप पूछ रहे हैं, वैसा छोटे-छोटे गांव में जाता हूं, वहां भी लोग पूछते हैं कि यह एक करोड़ रूपया खराब करने का, आपका इसके बाबत क्या ख्याल है ? लोग पूछना शुरू कर रहे हैं, जब जिनके हाथ में मुल्क की, विचार को पहुंचाने की खबर पहंुंचाने की एक ताकत है, वे उसकी तरफ बहुत ध्यान नहीं दे रहे हैं। हिन्दुस्तान का बुद्धिजीवी...।

प्रश्नः ताकत किसके हाथ में, अखबारों के हाथ में?

न-न, अखबार के हाथ में हैं, बुद्धिजीवी के हाथ में है, शिक्षक के हाथ में है, प्रोफेसर के हाथ में है।

प्रश्नः ओशो, अखबार किसकी मालिकी में है?

मैं समझा आपकी बात, मैं आपकी बात समझता हूं। यह प्रश्न है कि मालिकी किसकी है ? यह प्रश्न है। यह प्रश्न बिजकुल है। लेकिन मालिकी जिसकी है, वह है। जो काम कर रहे हैं, वह लोग भी हैं। और मेरी अपनी समझ यह है कि अगर काम करने वाले जो लोग हैं उनकी, थोड़ी भी बुद्धि जागृत हो तो, मालिकी बहुत कुछ करवा नहीं सकती। और बहुत मामलों में रुकावटें डाली जा सकती हैं।

प्रश्नः क्या आप ये भी मानते हैं कि बुद्धिजीवी में इतनी ताकत है?

यह आप ठीक कहते हैं। यह आप ठीक कहते हैं, यह ताकत नहीं है, जितनी होनी चाहिए। उसको पैदा करना है। उसके लिए मेहनत करनी है, उसके लिए श्रम उठाना है।

प्रश्नः हमने तो देखा है कि सबसे बड़े कमजोर बुद्धिजीवी हैं?

आप ठीक कहते हैं।

प्रश्नः यह सच है कि कोई डेली ने, न्यूज डेली ने आपका इंटरव्यू लिया था, फिर छपा नहीं ?

हां, हां, यह सच है ना। यह सच है ना। दिल्ली में उन्होंने इंटरव्यू लिया। जो इंटरव्यू पत्रकार लेके गए थे, वो बहुत खुश होकर गए थे। और कह कर गए थे कि आज ही हम इसे छापते हैं। वह नहीं छप सका, तीन दिन बाद उन्होंने मुझे खबर की कि हम मुश्किल में पड़ गए हैं, हम तो दे दिए हैं लेकिन ऊपर से मुश्किल है।

प्रश्नः उनकी खुशी में सब चले गए।

हां, हां यह तो ठीक है न, यह जो स्थिति है न, यह स्थिति किसी न किसी तरह पत्रकारों को तोड़ने की हिम्मत जुटानी चाहिए।

प्रश्नः बहुत सारी बात हुई हैं, छपी क्या नहीं आपकी ?

बहुत सी चीजें छापी गई हैं, लेकिन ऐसी की जैसी नहीं छापी जानी चाहिए थी। यानि जो मैं कहता हूं, उसको तोड़ कर छापा गया है। आधा कर कर छापा गया, प्रसंग के बाहर निकाल कर छापा गया। वह सब हुआ है। लेकिन मुझे पत्रकारों ने भी कहा, बम्बई के पत्रकारों ने मुझे कहा कि हम जो छापना चाहते थे, वह नहीं गया है, और जो गया है, हम क्षमा मांगते हैं आपसे। लेकिन यह तो बड़ी दुःखद बात है। फिर यह कैसे होगा? यह तो विशेष सर्किल है, वह मैं समझता हूं आपका कि धनपति वहां बैठा है। सब जगह धनपति बैठा हुआ है। और सब जगह सत्ताधिकारी बैठा हुआ है, राजनैतिज्ञ बैठा हुआ है। लेकिन कहीं से किन्हीें को इसे तोड़ने की कोशिश करनी पड़ेगी। निश्चित ही तोड़ने वाले तकलीफ में भी पड़ेंगे।

प्रश्न: ओशो, स्थापित मूल्यों को तोड़ने की आप बात करते हैं, उसके बाद विधायक कोई आपका कार्यक्रम भी होगा या नहीं? बात करके, इकोनाॅमिक इक्वालिटी के लिए आप बात करें, जब तक कि वो इक्वालिटी नहीं आएगी, लोकतंत्र सफल नहीं होगा। तो उसके लिए प्रोग्राम क्या होगा? और वह विधायक पूरा करने के लिए, क्या आप चुनाव लड़ेंगे, या कोई कैंडिडेट खड़े करेंगे?

नहीं, न तो चुनाव लडूंगा और न कोई कैंडिडेट खड़ा करूंगा।

प्रश्नः...और आपके खयाल में विनोबा जी का आजकल प्रोग्राम चलता है, वह कितने...?
प्रश्नः आर्थिक समानता के लिए, गांधी जी ने अभी जो कहा, उनके बारे में आपका क्या खयाल है?

पहली तो बात यह कि जितनी नकारात्मक बातें मैं कह रहा हूं, निगेटिव, उनमें से कोई भी नकारात्मक नहीं है। वह नकारात्मक दिखाई पड़ती है, लेकिन पीछे पाॅजिटिव है। जैसे कि अगर मैं यह कह रहा हूं, कि यज्ञ अवैज्ञानिक है और यज्ञ के माध्यम से आकाश से पानी नहीं गिराया जा सकता। ये अभी निगेटिव बात है, क्योंकि यज्ञ नहीं होना चाहिए। लेकिन मेरी मान्यता यह है कि जैसे ही मुल्क के मन से यह बात खत्म हो जाए कि यज्ञ से पानी गिराया जा सकता है, वैसे ही मुल्क पूछना शुरू कर देगा कि फिर पानी कैसे गिराया जा सकता है ? जब तक मुल्क सोचता है कि यज्ञ से पानी गिराया जा सकता है, जब तक यज्ञ से गिराया जा सकता है, तब तक यंत्र से गिराने की बात उसके मन में पैदा नहीं होती। यह जड़ पकड़े हुए है, तो मुल्क के मन में साइंस पैदा नहीं होती, खयाल पैदा नहीं होता कि हम पानी गिरा सकते हैं। और शायद एक करोड़ रूपये से इंतजाम किया जा सकता था, कुछ शोध की जा सकती थी, रिसर्च की जा सकती थी, जिससे हम बादल को ला सकते और पानी गिरा सकते, लेकिन वह एक करोड़ बिल्कुल फिजूल चला गया। नकारात्मक भी मूलतः तो पाजिटिव होता है, क्योंकि जब हम एक चीज छीनते हैं, तो उसकी जगह खाली जगह छूटती है, पीेछे, पीछे वैक्यूम पैदा होता है, वैक्यूम से पाजिटिव पैदा होना शुरू होता है। हिन्दुस्तान के मन में इतने गलत पाजिटिव बैठे हुए हैं, कि जब तक हम उनको नहीं तोड़ देते, तब तक ठीक पाजिटिव पैदा नहीं होगा। इसलिए मेरी दृष्टि में अभी हिन्दुस्तान को कोई पंद्रह-बीस साल तो निगेशन से गुजारने की जरूरत है कि वे इतने निगेशन से गुजरे कि उसके सारे गलत खयाल टूटने शुरू हो जाएं। यह बड़े मजे. की बात है कि जैसे ही यह गलत ख्याल टूटता है, चेतना ठीक खयाल को खोजने की कोशिश शुरू कर देती है। जब तक गलत ख्याल को पकड़े रहती है, तब तक उसे ठीक खयाल का सवाल नहीं उठता, वह खयाल भी पैदा नहीं होता।
और दूसरी बात, जैसे जब मैं कहता हूं कि धर्म की स्थापित, यज्ञ की, तंत्र की, मंत्र की जो धारणा है, वह टूटनी चाहिए, तो उसके साथ ही मैं कहता हूं कि वैज्ञानिक दृष्टि मुल्क में पैदा होनी चाहिए। वो पाजि.टिव पहलू है। एक साइंटिफिक आउटलुक मुल्क में पैदा होनी चाहिए, वह बिलकुल नहीं है। मुल्क के पास वैज्ञानिक दृष्टि ही नहीं है। हमारे सोचने का ढंग ही अवैज्ञानिक है। हम जब भी सोचते हैं, तो सोचने का ढंग अवैज्ञानिक होता है। जैसे कि मुल्क में भोजन की कमी है, तो मुल्क के प्रधानमंत्री को सूझेगा कि एक दिन सोमवार को खाना नहीं खाना चाहिए। एक दिन खाना नहीं खाने से कमी पूरी हो जाएगी! शायद कोई भी वैज्ञानिक ढंग से सोचने वाला इस तरह से नहीं सोचेगा कि उपवास कर लेना चाहिए। कि उपवास कर लेने से कोई मसला हल होगा। वह जो आदमी उपवास करेगा, वह दूध पी लेगा, फलाहार कर लेगा, और जितना वह खाने में खाता, उससे ज्यादा खर्च कर डालेगा। और कितने आदमी उपवास करेंगे? और उपवास से कितना बच जाएगा? और कितना उपवास करने से जनसंख्या रूक जाएगी, या उत्पादन बढ़ जाएगा? लेकिन हमारे सोचने के ढंग यह हमको बहुत अपील करती है यह बात कि बिल्कुल ठीक बात है। एक आदमी एक दिन उपवास कर ले तो इतना भोजन बच जाएगा, इतना सब हो जाएगा। जब तक हम इस तरह की अवैज्ञानिक चेतना को जगह देते हैं, जब तब वैज्ञानिक चेतना पैदा नहीं होती कि कैसे ज्यादा पैदा हो जाए? आदमी कैसे कम हो जाएं? अब सारी दुनिया में आदमी कम करने की व्यवस्था हो गई है। फ्रांस ने अपनी जनसंख्या रोक रखी है, वह नहीं बढ़ रही। बल्कि यह डर पैदा हो गया है फ्रांस में कि शायद उनको जनसंख्या बढ़ाने के लिए कुछ व्यापक प्रचार करना शुरू करना पड़े। कि थोड़ी जनसंख्या बढ़नी चाहिए। जापान ने अपनी जनसंख्या रोक ली। हमारा मुल्क, हमारा संयासी समझा रहा है लोगों को कि भगवान पैदा करता है बच्चों को। वह भगवान की तरफ से तय है, वह हमारे हाथ में नहीं है। और हम उसकी बात सुन रहे हैं, समझ रहे हैं, मुल्क में बात घूमती चली जा रही है।
अवैज्ञानिक चिंतन टूटना चाहिए। तो वैज्ञानिक चिंतन अपने आप पैदा होता है। और वैज्ञानिक चिंतन आना चाहिए। धार्मिक चिंतन की जगह, वैज्ञानिक चिंतन को जगह मिलनी चाहिए। धार्मिक चिंतन शैडो थिंकिंग है। वह झूठा चिंतन है। उस चिंतन से कुछ होता नहीं, सिर्फ, मन का बहलाव होता है। मन का बहलाव करने के लिए हमने इतनी तरकीबें इजाद कर ली हैं, तीन-चार हजार वर्षों में, कि हम मन का ही बहलाव कर रहे हैं। जैसे कि गरीबी है मुल्क में, तो वैज्ञानिक चिंतक सोचेगा कि गरीबी कैसे पैदा हो जाती है? संपत्ति कुछ लोगों से खिंचके, कुछ दूसरे लोगों के पास कैसे पहुंच जाती है? धार्मिक चिंतक सोचेगा कि आदमी गरीब पैदा हुआ, तो उसका मतलब है कि उसने पिछले जन्म में कुछ बुरे कर्म किये होंगे, इसलिए वह गरीबी की तकलीफ भोग रहा है। संपत्ति के विभाजन का ख्याल उसे नहीं आता है। धार्मिक चिंतक को ख़्याल आता है कि आदमी गरीबी में दुख भोग रहा है, तो दुख भोगने के इसने कोई कर्म किये होंगे। और इसलिए भारत में तीन हजार वर्ष से हम गरीबी झेल रहे हैं, लेकिन धार्मिक चिंतक समझाता है कि गरीबी पिछले जन्मों के कर्मों का फल है। मामला खत्म हो जाता है। इसलिए कोई क्रांति का सवाल नहीं उठता, और उसको बदलने का सवाल नहीं उठता।
तो मेरा कहना यह है, एक उदाहरण के लिए मैंने कहा, इस तरह के सारे अवैज्ञानिक चिंतन तोड़े जाने चाहिए। और उनकी जगह वैज्ञानिक ढंग से सोचने की व्यवस्था ईजाद की जानी चाहिए। और वैज्ञानिक ढंग से सोचने की व्यवस्था के अंग होंगे। जैसे कि धार्मिक का एक अंग होता है कि आदमी विश्वास करे। वैज्ञानिक व्यवस्था का अंग होगा कि आदमी संदेह करे। अगर हमें स्कूलों में बच्चों को वैज्ञानिक बनाना है, तो उनको राइट डाउट्स सिखाने की पहले दिन से कोशिश करनी पड़ेगी। और बिलीफ से मुक्त करना पड़ेगा। डाउट सिखाना पड़ेगा। तो जाकर वह युनिवर्सिटी की कक्षा तक वैज्ञानिक बुद्धि उनमें पैदा हो सकती है। लेकिन अगर उनको हमने सिखाया कि श्रद्धा करो, तो उनमें कभी वैज्ञानिक बुद्धि पैदा होने वाली नहीं है। और यह जो आप कहते हैं कि मैं क्या करूंगा? क्या मैं इलेक्शन लडूंगा, या कैंडिडेट खड़े करूंगा? न तो मैं इलेक्शन लड़ूंगा, न मैं कैंडिडेट खड़े करूंगा, वह बात मुझे महत्वपूर्ण नहीं मालूम पड़ती, मुझे महत्वपूर्ण मालूम पड़ता है कि मुल्क, का वातावरण चिंतन से भर जाए, तो उस चिंतनपूर्ण वातावरण से कैंडिडेट भी निकल आएंगे, इलेक्शन भी निकल आएगा। उससे मुझे कोई प्रयोजन नहीं। उससे मेरा कोई सीधा संबंध नहीं है। एक बार मुल्क में चिंतन पैदा हो, और हर चीज पर सोचना शुरू हो, हर चीज पर पुराने स्थापित मूल्य के विरोध में क्रांति आ जाए, तो उस हवा से पैदा होंगे लोग। उस हवा से कैन्डिडेट भी पैदा होगा, उस हवा से इलेक्शन भी पैदा होगा, वो हवा बदलेगी। मेरा प्रयोजन हवा पैदा करने से ज्यादा नहीं है। उससे ज्यादा मेरी उत्सुकता नहीं है।

प्रश्नः आपने तो कहा है कि यह चिंतन और सोचने की बात जो है, इसे पहले आपने कहा है कि ज्ञान मिथ्या है, तो चिंतन और सोचने के बगैर ज्ञान कैसा ?

हां, अब यह ही होता है, टुकड़ों में यह ही होता है। मैंने कहा है कि ज्ञान मिथ्या है, जो दूसरे से मिल जाता है। बस वह उतना हिस्सा छोड़ दिया तो बड़ा मुश्किल हो गया। जो दूसरे से मिल जाता है वह मिथ्या है, जो आपके चिंतन, मनन और सोचने से आता है वो मिथ्या नहीं है। उधार ज्ञान मिथ्या है। बोरोड नाॅलिज मिथ्या है।

प्रश्नः आपने उधार ज्ञान की बात नहीं की ?

मैं निरंतर कर रहा हूं, निरन्तर कर रहा हूं। कठिनाई क्या होती है, एक वाक्य आप तोड़ ले सकते हैं। मैं निरंतर जब भी कहता हूं कि ज्ञान मिथ्या है, तब मैं ये कह रहा हूं कि उधार ज्ञान, सीखा हुआ, दूसरे की किताब से लिया हुआ, दूसरे से पकड़ लिया गया, मिथ्या है। जो ज्ञान खुद के चितन, मनन, संघर्ष से पैदा होता है, वह मिथ्या नहीं है। अगर वह मिथ्या हो जाएगा, फिर तो कोई उपाय ही नहीं रहा।

प्रश्नः ओाशो, वह बात पूरी नहीं हुई अभी, वह चल रही है, वह खासकर के आर्थिक कार्यक्रम के बारे में ?

हां, समझा मैं। दो-तीन बातें उसमें पूछी हैं। एक तो बात यह पूछी है कि गांधी जी के ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त की बात। उससे मैं राजी नहीं हूं। उससे मैं राजी नहीं हूं। क्योंकि संपत्ति व्यक्तियों के हाथ में रहे, यह ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त मान लेता है। व्यक्तिगत संपत्ति को स्वीकार कर लेता है। फिर व्यक्तिगत संपत्ति की व्याख्या करता है। लेकिन स्वीकृति वहां है कि संपत्ति व्यक्तिगत होगी। जिस आदमी की होगी, वह आदमी ट्रस्टी की हैसियत से वह उसका उपयोग करेगा। लेकिन इंडिविजुअल प्रोपर्टी की स्वीकृति वहां है। मेरा मानना है जब तक प्राॅपर्टी की स्वीकृति व्यक्तिगत है, तब तक दुनिया में आर्थिक समानता नहीं हो सकती। संपत्ति सामूहिक ही होनी चाहिए, व्यक्तिगत नहीं। संपत्ति सामूहिक है ही, वह व्यक्तिगत है भी नहीं। किसी एक व्यक्ति के द्वारा संपत्ति पैदा नहीं होती है। संपत्ति पैदा होती है सामूहिक सहयोग के द्वारा। उसकी मालकियत भी समूह की होनी चाहिए। और जैसे ही हम यह कहते हैं कि ट्रस्टी की तरह व्यवहार करे कोई व्यक्ति, वैसे ही व्यक्ति के ऊपर बात छूट गई कि वह कैसा व्यवहार करेगा? ट्रस्टी वह कैसा हो ?

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

गांधी जी की मान्यता है कि व्यक्ति के ऊपर विश्वास किया जा सकता है। मेरी भी मान्यता है कि व्यक्ति पर विश्वास किया जाना चाहिए। लेकिन मेरी ये भी समझ है कि व्यक्ति समाज के बहुत बड़े यंत्र का पुर्जा है। और अगर व्यक्ति चेष्टा भी करे, पूरे समाज के यंत्र के विरोध में, ट्रस्टी होने की तो सिर्फ खुद मिट जाएगा, और कुछ भी नहीं हो सकता। और एक व्यक्ति के मिटने से कोई परिणाम नहीं होता। दूसरा व्यक्ति उसकी जगह खड़ा हो जाएगा। फिर गांधी जी ने तीस-चालीस साल मेहनत की, एक भी आदमी को वह ट्रस्टी होने के लिए राजी नहीं कर पाए। बल्कि जिन लोगों की, जिन धनपतियों के बीच गांधी जी को आशा थी, उन सारे धनपतियों ने..., गांधी जी तो उनको ट्रस्टी नहीं बना पाए, लेकिन वह व्यक्ति गांधी जी के सत्संग का खूब लाभ उठा कर भारी संपत्ति को इकट्ठा कर लिये। अकेले बिरला के पास अंदाजन तीस करोड़ की संपत्ति का संग्रह था, आजादी आई तब। आज उसके पास साढ़े तीन सौ करोड़ के ऊपर संपत्ति इकट्ठी हो गई है। गांधी जी बिरला को ट्रस्टी नहीं बना पाए लेकिन गांधी जी के नाम की क्रेडिट का फायदा बिरला ने पूरा उठाने की कोशिश की। अब यह जो गांधी जी न बना पाए ट्रस्टी, तो गांधीवादी बना पाएंगे ट्रस्टी! गांधी जी न बना पाए और मोरारजी बना पाएंगे यह असंभव मामला है। ट्रस्टी बनाए नहीं जा सकते क्योंकि व्यक्ति जो है वह बड़े भारी समूह के यंत्र का हिस्सा है, उस समूह के पूरे यंत्र में शोषण का कार्य जारी हो, तो व्यक्ति को ट्रस्टी बनाने, नहीं बनाने का कोई सवाल नहीं है। लेकिन यह ट्रस्टीशिप का सिद्धांत धनपति को बहुत अपील करता है। उसे लगता है कि बहुत अच्छा सिद्धांत है। क्योंकि इसमें व्यक्तिगत संपत्ति को बचाने की फिर एक सुविधा मिल जाती है। मैं ऐसा नहीं मानता हूं कि गांधी जी की नीयत ऐसी है कि व्यक्तिगत संपत्ति बच जाए। गांधी जी की नीयत पर मुझे शक नहीं है। लेकिन गांधी जी का जो प्रस्ताव है, उससे व्यक्तिगत संपत्ति के बचने की संभावना है। और वह संभावना का फायदा पूंजीपति उठा लेना चाह सकता है। और सारी दुनिया मे पूंजीवाद गांधीजी के प्रति जो उत्सुकता दिखा रहा है, उस उत्सुकता का एक ही कारण है, पूंजीवाद तो मर चुका है, उसकी तो अरथी निकल चुकी है, अब सिर्फ लाश है। अब उसके सामने एक ही विकल्प है। और वह विकल्प है समाजवाद का। उसकी लाश तो निकल चुकी है। अब आखिरी उपय यह है कि गांधी जैसे व्यक्तियों के सिद्धांतों का कोई सहारा मिल जाए, तो पूंजीवाद की लाश थोड़े दिन तक और जिंदा होने के भ्रम में खींची जा सकती है। तो पूंजीवाद उनमें उत्सुकता ले रहा है। वह उत्सुकता गांधीजी में नही है। वह उत्सुकता पूंजीवाद के लास्ट सेटी मेजर की तरह है। गांधी जी का सहारा आखिरी मिल जाए तो थोड़े दिन तक पूंजीवाद और खिंच सकता है। मुझे नहीं लगता कि गाधी जी के विचार से पूंजीवाद मिट सकता है। गांधी जी का विचार शुभ है, और गांधी जी की धारणा शुभ है लेकिन वह धारणा शुभ समाज की वैज्ञानिक व्यवस्था को बदलने में सार्थक नहीं हो सकती।

प्रश्नः खतरा कम्यूनिज्म में नहीं है?

खतरे हैं, खतरे बिलकुल हैं, और खतरे कम नहीं हैं। गांधीवाद से भी ज्यादा खतरे हो सकते हैं, वो मैं बात करता हूं। खतरे नहीं है, यह सवाल नहीं है मेरा, मैं यह कह नहीं रहा हूं कि वही एक विकल्प है। और न मैं यह कह रहा हूं वही विकल्प चुन लिया जाना चाहिए। अभी मैं सिर्फ यह कह रहा हूं कि पूंजीवाद अपने को बचाने की अंतिम चेष्टा में गांधीवाद का सहारा ले सकता है। और हिंदुस्तान में गांधी और विनोबा का सहारा उसे मिला है। और मिल रहा है। यह जो सहारा है..., पूंजीवाद को, पूंजीपति का सवाल नहीं है, पूंजीवाद को, पूंजीशाही को, वह सहारा मिल रहा है, और इसलिए वह उत्सुक है और आनंदित भी है। और आनंदित भी है, और सारी सहायता भी देने को उनको तैयार है। क्योंकि दिखाई यह पड़ता है कि उस माध्यम से समाज में आने वाली क्रान्ति को थोड़े दिन तक विलम्बित तो किया ही जा सकता है। विनोबा जो काम कर रहे हैं, उसका लक्ष्य भी ठीक है, उनकी नजर भी ठीक है, वह जो कामना और कल्पना करते हैं, वह भी ठीक है। लेकिन समाज न कामनाओं से चलता है, न कल्पनाओं से चलता है। समाज का एक जड़यंत्र है। और उस यंत्र से समाज बहुत, बहुत दूर तक निन्यानबे प्रतिशत उस जड़यंत्र से चलता है। और उस जड़यंत्र को जब तक तोड़ने की सीधी कोई क्रांति न हो, तब तक ऊपर के सारे सुधार, मकान को बिना बदले, थोड़े बहुत मकान में रंग-रोगन करने के और दीवाल को साफ-सुथरा बनाने के, थोड़ा पलस्तर बदलने के साबित होने वाले हैं। जो आदमी भूदान में जमीन दान दे देता है, वह जमीन दान देने के बाद, शोषक नहीं रह जाता है, ऐसा नहीं है। उसका शोषक रहना जारी रहता है। वह एक तरफ .जमीन देता है दान में, एक तरफ वह कहता है कि हम भूमि का सबकी बनाने के लिए कुछ करते हैं, और दूसरी तरफ उसके शोषण का सारा काम जारी रहता है। बल्कि जितनी जमीन उसने दान में दी है, उतना दो साल के भीतर, साल भर के भीतर वह शीघ्रता से कैसे वापस खींच ले, वह उसके शोषण की प्रक्रिया जारी रहती है। शोषक नहीं बदलता भूदान से। सिर्फ शोषक थोड़ा सा दान देता है। और दान देने वाला शोषक, न दान देने वाले शोषक से ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो सकता है। क्योंकि दान देने वाला शोषक आने वाली क्रांति को बफर का काम करता है। वह लगता है नहीं कि कुछ हो रहा है। शोषक भी कुछ दे रहा है, समाज बदल रहा है। भूमि भी दी जा रही है, धन भी दिया जा रहा है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। धीरे-धीरे लोग बदल जाएंगे। और यह जो हवा पैदा होती है, वह क्रांति की क्षमता को, तीव्रता को कम करती है।
विनोबा के काम से शोषण का यंत्र नहीं टूट रहा, सिर्फ शोषण के यंत्र में आॅयलिंग हो रही है। विनोबा को पता हो या न पता हो। विनोबा जानते हों, या न जानते हों, वह सवाल नहीं है। उनकी इच्छा का और नीयत का भी सवाल नहीं है। लेकिन जो हो रहा है, वह तथ्य यह है कि उससे वह शोषण का यंत्र जो है, वह ज्यादा लुब्रीकेट, पा रहा है। और वह थोड़ा चलने में ज्यादा सक्षम हो जाएगा। मेरी दृष्टि में व्यक्ति, एक-एक व्यक्ति के हृदय परिवर्तन के द्वारा समाज की यांत्रिक व्यवस्था नहीं बदली जा सकती। एक-एक व्यक्ति के हृदय परिवर्तन के द्वारा, एक-एक व्यक्ति बदला जा सकता है, लेकिन समाज नहीं। और एक-एक व्यक्ति को बदलने के लिए बैठने का जो उपाय है, वो इतना लंबा है, और इतना अनंत है, कि उससे समाज की व्यवस्था कभी बदलेगी नहीं। समाज की व्यवस्था बदलनी हो तो समाज के चित्त का पूरा परिवेश क्रांति के लिए तैयार किया जाना जरूरी है। और वह परिवेश क्रांति के लिए तैयार हो, उसके लिए, उसके लिए समाज के सारे स्थापित मूल्यों का खंडन, समाज की सारी प्रतिगामी व्यवस्थाओं का खंडन, समाज को पीछे की तरफ बांधने वाले सारे के सारे सूत्रों का खंडन, और समाज को आगे ले जाने वाले, समाज को विचारशील बनाने वाले, समाज को क्रांति-उन्मुखता देने वाले, सारे तत्वों की चर्चा की जानी जरूरी है। मेरी दृष्टि में, इस समय देश को क्रांति की उतनी जरूरत नहीं है, जितनी क्रांति के परिवेश की जरूरत है। क्रांति तो परिवेश से पैदा हो जाती है। वह जो फ्रांस में क्रांति हुई, वो उन लोगों ने पैदा की जो लोग किताब लिखते रहे और बातें करते रहे। वह जो रूस में क्रांति हुई, वह क्रांति उन लोगों ने की, जो ब्रिटिश म्यूजियम में बैठ कर किताबें लिखते रहे।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

जरूर, इसकी संभावनाएं हैं। मैं उसकी बात करता हूं। इस बात की संभावनाएं हैं कि क्रांति खतरे में ले जाए। लेकिन इसकी संभावनाएं अब उतनी नहीं है जितनी फ्रांस की क्रांति में थी, और रूस की क्रांति में थी। क्योंकि हम आज तीन-चार क्रांतियों की असफलता देखने के बाद क्रांति में जाएंगे। तीन-चार क्रांतियां बुरी तरह असफल हुई हैं और हम जो अब क्रांति में गुजरेंगे, उन तीन-चार क्रांतियों की असफलताओं को ध्यान में रखा जा सकता है। लेकिन हिंदुस्तान के जो क्रांतिवादी हैं, कंयुनिस्ट हैं, या उस तरह के लोग हैं, वह लोग भी अत्यंत प्रतिक्रियावादी हैं, क्रांतिवादी नहीं हैं। वे भी क्रांति को ऐसे पकड़े हुए हैं, जैसे कि धार्मिक आदमी गीता को पकड़ता है। वह भी कैपिटल को इस तरह से पकड़े हुए हैं, जैसे कोई कुरान को पकड़ता है। उनके लिए भी दुनिया का विचार माक्र्स के बाद आगे नहींे गया, वहीं ठहर गया है। वह वहीं रूका हुआ है। हिंदुस्तान के खतरे दोहरे हैं। हिंदुस्तान में प्रतिगामी विचारक हैं, जो पीछे की तरफ ले जाने की बात करते हैं। हिंदुस्तान में क्रांतिवादी विचारक हैं जिनकी क्रांति भी आउट आॅफ डेट हो चुकी है। उनसे खतरा है। और इसलिए हिंदुस्तान में ठीक-ठीक क्रांतिकारी चिंतन पैदा करने की जरूरत है। उस चिंतन में क्रांतिवादी भी नाराज होगा। क्योंकि वह क्रांतिवादी भी क्रांतिवादी नहीं है। किसी का उन्नीस सौ सत्रह में रूक गया है मामला, किसी का माक्र्स के साथ रूक गया है, किसी का माओ के साथ रूक गया है। क्रांतिवादी होने का अर्थ है, जो किसी के साथ रूका नहीं है। जो आज के समय को आज की जरूरत को आज की परिस्थिति को देख कर क्रांति कैसे हो उसका विचार करता है। और क्रांतिवादी की अदभुत स्थिति है। क्रांतिवादी खुद भी चैबीस घंटे क्रांति में है, वो जो आज कहता है हो सकता है कल न कहे। जो कल कहता है वो परसो न कहे। क्रांतिवादी खुद भी चैबीस घंटे क्रांति में हैं। और जैसे ही क्रांतिवादी रूकता है, वो प्रतिवादी प्रतिगामी से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो सकता है।

प्रश्नः आपने खंडन तो किया, बुद्ध का किया, महात्मा जी का किया, विनोबा जी का किया, मगर आपके जो विधायक रूप हैं, वह तो अभी आपने नहीं बताए ?

क्योंकि मेरा मानना है कि वायलेंट रेगुलेशन हो ही नहीं सकती। वायलेंट हुई कि वह रेगुलेशन नहीं रह जाएगी। और वायलेंट होने का मलतब ही यह है, कि बहुत थोड़े से लोग राजी है, ज्यादा लोग राजी नहीं हैं। तभी किसी रेगुलेशन को वायलेंट होना पड़ता है। वायलेंट होने का मतलब है कि मायनोरिटी लाने की कोशिश कर रहे हैं, मेजोरिटी राजी नहीं है। और मेरा कहना है कि मायनोरिटी सत्य को भी लाने की कोशिश कर रही हो, और मेजोरिटी राजी न हो तो उसके सत्य का भी कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि जिस सत्य के लिए हम अधिकतम लोगों को राजी नहीं कर सकते, उस सत्य को जबरजस्ती थोपने के हम हकदार नहीं हैं। हिंसात्मक क्रांति का मतलब इतना है कि थोड़े से लोग कब्जा करके जबरजस्ती क्रांति ला दें, मैं उस पक्ष में नहीं हूं, क्रांति तो अनिवार्य रूप से अहिंसक होगी। और इसलिए क्रांति अनिवार्य रूप से वैचारिक होगी। विचार पहले पहुंच जाएंगे, लोकमानस बदलेगा, लोक चित्त बदलेगा, और लोक चित्त की बदलाहट से आएगी।
इसलिए मैं क्रांति को अनिवार्य रूप से लोकतांत्रिक मानता हूं। जो भी क्रांति लोकतांत्रिक नहीं है, वो क्रांति महंगी सिद्ध होगी, क्योंकि जिन लोगों के हाथ में जाएगी वो खतरनाक लोग हैं। और उनका कोई भरोसा नहीं है कि वे सत्ता के पहले कैसे थे और सत्ता के बाद कैसे हो जाएंगे ? यानि मैं किसी क्रांति...। क्रांति का मतलब ठीक से अगर हम समझें तो अब तक की जो क्रांतियां असफल हुई हैं, उनके असफल होने का एक कारण हिंसा भी थी। क्योंकि जैसे ही कोई आदमी हिंसा करने को राजी हो जाता है, वह आदमी क्रांतिवादी नहीं रहा। क्योंकि उसने दूसरे की स्वतंत्रता को, दूसरे के विचार को, अंगीकार करना बंद कर दिया, उसने दूसरे की महिमा की स्वीकृति बंद कर दी, वो दूसरे के दुश्मन की तरह खड़ा हो गया। जैसे ही मैं यह कहता हूं, जैसे ही मैं यह कहता हूं कि मैं छुरा मार दूंगा, अगर मेरी बात नहीं मानते, तो वैसे ही मेरी बात की जान निकल चुकी है। उसमें कोई क्रांति नहीं रही। वह मेरी बात बेकार हो चुकी है, मर चुकी है। मेरे पास दलील भी नहीं है। मेरे पास खड़े रहने का और कोई उपाय नहीं रह गया। तब मैं छुरा उठाता हूं। क्रान्ति जब भी छुरा उठाती है, समझ लेना चाहिए कि क्रांति होने के पहले ही असफल हो चुकी है। मैं नहीं मानता हूं कि क्रांति..., वह जो मिस अंडरस्टेंडिग पैदा हो गई है मेरे बाबत, वो इसीलिए हो गई मैंने कहा यह कि अगर अंिहंसा से क्रांति न आती दिखाई पड़ती हो, और अगर अहिंसा भी क्रांति को रोकने का माध्यम बन गई हो; और अगर ऐसा लगता हो कि अहिंसा भी ढाल बन गई है, क्रांति को रोकने के लिए, तो हिम्मत करनी चाहिए हिंसा करने की भी। इसका मतलब यह नहीं कि मैं कहता हूं कि हिंसा करनी चाहिए। इसका कुल मतलब यह है कि मैं यह कहता हूं कि जिसको हम अहिंसा कह रहे हैं वह अहिंसा भी नपुंसक होगी, इसलिए ढाल बन रही है क्रांति की। अन्यथा क्रांति को रोकने के लिए बाधा नहीं बन सकती अहिंसा। अहिंसा क्रांति को लाने के लिए तीव्रतम गति बन सकती है।
यह जो आप पूछते हैं कि कैसे वो क्रांति होगी ? कैसे वो आर्थिक समानता होगी? मेरी दृष्टि में विचार की क्रांति पहला पाॅजिटिव मामला है। पहला पाजिटिव चरण, पहला विधायक चरण है विचार की क्रांति। लोगों के चित्त से वह-वह मुद्दे तोड़ देने हैं, जिनसे क्रांति रूकती है, और वह-वह मुद्दे लोगों के चित्त तक पहुंचाने हैं, जिनसे क्रांति विकसित होती है। तो पहला विधायक कदम है, एक इनवायरमेंट, एक परिवेश विचार करने वाले लोगों का खड़ा करना। उतना ही काम हो जाए, तो शेष काम उसके पीछे आना शुरू होगा। लोकतांत्रिक ढंग से ही, अगर लोग तैयार हो जाते हैं, तो कोई भी एक क्रांति इस मुल्क में की जा सकती है। कोई भी क्रांति इस मुल्क में की जा सकती है।

प्रश्नः इस दृष्टिकोण से आपने जो कहा कि लोकतांत्रिक ढंग से होना चाहिए, तो जो आधुनिक जो लोकशाही भारत में है, तो इसमें, जो भी बेसिक वैल्यूज हैं, फ्रीडम आॅफ एक्सप्रेशन, आप जैसे बात करते हैं, लोकशाही के लिए, इससे तो ऐसा हो जाएगा, कि ये सब बेसिक वेल्यू में से भी लोगों का विश्वास उठ जाएगा...?

बेसिक वैल्यूज के विरोध में तो मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

नहीं, क्योंकि, क्योंकि मूर्तिभंजन जो है, मूर्तिभंजन जो है वह बेसिक वैल्यूज को नहीं तोड़ता है, बल्कि उनको मजबूत करता है। क्योंकि बेसिक वेल्यूज क्या हैं? आप कहते हैं विचार की स्वतंत्रता। विचार की स्वतंत्रता, विचार की स्वतंत्रता मूर्तिभंजन से नहीं टूटती, बढ़ती है। बल्कि जिस मुल्क में मूर्तिभंजक नहीं होंगे, उस मुल्क में विचार स्वतंत्रता का कोई अर्थ ही नहीं होता है।
और दूसरी बात आप कहते हैं कि यह जो आप कहते हैं, कि पाॅजिटिव, यह पाॅजि.टिव का हमारा जो मोह है, अगर हम बहुत गौर करें, तो हमारा वह जो क्रांति-विरोधी चित्त है, उसका मोह है। हमेशा हम चाहते हैं कि क्या करना है उसे बताइए ठीक से। क्योंकि हम चाहते हैं जल्दी से कि कुछ करने वाली बात पकड़ी जा सके। और मेरा कहना यह कि करने वाली बातें हम बहुत पकड़े हुए हैं, न करने वाली बात एक बार इस मुल्क के चित्त से तीव्र तूफान की तरह गुजरनी जरूरी है। उससे बड़ा कोई पाॅजिटिव एफर्ट नहीं हो सकता। और एक बार हजारों साल का वह जो जला हुआ चित्त है, वह एक दफा उघड़ जाए, अपरूटेड हो जाए, जरूर डर है। डर है कि अपरूटेड चित्त, कहीं हमें और गड्ढों में न पटक दे। लेकिन मेरा कहना यह है कि पुराने गड्ढे में पड़े रहने की बजाए, नये गड्ढे को चुन लेना हमेशा श्रेयस्कर है, कई कारणों से। क्योंकि जो आदमी हजारों साल के गड्ढे से निकलने की हिम्मत जुटा लेता है, वह नए गड्ढे से निकलने में उसको क्षण भर नहीं लगेगा। लेकिन जो गड्ढे से निकलने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाता जो समाज, इस डर से कि कहीं भूल न हो जाए, इस डर से कि कहीं अराजकता न हो जाए, इस डर से कि कहीं बेसिक वेल्यूज न खो जाएं, इस भय से जो क्रिपिल्ड हो जाता है, माइंड, वो समाज फिर कोई भी गति नहीं कर पाता। मेरे मन में तो इस वक्त एक अपरूटेडनेस चाहिए मुल्क को, उसके सारे चिंतन की जहां-जहां जड़ें हैं, वहां से खींच लेनी हैं, ताकि वो नई जड़ें खोजें, नई भूमि खोजे और नया आकाश खोज सके।

प्रश्नः ओशो, लैट अस कम आउट आॅफ पाॅलिटिक्स, और मनु भाई ने आपके बारे में जो, आरोप लगाया है, इसके बारे में आप कुछ...?

वह भी, पाॅलिटिक्स ही है, बाहर कैसे आइएगा? वह बाहर आना नहीं है और गहरी पाॅलिटिक्स में चले जाना है। वह आखिरी पाॅलिटिशियन का आखिरी उपाय है। अगर मेरी बातें गलत हैं, तो मेरी बातों को गलत कहना चाहिए। मैं जो कहता हूं, वह ठीक नहीं है, तो लड़ना चाहिए कि वह ठीक नहीं हैं। लेकिन जब यह क्षमता न रह जाए, और सीधी लड़ाई न हो सके, तो फिर पीठ में पीछे से छुरा मारने के उपाय करने चाहिएं। फिर इस मुल्क में सबसे बड़ा जो उपाय है, वह यह है कि किसी के चरित्र पर कुछ लांछन लगाने की कोशिश करनी चाहिए। इस मुल्क के साधु-संयासी इतने कमजोर हैं कि चरित्र की बात कही कि वह गए। उससे ज्यादा उनका कोई मुद्दा भी नहीं है। अगर यह बता दिया गया कि फलां आदमी, फलां साधु एक स्त्री के साथ, अकेले में बैठा देखा गया तो, मामला खत्म हो गया। इस मुल्क का साधु इतना कमजोर है कि वह सिर्फ चरित्र पर खड़ा है। और इस मुल्क के सारे लोग, यह जानते हैं कि चरित्र की दीवाल नीचे से खींच लो कि आदमी गया। स्वभावतः मेरे बाबत भी वह ऐसा ही सोचते हैं। लेकिन पहली भूल तो वह यह कर जाते हैं कि मैं कोई साधु नहीं हूं। पहली भूल वह यह कर जाते हैं कि मेरा चरित्रवान होने का कोई दावा नहीं है, इसलिए तुम खींच नहीं सकोगे कुछ। यानि मैं दावा करूं चरित्रवान होने का, अगर मैं चरित्रवान होने का दावा करूं, तो मेरे चरित्र को खींचा जा सकता है। और खींचके मुझे गिराया जा सकता है। वह मेरा दावा नहीं है। वह मेरा दावा नहीं है। फिर दूसरी बात यह है, कि मैं जिंदगी के सारे मसलों में क्रांति का पक्षपाती हूं। मैं स्त्री-पुरूष के संबंधों में भी क्रांति का पक्षपाती हूं। मैं इस बात का भी पक्षपाती हूं कि स्त्री-पुरूष के बीच जो दीवालों की बहुत लंबी परंपरा है वह टूटनी चाहिए। स्त्री और पुरूष के बीच ज्यादा स्वस्थ और मानवीय संबंध होना चाहिए। आज इस मुल्क में तो यह भी हालत नहीं है, आप एक स्त्री के पति हो सकते हैं, बेटे हो सकते हैं, भाई हो सकते हैं, लेकिन इस मुल्क में किसी स्त्री के मित्र नहीं हो सकते।
एक स्त्री मेरे साथ यात्रा की। और उसने मुझसे पूछा, जिस घर में हम ठहरेंगे, वो लोग मुझसे जरूर पूछेंगे कि मैं आपकी कौन हूं? तो मैंने कहा, तू अगर मेरी कोई हो तो ही बताना और नहीं तो मत बताना। तो उसने मुझसे कहा कि अच्छा हो कि मैं आपको राखी बांध कर बहन बन जाऊं। मैंने कहा, उस पाप के लिए मैं राजी नहीं होउंगा। क्योंकि राखी बांध कर तू सिर्फ इसलिए बहन बन रही है कि तू बता सके कि मैं बहन हूं। तू सिर्फ हिम्मत जुटाने के लिए। उसके लिए मैं राजी नहीं होउंगा। तुझे राखी बांधनी हो तो उसकी फिक्र नहीं। लेकिन तू बहन नहीं है, और बिन बहन हुए मेरे साथ यात्रा कर सकती है, इसलिए मैं राजी हूं। और जिस घर में हम ठहरेंगे, वो जरूर पूछेंगे, पहली बात वो यही पूछेंगे कि ये महिला कौन है? तो मैंने कहा कि तू अगर कोई हो तो बता देना, और न हो तो तू बता देना कि मैं कोई भी नहीं हूं। और अगर तू मेरी मित्र है तो कह देना कि मित्र हूं। और अगर समझे कि मित्र भी नहीं हूं, तो तुझे जो ठीक लगे तू कह देना। क्योंकि जो ठीक हो, वही कहना।
वह स्त्री मेरे साथ उस घर में गई। वही हुआ, पहली बात ही घर के वृद्धजन ने पूछा, यह कौन है? मैंने कहा, यह भी रास्ते में यह ही विचार करती आई है कि यह कौन है? आप इससे पूछ लें, आप इससे पूछ लें। जहां तक मैं समझता हूं मेरा मित्र से ज्यादा किसी से कोई नाता नहीं है। न मेरा किसी से शिष्य का नाता है, न मेरा किसी से गुरू का नाता है, न मेरा किसी से अनुयाई का नाता है, मेरा सिर्फ मित्र का नाता है।
उस लड़की ने कहा कि मैं कैसे कहूं? लेकिन बस मैं मित्र हूं। वे बहुत चैंके, बहुत परेशान हो गए। अगर वह मेरी बहन होती, तो मेरे कमरे में ठहराई जा सकती थी। मेरी मां होती तो ठहराई जा सकती थी। वह मुझसे पूछने लगे कि क्या इसे आपके कमरे में ठहरने दिया जाए? मैंने कहा, आपको क्या अड़चन है? उन्होंने कहा कि नहीं, वह आपकी बहन होती तो कोई बात नहीं थी। हमारा जो चित्त है, मैं तो इस सारे चित्त के विपरीत हूं। यह ही घटना दिल्ली में फिर घट गई। मनु भाई के साथ भी वहीं घटना घट गई। उन बेचारों का कोई कसूर नहीं है। जैसा हमारा मुल्क सोचता है, वैसा वो सोचते हैं।
एक बहन आई हुई थी दिल्ली। और उसने मुझे चाहा था कि तीन दिन मैं आपके पास ही रूकूंगी, ताकि मैं पूरे वक्त साथ रह सकूं। पूरी बात सुन सकूं। कुछ मुझे बात करनी है, वह भी मैं कर सकूं। और साथ रहने का सुख भी ले सकूं। मैंने उससे कहा कि मजे से तुम आ कर रह सकती हो, मुझे कोई तकलीफ नहीं है। वह आ कर रूक गई। एक दिन कोई बात न हुई। लोगों ने कहा कि पाॅलिटिक्स है। एक दिन कोई बात न हुई, एक दिन मेरे साथ थी। और मुझसे तो कोई बहन गले भी आ कर मिल जाती है तो मैं कोई एतराज नहीं करता हूं। क्योंकि मैं मानता हूं कि एतराज करने वाला आदमी, किसी न किसी तरह कामुक चित्त का है। अगर किसी को मुझसे गले मिलना है, तो मुझे एतराज नहीं। मैं अपनी तरफ से किसी से गले मिलने नहीं जाता हूं। मुझे फुर्सत भी नहीं है, और मैं कोई अर्थ भी नहीं पाता हूं कि किसी से गले मिलने का कोई अर्थ है। कि हड्डी से हड्डी लगाने से कुछ भी किसी तरह का रस है या आनंद है, मुझे नहीं मालूम पड़ता। तो मैं तो नहीं जाता हूं। लेकिन कोई आ जाए तो उसको मैं इंकार भी नहीं करता हूं। सुख लेना चाहे तो वह ले सकता है।
वह महिला जैसे ही स्टेशन पे आई, मुझसे गले मिल गई। गले मिलते ही तकलीफ शुरू हो गई होगी। फिर वह मेरे साथ रूकी। एक दिन बीत गया, दूसरे दिन वह प्रेस कांफ्रेंस हुई, जिसका आप पूछते हैं, जो कि छपी नहीं। जो कि, जो इंटरव्यू लिया था वह छपा नहीं। वह हुआ, उसको मनु भाई ने उनके मित्रों ने सुना, उस प्रेस कांफ्रेंस से घबड़ाहट शुरू हो गई। और शाम को जब मैं मीटिंग से बोल के लौटा तो, देखा कि उस स्त्री का सामान लिये, वो बाहर खड़ी रो रही है। मैंने पूछा, क्या हुआ? उसने कहा कि मैं जा रही हूं सिर्फ आपके पैर छूने के लिए रुकी हूं कि मैं आपसे विदा ले लूं। उन्होंने मुझे बाहर किया है, और कहा है कि उस कमरे में आप नहीं रुक सकती। मैंने कहा कि मेरे साथ कोई आया हो, और मुझसे बिना पूछे कमरे के बाहर कर दिया जाए, यह हद, हद अपमानजनक बात है। मैंने उनसे कहा, मुझे कहना चाहिए था। अगर इस स्त्री को इस कमरे में नहीं भी ठहरने देना है, तो मुझे कहना चाहिए, वह मेरे साथ आई है। आपको उसे नहीं निकालना था। उन्होंने कहा कि नहीं, हमने बात बढ़ानी नहीं चाही, हमने सोचा कि इसको अलग कर दें, दूसरे कमरे में ठहरा दें। मैंने कहा कि वह अब दूसरे कमरे में नहीं ठहर सकेगी। आप मुझसे कहते तो शायद, ठहरने का कोई उपाय भी हो सकता था। लेकिन अब उसको दूसरे कमरे में नहीं ठहराया जा सकता। वह इसी कमरे में ठहरेगी। और उस स्त्री ने भी कहा कि अब मैं किसी हालत में इस कमरे को नहीं छोड़ सकती। मैंने इन लोगों से कहा कि अब उचित यह ही है कि आपको भय लगता है कि पता नहीं रात में वह स्त्री से मेरे क्या संबंध होंगे, तो आप भी यहीं आके सो जाएं। वह जाती नहीं, मैं कहता हंूं, उसे जाने देना नहीं है, अब यह ही एक रास्ता है कि आप भी इसी कमरे में आ जाएं। इसके लिए राजी नहीं हुए कि हम कोई पहरेदार तो हैं नहीं। मैंने कहा आप समझते नहीं, लेकिन अच्छा यह ही होगा, यह उचित होगा कि आप भी यहां आ जाएं। बात यहां तक बढ़ गई कि वह जि.द करने लगे कि हमारी संस्था में अब यह स्त्री इस कमरे में नहीं ठहर सकती। हमारी संस्था का नियम है। तो मैंने कहा कि फिर एक ही उपाय है कि मैं यहां से चला जाऊं। क्योंकि मैं ऐसी संस्था में नहीं ठहर सकता हूं, जो इतनी अभद्रता की बातें करती हो। तो मैं वह संस्था छोड़ कर चला गया। उनसे मैंने कहा कि कल मैं पब्लिकली मीटिंग में इसकी बात कर लूंगा। क्योंकि यह बात तो पीछे उठेगी, तो अभी मैं भी मौजूद हूं, आप भी मौजूद हैं, लोग भी मौजूद हैं, वह बहन भी मौजूद है। यह सारी बात हो जाए तो अच्छा, तो मुझसे कहा कि नहीं, आप इसकी बात मत उठाइए, इसमें कोई सार नहीं है। इसमें कोई मतलब नहीं है, हो गया, जो हो गया।
दूसरे दिन सब्जेक्ट रखा हुआ था सैक्स एंड लाइफ। वो सब्जैक्ट भी बदल दिया, उस दिन जब मैं आया, तो मुझसे कहा कि वो सब्जैक्ट भी बदल दिया। आप तो धर्म पर ही बोलिए। उन्होंने वह सब्जेक्ट भी बदल दिया। उन्होंने कहा कि वह सब्जेक्ट भी नहीं रखना है, शायद उन्हें भय हुआ कि उस सब्जेक्ट के अंतर्गत मैं बात न कर लूं। मुझे कोई रस नहीं था बात करने में कि पब्लिकली कोई बात की जाए। कहा था मैंने सिर्फ इसलिए कि उनको बात करनी पड़ेगी आगे-पीछे। वह भूल नहीं सकेंगे। इसलिए बात कर लेनी उचित है, उन्होंने कहा कि नहीं, कोई बात करने का मतलब ही नहीं। कोई अर्थ ही नहीं। बात खत्म हो गई। मैंने कहा, बात खत्म हो गई, ठीक है। वह खत्म नहीं हुई। दो महीने बात उन्होंने आके यहां वक्तव्य दिया। वह दो महीने बाद। दो महीने बाद यहां आ कर वक्तव्य दिया कि यह सारा मामला हुआ।
अब यह बड़े मजे की बात है, कि जिस बात को मैं वहीं कर लेना चाहता था, सबके सामने, उसको दो महीने बाद...। तो इसलिए मैं कहता हूं कि पाॅलिटिक्स ही होगी। वह मामला पाॅलिटिक्स का ही होगा। लेकिन मेरी जहां तक समझ है, मनु भाई का उसमें कोई कसूर नहीं है, उनकी कोई बुरी नियत भी नहीं है। जो हमारा सामान्य भारतीय मानस है, उस भारतीय मानस का उनके पास भी मानस है। उनको कठिनाई मालूम हुई होगी, वह कठिनाई उनको पीड़ा दी होगी, परेशानी हुई होगी। फिर मुझसे पूछने आए थे, वह पूछने से और परेशान हो गए। क्योंकि मुझसे उन्होंने पूछा कि अगर कोई स्त्री आपका आलिंगन करे तो? मैंने कहा, मुझे कोई तकलीफ नहीं। तो आप इसमें ऐतराज नहीं करते ? मैंने कहा, मैं कोई ऐतराज नहीं करता हूं। कोई आपको चूम ले तो ? मैंने कहा कि चूम ले। हाथ-मुंह धोना पड़ेगा क्योंकि थोड़े से कीटाणु लग जाते हैं, और तो कुछ होता नहीं। तो उन्होंने कहा, आप आलिंगन को और चुंबन को सैक्सुअल नहीं मानते हैं? मैंने कहा, वह हो भी सकता है, करने वाले पर निर्भर है। नहीं भी हो सकता, एक मां अपने बेटे को चूम सकती है, एक मित्र अपने मित्र को चूम सकता है। वह सेक्सुअल हो भी सकता है, वह नहीं भी हो सकता। वह करने वाले पर निर्भर है। और मैंने कहा, करने वाले ही जान सकते हैं। आप अलग खड़े होकर बिलकुल नहीं जान पाएंगे कि वह क्या है ? बहुत मुश्किल है। यह सारी बातें उन्होंने, सारी बातें उस वक्तव्य में जोड़ दीं कि मैं इसको, आलिंगन को और इसको कामुक नहीं मानता हूं।
यह सब होगा, यह बिलकुल स्वाभाविक है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। लेकिन गलती उनकी सिर्फ एक है, वह अगर मुझसे ही कह देते तो मैं एक वक्तव्य दे देता। वह मुझसे कहते तो फोटो निकलवा लेने देता उनको, ताकि उनके पास प्रमाण होता और ठीक से बात होती। वह मुझसे कहते तो मैं कह देता कि मैं लिख कर दे देता हूं कि मैं चरित्रवान नहीं हूं। इसमें कोई अड़चन नहीं है। क्योंकि मेरा ख्याल ही यह है कि चरित्र की चिंता सिवाय चरित्रहीनों को और कोई भी नहीं करता। सिवाये चरित्रहीनों के चरित्र की कोई चिंता नहीं करता है। चरित्र हो तो चरित्र की चिंता का सवाल ही नहीं है। वह विचारणीय भी नहीं है, वो बात खत्म हो गई। और चरित्र न हो तो ही उसकी बहुत चिंता होती है। मुझे कोई चिंता नहीं है। और फिर मेरा कहना यह है, जो मैं कह रहा हूं, उसका कोई मेरे चरित्र से बांधके जोड़ने का संबंध भी नहीं है। अगर यह भी स्वीकार हो जाए कि मैं चरित्रहीन हूं, तब भी मैं जो कह रहा हूं वह अलग अर्थों में खड़ा रहता है। उस पर सीधी बात होनी चाहिए, इस मामले को तय ही कर लेना चाहिए अगर, यह भी तय होता हो कि यह आदमी चरित्रहीन है, तो इसको एक बार तय कर लेना चाहिए कि यह आदमी चरित्रहीन है। अब रह गई बात सीधी कि वह जो मैं कर रहा हूं चरित्रहीन आदमी भी, कोई ठीक बात कह सकता है कि नहीं कह सकता कि चरित्रवान जो कहता है, वह सभी ठीक होता है, या कि चरित्रहीनता और चरित्रवान होने से जीवन के रूपांतरण की सारी प्रक्रिया के लिए कुछ भी नहीं, कहा जा सकता या कहा हो सकता है। वह अलग ही बात है, इसलिए उसमें बहुत जद्दोजहद करने की जरूरत नहीं है। उनका उसमें कोई बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है। और मैं तो ऐसे ही जिया चला जाऊंगा। ऐसे ही जिये चला जाऊंगा, क्योंकि मेरा मानना यह है कि जिंदगी सहज और साफ सुथरी होनी चाहिए। और सहज ही जिंदगी साफ-सुथरी होती है। मुझे भी मैंने मनु भाई को कहा भी, वहां मित्रों को भी कहा कि जो आपको दिखाई पड़ता है, वह मुझको भी दिखाई पड़ता है। इस बहन ने जिस दिन मुझे आकर कहा कि मैं आपके पास ही रूकूंगी, मैं जानता था कि आस-पास किस तरह के लोग हैं, अगर थोड़ी भी चालाकी मेरे मन में हो, तो इसको मैं कहूंगा कि रूक तो तू दूसरे कमरे में, फिर मिलने-जुलने का दूसरा उपाय कर लेंगे। इतनी अकल मुझमें भी हो सकती है। आखिर कोई भी समझदार आदमी ऐसे ही करता है। यह मेरा जैसा काम है, वह बिलकुल नासमझी का है। जैसे नासमझ आदमी दिक्कत में पड़ता है, और नासमझ आदमी दिक्कत में पड़ेगा, उसको दिक्कत के लिए तैयार होना चाहिए कि क्योंकि तुम नासमझी अपने हाथ से करोगे।
अब कोई स्त्री को अगर मुझे चूमना है तो उसको मुझे कहना चाहिए कि एकांत में, स्टेशन पर, भरे स्टेशन पर चूमना अच्छा मालूम पड़ता है? कि कैंप के बीच में आकर गले मिलना अच्छा मालूम पड़ता है। यह सब एकांत की बातें हैं, अच्छे लोग एकांत में, अकेले में, दरवाजा बंद करके करते हैं। यह खुलेआम करने की बातें नहीं, खुलेआम करोगे तो झंझट में पड़ोगे।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मैं आपको कहूं जिन मुल्कों में, जिन मुल्कों में काम की स्वतंत्रता है, उन मुल्कों में संतति-नियमन करना आसान है। जिन मुल्कों में काम की स्वतंत्रता नहीं है, उन मुल्कों में संतति नियमन करना आसान नहीं है। क्योंकि काम की स्वतंत्रता भी वैज्ञानिक बुद्धि से पैदा होती है, और संतति-नियमन भी वैज्ञानिक बुद्धि से पैदा होता है। वह दोनों एक ही बुद्धि के हिस्से हैं। हिंदुस्तान का, जितनी स्वतंत्रता होगी, सैक्सुअल फ्रीडम जितनी होगी, सैक्स उतना ही पवित्र होता चला जाता है। और जितनी फ्रीडम कम होगी, सैक्स उतना ही अपवित्र होता चला जाता है।
रूस में वेश्या समाप्त हो गई। अकेली जमीन पर एक मुल्क में वेश्या नहीं हैं। क्योंकि काम इतना उन्मुक्त हो गया कि अब वेश्या को बनाने की जरूरत नहीं है। जिन देशों में पतिव्रता स्त्रियां होंगी, उस मुल्कों में दूसरा हिस्सा वेश्या भी होगी। वो पतिव्रता हिस्सा का दूसरा हिस्सा है। वह जरूर रहेगी, क्योंकि इधर पतिव्रता स्त्री भी रखनी है, और दूसरी स्त्रियों से संबंध भी बनाना है। वह वेश्या मौजूद करनी पड़ेगी। जब तक पतिव्रता पर .जोर रहेगा, तब तक वेश्या पैदा होती रहेगी। वेश्या को जाने देना है तो पतिव्रता की मूढ़ता को भी जाने देना होगा, और स्वीकार करना होगा कि दो व्यक्तियों में प्रेम है, उसके अतिरिक्त और कोई पवित्र नहीं है। और जिस दिन प्रेम समाप्त हो गया, उसके बाद एक क्षण भी साथ होना अपराध है, और पाप है। लेकिन...और इतनी स्वतंत्रता देनी पड़ेगी, कि लोगों के शरीर संबंध भी सहजता को उपलब्ध हो जाएं। हिंदुस्तान में तो वो इतने असहज हो गए हैं, और उन असहज का परिणाम ये हुआ है कि आदमी को, एक स्त्री को प्रेम करना हो तो एसिड फेंकनी पड़ती है, एक लड़के वो किसी को प्रेम करना हो लड़की को तो पत्थर मारना पड़ता है। अजीब बात है कि प्रेम करने के लिए पत्थर मारना पड़े। प्रेम करने के लिए भीड़ में धक्का देना पड़े।

अस्पष्ट

वे तभी तक रखने होते हैं आपको, जब तक शादी बिना प्रेम के, किसी ज्योतिषी से मिलवाके कर ली गई हो। अगर शादी प्रेम से हुई हो, तो आपको दूसरे एक्स्ट्रा मैरिटल संबंध रखने की जरूरत नहीं के बराबर रह जाती है।

अस्पष्ट

मैं हूं, संभावना रह सकती है, इसलिए मैं कह रहा हूं संभावना कम रह जाती है। जिस स्त्री से आपका कोई प्रेम नहीं है, उस स्त्री से संबंधित होने के बाद संभावना आपकी ज्यादा रहती है कि दूसरी स्त्रियां आपको आकर्षित करें। और फिर मेरे कहना यह है कि जिस स्त्री के साथ प्रेम समाप्त हो जाने पर छोड़ देने की सुविधा है। उसमें आपको एक्ट्रा मेरिटल संबंध रखने की जरूरत नहीं है। आप एक स्त्री से मुक्त होकर दूसरी स्त्री से संबंधित हो सकते हैं। एक्स्ट्रा मेरिटल का उपाय हमें इसलिए खोजना दिखाई पड़ता है, कि जिससे बंध गए हैं, उसको तो छोड़ नहीं सकते, उससे तो बंधे ही रहना है, इसलिए एक्स्ट्रा मेरिटल की बात उठती है। जिस दिन दुनिया में, विवाह इतना सहज और सरल होगा, कि जिससे आपका प्रेम है, और जिसके पास आप रूकना आनंदपूर्ण समझते हैं, और तभी तक रूकना उचित है जब तक आनंदपूर्ण समझते हैं, उस दिन एक्स्ट्रा मेरिटल का क्या सवाल ? आप मैरिज बदल देते हैं, आप पार्टनर बदल देते हैं।

प्रश्नः

बिलकुल-बिल्कुल, वैस्ट में जो प्राॅब्लम है, वह क्रिएट होंगे, और जिंदा समाज प्राॅब्लम क्रियेट करता है। फिर उनको हल करने की कोशिश करता है। मुर्दा समाज प्राॅब्लम क्रियेट नहीं करता और मरा हुआ जिंदा रहता है। वैस्ट के पास प्राॅब्लम्स है। और मेरा मानना है कि सौ वर्षों में उन प्राॅब्लम्स से लड़के वे उनको हल भी करेंगे। हमारा दुर्भाग्य है, हमारे पास प्राॅब्लम्स भी नहीं हैं। हल क्या खाक करेंगे आप? आप तो मरे हुए लोग हैं, आपके पास तो प्राॅब्लम्स भी पैदा नहीं होते। वैस्ट के इन पचास वर्षों का अनुभव उनको सैक्स के संबंध में इतने गहरे विचारों पर ले गया है, जिसका कोई हिसाब नहीं है। आने वाले सौ वर्षाें में वो जिंदगी की फैमिली की, परिवार की पूरी नई व्यवस्था कर लेंगे। और उस नई अवस्था में वे हमसे श्रेष्ठतर समाज सिद्ध होंगे। तकलीफ से गुजरना पड़ेगा।
बच्चे जब तक पति-पत्नी के साथ बंधे हैं, तब तक शायद, परिवार बहुत सुंदर नहीं हो सकता। अभी वे इस्राइल में प्रयोग कर रहे हैं। बच्चों को पाल रहे हैं, इकठ्ठे सामूहिक रूप से। और अदभुत परिणाम शुरू हुए हैं। जैसे ही बच्चों से मुक्त हुए पति-पत्नी, वैसे ही वो जो सैक्स की जबरजस्ती है बांधने की एक दूसरे को, वह समाप्त हो जाती है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मैं समझा, मैं समझा, अमरीका में...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मैं समझा, यह वहां है, और रहेगा। उसका कारण है, उसका कारण है कि क्रिश्चयनिटी के, सैक्स का जितना सप्रेशन किया है, अमेरिका में और यूरोप में, उतना दुनिया के किसी धर्म ने सप्रेशन नहीं किया। क्रिश्चयनिटी सबसे ज्यादा सप्रेशिव रिली.जन है, सैक्स के मामले में। हिंदूधर्म उतना सप्रेशिव नहीं है। क्रिश्यचनिटी ने तो सैक्स को सिन ही मान लिया है। दो हजार वर्ष के सेक्स को सिन मानने का यह परिणाम हुआ है कि एकदम से सारी चीजें टूट गई हैं, एक्सप्लोजन हो गया। और दूसरी एक्सट्रीम पर चले गए हैं। अमरीका में या यूरोप में, जो वैविचार, वेश्या और अनैतिक संबंधों की बाढ़ आई है, उस बाढ़ के लिए जिम्मेदार क्रिश्चयनिटी है। उस बाढ़ के लिए और कोई जिम्मेवार नहीं है। अगर हम यहां पच्चीस लोग बैठे हैं, और हमको अभी खाने के लिए कहा जाए, तो हम चुपचाप शांति से उठके खाना खाने चलेंगे। लेकिन आठ दिन हमको बैठ कर यहां उपवास करवा दिया जाए और फिर एकदम से हम दरवाजा तोड़ कर किचन में पहुंच जाएं, तो हम जो खाना जाएंगे वह खाना और ही ढंग का खाना होगा। लेकिन उसका जिम्मा आठ दिन के उपवास पर होगा, वह जो फास्टिंग और स्टारवेशन चला पीछे।
क्रिश्चयनिटी ने पश्चिम के चित्त को, माइंड को इतना दमन किया है कि उस दमन का विस्फोट हुआ है। और वह विस्फोट स्वभावतः अमरीका में सर्वाधिक हुआ है, क्योंकि अमरीका में विस्फोट होने की संभावना और स्वतंत्रता सर्वाधिक मिली है। लेकिन वह विस्फोट खत्म हो जाएगा। वह विस्फोट धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। वो क्षीण हो रहा है। आज से दस साल पहले और दस साल की हालतों में फर्क पड़ने शुरू हुए हैं। आने वाले बीस सालों में इसकी आशा की जा सकती है, कि अमरीका में विस्फोट की जो धारा है, वो धीमी हो जाएगी। और अमरीका इस अनुभव से गुजर कर शायद परिवार की ज्यादा योग्य व्यवस्था खोज सकेगा। मेरा मानना यह है कि हमने परिवार की व्यवस्था पर तीन हजार सालों से चिंतन ही नहीं किया है। मनु महाराज जैसा परिवार छोड़ गए थे, वैसा ही परिवार हमारा आज भी है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

अनसक्सेसफुल हो सकती है कोई ची.जें, हमारी कठिनाई क्या है, अनसक्सेस होती है तो हमें समझना चाहिए कि क्यों अनसक्सेसफुल हुई। हम कोई सक्सेसफुल हो गए हैं तीन हजार वर्ष में, इसको पहले सोच लेना चाहिए। सारी दुनिया में सब अनसक्सेसफुल हो गए हैं। और इस बात को सोच कर हम सोचते हैं कि हम सक्सेसफुल हो गए हैं। आप क्या सक्सेसफुल हो गए हैं? आपने कौन सा परिवार पैदा कर लिया है ? कौन सा समाज पैदा कर लिया? आपने कौन सी प्रतिभा पैदा कर ली देश में? आपने कौन सी संस्कृति पैदा कर ली? लेकिन हम एक मजा लेते रहते हैं कि कहां कौन-कौन असफल हो रहा है। उससे हम सोचते हैं कि बस सब ठीक है, कुछ प्रयोग करने की जरूरत नहीं। हम ही ठीक हैं। कम से कम हम असफल तो नहीं होते। क्योंकि जो चलेगा, वह गिर सकता है, हम बैठे रहते हैं, हम चलते ही नहीं।
लेकिन मेरा कहना यह है कि दुनिया की असफलता को समझिये और ये भी समझिये, कि वह क्यों असफल हुआ है। और अपनी असफलता भी समझिए कि जमीन पर आप किस बुरी तरह असफल हो रहे हैं। और उस असफलता के कारण समझिए। और हिम्मत जुटाइए कि हम कुछ प्रयोग करें, प्रयोग में खतरा है। लेकिन खतरा उठाने की जिम्मेवारी होनी चाहिए।

प्रश्नः आपके विचार से भारत की वर्तमान लोकतंत्र प्रणाली का परिवर्तन लाना चाहिए? और विश्व में ऐसा कौन सा सबसे अच्छा देश है कि जहां अच्छी तरह से लोग...?

नहीं इस भांति नहीं पूछा जा सकता, जिंदगी बहुत जटिल है, जिंदगी बहुत जटिल है।

प्रश्नः कौन सा परिवर्तन आप चाहते हैं प्रणाली में?

प्रश्नः आपका जो ज्ञान है वह है कि नहीं?

समझा, यह ही मजा है, यह ही मजा है। इनफाॅरमेशन हमेशा बाॅरोड होगी। इंफाॅरमेशन हमेशा बाॅरोड होगी, इनफाॅरमेशन ज्ञान नहीं है। आप समझ रहे हैं मेरा मतलब। इनफाॅरमेशन और नाॅलिज में कुछ फर्क मानते हैं? इनफाॅरमेशन ज्ञान नहीं है। इंफाॅरमेशन हमेशा बाॅरोड होगी। और इनफाॅरमेशन बाॅरोड लेनी पड़ेगी। ताकि आप उस इनफाॅरमेशन पर सोच सकें। और उस सोचने से जो पैदा होगा वह ज्ञान होगा। इनफाॅरमेशन हमेशा बाॅरोड होगी। मेरा मतलब समझ रहे हैं न आप। अगर मैंने आपको कह दिया कि रूस में ऐसा हो रहा है, तो वह इनफाॅरमेशन है। हम उसपे सोच सकें, विचार कर सकें, चिंतन कर सकें तो जो पैदा होगा, वह ज्ञान होगा। वह कभी बाॅरोड नहीं होगा। लेनिन से ज्ञान मत लेना, लेलिन से इनफाॅरमेशन बराबर ले लो। मेरा आप मतलब समझे ?

प्रश्नः बजट के बारे में कुछ कहिए ?

नहीं, वह मोरार जी से पूछिए।

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