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बुधवार, 29 अगस्त 2018

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(सुख की कामना दुख लाती है)

खोज, क्या जीवन में आप पाना चाहते हैं? खयाल आया उसी संबंध में थोड़ी आपसे बातें करूंगा तो उपयोगी होगा।
मेरे देखे, जो हम पाना चाहते हैं उसे छोड़ कर और हम सब पाने के उपाय करते हैं। इसलिए जीवन में दुख और पीड़ा फलित होते हैं। जो वस्तुतः हमारी आकांक्षा है, जो हमारे बहुत गहरे प्राणों की प्यास है, उसको ही भूल कर और हम सारी चीजें खोजते हैं। और इसलिए जीवन एक वंचना सिद्ध हो जाता है। श्रम तो बहुत करते हैं और परिणाम कुछ भी उपलब्ध नहीं होता; दौड़ते बहुत हैं लेकिन कहीं पहुंचते नहीं हैं। खोदते तो बहुत हैं; पहाड़ तोड़ डालते हैं, लेकिन पानी के कोई झरने उपलब्ध नहीं होते। जीवन का कोई स्रोत नहीं मिलता है। ऐसा निष्फल श्रम से भरा हुआ हमारा जीवन है। इस पर ही थोड़ा विचार करें। इस पर ही थोड़ा विचार आपसे मैं करना चाहता हूं।

क्या है हमारी खोज?

यदि हम अपने पर विचार करेंगे, देखेंगे, आंखें खोलेंगे तो क्या दिखाई पड़ेगा? क्या हम खोज रहे हैं! शायद साफ ही हमें अनुभव हो कि हम सारे लोग सुख को खोज रहे हैं, और लगेगा कि मनुष्य का प्राण तो सुख चाहता है।
मनुष्य का ही क्यों, और सारे पशुओं की भी आकांक्षाएं सुख को पाने के लिए हैं, ऐसा हम विचार करेंगे। हर कोई सुख चाहता है, लेकिन मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूं--प्रथम ही। और फिर उस पर विस्तार से आपको समझाने के प्रयास करूंगा।
सुख की खोज झूठी खोज है। वस्तुतः हम सुख नहीं चाहते हैं। हम कुछ और चाहते हैं। हम क्या चाहते हैं, वह मैं आपसे कहूंगा। और सुख हम क्यों नहीं चाहते हैं, वह भी मैं आपसे कहूंगा। लेकिन आमतौर से ऐसा प्रतीत होता है कि हम सभी लोग सुख खोज रहे हैं। यह सुख की खोज चाहे किसी रूप में प्रकट हो रही हो--धन के रूप में, यश के रूप में, पद के रूप में। और चाहे ये सुख की खोज जमीन पर चल रही हो और चाहे स्वर्ग की कल्पनाओं में, लेकिन हमारा मन जाने-अनजाने सुख के लिए पागल है।
क्या कभी यह विचार किया कि आज तक जमीन पर बहुत लोगों ने सुख खोजा है लेकिन किसी ने सुख पाया है? क्या कभी ये विचार किया कि करोड़-करोड़ अरब-अरब लोग जिस बात को खोज चुके हैं और असफल हो गए, क्या मैं उसमें अपवाद सिद्ध हो जाऊंगा? और क्या कारण है कि सुख इतने लोग खोजते हैं लेकिन सुख उपलब्ध नहीं होता है? जैसे ही किसी सुख को हम पा लेते हैं वैसे ही वह व्यर्थ हो जाता है और हमारी आकांक्षा आगे बढ़ जाती है। ऐसा क्यों होता है? किस कारण से यह होता है? क्या सुख का स्वभाव ऐसा है कि हम उसे पाएं तो वह व्यर्थ हो जाए या कि असलियत यह है कि सुख की खोज में हम किसी और खोज को छिपाए रहते हैं अपनी आंखों से। सुख की दौड़ में हम किसी और बात को अपनी आंखों से ओझल किए रहते हैं। कोई और है हमारी खोज और हम सुख की दौड़ में उस खोज को भुलाए रखने का उपाय करते हैं। जैसे ही सुख मिल जाता है, सुख की दौड़ बंद हो जाती है। वैसे ही भीतर का दुख फिर दिखाई पड़ने लगता है। फिर हमें किसी नये सुख की खोज शुरू करनी पड़ती है, ताकि दुख को फिर भुलाया जा सके। जब तक सुख मिलेगा नहीं, दौड़ रहेगी, मन उलझा रहेगा तो लगेगा कि सुख मिलने वाला है। जैसे ही सुख मिलेगा--दौड़ बंद होगी, मन खाली होगा। भीतर के दुख के दर्शन फिर शुरू हो जाएंगे। सुख जब तक पाने की चेष्टा चलती है, आकांक्षा चलती है, इच्छा चलती है तब तक तो दुख भुला रहता है। और जैसे ही सुख मिला, दौड़ बंद हुई, मन खाली हुआ, मन थोड़ा काम से विश्राम में गया और भीतर का दुख फिर दिखाई पड़ने लगता है। फिर हमें नये सुख की खोज फिर शुरू कर देनी पड़ती है। सुख की खोज ज्यादा से ज्यादा दुख को भुलाने का काम करती है। सुख की खोज ज्यादा से ज्यादा एक नशे का काम करती है; लेकिन कहीं पहुंचाती नहीं और न कहीं पहुंचा सकती। सुख की कितनी ही बड़ी खोज हो भीतर का दुख नष्ट नहीं हो सकता है। यह असंभव है। यह इतना असंगत है इन दोनों का कोई मेल नहीं है।
मैंने सुना है, एक मुसलमान बादशाह था। एक रात अपने महल में सोया हुआ था। अंधेरी रात है, आधी रात है, ठंड के दिन हैं, सर्दी जोर से है। उसने देखा, उसकी छप्पर पर कोई ऊपर चल रहा है। पुराने जमाने के मकान थे।... वह दुख में पड़ता जाता है।
और जो दुख के मिटाने को खोजता है, वह सुख को उपलब्ध होता चला जाता है।
क्या कारण है? क्यों हम इस तथ्य को नहीं देखते कि हमारे भीतर दुख है। आप क्यों सुख को खोज रहे हैं? निश्चित ही जब आप सुख को खोज रहे हैं यह इस बात का प्रमाण है और सुबूत है कि आप दुखी हैं। अगर कोई आदमी दुखी नहीं है तो सुख को क्यों खोजेगा? अगर कोई आदमी निर्धन नहीं है तो धन को क्यों खोजेगा? इसलिए जो आदमी जितना ज्यादा धन खोजता हो--जानना चाहिए उतना ही गहरा वह निर्धन होगा, नहीं तो क्यों खोजेगा? जो आदमी बीमार नहीं है वह स्वास्थ्य को क्यों खोजेगा? और जो ज्यादा से ज्यादा स्वास्थ्य को खोजता हो--जानना चाहिए वह उतना ही गहरा बीमार है।
एक फकीर था। एक बहुत बड़े बादशाह से उसका बड़ा प्रेम था। उस फकीर के गांव के लोगों ने कहा कि बादशाह तुम्हें इतना आदर देते हैं, इतना सम्मान देते हैं, उनसे कहो कि गांव में एक छोटा सा स्कूल खोल दें।
उसने कहा: मैं जाऊं , मैं जाऊंगा। मैंने आज तक कभी किसी से कुछ मांगा नहीं। लेकिन तुम कहते हो तो तुम्हारे लिए मांगूंगा।
वह फकीर गया। वह राजा के भवन में पहुंचा। सुबह का वक्त था और राजा अपनी सुबह की नमाज पढ़ रहा है, फकीर पीछे खड़ा हो गया। नमाज पूरी की, प्रार्थना पूरी की। बादशाह उठा, उसने हाथ ऊपर फैलाया और कहा--हे परमात्मा! मेरे राज्य की सीमाओं को और बड़ा कर, मेरे धन को और बढ़ा, मेरे यश को और दूर तक, आकाश तक पहुंचा। जगत की कोई सीमा न रह जाए--जो मेरे कब्जे में न हो, जिसका मैं मालिक न हो जाऊं। हे परमात्मा! ऐसी कृपा कर। उसने प्रार्थना पूरी की। वह लौटा, उसने देखा कि फकीर सीढ़ियां नीचे उतर रहा है। उसने चिल्ला कर आवाज दी कि क्यों वापस लौट चले?
फकीर ने कहाः मैं सोच कर आया था किसी बादशाह से मिलने जाता हूं। यहां देखा कि यहां भी एक भिखारी मौजूद है। और मैं तो दंग रह गया। इतनी बड़ी जिसकी मांग हो, उतना ही बड़ा वह भिखारी होगा। तो आज मैंने जाना कि जिसके पास बहुत कुछ है। बहुत कुछ होने से कोई मालिक नहीं होता, मालिक की पहचान तो इससे होती है--कितनी उसकी मांग है। अगर कोई मांग नहीं तो वह आदमी मालिक है, बादशाह है। और अगर उसकी बहुत बड़ी मांग है तो उतना ही बड़ा भिखारी है।
इसलिए दुनिया बहुत अजीब है। यहां जो बहुत मांग रहे हैं, बहुत धन है, और बहुत खोज रहे हैं, बहुत पद हैं--जानना कि भीतर बहुत निर्धन और दरिद्र होंगे। उसी को भुलाने के लिए सब उपाय कर रहे हैं, अन्यथा और कोई कारण नहीं है। इसलिए दुनिया में बड़े से बड़ा धन है, आदमी अपने भीतर बहुत गहरा निर्धन होता है। और बड़े से बड़े पदों पर बैठा हुआ व्यक्ति अपने भीतर बहुत दयनीय और दरिद्र होता है। और बहुत बड़ी महत्वाकांक्षा के लोग जो दुनिया को जीत लेने की आकांक्षा रखते हैं, भीतर बहुत कमजोर होते हैं और अपने को जीतने में बिलकुल असफल और असमर्थ होते हैं।
यह जो मैंने कहा: यह हमारी जो खोज है--चाहे धन की, चाहे यश की, चाहे सुख की--मूलतः तो सुख की खोज है। यह हम सुख इसलिए खोजते हैं कि वह जो हमें दुख प्रतीत होता है वह मिट जाए, लेकिन क्या यह उचित होगा? क्या यह उचित होगा कि दुख भीतर है उसे मिटाने के लिए हम सुख खोजें, या यह उचित होगा कि दुख अगर भीतर है तो उसके कारण को खोजें, पहचानें कि कौन सा कारण है मेरे भीतर जिसके कारण मैं दुखी और पीड़ित हूं। और उस कारण को मिटाएं और उस कारण से मुक्त हो जाएं।
क्या यह वैज्ञानिक होगा या पहली बात वैज्ञानिक होगी? क्या कोई बीमारी हो तो उसके कारण को खोज कर उस बीमारी को नष्ट करना होगा, या कि किसी काल्पनिक स्वास्थ्य को खोजने के लिए हिमालय और पहाड़ों पर जाना होगा। लेकिन, लेकिन हमें ऐसा दिखाई पड़ता है और यह मनुष्य की बुद्धि के सबसे बड़े भ्रमों में से, सबसे बड़े झूठे तर्कों में से एक तर्क है कि जब उसे दुख अनुभव होता है तो वह सुख को खोजने लगता है। यह खोज वास्तविक न होकर दुख को मिटाने वाली न होकर दुख को भुलाने वाली हो जाती है।
 और स्मरण रखें, दुख से भी खतरनाक बात दुख को भुला देना है। क्योंकि जो चीज भूल जाती है ऊपर से, वह भीतर तड़पती रहती है और फैलती चली जाती है। इसलिए ऊपर हम सुख को खोजते जाते हैं और भीतर दुख घना होता जाता है। और भीतर चित्त की परत पर और गहरे अचेतन और गहरे मन के कोनों में, भवन के, मन के भवन के बहुत दूर के कमरों में प्रकोष्ठों में तलघरों में हमारा दुख फैलता चला जाता है। ऊपर हम सुखों को खोजते रहते हैं भीतर दुख घना होता जाता है। जितना ज्यादा बाहर सुख की खोज होगी, उतने ज्यादा दुख के कारण मजबूत हो जाएंगे; और भीतर दुख घना हो जाएगा और व्यापक हो जाएगा। सुख के खोजी अंत में पाते हैं कि दुख में गिर गए हैं। इसलिए मैं प्रारंभ में ही यह बात आपको कहना चाहा। इस संबंध में ही थोड़ी आपसे बात करूं।
 यह, यह सुख की खोज एकमात्र भ्रांति है, एकमात्र अज्ञान है। सुख की खोज से दुख नहीं मिटेगा। दुख के निदान, दुख के कारण को जानने-पहचानने और मिटाने से दुख मिटेगा। तो पहली तो बात यह कि यह सुख की खोज भ्रांत है, और दुख को स्पर्श भी नहीं करती। दुख के ऊपर-ऊपर फैल जाती है और भीतर दुख मजबूत बना रहता है, उसे कहीं भी नहीं छूती। यह वैसे ही है जैसे कोई एक वृक्ष हो और हम उसकी जड़ों को तो काटें नहीं, और उसके पत्तों को काटते रहें! क्या आप जानते हैं कि पत्तों के काटने से और ज्यादा पत्ते वृक्ष में आ जायेंगे? क्या कोई वृक्ष पत्तों के काटने से नष्ट होता है? नहीं, और भी सघन हो जाता है और भी घना हो जाता है और भी उसके विकास के मार्ग खुल जाते हैं।
वृक्ष नष्ट होता है जड़ों को नष्ट करने से। सुख की खोज दुख के पत्तों को छांटने जैसी है, दुख की जड़ को नष्ट करने जैसी नहीं है। जो व्यक्ति सुख की खोज कर रहा है उसे मैं अधार्मिक कहता हूं। और जो व्यक्ति दुख के कारणों को नष्ट करने की खोज कर रहा है उसे मैं धार्मिक कहता हूं। उनको धार्मिक नहीं कहता--जो मन्दिर जा रहे हों, प्रार्थनाएं कर रहे हों। क्योंकि हो सकता है उनका मंदिर जाना और प्रार्थना करना भी सुख की खोज हो, दुख को मिटाने का वैज्ञानिक उपाय नहीं।
इस बात को ठीक से समझ लेना। यह हो सकता है कि मंदिर में उनकी प्रार्थना सुख को पाने की ही खोज का हिस्सा हो। और वह भगवान को भी सुख की खोज में माध्यम बनाना चाहते हों, और वहां भी जाकर प्रार्थना कर रहे हों--सुख को पाने की। और अगर भगवान उन्हें सुख देता हुआ मालूम पड़े तो वे मानेंगे कि भगवान हैं, और कुछ नारियल चढ़ाएंगे, फूल चढ़ाएंगे। और अगर सुख देता हुआ न मालूम पड़े तो वे इंकार करेंगे कि भगवान का कोई प्रमाण नहीं मिलता, क्योंकि हम तो दुखी। उनके सुख की खोज ही उन्हें दुकान से हटा कर मंदिर तक ले जा सकती हैं।
 लेकिन सुख के खोजी को मैं धार्मिक नहीं कहता हूं।
एक दुनिया है जहां हम धना कमा रहे हैं, भवन बना रहे हैं, यश-प्रतिष्ठा को इकट्ठा कर रहे हैं, संग्रह कर रहे हैं, परिग्रह कर रहे हैं। एक सीमा आती है कि मनुष्य को दिखाई पड़ता है इससे तो दुख मिटता नहीं और मुझे चाहिए सुख। तो यह भी हो सकता है कि इसकी प्रतिक्रिया में, इसके रिएक्शन में वह सारा घर-द्वार छोड़ दे, संपत्ति छोड़ दे, साधु हो जाए। कष्ट झेलने लगे, शरीर को पीड़ा देने लगे, भूखा रहने लगे, शरीर को कोड़े मारने लगे, कांटों पर सोने लगे, धूप में पड़ा रहने लगे, नंगा रहने लगे, जितने कष्ट शरीर को दे सकता है--देने लगे।
लेकिन स्मरण रहे, यह हो सकता है कि यह सारा कष्ट और पीड़ा भी स्वर्ग में, इस लोक में, परलोक में, इस जन्म में, अगले जन्म में--कहीं सुख को पाने की आकांक्षा से किया जा रहा हो। तो ये सारे कृत्य अधार्मिक हो जाते हैं। और ये तो आपको ज्ञात ही होगा। सारे धर्मों ने स्वर्ग की कल्पना की है और स्वर्ग में उन सभी सुखों की व्यवस्था की है जो यहां हमें उपलब्ध नहीं हैं। या जिनके यहां वर्जना हैं और निषेध। ये किस बात का सुबूत है? ये इस बात का सुबूत है कि जो लोग इस लोक में सुख पाने में असमर्थ हो जाते हैं, उनकी आकांक्षाओं की हद नहीं है। वह परलोक में उन्हीं सुखों को पाने की कामना से फिर पीड़ित हो जाते हैं।
ऐसा मुल्क है, ऐसे लोग हैं जिन्होंने स्वर्ग में कल्पना की है कि वहां शराब के झरने बहते हैं। यहां शराब निषिद्ध है। धर्म कहते हैं: यहां शराब पीना बुरा है। लेकिन बड़े आश्चर्य की बात है वे धर्म जो कहते हैं शराब पीना बुरा है, वे ही कहते हैं कि--जो शराब नहीं पीएंगे, वे ऐसे स्वर्ग में जाएंगे जहां शराब की नदियां बहती हैं! यह विरोध दिखाई पड़ता है। यह समझ में आता है कि जिन्होंने यहां शराब छोड़ी है उन्होंने इस वजह से भी छोड़ी हो सकती है कि ऐसे स्वर्ग में प्रवेश पाना चाहते हैं जहां शराब के झरने बहते हों, नदियां बहती हों! यहां जिन-जिन कामनाओं को निषेध किया गया है, उन्हीं-उन्हीं कामनाओं की परिपूर्ण तृप्ति की व्यवस्था स्वर्ग में कर दी गयी है। ये सब बुभुक्षित, प्यासे और भूखे और सुख लोभी लोगों की कल्पनाओं से ज्यादा नहीं हो सकते।
और इसलिए दुनिया के जिस मुल्क में जिस तरह की बात सुख मानी जाती है उस मुल्क के लोगों ने अपने स्वर्ग में उसकी व्यवस्था कर ली है। सभी मुल्कों के स्वर्ग एक जैसे नहीं हैं। क्योंकि सभी मुल्कों की सुख की कामनाएं भिन्न-भिन्न हैं। अगर आप तिब्बत में पैदा हों, तो वहां सर्दी बहुत दुखद है। वहां ठंड बहुत पीड़ा देती है। इसलिए उन्होंने अपने स्वर्ग में--ऊष्ण। वहां सर्दी बिलकुल नहीं है, बर्फ बिलकुल नहीं है, पहाड़ बिलकुल नहीं हैं--मैदान हैं। तिब्बती का जो स्वर्ग है, वहां सर्दी बिलकुल नहीं है। बड़ा उत्तप्त वातावरण है। लेकिन हमारा जो स्वर्ग है, वहां शीतल हवाएं बहती हैं। यह गर्म मुल्क का स्वर्ग अलग होगा।
तिब्बतियों का जो नरक है, वहां बर्फ ही बर्फ हैं। वहां जो पड़ेगा, गल जाएगा। हमारा जो नरक है, वहां आग की लपटें जलती हैं, उसमें जलाया जाएगा। हम गर्म मुल्क के लोग हैं, गर्मी कष्ट देती है। हमने नरक में कष्ट की व्यवस्था कर रखी है। और शीतलता सुख देती है तो स्वर्ग को एयरकंडीशन कर रखा है। ठंडे मुल्क के लोग हैं, उनकी कल्पना में ठंड बहुत पीड़ा दे रही है। उन्होंने अपने स्वर्ग में गर्मी की व्यवस्था कर ली है और नरक में सर्दी की व्यवस्था कर दी। ये हमारी सुख-दुख की कामनाओं के प्रक्षेपण हैं, उसके ही प्रदक्षण हैं, उसका ही विस्तार है। हम जिन सुखों को यहां नहीं पा पाते, बहुत से लोग जो यहां पीड़ित रह जाते हैं, यहां अनुभव करते हैं कि नहीं मिलता--उससे भी वे जागते नहीं। उससे भी उन्हें यह खयाल नहीं आता कि मेरी सुख की खोज गलत है! बल्कि यह खयाल आता है: इस संसार में सुख की खोज गलत है, उस संसार में सुख खोजना चाहिए! सुख की खोज मौजूद रह जाती है।
अगर सुख की खोज के पीछे कोई संन्यास में गया हो तो वह संन्यासी भी, वह साधु भी संसारी का हिस्सा है, वह संसार के बाहर नहीं है। क्योंकि उसकी खोज अभी टूटी नहीं। अभी उसे ये स्मरण नहीं आया कि सुख की खोज ही भ्रांत है--चाहे इस लोक में, चाहे उस लोक में। उस लोक में तो और भी ज्यादा भ्रांत है, और भी ज्यादा। क्योंकि और भी ज्यादा कल्पना की बात हो गई। हम कल्पना में उन्हीं बातों की व्यवस्था कर लेते हैं जो हमारे भीतर कहीं हमारे चित्त को पकड़े रहती हैं।
मैंने सुना है, एक घर में एक कुत्ते और बिल्ली दोनों का आवास था। दोनों साथ-साथ रहते थे तो मैत्री हो गई थी। एक रात दोनों सोए। सुबह उठे तो बिल्ली बहुत प्रसन्न थी। उसकी आंखों में बड़ा रोष था। बड़ी अकड़ कर चल रही थी तो कुत्ते ने पूछा, बात क्या हो गई?
उस बिल्ली ने कहा: रात तो गजब हो गया! वर्षा आने को है, बादल घिर गए हैं, रात मैंने क्या देखा! रात मैंने देखा कि इस वर्ष वर्षा में पानी की वर्षा नहीं हो रही, बल्कि चूहे बरस रहे हैं।
उस कुत्ते ने कहा: नासमझ, मूर्ख बिल्ली, जब देखती है गलत बात देखती है। कभी ऐसा हुआ है? जब भी वर्षा होती है तो साथ में हड्डियां बरसती हैं। चूहे आज तक न कभी बरसे हैं और न कभी बरस सकते हैं। कुत्ते के स्वर्ग में हड्डियां होंगी। बिल्ली के स्वर्ग में चूहे होंगे। बिल्ली के सपने में वही होगा जो उसका सुख है, कुत्ते के सपने में वही होगा जो उसका सुख है।
क्या आपको पता है स्वर्ग में जिन लोगों ने अप्सराओं की व्यवस्था कर रखी है और उनके अंग-अंग का वर्णन किया है--क्या ये वे ही लोग नहीं होंगे जो स्त्रियों से यहां अतृप्त रह गए? क्या यह सच्चाई नहीं है भीतर? क्या ये मनःशास्त्र इतना भी नहीं समझ सकता? क्या हम इतने अंधे हैं कि ये भी नहीं जान सकते कि जिन्होंने स्वर्ग में अप्सराओं के अंग-प्रत्यंग की बड़ी-बड़ी सुंदर-सुंदर कल्पनाएं की हैं, और एक-एक अंग का वर्णन किया है--ये लोग वे ही होंगे जो स्त्री से यहां अतृप्त रह गए हैं और स्त्री की कल्पना वहां तक चली गई। क्या आपको ये पता है--स्वर्ग में अप्सराएं कभी वृद्ध नहीं होतीं; सदा युवा रहती हैं, चिर युवा रहती हैं। क्या आपको पता है कि स्वर्ग में कल्पवृक्ष होते हैं जिनके नीचे बैठते ही सब कामनाएं पूरी हो जाती हैं। जो धर्म कहते हैं: सब कामनाएं छोड़ दो। वे ही धर्म कहते हैं: कामना छोड़ने वाले लोगों को स्वर्ग मिल जाएगा। जहां कल्पवृक्षों के नीचे बैठ कर सारी कामनाएं तृप्त हो जाती हैं।
यह सब सुख का ही विस्तार है, यह कोई धर्म की खोज नहीं है। यह कोई वास्तविक जीवन की दिशा नहीं है और इस अर्थ में सारी दुनिया के धर्मों ने उन लोगों को, जो उनकी बातों को मानेंगे--स्वर्ग की व्यवस्था दे दी है। और उन लोगों को जो उनकी बातें नहीं मानेंगे--नर्क की व्यवस्था दे दी। जो उनकी बातों को मानेंगे, उनको सुख का आयोजन है। और जो नहीं मानेंगे, उनके लिए दुख की बड़ी व्यवस्थाएं हैं।
और कितना आश्चर्यजनक है--स्टैलिन को, हिटलर को या मुसोलनी को भी जिन बातों का पता नहीं होगा कि आदमियों को किस-किस भांति कष्ट दिए जाएं, उनके बहुत पुराने गुरुओं ने सब ग्रंथों में लिख दिया है। नर्क में कौन-कौन से कष्ट दिए जा सकते हैं, कौन-कौन सी कल्पनाएं की जा सकती हैं, वह बहुत पहले कर ली गई है।
अभी बाद में, फेसिस्ट मुल्कों में आदमियों को परेशान करने की बहुत ईजादें निकालीं। अगर उनको समझ होती और वह सारे पुराने ग्रंथ पढ़ लेते, और नरक में क्या-क्या योजनाएं की गई हैं अगर उसको जान लेते, तो उनके कारागृह और भी समृद्ध हो जाते। वहां वह और परेशान करने के, टॉर्चर करने के, लोगों को पीड़ा देने की नई-नई ईजादें जान सकते थे। लेकिन जिन लोगों ने ये कल्पनाएं की हैं कि जो हमारी बातें नहीं मानेंगे, उनको इस-इस तरह के दंड दिए जाएंगे--ये लोग कोई अच्छे लोग नहीं रहे होंगे।
असल में जो अपने लिए सुख खोजता है, वह सदा दूसरे के लिए दुख खोजने का आकांक्षी होता है। यह तो नियम की बात है: जो अपने लिए सुख खोजता है, वह अनिवार्यतया दूसरे के लिए दुख खोजने की व्यवस्था रखता है। इसलिए तो मैंने कहाः सुख का खोजी अधार्मिक होता है। अगर आप सारा सुख छीन लेना चाहते हैं--तो कैसे छीनेंगे, जब तक कि दूसरे लोगों का सारा सुख आपके पास न आ जाए--आप कैसे सुखी हो जाएंगे? सबका सुख छीन लो!
ये सुख के कामियों ने नरक की भी कल्पना की है जहां कि जो उनके विरोध में हों, उन्हें डाल दिया जाएगा। और आप हैरान हो जाएंगे! छोटे-छोटे निर्दोष पापों के लिए, जिनको कि पाप भी कहना कठिन है, उनके लिए भी इटरनल कंडेमनेशन की व्यवस्था है--अनन्त काल के लिए भी!
एक आदमी जिन्दगी में कितने पाप कर सकता है? अगर मैं हिसाब लगाऊं तो जितने पाप किए होंगे, कल्पना में सोचे होंगे, अगर सबका भी...कोई सख्त से सख्त मजिस्ट्रेट से फैसला करवाऊं, तो भी पांच-सात साल से ज्यादा सजा मिलनी मुश्किल है। दस-पांच साल की सजा होगी, सौ साल की सजा होगी, लेकिन इटरनल कंडेमनेशन! अनन्त काल तक नर्क में पड़े रहना! जरूर किन्हीं दुष्ट मनों की, किन्हीं बहुत वाइलेंट, किन्हीं हिंसक मनों की ये कल्पना है।
लेकिन जो आदमी भी सुख की खोज करता है, वह आदमी हिंसक होता ही है। क्योंकि उसके भीतर होता है दुख, उसके भीतर होती है परेशानी, उसके भीतर होती है अशांति--और सुख की वह खोज करता है। लेकिन भीतर इतना बेचैन, अशांत, परेशान और दुखी होता है कि वह कभी किसी दूसरे को सुख में नहीं देख सकता। दूसरे को सुख में देखना उसे कठिन हो जाएगा। वह तत्क्षण दूसरे के सुख को मिटा देना चाहेेगा। चाहेगा कि मुझे सब मिल जाए, और से सबका सब छीन जाए।
ये जो दोष क्राइस्ट को जिस दिन सूली दी गई, उस दिन उनके सारे शिष्य उनके पास इकट्ठे थे। और उन शिष्यों ने क्राइस्ट से पूछा कि यह खतरा मालूम होता है कि शायद आप पकड़ लिए जाएं और आपको सूली दे दी जाए, तो कृपा करके ये तो बता दें कि हमने जो आपके साथ इतनी तकलीफें सहीं, मरने के बाद स्वर्ग में हमारी पद-प्रतिष्ठाएं क्या होंगी? आपको पता है ये क्राइस्ट से उनके शिष्यों ने पूछा कि अब आप कल अगर मर गए, तो कम से कम इतना तो आश्वासन दे दें कि जब आप मर जाएंगे और जब हम भी मर कर स्वर्ग में आएंगे, तो कौन कहां बैठेगा? परमात्मा के आस-पास किसकी क्या व्यवस्था होगी? किसका क्या पद होगा?
ये कैसे लोग रहे होंगे! और क्राइस्ट के मन को कैसा नहीं लगा होगा, कैसी दया नहीं आई होगी, कैसे पागल लोग! जो कहते हैं हमने इतना छोड़ा, हमने इतना खोया, आपके पीछे इतनी तकलीफें उठाईं।
वह जो आदमी गहरी भूख से मर रहा है, उपवास कर रहा है, शरीर को कष्ट दे रहा है, ऐसे फकीर हुए हैं शरीर को कोड़े मार रहे हैं जिंदगी भर--क्योंकि ये खयाल है कि शरीर को जितना सताओगे, परमात्मा उसके प्रतिफल में उतना ही परलोक में सुख देगा--ये सब सुखवादी हैं, ये सब मैटीरियलिस्ट हैं, ये सब हैडोनिस्ट हैं, ये सब के सब सुख की खोज कर रहे हैं। ये उस जगत में सुख की व्यवस्था करने के लिए तकलीफें झेल रहे हैं। यह तकलीफ वास्तविक नहीं है। यह तपश्चर्या झूठी है।
तपश्चर्या तभी वास्तविक है जब वह सुख की खोज के लिए न हो, बल्कि दुख के मूल कारण मिटाने के लिए हो। जब वह दुख के भीतर से मूल कारण नष्ट करने के लिए हो तो सबसे पहली जरूरत तो यह है कि हम यह जान लें और यह पहचान लें कि चाहे इस लोक में, चाहे परलोक में सुख की जो आकांक्षा है--वही भटकाने वाला तत्व है, वही भ्रांत दिशा में ले जाने वाला खयाल है। और क्यों है भ्रांत दिशा में ले जाने वाला! भ्रांत दिशा में ले जाने वाला इसलिए नहीं है कि दूसरों ने कहा है, शास्त्रों ने कहा है, आदमियों ने कहा है, गुरुओं ने कहा है--इसलिए नहीं।
अगर आप खुद ही अनुभव करें, विचार करें तो आपको दिखाई पड़ेगा--सुख कहीं भी ले जाने में समर्थ नहीं है। कभी आप कल्पना में भी विचार करें, जो भी सुख आपने पाना चाहा है, अगर उसे पा लें तो फिर क्या करेंगे? फिर क्या होगा? फिर उसके बाद बात खत्म हो जाएगी।
ययाति का उल्लेख है। पुरानी कहानी है। ययाति सौ वर्ष का हो गया था। मरने को हुआ। एक पुराना राजा था। अब काल्पनिक कथा होगी। मरने को हो गया, मौत करीब आ गयी। ययाति ने कहा: ये क्या! जिसे हम सुख की खोज मान कर चलते हैं कभी कोई उपलब्धि नहीं हुई है; न हो सकती है, न हो सकने का कारण है।
पहली बात, जो आदमी सुख को खोजता है--जैसा मैंने कहा: उसके भीतर दुख तो बना ही रहता है; वह तो कहीं जाता नहीं, सुख उसे छूता भी नहीं। सुख की नई-नई झलक विलीन हो जाती है, दुख फिर खड़ा हो जाता है।
इसलिए सारी दुनिया में सुख के जो पागल हैं वह नये से नये सेंसेशंस की, नई से नई संवेदनाओं की खोज करते हैं, नई से नई संवेदनाओं की खोज करते हैं। और यही कारण है कि विज्ञान ने बहुत सी नई संवेदनाएं खोज दी हैं जिसको हम सुख की संवेदनाएं कहें।
और यही कारण है कि विज्ञान और ये स्वर्गवादी धार्मिक जो हैं, विरोध में पड़ गए। दो तरह के सुखवाद हो गए दुनिया में। दोनों में झगड़ा शुरू हो गया। और लोग विज्ञान के सुखवाद की ओर जल्दी झुक गए क्योंकि परलोक की रोटी का क्या विश्वास? इस लोक में जो रोटी मिलती है, वह ज्यादा विश्वस्त है, असंदिग्ध है। उस पर शक नहीं किया जा सकता।
जब तक दुनिया में विज्ञान नहीं था--धर्म का, यह तथाकथित धर्म का, यह जो स्वर्ग और नरकवादी धर्म है, यह जो सुख का विश्वास दिलाने वाला धर्म है कि जो ऐसा करेगा उसे सुख मिलेगा, और जो ऐसा नहीं करेगा उसे दुख मिलेगा। ऐसा जो धर्म है जिसका प्रलोभन और भय से नाता है, जो प्रलोभन देता है कि ये-ये सुख देंगे तुमको, इस तरह का जीवन जीओ--तो जो सुख पाने के आकांक्षी हैं, उस तरह का जीवन जीने को राजी हो जाते हैं। इस तरह का जो धर्म है, विज्ञान का जब तक जन्म नहीं हुआ था--अकेला था। सारी दुनिया धार्मिक मालूम पड़ती थी।
फिर एक नया प्रतियोगी पैदा हुआ इधर तीन सौ वर्षों में। और विज्ञान ने कहा: छोड़ो स्वर्ग की बकवास; हम यहीं बनाए देते हैं, छोड़ो अप्सराओं की फिकर; हम अप्सराएं यहीं जमीन पर खड़ी किए देते हैं, छोड़ो यह फिकर; हम यहीं भवन बनाए देते हैं--जो कि सुखद होंगे।
और बड़ी जोर से पागलपन शुरू हुआ जमीन को ही स्वर्ग बनाने का। धार्मिक लोग घबड़ा गए, वह झूठे धार्मिक लोग, सब घबड़ा गए। क्योंकि बड़ी दिक्कत हो गई। इसमें ग्राहक छीन जाने का डर बहुत जोर से पैदा हो गया। क्योंकि ग्राहक परलोक की दुकान पर अब राजी नहीं हो सकते थे, अब जब यहां प्रत्यक्ष मिलता हो तो कल्पना में कौन फिकर करे।
इसलिए विज्ञान का जोर से प्रभाव हुआ। सारी दुनिया में विज्ञान का भौतिकवाद प्रभावी हो गया। धार्मिक लोग गाली देने लगे--कि हम आध्यात्मिक हैं और ये भौतिकवादी हैं।
मैं आपको कहूं: भौतिकवाद का ही भौतिकवाद से विरोध हो सकता है। अध्यात्मवाद का भौतिकवाद से विरोध नहीं हो सकता।

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