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मंगलवार, 28 अगस्त 2018

जीवन क्रांति की दिशा-(विविध)-प्रवचन-03

तीसरा-प्रवचन-(जीवन में जागरूकता)

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से आज की चर्चा आरंभ करूंगा।
एक पूर्णिमा की रात में एक छोटे से गांव में बड़ी अदभुत घटना घट गई थी। कुछ जवान लड़कों ने शराबखाने में जाकर शराब पी ली थी, और जब वे शराब के नशे में मदमस्त हो गए थे, और शराब-गृह से बाहर निकले थे, तो उन्हें ऊपर चांद की बरसती हुई चांदनी में यह ख्याल आ गया कि हम जाएं नदी पर और नौका विहार करें।
रात बड़ी सुंदर थी और मन उनके नशे से भरे हुए थे। वे गीत गाते हुए नदी के किनारे पहुंच गए। नाव वहां बंधी थी। मछुवे नावें बांध कर अपने घर जा चुके थे। रात आधी हो गई थी। वे युवक एक नाव में सवार हो गए। उन्होंने पतवारें उठा लीं और नाव को खेना शुरू कर दिया। फिर वे देर रात तक नाव खेते रहे।
सुबह होने के करीब आ गई। सुबह की ठंडी हवाओं ने उन्हें सचेत किया। उनका नशा कुछ कम हुआ और उन्होंने सोचा कि हम न मालूम कितनी दूर निकल आए हैं। आधी रात से हम नाव चला रहे हैं, पतवार चला रहे हैं। न मालूम किनारे और गांव से कितने दूर आ गए हैं?
उनमें से एक ने सोचा कि उचित है कि मैं नीचे उतर कर देख लूं कि हम किस दिशा में आ गए हैं? क्योंकि नशे में जो चलते हैं उन्हें दिशा का कोई भी पता नहीं होता है। और हम कहां पहुंच गए हैं, हम किस जगह हैं, जब तक हम इसे न समझ लें तब तक हम वापस भी कैसे लौटेंगे? और फिर सुबह होने के करीब है, गांव में लोग चिंतित हो जाएंगे।
एक युवक नीचे उतरा और नीचे उतर कर जोर से हंसने लगा। दूसरे युवकों ने पूछा: हंसते क्यों हो, बात क्या है? उसने कहा: तुम भी नीचे उतर आओ और तुम भी हंसो। वे सारे लोग नीचे उतरे और सारे लोग ही हंसने लगे। आप पूछेंगे, बात क्या थी? अगर आप भी उस नाव में होते और नीचे उतरते तो आप भी हंसने लगते। बात ही कुछ ऐसी थी। वे वहीं के वहीं खड़े थे, नाव कहीं भी नहीं गई थी। असल में वे नाव की जंजीर खोलना भूल गए थे। नाव की जंजीर किनारे से बंधी थी। उन्होंने बहुत पतवार चलाई और बहुत श्रम किया, लेकिन सारा श्रम व्यर्थ हो गया था, क्योंकि किनारे से बंधी हुई नावें कोई यात्रा नहीं करतीं।
मैंने कल दो दिनों की चर्चाओं में..मनुष्य की आत्मा की नाव किन खूंटियों से बंधी है, दो खूंटियों की आपसे बात की। वे लोग जो ज्ञान से बंध जाते हैं और जिनके जीवन में विस्मय नहीं होता, उनकी आत्मा की नाव कभी परमात्मा तक नहीं पहुंच पाती। वे वहीं खड़े रह जाते हैं जहां से यात्रा शुरू होती है। श्रम वे बहुत करते हैं, पतवार वे बहुत चलाते हैं, समय वे बहुत लगाते हैं। लेकिन नाव कहीं बढ़ती नहीं, वे वहीं रुक जाते हैं।
जिन लोगों की जीवन के प्रति दृष्टि दुख की होती है, संताप की होती है, जो जीवन को अंधकारपूर्ण आंखों से देखते हैं, जिन्हें जीवन के प्रति अहोभाव का, आनंद के भाव का कोई अनुभव नहीं होता, जो जीवन को आनंद की आंखों से देखने की क्षमता और पात्रता नहीं जुटा पाते हैं, उनकी नाव भी किनारे से ही बंधी रह जाती है, वे भी कभी जीवन के सागर में नौका को खे नहीं पाते हैं।
आज मैं तीसरी खूंटी की बात करने को हूं। और कौन से लोग बंधे रह जाते हैं? जीवन को दुख से देखने वाले, जीवन को अंधकारपूर्ण दृष्टि से देखने वाले, जीवन के सत्य को शास्त्रों से सीख लेने वाले, स्वयं के अज्ञान को शब्दों और सिद्धांतों में छिपा लेने वाले, ये बंधे रह जाते हैं। और कौन बंधा रह जाता है? आज उस आखिरी खूंटी की भी मुझे बात करनी है जिससे आदमी बंधा रह जाता है। और जो उस खूंटी से बंधा रहता है वह एक कोल्हू के बैल की तरह चक्कर लगाता है, घूमता है, एक ही जगह पर घूमता है, घूमता है और घूमते-घूमते नष्ट और समाप्त हो जाता है। लेकिन किसी कोल्हू के बैल की तरह चक्कर लगाता है। सारा जीवन इन्हीं चक्करों में व्यर्थ हो जाता है।
एक गांव में मैं गया था। एक बैल वहां कोल्हू चलाने का जीवन भर काम करता रहा। फिर वह बूढ़ा हो गया। और बैल के मालिकों ने उसे काम के योग्य न समझ कर छोड़ दिया था। खुला वह घूमता रहता था। लेकिन मैं बड़ा हैरान हुआ। वह गोल चक्करों में ही घूमता था। खेत में उसे छोड़ देते तो वह गोल चक्कर लगाता था। जीवन भर की उसकी यह आदत थी। आज कोई बीच में खूंटी भी नहीं थी। आज किसी कोल्हू में भी वह नहीं जुता था। लेकिन जीवन भर गोल चक्करों में जो घूमा है, वह फिर भी गोल चक्करों में घूमने की आदत के कारण, गोल-गोल ही घूमता था। गांव के लोगों ने उस बैल को समझाने की बहुत कोशिश की कि इस तरह मत घूमो। लेकिन बैल कहीं किसी की सुनते हैं? बैल तो दूर, आदमी ही नहीं सुनते, तो बैल कैसे सुनेंगे? उस गांव के लोग जैसे नासमझ थे, उस बैल को समझाते थे कि सीधे चलो, गोल-गोल घूमने की कोई भी जरूरत नहीं है, क्योंकि जो गोल-गोल घूमता है, वह कहीं भी नहीं पहुंचता है। जिसे पहुंचना हो, उसे सीधे जाना होता है, गोल नहीं घूमना होता है। मुझे हंसी आई थी उन गांव के लोगों पर। मैं भी उस गांव में लोगों को समझाने गया था। गांव के एक बूढ़े आदमी ने कहा कि तुम हम पर हंसते हो कि हम बैलों को समझाते हैं। हम तुम पर हंसते हैं कि तुम आदमियों को समझाते हो। न बैल सुनते हैं, न आदमी सुनता है। और बैल तो सुन भी सकते हैं कभी, क्योंकि बैल सीधे और सरल होते हैं, पर आदमी तो बहुत तिरछा है, वह नहीं सुन सकता है।
लेकिन फिर भी चाहे यह गलती ही सही, नासमझी ही सही, आदमी को समझाना ही पड़ेगा। वह सुने या न सुने, उसे कहना ही पड़ेगा। क्या कहना है उसे?
अंतिम खूंटी के बाबत आज मैं आपसे कहना चाहता हूं। क्या कहना चाहता हूं? वह कौन सी खूंटी है जिसके आस-पास आदमी कोल्हू का एक बैल बन जाता है, एक अमृतमयी आत्मा नहीं? एक बंधा हुआ पशु बन जाता है? शायद आपको पता न हो कि पशु शब्द का अर्थ क्या होता है? पशु शब्द का अर्थ होता है: जो पाश में बंधा हो। बंधे हुए होने को ही पशुता कहते हैं। जो बंधा है और गोल-गोल घूमता है, वही पशु है। पशु का अर्थ है: जो पाश में बंधा है, किसी जंजीर से ठुका है, किसी कील से बंधा है। जो बंधा है वही पशु है। हम सारे लोग ही बंधे हैं। हमारे भीतर मनुष्य का भी जन्म नहीं हो पाता, परमात्मा तो बहुत दूर की मंजिल है! आदमी भी होना बहुत कठिन है।
डायोजनीज का नाम सुना होगा। जरूर सुना होगा। और यह भी हो सकता है कि डायोजनीज कहीं न कहीं आपको मिल गया हो। सुनते हैं, दो हजार साल पहले वह पैदा हुआ था, और दिन की भरी रोशनी में जलती हुई लालटेन लेकर गांवों में घूमा करता था। और हर आदमी के चेहरे के पास लालटेन ले जाकर देखता था।
लोग चैंक जाते थे कि बात क्या है? क्या देखना चाहते हैं? और दिन की रोशनी में जब कि सूरज आकाश में है, लालटेन किसलिए लिए हुए हैं? दिमाग खराब हो गया है?
डायोजनीज कहता: दिमाग मेरा खराब नहीं हुआ है। मैं आदमी की तलाश में हूं। मैं हर आदमी के चेहरे को रोशनी में देखने की कोशिश करता हूं। आदमी है या नहीं है? क्योंकि चेहरे बहुत धोखा देते हैं। चेहरों से ऐसा मालूम पड़ता है कि सब आदमी हैं और भीतर आदमियत का कोई निवास नहीं होता है।
आदमी ही होना कठिन है, परमात्मा तो दूर की मंजिल है। लेकिन मैं यह भी आपसे कहूं, जो आदमी हो जाता है, उसके लिए परमात्मा की मंजिल भी बहुत निकट आ जाती है। कौन सी चीज है जो हमें बांधे हैं, जिसके कारण हम पशु हो जाते हैं?
एक छोटी सी कहानी कहूं, उससे शायद इशारा ख्याल में आ सके कि कौन सी चीज हमें बांधे हुए है। कौन सी चीज के इर्द-गिर्द हम जीवन भर घूमते हैं और नष्ट होते हैं? कौन सी चीज है जिसके पीछे हम पागल की तरह चक्कर लगाते हैं और व्यर्थ हो जाते हैं?
एक जंगल के पास एक छोटा सा गांव था। और एक दिन सुबह एक सम्राट शिकार खेलते से भटक गया और उस गांव में आया। रात भर का थका-मांदा था और उसे भूख लगी थी। वह गांव के पहले ही झोपड़े पर रुका और उसने गांव के उस झोपड़े के बूढ़े आदमी से कहा: क्या मुझे दो अंडे उपलब्ध हो सकते हैं? थोड़ी चाय मिल सकती है? उस बूढ़े आदमी ने कहा: जरूर। स्वागत है आपका। आएं। वह सम्राट बैठ गया उस झोपड़े में। उसे चाय और दो अंडे दिए गए। नाश्ता कर लेने के बाद उसने पूछा कि इन अंडों के दाम कितने हुए? उस बूढ़े आदमी ने कहा: ज्यादा नहीं, केवल सौ रुपये।
सम्राट तो हैरान हो गया। उसने बहुत महंगी चीजें खरीदी थीं, लेकिन कभी सोचा भी नहीं था कि दो अंडों के दाम भी सौ रुपये हो सकते हैं! उस सम्राट ने उस बूढ़े आदमी से पूछा: आर एग्ज सो रेयर हियर? क्या इतना कठिन है अंडों का मिलना यहां? वह बूढ़ा आदमी बोला कि नहीं, एग्ज आर नॅाट रेयर सर, बट किंग्ज आर। अंडे तो बहुत मुश्किल नहीं हैं, बहुत होते हैं, लेकिन राजा मिलना बहुत मुश्किल है। कभी-कभी राजा मिलते हैं। उस सम्राट ने सौ रुपये निकाल कर उस बूढ़े को दे दिए और अपने घोड़े पर सवार होकर चला गया।
उस बूढ़े की औरत ने कहा: हैरान हूं मैं, कैसा जादू किया तुमने, कि दो अंडों के सौ रुपये वसूल कर लिए? क्या तरकीब थी तुम्हारी? उस बूढ़े ने कहा, मैं आदमी की कमजोरी जानता हूं। जिसके आस-पास आदमी जीवन भर घूमता है, वह खूंटी मुझे पता है। और उस खूंटी को छू दो और आदमी एकदम घूमना शुरू हो जाता है। मैंने वह खूंटी छू दी और राजा एकदम घूमने लगा। उसकी औरत ने कहा: मैं समझी नहीं! कौन सी खूंटी? कैसा घूमना?
उस बूढ़े ने कहा: तुझे मैं एक और घटना बताता हूं अपनी जिंदगी की। शायद उससे तुझे समझ में आ जाए।
जब मैं जवान था, तब मैं एक राजधानी में गया। मैंने वहां एक सस्ती सी पगड़ी खरीदी, जिसके दाम तीन-चार रुपये थे। लेकिन पगड़ी बड़ी रंगीन, बड़ी चमकदार थी। जैसी कि सस्ती चीजें हमेशा रंगीन और चमकदार होती हैं। जहां बहुत रंगीनी हो और बहुत चमक, समझ लेना, भीतर सस्ती चीज होनी ही चाहिए। सस्ती थी पगड़ी, लेकिन बहुत चमकदार थी, बहुत रंगीन थी। मैं उस पगड़ी को पहन कर सम्राट के दरबार में पहुंच गया। सम्राट की आंख एकदम से उस पगड़ी पर पड़ी। क्योंकि दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम हैं जो कपड़ों के अलावा कुछ और देखते हों। आदमी को कौन देखता है? आत्मा को कौन देखता है? पगड़ियां भर दिखाई पड़ती हैं। उस सम्राट की नजर में एकदम पगड़ी आ गई और उसने कहा: कितने में खरीदी है? बड़ी सुंदर है, बड़ी रंगीन है। मैंने उस सम्राट को कहा: पूछते हैं कितने में खरीदी है? पांच हजार रुपये खर्च किए हैं इस पगड़ी के लिए।
सम्राट तो एकदम हैरान हो गया। लेकिन इसके पहले कि सम्राट कुछ कहता, वजीर उसके सिंहासन के पास झुका और सम्राट के कान में उसने कुछ कहा। उसने सम्राट के कान में कहा: सावधान! आदमी धोखेबाज मालूम होता है। दो, चार-पांच रुपये की पगड़ी के पांच हजार दाम बता रहा है। बेईमान है! लूटने के इरादे में है!
उस बूढ़े ने अपनी पत्नी से कहा: मैं फौरन समझ गया कि वजीर क्या कह रहा है। क्योंकि जो लोग किसी को लूटते रहते हैं वे दूसरे लूटने वाले से बड़े सचेत हो जाते हैं। लेकिन मैं भी हारने को राजी नहीं था। मैं वापस लौटने लगा और मैंने उस सम्राट से कहा: तो मैं जाऊं, क्योंकि मैंने जिस आदमी से यह पगड़ी खरीदी है, उसने मुझे यह वचन दिया है कि इस पृथ्वी पर एक ऐसा सम्राट भी है जो इस पगड़ी के पचास हजार भी दे सकता है। मैं उसी सम्राट की खोज में निकला हुआ हूं। तो मैं जाऊं? आप वह सम्राट नहीं हैं। यह राजधानी वह राजधानी नहीं है। यह दरबार वह दरबार नहीं है, जहां यह पगड़ी बिक सकेगी? लेकिन कहीं बिकेगी, मैं जाता हूं।
सम्राट ने कहा: पगड़ी रख दो। पचास हजार रुपये ले लो।
वजीर बहुत हैरान हो गया। जब मैं पचास हजार रुपये लेकर लौटने लगा, दरवाजे पर वजीर मुझे मिला और कहा, हद्द कर दी! हम भी बहुत कुशल हैं लूटने में, लेकिन यह तो जादू हो गया! मामला क्या है? तो मैंने उस वजीर के कान में कहा था कि तुम्हें पता होगा कि पगड़ियों के दाम कितने होते हैं। मुझे आदमियों की कमजोरियों का पता है, मुझे उस खूंटी का पता है जिसको छू दो और आदमी एकदम घूमने लगता है।
पता नहीं, वह बूढ़ी समझ पाई अपने पति की यह बात या नहीं। लेकिन आप समझ गए हैं। आपके हंसने से मुझे अंदाजा लगता है, आप पहचान गए हैं, आदमी किस खूंटी से बंधा है।
अहंकार के अतिरिक्त आदमी के जीवन में और कोई खूंटी नहीं है। और जो अहंकार से बंधा है वह और हजार तरहों से बंध जाएगा। और जो अहंकार से मुक्त हो जाता है, वह और सब भांति भी मुक्त हो जाता है।
एक ही स्वतंत्रता है जीवन में, एक ही मुक्ति है, एक ही मोक्ष है और एक ही द्वार है प्रभु का: और वह है अहंकार की खूंटी से मुक्त हो जाना। एक ही धर्म है, एक ही प्रार्थना है, एक ही पूजा है: और वह है अहंकार से मुक्त हो जाना। एक ही मंदिर है, एक ही मस्जिद है, एक ही शिवालय है। जिस हृदय में अहंकार नहीं..वही मंदिर है, वही मस्जिद है, वही शिवालय है। आज इस अंतिम दिन इस तीसरे भ्रम के संबंध में थोड़ी बात मुझे आपसे कहनी है।
जीवन को देखने की दो ही दृष्टियां हैं और जीवन को जीने के दो ही ढंग हैं। या तो अहंकार के इर्द-गिर्द जीयो या निर-अहंकार के। या तो ईगो के आस-पास घूमो या ईगोलेसनेस के। ईगोलेसनेस के, निर-अहंकार आकाश में उड़ जाओ। जो अहंकार से बंधे हैं, वे पृथ्वी से बंधे रह जाते हैं। और जो निर-अहंकार में उठते हैं, आकाश उनका हो जाता है। आकाश की स्वतंत्रता उनकी हो जाती है, जीवन के विराट तक पहुंचने का मार्ग खुल जाता है। क्यों? क्योंकि जो क्षुद्र से मुक्त होता है, वह विराट से संयुक्त हो जाता है। यह तो गणित की तरह सीधा सा नियम है। यह तो एक युनिवर्सल, एक सार्वभौम नियम है। जो क्षुद्र से बंधा है, वह विराट से वंचित रह जाएगा। और जो क्षुद्र से मुक्त हो जाता है, वह विराट में प्रविष्ट हो जाता है।
एक बूंद थी पानी की। वह समुद्र होना चाहती थी। वह बूंद मुझसे पूछने लगी, मैं समुद्र कैसे हो जाऊं? मैंने उस बूंद से कहा, बड़ी छोटी, और एक ही तरकीब है। तो बूंद अगर बूंद होने को राजी है, अगर बूंद बूंद ही बनी रहने को उत्सुक है, तो समुद्र से मिलने का कोई भी रास्ता नहीं। लेकिन अगर तू बूंद की भांति मिटने को राजी हो जाए, तो मिटते ही सागर हो जाएगी। उस बूंद ने मेरी बात मान ली। वह सागर में कूद गई। उसने खो दिया अपने को। उसने अपने अहंकार को धो डाला। वह सागर से एक हो गई। लेकिन उसने कुछ खोया नहीं। बूंद ने खोई बूंद और हो गई सागर। इसे कोई खोना कहेगा? इसे कोई मिटना कहेगा? अगर यही मिटना है, तो फिर पाना और क्या हो सकता है?
हम अहंकार की बूंदें बने हुए हैं और परमात्मा के सागर को खोजने निकल पड़े हैं। हम अहंकार के छोटे-छोटे क्षुद्र बिंदु बने हुए हैं, और विराट के, असीम के साथ एक होने की कामना ने हमें पीड़ित कर रखा है। हम बूंद के किनारे से बंधे हैं और सागर की यात्रा, अज्ञात सागर की यात्रा के आमंत्रण को हमने स्वीकार कर लिया है। इन्हीं दोनों के बीच खिंच-खिंच कर आदमी नष्ट हो जाता है। वह अहंकार को भी बचा लेना चाहता है, और प्रभु को भी पा लेना चाहता है।
कबीर कहते थे, उसकी गली बहुत संकरी है। वहां दो नहीं समा सकेंगे..या तो वही हो सकता है या फिर हम हो सकते हैं। हमारा सारा जीवन अहंकार को परिपुष्ट करने में व्यतीत होता है, विसर्जित करने में नहीं। हम उसे मजबूत करते हैं, जो हमारी पीड़ा है। हम उसी घाव को गहरा करते हैं जो हमारा दुख है। हम उसी बीमारी को पानी सींचते हैं जो हमारे प्राण लिए लेती है। अहंकार को सींचने के सिवाय हम जीवन भर और क्या करते हैं? किसलिए उठते हैं मकान आकाश को छूने वाले? आदमी के रहने के लिए? झूठी है यह बात। अहंकार का निवास बनने के लिए। आदमी के रहने के लिए छोटे झोपड़े भी काफी हैं, लेकिन अहंकार के लिए बड़े से बड़े मकान भी छोटे हैं। अहंकार उठाता है बड़े मकानों को कि आकाश छू लें।
किसलिए विजय-यात्राएं चलती हैं? किसलिए सिकंदर, नेपोलियन और चंगीज पैदा होते हैं? जीने से..चंगीज का, सिकंदर का, नेपोलियन का..जीवन से क्या वास्ता है? लेकिन नहीं, अहंकार की यात्राएं बड़ी दूर ले जाती हैं आदमी को।
सिकंदर जिस दिन मरने को था, बहुत उदास था। किसी ने पूछा: तुम इतने उदास क्यों हो? सिकंदर ने कहा, मैं इसलिए उदास हूं कि सारी दुनिया तो मैंने करीब-करीब जीत ली। अब मैं बड़ी कठिनाई में पड़ गया हूं। दूसरी कोई दुनिया ही नहीं है, जिसको मैं आगे जीतूं। और मेरे भीतर बड़ा खाली-खालीपन मालूम होता है। क्योंकि जब तक मैं जीतता ही न रहूं, तब तक मुझे कोई चैन नहीं। और दुनिया समाप्त होने के करीब आ गई है। दूसरी कोई दुनिया नहीं है। मैं क्या जीतूं?
अहंकार दुनिया को जीत ले, तो फिर दूसरी दुनिया को जीतने की आकांक्षा शुरू हो जाती है। किसलिए धन इकट्ठा होता है? इसलिए कि जीवन में कोई आनंद मिल सके?
अमरीका का एक बहुत बड़ा करोड़पति मरण-शय्या पर पड़ा था..कारनेगी। एक मित्र ने उससे पूछा: कितनी संपत्ति तुमने जीवन में इकट्ठी की है? उसने कहा: ज्यादा नहीं; केवल दस अरब। मित्र ने कहा: दस अरब! कहते हो, ज्यादा नहीं? कारनेगी ने कहा: मेरे इरादे तो सौ अरब इकट्ठा करने के थे, लेकिन बुढ़ापा निकट आ गया, योजना अधूरी रही जाती है।
क्या आप सोचते हैं कि कारनेगी सौ अरब इकट्ठा कर लेता तो कोई फर्क पड़ जाता? जरा भी फर्क पड़ने वाला नहीं था। आदमी को हम भलीभांति जानते हैं, फर्क जरा भी नहीं पड़ सकता था। कारनेगी के पास सौ अरब इकट्ठे हो जाते, तो कारनेगी के इरादे हजार अरब पर पहुंच जाते।
आदमी का इरादा उसके आगे चलता है। आदमी की वासना उसके आगे चलती है। आदमी हमेशा पीछे रह जाता है। मंजिल, जिसको वह छूना चाहता है और आगे हट जाती है। अहंकार दौड़ाता है, दौड़ाता है, कहीं भी पहुंचाता नहीं है।
एक छोटी सी बच्चों की कथा है।
अलाइस नाम की लड़की स्वर्ग में पहुंच गई, परियों के देश में। पृथ्वी से स्वर्ग तक पहुंचते-पहुंचते बहुत थक गई थी। भूख लग आई थी। स्वर्ग पर पहुंचते ही, परियों के देश में पहुंचते ही उसे दिखाई पड़ा कि दूर एक आम की घनी छाया के नीचे परियों की रानी खड़ी है और उसके पास फलों के और मिठाइयों के थाल सजे हैं। और वह रानी उस भूखी अलाइस को बुला रही है कि आ जाओ। पास ही है वह। वह दिखाई पड़ रही है। उसकी आवाज सुनाई पड़ती है कि अलाइस आ जा। अलाइस दौड़ना शुरू करती है। सुबह है, सूरज निकल रहा है..जब दौड़ शुरू होती है। फिर दोपहर हो जाती है, सूरज ऊपर आ गया है और अलाइस दौड़ी चली जा रही है। वह थक गई है। उसने खड़ी होकर चिल्ला कर पूछा कि कैसी दुनिया है तुम्हारी? सुबह से मैं दौड़ रही हूं, लेकिन मेरे और तुम्हारे बीच का फासला, डिस्टेंस पूरा नहीं होता? तुम उतनी ही दूर मालूम पड़ती हो रानी?
रानी ने चिल्ला कर कहा: घबड़ा मत। दौड़ती आ। जो दौड़ते हैं वे पहुंच जाते हैं। खड़ी होकर समय मत खो। थोड़ी देर में सूरज ढल जाएगा और सांझ आ जाएगी। दौड़, जल्दी आ।
अलाइस और तेजी से दौड़ने लगी। सूरज जैसे-जैसे नीचे उतरने लगा, अलाइस और तेज दौड़ रही है। और तेज दौड़ रही है। लेकिन न मालूम कैसी पागल दुनिया है वह..रानी उतनी ही दूर..रानी और उसके बीच का फासला कम नहीं होता है। फिर वह थक कर, चकनाचूर होकर गिर पड़ती है। और चिल्लाती है कि मामला क्या है? ये कैसे रास्ते हैं परियों के देश के कि मैं सुबह से दौड़ रही हूं, सूरज डूबने के करीब आ गया है, मैं अब तक तुम्हारे पास नहीं पहुंच पाई? तुम उतनी ही दूर खड़ी हो, जितना सुबह थी।
वह रानी खूब हंसने लगी। उसने कहा: पागल अलाइस। परियों के देश में ही रास्ते ऐसे नहीं हैं, आदमियों के देश में भी रास्ते ऐसे ही हैं। लोग दौड़ते हैं लेकिन पहुंचते कभी भी नहीं। फासला उतना ही बना रहता है।
जन्म के साथ आदमी जहां होता है, मरने के साथ वहीं पाता है। कोई फासला पूरा नहीं होता। कोई यात्रा पूरी नहीं होती। क्यों नहीं होती है यात्रा पूरी? जिस अहंकार को हम भरने चले हैं, वह एकदम झूठी इकाई है, फाल्स एनटायटी है। वह होती तो भर भी जाती। वह होती तो हम जीत भी लेते। वह होती तो हम उसे पूरा भी कर लेते। वह होती तो हम उसे फुलफिलमेंट, उसकी पूर्ति का कोई न कोई रास्ता खोज लेते। लेकिन अहंकार है झूठी इकाई। आदमी के भीतर अहंकार से ज्यादा बड़ा कोई असत्य नहीं है। वह है नहीं। मैं जैसी कोई भी चीज शब्दों के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं। और जिस दिन थोड़ा शब्दों को छोड़ कर भीतर झांकेंगे, तो वहां किसी ‘मैं’ को नहीं पाएंगे। कभी किसी ने नहीं पाया है।
मैं एक शब्द मात्र है, एक संज्ञा मात्र है, एक कामचलाऊ शब्द। हमारे सभी शब्द कामचलाऊ हैं। एक आदमी का नाम हम राम रख लेते हैं, एक का कृष्ण रख लेते हैं। नाम झूठे हैं। दूसरे लोगों को पुकारने के लिए राम रख लेते हैं नाम, ताकि दूसरे लोग पुकारें तो पता चल सके कि किसको पुकार रहे हैं। दूसरे को पुकारने के लिए होता है नाम। और खुद को पुकारने के लिए होती है मैं की इकाई। अन्यथा हम क्या पुकारें अपने आपको? तो कहते हैं: मैं। यह शब्द काम दे देता है जीवन में। लेकिन यह शब्द बड़ा झूठा है। इसके पीछे कोई भी सब्स्टेंस नहीं, यह बिल्कुल शैडो है। इसके पीछे कोई भी वस्तु नहीं, कोई पदार्थ नहीं। यह बिल्कुल झूठी छाया है। और इस छाया को ही भरने में, दौड़ने में हम लगे रहते हैं। छाया को ही पकड़ने में लगे रहते हैं।
एक संन्यासी एक घर के सामने से निकलता था। एक छोटा सा बच्चा घुटने टेक कर चलता था। सुबह थी और धूप निकली थी और उस बच्चे की छाया आगे पड़ रही थी। वह बच्चा अपने सिर को पकड़ने के लिए हाथ ले जाता, लेकिन जब तक उसका हाथ पहुंचता सिर आगे बढ़ जाता। बच्चा थक गया और रोने लगा और चिल्लाने लगा। और उसकी मां उसे बहुत समझाने लगी कि पागल, यह छाया है। छाया पकड़ी नहीं जा सकती। लेकिन बच्चे समझ सकते हैं कि क्या छाया है और क्या सत्य है? जो समझ लेता है कि क्या छाया है और क्या सत्य, क्या सब्स्टेंस है और क्या शैडो..वह बच्चा नहीं रह जाता, वह प्रौढ़ हो जाता है। उसे मैच्योरिटी उपलब्ध हो जाती है। बच्चे कभी नहीं समझते कि छाया क्या है, सपना क्या है, झूठ क्या है। वह बच्चा रोने लगा, वह कहने लगा कि मुझे तो पकड़ना है इस छाया के सिर को।
वह संन्यासी भीख मांगने आया था। उसने उसकी मां से कहा: मैं पकड़ा देता हूं इसे। वह बच्चे के पास गया। उस रोते हुए बच्चे की आंखों से आंसू टपकते हैं। सभी बच्चों की आंखों से आंसू टपकते हैं। जिंदगी भर दौड़ते हैं और पकड़ नहीं पाते उसे जिसे पकड़ने की योजना बनाई है।
बूढ़े भी रोते हैं और बच्चे भी रोते हैं। वह बच्चा भी रो रहा था, तो कोई नासमझी तो नहीं कर रहा था। उस संन्यासी ने उसके पास जाकर कहा, बेटे रो मत। क्या करना है, तुझे छाया पकड़नी है?
उस बच्चे ने कहा: मुझे छाया पकड़नी है। मैं सुबह से परेशान हो गया, थक गया। उस संन्यासी ने कहा: जीवन भर की कोशिश कर तो थक जाएगा, परेशान हो जाएगा, छाया को पकड़ने का यह रास्ता नहीं है। उस बच्चे ने पूछा, फिर रास्ता क्या है? संन्यासी ने उस बच्चे का हाथ पकड़ा और बच्चे के सिर पर रख दिया। इधर हाथ सिर पर गया वहां छाया के ऊपर भी सिर पर भी हाथ चला गया। संन्यासी ने कहा: देख, पकड़ ली तूने छाया। छाया को सीधा पकड़ेगा तो नहीं पकड़ सकेगा कभी भी। लेकिन अपने को पकड़ लेगा, तो छाया तो पकड़ में आ ही जाती है।
जो अहंकार को पकड़ने के लिए दौड़ते हैं, वे अहंकार को कभी नहीं पकड़ पाते। अहंकार मात्र छाया है। लेकिन जो आत्मा को पकड़ लेते हैं, अहंकार तो पकड़ में आ ही जाता है, वह तो छाया है, उसका कोई मूल्य नहीं। केवल वे ही लोग तृप्ति को, केवल वे ही लोग कंटेंटमेंट को, केवल वे ही लोग फुलफिलमेंट को, आप्तकामता को उपलब्ध होते हैं, जो आत्मा को उपलब्ध होते हैं। आत्मा और अहंकार के बीच चुनाव है। आत्मा और अहंकार के बीच सारा विकल्प है। आत्मा और अहंकार के बीच जीवन की सारी व्यथा, सारी पीड़ा है। जो अहंकार की तरफ जाते हैं वे भटक जाते हैं। उन्होंने गलत खूंटी के आस-पास जीवन को चकरीला बना लेंगे। लेकिन जो अहंकार से पीछे हटते हैं और उसकी तरफ जाते हैं। जो सब्स्टेंस है, जो मूल है, जो भीतर है, जो मैं हूं वस्तुतः, जो मेरा अॅाथेंटिक बीइंग है, जो उसकी तरफ जाते हैं, वे उपलब्ध हो जाते हैं। और उनके लिए छायाएं जीतने को नहीं रह जातीं।
दुनिया में दो ही तरह की यात्राएं हैं..अहंकार को भरने की यात्रा और आत्मा को उपलब्ध करने की यात्रा। लेकिन अहंकार से जो बंधा रह जाता है वह आत्मा से वंचित रह जाता है।
यह अहंकार क्या हम छोड़ने की कोशिश करें? नहीं, अगर छोड़ने की कोशिश की, तो अहंकार से कभी मुक्त न हो सकेंगे आप। छाया न तो पकड़ी जा सकती है और न छोड़ी जा सकती है। जो चीज छोड़ी जा सकती है, वह पकड़ी भी जा सकती थी। छाया न छोड़ी जा सकती है, न पकड़ी जा सकती है। अहंकार न पकड़ा जा सकता है, न छोड़ा जा सकता है। इसलिए पकड़ने वाले तो भूल में पड़ते ही हैं, छोड़ने वाले और भी बड़ी भूल में पड़ जाते हैं।
मैं एक संन्यासी के पास कुछ दिन रुका था। वे मुझसे कहते थे, मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी। मैंने उनसे पूछा: यह लात कब मारी थी आपने? वे कहने लगे, कोई तीस वर्ष हो गए। फिर मैंने उन्हें कहा: आप नाराज न हों तो मैं एक बात कहूं, और नाराज होने का इसलिए कह देता हूं, क्योंकि संन्यासियों की नाराज होने की बड़ी पुरानी आदत है, बड़ी पुरानी परंपरा है। अभिशाप दे सकते हैं। जन्म-जन्म बिगाड़ सकते हैं। सो अगर नाराज न हों, तो एक बात पूछूं? मेरा इतना कहते, नाराज तो वे हो ही गए। लेकिन फिर भी उन्होंने कहा: हां, कहिए, क्या कहते हैं?
मैंने कहा: तीस वर्ष पहले यह लात मारी थी आपने, तो लात ठीक से लग नहीं पाई। नहीं तो तीस वर्ष तक उसकी स्मृति, उसकी याद की कोई भी जरूरत नहीं? तीस वर्ष पहले आपका अहंकार कहता होगा: लाखों रुपये हैं मेरे पास, मैं कुछ हूं, समबडी हूं। फिर आपने लात मार दी। आपने सोचा कि लाखों रुपये छोड़ दिए, तो अहंकार चला जाएगा। नहीं, जिस दिन से आपने लाखों छोड़े उस दिन से आपके अहंकार ने नई वाणी बोलनी शुरू कर दी। वे कहने लगे, मैंने लाखों रुपये छोड़ दिए। मैंने लाखों रुपये छोड़ दिए हैं!
लाखों रुपये थे, तो भी सड़क पर अकड़ कर चलते थे। लाखों रुपये छोड़ दिए, तो और भी ज्यादा अकड़ कर चलने लगे। रुपयों की अकड़ तो दिखाई पड़ जाती है, बड़ी स्थूल है। लेकिन त्याग की अकड़ दिखाई भी नहीं पड़ती, बड़ी सूक्ष्म है। धन छोड़ देने से अहंकार नहीं छूटता, पद छोड़ देने से अहंकार नहीं छूटता, घर छोड़ देने से अहंकार नहीं छूटता। अहंकार है ही नहीं कि छोड़ा जा सके। तो जो भी आप छोड़ेंगे, अहंकार उसी छोड़ने को अपना उपकरण बना लेगा और कहेगा, मैंने छोड़ा! मैं हूं छोड़ने वाला! अहंकार के रास्ते बड़े सूक्ष्म हैं। छाया बड़ी सूक्ष्म है। पकड़ में नहीं आती, छोड़ने में नहीं आती। सो जो लोग सोचते हैं कि अहंकार छोड़ देंगे हम, वे और भी बड़ी भूल में गिर जाते हैं। आज तक किसी ने अहंकार कभी छोड़ा नहीं है। फिर अहंकार भरा भी नहीं जा सकता और छोड़ा भी नहीं जा सकता।
तो हम क्या करें?
अहंकार जाना जा सकता है। अहंकार पहचाना जा सकता है। अहंकार की रिकग्निशन हो सकती है। अहंकार की प्रतिभिज्ञा हो सकती है। अहंकार का बोध हो सकता है। अहंकार के प्रति मैं जागरूक हो सकता हूं। और जो आदमी अहंकार के प्रति जागरूक हो जाता है उसका अहंकार विसर्जित हो जाता है। मनुष्य की निद्रा में अहंकार है, मनुष्य के जागरण में नहीं। जैसे ही कोई जाग कर देखने की कोशिश करता है कहां है अहंकार, वैसे ही अहंकार हटने लगता है।
जैसे एक गांव में एक घर था। और उस घर में बड़ा अंधेरा था। और कई हजार साल का अंधेरा था। और उस गांव के लोग उस घर में नहीं जाते थे। मैं उस गांव में गया और मैंने कहा: इस घर को ऐसा ही क्यों छोड़ रखा है? उन्होंने कहा: इस घर में हजारों साल का अंधेरा है। मैंने कहा: अंधेरे की कोई ताकत होती है? दीया जलाओ और भीतर पहुंच जाओ। उन्होंने कहा: दीया जलाने से क्या होगा? एकाध रात का अंधेरा नहीं है, हजारों साल का अंधेरा है। हजारों साल तक दीये जलाओ, तब कहीं खतम हो सकता है।
गणित बिल्कुल ठीक था, बिल्कुल लॅाजिकल थी बात, तर्कयुक्त थी। मैं भी डरा। बात तो ठीक ही थी। हजारों साल से घिरा अंधकार! कहीं एक दिन के दीये जलाने से दूर हो सकता है? फिर भी मैंने कहा: एक कोशिश तो करके देख ही लें। क्योंकि जिंदगी में कई बार गणित काम नहीं पड़ता और तर्क व्यर्थ हो जाता है। जिंदगी बड़ी अनूठी है। वह तर्कों के पार चली जाती है और गणित से दूर निकल जाती है। गणित में हमेशा दो और दो चार होते हैं। जिंदगी में कभी पांच भी हो जाते हैं दो और दो और कभी तीन भी रह जाते हैं। जिंदगी गणित नहीं है। तो चलें, देख लें। वे लोग राजी नहीं हुए। उन्होंने कहा: जाने से फायदा क्या है? हम ही नहीं कह रहे हैं यह बात, हमारे बापदादे भी यही कहते थे..इस मकान में दीया मत जलाना। हजारों साल का अंधेरा है। उनके बापदादों ने भी यही कहा था। और आप क्या बड़े परंपरा के विरोधी मालूम होते हैं? आप शास्त्रों को नहीं मानते? बुजुर्गों को नहीं मानते? सब नासमझ थे? हमारे गांव में तो लिखा हुआ रखा है कि उस घर में दीया मत जलाना। वहां हजारों साल पुराना अंधेरा है, वह मिट नहीं सकता। फिर भी मैंने उन्हें बामुश्किल राजी किया कि चलो देख तो लें। बहुत से बहुत तो यही होगा कि हम असफल होंगे। बामुश्किल वे जाने को राजी हुए। दीया जलाते ही, वहां तो कोई भी अंधेरा नहीं था। वे बहुत हैरान थे। उन्होंने कहा: यह अंधेरा कहां गया?
मैंने कहा: दीया लो हाथ में और खोजो कि कहां है अंधेरा? और अगर किसी दिन मिल जाए, तो मुझे खबर कर देना। मैं फिर तुम्हारे गांव में आ जाऊंगा। अभी तक उनकी कोई खबर नहीं आई। खोज रहे होंगे वे लोग दीये लेकर अंधेरे को। और कहीं दीये के सामने अंधेरा आता है? कहीं दीये को अंधेरा मिलता है?
अहंकार एक अंधकार छाया है। जो अपने भीतर दीये को लेकर जाता है, वह उसे नहीं पाता है। तो न तो उसे छोड़ना है, न उसे भरना है। एक दीया जलाना है भीतर और उसे देखना है। उस दीये की रोशनी में कि वह कहां है। अपने भीतर जाग कर देखना है कि कहां है अहंकार! नहीं पाया जाता है। और जहां अहंकार नहीं पाया जाता है, वहां जो मिल जाता है, उसी को कोई परमात्मा कहता है, कोई आत्मा कहता है, कोई सत्य कहता है। उसी को कोई सौंदर्य कहता है, उसी को कोई और नाम देता है।
नामों के भेद हैं वे फिर। अहंकार जहां नहीं है, वहां वह मिल जाता है जो सबका प्राणों का प्राण है, जो प्यारों से प्यारा है। वह जो बिलॅविड है, वह जो प्रीतम है, वह उपलब्ध हो जाता है। लेकिन हम इससे बंधे हैं और इसी के साथ जीते और मरते हैं, इसलिए उसकी तरफ आंख नहीं जा पाती। इसे देखना जरूरी है, इसे छोड़ना जरूरी नहीं है। इससे भागना जरूरी नहीं है, इसे पहचानना जरूरी है।
अहंकार को देखने की प्रक्रिया का नाम है ध्यान, अहंकार को देखने की प्रक्रिया का नाम है मेडिटेशन। कैसे हम देखें इसे जो हमें घेरे हुए है और पकड़े हुए है? क्या है रास्ता? कोई घड़ी आधी घड़ी किसी मंदिर में बैठ जाने से यह नहीं देखा जा सकता। मंदिर में बैठने वालों का तो यह और भी मजबूत हो जाता है, क्योंकि उन्हें ख्याल होता है हम धार्मिक हैं। बाकी सारा जगत अधार्मिक है। क्योंकि हम मंदिर आते हैं और हमारा स्वर्ग निश्चित है और बाकी सब नरक में सड़ेंगे।
क्या आपको पता है? ईसाई मजहब यह मानता रहा है कि जो लोग संत पुरुष हैं, जो धार्मिक पुरुष हैं, वे लोग स्वर्ग के आनंद उठाएंगे। जो पापी हैं वे नरक में कष्ट भोगेंगे। और स्वर्ग में जो धार्मिक लोग जाएंगे, उन्हें एक विशेष प्रकार के सुख की भी सुविधा रहेगी और वह यह कि नरक में जो पापी कष्ट भोग रहे हैं, उनको देखने का मजा भी वे ले सकेंगे। वहां से वे देख सकेंगे कि कितने पापी नरक में सड़ रहे हैं और कष्ट झेल रहे हैं। जिन लोगों ने यह ख्याल किया होगा, पुण्यात्माओं ने, धार्मिक लोगों ने, कि पापियों को कष्ट में और नरक के कड़ाहों में जलते हुए देखने का मजा भी हम लेंगे, वे कैसे लोग रहे होंगे इसे आप भलीभांति सोच सकते हैं। और यह कोई ईसाइयत का सवाल नहीं है। दुनिया के सारे धर्म और दुनिया के सारे तथाकथित धार्मिक लोग, ये सो-काल्ड रिलिजियस जो हैं, इन सारे लोगों ने अपने को स्वर्ग में ले जाने की और दूसरों को नरक में डालने की पूरी योजना और व्यवस्था कर रखी है। क्योंकि वे यह कह सकते हैं भगवान को कि मैं रोज तुम्हारे नाम पर माला फेरता था और इस आदमी ने माला नहीं फेरी, इसको डालो कड़ाहे में। मैं रोज मंदिर आता था, एक भी दिन नहीं चूका। सर्दी पड़ती थी, तब भी आता था। धूप पड़ती थी, तब भी आता था। यह आदमी कभी मंदिर में नहीं दिखाई पड़ा। डालो इसको कड़ाहे में। मैं रोज गीता पढ़ता था, कुरान पढ़ता था, बाइबिल पढ़ता था। रोज तुम्हारे भजन-कीर्तन करता था। व्यर्थ गए वे सब? मुझे बैठाओ स्वर्ग में। लेकिन मुझे मजा अकेले इतने से नहीं आएगा कि मैं स्वर्ग मैं बैठ जाऊं। उन सब लोगों को जो मेरे पड़ोस में रहते थे बिना नरक में डाले कोई आनंद उपलब्ध नहीं हो सकता। उन सबको डालो नरक में।
जर्मन कवि था, हेन। हेन ने एक कविता लिखी है। उस कविता में लिखा है कि एक रात भगवान ने मुझसे पूछा कि तू चाहता क्या है जिससे तू खुश हो जाए? तो मैंने कहा: एक बहुत बड़ा मकान चाहता हूं, जैसा गांव में दूसरा न हो। भगवान ने कहा, ठीक, यह हो जाएगा। और क्या चाहता है? एक बहुत शानदार बगीचा चाहता हूं; जैसा पृथ्वी पर न हो। भगवान ने कहा: ठीक, यह भी हो जाएगा। और क्या चाहता है? मैं जो भी सुख जिस क्षण चाहूं उसी वक्त मुझे मिल जाए। भगवान ने कहा: यह भी हो जाएगा। और क्या चाहता है? हेन ने कहा: अगर आप मानते ही नहीं और मेरे दिल की मुराद पूरी ही करना चाहते हैं, तो एक काम और कर दें। मेरे बगीचे के दरख्त जो हों, मेरे पड़ोसी उन दरख्तों से लटके रहें, तो मुझे पूरा आनंद उपलब्ध हो जाएगा। मेरे पड़ोसी दरख्तों से लटके रहें, तो मुझे पूरा आनंद उपलब्ध हो जाएगा। अगर आप मानते ही नहीं हो, मेरे दिल की आखिरी ख्वाहिश पूरी करना चाहते हो, तो इतना कर दें कि मेरे सारे पड़ोसी दरख्तों से हैंग कर दिए जाएं, गर्दनों से लटके रहें।
नींद खुल गई हेन की और उसने बाद में लिखा कि मैं बहुत घबड़ाया कि मेरे भीतर भी कैसी-कैसी कामनाएं हैं। लेकिन अगर आप धार्मिक आदमियों के मन में खोजेंगे, तो सबके मन में यह कामना है कि पड़ोसी नरक में चले जाएं और हम स्वर्ग में पहंुच जाएं। वे स्वर्ग में जाने के लिए सारा आयोजन करते हैं।
मंदिर में बैठने वाला अहंकार से मुक्त नहीं होता। स्वर्ग में जाने की कामना रखने वाला अहंकारी ही है। मुझे परमात्मा मिल जाए, मैं परमात्मा को भी पजेस कर लूं। वह मेरी संपत्ति बन जाए। यह भी अहंकार की ही दौड़ है।
फिर कैसे?
चैबीस घंटे जागरूक होना पड़ता है और देखना पड़ता है कि जीवन की किन-किन क्रियाओं में अहंकार खड़ा होता है। क्या वस्त्रों के पहनने में खड़ा होता है? आंख के देखने के ढंग में खड़ा होता है? पैर के उठने में खड़ा होता है? बोलने में खड़ा होता है कि चुप रह जाने में खड़ा होता है? कहां-कहां अहंकार खड़ा होता है? किन-किन जगहों से सिर उठाता है? चैबीस घंटे एक अवेयरनेस, एक होश चाहिए कि कहां खड़ा होता है। कहां खड़ा होता है? चैबीस घंटे खोज-बीन चाहिए दीया लेकर कि अहंकार कहां खड़ा होता है, कैसे खड़ा होता है? क्या है उसकी प्रोसेस? उसके खड़े होने की प्रक्रिया क्या है? कैसे निर्मित होता है भीतर? कैसे संघटित होता है? क्या है मार्ग उसके बन जाने का?
और अगर चैबीस घंटे कोई देखता रहे, देखता रहे, खोजता रहे, खोजता रहे..तो बहुत हैरानी, बहुत आश्चर्य, बहुत चमत्कार अनुभव करेगा। जिन-जिन जगहों पर वह खोज लेगा कि यहां-यहां अहंकार खड़ा होता है वहीं-वहीं से अहंकार विदा हो जाएगा। और जिस दिन जीवन के किसी पहलू में और चित्त के किसी हिस्से में अहंकार की खोज पूरी हो जाएगी, कोई अनजान, अपरिचित कोना बाकी नहीं बचेगा मन का और माइंड का, उसी दिन अहंकार के बाहर हो जाते हैं।
एक सम्राट था। एक फकीर ने उस सम्राट से कहा कि तू अगर चाहता है कि परमात्मा को पा ले, तो एक ही रास्ता है। तू मेरे झोपड़े पर आ जा और कुछ दिन मेरे साथ रह जा। उस सम्राट की बड़ी तीव्र प्यास थी और आकांक्षा थी। वह उस फकीर के झोपड़े पर चला गया। उस फकीर ने कहा: कल सुबह से तेरी शिक्षा शुरू होगी और शिक्षा बड़ी अजीब है। शिक्षा यह है कि कल सुबह से तू कुछ भी कर रहा होगा और मैं लकड़ी की तलवार लेकर तेरे पीछे से हमला कर दूंगा। तू खाना खा रहा होगा। तू झोपड़े में बुहारी लगा रहा होगा, तू कपड़े धो रहा होगा, तू स्नान करता होगा और मैं तेरे ऊपर तलवार से हमला कर दूंगा। लकड़ी की तलवार होगी। हमेशा सावधान रहना कि मैं कब हमला करता हूं। क्योंकि मेरा कोई ठिकाना नहीं। मैं कोई खोज-खबर नहीं दूंगा। पहले से रेडियो में कोई खबर नहीं निकालूंगा। अखबार में, स्थानीय कार्यक्रम में खबर नहीं होगी कि आज मैं यह करने वाला हूं। यह कोई खबर नहीं होगी, कोई घोषणा नहीं, कोई सूचना नहीं, किसी भी क्षण हमला कर दूंगा। तैयार रहना!
उस सम्राट ने कहा: लेकिन इससे मतलब क्या है?
वह फकीर बोला: अहंकार इसी भांति चैबीस घंटे न मालूम कहां-कहां से हमले करता है। सो मैं हमला करूंगा। मेरी तलवार का ख्याल रखना!
सात दिन में सम्राट की हड्डी-पसलियां टूट गईं। क्योंकि चैबीसों घंटे वह बूढ़ा फकीर न मालूम कब हमला करने लगा। वह सम्राट किताब पढ़ रहा है और हमला हो जाए! लेकिन सात दिन में उसे यह भी उसके ख्याल में आ गया कि सावधानी जैसी भी कोई चीज है, अलर्टनेस जैसी भी कोई चीज है। पहली दफा जिंदगी में उसे पता चला कि मैं अभी तक सोया-सोया जीता रहा। अभी तक मैं होश से नहीं जीया। कभी मैंने होश का ख्याल ही नहीं किया। लेकिन सात दिन बार-बार चुनौती मिली। चोट पड़ी। भीतर कोई चीज जागने लगी और ख्याल रखने लगी कि हमला होने को है। हमला होने को है। पंद्रह दिन पूरे होते-होते हमले की खबर उसे मिलने लगी। गुरु के पैर की धीमी सी आहट भी उसे सुनाई पड़ जाती थी। वह अपनी ढाल सम्हाल लेता और हमले से बच जाता। तीन महीने पूरे हो गए। हमला करना मुश्किल हो गया। किसी भी हालत में हमला किया जाए..वह हमेशा सावधान होता और रोक लेता।
उसके गुरु ने कहा: एक पाठ तेरा पूरा हो गया। कल से दूसरा पाठ शुरू होगा। और उसने पूछा कि इन तीन महीनों में तुझे क्या हुआ? उस सम्राट ने कहा: दो बातें हुईं। मैं हैरान हो गया। पहले तो मैं डर गया था कि इस लकड़ी की तलवार से चोट पहुंचाने का और परमात्मा से मिलने का क्या वास्ता? क्या संबंध? यह पागल तो नहीं है फकीर? मैं किसी पागल के चक्कर में तो नहीं पड़ गया? लेकिन इन तीन महीनों में मुझे पता चला कि जितना मैं सावधान रहने लगा, उतना ही मैं निर-अहंकारी हो गया। जितना मैं सावधान रहने लगा, उतना ही निर्विचार हो गया। जितना ही मैं होश से जीने लगा, उतना ही मन के विचारों की धारा क्षीण हो गई। क्योंकि मन एक ही साथ दो काम नहीं कर सकता..या तो विचार कर सकता है या जागरूक हो सकता है। या तो अवेयरनेस हो सकती है, या विचार हो सकते हैं। दोनों चीजें एक साथ नहीं हो सकतीं।
इसको थोड़ा देखना। जब विचार होंगे, सावधानी क्षीण हो जाएगी। जब सावधानी होगी, विचार क्षीण हो जाएंगे।
अगर मैं एक छुरी लेकर अभी आपकी छाती पर आ जाऊं, तो विचार एकदम बंद हो जाएंगे। क्योंकि उस खतरे में चित्त पूरा सावधान हो जाएगा कि पता नहीं क्या हो? इस समय विचार करने की सुविधा नहीं है, इस समय तो होश बनाए रखने की जरूरत है कि पता नहीं क्या हो?
एक क्षण में कुछ हो सकता है। तो आप जाग जाएंगे। तीन महीने में उस सम्राट ने कहा कि मैं एकदम जागा हुआ हो गया हूं। विचार शांत हो गए, अहंकार का कोई पता नहीं चलता है। दूसरा पाठ क्या है?
उस वृद्ध फकीर ने कहा: कल रात से ही हमला शुरू होगा। कल तू रात में सोया रहेगा तब भी दो-चार दफे हमले होंगे। अब रात में भी सावधान रहना! उस सम्राट ने कहा: जागने तक भी गनीमत थी। अब यह बात जरा ज्यादा हुई जाती है। नींद में मैं क्या करूंगा? मेरा क्या बस होगा नींद में? वृद्ध ने कहा: नींद में भी बस है, तुझे पता नहीं। सपने भी तू जो देखना चाहता है, वही देखता है। नींद में भी बस है। नींद में भी तेरे भीतर कोई जागा हुआ है और होश में है। चादर सरक जाती है और किसी को नींद में पता चल जाता है कि चादर सरक गई है। एक छोटा सा मच्छर काटने लगता है और नींद में कोई जान जाता है कि मच्छर आ गया है।
एक मां रात में सोती है, उसका बच्चा बीमार है। आकाश में बादल गरजते रहें या प्रधानमंत्रियों के हवाई जहाज उड़ते रहें, उनकी इसे कोई खबर नहीं मिलती। लेकिन बच्चा बीमार है, वह जरा सी आवाज करता है और मां जग जाती है और हाथ फेरने लगती है और पुचकारने लगती है कि बेटे सो जा! कोई भीतर होश से भरा हुआ है कि बच्चा बीमार है।
हम इतने लोग यहां हैं, हम सो जाएं आज रात यहीं, और फिर आधी रात में आकर कोई बुलाने लगे, राम! राम! सारे लोग सोए रहेेंगे, किसी को सुनाई नहीं पड़ेगा। लेकिन जिसका नाम राम है, वह आंख खोल देगा और कहेगा, कौन बुलाता है? इस आधी रात में कौन परेशान करता है?
इस आधी रात की निद्रा में भी किसी को पता है कि मेरा नाम राम है। इस नींद में भी कोई होश, कोई कांशसनेस सरकती है भीतर, कोई अंडरकरेंट है, चेतना है, कोई अंतर-धारा है।
उस बूढ़े ने कहा: फिकर मत कर। हम तो चुनौती खड़ी करेंगे। भीतर जो सोया है वह जागना शुरू हो जाएगा। जागने का एक ही सूत्र है: चैलेंज! चुनौती! जितनी बड़ी चुनौती भीतर हो, उतना बड़ा जागरण होता है। इसलिए धन्यभागी हैं वे लोग जिनके जीवन में बड़ी चुनौतियां होती हैं। दूसरे दिन से हमला शुरू हो गया।
रात सम्राट सोता और हमला होता। आठ-दस दिन में फिर वही हालत हो गई पहले वाली। हड्डियां-हड्डियां दुखने लगीं। लेकिन एक महीना पूरा होते-होते सम्राट को पता चला कि बूढ़ा ठीक कहता था।
बूढ़े अक्सर ठीक कहते हैं। लेकिन जवान सुनते ही नहीं। और जब तक उन्हें समझ आती है, तब तक वे भी बूढ़े हो जाते हैं। फिर दूसरे जवान उनकी नहीं सुनते। तो सम्राट ने कहा: ठीक ही कहते थे शायद आप! अब नींद में भी उसके हाथ सम्हलने लगे। रात नींद में भी गुरु आता दबे पांव, तो भी नींद में कोई जाग जाता, वह युवक बैठ जाता और कहता कि ठीक है! माफ कीरिए! मैं जाग गया हूं। अब कष्ट मत उठाइए मारने का।
नींद में भी हाथ...रात भर उसका ढाल पर ही बना रहता था। नींद में भी ढाल उठ जाती। तीन महीने पूरे हुए और उस पर नींद में भी हमला करना मुश्किल हो गया। गुरु ने कहा: क्या हुआ इन तीन महीनों में? दूसरा पाठ पूरा होता है।
उस सम्राट ने कहा: बड़ा हैरान हूं। पहले तीन महीनों में विचार खो गया, दूसरे तीन महीनों में सपने खो गए, ड्रीम्स खो गए, रात भर सपना नहीं है। मैं तो सोचता था कि बिना सपने के नींद ही नहीं हो सकती। अब मैं जानता हूं कि सपने वालों की भी कोई नींद होती है। अदभुत शांति छा गई है भीतर! एक सन्नाटा, एक साइलेंस पैदा हो गया है। मैं बड़े आनंद में हूं।
उसके गुरु ने कहा: जल्दी मत कर। बड़ा आनंद अभी थोड़ा दूर है। यह तो केवल आनंद की शुरुआत की झलकें हैं। जैसे कोई आदमी बगीचे के पास पहुंचने लगे, तो ठंडी हवाएं आने लगती हैं, फूलों की थोड़ी-बहुत खुशबुएं हवा में आ जाती हैं। अभी बगीचा आया नहीं, लेकिन बगीचे की खबर आनी शुरू हो जाती है। अभी आनंद मिला नहीं। केवल बाहरी खबरें मिलनी शुरू हुई हैं। कल से तेरा तीसरा पाठ शुरू होगा।
उस युवक ने कहा: दो ही अवस्थाएं होती हैं जागने और सोने की। तीसरा पाठ क्या है?
उस बूढ़े ने कहा: कल से असली तलवार से हमला होगा। अब तक नकली तलवार से हमला चलता था।
वह युवक बोला: यह भी गनीमत थी कि आप लकड़ी की तलवार से हमला करते थे। यह तो जरा ज्यादा हो जाएगी बात। असली तलवार से हमला? अगर मैं एक भी बार चूक गया तो जान गई!
उस बूढ़े ने कहा: जब यह पक्का पता हो कि एक भी बार चूका कि जान गई, तब कोई भी नहीं चूकता है। चूकता आदमी तभी तक है जब तक उसे पता चलता है कि चूक भी जाऊं तो कुछ जाने को नहीं। एक बार पता चल जाए कि चूका कि जान गई, तब प्राण अपनी पूरी ऊर्जा से जगते हैं, फिर चूकने का कोई मौका नहीं रह जाता।
उस बूढ़े ने कहा: मेरा गुरु था जिसके पास मैं सीखता था। उसने मुझे एक दिन सौ फीट ऊंचे दरख्त पर चढ़ा दिया। वह मुझे दरख्तों पर चढ़ना सिखाता, पहाड़ों पर चढ़ना सिखाता, नदियों में तैरना सिखाता, झीलों में डूबना सिखाता। वह बड़ा अजीब गुरु था। वह कहता था: जो पहाड़ पर चढ़ना नहीं जानता है, वह जीवन में चढ़ना क्या जानेगा? जो झीलों की गहराइयों में डूबना नहीं जानता, वह प्राणों की गहराइयों में डूबना क्या जानेगा? वह बड़ा अजीब गुरु था। उसने मुझे एक दरख्त पर चढ़ा दिया। मैं नया-नया चढ़ा था। जब मैं सौ फीट ऊपर पहुंच गया और जहां प्राण कंपते थे कि हवा का एक झोंका कहीं जान लेने वाला न बन जाए। पैर का जरा सरक जाना कहीं मौत न बन जाए।
वह गुरु चुपचाप नीचे आंख बंद किए झाड़ के पास बैठा रहा। फिर मैं धीरे-धीरे उतरने लगा। जब मैं जमीन के बिल्कुल करीब आ गया, कोई आठ-दस फीट दूर रह गया, तब वह बूढ़ा जैसे नींद से उठ गया और खड़ा हो गया और कहने लगा: सावधान बेटे! सम्हल कर उतरना। होशियारी से उतरना।
मैंने कहा: पागल हो गए हैं आप? जब जरूरत थी सावधानी की, तब आंख बंद किए सपने देख रहे थे, और अब जब मैं नीचे आ गया हूं, अब अगर गिर भी जाऊं तो कोई खतरा नहीं है, तब आपको होशियारी की याद दिलाने का ख्याल आया?
वह बूढ़ा कहने लगा: मैं अपने अनुभव से जानता हूं, जब तू सौ फीट ऊपर था, तब किसी को सावधान करने की कोई जरूरत न थी। तू खुद ही सावधान था। और अभी-अभी मैंने देखा है कि जैसे-जैसे जमीन करीब आने लगी है, तू गैर-सावधान होना शुरू हो गया। नींद पकड़ गई है तुझे। तो मैंने चिल्लाया कि सावधान! क्योंकि मैंने जीवन में देखा है लोग ऊंचाइयों से कभी नहीं गिरते, नीचाइयों पर गिर जाते हैं और मर जाते हैं। मैंने आज तक जिंदगी में देखा ही नहीं कि कोई आदमी कभी ऊंचाइयों से गिरा हो। लोग नीचाइयों में गिरते हैं और मर जाते हैं। इसलिए तुझे सावधान कर दिया।
उस बूढ़े ने कहा: कल से असली तलवार आती है। और कल से असली तलवार आ गई। लेकिन बड़ा हैरान हुआ वह सम्राट! लकड़ी की तलवार पर तो बहुत चोट उसके शरीर पर लगी थी, लेकिन असली तलवार से तीन महीने में एक भी चोट नहीं मारी जा सकी। तीन महीने पूरे होने को आ गए। उसका मन एक शांति का सरोवर हो गया। उसका अहंकार कहीं दूर छूट गया किसी रास्ते पर, पता नहीं कहां रह गया! जैसे जीर्ण-शीर्ण वस्त्र छूट जाते हैं या सांप अपनी केंचुल को छोड़ कर आगे बढ़ जाता है, वह कहीं छोड़ आया है पीछे उसको। याद भी नहीं रहा कि कभी मैं भी था। इतनी शांति हो गई है कि वहां कोई लहर भी नहीं उठती उस झील में।
तीन महीने पूरे होने को आ गए हैं। आज आखिरी दिन है। कल वह विदा हो जाएगा। उसके मन में ख्याल आया..सुबह-सुबह सूरज निकला है, वह बैठा है झोपड़े के बाहर..उसका गुरु काफी दूरी पर एक दरख्त के नीचे बैठ कर कोई किताब पढ़ रहा है। अस्सी साल का वृद्ध। उसके मन में ख्याल आया है..इस बूढ़े ने नौ महीने तक मुझे एक क्षण भी आलस्य में नहीं जाने दिया, एक क्षण भी प्रमाद नहीं करने दिया। हमेशा जगाए रखा। सावधान रखा। कल तो मैं विदा हो जाऊंगा। यह गुरु भी उतना सावधान है या नहीं, यह भी तो मैं देख लूं? तो उसने सोचा कि उठाऊं तलवार और आज उस बूढ़े पर पीछे से हमला कर दूं। मुझे भी तो पता चल जाए कि हमी को सावधान किया जाता है या ये सज्जन खुद भी सावधान हैं? उसने इतना सोचा ही था, सिर्फ सोचा ही था, अभी कुछ किया नहीं था। अभी सिर्फ सोचा था, बस सोचा था और उधर गुरु चिल्लाया उस झाड़ के नीचे से कि बेटा, ऐसा मत करना, मैं बूढ़ा आदमी हूं! वह बहुत हैरान हुआ! उसने कहा: मैने कुछ किया नहीं, मैंने केवल सोचा है।
तो उसे बूढ़े ने कहा: तू थोड़े दिन और ठहर जा। जब चित्त बिल्कुल शांत हो जाता है और मौन हो जाता है, जब अहंकार से बिल्कुल विदा हो जाती है, और जब विचार शून्य और शांत हो जाते हैं तब दूसरों के पैरों की ध्वनि ही नहीं सुनाई पड़ती, दूसरों के चित्त की पग-ध्वनियां भी सुनाई पड़ने लगती हैं। तब दूसरों के विचारों के पैर भी सुनाई पड़ने लगते हैं। विचार भी सुनाई पड़ने लगते हैं दूसरे के।
हम तो ऐसे अंधे हैं कि हमें दूसरों के कृत्य भी नहीं दिखाई पड़ते। विचार सुनाई पड़ना तो बहुत दूर की बात है।
लेकिन उस बूढ़े ने कहा था, जिस दिन इतना शांत हो जाता है चित्त, इतना जागरूक, उस दिन ही वह जो अदृश्य है, उसकी झलक मिलती है। उस परमात्मा के पैर सुनाई पड़ने लगते हैं, जिसके कोई पैर नहीं हैं। उस परमात्मा की वाणी आने लगती है, जिसकी कोई वाणी नहीं है। उस परमात्मा का स्पर्श मिलने लगता है, जिसकी कोई देह नहीं। सब तरफ फिर वह मौजूद हो जाता है।
जिस दिन हमारे भीतर वह रिसेप्टिविटी, वह ग्राहकता उत्पन्न होती है शांति की, उसी दिन वह सब तरफ मौजूद हो जाता है। फिर वृक्ष के पत्तों में वही है, राह के पत्थरों में वही है, सागर की लहरों में भी, आकाश के बादलों में भी, आदमियों की आंखों में भी, पशु-पक्षियों के प्राणों में भी..फिर सबमें वही है। जिस दिन भीतर वह रिसेप्टिविटी, वह जीवन की पग-ध्वनि सुनने की ग्राहकता उपलब्ध हो जाती है, वह पात्रता उपलब्ध हो जाती है।
पता नहीं उस सम्राट का फिर क्या हुआ। पता नहीं उस बूढ़े फकीर का फिर क्या हुआ। लेकिन मुझे और आपको, उससे प्रयोजन भी क्या है? जहां उनकी कहानी खतम होती है, अगर वहीं आपकी कहानी शुरू हो जाए, तो बात पूरी हो जाती है। क्या आप भी अपने भीतर इतने जागने का सतत श्रम करने को तत्पर हैं? अगर हां, तो जीवन की संपदा आपकी है। अगर हां, तो परमात्मा खुद आपके द्वार चला आएगा। आपको उसके द्वार जाने की जरूरत नहीं। और यह बात कितनी ही कठिन मालूम पड़ती हो, जो लोग चलने के आदी नहीं होते, उन्हें यात्राओं की लंबाइयां बहुत बड़ी दिखाई पड़ती हैं। उन्हें डर लगता है, एक ही, छोटे से तो पैर हैं हमारे पास, हजारों मील की यात्रा हम कैसे पूरी कर सकेंगे? लेकिन अगर एक कदम भी उठाने के लिए वे तैयार हो जाएं, तो हर कदम उठाया गया आने वाले कदम के लिए भूमि बन जाता है, बल बन जाता है, शक्ति बन जाता है। और छोटे से कदमों से आदमी पूरी पृथ्वी की परिक्रमा कर सकता है। और छोटे से मन की सामथ्र्य, छोटे से प्राणों की सावधानी से, थोड़े से हृदय की शांति से मनुष्य परमात्मा की परिक्रमा भी कर सकता है।
इन तीन दिनों में तीन छोटी सी बातें मैंने आपसे कहीं..आनंद का भाव। अहोभाव। अज्ञान का बोध। और आज आपसे कहता हूं: स्वयं के जीवन-कृत्यों, विचारों के प्रति जागरूकता।
तीन खूंटियां मैंने आपसे कहीं। थोथे ज्ञान की खूंटी है, दुखपूर्ण जीवन को देखने की वृत्ति की खूंटी है, और अस्मिता की, अहंकार की, ईगो की खूंटी है। इन तीन से जो मुक्त हो जाता है उसकी नौका परमात्मा के सागर की यात्रा पर निकल जाती है। फिर उसे नाव खेनी भी नहीं पड़ती। वे पागल युवक रात भर नाव खेते रहे!
रामकृष्ण कहते थे: एक बार नाव की जंजीर तो खोल दो। एक बार नाव का पाल तो खोल दो। फिर तो उसकी हवाएं नाव को ले जाएंगी, गंतव्य तक पहंुचा देंगी, मंजिल तक पहुंचा देंगी। फिर तुम्हें पतवार भी नहीं चलानी होगी। उसकी हवाएं तुम्हें ले जाएंगी। उसकी हवाएं ले जाने को हमेशा खड़ी हैं। लेकिन हमारी नाव बंधी है, हमारा पाल बंधा है। हम व्यर्थ ही श्रम किए जाते हैं और व्यर्थ हुए जाते हैं।
ये थोड़ी सी बातें तीन दिनों में मैंने कहीं। हो सकता है कोई बात आपके प्राणों के किसी कोने में बीज बन जाए और अकुंरित हो उठे और कोई वृक्ष बन जाए। वह वृक्ष आपको भी छाया देगा और उन सबको भी, जो आपके निकट हैं। वैसा छायादार वृक्ष बन जाना ही धार्मिक जीवन को उपलब्ध कर लेना है।
मेरी बातों को इतनी शांति से तीन दिन सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं।
और अंत में एक छोटी सी बात, जो श्री दुर्लभ जी भाई खेतानी ने कही, उसके संबंध में दो शब्द कह कर मैं अपनी बात पूरी कर देता हूं।
देश को, समाज को, मनुष्य को, जैसा वह आज है, उसे देख कर जिस आदमी के हृदय में आंसू न भर जाते हों, वह आदमी या तो मर चुका है या मरने के करीब है। जो आदमी भी जीवित है, वह आज के देश की, आज के समाज की, आज के मनुष्य की दशा को देख कर रोता होगा। उसकी हंसी झूठी होगी, उसकी रातें उसके तकियों को उसकी आंखों के आंसुओं से गीला कर देती होंगी। मुझे पता नहीं आपका, लेकिन मैं अंधकार में अक्सर रो लेता हूं। आदमी जैसा है उसे देख कर सिवाय रोने के और कुछ ख्याल भी नहीं आता। लेकिन रोने से कुछ भी नहीं हो सकता है। कुछ करना जरूरी है। और अगर हम कुछ नहीं कर सके गिरते हुए चरित्र में खोती हुई आत्मा के लिए, पूरे देश की प्रतिभा नष्ट होती हो, पूर प्राण बिखरते जाते हों, आदमी रोज नीचे से नीचे उतरता जाता हो, और अगर हम कुछ न कर सके, तो आने वाले भविष्य की अदालत में हम अगर अपराधी ठहराए जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
हम अपराधी हैं। हम आने वाले जीवन के लिए क्या छोड़ जाते हैं? हम आने वाले बच्चों और पीढ़ियों के लिए क्या निर्मित कर रहे हैं? हम उन्हें कौन सा जीवन दे रहे हैं? हम उन्हें कौनसा मार्ग दे रहे हैं? हम उन्हें कौनसा संकल्प दे रहे हैं? हम उन्हें कौनसी आशा दे रहे हैं? कौनसा भविष्य दे रहे हैं? कौनसी डेस्टिनी दे रहे हैं?
हम कुछ भी नहीं दे रहे हैं। हम कुछ बीमारियां दे रहे हैं। कुछ रुग्णताएं दे रहे हैं। कुछ पागलपन दे रहे हैं। हम बच्चों को विक्षिप्त बनाने की दिशा में अग्रसर कर रहे हैं।
इधर जितना यह सब जब मैं देखने लगा और देश के कोने-कोने में गया और लाखों लोगों की आंखों में झांका, और एक भी आंख में मुझे आनंद की कोई झलक न मिली; और एक भी प्राण में मुझे कोई संगीत गूंजता हुआ सुनाई नहीं पड़ा; और एक भी व्यक्ति मुझे ऐसा नहीं मिला जिसे हम कह सकें कि उसे जीवन को पाकर वह धन्य हो गया है।
तो मेरी रातें बहुत दुख और अंधेरे और आंसुओं से भर गई हैं। और इधर मुझे लगने लगा कि कुछ किया जाना जरूरी है। चुपचाप राह के किनारे खड़े होकर देखना खतरनाक है। और जो आदमी चुपचाप राह के किनारे खड़े होकर देखता है, वह भी भागीदार है, वह भी हिस्सेदार है, वह भी...अगर गलत हो रहा है तो जिम्मेवारी उसकी भी होगी। गए वे दिन जब संन्यासी दूर खड़े हो जाते और कहते कि जीवन से हमें क्या लेना-देना। इन्हीं संन्यासियों ने, जीवन को नहीं बदला जा सका अगर, तो इन्हीं संन्यासियों पर उसकी जिम्मेवारी चली जाएगी। वे बदल सकते थे जिंदगी को, अगर वे कहते कि हमें जिंदगी से बहुत कुछ लेना-देना है, हम जिंदगी को गलत देखने को राजी नहीं हैं। हम जीएंगे तो जिंदगी को ठीक बनाने के प्रयास में जीएंगे।
इधर एक संकल्प, इधर कोई परमात्मा की आवाज जोर से मेरे मन में कहने लगी कि मुझमें जो बन सके थोड़ा वह करना चाहिए। हो सकता है एक ही आदमी बदल सके। तो बहुत बड़ी बात हो जाएगी। अंधेरे घर में एक भी दीया जल जाए तो बहुत बड़ी बात हो जाती है। फिर इस दिशा में यह थोड़ा सा सोचा कि कोई एक केंद्र हो और वहां मनुष्य के जीवन के परिवर्तन की कला, आर्ट अॅाफ लिविंग पर, जीवन को बदीलने के विज्ञान पर, जीवन को बदलने की दिशा में कुछ किया जा सके। बहुत कुछ किया जा सकता है। आदमी बिल्कुल नया किया जा सकता है। आदमी के भीतर बिल्कुल नई चेतना को जन्म दिया जा सकता है। क्योंकि मेरा ख्याल यह है कि जब गलत हो सकता है आदमी, तो ठीक भी हो सकता है, क्योंकि अगर वह ठीक न हो सकता हो, तो फिर गलत भी नहीं हो सकता है। जो आदमी बीमार हो सकता है वह स्वस्थ भी हो सकता है। अगर स्वस्थ न हो सकता हो, तो फिर बीमारी की भी कोई संभावना नहीं रह जाती।
आदमी गलत है, सब भांति गलत है। वह ठीक भी हो सकता है। इस दिशा में मैं क्या कर सकता हूं? मेरी आवाज अकेली है। लेकिन फिर बहुत मित्रों को पास पाकर मुझे ऐसा ख्याल हुआ कि आवाज अकेली नहीं है, बहुत से हृदयों की धड़कन उसके साथ हो सकती है। बहुत से लोग उसमें सहभागी और साझेदार हो सकते हैं। और एक जीवन-क्रांति का पूरा आंदोलन, जीवन-क्रांति का एक पूरा विश्वविद्यालय, और मुल्क के कोने-कोने तक आदमी को बदलने के लिए चुनौती और प्रेरणा देने वाली कोई हवा बहाई जा सकती है। तो उस हवा के बहाने में आपका भी साथ मिले, इसके लिए निवेदन और प्रार्थना करता हूं।
वह साथ आपके पैसे का उतना नहीं है। पैसे का कोई भी बड़ा मूल्य नहीं है। वह आपके प्रेम का साथ है। अगर आप हृदय से साथ हैं, तो पैसा उसके लिए बहुत इकट्ठा हो जाएगा। वह कभी सवाल ही नहीं है। और अगर आप हृदय से साथ नहीं हैं, तो कितना ही पैसा इकट्ठा हो जाए, उसका दो कौड़ी कोई मूल्य नहीं है।
तो मैं आपके प्रेम के लिए और आपके साथ और शुभकामना के लिए प्रार्थना करता हूं। उस शुभकामना के पीछे और सब अपने आप चला आता है। अगर आपको लगता है, अगर आपके प्राणों में कहीं ऐसा प्रतीत होता है, कहीं हृदय में ऐसी कोई आवाज उठती है कि इस देश के लिए, समाज के लिए, मनुष्य के लिए कुछ किया जाना जरूरी है, कोई संकल्प पैदा होना जरूरी है, कोई आंदोलन, कोई हवा, मनुष्य की आत्मा को जगाने के लिए कोई तीव्र विचार देश के कोने-कोने तक गूंज जाना जरूरी है। अगर ऐसा प्रतीत होता है तो प्रतीत होने के बाद अगर आप दूर खड़े रहते हैं, तो मुल्क के उन हत्यारों में आपकी भी गिनती होगी जो चारों तरफ मुल्क की हत्या किए जा रहे हैं। उसमें राजनीतिज्ञ सम्मिलित हैं, धर्मगुरु सम्मिलित हैं, और न मालूम किस-किस तरह के लोग सम्मिलित हैं। उसमें सब तरह के लोग सम्मिलित हैं मुल्क की हत्या करने में।
उस मुल्क को बड़ी हत्या से बचाने के लिए आपका साथ, आपकी मैत्री, आपके प्रेम की मैं मांग करता हूं। और यह मांग भीख नहीं है। यह मांग मैं अपना अधिकार मान लेता हूं। जिन्हें मैं प्रेम करता हूं उनसे मैं अधिकार पूर्वक मांग सकता हूं। और जो मैं मांगूंगा उसके लिए आप देंगे तो मैं आपको धन्यवाद भी देने वाला नहीं हूं। धन्यवाद आपको ही मुझे देना पड़ेगा कि मैं उसे लेने को राजी हो गया हूं। पैसे का हिसाब-किताब तो दुर्लभजी भाई रखेंगे, लेकिन मैं आपका हिसाब-किताब रखना चाहूंगा।
तो अगर इस संकल्प में, इस महा संकल्प में, शुभ संकल्प में आपके मन की धड़कन साथ है, तो मैं चाहूंगा कि आप अपने दोनों हाथ उठा कर मुझे बल दे दें कि आप मेरे साथ हैं। जो भी साथ हैं वे अपने दोनों हाथ ऊपर उठा लें। वह उनके प्रेम का साथ है..न उनके पैसे का, न उनकी किसी और शक्ति का, उनके हृदय का और उनकी आत्मा का। मैं आपको धन्यवाद देता हूं और प्रार्थना करता हूं कि आपने जो संकल्प जाहिर किया है वह संकल्प मेरा या आपका नहीं, परमात्मा का होगा, और उससे कुछ परिणाम निकल सकते हैं।

अंत में तीन दिनों तक मेरे पास बैठ कर इतने प्रेमपूर्ण, इतनी शांति से मेरी बातों को सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुग्रह प्रकट करता हूं। और सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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