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सोमवार, 27 अगस्त 2018

जीवन की कला-(विविध)-प्रवचन-07

सातवां-प्रवचन-(आध्यात्मिक और लौकिक जीवन)

एक भाई ने पूछा कि क्या आध्यात्मिक और लौकिक जीवन भिन्न-भिन्न हैं या एक हैं?
ये अब भिन्न-भिन्न माने गए हैं, बल्कि विरोधी माने गए हैं। जो लौकिक को छोड़े वही आध्यात्मिक हो सकता है। लेकिन यह मान्यता बिलकुल ही शत-प्रतिशत भ्रांत और गलत है। आध्यात्मिक और लौकिक जीवन विरोधी तो हैं ही नहीं, भिन्न-भिन्न भी नहीं। आध्यात्मिकता लौकिक जीवन को सम्यक रूप से जीने से उपलब्ध होने वाला गुण है। वह कोई जीवन नहीं है। वह जो लौकिक जीवन को ठीक से जीना सीख जाता है उसे आध्यात्मिकता उपलब्ध होती है। जो लौकिक जीवन को ठीक से नहीं जी पाता है, उसे गैर आध्यात्मिकता उपलब्ध होती है। आध्यात्मिकता सुगंध है, लौकिक जीवन ठीक से विकसित हो तो अनिवार्यतः आ जाती है। इसलिए आध्यात्मिकता को कोई जीवन न समझे। वह लौकिक जीवन की ठीक से जीने की निष्पत्ति है। वह उसका फल है, विरोध तो बिलकुल नहीं है। लेकिन विरोध माना गया है और उसके कारण आध्यात्मिक जीवन पैदा भी नहीं हो सका।
क्योंकि जो लौकिक जीवन के जीने के ढंग से ही निकलने वाली सुगंध थी, उसे हमने इस जीवन की विरोधी मान कर उसकी संभावना नहीं थी।
अब तक यही समझा गया कि जिसे प्रभु की तरफ जाना है, उसे संसार को छोड़ कर ही जाना पड़ेगा और संसार छोड़ता सारी आध्यात्मिकता की पूरी प्रक्रिया हो गई। कि हम कितना संसार छोड़ गए। संसार छोड़ने से कोई प्रभु के पास नहीं जाता। संसार छोड़ने से मनुष्य और अहंकारी बनता है, लेकिन उन्हें कोई आध्यात्मिक जीवन उपलब्ध नहीं होता। जितना वह छोड़ता है, जितना त्याग करता है, उतना उसको लगता है कि वह छोड़ दिया और मन मजबूत और प्रगाढ़ एवं प्रबल होता जाता है।
इसलिए संन्यासी के पास जितना प्रगाढ़ अहंकार होता है, उतना अहंकार साधारण गृहस्थ के पास कभी नहीं हो सकता है। हो भी नहीं सकता है। यही वजह है कि दुनिया के सारे धर्म एक-दूसरे के शत्रु से सिद्ध हैं। क्योंकि तथाकथित धार्मिक आदमी अहंकार से भरा है, उससे दूसरे की मित्रता, ऋषि-मुनि एक दूसरे से मिलने में भी असमर्थ हो गए हैं। अहंकार इतना प्रगाढ़ और मजबूत है। यह जो सारा का सारा हमारी मान्यता रही है कि हम लौकिक जीवन से विपरीत आध्यात्म को समझें, उसने अहंकारी जीवन पैदा किया, उसने आध्यात्मिक जीवन पैदा नहीं किया। मेरी वैसी समझ नहीं है। मैं मानता हूं कि लौकिक जीवन ही अकेला जीवन है। कोई और जीवन होता नहीं, न हो सकता है। गलत जी सकते हैं और ठीक जी सकते हैं लौकिक जीवन, यह दूसरी बात है। लेकिन लौकिक जीवन के अतिरिक्त कोई जीवन नहीं होता। .
एक आदमी घर छोड़ कर चला गया तो आप समझते हैं कि लौकिक जीवन छोड़ दिया। तो आश्रम बनाएगा, तो आश्रम में जीएगा और रहेगा। और लौकिक जीवन नई व्यवस्था से फिर गतिमान होगा। एक आदमी धन कमाना छोड़ देगा तो भीख मांगने का आयोजन करेगा और लौकिक जीवन यहीं से शुरू होता है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि धन कमाना तो लौकिक जीवन है लेकिन दूसरे धन कमाते हैं तो उनसे मांगना लौकिक जीवन नहीं है। चोरी करना, लौकिक जीवन है, लेकिन चोर से मंदिर बनवाना, मंदिर में दान लौकिक जीवन नहीं है। यह आध्यात्मिक जीवन है। लौकिक जीवन के बाहर से जीने का कोई उपाय नहीं है। खाएंगे तो, पीएंगे तो, उठेंगे तो, चलेंगे तो, लौकिक जीवन। तो लौकिक जीवन के बाहर जाइएगा कैसे? एक आदमी दुकान चलाएगा, दूसरा आदमी आंदोलन चलाएगा। और दुकान चलाने वाला आदमी जितना दुकान से बंधा होता है, आंदोलन चलाने वाले उस दुकान चलाने वाले से कम बंधे नहीं होते। पकड़ उतनी ही, जकड़ उतनी ही है, सुखी-दुखी उतने ही, आंदोलन सफल होता है तो सुखी होते हैं, आंदोलन सफल नहीं होता है तो दुखी होते हैं। दुकानदार दुकान चलती है तो सुखी होता है, नहीं चलती है, तो दुखी होता है। लेकिन लौकिक जीवन से जाइएगा कहां? जीवन मात्र लौकिक है।
तो सवाल कुल इतना ही रह जाता है कि लौकिक जीवन ठीक से जीआ जाए या गलत ढंग से जीया जाए? ठीक से जीवन जीआ जाता है, उसको मैं आध्यात्मिक कहता हूं। कैसे जो ठीक से जीता है लौकिक जीवन को, उसे मैं संन्यासी कहता हूं जो ठीक से नहीं जीता, उसे मैं संसारी कहता हूं। शायद ठीक से जीने वाला व्यक्ति न तो जीवन को छोड़ता है, न भाता है और जब उन्हें कोई जीवन छोड़ता या भागता हुआ दिखाई पड़ता है तो हम समझते हैं कि वह दौड़ रहा है। और भाग रहा है। एक आदमी हाथ में पत्थर लिए जा रहा हो और उसे हीरे दिखाई पड़ रहे हों और वह पत्थर वहीं गिरा दे तो हमें जिन्हें हीरे दिखाई नहीं पड़े, हम सोचेंगे कि उसने पत्थर का त्याग कर दिया। वह आदमी कोई त्याग नहीं कर रहा है, त्याग संभव ही नहीं। वह आदमी हीरे के लिए केवल हाथ खाल कर रहा है। महावीर घर छोड़ देते हैं। तो हमको लगता है कि महावीर संसार छोड़ गए। महावीर के लिए कोई वृहत्तर आनंद निमंत्रण दे रहा है जो सामने खड़ा है। और जिसे हम घर-द्वार कहते हैं। वह महावीर के लिए घर-द्वार रहा नहीं। महावीर के जीवन में एक अदभुत उल्लेख है। उनके पिता और मां जिंदा थे तो महावीर ने अपनी मां से आज्ञा चाही कि मैं आनंद की और बड़ी खोज में जाना चाहता हूं। तो उनकी मां ने कहा कि मेरे रहते संभव नहीं है कि मैं तुम्हें जाने दूं। तो मेरे जीते जी घर छोड़ने की कभी बात नहीं करना। मेरे लिए वह मृत्यु से भी ज्यादा दुखद है। तो महावीर का जीवन कहता है कि महावीर रुक गए। मां के जीते जी बाहर जाने की बात भी नहीं की। दो वर्ष बाद मां चल बसी। तो पिता को कहा कि मां ने कहा था कि मैं जब तक जीऊं तब तक बाहर जाने की बात मत उठाना। अब मैं वृहत्तर आनंद की खोज में जाना चाहता हूं। तो अब मैं जाऊं? पिता ने कहा कि मेरे जीते जी यह बात मत करो। फिर कुछ दिन बाद पिता भी चले गए। तो महावीर ने बड़े भाई से कहा कि मैं जाऊं? तो बड़े भाई ने कहा कि मेरे ऊपर दो-दो आघात हुए कि मां और पिता चले गए और तुम इस वक्त जाने की बात कहते हो। यह बात मत करो। तो फिर महावीर ने यह बात ही बंद कर दी। लेकिन साल छह महीने बीतते-बीतते घर के लोगों को पता चला कि महावीर घर में हैं, लेकिन हैं भी नहीं। उनका घर में होना न होना बिलकुल बराबर हो गया। उनकी घर में मौजूदगी गैर-मौजूदगी बराबर हो गई। घर में आप शरीर की वजह से आप थोड़े ही होते हैं। घर में होते हैं अपेक्षाओं की वजह से, आग्रह की वजह से, घर में होते हैं आप हर आदमियों के बीच में आड़ में खड़े हो जाते हैं।
महावीर ऐसे हो गए कि जैसे हैं ही नहीं। किसी प्रयोजन से प्रयोजन न रहा। किसी बात का कोई आग्रह न रहा। जो होता था, होता था। जैसा कि महावीर उस घर में होते तो जैसा चलता था, वैसा चलने लगा। तो भाई ने और घर के लोगों ने सोचा कि महावीर तो घर से जा ही चुका है अब उसे रोकना व्यर्थ है। और उन्होंने उनसे क्या प्रार्थना किया कि आप एक अर्थ में हैं ही नहीं। तो हम आपको रोक कर भी क्या करें?अब आपको जहां होना हो आप वहां जाएं। तो महावीर चल पड़े। तो मेरी अपनी समझ यह है कि अगर उनके भाई उनसे यह न कहते तो महावीर कभी उस घर को छोड़ कर गए ही न होते, लेकिन जीने की व्यवस्था उन्होंने उस घर के भीतर खोज ली थी। कैसे जीना--अनाग्रही, अनासक्त, कैसे जीना, शून्यवत्, कैसे जीना कि जिससे हो ही नहीं, यह उन्होंने सूत्र खोज लिया था और वह घर में भी पूरा हो सकता है, वह जंगल में भी पूरा हो सकता है और बाजार में भी और दुकान में भी पूरा हो सकता है। ठीक से कैसे जीना वह सवाल है? कौन सा जीवन अख्तियार करना, वह सवाल ही भ्रांत है। इस संबंध में एक बहन ने पूछा है और किसी एक ने पूछा है। तो मैं आपसे कहना चाहता हूं कि मन यदि अक्रिया को उपलब्ध हो जाए, तो प्रभु की उपलब्धि होती है।
जीवन में ठीक से जीने का अर्थ है कि जैसे कर्म करना कि जैसे कि आप नहीं कर रहे हैं। भीतर अक्रिया हो और उस अक्रिया के केंद्र पर ही जीवन का सारा कर्म निर्मित हो, तो आपने ठीक से जीने की कला खोज ली है। आप आध्यात्म की तरफ विकसित हो जाने वाले हैं। एक बैलगाड़ी चल रही है। चाक घूमता हुआ दिखाई पड़ता है, लेकिन शायद आपको खयाल नहीं हो कि चाक घूम रहा है इसलिए कि कील चाक के बीच में खड़ी हुई है और नहीं घूम रही है। तो यह जो कील की अक्रिया है, उस पर चाक की सारी क्रिया चल रही है। और कील की अक्रिया छूट जाए तो चाक की गति अभी टूट जाने वाली है। चाक वहीं ठहर जाएगी। कील की अक्रिया पर चाक की सारी क्रिया और चाक उसी वक्त तक कुशलता से चलेगा जब तक कील कुशलता से ठहरी हुई हो। अक्रिया और क्रिया में विरोध नहीं है। क्रिया के वृत्त परिधि को अक्रिया की कील पर ठहराया जा सकता है।
आपका चित्त अक्रिया में हो और जीवन विराट क्रिया में, तो यह जो कला है वह एक दिन आध्यात्मिक सुगंध को जीवन में लाए बिना नहीं रहती। अकर्म नहीं है अध्यात्म में। ऐसा कर्म हो, जहां कर्ता विलीन हो गया है। ऐसा कर्म है, जहां करने वाले का अहंकार समाप्त हो गया। यह जो मैंने कल सुबह कहा कि मन जब अक्रिया में हो तो हम शांत और शून्य होते हैं। तब प्रभु का द्वार खुल जाता है। हमें मन की अक्रिया का कोई खयाल नहीं है, कोई पता नहीं है। हम तो इस भांति जीये चले जाते हैं कि चैबीस घंटे मन की क्रिया चलती रहती है। सो करके भी चलती रहती है, उठते भी चलती है, बैठ कर भी चलती है। जैसे एक आदमी चलता है और तब उसका पैर चले, यह तो समझ में आता है। वह बैठ जाए और बैठ कर पैर चलाता रहे तो हम कहेंगे कि वह पागल है। मन की जब जरूरत हो तो वह चले, वह समझ में आता है और जब जरूरत न हो तो वह मौन हो जाए। और जितनी मन की क्षमता बढ़ेगी, उतनी ही जब चलने की जरूरत होगी जब उतनी ही कुशलता और शक्ति पास में आएगी। एक आदमी दिन भर चलता रहे तो फिर थोड़े ही दिन के बाद चलने में वह असमर्थ हो जाने वाला है। और हम मन को चलाते हैं तो दिन भर, लेकिन धीरे-धीरे मन मंद होता चला जाता है।
शक्ति क्षीण होती जाती है कुछ दिनों बाद मन के चलने की दौड़ तो चलती रहती है। लेकिन उपलब्धि कुछ भी नहीं रह जाती। मन को शून्य में ले जाने की, अक्रिया में ले जाने के लिए क्या करें? जैसा मैं कल सुबह कहा थोड़ी देर के लिए, चैबीस घंटे में थोड़े समय के लिए मन की क्रिया को देखने वाले साक्षी रह जाएं। लड़ें मत। क्योंकि लड़ना फिर क्रिया है। इसलिए जो आदमी मन को शांत करने की चेष्टा करता है,वह मन क्रिया करता है, उससे मन कभी शांत नहीं होगा। क्योंकि क्रिया से क्रिया कभी शांत करने के लिए ओम-ओम का जाप कर रहा है, एक आदमी मन को शांत करने के लिए भगवान पर ध्यान केंद्रित कर रहा है, वह सब क्रिया कर रहे हैं और क्रिया से क्रिया मिटेगी नहीं रूपांतरित हो सकती है। यह हो सकता है कि मन एक क्रिया छोड़ कर दूसरी क्रिया पकड़ ले। लेकिन सवाल दूसरी क्रिया पकड़ने का नहीं, सवाल अक्रिया में जाने का है। अक्रिया का सूत्र कोई दूसरी क्रिया का सीखना नहीं है। अक्रिया का एक ही सूत्र है साक्षी रह जाना।
साक्षी एकमात्र अक्रिया है। सिर्फ द्रष्टा रह जाना। सिर्फ देखने वाला रह जाना। मन चल रहा है, न मालूम संगत-असंगत विचार चल रहे हैं। कभी घड़ी आघ घड़ी को चुपचाप बैठ कर मन को देखते रह जाना। सिर्फ निरीक्षण और वह निरीक्षण भी बिना किसी निर्णय के। कि मन में एक विचार आया कि मैं चोरी करूं तो यह निर्णय भी नहीं लेना है कि बुरा विचार आया। क्योंकि बुरा विचार आया तो फिर क्रिया शुरू हो गई, बुरे विचार का दमन शुरू हो जाएगा। भगवान का विचार आया तो लगा कि बहुत अच्छा विचार आया। तो रस शुरू हो गया। जिसमें रस नहीं है, उसके साथ हम जुड़ जाएंगे। तो मन में क्या चल रहा है। बुरा या भला, कुछ भी चल रहा है, अंधेरा या उजाला, उसे ऐसे देखते रहे हैं कि हमें सिवाय देखने के और कुछ भी नहीं लगे। आधी घड़ी भी चैबीस घंटे में अगर कोई इस भांति मन को देखे कि मन के साथ कुछ भी नहीं करना है, खड़े रहना है और देखना है।
तो आप हैरान हो जाएंगे। बहुत शीघ्र आपको पता चलेगा कि मन में अंतराल आना शुरू हो गया है। जब थोड़ी देर के लिए मन शून्य के गर्त में उतर जाना है। थोड़ी देर के निरंतर साक्षी के भाव से ऐसी घड़ी शुरू होगी कि घंटों बीत जाएं और मन खाली रह जाए। फिर क्षमता बढ़ेगी और तब नये प्रयोग किये जा सकते हैं कि मन खाली है ध्यान करते वक्त। फिर उसके घर में बुहारी लगाने लगे हैं और या चरखा कातने लगे हैं। तो ध्यान रखना है कि वह साक्षी का भाव मन के प्रति था, वही साक्षी का भाव चरखे के प्रति या बुहारी के प्रति भी जारी रहेगी। जो मन की क्रिया के प्रति साक्षीभाव था, वह शरीर की क्रिया के प्रति भी जारी रहेगा।
तो मैं जो दूसरी बात कह रहा था कि कर्म के पीछे अकर्म का भाव धीरे-धीरे निर्मित हो जाता है। तब आप जीते हैं, बहुलता से जीते हैं, विविधता से जीते हैं और गहराई से जीते हैं। लेकिन तथाकथित जीने की कोई पकड़ आपके ऊपर नहीं रह जाती। ऐसे व्यक्ति को मैं संन्यासी कहता हूं, ऐसे व्यक्ति को मैं आध्यात्मिक खोजी कहता हूं। और ऐसे व्यक्ति के जीवन में वह धीरे-धीरे उतरना शुरू होता है, जिसका नाम आध्यात्म है, इसका लौकिक जीवन से कोई विरोध नहीं होता।
अक्रिया का सूत्र हैः साक्षीभाव।
और साक्षीभाव बहुत घबड़ाने वाली बात है। क्योंकि हमसे कोई कुछ करने को कहे तो एकदम से समझ में आता है। करना हम जानते हैं, अगर कोई हमसे कहे कि राम-राम कहो तो वह समझ में आता है, कोई कुछ और कहे तो समझ में आता है। करना हमारी हमेशा समझ में आता है। साक्षी भाव एकदम से समझ में नहीं आता। क्योंकि वह न करना है। तो थोड़ा सा अनुभव करेंगे तो खयाल में आएगा। मेरे कहने से नहीं। जैसे बगीचे में बैठे हैं, थोड़ा सा एक्सपेरिमेंट, थोड़ी सी क्रिया प्रयोग कि फूल को देखूं, सोचूं नहीं।
एक फूल को सिर्फ पांच मिनट देखूं, सोचूंगा नहीं। क्योंकि सोचना एक क्रिया है। सिर्फ देखूंगा, देखता ही रहूंगा कि ‘जस्ट टू बी’ क्या होता है। तो पांच मिनट बैठने पर कभी किसी क्षण में ऐसा लगेगा कि सोचना बंद था, मैं सिर्फ साक्षी रह गया था। फूल था और मैं था। और बीच में कुछ भी नहीं था। रास्ते पर चल रहे हैं और लोग जा रहे हैं, कभी प्रयोग करते रहें कि मैं सिर्फ देखूंगा, कोई निर्णय नहीं लूंगा कि जो जा रहा है वह राम है कि रावण है। अच्छा है कि बुरा है, हिंदू है कि मुसलमान है। साधु है कि गुंडा है, कोई निर्णय नहीं लूंगा और रास्ते पर चलते हुए लोगों को बस देखूंगा। तो कभी किसी क्षण में जैसा लगेगा कि आदमी जो मैंने देखा और कोई नहीं था, सिर्फ वह आदमी था और मैं था। तो साक्षी का अनुभव धीरे पकड़ में आएगा कि क्या साक्षी का अनुभव है। तो इसको जितना प्रयोग कर सकें साक्षी को उतना करें और घड़ी आध घड़ी को कभी आंख बंद करके किसी कोने में चुपचाप बैठ जाएं और गहरा प्रयोग करें। साक्षी का कि हम सिर्फ देखते रहेंगे। लेकिन एक दिन देखने से हो जाएगा ऐसा मैं नहीं कहता हूं। अक्सर तो यह होगा कि पहले दिन कि मन किसी और क्रिया में संलग्न हो जाएगा जितना और कभी भी नहीं हुआ था। क्योंकि आप उतने खाली कभी भी बैठे नहीं थे कि मन को थोड़ा मौका क्रिया करने का न होता। तो प्राथमिक रूप से जब प्रयोग करेंगे तो मन और जोर से क्रिया करेगा और उससे घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है। उससे कह दें कि करो मेरी कोई रोक नहीं है। मैं सिर्फ देखने के लिए हूं।
लेकिन हमारी जो तथाकथित नैतिक शिक्षा है, वह साक्षी नहीं बनने देती तो हमने बुरे विचारों को दबा रखा है और अच्छे-अच्छे विचारों को ऊपर कर रखा है और बुरे-बुरे विचारों को नीचे कर रखा है। तो जब आप साक्षी बनने बैठेंगे तो सारे बुरे विचार ऊपर उठने शुरू होंगे, जिनसे आपको घबड़ाहट होती है, उनको हम खुद दबा देते हैं और जब तक आपके बुरे विचारों को दबाते हैं तब तक आप साक्षी नहीं होते हैं। इसलिए वह सुबह जो हमने कहा कि हमें एक सहज मनुष्य चाहिए और सहज मनुष्य वही होगा जो अपने भीतर की समग्रता को स्वीकार करता है। जो मेरे भीतर है वह है। अगर चोरी का खयाल है, तो है। उससे दबाने से मैं मुक्त होने वाला नहीं हूं। उससे जानना ही है, उसे पहचानना ही है। उससे परिचित होना ही है कि जो भी मेरे भीतर है, उसे मैं मुक्त भाव से मैं प्रकट होने दूंगा और देखूंगा और पहचानूंगा। और बड़े आश्चर्य की बात तो यह है और वह बड़ा रिडिकुलस और बड़ा चमत्कारी है घटना कि जो आदमी अपने भले-बुरे को जो भी उसके भीतर है, उसकी पूर्णता में देखने को राजी हो जाता है। इस देखने का उसके भीतर इतने बड़े विवेक का जन्म होता है, इस देखने के लिए एक इतनी बड़ी ऊर्जा पैदा होती है उसके भीतर, बोध की, अवेयरनेस की, होश की, कि उस बोध की अग्नि में जो बुरा है, वह अपने आप जल जाता है और उसे दबाना नहीं पड़ता। वह अपने आप ही जल जाता है। जैसे कि एक अंधे आदमी को एक कमरे के बाहर लाना हो, तो वह पूछेगा कि कैसे जाऊं, कहां से जाऊं, रास्ता कहां है? द्वार कहां है?
उसे स्वयं ही दिखाई पड़ रहा है कि इसलिए पूछ रहा है। पूछ कर भी जाएगा, फिर भी संभावना है कि किसी दीवाल से टकरा जाए। किसी खैमे से टकरा जाए। टकरा कर वह फिर घबरा जाएगा और फिर पूछेगा कि कैसे जाऊं, कहां से जाऊं, रास्ता कहां है, द्वार कहां है? लेकिन अगर आपके पास आंख है तो न तो आप पूछते हैं कि द्वार कहां है, न आप सोचते हैं कि द्वार कहां है? आपको जाना है और उठते हैं और निकल जाते हैं, यह भी नहीं सोचते कि द्वार कहां है? उठते हैं और निकल जाते हैं। खयाल भी नहीं होता है द्वार का, दिशा का। उठते हैं और निकल जाते हैं। यह जो मनुष्य के जीवन की अनैतिकता है, उस आत्मिक अंधेपन की अनिवार्य टकराहट है, कि कहीं भी जाता है तो टकरा जाता है। वह टकराहट सिर्फ एक बात की सूचना है। वह आपके बुरे होने की सूचना नहीं है। वह इस बात की सूचना है कि आपके पास जितना जागा हुआ विवेक चाहिए उतना नहीं है। इसलिए बुरा आदमी मौन के योग्य नहीं, केवल दया के योग्य है। खुद बुराइयां भी दया के योग्य हैं। दया के योग्य इसलिए हैं कि वह केवल सूचक है कि हमारे पास कोई आंख नहीं है, जो दरवाजे को देखे और बाहर हो जाए। तो हम जगह-जगह ठकरा जाते हैं, उठते हैं, चलते हैं, और टकरा जाते हैं। वह टकराने की हमारी सारी अनीति और बुराइयां बनती जाती हैं। और जितना हम बचना चाहते हैं टकराने से, उतनी ही हमारी टकराने की संभावना बढ़ती है। अगर अंधा पूछ ले कि बाएं रास्ता है और हिम्मत करके बाएं चला जाए। तो शायद निकल भी जाए।
लेकिन अंधा हिम्मत करके भी जा नहीं पाता। बाएं है, यह जानकर भी, लकड़ी टटोलता है, डरता है कि कहीं दाएं नहीं पहुंच जाऊं, कहीं जरा सा चूक न हो जाए और जितना वह भयभीत होता है, उतना ही उस दरवाजे से चूक जाने की संभावना बढ़ती चली जाती है। और कई बार ऐसा होता है कि जो हम नहीं करना चाहते हैं, वही हम कर गुजरते हैं। जैसे नया आदमी साइकिल चलाना सीखता है। उसे दिखाई नहीं पड़ता हो कि एक पत्थर पड़ा हुआ है। अब इतना बड़ा रास्ता है, उस पर एक छोटा-सा पत्थर पड़ा हुआ हो और वह साइकिल वाला अगर आंख बंद करके भी चलाए तो भी उस पत्थर से टकराने की संभावना सौ में से एक है। रास्ता इतना बड़ा है कि अगर आंख बंद करके भी चलाए तो भी कोशिश करके तो भी उस पत्थर से टकरा सकते हैं। तो रास्ता इतना बड़ा है कि कहीं से भी निकला जा सकता है। लेकिन नया साइकिल चलाने वाला देखता है कि वह पत्थर पड़ा हुआ है और सोचता है कि कहीं मैं उस पत्थर से टकरा न जाऊं और उसकी नजर में सारा रास्ता खो जाता है, सिर्फ पत्थर ही रह जाता है। सब रास्ता खतम हो गया, लेकिन उसे लगता है कि कहीं में उस पत्थर से टकरा न जाऊं, और धीरे-धीरे सिर्फ पत्थर ही उसे दिखता है और कहें मैं उससे टकरा न जाऊं और सौ में से निन्नयानबे मौके ऐसे हैं कि वह पत्थर से टकरा जाएगा।
और उस टकराहट में पत्थर का कोई कसूर नहीं है। उस टकराहट में सिर्फ बचने की तीव्र चेष्टा थी। उस तीव्र चेष्टा ने उसका ध्यान केंद्रित किया और जिस बात पर ध्यान केंद्रित हुआ वह फलित हो जाने वाला है। यह ला आफ रिवर्स इफेक्ट है। हम जो नहीं चाहते हैं वह रोज हो जाता है। हम नहीं चाहते हैं इसीलिए हो जाता है। उतना हमें दिखाई नहीं पड़ता। एक बात ध्यान में रखने की है कि मन के साथ लड़ाई लेना हमने बंद कर दी है। क्योंकि सामने लड़ाई ली तो जो आप चाहते हैं, वह नहीं हो पाता है। और जो नहीं चाहते हैं वही होना संभव है, तो लड़ाई लेना बंद कर दें क्योंकि मन के साथ कोई झंझट नहीं करें और उस साक्षी के भाव से आपको क्रिया करनी है जो शून्य में ले जाती है। शून्य जैसा मैंने कहा कि प्रभु का द्वार है, जिसे हर मनुष्य पाने की कोशिश करता है।

एक मित्र पूछ रहे हैं कि सामाजिक मुक्ति कैसे हो सकती है।

पहली तो बात यह है कि जिस मुक्ति की मैं बात कर रहा हूं, वह यह है कि सामाजिक मुक्ति कभी होती नहीं, वह मुक्ति नितांत वैयक्तिक है, जिस मुक्ति की बात मैं कर रहा हूं, वह मुक्ति नितांत वैयक्तिक है। सिर्फ सामाजिक मुक्ति की ही हमें प्रयास नहीं करना होगा। उस मुक्ति की बात मैं नहीं करता, यह मुक्ति तो नितांत वैयक्तिक है, यह सिर्फ एक व्यक्ति की होती है, सबकी हो जाती है। लेकिन वह भी व्यक्ति-व्यक्ति की। इसका कोई सामूहिक रूपांतरीकरण नहीं हो सकता है। लेकिन आप शायद सामूहिक मुक्ति का दूसरा ही अर्थ कर रहे हैं। शोषण विहीन, वर्ग विहीन--समानता का, स्वतंत्रता का समाज। मेरी दृष्टि में ऐसा समाज कभी भी नहीं बन सकता। जब तक कि व्यक्ति-व्यक्ति की चेतनाएं जिस मुक्ति की मैं बात कर रहा हूं--उसको यह उपलब्ध न हो जाए, तब तक आपकी सारी चेष्टाएं एक तरह की शोषण को बदल कर दूसरे तरह की शोषणों को स्थापित करने वाले होंगे और कुछ भी नहीं होगा। आज तक दुनिया में बहुत से क्रांतिकारी हुए और उन सारे क्रांतिकारियों की दृष्टि है कि समाज शोषणों से मुक्त हो जाए। लेकिन उन्हें इस बात की फिकर ही नहीं कि अब शोषण समाज में कैसे आ गया और क्यों आ गया। जैसा आदमी है वैसा आदमी हमेशा शोषण की व्यवस्था निर्मित करेगा, यह बात निराशापूर्ण मालूम हो सकती है, लेकिन जो सच है वही मैं कहना चाहता हूं और पसंद करता हूं। जैसा आदमी है, वैसा आदमी कभी भी यह नहीं बर्दाश्त करेगा कि सभी आदमी समान हो जाएं।
और जब वह कहता भी है कि सारे आदमी समान हो जाएं तब वह यह कहता है कि अभी मुझसे जो ऊपर हैं, यह मेरे बर्दाश्त के बाहर है। वह कभी नीचे के आदमियों के लिए नहीं कहता है कि मेरे समान हो जाएं। यह सारी समानता की बकवास सिवाय इस भीरुता के और किसी चीज के लिए पैदा नहीं होगी। कोई आदमी यह बर्दाश्त नहीं करना चाहता कि कोई आदमी उससे ऊपर हो। और आप याद रखें कि जब तक कोई आदमी यह बर्दाश्त नहीं करना चाहता कि यह आदमी मुझसे ऊपर है, तब तक वह आदमी किसी को नीचे रखने में भी सुख अनुभव अनिवार्य रूप से करेगा। तब हम यह कर सकते हैं कि ऊपर का समाज बदलेंगे। तो समाजवादी समाज होगा, पूंजीवादी समाज नहीं होगा और समाजवादी तरह का शोषण होगा और समाजवाद ढंग की वर्ग व्यवस्था होगी। समाजवादी ढंग की ऊंची और नीची नीतियां होंगी। अच्छी तरह का समाज हम बना सकते हैं और नाम हम कुछ भी दे सकते हैं। लेकिन मनुष्य जैसा है, ऐसे मनुष्य के साथ कोई सामाजिक समानता की संभावना नहीं है। सामाजिक समानता की संभावना ऐसे मनुष्यों के साथ कि जिनको सारा व्यक्तित्व केंद्र के अहंकार बिखर बिखर गया हो। अहंकार के कारण सामाजिक असमानता का, वह आर्थिक घटना नहीं है कि आप संपत्ति बांट दें और लोग समान हो जाएं, वह इतना आसान नहीं है। संपत्ति का मजाक सिर्फ अहंकार में है।
और संपत्ति को इकट्ठा करने की वृति भी अहंकार से पैदा होती है। वह कल दूसरे ढंग से पैदा होगी। यहां तक हो सकता है कि एक आदमी का सारा धन छोड़ दे और महात्मा बन जाए। लेकिन फिर भी वह इस खोज में रहता है कि मुझसे बड़ा तो कोई महात्मा नहीं है, इस खोज में हमेशा लगा रहेगा। और यदि उसको कोई कह दे कि काशी में आपसे भी बड़े महात्मा हैं, तो वह उतना ही दुख अनुभव करता है जितना एक गरीब आदमी अनुभव करता है कि मुझसे भी गरीब लोग हैं। यह जो जितने वर्गीय जगत है, यह जितने शोषण में विभाजित और वर्गों में टूटी हुई दुनिया है, यह दुनिया जैसे आदमी हैं, उसकी निष्पत्ति हुई है, इससे यह निकली हुई है और आदमी वहीं मान लेता है और चिल्लाने लगता है कि हर आदमी को समान होना चाहिए। समान कैसे होना चाहिए। आदमी एक भी नहीं, जो समान होना चाहता है। एक आदमी नहीं पृथ्वी पर और कहता हो और जो एक दूसरे के समान होना चाहता हो। बहुत गहरे में जाने पर पता चलता है कि वह चाहता है कि मैं दूसरे के ऊपर हूं।
और हम अच्छी-अच्छी बातें भी करते हैं। तब भी अपने बच्चे को यही सिखाते कहते हैं कि देखो वह उतना झूठ बोल रहा है, वह उतना सत्य बोल रहा है, वह उतना सच्चरित्र है, तुझे भी उतना सच्चरित्र होना चाहिए, तब भी वह ऊंचा होने के लिए सिखा रहा है--चाहे वह धन से हो, चाहे वह धर्म से हो, ज्ञान से, बुद्धि से, बंटवारा कर रहा है। मेरी दृष्टि से न तो माक्र्स, न तो गांधी, न तो विनोबा सफल हो सकते हैं। एक बुनियादी भ्रांति पर सारा आयोजन। उनकी करुणा ठीक है, उनकी दया ठीक है कि जैसा हो जाए। लेकिन आपके सपने देखने से कुछ नहीं होगा। हिम्मतवर लोग हैं कि जो ऐसे सपने देखते हैं, जो आदमी के बिलकुल खिलाफ हो सपना। हिम्मतवर लोग हैं, जो देख रहे हैं हजारों साल से। लेकिन उन सपनों से कुछ होने वाला नहीं है। कोई आदमी सपने नहीं देखते तो आजादी कोई रुकने वाली चीज थी। जिन मुल्कों ने सपने नहीं देखे, वहां आजादी नहीं आई? यह सब तो बचकानी बातें हैं, जिनको हम खूंटी पर टांग देते हैं कि ऐसा हो गया और आजादी क्या आ गई...
...आप जो कहते हैं वह संक्षिप्त में इतनी ही बात कहते हैं कि मनुष्य का जैसा मन है, वह व्यवस्था के कारण पैदा हो गया है। यह जैसी व्यवस्था है उसके कारण यह मन है। आप कहते हैं कि यदि हम व्यवस्था को बदल दें और ऐसी व्यवस्था हो कि मनुष्य को दूसरी व्यवस्था में ले जा सकें। तो समझने की बात इसमें इतनी ही है कि यह व्यवस्था मनुष्य के मन से निकली है या इस व्यवस्था से मनुष्य का मन निकलता है। अगर मनुष्य का मन इस व्यवस्था से निकलता है तो आप ठीक कहते हैं--गांधी ठीक कहते हैं और माक्र्स ठीक कहते हैं कि हम समाज की व्यवस्था को बदलें तो मनुष्य के मन को बदलने की व्यवस्था हो सकती है। लेकिन यदि यह व्यवस्था अंततः मनुष्य के मन से निकलती है तो गांधी गलत कहते हैं और माक्र्स भी गलत कहते हैं। और मेरी समझ यह है कि सारी व्यवस्था जो भी निकली और आज निकल रही है--सर्वोदय या समाजवाद वह भी मनुष्य के मन से निकल रही है।
वह भी कोई व्यवस्था नहीं है, जो गांधी को पैदा कर रही है। कोई व्यवस्था नहीं है जो विनोबा को पैदा कर रही है। विनोबा को कौन सी व्यवस्था पैदा कर रही है? गरीबी और शोषण...गरीबी और शोषण है न? तो आप और मैं या तीसरा व्यक्ति विनोबा नहीं हुआ जा रहा है? व्यवस्था नहीं पैदा कर रही है। गरीबी और शोषण की तरफ एक खास तरह की एक मन की जो वृत्ति है। विनोबा के पास एक मन है, जो उस गरीबी से पीड़ित हो रहा है। आपके पास एक मन है, जो उस गरीबी से खुश और प्रसन्न हो सकता है। हम उस जीवन से जो कुछ निष्कर्ष व नतीजे लेते हैं, वह निष्कर्ष मन के निष्कर्ष हैं और वह मन अगर व्यवस्था से बनता है, तो आप समझ नहीं रहे हैं कि...आप कैसी बात कर रहे हैं। जो कि गांधी, विनोबा, महावीर, बुद्ध सबके खिलाफ जाती मूलता से। मूलता खिलाफ इसलिए जाती कि अगर मन व्यवस्था से निर्मित है तो अंततः कम्युनिस्ट ठीक कहते हैं, समाज की सारी व्यवस्था बदल गई, सारी शिक्षा बदल गई, शरीर में जहां-जहां मनुष्य के जैसे तत्व हैं, जो उसे भिन्न बनाते हैं, उनको निकाल लें, हारमोन बदल दें, उसके भीतर की वाइटेलिटी बदल दें और अगर मन की कुछ भी कुछ गड़बड़ हो, उसके लिए मानसिक व्यवस्था कर दें और मन भी कुछ गड़बड़ करता हो, तो उसको विद्युत की व्यवस्था से साफ कर दें, तो जरूर मैं मानता हूं कि इतने दूर तक राज्य में हम व्यवस्था बदल देंगे--फिर अर्थ बदले, समाज का ढांचा बदले और अंततः मनुष्य के मन को भी हम बुद्धित्व की व्यवस्था का इंतजाम कर लें तो जरूर यह सच है कि जैसा हम आदमी से चाहें वैसा हो सकता है। लेकिन यह आदमी नहीं, वह मशीन रह जाएगा। वह आदमी रहेगा ही नहीं।
आदमी वह इसीलिए है कि वह आदमी स्वतंत्र है और मन से ढंग से जीने के लिए वह मुक्त है। यह जो समाज विकसित हुआ है वह मनुष्य के मन में तो छिपा हुआ है, उसका विस्तार है। मेरी बात गलत हो सकती है, इससे चिंतित होने की जरूरत नहीं है। मेरी बात बिलकुल गलत हो सकती है। लेकिन मेरी जो समझ है वह आपसे कह देना चाहता हूं। मेरी समझ यह है कि जो भी हमने निर्मित किया है--चाहे वह फ्यूडिलज्म हो, चाहे वह कैपिटलिज्म हो, चाहे वह सोसियालिज्म हो। तो मनुष्य के मन का भी सारा का सारा विस्तार और व्यवस्था है। और वह सारा का सारा असफल होता चला गया है। समाजवाद आया रूस में और नाम समाजवाद का रह गया। आया समाजवाद की जगह स्टेट कैपिटलिज्म। आई एक मेनेजोरियल व्यवस्था। जहां पूंजीपति बदल गया। और व्यवस्थापक पूंजीपति की जगह हो गया और इसने जितना उपद्रव किया, उतना पुराने पूंजीपति वाद ने कभी भी नहीं किया था। अकेले स्टैलिन ने कोई सात लाख से लेकर एक सौ बीस लाख तक लोगों को मारा। हिटलर भी पैदा हो रहा है। वह भी हम नहीं कर रहे हैं कि हमारे मन से पैदा हो रहा है। और गांधी और विनोबा भी जो मैं कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि हिटलर और स्टैलिन लेकिन वह कुछ कहां से होगा।
आप कोई समाज को हित पहुंचा पाएंगे ऐसा नहीं है। उसके मूल को पकड़ कर ही हित पहुंचाया जा सकता है। और मैं यह भी नहीं कर रहा हूं कि ऐसा समाज निर्मित न हो, जो मुक्त न हो। ऐसा मैं कह भी नहीं रहा हूं। और यह मैंने कहा भी नहीं कि जो गांधी और विनोबा की कल्पना करते हैं, वह कल्पना न की जाए, यह भी मैंने नहीं कहा। कहा मैंने यह कि गांधी और विनोबा असफल होने को आबद्ध हैं और कहा इसलिए कि विनोबा और गांधी की सारी चिंतना इस आदमी को स्वीकार करके की गई हैं और सब आदमी का सामान किया जाए और कैसे जमीन वितरित की जाए और कैसे उस आदमी का सामाजिक ढांचा बदला जाए, उस आदमी की स्वीकृति के साथ चल रही है। मेरा कहना इतना है कि उस आदमी की स्वीकृति के साथ वह सब असफल होने को आबद्ध हैं। यह आदमी जैसा है उस आदमी से जो निकल रहा है, वह ज्यादा सच है और वह जो कह रहे हैं, वह सपना है।
मेरा जो कहना है वह इतना ही है कि अगर उस सपने को कभी पूरा भी करना हो तो यह आदमी जैसा है उस आदमी के आमूल मन को बदले की दिशा में सोचना होगा। आपमें से किसी ने कहा कि बुद्ध, क्राइस्ट, महावीर हजारों साल से सोच रहे हैं कि आदमी का मन बदला जाए तो सब हो जाएगा। तो मेरा कहना है कि महावीर और बुद्ध आदमी का मन बदला जाए यह जरूर सोच रहे हैं, लेकिन मन बदलने की जो व्यवस्था दे रहे हैं, वह बुनियादी रूप से गलत है, इसलिए यह नहीं हो पाया है।
मुझे तकलीफ यह है कि महावीर और बुद्ध यह जरूर सोच रहे हैं वही कि आदमी का मन बदला जाए तो व्यवस्था बदल जाएगी। वह नहीं हो पाया। आपके इतने सोचने से कि आदमी का मन बदल जाए और आप जो कहते हैं कि मन बदल जाएगा यह जरूरी नहीं है। महावीर और बुद्ध आदमी के मन को बदल नहीं पाए। क्योंकि महावीर और बुद्ध की सारी चिंतना परमाद्गामी है, इस बात के लिए चिंतना नहीं है कि एक दूसरा मन के दमन से सारी उनकी व्यवस्था है और मन के दमन से मन कभी भी बदला नहीं जा सकता। आप सबका सारा धर्म, सारा योग और सारे शास्त्र यह कह रहे हैं कि मन को बदला जाए, लेकिन मन को बदलने की जगह वे मन को तोड़ने का उपाय व्यवस्थित कर रहे हैं कि मन कैसे तोड़ा जाए और मन को कैसे दबाया जाए।
तो यह जो मन का तोड़ना है, वह सफल नहीं होता है। इससे आप यह न समझ लें कि समाज को बदलने वाले सफल हो गए असफल हो जाने वाले। दृष्टि तो उनकी बिलकुल ठीक थी। महावीर और बुद्ध की, क्राइस्ट की, और कृष्ण की कि आदमी का मन बदला जाए। इस माने में वे ठीक निष्कर्ष पर पहुंच गए थे कि मन बदलेगा तो सामाजिक व्यवस्था बदलेगी। लेकिन मन कैसे बदल जाए, इसमें बिलकुल चूक गए। और इसलिए वह नहीं हो पाया। यह मेरा गांधी और विनोबा से विरोध है कि वे समाज को बदलने के मौलिक जगह दे रहे हैं। आदमी को स्वीकार कर रहे हैं। महावीर और बुद्ध से मेरा विरोध है कि वे आदमी को बदलने की जो व्यवस्था दे रहे हैं, वह व्यवस्था गलत है। अब क्या ठीक व्यवस्था हो सकती है, इस संबंध में जब कभी दुबारा आऊंगा तो विस्तार से बात करूंगा उस पर।
सबको प्रणाम।

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