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बुधवार, 29 अगस्त 2018

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(जीवन के प्रेमी बनो, निंदक नहीं)

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी बात की चर्चा आज मैं इस बात पर करना चाहता हूं। एक गांव था और उस गांव के द्वार पर ही अभी जब सुबह का सूरज निकलता है, एक बैलगाड़ी आकर रूकी। एक बूढ़ा उस गांव के बाहर बैठा हुआ है द्वार पर। उस बैलगाड़ी के मालिक ने गाड़ी रोक कर पूछा कि क्या इस गांव के संबंध में मुझे कुछ बता सकेंगे कि इस गांव के लोग कैसे हैं? मैं उस गांव की तलाश में निकला हूं जहां के लोग अच्छे हों। क्योंकि मैं कोई नया गांव खोज रहा हूं।।बस जाने के लिए। इस गांव के लोग कैसे हैं क्या आप मुझे बता सकेंगे? मैं अच्छे लोगों की तलाश में निकला हूं, किसी अच्छे गांव की।

तो उस बूढ़े ने उस बैलगाड़ी के मालिक को नीचे से उपर तक देखा और कहा: इससे पहले कि मैं कुछ कहूं, एक प्रश्न का उत्तर चाहता हूं। मैं ये पूछना चाहता हूं कि उस गांव के लोग कैसे थे, जिसे तुम छोड़ कर आ गए हो?


उस आदमी ने कहा: उस गांव के लोगों से क्या संबंध है, इस गांव के लोगों के बाबत बताने के लिए। फिर भी तुमने याद दिला दी, तो मेरा मन क्रोध से भर गया है। उस गांव जैसे दुष्ट लोग पृथ्वी पर कहीं भी नहीं होंगे, उन्हीं दुष्टों के कारण तो मुझे वह गांव छोड़ना पड़ा। और एक ही कामना लेकर निकला हूं कि किसी दिन समय मिला, शक्ति मिली तो उस गांव के लोगों को बताऊं गा कि उन्होंने क्या मेरे साथ किया है? उस गांव में बड़े रद्दी लोग हैं, उस गांव के लोगों की याद भी मत दिलाना, मेरा हृदय क्रोध से और आग से भर जाता है।
वह बूढ़ा हंसने लगा, उसने कहा कि नहीं-नहीं मैं क्यों याद दिलाऊंगा, लेकिन इतना बता दूं मैं इस गांव में सत्तर साल से रहता हूं, इस गांव के लोग उस गांव से भी ज्यादा बुरे हैं। आप आगे बढ़ जाएं, कोई और गांव खोज लें।
वह आदमी आगे बढ़ भी नहीं पाया था, अजीब संयोग कि एक और घुड़सवार वहां आकर रुक गया और उसने भी उस बूढ़े से पूछा कि मैं कोई नया गांव खोज रहा हूं, जहां बस जाना है, इस गांव के लोग कैसे हैं?
बूढ़ा बोला: हैरानी, आश्चर्य! अभी-अभी मैं उत्तर देकर चुका हूं, फिर भी तुमसे पूछे देता हूं कि उस गांव के लोग कैसे थे, जहां से तुम आते हो?
वह आदमी हंसने लगा, जैसे कोई मीठी याद उसकी आंखों में खुशी बन गई। और वह कहने लगा, उस गांव के लोगों की याद भी एक संगीत से मन को भर देती है, बड़े प्यारे लोग थे। उस गांव को छोड़ना पड़ा मजबूरी में। लेकिन एक ही कामना लेकर, एक ही प्रार्थना लेकर निकला हूं कि कभी फिर जब दिन फिर जाएंगे तो उस गांव में वापस लौट जाऊं गा। मेरी कब्र उसी गांव में बने।।यही प्रार्थना है। बहुत भले थे वे लोग, और उसकी आंखों में खुशी के आंसू आ गए।।याद के।
उस बूढ़े ने कहा: घोड़े से नीचे उतर आओ, हम स्वागत करते हैं। मैं सत्तर साल से इस गांव में रहता हूं, मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं, इस गांव के लोग तुम्हारे गांव के लोगों से बहुत अच्छे हैं। तुम्हें लौटने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी। आओ, यह गांव बहुत अच्छा है।
अगर आप भी उस गांव के दरवाजे पर खड़े होते तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाते! मैं उस गांव के दरवाजे पर खड़ा था और बहुत मुश्किल में पड़ गया। मैंने दोनों ही उत्तर सुन लिए थे, इसलिए मुश्किल में पड़ गया। वह बूढ़ा बड़ा अजीब आदमी था। एक को कहने लगा कि गांव के लोग बहुत बुरे हैं, कहीं और खोज लो! एक को कहने लगा, गांव के लोग बहुत भले हैं, आ जाओ, स्वागत है!
बूढ़ा पागल था क्या?
नहीं; बूढ़ा पागल नहीं था। सत्तर साल के अनुभव ने उसे बता दिया था कि गांव वैसा ही हो जाता है जैसे हम हैं। गांव वैसा ही हो जाता है जैसे हम हैं। आदमी बुरा है तो गांव बुरा हो जाता है, आदमी अच्छा है तो गांव अच्छा हो जाता है। हम ही फैल कर तो गांव बन जाते हैं, हम ही फैल कर तो जीवन बन जाते हैं, हम ही फैल कर तो जगत बन जाते हैं। मैं जैसा हूं, वैसी ही दुनिया हो जाती है। मैं कांटों से भरा हूं तो सब तरफ कांटे ही कांटे हो जाते हैं। और मेरे हृदय में फूल उगते हैं तो सारी दुनिया में फूल ही फूल खिल जाते हैं। हम जो देखते हैं, वह हमारे ही भीतर का प्रक्षेपण है, प्रदक्षण है। हमारे भीतर ही जो छिपा है, वही बिखर कर चारों तरफ दिखाई पड़ने लगता है।
दुनिया आपको कैसी दिखाई पड़ती है? इससे यह पता नहीं चलता कि दुनिया कैसी है? इससे यह पता चलता है कि आप कैसे हैं? जीवन आपको कैसा दिखाई पड़ता है? इससे ये पता नहीं चलता कि जीवन कैसा है? इससे ये पता चलता है कि आप कैसे हैं? यही जीवन किसी को स्वर्ग दिखाई पड़ सकता है और यही जीवन किसी को नरक।
यह कैसे हो सकता है कि एक ही जीवन नरक हो, और एक ही जीवन स्वर्ग। यह कैसे हो सकता है कि एक ही जीवन आनंद बन जाए, और एक ही जीवन दुख और पीड़ा। एक ही रास्ता हो सकता है।।कि दुख, पीड़ा और आनंद।।जीवन को देखने के हमारे ढंग हैं। जीवन कोरा है, जीवन खाली है। जीवन की किताब में कुछ भी नहीं लिखा है, हम जो लिखते हैं वही लिख जाता है।
क्यों इस बात से मैंने यह सुबह की चर्चा उठा लेनी चाही।
इसलिए कि विगत सैकड़ों वर्षों से आदमी को धर्म के नाम पर एक बुनियादी रूप से गलत शिक्षा दी जा रही है। उसे कहा जा रहा है कि संसार बुरा है, असार है, जीवन पाप है।।ये समझाया जा रहा है आदमी को। ये समझाया जा रहा है कि यह सब बुरा है, यह सब पाप है, यह सब .असार है, यह सब छोड़ देने योग्य है। आदमी को यह समझाया जा रहा है कि जीवन का एक ही लक्ष्य है कि किस भांति जीवन को छोड़ने में सफल हो जाओ। आवागमन से कैसे मुक्ति मिले। इस तरह की नासमझी की बात आदमी को समझाई जा रही है। जीवन बुरा है, इससे कैसे छुटकारा हो जाए। जन्म बुरा है, मृत्यु बुरी है, जीवन बुरा है, सब बुरा है।।किस तरह छुटकारा हो जाए! जीवन से हम कैसे बच जाएं, ये समझाया जा रहा है आदमी को!
स्वभावतः इस दुर्भाग्यपूर्ण शिक्षा का जो परिणाम हो सकता था।।वह हो गया। जीवन बुरा हो गया, जीवन फसाद हो गया। क्योंकि हमारी दृष्टि, जीवन को देखने की दृष्टि गलत हो गई। हम भीतर से तैयार हो गए जीवन में असार देखने को, व्यर्थ देखने को, पीड़ा देखने को। हमने तैयारी कर ली कि जीवन बुरा है, हमने ये निर्णय ले लिया कि जीवन बुरा है। फिर जीवन बुरा हो गया और जीवन बुरा हो गया तो हमारा निर्णय बिलकुल प्रमाणित हो गया, सिद्ध हो गया।।कि बिलकुल ठीक था।
जीवन न बुरा है न भला। जीवन न सार है न असार। जीवन वैसा है जैसा देखने की हमने तैयारी कर ली, और मन को निश्चित कर लिया। जीवन हमारे संकल्प का विस्तार है। यह जो आज सारे जगत में उदासी मालूम पड़ती है।।अर्थहीनता, मीनिंगलेसनेस मालूम होती है कि जीवन में कुछ भी नहीं, सब बेकार मालूम होता है। यह किन्होंने कर दिया यह जीवन को बेकार? उन शिक्षकों ने, उन टीचर्स ने, जिन्होंने कहा: जीवन असार, जीवन असार, जीवन असार। बुरा है: सब व्यर्थ है, सब छोड़ो। ये जो सबको छुड़ा देने वाले, सबसे अलग करा देने वाले।।जीवन को उदास और वैराग्य और जीवन की रिक्तता को समझाने वाले लोगों ने इस सारे जीवन को उदास कर दिया और पीड़ित कर दिया।
आदमी की आंखों में आज जो ये दुख के आंसू हैं, इन आंसुओं में उन लोगों का हाथ है जिन्होंने उदासी की, वैराग्य की, त्याग की शिक्षा दी। यह जो जीवन था, व्यर्थ दिखाई पड़ने लगा है। इस व्यर्थता के पीछे उन लोगों का हाथ है। लेकिन आज भी हम कोई जाग गए हों, सचेत हो गए हों।।ऐसा नहीं है। आज भी हम उन्हीं बातों को दोहराए चले जाते हैं, आज भी वही दोहराए चले जाते हैं। आज भी वही कहे चले जाते हैं।
 मैंने सुना है एक बार स्वर्ग के एक कैफे में...स्वर्ग में भी कैफे तो होंगे ही। क्योंकि जो आदमी यहां से मर-मर कर जाते हैं, वहां कुछ न कुछ इंतजाम करते ही होंगे। यहां की वापस वहां कुछ व्यवस्था करते होंगे। पुरानी किताबों में नहीं लिखा है ये कैफे हैं, कॉफीहाऊस हैं। क्योंकि पुराने दिनों में जमीन पर वह नहीं होते थे। पुराने दिनों में जमीन पर जो होता था।।वहां है।
एक कैफे में स्वर्ग के जहां अप्सराएं नाचती हैं, तीन अदभुत लोग बैठे हुए थे। एक टेबल के पास बुद्ध, कनफ्यूशियस और लाओत्सु बैठे हुए थे। और एक अप्सरा नाचती हुई, हाथ में एक सुराही लिए हुए है।।उनके पास आई है, और बोली है: जीवन का रस पीएंगे।
जीवन का रस!
बुद्ध ने फौरन आंखें बंद कर लीं और कहा: क्षमा कर, क्षमा कर, जीवन तो दुख है कौन पीएगा। मैं देखना भी नहीं चाहता, पीना तो बहुत दूर है। दूर हट जा! बुद्ध पीठ फेर लिए।
कनफ्यूशियस ने आधी आंखें खोल कर देखा और कहा: एकदम से कहना मुश्किल है कि जीवन का रस कड़वा है कि मीठा, थोड़ा सा चखे बिना कुछ भी कहना ठीक नहीं है। बुद्ध से कहा, मैं थोड़ा चख कर देखे लेता हूं क्योंकि बिना कुछ स्वाद लिए, कहना ठीक नहीं। एक छोटी सी प्याली में जीवन का रस लेकर उसने चखा और कहा कि नहीं; न मीठा है न कड़वा है, न पीने जैसा न त्यागने जैसा है।
वह जो तीसरा आदमी लाओत्सु बैठा हुआ था, उसने पुरानी सुराही हाथ में ले ली, उसने कहा सिर्फ चखने से कुछ भी पता नहीं चलता जब तक ये पूरा जीवन पी न लिया जाए। एक घूंट से क्या पता चलेगा? जब तक कि पूरा पी न लिया जाए। वह पूरी सुराही गटक कर पी गया। और पीकर नाचने लगा और उसने कहाः आंखें खोलो, बुद्ध से कहा, उसने कहाः आंखें खोलो। क्योंकि बहुत अलग था जीवन। उसने कनफ्यूशियस को कहा चूक गए तुम, क्योंकि तुमने घूंट लिया। पूरा पीते तो ही पता चलता, क्योंकि पूर्णता के बिना किसी चीज का कोई पता नहीं चलता है। ये घटना किसी पुराण में नहीं लिखी है। कहते हैं भविष्य...कोई पुराण लिखा जाएगा, उसमें लिखी जाएगी। भविष्य पुराण में लिखी जाएगी।
यह जो हम जीवन के, जीवन के रस के आसपास खड़े हुए लोग हैं, हम भी ये तीन व्यवहार करते हैं। या तो हम आंख बंद करके खड़े हो जाते हैं, जीवन को पीने से वंचित, जानने से वंचित और चिल्लाते रहते हैं।।असार है, असार है, व्यर्थ है, व्यर्थ है। और ये जो लोग इस भांति असार है और व्यर्थ कहते चले जाते हैं, इनके लिए तो असार और व्यर्थ हो जाता है। इसलिये नहीं कि वह असार और व्यर्थ था, बल्कि इसलिए कि इन्होंने असारता की दृष्टि को अपना लिया। या फिर कोई एकाध थोड़ा बहुत चखता है।
और थोड़े बहुत चखने से कुछ पता चलता है? कोई कविता में से एक पंक्ति को निकाल ले और उस पंक्ति की जांच-परख करे, तो पूरी कविता का कोई पता चलता है? कोई एक बड़े चित्र में से एक छोटा सा टुकड़ा काट ले, और उस टुकड़े की जांच-परख करे तो पूरे चित्र के संबंध में कुछ पता चलता है? कोई एक संगीत से, कोई एक वीणा को बजाता हो, और छोटे से चार स्वरों के टुकड़ों को तोड़ ले अलग, और उनसे जांच-परख करे तो कुछ पता चलता है? कुछ भी पता नहीं चलता।
जीवन के सारे अनुभव।।परिपूर्णता के, टोटेलिटी के, समग्रता के अनुभव हैं। समग्रता में ही पता चलता है कि क्या था? एक आदमी है, कोई उसके हाथ को काट ले और हाथ की जांच-परख करे और पूरे आदमी के बाबत निर्णय ले, उसका निर्णय सच होगा? उसका निर्णय बिलकुल असच होगा।
क्योंकि खंड से उसने अखंड के बाबत जानने की कोशिश की, अखंड बहुत बड़ा था। हाथ कुछ नहीं कहता, सिर कुछ नहीं कहता, पैर कुछ नहीं कहता।।आदमी तो वह था जो सबका जोड़ था, और इकट्ठा था। वह इकट्ठेपन में, वह होलनेस में, वह उसकी इकट्ठेपन में ही।।वह खूबी थी, वह जादू थी, वह आत्मा थी।।जो पहचानी जाती तो शायद पता चलता; नहीं तो पता नहीं चल सकता। एक टुकड़े को आदमी चखता है, और फिर कह देता है कि नहीं कुछ स्वाद नहीं, लेकिन पूरे जीवन को आकंठ पी जाने वाले लोग बहुत कम हैं। जो पूरे जीवन को आकंठ पी जाता है, उसे मैं धार्मिक आदमी कहता हूं। और वही आदमी जीवन के सत्य को अनुभव कर सकता है।
ध्यान की तीसरी सीढ़ी है जीवन को आकंठ पी जाना, जीवन को पूरा पी जाना। आंख बंद करके जीवन के प्रति खड़े मत हो जाना। टुकड़े और खंड को चखने के बाद निर्णय मत ले लेना। पूरे जीवन को जैसा जीवन है उसकी समग्रता में, उसके अंश-अंश में, उसके रग-रग में, वैसे-वैसे में, कण-कण में जैसा जीवन है उसे पूरा आत्मसात कर लेना।।तो प्रकट होगी प्रभु की तस्वीर, तो प्रकट होगा परमात्मा।
क्योंकि जीवन के अतिरिक्त परमात्मा और कहां हो सकता है। लेकिन नहीं, हमें तो उलटी बात सिखाई गई है। हमें तो सिखाया गया है कि परमात्मा में और जीवन में कोई बुनियादी विरोध है। कोई बुनियादी विरोध है।।जीवन और परमात्मा में। कोई शत्रुता है। तो जो जीवन के आनंद में संलग्न होता है वह परमात्मा का दुश्मन हो जाता है, और जो जीवन के आंनद को छोड़ कर रिक्त और उदास होता है वह परमात्मा का प्यारा हो जाता है।।ऐसी बात सिखाई गई है, जो बड़ी अजीब है!
अगर परमात्मा जीवन का विरोधी है तो जीवन के होने की कोई गुंजाइश न थी, कोई संभावना न थी। अगर परमात्मा जीवन का विरोधी है तो जीवन क्यों है, किसलिए है? जीवन के होने का फिर वजह क्या है, कारण क्या है, आधार क्या है? परमात्मा जीवन का विरोधी नहीं हो सकता। परमात्मा तो जीवन का अंतस्र्तप्राण है। इसलिये जीवन के विरोध में जो जाते हैं, वे परमात्मा तक कभी नहीं पहुंच पाते।
जीवन में जो लीन होते हैं और जीवन को जो पूरा पीते हैं, जीवन के साथ जो पूरा आत्मसात करते हैं, वे ही जीवन का साक्षात्कार भी कर पाते हैं। यह बात थोड़ी ठीक से समझ लेनी जरूरी है क्योंकि इसकी विरोधी जो बात है, उसकी जड़ें हमारे भीतर बहुत गहरी हो गईं। जीवन को सब तरफ से छोड़ देने का भाव हमारे भीतर हजारों साल से है। हमारे अनकॉन्सश तक, हमारे अचेतन तक प्रविष्ट हो गया है।
भोजन करो तो अस्वाद से भोजन करना, स्वाद लेना पाप है। शिक्षक समझाते हैं कि स्वाद लेना पाप है।।अस्वाद। स्वाद मत लेना। संगीत मत सुनना, क्योंकि संगीत का रस तो इंद्रिय का सुख है, कान का सुख है। सौंदर्य मत देखना, क्योंकि सौंदर्य।।सौन्दर्य तो रूप है। आंख फोड़ लेना तो तुम त्यागी हो। क्योंकि सौंदर्य तो रूप है, आंख का सुख है, ये तो सब इंद्रिय के सुख हैं, इन सबको छोड़ देना, इन सबको त्याग देना।
और इंद्रिय के सारे द्वार बंद कर दिए जाएं तो आदमी क्या बचा रहता है, पता है आपको?
कुछ भी नहीं।।नकार। इंद्रिय से सब तरफ दरवाजे बंद कर दिए तो आदमी क्या बचता है, नकार, ना कुछ। उसके अनुभव के सारे स्रोत अगर विषाक्त कर दिए, कह दिया कि यह रूप है, कह दिया कि यह स्वर है, कह दिया कि यह स्वाद है, कह दिया कि यह स्पर्श है।।तो जीवन से संबंधित होने के द्वार बंद हो गए, तो जीवन को पीने के द्वार बंद हो गए, तो जीवन का रस आप तक पहुंच सके।।उसके सब द्वार बंद हो गए। अब स्वभावतः आदमी उदास हो जाएगा, दुखी हो जाएगा, पीड़िति हो जाएगा, घबड़ा जाएगा, बेचैन हो जाएगा।
और इस बेचैनी, उदासी और दुख में परमात्मा को पा लेगा क्या?
परमात्मा को वही पाता है जो आनंद की पुलक से भर जाता है, दुख के आंसुओं से नहीं, जो आनंद के गीत से भर जाता है। प्रभु के द्वार तक वे लोग पहुंचते हैं जो नाचते और मुस्कुराते पहुंचते हैं, रोते लोगों के लिए उस द्वार पर कोई जगह नहीं। दुख में रोते हुए लोगों के लिए कोई जगह नहीं। दुख और पीड़ा से भरे हुए लोग तो कुंठित लोग हो जाते हैं। दुख और पीड़ा से भरे हुए लोग उदास, और उदासीन लोग तो भीतर सिकुड़ जाते हैं। उनका फैलाव आपको पता होगा।
दुख में आदमी सिकुड़ता है, आनंद में फैलता है। आपको पता होगा दुख पकड़ लेता है तो आदमी कहता है मैं किसी से मिलना नहीं चाहता।
दुख में कोई किसी से नहीं मिलना चाहता, क्यों?
दुख सिकोड़ता है आदमी को, तोड़ता है। दुख में एक आदमी द्वार बंद कर लेता है, अपने कोने में बैठ जाता है।।क्यों? दुख सिकोड़ता है, दुख संकुचित करता है, दुख कुंठित करता है, दुख ज्यादा हो जाए तो एक आदमी आत्महत्या कर लेता है। ....आत्महत्या के द्वारा ....रूप से अपने को सिकोड़ लेता है अब किसी से संबंधित होने की कोई जरूरत नहीं।
आत्महत्या का और क्या मतलब है? इतना मतलब है कि अब मैं किसी से संबंधित नहीं होना चाहता। अब मैं किसी के जीवन में भागीदार नहीं होना चाहता। अब मैं कोई ऐसा मौका नहीं छोड़ना चाहता जहां कि मेरे अतिरिक्त मैं किसी और से जुड़ जाऊं । आत्मघात अपने को आखिरी रूप से सिकोड़ लेने से ज्यादा और क्या है।
लेकिन आनंद में...आनंद में आदमी फैलता है।
अगर एक आदमी कमरे के भीतर बंद है और आनंद से भर जाए।।तो तोड़ देगा दीवाल, भागेगा और नाचेगा खुली धूप में, और लोगों के पास जाएगा, अपना आनंद बांटना चाहेगा। आनंद में आदमी साझीदार बनता है, बांटता है, फैलता है।।दुख में सिकुड़ता है। और जितना मनुष्य फैलता है, उतना ही फैले हुए परमात्मा से एक होता है। परमात्मा क्या है।।फैलाव, विस्तार।
ब्रह्म का तो अर्थ ही होता है जो फैला हुआ है। वह जो अंतहीन पैदा हुआ है, वह जिस फैलाव का कोई अंत नहीं है, कहीं भी चले जाएं।।वह फैलता ही चला गया, फैलता ही चला गया और फैलता चला गया। कहीं नहीं पहुंच सकते हैं जहां पता चल जाए कि फैलाव का अंत आ गया।।उसी को तो ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म यानी विस्तार। ब्रह्म यानी अंतहीन विस्तार। तो जो आदमी जितना सिकुड़ जाएगा, उतना ही इस विस्तार से टूट जाएगा।
जो आदमी जितना फैल जाएगा, वह उतना ही इस विस्तार से एक हो जाएगा। इसलिए आनंद तो परमात्मा से जोड़ता है, दुख तोड़ता है। दुखवादी दृष्टि, वह पेसिमिस्ट, वह निराश विषादवादी दृष्टि, जीवन की निंदा की दृष्टि तोड़ देती है, सिकोड़ देती है, एक बिंदु पर ठहरा देती है।
आनंद, आशा, जीवन का रस और जीवन का छंद और जीवन के गीत के साथ तल्लीन हो जाने की पात्रता फैला देती है, फैला देती है, फैलाती चली जाती है। धीरे-धीरे फैलाव रह जाता है।।एक अंतहीन। उसी फैलाव का नाम प्रभु है, उसी फैलाव में जाना चाहता हूं।
और स्मरण रखें, जितना आदमी फैलता है उतना ब्रह्म हो जाता है। जितना सिकुड़ता है, उतना अहम हो जाता है। जितना सिकुड़ जाएगा, उतना ईगो का, अहंकार का एक बिंदु रह जाएगा कि मैं, ‘मैं’। जितना फैल जाएगा, जितना विस्तीर्ण हो जाएगा, उतना ही अहंकार का बिंदु खाली हो जाएगा, शून्य हो जाएगा। खो जाएगा हम, खो जाएगा सब। दुख मैं बनाता है, आनंद सब के साथ एक कर देता है।
जगत में धर्म की पराजय होती चली गई, क्योंकि धर्म दुखवादियों के हाथ में पड़ गया है। धर्म आनंदवादियों के हाथ में नहीं पहुंचा। धर्म दुखवादियों का अड्डा हो गया। जितने दुखवादी हैं वह सब धार्मिक हो जाते हैं, और उन दुखवादियों ने आनंद की इस भांति निंदा की है, इस भांति कंडेमनेशन किया है कि आनंद की तो बात ही करनी कठिन हो गई। आनंद तो पाप हो गया, मुस्कुराहट पाप हो गई है।
देखें संतों की लंबी परंपरा। उसमें रोते, उदास संत तो दिखाई पड़ेंगे, नाचते और मुस्कुराते हुए संतों की इतनी कमी है जिसका कोई हिसाब नहीं। मुस्कुराहट तो जैसे कहीं कोई न कोई पाप से जुड़ी हुई चीज है। उदास, मृत चेहरे, रोते चेहरे, कोई खुशी की खबर नहीं। खुशी तो, खुशी कहां! धर्म का खुशी से क्या संबंध है? उदासी।।ये जो दुर्भाग्यपूर्ण छाया उदासवादी की पड़ी है धर्म के ऊपर, इससे धर्म धीरे-धीरे क्षीण हो गया। रुग्ण लोगों का अड्डा हो गया, स्वस्थ लोगों का नहीं। रुग्ण आदमी की घोषणाएं होती हैं कुछ, अस्वस्थ आदमी के लिए कुछ घोषणाएं होती हैं।
ईश्वर रुग्ण और अस्वस्थ लोगों के पंजे में पड़ गया इसलिए बहुत मुश्किल हो गई।
तो सुनी होगी न आपने बात कि एक लोमड़ी एक अंगूर के पास पहुंच गई थी। भलीभांति सुनी होगी, वह लोमड़ी हर गांव में रहती है, हर कोई पहचानता है। अंगूर के गुच्छे थे बहुत शानदार। बहुत रस से भरे हुए। स्वभावतः लोमड़ी छलांग लगाने लगी उन्हें पाने को, लेकिन लोमड़ी की छलांग छोटी थी, अंगूर के गुच्छे दूर थे। नहीं पहुंच सकी, नहीं पहुंच सकी, पहुंचने की कोशिश की थी बहुत। फिर वापस लौट चली और रास्ते में कहती गई, अंगूर बहुत खट्टे। अंगूर जो कि पाए ही नहीं गए थे, खट्टे हो गए थे।
अंगूर खट्टे नहीं थे, लोमड़ी की छलांग छोटी थी। लेकिन अहंकार ये मानने को राजी नहीं होता है कि हम जिसे पाने में असमर्थ हो गए हैं वह पाने योग्य भी होगा। जिसे हम पाने में असमर्थ हो जाते हैं वह पाने योग्य ही नहीं है, अहंकार इसी भाषा में बोलता और सोचता है। जो लोग जीवन के रस को पाने में असमर्थ हो जाते हैं। वे फिर जीवन में प्रचार करते फिरते हैं।।जीवन असार है, जीवन व्यर्थ है, जीवन दुख है। यह मानने को राजी नहीं होते कि हम शायद असफल, असफल हो गए जीवन के रस को पाने में। शायद हम हार गए, शायद हमारी छलांग छोटी पड़ गई। झुक के टूट गए।।ये बातें अहंकार राजी नहीं मानने को।
कोई राजी नहीं होता यह बात को मानने को कि मैं हार गया हूं। अहंकार इस भाषा में सोचता है, वह चीज जीतने लायक ही न थी। जीत कर करते भी क्या?हमने जीतना ही नहीं चाहा, इसलिये नहीं जीते। हमने छोड़ने दिया जीतने का खयाल। वह चीज ही व्यर्थ थी, कचरा था, सब व्यर्थ था, असार था।
 एक संन्यासी के पास मैं मिलने गया। वे संन्यासी मुझे अपना एक गीत सुनाने लगे। वे एक बड़े संन्यासी, और हजारों संन्यासियों के गुरु। वे मुझे एक गीत सुनाने लगे और उनके भक्त जो वहां दस-पचास थे, वे सिर हिलाने लगे। बहुत, बहुत सुंदर, आप भी होते, आप भी सुंदर कहते।।गीत सुंदर था।
गीत में उन्होंने कहा था कि मैं तो एक फकीर हूं, धूल में पड़ा हुआ। तुम एक राजा हो, तुम एक महाराज हो स्वर्ण-सिंहासनों पर बैठे हुए। लेकिन मुझे तुम्हारे स्वर्ण-सिंहासन की कोई फिकर नहीं, मुझे कोई मतलब नहीं, मेरी कोई चाह नहीं, मैं अपनी धूल में मजे में हूं।।ऐसा कुछ गीत था। स्वभावतः हमारी ऐसी पकड़ है, ये अच्छा लगा।
मैंने उनसे कहा कि आपने कभी सोचा, अगर आपको फिकर नहीं है स्वर्ण-सिंहासन की, तो कविता किसलिए लिखी स्वर्ण-सिंहासन के बाबत। ये बार-बार कहने की क्या जरूरत है कि मैं अपनी धूल में मजे में हूं। मुझे तुम्हारे स्वर्ण-सिंहासन से कुछ भी नहीं लेना। अगर कुछ भी नहीं लेना तो ये स्वर्ण-सिंहासन की याद भी क्यों आई। और मैंने अब तक नहीं सुना कि स्वर्ण-सिंहासन पर बैठे हुए किसी आदमी ने गीत लिखा हो कि मैं अपने स्वर्ण-सिंहासन पर मजे में हूं, तुम अपनी धूल में पड़े रहो, मुझे तुम्हारी धूल से कुछ नहीं लेना। आज तक किसी ने नहीं लिखा, ऐसा गीत ही नहीं लिखा।
यह बड़ी अजीब बात है। कहीं भीतर स्वर्ण-सिंहासन को पाने की कोई लालसा रह गई है। अंगूर के गुच्छे कहीं दूर रह गए। कहीं कोई घटक, कहीं कोई पीड़ा, कहीं कोई घाव भीतर रह गया, वह बदला ले रहा है, वह घाव बदला ले रहा है, वह घाव कविता बन रहा है, वह घाव कह रहा है कि कंडेम करो इस स्वर्ण-सिंहासन को, निंदा करो इसकी।।कि है ही नहीं पाने योग्य, हमें क्या लेना-देना, हम अपनी धूल में मजे में हैं।
धूल में आप मजे में हो तो रहो मजे में, मजे में रहने वाला किससे कहने जाता है। क्या जरूरत है? ये चिल्लाने की क्या जरूरत है, क्या प्रयोजन है? यह स्वर्ण-सिंहासन दिखाई क्यों पड़ता है?
 एक, एक गांव का एक लकड़हारा लकड़ियां काट कर लौट रहा था। बहुत सीधा और भला और बहुत प्यारा आदमी था। साधु आदमी था। उसकी पत्नी भी उसके पीछे थी, वह दोनों चले आते थे। बहुत दरिद्र, बहुत दीन-हीन थे। लकड़ियां काटते, बेचते और गुजारा कर लेते। पत्नी तो पीछे थी, पति ने देखा कि राह के किनारे किसी, किसी घुड़सवार का, किसी यात्री की शायद पसनी गिर गई है, थैली गिर गई है।।स्वर्ण अशर्फियों की। कुछ अशर्फियां बाहर पड़ी हैं, कुछ अशर्फियां झोली के भीतर हैं, थैली के भीतर हैं।।हजारों होंगी। ठहरा एक क्षण, उसे ख्याल आया कि मैं तो ठीक हूं, मैंने तो स्वर्ण के ऊपर विजय पा ली, लेकिन कहीं मेरी पत्नी का मन न डोल जाए।
पतियों को कभी भरोसा ही नहीं आता कि पत्नियों की भी कोई सामथ्र्य हो सकती है। पुुरुष को कभी विश्वास नहीं आता कि स्त्री भी मोक्ष जा सकती है। उसको कोई...कहीं, मैं तो ठीक हूं लेकिन पत्नी? उसने जल्दी से गड्डे में सरका दी वे अशर्फियां और थैली और मिट्टी डाल दी। उठ भी नहीं पाया था, मिट्टी डाल ही रहा था कि पत्नी बीच में आ गई। उसने पूछा: क्या कर रहे हैं आप? कैसे रुक गए, क्या हुआ?
अब कसम ली थी कि सत्य ही बोलेंगे, असत्य बोलना नहीं है, बड़ी मुश्किल हो गई। कसम लेने वालों के साथ ये ही झंझट हो जाता है। कसम ले ली तो रोज झंझट। क्योंकि अक्ल तो होती नहीं .... कोई विवेक तो होता नहीं,.... जिनके पास बुद्धि और विवेक होते हैं वे कभी प्रश्न नहीं पूछते...उस वृक्ष से अपने को बांध लिया. अब बड़ी कसम, अब बड़ी मुश्किल! अब सामने क्या करें, क्या न करें? झूठ बोल नहीं सकते फिर मजबूरी कि सच बोलना पड़ा। और मजबूरी में बोला गया सत्य सारा सौंदर्य खो देता है।
जब आनन्द से सत्य निकलता है तो सुंदर और जीवित होता है। और जब मजबूरी से, परेशानी से निकलता है, तब असत्य से भी ज्यादा कुरूप हो जाता है। लेकिन व्रत वाले आदमी से ऐसे ही कुरूप सत्य निकलते हैं, क्योंकि उसका तो सारा जीवन परेशानी का और जबरदस्ती का जीवन है।
कहा मजबूरी से कि तू नहीं मानती तो कहे देता हूं, यहां अशर्फियां पड़ी हैं। और उन्हें मैंने यह सोच कर कि कहीं तेरा मन न डोल जाए, उनको गड्ढे में सरका दिया, मिट्टी से ढंक दिया। अब वह पत्नी खूब हंसने लगी।
उस दिन होना था कि सारी दुनिया उस जंगल में होती तो समझ लेती कि वह पत्नी क्यों हंसने लगी! उस दिन सबकी जरूरत थी कि वहां होते हैं, और सुन लेते हैं कि वह पत्नी खूब हंसने लगी, और खूब हंसने लगी।
उसके पति ने कहा: इतनी हंसती क्यों हो, पागल हो गई क्या?
उसने कहा मैं इसलिए हंसती हूं कि मैं हैरान हो गई, तुम्हें अब भी स्वर्ण दिखाई पड़ता है! और फिर मैं यह पूछती हूं कि तुम्हें मिट्टी पर मिट्टी डालते हुए जरा भी लाज न आई, शर्म न आई। तुम्हें स्वर्ण दिखाई पड़ता है! और मिट्टी पर मिट्टी डाल रहे हो, और सोच रहे हो कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हो। मैं तो सोचती थी कि तुम स्वर्ण को जीत लिए, लेकिन नहीं, अभी जीत बहुत दूर है, अभी स्वर्ण तुम्हें दिखाई पड़ता है।
मैंने उन संन्यासियों को कहा: आपको राज-सिंहासन दिखाई पड़ते हैं, आपको धूल में और राज-सिंहासन में फर्क दिखाई पड़ता है।।फिर मामला बहुत दूर है। और कहीं कोई घाव रह गया, कहीं कोई पीड़ा रह गई जो कंडेम कर रही है।
ये जो साधु-संन्यासी जीवन के हर भोग को इतनी निंदा करते दिखाई पड़ते हैं, इसका कोई और कारण नहीं है सिवाय इसके कि भीतर भाव रह गए। जीवन के हर सुख का, जीवन के हर रस का जो निरंतर खंडन और निंदा चलती है, उसके पीछे और कोई मनोवैज्ञानिक कारण नहीं है, पीछे घाव रह गए हैं। वे घाव बदला ले रहे हैं। वह जिन लोगों को भी उन सुखों में देख रहे हैं, उनसे बदला ले रहे हैं। उनको कह रहे हैं कि तुम पापी हो और नरक जाना पड़ेगा। एक ही, यह ही सहारा है, कोई जहां भी ये बात ह‏ुई, जो सुख ले रहे हैं, नरक चले जाएंगे और तो कोई सहारा नहीं है।
भीतर तो मन इन्हीं पापों में जाने का होता है, लेकिन नरक के भय से अपने को किसी तरह, किसी तरह रोके हुए हैं, जबरदस्ती रोके ह‏ुए हैं। ये जो, ये जो कंडेमनेट्री, ये जो निंदक का, ये जो अस्वस्थ, रुग्ण और जीवन के आनंद को उपलब्ध न करने वाले असफल लोगों की लंबी पंक्तिबद्ध परंपरा है।।वह परंपरा धर्म की गर्दन को घोट देती है, उसने घोट ही दी है पूरी तरह से। इन्होंने किस भांति ये सारी की सारी निंदा करने में सफल हो गए। ये असफल रहे, ये रुग्ण होंगे लेकिन ये सफल कैसे हो गए! इन्होंने किस भांति सारी मनुष्य-जाति के ऊपर ये, ये बोझ की तरह बादल घना कर दिया।।काला, कि जीवन का सारा रस, जीवन का सारा छंद छिन्न-भिन्न हो गया!
 ये सफल होने का इनका सीक्रेट, इनकी तरकीब, इनकी विधी क्या थी? ये लोग आकस्मिक रूप से सफल नहीं हो सकते। सारे जगत में उदास चेहरा, हंसते हुए चेहरों पर क्यों जीत गया? रुग्ण-चित्त स्वस्थ चित्त के ऊपर हावी क्यों हो गया? इसने कौन सी तरकीब का उपयोग किया कि यह जीत सका, इसका राज क्या है, इसका सीक्रेट क्या था? उसका सीक्रेट।।है।
मैं एक जलप्रपात को देखने गया था, एक पूर्णिमा की रात में और एक निर्जन पहाड़ से गिरती हुई नदी को देखने गया था। अदभुत थी वह रात, अदभुत था वह जलप्रपात, अदभुत थी वे पहाड़ियां।
कौन सी रात अदभुत नहीं है? कौन सा पहाड़ अदभुत नहीं है? कौन सी गिरती हुई नदी अदभुत नहीं है, लेकिन आंख चाहिए।
एक मेरे मित्र मुझे वहां ले गए थे। थोड़ी ही दूर पहाड़ के नीचे रास्ते पर गाड़ी रोक देनी थी, फिर थोड़ी दूर पैदल जाना था। जिस रास्ते पर गाड़ी रोकी, वहीं से उस निर्जन में, गिरते हुए जलप्रपात का...हवाओं में ठंडक मालूम होने लगी। मैं और मेरे मित्र उतरे और हम बाहर चलने लगे। तो मैंने अपने मित्र को कहा कि तुम्हारी कार के ड्राइवर को भी बुला लें, वह क्यों यहां बैठा रहे? इतने सौंदर्य के निकट यहां क्यों बैठा रहे, उसे बुला लें।
वह हंसने लगे और कहा: आप ही बुला लें।
मैं कुछ समझा नहीं कि वह हंसे क्यों? लेकिन जब बुलाया उसे तो समझ में आया। मैंने उस ड्राइवर को कहा कि दोस्त तुम भी आ जाओ, क्यों यहां बैठे रहोगे, इस रास्ते पर? आदमी की बनाई हुई सड़क पर क्यों बैठे रहोगे, जब कि परमात्मा का बनाया हु‏आ प्रपात बिलकुल पास है, चलो।
वह ड्राइवर हंसने लगा और उसने कहा: जाइए आप। वह ड्राइवर कहने लगा: मैं तो हैरान हूं कि लोग क्या देखने इस पहाड़ पर आते हैं, वहां कुछ भी नहीं है साहब, कुछ पत्थर हैं और पानी गिरता है और कुछ भी नहीं है! वहां कुछ है ही नहीं देखने जैसा, आप लोग काहे के लिए दीवाने हो जाते हैं यही हमारी समझ में नहीं आता! मुझे कई दफा लोगों को लाना पड़ता है। वे वहां देखने जाते हैं और मैं यहां बैठा-बैठा हंसता हूं कि इनको हो क्या गया है? है ही क्या वहां? पहाड़ हैं, पत्थर पड़े हैं, पानी गिर रहा है, आवाज हो रही है।।काहे के लिए दीवाने हुए जा रहे हैं?
मैंने अपने मित्र को कहा कि तुम्हारा यह ड्राइवर गलत धंधा चुन लिया है। इसे धर्मगुरु हो जाता तो ज्यादा सफलता मिलती, काहे के लिए ड्राइवर बना बैठा ह‏ुआ है? यह साधु-संत हो जाता तो महात्मा हो जाता। इसको सीक्रेट पता है, ट्रेड सीक्रेट पता है कि जीवन की निंदा कैसे की जाती है?
जीवन की निंदा इस भांति की जाती है। जीवन की वृहत्त इकाई को तोड़ दो टुकड़ों में, और पूछो कि क्या है इसमें? एक जलप्रपात में क्या है? तोड़ दो टुकड़ों में उसे।।पहाड़, पत्थर, पानी।।तोड़ दो टुकड़ों में, फिर पूछो कि यह क्या है इसमें? मामला खतम हो गया।
एक फूल खिला हुआ है, प्राणों को खींचे दिए देता है। लेकिन पूछो कि क्या है इसमें? लाल रंग है, सफेद रंग है, पंखुड़ियां हैं, जाओ लेबोरेटरि में और कैमिस्ट जांच करवा लो तो कुछ कैमिकल्स निकल आएंगे, कुछ खनिज निकल आएगा, कुछ और निकल आएगा।।है क्या इसमें? बस जान निकल गई। अब उत्तर देना बहुत मुश्किल हो गया।।कि क्या है इसमें?
आप किसी को प्रेम करते हैं, कोई प्रेमी अपनी प्रेयसी को प्रेम करता है, कोई दोस्त अपने दोस्त को प्रेम करता है, कोई मां अपने बेटे को प्रेम करती है; पकड़ लो उसे और पूछो कि क्या है इसमें? है क्या इसमें।।कुछ हड्डियां हैं, कुछ मांस-मज्जा है, और है क्या इसमें जिसके लिए तुम दीवाने हुए जा रहे हो! और जांच करवा लो जाकर किसी डाक्टर से कि क्या है इसमें?
 तो क्या निकलेगा? कुछ लंबाई की हड्डियां निकलेंगी, कुछ वजन की मांस-मज्जा निकलेगी, खून निकलेगा, यह सब निकलेगा।।है क्या इसमें? तोड़ दो इनको चीजों को अलग-अलग और पूछो कि क्या पागल हो गए हो? पूछो मजनू से कि पागल हो गए हो, लैला की जांच करवा लो।।है क्या इसमें? और मजनू हार जाएगा बेचारा। क्योंकि लेबोरेटरी में जांच में वही जीतेगा जिसने कहा कि ये-ये चीजें हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं कि एक आदमी के शरीर में मुश्किल से पांच रुपये का सामान है, इससे ज्यादा का नहीं।।है भी नहीं। पांच रुपये के सामान के पीछे दीवाने हुए जा रहा है, पागल हुए जा रहा है, कह रहा है कि मर जाऊंगा अगर तुम मुझे नहीं मिलोगे।
पांच रुपये खींसे में डालो, अपने घर जाओ। कुछ थोड़ा सा लोहा है, कुछ कैल्शियम है, कुछ और धातुएं हैं, कुछ फॉसफोरस है, इस तरह की चीजें हैं शरीर में, और कोई अस्सी परसेंट तो पानी है। सो सड़क-सड़क पर मिल रहा है नल से, क्या इतनी परेशानी हो जाएगी। तोड़ दो चीजों को टुकड़ों में और फिर पूछो क्या है इसमें? और आप जीत गए। और दूसरी तरफ कोई उत्तर खोजना मुश्किल मामला है।
धर्म गुरु को ये तरकीब पता चल गई, बहुत पुराने जमाने से, चीजों को तोड़ दो, दूसरा आदमी हार जाएगा। उत्तर देना फिर बिलकुल कठिन नहीं है। क्योंकि वह जो है।।जोड़ में है। वह जो है, जो पकड़ता है और खींचता है, फूल में जो सौंदर्य है, वह न तो कैमिकल्स का है, न खनिज का है, न रंगो का है। इन सबके जोड़ में कोई अरूप प्रकट हो जाता है। आदमी में जो प्रकट हो रहा है, वह हड्डी-मांस-मज्जा नहीं है। लेकिन इन सबके जोड़ से वह सिचुएशन बनती है, वह भूमिका बनती है कि वह जो अरूप है, वह प्रकट हो जाता है। वह जो आत्मा है, वह प्रकट हो जाती है।
प्रेम उसकी तरफ बहा जा रहा है।।न कैल्शियम की तरफ, न फॉसफोरस की तरफ, न हड्डी की तरफ, न कुएं की तरफ, न पानी की तरफ। लेकिन इनको तोड़ के अलग कर दो तो वह अरूप विलीन हो जाता है। और लेबोरेटरि में यही चीजें रह जाती हैं।
मार्कट्वेन का नाम आपने सुना होगा, अमरीका का एक खूब हंसने वाला हंसोड़ा आदमी था। और कई बार उतरे हुए चेहरे जो शास्त्रों में नहीं लिख पाते, वह हंसता हुआ आदमी किसी एक छोटी बात में कह जाता था। मार्कट्वेन का एक मित्र था, वह बहुत बड़ा उपदेशक था। बहुत बड़ा पंडित और ज्ञानी था। उसने मार्कट्वेन को कहा कि कभी तुम मेरा प्रवचन सुनने नहीं आए?
मार्कट्वेन ने कहाः क्या रखा है प्रवचन में? हम भी बोलना जानते हैं, सभी बोलना जानते हैं, बोलने में क्या रखा हुआ है? और सब उधार बाते हैं, सब चुराई हुई बातें हैं, इधर से चुरा ली, उधर से चुरा ली और बोल दिया।।है क्या इसमें? कौन सी नई बात है, जो मैं सुनने आऊं ?
उसके मित्र ने कहा: फिर भी एक बार तो तुम आओ।
उसने कहा: मैं कल आता हूं। उसके मित्र ने बहुत सोचा, बहुत विचारा कि मार्कट्वेन कल आएगा तो कुछ मौलिक, कोई विचारपूर्ण चिंतन नहीं मिला तो क्या सोचेगा मन में? उसने बहुत सोचा उसके मन में जो-जो, जो-जो गहरे से गहरे अनुभव थे, वे सारे उसने उस प्रवचन में कहे, जिसमें मार्कट्वेन मौजूद था, वह सामने ही बैठा था।
लेकिन मार्कट्वेन बिलकुल सख्त, जैसे स्कूल में परीक्षक बैठता है बच्चों के सामने।।ऐसा बैठा हुआ है। जैसे वह इंस्पेक्टर बैठता है पुलिस थाने में चोर के सामने।।ऐसा बैठा हुआ है। बिलकुल हिलता-डुलता नहीं, चेहरे पर भाव भी नहीं आते खुशी के, इसके-उसके, बिलकुल उपेक्षा से सुन रहा है। वह बेचारा घबराया जा रहा है, बार-बार देखता है ट्वेन की तरफ कि शायद, शायद वह मुस्कुराए, शायद उसके मन पर कोई भाव आए। लेकिन नहीं, वह बिलकुल धर्मगुरु है, वह बिलकुल बैठा हुआ है। वह घबड़ाए जा रहा है, उसका पसीना छूटा जा रहा है कि अब तो, इसको तो जरा भाव ही नहीं आते, इसकी आंख जरा झपकती भी नहीं, इससे इशारा भी नहीं मिलता, यह तो बिल्कुल पत्थर बना हुआ बैठा है जैसे मैं बिलकुल बेकार की बातें कह रहा हूं। फिर प्रवचन भी पूरा हो गया। बाकी तो......मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे हैं। वे दीवाने हो गए, वे पागल हो गए हैं।
फिर वे दोनों मार्क ट्वेन को लेकर मित्र की गाड़ी में बैठ गए। रास्ते में उसने पूछा डरते-डरते, कैसा लगा, मैंने जो कहा वह कैसा लगा?
मार्क ट्वेन ने कहाः क्या लगना था उसमें, था क्या? किसको पूछते हो क्या लगा, घंटा भर खराब कर दिया, सिर फार डाला, था क्या वहां?
उस आदमी ने कहा: कुछ भी नहीं था? मैंने जो कहा, वह कुछ भी नहीं था?
कुछ भी नहीं था। शब्द-शब्द ही शब्द थे, और तुम्हें मैं बता दूं शायद तुम्हें पता न हो कि मैं पिछले सप्ताह एक किताब पढ़ रहा था, उसमें यह सबके सब, जो-जो तुमने कहा, एक-एक शब्द उसमें मौजूद है। सब नकल और चोरी है। सब बॉरोड, सब उधार। इसमें मौलिक कुछ भी नहीं है। खयाल छोड़ दो।।भ्रम, कि बड़े मौलिक चिंतक हो। उन लोगों ने किताब नहीं पढ़ी, इसलिए ताली बजा रहे थे। मैंने वह किताब पढ़ी है। वह आदमी तो बहुत हैरान हुआ, क्योंकि उसने कोई किताब पढ़ कर नहीं बोला था वह।
उसने कहा: यह तो हो भी सकता है कि मैंने जो कहा उसमें से कोई बात किसी किताब में हो, लेकिन तुम कहते हो एक ही किताब में सब शब्द।
उसने कहाः एक-एक शब्द और चाहो तो शर्त लगा लो। उस व्यक्ति ने शर्त लगा ली कि ठीक है, सौ डालर की शर्त रही कि अगर तुम वह किताब मुझे बता दो, जिसमें मैंने जो कहा है, एक-एक शब्द हो।
उसने कहा: सुबह मैं किताब भेज दूंगा। किताब मेरी टेबल पर रखी है। मित्र तो बड़ा हैरान था, पक्का करके घर लौटा कि सौ रुपये हार गए बातचीत के जोश मे आकर।
लेकिन गलती में था वह मार्कट्वेन सौ डालर जीत लेगा। उसने एक डिक्शनरी शब्दकोश भेज दिया, कि इसमें सब एक-एक शब्द हैं। सौ डालर भेज देना, नौकर के हाथ किताब मैं भेजता हूं। इस शब्दकोश में सब शब्द हैं जो-जो आप बोले हैं। एक-एक खोज लें, जो भी न मिले, मुझे बता दें। ये फलां शब्द नहीं मिलता। यह जीत गया, जीत जाएगा, जीत गया।
लेकिन ये व्यंग्य बड़ा अर्थपूर्ण है। धर्मगुरु ऐसे ही जीत गए जीवन भर। विश्लेषण, ऐनालिसिस कर दी, चीजों को तोड़ दिया। उनमें जो भी था महत्वपूर्ण, वह उनके जोड़ में था, उनके इंटीग्रेशन में था। वे चीजें इकट्ठी थीं।।तब था। एक गीत में क्या है? शब्द ही तो होते हैं। लेकिन शब्दों के जोड़ से कोई चीज प्रकट होती है जो शब्दों से ज्यादा है, शब्दों से ऊपर है, शब्दों से बहुत ज्यादा है। चीजें जोड़ से ज्यादा हैं, चीजें जोड़ ही नहीं हैं। अगर चीजें जोड़ ही हैं तो जगत में फिर कोई परमात्मा नहीं है, फिर कोई आत्मा नहीं है।
चीजें जोड़ से ज्यादा हैं। गणित का जोड़ नहीं हैं कि दो और दो चार ही होते हैं। हड्डी और मांस-मज्जा का जोड़, हड्डी और मांस-मज्जा का जोड़ ही नहीं है, कुछ चीज इस जोड़ से ज्यादा प्रकट हो जाती है। जोड़ केवल एक अवसर है, एक मौका है, जिसमें वह जो ट्रांसेंडेंट है, वह जो पार है, अतीत है, वह प्रकट होता है।
एक कवि ने चार शब्द इकट्ठे किए हैं, उस भाव को प्रकट करने के लिए।।जो शब्दों से पार है, उन चार शब्दों के जोड़ में वह भाव स्पंदित होता है। एक चित्रकार ने रंग इकट्ठे किए हैं और एक चित्र बनाया है। चित्र रंगों का जोड़ नहीं है, चित्र रंगों का जोड़ नहीं है। रंगों के जोड़ से उसे प्रकट करने की कोशिश की है।।जो रंगों में नहीं आता। शब्द से उसे कहने की कोशिश की जाती है, जो निःशब्द है।
मैं प्रेम से आपका हाथ अपने हाथ में ले लेता हूं। लेकिन प्रेम से लिया गया हाथ, और मैं क्रोध से आपका हाथ अपने हाथ में ले लेता हूं। इन दोनों हालतों में विज्ञान कोई फर्क नहीं कर सकता कि दो हाथों के जोड़ में क्या फर्क है। क्रोध से हाथ में लिया गया हाथ, प्रेम से हाथ में लिया गया हाथ।।अगर इन दोनों हाथों की वैज्ञानिक परीक्षा की जाए, तो हड्डी-मांस-मज्जा एक दूसरे को जकड़े हुए मिलेंगे, और कुछ भी नहीं है। लेकिन प्रेम से हाथ में लिए गए हाथ में फर्क है, क्रोध से हाथ में लिए गए हाथ में फर्क है।।क्या फर्क है?
 दो हाथों का मिलना दो हाथों का जोड़ नहीं है, उससे ज्यादा भी कुछ है। और वह ज्यादा, किसी लेबोरेटरि में, किसी तराजू पर पकड़ में नहीं आता।।वह ज्यादा, पकड़ में नहीं आता है। वह ज्यादा क्योंकि पकड़ में नहीं आता है, पकड़ से छूट जाता है, एकदम छूट जाता है।।जहां हमने चीजों को तोड़ा, वह विलीन हो जाता है।।बस। यह तरकीब है सारे जीवन को निंदित कर देने की। भोजन में क्या है? स्वाद में क्या है? थोड़ी सी लार, और क्या है? जीभ और उसमें थोड़े से जीभ के जो संवेदनशील हिस्से हैं, वे थोड़े प्रभावित हो जाते हैं।
तो ठीक है थोड़ी सी हलचल मच जाती, थोड़े रस सूख जाते हैं, है ही क्या? संगीत में क्या है? एक पागल आदमी ठोंके चला जा रहा है तारों को, और आप बैठे सुन रहे हैं। दिमाग खराब। एक आदमी तार ठोक रहा है और आप बैठे सुन रहे हैं। कर क्या रहा है वह आदमी? सितार में है क्या? तार कसे हैं और एक आदमी ठोंके चला जा रहा है। कानों के पर्दों पर थोड़ी आवाज की चोट पड़ रही है, और है क्या?
नहीं; लेकिन।।है। बहुत कुछ है। वह सितार के तार ही नहीं, आदमी के हाथ ही नहीं, वह तंबूरा ही नहीं, कान पर पड़ती चोट ही नहीं, इन सबके इकट्ठे जोड़ से कुछ प्रकट हो गया है।।जो जोड़ से बाहर है, और अतीत है और पार है। वह जो पार है, वही जीवन का रस है, वही जीवन का छंद है। लेकिन गणितज्ञों ने, निंदकों ने तोड़ कर रख दिया है जीवन को और कह दिया जीवन असार है।।कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं।
यह जो जीवन की असारता अगर मन में पकड़ गई हो, जीवन की व्यर्थता अगर मन में पकड़ गई हो, जीवन का दुख अगर मन में पकड़ गया हो, तो परमात्मा और आपके बीच अलंघ्य खाइयां आपने खड़ी कर ली हैं। परमात्मा अगर कुछ है तो रस है, परमात्मा अगर कुछ है तो छंद है। परमात्मा अगर कुछ है तो काव्य है, परमात्मा अगर कुछ है तो अरूप का स्पंदन। वह जो टुकड़ों में छूट जाता है और समग्र में इकट्ठा हो जाता है।।वह है। और उसे पाने के लिए यह गलत दृष्टि मन से हट जानी चाहिए। निंदक का भाव मन से हट जाना चाहिए। भोजन भी ऐसे, इतने आनंद से जैसे मंदिर की प्रार्थना, तब आपको पता चलेगा कि भोजन क्या है? भोजन भी ऐसे जैसे मंदिर की पूजा और प्रार्थना, भोजन भी ऐसे जैसे भगवान का प्रसाद।।तब अन्न भी ब्रह्म हो जाए तो आश्चर्य नहीं है। क्योंकि वह भाव फिर भोजन के स्वाद में एक नये अर्थ को प्रकट कर देगा।
जीवन के क्षुद्रतम में भी विराट मौजूद है, लेकिन क्षुद्रतम को विराट की दृष्टि से देखने की क्षमता और पात्रता।।क्षुद्रतम में भी। एक-एक आंख में भी उसकी झलक है, लेकिन देखने का सवाल! एक-एक फूल में भी वह है, एक-एक पत्ते में भी वह है, लेकिन देखने की बात! और जब देखने से कोई तैयार हो जाता है तो वह दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है।।वह तो है। लेकिन हमने तो विरोधी रुख बना कर रखा है, हम तो पीठ किए खड़े हैं, निंदक हमेशा पीठ किए हुए खड़ा है, उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ता है।
इस तीसरे सूत्र में मैं आपसे कहना चाहता हूं जीवन के निंदक नहीं, जीवन के प्रेमी। अगर ध्यान की परिपूर्ण प्रणाली में प्रवेश करना है तो जीवन का प्रेम।।आमूल, समग्र जीवन का प्रेम, बिना निषेध के प्रेम।।फूल का भी और कांटे का भी। क्योंकि फूल शायद न हो सकता, अगर कांटा न होता। कांटे के बिना शायद फू ल न हो सकता। फिर जिस जड़ से फूल निकलता है, उसी से कांटा निकलता है। तो कांटे और फूल के भीतर गहराइयों में कहीं न कहीं कोई तादात्मय, कहीं न कहीं कोई एकता, कहीं न कहीं एक ही बात होनी चाहिए, नहीं तो फिर कांटा और फूल एक से ही कैसे निकल आता है! जहां से फूल निकलता है, वहीं से कांटा निकलता है।।उसी जड़ से, उसी बीज से।
तो कांटे और फूल में ऊपर हमें विरोध दिखाई पड़ रहा है और लेकिन भीतर गहरे में विरोध नहीं हो सकता।।अविरोध है। तो फूल को भी प्रेम, कांटे को भी प्रेम; प्रकाश को भी प्रेम और अंधकार को भी प्रेम; भले को भी प्रेम और बुरे को भी प्रेम। क्योंकि शायद जैसे फूल और कांटा एक ही जगह से निकलता है; भला और बुरा, अंधेरा और प्रकाश भी एक ही जगह से जन्म पाते हैं, और निकलते हैं। शायद हम उनकी गहरी यूनिटी को नहीं खोज पाते इसलिए हमें विरोध दिखाई पड़ता है कि अंधेरा बुरा और प्रकाश अच्छा। ऐसा कैसे हो सकता है।।अंधेरा बुरा और प्रकाश अच्छा? क्योंकि अंधेरा न हो तो प्रकाश के होने की भूमि ही मिट जाती है। प्रकाश है क्योंकि अंधेरा है, फूल है क्योंकि कांटा है, राम हैं, क्योंकि रावण है। राम के होने की जड़ बन जाती है?
समग्र जीवन के प्रति प्रेम का भाव, तो इस सारे जीवन में एक यूनिटी, एक एकात्म, एक तार फैला हुआ मालूम पड़ेगा। वह जो इनर यूनिटी है, वह जो अंतरक्त एकता है उसी का नाम परमात्मा है। जीवन के भीतर जो अंतरस्थ एकता है।।अखंड, कांटे और फूल में भी नहीं टूटती और जुड़ी है; अंधेरे और प्रकाश में भी नहीं टूटती और जुड़ी है; जीवन और मृत्यु में भी नहीं टूटती और जुड़ी है। वह जो अखंड सूत्रबद्धता है; हमें तो उलटा दिखाई पड़ता है, जीवन तो अच्छा लगता है, मौत बुरी लगती है।।पर आप पागल हो गए हैं!
अगर जीवन अच्छा है और मौत बुरी है, और मौत न हो तो जीवन हो सकता है? मौत है इसलिए जीवन है। मौत और जीवन किसी आंतरिक इकाई के दो हिस्से हैं। किसी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और सिक्का अगर बचाना है तो दोनों पहलुओं को ही बचाना पड़ेगा, एक पहलू नहीं बचाया जा सकता। ऐसा नहीं हो सकता कि एक पहलू बचा लें, दूसरा फेंक दें। जीवन के प्रति प्रेम, जिस दिन मौत के प्रति भी प्रेम बन जाता है; फूल के प्रति प्रेम, जिस दिन कांटे के प्रति भी प्रेम बन जाता है; प्रकाश के प्रति प्रेम, जिस दिन अंधकार के प्रति भी प्रेम बन जाता है।।सारे जीवन के, इकट्ठे, पूरे जीवन के प्रति प्रेम।।उस दिन, उस दिन ही केवल ध्यान की परिपूर्णता उपलब्ध हो सकती है, उसके पहले नहीं।
 निंदक का भाव छोड़ दें, तोड़ने वाले का भाव छोड़ दें, वह ऐनालिस्ट, विश्लेषक का भाव छोड़ दें। एक सिंथेटिक ऐटिट््यूड, चीजों के इकट्ठे होने का भाव; तो फिर, फिर जीवन में घटना घट सकती है, फिर घट सकता है।।वह, फिर उतर सकता है।।वह।
लेकिन हम...पूरी मनुष्यता पीड़ित रही है इस निंदा के भाव से। उन निंदकों ने सब चीजों को दो हिस्सों में तोड़ दिया। यह भाव अधार्मिक है। निंदक का भाव। धार्मिक व्यक्ति का भाव प्रेमी का भाव है। परिपूर्ण प्रेम का भाव। तो जीवन के प्रति प्रेम की सरिता को बहने दें।।बेशर्त। क्योंकि शर्त लगाई कि निंदा शुरु हो गई। यह मत कहें कि मैं इसको प्रेम करूंगा और उसको नहीं, क्योंकि इसको और उसको के बीच कोई आंतरिक एकता है। यह मत कहें कि मैं इसको चाहूंगा और उसको नहीं, यह मत कहें कि यह मुझे पसंद है और वह नहीं। क्योंकि जो आपको पसंद है और जो आपको पसंद नहीं है।।वह दोनों एक ही जगत में एक साथ मौजूद हैं, उनके भीतर कोई आंतरिक एकता है। यह मत कहें कि मैं स्वर्ग जाऊंगा, नरक नहीं; यह मत कहेें। यह मत कहें कि मैं सुख ही चाहूंगा, दुख नहीं। यह मत कहें कि मैं जन्म ही चाहता हूं, मृत्यु नहीं।
एक सूफी फकीर औरत थी राबिया। वह एक दिन एक गांव में भागी हुई चली जाती थी। उसके हाथ में एक मशाल थी, और एक हाथ में एक पानी का घड़ा। लोगों ने पूछा कि राबिया यह क्या हो गया, भागती जाती, पागल हो गई हो? यह हाथ में मशाल और घड़ा किसलिए? उसने कहा कि मैं जा रही हूं कि मशाल से स्वर्ग में आग लगा दूं और पानी से नरक को डुबो दूं।
उन्होंने कहा, क्या हो गया है तुम्हें? उसने कहा कि इन दो ने, स्वर्ग और नरक के फासले ने धार्मिक आदमी को नष्ट कर दिया है। धार्मिक आदमी चुनाव करने लगा कि नर्क मुझे जाना नहीं, स्वर्ग मुझे जाना है। और जिसने जगत में चुनाव किया, उसने पूरे परमात्मा को स्वीकार नहीं किया।
पूर्ण के स्वीकार का अर्थ है: मेरी कोई च्वाइस नहीं, मेरा कोई चुनाव नहीं है। मैं यह नहीं कहता कि यह पसंद और वह नापसंद। मैं यह कहता हूं: जो है वह भी भीतर है, जो है वह प्रेम का पात्र है।।जो है। अगर मुझे उसमें कुछ पसंद नहीं पड़ता तो यह मेरी गलती होगी, यह मेरी भूल होगी, यह मेरी नासमझी होगी, क्योंकि वे दोनों एक साथ हैं। तो उन दोनों के भीतर कोई आंतरिक संबंध है, कोई आंतरिक इकाई है, कोई आंतरिक जोड़ है। और जो पूरे को जानता होगा वह जानता होगा कि ये दोनों एक साथ ही हो सकते हैं, अलग-अलग नहीं हो सकते।
जिस दिन इतना च्वाइसलेस, इतना चुनाव रहित चित्त हो जाता है, उस दिन ध्यान हो गया। तो ध्यान को मैं कहता हूं: च्वाइसलेसनेस। ध्यान को मैं कहता हूं: अचुनाव, अनिर्णय, अभेद। जीवन की समग्रता को, उसकी समग्रता में जैसा है, वैसी स्वीकृति। तब फिर ध्यान के आने में देर कहां रही? फिर कहां रही बाधा, फिर कहां रहे पहाड़, कहां रही दीवालें, जिन्हें पार करना है।।गिर गए वे।
तो यह मैं तीसरा सूत्र आपको कहना चाहता हूंः जीवन के प्रति प्रेम। बहुत जो चुकी जीवन की निंदा, और उसका फल भी बहुत भोगा जा चुका है। जीवन के निंदकों ने ही यह जगत ऐसा गंदा, ऐसा कुरूप और ऐसा व्यर्थ बना दिया, काश! जितनी निंदा की गई जीवन की, इतने जीवन के प्रेम के गीत गाए गए होते, काश! जीवन के आनंद की इतनी उदभावनाओं को उठाया गया होता, काश! जीवन की क्षुद्रतम बातों के प्रति भी प्रेम की गंगा बहाई गई होती।।तो यह पृथ्वी कुछ और होती, कुछ दूसरी होती, बिलकुल दूसरी होती।
यह सुदंर होती, यह शिव होती, यह सत्य होती, लेकिन यह नहीं हो सका। क्योंकि धर्म रुग्ण, निंदकों के हाथ में रहा है। अब तक धर्म हंसते हुए चेहरे का नहीं बन पाया है, रोते हुए चेहरे का है।
यह तीसरा सूत्र स्मरण रखेंगे। इसे थोड़ा जीवन में प्रयोग करेंगे तो उसके बहुल परिणाम आने सुुनिश्चित हैं। अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे दस मिनट के लिए।



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