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मंगलवार, 28 अगस्त 2018

जीवन की खोज-(विविध)-प्रवचन-04

चौथा-प्रवचन-(प्रवेश

मेरे प्रिय आत्मन्!
सत्य के संबंध में, परमात्मा के प्रेम के संबंध में कुछ बीज आपके भीतर बो सकूं, कोई प्यास आपके भीतर जग जाए, कोई असंतोष आपके भीतर पैदा हो जाए, इसकी चेष्टा करता हूं। संतोष के लिए नहीं, असंतोष आपके भीतर पैदा हो, इसका प्रयास करता हूं। आप अशांत हो जाएं परमात्मा के लिए, सत्य के लिए एक, एक लपट की भांति, आग की भांति आपके भीतर कोई अभीप्सा चलने लगे। जो असंतुष्ट होता है, वह कभी संतुष्ट भी हो जाता है। लेकिन जो कभी असंतुष्ट ही नहीं होता, उसके संतोष के द्वार सदा के लिए बंद हैं। और जो प्यासा होता है उसे कभी पानी भी मिल जाता है और जो प्यासा ही नहीं होता वह पानी से सदा को वंचित रह जाता है। इन चार दिनों में उसी प्यास के संबंध में थोड़ी सी बातें कहीं हैं।

पहले दिन मैंने प्यास के संबंध में ही कुछ कहा। और धन्य मानता हूं उन लोगों को जिनके जीवन में किसी न किसी भांति की प्यास सत्य के लिए है। कोई अंकुर जिनके भीतर हैं। और जो चैबीस घंटे चाहे कुछ भी करते हों, लेकिन उस करने से तृप्त नहीं हैं। और चाहे कहीं भी हों, जीवन में कैसे भी हों, उनके भीतर कहीं कोई बात सरकती रहती है।

कोई आंदोलन उनके मन के भीतर चलता रहता है और उन्हें लगता है कि जो है वह तृप्त होने जैसा नहीं है। कुछ और पाने जैसी बात भी है। यह प्यास जीवन के दुख और जीवन के वास्तविक स्वरूप को मृत्यु के भांत देखने की तरह पैदा होती है, वह मैंने आपसे कहा। उसके बाद हमने मार्ग पर विचार किया कि किस भांति हम इस प्यास के बाद आगे बढ़ सकते हैं? मैंने कहा कि न विश्वास, न अविश्वास, बल्कि दोनों से मुक्ति और दोनों से स्वतंत्र चित्त सत्य को जानने में समर्थ होता है।
फिर हमने द्वार के संबंध में विचार किया। न विचार से और न अविचार से बल्कि निर्विचार से। निर्विचार सजगता से मनुष्य को कोई पहंुच उपलब्ध होती है। मनुष्य कहीं पाता है कि पहुंचा। उसके जीवन में कोई नये आलोक के और आनंद के दर्शन होते हैं। उसका हमने विचार किया। आज अंतिम दिन प्रवेश के संबंध में आपसे कुछ थोड़ी सी बात कहनी है। बहुत ही पवित्रतम क्षेत्र है जहां हम प्रवेश करना चाहते हैं। बहुत ही पवित्रतम क्षेत्र है प्रवेश का, प्रभु के निकट जहां हम पहुंचना चाहते हैं। बहुत ही शांति से, बहुत सरलता से समझने का है। जैसा मैंने कल कहा, सजगता हो और विचार न हों। यही साधना है। या तो विचार होते हैं, सजगता नहीं होती, और या विचार नहीं होते हैं तो फिर मूच्र्छा हो जाती है। इन दोनों स्थितियों में चित्त बंधा है। इन दोनों के बाहर उठना जरूरी है और जो बाहर उठ सकता है, वही ध्यान को पाता है। कैसे हम बाहर उठेंगे? सामान्यतया जो भी उपक्रम किए जाते हैं, वे बाहर नहीं ले जाते, बल्कि और बंद कर देते हैं। और जकड़ देते हैं और बंधन से बांध देते हैं। सम्यक प्रयोग जीवन के भीतर जागरण लाने का क्या हो? क्या हम राम-नाम का जप करें? मालाएं जपें? शास्त्रों को पढ़ें? मैंने पीछे चर्चाओं में कहा कि इनसे कुछ भी नहीं होगा। मैंने यह भी कहा कि बहुत से रास्ते हैं जिनसे हम अपने को मूच्र्छित कर लेते हैं, बेहोश कर लेते हैं; किसी भांति इंटाक्सिकेंट कर लेते हैं, और फिर उन्हीं में अपने जीवन को गंवा देते हैं। उनसे भी कुछ नहीं होगा। होगा जीवन की समस्त क्रियाओं के प्रति सतत जागरूकता लाने से। जैसा मैंने कहा कि जिस ओर हमारा ध्यान जाएगा, उसी ओर हम जाग जाते हैं। अगर जीवन की समस्त क्रियाओं के प्रति हमारा ध्यान हो तो एक अदभुत जागरण हमारे भीतर पैदा होना शुरू हो जाएगा।
कल दोपहर एक बजे मैं किसी की प्रतीक्षा कर रहा था। तो मैं पड़ा रहा, चूंकि प्रतीक्षा थी, इसलिए द्वार पर छोटा सा भी खटका हुआ, किसी के पैर की आवाज आई तो मैं जागा हुआ था, उसका मुझे बोध था। वैसे मुझे कोई बोध नहीं होता है। लेकिन चूंकि प्रतीक्षा थी, इसलिए छोटा सा भी खटका हुआ, दरवाजे पर कोई हिला, किसी ने कोई बात की, सीढ़ियों पर कोई चला, तो मुझे वह सब सुनाई पड़ रहा था। मेरे बोध में था। बोध में था तो मुझे ज्ञात हो रहा था। अगर मेरा बोध उस तरफ नहीं होता तो मुझे ज्ञात नहीं होता। इसलिए मैंने कहा कि ध्यान की धारा, जिस और हो वहां हमारा बोध जग जाता है। अगर ध्यान की धारा जीवन के समस्त क्षणों में जाग जाए तो हमें आत्म बोध पैदा हो जाता है। अगर खंडित रूप से ध्यान की धारा किसी तरफ जगे तो हमें पर-बोध होता है, अगर अखंड रूप से ध्यान की धारा जग जाए तो हमें स्वयं बोध हो जाता है।
एक छोटी सी कहानी से अपनी चर्चा को मैं शुरू करूं।
उससे आपको समझ में आ सके कि मेरा बोध से, ध्यान से क्या अर्थ और क्या प्रयोजन है? वहां पूरब के मुल्कों में विशेषकर जापान में, तलवार चलाना और तलवार चलाने की कुशलता सीखने के लिए विद्यालय होते हैं। कभी हमारे मुल्क में भी होते थे। उन विद्यालयों पर लिखा होता हैः हाउस ऑफ गॉड। यह बिल्कुल ही पागलपन की बात है। जहां तलवार चलाना सिखाते हैं वहां विद्यालय पर लिखे रहते हैं, ईश्वर का घर, परमात्मा का मंदिर। हमको भी हैरानी होगी कि अंदर तलवार चलाना सिखाते हैं और बाहर दरवाजे पर लिखे रहते हैं, ईश्वर का घर। लेकिन मैं आपसे कहूं, अगर कोई तलवार चलाना ठीक से सीख जाए तो ईश्वर के घर के करीब पहंुच जाता है। क्योें पहुंच जाता है? क्योंकि तलवार चलाने वाले को बड़ा होश रखना पड़ता है। और अगर होश पूरा-पूरा जग जाए तो तलवार चलानी भी आ जाती है, और ईश्वर की तरफ पहुंचने का रास्ता भी बन जाता है। इसलिए उन लोगों ने तलवार चलाने वाले घरों के ऊ पर लिखा हुआ हैः हाउस ऑफ गॉड।
एक ऐसे ही प्रभु के मंदिर में जहां तलवार सिखाई जाती थी, एक नया युवक जाकर दीक्षित होना चाहता था, वह गया। उस समय का जो बहुत बड़ा गुरु था तलवार सिखाने वाला, उसके पास गया और कहा कि मैं दीक्षित होना चाहता हूं और मुझे भी यह कला सीखनी है। उसके गरु ने कहाः कितने दिन मेरे यहां रुक सकोगे? उस व्यक्ति ने कहाः बहुत जल्दी है मुझे, बहुत से बहुत वर्ष भर रुक सकता हूं। तो उस आदमी ने, उसके गुरु ने कहा कि वापस लौट जाओ, कोई छोटा-मोटा काम सीखो, तलवार चलाना बड़ा काम है, जन्म-जन्म लग जाते हैं और फिर यह कोई तलवार चलाना छोटी-मोटी बात नहीं है। हम तो तलवार चलाने से ही परमात्मा में प्रवेश भी सिखाते हैं। इसलिए जन्मों की प्रतीक्षा और धीरज लेकर आओ तो सीख सकते हो। इतने जल्दी नहीं होगा। उस युवक ने कहाः कितना समय लगेगा? फिर गुरु ने कहाः समय की कोई बात ही नहीं है, एक क्षण में भी हो सकता है और जन्म भी लग सकते हैं। तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि तुम बोध को कितनी तीव्रता से जगाते हो? उसने कहा कि मैं रुकूंगा, जब तक चाहेंगे रुकूंगा। उसके गुरु ने कहाः स्मरण रखो, अगर धीरज पक्का है तो दुबारा मुझसे मत कहना कि अब तलवार चलाना सिखाओ। जब मेरी मर्जी होगी तब शुरू करूंगा। ऐसा वर्ष बीत गया। एक वर्ष उसने कहा था सीख लूं। वर्ष बीत गया। और उसके गुरु ने कहाः तुम घर में कचरा झाड़ो, दीवालें साफ करो, पानी लाओ, गाय का दूध दोहो, ये सारे काम करो। जब जरूरत होगी मैं तुम्हारा पाठ शुरू करूंगा।
एक वर्ष बीतना हो गया, उसका कोई पाठ शुरू नहीं हुआ। वह कचरा ढोता था, घर साफ करता था और छोटे-मोटे काम करता था। गुरु का उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं था। दूसरे लोगों की तरफ ध्यान था। वह बहुत हैरान हुआ। ऐसे तो जन्म-जन्मों गुजर जाएंगे और कुछ भी सीखने को नहीं मिलेगा। लेकिन एक दिन वह कचरा बुहारी से साफ कर रहा था और पीछे से गुरु ने आकर एक लकड़ी की तलवार से उसके ऊपर हमला किया। पीछे से एकदम से हमला किया वह घबरा गया और चैंक कर खड़ा हो गया। उसने कहा यह क्या करते हैं? उसके गुरु ने कहा पाठ शुरू किया। अब ध्यान रखना, मैं कभी भी हमला कर सकता हूं। तुम कोई भी काम करोगे, मैं कभी भी हमला कर सकता हूं। और फिर हमले होने शुरू हो गए, वह रोटी बना रहा है, और पीछे से आकर गुरु उस पर लकड़ी की तलवार से हमला कर देगा। वह कचरा झाड़ रहा है, पीछे से हमला हो जाएगा। वह सो रहा है, हमला हो जाएगा। चैबीस घंटे कहीं से भी हमला हो सकता है। क्या हुआ उसके भीतर? उसके हाथ में कोई तलवार नहीं है। बचने का कोई उपाय नहीं है, उसने कहा कि मुझे भी तलवार दें। गुरु ने कहाः अभी तलवार क्या करोगे? पहले बोध आ जाए तो तलवार काम की होगी।
जरा कल्पना करें, अगर आपके पीछे कोई इस तरह की स्थिति हो कि आप सो रहे हैं कोई हमला कर दे, आप खाना बना रहे हैं, कोई हमला कर दे; आप खाना खा रहे हैं, कोई हमला कर दे। चैबीस घंटे वह सजग रहने लगा। चैबीस घंटे उसे बोध रहने लगा कि हमला होता है। किसी भी क्षण हमला हो सकता है, ऐसे दिन बीतने लगे। उसके भीतर एक नयी चेतना की स्थिति बनने लगी। उसका ध्यान पूरे वक्त इस बात पर रहने लगा कि हमला होने को है। धीरे-धीरे यह हुआ कि हमला गुरु कर रहा है और वह एकदम चैंक कर खड़ा हो जाएगा। अभी हमला हुआ नहीं, वह इस तरफ देख रहा है, पीछे हमला होने को है और वह सजग हो जाएगा, और चैंक कर खड़ा हो जाएगा। गुरु प्रसन्न हुआ और उसने कहा कि कुछ पाठ में गति हो रही है। तीन वर्ष बीतते-बीतते यह हालत हो गई कि वह ऐसे बैठा हुआ है, हमला होगा तो वह हाथ पहले से बढ़ा देगा। तीन वर्ष बीतते-बीतते बोध ऐसा सजग हुआ कि अब उसे हर वक्त बोध है कि क्या हो सकता है? वह एकदम जागा हुआ है। उसका होश है। क्योंकि जो लोग तलवार की कला में कुशल होते हैं, यह नहीं कहा जा सकता कि दूसरा तलवार मारने वाला कहां तलवार मारेगा? उसकी तलवार मारने केे पहले आपकी तलवार पहुंच जानी चाहिए बचाने को, नहीं तो आप बच नहीं सकेंगे। जब कोई तलवार से लड़ता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि तलवार का हमला कहां होगा? और अगर उस हमले के पहले आपका बचाव नहीं है, तो आप फिर नहीं बच सकते। हमले के पहले बचाव का मतलब हुआ बोध इतना तीव्र होना चाहिए कि उसके भीतर इच्छा पैदा हो कि हमला करे और आपके भीतर इच्छा का अनुभव हो जाए कि हमला कहां होने को है। नहीं तो कोई तलवार चलानी नहीं सीख सकता।
तो उसे बोध, उसे सजगता, उसने तीन वर्षों के बाद सोचा कि मैं तो मुझे तो इतना परेशान किया जा रहा है, वह नींद में भी उसका होश रहने लगा। नींद में भी गुरु हमला करता था तो वह एकदम चैंक कर बैठ जाता था। उसने कहा मैं भी तो देखूं, यह बूढ़ा मुझे परेशान कर रहा है, इसका बोध कैसा है? तीन वर्ष पूरे होने पर, गुरु लेटा हुआ था एक दिन, सुबह कोई पांच बजे होंगे। वह गया और उसने हमला किया गुरु पर। वह अपना...अपनी लकड़ी उसने हाथ में उठाई, उसके गुरु ने आंखें बंद ही किए कहा, ठहरो, बहुत हैरान हो गया। उसने कहा कि यह क्या, अभी तो आप आंख बंद किए हुए पड़े हैं। गुरु ने कहा कि अगर बोध बहुत सजग हो, तो तुम्हारे भीतर जो विचार की भी थिरकन होती है, वह भी पकड़ में आ जाती है। अगर बोध बहुत सजग हो तो दूसरे के भीतर जो विचार सरकता है, उसकी पदध्वनि भी सुनी जाती है। अगर बोध बहुत सजग हो तो दूसरे के भीतर जो भाव की लहर चंचल होती है, उसकी प्रतिध्वनि भी आ जाती है।
 बोध पर सब निर्भर है। बोध का अर्थ क्या हुआ? बोध का अर्थ हुआ सतत जागा हुआ होना। हम तो सारे लोग सोए हुए हैं, वह युवा जाग गया। उसने गुरु से कहाः अब तलवार चलाना कब सीखूंगा? उसने कहाः अब तुम जाओ, तुम सीख गए। एक पाठ नहीं दिया तलवार चलाने का। और कहाः तुम जाओ, तुम सीख गए। अब तुम्हे तलवार चला कर कोई पराजित नहीं कर सकता। अब तुम्हारा बोध सजग है। और यही जीवन की कला भी है, अगर बोध सजग है तो जीवन में कोई पराजय नहीं है। और अगर बोध सजग नहीं है तो जीवन पराजित हो ही जाएगा।
हम सोए हुए जीते हैं। हम करीब-करीब सोए हुए हैं। इसको आप ख्याल करें और अनुभव करें कि आप करीब-करीब सोए हुए जीते हैं..जब आप खाना खा रहे हैं तो आप बोधपूर्वक खा रहे हैं? आपको बोध है कि आप भोजन ले रहे हैं? जब आप रास्ते पर चल रहे हैं तो आप बोधपूर्वक चल रहे हैं? आपको पता है कि आप चल रहे हैं? जब आप बिस्तर पर सोने गए हैं तो आप बोधपूर्वक सो रहे हैं? आपको ज्ञात है कि आप सो रहे हैं? या कि आप एक नशे में, एक सोए हुए आदमी की तरह कुछ कर रहे हैं और मन कहीं और है?
जिसका मन करने में नहीं है और करने के कहीं और है, वह सोया हुआ आदमी है।
सोए हुए होने का अर्थ क्या है? सोए हुए होने का अर्थ हैः हम जहां हैं वहां हमारा बोध नहीं है, तो हम सोए हुए हैं। हम जहां हैं वहां हमारा बोध न हो, तो हम सोए हुए लोग हैं। और हमारा मन ऐसा है कि जहां हम होते हैं वहां वह कभी नहीं होता। या तो मन अतीत में होता है, जो बीत गए क्षण, घटनाएं, स्मृतियां, मन वहां घूमता रहता है। और या मन भविष्य में होता है, कल्पनाओं में, जो होने वाला है, उसकी इच्छाओं में। जो मोमेंट, जो क्षण मौजूद है, वह जो प्रेजेंट मोमेंट है उसमें मन कभी नहीं होता। हम वर्तमान में कभी होते ही नहीं हैं। या तो अतीत में होते हैं या भविष्य में होते हैं। और जो वर्तमान में नहीं है, वह सोया हुआ है। क्योंकि जीवन तो वर्तमान में है।
सब जीवन वर्तमान में है, न तो अतीत की कोई सत्ता है, न भविष्य की कोई सत्ता है। अतीत जा चुका, भविष्य अभी आया नहीं। जो मौजूद है, जो खड़ा है निकट, वह जो वर्तमान की पतली सी क्षण की लकीर खड़ी है, उसमें आप हैं। अगर उसमें आप नहीं हैं तो आप सोए हुए मनुष्य हैं। फिर यह सोया हुआ मनुष्य जिसका बोध अतीत या भविष्य में है, वर्तमान में जो भी करेगा, वह गलत हो जाएगा, वह असम्यक हो जाएगा। क्योंकि सोया हुआ मनुष्य ठीक कैसे कर सकता है? वह जो भी करेगा वहीं भूल हो जाएगी। मुझसे पूछिए तो सोए हुए कोई भी काम करने का नाम मैं पाप कहता हूं। जिस काम को भी हम सोए हुए करते हैं वही पाप है। मैं यह नहीं कहता कि हिंसा पाप है, मैं यह नहीं कहता कि क्रोध पाप है, मैं यह नहीं कहता कि हत्या पाप है, मैं यह नहीं कहता कि चोरी पाप है; मैं कहता हूं कि जो काम भी सोया हुआ किया जाता है वह पाप है। और आप हैरान हो जाएंगे, जिन-जिन को हमने पाप कहा है, उनको करने के लिए सोया होना बिल्कुल जरूरी है। आप बिना सोए हुए किसी की हत्या नहीं कर सकते। और आप बिना सोए हुए चोरी भी नहीं कर सकते। और आप बिना सोए हुए झूठ भी नहीं बोल सकते। और बिना सोए हुए क्रोध भी नहीं कर सकते। सोया होना, पाप का मूल और उसकी जड़ है। सारी भ्रांति वहीं से खड़ी होती है। जब मुझसे कोई पूछता है पुण्य क्या है? तो मैं कहता हूं, जागा हुआ कर्म। जो आप जाग कर करते हैं, परिपूर्ण होश से करते हैं, वर्तमान में होकर करते हैं, वही कर्म पुण्य हो जाता है।
हमारे भीतर सतत निद्रा हमें घेरे हुए है। एक धुंधला सा मन है भीतर जो मुश्किल से कभी क्षण दो क्षण को जागता है और फिर सो जाता है। हम जीवन भर सोकर बिता देते हैं। इस सोए हुए पन को तोड़ देना होगा। यह मूच्र्छा को तोड़ देना होगा। यह मूच्र्छा कैसे टूटेगी? यह मूच्र्छा कोई प्रार्थना करेंगे तो और नींद गहरी हो जाएगी। कोई भजन-कीर्तन करेंगे तो और नींद गहरी हो जाएगी। किसी मंदिर में चले जाएंगे तो और नींद गहरी हो जाएगी। किन्हीं शास्त्रों को याद कर लेंगे तो और नींद गहरी हो जाएगी। यह मूच्र्छा उनसे नहीं टूटेगी। यह मूच्र्छा तो टूटेगी, चैबीस घंटे जो कर्म आप कर रहे हैं, उन कर्मों को बोधपूर्वक करने से। छोटे-छोटे कर्म को यदि बोधपूर्वक किया जाए, तो प्रत्येक कर्म के साथ आपके भीतर नये अवेयरनेस का, होश का, कांशसनेस का जन्म होना शुरू हो जाएगा। अभी आप यहां बैठे हैं, मैं आऊं और आपकी गर्दन पर जोर से एक तलवार रख दूं, तो उस वक्त आप विचार करिएगा? भविष्य में जाइएगा कि अतीत में जाइएगा? उस वक्त एक वर्तमान का क्षण भर रह जाएगा। एक सेकेंड को आप जाग कर वर्तमान में हो जाएंगे।
मेरे गांव के पास एक छोटी सी पहाड़ी है, छोटी सी पहाड़ी है, और छोटी सी नदी है। पहाड़ी का एक किनारा बहुत ऊंचा है। और किनारा सीधा सपाट है, उससे अगर कोई गिर जाए तो प्राण ही निकल जाएं। उस पर छोटी सी पतली पगडंडी है, उस पर चलना भी बड़ा कठिन है। छोटी सी कगार है, जब मुझसे कोई पूछता है कि बोध क्या है? तो मैं उसे पकड़ कर वहां ले जाता हूं। और उससे कहता हूं, इस कगार पर चलो। उसके साथ मैं भी चलता हूं और उससे कहता हूं, इस कगार पर चलो। उसके पैर डगमगाने लगते हैं, मैं कहता हूं कि तुम चले आओ। यहां तुम बिना बोध के नहीं चल सकते, तुम्हारे भीतर जो फर्क हो समझ लेना कि वह बोध है। वहां वह एकदम सजग हो जाता है। सारे विचार बंद हो जाते हैं। एक ही विचार होता है कि एक-एक कदम सम्हाल कर, सारा होश उसका पैरों में केंद्रित हो जाता है। सारा होश उसका पैरों में केंद्रित हो जाता है। उसके पैर आंखों की तरह हो जाते हैं, वे भी देखने लगते हैं। एक सेकेंड वह चूका कि वह गया। और क्या आपको पता है कि जिंदगी में भी आप ऐसी ही पतली कगार पर दिन भर खड़े हैं। चैबीस घंटे, एक सेकेंड चूकते हैं, और चले जाते हैं लेकिन जिंदगी भर सोए गुजार देते हैं। क्योंकि पता नहीं कि जिंदगी भी एक बिल्कुल पतली कगार है। और जिसके नीचे गिरने का हर क्षण मौका है। लेकिन हमे ख्याल नहीं है। और हम चले जा रहे हैं। हम बढ़े जा रहे हैं।
मैंने पीछे ही कहा था, इसी हॉल में पीछे बोल रहा था तो मैंने कहा कि अगर हम यहां एक पचास फिट का लंबा एक पटिया रख दें, एक फीट चैड़ा, और पचास फिट लंबा। जमीन पर रख दें, और आपसे कहा जाए कि इस पर चलिए तो सब लोग चल जाएंगे। किसी को कोई अड़चन नहीं...और न कोई गिरेगा? इतने लोगों में से न कोई बूढ़ा गिरेगा, न कोई स्त्री, न पुरुष, सब उस पर निकल जाएंगे। लेकिन उसी पटिए को ऊपर की गैलरी से और इसकी दीवाल से लगा कर रख दिया जाए। नीचे यह गड्ढा होगा। वही पटिया है, पचास फीट लंबा और एक फीट चैड़ा और आप से कहा जाए, इस पर चलिए। कितने लोग उस पर से जा पाएंगे? आखिर क्या, फर्क क्या हो गया? पटिया वही है, उतना ही लंबा है, उतना ही चैड़ा है, नीचे था आप चल गए, ऊपर था अब आप चलने में क्यों डर रहे हैं? असल में नीचे सोए हुए चलने में कोई खतरा नहीं है। आप सोए हुए चल सकते हैं। ऊपर सोए हुए नहीं चल सकते हैं। और नींद की ऐसी आदत है कि उसके विपरीत कोई भी काम करने में बड़ी कठिनाई, बहुत आर्डुअस हो जाता है। तो अगर उस पर आप चलेंगे तो एक-दो कदम ही चलेंगे। आपके प्राण थरथराएंगे कि आगे बढ़ूं या नहीं, खतरा है। खतरा क्या है? पटिया उतना ही बड़ा है, कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। आप वही हैं, पटिया वही है, खतरा क्या है? खतरा न तो गड्ढे में हैं, न पटिए में है। खतरा आपके भीतर है, आप सोए हुए अब नहीं चल सकते हैं, अब जाग कर चलना होगा। और जाग कर चलने की हमें कोई आदत नहीं है। जीवन में होश की हमें कोई आदत नहीं है।
जीवन में हमें बेहोशी की आदत है। और बेहोशी को हम प्रेम भी करने लगते हैं, क्योंकि बेहोशी का एक सुख है, जागने का एक कष्ट है; बेहोशी का एक सुख है इसलिए सारी दुनिया में शराब पी जाती है, और नशे किए जाते हैं। बेहोशी का सुख यह है कि जीवन भूल जाता है। बेहोशी का सुख यह है कि जीवन भूल जाता है।
 हम जीवन को भूलने के सब तरह के उपाय करते हैं। नाटक देखते हैं, संगीत सुनते हैं, फिल्में देखते हैं, शराब पीते हैं; यह सब का सब भूलने का उपाय है। किसी भांति हम अपने जीवन को भूल जाएं सो जाएं, हमें नींद पूरी आ जाए, तो जीवन में कोई तकलीफ नहीं है। अधिकतम लोग सोना पसंद करते हैं, जागने की बजाय। अधिकतम लोग भूलना पसंद करते हैं, होश की बजाय; असल में अधिकतम लोग मरना पसंद करते हैं जीने की बजाय। अगर आप बहुत गहरे में देखेंगे, तो आपके सोने की जो प्रवृत्ति है कि सोए रहें, कोई तकलीफ न हो; कोई बेचैनी न हो, क्योंकि बेचैनी जगाती है, तकलीफ जगाती है, दुख जगाता है। इसलिए आप सुख को खोजते हैं, क्योंकि सुख में नींद हो सकती है। कम्फर्ट की जो खोज है, सुख की जो खोज है, वह नींद की खोज है। इसको समझ लेना चाहिए कि जितना आप सुख खोज रहे हैं, किसलिए खोज रहे हैं? क्योंकि सुख में ज्यादा जागने की जरूरत नहीं रहती। और यही वजह है कि जो लोग सामान्यतः सुख में रहते हैं, उनके भीतर कोई प्रज्ञा, कोई विवेक कभी नहीं जगता।
जीवन में प्रज्ञा और विवेक का जन्म दुख में होता है। सफरिंग में होता है। क्यों? क्योंकि सफरिंग में सोया नहीं रह सकते आप, जागना पड़ेगा। होश रखना पड़ेगा। पीड़ा जगाती है और आराम सुलाता है। हमारी सबकी खोज, आराम की खोज है। आराम की खोज अगर ठीक से समझें, तो जागने के विरोध में है। हम सोए होने के पक्ष में हैं। और जो आदमी सोए होने के पक्ष में है, अगर बहुत ठीक से सोचेगा, तो उसका लॉजिकल, उसका तार्किक अंत है कि वह आदमी मरने के पक्ष में है। क्योंकि मृत्यु तो बिल्कुल सो जाना है। जीवन को तो वही उपलब्ध होगा जो जागरण के पक्ष में हो। इसलिए जो मैंने पहले दिन कहा था कि हमारी मृत्यु की तरह है यह जिंदगी, यह इसीलिए मृत्यु की तरह है कि हम सोए हुए हैं। अगर आप जीवन को जानना चाहते हैं तो जागना होगा। और जागने के लिए कोई ऐसा नहीं है कि कभी मंदिर चले जाएं, आधा घड़ी को जाग जाएं, जागना होगा चैबीस घंटे, इसलिए तपश्चर्या अखंड है। खंडित नहीं है कि आपने दस-पांच मिनट कर ली, कि आपने समय पर कर ली और निपट गए। कोई जीवन, कोई जीवन में क्रांतियां ऐसे नहीं होती कि आप दस-पंद्रह मिनट एक कोने में बैठ गए मंदिर के जाकर और आप समझें, काम पूरा हुआ, लौट चलें।
 जीवन अखंड है, तपश्चर्या अखंड है। प्रतिक्षण उसे साधना होगा। तपश्चर्या से कोई छुट्टी, कोई हॉलिडे नहीं होता। ऐसा नहीं होता कि दो घंटे तपश्चर्या कर ली, और फिर छुट्टी हो गई। चैबीस घंटे में तेइस घंटे तपश्चर्या कर ली, एक घंटा छुट्टी मना ली। तपश्चर्या से कोई छुट्टी नहीं है। कोई अवकाश नहीं है। चैबीस घंटे है, जागते है, धीरे-धीरे सोते हुए भी है। धीरे-धीरे चैबीस घंटे चेतना पर काम करना है, और चेतना पर काम करना तब ही होता है, जब हम बोध को क्रमशः जगाएं। जितना हम जगाएंगे, उतना जागेगा। जितना हम जगाएंगे, उतना जागेगा, अनंत संभावनाएं हैं, बोध के जगने की। लेकिन हम जगाना नहीं चाहते और जहां जाग सकें, उन सारी स्थितियों से हम बचते हैं। हम हमेशा पुराने में ही बंधे रहना चाहते हैं, क्योंकि नये में बोध को जगाना होगा। हम हमेशा पुराने लोगों से ही घिरे रहना चाहते हैं, क्योंकि नये में बोध को जगाना होगा। हम हमेशा पुरानी स्थितियों को ही पकड़े रहते हैं, कोई नई स्थिति आएगी तो बोध को जगाना होगा। हम हमेशा पुरानी आदतों में जकड़े रहते हैं, क्योंकि आदतें छोड़ेंगे तो बोध को जगाना होगा। जिस आदमी को बोध को जगाना हो, उसे अपने चित्त को बहुत आदतों में बांधने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि आदतें मुर्दा हो जाती हैं और आदमी उन्हें सोए हुए करने लगता है।
आप रोज ठीक वक्त पर खाना खा लेते हैं और ठीक वक्त पर सो जाते हैं, ठीक वक्त पर उठ आते हैं। धीरे-धीरे यह सब मैकेनिकल हो जाता है। यह सब यांत्रिक हो जाता है। ठीक वक्त पर प्रार्थना कर लेते हैं, ठीक वक्त पर बच्चों को प्रेम कर लेते हैं, ठीक वक्त पर दफ्तर हो आते हैं; धीरे-धीरे आप एक मुर्दा आदमी हो जाते हैं। आदतों के पुंज हो जाते हैं। आपके भीतर सहज जागा हुआ कुछ भी नहीं रह जाता। और अगर जागा हुआ कुछ भी नहीं है, तो आप स्मरण रखें, आपको जीवन से कोई संबंध नहीं हो सकता। जागने के लिए कुछ करना होगा। सतत करना होगा। लोग मुझसे पूछते हैं क्या करें? वे मुझसे पूछना चाहते हैं, कोई छोटी-मोटी तरकीब हो, वह बता दी जाए, उनका चित्त शांत हो जाए। वह परमात्मा को पा लें। ऐसा नहीं है। ऐसा बिल्कुल नहीं है। कोई छोटी-मोटी तरकीब नहीं है।
कल ही मुझे किसी ने पूछा कि कोई शॉर्टकट होना चाहिए।
कोई शॉर्टकट नहीं है। कोई छोटा सा रास्ता होना चाहिए कि हम जल्दी से परमात्मा पर पहुंच जाएं। कोई ऐसा रास्ता नहीं है, और अगर कोई कहता हो कि ऐसा रास्ता है तो वह आपकी कमजोरी का, शोषण करने का रास्ता निकाल रहा है। आपकी कमजोरियों का शोषण हो रहा है, सारी दुनिया में। आप जल्दी से कोई रास्ता चाहते हैं। एक आदमी कहता है, यह ताबीज बांध लो, भगवान मिल जाएंगे। क्योंकि आप में कमजोरी है, वह ताबीज से आपका शोषण कर लेता है। आप कहते हैं हमें जल्दी भगवान चाहिए, वह कहता है कि चलो यज्ञ कर दो, मंदिर बनवा दो, धर्मशाला बनवा दो, सब ठीक हो जाएगा। वह कहता है, जाओ गंगा में नहा लो, सब ठीक हो जाएगा। वह आदमी आपका गुरु हो जाता है। क्योंकि उसने आपकी कमजोरी को पहचान लिया, उसके शोषण की तरकीब निकाल ली, आप मूर्ख बना दिए गए। कोई रास्ता नहीं है छोटा। छोटा रास्ता कैसे हो सकता है? परमात्मा को पाने का रास्ता एक ही है, न छोटा है, न बड़ा है। और वह है जीवन में अखंड बोध को स्मरण को, माइंडफुलनेस को, होश को, अमूच्र्छा को साधना..चैबीस घंटे। उठते-बैठते आपका कोई भी क्रम, कोई भी काम, कोई भी कर्म, कोई विचार की हलकी सी पर्त भी आपके अंजाने न हो। लेकिन आपका सब अनजाने हो रहा है।
अगर आप देखें, एक आदमी बैठा है कुर्सी पर अपने पैर को हिलाए जा रहा है। उससे पूछिए कि पैर क्यों हिला रहे हैं? तो एकदम पैर को रोक लेगा। जैसे ही आप पूछेंगे पैर को क्यों हिला रहे हैं? उसका बोध पैर की तरफ जाएगा, वह खुद ही समझेगा, यह क्या एब्सर्ड, फिजूल का काम कर रहा हूं मैं? पैर को हिला रहा हूं, वह एकदम से रोक लोगा। और वह कहेगा, मुझे कुछ पता नहीं, ऐसे ही कर रहा था, ऐसे ही हो रहा था। यह क्या पागलपन है कि ऐसे ही हो रहा था। आपका पैर है और आपके बिना जाने हिलता है और आप कहते हैं कि ऐसे ही हो रहा है। और जिस आदमी का पैर उसके बिना जाने हिल रहा है, उसके जीवन में बहुत कुछ बिना जाने होता होगा। स्वाभाविक है, उसके जीवन में बहुत कुछ बिना जाने होता होगा। अनजाने उसके जीवन में बहुत सी बातें होंगी। अगर आप अपने पिछले जीवन को स्मरण करें, तो मैं आपसे पूछूं, आपने क्रोध जानकर किया है? तो आपको पता चलेगा कभी जान कर नहीं किया। आपने जिन लोगों से मित्रता की, जान कर की है, या जिन लोगों से शत्रुता की है जान कर की है? जिन बातों को आप पसंद करते हैं, उनको जान कर पसंद करते हैं? और जिन बातों को नापसंद करते हैं उनको जान कर नापसंद करते हैं? आप पाएंगे आपकी कोई पसंद, कोई नापसंद, कोई मित्रता, कोई शत्रुता कोई भी जान कर नहीं है। आप बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे एक आदमी कुर्सी पर बैठ कर पैर हिला रहा है, ऐसे ही जिंदगी भर पैर हिलाते रहते हैं। और ये सारे काम आपके बिल्कुल अनजाने में हो रहे हैं। आप बिल्कुल सोए हुए किए चले जा रहे हैं। अगर कोई पकड़ कर जोर से पूछे, आप अपने एक भी काम का ठीक-ठीक अकाउंट नहीं दे सकते कि यह मैंने क्यों किया? एक भी काम का आप ठीक-ठीक ब्यौरा नहीं दे सकते कि यह मैंने...क्योंकि आपने जान कर ही नहीं किया। आपसे हुआ है, आपने किया नहीं है।
बुद्ध एक गांव के करीब से निकले थे और कुछ लोगों ने उन्हें गालियां दीं, अपमान किया तो बुद्ध ने कहा, मित्रों मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है। अगर तुम्हारी बातचीत पूरी हो गई हो तो मुझे जाने की आज्ञा दो। उन्होंने कहा बातचीत, हमने गालियां दी हैं और अपमान किया है, इसका उत्तर चाहिए। बुद्ध ने कहा कि जान कर गालियों का कभी कोई आदमी उत्तर नहीं दे सकता। अनजाने में उत्तर दे सकता है। और वह उत्तर दिया हुआ नहीं होता, उत्तर आता है। यानी उसमें वह आदमी सजग नहीं होता, यांत्रिक होता है। उधर से गाली आई, इधर धक्का लगा, दूसरी गाली यहां से निकल गई। वह आदमी बिल्कुल मशीन की तरह काम करता है। आपने बटन दबाई पंखा घूमने लगा। आपने बटन बंद की पंखा बंद हो गया। मैंने आपको गाली दी, आपके भीतर चित्त घूमने लगा, क्रोधित हो गया। आपने मुझे गाली दे दी। जो आदमी दूसरे के गाली देने से, बिना विचारे, बिना होश में भरे, गाली का उत्तर दे रहा है, वह आदमी मशीन है। वह अभी मनुष्य है ही नहीं। वह सोया हुआ आदमी है। आपसे सभी गालियां इसी तरह निकल रही हैं।
बुद्ध ने कहा कि पहले ऐसा होता था कि कोई मुझे गाली देता था, तो मेरे भीतर से भी गाली निकलती थी। अब तो मैं जाग गया हूं। अब तो मैं जाग गया हूं, इसलिए न तो तुम्हारी गाली बिना मेरे बोध के मेरे भीतर प्रवेश कर सकती है, सारे द्वारों पर मेरी चेतना बैठी हुई है। तुम्हारी गाली मेरे भीतर आती है तो मैं जानता हूं, गाली भीतर आ रही है और जैसे ही मैं जानता हूं गाली भीतर आ रही है, गाली एकदम समाप्त हो जाती है। धुआं हो जाती है। अनजाने गाली भीतर घुस जाए तो परेशान करती है, जान के घुसे तो परेशान करती ही नहीं। बुद्ध ने कहाः तुम्हारी गाली ऐसे है जैसे कोई अंगारे को पानी की तरफ फेंके, जब तक वह पानी से दूर होता है अंगारा होता है, पानी में गया राख हो जाता है। ऐसे ही मेरे भीतर जो बोध की शीतलता पैदा हुई है, तुम्हारी गाली जब तक मुझ तक नहीं आती तब तक गाली होती है, मुझे छूते से ही, मेरे बोध को छूते से ही ठंडी और राख हो जाती है। अब मैं किसका उत्तर दूं। और उत्तर कैसे दूं? जब तुम गाली देते हो तो मुझे तुम पर दया आती है कि कैसे पागल हो? क्रोध आता ही नहीं, क्योंकि मैं होश से भरा हुआ हूं। जब मैं बेहोश था तो मुझे क्रोध आता था, दया नहीं आती थी।
एक आदमी मेरे पास आए, उसे बहुत सी बीमारियां हों तो मुझे क्रोध आएगा कि दया आएगी। एक आदमी मेरे पास आए, क्रोध में आए, वह भी मानसिक बीमारी है तो भी मुझे क्रोध आना चाहिए कि दया आनी चाहिए? एक आदमी मुझे गाली दे, तो मुझे क्रोध आना चाहिए कि दया आनी चाहिए? अगर मैं होश में हूं तो दया आएगी। और अगर मैं बेहोश हूं तो क्रोध आएगा। जो जीवन में सतत सारे कर्म जो हम कर रहे हैं, जो हमसे हो रहे हैं, कुछ भी हमसे ऐसा नहीं होना चाहिए।
एक गुरजिएफ हुआ। वह एक तिफलिस में, रूस के एक गांव में गया हुआ था। वहां कुछ उसके शत्रु थे। उन्होंने उसे बाजार में घेर लिया और उसका बहुत अपमान किया। बहुत अपमान किया, जैसा यह बुद्ध को गालियां दीं, ऐसी गालियां उसे दी। गुरजिएफ ने कहा कि मैं कल आकर इसका उत्तर दूंगा। तो उन लोगों ने कहा कि कल, कोई गालियों का उत्तर कल आकर देता है। अगर हिम्मत है तो अभी दो। उसने कहाः हिम्मत तो बहुत है, लेकिन बोध भी है। हिम्मत तो बहुत है, लेकिन बोध भी है। हो सकता है तुमने जो गालियां दीं, वे ठीक ही हों। तो जरा सोच लूं, समझ लूं, विवेक को जरा जगा लूं। अगर लगा तो उत्तर देने आऊंगा, अगर न आऊं उत्तर देने तो समझना कि...समझना कि तुमने जो कहा था, ठीक ही कहा था। गुरजिएफ ने लिखा है कि जब मेरा पिता मरने लगा, उसने मुझे अपने करीब बुलाया। तब मेरी उम्र कोई ग्यारह वर्ष की थी और वह कोई एक सौ दस वर्ष का हो गया था, उसने मेरे कान में..मुझे पास बुलाआ और मुझसे कहा कि एक ही वचन मैं चाहता हूं तुझसे, एक ही आश्वासन चाहता हूं और वह आश्वासन यह कि तू कोई भी काम करे तो बिना बोध के मत करना। और गुरजिएफ ने लिखा कि उस एक आश्वासन ने मेरा सारा जीवन बदल दिया। जो भी काम करना है, बोध से करना है, होश से करना है। ध्यान पूरा वहां हो, ध्यान कहीं ओर हो और काम हुआ तो जीवन में भूल हो जाती है और आदमी गिरता है। ध्यान वहीं हो तो भूल असंभव है।
विनोबा नये-नये गांधी के पास पहुंचे थे। तो विनोबा सूत कातते हैं, शायद उनसे अच्छा सूत का और चरखे का जानकार कोई भी नहीं है। और गांधी तो कहते थे, वे आचार्य हैं। लेकिन विनोबा का चरखा भी उन्होंने बहुत अच्छा बना लिया था। पौनी भी बहुत अच्छी बना ली थी। कातते भी बहुत होशियारी से थे। लेकिन फिर भी धागा टूट-टूट जाता था। तो उन्होंने गांधी को पूछा कि मेरा चरखा आपसे बेहतर है, मेरी पोनी आपसे बेहतर है, सूत को निकालने का जहां तक संबंध है, मेरी जानकारी आपसे कम नहीं है। सूत मेरा आपसे बारीक, ज्यादा सधा हुआ और एक सा और समान है। लेकिन आपका सूत टूटता नहीं, मेरा सूत टूट क्यों जाता है? गांधी ने कहाः तुम्हारा ध्यान कहीं और चला जाता होगा। जब तुम सूत को कातते हो, तो सूत तो बारीक पतली और कच्ची चीज है, अगर ध्यान कहीं और चला गया तो हाथ धीमा सा झटका खा जाता है और सूत टूट जाता है। अगर ध्यान वहीं सूत पर ही रहे, सूत के साथ ही ऊपर आए और सूत के साथ ही नीचे जाए, और ध्यान की धारा सतत सूत के साथ ही ऊपर-नीचे होती रहे, तो सूत कैसे टूटेगा? इसलिए गांधी कहने लगे कि चरखा कातना ही प्रार्थना है। प्रार्थना हो गई अगर ध्यान है तो। अगर बुहारी घर में लगाई, और ध्यानपूर्वक लगाई कि बुहारी के साथ ही ध्यान आगे जाए, बुहारी के साथ ही ध्यान पीछे लौट आए, तो बुहारी लगाना ध्यान हो गया, प्रार्थना हो गई।
जीवन का हर काम प्रार्थना और परमात्मा के पहुंचने का मार्ग हो सकता है, अगर उसके साथ बोध संयुक्त हो। और जीवन का हर काम नरक जाने का मार्ग बन जाता है, अगर उसके साथ बोध संयुक्त न हो।
एक साधु था तिब्बत में। एक आदमी उसके पास आया और उसने कहा, और वह आदमी जो था, तिब्बत में बड़ा प्रसिद्ध आदमी था, बहुत बड़ा सेनापति था। उसके दोनों तरफ तलवारें लटकी हुई थीं। वह एक साधु के पास आया और उसने उस साधु को कहा कि क्या आप मुझे बता सकते हैं कि स्वर्ग जाने का मार्ग क्या है? उस साधु ने कहा स्वर्ग? अपनी शक्ल तो देखो पहले। स्वर्ग जाने के लिए आ गए। वह था प्रसिद्ध सेनापति, सारे मुल्क में उसकी इज्जत और आदर थी। उसकी आवाज से लोग कंप जाते थे। और वह जब बूढ़ा भी हो गया था, नब्बे वर्ष भी पार कर गया था, तब भी जब युद्ध का सवाल उठता था तो उसे बुलाया जाता था। इतना उसका आदर था। इतना बूढ़ा हो गया था कि घोड़े पर नहीं बैठ सकता था और दो आदमी उसे उठा कर घोड़े पर बैठाते थे।
जब उसे एक दफा घोड़े पर बिठाया जा रहा था, दो आदमी उसे उठा कर बैठा रहे थे तो एक नया-नया सैनिक आया था, वह हंसने लगा कि यह आदमी क्या सेनापति का काम करेगा, जिसको बिठाने के लिए दो आदमी घोड़े पर सहारा करते हैं। तो उस बूढ़े ने उसे बुलाया, इधर आओ। क्यों हंसे? उसने कहाः मैं इसलिए हंसा कि यह बूढ़ा क्या सेनापति का काम करेगा, जब इसे दो आदमी घोड़े पर बिठाते हैं। उसने कहाः माना कि मुझे बिठाने के लिए दो आदमियों की जरूरत है, लेकिन घोड़े से दो हजार आदमी भी नीचे नहीं उतार सकते। उसने कहा कि माना मुझे बिठाने के लिए दो आदमी की जरूरत है, लेकिन घोड़े से नीचे उतारने के लिए दो हजार आदमी भी काफी नहीं पड़ेंगे। ऐसा वह सेनापति था। तो वह उसे फकीर के पास गया, उस फकीर ने कहा अपनी शक्ल देखो। स्वर्ग जाने की बातें करने आ गए हैं। उसको गुस्सा आ गया, उसका हाथ मूठ पर चला गया। उसने कहा कि क्या खिलवाड़ कर रहा है कि मूठ, तलवार, तलवार क्या बिगाड़ेगी मेरा? उसकी तलवार बाहर आ गई। गुस्से में आ गया। और उस साधु ने कहा कि क्या बचकानी बात कर रहा है, यह तलवार क्या करेगी, धार भी है? उसकी तलवार उसकी गर्दन पर चली गई। उस फकीर ने कहाः देख नरक जाने का रास्ता आ गया। उस फकीर ने कहा कि देख, नरक जाने का रास्ता आ गया। जो उसने यह कहा कि देख नरक जाने का रास्ता आ गया। उसे एकदम से होश आया, तलवार उसने वापस ली, म्याल में डाली, उसने कहा यही स्वर्ग जाने का रास्ता है। समझे ना आप।
वह आदमी बोध खो दिया, क्रोध से उत्तप्त हो गया, मूच्र्छा पकड़ गई, तलवार बाहर निकल आई, यह बिल्कुल मैकेनिकल एक्ट था। वह तो रोज का धंधा था, तलवार बाहर निकालने का, तलवार गर्दन पर चली गई। वह फकीर बोलाः देख नरक जाने का रास्ता आ गया। नरक का द्वार खोल लिया। जैसे उसने कहा, नरक का द्वार खोल लिया, वह समझा, अरे! उत्तर दिया गया है, जो मैंने पूछा था। होश वापस लौट आया, तलवार वापस म्यान में चली गई। उस फकीर ने कहा कि यही स्वर्ग जाने का रास्ता है। होश, जीवन में जो भी हो बोधपूर्वक हो। जीवन में कुछ भी अबोधपूर्वक और अज्ञानपूर्वक न हो तो क्या होगा? तो यह होगा कि चैबीस घंटे आपको अपने शरीर के भीतर एक ज्योतिशिखा, एक विवेक की ज्योति, अलग अनुभव होने लगेगी..क्रमशः। आप अनुभव करेंगे, मैं अलग हूं। शरीर आपको खोल की तरह मालूम होने लगेगा। जैसे हम इस भवन में बैठे हुए हैं तो मुझे ऐसा तो नहीं मालूम पड़ता कि मैं भवन हूं। मुझे मालूम पड़ता है कि मैं भवन में हूं। अगर बोध आपके भीतर जगेगा, तो आपको लगेगा मैं शरीर में हूं, यह बिल्कुल साफ दिखेगा, दीवालें शरीर की अलग और आप भीतर अलग मालूम होने लगेंगे।
जैसे कच्चा नारियल होता है न, तो उसकी अंदर की गिरी उसके खोल से जुड़ी और चिपकी होती है और फिर पक्का नारियल होता है। उसकी गिरी और खोल अलग हो जाते हैं।
एक मुसलमान फकीर था, फरीद। उसको लोग नारियल चढ़ाते थे जाकर। तो किसी ने आकर पूछा कि जब क्राइस्ट को सूली पर लटकाया होगा तो उनको तकलीफ नहीं हुई। और जब मंसूर को लोगों ने काटा था तो उसे पीड़ा नहीं हुई होगी। शेख फरीद के पास नारियल पड़ा था। उसने एक नारियल उठा कर दिया। वह एक गीला नारियल था। उसने कहा इसे फोड़ो। वह नारियल फोड़ा गया, नारियल के ऊपर की खोल तो टूटी ही टूटी, उसके भीतर की गिरी भी छिन्न-भिन्न हो गई।
शेख फरीद ने कहा कि देख एक तरह के आदमी इस तरह के होते हैं तो सूखे नारियल को उसने पटका। ऊपर की खोल टूट गई, भीतर की गिरी साबुत बाहर निकल आई। उसने कहा एक तरह के आदमी इस तरह के भी होते हैं। एक तरह के आदमी होते हैं, उनको शरीर को चोट पहुंचाओ, उनकी आत्मा में भी चोट पहुंच जाती है, क्योंकि शरीर और आत्मा जुड़े रहते हैं। और एक तरह के आदमी होते हैं, उनके शरीर को कितनी ही चोट पहुंचाओ, उनकी भीतर आत्मा तक कोई चोट नहीं पहुंचती, क्योंकि शरीर और आत्मा का बोध पृथक हो जाता है। जितना आपके भीतर होश जगेगा, आपकी गिरी और खोल अलग-अलग होने लगेगी, आप सूखे नारियल होने की तरफ बढ़ना शुरू हो जाएंगे। आपका शरीर अलग और आपकी चेतना आपको पृथक मालूम होने लगेगी। बोध में ही यह हो सकता है, अबोध में यह कैसे होगा? अबोध में तो कोई चीज पृथक नहीं मालूम हो सकती।
जितना बोध गहरा होगा, आपकी आत्मा, आपकी चेतना शरीर से भिन्न, अलग खड़ी हुई मालूम होने लगेगी। और वह जो शरीर से अलग है, उसकी कोई मृत्यु नहीं है। उसे जानते ही अनंत जीवन के द्वार खुल जाते हैं। और वह जो शरीर से पृथक है, वह जो शरीर से भिन्न है, वह जो शरीर में है; लेकिन शरीर ही नहीं है। वह जो शरीर के वस्त्रों को पहने हुए है; लेकिन शरीर से अलग है; उसकी यात्रा बड़ी अलग है। शरीर का जन्म होता है, शरीर की मृत्यु होती है। उसका न कोई जन्म है, उसकी न कोई मृत्यु है, उस अनंत यात्री की तरफ जब आपका बोध धीरे-धीरे विकसित होकर प्रवेश पाता है, तो आपको कुछ नई बातों का अनुभव होता है। आपको अनुभव होता है कि आप एक दुनिया से मर गए और एक नई दुनिया में आपका जन्म हो गया। बोध के परिवर्तन से एक दुनिया गई और एक नई दुनिया का प्रारंभ हो गया। जो दुनिया थी, उसका नाम संसार था। जो दुनिया है, उसका नाम परमात्मा है। यह संसार ही परमात्मा हो जाता है। यह चारों तरफ फैला हुआ विस्तार ही ब्रह्म हो जाता है।
 ब्रह्म और परमात्मा और संसार और जगत अलग-अलग बातें नहीं हैं, इसी सत्य को देखने के दो ढंग हैं। अज्ञान में, अबोध में जो दिखाई पड़ता है, वह संसार है। बोध में, सचेतन में जो दिखाई पड़ता है, वही परमात्मा है। परमात्मा और संसार दो नहीं है। हमारे भीतर अबोध हो, तो बाहर संसार है। हमारे भीतर बोध हो तो सब परमात्मा है। और उस क्षण और उस घड़ी में आपके भीतर जो क्रांति और नया जन्म होता है, वह आपको अपने ‘मैं’ से मुक्त कर देता है। आपका मैं-भाव चला जाता है और परमात्म-भाव प्रविष्ट हो जाता है। आपको तब ऐसा नहीं लगता कि मैं हूं, तब आपको लगता है, हूं। और ‘मैं’ शून्य हो जाता है। होना मात्र शेष रह जाता है। आपको लगता है कि है, सत्ता है, लेकिन ‘मैं’ वह ‘मैं’ विलीन हो जाता है। वह ‘मैं’ तो शरीर के साथ जुड़े होने की वजह से पैदा होता है। वह तो शरीर के साथ एक होने की भ्रंाति थी कि लगता था कि मैं हूं, जैसे ही शरीर से अलग आपका संबंध हुआ, ‘मैं’ गया। ‘मैं’ की ही मृत्यु होती थी, जब ‘मैं’ ही चला गया तो मृत्यु किसकी होगी? जो सत्य को जानता है, वह मरने के पहले मर जाता है। और इसलिए उसका मरना मुश्किल हो जाता है।
लाओत्सु हुआ है। उसने कहा है कि धन्य हैं वे लोग, जो मरने के पहले मर जाते हैं। क्योंकि उनकी कोई मृत्यु नहीं होगी। बहुत अदभुत बात कही, धन्य हैं वे लोग, जो मरने के पहले मर जाते हैं, क्योंकि उनकी कोई मृत्यु नहीं होगी। वे ही जीवन को उपलब्ध होते हैं।
मैंने ये जो सारी बातें कही हैं, ये मरने के पहले मर जाने के लिए हैं। स्पष्ट आपके जीवन में एक मृत्यु हो जाए। मृत्यु उस तरफ से जिसको आप जीवन समझते थे तो उस तरफ आपका जीवन खुल जाएगा, जिसे आप नहीं जानते थे, जो अभी अंधकारपूर्ण था। और यह बोध के माध्यम से होता है। अखंड बोध के माध्यम से होता है। जरूर लगेगा कि मेरी बात कठिन है। असल में जीवन में कुछ भी नहीं हो सकता, जो कि मूल्यवान हो और कठिन न हो। लगेगा कि मेरी बात, मुझे लोग जगह-जगह पूछते हैं, सामान्य मनुष्य की हैसियत के बाहर है, यह बिल्कुल गलत है। यह किसी की हैसियत के बाहर नहीं है। और इस तरह के बहाने करके हम अपने ही हाथ से, अपनी हैसियत कम कर देते हैं। ये सब बहाने हैं। हम अपने को सामान्य बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं कि हम बहुत सामान्य आदमी हैं, हमसे क्या होगा? आपसे ज्यादा विशेष न महावीर थे, न बुद्ध थे, न कोई कभी हुआ है।
 हर मनुष्य की उतनी ही गरिमा है, जितनी किसी और की हो। लेकिन हम बहुत होशियार लोग हैं, हमने महावीर को बना दिया भगवान, जिससे कि हम सामान्य हो सकें। बुद्ध को बना दिया अवतार ताकि हम सामान्य हो सकें। क्राइस्ट को बना दिया ईश्वर-पुत्र ताकि हम सामान्य हो सकें। हमने इन सारे लोगों को अलग कर दिया अपने से ताकि हम सामान्य हो सकें और सो सकें। और हम कह सकें कि जागना तो कुछ विशिष्ट लोगों की बात है। हम तो सामान्य लोग हैं, हम कैसे जाग सकते हैं?
कोई मनुष्य सामान्य नहीं है। लेकिन इसका पता आपको तब तक नहीं चलेगा, तब तक कि बोध जगना शुरू न हो जाए। जब तक बोध नहीं जगा है, तब तक हर एक सामान्य है। और जब बोध जगने लगे तो कोई सामान्य नहीं है। जब तक बीज में अंकुर न फूटे तब तक ऐसा लगता है कि पता नहीं, इस बीज में वृक्ष है भी या नहीं। लेकिन ऐसा कोई भी बीज नहीं है, जिसमें वृक्ष न हो। लेकिन उसका प्रमाण कब मिलता है? प्रमाण तो तब ही मिलता है, जब अंकुर फूटे। तो अभी से अपने को सामान्य न समझ लें कि मैं सामान्य हूं। अभी आप कुछ नहीं तय कर सकते। थोड़ा प्रयास करें, थोड़ी हिम्मत करें, थोड़ा साहस करें, थोड़ा अंकुर फूटने दें और आपको पता चलेगा, कोई बीज ऐसा नहीं जिसमें वृक्ष न हो। और कोई मनुष्य ऐसा नहीं जिसके भीतर परमात्मा की संभावना नहीं है। वह संभावना है। लेकिन उसे जगाना होगा। उसे उठाना होगा। और साहस करना होगा उस जीवन के प्रति जिन्हें हम सच समझे हुए हैं, उन बातों के प्रति जिन्हें हम बड़ी कीमत की समझे हुए हैं, मरना होगा। और अगर कोई उन बातों के प्रति मरे, और भीतर की तरफ जागे और अगर ये दोनों क्रियाएं साथ चलें कि वह व्यर्थ की बातों के प्रति मरता जाए और सार्थक बोध के प्रति जागता चला जाए, तो क्रांति बिल्कुल सुनिश्चित है, और उस क्रांति से ही मनुष्य उस स्वतंत्रता को, उस मुक्ति को अनुभव करता है।
एक छोटी सी कहानी और अपनी चर्चा को मैं पूरा करूं।
बहुत पुराने समय में कभी कोई राजा हुआ। वह जंगल से एक तोते को पकड़ लाया। तोता बड़ा सुंदर था। बहुत संुदर था। उसे उस राजा को उस तोते से बहुत प्रेम भी हो गया। उसने उसके लिए स्वर्ण के पिंजरे बनवाए। उनमें हीरे-मोती जड़वाए, लाखों रुपये उन पर खर्च किए, और उस तोते को पाला। उसे बड़ी शिक्षा दी। वह मनुष्य की भाषा सीख गया और बोलने लगा। वर्ष बीत जाने पर एक दिन उस राजा ने कहा कि मैं वन जा रहा हूं, शिकार के लिए जिस वृक्ष से तुम्हें पकड़ा था। तुम्हारे बंधुजन, तुम्हारे स्वजातीय, तुम्हारे मित्र वहां रहते होंगे, कोई संदेश तुम्हारा हो तो मैं पहुंचा दूं? उस तोते ने कहाः उनको कह देना कि मैं बहुत आनंद में हूं, क्योंकि राजा का मुझ पर बड़ा प्रेम है। मैं बहुत सुख में हूं, क्योंकि राजा की मुझ पर बड़ी कृपा है। लेकिन न तो सुख से स्वतंत्रता बेची जा सकती है, और न राजा के प्रेम और कृपा से। तो तुम सचेत रहना। उसने कहा कि मेरे मित्रों को कह देना कि मैं सुख में हूं, राजा की बड़ी कृपा है। सब तरह से व्यवस्था है, सुविधा है, राजा का बड़ा प्रेम है। लेकिन किसी भी कीमत पर स्वतंत्रता नहीं बेची जा सकती है। तुम सजग रहना, यह मेेरे मित्रों को तुम कह देना।
राजा ने कहाः इसने संदेश तो बहुत गड़बड़ दिया है, लेकिन वचन दिया था, तो वह गया और उसने जाकर उस वृक्ष के नीचे जहां से तोते को पकड़ा था, वहां बहुत हजारों तोते थे, उस झाड़ पर रहते थे..सांझ को वे सब लौटे, तो राजा ने उनसे कहा कि तुम्हारे बंधु ने यह..यह खबर भेजी है। जैसे उसने कहा, एक-एक तोता वृक्ष से नीचे गिरने लगा, जैसे अचानक मृत्यु हो गई। जैसे उसने कहा कि उसने कहा है सुख तो बहुत है, लेकिन स्वतंत्रता सुख पर नहीं बेची जा सकती।
पिंजड़ा तो बहुत सुंदर है, सोने का है, लेकिन आकाश के मुकाबले तो उसे नहीं चुना जा सकता, तुम जरा सावधान रहना। यह जैसे ही राजा ने कहा कि एक-एक तोता वृक्ष से नीचे गिरने लगा। जैसे कि सारे तोते एकदम मरने लगे। उसने कहा कि यह क्या? यह कैसा अपशगुन वाला संदेश इसने भेजा है, हजारों तोते नीचे गिर गए और उनकी मृत्यु हो गई और उनके ढेर लग गए। राजा बहुत घबड़ा गया। वह लौटा, वह बहुत चिंतित हुआ कि यह कैसा संदेश था, उसके कैसे शब्द थे कि हजारों तोते एकदम मर गए? गिर गए नीचे और ढेर लग गए। वह वापस लौटा। और उसने जाकर उस तोते को कहा कि तून यह क्या पागलपन किया? यह कैसा संदेश भेजा? यह कैसे अपशगुन भरे शब्द थे? कि मैंने जैसे ही कहा हजारों-लाखों तोते गिरने लगे वृक्ष से और मर गए। जैसे ही राजा ने यह कहा देखा कि तोता तड़फड़ाया और मर गया। वह वहीं मर गया उस पिंजरे के भीतर, वह राजा बोला मैं भी कैसा पागल हूं, मैंने यह खबर आकर इसको फिर सुना दी, यह भी मर गया। यह मामला क्या है? लेकिन तोता मर गया, उसे बहुत प्यारा था। उसने सोचा कि उसका शाही सम्मान से विदा हो। बहुत बड़ा सम्मान की व्यवस्था की गई। पिंजरा खोला गया, उसे बहुत अच्छे वस्त्रों में रखा गया, लेकिन लोग देख कर हैरान हुए जैसे ही उसे पिंजरे के बाहर रखा, वस्त्रों में रखा, उसने पंख फड़फड़ाए और वह आकाश में उड़ गया। उसने ऊपर महल की चोटी पर बैठ गया। राजा ने कहाः यह क्या धोखा है? यह क्या मामला है? उस तोते ने कहाः मेरे मित्रों ने मुक्त होने का संदेश मुझे भेजा। उन्होंने मेरे संदेश का उत्तर दिया। उन्होंने कहाः मुर्दे की भांति हो जाओ, पिंजरा खुल जाएगा।
और यही संदेश है। और आज अंतिम विदा में यही आपको कहना चाहता हूं, मुर्दे की भांति हो जाएं तो जीवन मिल जाएगा। और कुछ अंत में मुझे नहीं कहना है। इतने दिन तक प्रेम से मेरी बातों को सुना है। बहुत सी ऐसी बातों को जिनसे बेचैनी और परेशानी हो सकती है, जिनसे मुझ पर क्रोध आ सकता है, मेरी निंदा का, मेरा खंडन करने का मन हो सकता है; ऐसी बातों को भी प्रेम से सुना है। ऐसी बातों को जिनसे आपके मन को बहुत चोट पहुंच सकती है, बहुत दुख हो सकता है; आपकी बंधी हुई धारणाओं को बहुत हानि पहुंच सकती है, क्षति हो सकती है, उनको भी प्रेम से सुना है। मुझे आप पत्थर भी मारें उन बातों को सुन कर तो मुझे लगेगा कि कृपा करते हैं, केवल पत्थर ही मारते हैं, लेकिन न कोई पत्थर मारता है, न कुछ। प्रेम से सुनते हैं तो मुझे बड़ा अनुग्रह मालूम होता है। ऋणि मैं आपका हो जाता हूं, आप मेरे ऋणी होने के कोई कारण नहीं हैं। मैं ऋणी हो जाता हूं, इतनी चोट पहुंचाता हूं प्रेम से सुन लेते हैं, तो मुझे बड़ा अनुग्रह मालूम होता है। मालूम होता है ईश्वर की अनुकंपा है कि आपका इतना प्रेम है कि मैं जो भी कह रहा हूं, उसे सुन लेते हैं।

इन सारी बातों को सुना उससे बहुत अनुगृहीत हूं और अंत में इतना ही कहता हूं कि अगर सच में जीवन को पाना हो तो मरना सीख लेना होगा। और जो मर जाता है, उसका पिंजरा खुल जाता है और उसे जीवन और स्वतंत्रता और आकाश की मुक्ति उपलब्ध हो जाती है। ईश्वर करे ऐसी मुक्ति प्रत्येक को उपलब्ध हो। वह प्रत्येक के भीतर है। प्रत्येक का अधिकार है, प्रत्येक की क्षमता है। अगर हमने प्रयास किया, अगर हमने चेष्टा की, अगर हम सजग हुए तो उसे पाया जा सकता है। परमात्मा यह मौका सबको दे, यह कामना करता हूं और पुनः सबका धन्यवाद करता हूं। अंत में सबके भीतर परमात्मा के लिए मेरे प्रणाम स्वीकार करें।




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