कुल पेज दृश्य

बुधवार, 29 अगस्त 2018

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(क्या आपका जीवन सफल है?)

यह प्रश्न उठता है कि आपसे पूछूं, आपको जीवन का अनुभव हुआ है? यह प्रश्न उठता है आपसे पूछूं, आपको जीवन में आनंद का अनुभव हुआ है? यह प्रश्न उठता है आपसे पूछूं, आपको अमृत का, आलोक का।।किसी प्रकार की दिव्य और अलौकिक शांति का कोई अनुभव हुआ है? ऐसे बहुत से प्रश्न उठते हैं। लेकिन मैं उनके पूछने की हिम्मत नहीं कर पाता, क्योंकि उनका उत्तर करीब-करीब मुझे ज्ञात है।
कोई आनंद मुझे नहीं दिखाई पड़ता, कोई आलोक, कोई शांति, कोई प्रकाश, कोई जीवन में दिव्यता का बोध, न ही कोई कृतज्ञता, कोई कृतार्थता, कोई सार्थकता।।नहीं मालूम होती। इसलिए डर लगता है किसी से पूछना अशोभन न हो जाए।
 लेकिन हर आदमी जो मुझे मिलता है उससे पहली बात यही पूछ लेने का मन होता है, उसे ये बातें मिली हैं या नहीं मिलीं? और अगर ये बातें नहीं मिली हैं, तो उसका जीवन करीब-करीब व्यर्थ चला गया है। अगर ये अनुभूतियां उसे नहीं हुई हैं तो वह स्मरण रखे, उसने जीवन के इस बहुमूल्य अवसर को अपने हाथों खो दिया है। जिस जीवन में प्रभु का परम साक्षात संभव हो सकता था, जिस जीवन में सौंदर्य की, सत्य की और सेवत्व की अनुभूति हो सकती थी, उस जीवन को उसने कौड़ियां, कंकड़-पत्थर इकट्ठा करने में व्यतीत कर दिया है।

जिसे हम उपलब्धि कहते हैं, जिसे हम जीवन की सफलता समझते हैं, वह सब मुझे विफलता दिखाई पड़ती है। और जिसे हम संपत्ति समझते हैं, उसे मैं विपत्ति से ज्यादा नहीं देख पाता हूं। क्योंकि अगर वह संपत्ति होती तो जिन्हें वह उपलब्ध है, वे लोग शांति को उपलब्ध हो गए होते। क्योंकि जिसे हम सफलता कहते हैं, अगर वह विफलता न होती, तो जिन्हें मिलतीं।।उनकी आंखें प्रकाश से भर गई होतीं। उनके जीवन से आलोक झरने लगता, उनके जीवन से प्रेम बरसने लगता। उनका जीवन सामान्य मनुष्य का जीवन नहीं रह जाता जो मनुष्य का अतिक्रमण कर जाते हैं।
और जब तक कोई व्यक्ति अपने भीतर के मनुष्य का अतिक्रमण न कर सके, उसे पार न कर सके, तब तक।।तब तक वह व्यर्थ ही जीता है। तब तक उसकी श्वासों का आना-जाना व्यर्थ है। और तब तक उसकी सारी चेष्टाएं, सारे श्रम एक ऐसे निष्फल प्रयास में लगा है जिसके अंत में उसके हाथ खाली रह जाएंगे।
मुझे स्मरण आता है, एक गांव में एक फकीर आकर ठहरा हुआ था। किसी, किसी व्यक्ति ने आकर सुबह-सुबह उस फकीर को कहा: मेरे पास अतुल संपत्ति है। और उस संपत्ति का मैं कोई सदुपयोग करना चाहता हूं। आप आए हैं इस गांव में, आपकी बातें सुन कर, आपके निकट आकर मुझे लगा कि यह मनुष्य मार्गदर्शन दे सकेगा, तो मैं अपनी सारी संपत्ति आपके चरणों में रखता हूं और जो भी आज्ञा दें: मैं उसका उपयोग करूं।
उस फकीर ने नीचे से ऊपर तक उस मनुष्य को देखा और वह फकीर हंसने लगा। और उसने कहा कि मैं तो तुम्हारे पास कोई भी संपत्ति नहीं देख पाता हूं।
वह आदमी बोला: मैं संपत्ति अपने साथ नहीं लिए हूं, वह मेरे पास है। बहुत मेरे पास संपत्ति है और जो आप कहेंगे, मैं क रूंगा।
उस फकीर ने कहा: मेरे पास ऐसे सैंकड़ों दरिद्र आते हैं जिनको यह भ्रम होता है कि उनके पास संपत्ति है। और मेरे पास ऐसे सैकड़ों संपत्तिशाली भी आते हैं जिन्हें दुनिया दरिद्र समझती है। और उन्होंने बड़े उलटे...मैंने बड़ी उलटी गंगाओं को बहते देखा है। जिनके पास कुछ नहीं उनके पास सब देखा; और जिनके पास सब है उनके पास कुछ भी नहीं देखा। फिर भी तुम कहते हो तो मैं मान लेता हूं। मैंने स्वीकार किया कि तुम्हारे पास संपत्ति है और तुम कुछ करना चाहो, तो कर सकते हो तो एक छोटा सा मेरा काम कर दो तो मुझ पर बड़ी कृपा होगी। तुम्हारे पास संपत्ति का होना भी सिद्ध हो जाएगा और एक काम की तलाश में मैं पूरे जीवन से भटक रहा हूं, वह काम भी पूरा हो जाएगा। बोलो करोगे?
उस व्यक्ति ने कहाः आज्ञा दें। मेरी सारी संपत्ति, मेरी सारी शक्ति लगा दूंगा।
उस फकीर ने अपने कपड़े के भीतर से कपड़ा सीने की एक सुई निकाली और कहाः इसे रख लो और मरने के बाद मुझे वापस लौटा देना। इस सुई को लिए मैं घूम रहा हूं वर्षों से कि कोई मिल जाए मुझे जिसकी शक्ति और जिसकी संपत्ति इस सुई को मृत्यु के पार पहुंचा दे। तुम मिल गए, जिसकी तलाश थी वह आदमी मिल गया। आज रात्रि मैं निशिं्चत सो जाऊंगा।
आदमी बहुत हैरान हुआ! उसने बहुत सोचा, लेकिन एकदम इंकार करना संभव नहीं था। खुद ही ये विपत्ती मोल ले ली थी, खुद ही ये आमंत्रण दिया था, इसलिए घर गया। सोचा इंकार करने के पहले मित्रों को पूछ लूं। समझदारों को पूछ लूं, गांव के विचारशील लोगों को पूछ लूं, कोई रास्ता हो सके और यह सुई मृत्यु के पार जा सके तो इसे जरूर ले जाऊं। इंकार करने के पहले सब उपाय कर लेने उचित हैं। उसने गांव भर के समझदार वृद्धों से पूछा, वे हंसने लगे। उन्होंने कहा: इस सारे जगत की सारी शक्ति और सारी संपत्ति भी इकट्टी हो जाए तो यह भी सुई को भी मृत्यु के पार ले जाना संभव नहीं है। और वृद्धों ने कहा: इस काम को छोटा मत समझना, इससे बड़ा कोई काम आज तक जमीन पर न रहा है और न कभी होगा। और वह फकीर बहुत अजीब आदमी है, इस काम को उसने छोटा कहा, और वह पागल है। अगर इस काम की तलाश में घूम रहा है कि कोई आदमी इस सुई को मृत्यु के पार ले जाएगा। उस फकीर को भी असफलता ही मिलेगी, यह हो नहीं सकता। तुम जा कर सुई वापस कर दो, क्योंकि जीवन का कोई भरोसा नहीं है। अगर मर जाओ तो उस फकीर की उधारी ऊपर रह जाएगी। तो रात ही भागा हुआ गया। उसने कहा: यह सुई, क्षमा करें वापस ले लें। मुझे दिख गया मेरे पास कोई संपत्ति नहीं है, कोई शक्ति नहीं है। इस सुई को मृत्यु के पार ले जाने में मैं समर्थ नहीं हूं।
उस फकीर ने कहा: जिस आदमी के पास सारे जीवन के श्रम और संघर्ष के बाद इतनी भी उपलब्धि न हुई हो कि वह सुई को मृत्यु के पार ले जा सके, उस आदमी ने जीवन व्यर्थ खो दिया। क्योंकि संपदा केवल वही है जिसे मृत्यु नष्ट न कर पाए, जिसे मृत्यु नष्ट कर दे।।उस संपदा का कोई मूल्य नहीं है। जो संपदा मृत्यु छीन ले, उसे संपत्ति कहना नासमझी है।
वह साथ...मित्र अर्चन में, परेशानी में पहचाने जाते हैं, संपत्ति विपत्ति में पहचानी जाती है। मृत्यु से बड़ी कोई विपत्ति नहीं। उस वक्त जो संपत्ति काम नहीं आती, उसको संपत्ति नासमझ कहते होंगे।
पर कोई संपदा है।।जो मृत्यु के पार भी चली जाती है, कोई उपलब्धियां हैं।।जिन्हें मृत्यु की लपटें जला नहीं पातीं और मृत्यु भी जिन्हें नहीं छीन पाती है। उस तरह की संपत्ति को उपलब्ध करने का विज्ञान धर्म है। उस तरह की संपत्ति को जो मृत्यु से अपराजित हो, जो मृत्यु से सुरक्षित हो, वैसी संपदा।।है। वैसी संपदा पाई जा सकती है। सच तो यह है कि वैसी संपदा प्रत्येक को उपलब्ध है, हमें उसका स्मरण नहीं। धर्म पुनस्र्मरण है; धर्म स्वयं के भीतर छिपी हुई किसी निधी का पुनस्र्मरण है।
मैंने सुना है एक फकीर, एक भिखमंगा जीवन भर एक रास्ते के किनारे बैठ कर भीख मांगता रहा और जीवन भर यह सोचता रहा कि बहुत संपत्ति इकट्ठी कर लूं।
लेकिन भीख मांगने से कहीं संपत्तियां इकट्ठी हुई हैं?
वह आदमी जब मरा तो उसके पास कफन के लिए, उसे कब्र तक पहुंचाने के लिए भी पैसे नहीं थे। पास-पड़ोस के लोगों ने, जिन्होंने जीवन भर उसे भीख दी थी, उन्होंने ही अंतिम भीख दी और उसकी मृत्यु की यात्रा पूरी हुई। जब वह भिखारी मर गया, तो जहां उसने झोपड़ा बांध रखा था, उसे तोड़ दिया गया और साफ किया गया। और वह भूमि साफ की गई तो लोग हैरान हुए, जिस जमीन पर बैठ कर वह जीवन भर भीख मांगता रहा, वहीं नीचे एक अतुलनीय खजाना गड़ा हुआ था! जीवन भर वह सोचता था संपत्ति को पाने के लिए, और जिस जगह पर वह बैठ कर जीवन भर भीख मांगता रहा उसी जगह पर, उसी जमीन पर बहुत बड़ा खजाना छिपा हुआ था।
यह एक भिखमंगे की कहानी नहीं है। दुनिया में जितने लोग पैदा होते हैं, सभी की कहानी है। हम जीवन भर भीख मांगते हैं और कोशिश करते हैं कहीं कुछ मिल जाए और हम इकट्ठा कर लें। और करीब-करीब हमारे ही नीचे वह सारी संपदा छिपी होती है, दबी होती है।।जिसका हमें कोई बोध नहीं होता।
ऐसी संपत्ति को कैसे पाया जा सकता है? ऐसी संपत्ति के ऊपर फिर कैसे सजग हुआ जा सकता है? ऐसी संपदा जो कि।।है, उसे कैसे पुनरुद्घाटित किया जा सकता है? धर्म उसका विज्ञान है और उस विज्ञान की जो प्रक्रिया है, उस प्रक्रिया का नाम समाधि है।
आज की सुबह समाधि योग पर ही कुछ थोड़ी सी बातें कहने का मेरा विचार है।
मनुष्य के जीवन में दो ही दिशाएं हैं, वस्तुतः जगत में दो ही दिशाएं हैं। एक दिशा है।।जो बाहर की तरफ फैलती है, और एक दिशा है।।जो भीतर की तरफ चलती है। दिशाएं तो दो हैं, लेकिन रास्ता एक ही है। क्योंकि हर रास्ता दो दिशाओं में फैला हुआ होता है। उसका जो विस्तार होता है।।हर रास्ते का, वह दो दिशाओं में होता है। रास्ता एक दिशा में नहीं हो सकता। जैसे कि एक सिक्का एक ही पहलू का नहीं हो सकता। हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, हर रास्ते की दो दिशाएं होती हैं। जीवन का जो रास्ता है, उसकी दो दिशाएं हैं। एक जो बाहर की तरफ जाती है।।मनुष्य से, और एक जो मनुष्य के भीतर की तरफ जाती है। मनुष्य एक दोराहे की भांति है। मनुष्य एक ऐसी जगह पर खड़ा है जहां से उसके भीतर से दो रास्ते जाते हैं।।एक बाहर की तरफ, एक भीतर की तरफ। चूंकि हमारी सारी इंद्रियां बाहर की तरफ खुलती हैं, इसलिए जैसे ही हमें बोध पकड़ता है, हम बाहर की तरफ चलना शुरू कर देते हैं। स्वाभाविक ।
हमारी आंखें बाहर देखती हैं, हाथ बाहर छूते हैं, कान बाहर सुनते हैं, मन बाहर के विचार करता है। इसलिए जैसे ही हमें बोध आता है, हमारी इंद्रियों के द्वार बाहर खुलने के कारण हमारी इंद्रियां हमारी चेतना को बाहर के मार्ग पर अग्रसर कर देती हैं। यह बाहर का मार्ग अनंत है। इस पर कोई कितना ही चले, कभी कहीं पहंुच नहीं पाता। इस पर कोई कितना ही चलता जाए, इसका कभी अंत नहीं आता कि वह कह सके कि हम अंतिम जगह आ गए। और जिस जगह अंत न आता हो उस जगह विफलता ही हाथ लगेगी।
क्योंकि अंत के बिना सफलता कैसे हो सकती है? अंत के बिना उपलबिध कैसे हो सकती है? अंत को पाए बिना, गंतव्य पर पहुंचे बिना चलना व्यर्थ हो जाता है। इसलिए बाहर के रास्ते पर जो लोग चलते हैं, वे चलते तो बहुत हैं।।लेकिन पहुंचते नहीं हैं। वे दौड़ते तो बहुत हैं लेकिन कभी आ नहीं पाते। वे श्रम तो बहुत करते हैं लेकिन कोई फल उपलब्ध नहीं होता। उनके श्रम का अंत नहीं है। वे अपनी सारी शक्तियां और संकल्पों को विस्तारित करते हैं, लेकिन आखिर में पाते हैं करीब-करीब जहां थे, वहीं खड़े हैं।।कोई पहुंचना नहीं हुआ।
और न पहुंचने के, न पहुंचने का कारण यह नहीं है कि उनके श्रम की कमी है, कि उनके संकल्प की कमी है, कि उनकी अभीप्सा क्षीण पड़ रही है, कि छोटी पड़ रही है।।अभीप्सा बहुत है। लेकिन धन के लिए जो व्यक्ति अभीप्सा करता है, धन के लिए जो प्यास अपने में पैदा करता है, यश के लिए जो कामना पैदा करता है, पदों के लिए जो दौड़ उत्पन्न करता है, और इन सारी खोजों के लिए जितने संकल्प और जितनी शक्ति और श्रम को लगाता है।।वह कम नहीं है।
हर मनुष्य अपने जीवन में बहुत श्रम, बहुत संकल्प, बहुत प्राणों को समर्पित करता है, लेकिन कहीं पहंुच नहीं पाता। इस न पहुंचने में उसके श्रम की कमी नहीं, संकल्प की कमी नहीं, प्यास की कमी नहीं।।दिशा की भूल है। पहुंच ही नहीं सकता है। इसमें उसका कुसूर नहीं। जिस दिशा में वह चला, वहीं चलने की भूल है।
बच्चों की एक छोटी सी किताब है, मैं उसे पढ़ता था। उसमें एक छोटी कहानी आती है।
किताब तो बच्चों की है, कहानी बूढ़ों के लिए भी अर्थपूर्ण है।
उसमें एक छोटी सी कहानी आती है: एक छोटी सी लड़की है, वह परियों के देश में पहुंच गई। उसने परियों के देश में पहुंच कर, इस लोक से परियों के लोक तक जाने में वह बहुत थक गई, उसे भूख भी लग आई, प्यास भी लग आई।
छोटी लड़की और जमीन से लेकर परियों के लोक तक की यात्रा!
परियों के लोक में पहुंचते उसने देखा कि वहां तो बड़ी शीतलता है। सूर्य तो तप रहा है, लेकिन कोई उत्ताप पैदा नहीं होता। उसने देखा: हवाएं तो नहीं चल रही हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि बड़ी शांति और बड़ी शीतलता है। वह बड़ी प्रसन्न हुई, एकदम प्रसन्न हो गई। सारी थकान उसकी मिट गई, लेकिन भूख थी। उसने आंखें दौड़ाईं। उसने देखा, पास ही थोड़ी ही दूर पर, कुछ ही कदमों के फासले पर परियों की रानी अपने हाथ में बहुत सी मिठाइयां लिए खड़ी हैं और उसे अपनी तरफ बुला रही है। वह लड़की भागी, रानी उसे बुलाती है और उसे भूख लगी है।
वह लड़की जब भागना शुरू की, अभी सुबह थी, सूरज निकला ही था; वह भागती गई, भागती गई, भागती गई दोपहर आ गया, वह घबड़ा गई। थोड़े से कदमों का फासला था वह पूरा नहीं होता था। वह रानी, वह उतनी ही दूर दिखाई पड़ती थी जितनी दूर पहले दिखाई दी थी। और अब भी वह बुला रही थी। सूरज ऊपर आ गया, सिर पर तपने लगा। उसने चिल्ला कर पूछा: ये क्या मामला है? सुबह से दोपहर हो गई मुझे दौड़ते हुए, मैं कहीं पहुंच नहीं पा रही?
रानी ने कहा: और थोड़ा श्रम करो और थोड़ा तेजी से दौड़ो, जो दौड़ते हैं आखिर पहुंच ही जाते हैं।।दौड़ो। वह लड़की फिर भागना शुरू हुई, वह दौड़ती गई, फिर सूरज भी ढल गया और सांझ का अंधेरा उठने लगा। वह थक कर गिर पड़ी, रानी उतनी ही दूर थी। और अब भी उसका बुलावा आ रहा था। उसने चिल्ला कर कहा: आ जाओ।
वह लड़की बोली, ये कैसी दुनिया है तुम्हारी! ये कैसा परियों का देश है! ये कैसी मुश्किल है, मुसीबत है कि मैं सुबह से दौड़ रही हूं, सांझ हो गई लेकिन पहंुच नहीं पाती हूं। फासला बहुत कम है।
वह रानी हंसने लग गई और उसने कहा: हमारी दुनिया में ही ऐसा नहीं होता, तुम्हारी दुनिया में भी ऐसा ही होता है।
परियों के देश में ही ऐसा नहीं होता; मनुष्यों के देश में भी ऐसा ही होता है। लोग दौड़ते हैं। सुबह दौड़ना शुरू करते हैं, जीवन की संध्या आ जाती है। और वह पाते हैं।।जो उन्होंने पाना चाहा था।।वह अब भी दूर खड़ा है और बुला रहा है। फासला उतना ही है। फासले में कोई भेद नहीं पड़ता है।
इसमें मनुष्य की भूल, उसके श्रम और संकल्प की भूल नहीं है। इसमें भूल मात्र उसके दिशा की है। बाहर की दिशा कहीं पहंुचा नहीं सकती, क्योंकि बाहर की दिशा का कोई अंतिम बिंदु नहीं आता है, अंतस की दिशा कहीं पहुंचाती है। क्योंकि अंतस की दिशा मुझ पर आकर समाप्त हो जाती है। बाहर जाने वाली दिशा कहीं भी जा कर समाप्त नहीं होती, भीतर जाने वाली दिशा मुझ पर आकर समाप्त हो जाती है। मैं बिंदु हूं।।जहां वह दिशा पूरी हो जाती है।
अगर मैं भीतर की तरफ चलूं तो मैं अपने पर पहुंच जाऊंगा। और अगर मैं बाहर की तरफ चलूं तो मैं कहीं भी नहीं पहंुच पाऊंगा। और बड़े रहस्य की बात यह है कि जो अपने पर पहुंच जाते हैं, बड़े रहस्य की बात यह है कि वह उस छोटे से अणु को जान लेते हैं।।जो उनके भीतर है। उस चैतन्य के बिंदु को अनुभव कर लेते हैं।।जो वे हैं। वे सब जगह पहुंच जाते हैं, क्योंकि उस चैतन्य का अनुभव।।उस एक अणु का अनुभव उन्हें विराट प्रभु में प्रतिष्ठित कर देता है।
बाहर दौड़ कर कहीं भी नहीं पहुंच पाता, कोई उस सर्वांत की रेखा को नहीं छू पाता। वह भीतर पहंुच कर स्वयं पर पहुंच जाता है। स्वयं पर पहुंच कर समग्र शक्ति के प्राणों को अनुभव कर लेता है। जो बाहर जाते हैं वह बाहर को तो खो ही देते हैं; भीतर को भी खो देते हैं। जो भीतर आते हैं, वे भीतर को तो उपलब्ध हो ही जाते हैं; साथ-साथ बाहर को उपलब्ध हो जाते हैं। स्वयं पर पहंुच कर मनुष्य आत्मा का अनुभव करता है। आत्मा का अनुभव उसे समस्त जगत में उसी आत्मा की परिव्याप्ति के बोध को देता है।।वह परिव्याप्ति का बोध परमात्मा का बोध है। स्वयं पर आकर आत्मा का अनुभव है, आत्मा का अनुभव उसे परमात्म-बोध में प्रतिष्ठित कर देता है।
स्वयं को पा कर सबको पा लिया जाता है, स्वयं को खो कर सब खो दिया जाता है। जो सबको पाने चलते हैं, वह स्वयं को तो पहले ही खो देते हैं; और सब कभी उपलब्ध नहीं होता। और जो सबकी फिकर छोड़ कर स्वयं को पाने चलते हैं, वह पहले स्वयं को तो पा ही लेते हैं; और उस स्वयं के भीतर से सबको पाने का सूत्र, आधार-बिंदु, आधार-भूमि उनकी पकड़ में आ जाते हैं। इसलिए यह दिखाई पड़ता है कि जिनके पास कुछ नहीं, उनके पास सब कुछ मालूम होता है; और इसलिए यह अनुभव होता है कि जिनके पास सब है, उनके पास कुछ भी मालूम नहीं होता है।
महावीर के पास, बुद्ध के पास, या क्राइस्ट के पास।।क्या था? उपलब्धि की भाषाओं में सोचें तो उनके पास कुछ भी नहीं, उन जैसे दरिद्र लोग इस जमीन पर कभी नहीं हुए। लेकिन अगर अंतस की भाषा में देखें तो उनके पास सब है। उनकी आंखें गवाही हैं, उनका जीवन गवाही है, उनका आचरण गवाही है, उनका उठना-बैठना, सोना-जागना गवाही है।।कि उनके पास सब कुछ था। सब कुछ होने की गवाही यह है कि ऐसे मनुष्य को कुछ भी पाने की चाह नहीं रह जाती। कुछ भी पाने की चाह का न रह जाना इस बात की सूचना है।।उसे सब उपलब्ध हो चुका है।
हमने दरिद्रों को सम्राट की तरह देखा है और सम्राटों को दरिद्रों की भांति देखा है। इस दुनिया में अगर सम्राट होने को अगर आप चुनते हैं, आप दरिद्र मरेंगे। और अगर आप दरिद्र होने को चुनते हैं, सम्राट होना सुनिश्चित है। यह जो दरिद्र होने का चुनाव मैं कह रहा हूं, उसका अर्थ हुआ: भीतर की तरफ आना, अंतस की तरफ आना। सम्राट होने का अर्थ है: बाहर की तरफ जाना। वहां विजय की पताकाएं गाड़नी।।बाहर के जगत में, और स्वयं के जगत में।।ये दो ही दिशाएं हैं। समाधि योग या ध्यान या धर्म स्वयं के भीतर जाने का विज्ञान है। कैसे हम स्वयं के भीतर प्रवेश कर सकते हैं?
मैंने कहा, मन उस बीच में खड़ा है, बाहर एक दिशा और भीतर एक दिशा है। अगर भीतर चलना है तो बाहर की दिशा से अपनी खूटियों को अलग कर लेना होगा। जब कोई नाविक किसी समुद्र में यात्रा को निकलता है तो इसके पहले कि वह पतवार चलाए, जरूरी है कि वह नांव की जंजीरों को खोल ले, जो कि तट से बंधी हैं। जो मनुष्य भीतर की तरफ जाना चाहता है, उसे बाहर के जगत से अपनी जंजीरों को खोल लेना पड़ेगा। और अगर वह जंजीरें खोलना भूल जाए तो भीतर कितनी ही दौड़-धूप करे, भीतर भी कहीं नहीं पहुंच सकेगा। बाहर इसलिए कहीं नहीं पहुंच सकता कि बाहर का कोई अंत नहीं है।
भीतर जो लोग चेष्टा करते हैं, वे अगर असफल होते हों तो उन्हें जानना चाहिए कि असफलता का कारण यह होगा कि उन्होंने बाहर से जंजीरें नहीं खोलीं। बाहर से हम किन जंजीरों से बंधे हैं। कौन सी जंजीरें हमें बांधे हैं? इसकी मैं चर्चा करूं उसके पहले एक छोटी सी कहानी कहूं, उससे मेरी बात समझ आ सके।
एक रात कुछ मित्रों ने देर तक शराब पी, फिर उन्होंने सोचा कि हम नाव पर जाएं और झील पर यात्रा करें। वे गए। (उन्होंने-कसैट में)वे नाव पर बैठे, उन्होंने पतवारें उठाईं, उन्होंने पतवारें चलाईं, कहा कि रात तक...वे बह‏ुत देर तक।।पूरे चांद की रात थी; वे नाव चलाते रहे। और फिर जब सुबह की ठंडी हवाएं आने लगीं तो उन्हें खयाल आया कि अब तो सुबह होने को है। अब हम वापस लौट चलें, तो उनमें से एक ने कहा कि मैं जरा नीचे तट पर उतर कर देखूं कि हम कितनी दूर निकल आए हैं। रात भर यात्रा की है फिर हम वापस लौटें। उसने नीचे उतर कर कहा, और उसने चिल्ला कर कहाः मित्रों, भूल हो गई, हमें कहीं वापस लौटने का सवाल ही नहीं है, हम वहीं खड़े हुए हैं। हम नाव की खूटियों से जंजीर छोड़ना रात भूल गए। हमने पतवार तो चलाईं, हमने श्रम तो किया, लेकिन हम कहीं पहुंचे नहीं, क्योंकि नाव तो बंधी हुई है।
तो जो व्यक्ति भीतर के जगत में प्रवेश करना चाहे, अगर वह न समझ पाए कि किन खूंटियों से उसकी मन की जंजीरें बाहर से बंधी हैं, तो उसकी सब चेष्टा गर्त हो जाएगी, उसकी प्रार्थनाएं निष्फल हो जाएंगी, उसकी पूजाएं मिट्टी में मिल जाएंगी। उसकी साधना सिवाय विफलता के और कुछ भी नहीं लाएंगी। और तब एक और भी बड़ा फ्रस्ट्रेशन पैदा होता है, तब एक और भी बड़ी घबड़ाहट और बेचैनी पैदा होती है।
बाहर सफलता मिलती नहीं, और भीतर भी सफलता न मिले; तो आदमी इतना घबरा जाता है, इतना बेचैन हो जाता है, इतनी परेशानी में पड़ जाता है।।जिसका कोई हिसाब नहीं है। इस दुनिया में वे लोग जो बाहर असफल होते हैं।।उनका संताप, उनका एंग्विस इतना नहीं होता; जितना जो लोग भीतर की दुनिया में भी असफल हो जाते हैं।
उनकी पीड़ा को आप अनुभव नहीं कर सकते।
न मालूम देश के कोने-कोने में कितने साधुओं ने मुझसे एकांत में यह कहा है कि हम बहुत बेचैन हैं, बहुत घबराए हुए हैं। बाहर की दुनिया हमने छोड़ दी, भीतर की दुनिया में कुछ मिलता नहीं मालूम होता। हम बहुत लटके हुए रह गए हैं, हम बहुत त्रिशंकु की स्थिति में हो गए हैं। हमें समझ में ही नहीं आता कि हमने कोई गलती तो नहीं कर ली है। कहीं यह तो नहीं हो गया है कि हमने भूल कर ली हो, बाहर की दुनिया ही ठीक रही हो? क्योंकि भीतर कुछ उपलब्ध नहीं होता, बाहर यह सोच कर कि कुछ उपलब्ध होगा नहीं।।छोड़ दिया। भीतर वर्षों से मेहनत करते हैं, कुछ उपलब्ध नहीं होता।
उन सबसे मैंने यह कहा कि थोड़ा अपनी नांव के नीचे उतर कर किनारे पर देख लें, कहीं जंजीरें बंधी होंगी। इसलिए पहंुचना भीतर नहीं हो पा रहा है।
तो कौन सी जंजीरें हैं? संक्षिप्त में मैं उनकी थोड़ी सी बात करूंगा। उससे ही समाधि योग को समझने में सहायता मिलेगी और भीतर के प्रवेश की संभावना का द्वार खुलेगा।
पहली बात, हम बाहर के जगत से किस बात से जुड़े हैं? एक क्षण को कल्पना करें, अगर मनुष्य के पास कोई भाषा न हो, और वाणी न हो, तो सब मनुष्य एक दूसरे से टूट जाएंगे। अगर मनुष्य के पास कोई भाषा न हो, और वाणी न हो तो सब मनुष्य एक-दूसरे से टूट जाएंगे, बाहर के जगत से उनका कोई संबंध नहीं रह जाएगा। मुखरता जगत से जोड़े हुए है, मौन जगत से तोड़ता है।
जिस व्यक्ति को भीतर प्रवेश करना हो, उसे मुखरता की जगह, वाणी की जगह।।मौन को साधना होगा। उसे शब्द की जगह निःशब्द को साधना होगा। उसे बोलने की जगह, न बोलने की दिशा में गति करनी होगी। क्योंकि हम जुड़ते हैं।।भाषा से, बोलने से, वाणी से। बाहर से कौन जोड़े हुए है? शब्द जोड़े हुए है, वाणी जोड़े हुए है, भाषा जोड़े हुए है। तो जो व्यक्ति निरंतर-निरंतर वाणी से घिरा हुआ है, वह व्यक्ति क्रमशः यह भूल जाएगा कि मौन होने की भी एक कला है। चुप हो जाने का भी एक रहस्य है। जो लोग चुप हो जाते हैं, वे उन सत्यों को पा लेते हैं जिन सत्यों को बोल कर न बताया जा सकता है किसी को, न किसी के बोलने से कभी समझा जा सकता है।
पहली खूंटी जो बाहर के जगत से हमें जोड़े हुए है, वह वाणी की है। इसलिए समाधि योग का प्रथम चरण है मौन। बाहर के जगत के प्रति मौन को साधना होगा। थोड़ा हम यह समझ लें कि बाहर के जगत से हम इतने ज्यादा बातचीत में क्यों होना चाहते हैं?
 क्या आपने कभी ख्याल किया है कि जब कोई आदमी पागल हो जाता है तो वह चैबीस घंटे बातचीत करने लगता है? क्या कभी यह ख्याल किया है कि कोई मौजूद न भी हो तब भी वह बातचीत किए जाएगा? आप तो जब कोई मौजूद होता है तब बातें करते हैं, पागल तब भी बात करता है जब कोई मौजूद नहीं होता।
लेकिन आप अपने में और उसमें बहुत ज्यादा फर्क मत समझना।
वह जो आदमी मौजूद है, जिसकी मौजूदगी में आप बात करते हैं, वह तो केवल बहाना है। आपको बात करनी ही है। वह जो आदमी मौजूद है जिससे आप बात कर रहे हैं, वह तो केवल बहाना है, आपको तो बात करनी ही है। वह न होगा तो दूसरा काम देगा, वह न होगा तो तीसरा काम देगा, कोई न कोई मिलेगा, कोई न कोई को आप पकड़ेंगे और बात शुरू करेंगे। उस बात करने में जिससे आप बात कर रहे हैं, उसका कोई मूल्य नहीं है सिवाय इसके कि जैसे खूंटी पर कोई कपड़ा टांग देता है। वैसे हर आदमी एक-दूसरे पर अपनी वाणी टांग रहा है, अपना विचार टांग रहा है। उसकी जो आकांक्षा है, वह उस दूसरे से कोई प्रयोजन नहीं है, प्रयोजन तो उसके भीतर चल रहे हैं।।वेग।।विचारों के। वह उनको किसी तरह खाली करना चाहता है, उन्हें फेंक देना चाहता है।
मैंने सुना है, पश्चिम के एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक जुंग के पागलखाने में दो पागल दाखिल हुए। वे दोनों विचारशील थे। दोनों पंडित थे। दोनों ने किताबें लिखी थीं। फिर वे पागल हो गए थे।
और अक्सर पंडित पागल हो जाते हैं।
असल में पांडित्य जो है पागलपन का ही एक प्रारंभिक रूप है। वे दोनों पागल हो गए थे। अक्सर विचारक पागल हो जाते हैं। क्योंकि विचार की प्रक्रिया अगर पूरी हो जाए तो पागलपन में परिणित हो जाती है। अगर विचार बढ़ते चले जाएं और उनका तनाव बढ़ता चला जाए तो मस्तिष्क एक सीमा पर टूट जाता है। इसलिए पश्चिम के सारे विचारकों के जीवन में आप पाएंगे, अधिकतम विचारकों के जीवन में, वे कभी पागल हुए। बल्कि अब तो मुझे ऐसा लगने लगा कि अगर पश्चिम में कोई बड़ा विचारक पागल न हो तो समझना चाहिए बहुत बड़ा विचारक नहीं है।
तो वह पागलपन तो जरूरी है, क्योंकि अगर विचार पूरा बढ़ेगा, तो कहां ले जाएगा?
इसलिए मैं महावीर को, बुद्ध को, क्र ाइस्ट को, कृष्ण को विचारक नहीं कहता हूं। ये विचारक नहीं हैैं। क्योंकि ये पागलपन से बिलकुल विपरीत छोर पर खड़े हैं, ये प्रज्ञा पर खड़े हैं। भारत का कोई भी आज तक साधक जिसकी प्रज्ञा जागृत हुई है, जिसने सत्य के बोध को अनुभव किया है, विक्षिप्त होते नहीं देखा गया।
जब कि पश्चिम में वहां आम रिवाज है और इसका फर्क है।।पश्चिम की सारी खोज विचार की है, भारत की सारी खोज निर्विचार की है। पश्चिम की सारी खोज वाणी की है; भारत की सारी खोज मौन की है।
यह मैं कह रहा था कि दूसरे से जब आप विचार करते हैं तो वह जुंग...कि वहां दो पागल जो विचारशील थे, वे भर्ती हुए। जुंग उनका निरीक्षण करता था। उसने एक दिन देखा, वह बहुत हैरान हुआ! उसने देखा, वे दोनों कमरे में बैठे हैं और जुंग खिड़की के पीछे से छिप कर उनकी बातें सुन रहा है। वे दोनों बातचीत कर रहे हैं। पहला बोलता है दूसरा चुप हो जाता है, जब दूसरा बोलता है तो पहला चुप हो जाता है। बिलकुल ठीक-ठीक जब एक बोलता है, दूसरा बिलकुल चुप होकर सुनता है। जब पहला बंद हो जाता है तो दूसरा बोलता है, लेकिन उनके बोलने का एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं है। उन्हें जो बोलना है वे बोले जा रहे हैं। जो पहले ने बोला है उसके दूसरे के बोलने से कोई नाता, कोई रिश्ता नहीं है। उसे जो बोलना है वह बोले जा रहा है। लेकिन जब वह रुक जाता है तो दूसरा शुरू करता है, और जो दूसरा शुरू करता है उसका पहले से कोई संबंध नहीं है। जुंग बहुत हैरान हुआ, वह भीतर गया। उसने कहा कि मित्रों, यह मैं देख रहा हूं, आप लोग लेकिन बोलते वक्त बीच-बीच में चुप क्यों हो जाते हो? वे दोनों पागल हंसने लगे।
वे बोले: कनवरसेशन का नियम हमें मालूम है। बातचीत करने का क्या नियम है, वह हमें मालूम है? जब पहला बोलता हो तो दूसरे को चुप रहना चाहिए। इसलिए जब वह बोलता है मैं चुप हो जाता हूं, जब मैं बोलता हूं वह चुप हो जाता है।
और आप भी अगर गौर करेंगे अपने भीतर, तो जब आप दूसरे से बातें कर रहे हैं तब आप केवल नियम की वजह से चुप हैं। आपके भीतर अपनी बात चल रही है। वह बाहर वाला आदमी बात कर रहा है, आप अपने भीतर बात किए जा रहे हैं। जब वह चुप हो जाएगा, तब आप शुरू करेंगे।।वहां से नहीं जहां उसने समाप्त किया है, वहां से।।जहां आपके भीतर की बात पहुंच गई है। उसने जहां समाप्त किया है वहां से आप शुरू नहीं करने वाले हैं। आप वहां से शुरू करेंगे जहां आपके भीतर का चलता हुआ सिलसिला पहंुच गया है। हां, बहाने के लिए कोई शब्द पकड़ लेंगे, कोई बात पकड़ लेंगे, खूंटी की तरह।।बस वह एक इशारेे की तरह काम देगा, ताकि यह न मालूम पड़े कि आप पागल हैं। और फिर आप अपनी बात शुरू कर देंगे, वह बात बिलकुल आपकी अपनी है।
सारी दुनिया में यह जो, यह जो पागलपन है बात करने का, इसके पीछे कुछ कारण हैं। इसके पीछे कुछ बुनियादी कारण हैं। सबसे बड़ा बुनियादी कारण यह है कि हर आदमी इसलिए बातचीत करना चाहता है, बातचीत में वह अपने को भूल जाता है। अगर आपको बिलकुल मौन होने का मौका मिल जाए, आप बहुत घबड़ा जाएंगे। क्योंकि आपको अपनी सारी असलियत, अपने जीवन की सारी व्यर्थता इतने जोर से दिखाई पड़ेगी कि आपको ऐसा लगेगा मैं क्या करूं, क्या न करूं?
अगर हर आदमी को कोई तरकीब हो मौन कर देने की, उसे मौन कर दिया जाए, वह इतना घबड़ा जाएगा, जिसका कोई हिसाब नहीं। बातचीत में भूले रहता है, अखबार पढ़ने में भूले रहता है। इधर-उधर जा कर रेडियो सुनने में, सिनेमा देखने में भूला रहता है। हर आदमी पूरे जीवन यह कोशिश कर रहा है कि किसी भांति स्वयं को भूलने की कोई व्यवस्था हो जाए। खुद का पता न चले।
इसलिए नींद में सुख मिलता है, क्योंकि खुद का कोई पता नहीं चलता। इसलिए नशे में सुख मिलता है, क्योंकि खुद का कोई पता नहीं चलता। इसलिए संगीत में सुख मिलता है, क्योंकि खुद को हम भूल जाते हैं। इसलिए उन सारी चीजों में सुख मिलता है जो किसी न किसी भांति इंटॉक्सिकेंट हैं। जो किसी न किसी भांति मादक हैं, और बातचीत भी एक मादकता है। एक नशा है।
आप, मैं समझता हूं मेरी बात को अनेक उदाहरणों से समझ लेंगे जो आपको खयाल में आएंगे। आपके चारों तरफ ऐसे लोग हैं जिनको कि बातचीत नशा है, लेकिन उनकी फिकर छोड़ दें, अपने बाबत स्मरण करें। आपको पता चलेगा किसी न किसी मात्रा में बातचीत आपको भी नशा है। उसके बिना आप जी नहीं सकते। अगर आपको एक, एक एकांत में, अकेले में बंद कर दिया जाए और कहा जाए और सब सुविधाएं होंगी, बातचीत भर की सुविधा नहीं होगी। आप कहेंगे, मैं सब सुविधाएं छोड़ने को राजी हूं। लेकिन बातचीत की सुविधा रहने दी जाए।
एकांत में आप घबराते क्यों हैं? भीड़ से बाहर जाने में डर क्यों लगता है? सारी दुनिया भीड़ की तरफ बढ़ती जा रही है, आप चैबीस घंटे एक भीड़ से दूसरी भीड़ में, दूसरी से तीसरी भीड़ में।।इस भांति जाते हैं जब तक, जब तक कि नींद न आ जाए। तब तक आप एक भीड़ से दूसरी भीड़ में बदल रहे हैं।
जिस व्यक्ति को स्वयं के भीतर जाना हो, उसे भीड़ से थोड़ा बाहर आना होगा। उसे भीड़ में जाने की बजाय एकांत में जाना होगा। उसे सबके बीच अपने को भूलने की बजाय अकेले होकर अपने को स्मरण करना होगा। और इसलिए बातचीत नहीं, वाणी नहीं, मौन भीतर ले जाता है; वाणी बाहर ले जाती है।
मौन का अर्थ यह नहीं है कि आप चैबीस घंटे चुप हो जाएं, वह मैं नहीं कह रहा हूं। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि आप चैबीस घंटे चुप हो जाएं। मैं आपको यह कह रहा हूं कि बातचीत आपकी उतनी ही हो, जितनी कि पागलपन से मुक्त है। जिसके लिए भीतर वेग नहीं है, आवेग नहीं है कि मैं करूं, किसी से यह बात करूं, और अगर एक ऐसा दिन आ जाए कि कोई करने को न मिले तो फिर आप दीवारों से करें।।लेकिन करें। उस बात को करना ही पड़ेगा। यह जो स्थिति है, यह जो वेग है, यह जो बातचीत की मादकता है, इसे छोड़ देने का नाम मौन है।
मौन होने का मतलब नहीं कि आप चुप बैठ गए हैं कि अब कोई कुछ कहता है...अभी मैं बाहर था। वहां एक सज्जन मेरे साथ थे। उन्होंने आठ दिनों के लिए मौन ले रखा है। लेकिन उनका मौन काहे का है! वह हर चीज इशारे से, हर चीज लिख कर, सब कर लेते हैं।।पूरा का पूरा। वह किसी भी बात पर चुप नहीं रह सकते। मेरे साथ कार में बैठे हुए थे। किसी व्यक्ति ने कहा कि फलां टॉकिज में फलां सिनेमा लगा हुआ है।
उन्होंने फौरन कागज पर लिख कर दिया।।कि गलत, वहां दूसरी फिल्म लगी हुई है।
अब यह आदमी मौन नहीं है, इसके मौन का कोई सवाल ही नहीं उठ रहा। अब इतनी अनावश्यक बात कि किस टॉकिज में कौन सा चित्र लगा हुआ है, इसको भी यह बरदाश्त नहीं कर सका, उसने कहा कि बिलकुल गलत।
यह जो, यह जो, यह जो पागलपन है, यह पागलपन भीतर क्षीण हो, इसका स्मरण साधक को रखना होगा। उसे यह देखना चाहिए कि मेरी बात कितनी जरूरी है, कितनी आवश्यक है? कितने दूसरे के उपयोग में है? कहीं वह मेरे पागलपन से तो नहीं निकलती, वह दूसरे की आवश्यकता से निकलनी चाहिए। बस इतना ही मैं फर्क करता हूं पागल की बातचीत में और उनकी बातचीत में, जो कि जानते हैं, जो कि वह पागल नहीं हैं। उनकी बातचीत दूसरे की आवश्यकता से निकलती है, पागल की बातचीत अपनी आवश्यकता से निकलती है, वह उसकी मजबूरी है।
एक तो यह है कि मुझे जरूरत हो इस रूमाल की।।मैं उठाऊं।।यह एक बात है। और मुझे कोई भी जरूरत नहीं है इस रूमाल को उठा कर यहां रखूं, उस सामान को उठा कर वहां रखंू, कोई जरूरत नहीं है। लेकिन मुझे एक भीतरी वेग है कि मैं चीजों को यहां-वहां उठा कर रखता हूं तो आप कहेंगे आप पागल हैं। अगर मैं जरूरत से उठा रहा हूं तो ठीक है, अगर गैर जरूरत उठा कर रख रहा हूं तो पागल हूं।
बुद्ध के पास एक व्यक्ति गया। वह बैठ कर अपने पैर का अंगूठा हिला रहा था। बुद्ध ने कहाः मित्र, जरा देखो तुम्हारे पैर का अगूंठा हिल रहा है। उस आदमी ने जल्दी से पैर का अगूंठा रोक लिया। बुद्ध ने पूछा कि क्या मैं यह पूछूं कि अंगूठा किसलिए हिला रहे थे?
उस आदमी ने कहा: यूं ही हिलता था।
बुद्ध ने कहाः तुम्हारा अंगूठा, और यूं ही हिले।।यह पागलपन का लक्षण है। यूं ही क्यों हिलेगा?
आपको पता है: आप यूं ही सिर हिला रहे हैं, यूं ही पैर हिला रहे हैं।।क्यों?
जो आदमी यूं ही सिर हिला रहा है, यूं ही पैर हिला रहा है, ऐसे ही कुछ कर रहा है, ऐसे ही हिल-डुल रहा है।।इसका मन भी ऐसे ही हिलता-डुलता रहेगा, इसकी वाणी भी ऐसे हिलती-जुलती रहेगी। इसके करने में कोई तुक और अर्थ और कोई संगति नहीं है। बस इसके भीतर तो कुछ वेग हैं जो इसे पागल किए जा रहे हैं, कुछ भी किए जा रहा है। इसकी सारी की सारी क्रियाएं विक्षिप्त हैं।
यह विक्षिप्तता क्षीण हो और अपनी वाणी, अपने विचार, अपने व्यवहार के प्रति यह सम्यक बोध हो कि जो आवश्यक है वह हो, जो अनावश्यक है उसे क्षीण होना चाहिए। अगर यह सजगता हो, तो आपको खुद ही अपना पागलपन दिखाई पड़ेगा।
खुद ही आप सुबह से उठ कर बगल के पड़ोसी के घर में चले जा रहे हैं।।किसलिए? आपने अखबार पढ़ लिया है असल में। और अब आपको उसे कुछ न कुछ बताना है जो आपने अखबार में पढ़ लिया है। आप उठे हैं, चले जा रहे हैं। और यह बिलकुल अनावश्यक है। वहां जा कर आप रास्ते में हैं कि कोई मौका मिले कि मैं कहूं।।इसको जरा देखें अपने भीतर, कि आप बातचीत करने के लिए कैसे पीड़ित हैं?
मौन का अर्थ है: यह जो पीड़ितपन है, यह जो विक्षिप्तता है, इसे क्षीण करने की जरूरत है। बाहर से बहुत संबंध एकदम शून्य हो जाएगा।
अगर दुनिया में अधिकतम लोग केवल उतना बोलते हों, जितनी की बाहर की परिस्थिति की जरूरत है, और चुप रह जाते हों।।इस दुनिया में बहुत उपद्रव बंद हो जाएंगे। बहुत झगड़े, बहुत फसाद, बहुत संघर्ष बंद हो जाएंगे। इस दुनिया में शायद बहुत शांति इकट्टी, घनीभूत हो जाए। ये ही लोग हैं जो निरर्थक बोल रहे हैं, जो निरर्थक वाणी का उपयोग कर रहे हैं; ये ही लोग हैं जो दुनिया की आधी विपत्तियों और उत्पात के कारण हैं। लेकिन दुनिया के लिए हों, ये खुद के लिए बहुत उत्पात के कारण हैं। इनका भीतर की तरफ गमन नहीं हो पाता। क्योंकि बातचीत के लिए दूसरे की जरूरत है और मौन के लिए केवल अपने होने की जरूरत है। बातचीत के लिए हमेशा दूसरा अनिवार्य है, मौन के लिए कोई अनिवार्य नहीं।
तो जिसे अपने भीतर जाना है, बातचीत उसका रास्ता नहीं हो सकता। मौन, वाणी नहीं।।मौन, उसका रास्ता होगा। मौन को साधने का, मौन को स्मरणपूर्वक व्यवस्थित करने का, मौन की तरफ क्रमशः गति रखने का और बोध रखने का। फिर यह भी हो सकता है आप बाहर बोलना बंद कर दें और भीतर बोलना चले तो वह मौन नहीं होगा। बाहर बोलना कम हो, क्षीण हो।।यह प्राथमिक चरण है। दूसरा महत्वपूर्ण चरण यह कि भीतर व्यर्थ की बातचीत बंद हो, आपके भीतर चैबीस घंटे चल रही है। उठते-बैठते आप... कुछ न कुछ भीतर चल रहा है, कर कुछ रहे हैं, मन कुछ और कर रहा है।
अगर आप थोड़े सजग हों तो आपको भीतर लगेगा कि यह मन कैसा पागल है? यह क्या हो रहा है? अगर आपसे मैं कहूं कि थोड़ी देर जो भी मन में चलता हो, एक कागज उठा कर ईमान से लिखते चले जाएं, तो आपको बड़ा डर लगेगा कि इसे कोई पढ़ न ले। कि आपको लगेगा कि इसे कोई पढ़ेगा तो क्या सोचेगा? मुझे तो एक समझदार आदमी समझा जाता है, ये बातें मेरे भीतर कैसे चलती हैं?
अगर दुनिया के हर आदमी के मस्तिष्क को खोलने का कोई उपाय हो, तो हर आदमी हाथ जोड़ कर प्रार्थना करने लगेगा कि कृपा कर मेरे मस्तिष्क को मत खोलिए। कहीं सबको पता न चल जाए कि इसके भीतर ये बातें चलती हैं। हर आदमी के भीतर मस्तिष्क बिलकुल ही पागल स्थिति में है। इस पागल स्थिति को भी सजगता से, बोधपूर्वक यह देखें कि व्यर्थ बात चल रही है।।तत्क्षण उसे छोड़ दें। स्मरणपूर्वक देखें ये व्यर्थ की बात चल रही हैं।।उसे छोड़ दें। उसके धागे को हाथ से छोड़ दे, क्योंकि कोई बातचीत आपके बिना सहारे के नहीं चल सकती। आपका सहयोग है इसलिए चलती है।
आपका असहयोग हो।।बंद होना पड़ेगा, टूटना पड़ेगा, जाना पड़ेगा। जिस बात और जिस विचार के पीछे आपका सहयोग है, वही चल सकता है आपके भीतर; और कुछ नहीं चल सकता। आपके भीतर, आपके बिना सहयोग के न कोई वासना चल सकती है, न कोई विचार चल सकता है।
इसे स्मरण रखें, आपका सहयोग आपकी हर स्थिति में है। अगर आप अपने सहयोग को खींच लें, और भीतर असहयोग साधें, तो जो भी गलत है उसके प्राण अपने से निकल जाएंगे। उसके प्राण आपके सहयोग में है, वह आपके कोपरेशन से चलता है। तो जो-जो बातें व्यर्थ मालूम पड़ती हों भीतर, उनसे अपने सहयोग को खींच लें, अलग कर लें। वे गिरने लगेंगी, वे टूट जाएंगी। ऐसा क्रमशः अभ्यास, क्रमशः साधना से, धीरे-धीरे भीतर भी मौन आना शुरू हो जाता है।
बाहर के जगत के प्रति मौन का भाव।।पहला चरण। बाहर वाणी असम्यक। अनावश्यक न हो, भीतर अनावश्यक व्यर्थ की विचार शंृखलाएं न चलें।।उसके साथ असहयोग, उसके लिए असहयोग। दूसरी खूंटी, जो और भी गहरी है, और वह है मैंने कहा: एक तो मौन साधना, दूसरा शांति साधना। मौन का संबंध बाहर के जगत से है। बाहर के प्रति मुखरता को क्षीण कर देना, बाहर के जगत से विचार से संबंधित होने को क्षीण कर देना, और शांति का संबंध स्वयं के भीतर एक भाव-बोध से है। जीवन में बहुत कुछ हो रहा है।
सुकरात जब मरने लगा और जब उसे जहर दिया जाने लगा, तो उसके मित्रों ने कहाः उपाय हो सकता है कि हम आपको बचा कर ले चलें। और आपको हम जेल तोड़ कर आपको निकाल तो ले सकते हैं, व्यर्थ अपने हाथ से मृत्यु को क्यों भरम करना। सुकरात ने कहा: क्या तुम मुझे यह विश्वास दिलाते हो कि फिर तुम मुझे मरने नहीं दोगे? सुकरात ने कहाः क्या तुम मुझे विश्वास दिलाते हो कि मैं जेल से भाग जाऊं , मुझे जहर न दिया जाए तो फिर तुम मुझे मरने नहीं दोगे?
वे मित्र बोले: यह तो मुश्किल है, यह हम कैसे विश्वास दिला सकते हैं? मरना तो पड़ेगा ही।
सुकरात ने कहाः जब मरना ही पड़ेगा तो फिर मृत्यु की बात मुझे अशांत नहीं करती। सुकरात ने कहा: जब मरना ही पड़ेगा तो फिर मृत्यु की बात मुझे अशांत नहीं करती। फिर मृत्यु सामने खड़ी हो तो मैं शांत रहूंगा, जब मरना ही पड़ेगा, जब कोई विकल्प ही नहीं है, तो फिर मैं शांत हूं। मैं फिर मृत्यु के प्रति समभाव रख पाता हूं।
शांति का अर्थ है: जीवन के प्रति जो हो रहा है बाहर के जगत में, उसके प्रति अनुद्विग्न चित्त की दशा। क्योंकि जो भीतर उद्विग्न हो जाएगा, उद्विग्नता मनुष्य को फिर बाहर फेंक देती है। मनुष्य की चेतना को बाहर फेंकने के जो तूफान हैं।।वे उद्विग्नता के हैं। जैसे ही आप उद्विग्न हुए, आप बाहर फेंक दिए जाते हैं। जो जितना उद्विग्न होता है, उद्विग्नता की लहरें उतनी ही दूर उसे बाहर फेंक देती हैं। जो जितना अनुद्विग्न है, जो जितना शांत है, उतना ही बाहर की लहरें उसे कंपित नहीं कर पाती हैं।
बुद्ध एक गांव से निकले, कुछ लोगों ने उन्हें गालियां दीं, कुछ लोगों ने गांव के बाहर जा कर अपमान किया। बुद्ध ने कहाः मित्रों, तुम्हारी बात पूरी हुई हो तो मैं जाऊं , मुझे दूसरे गांव पहुंचना है।
लोगों ने कहाः यह कोई बात है, हमने गालियां दी हैं।
बुद्ध ने कहाः तुमने गालियां दी होंगी, लेकिन मैंने वर्षों हुए, तब से गालियां लेना बंद कर दिया।
उन्होंने कहाः गालियां लेना भी कोई बंद कर सकता है?
बुद्ध ने कहाः निश्चित, मैंने उन सारी चीजों को लेना बंद कर दिया है जो मेरे भीतर उद्विग्नता पैदा करती थीं। क्योंकि देने का हाथ तुम्हारे बस में है, लेकिन लेना न लेना हमेशा मेरे बस में है। तुमने गालियां दी, हम क्षमा चाहते हैं, हम लेने में असमर्थ हैं। अपनी गालियां वापस ले जाओ। क्योंकि दूसरे गांव में मैं अभी गया था, वे मेरे लिए बहुत से मिष्ठान लाए थे। मेरा पेट भरा था। मैंने कहाः मित्रों, मेरा पेट भरा है, मैं लेने में असमर्थ हूं। वे थालियां वापस ले गए। जैसे वे अपनी थालियां वापस ले गए, मैं दुखी हूं तुम्हें भी अपनी गालियां वापस ही ले जानी पड़ेंगी। तुम बिलकुल गलत आदमी के पास आ गए हो।
चित्त में शांति का अर्थ है: बाहर के जगत में जो भी हो रहा है, उसमें से निरंतर आप पर आघात पड़ रहे हैं। जब तक जीवन है, तब तक आघात है। तब तक हवाओं के थपेड़े आपको लगेंगे, बाहर से क्रोध के तूफान आएंगे, बाहर से अपमान आएगा, बाहर से असफलता आएगी, दुख आएंगे, पीड़ाएं आएंगी।।वह सब आप पर आक्रमण करेंगी। अगर आप उनसे उद्विग्न होते हैं, तो वे सफल हो जाती हैं और आपको बाहर ले जाती है। अगर आप अनुद्विग्न खड़े रहते हैं और कहते हैं, क्षमा करें, मैं उस कुछ को भी लेने में समर्थ नहीं हूं, ‘उस कुछ’ को भी लेने में समर्थ नहीं हूं।।जो मुझे बाहर फेंक देता है।
तो आज नहीं कल।।यह बोध, यह अस्वीकार, यह इंकार...मैंने सुना है कि जो मनुष्य किन्हीं चीजों को इंकार करने में असमर्थ है, जिसे सब चीजें लेनी ही पड़ती हैं, जो किसी भी चीज को अस्वीकार करने में असमर्थ है, उस मनुष्य से कमजोर और दूसरी क्या, क्या स्थिति होगी! मैं आपको गाली दूं तो आप लेते हैं, प्रेम दूं तो आप लेते हैं, घृणा दूं तो आप लेते हैं; दुनिया जो दे आपके दरवाजे खुले हैं।।आने दो। आपके भीतर कोई रेसिस्टेंस, कोई रुकावट, कोई नियंत्रण, कोई इंकार...कि कचरा मेरे घर में मत फेंको, यह तो आप कह देते हैं। अगर पड़ोसी आपके घर में कचरा फेंके तो आप खड़े हो जाएंगे लड़ने को कि कचरा मत फेंको। कचरे का भी इतना आप प्रतिरोध करते हैं। लेकिन एक आदमी गालियां आपके भीतर फेंक देता है, आप बड़े प्रेम से संजो कर रख लेते हैं कि उसने मुझे गालियां दी, अब रख लो। जब कोई गालियां देता है तो आप सम्हाल कर रख लेते हैं, और कचरा कोई फेंके तो लड़ते हैं।
कचरा कोई फेंके तो क्या बिगाड़ लेगा, कचरा फेंके तो क्या बिगड़ जाएगा! लेकिन जब कोई गालियां सम्हाल कर भीतर रख लेता है तो इतना बिगड़ जाता है, जिसका हिसाब नहीं। क्योंकि वे गालियां उसे बाहर ले जाने लगती हैं। जो भी उद्विग्न होता है।।बारह से, वह बाहर से लिया जाता है। बाहर से उद्दिग्न होने का अर्थ है: बाहर चले जाना। बाहर से अनुद्विग्न होने का अर्थ है: भीतर बने रहना।
तो दूसरा सूत्र हैः बाहर की सब स्थितियों में समता से शांति को बनाए रखना। और यह कठिन नहीं है। अगर हमें चीजों के सुदंर पहलू दिखाई पड़ने लगें, तो यह कठिन नहीं है। अगर हमें चीजों के भीतर अपनी शंाति को, अनुद्विग्नता को बनाए रखने के सूत्र दिखाई पड़ने लगें तो यह कठिन नहीं है।
एक संध्या जोर की आंधी आई और एक फकीर का, एक झोपड़े का आधा छप्पर उड़ा कर ले गई। वह सांझ को लौटा। आषाढ़ के दिन, पानी गिरने को बादल घिरे हो गए हैं। उसका साथी भी वापस लौटा। उसका साथी देख कर बोला कि वाह! हे प्रभु, यह कैसा अन्याय है कि हम गरीबों के इस दरिद्र झोपड़े को, तुमने उसके छप्पर को आधा उड़ा दिया, अब वर्षा में क्या होगा? और हम भिखारी अब क्या करेंगे इस वर्षा में?
उसने परमात्मा को कहा कि तुमने बहुत अन्याय किया, कैसे परमात्मा हो? और दूसरा फकीर चुपचाप खड़ा रहा। उसने ऊपर हाथ जोड़े, उसकी आंखों में बड़ी कृतज्ञता थी। उसकी आंखों में बड़ी कृतार्थता थी।
उसने कहा: हे परमात्मा! आंधियों का क्या भरोसा था, पूरा झोपड़ा भी उड़ा ले जा सकती थीं? आंधियों का क्या भरोसा, क्या विश्वास पूरा छप्पर भी ले जा सकती थीं? धन्य है तेरी कृपा कि आधा छप्पर तूने बचा लिया। वर्षा निकल जाएगी। रात उसने एक गीत लिखा और उस गीत में उसने लिखा है।।
कैसी सुख की होंगी ये रातें!
चांद निकलेगा।
आधे में हम सोएंगे, आधे में चांद दिखाई पड़ेगा।
कैसी सुख की होगी यह बरसात!
आधे में हम सोएंगे, आधे में बूंदें टपकेंगी।
उनका संगीत सुनाई पड़ेगा।
आधे में हम, आधे में वर्षा,
धन्य हैं परमात्मा!
यह भी एक दृष्टि है। और जिन्हें जीवन में अनुद्विग्नता साधनी हो उनकी यही दृष्टि है। यह आस्तिक की दृष्टि है। यह साधक की दृष्टि है कि आधा छप्पर उड़ गया तो वह कहेगा: धन्य है, आंधियां पूरा ले जा सकती थीं। आधे को छोड़ा है, प्रभु की कृपा है। यह उसे अनुद्विग्न करेगा, शांत करेगा।
वह नास्तिक की दृष्टि है। उद्विग्न होने वाले की दृष्टि है, बाहर जाने वाले की दृष्टि है। वह चिल्लाया।।अन्याय हो गया। अन्याय हो गया कि वर्षा आने को है और छप्पर आधा टूट गया, अब क्या होगा? वह उद्विग्न होगा, वह पीड़ित होगा।
वे दोनों साधु उसी मकान में रहते थे। उस रात वे दोनों साधु उसी झोपड़े में सोए। एक रात भर बेचैन था।।सो नहीं सका, क्योंकि वर्षा आने को है, आधा छप्पर उड़ गया। दूसरा उस रात बड़ी गहरी नींद में सोया, कि परमात्मा की दया है, कि आधा छप्पर बच गया।
इतना ही सूत्र है। जब आपका आधा छप्पर उड़े, और स्मरण रखें, पूरा छप्पर जीवन में कभी किसी का उड़ता नहीं है। जब भी उड़ता है, आधा ही उड़ता है। पूरा उड़ ही नहीं सकता, नहीं तो आप फिर जिंदा ही नहीं रह सकेंगे। स्मरण रखें, जब भी छप्पर उड़ता है आधा उड़ता है।
और जो दो तरह के लोग होते हैं, जो रात शांति से सोते हैं, या फिर रात बेचैनी से सोते हैं। जो बेचैनी से सोते हैं वे बाहर फेंक दिए जाते हैं; जो शांति से सोते हैं वे भीतर प्रवेश कर जाते हैं।
एक सूत्र हैः मौन। दूसरा सूत्र हैः शांति।
मौन और शांति इन्हें जो साधता है उसके लिए तीसरा सूत्र हैः साक्षीभाव।
जो इन दो को साधता है वह तीसरे सूत्र को, अवेयरनेस को, अपसमर्थता को, जागरूकता को या साक्षी चैतन्य को साध पाता है।
साक्षी चैतन्य का अर्थ है कि मैं केवल प्रत्येक स्थिति में, प्रत्येक घटना में मात्र चेतना मात्र हूं, साक्षी मात्र हूं, केवल देख रहा हूं। और यह सच है। अगर मेरा पैर तोड़ दिया जाए तो यह भ्रम है, मुझे लग रहा है कि मेरा पैर टूट गया, सत्य केवल इतना है कि मैं ये देख रहा हूं कि पैर तोड़ दिया गया।
एपिटेक्टस करके यूनान में एक साधु हुआ। गुलामों के एक बाजार में उसको बेचा गया।
उन दिनों तो गुलाम बिकते थे। बाजार भरते थे। जानवरों की तरह आदमी बेचे जाते थे।
एपिटेक्टस बड़ा स्वस्थ और सुंदर साधु था, नंगा घूमता था। कुछ लुटेरों ने उसे पकड़ लिया और उन्होंने कहाः हमारे साथ चलो।
उसने पूछाः कहां ले चलते हो, चलें।
क्योंकि क्राइस्ट का एक वचन है कि कोई तुम्हारा कोट छीने तो कमीज भी दे देना। पता नहीं उसे कमीज की भी जरूरत हो। क्राइस्ट का एक वचन है कोई तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, तो दूसरा सामने कर देना, पता नहीं इतने में उसका क्रोध अभी न निकला हो।
तो उन एपिटेक्टस को डाकुओं ने पकड़ा और उन्होंने कहा कि हमारे साथ चलो।
एपिटेक्टस ने कहाः चलो, कहां चलते हो? वे भी बहुत हैरान हुए! उन्होंने जंजीरें बांधी। वह हंसने लगा।
वे बोलेः क्यों?
उसने कहाः हम तो यूं ही चले चलते थे, जंजीरें बांध कर खर्च क्यों करते हो व्यर्थ मेरे ऊपर। हम तो चलते हैं। हम तो तुम्हारे प्रेम से बंधे हैं, तुमने कहा कि हमारे साथ चलो। वे बहुत हैरान हुए कि हम डाकू हैं और ये पागल प्रेम से बंध गया! इससे प्रेम हमारा क्या हो गया। लेकिन ले गए उसे। उसे बीच बाजार में जब खड़ा किया तो सारे खरीददारों की नजर उस पर पड़ी।।वैसा सुंदर आदमी, वैसा शांत आदमी। और उसमें किट्टी पर खड़े होकर जब उसकी नीलामी की जाने लगी तो उसने चिल्ला कर कहा कि इस बाजार में ऐसा दुबारा मुश्किल से होगा। एक मालिक गुलामों के बीच बिकने आया है। तो कोई गुलाम की मर्जी हो तो इस मालिक को खरीद ले। लोग बहुत हैरान हुए कि यह पागल है!
 एक राजा ने कहाः आदमी बहुत बढ़िया है, कुछ अजीब विचार का आदमी मालूम होता है। खरीद लिया, जो भी दाम थे दे दिए। खरीद कर उसे ले चला। रास्ते में उससे पूछा कि तुमने यह क्यों कहा कि तुम मालिक हो?
 एपिटेक्टस ने कहाः इसलिए कि मुझे कोई गुलाम बना सके, यह संभव ही नहीं है। जब उन्होंने मुझसे कहा चलो, हमने कहा: चलें। जब वह मुझे हाथों में जंजीरें डालने लगेे तो हम भी देख रहे थे कि वह जंजीरें डाल रहे हैं और वह भी देख रहे थे। मुझ पर कोई जंजीरें नहीं डाली गई थीं। जिस देह पर डाली गई थी, वह मैं नहीं हूं। क्योंकि हम तो मालिक हैं।।पता है। क्योंकि देह से जिस दिन हमने अपना संबंध तोड़ लिया, उसी दिन मालिक हो गए। अब गुलाम होने का या बनाने का कोई उपाय नहीं है। जिस आदमी ने भीतर की उस सत्ता को जान लिया, वह स्वतंत्र हो गया। और स्वतंत्र का अर्थ ही नहीं होता, स्व को जाने बिना कोई स्वतंत्र हो नहीं सकता। उसके पहले सब गुलामी के रूपांतरण हैं, एक गुलामी से दूसरी, दूसरी से तीसरी।
उस राजा ने कहाः ऐसा है कि तुम साक्षी हो। उसने अपने दूसरे गुलामों को कहा, इसके पैर तोड़ दो। तो दो गुलाम उसका पैर तोड़ने लगे।
उस एपिटेक्टस ने कहाः देख, तूने इस शरीर पर बहुत पैसा खर्च किया। अगर इस भांति पैर मरोड़ा गया तो मैं कह देता हूं पैर टूट जाएगा। उस एपिटेक्टस ने कहाः देख, तूने इस शरीर पर बहुत पैसा खर्च किया है, उसका काम ले ले। अगर इस भांति पैर मरोड़ा गया तो पैर टूट जाएगा, मैं कहे देता हूं।
राजा ने अपने गुलामों को कहाः टूटने दो।
पैर जब टूट गया तो एपिटेक्टस ने बोलाः देख, पैर टूट गया।
राजा बोलाः तो यूं क्यों कहते हो कि पैर टूट गया, यह क्यों नहीं कहते हो कि मेरा पैर टूट गया?
एपिटेक्टस ने कहाः मेरा तो इस जगत में कोई कुछ भी नहीं तोड़ सकता है। मैं देख रहा हंू कि पैर टूट गया, मैंने पहले ही कहा था कि पैर टूट जाएगा। अब मैं देख रहा हूं कि यह देह लंगड़ी हो गई, जिसके दो पैर थे अब एक रह गया है।
तीसरा सूत्र हैः साक्षीभाव। शांति को और मौन को जो साध लेता है वह साक्षीभाव को साध सकता है। जीवन में जो भी हो रहा है, हम मात्र उसके द्रष्टा हैं। हम केवल देख रहे हैं। हम केवल चैतन्य पुरुष हैं जो उसको देख रहे हैं और जान रहे हैं। और ये सच है, यही सत्य है। लेकिन क्रमशः जब साक्षीभाव में प्रतिष्ठा होगी तो इस सत्य का उदघाटन होता है।
मौन, शांति और साक्षीभाव तीन की सम्यक साधना मनुष्य को समाधि में ले जाती है। समाधि का अर्थ मेरा ऐसा नहीं है कि कोई घंटे भर बैठा है, और समाधि में हो गया। वह सब ऑटो-हिप्नोटिक, वे सब आत्म-सम्मोहन की दशाएं हैं। वे कोई समाधियां नहीं हैं।
सम्यक समाधि का अर्थ हैः चैबीस घंटे, सतत, अखंड रूप से व्यक्ति का आत्म-भाव में प्रतिष्ठित हो जाना। मूच्र्छित हो जाना एक बात है अर्थ है चैबीस घंटे, सतत, अखंड रूप से व्यक्ति का आत्म-भाव में प्रतिष्ठित हो जाना। मूच्र्छित हो जाना एक बात है। कि कोई मंत्र जपते-जपते मूच्र्छित हो जाए। मंत्र जपने से अक्सर मूच्र्छा आ जाती है। क्योंकि कोई भी एक चीज को रिपीट करें, एक शब्द को बार-बार दोहराएं, तो मन सो जाता है और मूच्र्छा आ जाती है। उस मूच्र्छा को आप समाधि मत समझ लेना। कोई जमीन में पड़ा रहे पंद्रह दिन और जिंदा निकल आए, उसको समाधि मत समझ लेना। ये सब आत्म-सम्मोहन की दशाएं हैं। समाधि।।सम्यक समाधि तो अखंड है और साक्षीभाव में, आत्म-भाव में प्रतिष्ठित होने में है। और वह इन तीन सूत्रों से क्रमशः फलित होती है।
और जब समाधि मिलती है, जब वह दशा मिलती है जब कि व्यक्ति स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाता है, तो उसके जीवन में अनंत आनंद के, अनंत सौंदर्य के, अनंत सेवत्व के द्वार खुल जाते हैं। उसके सारे जीवन में क्रांति हो जाती है, वह दूसरा मनुष्य हो जाता है। उसका दूसरा जन्म हो जाता है। अभी हमारा जो जन्म है वह प्रकृति में हुआ है, तब जो जन्म होता है वह परमात्मा में हो जाता है। एक जन्म है जो प्रकृति में हुआ है, फिर एक जन्म है जो परमात्मा में हो जाता है।
जो प्रकृति के जन्म पर रुक जाते हैं वे अभागे हैं, जो परमात्मा के जन्म तक पहुंच जाते हैं।।सौभाग्य केवल उन्हीं का है। प्रभु वैसा सौभाग्य सभी को दे यह कामना करता हूं।

मेरी इन बातों को इतने प्रेम से सुना है, उससे अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे परमात्मा को मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें