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गुरुवार, 30 अगस्त 2018

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(जगत बहुत यथार्थ है)

मेरे प्रिय आत्मन्!
रोम के एक चैराहे पर बारह भिखारी लेटे हुए थे। एक परदेसी यात्री उस चैराहे से गुजरता था। वे बारह भिखारी ही हाथ फैला कर भीख मांगने लगे। उस यात्री ने खड़े होकर कहा कि तुममें जो सबसे ज्यादा अलाल हो, उसी को मैं भीख दे सकता हूं। उन बारह भिखारियों में से ग्यारह भिखारी दौड़ कर उसके सामने खड़े हो गए। और प्रत्येक दावा करने लगा कि मुझसे ज्यादा अलाल और कोई भी नहीं है। भीख मुझे मिलनी चाहिए। लेकिन वह यात्री हंसा और उसने कहा कि तुम ग्यारह ही हार गए। बारहवां आदमी अपनी जगह ही लेटा हुआ था और वहीं से पुकार कर रहा था कि मैं अलाल हूं, भीख मुझे मिलनी चाहिए। वह रूपया जो उसे देना था, बारहवें आदमी को दे दिया उसने। वही अलाल सबसे ज्यादा था। उसने उठने की भी मेहनत नहीं ली थी।

मैं सोचता हूं यह घटना भारत के भी किसी गांव में घट सकती है, बंबई में या दिल्ली में। लेकिन एक फर्क पड़ेगा, यहां ग्यारह आदमी लेटे रहेंगे और एक आदमी उठेगा। और वह यात्री मुश्किल में पड़ जाएगा। एक आदमी को तो भीख देनी आसान है, ग्यारह आदमियों को भीख देनी बहुत मुश्किल हो जाएगी। यह फर्क क्यों पड़ेगा? यह फर्क इसलिए पड़ेगा कि भारत से ज्यादा अलाल, भारत से ज्यादा आलस्य से भरा हुआ मनुष्य खोजना पृथ्वी पे मुश्किल है।

और इसमें भारत के आदमी का कोई कसूर नहीं है। और जो लोग भारत के आदमी को समझाने की कोशिश करते हैं कि तुम्हारी गलती है, वह समझाने वाले लोग बिलकुल ही गलत हैं। इसमें भारत के आदमी की भूल नहीं है, इसमें भारत को जीवन को देखने का जो ढंग है, उसकी गलती है।
इस संबंध में थोड़ी बात मैं कहना चाहूंगा। हजारों साल से यह दुर्भाग्य है हमारे ऊपर, हममें से कोई भी कोई काम नहीं करना चाहता है। इस जीवन को सुंदर, इस जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए कोई भी कोई श्रम नहीं करना चाहता है। यह आकस्मिक नहीं है, इसके पीछे हमारा जीवन का दर्शन, हमारी फिलाॅसफी और लाइफ हजारों साल से इस देश ने परलोक की चिंता की है, इस लोक की नहीं। हजारों साल से हमारे ऋषि-मुनि हमें समझा रहे हैं, उस लोक को सुंदर बनाने के लिए, इस लोक को सुंदर बनाने के लिए नहीं। स्वभावतः श्रम तो इस लोक में करना पड़ेगा। इस पृथ्वी पर। इस जीवन में, और परलोक है असली लोक? इस पृथ्वी को छोड़ना है, इस जीवन को छोड़ना है, पाना है आकाश में बसा हुआ कोई स्वर्ग। तो इस पृथ्वी पर श्रम करना व्यर्थ है, नासमझी है। जो श्रम करते हैं, वे अज्ञानी हैं। जो आराम करते हैं, वे ज्ञानवान हैं। क्योंकि जिस पृथ्वी को छोड़ ही देना हो, उस पृथ्वी को बनाने और सृजन करने की चेष्टा नासमझी ही हो सकती है। हमने इस देश में ऐसा समझा हुआ है, जैसे कोई रेलवे स्टेशन पर वेटिंगरूम को समझ लेता है। वेटिंगरूम को सुंदर बनाने का कोई सवाल नहीं हैं। आदमी दो घड़ी वहां ठहरता है, उसकी गाड़ी आ जाती है, चला जाता है। उस दो घड़.ी में जितना उस वेटिंगरूम को वह और गंदा कर सके, जरूर करता है। फलों के छिलके वहां डाल सकता है, पान थूक सकता है। जिस वेटिंगरूम से घड़ी भर के बाद उठ जाना है, उस वेटिंगरूम की चिंता करने की जरूरत क्या है? और उस वेटिंगरूम के साथ हर यात्री यही व्यवहार करेगा, क्योंकि वह वेटिंगरूम किसी का भी घर नहीं है।
भारत की तीन हजार वर्षों में एक रेलवे स्टेशन पर बने हुए वेटिंगरूम जैसी हालत हो गई है। हम पृथ्वी के साथ दुव्र्यवहार कर रहे हैं, हम इस जीवन के साथ दुव्र्यवहार कर रहे हैं। और करना स्वाभाविक मालूम पड़ता है। क्योंकि हमें खोजना है कोई स्वर्ग, हमें पृथ्वी को स्वर्ग बनाने की कोई कामना नहीं है। हमें कोई स्वर्ग खोजना है, जो पृथ्वी से अन्यथा है। इस गलत दृष्टिकोण ने भारत की सारी ऊर्जा, सारी शक्ति को क्षीण कर दिया और भारत की सारी आकांक्षा, भारत की सारी अभीप्सा, जो इस पृथ्वी को स्वर्ग बना सकती थी, वह व्यर्थ हो गई और मरूस्थल में खो गई। नहीं, भारत के किसी आदमी का कोई भी कसूर नहीं है। अगर कोई समझाता हो कि भारत के आदमी का कसूर है, तो उसे कहना कि वह गलत बातें समझाता है। भारत की जीवन दृष्टि गलत है। भारत के एक-एक आदमी का कोई कसूर नहीं है।
जिस पृथ्वी को हमें स्वर्ग बनाना हो उसके लिए हम श्रम करते हैं, जिस पृथ्वी को हमें घर बनाना हो, उसके लिए हम श्रम करते हैं। जिस पृथ्वी पर हमें जीना हो और जीने को एक आनंद बनाना हो, उस पृथ्वी के लिए हम श्रम करते हैं। जिस पृथ्वी को छोड़ देना हो, और एक ही हमारे मन की प्रार्थना है हजारों साल से कि भागवान हमें आवागमन से कैसे छुटकारा मिल जाए? हम बड़े दुःखी हैं कि हमें पृथ्वी पर भेजा गया है। हम बहुत निंदित हैं कि हम पृथ्वी पर हैं। पृथ्वी पर वे लोग हैं, जो पाप करते हैं। हमारा सोचना ऐसा है। पृथ्वी पर वे लोग जन्म लेते हैं, जो पाप करते हैं। जो पाप नहीं करते उनका जन्म लेना बंद हो जाता है। जो देश ऐसी गलत बातें सोचता हो, और जीवन में जन्म लेने को पाप समझता हो, वह देश अगर जीवन की बाजी हार जाए तो इसमें आश्चर्य करने का कोई कारण नहीं।
स्वभावतः जब पाप के कारण हम जीवन में हैं, तो कर्म करके और पाप करेंगे। क्योंकि कर्म तो पाप लाता है और अकर्म मुक्ति लाता है। जो जितना कम काम करता है, वह उतना ही शीघ्र मुक्त हो सकता है क्योंकि प्रत्येक काम बन्धन पैदा करेगा और प्रत्येक काम फलों से बांध देगा। इसलिए तीन हजार वर्ष से भारत अकर्म के, कुछ न करने की बात पर चिंतन कर रहा है। और जब हजारों साल तक समझाया जा रहा हो कि कुछ नहीं करना, कर्म से मुक्त हो जाना, और कर्म से संयासी हो जाना ही मोक्ष पाने का, और परमात्मा के चरणों को पाने का उपाय है, तो अगर पूरे भारत की आत्मा ने यह बात स्वीकार कर ली हो तो, जुम्मेवार कौन है? नहीं भारत का आम आदमी जिम्मेवार नहीं है, भारत के नेता, भारत के गुरु, भारत के संन्यासी जुम्मेवार हैं। भारत की पूरी आत्मा की हत्या का जुम्मा भारत के बड़े लोगों पर है, भारत साधारण आदमी पर नहीं। और जब तक हम ये नहीं समझ लेंगे तब तक भारत की आत्मा का नया जन्म नहीं हो सकता है। भारत को अपने सोचने के सारे ढंग बदलने पड़ेंगे। तो भारत की नई आत्मा का जन्म हो सकता है। उन सोचने में बुनियादी भूल यह है कि अब तक हम स्वर्ग को आकाश में और बादलों में खोजते रहे हैं, वह गलत थी बात। स्वर्ग बनाना पड़ेगा, स्वर्ग खोजना नहीं है। स्वर्ग निर्मित करना पड़ेगा, कहीं बना-बनाया, रेडीमेड नहीं है कि आप बैठेंगे बस में, सवार होंगे और पहुंच जाएंगे। स्वर्ग कहीं भी नहीं है। स्वर्ग बन सकता है, और नर्क भी कहीं नहीं है, नर्क भी बनाना पड़ता है। और हमने काफी नर्क बना भी लिया है। अगर मुल्क में चारों तरफ देखें, तो अब किसी नरक के संबंध में हमें भयभीत होने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि इस मुल्क से ज्यादा बदतर नर्क में अब कहीं भी भेजने का उपाय नहीं हो सकता।
मैंने सुना है, एक आदमी मर गया। उसकी पत्नी एक प्रेतात्मविद के पास गई और उसने कहा कि मैं अपने पति की आत्मा से बात करना चाहती हूं। कोई उपाय करवा सकते हैं? उस प्रेतात्मविद ने उसके पति की आत्मा को एक मीडियम के ऊपर, एक माध्यम के ऊपर बुलवाया। उस पत्नी ने अपने पति से पूछा कि आनंद में तो हैं? उसके पति ने कहा, मैं बहुत ही आनंद में हूं। ऐसा आनंद मैंने कहीं भी नहीं देखा था। उसकी पत्नी ने कहा, तब तो मैं बहुत खुश हूं, मैं तो बड़ी डरी हुई थी। आप आनंद में हैं, यह बड़ा अच्छा हुआ। स्वर्ग के संबंध में और भी कुछ बताइए? उस आदमी ने कहा स्वर्ग? मैं नरक में पड़ा हुआ हूं। उसकी पत्नी ने कहा नर्क में हैं और कहते हैं आनंद में हैं? उस आदमी ने कहा नर्क में आकर पता चला, कि पृथ्वी से बड़ा नर्क और कहीं भी नहीं हो सकता। वह आदमी जरूर भारत में रहा होगा। वह आदमी दुनिया के किसी दूसरे कोने में नहीं हो सकता।
ऐसा हम पहले सुनते थे कि देवता तरसते हैं पृथ्वी पर पैदा होने को। जिस पृथ्वी पर से आदमी भी भागने को तरसता है, उस पृथ्वी पर देवता पैदा होने को तरसते होंगे, यह अफवाह उड़ा दी होगी किसी ने। जिस पृथ्वी से आदमी मुक्त हो जाने के लिए तरसता है, उस पृथ्वी पर देवता किसलिए पैदा होने को तरसते होंगे? अब तो मुझे लगता है कि अगर नर्क भी कहीं होगा तो नरक के निवासी भी पृथ्वी पर पैदा होने से बहुत डरते होंगे। अब तो पृथ्वी भी नरक के निवासियों के लिए अंडमान-निकोबार मालूम पड़ती होगी। वहां जो बहुत जघन्य अपराधी होते होंगे, उनको भेज देते होंगे, पृथ्वी पर। हमने तो अपनी जमीन को कम से कम निश्चित ही नरक बना लिया है। लेकिन नरक के भी हम इतने आदी हो गए हैं कि यह भी हमें दिखाई नहीं पड़ता। आदमी जिस बात का आदी हो जाए, उसे दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। भारत में शूद्र, करोड़ों शूद्र हजारों वर्षों से पशु से भी बदतर जीवन बिना रहे हैं। लेकिन उन्हें दिखाई पड़ना बंद हो गया था। अगर एक आदमी सुबह से सांझ तक पखाना ही ढोता रहे, तो उसे पखाने से दुर्गंध आनी बंद हो जाती है। हम आदी हो जाते हैं।
मैंने सुना है, एक आदमी एक दूर गांव का एक मछुआ मछलियां बेचने शहर आया था। पहली बार शहर आया था। मछलियां बेच कर उसने सोचा कि मैं शहर घूम लूं। वह गांव के बड़े-बड़े रास्तों पर गया। गांव में सुगंध वालों की भी एक अलग गली थी। जहां सुगंध बेचने की दुकानें थी, परयूम की दुकानें थी, वह वहां भी गया। लेकिन वह आदमी सिर्फ मछलियों की सुगंध के सिवाय और कोई सुगंध नहीं जानता था। अगर मछलियों की सुगंध को सुगंध कहा जा सके, तो वह एक ही सुगंध जानता था। वहां बड़ी-बड़ी कीमती सुगंध उड़ रही थी, उस रास्ते पर। वह बहुत घबराने लगा। उसकी श्वासें घुटने लगीं, वह जैसे-जैसे भीतर गया, वह बेहोश होकर गिर पड़ा। सुगंध के दुकानदार भागे हुए आए, तो उन्होंने सोचा कि वह आदमी बेहोश हो गया। उनकी तिजोरियों में जो बहुत कीमती सुगंध थी, जिनको बड़े राजा-महाराजा ही खरीद सकते थे, उनको वे निकाल कर लाए। उस आदमी को सुंघाने लगे ताकि वह होश में आ जाए। उन बेचारों को क्या पता, कि वह सुगंधों के कारण ही बेहोश पड़ा है। वह बेहोशी में हाथ-पैर तड़फाने लगा। सिर पटकने लगा। बोल तो सकता नहीं था। भीड़ इकट्ठी हो गई। उस भीड़ में एक और मछुआ था, जो पहले कभी मछुआ रह चुका था। उसने कहा दोस्तों तुम उसकी जान ले लोगे। तुम्हारी सुगंध उसको और बेहोश किये दे रही है। हटो यहां से दूर। उस गिरे हुए मछुए की पास में ही टोकरी पड़ी थी। टोकरी में गंदे चिथड़े थे, जिनमें वह मछलियां बांध कर लाया था। उस दूसरे मछुए ने उस टोकरी पर थोड़ा पानी छिड़का, और उस आदमी की नाम पर रख दी। उस आदमी ने गहरी श्वास ली, आंखें खोली और उसने कहाः दिस इ.ज ए रियल परयूम। यह है असली सुगंध।
आदमी नर्क का भी आदी हो सकता है, भारत ऐसा ही आदी हो गया। अब हमें कुछ दिखाई भी नहीं पड़ता। देखने के लिए भी संवेदनशीलता चाहिए। अब हमें कुछ अहसास नहीं होता। चारों तरफ जो हो रहा है हम उसे चुपचाप देखे चले जाते हैं। और इसे देखे चले जाने के पीछे हमारी शिक्षा जुम्मेवार है। हमें कहा गया है, संसार तो एक माया है, एक सपना। इस माया को इस सपने को बहुत गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। यह सब होता रहा है, यह सब होता रहेगा। यह दुनिया सदा ऐसी रही है, इसको न अच्छा बनाया जा सकता है, न अच्छा किया जा सकता है। इसलिए भारत का हृदय पत्थर हो गया है। भारत का एक-एक आदमी संवेदनाशून्य हो गया है। वह देखता रहता है, खड़े हुए जो भी हो रहा हो। सड़.क पर लोग भीख मांग रहे हों, वह गुजर जाएगा उनके पास से, उसे ख्याल भी नहीं आएगा कि देश में लोग भीख मांगें, और उसी देश में मैं जिंदा रहूं, यह उचित है? हत्याएं होती रहेंगी, चोरियां होती रहेंगी, बेईमानियां होती रहेंगी और उसे कुछ भी पता नहीं चलेगा। कोई काम नहीं करेगा मुल्क में, कोई श्रम नहींे करेगा, कोई उत्पादन नहीं करेगा, सारे लोग चपरासी से लेकर राष्ट्रपति तक बैठे रहेंगे अपनी कुर्सियों पर। हालांकि हेड चपरासी छोटे चपरासियों को समझाएगा कि काम करना चाहिए। हेड चपरासी को ऊपर का सुपरवाइजर समझाएगा कि काम करना चाहिए। सुपरवाइजर को ऊपर का अधिकारी समझाएगा कि काम करना चाहिए। राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक, जिसके भी नीचे जो उपलब्ध हो, उसको समझाएगा कि काम करो। लेकिन कोई काम नहीं करेगा। सबको पता चल गया है कि काम करना चाहिए, यह एक सिद्धांत की बात है, यह काम की बात नहीं है। यह समझाना चाहिए लोगों को। यह बहुत अच्छी बात है, यह समझाने में बहुत अच्छी लगती है। समझने वाला भी समझता है कि बेकार है, सुनने वाला भी समझता है बेकार है, इस जिंदगी में क्या काम की जरूरत है? एक सपना है जिंदगी गुजर जाएगी। एक माया है, एक खेल चल रहा है, गुजर जाएगा। भगवान की लीला है, भगवान सब कर रहा है, हमारा काम है कि हम खड़े होकर देखते रहें। हजारों साल तक अगर ऐसा समझाया गया हो आदमी को, तो स्वभावतः आदमी का रस जीवन को बनाने और बदलने का क्षीण हो जाएगा। वह रस हमारा क्षीण हो गया है।
पहली बात, हम स्वर्ग कहीं और खोज रहे हैं, इसलिए भारत निष्क्रिय हो गया है। दूसरी बात, इस पृथ्वी को हम एक सपना, एक झूठ समझ रहे हैं, इसलिए हमारा रस खो गया है। और तीसरी बात, हमें समझाया गया है कि कर्म करना बंधन है, हमें यह समझाया गया है कि काम करना श्रेष्ठतम आदमी का लक्षण नहीं है। हम श्रेष्ठ आदमी उसको कहते हैं, जो सब काम-धाम छोड़के जंगल चला जाता है। हम उस आदमी के पैर पड़ते हैं जो जिंदगी के सारे काम छोड़ देता है। हम उस आदमी को कहते हैं कि यह परम अवस्था को उपलब्ध हुआ, जो सब तरह के काम-धाम बंद करके बैठा रह जाता है। यह हमारा सोचना बड़ा आत्मघाती मालूम होता है। अगर इस भांति हम निष्क्रियता को सम्मान देंगे, और निष्क्रियता को संयास समझेंगे, और निष्क्रियता को साधुता का लक्षण मानेंगे, तो फिर कौन आदमी साधु नहीं बनना चाहेगा? काम भी करो और असाधु भी हो जाओ। तो दतर-दतर में सब साधु हो गए हैं। सारा देश साधु हो गया है। कोई काम नहीं कर रहा है, सब निष्काम भाव से अपनी-अपनी जगह बैठे हुए हैं। ठीक भी है, क्यों काम किया जए? और फिर हमारी चैथी दृष्टि तो यह है कि काम करने वाला तो भगवान है, हम क्या कर सकते हैं? भगवान सब काम चला रहा है, तो हम उसके काम में बीच-बीच में बाधा क्यों दें? सब काम चल ही रहा है, आपके करने से कुछ काम होता है? आप दफ्तर में बैठे रहिए, कुछ आपके करने से नहीं होता। काम तो सब चल ही रहा है। आप करिए या न करिए, काम चलता रहेगा। भगवान सब काम कर रहा है, आप कोई कर्ता हैं? आप कोई करने वाले हैं? यह अहंकार छोड़ दें कि आप करने वाले हैं। करने वाला भगवान है। हम तो उसके लीला के हाथ के खिलौने हैं। रस्सियां खींचता है, हमें नचा देता है, हम नाच लेते हैं, बात खत्म हो जाती है। हमने एक-एक व्यक्ति के भीतर कर्म करने की जो भी प्रेरणा हो, उसको सब तरह से नष्ट कर दिया है। और रह गई फल की बात, तो फल कर्म करने से तो कभी मिलता नहीं, फल भाग्य से मिलता है। पता है आपको प्रमोशन भाग्य से होता है, काम करने से होता है? कभी दुनिया में सुना है कि किसी आदमी का काम करने से प्रमोशन हुआ हो? कभी सुना है किसी आदमी से कि काम करने से कोई आदमी आगे बढ़ गया हो? किसी का बेटा, किसी का चाचा आगे बढ़ता है, वह भाग्य की बातें हैं। अब बेटा और चाचा होना कोई हाथ की बात तो है नहीं। सारा काम भाग्य से हो रहा है।
मैंने एक मजाक सुनी है। मैंने सुना है कि भर्तहरी ने एक बहुत बड़ा प्रयोग किया। ऐसे भारतीय लोग कभी प्रयोग करते नहीं हैं, भर्तहरी कुछ गड़बड़ आदमी रहा होगा। भारतीय लोग कभी प्रयोग नहीं करते, एक्सपैरिमेंट करने की हमें आदत ही नहीं। वह सवाल ही नहीं, हम क्यों प्रयोग करें? हमें तो सारे निष्कर्ष बिना प्रयोग के मिल जाते हैं। जैसे स्कूल का बच्चा क्यों जाकर परीक्षा में अपना गणित करे? कापी उल्टा के पीछे देख लेता है, जहां उत्तर लिखा है, उत्तर पहले मिल जाता है, प्रयोग करने की, और विधि करने की, और गणित करने की जरूरत क्या है? तो भारत को तो सारे निष्कर्ष मिले हुए हैं। हमारे पास सब कन्क्लूजंन्स हैं। ऋषि-मुनियों की कृपा से हमें सब निष्पत्तियां मिल गई हैं। अब हमें कुछ करने की जरूरत नहीं है। लेकिन भर्तहरी का दिमाग थोड़ा खराब रहा होगा। कुछ खराब दिमाग के लोग अक्सर पैदा हो जाते हैं। उसने यह प्रयोग किया कि मैं जानूं कि आदमी को जो फल मिलते हैं, वह भाग्य से मिलते हैं, या कर्म से मिलते हैं? पुरूषार्थ से मिलते हैं या प्रारब्ध से? तो उसने एक बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग किया। तो हम प्रयोग करते नहीं और अगर करेंगे तो ऐसे ही वैज्ञानिक प्रयोग करते हैं। उसने क्या किया? भर्तहरी ने तीन प्रयोग किये। उसने एक आदमी को धूप में खड़ा किया, उस आदमी का सिर घुटा हुआ है, वह एक संन्यासी है। धूप में उसका सिर जलने लगा, तकलीफ होने लगी। उस आदमी ने कहा मेरी खोपड़ी में बहुत दर्द होता है। यहां अब मैं घबरा गया, यहां खड़ा नहीं हो सकता हूं। मुझे तकलीफ होती है, मेरे सिर में दर्द होता है। भर्तहरी ने ले जाकर उसे एक वृक्ष के नीचे खड़ा कर दिया, वह आदमी खड़ा ही नहीं हुआ था, कि वृक्ष से एक फल गिरा और उसकी खोपड़ी पर चोट आ गई, भर्तहरी ने कहा, सब भाग्य से होता है। अगर सिर में दर्द ही होना है तो धूप में खड़े रहो तो भी दर्द होगा, और वृक्ष की छाया में खड़े हो जाओ तो फल गिर पड़ेगा। भाग्य।
भर्तहरी ने दूसरा प्रयोग किया, एक सांप को बंद कर दिया एक पेटी में। और बैठ गया बाहर। भीतर जाने का कोई रास्ता नहीं है, बाहर जाने को कोई रास्ता नहीं है। सांप पेटी में बंद है। और भर्तहरी देखता है कि देखें उसके भाग्य से उसे भोजन मिलेगा कि नहीं। एक पागल चूहा उस पेटी में छेद करने लगा, उसने पेटी में छेद किया चूहा भीतर चला गया, भूखा सांप चूहे को खा गया। और जो छेद चूहे ने किया था उससे बाहर भी निकल गया। भर्तहरी ने कहाः तय हो गया कि आदमी भाग्य से जीता है। सांप बंद था, चूहा भी पहुंच गया वहां और रास्ता भी बना दिया बाहर निकालने का।
अब यह बेचारा भर्तहरी अगर कहे, ठीक है सब भाग्य से होता है, कुछ करने से नहीं होता, तो कुछ गलत कहता है? कोई भूल तो नहीं करता। ऐसे ही उसने कुछ प्रयोग किये और नतीजा निकाल लिया कि सब भाग्य से होता हैैै। फिर भर्तहरी सब छोड़ कर चला गया। जब सब भाग्य से होता है तो हमें कुछ करना नहीं है। जो देश ऐसा समझता है कि सब भाग्य से होता है, उस देश में फिर कुछ करने का प्रश्न नहीं रह जाता। और हम सब भाग्यवादी हैं। फल तो भगवान देता है। और फल बंधा है तो मिलेगा। तो फिर कर्म करने का क्या सवाल है?
हमने कर्म को और फल को तोड़ लिया होशियारी से। फल बिना कर्म के भी मिल सकता है। यह बात धीरे-धीरे संस्कारित हो गई। दिमाग कंडीशंड हो गया और सारे मुल्क के मन में यह बात पैदा हो गई कि सब भाग्य से होता है, सब भाग्य से होता है। यह वृत्ति इतनी गहरी बैठ गई है कि कोई भी अब कुछ करना नहीं चाहता। एक हजार साल हम गुलाम थे, हमने कुछ भी नहीं किया। हम कुछ भी न करते, अगर मैकाले ने भूल से हिंदुस्तान को अंग्रेजी शिक्षा न दी होती, तो हम कुछ भी न करते। लोग समझते हैं कि मैकाले ने भारत को गुलाम रखने को अंग्रेजी शिक्षा दी, लेकिन अगर मैकाले कहीं भी होगा दुनिया में, तो वह जानता होगा कि उसी ने भूल की। अंग्रेजों के साथ दो सौ साल सम्पर्क में रहने के बाद, हममें में से कुछ लोगों को ऐसा लगने लगा कि करने से भी कुछ हो सकता है। जो लोग भारत की आजादी की लड़ाई लड़े, वे वह लोग थे, जो अंग्रेजी शिक्षा में ठीक से दीक्षित हो गए। भारत का मन तो गुलामी को तोड़ने के लिए कभी राजी नहीं होता, उसने तो मान लिया था, गुलामी भाग्य में होगी तो हम गुलाम रहेंगे। हमरे ग्रंथों में लिखा है, कोई हो राजा हमें क्या मतलब है। हमारा यह काम नहीं है कि हम राजाओं की बाबत चिंता करें कि कौन राज्य करता है, कौन हुकूमत करता है। हमारा तो काम है, हम रो-धो के जिंदगी गुजार दें। राम भजन करके किसी तरह आगे का इंतजाम कर लें। कुछ हवन-कीर्तन करके भगवान को खुश कर लें। बात खत्म हो गई हमारा और तो कुछ काम नहीं है। हम हमेशा गुलाम रह सकते हैं। हमारी आत्मा गुलाम है। स्वतंत्रता की कामना उनमें पैदा होती है, जिन्हें यह ख्याल है कि हम कुछ कर सकते हैं। जिन्हें यह ख्याल है कि हम कुछ कर नहीं सकते, जो होगा, वह झेल लेना पड़ेगा। वह स्वभावतः झेल लेंगे। इसीलिए हम इतनी दरिद्रता झेल रहे हैं, दुनिया में कोई कौम इतनी गरीबी झेलने को राजी नहीं हो सकती। या तो मर जाएगी, या गरीबी को तोड़ने के लिए कुछ करेगी। लेकिन हम इतनी भयंकर गरीबी झेल रहे हैं, चुपचाप झेल रहे हैं, बड़े मजे से झेल रहे हैं। बल्कि कहना चाहिए, बड़े सन्तोष और शांति से झेल रहे हैं। यह कैसे संभव हुआ? क्या हमारे भीतर प्राण ही समाप्त हो गए हैं। कोई चोट नहीं लगती कहीं? नहीं, गरीबी है तो हम सोचते हैं पिछले जन्मों के कर्मो का कोई फल है। भाग्य बिगड़ गया है इसलिए गरीबी झेल रहे हैं, आगे भाग्य ठीक हो जाएगा, तो सब ठीक हो जाएगा। लेकिन हम, हम कुछ भी नहीं करेंगे।
हिंदुस्तान आजाद हुए बीस साल हो गए। बीस सालों में सिवाय भीख मांगने के हमने दुनिया में और कुछ भी नहीं किया। लेकिन एक लिहाज से यह भीख मांगना बड़ा परंपरागत है। हिन्दुस्तान में जो श्रेष्ठजन रहे हैं, वह हमेशा भीख ही मांगते रहे हैं। भिक्षावृत्ति को श्रेष्ठतम वृत्ति कहा है हमारे शास्त्रों ने। व्यवसाय वगैरह में तो पाप भी लगता है। भिक्षावृत्ति में कोई पाप नहीं लगता। और ठीक हमारे सब महापुरूष भीख मांगते हैं। बुद्ध, महावीर से लेकर विनोबाभावे तक। सबका काम भीख मांगना है। तो अगर हम सारे लोग भी उनके पीछे भीख ही मांगें तो हम कुछ बुरा तो नहीं करते। महाजन जिस रास्ते पर जाते हैं, उसी पर जाना तो सभी का कर्तव्य है।
तो पूरा देश भिखारी हो गया। सारी दुनिया में भीख हम मांग रहे हैं। और हमारे नेता अगर बाहर से भीख मांग कर लौट आते हैं, तो उनकी गर्दन फूल जाती है। उनकी रीढ़ अकड़ जाती है। वह कहते हैं, हां हम ले आये, सफलता मिल गई। भीख मांगने में सफल हो जाने को भी जो कौम सफलता मानने लगे उस कौम का आगे क्या भविष्य हो सकता है?
मैंने सुना है कि उन्नीस सौ बासठ में चीन में अकाल की हालतें थी। हमारे यहां अकाल की हालतें एक अर्थों में सौभाग्य है। क्योंकि जैसे ही अकाल पड़ता है, हम दुनिया भर का ध्यान आकर्षित करने में समर्थ हो जाते हैं। अकाल भगवान बड़ी कृपा करके हम पर भेजता रहता है। हमेशा उसकी कृपा रही है। हमेशा भेज देता है। और जब भी अकाल आता है, तभी दुनिया में भीख मांगने में हमारी हिम्मत बढ़ जाती है। और दुनिया को भीख देने पर मजबूर होना पड़ता है। न दो, तो तुम मैटीरियलिस्ट हो, तुम भौतिकवादी हो। इतना खा-पी रहे हो और हम गरीबों को भीख नहीं देते। हम अध्यात्मवादी हैं, जगत गुरू हैं, हमें भीख चाहिए। तुम्हारा कर्तव्य है सारी दुनिया का कि जगत गुरू को पालो और पोसो।
चीन में उन्नीस सौ बासठ में अकाल की हालत थी। इंग्लैंड के कुछ मित्रों ने एक जहाज पर बहुत सा सामान  भोजन और कपड़े चीन भेजे। चीन से वह जहाज सीधा का सीधा उल्टा वापस कर दिया गया। और उस जहाज पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिख दिया गया, धन्यवाद! लेकिन हम किसी भी हालत में भीख स्वीकार करने को राजी नहीं हैं। हम मर जाना पसंद करेंगे, लेकिन भिखारी होना नहीं। यह कुछ समझ में आने वाली बात मालूम पड़ती है? लेकिन चीन के आदमी तो राक्षस हैं। उनको पता ही क्या? चीन के आदमी कोई आदमी हैं। आदमी हम हैं। हमने तो बड़े होशियारियों के काम किए हैं, हमारे मुल्क में जिसको भिक्षा दो, वह आपको धन्यवाद नहीं देगा। धन्यवाद आप उसका करना कि उसने आपकी भिक्षा स्वीकार कर ली। पता है आपको? पहले भिक्षा दो, फिर पीछे दक्षिणा दो। दक्षिणा है धन्यवाद, कि आपने हमारी भिक्षा स्वीकार की, बड़ी कृपा की। तो पश्चिम से, अमेरिका से, रूस से हम भिक्षा स्वीकार करते हैं, वे लोग अभी नासमझ हैं। उनको ठीक संस्कृति का ज्ञान नहीं है। पहले भिक्षा देनी चाहिए, फिर दक्षिणा देनी चाहिए। बाद में कहें आपकी बड़ी कृपा, कि हे ब्राह्मण देश! तुमने हमारी भिक्षा स्वीकार कर ली, अब दक्षिणा भी स्वीकार करो। और हम उनको आशीर्वाद देकर कि तुम इसी तरह फलो-फूलो ताकि आगे भी भिक्षा दे सको।
बीस साल से हम सिवाए भिक्षा मांगने के और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। और आगे भी हम इसी आशा में बैठे हुए हैं कि हम भीख आगे भी मिलती रहेगी। कब तक मिलेगी? दुनिया में अब तक आदमी भिखारी थे। राष्ट्र का राष्ट्र भिखारी हमारा पहली बार हुआ है। यह अनहोनी घटना है पूरे इतिहास में। और कभी समय-बेसमय कुछ सहायता मिल जाए, एक बात है, लेकिन भिक्षा को वृत्ति बना लेना और उसी पर जिये चले जाना।
अभी मैं एक अमरीकी विचारक की किताब पढ़ता था। और किताब का नाम हैः उन्नीस सौ अठहत्तर। और उसने लिखा है कि उन्नीस सौ अठहत्तर में भारत में एक महानतम अकाल के पड़ने की संभावनाएं थी। ऐसा अकाल विश्व इतिहास में कभी भी नहीं पड़ा होगा। अगर सारी दुनिया ने भीख नहीं दी, तो उस अकाल में हिन्दुस्तान में दस करोड़ से लेकर बीस करोड़ लोगों तक के मरने की संभावना पैदा हो गई। दिल्ली में एक बड़े नेता से मैंने कहा, उन्होंने कहा, उन्नीस सौ अठहत्तर अभी बहुत दूर है। उन्नीस सौ अठहत्तर, नेता कहते हैं, बहुत दूर है। नेताओं को चुनाव के सिवाय और कुछ ची.ज पास मालूम पड़ती ही नहीं। और सब चीजें दूर हैं। उन्नीस सौ अठहत्तर दूर है। और मकान में आग लग जाए, तब कुएं खोदने पड़ते हैं। उन्नीस सौ अठहत्तर से और ज्यादा क्या पास हो सकता है? लेकिन नेता कहते हैं उन्नीस सौ अठहत्तर दूर है। साधु-संयासी कहते हैं कि बच्चे पैदा करो, क्योंकि बच्चे भगवान भेजता है। तुम बच्चे पैदा करो साधु-संयासी समझाते हैं। क्योंकि बच्चों पर रोक लगाना बड़ा पाप है। जो आत्माएं जन्म लेना चाह रही हैं, उन्हें तुम रोक सकते हो। भगवान जानता है, और साधु-संयासी समझाते हैं, जो चोंच देता है, वह चून भी देता है। जो मुंह देगा, वह रोटी भी देगा। नेता कहते हैं उन्नीस सौ अठहत्तर दूर है, संयासी कहते हैं, बच्चे पैदा करते चलो। उन्नीस सौ अठहत्तर जोर से छाती पर आ जाएगा। आ ही रहा है। हिन्दुस्तान पाकिस्तान का बंटवारा हुआ। तो जितनी आबादी पाकिस्तान में गई थी, उससे ड्योढी आबादी हमने बीस साल में फिर पैदा कर ली।
वह जिन्ना बड़ी गलती में थे। अब हजरत को पता चला होगा कि तुम भारत को कभी कम नहीं कर सकते। चालीस करोड़ की आबादी थी, अब बावन करोड़ की आबादी भारत में है। हिंदुस्तान-पाकिस्तान की मिलाके चालीस करोड़ थी। अब अकेले हिंदुस्तान की बावन करोड़ है। अब मियां जिन्ना बहुत पछताते होंगे कि हमने बहुत गलती कर ली। भारत को तुम कभी कम नहीं कर सकते हो। यह और कुछ पैदा नहीं करती, सिर्फ बच्चे पैदा करती है। और बच्चे इतनी तादाद में पैदा करती है कि और कुछ पैदा करने की जरूरत भी नहीं रह जाती। अरे जहां हम आदमी पैदा कर लेते हैं, क्या मशीनें बनाएंगे हम अध्यात्मवादी लोग हैं, हम मशीनें नहीं बनाते। हम गेहूं पैदा नहीं करते, ये सब भौतिक चीजें हैं, हम तो आत्माएं पैदा करते हैं, हम तो आदमी पैदा करते हैं। अध्यात्मवादी लोग आत्माएं ही पैदा करते हैं। मशीनें, गेहूं ये सब मैटीरियलिस्ट, ये सब भौतिकवादियों का काम है। ये पश्चिम के नासमझ इस तरह का काम करते हैं। हम बढ़े समझदार हैं, हम असली ची.ज पैदा करते हैं, आदमी पैदा कर दिया और सब पैदा हो गया। आदमी ही तो मेजरमेंट है, वही तो सब ची.ज का मूल है। उसको ही हम पैदा कर देते हैं। आदमी सर्वश्रेष्ठ है। दुनिया में सबसे ऊंची ची.ज वही है। हम सबसे ऊंची ची.ज पैदा करते हैं, दूसरे लोग नीची चीजें पैदा करते हैं। इसलिए हम बड़े प्रसन्न भी हैं। लेकिन यह प्रसन्नता बहुत दिन नहीं चलेगी, और ये प्रसन्नता बहुत झूठी है, खतरनाक है और महंगी पड़ रही है। और आज नहीं कल देश बड़े संकटों में गुजरता जाएगा। रोज नये संकटों में पहुंचता चला जाएगा। लेकिन अगर कोई इन संकटों के प्रति आगाह करे, तो वह आदमी बहुत बुरा मालूम पड़ता है। क्योंकि वह हमारी नींद तोड़ने की कोशिश करता है। और वो नींद हमारी लंबी है और पुरानी। और नींद हमारी बड़.ी प्राचीन और सनातन है। यह सनातन नींद को तोड़ना बहुत कठिन मालूम पड़ता है। और जब तोड़ने की लोग कोशिश भी करते हैं तो बुनियादी चीजों को तोड़ने की कोशिश नहीं करते, जिनके कारण नींद है। वह सिर्फ आदमी को समझाने की कोशिश करते हैं कि काम करो, उत्पादन करो, यह करो, वह करो। आराम हराम है, फलां-ढिकां ये सब वे कहते हैं, लेकिन बुनियादी सूत्र जिनकी वजह से आदमी हमारा आलस्य, काहिल और प्रमादी हो गया है। बुनियादी कारण, जिनके कारण आदमी हमारा श्रम करने में असमर्थ हो गया है। बुनियादी सिद्धान्त, जिनके कारण हमने मनुष्य की आत्मा को जकड़ कर गुलाम बना दिया है, बुनियादी कारण, जिनकी वजह से मनुष्य की वह चेतना, चुनौती जीवन को जीतने और बदलने की छूट गई है, टूट गई है, उनको बदलने की हम कोई बात ही नहीं करते। मैं ये तीन छोटे सूत्र आपसे कहना चाहता हूं। अगर हिंदुस्तान के भाग्य को जागना है, तो हिंदुस्तान को स्वर्ग आकाश में है, यह भ्रांति जड़-मूल से उखाड़ कर फेंक देनी चाहिए। साथ ही यह भी स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि स्वर्ग मिलता नही, निर्मित करना होता है। स्वर्ग कोई व्यक्तिगत कामना नहीं है, सामूहिक अर्जन है। कोई एक आदमी स्वर्ग निर्मित नहीं कर सकता। स्वर्ग निर्मित एक सामूहिक उपाय है। एक कलैक्टिव एफर्ट है। अगर यह पूरा मुल्क श्रम करे, तो स्वर्ग बन सकता है। और प्रमाण तो साफ हैं, पूरा मुल्क श्रम कर रहा है, एक अर्थों में और मुल्क नरक बन गया है। नरक बनाना हो तो उसके लिए श्रम करना जरूरी नहीं होता। उसके लिए आलस्य करना जरूरी होता है, वही श्रम है नरक बनाने के लिए। नर्क बनाना हो तो कुछ भी न करना, पर्याप्त उपाय है। वह रामबाण औषधि है। कुछ भी मत करो, नरक अपने आप बन जाएगा। लेकिन स्वर्ग बनाना हो तो कुछ करना पड़ेगा। सम्यक दिशा में सामूहिक प्रयास से कुछ निर्मित करना पड़ेगा। पहली बात, स्वर्ग आकाश से हटा कर पृथ्वी पर लाना है। तो हम सक्रिय हो सकते हैं।
दूसरी बात, यह जगत माया और सपना नहीं है। जगत बहुत यथार्थ है। और जब तक तुम जगत के यथार्थ को उसकी रियलिटि को स्वीकार नहीं करते, तब तक हम जगत के साथ श्रमरत भी नहीं हो सकते। सपनों में कोई श्रमरत होता है? सपनों के साथ कोई मेहनत करता है? ड्रीम्स के साथ कोई उलझता है? भारत में हम सपना समझ रहे हैं जीवन को इसलिए विज्ञान और साइंस का जन्म नहीं हो सका। साइंस वहां पैदा होगी, जहां बाहर का जगत एक रियलिटी है। एक यथार्थ है। क्योंकि यथार्थ से ही विज्ञान पैदा हो सकता है। सपनों से विज्ञान पैदा नहीं हो सकता। सपनों में सत्य कैसे खोजा जा सकता है? सपनों में सत्य कभी भी नहीं खोजा जा सकता। इसलिए जो देश बाहर के जगत को, जीवन को, प्रकृति को माया समझता हो, वह देश कभी वैज्ञानिक नहीं हो सकता। और जो देश वैज्ञानिक नहीं हो सकता, वह अपने हाथ से अपनी मौत निकट बुला रहा है। तो दूसरी बात ध्यान रखनी जरूरी है कि जीवन एक सत्य है। और जीवन को असत्य करने की कोई आवश्यकता नहीं है। और कितना ही हम चिल्लाएं कि जीवन असत्य है, जीवन असत्य नहीं हो जाता। जीवन को असत्य कहने से सिर्फ हम पंगु, नपुंसक हो जाते हैं और कुछ भी नहीं होता। हम इंपोटेंट हो जाते हैं। और भारत एक इंपोटेंसी में, एक नपुंसकता में हजारों साल से गुजर रहा है। लेकिन जितने हम दीन-हीन होते चले जाते हैं, उतना ही हम जोर-शोर से शोर मचाते हैं कि हम महान देश हैं, धार्मिक देश हैं, जगतगुरू हैं, धर्म भूमि हैं, फलां हैं, ढिकां हैं। ये सब कमजोरी के लक्षण हैं। कमजोर आदमी अपनी कमजोरी छिपाने के लिए उल्टी बातें दोहराना शुरू कर देता है।
भिखारी अक्सर सपना देखते मिलेंगे सम्राट होने का। भिखारी अक्सर कहते मिलेंगे कि मेरा बाप, मेरा बाप इंस्पेक्टर था। वह भिखारी का जो मन है, वह बापदादों की तारीफ करके किसी तरह कंसोलेशन और सांत्वना पाना चाहता है। जो कौम अपने बापदादों की बहुत बात करने लगे, समझ लेना कि उस कौम की जान निकल गई। जिस कौम में जान होती है, वो आने वाले बेटों की बात करती है। और जो कौम की जान निकल जाती है, वह मर गए बापदादों की बात करती है।
रूस के बच्चे आने वाले बेटों की बात कर रहे हैं। रूस की पीढ़ी आने वाले बच्चों पर आंख लगाए हुए है। आशाएं उनकी बढ़ी हैं, चांद-तारों पर बस्तियां बसाने के इरादे हैं और हम रामलीलाएं देखते हैं और याद करते हैं अपने बापदादों को कि कभी कोई थे, बड़े प्यारे थे राम। लेकिन रामलीला ही देखते जाना बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकता है। भविष्य आगे कुछ होने को है, वो हमारा खयाल भूल गया, क्योंकि हम इतने कमजोर हैं कि हमें कोई आशा नहीं कि हम कुछ कर सकते हैं। अतीत, अतीत हो चुका। भविष्य होना है, और जो कौम पीछे की तरफ ही देखती चली जाती है, और बाप-दादों की बात किए चले जाती है, वह कौम भविष्य को निर्माण करने का हक खो देती है, पात्रता खो देती है। जरूरत है इस बात की कि हम भूल जाएं कि हम बहुत बड़ी कौम हैं, बहुत बड़े देश हैं, हम नहीं हैं, हम हो सकते हैं, लेकिन होने के लिए कुछ करना पड़ेगा। सिर्फ नेताओं के भाषण से ये नहीं होगा। जिस देश में बहुत भाषण होने लगे, समझना चाहिए उस देश ने करने की क्षमता खो दी। जो लोग कुछ नहीं कर पाते फिर एक ही बात रह जाती है कि बातचीत करके कैसे मन को बहलाएं। फिर एक ही रास्ता रह जाता है, हम बातचीत कर लें और खुश हो लें, जब कोई प्रशंसा करता है कि महान देश है, तब हमारी छाती फूल जाती है थोड़ी देर, और हम बड़े खुश होके घर लौट जाते हैं, बड़े महान देश में हम पैदा हुए, तो हम भी बड़े महान हैं। लेकिन इस तरह की नासमझियों, इस तरह के झूठे सांत्वनाओं से देश आगे नहीं बढ़ सकता। दूसरी बात ध्यान रखनी जरूरी है कि बाहर का जो जगत है, वह उतना ही सत्य है जितना भीतर का जगत। अकेले भीतर के जगत की जो सत्य होने की बात कहेंगे, वह समाज धर्म तो पैदा कर लेगा लेकिन विज्ञान पैदा नहीं कर पाएगा। धर्म शांति दे सकता है, शक्ति नहीं। शक्ति विज्ञान देता है। विज्ञान शांति नहीं दे सकता। लेकिन निशक्त आदमी की शांति का भी कोई अर्थ नहीं होता। शांति के बाहर अगर शक्ति का साथ न हो, शांत आत्मा के पास अगर शक्तिशाली व्यक्तित्व न हो तो ये शांत आत्मा भी बहुत जल्दी गुलाम बना ली जाएगी। फिर शान्त आत्मा को जीने का हक नहीं मिल सकता।
जीवन एक विराट संघर्ष है। उसमें भीतर एक शान्ति चाहिए, जो कभी कंपती न हो, और बाहर एक शक्ति चाहिए, जो पराजित न होती हो। बाहर कोई शक्ति नहीं है, बाहर माया है, बाहर सपना है, बाहर एक झूठ है, उस झूठ में कैसे शक्ति पैदा की जा सकती है? दूसरा सूत्र हैः बाहर के यथार्थ का अंगीकार चाहिए। बाहर को यथार्थ देने की क्षमता चाहिए। बाहर के यथार्थ की स्वीकृति चाहिए। और तीसरी बात, भाग्य नहीं, भाग्य बिलकुल नहीं है। भाग्य जैसी कोई चीज नहीं है! वह जो हमें भाग्य जैसा मालूम पड़ता है, वह हमारे सामूहिक पुरूषार्थ का फल है। लेकिन एक-एक व्यक्ति को वह भाग्य जैसा मालूम पड़ता है। एक व्यक्ति बहुत छोटा है, समूह बहुत बड़ा है, जगत बहुत बड़ा है, उस जगत में एक-एक व्यक्ति की शक्ति बहुत छोटी है, सारे जगत के उपक्रम के बीच वह अकेला आदमी कई बार हार जाता है, नहीं सफल हो पाता। सोचता है हार गया, भाग्य विरोध में आ रहा है। भाग्य विरोध में नहीं आ रहा, विराट उपक्रम है जगत का, विराट उपक्रम में आप अकेले नहीं है कि जो आप करना चाहें, वही कर लें। बहुत बार आप नहीं भी कर पाएंगे! क्योंकि हजारो और क्राॅस करेंट्स हैं, जो आपके मार्ग से गुजर रहे हैं, उन सबको ध्यान में रख कर कुछ करना पड़ेगा। लेकिन अगर समूह तय करे, तो भाग्य को बदलना बहुत आसान है। समूह तय करे तब तो भाग्य को बदलना बहुत आसान है। लेकिन समूह कैसे तय करेगा, जब एक-एक व्यक्ति ये मानता है कि भाग्य निर्धारित है? तो फिर बहुत कठिन हो जाता है। भारत के मन से भाग्य को बिलकुल हटा देना है, तब भारत का मन मुक्त होगा, सक्रिय होगा, कुछ काम करने में लगेगा, और हम कुछ काम करेंगे, तो हमें विश्वास आएगा कि काम से कुछ होता है। जब हम काम नहीं करेंगे तो विश्वास आता ही चला जाएगा कि भाग्य से ही कुछ होता है। हजारों साल से काम नहीं कर रहे हैं। तो भाग्य की धारणा गहरी से गहरी और मजबूत होती चली गई। एक विसीयस सर्किल है, एक दुष्ट-चक्र है, कुछ नहीं करते, फिर कुछ होता है, तो भाग्य मालूम पड़ता है। फिर कुछ करते हैं छोटा-बहुत, थोड़ा-बहुत बेमन से, नहीं होता तो भाग्य मालूम होता है। नहीं, भाग्य इसलिए है कि हम पुरूषार्थी नहीं हैं, हम पुरूषार्थी होंगे तो हम भाग्य को जला डालेंगे, खत्म कर देंगे। देश के मन में पुरूषार्थ की एक तीव्र आकांक्षा पैदा करनी जरूरी है। और एक-एक व्यक्ति जिम्मेवार नहीं है, हमारा पूरा समाज जिम्मेवार है। इसलिए एक-एक व्यक्ति को दोष देने से नहीं चलेगा, और एक-एक व्यक्ति को सुधार करने की बात से भी नहीं चलेगा। समझना पड़ेगा हमारे सामाजिक चिन्तन के मूल आधार गलत थे। हमारे सोचने के मूल सूत्र भ्रांत थे। और उन मूल सूत्र को बदले बिना कोई रास्ता नहीं है।
अंतिम बात, यह तीनों सूत्र, जो हमने अब तक माने हैं, पलायनवादी हैं, एस्केपिस्ट हैं। ये भगाते हैं लड़ाते नहीं। ये हमें दूर हटाते हैं, संघर्ष में खड़ा नहीं करते। ये हमसे कहते हैं, भाग जाओ जंगल में। ये हमें सन्यास सिखाते हैं, संघर्ष नहीं और मैं उस सन्यासी को दो कौड़ी का कहता हूं, जो संघर्ष में नहीं है। संघर्ष में ही संन्यास के असली फूल खिलते हैं। हिंदुस्तान ने संघर्ष छोड़ दिया, संघर्ष के फूल भी नहीं खिले और संन्यासी भी मुर्दा हो गए। वहां सन्यास के फूल भी नहीं खिले। संन्यास के फूल भी संघर्ष में खिलते हैं। और संघर्ष में ही संन्यास की शिक्षा और दीक्षा भी होती है। जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वह जीवन के घनेपन में है। वहीं उपलब्ध होता है। भागकर कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। इस जगत में जो भी पाना है परमात्मा भी, तो भाग कर नहीं पाया जा सकता। आत्मा भी तो भाग कर नहीं पाई जा सकती। जो भी पाना है उसे एक चुनौती, एक चैलेंज, एक संघर्ष, एक विजय यात्रा बनाना जरूरी है। लेकिन हम सब छोड़ने, भागने वाले लोग, हम सब छोड़ते हैं और भाग जाते हैं।
वह दतरों में जो लोग बैठे हैं, वह संन्यासियों की संतान हैं। वह जो देश में नेता बैठे हैं, वह भी संन्यासियों की संतान हैं। सारा देश सन्यासियों की संतान है, कोई कुछ नहीं कर रहा। सब अपने काम से भाग रहे हैं। एक आदमी फाइल दूसरे आदमी पर छोड़ रहा है, संन्यासी है वह आदमी। दूसरा आदमी करेगा। संन्यासी भी क्या करता रहा है? संन्यासी कहता है कि मैं जंगल जाता हूं। लेकिन भोजन संन्यासी को भी जरूरी होता है, वह कोई दूसरा आदमी कमाता है, दुकान पर बैठ कर। वह पाप करता है दुकान पर बैठ कर। भोजन कमाता है। संन्यासी भोजन करता है, वह पुण्य करता है। काम दूसरे पर छोड़ दिया है, फल खुद ले रहा है। लेकिन फल लेने में कोई पाप नहीं है। काम में पाप है। और अगर यह दृष्टि आगे भी चलती है, और यह पलायनवादी रूख हमारा विकसित होता चला जाता है, तो भारत अब दुनिया में रहने की क्षमता के योग्य नहीं रह गया। हमने अपनी पात्रता खो दी है। हम अपने ही हाथ से मिट जाएंगे और नष्ट हो जाएंगे।
इस पर सोचना। मैंने जो कहा, मेरी बातें मान लेनी जरूरी नहीं हैं। हिन्दुस्तान हर किसी की बात मान लेता है, ये ही कठिनाई है। मेरी कोई बात मान लेने की जरूरत नहीं। मैंने जो कहा, उस पर सोचना, हो सकता है, मेरी सारी बातें गलत हों। यह भी हो सकता है मेरी बात में कोई चीज सच हो। सोचना, देखना अगर सच दिखाई पड़े, तो सच दिखाई पड़ने का एक ही अर्थ होता है कि उस सच पर जितना बन सके प्रयोग करना, ताकि वह सच जीवंत इकाई बन जाए। ताकि वो सच आस-पास भी खबर पहुंचाने लगे। उसकी सुगंध दूसरों तक भी पहुंचने लगे।
अगर बीस साल मुल्क तय कर ले और संकल्प कर ले, तो एक बिल्कुल ही नए समाज का, और एक नये देश का जन्म हो सकता है। लेकिन नेता यह नहीं कर सकेंगे। यह साधारण-जन को करना पड़ेगा। नेताओं की तरफ देखने से यह नहीं होगा। नेता हमारे हमसे भी ज्यादा कमजोर हैं। असल में कमजोर लोगों का नेता बनने के लिए कमजोर आदमी ही चाहिए। नहीं तो कोई उनको नेता बनाएगा नहीं। नेता अपने अनुयाइयों के भी पीछे चलते हैं। दिखाई पड़ते हैं कि आगे चल रहे हैं, लेकिन हमेशा ध्यान रखते हैं कि अनुयायी कहां चलाना चाहता है। वहीं चलते हैं, नहीं तो अनुयायी पीछा छोड़ देता है। नेता भी अनुयायी के पीछे चलते हैं और काहे के नेता हैं मुल्क के पास। मुल्क सब तरह से दीन-हीन है, उसके पास नेता भी नहीं है।
एक स्कूल में मैं गया था, वहां मुझे पता चला नेता बनने का सूत्र। एक स्कूल में मैं गया। वहां स्कूल के बच्चों ने मेरे स्वागत में परेड की। उन बच्चों की कतारें क्रम से थीं। सबसे छोटे बच्चे आगे उनसे बड़े पीछे, उनसे बड़े पीछे, सबसे बड़े सबसे पीछे थे। सब कतारें तो ठीक थीं, कोई दस कतारें थी। एक कतार में एक सबसे बड़ा बच्चा आगे था। मैंने पूछा कि इस बच्चे को आगे किया है, क्या यह तुम्हारा नेता है, सब बच्चों का? एक छोटे बच्चे ने कहा, नेता नहीं है। इसको किसी के भी पीछे करो तो यह चूंटी लेता है। तो इसको पीछे कर ही नहीं सकते। इसको आगे रखना पड़ता है। मगर वह अकड़ कर चल रहा था। मैंने कहा, यह नेता बनने का सूत्र मुझे समझ में आ गया।
इस मुल्क में जिसको नेता बनना हो, एक ही तरकीब है, पीछे मत चलो च्यंूटी लो। बस लोग आपको आगे कर देंगे। और आप एक दफा आगे हो गए झंडा लेके, झंडा ऊंचा रहे हमारा, फिर कोई नहीं पूछता कि आप क्या बेवकूफी कर रहे हो। फिर कोई नहीं पूछता कि मुल्क को कहां लिए जा रहे हो? फिर धीरे-धीरे मुल्क भी भूल जाता है कि इस आदमी को किसलिए आगे किया था? यह आदमी च्यंूटी लेता था। लेकिन जो आगे होता है, मुल्क उसके पीछे चलने लगता है। अंधे, अंधों का नेतृत्व कर रहे हों, तो बहुत आशा नहीं बंधती, लेकिन आशा छोड़ी भी नहीं जाती है। एक ही आशा है इस देश के पास। नेताओं के पास नहीं, इस देश के सामान्यजन की तरफ देखना होगा। एक-एक सामान्यजन को पुकारना होगा। उसे कहना होगा कि वह बचा सकता है, अगर थोड़ा श्रम में रत हो जाए। थोड़ा दान दे, थोड़ा सहयोग करे मुल्क को निर्मिंंत करने में, तो यह देश निर्मित हो सकता है।

मेरी ये बातें इतने प्रेम और शांति से सुनी, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
  

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