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शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-05)

पांचवा-प्रवचन-(ओशो)

युवा चित्त का जन्म

पुरानी संस्कृतियां और सभ्यताएं धीरे-धीरे सड़ जाती हैं। और जितनी पुरानी होती चली जाती हैं उतनी ही उनकी बीमारियां संघातक भी हो जाती हैं। उन अभागी सभ्यताओं में से एक है जिनका सब कुछ पुराना होते-होते मृतपाय हो गया है। यदि ऐसा कहा जाए कि जमीन पर हम अकेली मरी हुई सभ्यता हैं तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। दूसरी सभ्यताएं पैदा हुईं मर गईं और उनकी जगह नई सभ्यताओं ने जन्म ले लिया। हमारी सभ्यता ने मरने की कला ही छोड़ दी और इसलिए नये जन्म लेने की क्षमता भी खो दी। जरूरी है कि बूढ़े चल बसें ताकि बच्चे पैदा हों और कभी किसी देश में ऐसा हुआ कि बूढ़ों ने मरना बंद कर दिया तो बच्चों का पैदा होना भी बंद हो जाएगा। हमारी सभ्यता के साथ ऐसा ही दुर्भाग्य हुआ है। हमने मरने से इनकार कर दिया। इस भ्रांति में कि अगर मरने से इंकार करेंगे तो शायद जीवन हमें बहुत परिपूर्णता में उपलब्ध हो जाएगा। हुआ उलटा। मरने से इनकार करके हमने जीने की क्षमता भी खो दी। हम मरे तो नहीं लेकिन मरे-मरे होकर जी रहे हैं।
और मरे-मरे जीने से मर जाना हजार गुना बेहतर है।
क्योंकि मरने से फिर जन्म हो जाता है, पुनर्जन्म हो जाता है। व्यक्तियों का ही पुनर्जन्म नहीं होता सभ्यताओं, संस्कृतियों का भी पुनर्जन्म होता है।

भारत ने एक अनूठा लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण प्रयोग किया है, हम ठहर गए हैं, जड़ हो गए हैं, स्टग्नेंट हो गए हैं। हम इतने जड़ हो गए हैं कि जीने के अंकुर हमसे निकल ही नहीं सकते। जैसे कोई बीज पत्थर की तरह जड़ हो जाए। निश्चित एक सुविधा होगी उस बीज को टूटना नहीं पड़ेगा। अगर कोई बीज पत्थर हो जाए तो फिर टूटेगा नहीं, बिखरेगा नहीं। लेकिन तब उससे अंकुर भी पैदा नहीं होगा।
एक तो पहली बात युवकों के इस सम्मेलन में यह कहना चाहता हूं कि भारत को पुनर्जन्म के लिए, रीबर्थ के लिए तैयार करना है। भारत का पुनर्जन्म हो सके इसकी तैयारी करनी है। और भारत का पुनर्जन्म हो इसके दो अंग होंगे--एक अंग तो पुराने भारत की मृत्यु होगी और दूसरा अंग नये भारत का जन्म होगा। और इन दोनों अंगों में मृत्यु पहले होगी जन्म पीछे होगा। तो एक तो हमें पुराने भारत को किसी तरह दफनाना है ताकि नया भारत जन्म ले सके। और इस दिशा में चिंतन करना है, सोचना है कि हमने पुराने को किस भांति बचा रखा है। हम उसे कैसे दफनाएं।
पहली बात भारत का पुनर्जन्म कैसे हो? इस संबंध में दो-एक सूत्र में आपसे अभी कहना चाहूंगा।
एक तो किसी भी देश का पुनर्जन्म तब होता है जब उसकी आंखें अतीत की तरफ से हट जाती हैं और भविष्य की ओर लग जाती हैं। नया जन्म भी तभी होता है जब कोई कौम भविष्य की तरफ देखने लगती है और अतीत की तरफ से आंखें हटा लेती है। हमारा देश पीछे की तरफ देखने वाला देश है जो हजारों साल से पीछे और पीछे ही देखता रहता है। हमारे भविष्य की कोई कल्पना, कोई कामना, कोई स्वप्न नहीं है। हमारे पास स्मृतियां हैं, कल्पनाएं बिलकुल नहीं। हमारे पास अतीत के अनुभव हैं लेकिन भविष्य को जन्म देने की योजनाएं बिलकुल नहीं। और जो कौम भी पीछे की तरफ बंध जाती है। वह कौम आगे चलने में असमर्थ हो जाए तो आश्चर्य नहीं। जन्म होगा भविष्य में लेकिन भविष्य में जन्म तभी हो सकता है जब अतीत के मुर्दाघर से अतीत के मरघट से हमारा छुटकारा हो।
उन्नीस सौ सतरह में रूस के लोगों ने तय किया कि हम पीछे की दुनिया को नमस्कार करते हैं और एक नई सभ्यता को जन्म देंगे। तो पचास वर्षों में रूस ने इतनी शक्ति पैदा की जितनी पांच हजार वर्ष का पुराना रूस कभी पैदा नहीं कर सका था। और उसका राज? उसका राज कम्युनिज्म नहीं है। उसका राज साम्यवाद नहीं है। उसका राज एक छोटी सी बात में है, और वह ये है कि उन्नीस सौ सत्रह में रूस के जवानों ने तय कर लिया कि अब हम पीछे की तरफ न देखेंगे। अब हम आगे की तरफ देखेंगे।
अमरीका जमीन पर सबसे नई कौम है। अमरीका का कुल इतिहास तीन सौ वर्ष पुराना है। और हमें शर्म भी नहीं आती कि हम तीन सौ वर्ष पुरानी सभ्यता के सामने, तीन सौ वर्ष पुराना कहना भी गलत है, कहना चाहिए तीन सौ वर्ष नया। तीन सौ वर्ष में कोई पुराना नहीं होता।
तीन सौ वर्ष पुरानी सभ्यता के सामने हम जो दस हजार वर्षों से जमीन पर हैं। अगर भिक्षा के हाथ फैलाए खड़े हों तो विचारणीय है कि कहीं कोई भूल हो गई है। अमरीका के पास इतनी समृद्धि का जो आकाश टूट पड़ा और इतनी शक्ति अर्जन हो सकी उसका कारण क्या है? उसका कारण सिर्फ एक है कि अमरीका के पास पीछे देखने को कोई इतिहास नहीं है, अतीत नहीं है। अमरीका के पास कोई पास्ट नहीं है। अगर वे बहुत पीछे जाएं तो वाशिंगटन के पीछे नहीं जा सकते। अगर बहुत याद करें तो लिंकन, वाशिंगटन दो चार नाम के सिवाय उनके पास याद करने को भी कुछ नहीं है।
अमरीका के पास पीछे जाने के लिए उपाय नहीं हैं इसलिए आगे उन्हें जाना पड़ा। और रूस के पास पीछे जाने का उपाय था लेकिन उसने वह रास्ता तोड़ दिया और आगे तो उसे जाने का रास्ता...गया।
आज चीन भी दस वर्षों में अदभुत गति किया है। दस वर्षों में चीन ने भी जमीन के बहुत पिछड़े हिस्से से पृथ्वी के प्रमुख हिस्सों में हाथ बंटा लिया है। आज पृथ्वी की अग्रणी शक्तियों में वह खड़ा हो गया है। और उसका भी कोई और कारण नहीं है। सिर्फ कारण एक है, जो कौम भी अपने अतीत के प्रति अपनी आंखों को हटा लेने में समर्थ हो जाती है। उसका भविष्य का द्वार खुल जाता है। और जो शक्ति अतीत के चिंतन में व्यर्थ ही व्यय होती है। वह शक्ति भविष्य के निर्माण में संलग्न हो जाती है।
इस देश के सामने, इस देश के युवकों के सामने पहला काम तो ये है कि भारत को उसके अतीत से मुक्त करवा दें। अगर एक बार हमारी शक्ति पीछे की तरफ से लौट आए और आगे की तरफ गतिमान हो जाए तो कोई नहीं कह सकता कि हम आने वाले बीस-पच्चीस वर्षों में पृथ्वी की बड़ी शक्ति नहीं हो सकें।
कोई भी नहीं सोच सकता था आज से पचास साल पहले कि रूस भी कोई शक्ति हो सकता है। और कोई नहीं सोचता था आज से पंद्रह साल पहले कि चीन भी कोई शक्ति हो सकता है। कोई नहीं सोचता आज कि भारत शक्ति हो सकेगा। लेकिन भारत भी एक शक्ति हो सकता है। लेकिन मनुष्य के मन की जो प्रक्रिया है काम करने की अगर उसके विज्ञान को हम न समझे तो ये नहीं हो सकेगा। हम अब भी पीछे की तरफ ही देखे चले जाते हैं। हमारा सारा का सारा व्यक्तित्व अतीत उन्मुख है, पास्ट-सेंटर्ड। जब कि ध्यान रहे, पीछे की तरफ देखना बुढ़ापे का लक्षण है। कभी आपने नहीं देखा होगा कि बूढ़ा आदमी भविष्य की तरफ देखे। और अगर कोई बूढ़ा आदमी भविष्य की तरफ देखता हुआ मिल जाए तो समझ लेना कि उसे उम्र बूढ़ा नहीं कर सकी।
बूढ़ा आदमी अतीत की तरफ देखता है। आरामकुर्सी पर बैठ कर, रिटायर्ड होकर पीछे की तरफ देखता है। वे दिन जो उसने जीए, वे प्रेम जो आए और गए। यश और पद और पदवियां और अतीत के रास्ते पर उड़ी हुई धूल, लौट कर देखता रहता है।
पीछे देखना बूढ़े आदमी का लक्षण है। बच्चे भविष्य की तरफ देखते हैं। असल में भविष्य की तरफ देखना नये होने, ताजा होने, जवानी होने का सूत्र है। और अगर पूरी कौम पीछे की तरफ देखने लगे तो वह कौम मर ही जाएगी। धीरे-धीरे सड़ती जाएगी और समाप्त हो जाएगी।
दस हजार वर्षों से पृथ्वी पर जिनकी सभ्यता है वे अपनी रोटी-रोजी भी नहीं जुटा सके हैं। कपड़े भी नहीं जुटा सके हैं। वे अपने खाने-पीने का इंतजाम भी नहीं कर सकते हैं। और दूसरी बातें तो करनी बहुत असंभव है, क्योंकि बाकी सब बातें अतिरिक्त ऊर्जा से होती हैं। जब तक कोई कौम रोटी, कपड़े, रोजी न जुटा सके तब तक कुछ और नहीं कर सकती। यह सब हो जाए तभी चेतना ऊपर उठती है, तब वह धर्म और विज्ञान और संगीत और कला और साहित्य में गति करती है। हम अत्यंत दीन-दरिद्र की भांति खड़े हैं। और कल भी क्या हमें ऐसे ही खड़े रहना है, यह सवाल पूछ लेना जरूरी है।
आज अमरीका के चार किसान मेहनत कर रहे हैं तो एक किसान का गेहूं हमें मिल रहा है। अमरीका में चार किसानों में से एक किसान की मेहनत हमें मिल रही है, तब हम किसी तरह जिंदा हैं। लेकिन अमरीका हमें कितनी देर तक ये गेहूं दे सकेगा? अमरीका की खुद जनता चिंता और विचार में पड़ गई है। अमरीका के बड़े विचारकों ने यह सवाल उठाना शुरू किया है कि हम कितनी देर तक भारत जैसे बड़े मुल्क को रोटी दे सकेंगे? उन्नीस सौ पचहत्तर के बाद नहीं। ये अमरीका के एक बड़े चिंतक ने घोषणा की है कि जिस दिन अमरीका ने भारत को गेहूं देना बंद कर देगा। उसी दिन भारत में इतने बड़े अकाल की संभावना है जिसमें दस करोड़ लोग भी मर सकते हैं।
मैं दिल्ली में था, एक बड़े नेता को मैंने कहा, उन्होंने कहा, उन्नीस सौ अठहत्तर बहुत दूर है। अभी तो उन्नीस सौ बहत्तर निबट जाए तो बहुत है। वे उन्नीस सौ बहत्तर की चिंता में संलग्न हैं। भारत के नेता को चुनाव से ज्यादा और कोई महत्वपूर्ण सवाल ही नहीं है।
भारत के युवकों को सोचना पड़ेगा और ठीक भी है। शायद उन्नीस सौ अठहत्तर तक दिल्ली में आज जो भी नेता हैं उनमें से एक भी नहीं होंगे। इसलिए उनके लिए वह सवाल भी नहीं है। वे सब इस चिंता में हैं कि उन्हें राज कैसे मिल सके। उन्हें राज्य के द्वारा दफनाने का उपाय कैसे हो सके वे सब इस चिंता में हैं।
इसलिए कोई बूढ़ा आदमी कुर्सी से हटना नहीं चाहता क्योंकि कुर्सी पर रह कर मर जाए तो राज्य के सम्मान के साथ मरता है। कुर्सी से नीचे हट कर मर जाए तो अखबार में पता भी नहीं चलता कि वह आदमी कब मर गया और जिंदा था भी कि नहीं।
हिंदुस्तान का सारा नेतृत्व बूढ़ा है। और बूढ़े नेतृत्व को कोई चिंता नहीं है हिंदुस्तान के भविष्य की। वह अपने-अपने मरने की व्यवस्थित योजना में संलग्न हैं। कौन-कौन राजघाट पर दफनाए जा सकेंगे इसकी चिंता में संलग्न हैं। लेकिन भारत के युवक को सोचना पड़ेगा। उसे जीना है कल और उस दुनिया के साथ जीना है जो रोज ताकत में होती चली जा रही है।
अमरीका चांद पर उतरा है और एक आदमी के पैर चांद पर पड़ सकें इसके लिए एक सौ अस्सी अरब रुपया खर्च करने पड़े। एक तरफ इतनी समृद्धि है! अब यह बिलकुल लक्जरी है, चांद पर उतरने का अभी कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन एक आदमी चांद पर उतर सके और पहला झंडा अमरीका का गड़ सके उसके लिए वे एक सौ अस्सी अरब रुपये खर्च कर सकता है।
एक तरफ हम हैं कि हम अपने पेट भरने के लिए भी कुछ खर्च करने की सुविधा हमारे पास नहीं है। और सारी दुनिया के कर्जदार होते चले जाते हैं। सारी दुनिया के सामने भीख मांगते चले जाते हैं। एक युनिवर्सल बैगर की हमारी हैसियत हो गई है।...भिक्षु! ऐसे पुराने समय से हमारे महापुरुष भीख मांगते रहे हैं। लेकिन उन महापुरुषों ने भी कभी न सोचा होगा न बुद्ध ने न महावीर ने न विनोबा ने। उनने भी कभी न सोचा होगा कि ऐसा वक्त भी आएगा कि पूरा देश भिखारी हो जाएगा। और पूरा देश भिक्षा मांगने पर जीएगा। वैसे हमारे शास्त्रों में लिखा है कि भिक्षा की वृत्ति श्रेष्ठतम है। बाकी सब वृत्तियों में कभी चोरी-झूठ, बेईमानी भी करनी पड़ती है। भिक्षा की वृत्ति एकदम पवित्र है। ऐसा लगता है कि शास्त्रों की ये बात पूरे देश ने ही स्वीकार कर ली है। हम सारी दुनिया में भीख मांगने का काम कर रहे हैं।
 यह कितने दिन चलेगा? यह ज्यादा देर नहीं चल सकता है। चलना भी नहीं चाहिए। मैं तो यह मानता हूं कि जो हमारी सहायता कर रहे हैं वे हमारे मित्र नहीं हैं। सारी दुनिया को हमें सहायता करने से इंकार कर देना चाहिए। मैं तो मानता हूं कि सारी दुनिया को कह देना चाहिए, तुम समझो, तुम्हारा काम समझे। तुम बड़े आध्यात्मिक लोग हो, तुम बड़े ज्ञानी हो, जगतगुरु हो, तुम अपनी व्यवस्था खुद ही करो। तुम्हारी संस्कृति बड़ी महान है, तुम खुद उसे बचाओ।
एक गेहूं का दाना दुनिया से भारत की तरफ आना चाहिए और न सहानुभूति की एक नजर आनी चाहिए तो शायद उस परेशानी में हम कुछ चिंतन करें। और शायद आगे फिर कुछ करें।
लेकिन उनकी दया हमारे लिए महंगी पड़ रही है। हम उनकी दया के नीचे ऐसे निश्चिंत हो गए हैं जैसे धूप में, मरुस्थल में चलने वाला कोई यात्री किसी वृक्ष की छाया के नीचे बैठ कर भूल जाए कि चारों तरफ जलती हुई धूप है और मरुस्थल है। यह छाया बहुत देर टिकने वाली नहीं है, क्योंकि उधार छायाएं बहुत देर नहीं टिक सकतीं। और उधार छायाएं बहुत जल्दी खतरनाक सिद्ध हो सकती हैं।
तो मैं आपसे यह कहना चाहता हूं, युवक क्रांतिदल युवकों के विचार करने के लिए और भारत को अतीत से छुड़वाने के लिए और भविष्य उन्मुख करने के लिए विचार का एक वातावरण सारे देश में पैदा करे। विचार की एक क्रांति जरूरी है। इस देश में विचार की क्रांति कभी हुई ही नहीं है। वैचारिक क्रांति का हमें समझ में ही नहीं आता कि क्या अर्थ होता है।
तो दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं कि वैचारिक क्रांति के लिए एक वातावरण जन्माना है। वैचारिक क्रांति का अर्थ होता है कि जिन विचारों के आधार पर हम अब तक जीते थे। जरूर उन विचारों में कहीं कोई बुनियादी भूल है। अन्यथा हम इतनी बुरी तरह दलित, पीड़ित, दास और गुलामी से न गुजरते। हमारे मूल विचारों की जड़ में कहीं कोई भूल है। हम कहीं न कहीं गलत सोचने के आधार पर अपने देश का भवन खड़ा कर लिए हैं।
एकाध-दो बातें मैं सुझाना चाहता हूं। जैसे भारत हजारों साल से पदार्थ की, मैटर की निंदा कर रहा है, उपेक्षा कर रहा है। जो कौम पदार्थ की निंदा और उपेक्षा करेगी। वह कौम दीन और दरिद्र हो जाएगी। यह सुनिश्चित है। अगर कोई कौम शरीर की निंदा करने लगे तो वह कौम शरीर से कमजोर हो जाए, दीन-हीन हो जाए यह भी आश्चर्य नहीं है। हम हजारों साल से शरीर के विरोध में पदार्थ के विरोध में खड़े हैं। और ध्यान रहे आत्मा का मंदिर शरीर के द्वारा और कहीं खड़ा नहीं हो सकता। और यह भी ध्यान रहे कि अगर आध्यात्म की ऊंचाइयां छूनी हों, तो भी पदार्थ की ही नींव पर तुम ऊंचाइयों को छूने के प्रयास किए जा सकते हैं।
कोई एक मंदिर बनाए और कहे कि हम अपने मंदिर में सिर्फ स्वर्ण-शिखर ही रखेंगे, पत्थरों की नींव नहीं डालेंगे तो वह मंदिर कभी खड़ा नहीं होगा। स्वर्ण-शिखरों से मंदिर खड़े नहीं होते। पत्थरों की नींव भरनी पड़ती है। नींव जमीन में छिप जाती है, दिखाई भी नहीं पड़ती फिर ऊपर स्वर्ण-कलश भी चढ़ाए जा सकते हैं।
अध्यात्म जीवन का स्वर्ण-कलश है।शरीर और पदार्थ जीवन की नींव हैं।
ये देश हजारों साल से शरीर और पदार्थ को इंकार कर रहा है। इसलिए हम विज्ञान को कोई जन्म नहीं दे सके। और जो विज्ञान को जन्म नहीं दे सकेगा वह धीरे-धीरे शक्तिहीन, दीन और दरिद्र हो जाएगा। क्योंकि विज्ञान तरकीब है स्वस्थ होने की, विज्ञान तरकीब है समृद्ध होने की। विज्ञान तरकीब है शक्तिशाली होने की। पदार्थ के इंकार ने हमें अवैज्ञानिक बना दिया है। और पदार्थ के इंकार ने हमें आध्यात्मिक बना दिया होता तो भी ठीक था वह भी नहीं हो सका है। क्योंकि दीन-दरिद्र लोग आध्यात्मिक नहीं हो सकते। अध्यात्म आखिरी लक्जरी है। अध्यात्म समृद्धि का आखिरी विराम। जब जीवन की सब जरूरतें पूरी हो जाती हैं और कोई जरूरत शेष नहीं रह जाती। तब परमात्मा की जरूरत पैदा होती है। वह अंतिम जरूरत है। आखिरी आवश्यकता है जो आदमी की पैदा होती है।
इसलिए मैं आपसे कहता हूं कि रूस आने वाले पचास वर्षों में आध्यात्मिक होने को मजबूर हो जाए। यद्यपि रूस के नेता ऐसा नहीं सोचते। और रूस के नेता सोचते हैं कि रूस पूर्ण भौतिकवादी है। लेकिन आने वाले पचास वर्षों में रूस निरंतर आध्यात्मिक होता चला जाएगा। उसे होना ही पड़ेगा। आने वाले पचास वर्षों में अमरीका में अध्यात्म के नये से नये मंदिर निर्मित होंगे। उसका कारण है कि जब कोई कौम पूरी तरह समृद्ध हो जाती है और जब जीवन के नीचे की जरूरतें पूरी हो जाती हैं तो ऊपर की जरूरतों की याद आनी प्रारंभ होती है। जब कोई पेट भर जाता है तो संगीत भी जन्मता है। और जब तन ढंक जाता है तो आत्मा को ढंकने का ख्याल भी पैदा होता है। और जब जिंदगी की पृथ्वी पर सब सुविधा हो जाती है तो आंखें आकाश की तरफ उठनी शुरू हो जाती हैं।
मनुष्य निरंतर खोजना चाहता है। मनुष्य एक खोज है। और जब पदार्थ की खोज पूरी होने लगती है। तो परमात्मा की खोज शुरू हो जाती है। भारत पदार्थ को, धन को, समृद्धि को इंकार करके आध्यात्मिक नहीं हो पाया। वैज्ञानिक तो हो ही नहीं सकता। इस देश में पुनर्विचार और विचार की क्रांति पैदा करने का अर्थ है हमने अब तक जिन आधारों पर अपने को सोचा और समझा है उन आधारों को फिर से हिला कर देखने की जरूरत है।
तो मैं आपसे कहना चाहता हूं, भारत में भौतिकवाद की एक अनिवार्य लहर आवश्यक है। और ध्यान रहे भौतिकवाद और अध्यात्मवाद में कोई विरोध नहीं है। शरीर और आत्मा में कोई विरोध नहीं है। अगर शरीर और आत्मा में विरोध हो तो दोनों एक क्षण साथ न रह सकें। और परमात्मा और पदार्थ में भी कोई विरोध नहीं है। अन्यथा परमात्मा पागल है कि पदार्थ को जन्म दे! और संसार और मोक्ष में भी कोई विरोध नहीं हो सकता। अन्यथा संसार कभी का मिट जाए सिर्फ मोक्ष रह जाए।
सीढ़ियां हैं विरोध नहीं। शरीर पहली सीढ़ी है, पदार्थ पहली सीढ़ी है परमात्मा दूसरा। शरीर पर यात्रा करके भी आत्मा तक पहुंचना होता है और पदार्थ की यात्रा करके ही परमात्मा तक।
भारत ने एक बुनियादी भूल की है, सिर्फ परमात्मा में जीने की। उसका परिणाम बहुत महंगा हुआ है। हमें अपने विचार के सारे आधार बदल देने पड़े। हमें...पहुंचना पड़ेगा। तो एक भारत में एक भौतिकवादी चिंतन के जन्म की जरूरत है। अध्यात्मवाद के विरोध में नहीं, अध्यात्मवाद की बुनियाद बनाने के लिए।
दूसरी बात भारत हजारों साल से इतने दुख में रहा है, इतनी पीड़ा में रहा है कि उसने धीरे-धीरे दुख और पीड़ा को भी सम्मान देना शुरू कर दिया है। और जब कोई समाज दुख और पीड़ा को सम्मान देने लगे तो उसकी सुख की खोज बंद हो जाती है।
भारत ने इतना दुख सहा है कि धीरे-धीरे उसने दुख को ही जीवन मान लिया है। हम ऐसा समझने लगे हैं कि दुख ही जीवन है। और जब कोई ऐसा समझने लगे कि दुख ही जीवन है। जब कोई ऐसा समझने लगे कि बीमारी ही स्वास्थ्य है, तो फिर स्वास्थ्य के उपाय बंद हो जाएंगे। और जब कोई ऐसा समझने लगे कि दुखी होना पृथ्वी पर अनिवार्य है, पृथ्वी पर सुखी नहीं हुआ जा सकता तो फिर पृथ्वी पर दुख को पैदा करने की श्रम, चेष्टा और संकल्प बनते गए।
निरंतर दुख में रहने के कारण हमने दुख को सम्मान देना शुरू कर दिया है। हमने नये-नये नाम रख लिए हैं दुख के लिए। अगर कोई आदमी दुखी है, दरिद्र है, दीन है और अपनी दीनता, अपने दुख, अपनी दरिद्रता को मिटाने के लिए कुछ भी नहीं करता है बल्कि उसे वरण कर लेता है तो हम कहते हैं परम संतोषी है। इस परम जड़ को हम परम संतोषी कहते हैं।
मनुष्य की बुद्धिमत्ता इसमें निर्भर है कि वह अपने दुख को कितना कम करे, अपने सुख को कितना बढ़ाए। मनुष्य के जीवन की यात्रा निरंतर सुख को बढ़ाने की यात्रा है। पहले दुख से सुख और फिर सुख से आनंद। लेकिन जो दुख को ही जीने लगेगा वह सुख तक नहीं पहुंचेगा और जो सुख तक नहीं पहुंचता वह कभी आनंद तक नहीं पहुंचता।
दुख से जो बचता है एक दिन सुख पर पहुंचता है और जब सुख पर पहुंचता है तो अचानक पाता है कि सुख भी दुख का ही एक नाम है। और तब वह आनंद की यात्रा में आगे बढ़ता है। हम दुख में ही संतुष्ट हो गए हैं। अगर कोई आदमी दुख में संतुष्ट है तो हम उसका बड़ा आदर करते हैं। अगर ऐसे लोगों को आदर मिलेगा तो फिर ठीक है। दुख के बाहर जाने का कोई मार्ग नहीं रह जाएगा।
और यहीं तक नहीं कि लोग दुख में संतुष्ट हों ऐसे लोग भी हैं जो अपने ऊपर स्वेच्छा से दुख आरोपित करते हैं। उनको हम कहते हैं तपस्वी। उनको हम तपश्चर्यावान कहते हैं। जो लोग दुख में जीते हैं और शांति से जी लेते हैं। उनको कहते हैं सहिष्णु, संतोषी और जो लोग उनसे भी आगे बढ़ जाते हैं कि दुख को निमंत्रण दे आते हैं। कांटे बिछा कर बिस्तर बना लेते हैं। नंगे धूप में खड़े हो जाते हैं। भूखे मरते हैं या उपवास करते हैं उनको हम कहते हैं वे तपश्चर्या कर रहे हैं। इनको हम परम आदर देते हैं।
जब कोई कौम ऐसे लोगों को आदर देने लगे जो दुख को बुला कर घर ले आते हैं तो वह कौम पागल हो जाएगी, विक्षिप्त हो जाएगी। यह पागलपन का लक्षण है, और कुछ भी नहीं। स्वस्थ मनुष्य दुख से मुक्त होना चाहता है। अस्वस्थ मनुष्य दुख को और बुला कर घर ले आता है। कोई भी स्वस्थ चित्त व्यक्ति दुख को आमंत्रण नहीं देता। स्वस्थ चित्त व्यक्ति दुख से ऊपर उठने के निरंतर प्रयास करता है। रुग्ण चित्त, साइको चित्त, न्यूरोटिक जिसको हम कहें। जिसके मन में कुछ रोग पैदा हो गया है। वही दुख को निमंत्रण दे आता है।
अगर एक आदमी के पैर में कांटा गड़ता हो तो स्वस्थ आदमी कांटे को निकालेगा। लेकिन ऐसा आदमी हो सकता है जो संतोष रख ले कि कांटा लग गया है तो ठीक है। तो उसे हम आदर देंगे। लेकिन इस देश में धीरे-धीरे आदर इतना ज्यादा दिया है कांटे लगे आदमी को कि कुछ लोग जिनके पैर में कांटा नहीं लगा है वे जाकर कांटा लगा लेते हैं। क्योंकि इस देश में दुखी हुए बिना आदर नहीं मिल सकता।
अगर कोई आदमी पैदल यात्रा करने लगे तो हम बहुत आदर देंगे। पदयात्री को हम बड़ा आदर देंगे कि बड़ा महान कार्य हो रहा है। लेकिन हमें पता नहीं है कि जिस देश में पदयात्री को आदर मिलेगा उस देश में राकेट पैदा नहीं होगा। और जितने पदयात्री हैं वे सब उस देश के दुश्मन हैं क्योंकि वे राकेट को उस देश में पैदा नहीं होने देंगे। आदर मिलेगा पदयात्री को तो चंाद पर जाने के लिए कोई पदयात्रा तो हो नहीं सकती। चांद पर जाने के लिए तो राकेट चाहिए। लेकिन राकेट तो वे लोग विकसित करेंगे जो निरंतर आवागमन के लिए श्रेष्ठतम साधनों का विकास करें। पैर आदमी का निकृष्टतम साधन है जो प्रकृति से मिला है, जिसमें कोई विकास करने की जरूरत नहीं है। अगर पदयात्री को हमने आदर दिया तो हम ये कह रहे हैं कि जैसा आदमी को प्रकृति ने बनाया है। वह आदर योग्य है। फिर विकास का उपाय नहीं रह जाता। विकास का उपाय तो तभी निकल सकेगा जब हम अपने आदर के बिंदु बदलें।
तो मैं आपसे कहना चाहता हूं भारत में दुखी आदमी का आदर हमारे प्राण लिए ले रहा है। सुसाइडल है, आत्मघाती है। भारत में सुख का सम्मान बढ़ना चाहिए। विचार का हमें नियम बदलना पड़ेगा। दुखी आदमी को आदर देना बंद करना पड़ेगा। दुख को वरण करने वाले आदमी को,तपश्चर्या में रत है ऐसा कहना बंद करना पड़ेगा। और मैं आपसे कहता हूं जिस दिन आप आदर देना बंद कर देंगे आपके सौ तपस्वियों में से निन्यानबे एकदम विदा हो जाएंगे। उनका कोई पता नहीं चलेगा कि वे कहां चले गए। आपका आदर उनको अपनी मूढ़ता में थिर रखने में सहयोगी होता है।
मैं तो आपसे कहता हूं कि किसी भी मूढ़तापूर्ण बात को आदर देने लगें। गांव में ऐसे लोग पैदा हो जाएंगे जो वह काम भी करके दिखा देंगे।
गांधीजी के आश्रम में एक सज्जन थे, भंसाली। वे छह-छह महीने तक गाय का गोबर खाकर ही रह जाते। उनको गांधीजी भी आदर देते थे, पूरा आश्रम आदर देता था कि महान तपस्वी हैं। फिर उनका पागलपन बढ़ता ही चला गया। फिर वे गाय का गोबर ही खाने लगे। और जब उन्होंने देखा कि गाय का गोबर खाने के कारण उनकी तपश्चर्या की बड़ी ख्याति पहुंच रही है। और ऐसी हालत आ गई कि गांधीजी के आश्रम में कोई आए तो पहले भंसाली को दर्शन करने जाए क्योंकि वे महान हैं। उतने तो गांधीजी भी उतने त्यागी नहीं हैं। गोबर तो वे भी गऊ का न खाते।
अगर कोई मुल्क समझदार हो तो भंसाली जैसे लोगों को पागलखाने में इलाज करवाना चाहिए। लेकिन मुल्क नासमझ है। और मुल्क ने न मालूम कैसे नियम बना रखे हैं कि वह ऐसे लोगों को आदर दिए चला जाता है। फिर उनका पागलपन बढ़ता चला जाता है। फिर उनकी विक्षिप्तता बढ़ती चली जाती है। फिर वे अपने हाथ से दुख की नई-नई ईजादें करने लगते हैं।
दुख की ईजाद नहीं करनी है। बहुत दुख हम झेल चुके हैं। अब हमें सुख की ईजाद करनी है। और सुख की ईजाद करनी हो तो दुख को, तप को आदर देना बंद करना पड़ेगा। भारत को गरीब बनाए रखने में भारत के तपस्वियों का बुनियादी हाथ है। क्योंकि जब तक कोई पूरी कौम सुख को प्रेम न करे तब तक सुख के साधन पैदा नहीं किए जा सकते। और जब तक पूरी कौम सुख के लिए संलग्न न हो जाए तब तक कभी सुख के साधन निर्मित नहीं हो सकते।
हम सुख से भयभीत लोग। सुख की खोज करने वाला पापी मालूम पड़ताहै। पुण्यात्मा को मालूम पड़ता है कि दुख की खोज करता है। क्या पाप और पुण्य की यह परिभाषा जारी रखनी है कि इस परिभाषा को बदलना है? युवकों को इसे बदलने की दिशा में कदम उठाने पड़ेंगे।
सुखी आदमी को अपने मन में आत्मनिंदा की कोई जरूरत नहीं है। हिंदुस्तान की हालत उलटी है। यहां अगर कोई आदमी सुख खोज लेता है तो अपने आप को निंदित समझता है। वह समझता है कि मैं कमजोर हूं, पापी हूं, वासनाग्रस्त हूं इसलिए सुख खोज रहा हूं। नहीं तो मैं भी तपश्चर्या करता। इसीलिए सुखी आदमी को आप देखेंगे दुखी आदमियों के पैरों में जाकर सिर रखता मिलेगा। हिंदुस्तान के नंगे साधु के पास हिंदुस्तान का करोड़पति सिर झुकाता हुआ मिलेगा। उसका और कोई कारण नहीं है। ये आत्मनिंदित हैं, ये सेल्फ-कंडेम्ड है ये समझ रहा है कि मैं बड़ा पापी हूं ये बड़ा पुण्यात्मा है। मैं कमजोर आदमी हूं इस जन्म में नहीं अगले जन्म मैं भी तपश्चर्या करूंगा। जब तक नहीं बनता है तब तक तपस्वी के कम से कम पैर तो छूने चाहिए।
हिंदुस्तान में सुख की कोई प्रतिष्ठा नहीं है। सुख अप्रतिष्ठित है। ये सुख हम कैसे पैदा कर पाएंगे? सारी दुनिया सुख को एक तरह की प्रतिष्ठा देगी। और ध्यान रहे ये मैें और भी बात आपसे कहना चाहता हूं । जो लोग दुख को आदर देते हैं धीरे-धीरे दूसरे को दुख देने में रस लेने लगते हैं। सैडिस्ट हो जाते हैं या मैसोचिस्ट हो जाते हैं। या तो खुद को दुख देते हैं या दूसरों को दुख देते हैं। जो आदमी सुख की निंदा करता है वह दूसरे को सुख कभी भी नहीं दे सकता। क्योंकि जिस चीज की निंदा की जाती है वह देना कैसे संभव है! ध्यान रहे जो आदमी खुद सुखी हो सकता है वही आदमी दूसरों के लिए भी सुख का साथी बन सकता है। अन्यथा कभी भी सुख का साथी नहीं बन सकता। तो सारा मुल्क एक-दूसरे को दुख देने में उत्सुक है। और हजारों-हजारों तरकीबों से हम एक दूसरे को दुख देते हैं। हम अपने सुख की उतनी फिकर नहीं करते। जितना कोई दूसरा सुखी हो जाए इसकी चिंता में रहते हैं कि कहीं कोई दूसरा सुखी न हो जाए। हम उसकी चिंता में रत रहते हैं कि किसी आदमी को कैसे दुखी किया जाए। एक तरह का विक्षिप्त रोग पैदा हो गया है सबको दुखी करने का, दुखी देखने का। और उसके पीछे कारण है, मनोवैज्ञानिक कारण हैं। हमने सुख को आदर नहीं दिया इसलिए ऐसी स्थिति पैदा हो गई है।
तो मैं युवकों से कहना चाहता हूं कि वे देश के मन को सुख की दिशा में प्रवाहित करें। सुखी व्यक्ति ही, खुद का सुख खोजने वाला व्यक्ति ही दूसरे के सुख की भी चिंता और विचार करता है।
अब एक फकीर सड़क पर नंगा पड़ा हुआ है। भूखा पड़ा हुआ है, धूप में पड़ा हुआ है उससे जाकर आप कहिए कि हिंदुस्तान बहुत गरीब है। वह कहेगा, कैसी गरीबी! गरीबी का क्या मतलब है! हम तो यहां भी बड़े आनंद में हैं।
एक नंगे पड़े हुए फकीर को यह कभी खयाल में नहीं आ सकता है कि देश नंगा है तो दुख में होगा। जिसने खुद के दुख को स्वीकार कर लिया है वह दूसरे के दुख के प्रति कठोर हो जाता है। इनसेंसिटिव हो जाता है। उसका दूसरे के दुख की संवेदना कम हो जाती है। दूसरे की दुख की संवेदना तभी हो सकती है जब हमें सुख का रस हो और हमें अपने दुख की पीड़ा हो।
हिंदुस्तान में अकाल पड़ता है तो हिंदुस्तान के मन में कोई बहुत पीड़ा पैदा नहीं होती। अमरीका और स्विटजरलैंड और इंग्लैंड में उससे ज्यादा पीड़ा पैदा होती है। उसका कारण क्या है? उसका कारण यह है कि वे सुख का रस ले रहे हैं और सुख की दिशा में गतिमान हो रहे हैं। उनकी कल्पना के बाहर है कि लाखों लोग भूखे मर रहे हंै। हमारी कल्पना में इससे कोई तकलीफ नहीं होती। हम तो भूखे मर रही रहे हैं। वहां भूखे मरने को हमने स्वीकार कर लिया है, जीवन मान लिया हैतो हमारे मन में कोई तकलीफ नहीं होगी।
सड़क पर अगर एक आदमी भीख मांगता दिखता है तो हमारे मन में कोई पीड़ा नहीं होती। पश्चिम के मन को पीड़ा हो जाती है। यह अमानवीय मालूम पड़ता है कि एक आदमी को भीख मांगना पड़े। अगर सुरेंद्रनगर में कोई भीख मांग रहा है तो सुरेंद्रनगर के लोगों को ऐसा नहीं लगता कि यह सुरेंद्रनगर का अपमान है? ऐसा नहीं लगता? भीख मांग रहा है? किसी को कहीं कोई उससे छूता नहीं है हृदय पर। और अगर कोई दो पैसे उस उस भिखमंगे को दे भी देता है, तो दो पैसे देने में पुण्यात्मा होना अनुभव करता है। यह अनुभव करता है कि उसने कोई बड़ा पुण्य किया है।
एक भिखमंगा गांव में जी रहा है इसलिए मैं पापी हूं ऐसा कोई अनुभव नहीं करता। एक भिखमंगे के कारण अनेक लोग दो-दो पैसा करके पुण्यात्मा जरूर हो जाते हैं। लेकिन पूरा गांव पापी है, ऐसा अनुभव नहीं करता, कि गांव में एक आदमी को भीख मांगनी पड़ रही है तो पूरा गांव किसी तरह जिम्मेवार है। यह कोई अनुभव की बात...।
हमारी संवेदना कम हो गई है। और संवेदना को मारने को हम बड़ी साधना समझते हैं कि आदमी जितना जड़ हो जाए, जितना बोथला हो जाए उसकी सेंसिविटी जितनी मर जाए। धूप उसे धूप मालूम न पड़े, ठंड उसे ठंड मालूम न पड़े, कांटा उसे कांटा न मालूम पड़े; धूप उसे धूप न मालूम पड़े ऐसे आदमी को हम कहेंगे सिद्धपुरुष है, परमहंस है।
लेकिन ऐसे आदमी का क्या मतलब होता है। ऐसे आदमी का मतलब होता है उसकी संवेदनशीलता मर गई। और जिसकी अपने प्रति संवेदनशीलता मर जाती हैउसकी सबके प्रति संवेदनशीलता मर जाती है। इसलिए हिंदुस्तान में करोड़ों वर्षों से संन्यासी हैं, साधु हैं लेकिन उनके मन में हिंदुस्तान की दीनता और दरिद्रता की कोई पीड़ा पैदा नहीं होती। नहीं हो सकती। वे खुद ही पीड़ा के प्रति बिलकुल सख्त और कठोर हो गए हैं।
हिंदुस्तान के मन को सुख-आकांक्षी बनाना है। दुख से ऊपर उठने की योजना उसे देनी है। सुख का आदर और सम्मान बढ़ाना है। संवेदनशीलता बढ़ानी है, घटानी नहीं है। संवेदनशीलता जितनी बढ़ेगी उतना जीवन सुंदर और सुखी बनाया जा सकता है।
लेकिन हम कहते हैं उस आदमी को परमहंस--जो वहीं पाखाना कर ले और वहीं बैठ कर खाना खा ले, तो हम कहेंगे यह परमज्ञानी। इसे पाखाने में और खाने में कोई भेद नहीं रहा। लेकिन अगर ऐसे परमज्ञानी मुल्क में बढ़ते चले जाएं, तो ध्यान रहे, हमारा खाना और पाखाना करीब-करीब एक जैसा होता चला जाएगा। धीरे-धीरे परिणाम यह हो जाएगा कि हम जो खाएंगे उसे दुनिया में कोई खाने को कोई राजी नहीं होगा। जिसे हम खाना कह रहे हैं उसे पश्चिम की गाय और भैंस भी इंकार कर देगी खाने से।
वहां का...उसको गाय को देने को भी इंकार कर देगा कि यह खाना गाय को देने योग्य नहीं है। लेकिन इसमें हम कभी न खोजेंगे कि हमारे भीतर जो हमने सम्मान दिए हैं वे ही इन सब चीजों पर हमें ले आए। हम जो खाना खा रहे हैं आज पृथ्वी पर उसे कोई खाने को राजी नहीं होगा। उसमें कुछ भी नहीं है। और अगर भोजन ठीक न हो तो शरीर अस्वस्थ हो जाए, शरीर शक्तिहीन हो जाए। और अगर भोजन ठीक न हो मस्तिष्क की प्रतिभा क्षीण हो जाए तो हैरानी क्या है! कोई आश्चर्य नहीं है कि हम आइंस्टीन पैदा नहीं कर पाते। हम आइंस्टीन पैदा कर ही नहीं सकते। आइंस्टीन पैदा करने के लिए जितना प्रबल ऊर्जा मस्तिष्क की चाहिए वह कहां से आए, वह कैसे आए! क्या कभी आपने सोचा आदिवासियों ने अब तक एक बुद्ध, एक महावीर, एक कृष्ण क्यों पैदा नहीं किया? एक बड़ा गणितज्ञ, एक बड़ा वैज्ञानिक पैदा नहीं किया?
मस्तिष्क भी पदार्थ से बनता है। वह जो मस्तिष्क के भीतर ऊर्जा आती है वह भी पदार्थ से आती है। और अगर उसमें ठीक प्रोटीन और ठीक विटामिन और कुछ भी न मिलते हों तो आसमान से मस्तिष्क भी नहीं उतरता।
आत्मा भी बहुत अर्थों में भोजन पर निर्भर होती है। लेकिन इस देश ने कुछ अजीब हालत पैदा कर ली है। इसको तोड़ देना पड़ेगा। और इसके तोड़ने के लिए एक आमूल विचार की जरूरत है। तो युवकों से मैं कहना चाहूंगा कि वे देश के मन से पुरानी जड़ों को उखाड़ें और एक-एक जड़ को पुनर्विचार करने के लिए देश को मजबूर कर दें। और किसी भी चीज को अब बिना विचार किए मानने के लिए राजी न रहें। हो सकता है इसमें कुछ वे जड़ें भी टूट जाएं जो नहीं टूटनी थीं। लेकिन उनको बचाने के लिए अगर गलत जड़ें बच जाएं तो ज्यादा खतरा है। मैं मानता हूं कि अगर ठीक जड़ें भी टूट जाएं पुराने जाल को तोड़ने में तो भी चिंता नहीं करनी है क्योंकि ठीक को हम फिर-फिर आरोपित कर लेंगे। लेकिन इतना गंदा जाल इकट्ठा हो गया है घर में कि अगर उस सफाई में, उस कचरे को और गंदगी को निकालने में घर का कुछ ठीक सामान भी बाहर चला जाए तो चिंता नहीं लेनी है। एक दफा कचरा साफ हो जाए तो ठीक को पुनर्निमित किया जा सकता है। लेकिन हमारा मुल्क बहुत डरा हुआ है, वह कहता है, कहीं कुछ ठीक न टूट जाए।
मैंने सुना है कि चीन में जैसे ही माओ की सत्ता आई, तो उसने एक नियम बनाया, और वह नियम बड़ा कीमती है। सारी दुनिया में नियम है अदालतों का यह कि चाहे सौ अपराधी छूट जाएं लेकिन एक निरपराध व्यक्ति को सजा नहीं मिलनी चाहिए। सारी दुनिया का कानून यह मान कर चलता है कि चाहे सौ अपराधी छूट जाएं लेकिन एक निरपराध व्यक्ति को दंड नहीं मिलना चाहिए। माओ चीन में आया तो उन्होंने अदालत का पूरा नियम बदल दिया। और उन्होंने कहा कि चाहे सौ निरपराध व्यक्तियों को दंड मिल जाए लेकिन एक अपराधी को हम न छूटने देंगे।
इसका परिणाम हुआ। इसका आमूल परिणाम हुआ। इसका परिणाम ये हुआ कि निरपराधी को सजा देने में चिंता उन्होंने छोड़ दी कोई फिकर नहीं है। निरपराधी सूली पर लटक जाए, लटक जाए लेकिन अपराधी को हम न बचने देंगे। इसके परिणाम बहुत व्यापक हुए। इसका परिणाम ये हुआ कि अपराधी का जिंदा रहना मुश्किल हो गया।
जिंदगी के संबंध में भी हम यही कहते हैं कि कहीं एक ठीक बात न छूट जाए। तो चाहे एक ठीक बात बचाने को सौ गलत बातें बचानी पड़ें तो हम बचा लेते हैं। जिंदगी का ये नियम हमें बदल देना पड़ेगा।
मैं आपसे कहना चाहता हूं सौ ठीक चीजें टूट जाएं तोड़ देना है लेकिन एक गलत चीज को नहीं बचने देना है। तो ही हम गलत चीजों से मुक्त हो पाएंगे अन्यथा नहीं। और ध्यान रहे, ठीक चीज फिर पैदा की जा सकती है। क्योंकि जो ठीक है उसकी हमें रोज जरूरत है, उसके बिना हम रह न सकेंगे। उसे हम पैदा कर ही लेंगे।
हर एक ठीक चीज के पास सौ गलत चीजों का जाल खड़ा हो गया है। और उस एक को बचाने के लिए वह सौ गलत...को बचाना पड़ रहा है। इसकी हमें हिम्मत करनी पड़ेगी। विध्वंस की हिम्मत करनी पड़ेगी। तो ही हम निर्माण कर सकते हैं अन्यथा निर्माण नहीं हो सकता है।
तो मैं युवक क्रांति दल के लिए मेरा एक ही संदेश है कि किसी भी भांति विध्वंस की तैयारी के लिए देश को तैयार करना है। रचनात्मक कार्यक्रम बहुत हो चुके। उनसे अब क्षमा चाहिए। क्योंकि ध्यान रहे, रचनात्मक कार्यक्रम सदा पुराने में जोड़ होता है। रचनात्मक कार्यक्रम सदा पुराने में एडिशन होता है। अब तो देश को विध्वंसात्मक कार्यक्रम चाहिए। कंस्ट्रक्टिव नहीं डिस्ट्रक्टिव प्रोग्राम चाहिए।
विनोबाजी ने इतने दिन तक रचनात्मक कार्यक्रम चलाए। गांधीजी ने इतने दिनों तक रचनात्मक कार्यक्रम चलाए। हमें रचनात्मक शब्द भी बड़ा प्रेमपूर्ण लगता है। हमें लगता है कि कुछ रचनात्मक!
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कुछ रचनात्मक कार्यक्रम बताइये। क्यों? रचनात्मक का मतलब होता है जो मौजूद है उसमें कुछ जोड़ने वाला। और जो मौजूद है वह इतना सड़ गया हैकि उसमें अब कुछ भी नहीं जोड़ना है। उसमें जोड़ने से उस मौजूद के बचने का इंतजाम पैदा होता है और कुछ भी नहीं होता है। जैसे एक मकान गिरने वाला है और कोई कहता है, कोई रचनात्मक कार्यक्रम दो तो एक खंभा लगा दीजिए दीवाल में चार ईंटे जोड़ कर और एक सहारा लगा दीजिए कि यह रचनात्मक कार्यक्रम है।
नहीं, मैं कहता हूं, इस देश का भवन इतना जरा-जीर्ण हो गया है कि अब इसकी रचना में एक ईंट भी खर्च करना पागलपन है। क्योंकि ये पूरा मकान तो गिरेगा उसके साथ वह रचना के लिए जितनी ईंटें लगाई थीं वे भी फिजूल चली जाएंगी। अभी रचना नहीं करनी है। पहले एक बार इस मुल्क के मकान को पूरा गिरा देना है। फिर रचना हो सकती है। फिर ही रचना हो सकती है। विध्वंस के लिए मुल्क का मन अगर तैयार हो जाए तो ही रचना हो सकती है। विध्वंस पहला चरण होगा सृजन दूसरा। अब सृजन की बात नहीं करनी है। अब सृजन की बात ही छोड़ देनी है मरे हुए मन को वह बात बहुत अपील करती है। वह मरा हुआ मन कहता है कुछ जोड़ने की बात बताओ, मिटाने की बात मत करो कुछ जोड़ो, कुछ निर्माण करो, कुछ निर्मित करो।
पांच हजार साल से हम वही कर रहे हैं। उसका अंतिम परिणाम ये हुआ है कि पांच हजार साल पहले बनाया गया मकान अब भी जिंदा है। क्योंकि उनमें हम रचनात्मक जोड़ लगाते ही चले गए।अब उन मकानों में रहना मुश्किल है। क्योंकि उन मकानों के गिर जाने का किसी भी दिन खतरा है। उनमें भीतर तो रहना मुश्किल है। लेकिन बाहर हम रचनात्मक कार्यक्रम जारी रख सकते हैं। मकान के भीतर रहना मुश्किल हो गया है। बाहर योजनाएं चलती रहती हैं कि और चार डंडे जोड़ कर लगा दो, और नया रोगन कर दो, और नया पुताई कर दो। फिर दीवाली आ गई अब फिर इसको फिर...ठीक कर दो। फिर ये नया मालूम होने लगे।
लेकिन अब यह आगे महंगा पड़ जाएगा। सारी दुनिया ने अपने मकान बदल लिए हैं सिर्फ हम अपने पुराने मकान से चिपके हुए हैं। या तो हमें ये मकान गिराना पड़ेगा। या इस मकान के साथ हम सबके गिर जाने का डर है। ये मकान तो गिरेगा। कहीं ऐसा न हो कि इसके नीचे हम सब दब कर मर जाएं।
इस संबंध में और बात आपसे संाझ करूंगा। इतना ही कहना चाहता हूं कि युवक अपने मन में विध्वंस के लिए भी एक आदर का भाव ले ले। सृजन के लिए आदर का भाव बिलकुल स्वाभाविक है। विध्वंस के लिए आदर का भाव लेना बहुत क्रांतिकारी कदम है। और जो भी रेवोल्यूशनरी माइंड है, जो भी क्रांतिकारी विचारक है, वह विध्वंस की पहले तैयारी करेगा। वह कहेगा, हम तोड़ना चाहते हैं। निर्माण करेंगे लेकिन पहले हम तोड़ेंगे। पहले हम इसको मिटाते हैं जिससे हम परेशान हो रहे हैं। फिर हम नये को बना लेंगे।
नये मंदिर बनाने पड़ेंगे। बिना मंदिरों के रहना मुश्किल है। लेकिन पुराने मंदिर गिराए बिना नये मंदिर बनाने की बात भी नहीं उठानी है। क्योंकि नये मंदिर बनाने की बात पुराने को गिराए बिना उठाने पर खतरा यह पैदा होता है कि सब पुराने मंदिर दीवारों पर नया रंग-रोगन पोत कर घोषणा करने लगते हैं कि ये तो नये हो गए अब और नये की क्या जरूरत है।
पुराना नये की तरह कवायद करता है। वह नये की तरह रंग-रोगन बता कर प्रकट करना चाहता है कि नये की कोई जरूरत नहीं है। इस देश की जड़ों में पुरानी जड़ों को खोज लेना है, उन्हें उखाड़ कर फेंक देना है। हो सकता है, पूरा वृक्ष गिर जाए। लेकिन जिंदा कौमें कभी इसकी फिक्र नहीं करतीं कि क्या गिर जाएगा। क्योंकि जिंदा कौमें बनाने की हिम्मत सदा अपने भीतर रखती हैं। सिर्फ मरी हुई कौमें डरती हैं कि कुछ गिर न जाए, कुछ टूट न जाए। क्योंकि फिर हम बना तो न सकेंगे। फिर हम बना तो न सकेंगे। फिर हम बना न सकेंगे। ये डर उन्हें गिराने से रोकता है। और जितना वे डरते चले जाते हैं उतना ही नये को बनाने की जगह नहीं रह जाती। नये को बनाने का उपाए नहीं रह जाता।
और ध्यान रहे, जब तक पुराना बना रहता है तब तक नये को बनाने की जरूरत इतनी पीड़ादायी नहीं हो पाती कि हम नये को बनाने को निकल पड़े। अगर पुराना मकान मौजूद है तो हम किसी तरह गुजारा करते चले जाते हैं।
पुरानी संस्कृति को तोड़ देना पड़ेगा। पुरानी सभ्यता को तोड़ देना पड़ेगा। और अंतिम बात भारत को किसी तरह भारतीयता से मुक्त करने की जरूरत है। जब तक भारत भारतीयता से मुक्त नहीं होता तब तक आधुनिक नहीं हो सकता है। आधुनिक होना हो तो भारतीयता से मुक्त होना पड़ेगा। और भारतीयता से मुक्त होने में प्राणों को बड़ा कष्ट आएगा। क्योंकि हमारा सारा अहंकार भारतीय होने से जुड़ गया है। अब वह अहंकार दुनिया में नहीं टिकेगा।
...चीनी थे, जापानी थे, जर्मन थे, हिंदू थे, मुसलमान थे, ईसाई थे, जैन थे आदमी जैसी चीज पुरानी दुनिया में नहीं है। आदमियत जैसी चीज पुरानी दुनिया में नहीं है। जगत जैसी कोई चीज पुरानी दुनिया में नहीं थी। जगत जैसी कोई चीज पुरानी दुनिया में नहीं थी। जगत हजार खंडों में टूटा हुआ है। लेकिन अब ये असंभव हो गया है कि जगत हजारों खंडों में टूटा रह जाए।
जब तक राजनीतिज्ञों की चाल थोड़े दिन और चल सकेगी। क्योंकि आदमी का मन पुराना है। और राजनीतिज्ञ उस पुराने मन का शोषण किए चले जाते हैं। तब तक राष्ट्र टिकेंगे। लेकिन अब राष्ट्रों का टिकना बहुत महंगा हो गया। अब इनका होना बहुत खतरे से भरा हुआ है। अब इनके न होने में मनुष्यता का हित है। और जब तक धर्मगुरुओं की चाल चलेगी तब तक हिंदू और मुसलमान बचेंगे। लेकिन अब उनकी चाल भी ज्यादा दिन नहीं चल सकेगी। हालांकि वे चालों की नई-नई तरकीबें सोचते हैं। अगर हिंदू-मुस्लिम दंगा हो जाए तो वे यह नहीं कहते कि हिंदू-मुसलमान की वजह से हो गया है। वे कहते हैं, यह गुंडों की वजह से हो गया है। यह गुंडा कौन है इसका पता लगाना बहुत मुश्किल है। यह गुंडा कहां है इसका पता लगाना मुश्किल है। जब कि मैं आपसे कहता हूं सब झगड़े महात्माओं के कारण होते हैं और गुंडों के कारण कोई झगड़ा नहीं होता। गुंडे बेचारे आखिर में फंस जाते हैं। और महात्मा बड़े होशियार हैं। झगड़े के बीज बोते हैं और झगड़ा फैल जाता है तो अमन कमेटियां भी बनाते हैं। शांति-कमेटियां भी बनाते हैं। झगड़े को शांत भी करते हैं।
एक गाय की पूंछ कट जाए किसी गांव में तो हिंदू-मुस्लिम दंगा हो जाएगा। और हम कहेंगे गुंडों ने दंगा कर दिया। जब कि सच बात यह है कि जिन महात्माओं ने यह समझाया कि गाय माता है, वह झगड़े की जड़ में है। अगर गाय माता न हो तो गाय की पूंछ कट जाने से झगड़ा होने वाला नहीं है। सच तो यह है कि गाय माता न हो तो कोई पागल गाय की पूंछ भी न काटे। गाय की पूंछ भी इसीलिए कटती है, महात्माओं की वजह से। और गाय की पूंछ कटने पर झगड़ा भी इसीलिए होता है, महात्माओं की वजह से। लेकिन महात्मा पीछे समझाने भी आ जाते हैं उनकी समझाने की तरकीबें भी बड़ी अच्छी हैं। वे ये नहीं कहते हैं कि हिंदू-मुसलमान की वजह से झगड़ा है। वे यह कहते हैं, असली हिंदू बनो तो झगड़ा नहीं होगा। असली मुसलमान बनो तो झगड़ा नहीं होगा। जब नकली हिंदू और नकली मुसलमानों से इतना उपद्रव हो रहा है तो असली हिंदू, असली मुसलमान कितना उपद्रव करेंगे हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है। जब ये सूडो, नकली इतना उपद्रव करते हैं तो असली क्या करेंगे, यह कहना मुश्किल है। लेकिन वे समझाए चले जाते हैं।
गांधी जी जैसे अच्छे आदमी इस देश में हिंदू-मुसलमान को एक करने की कोशिश करते थे लेकिन असफल रहे। असफलता का कारण जिन्ना नहीं हैं, असफलता का कारण हिंदू-मुसलमान नहीं हैं। असफलता का कारण गांधी का पक्का हिंदू होना है।
गांधी जैसे अच्छे आदमी भी ये हिम्मत नही कर सके कि कह दें कि मैं सिर्फ आदमी हूं। अब ये खान अब्दुल गफ्फार समझाते फिरते हैं लोगों को। लेकिन वे पक्के मुसलमान हैं। हिंदू-मुसलमान एक हो जाएं। लेकिन वे यह नहीं कहते कि हिंदू-मुसलमान मिट जाएं। मैं आपसे कह रहा हूं कि हिंदुस्तान के युवकों को हिंदू-मुसलमान एक हो जाएं इस झंझट में पड़ना ही मत। गांधी जैसा अच्छा आदमी एकदम असफल सिद्ध हुआ है।
अब तो हिंदुस्तान के युवक को कहना है कि हिंदू-मुसलमानों को मिटाएंगे। एक नहीं करना है। एक हो ही नहीं सकते वे। असल में उनका होना ही उपद्रव है। उनकी मौजूदगी ही खतरा है। आने वाले युवक को घोषणा करनी चाहिए कि मैं सिर्फ आदमी हूं न मैं हिंदू हूं न मैं मुसलमान हूं। फिर हम देखें कि हिंदू-मुस्लिम दंगा कैसे होता है!
लेकिन तब दोहरे नुकसान होंगे। जो महात्मा झगड़ा करवाते हैं वे भी धंधे के बाहर हो जाएंगे। और जो झगड़े को शांत करवाते हैं वे भी धंधे के बाहर हो जाएंगे। और इन दोनों महात्माओं में आपस में सांठ-गांठ है। झगड़ा कराने वाले और झगड़ा शांत कराने वाले।
मैंने सुना है, एक गांव में दो आदमियों ने एक नया धंधा शुरू किया, खिड़कियां, कांच साफ करने का। तो उनमें से एक आदमी गांव में जाकर पहले रात में सोए हुए लोगों की खिड़कियों पर डामर फेंक आता है।
दो-तीन दिन बाद दूसरा आदमी चिल्लाता हुआ निकलता था, खिड़कियां साफ करवानी हैं। और लोग बाहर आते कि तुम्हारी बड़ी कृपा कि अच्छे आ गए। हम बड़े चिंतित थे कि खिड़कियां कैसे साफ हों? न मालूम कौन दुष्ट डामर फेंक गया है।
वे दोनों पार्टनर थे।
इधर एक महात्मा झगड़ा करवाता है और उधर दूसरा महात्मा शांत करवाता है। वे दोनों धंधे के बाहर हो जाएंगे। हिंदू-मुसलमान को मिटाने की जरूरत है। अब हिंदू-मुस्लिम एकता की बात नहीं करनी है भविष्य में। अब तो हिंदू-मुसलमान न रह जाएं इसकी कोशिश करनी है। अब तो ऐसी कोशिश करनी है कि आदमी रहे--न हिंदू हो, न मुसलमान; न ईसाई, न जैन; न हिंदुस्तानी, न पाकिस्तानी। हिंदुस्तान के बच्चे नुकसान में हैं, पाकिस्तान के बच्चे नुकसान में हैं। कोई समझ की बात नहीं है कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान किसलिए लड़ते रहे हैं? इससे ज्यादा नासमझी की कोई बात नहीं हो सकती। लेकिन हमारी सारी ताकत इसमें लग जाएगी। जब कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान के दोनों लोग खुशहाल हो सकते हैं। और दोनों साथ होकर ज्यादा खुशहाल हो सकते हैं। अगर यह सारी जमीन इकट्ठी हो तो आज दुनिया में स्वर्ग निर्मित किया जा सकता है। विज्ञान ने वे सारे साधन दे दिए हैं कि अगर मनुष्य की मूढ़ता न जीती तो हम मनुष्य को यहीं स्वर्ग दे देंगे। अब कहीं आगे स्वर्ग खोजने की कोई जरूरत नहीं है।
सारी बीमारियां मिटाई जा सकती हैं। सारी दीनता-दरिद्रता मिटाई जा सकती है। सारा अज्ञान मिटाया जा सकता है। और आदमी को वह सब दिया जा सकता है जिसकी ऋषि-मुनियों ने स्वर्ग में कल्पना की है। कौन सी चीज बाधा बन रही है? सिर्फ एक चीज बाधा बन रही है राष्ट्रों की सीमाएं, धर्मों की सीमाएं, आइडियालाॅजिस्ट की सीमाएं। और ध्यान रहे पुराने धर्म बासे पड़ जाते हैं तो नये धर्म पैदा हो जाते हैं जैसे कम्युनिज्म नया धर्म है। हिंदू-मुसलमान पुराने पड़ गए हैं। अब झगड़े में रस नहीं है तो अमरीका और रूस नई आइडियालाॅजी, नये धर्म बना कर खड़े होते हैं। क्रेमलिन भी मक्का है कुछ लोगों के लिए। वे वहां भी यात्रा करने जाते हैं और बड़े प्रसन्न लौटते हैं।
जैसा एक मुसलमान हज करके लौटता है वैसा एक कम्युनिस्ट मास्को होकर लौट आता है। तो वह उसकी इज्जत बढ़ जाती है। वह हाजी हो जाता है। वह मास्को हो आया, वह कम्युनिस्टों के मक्का-मदीना हो आया। वह वहां दर्शन कर आया नये देवताओं के नये भगवान के। नये उपद्रव पैदा हो जाते हैं। क्या आदमी को सारे उपद्रवों से नहीं बचाया जा सकता? इस संबंध में दोपहर मैं आपसे मैं बात करूंगा।

मेरी ये बातें इतनी शांति और प्रेम से सुनीं, उससे बहुत आनंदित हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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