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सोमवार, 27 अगस्त 2018

जीवन की कला-(विविध)-प्रवचन-08

आठवां-प्रवचन-(जीवन की अनंतता)

(वारणासी उत्तर प्रदेश)

मेरे प्रिय!
नये मनुष्य के जन्म के लिए तभी विचार संभव है जब पुराने मनुष्य को गलत समझने की भावना साफ और स्वीकृत हो। अब तक तो हमारी धारणा यही रही है कि पुराना मनुष्य ठीक, सय था। निरंतर आज के नेता के लिए हम अतीत का अनुकरण किए चले जाते हैं। रोज-रोज यह बात दोहराई जाती है कि अब सब कुछ विकृत हो गया है। पहले सब ठीक था। लेकिन कोई भी यह नहीं पूछता है कि बीते हुए दिन अगर ठीक थे तो आज कहां से पैदा हो गया है। अगर कल ठीक था तो आज का जन्म कहां से हुआ है। जो आज है वह कल से निःस्पंद हुआ है। वह कल से निकला है और दुनिया अगर रोज-रोज विकृत होती चली जाती हो तो यह समझ लेना आवश्यक है, कि इस विकृति के बीज हमेशा से मौजूद रहे हैं। हो सकता है कि उस विकृति की अभिव्यक्ति रोज-रोज ज्यादा प्रकट और स्पष्ट होती चली जाती है। लेकिन आमतौर से हम यह समझ लेते हैं कि आज विकृत हो गया है। आज का आदमी कुछ खराब है, कलियुग है या कुछ और। पहले सब ठीक था तो आज अचानक सब गलत हो जाना कोई कारण नहीं।

जीवन एक सतत अविछिन्न धारा है। गंगा काशी आकर न तो अनायास पवित्र हो सकती है और न अनायास अपवित्र हो सकती है। वह जो काशी आकर गंगा हो जाती है उसके बीज गंगोत्री से ही प्रारंभ हो जाते हैं। लेकिन बीमारियां जब पूरी तरह प्रकट होती हैं, तब ज्ञात होती हैं, आरंभिक लक्षण अधिकतर नहीं पहचाने जाते। आज जैसा मनुष्य है ये पिछले पांच-दस हजार वर्ष की संस्कृति की निष्पत्ति है। उसका फल है। अगर आज का मनुष्य गलत है तो जान लेना जरूरी है कि आज तक समस्त मनुष्य गलत था। आज को दोष देने से, अथवा और बीते पर गुमान कहने से न तो कोई समाधान है न कोई अंत है। न कोई उपाय। वर्तमान की निंदा और अतीत की प्रशंसा से कुछ भी हल नहीं होगा, कठिनाइयां और बढ़ती हैं। पहनी कठिनाई तो यह बढ़ जाती है कि जब हम कहते हैं कि आज सब विकृत और कुरूप हो गया तो स्वभावतः एक ही निष्कर्ष खयाल आता है कि यदि हम पीछे वापस लौट चलें कि जैसा आदमी था वैसे हम पुनः हो जाएं, तो सब ठीक हो जाए। यह और भी खतरनाक बात है। क्योंकि जो पीछे था उसी से आज का जन्म हुआ है। और कोई बीमारी की पिछली अवस्थाओं में लौट जाने से बीमारी से मुक्त नहीं होता। बल्कि बीमारी जब पूरी प्रकट हो जाए तो जानना चाहिए खोजना चाहिए कि बीमारी जब अप्रकट थी तब उसके क्या लक्षण थे।
और यह दृष्टिकोण हमेशा से रहा है कि अतीत की हम प्रशंसा करते रहे हैं। मैंने अब तक कोई ऐसी किताब नहीं देखी, जिसमें यह लिखा हो कि आजकल के लोग ठीक हैं। दुनिया की पुरानी से पुरानी किताब यह कहती है कि आजकल के लोग बिगड़ गए हैं। पहले के लोग ठीक थे। मैंने सुना है कि जो कि छह हजार वर्ष पुरानी है। उसकी भूमिका को पढ़ कर ऐसा लगता है जैसे आधुनिक किसी लेखक ने इस जमाने के संबंध में कुछ लिखा हो। भूमिका में लिखा है कि आजकल के लोग बिलकुल ही पतित और नारकीय हैं, अनैतिक हो गए हैं, अनाचारी हो गए हैं, पहले के लोग अच्छे थे। छह हजार वर्ष पुरानी भूमिका में अगर ऐसा लिखा तो क्या यह पूछना संगत न होगा कि ये पहले के लोग कब थे? ये कभी थे? या कि हमारी कल्पना काम कर रही है। ये पहले के लोग कभी भी नहीं थे, लेकिन कल्पना और अनुमान ने बड़े काम किए हैं। आज से दो हजार वर्ष बाद न तो आपकी किसी को स्मृति होगी और न मेरी। लेकिन गांधी याद रह जाएंगे, रामकृष्ण याद रह जाएंगे, रमण याद रह जाएंगे। दो हजार साल बाद जो असली आदमी था, जो वास्तविक आदमी था, वह तो भूल जाएगा, जो अपवाद थे वे स्मरण रह जाएंगे। और दो हजार साल बाद लोग सोचेंगे कि गांधी के जमाने के लोग कितने अच्छे थे। गांधी से निर्णय बिलकुल ही असत्य होगा।
वह असत्य इसलिए होगा कि गांधी हमारे प्रतिनिधि नहीं थे, गांधी हमारे बीच अपवाद थे। गांधी ऐसे नहीं थे जैसे हम हैं। गांधी वैसे थे, जैसे हमें होना चाहिए। और दो हजार वर्ष बाद गांधी हमारे प्रतीक हो जाएंगे। और लोग सोचेंगे कि कितना अच्छा युग था। गांधी का युग, गांधी जैसे लोग। असलियत उलटी है। हम गोडसे जैसे तो बिलकुल नहीं हो सकते। यही हमेशा हुआ। बुद्ध हमें याद हैं, क्राइस्ट हमें याद हैं, कनफ्यूशियस हमें याद हैं। और इन थोड़े से लोगों के आधार पर हम पुरानी आदमियत के संबंध में जो नतीजे लेते हैं वे एकदम भ्रांत और झूठे हैं। बल्कि सच्चाई यह है कि अगर महावीर के समय के लोग अहिंसक होते हो महावीर को याद रखने की भी कोई जरूरत नहीं रह जाती और अगर बुद्ध के समय के लोग बुद्ध जैसे होते तो बुद्ध को महापुरुष कहने का भी उपाय न रह जाता। इन सारे लोगों को हम हजारों वर्षों के बाद भी याद कर रहे हैं। वह सिर्फ इसलिए कि वे बहुत अनूठे और अद्वितीय लोग थे। उन जैसा कोई भी नहीं था। जिस दिन महान मनुष्यता का जन्म होगा उस दिन महापुरुषों का युग समाप्त हो जाएगा। महापुरुष तभी तक दिखाई पड़ना संभव है, जब तक आदमियत नीची ओछी और विकृत है।
अंधेरी बदलियों के बीच चमकती हुई बिजली की रेखा दिखाई पड़ती है और सारा आकाश विद्युत से भरा हो, तो विद्युत कहीं भी दिखाई नहीं पड़ेगी। स्कूल का साधारण सा शिक्षक भी जानता है। सफेद दीवाल पर सफेद अक्षरों से लिखना व्यर्थ है। वह काले तख्ते पर लिखता है। वह सफेद खड़िया काले तख्ते पर दिखाई पड़ती है। महावीर और बुद्ध हमें दिखाई पड़ते हैं। वे बड़ी मनुष्यता के काले तख्ते पर सफेद खड़िया की लकीरों के कारण। और कोई कारण नहीं। लेकिन उनके आधार पर हमने नतीजा ले लिया है कि मनुष्य ठीक था। कोई पूछता भी नहीं कि बुद्ध की शिक्षाएं क्या हैं जीसस की शिक्षाएं क्या हैं? क्या समझा रहे हैं वे लोगों को? समझा रहे हैं चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, हिंसा मत करो, घृणा मत करो। यही समझा रहे हैं। अगर लोग ईमानदार थे और चोर नहीं थे तो बुद्ध क्राइस्ट और महावीर पागल रहे होंगे। ये सारी शिक्षाएं किसके लिए? किससे कह रहे हैं कि चोरी मत करो?
किससे कह रहे हैं कि बेईमानी मत करो? ये बातें किससे कहीं जा रही हैं। और अगर हम गौर से देखें तो बुद्ध की शिक्षाएं और महावीर की शिक्षाओं का आज भी बदलने का कोई कारण नहीं है। वही शिक्षाएं आज भी हमें देनी पड़ रही हैं। यह किस बात का सबूत है? यह इस बात का सबूत है कि आदमी जैसा आज है, करीब-करीब वैसा ही हमेशा था। क्योंकि जो शिक्षाएं आज उसे जरूरी हैं, वही शिक्षाएं हमेशा जरूरी थीं। दवाइयां खबर देती हैं, बीमारियों की। शिक्षाएं खबर देती हैं आदमी स्थिति की। स्वस्थ आदमी के लिए दवाओं की जरूरत नहीं होती। और जो दवाइयां पांच हजार वर्ष पहले जरूरी थीं वही अगर आज भी जरूरी हैं तो आज को गाली देना नासमझी है। यह जान लेना जरूरी है कि मनुष्य जैसा आज तक रहा है। वह पूरी मनुष्यता ही कुछ गलत कर रही है। नये मनुष्य का जन्म कभी भी नहीं हो सकता इसलिए कि पुराने को हम ठीक मान कर बैठ गए हैं। और पुराना अगर गलत न होता तो जैसा आदमी आज पैदा हुआ है, यह पैदा नहीं हो सकता था।
इसके पैदा होने की कोई जरूरत न थी। यह आसमान से पैदा नहीं हो गया है। यह परंपराओं की निष्पत्ति है जिनमें आज तक मनुष्यता जीती रही। जरूर उनमें रोग के मूल बीज छिपे हुए हैं। इसलिए जब मैं यह कहता हूं कि नये मनुष्य की जरूरत है तो मैं यह नहीं कर रहा हूं कि आज का मनुष्य गलत है और पहले मनुष्य ठीक था। मैं यह कह रहा हूं कि आज तक का ही मनुष्य गलत रहा है और जब तक यह स्पष्ट न हो जाए तब तक हम मार्ग नहीं खोज सकते। क्योंकि बार-बार हमारा मन पीछे लौटने का होने लगता है और पीछे कोई रास्ता नहीं है। पीछे से हम होकर आ रहे हैं और वही रास्ता हमें यहां ले आया है। इसलिए रामराज्य की बातें, अतीत की बातें, मनुष्य को पीछे लौटा ले जाने की बातें सार्थक नहीं हैं। उससे ज्यादा अहितकर कुछ भी नहीं हो सकता क्योंकि जिन रास्तों पर हम लौटने का निर्णय करते हैं, बार-बार उन रास्तों पर आदमी चल चुका है। और उन रास्तों से चल कर वहां पहुंचा है जहां आज वह खड़ा है। उन पर फिर उसे लौटा कर ले जाने का सिवाय इसके कोई अर्थ नहीं होगा कि दो-तीन हजार साल में वह फिर वहीं पहुंच जाए, जहां आज पहुंचा है। अगर आज जोर जबरदस्ती से रामराज्य स्थापित कर लिया जाए तो तीन हजार साल में फिर हम वहीं पहुंच जाएंगे। जहां हम खड़े हैं। यह वैसे ही है, यह वैसा ही पीछे लौटने का खयाल आदमी में बार-बार पैदा होता है। और उसका कारण यह नहीं कि पीछे आदमी ठीक था। इसके कारण दूसरे हैं।
और मनोवैज्ञानिक हैं। ऐतिहासिक नहीं। हर आदमी को बचपन की स्मृति है कि बचपन सुंदर था और सुखद था। मनुष्य पहले ठीक था और अब गलत हो गया है। और यही मनोवैज्ञानिक कारण मनुष्य अपने पूरे इतिहास में बार-बार दुहरा लेता है कि कल ठीक था और अब गलत हो गया है। बचपन की सुखद स्मृति है। कारण अतीत के इतिहास का ठीक होना नहीं। और बचपन की स्मृति भी इसलिए सुखद है कि हमें जीवन के जीने की कला का भी ठीक अंदाज नहीं। अन्यथा यह होना विकृत और रोग का लक्षण है कि बुढ़ापे में आदमी कहे कि बचपन के दिन सबसे सुखद थे। इसका मतलब यह हुआ कि बचपन के बाद इस आदमी का जीवन आनंद की तरफ विकसित नहीं हो सका। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि बचपन के बाद यह आदमी गलत ढंग से जी रहा है।
बचपन अगर सुखद था तो उसका अर्थ यह हुआ कि हम विकसित नहीं हुए। हमने जीवन की खोज ही नहीं की। जीवन के रस और आनंद से हम परिचित ही नहीं हुए, अन्यथा जीवन का अंतिम दिन सबसे ज्यादा सुखद और आनंद पूर्ण होना चाहिए। अगर जीवन एक विकास है तो मरने की घड़ी जीवन के अनुभव की चरम घड़ी होनी चाहिए। मृत्यु का क्षण जीवन की अनुभूति का परिपूर्ण क्षण होना चाहिए। लेकिन हम कहते हैं कि जन्म के दिन सबसे सुखद और सुंदर थे। और जब कवि इसके गीत गाते हैं तो हम बड़े प्रसन्न होते हैं। बचपन की सुखद और सुंदर अनुभूति सारे जीवन की निंदा है। और सारे जीवन के गलत होने का सबूत है।
और यही स्मृति चूंकि हर एक मनुष्य के मन में बैठी हुई है अतः इसी स्मृति का प्राजेक्शन प्रक्षेप और विस्तार होता है। और हम कहते हैं कि पहले के दिन ठीक थे। धीरे-धीरे पूरे इतिहास पर यह वृति लागू हो जाती है। और निरंतर हम पीछे लौटने का भाव लेने लगते हैं। नये, आज के आधुनिक वर्तमान के मनुष्य को बदलने के लिए हम पुराने मनुष्य की तस्वीर उसके सामने खड़ी करते हैं। एक बात जाननी जरूरी है। मनुष्य पीछे नहीं लौट सकता। उसके अनुभव बहुत प्रगाढ़ हैं। उसका, पूरे का पूरा मनुष्य-जाति का अचेतन मन अतीत से भलीभांति परिचित है इसलिए लाख उपदेश देने पर भी आदमी पीछे लौटने को राजी नहीं हो सकता।
आदमी की खोज आगे जाती है। आगे ही खोज हो सकती है और आगे खोज नहीं हो पाती क्योंकि हम हमेशा पीछे की तरफ देखने में लीन हो जाते हैं। मनुष्यता आज तक ऐसे ही चलती रही है, जैसे किसी कार के सामने प्रकाश न लगा हो, कार के पीछे प्रकाश लगा हो। कार तो आगे चलती है और प्रकाश पीछे पड़ता है, तो सिवाय दुर्घटना के और कुछ भी होने की संभावना नहीं। आदमी चलता आगे है और देखता पीछे है। इसलिए रोज-रोज दुर्घटना होती है और जितनी दुर्घटना होती है उतना ही वह और पीछे देखने लगता है, कि पीछे के दिन अच्छे थे। वहां दुर्घटना कभी भी नहीं होती थी। और जितना वह ज्यादा पीछे देखता है आगे का जीवन दुर्घटना से और भरता जाता है। अतीत की तरफ देखने वाले लोग मनुष्य का निर्माण नहीं कर रहे हैं।
लेकिन अतीत की तरफ देखने वाले लोग बहुत भले मालूम होते हैं। और वे बाधा बन रहे हैं। वे रुकावट डाल रहे हैं। उस चिंतन में जिस दिन मनुष्य के नये विकास की दिशा में सोचना शुरू करते हैं। पहली बात तो यह है कि अतीत कोई स्वर्ग था, यह सरासर झूठ है। अतीत कोई स्वर्णयुग था,यह सपने की बात है, कविताओं की, सत्य नहीं है। और दूसरी बात कि अतीत की तरफ निरंतर देखने के कारण वह मनोभूमिका नहीं बन पाती कि हम भविष्य की तरफ देखें और जो कुछ भी किया जा सकता है वह सिर्फ भविष्य में ही किया जा सकता है। अतीत में कुछ भी नहीं किया जा सकता। जो भी संभावना है करने की; वह भविष्य में है। और भविष्य में कुछ भी करने में हम तभी समर्थ हो सकते हैं जब अतीत से हमारा मोह कम हो जाए।
जितना हम अतीत की ओर देखते हैं उतना ही उस राष्ट, उस व्यक्ति की आत्मा वृद्ध और बूढ़ी होती चली जाती है। बच्चे भविष्य की तरफ देखते हैं, बूढ़े अतीत की तरफ देखते हैं। बूढ़ों के सामने मौत के अतिरिक्त कोई भविष्य नहीं होता। बच्चों के पास कोई अतीत नहीं होता। बच्चे भविष्य की तरफ देखते हैं। जो कौम अतीत की तरफ देखने लगती है वह धीरे-धीरे अपने हाथ से ही अपनी मृत्यु का आयोजन जुटा लेती है। वह बचपन खो देती है। वह जवानी खो देती है। वह बूढ़ी हो जाती है। हमारी कौम सैकड़ों वर्ष से बूढ़ी होकर जी रही है। और यह देश युवा नहीं हो सकता जब तक भविष्य की तरफ देखने की सामथ्र्य हम न जुटा लें। अतीत की तरफ जब तक हम बंधे हैं तब तक वह साहस, वह सामथ्र्य नहीं जुटाई जा सकती।
इसलिए मैंने कहा कि आज जैसा मनुष्य है वह अतीत का फल है। अगर वह स्पष्ट हो जाए तो हम अतीत से मुक्त हो सकते हैं। फल को देखकर वृक्ष का पता चलता है। आज के आदमी को देखकर पूरे अतीत का पता चल जाना चाहिए। और अगर इसे हम गौर से देखें तो आज का मनुष्य निंदा के नहीं, दया के योग्य है। यह हजारों साल की गलत संस्कृति का फल भाग रहा है। हजारों साल की गलत सयता के आधारों का परिणाम भुगत रहा है। यह आदमी घृणा के और निंदा के योग्य नहीं; दया के योग्य है। जो हजारों साल से मनुष्य के जीवन का ढांचा रखा गया था उस ढांचे ने उसकी यह हालत कर दी है। हालांकि एक दो दिन में संस्कृतियों के फल नहीं आते, संस्कृतियों के फल आने में हजारों वर्ष लग जाते हैं। इसलिए महावीर जो आधार रखेंगे राम जो आधार रखेंगे उनके सामने उसका फल स्पष्ट नहीं हो सकता।
उसके फल स्पष्ट होने में हजारों वर्ष लग जाएंगे और जब हजारों वर्ष बाद फल आएगा तब हमें ख्याल भी नहीं होगा कि किसने आधार रखे थे और क्या फल आए। अभी गांधी ने आधार रखे थे। रोज-रोज फल आने शुरू हो गए। दो, चार सौ पांच सौ वर्षों में पूरे फल हमारे सामने होंगे और तब तय करना मुश्किल होगा कि पांच सौ पहले गांधी पर हम जिम्मा डालें। गांधी अलग पीछे बच जाएंगे। खयाल भी नहीं आएगा। संस्कृति की यात्रा लंबी है। और उसे यह स्मरण भी नहीं होता कि कौन सी चीज क्या परिणाम लाती है।
मैं कुछ बातों पर विचार करना चाहता हूं ताकि खयाल आ सके कि हमने कैसे मनुष्य को विकृत कर दिया। और खयाल आना और भी मुश्किल हो जाना है जब हम अच्छे अच्छे सिद्धांतों के आधार पर मनुष्य को विकृत होने की व्यवस्था करते हैं। जब अच्छे शब्दों की आड़ होती है और साधु-संतों का प्रभाव होता है तब और भी कठिन हो जाती है। खोज करनी कि आदमी की विकृति के आधार किसने रखे? आज तक के धर्मों और संस्कृति के सारे आधार, दमन के आधार रहे हैं सप्रेशन के आधार रहे हैं। और जो आदमी पैदा हुआ है वह तीन हजार वर्ष के दमन का परिणाम है। लेकिन खोज पाना बहुत कठिन है।
आज सड़क पर एक युवक एक स्त्री को धक्का दे रहा है तो यह खोज पाना कठिन है कि तीन हजार वर्ष की ब्रह्मचर्य की शिक्षा का यह फल हो सकता है। यह खयाल में भी आना कठिन है। इस तरफ दृष्टि भी जानी कठिन है। क्योंकि ब्रह्मचर्य का कहां ऊंचा सिद्धांत और कहां नंगी स्त्रियों की तस्वीरें, चित्र, फिल्में, कहानियां कविताएं, कहां लड़के एसिड फेंकते हुए लड़कियों को धक्का देते हुए, गालियां देते हुए? कहां ये लड़के? कहां यह गंदा युग? कहां यह कामुकता से भरा हुआ सारा साहित्य और कहां कामुकता से भरा हुआ सारा साहित्य और कहां ऋषि मुनियों की ब्रह्मचर्य की बातें इनमें क्या संबंध? मैं आपसे कहना चाहता हूं इतने अनिवार्य संबंध है। जो देश भी बहुत दिन तक काम की; यौवन की; निंदा करेगा और दमन करेगा, उस देश में आज नहीं कल यौवन का विक्षिप्त विस्फोट होना निश्चित है।
जो देश भी सेक्स के संबंध में शत्रुता का भाव लेगा, आज नहीं कल उसका पूरा चित्त सेक्सुअल हो जाने को मजबूर है। जब यह हो जाएगा तब हम चिल्लाएंगे और गाली देंगे और तब हम कहेंगे कि आदमी गलत हो गया है। और कभी हम भूल कर भी नहीं सोच पाएंगे कि इसको गलत करने में अच्छे तथाकथित लोगों का हाथ है। ब्रह्मचर्य की शिक्षा मनुष्य-जाति को कामुक बनाने के सिवाय और कहीं भी नहीं ले गई और अगर यह शिक्षा जारी रहती है तो सारी पृथ्वी कामुकता का एक नग्न नृत्य हो जाने को है। और जुम्मा उन लोगों पर नहीं होगा जो गंदी फिल्में बनाते हैं। उन लोगों पर नहीं होगा जो गंदी किताबें लिखते हैं। जुम्मा उन अच्छे लोगों पर होगा जो स्त्री को नरक का द्वार बतलाते हैं। जुम्मा उन अच्छे लोगों पर होगा जिन्होंने काम की धारणा को न तो वैज्ञानिक रूप से स्थापित होने दिया, न मनुष्य की काम वासना के लिए स्वस्थ दिशाएं खोजीं, न मनुष्य के चित्त के विकास के लिए नैसर्गिक है? क्या स्वाभाविक है? उसकी कैसे सम्यक अभिव्यक्ति हो?
वे उसके कोई आधार नहीं रखे, जिन्होंने आमूल रूप से यौन की निंदा की। उन लोगों के ऊपर जुम्मा होगा, सारे मनुष्य-जाति यौनग्रस्त होती चली जा रही है। और जितना मनुष्य यौन ग्रस्त होता है, उतना ही हम ऋषि मुनि की पुकार करते हैं, कि वापस लौट चलो, ऋषियों के चरणों में। ब्रह्मचर्य की शिक्षा जोर से दो। लोगों को समझाओ कि यह काम पाप है, अनीति है। व्यक्ति को मुक्त करो वासना से, हम उतना ही ज्यादा इस नीति शिक्षा को दोहराते हैं और हमें पता नहीं कि इसी शिक्षा का यह फल है। जितना ही आप दोहराइएगा यह फल उतना ही विषाक्त होता चला जाएगा। ऐसे एक दुश्चक्र में आदमी जी रहा है। एक विसियस सर्किल खड़ा हो गया है। जो रोग का कारण है, उसे हम बीमारी समझ रहे हैं। जिस बात को मनुष्य के मन में जितना दबाने का उपाय किया जाए वह बात उतना ही बल अर्जित करती है और एक दिन प्रकट होने की प्रतीक्षा करती है। जिस बात को आदमी के भीतर दबाया गया वही बात उससे ज्यादा विकृत होकर प्रकट होनी शुरू हो गई है। अभी हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कहा कि लड़कों का पता नहीं है।
वे आएंगे कि नहीं आएंगे कोई पता नहीं क्योंकि आपने वहां तख्ती लगा दी है। कि मैं यहां बोलूंगा आप आएं। इससे भी ज्यादा उचित यह होना कि हाल के बाहर एक तख्ती लगा दी जाती कि यहां भीतर कोई भी न आए। यहां आज आना मना है तो जो विद्यार्थी नहीं आए हैं जरूर आ गए होते। फिर इस विश्व विद्यालय के पूरे केंपस में इतने संयमी विद्यार्थी खोजना कठिन हो जाता। जो इस हाल की तरफ न आता। मुश्किल होता। और अगर कोई विद्यार्थी संकोच में लाज शर्म में बिना झांके इस हाल से निकल भी गया होता तो बड़ी बेचैनी में पड़ जाता। कक्षा में बैठता, लेकिन पढ़ नहीं पाता। मन उसका इसी भवन के आसपास डोलता रहता। सांझ होते-होते उसे यहां आना पड़ता। सौ में से निन्नयानबे मौके ऐसे हैं कि वह आता।
एक मौका ऐसा भी है कि वह किसी भय, किसी संकोच, किसी डर से न आता तो रात किसी सपने में इस भवन में अवश्य हो आता। हम निषेध करते हैं और निमंत्रण बन जाता है। हम रोकते हैं और बुलावा हो जाता है। हम कहते हैं नहीं और हां का प्रतिकार पैदा होता है। आदमी का मन दमन को स्वीकार करने को न कभी राजी था और न राजी है। दमन, निषेध, नकार, आकर्षण को जन्म देते हैं।
एक फकीर था, नसरुद्दीन। एक दिन सांझ अपने घर से बाहर निकलता था। किन्हीं मित्रों से मिलने जा रहा था कि देखा कि घोड़े पर सवार उसके दूसरे गांव का एक बहुत प्यारा मित्र आ गया है। उसने अपने मित्र से कहा कि जमाल! तुम रुको, मैं दो-तीन जगह जाऊंगा जरूरी है वहां जाना। किसी को समय दिया है। वहां जाता हूं। घंटे भर बाद लौटूंगा। दुख तो मुझे बहुत हो रहा है कि वर्षों के बाद तुम आए और मैं तुमको घर में अकेला छोड़कर जाऊं। लेकिन मजबूरी है जल्दी से जल्दी लौट आऊंगा। उसके मित्र ने कहा कि अगर कोई एतराज न हो तो मैं भी साथ चला चलूं। रास्ते में बात भी हो लेगी। लेकिन मेरे कपड़े धूल से भरे हैं। अगर तुम्हारे पास दूसरे कपड़े हों तो में उन्हें ऊपर से डाल लूं और तुम्हारे साथ हो लूं। नसरुद्दीन ने वक्त जरूरत के लिए एक अच्छा कोट, कमीज, पगड़ी बचा रखी थी। जल्दी से निकाल लाया।
मित्र ने कपड़े पहन लिए। मित्र जब चलने को साथ तैयार हो गया तब नसरुद्दीन को भूल पता चली। मित्र तो बहुत शानदार मालूम होने लगा फिर उसे कष्ट और भारी दुख हुआ कि कपड़े तो मेरे हैं और शान इसकी बन गई। उसके मन को समझाया और दबाया कि ये भी क्या फिजूल बातें सोचते हो? तुम्हारा इतना प्यारा मित्र है? क्या कपड़े तुम्हारे क्या उसके? बड़ी ज्ञान की बातें की थीं। क्या कपड़े किसी के होते हैं? कपड़े में क्या मोह? समझा बुझा कर मित्र के घर पहुंचा। मित्र से बात होती थी लेकिन बात ऊपर-ऊपर होती थी। भीतर उसे बार-बार कपड़ा ही दिखाई पड़ता था। और बार-बार वह अपने को समझाता कि कपड़े भी क्या किसी के होते हैं? कैसा पागल हो गया है तू नसरुद्दीन? तू इतनी आत्मा की बातें करता था और कपड़ों पर अटका है? अक्सर आत्मा की बातें करने वाले कपड़ों पर अटके होते हैं। लेकिन यह उसे पता नहीं। उसने समझा बुझा कर रोक-टोक कर कपड़ों की बात भीतर छिपा ली। आगे मित्र को लेकर जिस परिवार में गया तो उन्होंने पूछा कि कौन हैं? स्वभावतः वह इतना शानदार मालूम पड़ रहा था। नसरुद्दीन को फिर खयाल आया कि वे ही कपड़े, अन्यथा कौन पूछता इसको? लेकिन उसने कहा कि क्या मैं कपड़े की बात करता हूं? छोड़ो?
कपड़ों की बात नहीं करनी है। फिर उन्होंने पूछा परिचय? आप कौन हैं? तो उसने परिचय दिया कि मेरे मित्र हैं बड़े पुराने मित्र हैं। नाम है जमाल! रह गए कपड़े सो कपड़े मेरे हैं। कह गया तब खयाल आया कि यह क्या हो गया? बहुत घबड़ा गया। पसीना निकल आया। मित्र भी, घबड़ा गया। परिवार के लोग भी हैरान हुए कि ये कपड़े मेरे हैं। बड़ी ग्लानि अनुभव हुई। सभी दमन करने वालों को निरंतर ग्लानि का अनुभव होता है। निरंतर अपराध का, गिल्ट का बड़ा अपराधी लगा। बाहर निकलते ही क्षमा मांगने लगा कि माफ कर दो। पश्चात्ताप करने लगा कि ये क्या बातें निकल गईं? क्यों निकल गईं? कैसे मेरी जुबान धोखा दे गई? जुबान धोखा नहीं दी थी, धोखा वह खुद दे रहा था। जुबान ने तो वही कह दिया था जो सच था। जो भीतर था। वही निकल आया, धोखा वह दे रहा था जुबान नहीं। कहने लगा कि कैसी भूल हो गई? कैसी जुबान से क्या बात निकल गई? जो नहीं कहनी थी, कोई खयाल ही नहीं था कहने का। मित्र भी बहुत हैरान हुआ। उसने कहा कि मैं भी बहुत हैरान हो गया। क्या बात है? लेकिन चलो मैं तो खुद ही कह रहा था कि बाहर चलकर तुमसे कहूंगा कि तुमने क्या किया? लेकिन तुम खुद ही क्षमा मांगते हो छोड़ो जाने दो। मित्र ने तो जाने दिया लेकिन नसरुद्दीन कैसे जाने देता?
दूसरे घर फिर जाना था। फिर वही कपड़े अब केवल कपड़े न थे। दोहरा हो गया था मामला। कपड़े भी और कपड़े की बात का अपराध भी। अब मन और भी द्वंद्व में पड़ गया था। दमन की वृति मनुष्य को अंततः और कानफिल्कट में ले जाती है अब मन द्वंद्व में था। वे कपड़े याद आने लगे और पश्चात्ताप भी याद आने लगा। बात तो कर रहा था लेकिन बात में मन नहीं था। भीतर द्वंद्व था। मंदिरों में पूजा करिए। ऊपर प्रार्थना चलेगी, भीतर द्वंद्व है। सारी प्रार्थना झूठी है। गीता पढ़िए, उपनिषद पढ़िए, कुरान और बाईबिल पढ़िए, जब भीतर द्वंद्व है सब पढ़ना व्यर्थ है। लेकिन ऊपर से मीठी-मीठी बातें करता चला गया। जितना ही भीतर वह द्वंद्व गहरा होने लगा ऊपर बातें उतनी ही मीठी होने लगीं। मीठी बातों से हमेशा सावधान होने की जरूरत है। भीतर बहुत कड़वाहट न हो तो आदमी ऊपर बहुत मीठी बातें नहीं करता। भीतर शत्रुता न हो तो मित्रता के लिए बहुत चर्चा करने की आवश्यकता नहीं होती। भीतर घृणा न हो तो मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, इस बेवकूफी को बार-बार दोहराने का कोई सवाल नहीं उठता। दूसरे मित्र के घर पहुंचे, फिर वही।
पहुंचने पर जैसे ही उसने कपड़े देखे, मित्रों की आंखें, उसके कपड़ों पर उलझ गईं। नसरुद्दीन पीछे छूट गया। किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया। फिर बेचैनी कि वही कपड़े। लेकिन अब उसने कहा कि मुझे यह नहीं कहना है कि कपड़े मेरे हैं। अपने ऊपर संयम रखना है। संयम रखने वालों के भीतर क्या छिपा है, इसका हमें कभी भी पता नहीं चलता। संयम रखना इसलिए पड़ता है कि भीतर रोग है। संयम से रोग मिटता नहीं केवल दबता है। और दब कर बलवान हो जाता है। दबा लिया है उसने। फिर-फिर बात उठी कि कौन है? उसने परिचय दिया। अपने को रोकते हुए कि यह नहीं कहना है कि कपड़े मेरे हैं। उसने कहा कि मेरे मित्र हैं जमाल। मेरे प्यारे मित्र हैं। बहुत दिन बाद आए हैं। सोचा इन्हें भी साथ ले चलूं। रह गए कपड़े कपड़े मेरे नहीं उन्हीं के हैं। कपड़े मेरे नहीं उन्हीं के हैं सब घर के लोग हैरान हो गए कि यह बताने की क्या जरूरत थी कि कपड़े उन्हीं के हैं। कुछ शक होता है। मालूम नहीं किसके हैं? नसरुद्दीन के हैं? मित्र भी घबड़ाया कि यह बात तो फिर लौट आई है।
लेकिन उलटी होकर लौटी है। जब बातें उलटी होकर लौटती हैं तो लोग समझते हैं कि दूसरी बातें हो गईं। जब वेश्या के घर जाने वाला संन्यासी हो जाता है तो लोग समझते हैं कि मामला दूसरा हो गया। मामला वही है जो वेश्या के घर में जाता था वही वेश्या के घर से भागने को मजबूर भी करता है। जब आदमी धन को छोड़कर भागने लगता है तो यह मत सोच लेना कि धन को इकट्ठा करने वाला कोई दूसरा आदमी था। धन के प्रति लार टपकाता है जो मन, वही धन को छूने से भी इनकार करने लगता है कि मैं छुऊंगा भी नहीं। मनुष्य का मन अतियों में डोलता है। एक्सटीम में चलता है। कहा था कि कपड़े उसके हैं। तो दूसरी अति ने मन पकड़ा। दमन किया जोर से तो मन ने कहा कि अब यह कहो कि कपड़े उसी के हैं मेरे नहीं। बाहर निकलता तो अब अपराध और गहरा हो गया था। दमन करने वालों के दमन की वृति रोज गहरी होती चली जाती है। वे निरंतर दीन-हीन आत्मा हो जाते हैं। हर बार ली हुई वृति हर किया हुआ दमन छूटता है और पश्चात्ताप का अंधेरा पीछे छूटता है। पश्चात्ताप और जोर से दमन करने को कहता है। बाहर आकर जमाल के वह पैर छूने लगा कि क्षमा कर दो। जमाल ने कहा कि अब मैं तीसरे घर तुम्हारे साथ जाने को नहीं। यह क्या पागलपन है?
क्या कपड़ों के अतिरिक्त तुम्हें कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है? अगर तुमने ऐसा घर पर ही कहा हो तो मैं अपने दीन-हीन कपड़े पहनकर ही चला आता। ये कपड़े तो अड़चन बन गए। मित्र ने कहाः न मालूम क्या हो गया है? मैं खुद अपने होश में मालूम नहीं पड़ता। कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसी बातें मेरे मुंह से निकल सकती हैं। लेकिन शायद पहली बार गलती हो गई थी। इसलिए सुधारने के लिए दूसरी बात मुंह से निकल गई। लेकिन अब बात खतम हो गई है छोड़ो। अब कपड़े की बात ही नहीं उठानी है। मित्र ने कहा, वचन दो, कसम खाओ, कि अब कपड़े की बात नहीं उठाओगे, तो साथ चलता हूं नहीं तो वापस लौट जाता हूं। उसने कसम खाई कि मैं कसम खाता हूं कि कपड़े की बात बिलकुल नहीं उठानी है। कपड़े की बात ही नहीं करनी है। फिर वे तीसरे घर में गए जो कसम खाने वालों की हालत है वही उसकी हो गई। कसम खा ली है कि कपड़े की बात नहीं उठानी है। और मन है कि सिवाय कपड़ों के दूसरी बात ही नहीं करता। मन कपड़ों की कपड़ों से भर गया और कसम कि कपड़ों की बात नहीं उठानी है। वह तीसरे के घर पहुंच गया। तो उसे कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा था, कुछ सूझ नहीं पड़ रहा था। भीतर बैठा ज्वालामुखी ऊपर वे कपड़े बोलने को आतुर हो रहे थे। वे कपड़े कुछ सुनना चाहते थे, कुछ कहना चाहते थे। अब कपड़े बहुत बलवान हो गए। जाते ही दिखाई पड़ा कि आंखें कपड़ों पर हैं दूसरों को भी। दरअसल में जब आपकी आंख कपड़े पर हो तो आपको सारी दुनिया की आंख कपड़े पर ही दिखाई पड़ेगी।
ये साधु-संन्यासियों को रास्ते पर लगे हुए नंगे पोस्टर अकारण ही दिखाई नहीं पड़ते। ये जो साधु संत हैं ये अश्लील पोस्टर और अश्लील साहित्य के विरोध में आंदोलन अकारण ही नहीं चलाते। इन्हें क्यों दिखाई पड़ते हैं ये पोस्टर? इन्हें क्यों ये साहित्य दिखाई पड़ता है? इनकी निरंतर नजर औरत की नग्नता पर लगी है। उससे बच रहे हैं। उससे छूट रहे हैं। उससे भागना चाह रहे हैं। तो जगह-जगह वही नंगी औरत दिखाई पड़ रही है। उसे कपड़े ही कपड़े दिखाई पड़ने लगे थे। मित्र ने पूछा कौन हैं ये? अब वह बहुत घबड़ा गया। बहुत संभल कर बोला और कहने लगा कि मेरे मित्र हैं--जमाल। बहुत पुराने मित्र हैं। बड़े प्यारे मित्र हैं। एक क्षण रुका। और फिर जैसे कोई चीज फूट पड़े उसने कह दिया रह गए कपड़े, सो कपड़ों की बात ही नहीं उठानी है। किसी के भी हो सकते हैं। कसम खा ली है कि कपड़ों की बात ही नहीं उठानी है। आप पूछना ही मत कि कपड़े किसके हैं? किसी के भी हो सकते हैं? कपड़ों से क्या लेना-देना है। सवाल आदमी का है। यह सप्रेसिव माइंड, वह दमन करने वाला चित्त, अंततः वही पहुंचा देता है। सारी मनुष्यता को हमने यहां ही पहुंचा दिया है।
हजारों वर्षों की दमनकारी शिक्षा ने मनुष्यता के सारे चित्त को रुग्ण और विक्षिप्त कर दिया है। आज जो विस्फोट हो रहे हैं उनके लिए गाली मत देना। इस आदमी को जो आज है यह बेचारा विक्टिम है। यह शिकार है हजारों साल का। इसका कोई कसूर नहीं। यह दयनीय है, यह फंस गया है चक्र में। हजारों साल की शिक्षाओं ने इसके सारे चित्त को विक्षिप्त कर दिया है। हम उसे रोज-रोज इन्हीं शिक्षाओं को देकर विक्षिप्त किए चले जा रहे हैं। पुराना मनुष्य गलत सिद्ध हुआ। उसका सारा व्यक्तित्व कामुक हो गया। उसका सारा व्यक्तित्व दब गया। वह जो भी चाहता था, जो भी सहज था, सब टूट गया और जटिल हो गया। और उस जटिलता ने क्या-क्या परिणाम लाए हैं। आज आंकना भी बहुत कठिन हो गया है। मेरी समझ में है कि दुनिया कभी भी युद्धों से मुक्त नहीं हो सकेगी, अपराधों से, हत्याओं से आत्म हत्याओं से, जब तक हम मनुष्य के लिए गैर दमनकारी नीति नहीं खोज लेते। पिछले दो महायुद्धों में यह अनुभव हुआ। पहला महायुद्ध चला, कोई साढ़े तीन करोड़ लोगों की हत्या हुई। जितने दिन युद्ध चला उतने दिन बड़े आश्चर्य की घटना घटी। सारे यूरोप में वह घटना किसी की कल्पना में भी नहीं थी कि घटेगी? वह घटना यह घटी कि युद्ध के चलते समय हत्याएं कम हो गईं? चोरियां कम हो गईं, लोग कम पागल हुए, यह तो बड़ी हैरानी की बात थी। युद्ध से पागलपन का क्या संबंध? लोग कम पागल हुए, आंकड़ा नीचे गिर गया पागलों का, और मनोवैज्ञानिक परेशान हो उठे कि पागलों से कहीं युद्ध चलता है तो काशी में किसी के पागल होने से क्या संबंध? फिर दूसरा महायुद्ध आया और बड़ी हत्या हुई, कोई हत्या के आंकड़े दुगुने हो गए।
साढ़े सात करोड़ हत्या हुई। पागलों के, हत्यारों के, आत्महत्या करने वालों के आंकड़े उसी अनुपात में दुगुने नीचे गिर गए। तब कुछ को-रिलेशन कुछ अंतर-संबंध दिखाई पड़ा। तब यह दिखाई पड़ा कि जब युद्ध चलता है तब सामूहिक रूप से पागलपन के निकलने की सुविधा मिल जाती है तो व्यक्तिगत रूप से पागल होने की जरूरत नहीं रह जाती। जब सामूहिक रूप से कोई रोग फैलता है तो व्यक्तिगत रूप से निकास अलग से खोजने की जरूरत नहीं रह जाती। जब यूनिवर्सल मेडनेस हो तो प्राइवेट मेडनेस की जरूरत क्या है? जब इतने जोर से हत्या चल रही हो तो मेरा जो हत्या करने का मन है वह तृप्ति अनुभव करता है।
जब इतने जोर से सब कुछ विक्षिप्त हो गया हो तो वह जो मेरा तनाव है इस विक्षिप्तता के साथ तादात्म्य जोड़ लेता है, और मुक्त हो जाता है। इसीलिए रास्ते पर भी दो आदमी लड़ते हों तो आप अकारण खड़े नहीं हो जाते; हजार काम छोड़ कर। दो आदमियों को लड़ता देख कर आपके भीतर कोई तृप्ति मिलती है। युद्ध चलता है तो लोग पांच बजे सुबह उठ कर जो कभी आठ बजे के पहले नहीं उठते थे, अखबार खोजने लगते हैं। क्या पागलपन है? क्यों अखबार की आपको जरूरत पड़ गई है सुबह?
युद्ध की खबर, हिंसा की खबर, आग्नेय बम, एटमीय हाइड्रोजन बम, आपके भीतर जो विध्वंस का तीव्र भाव है उसको तृप्ति देते हैं। आदमी के भीतर इतना विध्वंस का भाव क्यों है? आदमी तोड़ने को इतना आतुर क्यों है? आदमी क्या तोड़ना चाहता है? अगर ठीक से हम समझें तो आदमी अपने भीतर जो दमन है उसको तोड़ना चाहता है। लेकिन उसकी सूझ में कुछ नहीं आता और वह कुछ भी तोड़ने लग जाता है। लड़के बसें जला रहे हैं, मकान तोड़ रहे हैं, शिक्षकों पर पत्थर फेंक रहे हैं। मैं आपसे कहना चाहता हूं कि न उन्हें शिक्षकों से संबंध है, न बसों से न मकानों से। लड़कों की सहज काम-वृति का अति दमन उन्हें तोड़ने को आतुर कर रहा है। और वे कुछ भी तोड़ रहे हैं। और वे कुछ भी तोड़ते रहेंगे। आपकी शिक्षाओं का कोई फल होने को नहीं है। जब तक हम व्यक्ति के लिए सहज, नैसर्गिक अदमनकारी, नाॅन-सप्रेसिव कोई व्यवस्था नहीं खोज लेते।
अब तक का सारा मनुष्य दमन के पत्थर के नीचे दबा हुआ मनुष्य था। इसलिए आप जानकर हैरान होंगे कि तीन हजार वर्षों में चैदह हजार छह सौ युद्ध हुए हैं। और न महावीर समझा सकते हैं, न अहिंसा। न बुद्ध, न गांधी। क्योंकि महावीर, बुद्ध और गांधी अहिंसा को समझाते रहे। इससे कुछ होने वाला नहीं। सिर्फ वही आदमी लड़ने को अनातुर होता है जिस आदमी के भीतर द्वंद्व है। और दमन है वह हमेशा तोड़ने को, मिटाने को, फोड़ने को, आतुर होता है। आतुरता व्यक्तिगत रूप से भी निकलती है। और हर दस पंद्र्रह वर्षों में इतनी घनीभूत हो जाती है मनुष्य की आत्मा पर, कि सामूहिक निकास होना अत्यंत जरूरी हो जाता है। युद्ध होते रहेंगे। जब तक सप्रेसिव माॅरेलिटी है। जब तक दमनकारी नीति है तब तक युद्ध कभी भी बंद नहीं हो सकते। कोई शिक्षा अहिंसा की किसी अर्थ की नहीं है। आदमी को नये आदमी को--अगर पैदा करना है तो केंद्रीय सूत्र मैं आपसे कहना चाहता हूं और वह यह है, आज तक का आदमी दमन की नीति पर खड़ा है। वह आदमी गलत था। नया आदमी पैदा करना है।और अगर आप पैदा नहीं करते तो एक बात निश्चित है कि पुराना आदमी तो मरेगा और उसके साथ पूरी मनुष्यता ही मरेगी। क्योंकि नया आदमी वही होगा जो जी सके आगे।
वे ही दमनकारी चित्त अंततः हाइड्रोजन बम और सुपर बम पैदा कर लिए वही दमनकारी चित्त वहां पहुंच गया है कि हम सारे जीवन को ही नष्ट कर देंगे। जीव के प्रति इतनी तृष्णा, इतनी घृणा, इतना क्रोध मनुष्य के भीतर इकट्ठा हो गया है कि हम यूनिवर्सल स्यूसाड के लिए तैयार हो गए हैं। हम सार्वजनिक रूप से जागतिक आत्महत्या कर लेंगे। लेकिन यह जीवन जीने जैसा नहीं रह गया। इसे हम खत्म ही कर लेंगे। आदमी के चित्त में पांच हजार वर्षों में हमने इतना रोग इकट्ठा कर दिया है कि अब वह कहता है कि हम मिट ही जाएंगे। अब जीने का कोई अर्थ नहीं। जीने का सारा आनंद हमने छीन लिया है। जीने का सारा रस छीन लिया। जीने का सारा अर्थ छीन लिया। और हम समझ रहे हैं हजारों वर्षों से कि जीवन असार है। जीवन दुख है। जीवन पाप है। और एक ही लक्ष्य बता रहे हैं आदमी को मोक्ष। एक ही लक्ष्य बता रहे हैं कि किसी तरह जीवन के आवागमन से मुक्त हो जाओ। क्या पागलपन की बातें हम आदमी को समझा रहे हैं। जीने को जीने की कला जीवन कैसे जीयें, यह हम नहीं सिखला रहे हैं। जीवन कैसे छोड़ें अगर इस मोक्षवादी या ठीक शब्दों में कहें तो मृत्युवादी संस्कृति का, और आदमी की इन शिक्षाओं का यह अंतिम फल हुआ हो कि आदमी ने सोचा हो कि हम सभी लोग इकट्ठे मोक्ष को क्यों न चले चलें। अलग-अलग बहुत हो चुका। इससे जगत चक्र कभी खाली नहीं होता और संसार का चक्र चलता ही रहता है। एक-एक आदमी अगर मुक्त होता रहा, एक-एक बूंद समुद्र की अगर लोप होती रही तो अनंतकाल तक करोड़ों आत्माएं कष्ट ही भोगती रहेंगी। अब हम कोई ऐसी व्यवस्था कर लें सामूहिक मुक्ति की। यह सारा युद्ध और जो अब यह समग्र युद्ध हमारे सामने खड़ा हुआ है मनुष्य को इसी मानसिक दमन की वृति का परिणाम है।
इतने दिनों के मानसिक दबाव का अब अंतिम विस्फोट होने को है। पुराना मनुष्य अर्थात दमनयुक्त। नया मनुष्य अर्थात, निर्सग स्वभाव, सहज, नये मनुष्य के जन्म की दिशा का सूत्र है। हम मनुष्य के सहज जीवन की व्यवस्था और जीवन की कला के संबंध में सोचें। सोचें कि मनुष्य जैसा है। गाली न दें मनुष्य को कि तुममें काम की वृति है। कि तुम पशु हो, कि तुम जानवर हो, कि तुम में मैथुन है कि तुम कुत्ते और पशुओं की कोटि के हो। इन गालियों से कुछ भी नहीं होता। आदमियों के भीतर जो है वह है, आपकी गालियों से कोई असर नहीं पड़ता। आपकी गालियों से स्वीकृति बंद हो जाती है और वह खुद भी बंद हो जाता है सोचना, कि क्या मेरे भीतर है। वह खुद को ही डिसीव करने में, और प्रवंचना में पड़ जाता है। एक ऐसी व्यवस्था देनी है जगत को, और मनुष्य की जाति को जो सहज है। वह स्वीकृत हो सके। उसकी निंदा न हो। उसका निषेध न हो। उस सहज को कैसे हम स्वस्थ दिशा में ले जा सकते हैं। उससे जो सूत्र विकसित हों, उन्हें हम गति दें।
मनुष्य को सहज होने के लिए आयोजन करना है। मनुष्य ने असहज होने के लिए भारी आंदोलन कर लिया है। और एक-एक आदमी विकृत हो गया है। नया मनुष्य निर्सग का मनुष्य होगा। वह इनकार नहीं करेगा कि मैं पशु हूं। बहुत कुछ है उसमें, जहां वह पशु से जुड़ा है। और उसके मन में स्वीकृति होगी कि ठीक है। लेकिन अपनी पशुता की स्वीकृति उसे पशु नहीं बना देती। अपनी पशुता की स्वीकृति अपनी सहजता की स्वीकृति उसे सरल बनाती है। निर्सगता के अनुकूल बनाती है। और सरलता के मार्ग से वह पशु का और मनुष्य का अतिक्रमण कर सकता है। सहज होकर वह उसको भी पा सकता है जो प्रभु है। जटिल होकर तो वह अपने को ही खो देता है। प्रभु को पाने का सवाल ही नहीं। दमन से, तो वह स्वयं से ही टूट जाता है वह परमात्मा से कैसे जुड़ सकता है। मेरी बात है आदमी को आदमी से जोड़ देना है। और आदमी को हम आदमी से तब तक जोड़ नहीं सकते, जब तक हमारे मन में जैसा आदमी है उसकी स्वीकृति न हो। अस्वीकृति तोड़ रही है। दमन तोड़ रहा है। विरोध तोड़ रहा है। नये मनुष्य की जन्म की दिशा है सहज की दिशा, सरल की दिया, स्वाभाविकता की दिशा।
हम परमात्मा के खिलाफ लड़ रहे हैं। प्रकृति से, सहज से, निर्सग से लड़ना मूलतः ईश्वर का विरोध है। क्योंकि अगर ईश्वर का विरोध है। क्योंकि अगर ईश्वर को पसंद नहीं है प्रकृति और निर्सग तो कभी का उसे नष्ट कर देना चाहिए। लेकिन वह निरंतर प्रकृति को जन्म दिए चला जा रहा है। अनंत-अनंत रूपों में जीवन को विकसित किए चला जा रहा है। और हम मोक्ष के आकांक्षी हैं। मोक्ष का आकांक्षी अधर्मी है। जीवन की और परिपूर्ण जीवन की आकांक्षा चाहिए। अनंत जीवन की आकांक्षा चाहिए ऐसे जीवन की आकांक्षा चाहिए जिसका कोई अंत न हो। शायद मोक्ष का ठीक अर्थ यही होगा कि अनंत जीवन। जीवन की अनंतता। उसी में मैं एक हो जाऊं। लेकिन जो ऊर्जा हमारे भीतर प्रकट हो पा रही है उससे ही हम एक नहीं हो पा रहे हैं। उससे ही हमने दीवाल खड़ी कर ली है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं। पुराना मनुष्य गलत भित्ति पर खड़ा था। और अगर नई भित्ति हम मनुष्य को दे सकते हैं तो मनुष्यता बचाई जा सकती है। अन्यथा हम रोज-रोज पागल होते चले जाएंगे। हम रोज-रोज रुग्ण होते चले जाएंगे। हम रोज-रोज रुग्ण हो रहे हैं। आज अमेरिका में कोई पंद्रह लाख लोग रोज अपनी मानसिक चिकित्सा के लिए सलाह ले रहे हैं। यह सरकारी आंकड़ा है। और सरकारी आंकड़े कहीं भी सत्य नहीं होते। कम से कम तीस लाख लोग ले रहे होंगे। तब सरकार कहेगी कि पंद्रह लाख लोग चिकित्सा की सलाह ले रहे हैं। न्यूयार्क का अभी मनोवैज्ञानिक परीक्षण हुआ, केवल अठारह प्रतिशत लोग मानसिक रूप से स्वस्थ कहे जा सके। तो कितनी देर है कि जब पूरा आदमी पागल हो जाए। इतनी देर मैं यहां बोला।
एक घंटे अगर, तो एक घंटे में पृथ्वी पर साठ लोगों ने आत्महत्याएं कर लीं। प्रति मिनट एक आदमी आत्महत्या कर रहा है। क्या हो गया है आदमी को? और जो आत्महत्या नहीं कर रहे हैं वे आत्महत्या से भी बदतर हालत में जी रहे हैं। सिर्फ साहस नहीं जुटा पाते मरने का। इसलिए जीए चले जा रहे हैं। लेकिन उनके जीवन का कुल जोड़ एक लंबी आत्महत्या से ज्यादा नहीं निकलेगा। एक ग्रेजुअल स्युसाइड है। जिस तीस चालीस वर्ष में पूरा कर पाते हैं। कोई आदमी एक मिनट में पूरा कर लेता है। यह जो स्थिति है क्या यह स्थिति नहीं प्रतीत होती कि बदली जाए। क्या यह ऐसा नहीं लगता कि आदमी नया हो? लगता है प्रत्येक को लगता है। लेकिन जैसे ही यह लगता है कि आदमी को बदलना है वैसे ही एक दूसरा भ्रांत तर्क मन में बैठा है कि पिछले जैसे आदमी को बना देना चाहिए। गुरुकुल खोलने चाहिए। यहां काशी विद्यापीठ में पढ़ाने की कोई जरूरत नहीं। यहां लड़के बिगड़ते हैं। लड़कियां साथ हैं। गुरुकुल खोलने चाहिए। वहां पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य की शिक्षा देनी चाहिए। वहां दूर रखना चाहिए स्त्री और पुरुष को ताकि वह पास न आ पाएं। युवकों को फिल्में नहीं देखने देना चाहिए। उपन्यास नहीं पढ़ने देना चाहिए। ये बेवकूफी की बातें उठती हैं जब बदलाहट का सवाल उठता है।
इन्हीं बातों का यह फल है। और इन्हीं बातों को हम दोहराए चले जा रहे हैं। और जब भी सवाल उठता है तो चलो विनोबा के पास। चलो साधु-संतों के पास। उनसे पूछो कि क्या रास्ता खोजें। उन्होंने जो रास्ता बताया है वह आदमी को यहां ले आया है। और फिर उन्हीं के पास चलो। उनसे पूछो कि क्या रास्ता है। और वह दमन की, घुटने की, घोंटने वाली, गला घोंटू प्रवृति रोज चर्चित होती है। रोज प्रवचन होते हैं। उसी आदमी को रोज कसा जाता है। एक बड़े विद्रोह की जरूरत है। हम अतीत के पूरे मनुष्य के जीवन-आधारों को देख लें और खोजें कि हम कैसे हो गए हैं। उसे हो जाने में उन जीवन आधारों का क्या अंतर-संबंध है? उन आधारों की जगह नये आधार विचार करें, निर्मित करें। मैं नहीं कहता कि मैंने जो कहा वह आप मान लें। यह पुराना आदमी कहता था। वह भी पुराना आधार है कि हम जो कहें वह मान लें। तीर्थंकर जो कहें वह मान लें। मैं नहीं कहता कि मैंने जो कहा वह आप मान लें। तीर्थंकर जो कहें हम जो कहें वह मान लें। तीर्थंकर जो कहें वह मान लें। मैं नहीं कहता कि मैंने जो कहा वह आप मान लें। वह भी पुराना रोग है।
मैं आपसे कहता हूं कि आप ने मेरी बात सुनी बड़ी कृपा की। इतना ही करें कि मैंने जो कहा उसे सोचें। हो सकता है कि जो मैंने कहा वह बिलकुल गलत हो सकता है। सत्य का किसी का कोई ठेका नहीं है। मैंने जो कहा वह बिलकुल गलत हो सकता है या हो सकता है कि दुनिया में जो लोग पागल हो गए हैं मैं भी पागल हो गया हूं। और जो बातें कह रहा हूं पागल की बातें हैं। पागल को कभी पता नहीं चलता कि पागल है। हो सकता है कि मुझे पता न हो कि मैं पागल हूं। इसलिए मेरी बातों को मान लेने की जरूरत नहीं। सिर्फ सोचने का निवेदन है। और अगर प्रतीत हो कि सब गलत है तो कचरे की तरह बाहर फेंकते चले जाएं। और अगर कुछ बात ठीक लगे तो चिंता करें खोजें। जब आप सोच कर किसी बात को पाएंगे कि वह सत्य है तो वह बात मेरी नहीं रह जाती है वह आपकी हो जाती है।

मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। और अंत में सबके भीतर के परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूं। मेरा प्रणाम स्वीकार करें।

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