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गुरुवार, 30 अगस्त 2018

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(ओशो)

अहंकारी समाज सदा पीछे देखता है

एक काफिला रास्ता भटक गया था। आधी रात गए, एक रेगिस्तानी सराय में, उस काफिले को शरण मिली। बड़ा था काफिला, बहुत सौदागर थे। सौ ऊंटों पर लदा हुआ सामान था। थक गए थे, रात थक गए थे। शीघ्र उन्होंने खूटियां गाड़ कर ऊंटों को बांधा, विश्राम करने की तैयारी करने लगे, तभी पता चला कि एक ऊंट की खूंटी और रस्सी कहीं रास्ते में गिर गई। निन्यानबे ऊंट बंध गए, एक ऊंट अनबंधा रह गया। ऊंट को अनबंधा छोड़ना खतरनाक था। रात कहीं भटक सकता था। उन्होंने सराय के बूढ़े मालिक को जाकर काफिले के सरदार ने कहा, अगर एक खूंटी और रस्सी मिल जाए, तो बड़ी कृपा हो, हमारा एक ऊंट अनबंधा रह गया है। उस सराय के बूढ़े मालिक ने कहा, खूंटी और रस्सी की क्या जरूरत है, तुम तो खूंटी गाड़ दो और रस्सी बांध दो। वे लोग बहुत हैरान हुए, उन्होंने कहा, खूंटी हमारे पास होती तो, हम खुद ही गाड़ देते, कौन सी खूंटी दें? उस बूढ़े ने कहा झूठी खंूंटी गाड़ दो और झूठी रस्सी बांध दो। वह लोग कहने लगे आप भी पागलपन की बातें कर रहे हैं, झूठी खूंटी से कहीं ऊंट बांधे गए हैं?
झूठी रस्सी से कभी ऊंट बंधे हैं? उस बूढ़े ने कहा कि मैंने आदमियों और सबको झूठी खूंटियों से बंधा देखा है, ऊंट का क्या हिसाब है।

तुम तो बांध दो। लोग हैरान हो गए, लेकिन फिर सोचा कि देख लें, कोई और रास्ता भी नहीं था। अंधेरे में उन्होंने झूठी खूंटियां गाड़ी, खूंटियां नहीं थी, लेकिन गाड़ने का उपक्रम किया, हथौड़ों से आवाज की। ऊंट खड़ा था, वह बैठ गया, उसने समझा कि खूंटी गाड़ दी गई है। तब उन्हें थोड़ा विश्वास बढ़ा, उन्होंने उसके गले पर रस्सियां बांधी, जैसे कि रस्सियां होती और बांधते। झूंठे हाथ ही फिराये। और फिर रस्सियां बांध दी और जाकर सो गए। ऊंट भी सो गया।
सुबह जब उठे शीघ्र ही उन्हें यात्रा पर निकल जाना था, उन्होंने निन्यानबे ऊंटों की खंूंटियां निकाल ली, रस्सियां खोल दीं, सौवें ऊंट की कोई खूंटी न थी, इसलिए खोलने का कोई सवाल न था, निन्यानवें ऊंट चलने को तैयार हो गए, लेकिन सौवंें ऊंट ने उठने से मना कर दिया। वे बहुत जोर देने लगे, चाबुक चलाने लगे, लेकिन ऊंट है कि उठता नहीं, तब उन्हें शक हुआ कि उस बूढ़े ने कोई जादू तो नहीं कर दिया। रात भी शक हुआ था कि झूठी खूंटी से ऊंट बंध गया, कुछ मंत्र तो नहीं कर दिया। और जब सुबह ऊंट उठा ही नहीं, तब शक और पक्का हो गया। उन्होंने उस बूढ़े को जाके कहा कि क्या कर दिया है तुमने? ऊंट उठता नहीं। उस बूढ़े ने कहा पागलों, पहले खूंटी उखाड़ो और रस्सी खोलो। तो वह कहने लगे, खूंटी है नहीं, रस्सी है नहीं, उस बूढ़े ने कहा, जब बांधते वक्त थी, तो अभी भी है। मजबूरी थी, बड़ा पागलपन मालूम हुआ सुबह, सूर्य के प्रकाश में। भीड़ इकट्ठी हो गई। उस खूंटी को उखाड़ा भी नहीं, उस रस्सी को खोला भी नहीं कि ऊंट उठकर खड़ा हो गया। चलने को तैयार है। वह उस बूढ़े को धन्यवाद देने लगे और कहने लगे तुम्हें ऊंटो का बड़ा अनुभव मालूम होता है। उस बूढ़े ने कहा ऊंट मैंने पहली दफा देखे, मैंने तो आदमियों के अनुभव के आधार पर कह दिया।
आदमी बहुत सी झूठी खूंटियों में बंधा है, बहुत सी झूठी रस्सियों में; जिनका कोई अस्तित्व नहीं है। सिर्फ कल्पना में ही उनका अस्तित्व है। एक-एक व्यक्ति भी झूठी खूंटियों से बंधता है। समाज भी राष्ट्र भी, पूरी की पूरी सभ्यता भी और संस्कृति भी झूठी खूंटियों से बंधी हो सकती है।
आज तीसरे सूत्र में झूठी खूूंटी की बुनियादी बात को समझ लेना जरूरी है। क्योंकि जब तक हम झूठी खूंटियों से मुक्त न हो जाएं, तब तक समाज में कोई क्रांति नहीं हो सकती। और पहली झूठी खूंटी, हमारी बुनियादी झूठी खूंटी क्या है? एक-एक आदमी भी उसी बुनियादी झूठी खूंटी से बंधता है। समाज भी, राष्ट्र भी, सभ्यताएं और संस्कृतियां भी। वो झूठी खूंटी है अहंकार की। एक ओर एक-एक आदमी को तो अक्सर हम कहते हैं कि अहंकारी मत बनो, लेकिन जब पूरा समाज अहंकार करता है तो कोई भी नहीं कहता। क्योंकि समाज के अहंकार में सबके अहंकार की तृप्ति होती है। जब पूरा राष्ट्र अहंकार से बंधता है तो कोई भी नहीं कहता, क्योंकि पूरे राष्ट्र में सभी के अहंकार की तृप्ति होती है। अगर मैं अहंकार करूं तो पड़ोसी को चोट पहुंचती है, वो कहता है कि अहंकार बुरी चीज है। लेकिन अगर पूरा राष्ट्र अहंकार करे तो राष्ट्र में किसी को पता नहीं चलता कि राष्ट्र का अहंकार और भी खतरनाक चीज है। अगर एक-एक आदमी का अहंकार खतरनाक है, तो पूरे-के-पूरे समाज, समूह और संस्कृति का अहंकार और भी खतरनाक है। क्योंकि एक आदमी का अहंकार छोटा सा अहंकार है, संस्कृति और समाजों के अहंकार बहुत मजबूत। और एक आदमी का अहंकार एक जिंदगी में खत्म हो जाएगा, धूल में मिल जाएगा। लेकिन संस्कृतियों के अहंकार धूल में नहीं मिलते, वह जारी रहते हैं, हजारों, लाखों वर्ष तब चलते रहते हैं। इतने मजबूत होते हैं कि उन्हें पकड़ना बहुत मुश्किल होता है।
भारत बहुत अहंकारी समाज है। हम हजारों साल से यह धारणा बनाए बैठे हैं कि हम जगतगुरू हैं। कोई कहे या न कहे, हम अपने मुंह से सारी दुनिया में प्रचार करते रहते हैं कि हम जगतगुरू हैं। शर्म भी हमें नहीं आती, संकोच भी नहीं होता। और यह भी नहीं लगता कि अपने मुंह मियां-मिट्ठू बनना, बहुत दीनता का लक्षण है। ध्यान रहे जो समाज जितना हीन होता है, उतना वो अहंकार पोषता है। हीनता अहंकार की जननी है। जितना इनयूरिटि काॅम्पलैक्स होती है किसी आदमी में, जितनी हीनता की वृद्धि होती है उतना ही दम, घोषणा करता है वह। और जो समाज जितना हीन होता है, उतने ही अहंकार का पोषण करता है। भारत इतना अहंकार का पोषण करता है, उसका एक ही कारण है कि समाज बहुत भीतर से हीन, आत्मा को खो चुका है। भीतर से सड़ चुका है, भीतर से खोखला है। बाहर अहंकार की घोषणाएं और अंदर हम गुरू हैं। कौन कहता है जगतगुरू? पूरा मुल्क ही जगतगुरू है, और गांव-गांव में भी जगतगुरू बैठे हुए हैं, जगत एक है और जगत गुरू बहुत। कोई पूछता नहीं कि एक जगत के इतने गुरू कैसे हो जाते हैं? और बड़ा मजा यह है कि यह जगतगुरू जगत से बिना पूछे जगतगुरू हो जाते हैं। जगत से उन्होंने कभी नहीं पूछा, हमें गुरू मानते हो?
मैं एक गांव गया, तो वहां भी एक जगतगुरू थे। मैंने पूछा जगतगुरू यहंा भी, इस छोटे से गांव में भी? कितने शिष्य हैं इनके? जो लोग उनके पास मिलने आए थे, उन्होंने कहा कि शिष्यों की अगर पूछते हैं तो शिष्य तो सिर्फ एक है, वह भी वैतनिक है। उसको तनख्वाह देते हैं। वह जमाने गए कि मुत में शिष्य मिल जाते थे। शिष्यों को भी खरीदना पड़ता है। खरीदने के सिक्के तो भी हो सकते हैं दूसरी बात है, लेकिन शिष्य भी खरीदने पड़ते हैं। और गुरूओं और धर्मों के बीच जो झगड़ा है वह झगड़ा सत्य का नहीं है, न परमात्मा का है, सिर्फ शिष्यों को खरीदने का झगड़ा और कोई झगड़ा नहीं है। दुकानदारी में ग्राहकों को खरीदने के झगड़े, गुरूओं के अड़्डे, मस्जिद-मंदिरों और ग्राहकों को खरीदने के झगड़े, धर्मों के नाम पर सारे झगड़े शिष्यों को खरीदने के झगड़े और कोई झगड़ा नहीं है।
एक ही शिष्य वह भी वैतनिक, फिर यह जगतगुरू कैसे हो गए? गांव वाले हंसने लगे। वह कहने लगे कि वह हैं जगतगुरू, उन्होंने बड़ी ऊंची तरकीब निकाली है, और उनके ऊपर कोई वैधानिक आरोप भी नहीं उठा सकता है। उनका जगतगुरू होना बिल्कुल काॅन्सटिट्यूशनल है। वैज्ञानिक ढंग से उनका एक शिष्य उसका नाम उन्होंने जगत रख लिया, वह जगतगुरू हो गए। गांव-गांव जगतगुरू है, और पूरा मुल्क भी जगतगुरू है, हजारों साल से ये एक ही बात दोहराए चले जा रहे हैं। और कोई हमरे बीच यह नहीं सोचता कि यह थोथा दंभ किसलिए, बोलते हो? कभी खबर है इस बात की, कभी सोचा यह कि भिखमंगे सिर्फ सम्राट होने का सपना देखते हैं, सम्राट नहीं। जो कौमें हार जाती हैं, वह विदेशी कथाओं को याद करती हैं। जो कौमें मर चुकी होती हैं, वह अतीत के स्वर्ण युगों की बात करती हैं। और जिनके पास कुछ भी नहीं होता, वह कुछ भी घोषणाएं करके मन को काॅन्सोलेशन और सांत्वनाएँ देते रहते हैं। सपने वो वही देखते हैं, जो हमारे पास नहीं होता है, जो हमारी मांग होती है।
मैंने सुना है, एक झाड़ के नीचे बैठके एक बिल्ली नींद ले रही थी और सपना देख रही थी। एक कुत्ता वहां से गुजरता था, उसने कहा, देवी! बड़ा आनंद ले रही हो। सपने में भी लार टपकी जा रही तुम्हारी। आंखें तो खोलो, क्या देख रही हो? तो वो बिल्ली बोली कि व्यर्थ मेरी नींद खराब कर दी, मैं एक बहुत खूबसूरत सपना देख रही थी। आकाश से चूंहे टपक रहे थे, एकदम मूसलाधार थी वर्षा। उस कुत्ते ने कहा नासमझ! नादान बिल्ली, मूर्ख बिल्ली तुझे ये भी पता नहीं कि आज तक हमारे किसी भी शास्त्र में यह नहीं लिखा है कि चूहों की वर्षा होती है। शास्त्रों में यह लिखा है कि कभी-कभी जब भगवान की कृपा होती है, तो हड्डियों की वर्षा होती है, चूहों की वर्षा कभी मैंने नहीं सुनी।
हमने भी सपने देखे हैं, झूठ सपना देख रहे हैं। हम जब भी सपना देखते हैं, हड्डियां ही बरसती हुई दिखती हैं। ठीक है कुत्ते सपना देखेंगे तो हड्डियां बरसेंगी। और बिल्लियां सपना देखेंगी तो चूहों की मूसलाधार वर्षा होगी। गरीब सपना देखेगा तो सम्राट हो जाएगा। और जो कुछ भी नहीं हैं, वह सपना देखेंगे तो जगतगुरू मालूम पड़ेंगे। यह सपने हैं, झूठी खोजें हैं। इन झूठी खोजों में रहेंगे तो देश पिछड़ता चला जाएगा। नहीं, जीवन को तथ्यों और देखने से जीता जाता है। सपनों को देखने से नहीं। भारत को अपनी वस्तुस्थिति देखने की हिम्मत जुटानी चाहिए, वह हम आज तक नहीं जुटा पाए कि हमारी वस्तुस्थिति क्या है? हम क्या हैं, असलियत में। हम सिर्फ कल्पनाएं और सपनों के जाल की घोषणाएं करते हैं, और मालूम होते हैं कि वह हम हैं। इस भांति हम किसको धोखा दे रहे हैं? किसी को भी नहीं, सिर्फ अपने को। सिर्फ स्वयं को धोखा दे देते हैं, सैल्फ डिसेप्शन है। और इसी तरह के अहंकार कि भारत एक धार्मिक देश है। इससे झूठी कोई बात हो सकती है कि भारत एक धार्मिक देश है। क्या मतलब होता है धार्मिक होने का कि आदमी चोटियां बढ़ाएं रखे तो धार्मिक हो गया, कि आदमी रंगीन कपड़े लपेट ले तो वह धार्मिक हो गया। कि आदमी रोज सुबह उठके मंदिर हो आया तो वह धार्मिक हो गया। अगर मंदिरों में जाने से कोई धार्मिक होता हो तो, चोटियां बढ़ाने से कोई धार्मिक होता हो तो दुनिया कभी की धार्मिक हो गई होती। इतना सस्ता नहीं है धार्मिक हो जाना। किसको धोखा देते हैं धार्मिक होकर। जिंदगी अधार्मिक है, बिलकुल निपट अधार्मिक, लेकिन नहीं, हम कहेंगे, कैसे अधार्मिक? हम गंगा स्नान करते हैं। गंगा स्नान करने से धर्म का क्या संबंध। लेकिन हम कहेंगे, गंगा स्नान करने से पाप सब बह जाते हैं। बेईमानों ने इजाद की होगी ये बात, कि गंगा में स्नान करने से पाप बह जाते हैं। पापियों ने इजाद की होगी ये बात, जो पाप भी करना चाहते हैं, और पाप से छूटना भी नहीं चाहते हैं। नदियों में स्नान करके मन को समझा देते हैं कि पाप बह जाते हैं। नदियों में स्नान करने से पाप बहता तो दुनिया कभी की पवित्र हो गई होती।
रामकृष्ण के पास एक दिन एक आदमी गया और कहा कि मुझे आशीर्वाद दें कि मैं गंगा स्नान करने जा रहा हूं। रामकृष्ण ने कहा, पागल हो गए हो, गंगा स्नान किसलिए जा रहे हो? उस आदमी ने कहा कि पाप डूब जाते हैं गंगा में, गंगा का पवित्र पानी है, इसलिए जा रहा हूं। आशीर्वाद दें। तो रामकृष्ण बहुत सरल-सीधे आदमी थे, उन्होंने कहा, जाता है तो जा, लेकिन एक बात ध्यान रखना, गंगा के किनारे बड़े-बड़े दरख्त देखे हैं किसलिए? उस आदमी ने कहा किसलिए? मुझे कुछ पता नहीं। गंगा का महत्व तो पढ़ा है, लेकिन दरख्तों का भी कोई महत्व होगा, जो किनारे खड़े हैं, जो किताब में लिखा नहीं। रामकृष्ण ने कहा, वह मैं तुझे बताये देता हूं। जब तू पानी में डूबेगा, तो गंगा के प्रभाव से पाप अलग हो जाएंगे, दरख्तों पर चढ़कर बैठ जाएंगे। जब तू वापस लौटेगा तो तेरे ऊपर फिर से सवार हो जाएंगे। हां, अगर पाप से बचना हो तो गंगा में डूबे तो फिर निकलना मत, डूबे ही रहना। तो बच सकता है। क्योंकि गंगा तभी तक तो पवित्र कर सकती होगी, जब तक डूबे हुए होंगे। बाहर निकलोगे तो फिर वही न हो जाओगे जो थे। और मजे की बात है कि गंगा में डूबने से गंगा के भीतर भी मर सकते हो, लेकिन पाप से कैसे मुक्त हो सकते हो? क्या संबंध है उसमें, क्या संबंध है। कौन सा तर्क है? हम इस तरह की बातों को धार्मिक होना समझते हैं।
एक आदमी है और धार्मिक हो जाता है। और चारों तरफ देखता जाता है मंदिर जाते वक्त कि लोग देख रहे हैं कि नहीं, मैं मंदिर जा रहा हूं। उतना ही मजा है मंदिर जाने का, रिस्पेक्टिबिलिटि, थोड़ा सा आदर चारों तरफ के नासमझ देते हैं, उसे अतिरिक्त कोई और अर्थ नहीं। मंदिर बना लेता है एक आदमी और सोचता है कि धार्मिक हो गया हूं। कोई आदमी यज्ञ करवा लेता है और सोचता है कि धार्मिक हो गया। धार्मिक होना इतनी आसान बात है, धार्मिक आदमी होता है चेतना के रूपांतरण से। धार्मिक होता है आत्मा के परिवर्तन से, धार्मिक आदमी होता है प्रभु के मंदिर में प्रवेश से। आदमियों के बनाए हुए मंदिर में प्रवेश से कोई धार्मिक नहीं होता। न हो सकता है। आदमी बना ही कैसे सकता है प्रभु के मन्दिर को कभी, यह सोचा? आदमी बना कैसे सकता है प्रभु की मूर्ति को? सब खिलौने हैं अपने हाथ से बनाए हुए। भगवान को आदमी कैसे बना सकता है? अपनी ही मूर्तियां बनाके रखी हुई हैं मंदिरों में, उनकी पूजा करो, अपनी ही मूर्तियों के सामने हाथ जोड़के बैठे हुए हो। भगवान अगर कहीं है तो आदमियों की बनाई हुई मूर्ति में नहीं। और जिनको चारों तरफ जीवित जगत में भगवान दिखाई नहीं पड़ता, उन पागलों को पत्थर की मूर्ति में दिख जाएगा, वो बड़ा आश्चर्यजनक है। नहीं, ये सब धर्म नहीं है, लेकिन इसी सब को मानकर हम लोग धार्मिक हो गए हैं।
मेरे एक मित्र स्वीडन गए हुए थे। वह पटना यूनीवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। बड़े तथाकथित धार्मिक हैं। शंकर जी की पिंडी अपने पास रखते हैं, छाती के पास दबा कर कि कहीं कोई बुराई न हो जाए। अब यह बेचारी शंकर जी की पिंडी क्या करेगी? तुम्हें बुराई करने से रोक लेगी। तुम्हारे साथ वह अपवित्र हो जाएगी, तुम उसके साथ पवित्र नहीं हो सकते हो।
गए थे स्वीडन। शाकाहारी हैं। एक शाकाहारी होटल खोज-खाज के पहुंचे होंगे। और वहां जाके उन्होंने कहा होगा मुझे शुद्ध दूध चाहिए। प्योर मिल्क चाहिए। उस बैरा ने कहा, प्योर मिल्क? कभी सुना नहीं। कंडल्स मिल्क सुना है। पेश्चोराइ.ज्ड मिल्क सुना है। प्योर मिल्क क्या बला है? उन्होंने कहा तुम समझते नहीं, अपने मैनेजर को बुला लो। मैनेजर भी घबराया हुआ आया और कहा कि महाशय! क्षमा करिए, हम बड़े दुःखी हैं कि आपकी सेवा करने में असमर्थ हैं। हमारे मेन्यु में प्योर मिल्क जैसी कोई चीज नहीं। मिल्क मिल सकता है, और तरह के मिल्क मिल सकते हैं। लेकिन प्योर मिल्क से क्या मतलब है आपका? उन्होंने कहा, मतलब साफ है कि जिस दूध में पानी न मिला हो, उसको हम शुद्ध दूध कहते हैं। उस मुल्क के अंदर कोई देश ऐसा भी है, जहां लोग दूध में पानी मिलाते हों? दूध में पानी कोई किसलिए मिलायेगा? हमारा दिमा.ग खराब है? हम दूध में पानी किसलिए मिलायेंगे? तब उस मित्र को होश आया कि वो धार्मिक देश से आए हैं। और कहने लगे कि क्षमा करना, हमारे देश में तो बहुत मुश्किल है ऐसा दूध मिलना, जिसमें पानी न मिला हो।
मुझे लौटके बता रहे थे, मैंने कहा कि तुम्हें अभी पूरी हालतें पता नहीं हैं। वह जमाना गया, जब दूध में हिन्दुस्तान में पानी मिलाया जाता था। अब पानी में दूध मिलाया जा रहा है। वह पिछले जमाने की बातें कर रहे हो, अब धार्मिक हिन्दुस्तान और भी आगे बढ़ गया। और भी धार्मिक हो गया है।
धार्मिकता होती है व्यक्तित्व की सुगंध में, धार्मिकता क्रिया में नहीं होती। धार्मिकता एक सुगंध है जो पूरे जीवन के आचरण में, पूरे जीवन की गंध, पूरे जीवन के व्यक्तित्व के खिलने से प्रकट हेाती है। लेकिन यहां यही समझाया जाता रहा है कि इस तरह के थोथे काम कर लो, और धार्मिक हो जाओ। और बाकी जिंदगी में पूरी तरह अधर्म करो, उसका कोई डर नहीं है, क्योंकि सप्ताह में एक दिन सत्यनारायण की कथा करवा लेंगे। या कभी वर्ष में एक बार तीर्थ हो आएंगे। या मरते वक्त भगवान का नाम ले लेंगे। हद हो गई, जिस आदमी ने जिंदगी भर भगवान से कोई संबंध नहीं जोड़ा, वह भी सोचता है कि मरते वक्त नाम ले लेंगे। ऐसे कहिए और शोषण करने वालों ने...।
एक आदमी मर रहा था उसके बेटे का नाम नारायण था, मरते वक्त उसने अपने बेटे को बुलाया नारायण, और आकाश वाला नारायण धोखे में आ गया और समझा कि मुझे बुला रहा है, वह फौरन चल दिया। तुम तो बुद्धू हो ही, आकाश में नारायण को भी बुद्धू बनाने की सोच रहे हो। वह अपने बेटे को बुला रहे थे। और नारायण धोखे में आ गए। अगर इतना सस्ता हो मोक्ष में चले जाना, तो कोई आदमी धार्मिक होने की कोशिश क्यों करे? मरते वक्त एक दफा नाम ले लेंगे, और अगर स्वयं की जबान बंद हो जाए, तो एक ब्राह्मण को किराए पर रख लेंगे। वह नाम कान में बोलता रहेगा, नारायण, नारायण। जिंदगी अखंड है, ऐसा नहीं होता कि जिंदगी भर एक आदमी अधार्मिक रहा हो और मरते वक्त भगवान का नाम ले ले। पहला तो मजा यह कि भगवान का नाम नहीं है कोई। भगवान का कोई नाम नहीं है। आदमी का भी कोई नाम नहीं है। आदमी बिना नाम के पैदा होता है, नाम हम देते हैं। नाम कहीं भी नहीं है, नाम मनुष्य की इजाद है। भगवान का तो कोई भी नाम नहीं। नाम पुकारेंगे कैसे? लाख चिल्लाओं राम-राम, रहीम-रहीम, खाली आकाश में व्यर्थ चिल्ला रहे हो, उसका कोई नाम नहीं है जिसको तुम बुला रहे हो। उसको बुलाना हो तो उसका बुलाना बंद कर देना पड़ता है। चुप हो जाना पड़ता है, मौन हो जाना पड़ता है। मानों शब्द ही खो जाता है, विचार भी खो जाता है, सब खो जाता है। शास्त्र भी खो जाता है, सोया हुआ भी खो जाता है। वहां परिपूर्ण मौन है, टोटल साइलैंस है, वहां उसकी पुकार होती है। और जो राम-राम, राम-राम कर रहा है, उस आदमी का दिमाग खराब है और कुछ भी नहीं। अगर एक आदमी बैठके कुर्सी-कुर्सी, कुर्सी-कुर्सी करे तो हम उसका इलाज करवाएंगे। और एक को हम समझ रहे हैं कि धार्मिक, बड़े महात्मा उनको हम हाथ जोड़ रहे हैं। सब दिमाग विकृत है। शब्दों की पूजा पागलपन का, लक्षण है। शब्द का छूट जाना धार्मिक होने का लक्षण है। यह राम-राम का जो चक्कर चला रहा है, एक आदमी का मस्तिष्क, कोल्हू का बैल हो गया है। चक्करों के भीतर घूम रहा है, इसको हम कहते हैं कि धार्मिक है। जिंदगी एक अखंड धारा, गंगा निकलती है गंगोत्री से।
जिंदगी भर पूछता था, तिजोरी की चाबी, यह, वह, यह सब बातें पूछता था। अंतिम क्षणों में पूछा अपने बेटे को, किसी ने कहा निश्चिंत रहो, बेटा मौजूद है, उस आदमी ने और घबराकर पूछा कि नम्बर दो का बेटा कहां है? उसकी पत्नी ने कहा, सब यहीं है, नम्बर दो का भी मौजूद है। नंबर तीन? वह भी है, वह आदमी हाथ उठा कर उठने लगा। उसकी पत्नी ने कहा, आप लेटे रहें, आप उठें मत। तो उसने कहा नम्बर चार, पत्नी ने कहा, आप घबराते क्यों हैं? हम सब यहीं मौजूद हैं। नंबर चार भी यहीं मौजूद है। वह आदमी उठकर बैठ गया, नम्बर पांच कहां हैं? वह आपके पैर के पास बैठा है, आप घबराते क्यों हैं? उस आदमी ने कहा घबराऊं क्यों नहीं, फिर दुकान कौन चला रहा है? जब सब यहीं पर बैठे हैं। दुकान पर कौन है?
वह पत्नी भूल में थी कि प्रेम की याद आ रही है। जिंदगी भर जिसको पैसे की याद आई हो, उसे मरते वक्त प्रेम की याद कैसे आ सकती है? असंभव है, इम्पाॅसिबिलिटि है। चित्त के भी तो नियम हैं कुछ। चित्त में भी तो कोई स्थापत्य है। चित्त की भी तो कोई धारा है। चित्त जैसा निर्मित हुआ है, वही होगा आखिरी क्षण में। इसलिए धार्मिक होना कुछ ऐसा नहीं है कि आप आखिरी वक्त में धार्मिक हो जाएंगे, और न ही धार्मिक होना कुछ ऐसा है, कि तेईस घंटे आप धार्मिक रहें और एक घंटे आप धार्मिक हो जाएं। यह भी नहीं हो सकता। यह हो सकता है कि तेईस घंटे सांस न लें और एक घंटे सुबह सिर्फ सांस लें? यह हो सकता है कि एक घंटे सांस लेंगे और तेईस घंटे सांस नहीं लेंगे। तो फिर दोबारा घंटा नहीं आयेगा, वह सांस लेने वाला। सांस एक सतत धारा है, चेतना भी सांस की तरह एक धारा है, आप एक घंटे के लिए धार्मिक नहीं हो सकते, हां, धार्मिक होने का धोखा दे सकते हैं, लेकिन किसको? सिवाय अपने के और किसी को भी नहीं। एक घंटे के लिए आदमी धार्मिक होने का सिर्फ धोखा दे सकता है। क्योंकि कोई आदमी अगर एक घंटे के लिए धार्मिक हो जाए, तो सारी जिंदगी धार्मिक होने की यात्रा में संलग्न हो जाएगी। तो धार्मिक होना इतनी बड़ी बात है। धार्मिक होना इतना बड़ा ट्रांसफोर्मेशन है। सारी चेतना का बदल जाना, और नया हो जाना। तो धार्मिक होने का भ्रम है लेकिन देश को, और इस भ्रम के कारण देश धार्मिक नहीं हो पाता है। धार्मिक होने की झूठी खूंटी गाड़ रखी है। और उस खूंटी को जगतगुरू, शंकराचार्य, और फलाने गुरू, और ढिकाने गुरू, सबके सब खूंटी को गाड़ते चले जाते हैं, ठोकते चले जाते हैं, ठोकते चले जाते हैं।
अभी मैंने पढ़ा, कल्याण में एक लेख देखा। देखके मैं हैरान रह गया, एक बीसवीं सदी में, एक भारत में ऐसी दुर्भाग्य की घटनाएं भी घटती हैं। शंकराचार्य दिल्ली में ठहरे हुए हैं कि मठ के, और एक आदमी उनके पास आया, और उसने हाथ जोड़के प्रार्थना की, मैं, हम लोग की एक छोटी सी मंडली है। हम चाहते हैं कि आप हमें ब्रह्मज्ञान पर चलकर उपदेश दें। शंकराचार्य ने नीचे से ऊपर तक उस आदमी को देखा और कहा ब्रह्मज्ञान? कोट-पतलून पहन कर ब्रह्मज्ञान पाना चाहते हो। तो ऋषि-मुनि नासमझ थे, नहीं तो वह भी कोट-पतलून पहन लेते। कोट-पतलून पहनकर कभी किसी को ब्रह्मज्ञान हुआ है? बता सकते हो। वह आदमी घबरा गया होगा। वह बेचारा ब्रह्मज्ञान के संबंध में सुनने गया था, उसे पता नहीं था कि ब्रह्मज्ञानी की जगह एक दर्जी बैठा हुआ है। जिसका हिसाब कपड़े-लत्तों का है। अगर चमारों के पास जाओ तो सिवाय जूते के उनको कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। दर्जी के पास जाओ सिवाय कपड़े के उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। एक सन्यासी के पास हम आशा नहीं करते हैं कि कपड़े दिखाई पड़ेंगे उसको, वह तो कुछ और दिखना चाहिए, कपड़ों के पास। उसे कुछ और दिखना पड़ना चाहिए, जहां शरीर भी नहीं दिखाई पड़ता। और उन्हें कपड़े दिखाई पड़ रहे हैं। और यह जगतगुरू हैं, यह संयासी हैं, यह मुल्क को धार्मिक बना रहे हैं। यह सब धोखाधड़ी चलेगी तो यह मुल्क मरेगा, इस मुल्क में कभी क्रांति नहीं हो सकती। यहीं बात नहीं दब गई यह। आस-पास दस-पच्चीस लोग बैठे होंगे वहां। वह सब सराहने लगे कि महाराज, कितनी ऊंची बात कह दी। इन दोस्तों से पीछा नहीं छूटता महाराजों का। वह वहम पैदा करते रहते हैं कि बड़ी ऊंची बात कही जा रही है, महाराज का जोश और बढ़ गया होगा। महाराज का जोश उतना ही बढ़ता है, जितने अनुयायी नासमझ हों। उन्होंने कहा चोटी है? चोटी है कि नहीं? चोटी निकाल कर दिखाओ अपनी। नहीं थी चोटी। वह आदमी कैसा घबरा गया होगा? उस बेचारे का कैसा अपना हुआ है? ब्रह्मज्ञान पूछने गया था। और यहीं बात खत्म नहीं हो गई, जाहिलपन की हद हो गई। आखिरी जो बात उन्होंने कही हैरानी होती है। उस आदमी से पूछा कि खड़े होकर पेशाब करते हो कि बैठकर? क्योंकि खड़े होकर पेशाब करने वाले लोगों को ब्रह्मज्ञान नहीं हो सकता। यह मुझे पहली दफा पता चला कि ब्रह्मज्ञान का भी पेशाब करने के ढंग से संबंध है। इस स्टुपिडिटि का नाम धर्म है, इस मूर्छा का नाम धर्म है? इसको चलाएंगे इस देश में और आगे? इसको एक दिन चलाने की जरूरत नहीं है। एक क्षण चलाने की जरूरत नहीं है। वो झूठी खूंटी उखाड़ फेंक देने लायक है।
तकलीफ होगी जरूर बहुत। तकलीफ यह होगी कि हमारा अहंकार जुड़ गया है, इस बात से कि हम धार्मिक लोग हैं। और अहंकार बड़ी तकलीफ देता है, जब टूटता है। अहंकार जब खिसकता है तो प्राणों को बड़ा कष्ट होता है। मन होता है कि अपने अहंकार को संभाले रहो। आंख बंद रखो, मत देखो, उसकी तरफ, जो अहंकार को चोट पहुंचती है। और अहंकार बुनियादी कमजोरी है, बेसिक वीकनैस है। चाहे आदमी में हो, व्यक्ति में हो, चाहे राष्ट्र में हो।
मैंने सुना है एक दिन सुबह, एक सम्राट अपने घोड़े पर, एक छोटे से झोपड़े के सामने रूका है। थका हुआ है, शायद रात भटक गया होगा, शायद शिकार पे निकला होगा, और रास्ता भूल गया, राजमहल नहीं पहुंच पाया। झोपड़े का मालिक एक गरीब बूढ़ा अपने दरवाजे पर बैठा उसको नमस्कार करता है। वह सम्राट कहता है, मैं बहुत भूखा हूं, दो-चार अंडे मिल सकते हैं। बूढ़े ने कहा निश्चित ही, स्वागत है। वह भागा हुआ भीतर गया और दो-चार अंडे लेकर आया, थोड़ा दूध लेकर आया। सम्राट ने नाश्ता किया, और चलते वक्त उससे कहा कि कितने पैसे हुए? उस बूढ़े ने कहा ज्यादा नहीं महाराज! सिर्फ सौ रूपये? सम्राट ने कहा सौ रूपये? चार अंडों, के सौ रूपये? बहुत महंगी चीजें मैंने जिंदगी में खरीदीं, लेकिन इतने महंगे अंडे यहाँ? आर एग्स सो रियर हियर? इतना मुश्किल है अंडे का मिलना क्या यहां? उस आदमी ने कहा, नहीं महाराज! एग्स आर नाॅट रियर, बट किंग्स आर। अंडों का मिलना तो बहुत मुश्किल नहीं है, लेकिन राजाओं का मिलना बहुत मुश्किल है। उस सम्राट ने सौ रूपये निकाल के एकदम से दे दिये। उस बूढ़े की औरत बड़ी हैरान हुई। चार पैसे के अंडे नहीं थे, सम्राट के घोड़े की टाप सड़क पर बढ़ी तो उस बूढ़ी ने अपने पति से पूछा, आश्चर्य, कैसे लूट लिया तुमने उस आदमी को? सौ रूपये? चार अंडों के? क्या हो गया, क्या तरकीब थी? उस आदमी ने कहा, तुझे तरकीब पता नहीं। आदमी के भीतर एक कमजोरी है, जिसके भी भीतर हो, उसको लूटा जा सकता है। उसने कहा कौन सी कमजोरी? उस आदमी ने कहा, मैं तुझे एक कहानी बताता हूं अपनी जवानी की जिंदगी की। जब मैंने यह तरकीब सीखी। शायद तुझे समझ में आ जाए।
जब मैं जवान था, बहुत गरीब, बहुत परेशान था, तो एक गुरू से मैंने पूछा, कैसे रूपया कमाऊं। उसने कहा, रूपये हैं तुम्हारे पास? क्योंकि रूपये हो तो, रूपये-रूपये को खींच लाते हैं। रूपये नहीं थे। तो फिर उसने कहा तुम्हें तरकीब सीखनी पड़ेगी। ऐसी तरकीबें हैं कि बिना रूपये के भी रूपया खिंच आता है। वह क्या तरकीब है? उसने कान में मंत्र दिया, उसका मंत्र लेकर मैं बाजार गया। मंैंने चार रूपये की पगड़ी खरीदी उधार, रूपये तो नहीं थे। रंगीन और चमकदार पगड़ी सर पर रखी और सम्राट के दरबार में पहुंच गया। इतनी चमकदार पगड़ी थी कि जिसकी भी नजर जाए और वह पगड़ी दिखाई पड़े। सब सस्ती चीजें चमकदार होती हैं। और चमकदार चीजों से सावधान रहना चाहिए। क्योंकि असली चीज कभी भी चमकदार नहीं होती है। असली चीज को चमकदार होने की जरूरत नहीं होती। नकली चीज को चमकदार होने के सिवाय कोई रास्ता नहीं होता। चमक में वह उसकी जिंदगी होती है, वह जो बाहर दिखाई पड़ती है, वही वह है, भीतर तो कुछ भी नहीं है। सम्राट को भी एकदम पगड़ी दिखाई पड़ी, बड़ी रंगीन, बड़ी चमकदार ऐसी पगड़ी उसने भी कभी नहीं देखी थी। उसने पूछा, पगड़ी कहां से ले लाए हो? तो उसे बूढ़े ने कहा, मैंने उस सम्राट को कहा कि महाराज बहुत महंगी चीज है। आपके बस के बाहर है। उसने कहा, क्या कहते हो? कितनी महंगी है? तो उसके गुरू ने उसे बताया था कि बता देना पांच हजार। उसने कहा, पांच हजार रूपये की है महाराज, विश्वास आता है? सम्राट ने कहा, हैरान कर दिया। और तभी वजीर जो बगल में बैठा था, वो झुका और सम्राट के कान में कुछ बोला। उस बूढ़े ने कहा कि मैं समझ गया, वजीर क्या बोल रहा है। क्योंकि जो आदमी किसी को लूटता रहता है, वह दूसरे को नहीं लूटने देना चाहता। मैं समझ गया वह क्या कह रहा होगा? सम्राट ने कहा कि पागल हो गए हो, लूटना चाहते हो, बेईमान कहीं के। कारागृह में डलवा दूंगा। तो उस बूढ़े ने कहा कि मैं हंसने लगा, मैंने कहा कि ठीक है वही सुनने को मिला, जो सुना था, खबर मिली थी। तो मैं जाऊं। क्षमा करें, गलती जगह आ गया। सम्राट ने पूछा, तेरा मतलब क्या है? तो मैंने कहा कि मुझे कहा है, इस पगड़ी के मालिक ने कि .जमीन पर एक ही ऐसा सम्राट है, एक ही इस पूरी पृथ्वी पर, जो इस पगड़ी को पांच हजार रूपये में खरीद सकता है। मैं उसी की खोज में निकला हूं, क्षमा करें महाराज, गलत जगह आ गया। उस सम्राट ने कहा, पगड़ी खरीदो, पगड़ी इसी वक्त खरीदो। वह पगड़ी पांच हजार रूपये में खरीदी गई।
ह्यूमन वीकनैस। आदमी की एक ही कमजोरी है, अहंकार। एक-एक आदमी की कमजोरियों में बदलाव होता है। और जब कोई पूरा समाज इस कमजोरी में पड़ जाता है तो, उसकी बर्बादी निश्चित हो जाती है। भारत अहंकार की वजह से बर्बाद हुआ है। और भारत आज भी अहंकार को ही लेकर जी रहा है। और कितने आश्चर्य की बात है कि अहंकार गिरने के कितने मौके आए, लेकिन हमने संभाल लिया। हजार साल गुलाम रहे लेकिन अहंकार को नहीं गिरने दिया। लातें र्खाइंं, न जाने किन-किन कौमों की। जो भी कौम आई उसने लातों से गिरा दिया। लेकिन हम सब तरह से गिर गए लेकिन अहंकार को ऊंचा रखा, उसको नहीं गिरने दिया। दीन हुए, दरिद्र हुए, सब खो दिया। बाहर की संपदा खो दी, भीतर की आत्मा खो दी, सब खो दिया। लेकिन एक बात बचाए रखे, वो अहंकार, वो इगो कि हम, हम कुछ हैं। जगतगुरू हैं, धर्मनिष्ठ है, आध्यात्मिक हैं, यह बातें हमने बचाए रखीं। इन झूठी खूंटियों पर देश अटका है, अगर क्रांति चाहिए तो इस अहंकार को जाने दो। कष्ट होगा लेकिन इस कष्ट को झेल लेना जरूरी है। जैसे मां प्रसव की पीड़ा को झेलती है, नए जन्म के पूर्व। अगर इस समाज को नया जन्म चाहिए, तो इसे अहंकार को मिटाने की प्रसव पीड़ा से गुजरना ही पड़ेगा।
क्यों इतना जोर से मैं कहता हूं कि अहंकार को छोड़ना जरूरी हो गया? यह इसलिए कहता हूं कि जब तक अहंकार होता है, तब तक हम अतीत से बंधे रहते हैं। ध्यान रहे अहंकार हमेशा पास्ट का होता है, अतीत का होता है। भविष्य को हम जानते नहीं, उसका कोई अहंकार नहीं होता। अहंकार हमेशा पास्ट हैरिटेज का होता है। अतीत का होता है। वह जो पीछे हो चुका है, उसको संग्रहीत करके हम अहंकर को बनाते हैं। अहंकार जिस समाज में होता है, वह समाज अतीतोन्मुख होता है। वो समाज हमेशा पीछे की तरफ देखता है, वह समाज आगे की तरफ कभी नहीं देखता। और जो समाज आगे की तरफ नहीं देखता वह कैसे निर्धारण करेगा, वह कैसे भविष्य के अंजान रास्तों पे चलेगा? वह कैसे नए समाज को बनाएगा? वह कैसे नई जिंदगी को पैदा करेगा? वह कैसे नए पथ पर चरण रखेगा? वह कैसे नये इतिहास, वह कैसे नये दिन, नई रातें, नये सूरज पैदा करेगा? तो सिर्फ पीछे देखता है, वह आगे कैसे देख सकता है?
अहंकारी समाज सदा पीछे देखता है। अहंकारी आदमी भी सदा पीछे देखता है। अहंकारी आदमी कहता है, हमें याद है, पदम भूषण की पदवी मिली थी। भारत रत्न हो गया था, जेल गया था 1942 में। वो पीछे देख रहा है। वह जो मर चुका है, उसका संग्रह किये बैठा है। अहंकार मरे हुए का संग्रह है। अहंकार डेड, जो जा चुका है, उसका संग्रह है। अहंकार हमेशा मृत संग्रह है। जीवित आदमी के पास अहंकार नहीं होता, क्योंकि जीवित आदमी जीता है वर्तमान में, भविष्य उन्मुख, आगे की तरफ देखता हुआ। आगे तो अभी कुछ किया नहीं है, इसलिए उससे अहंकार निर्मित नहीं होता। पीछे कुछ हो चुका है, उससे अहंकार निर्मित होता है। अहंकारी समाज पीछे की तरफ देखता है। अहंकारी समाज अतीत से जुड़ा रह जाता है। वह कहता है राम-राज्य, राम-राज्य चाहिए। जो हो चुका, वही चाहिए उसे फिर से। कुछ और नया बनाने की हिम्मत नहीं, कूबत नहीं। और राम-राज्य में क्या था? जिसकी वजह से चाहिए। क्या है राम-राज्य में? एक तानाशाही की व्यवस्था। जहां राजा की पत्नी के भी बचाए रखने का कोई भरोसा नहीं। एक समाज, जहां आदमी बिकता है गुलाम। आदमी बिकते थे, राम-राज्य के वक्त, बाजार में। दासता की दुनिया। एक ऐसा समाज, जहां राम जैसा अच्छा आदमी भी, एक गरीब शूद्र के कानों में सीसा पिघला कर डाल देता है, क्योंकि उसने वेद का मंत्र सुन लिया है। ऐसे बेहूदे समाज को फिर से ला देना चाहते हैं। ऐसे समाज को फिर से लाने की बात सोचते हैं। जिंदगी को पीछे ले जाना चाहते हैं। लेकिन जिन समाजों का अहंकार है, वो आगे की तरफ देखते ही नहीं, उनकी मजबूरी है। उनकी आंखे जो हैं, वो आगे की तरफ देखती नहीं है, उनका चेहरा पीछे की तरफ मुड़ा हुआ है। गर्दन जकड़ गई हैं। और गर्दन पैरालाइ.ज्ड हो गई है। उनकी हालत ऐसी है जैसे हम कोई कार बनाएं और पीछे की तरफ लाइट लगा दें, गाड़ी आगे की तरफ चले। और लाइट पीछे की तरफ पड़े, उल्टी, पीछे की उड़ती हुई धूल दिखाई पड़े, रास्ता दिखाई पड़े, तो दुर्घटना होनी निश्चित है। भारत के इतिहास में दुर्घटनाओं का मूल कारण भारत का सदा पीछे देखना है।
भारत का पूरा इतिहास दुर्घटनाओं का इतिहास है, कल भी दुर्घटनाएं होंगी, परसों भी होंगी, जिंदगी और नई दुर्घटनाएं लाएगी। अभी जिंदगी खत्म नहीं हो गई। और दुर्घटनाएं भारत में होती ही रहेंगी। क्योंकि भारत अभी भी पीछे ही देखता है, वह आगे की तरफ नहीं देखता। अहंकार पीछे की तरफ झुकाता है, अहंकार खो जाता है तो आदमी आगे की तरफ देखता है। कभी आपने ख्याल किया कि छोटे बच्चे कभी पीछे की तरफ नहीं देखते। छोटे बच्चे सदा आगे की तरफ देखते हैं। छोटे बच्चे भविष्य के सपने देखते हैं। उनका कोई अतीत होता नहीं है, देखेंगे भी तो क्या देखेंगे? कुछ पीछे होता ही नहीं है। पीछे क्या है? लेकिन बूढ़ा आदमी आपको पता है, कभी आगे की तरफ नहीं देखता। सदा पीछे की तरफ देखता रहता है। क्योंकि बूढ़े के आगे कुछ नहीं होता सिवाय मौत के। वहां एक अंधेरा पर्दा है, मौत का, वहां देखने से फायदा क्या है? वहां देखने से डर लगता है, वह पीछे लौटके देखता रहता है। वह कहता है, आहा, बचपन के दिन, जवानी की बातें, वह गीत, वह सपने, वह प्रेम, वह सब उसी में खोया रहता है। बूढ़ा आदमी जवानी में खोया रहता है, जितने जवान भी जवानी में नहीं होते। और इसलिए बूढ़ा आदमी जवानों से बड़ी ईष्र्या करता है। वह ईष्र्या जवानी की याददाश्त के कारण है, अन्यथा कोई कारण नहीं है। बूढ़ा पीछे देख रहा है, पीछे देख रहा है। और जो बूढ़ा आदमी पीछे नहीं देखता, वह बूढ़ा आदमी मरते वक्त तक बच्चा होता है। उसकी जिंदगी में कभी बुढ़ापा नहीं आता। बुढ़ापा उम्र की बात नहीं है, देखने के ढंग की बात है। अगर बच्चा भी पीछे की तरफ देखने लगे तो बूढ़ा हो गया। अगर बूढ़ा आदमी मरते क्षण तक भी पीछे की तरफ न देखे, और आगे की तरफ देखे तो वह आदमी सदा जवान है, और ऐसा आदमी अमरत्व को उपलब्ध हो जाता है। ऐसे आदमी को मृत्यु छू भी नहीं पाती। क्योंकि ऐसा आदमी मृत्यु के क्षण में भी, जो मृत्यु के आगे उसको देख लेता है, वह रौनक।
सुकरात मर रहा है, उसको जहर दिया जा रहा है। बाहर जहर घोटा जा रहा है। वह जो आदमी जहर घोट रहा है, वह धीरे-धीरे घोट रहा है, ताकि सुकरात जैसा अच्छा आदमी थोड़ी देर और जी ले। लेकिन सुकरात बार-बार दरवाजे पर उठकर पहुंच जाता है, कहता है, मित्र बड़ी देर लगा रहे हो, जल्दी करो, समय हुआ जाता है। वह आदमी अपने सिर पह हाथ फेर लेता है। वह कहता है, पागल हो गए हो सुकरात? मैं तुम्हारी वजह से धीरे-धीरे हाथ चला रहा हूं। मेरे आंसू टपक रहे हैं, मेरा हृदय कंप रहा है, कि आज मैं इतने अच्छे, इतने प्यारे आदमी को जहर दे रहा हंूं। जल्लादों का हृदय कंप जाता है, प्यारे आदमियों को सूली देते वक्त। लेकिन पुरोहितों, पण्डितों, नेताओं का दिल नहीं कंपता। जल्लाद भी रोते हैं, लेकिन जिनको हम सज्जन कहते हैं, वो नहीं रोते। आज तक दुनिया में अच्छे लोगों को सज्जनों ने सूली दी है। प्यारे लोगों को, जीसस को लेकिन सुकरात कहता है कि जल्दी करो, मित्र। वह पूछता है, तुम पागल हो गए हो, इतनी जल्दी क्या है मरने की? सुकरात कहता है, जल्दी बहुत है, क्योंकि मैं देखना चाहता हूं, मृत्यु के आगे क्या है?
नहीं याद कर रहा है बचपन को, नहीं याद कर रहा है उन दिनों को, जो बीत गए। मरते क्षण में भी नहीं ख्याल कर रहा है वह जो बीत चुका। बीत चुका वह बीत चुका, उसके अब क्या ख्याल की जरूरत है। अभी जो आने को है, दी अननाॅन, वह जो अज्ञात द्वार पर खड़ा है, वह उसको झांक लेने की तबियत है। तड़प रहा है, मित्र रोते हैं और कहते हैं, सुकरात मत करो जल्दी। सुकरात कहता है, जिंदगी तो बहुत देख ली, मौत नहीं देखी। अनजान, अपरिचित, नई उसे देखने का मन कर रहा है।
ये आदमी जवान है, यह आदमी कभी बूढ़ा नहीं हो सकता। यह हजारों वर्ष जिंदा रहे, बूढ़ा नहीं हो सकता। यह मर जाए तो भी यह आदमी मरता नहीं, क्योंकि यह आदमी जो भविष्य के प्रति इतना उन्मुख है, वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है। चाहे व्यक्ति हो, चाहे समाज। जो समाज भविष्य के प्रति सतत उन्मुख है, वो समाज कभी नहीं मरता, वह समाज सदा जवान रहता है। भारत मर गया, वह अतीत की तरफ उन्मुख है, भारत जवान नहीं रहा। और भारत को जवान बनाना जरूरी है, तो भारत में क्रांति हो सकती है, जवानी क्रांति करती है, बुढ़ापा क्रांति कैसे कर सकता है? पूरे देश की आत्मा बूढ़ी हो गई है, क्यों? पीछे देखने की वजह से। देख रहे हैं, रामलीलाएं। बैठे हैं हर वर्ष, अभी जाओ रास्ते से निकला हूं, होली जल रही है। आग लगा के बैठे हुए हैं लोग। अहमदाबाद में बीसवीं सदी में आने वाले बच्चे क्या सोचेंगे, कि कौन लोग रहते थे? आग जलाते थे एक दिन बैठ कर। दिमाग दुरुस्त था कि खराब था? क्या प्रयोजन था, क्यूं यह सब पागलपन जारी है? और कोई कारण नहीं, पीछे का जो कुछ बच गया है वो, बंध गया, छोड़ने की हिम्मत नहीं। आग जलाना भी नहीं छोड़ सकते और क्या खाक छोड़ा जा सकता है। यह बूढ़ा चित्त, यह मरा हुआ चित्त, यह पीछे की तरफ देखने वाला अहंकारी चित्त, जाना चाहिए। इसलिए तीसरा सूत्र कहता हूं, समाज के अतीत से निर्मित अहंकार का त्याग। बिल्कुल पूरी तरह त्याग, ताकि चित्त नया हो जाए। फ्रेश माइंड पैदा हो जाए, और मुल्क के पास ताजा दिमाग पैदा हो जाए। जो पीछे के बोझ से घिरा हुआ नहीं है। जो आगे की तरफ देखता है। चांद-तारों की तरफ, जो दूर हैं।
क्यों? आगे की तरफ देखने के लिए इतना आग्रह क्यों करता हूं? इसलिए कहता हूं कि जो आगे की तरफ देखता है, वह क्रियेटिव हो जाता है। सृजनात्मक हो जाता है। क्योंकि आगे की तरफ सिर्फ देखा नहीं जा सकता, आगे को निर्मित करना पड़ता है। आगे चलना है, जीना है, तो उसको निर्मित करना पड़ता है। पीछे सिर्फ देखा जा सकता है, पीछे कुछ निर्मित नहीं करना है आपको। सिर्फ देखना है। पीछे सिर्फ तमाशबीन हुआ जा सकता है, पीछे सिर्फ नाटक देखना है और कुछ भी नहीं करना है। आगे, आगे कुछ करना है। आगे कुछ करना पड़ेगा। आगे जिंदगी को पैदा होना है, निर्मित होना है। तो जो समाज आगे देखने लगता है, वो सृजनात्मक हो जाता है। हम कहां देखते हैं, इस पर बहुत कुछ निर्भर है।
मैंने सुना है, यूनान में एक बहुत बड़ा ज्योतिषी था। वो ज्योतिषी एक दिन सांझ को निकल रहा है, तारों को देखता हुआ। एक गड्ढे में गिर पड़ा, भूल से। चिल्लाया बहुत, कोई नहीं था पास। एक बूढ़ी का झोपड़ा था, वो बुढ़िया आई। बमुश्किल उस बूढ़ी औरत ने उस ज्योतिषी को बाहर निकाला, उसके दोनों पैर टूट गए थे। उस ज्योतिषी ने उसे बहुत धन्यवाद दिया। और उस बूढ़ी औरत से कहा कि शायद तुझे पता नहीं कि मैं एक बहुत बड़ा ज्योतिषी हूं। मेरा नाम कभी सुना? चांद-तारों के संबंध में मुझसे ज्यादा जानने वाला कोई आदमी नहीं। अगर तुझे कभी ज्योतिष के संबंध में कुछ पूछना हो तो मेरे पास आ जाना, सम्राटों को भी मैं बिना फीस लिये, नहीं कुछ कहता हूं। तुझसे बिना फीस लिये, कुछ कहूंगा। उस बूढ़ी औरत ने कहा, पागल बेटे, मैं कभी नहीं आऊंगी। उसने कहा, क्यों? तो उसने कहा, जिसे जमीन के गड्ढे ही नहीं दिखाई पड़ते, उसे चांद-तारों क्या भरोसा, उसके चांद-तारों के ज्ञान का, जिसको जमीन का आगे का एक कदम गड्ढा नहीं दिखाई पड़ता, वह उतना दूर, उतने आगे के तारों को देखता होगा, यह भरोसे की बात नहीं बेटा, मैं कभी नहीं आऊंगी। उस ज्योतिषी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उसी दिन मेरा ज्योतिष पूरा हो गया। मेरी हिम्मत टूट गई। उस बूढ़ी ने ठीक कहा था।
मोक्ष को देखता है भारत। स्वर्ग को देखता है, नरक को देखता है। आगे का इंच भर पहले का गड्ढा दिखाई नहीं पड़ता। अहमदाबाद की ज्योग्राफी पता नहीं होगी। लेकिन नर्क का नक्शा लिये बैठे, बता सकता है आदमी कि नरक में फलां-फलां जगह, यह-यह। स्वर्ग में यह-यह। बैठे हैं मंदिरों में लोग, पूछ रहे हैं, महाराज देवताओं की कितनी योनियां होती हैं? और महाराज बता रहे हैं। पूछने तक तो ठीक था, पूछने वाले नासमझ हो सकते हैं। लेकिन बताने वालों के साथ ..।
मैंने सुना है एक दिन एक स्कूल में बड़ी अजीब घटना घटी। एक छोटा सा स्कूल है। बहुत स्कूल घबराया हुआ था। सारे स्कूल के बच्चे बहुत चिंतित थे। एक इंस्पेक्टर आने वाला है, निरीक्षण के लिए, और खबर आ गई कि उसका दिमाग खराब है। और वो ऐसे प्रश्न पूछता है, जिनके उत्तर हो ही नहीं सकते। और फिर रिपोर्ट खराब कर देता है। तो ना मालूम किस-किस तरह के प्रश्न बच्चों को सिखाए जा रहे हैं। तैयार बच्चे किये गए हैं, इंस्पेक्टर आ गया। वो दिन आ गया। इंस्पेक्टर भीतर आया। एक कक्षा विशेष रूप से तैयार की गई है। सब बुद्धिमान बच्चे इकट्ठे कर लिये गए हैं। हेडमास्टर खड़ा, मास्टर खड़े है, सब खड़े हैं। उस इंस्पेक्टर ने कहा कि बेटों, एक सवाल पूछता हूं, और यह सवाल मैं बहुत जगह पूछा, इसका जवाब अब तक कोई नहीं दे पाया। अगर तुमने इसका जवाब दे दिया तो फिर मैं दूसरा सवाल नहीं पूछूंगा। क्योेकि मेरा नियम यह है चावल का एक दाना हंडी से निकाल कर देख लेना काफी होता है। और अगर इसका जवाब तुम नहीं दे सके तो फिर मैं हूं और तुम हो, और आज का दिन है। इसलिए इसको बहुत सोच के जवाब दे देना। सब सांसे रूक गई। उसने प्रश्न पूछा, बड़ा सरल प्रश्न पूछा। और प्रश्न ये पूछा कि ‘हवाई जहाज दिल्ली से उड़ा कलकत्ते की तरफ, दो सौ मील प्रति घंटा की रतार से, तो तुम बता सकते हो कि मेरी उम्र क्या है? बच्चे रह गये, उनका प्रधान अध्यापक रह गया कि हो गया खत्म काम। क्योंकि हवाईजहाज किसी रतार से उड़े, और दिल्ली से उड़े कि पेचिंग से उड़े, और कहीं भी जाए, इससे किसी इंस्पैक्टर की उम्र का क्या संबंध? लेकिन आश्चर्य इस पर नहीं हुआ, क्योंकि इंस्पैक्टर तो पागल था। एक लड़का जोर-जोर से हाथ हिलाने लगा। शिक्षक घबरा गए, कि यह तो पागल है, यह क्या उत्तर देगा? क्योंकि इसका कोई भी उत्तर गलत होगा। क्योंकि प्रश्न ही गलत, बेईमानी, एब्सर्ड है। लेकिन उस बच्चे को पीछे से इशारा किया अध्यापकों ने, लेकिन वह तो जोर से हाथ हिला रहा है। वह किसी को नहीं देख रहा। इंस्पैक्टर तो खुश हो गया, और उसने कहा यह बच्चा हिम्मतवर है, यह पहला मौका है कि इस प्रश्न के उत्तर को देने की किसी ने हिम्मत की। कोई फिक्र नहीं, गलत भी हो तो, तुम बेटे खड़े हो जाओ। मैं बहुत खुश हूँ, तुमने हिम्मत तो की। उस लड़के ने कहा हिम्मत का सवाल नहीं, मेरे सिवाय इस पृथ्वी पर इसका उत्तर कोई दे नहीं सकता। आपकी उम्र चवालिस वर्ष है। इंस्पैक्टर हैरान रह गया, उसकी उम्र चवालिस वर्ष थी। उसने कहा, बेटा तुमने किस विधि से पता लगाया? उसने कहा विधि बहुत आसान है, मेरा बड़ा भाई है उसकी उम्र बाईस वर्ष है, वह आधा पागल है। आपकी उम्र चवालिस वर्ष होनी ही चाहिए।
यह सब पागलों की जमात है। इस मुल्क में बहुत भारी है। जिंदगी का एक कदम आगे का दिखाई नहीं पड़ता। स्वर्ग-नर्क का ठेका समझाने वाले लोग बैठे हैं। वह कहते हैं कि हम चिट्ठी लिख देंगे। चिट्ठी हम भगवान को लिख देंगे।
मैं अभी सूरत में था, कुछ दिन पहले। वहां मैं उनसे कह रहा था, सूरत में, कि कोकले में यूरोप में टिकटें बेची लोगों के लिए। एक-एक लाख रूपये की टिकिट थी। जो टिकिट ले लेगा उसको ही स्वर्ग में प्रवेश मिलेगा। और हजारों लोगों ने टिकिटें खरीदीं। टिकिट उनको दे दी गई। और कब्र मिट्टी के ऊपर उनको लिटा दिया गया। पता नहीं उनको कहीं जाना, प्रवेश वगैरह मिला कि नहीं मिला। वह टिकिटें मान्य हुई कि नही हुई। वह कुछ पता नहीं। मैं यह कह रहा था, एक आदमी ने मुझे आकर कहा, आप कह रहे हैं मध्ययुग की, सूरत में मुसलमानों का एक समाज अभी भी, अभी भी, और उनका नेता, अभी भी चिट्ठी लिख देता है, रूपये लेकर भगवान के नाम। और वह चिट्ठी रख देते हैं, कब्र में, वह चिट्ठी दिखा देना। मैंने कहा, एक-आध कब्र तो उखाड़ के देखों पागलो, चिट्ठी वहीं मिलेगी।
यह सब क्या हो रहा है? यह सब क्या है? यह कैसा है हमारा समाज? यह कैसा है देश? यह कैसी है संस्कृति? कैसा है चित्त? नहीं, हम असल में तथ्य को, जो है, उसको, जो आ रहा है तथ्य उसको, देखने से बचने के लिए कल्पनाओं में, स्वर्गों में, और मोक्षों में भटकते हैं। यह बचने की तरकीब है, यह एस्केप है। जिंदगी सामने खड़ी है, उससे बचने के लिए स्वर्ग और मोझ में चले जा रहे हैं। ताकि उनकी बातों में उलझ जाएं और हमें जिंदगी को फेस न करना पड़े, जिंदगी का मुकाबला न करना पड़े। हिन्दुस्तान हजारों सालों से जिंदगी का मुकाबला नहीं कर रहा है। कैसे क्रांति होगी? क्रांति होती है एनकाउंटर से। क्रांति होती है जिंदगी का मुकाबला करने से। जिंदगी सवाल लाती है, जिंदगी बड़े कठिन सवाल लाती है। जिंदगी ऐसे सवाल लाती है कि जिनका कोई उत्तर शास्त्रों में नहीं है। उस जिंदगी से मुकाबला करना जरूरी है। लेकिन कौन करेगा मुकाबला, पीछे देखने वाले लोग? कौन करेगा मुकाबला, वे लोग जिनको ये ख्याल है कि सब अज्ञेय, सब ज्ञान उनको मिल चुका है? कौन करेगा मुकाबला, अहंकार से भरे हुए लोग, नपुंसक लोग? जिनके पास सिवाय अहंकार के और कुछ भी नहीं है। और अहंकार से .ज्यादा इंपोटेंट दुनिया में कुछ भी नहीं है। वो बिल्कुल पौच, उसके भीतर कुछ भी नहीं है, खाली खोल। कौन करेगा जिंदगी का मुकाबला? इसलिए तीसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि जाने दें अहंकार को। छोड़ दें वो खूंटी झूठी जिससे हम बंधे हैं। उखाड़ें उसको, उखाड़नी पड़ेगी। क्योंकि उसको गाड़ी। वो ऊंट के साथ ही नहीं, वह हमारे साथ भी यही हुआ है। है नहीं खूंटी, लेकिन क्योंकि गाड़ी है ऋषि-मुनियों ने बहुत जोर से, उसे उखाड़ना पड़ेगा, उस खूंटी को उखाड़ कर फेंकना पड़ेगा। लेकिन वह ऋषि-मुनि बड़ी कोशिश करेंगे कि खंूंटी न उखाड़ी जा सके।
आज ही किसी सज्जन ने, किसी स्वामी ने चुनौती दी है कि मुझे जवाब देंगे वो। मुझे जवाब देने की जरूरत, महत्वपूर्ण नहीं है। मैं कहता नहीं कि मेरी बातें मान लो। मैं सिर्फ इतना कहता हूं कि जो मैं कहता हूं अगर उससे आपका चिन्तन भी शुरू हो जाए तो भगवान की बड़ी कृपा। मानने का कोई सवाल नहीं, इसलिए जवाब का कोई सवाल नहीं है। मैं किसी को मानने के लिए नहीं घूम रहा हूं कि जो मैं कह रहा हूं, सत्य है। मैं तो सिर्फ यह कह रहा हूं कि तुम्हारे माने हुए सत्य संदिग्ध हैं। उन पर फिर से सोच लो एक बार, अगर जिंदगी को आगे बढ़ाना है। मानके मत बैठ जाओ, उनको फिर से सोचो, इसलिए जवाब का सवाल नहीं है, चुनौती का सवाल नहीं है। यह चुनौती किसी स्वामी, किसी संयासी, को, किसी मठाधीश के लिए नहीं दी जा रही है। यह चुनौती इस मुल्क के आने वाली युवा पीढ़ी के लिए है। मठ के चारे को क्या करना है? उनसे क्या प्रयोजन है? बस वो अपने मंदिरों में राम-राम जपो, तुम्हें जो करना है करो। तुमसे हम कोई बात नहीं कर रहे। हम इस योग्य नहीं मानते कि कोई बात करने का कोई फायदा है, कोई अर्थ है? जिंदा आदमी चाहिए जिससे कुछ बात हो सके। तुम्हारे पास बंधे हुए उत्तर हैं, तुम उन्हीें को दोहराए चले जाओगे।
अभी वहां एक बैठक हुई छोटी-मोटी। एक मित्र ने लाकर मुझे खबर दी है, उस बैठक में उन्होंने कहा क्योंकि मैंने कहा प्रेस काॅन्फ्रेंस में कि जो आदमी यज्ञ में एक करोड़ रूपये जलवाता है, वह आदमी क्रिमिनल है। वह आदमी अपराधी है। वह आदमी देश का दुश्मन है। देश गरीब है, भूखा मर रहा है, उसका एक करोड़ रूपया तुम आग में जलाओगे। और साधारण आदमी, अगर कोई आदमी एक करोड़ रूपये में आग लगा दे, तो वह साधारण जुर्म नहीं है। लेकिन जो आदमी धर्मिक क्रियादान के नाम से आग लगाता है वह ज्यादा खतरनाक है। वह पायस क्रिमिनल है। वह धार्मिक अपराधी है, इसलिए ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि उसका अपराध उसको लगता है कि धार्मिक कार्य कर रहा है। और जब अपराध धार्मिक मालूम पड़े, तो बहुत खतरा है। क्योंकि फिर अपराध से बचने का उपाय नहीं रह जाता।
तो मैंने यह कहा कि जो लोग कहते हैं कि हमारे यज्ञ के द्वारा वियतनाम में क्रांति हो जाएगी, फलां जगह यह हो जाएगा, पानी गिर जाएगा, गरीबी मिट जाएगी। वह पहले से तय करके यज्ञ करें, कि इस यज्ञ का यह परिणाम होगा, और अगर वह परिणाम हो जाए, तो हम मानेंगे कि यह बात ठीक है। लेकिन यज्ञ तुम कर लेते हो, दुनिया में बहुत परिणाम रोज हो रहे हैं, तुम कह देना हमारे यज्ञ से यह परिणाम हो रहे हैं, फलाने घर में बच्चा पैदा हुआ, वह हमारे यज्ञ से हो रहा है। और फलां आदमी की हवेली बड़ी हो गई, वह हमारे यज्ञ से बड़ी हो गई। कोई दुनिया में विज्ञान का भी अर्थ है, तर्क का भी कोई अर्थ है कि नहीं? उन्होंने आज जवाब दिया है मुझे कि जो घी हम जलाते हैं, वह बेकार नहीं जाता। वह घी से बादल बनते हैं, और बादलों से वर्षा होती है। पागल हो, घी जला कर वर्षा करनी पड़ेगी। घी से वर्षा कर रहे हैं जला कर वह। कितनी वर्षा करियेगा, कितना घी जला कर। एक-आध प्रयोग सालों में, थोड़ा-बहुत पानी बरसा के घी से दिखला दो, यह बातचीत करने से नहीं चलेगा अब। यह मुल्क तैयार हो रहा है, इसके जवान तैयार हो रहे हैं, गर्दन पकड़ लेंगे, इस तरह की झूठी बातें की तो। प्रयोगशालाएं हैं हमारे पास, अब यह मुल्क कोई दो हजार साल पहले का नहीं है। हमारे पास प्रयोगशालाएं हैं कि पानी कैसे बनता है? हम जानते हैं। पानी कैसे निर्मित होता है? यह हम जानते हैं। भाप कैसे बनती है? यह हमें पता है। अब मंत्र पढ़ कर और घी जला कर तुम हमको धोखा नहीं दे सकते हो। जवाब मुझे नहीं देना पड़ेगा, जवाब तुम्हें देना पड़ेगा, कल इस पूरे मुल्क के सामने। यह पूरे मुल्क की अदालत में एक-एक जुर्मी की तरह खड़े किये जाओगे। उसके पहले की खड़े किये जाओ, जवाब-सवाल देना छोड़ो, समझने की कोशिश करो। यह चुनौती मैं, यह चुनौती पूरे मुल्क की चेतना के लिए है, पूरा मुल्क कैसा सोया हुआ है? एक आदमी इकट्ठा कर लेगा करोड़ रूपये, और कर लेगा इसमें कोई शक नहीं है। अभी शायद छत्तीस लाख जला दिये। छत्तीस लाख जल सकते हैं तो उसकी हिम्मत और बढ़ गई। जब एक करोड़ जलवा सकते हैं हम। और छत्तीस लाख जलाने से उसकी इज्जत बहुत बढ़ गई। नामालूम कितने नासमझ पैर छूने लगे होंगे? नाजाने कितने नासमझ महात्मा कहने लगे होंगे? अपराधियों को महात्मा कब तक कहोगे? यह कब तक चलेगा, यह दुःख? यह पीड़ा और दुर्भाग्य कब तक खींचना है? यह जवाब तो पूरे मुल्क को देंगे, जवाब मुझे देने का सवाल नहीं है। अब यह सोचना पड़ेगा लेकिन। और मेरा कहना यह है, मैं यह कहता हूं कि जो लोग यज्ञ करते हों, वह प्रयोगशाला में प्रमाणित कर दे कि हमारे यज्ञ से यह-यह फायदा होता है। और अगर फायदा सिद्ध हो जाएगा, तो हम ही क्यों, सारी दुनिया यज्ञ करेगी। फिर हम यज्ञ ही करेंगे और कुछ भी नहीं करेगे। जब उसी से सब कुछ हो सकता है। हम सारी दुनिया को, मैं अपनी तरफ से दुनिया को समझाने निकलूंगा कि यज्ञ करो। लेकिन यज्ञ तुम्हारी बातों से थोड़ी सिद्ध होता है।
हम इस बात को भूल ही नहीं पा रहे हैं, हजारों सालों से, हम सिर्फ शब्दों पर जीते हैं। सिर्फ शब्दों पर जीते हैं। किताब में लिखा है, बस काफी है। किताब में लिखे हुए से कोई चीज सत्य हो जाती है। छपा हुआ अक्षर, सच हो जाता है? छप गया और सच हो गया। किसने लिख दिया है? उस आदमी का कितना बल है? कितनी प्रामाणिकता है, क्या आथेन्टिसिटि है। उस आदमी का कितना विज्ञान है? साइकिल का पंचर जोड़ना नहीं बना सकते जो, वह यज्ञ करके दुनिया में शांति करवा देंगे। कुछ, कुछ भी साइंटिफिक होने का तमी.ज, कोई वैज्ञानिक बुद्धि का थोड़ा बहुत सबूत दो, यह उत्तर, सवाल-जवाब देने का नहीं है। कोई मैं वेद के मंत्रों से निर्णय नहीं ले रहा हूं कि इसका क्या अर्थ है? इधर जिंदगी के असली सवाल हैं, उधर ऋग्वेद के मंत्रों को बीच में बैठकर चलते-चलते करना शास्त्रार्थ। यहां जिंदगी के मामले में नहीं चलेगा ये। यहां जिंदगी तथ्य मांगती है, तथ्य मांगती है, सत्य मांगती है। मैं आपसे कहूंगा कि जिस समाज में, जिस गांव में, जिस राज्य में, जिस देश में इस तरह की नासमझी चलती है, अगर आप खड़े होकर देखते हो तो आप भी जिम्मेदार हो। आप भी इस अपराध के भागीदार हो। क्योंकि खड़े होकर देखना भी जुर्म है। उसके लिए जिस आदमी में थोड़ी बुद्धि है, उसे निश्चित कुछ किया जाना चाहिए। इस देश में एक यज्ञ न हो, इसकी फिक्र की जानी चाहिए। और अगर उनको बहुत उत्सुकता है तो एक करोड़ रूपया इकट्ठा करें, एक रिसर्च संक्षिप्त तय करें, कुछ वैज्ञानिक मिल कर प्रयोग करके देखें, उस एक करोड़ रूपये से कि यज्ञ से क्या हो सकता है? तो समझे में आने वाली बात होगी, उससे निर्णय होगा। मेरे जवाब से, और मुझे जवाब देने से, कहीं मंडली में बैठके कुछ होने वाला नहीं है।
वह पुराने समाज, वह पुराने लोग सब झूठी कीली को ठोकने की कोशिश करेंगे। वह हर तरह से कोशिश करेंगे, और अगर उन्हें ऐसा लगा कि मेरी बातों का वह जवाब नहीं दे सकते हैं, तो वह पीछे से छुरी भोंकने की कोशिश करेंगे। वह कहेंगे इस आदमी का चरित्र गड़बड़ है। यह आदमी एक स्त्री के साथ बात करता देखा गया। वह फिर यह करेंगे। यह कमजोरी की आखिरी सीमा है। जब कोई जवाब देने को नहीं बचता तो कमजोर आदमी आखिरी में यह कहते हैं कि वह पीछे से कुछ उल्टी-सीधी शुरू करो। कौन है वह स्त्री, आज एक अखबार में, किसी ने एक वक्तव्य दिया है। और उस सज्जन ने कहा है कि वह मेरे एक्स-डिसाइकिल है। मैं हैरान हो गया, मेरा कोई डिसाइकिल ही नही तो एक्स-डिसाइकिल कैसे हो सकता है? मैंने एक शिष्य नहीं बनाया, मैं किसी आदमी को इतना मूर्ख नहीं समझता कि उसको शिष्य बनाऊं। हर आदमी की अपनी प्रज्ञा जागृत होनी चाहिए। मेरा को शिष्य नहीं तो भूतपूर्व शिष्य कैसे हो सकता है?
उन्होंने वक्तव्य दिया है, कोई दो लड़कियों को उन्होंने भीतर जाते देखा। और जब वे बाहर निकली तो बहुत घबराई हुई थीं। अब यह वक्तव्य दे दिया, वह कौन दो लड़कियां हैं? वह क्यों घबराई हुई थी? वे लड़कियां भी बाद उसके आ गईं। और उन्होंने मुझसे आज आकर कहा, कि हम हैरान हैं। एक लड़की उनमें से मेरे पास आकर रोके गई थी। क्योंकि उसकी ंिजंदगी में कोई तकलीफ थी, कोई पीड़ा थी। आकर रोने लगी, उसके आंसू बह गए, उसका मन हल्का हो गया, वह रोकर बाहर निकली। वह लड़की भी यहां मौजूद है। वह रोकर बाहर निकली, फिर उस सज्जन ने वक्तव्य दे दिया कि वह घबरा के गई। वह घबराती उनको दिखाई पड़ी होगी। वह रोकर गई थी। लेकिन इससे क्या सिद्ध हो जाता है? इससे वह सिद्ध कर रहे हैं कि मेरे चरित्र में कोई खामी है। इसलिए वह लड़की घबराकर, रोती हुई, बाहर निकली।
इसकी फिकर छोड़ दो मेरे चरित्र की। क्योंकि न मुझे गुरू बनना है, न मुझे कोई महामंडलेश्वर बनना है, न कोई जगतगुरू बनना है। मेरे चरित्र की फिक्र ही मत करो। मुझे किसी से चरित्र के लिए सर्टिफिकेट नहीं चाहिए। क्योंकि मुझे किसी तरह के आदर की, सम्मान की, श्रद्धा की कोई भूख नहीं है। मैं जो कहता हूं, उसका उत्तर दो। यह भी समझ लो कि एक चरित्रहीन आदमी कह रहा है, तो भी मेरी बात इसलिए गलत नहीं हो जएगी कि मैं चरित्रहीन हूं। यह भी समझ लो कि चरित्रहीन आदमी है, क्योंकि इससे कोई फर्क ही नहीं है। चरित्र का विचार सिवाय चरित्रहीनों के और कोई भी नहीं करता। बीमार आदमी होता है तो चैबीस घंटे स्वास्थ्य का विचार करता है। स्वस्थ आदमी कभी स्वास्थ्य का विचार नहीं करता। चरित्र जिसके पास है, वो चरित्र-वरित्र की बातों में नहीं पड़ता, जिनके पास चरित्र नहीं होता, वह इन्हीें टुच्ची बातों में जीवन खराब करते हैं। और इसकी फिक्र छोड़ दो, यह भी मान लो कि एक आदमी चरित्रहीन है, और मैं चरित्रहीन हूं, और मैं कहता हूं कि यज्ञ में घी जलाना पगलपन है। तो क्या मेरी यह बात इसलिए गलत हो जाएगी कि चरित्रहीन आदमी ने कहा है? कि उससे एक औरत मिलने जा रही थी, वह रोती हुई बाहर निकली? इसलिए गलत हो जाएगी यह बात। तब तो फिर बड़े अदभुत लोग हो, तब तो फिर उसे इंस्पैक्टर से तुम्हें मिलना चाहिए। और सबकी अपनी-अपनी उम्र चवालिस साल लिखवा देने का सर्टिफिकेट मिलना चाहिए।
लेकिन जब जिंदगी सवाल उठा देती है, और जवाब नहीं सूझते, तो नासमझों को, कमजोरों को इसी तरह की बातें सूझती हैं। इन बातों के पीछे भी आंख हैं। जिन लोगों के आलोचना में मैं कुछ कह रहा हूं वह गांधीवादियों की एक जमात है, वह एक नया मठ है महामंडलेश्वरों का। वह नया मठ खड़ा हो रहा है। पुराने मठों से छुटकारा नहीं हो रहा है और नए मठ खड़े होते जा रहे हैं। पुराने संयासियों से हम मरे जा रहे हैं और नये संयासी खड़े हुए चले जा रहे हैं। उनका धंधा पुराने संयासियों का धंधा भजन-कीर्तन था, इन नये संयासियों का धंधा सेवा इत्यादि है। और वो सेवा ही उनका धंधा है। वही आजीविका। वही उनका काम है और उनको, उनको तकलीफ होती है, जवाब दें मेरी बातों का। चाहे पुराने मठ के लोग हों, चाहे नए मठ के लोग हों। मैं जवाब चाहता हूं। मेरी बाबत फिक्र छोड़ दें। और यह मैं कह देना चाहता हूं। इस तरह की झूठी बातें करने से, लोगों को धोखे में नहीं डाला जा सकता। और डर मुझे सदा यह लगता है, कि कहीं लोग क्रोधित न हो जाएं, इस तरह की झूठी बातों से, न मालूम कितने लोगों ने मुझसे कहा कि इस आदमी को हम जाके अभी देखते हैं। मैंने कहा उस बेचारे को छोड़ो गरीब आदमी है, कहीं नौकरी खोज रहा होगा किसी विद्यातीर्थ में, ऊपर चढ़ने की कोशिश कर रहा होगा, मेरे खिलाफ लिखता उसे कुछ फायदा हो रहा होगा, भगवान उसके बाल-बच्चों को बनाए रखे, उसकी नौकरी में तरक्की मिले, मिलती रहना चाहिए। उसको परेशान मत करना, उसे ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है। एक गरीब आदमी अपनी रोटी-रोजी खोज रहा है। लेकिन यह सारे-के-सारे मिल कर कोशिश करेंगे कि वह पुरानी खूंटी गड़ी रहे, मजबूती से। अब वो देखना है कि मुल्क में ऐसे लोग हैं या नहीं। अगर लोग मुल्क में प्रभुत्व हुए तो हम झूठी खूंटी को उखाड़ कर फेंक देंगे। और एक वक्त आ गया है मनुष्य की चेतना में कि क्रांति हो। एक वक्त आ गया है कि आमूल क्रांति हो। जीवन के सारे अर्थ बदले जाएं। जिंदगी पर सारी पुरानी राख झाड़ी जाए। जिंदगी पर सारी जंग झाड़ी जाए। जिंदगी को नई चमक, नई रौनक, नये प्राण दिये जाएं। जिंदगी में नए बी.ज बोये जाएं। नये फूल खिलें। और आखिरी बात आपसे मैं कहना चाहता हूं, अगर भारत ये हिम्मत जुटा ले, नए होने की, तो दुनिया में कोई देश इस देश का मुकाबला करने में समर्थ नहीं हो सकता है। क्यों? क्योंकि इस देश का मानस, दो हजार साल से अनकल्टीवेटिड, बंजर पड़ा हुआ है। एक खेत अगर दो हजार साल तक पड़ा रहे, जिसमें बुआई न हो, बीज न डाले जाएं, और पड़ोस के खेत में बीज बोये जाते रहें, तो अब दो हजार साल बाद उस बंजर पड़े खेत में बीज डाले जाएं, तो जो फसल होगी उसका मुकाबला किसके खेत कर सकते हैं? सारी दुनिया का मस्तिष्क काम करता रहा, भारत का मस्तिष्क दो हजार साल से बिना काम किये पड़ा है, अगर इस मस्तिष्क में क्रांति आ जाए, तो मैं आपसे कहता हूं कि आने वाली सदी हमारी है। आने वाले पचास वर्षों में हम दुनिया की चेतना के सामने एक नये प्रतीक, एक नये अर्थ, एक नये स्वप्न की भांति खड़े हो जाएंगे, एक स्वर्ण युग हम पैदा कर सकते हैं।

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