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सोमवार, 27 अगस्त 2018

चित चकमक लागे नाहिं-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(विचार)

मेरे प्रिय आत्मन्!
बीते दिवस और विचारों की स्थिति। सामान्यतः मनुष्य व अविचार में जीता है। एक तो वासनाओं की परतंत्रता है। और दूसरी श्रद्धा और विश्वास की। शरीर के तल पर भी मनुष्य परतंत्र है और मन के तल पर भी। शरीर के तल पर स्वतंत्र होना संभव नहीं है लेकिन मन के तल पर स्वतंत्र होना संभव है। इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल मैंने आपसे कही थीं। मन के तल पर मनुष्य कैसे स्वतंत्र हो सकता है। कैसे उसके भीतर विचार का जन्म हो सकता है। उस संबंध में मैं आज आपसे बात करूंगा।
विचार का जन्म न हो तो मनुष्य के जीवन में वस्तुतः न तो कुछ अनुभूति हो सकती है न कुछ सृजन हो सकता है। तब हम व्यर्थ ही जीएंगे और मरेंगे, जीवन एक निष्फल श्रम होगा।
क्योंकि जहां विचार नहीं वहां आंख नहीं, जहां विचार नहीं वहां स्वयं के देखने और चलने की कोई शक्ति भी नहीं। और जो स्वयं नहीं देखता, स्वयं नहीं चलता, स्वयं नहीं जीता, उसे कोई अनुभूति, जो उसे मुक्त कर सके, कोई अनुभूति जो उसके हृदय को प्रेरित कर सके, कोई अनुभूति जो उसके प्राणों को आरोपित कर सके, असंभव है!


जीवन में कुछ भी हो उस होने से पहले आंखों का होना जरूरी है। विचार से मेरा अर्थ है दृष्टि, विचार से मेरा अर्थ है, स्वयं की सोचने की क्षमता। विचार से मेरा अर्थ, विचारों की भीड़ नहीं है। विचारों की जो भीड़ हम सबके भीतर है। लेकिन विचार हमारे भीतर नहीं है। विचार तो बहुत हमारे भीतर घूमते हैं। लेकिन विचार की शक्ति तो हमारे भीतर जाग्रत नहीं है। और ये बहुत आश्चर्य की बात है कि जिसके भीतर जितने ज्यादा विचार घूमते हों, उसके भीतर विचार की क्षमता उतनी ही कम होती है। जिसके भीतर विचारों का बहुत ऊहापोह हो, विचारों का बहुत आन्दोलन हो, भीड़ है उसके भीतर विचार की शक्ति सोई रहती है। केवल वही व्यक्ति विचार की शक्ति को उपलब्ध होता है। जो विचारों की भीड़ को विदा देने में सफल होता है।
इसलिए बहुत विचार आपके मन में चलते हैं, तो ये मत समझ लेना कि आप विचार करने में समर्थ हो गए। बहुत विचार चलते भी इसलिए हैं कि आप विचार करने में समर्थ नहीं हैं। एक अंधा आदमी किसी भवन के बाहर जाना चाहे तो उसके भीतर पच्चीस विचार चलते हैं कैसे जाऊं, किस द्वार से जाऊं, कैसे उठूं, किससे पूछूं? लेकिन जिसके पास आंख हैं उसे बाहर जाना है तो वह उठता है और बाहर हो जाता है। उसके भीतर विचार नहीं चलते। उठता है और बाहर हो जाता है। उसे दिखाई पड़ रहा है। विचार की शक्ति दर्शन की क्षमता है। जीवन में दिखाई पड़ना शुरू होता है लेकिन विचारों की भीड़ से कोई दर्शन की क्षमता नहीं होती बल्कि विचारों की भीड़ में दर्शन की, देखने की क्षमता छिन जाती है। वह ठहर जाती है। और ये भी प्रथम में निवेदन कर दूं फिर हम विचार की शक्ति कैसे चलें, उस पर विचार करेंगे।
ये भी कर लेना जरूरी है कि विचारों की भीड़ में जो विचार होते हैं वो पराए होते हैं, अपने नहीं। और इसलिए जब मैं कह रहा हूं कि विचार का जन्म हो, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप शास्त्रों को पढ़ें, ग्रंथों को पढ़ें और बहुत से विचार इकट्टे कर लें उससे आपके भीतर विचार का जन्म नहीं होगा। पंडित हो जाना विचार को पा लेना नहीं है। बहुत सी बातें समाहित कर लेना, बहुत से सिद्धांत, बहुत से उत्तर, बहुत से दर्शन, बहुत सी फिलासफी जान लेना, विचार करना नहीं है। विचार करना क्या है? विचार करने का अर्थ है, जीवन की समस्या के प्रति, स्वयं की चेतना का जागना। जीवन की समस्या का समाधान स्वयं की चेतना से उठना। जीवन जब प्रश्न खड़े करे, लेकिन उत्तर हमारे उधार होते हैं। इसीलिए जीवन की कोई समस्या कभी हल नहीं होती। समस्या हमारी समाधान दूसरों के। उनका कहीं कोई मेल नहीं होता। जीवन हर रोज प्रश्न खड़े करता है, जीवन रोज समस्याएं खड़ी करता है, लेकिन हमारे पास दलीलें तैयार उत्तर हैं, जो दूसरों ने दिए हैं।
उन उत्तरों को लेकर हम जीवन के सामने खड़े होते हैं। समस्याएं जीत जाती हैं, समाधान गिर जाते हैं।
एक छोटी सी कहानी कहूं, उससे शायद ये समझ में आ सके कि हमारे समाधान कैसे बासी और पुराने हैं। और क्यूं हार जाते हैं ? एक गांव में दो मंदिर थे। दोनों मंदिरों में बहुत विरोध था। सभी मंदिरों में विरोध है। गांव में जुआघर होते हैं शराबघर होते हैं...उनमें कोई विरोध नहीं है। लेकिन मन्दिर होते हैं उनमें विरोध है। होना नहीं चाहिए। लेकिन मंदिरों में सदा से विरोध है...जिस दिन विरोध नहीं होगा उस दिन परमात्मा का मंदिर बन सकेगा। जब तक विरोध है तब तक नहीं बन सकता है। तब तक नाम परमात्मा का होगा अन्य मूर्तियां परमात्मा की होगी। लेकिन उनमें छिपा हुआ शैतान होगा। क्योंकि विरोध शैतान का अस्त्र है। उस गांव में भी मंदिरों में विरोध था विरोध इतना पुजारी एक दूसरे को देखते ही नहीं थे।
विरोध इतना था कि उन दोनों के मंदिरों के भक्त इक दूसरों के मंदिरों के लिए जाते ही नहीं थे। उनके शास्त्रों में लिखा था कि चाहे पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना लेकिन दूसरे के मंदिर में शरण मत लेना। वह मंदिर पागल हाथी के पैर के नीचे दब जाएं लेकिन ये बदतर था पत्थर उन दोनों मंदिरों के बड़े पुजारियों के पास दो छोटे-छोटे लड़के थे, जो उनकी सेवा-टहल करते रहते। सामान ले आना कुछ और काम कर देना। दोनों बच्चें थे इसलिए बूढ़ों का रोग उन्हें अभी नहीं पकड़ा था। इसलिए दोनों कभी रास्तों पर आते-जाते मिल भी लेते थे, बात भी कर लेते थे। बूढ़ों की बीमारियां, न पकड़े तो डर लगता है कि बच्चे भटक जायेंगे इसलिए दोनों मंदिर के पुजारी उन दोनों को निरंतर सचेत करते थे, कि सावधान कभी दूसरे के मंदिर की तरफ मत जाना। कभी दूसरे के मंदिर के किसी आदमी से बात मत करना।
लेकिन बच्चे तो बच्चे थे अभी बूढ़े नहीं हुए थे और उनमें अभी समझ नहीं आई थी, वह कभी-कभी मिल जुल लेते थे। एक दिन दोनों बच्चे बाजार की तरफ गए थे रास्ते पर मिले। दोनों मंदिरों का नाम था एक उत्तर का मंदिर था एक दक्षिण का। उत्तर के मंदिर के लड़के ने दक्षिण के मंदिर के लड़के से पूछा कहां जा रहे हो? दक्षिण के लड़के ने कहाः जहां पैर ले जाएं। वह उत्तर के मंदिर वाला लड़का थोड़ा मुश्किल में पड़ गया। अब और क्या बात आगे करें। उसने जो कहा था जहां पैर ले जाएं, बात थोड़ी अटक गई, वह लौट कर आया और अपने मंदिर के पुजारी को कहा कि आज मैं थोड़ा पराजित हो गया दूसरे के मंदिर के लड़के से। मैंने पूछा था कहां जा रहे हो? उसने कहा जहां पैर ले जाएं, तो मुझे कुछ न सूझा।
मंदिर के पुजारी ने कहाः यह तो बहुत बुरा हुआ। उस मंदिर के नौकर का यह हाल है, बड़ी बुरी बात है। कल तुम तैयार होना फिर तुम यही पूछना कहां जा रहे हो वह कहेगा जहां पैर ले जाए। तो फिर तुम कहना कि अगर तुम्हारे पैर न होते तो फिर जीवन में कहीं जाते कि न जाते? तब वह डर जाएगा, तब उसे कुछ समझ नहीं पड़ेगा। कल वही हुआ उस लड़के ने जाकर पूछा कहां जा रहे हो? लेकिन आज उत्तर बदल गया था। दूसरे लड़के ने कहाः जहां हवाएं ले जाएं।
अब वह मुश्किल में पड़ गया बंधा हुआ उत्तर तो तैयार था लेकिन अब वह कैसे कहे कि अगर तुम्हारे पास पैर न होते तो कहां जाते? वह फिर वापस लौट आया उसने पुजारी को कहा मैं तो बहुत मुश्किल में पड़ गया। वह लड़का तो बहुत विद्वान है। उसने तो उत्तर बदल लिया। पुजारी ने कहा ये तो बहुत बुरा है, कल तुम फिर पूछना वह कहेगा जहां हवाएं ले जाएं। तुम कहना अगर हवाएं न होती तो तुम जीवन में कहां जाते? वह फिर वहां गया। फिर मिला वह उसने पूछा कहां जा रहे हो? लड़के ने तो उत्तर बदल लिया उसने कहा मैं बाजार सब्जी लेने जा रहा हूं। और तब मैं फिर हार के आया हूं।
जीवन भी रोज बदल जाता है। कल के उत्तर आज काम नहीं पड़ते हैं। और हम सबके पास कल के उत्तर होते हैं। वो उत्तर सिखाए हुए उत्तर। शास्त्रों के उत्तर, सिद्धांतों के, परम्पराओं के, हजारों वर्षों की जड़ता के उत्तर, वह हमारे पास होते हैं। उनको भी लेकर हम रोज-रोज जीवन के सामने खड़े हो जाते हैं जीवन रोज बदल जाता है। तब हम जीवन को दोष कहेंगे कि ये तो बहुत बेईमान है। और दोष न देंगे अपनी जड़ता को कि हम जड़ हैं। जीवन की चंचलता दुख नहीं है हमारी जड़ता दुख है। इसलिए जीवन से मेल नहीं पाता।
जहां जीवन है वहां चांचल्य है, जहां जीवन है वहां गति है। जहां जीवन है वहां बदलाहट है, परिवर्तन है, वहां प्रतिक्षण सब नया है। वहां प्रतिक्षण सब नया होता चला जाता है। जहां मृत्यु है, वहां जड़ता है। जहां मृत्यु है, वहां परिवर्तन नहीं है। जहां मृत्यु है वहां कोई प्रतिक्षण क्रांति नहीं है। वहा सब ठहरा और रूका हुआ सब बंद। जीवन है खुला, जीवन है मुक्त। उसकी चंचलता के प्रति क्रोध न करें। अपनी जड़ता को देखें। उसके बदलते हुए रूपों के प्रति चिंता न करें। अपने न बदलते हुए मन को विचार करें। ये जो हमारा मन है, जो ठहर जाता है, समाधानों को पकड़ लेता है, शास्त्रों को पकड़ लेता है, वह जीवन को जीतने में और जानने में असमर्थ हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं।
वो जीवन के साथ नहीं खड़ा हो पाता है, जीवित हो पाता है हम पिछड़ जाते हैं, एक कदम पीछे पड़ जाते हैं और ये जीवन दुख और बोझ बनने लगता है। फिर यह असफलता बनने लगती है। विचार का अर्थ है, जीवन जितना गतिमान है चित्त भी उतना ही गतिमान हो। लेकिन आपने सुना होगा कि चित्त की गति बहुत बुरी चीज है। आपने सुना होगा कि चित्त की चंचलता बहुत बुरी चीज है। आपने तो पढ़ा होगा और सुना होगा कि चित्त चंचल है ये ही तो उपद्रव है। आपने सुना होगा कि चित्त की चंचलता रोको, चित्त को ठहराओ, चित्त की गति को मारो, चित्त जितना रुक जाए उतना ही अच्छा है। मैं आपसे निवेदन करता हूं कि चंचलता सुख है लेकिन चंचलता इतनी तीव्र हो गति इतनी तीव्र हो कि जीवन की गति से उसका मेल हो जाए वह जीवन से पीछे न हो। जितना मूवमेंट होगा, जितनी गति होगी चित्त के पास, चित्त उतना शक्तिशाली होगा तो चित्त को जड़ नहीं करना है। माला फेर कर और राम-राम करके उसे जड़ नहीं कर लेना उसे ठहरा नहीं देना है।
क्योंकि ठहरे हुए चित्त से तो कुछ भी पैदा नहीं होता। जिन कोनों के रहता है हम हमेशा उन पर भी ये दुर्भाग्य पड़ा हैं कि वो उन्होंने चित्त को जड़ता की तरफ ले जाने की आकांक्षा और कोशिश की उन कोनों से न तो विज्ञान का जन्म हुआ, न अविष्कार पैदा हुए न कोई सृजन हुआ। वे कोना हजारों वर्ष बांझ की तरह जीएंगे, उनसे कुछ पैदा नहीं हुआ, कुछ नई खोज नहीं हुई। न ही हो सकती कैसे होगी, चित्त की गति को हम मार देंगे तो हम एक जड़ता को बांधेंगे और जीवन जड़ के लिए नहीं, बल्कि अत्याधिक चेतन के लिए है। चित्त में गति हो, चित्त रुक न जाए जड़ समाधानों पर बल्कि समस्याओं के साथ गति करने में समर्थ हो। विचार का अर्थ है गतिवान चित्त। विचार का अर्थ है समस्या खड़ी हो तो इस माटी में उत्तर न खोजूं क्योंकि जो स्मृति में उत्तर खोजेगा उसके उत्तर बासी होंगे।
अगर मैं आपसे पूछूं कि क्या ईश्वर है? और आप अपनी स्मृति में खोजें कि मैंने पढ़ा था कि गीता में कि ईश्वर है, मैंने पढ़ा था कुरान में या मैंने सुना था। या मेरे पिता कहते थे, और मेरे पिता के पिता कहते थे कि ईश्वर है। यह उत्तर मेमोरी से आएगा, स्मृति से आएगा, इसलिए जड़ होगा, बासा होगा, उधार होगा। दूसरों से स्मृति को हटा दें जब जीवन प्रश्न खड़ा करे स्मृति को न बोलने दे, स्मृति को कहे क्षमा करो या स्मृति बिलकुल चुप होगी। आप की चेतना को अपना ही उत्तर खोजना पड़ेगा। हो सकता है कोई उत्तर न मिलें। हो सकता है कोई उत्तर न आए वह भी बहुत शुभ होगा। तो ही चेतना जगेगी। उस उत्तर की खोज में जगेगी। उस उत्तर के अनुसंधान में चेतना की परतें खुलेंगी और चेतना जागृत होगी। कोई उत्तर न आए। लेकिन जल्दी से स्मृति के उत्तर को स्वीकार कर लेने से चेतना के जगने का कोई कारण नहीं रह जाता।
कोई उपाय नहीं रह जाता जो काम चेतना को करना चाहिए वह यह माटी कर देती है और तब चेतना को उठने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। चेतना का काम चेतना पर छोड़ दें, स्मृति से ना लें तो विचार का जन्म होता है। लेकिन हम सब तो स्मृति से काम लेते हैं हम तो हर बार स्मृति से पूछते हैं कि उत्तर आ जाए। हमारे विद्यापीठ वे भी यही सिखाते हैं स्मृति सिखाते हैं। हमारे धर्म शास्त्र भी, हमारे धर्म पुरोहित भी स्मृति सिखाते है। वे सब सिखाते हैं कि उत्तर सीख लो और जब प्रश्न खड़े हों तो उत्तर दे देना। लेकिन इसमें तुम्हारी, इसमें व्यक्ति की आत्महत्या हो जाती है। स्मृति के उत्तर यांत्रिक हैं, मैकेनिकल हैं। वे चेतना से आए हुए न होने से वे चेतना को न तो विकसित करते हैं ना बढ़ाते हैं बल्कि मारते हैं। कुंठित करते हैं। ये तो आपने सुना होगा कि अब तो मशीनें हैं जिनमें हर तरह के उत्तर भरे जा सकते है, वो हर तरह के उत्तर देने में समर्थ हैं। बहुत जल्द मनुष्य को बहुत ज्यादा बातें याद करने की जरूरत नहीं रह जाएगी। सारी बातें मशीनों को फीड की जा सकती हैं। और फिर उनसे उत्तर लिए जा सकते हैं।
आपकी स्मृति भी एक यंत्र है। और शायद आपको ये भी जान कर आश्चर्य होगा कि बहुत जल्द एक आदमी की स्मृति दूसरे आदमी को भी दी जा सकेगी। उस संबंध में भी सफल प्रयोग हुए हैं। मनुष्य की पूरी स्मृति एक दूसरे आदमी को भी दी जा सकती है। क्योंकि यह स्मृति तो एक यंत्र है। और स्मृति तो भीतर एक रासायनिक परिवर्तन है। अगर वो मस्तिष्क के सारे तत्वों को जिनमें जाके स्मृति संग्रहीत होती है निकाल के दूसरे के मस्तिष्क में डाला जा सके तो बिना किसी कारण के, बिना किसी खुद अध्ययन के वह सारी की सारी स्मृति उससे बोलनी शुरू हो जाएगी। अभी इस संबंध में प्राथमिक वैज्ञानिकों के प्रयोग सफल हुए हैं। एक व्यक्ति का अनुभव दूसरे व्यक्ति को ट्रांसफर किया जा सकता है बिना उस व्यक्ति को कोई अनुभव दिए। एक व्यक्ति की स्मृति उसके सारे रासायनिक दृव्यों को लेकर दूसरे के मस्तिष्क में पहुंचाई जा सकती है।
स्मृति तो बिलकुल यांत्रिक हैं, वो ज्ञान नहीं है। वो अनुभव नहीं है, आपका वस्तुतः वह तो संगृहित कोष है। जैसे धन तिजोरी में इकट्टा होता रहता है और तिजोरी उठाके किसी दरिद्र को दे दी जाए, तो वो धनी हो जाएगा। वैसे ही स्मृति में विचार इकट्टे होते रहते हैं। आज तक ये सम्भव नहीं था कि हम दे सके लेकिन अब सम्भव है और बहुत जल्दी बहुत सरल रूप से संभव हो जाएगा। कितनी भी स्मृति उठा के दूसरे व्यक्ति को दी जा सके। पंडितों के मरने पर तब कोई कठिनाई नहीं होगी। उनके मरते ही उनकी सारी स्मृति उन बच्चों को दे देंगे। और तब पांडित्य जैसी कोई थोथी चीज नहीं रह जाएगी, जो बाजार में बिक सके अभी भी बाजार में बिकती है। अभी भी कोई बहुत मूल्य की बात नहीं है, अभी आप दोहराते हैं किन्हीं चीजों को स्मरण कर लेते हैं। ये दोहराने का काम भी मशीनें करती हैं, कर सकती हैं। मस्तिष्क में स्मृति यांत्रिक क्रिया है। उससे कोई ज्ञान का जन्म नहीं होता। उससे कोई विचार का जन्म नहीं होता। बल्कि स्मृति निरंतर विचार को पैदा न होने देने का कारण होती है। जल्दी ही विचार का मौका आता है स्मृति उत्तर दे देती है, और विचार का जन्म नहीं हो पाता।
जीवन पूछता है प्रश्न, स्मृति दे देती है उत्तर। चेतना चुप रह जाती है। होना चाहिए उलटा, जीवन पूछे प्रश्न स्मृति चुप हो चेतना को, उत्तर खोजने पड़ें। इसलिए विचार की शुरुआत में, विचार की दिशा में जरूरत होने से पहले इस पहले सूत्र को समझ लेना उपयोगी है। अपनी स्मृति को चुप होना सिखाएं। अपनी स्मृति को मौन होना सिखाएं। अपनी स्मृति को हर बार हर समस्या के लिए उत्तर देने के लिए मत कहें। ये मैं नहीं कह रहा हूं कि छोटी-मोटी बातों में, कि आपका घर कहां है और आपका नाम क्या है ये भी आप चेतना पर छोड़ दें। ये मैं नहीं कह रहा हूं कि यहां से लौटते वक्त आप खड़े हो जाएं और सोचने लगें कि मेरा घर कहाँ है और स्मृति को मौन कर दें। नहीं ये मैं नहीं कह रहा हूं। एक तल पर स्मृति उपयोगी है, पदार्थ के तल पर, संसार के तल पर, इंजीनियरिंग या डाक्टरी पढ़नी हो तो उस तल पर स्मृति उपयोगी है।
आत्मज्ञान के तल पर स्मृति घातक है। स्मृति की उपयोगिता है। सभी यंत्रों की उपयोगिता होती है। स्मृति की भी उपयोगिता है। जो जीवन का सामान्य तल है उस पर स्मृति उपयोगी है। वह न हो तो जीवन असंभव होगा। लेकिन जीवन का बहुत गहरा तल है। जो सरफेस है उसको छोड़ दें, तो जो गहराइयां हैं जीवन की वहां स्मृति का कोई भी उपयोग नहीं हैं। वहां स्मृति के दिए हुए उत्तर एकदम झूठे हो जायेंगे। वहाँ तो स्मृति को मौन हो जाना चाहिए। जो हमने सीखा है उसे चुप हो जाना चाहिए। जो हमने सुना है उसे मौन बैठे रहना चाहिए। ताकि हम स्वयं खोज सकें कि क्या है? ताकि हम खुद जान सकें कि क्या है? ताकि अनुसंधान हो सके ताकि खोज हो सके ताकि हम स्वयं प्रतिष्ठ हो सकें और उस अज्ञात से परिचित हो सकें वो जो अज्ञात सत्य है, अज्ञात जीवन है अज्ञात आत्माएं हैं, परमात्मा है, उसे जानने के लिए स्मृति को चुप हो जाना आवश्यक है। विचार के जन्म के लिए स्मृति को मौन होना चाहिए। जहाँ भी जीवन की गहरी समस्याएं सामने खड़ी हो वहां अपनी स्मृति को कहें चुप हो जाओ। वहाँ स्मृति बीच ना आए उसे विदा कर दें। वहाँ स्मृति भूलने लगे उसे कहें मौन। ताकि मेरी स्वयं की चेतना खोज कर सके।
विचार के जन्म के लिए पहला सूत्र स्मृति को मौन सिखाना आवश्यक है। स्मृति निरंतर बोलती रहती है और जीवन के सामान्य कामों में चूंकि वो काम पड़ जाती है इसलिए यह भ्रम पैदा होता है कि जीवन की गहरी खोज में भी वो काम पड़ जाएगी। वहां वह काम नहीं पड़ सकती। पहली बात और जैसे ही स्मृति की मौन करने की बात स्पष्ट हो जाए वैसे ही सारे शास्त्र सारे सिद्धांत मौन हो जाएंगे क्योंकि वे स्मृति नहीं हैं। वैसे ही सब तीर्थंकर और सब अवतार मौन हो जायेंगे क्योंकि वे स्मृति नहीं हैं वैसे ही दुनिया की सारी ज्ञान सभ्यता मौन हो जाएगी क्योंकि वो स्मृति नहीं है। तब छूट जायेंगे आप अकेले खोजने को। तब रह जाएगी अकेली आप की चेतना खोज करने को। और जब उस पर खोज का प्रश्न खड़ा हो जाए और जब अनुसंधान की तीव्र प्रेरणा खड़ी हो जाए और जब कोई विकल्प न हो दूसरा और खोज करनी ही पड़े उसी स्थिति में खोज शुरू होती है उसी दबाव में उसी प्रेरणा में खोज शुरू होती है। और प्राण तत्पर होते हैं। जो काम भी हम दूसरों से लेते हैं उस काम के लिए हमारे प्राण धीरे-धीरे सुप्त और सो जाते हैं। यदि हम सारे काम दूसरों से ले सकें तो हमारे प्राण बिल्कुल सो जायेंगे। धीरे-धीरे हम सारे काम दूसरों से ले रहे हैं। ठीक भी है शरीर के तल पर दूसरों से काम ले लिया जाए, लेकिन आत्मा के तल पर दूसरों से काम लेना तो बहुत घातक है।
कनफ्यूशियस ने लिखा है कि मैं एक गाँव में गया तो ढाई हजार साल पहले की बात है। एक बगीचे में एक बूढ़ा आदमी एक कुएँ से पानी खींचता था। बूढ़ा आदमी और उसका लड़का दोनों ही बैल जहाँ आगे लगे होते हैं पानी खींचने को उस डंडे में जुते हुए हैं और दोनों उस कुएं से पानी खींच रहे थे। कनफ्यूशियस ने देखा और सोचा शायद इन लोगों को ये पता नहीं है कि ये काम तो उस बैलों से या घोड़ों से लिया जा सकता है, जो ये खुद कर रहे हैं। उसने जाके उस बूढ़े आदमी से कहा कि मित्र क्या तुम्हें पता नहीं है कि बड़े-बड़े कुओं से लोग अब घोड़े व बैलों से काम लेने लगे हैं तो तुम इसमें खुद जुते हुए हो। उस बूढ़े आदमी ने कहा कि धीरे बोलो कहीं मेरा लड़का ना सुन ले। और तुम थोड़ी देर से आना। कनफ्यूशियस बहुत हैरान हुआ कि उसने ऐसा क्यों कहा। थोड़ी देर बाद वो उस बूढ़े आदमी के पास गया। बूढ़े आदमी ने कहा बोलो मैंने भी सुना है कि ये काम बैलों और घोड़ों से लिया जाने लगा है।
लेकिन मैं डरता हूं कि कहीं मेरे लड़के को ये पता न चल जाए वो भी ये काम बैलों और घोड़ों से ले लेगा बात यहीं पर समाप्त नहीं होती है, जब हम काम दूसरों से लेना शुरू कर देते हैं तो काम के लिए हमारी खुद की शक्ति मरनी शुरू हो जाती है। आज मेरे लड़के में वो ही ताकत है, जो घोड़ों में होनी चाहिए। लेकिन कल जब वो घोड़ों से काम लेना शुरू करेगा, उसकी ये ताकत, उसकी शक्ति विलीन हो जाएगी। और फिर बात यही थोड़े ही रूकेगी आज नहीं कल हम दूसरे काम भी दूसरों से लेना शुरू कर देंगे। एक वक्त ऐसा आएगा कि मनुष्य सब काम दूसरों से ले लेगा, मशीनों से ले लेगा और दूसरों से, लेकिन फिर मनुष्य क्या करेगा। उसने कनफ्यूशियस से कहा इसीलिए तुम विदा हो जाओ और तुम्हारा ये अविष्कार अपने मन में ही रखो, गाँव में इसे मत लाना।
कन्फ्यूशियस ने बाद में सोचा कि बूढ़े आदमी ने उसे ये बात समझाई है और हो ना हो किसी न किसी दिन मनुष्य इस दुर्भाग्य में पड़ेगा वो सब काम दूसरों से ले लेगा। और तब बहुत मुश्किल हो जाएगी। कॉमन ने अपने एक उपन्यास में लिखा है उस वक्त की कल्पना की है कि जब लोग प्रेम भी नौकरों से करवा लिया करेंगे। घबराने वाली बात मालूम पड़ती है कि कॉमन में कहा कि किसी ना किसी दिन सोचेगा कि ये प्रेम करने की झंझट भी मैं क्यूं लूं और नौकरों से क्यूं न करवा लूं। हमको यह आश्चर्यजनक मालूम पड़ता है। हम कल्पना नहीं कर पाते कि प्रेम का काम कभी हम मशीनों पर छोड़ देंगे लेकिन ज्ञान का काम हमने मशीनों पर छोड़ा हुआ है। स्मृति तो मशीन है। और चूंकि हमने उस पर छोड़ दिया है इसलिए खुद की चेतना जाग नहीं पाती।
खुद की चेतना के जागरण के लिए, जरूरी है कि चेतना पर भी समस्याओं का बोझ और पीड़ा और दंश पड़े। समस्याएं चेतना को ही भेदें, ताकि चेतना तिलमिलाए उठे और जागृत हो। जब जीवन चोट करता है तभी कोई चीज जागती है। और जब जीवन चोट ही खड़ा करता है, चैलेंज खड़ा करता है तो ही ऊर्जा खड़ी होती है और उत्तर देती है। स्मृति से काम ना लें। जीवन की गहरी समस्याओं के लिए सत्य के लिए, परमात्मा के लिए, आत्मा के लिए स्मृति को मौन होने के लिए कहें तो विचार का जन्म होगा। जरूरी नहीं है कि विचार आपको उत्तर दे, हो सकता है कि बहुत ऐसे उत्तर हों जो मौन में ही मिलते हैं। जिनके लिए कोई शब्द नहीं होता। जरूरी नहीं है कि विचार उत्तर दें बहुत से उत्तर हैं जो मौन में ही मिलते हैं जिनके लिए कोई शब्द नहीं होता आप पूछें हो सकता है चेतना चुप ही रह जाए लेकिन उस चुप रहने में उस साइलेंस में भी एक समाधान आना शुरू होगा। जो कानों को रूपांतरित कर देगा।
और यह नहीं है कि उसके बाद आप दूसरों को उत्तर देने में समर्थ हो जायें लेकिन ये होगा कि आपका जीवन उसके बाद दूसरा जीवन होगा। उत्तर का सवाल कोई प्रश्न और शब्द में बांधने की बात नहीं है। उत्तर या समाधान का अर्थ है, आपके प्राण परिवर्तित हो जायें। आप पूछें चेतना मौन रह जाए, कोई उत्तर न मिलता हो। भीतर आप चुपचाप खड़े रह जाएं। पूछते हो ईश्वर है? और कोई उत्तर न आता हो हाँ या ना में और आएगा भी नहीं। हाँ में जो उत्तर आएगा वो उस स्मृति से आएगा जो आस्तिकों के आधार पर बनी हैं। न में जो उत्तर आएगा वह उस स्मृति से आएगा जो नास्तिकों के आधार पर बनी है लेकिन अगर स्मृति का कोई उपयोग ही न किया जाए और सिर्फ चेतना ही खोज करे तो हो सकता है कोई भी उत्तर ना आए मैं तो समझता हूँ कि कोई भी उत्तर नहीं आता है।
लेकिन उस साइलेंस में, उस मौन में उस अनुत्तर की स्थिति में भी प्राणों को एक समाधान मिलना शुरू हो जाता है। वो समाधान शब्द तो नहीं बनता लेकिन कल से दूसरे दिन से आपना जीवन दूसरा होना शुरू हो जाता है। तब अगर कोई आपसे पूछे कि ईश्वर है तो शायद आप न कह सके हाँ या ना। लेकिन आप अपने जीवन को बता सकें कि मेरे जीवन की देखें, शायद उससे पता चल जाए। उस जीवन में ईश्वर होगा। शायद आप कहें कि आंखों में झांकें, आंखों में झांकने से उत्तर मिल जाए। शायद आप कहें जो कि मेरे हृदय की धड़कनों को सुने। और शायद उस धड़कन में उत्तर मिल जाए। वो आपके जीवन में मौन में उपलब्ध हुआ समाधान आपके पूरे जीवन को घेर लेगा। ईश्वर का होना या ना होना सात्विक, बौद्धिक उत्तर की बात नहीं है आपके पूरे टोटल, आपके समग्र जीवन से उठती हुई प्रार्थना है। वह आपके शब्दों की बात नहीं, वह आपके समग्र जीवन से उठी हुई प्रार्थना है। समग्र जीवन समग्र जीवन से उठी हुई प्रार्थना है। समग्र जीवन से उठता हुआ संगीत है।
बुद्ध के पास एक युवक एक बार आया। उसने कुछ प्रश्न पूछे। बुद्ध ने कहा कि अगर तुझे प्रश्नों के उत्तर ही पाने हैं, तो तू कहीं और जा, हम उत्तर नहीं देते हैं, हम तो समाधान देते हैं। वह युवक हैरान हुआ। उसने पूछा कि समाधान और उत्तर में क्या कोई भेद होता है? बुद्ध ने कहाः बहुत भेद होता है। उत्तर होते हैं बौद्धिक। शब्दों में। समाधान बौद्धिक नहीं होता, आत्मिक होता है, समग्र होता है, टोटल। उत्तर होते हैं शब्दों में, समाधान होता है साधना में। उत्तर मैं दे सकता हूं, समाधान तुम्हारे भीतर से आता है। तो उत्तर तो देने में मैं असमर्थ हूं, लेकिन अगर समाधान पाना हो, तो रुको। उत्तर जल्दी दिए जा सकते हैं, समाधान के लिए तो वर्षों लग जाएंगे। जीवन भी लग सकता है। बहुत जीवन भी लग सकते हैं। इतना धीरज हो तुमको। तो उस युवक ने कहाः उत्तर पाते-पाते मैं भी परेशान हो गया हूं। इधर तीस वर्षों से खोजता हूं, जिसके पास भी जाता हूं वह उत्तर देता है, लेकिन उत्तर तो मिल जाते हैं, प्रश्न वहीं के वहीं खड़ा रह जाता है। प्रश्न तो कहीं हटता नहीं। तो मैं रुकने को राजी हूं। धीरज से प्रतीक्षा करूंगा। बुद्ध ने कहाः तुम रुक जाओ। वर्ष भर बाद इसी दिन तुम फिर पूछना।
वह रुक गया। वह वर्ष उसे मौन रहने की साधना कराई गई। उसे चुप होना सिखाया गया।
बाहर से तो हम चुप होना जानते हैं, भीतर से चुप होना बहुत कठिन है। भीतर चुप हो जाना बहुत कठिन है जो भीतर चुप हो जाता है वह सब जान लेता है। भीतर चुप हो जाने से बड़ा कोई सूत्र नहीं है। सत्य को या परमात्मा को जानने का। लेकिन हम तो देखते हैं जो परमात्मा को जानने जाते हैं वे भीतर गीता पढ़ते हैं, कुरान पढ़ते हैं, बाइबिल पढ़ते हैं, वे चुप कैसे होंगे? वे तो रोज सुबह उठके पाठ करते हैं। वे तो रोज सुबह शब्द याद करते हैं और जिस दिन गीता उन्हें कंठस्थ हो जाती है उस दिन ज्ञानी होने का मजा भी आएगा। वो तो भीतर लड़ते हैं लेकिन वस्तुतः जो भीतर खाली करता है वही जान पाता है, जो भीतर भरता है वो नहीं। बुद्ध ने उसे वर्ष भर खाली करने का विज्ञान सिखाया, कि भीतर तुम निपट खाली हो जाओ, भीतर जो है सबको गिराने दो। भीतर का भवन जिस दिन खाली हो जाएगा उस दिन समाधान आएगा।
वर्ष बीता, एक वर्ष बीत जाने के बाद बुद्ध ने उस व्यक्ति को कहा कि अब तुम पूछो लेकिन वो हंसने लगा। उसने कहा कि जैसे-जैसे मैं भीतर खाली होता गया मेरे प्रश्न भी विलीन हो गए क्योंकि मेरे प्रश्न भी भरे हुए थे, वे भी विदा हो गए। अब मेरे पास कोई भी प्रश्न नहीं है। उन्होंने कहाः कोई उत्तर आया? उसने कहा नहीं कोई उत्तर नहीं आया, लेकिन अब मुझे उत्तर चाहिए भी नहीं। जिस समाधान की तलाश थी वो उपलब्ध हुआ। मेरा पूरा जीवन परिवर्तित हुआ है। जीवन के परिवर्तन में उपलब्धि है, उत्तर के पाने में नहीं। विचार उत्तर नहीं लाएगा लेकिन सारे जीवन का परिवर्तन ले आएगा। पहला सूत्र तो है स्मृति को विदा करने का, स्मृति को मोल्ड करने का, स्मृति को कहने का कि तुम ठहरो और दूसरा सूत्र, दूसरा सूत्र है धैर्य से प्रश्न के साथ जीने का। जो नहीं कहेगा वो स्मृति पर निर्भर हो जाएगा। जल्द ही उत्तर चाहिए, स्मृति बहुत जल्दी उत्तर दे देती है लेकिन धैर्य से प्रतीक्षा करने की बात है। उत्तर नहीं आए तो प्रतीक्षा करें, प्रश्न पूछें और चुप हो जायें और किसी दूसरे के उत्तर को स्वीकार न करें। प्रश्न पूछें और चुप हो जाएं देखें इस प्रयोग को करके देखें। इस प्रयोग को करके देखें। पूछें कि प्रेम क्या है? और चुप हो जाएं और कोई भी उत्तर जो किताबों से आता हो, शास्त्रों से आता हो उसको विदा कर दें। उसे मत बीच में आने दें, पूछें कि प्रेम क्या है और चुप हो जाएं और प्रतीक्षा करें। उत्तर नहीं आएगा शब्दों में कि प्रेम क्या है?
लेकिन धीरे-धीरे आप पायेंगे कि वो प्रश्न की प्रेम क्या है? आपके प्राणों में गिरता चला गया। और धीरे-धीरे आप पाएंगे कि जीवन में आपके प्रेम का आगमन शुरू हुआ है। मत उत्तर दें जीवन प्रेम से भरना शुरू हो जाएगा। एक दिन पायेंगे कि प्रश्न विलीन हो गया और जीवन प्रेम से भर गया है। पूछें कि मैं कौन हूँ, और उत्तर न दें कि, मैं आत्मा हूं कि मैं फलां हूँ। सब तरफ उत्तर सिखाए जा रहे हैं कि मैं शुद्ध रूप आत्मा हूं, मैं यह हूं, मैं वह हूं, मैं अनन्त ज्ञान हूं, ये सब मत उत्तर दें। पूछें कि मैं कौन हूं और चुप हो जाएं। सोते समय पूछें कि मैं कौन हूं, जागते समय पूछें कि मैं कौन हूं और सारे उत्तर जो आपने सुन रखे हैं कोई भी उनका उपयोग न करें। मौन में मैं कौन हूं, इस प्रश्न को जीवन में उतरते जाने दें। सोते-जागते कार्य करते जब भी स्मरण हो जाए पूछें कि मैं कौन हूं और पीछे चुप हो जाएं कोई उत्तर न दें, अपनी तरफ से कोई उत्तर न दें। धीरे-धीरे एक दिन ये प्रश्न गिरेगा और भीतर से एक समाधान उपलब्ध होगा। नहीं कोई शब्द बनेंगे लेकिन आप जानेंगे कि कौन है ये।
उत्तर देने वाला भूल में पड़ जाता है, प्रश्न पूछने वाला और उत्तर को शांत रहने देने वाला, प्रश्न पूछने वाला और बिना उत्तर के धैर्य से प्रतीक्षा करने वाला एक दिन समाधान को उपलब्ध होता है।
विचार से मेरा ये अर्थ है, इतने गहरे में पूछ कर धैर्य से प्रतीक्षा करे, धैर्य अदभुत बात है। एक आदमी बीज को बो देता है फिर धैर्य से प्रतीक्षा करता है। अंकुर के निकलने की। फिर अंकुर निकलेगा, फिर पत्ते होंगे। फिर फूल आएंगे, फिर फल आएंगे। बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ती है। लेकिन अगर प्रतीक्षा न करनी हो फूलों के लिए तो तो फिर बाजार में कागज के फूल मिलते हैं, उनको खरीद कर लाया जा सकता है। वे जल्दी मिल जाते हैं। उन फूलों के मिलने में देर नहीं होती। ऐसे ही जिसे सच में जीवन की खोज करनी है उसे प्रश्न का बीज डालके चुप रह जाना चाहिए। उसे जल्दी से उत्तर लाने की फिक्र नहीं करनी चाहिए। उत्तर लाएगा तो उधार, बासा, वो किसी का होगा। बाजार का होगा, कागज का होगा। उस उत्तर में कोई प्राण नहीं होंगे, वो जीवंत नहीं होगा।
प्रश्न का बीज डाल दें और उत्तर फिर की फिक्र न करें। फिर शांति से प्रतीक्षा करें, प्रश्न के बीज को बोयें और उत्तर के लिए समाधान के लिए प्रतीक्षा करें। उसी प्रश्न के बीज में से अंकुर निकलेगा, उसी बीज में से जिसमें कोई जीवन नहीं मालूम होता। जो कुछ-कुछ जड़ मालूम होता है उसी में से अंकुर निकलता है, जीवन। उसी की खोल टूटती है, सड़ती है और अंकुर बन जाता है। और फिर उसी अंकुर में से प्राण विकसित होता है और फूलों तक पहुंचता है। जिस प्रश्न में आपको कुछ नहीं दिखायी पड़ रहा उसी प्रश्न में उत्तर छिपा हुआ है। लेकिन उस प्रश्न को भीतर हृदय की भूमि में गहरा पड़े रहने दें जल्दी ना करें। वो प्रश्न भीतर पड़ा रहे, हृदय में गले, गल जाए, टूट जाए, फिर उसमें से अंकुर आएगा और उसी प्रश्न में से उत्तर उपलब्ध होगा लेकिन धैर्य से प्रतीक्षा करनी होगी और जो जितने धैर्य से प्रतीक्षा करेगा उतनी ही शीघ्रता से उस बीज से अंकुर आ सकता है। और उसमें से समाधान के फल लगेंगे, फूल लगेंगे और जीवन सुगंध से भर जाएगा।
जीवन के संबंध में जो भी गहरे प्रश्न हैं उन्हें अपने भीतर बोना जरूरी है, लेकिन हम प्रश्न को नहीं बोते हम तो प्रश्न से छुटकारा पाना चाहते हैं। और छुटकारा पाने का एक ही उपाय है कि किसी से भी उत्तर पूछ लेते हैं और तृप्त होने लगते हैं। प्रश्न सार्थक है उत्तर नहीं। जिसे विचार करना है उसे प्रश्न सार्थक है उत्तर नहीं। जिसे विश्वास करना है उसे प्रश्न सार्थक नहीं उत्तर सार्थक है। विश्वास करना हो उत्तर इकट्ठे कर लें। विचार करना हो, उत्तर को अलग कर लें। प्रश्न, जिज्ञासा, समस्या इकट्ठी कर ले। वे दोनों वेद पढ़ लें। विश्वास करने वाला उत्तर इकट्ठे करता है। विचार करने वाला प्रश्न को गहरा करता है।
अपने प्राणों को सारा प्रश्न पर जोड़ता है। विचार करने वाला प्रश्न की खेती करता है। विश्वास करने वाला प्रश्नों की नहीं उत्तरों की तिजोरी भरता है। उत्तर इकट्ठे करने वाला पंडित हो जाता है। प्रश्न को बोने वाला प्रज्ञा को उपलब्ध होता है। जो प्रश्न को बोता है, श्रम करता है, प्रतीक्षा करता है, एक दिन ज्ञान के फूल उसे उपलब्ध होते हैं। जो इकट्ठा करता है विश्वासों को, उत्तरों को, समाधानों को, सिद्धांतों को उसे जल्दी फल मिल जाता है और वो पंडित हो जाता है। कोई भी प्रश्न पूछें वह उत्तर देने लगता है लेकिन उसके जीवन में कोई ज्ञान की किरण नहीं उठती और न उसके जीवन में कोई बुनियादी अन्तर आते हैं। सत्य के संबंध मेें उससे पूछिए तो वो उत्तर दे सकता है, उसके जीवन में कोई सत्य नहीं होता। प्रेम के संबंध में पूछिए तो वो शास्त्र लिख सकता है लेकिन उसके जीवन में प्रेम नाममात्र को नहीं होता और हो सकता है कि जो इन प्रश्नों को अपने भीतर बोए उसे मुश्किल हो जाए प्रेम के संबंध में कुछ कहना या कुछ लिखना। उसे मुश्किल हो जाए सत्य के संबंध में कुछ कहना या बोलना। लेकिन उसके जीवन में सत्य की और प्रेम की सुगंध व्याप्त होनी शुरू हो जाती है।
एक बाउल फकीर था बंगाल में, एक वैष्णो पंडित एक बार उससे मिलने गया। तो बाउल तो फकीर निरंतर प्रेम की बातें करते हैं। गाते हैं गीत तो प्रेम के, प्रार्थना करते हैं तो प्रेम की। जीते हैं तो प्रेम में, चलते हैं तो प्रेम में। वैष्णो पंडित मिलने गया उस बाउल फकीर से उसने पूछा परमात्मा है उसने कहा मुझे पता नहींे। लेकिन प्रेम है। और जो प्रेम को जान लेता है वो एक दिन परमात्मा को भी जान लेता है। उस वैष्णो पंडित ने पूछा कैसा प्रेम, कौन सा प्रेम, तुम्हें पता है प्रेम के कितने प्रकार होते हैं? बाउल सुन कर हैरान हुआ प्रेम को तो मैंने जाना लेकिन प्रकार को मैंने नहीं जाना। प्रेम में भी कहीं प्रकार होते हैं! वो वैष्णो पंडित हंसने लगा और पंडित हमेशा ही उन पर हंसा है जो जानते हैं। वो हंसने लगा उसने कहा तुम्हें ये भी पता नहीं कि प्रेम के प्रकार होते हैं। प्रेम होता है पांच प्रकार का, तो कौन से प्रकार से प्रेम से परमात्मा मिलता है। वो फकीर तो चुप रह गया। उस पंडित ने अपनी किताब, अपने झोले कहा मेरे पास ये वर्णन है पांच प्रकार के प्रेमों का। वो पढ़के उसने सुनाया एक-एक प्रेम की बारीक-बारीक व्याख्या थी। सुनाने के बाद उसने उस फकीर से पूछा कैसा लगा, कैसा प्रतीत हुआ ये विश्लेषण कैसा है प्रेम का?
ये प्रेम के प्रकार ठीक हैं या गलत? तुम्हें कैसा लगा इनको सुन कर? उस फकीर ने आप हैरान होंगे क्या कहा। वो नाचने लगा और उसने एक गीत गाया। उस गीत का अर्थ बहुत अदभुत था। उसने अपने गीत में गाया कि तुम जब प्रेम के प्रकारों का वर्णन करने लगे तो मुझे कैसा लगा, पूछते हो मुझे कैसा लगा। मुझे ऐसा लगा जैसे कोई सुनार सोने पर सोने को कसने का जो पत्थर होता है उसको लेकर फूलों की बगिया में आ गया हो। मुझे ऐसा लगा कि वो उस पत्थर पर फूलों को कस-कस कर देखने लगा कि कौन फूल सच्चा, कौन फूल झूठा। वो नाचा और उसने गीत गाया कि मुझे ऐसा लगा। कि सुनार जब सोने के कसने के पत्थर को लेकर फूलों को कसता है और देखता है कौन फूल सच्चा, कौन फूल झूठा।
उसने कहा कि जब मैंने प्रेम को जाना तो सब प्रकार मिट गए। जब मैंने प्रेम को जाना तो सब भेद गिर गए। जब मैंने प्रेम को जाना तो न तो मैं रहा और न वो रहा जिसे मैंने प्रेम किया। जब मैंने प्रेम को जाना तो सिर्फ प्रेम ही रह गया, न वहां कोई प्रकार थे, न वहां कोई भेद था, न वहां कोई द्वेत था, न वहां प्रेमी था और न वो था जिससे प्रेम किया गया। फिर तो बस प्रेम ही रह गया। जब मैंने प्रेम को जाना तो सिर्फ प्रेम ही रह गया। लेकिन जिन्होंने प्रेम को नहीं जाना और शास्त्र पढ़े हैं उन्हें प्रेम के प्रकारों का पता है कि वो कितने प्रकार का प्रेम होता है।
दो तरह के जगत हैं जीवन की खोज में दो तरह की दिशाएं हैं। एक पांडित्य की दिशा है, एक ज्ञान की। जो पांडित्य की दिशा में जाता है वो सदा के लिए खो जाता है। उसके पास शब्दों के सिवाय और कुछ भी नहीं होता। और जो ज्ञान की दिशा में जाता है धीरे-धीरे उसके शब्द खोते चले जाते हैं, उसके पास निःशब्द अनुभूति के सिवा कुछ भी नहीं होता। जो विचारों को इकट्ठा करेगा वो पंडित हो जाएगा और जो विचार को जन्माएगा, वो विचार की दृष्टि को पैदा करेगा। सोचने की सामथ्र्य पैदा करेगा, प्रश्न पूछेगा और फिर चेतना को चैलेंज देगा और चेतना से उत्तर आने की प्रतीक्षा करेगा। उसके जीवन में ज्ञान का जन्म होता है, विचारों से नहीं लेकिन विचार से पहुंचा जा सकता है। विचारों के संग्रह से नहीं लेकिन विचार के जन्म से। और हम सब इस भूल में पड़ जाते हैं कि हम विचारों को इकट्ठा करते हैं। और सोचते हैं कि विचार हमें मिल गया। विचार ऐसे नहीं मिलेगा! विवेक ऐसे नहीं मिलेगा, प्रज्ञा ऐसे नहीं मिलेगी। प्रज्ञा की खोज के लिए।
विचार की खोज के लिए दो सूत्र मैंने आपसे कहे। पहला, स्मृति को मौन हो जाने दें। स्मृति से बचें, स्मृति खतरनाक है। स्मृति बहुत बड़ी प्रवंचक है। जो स्मृति की भूल में पड़ता है, वह अटकता है। दूसरी बात, प्रश्न पूछें, उत्तर की जल्दी न करें। प्रश्न को बोयें। प्रश्न के बीज को प्राणों में डालें। प्रश्न को वहां घूमने दें, गूंजने दें। प्रश्न को वहां तीव्र से तीव्र होने दें। प्रश्न को वहाँ मन में आंदोलित होने दें। गतिमान होने दें। और उत्तर की जल्दी न करें। कोई भी उत्तर आए स्वीकार न करें। कोई भी उत्तर आए अस्वीकार करते जायें। एक क्षण रहे कि प्रश्न ही रह जाए कोई उत्तर ना हो। प्राणों में तीर की भांति प्रश्न प्रविष्ट होता चला जाए और प्रतीक्षा और धैर्य, धीरज से देखें। एक दिन उसी प्रश्न से उत्तर आएगा। जिस आत्मा ने प्रश्न पूछा है, वह आत्मा उत्तर देने में समर्थ है। लेकिन हम दूसरों के उत्तर स्वीकार कर लेंगे तो फिर उस आत्मा के उत्तर देने का कोई कारण नहीं रह जाता। जिस आत्मा ने जिज्ञासा दी है, जिस आत्मा ने समस्या खड़ी की है। वो समाधान देने में भी समर्थ है। स्मरण रखें, समस्या है तो समाधान भी है। प्रश्न हैं तो, उत्तर भी है। जिज्ञासा है, तो हल भी है, जिस प्राण के केंद्र से जिज्ञासा उठ रही है, उसी प्राण के केंद्र को समाधान भी देने में आप जल्दी न करें। कहीं से उधार समाधान न ले आयें। वह उधार समाधान असली समाधान के आने में बाधा बन जाता है।
ये दो बातें मैंने विचार के जन्म के लिए आपसे कही हैं। अविचार से बचें, विश्वास से बचें, स्मृति से बचें और विचार को जगाने की सतत चेष्टा करें। तो एक दिन निश्चित रूप से विचार का जन्म होता है। सारा जीवन परिवर्तित हो जाता है। उस अनुभूति के क्षण में आप पायेंगे कि वे सारी बातें जो विश्वास के नाम से, प्रचलित हैं। सिद्धांत के, सत्य के, शास्त्रों के नाम से वे सब बहुत गहरे अर्थों में आपके सामने स्पष्ट हो गयी हैं। प्रत्यक्ष हो गयी हैं। विचार से जो चलता है, वो एक दिन पाता है वास्तविक श्रद्धा को, वास्तविक विश्वास को, उस अनुभूति को जिस पर कोई संदेह का कारण नहीं रह जाता। क्योंकि वह स्वयं पायी गयी है, वो स्वयं जानी गई है, हम केवल उसी सत्य के प्रति असंदिग्ध हो सकते हैं जो स्वयं पाया गया हो, जो सत्य दूसरे ने पाया हो, वो दूसरा चाहे कोई भी हो, कितना ही बड़ा व्यक्ति, भगवान स्वयं लेकिन दूसरे के द्वारा पाया गया सत्य आपके लिए, मेरे लिए असंदिग्ध नहीं हो सकता है। इसलिए ये सारे तथाकथित विश्वास के पीछे अविश्वास छिपा रहता है। ये सब बिलिव्स के पीछे अविश्वास छिपा रहता है। ये सब मान्यताओं के पीछे शक और संदेह मौजूद होता है। उसे हम छिपाए रखते हैं बात दूसरी है, वो मौजूद है। आप मानते हैं ईश्वर है लेकिन थोड़ा खोजना वह आपके भीतर है। आपको खयाल भी मिल जाएगा जो शक कर रहा होगा कि पता नहीं है या नहीं।
आप मानते हैं, आत्मा है। लेकिन भीतर आपके वह बिलिव्स छिपा होगा, जो कहेगा कि पता नहीं है भी या नहीं। आप कितनी भी दृढ़ता से मानते हों, आत्मा ईश्वर को जितनी ज्यादा दृढ़ता होगी भीतर उतना ही शक होगा। यूं तो दृढ़ता किसके विरोध में खड़ी कर रहे हैं आप। उसी शक के विरोध में, वो भीतर जो संदेह है, वो उसी के विरोध में दृढ़ता खड़ी कर रहे हैं। बहुत तीव्रता से विश्वास कर रहे हैं ताकि वो भीतर जो संदेह है उसका स्मरण न रह जाए लेकिन वो मौजूद है, वो जा नहीं सकता। वह छिपा रहेगा, वह असली है।
यह दृढ़ता और यह सब श्रद्धा है। यह सब विश्वास थोपा हुआ है। संदेह ही सत्य है इसलिए कल मैंने आपसे कहा कि संदेह को ही सामने आने दें। झूठा विश्वास मत थोंपे। अगर वस्तुतः किसी दिन विश्वास की और श्रद्धा की स्थिति को उपलब्ध होना है तो उस वास्तविक संदेह को प्रकट होने दें, पूछने दें, प्रश्न को उठने दें। समस्या को आने दें। और जब समस्या खड़ी हो उत्तर न दें। एक दिन उत्तर आएगा।
प्रतीक्षा से एक दिन समाधान आएगा। और वह आपके सारे प्राणों को, सारे जीवन को परिवर्तित कर देगा। जो समाधान पूरे जीवन को बदल दे, वही सत्य है। और ऐसा समाधान विचार के अतिरिक्त न कभी आया है और न आ सकता है।
ये मैंने थोड़ी सी बातें विचार के लिए आपसे कही हैं। कल निर्विचार के लिए आपसे बात करूंगा। इन तीन सीढ़ियों में अविचार विचार और निर्विचार। इन तीन सीढ़ियों में जीवन सत्य को कैसे पाया जा सकता है? इसकी मैं आपसे चर्चा कर रहा हूं।

मेरी इन बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।

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