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शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-04)

प्रवचन -चौथा-(ओशो)

हिंदुस्तान क्रांति के चैराहे पर है

यह भी मैं मानता हूं कि सत्य बोलने से बड़ा धक्का दूसरा नहीं हो सकता। समाज इतना झूठ बोलता रहा, इतना झूठ पर जी रहा है कि आप बड़े से बड़े शाॅक जो पहुंचा सकते हैं वह यह कि चीज जैसी है वैसी सच-सच बोल दें।

प्रश्नः इसलिए कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि लोग मानते हैं कि जो कोई धक्का दे सकता है वे सत्यवती हैैं।

यह जरूरी नहीं है। यह जरूरी नहीं है। लेकिन फिर भी मेरा मानना यह है कि धक्का न देने वाले सत्य की बजाए धक्का देने वाला असत्य भी बेहतर होता है। क्योंकि धक्का चिंतन में ले जाता है। और चिंतन में बहुत देर तक असत्य नहीं टिक सकता। मेरी दृष्टि यह है कि चिंतन में, विचार में समाज जाना चाहिए। इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता कि इनिशिअल धक्का अगर गलत भी था, और झूठ भी था, तो भी फर्क नहीं पड़ता। यानी वह सत्य जो हमें स्टैटिक बनाते हैं उन असत्यों से बदतर हैं जो कि हमें डाइनैमिक बनाते हैं। क्योंकि असत्य बहुत दिन नहीं टिक सकता, अगर चिंतन की प्रक्रिया शुरू हो गई है तो। और इस देश में तकलीफ यह है कि चिंतन चलता ही नहीं।


प्रश्नः वी हैव ए ट्रेडीशन फाॅर द इंटलेक्चुअल डिसकशंस, इफ यू गो टु दि उपनिषद एण्ड निलंकार। नाउ वाॅट यू आर फाइनली दैट यू आर ईवल बी ‘संशय आत्मा विनश्यति’ वी स्टार्ट टेकिंग ए डोंट बाय टू टाॅक। हाउ दिस चेंज ए केनवास?

कई तरह से। वह जिसको आप इंटलेक्चुअल ट्रेडीशन कहते हैं उपनिषद की, वे भी बहुत इंटलेक्चुअल नहीं थी, पहली बात। क्योंकि अगर आप एक सौ आठ उपनिषद उठा कर देखें, तो एक सौ आठ लाइन भी नहीं मिलेंगी, जिनको आप कहें कि हां ये कुछ हैं। रिपिटीशन, रिपिटीशन, वही, वही, वही। और वे भी जो बातें थीं, वे भी जो बातें थीं, वे भी इंटलेक्चुअल नहीं हैं। क्योंकि उपनिषद की पूरी की पूरी...जगह वह बियांड इंटलेेक्ट है। यानी वे जो कह रहे हैं वह यह है कि सत्य जो है वह बुद्धि के अतीत है। तो जब तक, जब तक किसी को विश्वास दिलाना या तर्क करना है, तब तक वे तर्क करने में राजी हैं। और जैसे ही विश्वास खंडन करने वाला तर्क हो, वे कहते हैं, यह कुतर्क है। आप मेरा मतलब समझे न?
हिंदुस्तान की हजारों साल से यह अनवरत परंपरा रही है कि निषेध करने वाले तर्क को वे कुतर्क कहेंगे और सिद्ध करने वाले तर्क को वे तर्क कहेंगे। यह बड़ी खतरनाक और बेईमान बात है। वह जो कि जो तर्क मुझे सिद्ध करता है वह सही और जो मुझे गलत कर देता हो वह खराब। इसका दुष्परिणाम हुआ है। क्योंकि धीरे-धीरे तर्क ही कुतर्क हो गया। और दूसरी बात यह हुई कि यह सारी उपनिषद की और इन दिनों की सारी की सारी परंपरा इंटलेक्चुअल नहीं है, मिस्टिक है। भारत की जो बहुत बड़ी परंपरा है वह मिस्टिक है। और मिस्टिक परंपरा हमेशा इररेशनल होती है, रेशनल नहीं होती।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

साक्रेटीज, साक्रेटीज जैसे एक बिलकुल प्योरिफाई इंटलेक्ट है। वैसी कोई मिस्टिक एप्रोच की बात नहीं है। यद्यपि रीगन जब पूरी कोशिश करता है तो एक जगह पहुंचता है वहां मिस्टिसिज्म शुरू होता है। लेकिन रीगन उसकी बात नहीं करता कभी। कभी बात नहीं करता, उस मामले में चुप ही रहेगा।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां-हां, हो सकता है। हो सकता है। तो जैसे हिंदुस्तान में गौतम बुद्ध। गौतम बुद्ध की एप्रोच एक बंधी रेशनल है। और इसी वजह से बुद्धिज्म हिंदुस्तान में नहीं टिक सका। क्योंकि हिंदुस्तान की परंपरा इररेशनल है। गौतम बुद्ध नहीं टिक सके हिंदुस्तान में, क्योंकि पूरी की पूरी जो मेन करंट है वह मेन करंट इररेशनल है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, तो वहां जाकर बुद्धिज्म पूरा का पूरा इररेशनल हो गया इसलिए टिका। आप मेरा मतलब समझे न? हिंदुस्तान से बुद्धिज्म जैसे ही बाहर गया बर्मा या लंका या चीन वहां जाकर वह इररेशनल हो गया। इतना वह यहीं हो जाता तो यहीं टिक जाता। वहां बुद्ध तो गौण हो गए, स्वर्ग-नरक बन गए, और उनकी पूजा शुरू हो गई। और वे जिस बात से हिंदुस्तान में बुद्धिज्म लड़ा था, वे सबकी सब बातें उसने चीन में, बर्मा में स्वीकार कर लीं, इसलिए वहां टिक गया। वहां भी इररेशनल ट्रेडीशन ही थी। और बुद्धिज्म वहां टिका इसलिए कि वह इररेशनल होने को राजी हो गया। यहां अपनी मदरलैंड में वह इररेशनल होने को राजी नहीं हुआ। बुद्ध की हवा कायम थी, उसने लड़ने की कोशिश की, यहां हार गया। हारने से ही वह पराजित हो गया। पराजित मन लेकर बौद्ध भिक्षु हिंदुस्तान के बाहर गया। वहां जाकर वह राजी हो गया। उसने कहा कि लड़ नहीं सकते। जो कहते हैं वह मान लेना चाहिए। जैसे बुद्ध को मैं कहता हूं कि यह आदमी एक बिलकुल एब्सोल्यूट रेशनल एप्रोच है। जैसे आज के युग में जैसे विट्गिंस्टीन, ऐसे लोगों की एप्रोच।

प्रश्नः चार्वाक मेक एवरी राइट टू कंट्रीब्यूशन टू बाय द टेकन।

बहुत मेहनत की। बहुत मेहनत की। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि चार्वाकों के पास कभी कोई बहुत बुद्धिमान आदमी नहीं रहा। इसलिए जो चर्चा उन्होंने चलाई बहुत नीचे तल पर थी। यानी वह कभी मैटाफिजिकल नहीं हो सकी। वह कभी ऐसे नहीं हो सकी कि चार्वाक को भी ऐसा नहीं हो सका कभी कि जैसे ह्यूम है, जैसे ह्यूम ने जो बात चलाई नास्तिकता की भी, तो उसमें एक बड़ा तर्क है, बड़ा विचार है। चार्वाक का मामला कुछ ऐसा मालूम पड़ता है कि वह बहुत सिंपल है, डोनेज्म है, खाओ-पीयो-मौज करो। लेकिन उसमें कोई ऐसा तर्क नहीं है कि आप...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

एपीकुरस तो बहुत अदभुत है। एपीकुरस जैसा मामला चार्वाकों का नहीं है। एपीकुरस तो रेयर फेनामिना है मनुष्य-जाति के पूरे इतिहास में। यानी एपीकुरस के मुकाबले में आदमी खोजना मुश्किल है, इतना प्यारा आदमी है। चार्वाक अगर एक भी एपीकुरस पैदा कर देते, तो उस समय परंपरा टिक जाती। वह नहीं हो सका। और उसका कुल कारण इतना है कि हिंदुस्तान की पूरी की पूरी परंपरा इतनी इररेशनल है कि एपीकुरस कैसे पैदा हो, एपीकुरस तो बड़ा रेशनल आदमी है। यह मामला...है। एपीकुरस का मामला इन लोगों से बहुत प्यारा है। और यह जो, और तब यह हुआ धीरे-धीरे, धीरे-धीरे तीन हजार वर्ष निरंतर दोहराने से कि विश्वास करो, विश्वास करो, संदेह मत करो, भटक जाओगे। इसमें फायदा है गुरुओं को विश्वास कराने में। तो ठीक है, वे समझाते रहें। और हिंदुस्तान जो है वह धीरे-धीरे गुरुओं का देश बन गया।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

दो-तीन बातें मेरे खयाल में हैं। एक तो यह कि जिस तरह की बात मैं कह रहा हूं शायद इस तरह की बात सुनने की तैयारी हिंदुस्तान में पहली दफा पैदा हुई है, पश्चिम के संपर्क से। यानी हिंदुस्तान की मानसिक हवा एक बहुत बड़ी बदलाहट के किनारे खड़ी है। जैसा कि कभी नहीं हुआ था। हिंदुस्तान के साथ एक मजा हुआ कि हिंदुस्तान में मुगल आए, हूण आए, लेकिन वे सब हमसे कम वि.जन के लोग थे। हिंदुस्तान को अंग्रेजों के पहले जितने लोगों से संपर्क पड़ा, वे सब के सब लोग सांस्कृतिक और बौद्धिक रूप से हमसे निम्नतल के थे। इसलिए उनका कोई इंपेक्ट हम पर नहीं हुआ। बल्कि वे हमारे इंपेक्ट में आकर बदल गए।
पहली दफा अंग्रेजों के साथ संपर्क में आने पर हमें एक बिलकुल ही डायमेट्रिकली अपोजिट किस्म की इंटलेक्ट से मुकाबला पड़ा। इसलिए क्राइसिस पैदा हो गई। और वह क्राइसिस चल रही है। इस क्राइसिस के वक्त में मुझे आशा बनती है कि हिंदुस्तान के माइंड को कंप्लीट टर्न दी जा सकती है, इस क्राइसिस के वक्त में। क्योंकि पुराने माइंड ने जड़ें छोड़ दी हैं। वह मरने के करीब है। नया माइंड पैदा होने की तैयारी कर रहा है। अगर हमने नये माइंड को पैदा करने की इस वक्त अगर पंद्रह-बीस साल सतत मेहनत की, तो निश्चित रूप से हिंदुस्तान वह कभी नहीं हो सकेगा जो था। और अगर हमने यह कोशिश नहीं की, अगर यह कोशिश नहीं की तो हिंदुस्तान वापस लौट कर रिवर्स अपनी हालत पकड़ लेगा।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मैं समझा। नहीं, पश्चिम में यह हो जाएगा। उसका कारण है, उसका कारण है। पश्चिम में इधर डेढ़ सौ, दो सौ वर्षों में बुद्धि से इतना श्रम किया है कि बुद्धि थक गई है, और विश्राम चाहिए। तो कोई भी तरह का विश्राम ठीक मालूम पड़ रहा है। तो ये जो हिंदुस्तान के महर्षि फलां-ढिंका महेश इत्यादि पहुंच जाते हैं, ये सब पश्चिम को सोने की तरकीब बताने में सुविधापूर्ण मालूम पड़ रहे हैं। इनकी जो अपील है वह किसी मिस्टिसिज्म-विस्टिसिज्म की अपील नहीं है। वह सिर्फ पश्चिम की बुद्धि थक गई है, बुरी तरह थक गई है। दो महायुद्धों ने बुरी तरह थकाया है और वह इतनी घबड़ा गई है कि हम जो कर रहे थे कि पता नहीं वह ठीक है या नहीं। गड़बड़ हो गया है सब। जो आज से चालीस साल पहले पश्चिम में आत्मविश्वास था वह खो गया है। दो महायुद्धों में खो दिया। कोई भी खो देगा। हमने तो कोई युद्ध भी नहीं देखे, हमारा कोई आत्मविश्वास नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

पहली बात कि आप हैप्पी नहीं हैं, एक बात। और दूसरी बात,...

प्रश्नः विदाउट मारिजुआना वी आर हैप्पी।

न-न, काहे के हैप्पी हैं आप? गांजा-भांग-अफीम सब कर रहे हैं, वह सब मारिजुआना है पुराने किस्म का। इससे कोई फर्क पड़ता है। मारिजुआना वे हमसे सीख रहे हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

और वह जो फिलासफिकली भी जो हमने टेक्नीक निकाली राम-राम जप कर माला फेरने की, वह मारिजुआना जैसा ही है, उसमें कोई फर्क नहीं है। उसमें कोई फर्क नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

यह जो आप कह रहे हैं न, यह जो आप कह रहे हैं, यह बात पूछने जैसी, समझने जैसी जरूरी है, कि अगर वे थक गए हैं और परेशान हो गए हैं, तो अब हम और किसलिए उसी रास्ते पर जाकर परेशान हों? मेरा कहना यह है कि वे थक गए हैं और परेशान हो गए हैं, उसका कारण उस रास्ते पर जाना नहीं था। उसका कारण इतना ही था कि पूरे वे भी उस रास्ते पर नहीं जा सके। और माइंड कांफ्लिक्ट होता गया, इसलिए थक गए। कांफ्लिक्ट थकाती है। पूरी की पूरी क्रिश्चिएनिटी की ट्रेडीशन हमसे भी ज्यादा इररेशनल है।
तो हुआ क्या है कि पश्चिम में जो रीगन आया वह कोई पूरे वेस्ट माइंड में नहीं आ गया। एक छोटे से टुकड़े में आया। और सारा माइंड लेथार्जिक बना रहा। सारा माइंड पूरा का पूरा एक हजार साल पुराना है। सिर्फ थोड़े से इंटेलक्चुअल क्लास--साइंटिस्ट का, इंटलेक्चुअलस का, लिटररि परसन का, उसने बगावत की। वह छोटा सा वर्ग लड़ा इसके खिलाफ। वह लड़ कर थक गया। और यह वर्ग कभी भी जबरदस्ती खींचा गया। वह कभी राजी से गया नहीं इसकी तरफ। और उसके मन में हमेशा इच्छा रही कि कोई भी मौका मिल जाए हम वापस लौट जाएं। दो युद्धों ने उसे मौका दे दिया कि गलत थेे तुम। तुम्हारी सारी प्रोगे्रस गड़बड़ थी। हम पीछे ही ठीक थे।
मेरा अपना कहना है कि हिंदुस्तान में यह कहानी मुक्त होने की जरूरत नहीं है। अगर हिंदुस्तान के पूरे माइंड को राजी किया, और वह राजी किया जा सकता है। क्योंकि वेस्ट कभी भी इस तरह की कांफ्लिक्ट में नहीं था जिसमें हम पड़े हैं। यह बहुत ही डिफरेंट है। वेस्ट में इंटलेक्ट भीतर से पैदा हुई थी, कोई क्राइसिस बाहर से नहीं आ गई थी। हमारे सामने एक बहुत ही फेनामिनल घटना है कि वेस्ट से क्राइसिस आकर खड़ी हो गई है। सारी शिक्षा वेस्टर्न है, सारा माहौल वेस्टर्न है, सारी हवा वेस्टर्न है। आने वाले पच्चीस वर्षों में हम वेस्टर्न होंगे, इससे बच नहीं सकते हैं। और अगर हमारा माइंड इस पूरी क्राइसिस में राजी हो जाए...


(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

और अगर हम उलटा मंुह करके चलते हैं तो हम बेवकूफ हैं। और इस मौके का अगर पूरा हिंदुस्तान फायदा उठाए, तो मेरी अपनी समझ यह है कि आने वाले पचास वर्षों में हिंदुस्तान दुनिया में सबसे बड़ा इंटलेक्चुअल एक्सप्लोजन पैदा कर सकता है। जितना कभी किसी कौम ने नहीं किया हो। उसके कारण हैं। क्योंकि दो हजार, ढाई हजार साल का डारमेंट माइंड है। और दो हजार साल की एनर्जी बिलकुल अनयूज्ड पड़ी है। अगर एक बार इसमें इग्नीशन पकड़ जाए तो इतना बड़ा एक्सप्लोजन होगा--जैसे कि किसी खेत को दो हजार साल तक बोया न गया हो और पड़ोस के खेत बोए जाते रहे हों, और दो हजार साल बाद उस खेत में बीज डाल दिए जाएं, तो जो क्राप आए...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, आई एम रोमांटिक। बिना रोमांटिक हुए जीना ही मुश्किल है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, इंडिविजुअल माइंड एकदम इंडिविजुअल नहीं है। इंडिविजुअल माइंड का बहुत छोटा हिस्सा इंडिविजुअल है; बहुत बड़ा हिस्सा सोया है, अकलेक्टिव है। इग्नीशन तो इंडिविजुअल माइंड से ही जाएगी। लेकिन बहुत इंडिविजुअल की चली जाए तो कलेक्टिव माइंड में आकर पड़ जाती है। और वह जो कलेक्टिव माइंड है...बिलकुल रोमांटिक ही है यह बात, क्योंकि सभी अच्छी बातें रोमांटिक होती हैं। और जो कौम रोमांटिक होना ही बंद कर देती है वह मारे जाती है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, सपने देखना चाहिए। नीत्शे ने कहीं कहा है कि वह कौम नपुंसक है जिसकी प्रत्यंचा पर तीर चढ़ने बंद हो गए हैं। वह कौम नपुंसक है जिसने सपने देखना बंद कर दिए हैं। वह कौम नपुंसक है जो अपने को घृणा करना बंद कर देती है। क्योंकि घृणा करते हैं तो बियांड जाते हैं। तो मुझे पसंद है यह। जैसे नीत्शे का नाम लिया, आप खायल में रखेंगे, वह भी मुझे बहुत प्रीतिकर है वह आदमी।

प्रश्नः दस स्पीक जरथुस्त्रा!

अदभुत किताब है, कोई मुकाबला नहीं है उस किताब का। कोई मुकाबला नहीं है। वह तो हमारे मुल्क में होती तो हम गीता बना देते।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

जरा भी नहीं। मगर मैं तो नहीं मानता, लेकिन ऐसे डिसाइपल भी हो सकते हैं। मैं डिसाइपल कभी नहीं मानता।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

बहुत एफर्ट करने पड़ते हैं। बहुत एफर्ट करने पड़ते हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

पहली तो बात यह है, पहली तो बात यह है कि गुरु होने की जो पात्रता है उस सबको मैं अपने में खंडित करता हूं।

प्रश्नः एंटी पर्सनैलिटी।

हां। गुरु होने की पात्रता भी अर्जित करनी पड़ती है। चरित्र बनाना पड़ता हैै। तो ये सारे पागलपन हम लोग करते हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां। दूसरी बात, गुरु होने के लिए--गुरु न होने के लिए बहुत करने की जरूरत नहीं है--गुरुहोने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। गुरु होना बिलकुल पाजिटिव एफर्ट है। क्योंकि कोई आदमी दुनिया में शिष्य होना नहीं चाहता बुनियादी रूप से।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

वह सब गुरु की चेष्टा से ही संभव हो पाता है। हजारों साल से गुरु समझाते हैं कि गुरु के बिना ज्ञान नहीं, गुरु के बिना ज्ञान नहीं। गुरु के चरण पकड़ कर ही पार होओगे। यह सब समझाना पड़े, गुरु बनना पड़े। गुरु होने के लिए पूरा पाजिटिव व्यवस्था देनी पड़ती है। तो मैं कोई पाजिटिव व्यवस्था नहीं देता।...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

यह भी जरूरी है न, फेक होना बहुत जरूरी है गुरु होने के लिए। गुरु होने के लिए फेक होना जरूरी है। गुरु होना बड़ा मुश्किल है। और दूसरी बात, फिर भी इतनी सारी कोशिश के बाद भी डिसाइपल्स आ जाते हैं। उनको सब तरह से निराश करने पर भी आ जाते हैं। बल्कि एक खतरा है, कि जितना उनको निराश करो उनको लगता है कि गुरु के पास ज्यादा होना चाहिए। यह खतरा है पूरे वक्त। क्योंकि जो गुरु इंकार करता है उसके पास जरूर कुछ होना चाहिए।

प्रश्नः यंग पीपल टू प्ले फुटबाॅल रादर दैन टू डू मेडिटेशन।

ठीक कहते हैं, ठीक कहते हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

बहुत दूर तक ठीक कहते हैं वे, बहुत दूर तक ठीक कहते हैं। लेकिन मेरा कुछ थोड़ा सा फर्क है। मेरा कहना यह है कि फुटबाॅल खेलते हुए भी मेडिटेशन की जा सकती है। मेडिटेशन को फुटबाॅल से तोड़ने की जरूरत नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

नहीं-नहीं, क्योंकि विवेकानंद जो हैं एक तो गुरूडम के विश्वासी हैं। जो एकदम खतरनाक बात है। बड़ी खतरनाक बात है। गुरूडम के विश्वासी हैं, ट्रेडीशंस के विश्वासी हैं। वह सब पुराने शास्त्र का अति आग्रह है मन में। और वे जो कुछ भी कह रहे हैं, जो कुछ भी कह रहे हैं, वह सब का सब इस पुराने को ही सिद्ध करने और सही बताने की चेष्टा में कह रहे हैं।
मेरी नजर में जीवन की गति हमेशा जो पुरानी कंटीन्यूटी है उसको तोड़ने से होती है। तो ओल्ड को रोज-रोज मरना चाहिए। उसकी छाती पर बैठे नहीं रहना चाहिए। उसको विदा होना चाहिए।

प्रश्नः वाॅय दिस...एंटी-थीसिस एंड थीसिस?

नहीं, यह जो मामला है थीसिस, एंटी-थीसिस और सिंथीसिस का, वह कंटीन्यूटी का मामला है। तो वह जो थीसिस जो है वह एंटी-थीसिस में कंटीन्यू करती है, सिंथीसिस में कंटीन्यू करती है। फिर सिंथीसिस थीसिस बन जाती है। दैट इ.ज ए प्रोसेस आॅफ कंटीन्यूटी। वाॅट आई एम सेइंग, आई बिलीव इन द डिसकंटीन्यूस माइंड। मेरा कहना यह है कि कंटीन्यूटी रोज टूट जानी चाहिए।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, हाइपोथिसिस। अभी तो हाइपोथिसिस ही होगी। लेकिन मेरा कहना है यह, मेरा कहना है यह कि दुनिया में कंटीन्यूस कुछ भी नहीं है, कंटीन्यूटी इ.ज ए एपीएरेंस। और अब वह एपीएरेंस को अगर हम जोर से पकड़ लेते हैं, देन ए स्टैटिक माइंड मिसक्रिएटेटिव। ए माइंड रीच...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

आॅफकोर्स! एवरी मोमेंट यू हैव टू डाई, एवरी मोमेंट डेथ, दैन यू कैन अचीव एवरी मोमेंट्स लिविंग। वह तो ठीक ही है, क्योंकि मरते तो ही हम जी सकते हैं। तो जितनी टोटल से मरते हैं, जितने टोटल मर जाते हैं, जितनी टोटल, उतनी टोटल लाइफ पैदा होती है। आउट आॅफ द टोटल डेथ कम्स ए टोटल लाइफ। और हम चूंकि मरते ही नहीं कभी, इसलिए हम कभी जिंदा नहीं रहते।
तो वह जो विवेकानंद जो कहते हैं वह रजस और तमस का मामला नहीं है। वह रजस-तमस का मामला नहीं है। वह उनको लगता है कि मछली खाओ तो एक रजत आ जाएगा। यह रजत-तमस का मामला नहीं है। मामला है मांग का जो कि कंटीन्यूटी से जकड़ गया है और डिसकंटीन्यूस नहीं हो रहा है। वह रजत...सो मच एनर्जी इ.ज रिलीज्ड, देन ए डिसकंटीन्यूस मोमेंट। जिसका कोई हिसाब नहीं। वह सारी की सारी हमारी एनर्जी है वह कंटीन्यूटी के जाल में जकड़ जाती है, बंद हो जाती है। इतनी कंटीन्यूटी है हमारे माइंड की, भारतीय माइंड की कि इसमें हम पतंजलि और वेद और बुद्ध और नागार्जुन और रामानुज और गांधी ये सब इस तरह बैठे हुए हैं कि हमें होेने का कोई मौका ही नहीं देते कि मैं भी हो जाऊं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां-हां, वह जैसे ही बनी वैसे ही खतरनाक हो गई,...हो गई, वैसे ही मैं दुश्मन हो गया, वैसे ही मैं दुश्मन हो गया। रिवोल्यूशनरी सी.ज, रिवोल्यूशन शुड नाॅट।..ड़ेड बनने लगा कि मुझे फेंकना चाहिए उठा कर उसी वक्त। और जो मुझे मानते हैं और प्रेम करते हैं उनको सबसे पहले मुझे फेंक देना चाहिए, उसी वक्त।
एक मुझे झेन फकीर की एक घटना याद आती है। एक झेन फकीर मर रहा है। अस्सी साल का हो गया है। उसके शिष्यों ने हजारों दफा उससे प्रार्थना की कि तुम कुछ लिख दो, और वह हंसता है और वह कहता है कि बहुत लिखा जा चुका, उसको जलाने को मैं कहता हूं, मैं कैसे लिख दूं? पर वे कहते हैं कि तुम इतना जान लिए हो, तुम कुछ तो लिख ही डालो, हम क्या करेंगे।
मरते वक्त कोई एक लाख आदमी इकट्ठे हैं। वह लेटा है, वह अपने तकिए में से एक किताब निकालता है और अपने प्रधान, जो जिसको अपना प्रधान शिष्य समझता था उस झेन फकीर का, वह उससे कहता है कि ले, तुम नहीं मानते तो मैंने लिख दिया है, इसे सम्हाल कर रख ले, क्योंकि यह हजारों साल काम आएगी। इसमें मैंने वे सूत्र लिख दिए हैं जो लाखों वर्ष तक उपयोगी होंगे। वह शिष्य हाथ में लेता है, नमस्कार करता है उस किताब को और सामने आग जल रही है उसमें ऐसा फेंक देता है बिना खोले। वह गुरु उठ कर उसको छाती से लगा लेता है। एकदम चीख-पुकार मच जाती है कि यह क्या हुआ! सारे लोग रोने लगते हैं। तुमने किताब क्यों फेंक दी? आग थी किताब तो जल गई।
और गुरु कहता है कि अगर तूने किताब बचा ली होती तो मैं मर जाता बेकार और मैं समझता कि एक आदमी भी पैदा नहीं हुआ जो मुझे समझता था। और किताब में कुछ भी नहीं लिखा था। किताब कोरी थी। अगर तू खोल कर भी देखता तो मैं दुखी हो जाता। मरते वक्त मैं खुश जा रहा हंू कि एक आदमी है जो मुझे समझता है क्योंकि वह मुझे आग लगाने को तैयार है।
तो वे तो बिलकुल ठीक कहते हैं, वे तो बिलकुल ही ठीक कहते हैं कि वह तो जैसे ही एक पुराना हटा कि वह हमारा जो माइंड है आदी पकड़ने का वह क्लीन करता है, वह उसको क्लीन कर लेगा। तो लड़ाई जारी रहेगी। मैं उसको कहंूगा नहीं कि लड़ाई जारी रखें, जारी रखनी पड़ेगी। यानी मैं तो अपनी पूरी कोशिश करूंगा कि वे मुझे न पकड़ ले। लेकिन मेरी कोशिश के बावजूद, जैसा आप कहते हैं, वह पकड़ेगा। तो वह उसके जो मित्र हैं वे तैयार करना पड़ेगा कि वे मुझसे छुड़ाने की तैयारी रखें।
क्रांतिकारी मर जाने चाहिए, क्रांति जारी रहनी चाहिए। क्रांति कभी नहीं रुकनी चाहिए। और मैं तो यह क्वांटम को बड़े ही खयाल से देखता हूं, बहुत खयाल से देखता हूं।

प्रश्नः अरविंद आइडियाॅज अबाउट द सुपरावि.जडम।

बातचीत ज्यादा है। अरविंद के मामले में अरविंद जो हैं वे एक सिस्टममेकर। थिंकर नहीं, सिस्टममेकर। वह सिस्टममेकिंग भी सरल बात है, कि शब्दों को कैसे फैलाते जाओ मकान में, दीवाल पर फैलाते चले जाओ। तो अरविंद के साथ सत्य बहुत कम हैं। अरविंद के साथ वह ओल्ड सिस्टमटाइजर है, जैसे शंकर हुए, और रामानुज, और वल्लभ, वही आदमी हैं।
मेरी अपनी दृष्टि है कि ट्रूथ आलवेज कम्स इन फे्रग्मेंट्स, इट नेवर कम्स एनी सिस्टम। ये कमियां थीं। मेक ए सिस्टम आउट आॅफ ट्रूथ, बिकाज द मोमेंट सिस्टम इ.ज मेक ट्रूथ डाइज। सिस्टम इ.ज आलवेज डेड। बीकाज सिस्टम मींस ए स्ट्रेक्चर। ट्रूथ इ.ज आलवेज लिविंग, सो इट गोज बियांड एनी सिस्टम।
दुनिया में ये जो सिस्टम्स बने हैं कि जैनियों की सिस्टम, बौद्धों की सिस्टम, हिंदुओं की, जैसे ही सिस्टम बने कि ट्रूथ मर जाता है। ट्रूथ को कभी सिस्टम नहीं बनना चाहिए। तभी वह डिसकंटीन्यूटी जारी रह सकती है। और अरविंद सिस्टममेकर हैं। उनसे तो रमण बहुत अदभुत आदमी हैं। रमण में कुछ बात है। अरविंद में कुछ ऐसा मामला ज्यादा नहीं है। कुछ कीमत की बात नहीं है। अति साधारण हैं। लेकिन हो गए जीनिअस हैं। वही एक सिस्टममेकर जीनिअस। जैसे प्लेटो है, कई इस तरह के लोग हैं। लेकिन वह जेन्यून आॅथेंटिक बात नहीं है जो कि फ्रेग्रेंस में आती है। ट्रूथ...फ्रेग्मेंट, वह कभी नहीं आता ऐसा कि पूरा का पूरा मिल गया और तुमने सारी दुनिया का सब समझा दिया कि यह इस तरह होता है, यह इस तरह होता है, यह इस तरह होता है, यह इस तरह होता है।
 उसकी तो झलक मिलती है। और झलक ही मिल जाए तो बहुत है। और उस झलक से कुछ पता नहीं चलेगा। लेकिन होता क्या है, सिस्टममेकर न हो, तो एक तरकीब मिल जाए आपको, बस फिर उस तरकीब को फैलाते चले जाइए और सारे सिस्टम बना लीजिए।

प्रश्नः इफ आई एग्री फाॅर इनर क्वेश्चन, यू हैव टाॅक अबाउट फ्रेग्मेंट आॅफ ट्रूथ, यू एक्ट एनी मोमेंट,...रियलाइजेशन आॅफ दैट फ्रेग्मेंट आॅफ ट्रूथ।

जैसे ही, जैसे ही हम कहें कि हां, सिस्टम शुरू हो गई।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

बिलकुल वह डर है। वह डर है। वहसभी, सभी ट्रेडीशनल माइंड का डर हमेशा यही है कि जो पुराना है वह परिचित है, उसे नष्ट कर दें, नया होगा कि नहीं होगा उसका क्या भरोसा है। पुराना माइंड होता ही सिक्युरिटी लग रही है इसलिए वह पुराना है। और मेरा कहना है कि जो भी आदमी सिक्युरिटी को पसंद करता है, सुरक्षा को पसंद करता है, सुविधा को पसंद करता है, और वह मानता है कि जो परिचित है उसी में रुक जाना, वह आदमी मर गया, वह आदमी जिंदा नहीं है। जिंदगी इनसिक्युरिटी है। मैं नहीं कहता कि नया जो होगा वह पुराने से बेहतर ही होगा। पर मैं इतना कहता हूं कि पुराने को तोड़ने की हिम्मत इतनी बेहतर है, पुराने को मिटाना इतना बेहतर है, और जो पुराने को तोड़ सकता है, पुराने को तोड़ने की हिम्मत जुटा सकता है, उससे जरूर कुछ पैदा होगा। और यह भी फिकर की बात नहीं है कि वह पुराने से बेहतर ही होना चाहिए। मेरा कहना है कि उसका नया होना ही बहुत बहुमूल्य है। वह उसका नावीन्य है। वह थिरक, वह पुलकनये की, वह अज्ञात और अपरिचित मार्गों पर जाना।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

 बिलकुल ही। बिलकुल ही।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मैं समझ गया। अगर आप हर बार जिम करना पड़ता है आपको, सोचना पड़ता है, तो डबिंग हो जाए। अगर आप इसको प्लान करते हैं, सोचते हैं, विचार करते हैं और विल करते हैं, और फिर उसको बनाते हैं तो यह जरूर होगा। लेकिन इफ इट बिकमस योर वेरी लिविंग दैन इट इ.ज नाॅट वेल। दैन इट इ.ज, इट इ.ज दि ओनली थिंग दैज इ.ज नाॅट वेल। क्योंकि वह जो ओल्ड है वह बोरिंग हो जाता है। एक कुर्सी इस कमरे में रखी है, वह कल भी रखी थी, आज भी रखी है, परसों भी रखी है, तो यह जो चलेगा, यह ओल्ड बोरिंग हो जाएगा। वह जो माइंड जो कांस्टेंटली न्यू को क्रिएट करता है, विल नहीं करता, क्रिएट्स, द स्पांटेनिटी।

प्रश्नः मेरा खयाल है कि रोड को जरा-जरा सा चेंज करते रहो।

यह जो हम कहते हैं न कि जरा-जरा चेंज करते रहो, उसी से बोर्डम पैदा होगी। उससे बोर्डम पैदा होगी। क्योंकि बोर्डम का मतलब ही यह है कि हम परिचित के भीतर खड़े हैं जिसमें कुछ भी अपरिचित नहीं है। वह जो परिचित है वह बोर करता है, वह जो अपरिचित है वही रस लाता है। तो वह जो थोड़ा सा आप बदलाहट करते हैं, तो थोड़ी बोर्डम कम होगी, क्योंकि थोड़ी सी बदल गई चीज। लेकिन अगर पूरी बदल जाए तो जिंदगी एक पुलक, एक एडवेंचर, एक थिरक और एक नाच हो जाएगी। और वह जो जिंदगी का नाच है जो रोज बदलता जाता है...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

आइडियल सिचुएशन। अगर वह हो जाए, यानी कई बार ऐसा मन होता है कि अगर आदमी पुराने को छोड़ने राजी नहीं है, तीसरा महायुद्ध हो जाना चाहिए। और हो जाएगा अगर हमने पुराने को बदलने की हिम्मत नहीं जुटाई तो। क्योंकि फिर बदलने का एक ही रास्ता रह जाता है। बोर्डम इतनी हो जाएगी। मेरा अपना मानना है कि आउट आॅफ बोर्डम वाॅर इ.ज क्रिएटेड।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

अगर बोर्डम रहती है तो वाॅर जरूरी है। क्योंकि वाॅर ही थोड़ा सा रस देती है। जैसे पाकिस्तान-हिंदुस्तान बन गया, बड़ा रस आया। सुबह से ही उठ कर लोग पांच बजे से रेडियो खोल रहे हैं, अखबार देख रहे हैं। उनकी चेहरों पर पुलक और रंग और आंखें देखने लायक थीं कि कुछ हुआ।

प्रश्नः रेज आॅफ सुसाइड फाॅल डाउन वाॅर टाइम।

गिर जाते हैं, बिलकुल गिर जाते हैं। सुसाइड गिर जाता है, मर्डर गिर जाते हैं, चोरी कम हो जाती है, डाके कम हो जाते हैं। क्योंकि इतना रस आता है वाॅर में कि यह काम कौन करे। ये भी रस लाने के लिए ही किए जाते हैं। ये भी आउट आॅफ बोर्डम पैदा होते हैं। तो मैं तो मानता हूं कि बोर्डम ओल्ड के साथ ओल्ड जब तक हजार रहेगी।

प्रश्नः अगर ऐसा है तो हिटलर के बारे में क्या खयाल है आपका?

अडोल्फ हिटलर बिलकुल ही मरा हुआ आदमी है। कुछ भी जिंदगी नहीं है। पूरे वक्त मरा हुआ आदमी था, और इसीलिए अपील कर गया वह पश्चिम में। इस वक्त पश्चिम में मरे हुए आदमियों की अपील है। वह लड़ कर थक गया पश्चिम है। इसलिए...जारी रह जाती है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

चेंज। चिंतन बंद होती है, एक-एक आदमी चिंतन बंद करवा देता है। वह आपको मौका देता है कि आप थिंक मत करो मैं थिंक करता हूं, हम सब बताते हैं, वे सब सोचना शुरू करते हैं। लोग राजी हो जाता है कि ठीक, चिंतन से मैं घबड़ा गया। कोई भी कर्म, कि हम तुम्हारे लिए कर देते हैं काम, हम तुम्हारा पैर पकड़ लेंगे। पश्चिम थक गया है थिंकिंग से, इसलिए फाॅसिज्म और स्टैलिन और हिटलर, और यह इस तरह की सिस्टमस, कम्युनिज्म की डेड सिस्टम, वे सब पैदा हो रही हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

वह डिस्ट्राय हो जाए इसीलिए तो वे एक आर्यन ओल्ड टेंसिव ट्रेडीशन के मुकाबले इसको डिस्ट्राय करना चाहता था। यानी ओल्ड को बचाना चाहता था। और लोगों को डिस्ट्राय करना चाह रहा था। लेकिन और जिसको वह ओल्ड मानता था वह उसके करीब नहीं था यह। वह यहूदी को मिटाना चाहता था ताकि वे आर्य बच जाए। लेकिन ओल्ड के लिए नये को डिस्ट्राय करने जा रहा था। मैं ओल्ड को डिस्ट्राय करना चाहता हूं नये के लिए। तो बुनियादी फर्क है। उलटा फर्क है। हिटलर तो बहुत ही प्रिमिटिव माइंड था। उसको हम कंटेम्प्रेरी नहीं कह सकते आदमी को।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

कंटेम्प्रेरी होना बहुत मुश्किल है। यानी मैं लिविंग आदमी के लिए कह रहा हंू, वही कंटेम्प्रेरी हो सकता है। हम सभी पिछड़ जाते हैं। सभी पिछड़ जाते हैं।

प्रश्नः हिप्पी एण्ड द अदर फेलो, हू आर जस्ट ट्राइंग टु वेल टु ट्रेडीशन।

वर्थ वेलकमिंग। वर्थ वेलकमिंग। बड़े अच्छे लोग हैं। हिंदुस्तान का सौभाग्य होगा जिस दिन हम भी हिप्पी और को...एक दिन पैदा कर सकें। वह चेतना का लक्षण है कि कुछ लोग बगावती हैं, हिम्मती हैं, पुरानी धाराओं को तोड़ते हैं, कहते हैं कि नहीं साथ रहेंगे लड़की के लेकिन विवाह क्यों करें, प्रेम काफी है। बड़ी बढ़िया बात है। जिस दिन सारी दुनिया में यह होगा तो बहुत अच्छी बात होगी। हिम्मतवर लोग हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

एक दिन जिस दिन बुद्ध जैसा आदमी राजमहल को छोड़ कर निकला था, तो मेरे हिसाब में बिलकुल हिप्पी जैसा है। अब वह शब्द जरा मुश्किल मालूम पड़ेगा। लेकिन बुद्ध जैसा आदमी राजमहल छोड़ कर गया, हिप्पी है। महावीर हिप्पियों से भी बड़ा हिप्पी है, नंगा खड़ा हो गया राजमहल छोड़ कर। तो उस वक्त लोगों ने कहा होगा, पागल हो। फिर ट्रेडीशन बन गई। अब महावीर का मुनि जो है वह तो मरा हुआ आदमी है, वह भी नंगा खड़ा होता है। वह ट्रेडीशन की वजह से खड़ा हो रहा है। बस यहीं सब मुश्किल हो जाता है। सब चीज ट्रेडीशन बन जाती है। और नहीं बननी चाहिए, उसकी फिकर करनी चाहिए। उसके लिए कुछ...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

बस पोएट्री जीता हूं लिखता थोड़े ही। जो नहीं जीते वे लिख कर मन समझाते हैं। क्या बात है लिखने की पोएट्री। जिंदगी पोएट्री होनी चाहिए। सुबह-शाम सब पोएट्री हो।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

बिलकुल, बिलकुल ही, बिलकुल ही, यह होता है, यह होता है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

नो, दि वेरी लाइफ इ.ज पोएट्री। इफ यू नो हाउ टू लिव द होल लाइफ ए.ज सच बिकम्स पोएट्री। दि वेरी बीइंग बीकम्स पोएट्री। दि वेरी एक्झिटेंस बीकम्स पोएटिक। और जिनको आप पोएट कहते हैं, और जिसको आप पोएट्री कहते हैं, वह भी पूरी पोएट्री-वोएट्री नहीं होती। दस-पच्चीस लाइनों में एकाध लाइन भी पोएट्री हो तो बहुत है। और वह लाइन हमेशा वहां से आती है जहां लिविंग पोएट्री से जुड़ जाती है। वह लाइन हमेशा वहां से आती है। और बाकी तो सब जोड़-तोड़ है, कंस्ट्रक्शन है, क्रिएशन नहीं है। पूरी रामायण उठा कर देखो आप दो-चार पंक्तियां पोएट्री मिल जाएं तो बहुत मुश्किल है, बाकी तो सब बकवास है, जोड़-तोड़ से ज्यादा कुछ भी नहीं है। वह कोई भी आदमी जो थोड़ा सा बुद्धू हो सकता है बिठा सकता है, बना लेगा पोएट्री।
लेकिन जिसको मैं कह रहा हूंः आउट आॅफ लिविंग पोएट्री, दि पोएट्री इ.ज बार्न। वह कभी एक किसी क्षण में कोई एक पंक्ति उतर आती है जब आप जी रहे होते हैं पूरे, कभी पोएट्री बन जाती है। लेकिन वह भी बनाने का आग्रह, वह जो पोएट्री लिखने का आग्रह है, वह भी इसीलिए है कि मैंने एक सुबह सूरज देखा, तो सुबह के इस क्षण में कुछ मुझमें झलक गया। इसके बाद वह झलक बंद हो गई। अब मैं इस मेमोरी को बांध रखना चाहता हूं शब्दों में, कागज पर, चित्रों में। और अगर दूसरा मोमेंट भी उतना ही पोएटिक हो, तो कौन फुर्सत में है कि उसको बांधे। क्योंकि पोएट्री कभी-कभी झलकती है इसलिए पीछे नुमा में हम उसको बांधते हैं। कोई उसको चित्र में बनाता, कोई मूर्ति में बनाता। ये सब डेड पोएट्स हैं। जो किसी क्षण में पोएट थे फिर नहीं रह गए, अब वह मेमोरी रह गई, अब मेमोरी को उतार कर समयोजित करना चाहते हैं। और अगर हर क्षण पोएट्री हो तो कहां फुरसत।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

रिफ्लेक्शन वह मेमोरी है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

वे कम्युनिकेट भी इसीलिए करना चाहते हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

इनकम बनाता ही नहीं। इनकम कुछ है ही नहीं। आज जयंती भाई के घर ठहरा हूं, वे खाना दे देते हैं, कल बकुल जी के घर ठहरूंगा, वे खाना दे देंगे। किसी मित्र को कपड़े फटे दिख जाते हैं, वह कपड़े ला देता है, कपड़े सिल जाते हैं। और कोई किसी दिन कुछ नहीं मिला तो किसी पेड़ में बैठ कर सो गए खतम हुआ। इनकम-विनकम कुछ नहीं, इनकम कुछ भी नहीं। पैसे के नाम पर एक पैसा पास नहीं है। मैं मानता हूं कि...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

वह आप स्टाॅप कर ही नहीं सकते। स्टाॅप करना एकदम आसान नहीं है बकुल जी। माइंड की जो हल-चलन है, वह जो टेंशन है वह कुछ न कुछ बनाते रहने में उलझा रहता है। वह माइंड के लिए जरूरी है। माइंड कभी स्टाॅप कर सकता है सब बनाना जब कि माइंड प्रीमिटियरी इनटिरियर हो तब बनाना...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

न, न, न। कैसे पासिबल होगा? कैसे होगा, कुछ तो करना पड़ेगा। और मैं भी कुछ पैदा कर रहा हूं। मैं भी कुछ पैदा कर रहा हंू। मैं ही कुर्सी लगा रहा हंू यह ठीक है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

बेकग्राउंड मस्ट कम थ्रू अंडरस्टैंडिंग, नाॅट थ्रू कल्टीवेशन। देन डिसिप्लिन इ.ज नाॅट डिक्टेटिव। ए डिसिप्लिन इ.ज इम्पोज...विदाउट देन ए बिकम्स ए कंटीन्युटी। डिसिप्लिन इ.ज बीइंग बार्न मोमेंट टू मोमेंट फ्राम योर इनर अंडरस्टेंडिंग, दैन इट इ.ज नाॅट कंटीन्युटी, इट इ.ज इटसेल्फ इ.ज ए डिसकंटीन्युअस प्रोसेस। डिसिप्लिन कमिंग...ए.ज ए अंडरस्टैंडिंग। आपरेशन मस्ट बी ए पार्ट आॅफ अंडरस्टैंडिंग।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

आदमी आमतौर से इमेजिनेशन में जीता है। लेकिन मेरी अपनी समझ यह है कि इमेजिनेशन में...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मैनकाइंड हैज नाॅट शोन एनी क्रिएटिव इमेजिनेशन, हैज नाॅट शोन एनी सेंटी ईवन। बट फ्यू ह्यूमन बीइंग्स हैव शोन। एण्ड बीका.ज आॅफ दोज फ्यू ह्यूमन बीइंग्स दि होल वल्र्ड हैैज नोन बीकम ए मैडहाउस। इट इ.ज ए मैडहाउस। बट स्टील इट हैपन बीकम ए मैडहाउस, बीका.ज आॅफ दोज फ्यू ह्यूमन बीइंग्स।

प्रश्नः ...फ्यू बीइंग आर अराइज।

अगर...होने से व्यक्तियों की तरह हो जाएं, तो यह भी मैडहाउस नहीं रह जाएगा। और अधिक लोग हो सकते हैं। क्योंकि उन थोड़े से व्यक्तियों को होने में एक नया आनंद भी छिपा है। इतना आनंद उनमें छिपा है कि कोई कारण नहीं कि कोई आदमी के इतने आनंदित न होने...

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