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रविवार, 26 अगस्त 2018

घाट भुलाना बाट बिनु-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन--(ज्ञान-गंगा)

प्रेम से बड़ी इस जगत में दूसरी कोई अनुभूति नहीं है। प्रेम की परिपूर्णता में ही व्यक्ति विश्वसत्ता से संबंधित होता है। प्रेम की अग्नि में ही स्व और पर के भेद भस्म हो जाते हैं और उसकी अनुभूति उपलब्ध होती है, जो कि स्व और पर के अतीत है। धर्म की भाषा में इस सत्य की अनुभूति का नाम ही परमात्मा है। विचारपूर्वक देखने पर विश्व की समस्त सत्ता एक ही प्रतीत होती है। उसमें कोई खंड दिखाई नहीं पड़ते हैं। भेद और भिन्नता के होते हुए भी सत्ता अखंड है। जितनी वस्तुएं हमें दिखाई पड़ती हैं और जितने व्यक्ति वे कोई भी स्वतंत्र नहीं हैं। सबकी सत्ता परस्पर आश्रित है। एक के अभाव में दूसरे का ही अभाव हो जाता है। स्वतंत्र सत्ता तो मात्र समग्र विश्व की है। यह सत्य विस्मरण हो जाए तो मनुष्य में अहम का उदय होता है। वह स्वयं को शेष सबसे पृथक और स्वतंत्र होने की भूल कर बैठता है, जब कि उसका होना किसी भी दृष्टि और विचार से स्वतंत्र नहीं है। मनुष्य की देह प्रति क्षण पंच भूतों से निर्मित होती रहती है, उनमें से किसी का सहयोग एक पल को भी छूट जाए तो जीवन का अंत हो जाता है। यह प्रत्येक को दृश्य है। जो अदृश्य है वह इसी भांति सत्य है। चेतना के अदृश्य द्वारों से परमात्मा का सहयोग एक क्षण को भी विलीन हो जाए तो भी मनुष्य विसर्जित हो जाता है।

मनुष्य की यह स्वतंत्र-सी भासती सत्ता विश्व की समग्र सत्ता से अखंड और एक है। इसीलिए अहंकार मूल पाप है। यह समझना कि ‘मैं हूं’, इससे बड़ी और कोई नासमझी नहीं है। इस ‘मैं’ को जो जितना प्रगाढ़ कर लेता है, वह उतना ही परमात्मा से दूर हो जाता है। यह दूरी भी वास्तविक नहीं होती, इसलिए इसे किसी क्षण नष्ट भी किया जा सकता है। यह दूरी वैसी ही काल्पनिक और मानसिक होती है, जैसे कि स्वप्न में हम जहां वस्तुतः होते हैं, वहां से बहुत दूर निकल जाते हैं। और फिर स्वप्न से टूटते ही दूरी ऐसे विलीन हो जाती है जैसे रही ही न हो। वस्तुतः परमात्मा से दूर होना असंभव है, क्योंकि वह हमारी आधारभूत सत्ता है लेकिन विचार में हम उससे दूसरे हो सकते हैं। विचार स्वप्न का ही एक प्रकार है। जो जितने ज्यादा विचारों में है वह उतने ज्यादा स्वप्न में है। और जो जितने अधिक स्वप्न में होता है, वह उतना ही अहम-केंद्रित हो जाता है। प्रगाढ़ स्वप्नशून्य निद्रा में चूंकि कोई विचार नहीं रह जाते इसलिए अहम बोध भी नहीं रह जाता। सत्ता तो तब भी होती है किंतु विश्वसत्ता से एक होती है। ‘मैं’ का भाव उसे तोड़ता और खंडित नहीं करता। लेकिन यह मिलने प्राकृतिक है और इससे विश्राम तो मिलता है, परंतु परम विश्राम नहीं। परमात्मा के सान्निध्य में पहुंच जाना ही विश्राम है। और ‘मैं’ के सान्निध्य में आ जाना ही विकलता एवं तनाव है।
‘मैं’ यदि पूर्ण शून्य हो जाए तो परम विश्राम उपलब्ध हो जाता है। परम विश्राम का ही नाम मोक्ष है। सुषुप्ति में एक प्रकृति आवश्यकता के निमित्त अहंकार-भाव से अल्पकाल के लिए मुक्ति मिलती है। जीवन के लिए यह अपरिहार्य आवश्यकता है, क्योंकि किसी भी दशा की अशांत, उत्तेजनापूर्ण स्थिति को बहुत देर तक नहीं रखा जा सकता। यही इस बात का प्रमाण है कि जो दशा सदा न रहे सके वह स्वाभाविक नहीं है। वह आती है और जाती है। जो स्वभाव है वह सदा बना रहा है। वह आता और जाता नहीं। अधिक से अधिक वह आवृत्त हो सकता है। अर्थात जब हम अहं भाव से भरे होते हैं तब हमारे ब्रह्म भाव नष्ट नहीं हो जाता है, अपितु मात्र ढक जाता है। जैसे ही ‘मैं’ का तनाव और अशांति सीमा को लांघ जाता है वैसे ही उस ब्रह्म भाव में पुनः अनिवार्य रूपेण हमें विश्रांति लेनी होती है। यह विश्रांति बलात और अनिवार्य है। इसे हम स्वेच्छा से नहीं लेते हैं। यदि हम स्वेच्छा से ‘मैं’ भाव से विश्रांति ले सकें तो अभूतपूर्व क्रांति घटित हो जाती है। ‘मैं’ भाव से स्वेच्छा से विश्रांति लेने का सूत्र प्रेम है। क्योंकि प्रेम की दशा अकेली दशा है जब हमारी सत्ता तो होती है, किंतु उस सत्ता पर ‘मैं’ भाव आरोपित नहीं होता। सुषुप्ति बलात् विश्राम है, प्रेम स्वेच्छित।
इसीलिए प्रेम समाधि बन जाता है।
प्रेम क्या है? प्रेम उस भाव-दशा का नाम है, जब
विश्व-सत्ता से पृथकत्व का भाव तिरोहित हो जाता है।
समग्र की सत्ता में स्वयं की सत्ता का मिलन ही प्रेम है। यह
सत्य भी है, क्योंकि वस्तुतः सत्ता एक है और जो भी है
उसमें है। यह प्रेम प्रत्येक में सहज ही स्फूर्त होता है, लेकिन
अज्ञान के कारण हम उसे राग में परिणत कर लेते हैं। प्रेम
की स्फुर्णा को अहंकार पकड़ लेता है और वह स्वयं और
समग्र की सत्ता के बीच सम्मिलन न होकर दो व्यक्तियों के
बीच सीमित संबंध हो जाता है। असीम होकर जो प्रेम है
सीमित होकर वही राग है। राग बंधन बन जाता है, जबकि
प्रेम मुक्ति है। असल में जहां सीमा है वहीं बंधन है। राग
का बुरा होना उसमें निहित प्रेम के कारण नहीं वरन उस पर
आरोपित सीता के कारण है। राग असीम हो जाए तो वह
प्रेम बन जाता है, विराग हो जाता है। ध्यान रखने की बात
यही है कि प्रेम तो है परंतु उसमें कोई सीमा न हो। जहां
सीमा आने लगे वहीं सचेत हो जाना आवश्यक है। वही
सीमा संसार है। इस भांति क्रमशः सीमाओं को तोड़ते हुए
प्रेम की ऊर्जा का विस्तार ही साधना है। जिस घड़ी उस
जगह पहुंचना हो जाता है जहां सीमा नहीं है, तो जानना
चाहिए कि परमात्मा पर पहुंचना हो गया। इसके विपरीत
यदि प्रेम सीमित होना चला जाए और अंततः अहम अणु पर
ही केंद्रित हो जाए तो जानना चाहिए कि परमात्मा से जितनी
ज्यादा पृथकता हो सकती है वह हो चुकी है। यह अवस्था
राग की चरम अवस्था है, जो कि अत्यंत दुख, परतंत्रता
और संताप को उत्पन्न करती है, इसके विपरीत प्रेम के
असीम होने की चित्त दशा है जो जीवन को अनंत आलोक
और आनंद से परिपूरित कर देती है।
महर्षि रमण ने किसी ने पूछा कि सत्य को जानने के
लिए मैं क्या सीखूं? श्री रमण ने कहा जो जानते हो उसे
भूल जाओ। यह उत्तर बहुत अर्थपूर्ण है। मनुष्य का मन
बाहर से संस्कार और शिक्षाएं लेकर एक कारागृह बन जाता
है। बाह्य प्रभाव की धूल में दबकर उसकी स्वयं की दर्पण
जैसी निर्मलता ढक जाती है। जैसे किसी झील पर कोई
आवृत्त हो जाए और सूर्य या चंद्रमा का प्रतिबिंब उसमें न
बन सके ऐसे ही मन भी बाहर से सीखे गए ज्ञान से इतना
आवृत्त हो जाता है कि सत्य का प्रतिफलित उसमें नहीं हो
पाता। ऐसे मन के द्वार और झरोखे बंद हो जाते हैं। वह
अपनी ही क्षुद्रता में सीमित हो जाता है, और विराट के
संपर्क से वंचित। इस भांति बंद मन ही बंधन है। सत्य के
सागर में जिन्हें संचरण करना है, उन्हें मन को सीखे हुए
किसी भी खूंटे से बांधने का कोई उपाय नहीं है। तट से बंधे
होना और साथ ही सागर में प्रवेश कैसे संभव है? एक
पुरानी कथा है¬एक संन्यासी सूर्य निकलने के पूर्व ही नदी
में स्नान करने उतरा, अभी अंधियारा था और भोर के
अंतिम तारे डूबते थे। एक व्यक्ति नाव पर बैठकर पतवार
चलाता था, किंतु नाव आगे नहीं बढ़ती थी। अंधेरे के
कारण उसे वह सांकल नहीं दिखती थी जिससे नाव बंधी
हुई थी। उसने चिल्ला कर संन्यासी से पूछा कि स्वामी जी,
इस नाव को क्या हो गया है। उस संन्यासी ने कहा, मित्र
पहले खूंटे से बंधी उसकी सांकल को तो खोलो। मनुष्य जो
भी बाहर से सीख लेता है वह सीखा हुआ ज्ञान ही खूंटों की
भांति उसके चित्त की नाव को अपने से बांध लेता है और
आत्मा के सागर में उसका प्रवेश संभव नहीं हो पाता और
यह बंधन उसे सरलता से दिखाई भी नहीं पड़ता। जिसे
परमात्मा के ज्ञान को पाना हो उसे बाहर से सीखे गए अपने
ज्ञान को छोड़ देना होगा। इस अवस्था को दिव्य अज्ञान (
डिवाइन इगनोरेंस) कह सकते हैं। इसे साध लेने से बड़ी
और कोई साधना नहीं है। कुछ भी जानने का भाव अहंकार
को पुष्ट करता है। इसीलिए उपनिषद के ऋषियों ने कहा है
कि जो कहे कि मैं जानता हूं तो जानना कि, वह नहीं
जानता। जो जानते हैं उनका तो ‘मैं’ खो जाता है। बाहर से
आया हुआ ज्ञान ‘मैं’ को भरता है; भीतर से जगा हुआ ज्ञान
उसे बहा ले जाता है। ज्ञान को पाने की विधि है कि सब
ज्ञान को छोड़ दो। ‘मैं’ को शून्य होने दो और चित्त को
मौन। उस मौन और शून्यता में ही उसके दर्शन होते हैं जो
कि सत्य है।
ज्ञान नहीं विचार सीखे जा सकते हैं। विचारों के संग्रह
से ही ज्ञान का भ्रम पैदा हो जाता है। विचार कम जो सकते
हैं; विचार ज्यादा भी हो सकते हैं। ज्ञान न तो कम होता है
और न ज्यादा होता है। या तो ज्ञान होता है या अज्ञानी ही
विचार करता है। ज्ञानी विचरता नहीं, देखता है। जिसके
आंख हैं उसे दिखाई पड़ता है। वह सोचता नहीं कि द्वार
कहां है, वह तो द्वार को देखता है। जिसके पास आंख नहीं,
वह सोचता है और टटोलता है, विचार टटोलना मात्र है।
वह आंख का नहीं अंधे होने का प्रमाण है। बुद्ध, महावीर
या ईसा विचारक नहीं है। हमने सदा ही उन्हें दृष्टा कहा है।
वे जो भी जानते हैं वह उनके चिंतन का परिणाम नहीं,
उनके दर्शन की प्रतीति है। वे जो भी करते हैं वह भी विचार
का फल नहीं, उनकी अंतर्दृष्टि की सहज निष्पत्ति है। इस
सत्य को समझना बहुत आवश्यक है। विचारों को संग्रह
कहीं भी नहीं ले जाता। सभी प्रकार के संग्रह दरिद्रता को
मिटाते नहीं, दबाते हैं। इसीलिए जो सर्वाधिक दरिद्र होते हैं
संग्रह की इच्छा भी उनकी सर्वाधिक होती है। डायोजनीज ने
सिकंदर को कहा था, ‘मैं इतना समृद्ध हूं कि मैं कुछ भी
संग्रह नहीं करता। और तेरी दरिद्रता का अंत नहीं, क्योंकि
इस पूरी पृथ्वी के साम्राज्य को पा लेने पर भी तुम संग्रह
करोगे, इसीलिए जब सम्राटों को संग्रह में छिपी दरिद्रता
के दर्शन हुए हैं तो उन्होंने दरिद्रता में छिपे साम्राज्य को
स्वीकार कर लिया है।’ क्या मनुष्य का इतिहास ऐसे
भिखारियों से परिचित नहीं जिनसे सम्राट बड़े कभी नहीं
होते। जो धन-संग्रह के संबंध में सत्य है वही सभी प्रकार के
संग्रहों के लिए भी सत्य है। विचार-संग्रह भी उसका
अपवाद नहीं। वाह्य संपत्ति के संग्रह से जो धनी है वह यदि
दरिद्र है तो शास्त्रों के शब्दों से जो ज्ञानी है वह भी अज्ञानी
ही है। शास्त्र से नहीं जब स्वयं से, और शब्द से नहीं जब
अंतस् से आलोक मिलता है तभी ज्ञान का अविर्भाव होता
है।
ज्ञान का जन्म ध्यान से होता है और ध्यान का अर्थ है
विचार छोड़कर चेतना में प्रतिष्ठित हो जाना। विचारों के
प्रवाह का नाम मन है। जो इन विचारों के प्रवाह को देखता
है उसका नाम चेतना है। विचार विषय है चेतना विषयी।
विचार दृश्य है चेतना दृष्टा। विचार जाने जाते हैं, चेतना
जानती है। विचार बाहर से आते हैं, चेतना भीतर है। विचार
पर है, चेतना स्व है। विचारों को छोड़ना है और चेतना में
ठहरना है। सब धर्मों की साधना का सार यही है।
विचार-प्रवाह के सम्यक-निरीक्षण से तथा तटस्थ
साक्षीभाव से मात्र उन्हें देखने से वे क्रमशः क्षीण हो जाते हैं।
जैसे कोई बिल्ली चूहे को पकड़ती हो तो पकड़ने के पूर्व
उसकी तैयारी पर ध्यान दें, कितनी सजग और कितनी शांत,
कितनी शिथिल और कितनी तैयार! ऐसे ही स्वयं के भीतर
विचार को पकड़ने के लिए होना पड़ता है। जैसे ही कोई
विचार उठे, बिल्ली की भांति झपटें और उसे पकड़ लें, उसे
उलटें-पलटें और उसका निरीक्षण करें। किंतु उसे सोचें
नहीं, मात्र देखें। और तब पाया जाता है कि वह
देखते-देखते ही वाष्पीभूत हो गया है। हाथ खाली और
विचार विलीन हो जाता है। फिर शांत और सजग रहें।
दूसरा विचार आएगा, उसके साथ भी यही करना है। तीसरा
आएगा, उसके साथ भी यही। यह ध्यान का अयास है।
जैसे-जैसे अयास गहरा होता है, वैसे-वैसे बिल्ली से डरते
हैं, विचार वैसे ही ध्यान से डरते हैं। बिल्ली जैसे चूहों की
मृत्यु है, ध्यान वैसे ही विचारों की मृत्यु है।
विचार की मृत्यु पर सत्य का दर्शन होता है। तब मात्र
वही शेष रह जाता है जो ‘है’। वह सत्य है। वही परमात्मा
है। उसे जानने में ही मुक्ति हैं और दुख एवं अंधकार का
अतिक्रमण है।
मनुष्य के व्यक्तित्व में सबसे बड़ा अंतद्र्वंद्व उस मान्यता
से पैदा होता है कि उसका शरीर और उसकी आत्मा विरोधी
सत्य हैं। यह स्वीकृति आधारभूत रूप से मनुष्य को
विभाजित कर देती है। फिर स्वभावतः इन दोनों विभाजित
खेमों में संघर्ष और कलह का प्रारंभ हो जाता है। यह फिर
न केवल मनुष्य के व्यक्तित्व में वरन समाज के व्यक्तित्व
में प्रतिफलित होता है। इसी के आधार पर अब तक की
सारी संस्कृतियां खंड संस्कृतियां हैं। अखंड और समग्र
जीवन को समाविष्ट करनेवाली संस्कृति का अभी जन्म
नहीं हुआ है। जब तक शरीर और आत्मा, पदार्थ और
परमात्मा, संसार और मोक्ष के बीच विरोध की जगह
सामंजस्य और समस्वरता स्थापित नहीं होती तब तक यह
हो भी नहीं सकता। या तो ऐसी विचार-दृष्टियां रही हैं जो
आत्मा के निषेध पर शरीर-मात्र को ही स्वीकार करती हैं या
फिर ऐसी परंपराएं जो शरीर के निषेध पर मात्र आत्मा की
सत्ता मानती हैं। एक विचार वर्ग परमात्मा को असत्य
मानता है और दूसरा संसार को माया और भ्रम। ये दोनों ही
पूर्ण मनुष्य को स्वीकार करने से भय खाते हैं। वे उसी अंश
को स्वीकार करते हैं जिसे पूर्व से स्वीकार करने की उन्होंने
धारणा बना रखी है। जैसे कोई वस्त्र पहले बना ले और
फिर मनुष्य को काट-छांट कर वस्त्र पहनाने की चेष्टा करे
ऐसी ही उनकी चेष्टा है। धारणाएं पहले तय कर ली जाती है
और फिर बाद में उन्हें मनुष्य को पहना दिया जाता है जबकि
विवेकपूर्ण यही होगा कि हम पहले मनुष्य को उसकी
समग्रता में विचार करें और फिर कोई जीवन-दर्शन बनाएं।
विचार-संख्या या विचार-धाराएं महत्वपूर्ण
नहीं¬महत्वपूर्ण मनुष्य की यर्थाथता है। धार्मिक और
भौतिकवादी दोनों ही पूर्व पक्षों को छोड़कर यदि मनुष्य को
देखा जाए तो न तो वह मात्र शरीर ही है और न मात्र आत्मा
ही। वह तो अद्वय इकाई है। शरीर और आत्मा हमारे विचार
के विभाजन हैं। वह तो अद्वय इकाई है। शरीर और आत्मा
हमारे विचार के विभाजन हैं। मनुष्य तो अखंड है। वस्तुतः
शरीर और आत्मा का जहां मिलन है वहीं मनुष्य की उत्पत्ति
है। वे आत्माएं जो किसी अशरीरी मोक्ष में हों उन्हें हम
मनुष्य नहीं कह सकते और न ही उन देहों को जो
आत्मरहित हैं। मनुष्य आत्मा और शरीर का संगम है।
इसलिए उसके संबंध में किसी भी पक्ष को दूसरे के निषेध
पर स्वीकार कर लेना घातक ही सिद्ध होता है और ऐसी
स्वीकृति से बनी हुई संस्कृति अधूरी, पंगु एवं एकांगी है।
या तो सामान्य दैहिक वासनाओं का जीवन ही उसके
लिए इति श्री हो जाती है या काम ही फिर उसके लिए केंद्र हो
जाता है। फिर उकसे लिए और किसी चीज की सत्ता नहीं
होती। स्वभावतः ऐसी दृष्टि शांति सत्य और उदात्त जीवन
की ओर ऊध्र्वगमन की सब संभावनाएं दभन लेती है।
मनुष्य एक डबरे में बंद हो जाता है और सागर तक पहुंचने
की गति, आकर्षण और अभीप्सा सभी खो जाते हैं। दूसरी
आरे जो पदार्थ को अस्वीकार कर देते हैं वे भी शक्तिहीन हो
जाते हैं और भूमि से उनकी जड़ें टूट जाती हैं। उनका होना
न होने की भांति हो जाता है। इस तरह के दोनों विकल्प
अनुभव किए गए हैं और उनकी दोषपूर्ण स्थिति भी प्रत्यक्ष
हो गई है। जिन संस्कृतियों ने जड़ को सब कुछ माना उनके
पास संपदा आई, शक्ति आई लेकिन साथ ही अशांति और
विनाश भी। तथा जिसने जड़ को कुछ भी न माना वे
सदा शून्य, शक्तिरिक्त, दास और दरिद्र होते देखे गए।
समय आ गया है कि इस भूल के प्रति हम सचेत हों और
जड़तावादी या ब्रह्मवादी की अतियों से बचें। अति सदा
वर्जित है और अनिवार्य रूपेण अति का अनुगमन असत्य
में हो जाता है। सत्य सदा मध्य में है क्योंकि सत्य सदा
संतुलन और संगति में है।
शरीर और आत्मा में किसी एक को नहीं चुनना है।
पदार्थ और परमात्मा में से किसी एक के पक्ष में खड़ा नहीं
होना है। क्योंकि जो जानते हैं वे विश्वसत्ता में दो का
अनुभव ही नहीं करते हैं। जो जड़ की भांति प्रतीत हो रहा है
वह भी मूलतः और अंततः वही है जो चैतन्य की तरह
अनुभव में आता है। विश्वसत्ता एक है। उसकी
अभिव्यक्तियां ही भिन्न हैं। जो दृश्य परमात्मा है वही संसार
और जो अदृश्य संसार है वही परमात्मा है। यदि हम जड़
सत्ता का आत्यंतिक अनुसंधान करें तो वह अदृश्य में
विलीन हो जाती है। विज्ञान ने यह किया और परमाणु के बाद
वह जिन सत्ता-कणों पर पहुंचा है वे अब पदार्थ नहीं हैं, न
ही वे दृश्य हैं वरन अदृश्य ऊर्जा मात्र में परिणत हो गए हैं।
ऐसे ही जिन्होंने चेतना का आत्यंतिक अनुसंधान किया है
उन्होंने पाया है कि चेतना ही दृश्य हो जाती है अर्थात
अदृश्य आत्मशक्ति का भी साक्षात्कार हो जाता है और वह
साक्षात्कार इतना प्रगाढ़ होता है कि उसके समक्ष पदार्थ ही
असत्तावाद मालूम होने लगता है। इस सत्य को ध्यान में
रखें तो ज्ञात होगा कि जो दृश्य है वह अदृश्य ही है और जो
अदृश्य है वह भी दृश्य है। संसार और मोक्ष भिन्न नहीं,
अभिन्न हैं। अज्ञान में जो संसार मालूम होता है ज्ञान में वही
मोक्ष हो जाता हैं। अंधेरे में जो पदार्थ मालूम होता है
आलोक में वही परमात्मा में परिणत हो जाता है। दोनों के
बीच एकता है और इस एकता का अनुभव केवल वही कर
पाते हैं जो दोनों के बीच अतिवादी द्वंद्व से नहीं वरन दोनों
के मध्य संतुलन से प्रारंभ करते हैं।
हमने अतियों में जीकर देख लिया है। वह प्रयोग किसी
भी दिशा में सहल नहीं हुआ। अब अन-अति का प्रयोग
करने का समय आ गया है। मनुष्य को उसकी पूर्णता को
स्वीकार कर संस्कृति का निर्माण करना है।
मनुष्य स्वरूपतः शुभ है या अशुभ? जो उसे स्वरूपतः
अशुभ मान लेने हैं उनकी दृष्टि अत्यंत निराशाजनक और
भ्रांत है। क्योंकि जो स्वरूपतः अशुभ हो उसके शुभ की
संभावना समाप्त हो जाती है। स्वरूप का अर्थ ही यही है
कि उसे छोड़ा नहीं जा सकता है। जो सदा अनिवार्य रूप से
साथ ही वही स्वरूप है। यदि मनुष्य स्वरूप से ही अशुभ
हो तब तो उसे शुभ का विचार भी नहीं उठ सकता।
इसलिए हम मनुष्य को स्वरूपतः शुभ मानते हैं। अशुभ
अच्छादन है। यह दुर्घटना-मात्र है। जैसे सूर्य अपने ही द्वारा
पैदा की हुई बदलियों में छिप जाता है, वैसे ही मनुष्य की
चेतना में जो शुभ है वह उसकी अंतर्निहित स्वतंत्रता के
दुरुपयोग से आच्छादित हो जाता है। चेतना स्वरूपतः शुभ
और स्वतंत्र है। स्वतंत्रता के ही कारण अशुभ भी चुना जा
सकता है। तब एक क्षण को अशुभ आच्छादित कर लेता
है। जिस क्षण अशुभ हो रहा है उसी क्षण वह आच्छादन
रहता है। उसके बाद आच्छादन तो नहीं, मात्र-स्मृति रह
जाती है। शुद्ध वर्तमान में स्मृति शून्य चेतना सदा ही शुभ
में प्रतिष्ठित है अर्थात प्रत्येक व्यक्ति अपनी शुद्ध वर्तमान
सत्ता में शुभ और निर्दोष है। जो व्यक्ति सोचता है कि
मुझसे पाप हुआ उसे भी समझना आवश्यक है कि पाप
उसकी अतीत स्मृति है। क्योंकि जो हो गया है उसका ही
सिंहावलोकन चित्त कर पाता है। जो है यदि चित्त उसके प्रति
सजग और जागरूक हो तो चित्त मिट जाता है और मात्र
चेतना रह जाती है। यह चेतना नित्य शुभ है। स्मृति और
कामना, अतीत और भविष्य यही चेतना के बंधन हैं। इनसे
जो मुक्त है वही स्वरूप में पहुंच पाता है। स्वरूप सदा
निर्दोष है।
यह स्मरणीय है कि मैं स्वरूपतः शुभ हूं। यह प्रतीत और
प्रत्यय कि मैं सदा निर्दोष हूं, शुभ और निर्दोष जीवन के
लिए मुख्य आधार है। कोई यह न सोचे कि इस भांति तो
अहंता प्रगाढ़ होगी क्योंकि इस प्रत्यय में मेरी ही नहीं
समस्त चेतनाओं की निर्दोषता समाविष्ट है। प्रत्येक चेतना
ही अपनी निज सत्ता में शुभ है। यह बोध स्वयं तथा सर्व के
लिए सदभाव उत्पन्न करता है। स्वयं को पापी मानना पाप
करने से ज्यादा बुरी बात है। क्योंकि जो निरंतर यह भाव
करता है कि मैं पापी हूं वह अपने ही भाव में सम्मोहित हो
जाता है। कूए ने बड़े वैज्ञानिक आधारों पर यह
सुप्रतिष्ठित कर दिया है कि हम जो भाव निरंतर करते हैं
क्रमशः हम वैसे ही होते जाते हैं। बुद्ध ने तो कहा ही था,
विचार ही व्यक्तित्व बन जाता है। विचार और भाव में जो
तरंगें उठती हैं वे ही धीरे-धीरे हमारा व्यवहार बन जाती हैं।
जो स्वयं पाप, पतित और अपराधी होने के भाव करता
रहता है वह उन्हीं में जकड़ जाता हैं। फिर जो स्वयं को पापी
समझता है वे शेष लोगों को भी पापी समझता है। उसके
सोचने के मापदंड वे ही हो जाते हैं। यदि पाप एक सत्य
दिखाई पड़ने लगे तो क्रमशः परमात्मा एक असत्य दिखाई
पड़ने लगता हैं। पाप से ऊपर उठने की संभावना ही
परमात्मा के होने का प्रमाण है। उस संभावना से ही जीवन
के अंधकार में आलोक की किरण फूटती है।
यह भी स्मरणीय है कि पाप के ऊपर हम तभी उठ
सकते हैं कि हमारे भीतर निरंतर ही पाप के ऊपर कुछ हो।
अर्थात यदि हमारी चेतना में पाप से अस्पर्शित कुछ भी नहीं
है तो फिर पाप के बाहर जाने का कुछ उपाय ही नहीं रह
जाता। फिर तो पाप के ऊपर जाना वैसे ही असंभव है जैसे
स्वयं जूते के बंधों को पकड़कर स्वयं को उठाने का
प्रयास। और यदि चेतना सर्वांशतः पाप हो जाए तो उसे पाप
का बोध भी नहीं रह जाएगा। जिस पाप का बोध होती है
वह निरंतर पाप के बाहर है। वह बोध ही हमारी शक्ति,
सुरक्षा और परमात्मा तक पहुंचने का आश्वासन है। पाप
आते हैं और चले जाते हैं। पुण्य भी आते हैं और चले जाते
हैं। पाप भी कम हैं पुण्य भी कम हैं। किंतु जिस पर वे जाते
हैं वह निरंतर ही बना रहता है। वह यदि पाप से ग्रसित हो
जाए तो फिर पुण्य नहीं आ सकता और यदि पुण्य से ग्रसित
हो जाए तो पाप नहीं आ सकता। वह किसी से भी ग्रसित
नहीं होता। वह सदैव अस्पर्शित है। इस साक्षी का, इस
आत्मा का संकल्पपूर्व तक स्मरण समस्त कर्मों के बीच
उसका भान सब कुछ करते हुए, सोते, उठते बैठते, व्यक्ति
को अपे स्वरूपतः निर्दोष और शुभ होने का अवबोध करा
देता है। इस बोध की दशा में ही प्रकृति का अतिक्रमण एवं
परमात्मा का अनुभव होता है।
मनुष्य के चित्त-विश्लेषण से जो केंद्रीय तत्त्व उपलब्ध
होता है वह है परिग्रह की दौड़। चाहे यश हो, चाहे धन,
चाहे ज्ञान हो, लेकिन प्रत्येक स्थिति में मनुष्य किसी न
किसी भांति अपने को भरना चाहता है और संग्रह करता है।
संग्रह न हो तो वह स्वयं को स्वत्वहीन अनुभव करता है
और संग्रह हो तो उसे लगता है कि मैं भी कुछ हूं। संग्रह,
शक्ति देता हुआ मालूम पड़ता है। और संग्रह स्व या अहं
को भी निर्मित करता है। इसलिए जितना संग्रह उतनी शक्ति
और उतना अहंकार। इस दौड़ का क्या मूलभूत कारण और
उसे बिना समझे जो दौड़ के विरोध में दौड़ने लगते हैं वे
ऊपर से भले ही अपरिग्रही दिखाई पड़ें, अंतस मग उनके
भी परिग्रह ही केंद्र होता है। जो व्यक्ति स्वर्ग के लिए,
बैकुंठ के लिए या बहिश्त के लिए संपत्ति और संग्रह छोड़
देते हैं उनका छोड़ना कोई वास्तविक छोड़ना नहीं है।
क्योंकि जहां भी कुछ पाने की आकांक्षा है वहां परिग्रह है।
फिर चाहे यह आकांक्षा परमात्मा के लिए हो या चाहे मोक्ष
के लिए, चाहे निर्वाण के लिए। वासना परिग्रह की आत्मा
है। लोभ ही उसका स्वांस-प्रस्वांस है। इस भांति धन को
जो धर्म या पुण्य के लिए छोड़ते हैं वे भी किसी और बड़े
धन के पाने की अभिलाषा रखते हैं। यही कारण है कि यदि
हम भिन्न-भिन्न धर्मों द्वार कल्पित स्वर्ग पर विचार करें तो
उसमें हमें मनुष्य के लोभ का ही विस्तार उपलब्ध होगा।
कामनाओं और वासनाओं ने ही उसका सृजन किया है। जो
सुख और ऐंद्रिक तृप्ति इस लोक में चाही जाती है उसकी ही
पूर्ति के वहां और भी सुलभ साधन प्रस्तुत किए गए हैं।
कामधेनु है या कल्पवृक्ष, चिरयौवना अप्सराएं हैं या हूरें,
शराब की नदियां हैं और काम भोग के सभी उपकरण हैं।
दान-पुण्य और त्याग से यदि यही सब उपलब्ध करना है तो
ऐसे दान, पुण्य, त्याग को आत्म-वंचना ही मानना होगा।
यह वासना की ही विकृत रूप है और परमात्मा के नाम से
परिग्रह की ही तृप्ति है। यह भी हो सकता है कि कोई न
स्वर्ग चाहता है, न अन्य तरह की कामनापूर्ति, लेकिन इन
सबसे मुक्ति चाहता हो। किंतु बहुत गहरे में देखने पर यह
भी चाह की अत्यंतिक रूप है। वासनाओं से यदि दुःख
अनुभव होता है तो उनसे मुक्ति चाहने में भी सुख की
वासना ही उपस्थित है। वस्तुतः त्याग किसी भी भांति की
इच्छा के साथ संभव नहीं है।
परिग्रह की इतनी दौड़ क्यों है। उसे छोड़ते हैं तो भी वह
उपस्थित रहता है। त्याग में भी वह खड़ा है, भोग में भी।
तब क्या उससे छुटकारा संभव नहीं है? क्योंकि जो उससे
छूटने की कोशिश करते हैं वे परिवार को तो छोड़ते हुए
अनुभव करते हैं लेकिन खाई में गिरते दिखाई पड़ते हैं।
उनका त्याग योग का ही शीर्षासन करता हुआ रूप मालूम
होता है। गृहस्था और तथाकथित संन्यासी में कोई आधारभूत
अंतर नहीं होता। गृहस्थ जिस ओर भागता है संन्यासी ठीक
उसके विपरीत भागता हुआ मालूम होता है। इससे
संन्यासी गृहस्थ से भिन्न है ऐसी भ्रांति पैदा होती है,
लेकिन विपरीत दिशाओं में भागते हुए भी उनकी मूल तृष्णा
में कोई भेद नहीं है। विपरीत तथाकथित त्यागवादी और
अधिक काम और लोभ से ग्रसित मालूम होंगे क्योंकि
क्षणिक लौकिक सुख उन्हें तृप्त नहीं कर पाते, उनकी
अभीप्सा तो शाश्वत सुख के लिए है। और यदि उस
शाश्वत सुख के लिए वे इन क्षणिक सुखों को लात मार देते
हों तो न तो यह अलोभ है न त्याग, न अपरिग्रह। यह तो
किसी भावी लाभ की आकांक्षा में संपत्ति विनियोग (
इनवेस्टमेंट) है।
साधारणतः परिग्रह को छोड़ना कठिन है, जब तक कि
उसके उदभाव के मूल कारण को न जाना जा सके। मूल
कारण है स्वयं से अपरिचित होना। इस अपरिचय और
अज्ञान से आत्म अविश्वास उत्पन्न होता है। आत्म
अविश्वास से असुरक्षा अनुभव होती है। असुरक्षा की
भावना से बचने के लिए परिग्रह की दौड़ प्रारंभ होती है।
स्वयं का बोध न हो तो संपत्ति और संग्रह से सुरक्षित होने
के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता। स्वयं का
होना है अज्ञात। वस्तुएं हैं ज्ञात। जो ज्ञात है वह उपलब्ध
करना सरल है उसे जीतना आसान है। और उसके द्वारा जो
अभाव भीतर काटता है उससे भ्रांति ही सही लेकिन
छुटकारा मिलता हुआ अनुभव होता है। स्वयं के भीतर देखें
तो कुछ नहीं मालूम होता है, वहां तो एक शून्य है, गहन
रिक्तता है, यह रिक्तता भरे बिना चैन नहीं। किसी न किसी
भांति इसे भरना ही है। अभाव के साथ जीया नहीं जा
सकता। रिक्तता घबड़ाती है और मृत्यु मालूम होती है।
उससे बचने के लिए ही परिग्रह की शरण लेनी पड़ती है।
संपत्ति, यश, पद, प्रतिष्ठा, इन सबमें उस अभाव से
पलायन ही हम खोजते हैं लेकिन अभाव है आंतरिक और
संपत्ति है बाह्य। संपत्ति कितनी ही इकट्ठी करते जाएं अभाव
उससे नष्ट नहीं होता है। भीतर का अभाव भीतर के भाव से
ही नष्ट होगा। बाहर की कोई भी उपलब्धि उसे भरने में
केवल इस कारण ही असमर्थ है कि वह बाहर की है। यही
कारण है कि परिग्रह की दौड़ और के पागलपन से पीड़ित
रहती है। जो मिल जाता है वह काम करता हुआ मालूम नहीं
होता। अभाव वैसे ही का वैसा मालूम होता है। कितना ही
अभाव के भोजन दें उसका पेट भरता नहीं। वह मुंह बाए
ही खड़ा रहता है। स्वभावतः बुद्धि कहती है और दो, इतने
से नहीं हुआ तो और करो और इस भांति एक अंतहीन
चक्कर चलता है। जिसमें हर पड़ाव पर लिखा होता है और
आगे और ऐसा कोई पड़ाव नहीं है जहां यह नहीं लिखा है।
परिग्रह की वृत्ति स्वयं की रिक्तता से पैदा होती है, तो
उचित है कि इस रिक्तता को हम जानें और पहचानें।
रिक्तता के ज्ञान के लिए रिक्तता में जीवन आवश्यक है। न
तो उसे भरें और न उससे भागें। वरन उसमें कूद जावें ताकि
उसका पूरा अनुभव हो सके। यही है योग। रिक्तता में
छलांग समाधि है, शून्य में जीना साधना है। जो व्यक्ति
स्वयं की इस शून्यता में प्रवेश का साहस करता है वह
प्रविष्ट होकर पाता है कि जो रिक्तता अनुभव होती थी वही
आत्मा है और दूर से जो शून्य-जैसा भागता था वही परम
सत्ता है। यह अनुभव अभाव से मुक्त कर देता है। परमात्मा
उपलब्ध हो, परम सत्ता का साक्षात्कार हो तो परिग्रह की
वृत्ति सहज ही विलीन हो जाती है। जैसे जाग जाने पर स्वप्न
नहीं है वैसे ही स्वयं में आने पर बाहर की कोई दौड़ शेष
नहीं रह जाती। जीवन की दो ही दिशाएं हैं परिग्रह या
परमात्मा। स्वयं का अभाव है दोनों दिशाओं का प्रारंभ
बिंदु। उससे भागिए तो परिग्रह की गति शुरू होती है उसमें
डूबिए तो परमात्मा उपलब्ध होता है।
मनुष्य में और पशु में जन्म और मृत्यु की दृष्टि से कोई
भेद नहीं है। न तो मनुष्य को ज्ञात है कि वह क्यों पैदा होता
है और क्यों मर जाता है और न पशु को। लेकिन मनुष्य को
यह ज्ञात है कि वह पैदा होता है और मरता है। यह ज्ञान
पशु को नहीं है। और यह ज्ञान बहुत बड़ा भेद पैदा करता
है। इसके कारण ही मनुष्य पशुओं के बीच होते हुए भी
पशुओं से भिन्न हो जाता है। वह जीवन पर विचार करने
लगता है। जीवन में अर्थ और प्रयोजन खोजने लगता है।
वह मात्र होने से तृप्त नहीं होता वरन सप्रयोजन और सार्थक
रूप से होना चाहता है। इससे ही जीवन उसे जीना ही न
होकर एक समस्या और उसके समाधान की खोज बन
जाता है। स्वाभाविक है कि इससे तनाव, अशांति और
चिंता पैदा हो। कोई पशु न तो चिंतित है, न अशांत। मनुष्य
अकेला प्राणी है जिसमें ऊब प्रकट होती है। और वही
अकेला है जो कि हंसता है और रोता है। न तो किसी और
पशु को किसी भांति उबाया ही जा सकता है न हंसाया ही।
पशु जीते हैं सहज और सरल। कोई समस्या वहां नहीं है।
भोजन, छाया या इस तरह की तात्कालिक खोजें हैं लेकिन
जीवन का कोई अनुसंधान नहीं है। न कोई अतीत की स्मृति
है और न भविष्य का विचार। वर्तमान ही सब कुछ है। और
वर्तमान का यह बोध भी हमारे विचार में है क्योंकि जिनके
लिए अतीत और भविष्य नहीं है उनके लिए वर्तमान भी
नहीं है। समय या काल मानवीय घटना है और इसीलिए
जो भी व्यक्ति मानवीय चिंताओं से मुक्त होना चाहता है
वह किसी न किसी रूप में समय को भूलने या मिटाने की
चेष्टा करता है। भूलने के उपाय हैं निद्रा, नशा, सेक्स, या
इसी तरह की और मूच्र्छाएं। मिटाने का उपाय है समाधि।
लेकिन जब तक चित्त समय में है तब तक वह चिंता के
बाहर नहीं होता है। समय ही चिंता है। उसका बोध भार है।
पशु निर्भार, निर्बोध ज्ञात होते हैं।
मनुष्य की यह विशेष स्थिति कि वह सृष्टि का अंग होते
हुए भी सामान्य रूप से अन्य अंगों की भांति अचेत अंग
नहीं है, उसके जीवन में असामान्य और असाधारण
उलझाव खड़े कर देती है। जीवन किसी न किसी रूप में
इस दबावग्रस्त स्थिति के अतिक्रमण की खोज चलती है।
मनुष्य सृष्टि का अचेतन अंग तो नहीं हो पाता। होश में
रहते यह असंभव है। वह पशु और पौधों के निश्चिंत जीवन
को नहीं पा सकता है। उसकी चेतना ही इन द्वारों को वर्जित
किए हुए है। फिर अतिक्रमण का मार्ग एक ही है कि किसी
भांति सृष्टा हो जाए। सृष्टि के साथ सम्मिलन की भूमिका
है अचेतना और सृष्टा के साथ सम्मिलन की संभावना है
संपूर्ण चेतना। मनुष्य है मध्य में। न वह पूरा अचेतन है
और न पूरा चेतन। पशुओं को वह पीछे छोड़ आया है और
प्रभु होना अभी दूर है। चेतना जितनी आलोकित होती जाए
और अचेतना का अंधकार जितना दूर हो उतना ही वह
परमात्मा के निकट पहुंचता है। प्रकृति और परमात्मा,
अचेतना और चेतना यही दो ध्रुव हैं जिसके मध्य पतन है
या प्रगति है। दोनों ही ध्रुव मनुष्य को खींचते हैं और दस से
ही उसमें संताप और चिंता का जन्म होता है। छोटे-मोटे
रूप में भी यदि वह सृष्टा बन जाता है तो आनंद अनुभव
करता है। काव्य हो या चित्र हो या मूर्ति हो इनका निर्माता
होकर भी वह सृष्टा के जगत के अंशभूत भागीदार हो पाता
है। विज्ञान के अविष्कार भी उसकी चेतना को इसी बिंदु पर
ले आते हैं। मां या पिता जो संतति को पाकर जो खुशी है
वह भी सृष्टा होने की खुशी है। इसी कारण जो किसी की
भांति का सृजन नहीं कर पाते उनकी पीड़ा अनंतगुनी बढ़
जाती है। सृजन जीवन में न हो तो किसी भी भांति की
आनंद-अनुभूति कठिन है। एक विकल्प और हैः वह है
विनाश का। उससे भी मनुष्य अचेतन मिटाने की क्षमता का
अनुभव करते हैं। वह भी बनाने की क्षमता का दूसरा पहलू
है। तैमूर लंग, हिटलर या स्टेलिन या अन्य युद्धखोरों का
जो सुख है वह सृष्टि के अचेतन अंग-मात्र होने के
अतिक्रमण की चेष्टा है। जो सृजन नहीं कर पाते वे विनाश
की ओर झुक जाते हैं। समाधान भिन्न और विपरीत है
लेकिन समस्या दोनों की एक है। निश्चय ही सृजन का
आनंद और विनाश के सुख में मूलभूत अंतर है। दोनों
स्थितियों में व्यक्ति प्रकृति से दूर हटता है लेकिन पहली
स्थिति में वह परमात्मा के निकट पहुंच जाता है और दूसरी
स्थिति में कहीं नहीं पहुंचता। पहली स्थिति में स्वयं से मुक्त
हो जाता है, दूसरी स्थिति में मात्र अहंकार में केंद्रित।
इसीलिए विनाश की दिशा में जो सुख-जैसा आभास था
वह अंत में चरम दुःख सिद्ध होता है, क्योंकि स्वयं की
अहंता में बंद हो जाने से बड़ा और कोई नरक नहीं है।
जीवन का जो भी विकास और विस्तार है वह स्वयं से मुक्त
हो समग्र संयुक्त होने में है। यह अवस्था केवल सतत
सृजनशील मन ही उपलब्ध कर पाता है। सतत सृजनशील
इसलिए कि यदि अपने ही किसी सृजन पर व्यक्ति रुक
जाए तो वह भी अहंकार का पोषण हो जाता है। सतत सृजन
का अर्थ है जो हमसे निर्मित हुआ है उससे मुक्त होते जाना।
जिस दिन सृजन ही रह जाता है और कृतत्व-भाव विलीन
हो जाता है उस दिन ही, उस क्षण ही, व्यक्ति मिटता है,
अहंकार की छाया विसर्जित होती है, समष्टि के द्वार खुलते
हैं और ब्रह्म में चेतना का प्रवेश होता है। यह प्रवेश ही
आनंद में, आलोक में और अमृत में प्रतिष्ठा है।
प्रेम क्या है, इसके समझने के पूर्व यह जानना
आवश्यकता है कि प्रेम क्या नहीं है, क्योंकि जिसे हम प्रायः
प्रेम के नाम से जानते हैं वह और कुछ भले ही हो, प्रेम
कतई नहीं है। मानव के संबंधों में भी हमें अधिकतर राग,
लालसा, आसक्ति दिखाई देती है, वह प्रेम नहीं कहा जा
सकता। प्रेम की विकृति ही राग, लालसा और आसक्ति है।
पहले काम को लीजिए जो राग से उत्पन्न होता है। काम
प्रेम नहीं है। काम या यौन-आकर्षण तो प्रकृति का संतति
उत्पादन के लिए प्रयोग किया गया सम्मोहन है। यथार्थ में
वह वैसी मूच्र्छा है, जैसी शल्य चिकित्सक शल्य क्रिया के
पूर्व उपयोग में लाता है। इस मूच्र्छा के अभाव में प्रकृति का
संतति-क्रम चलना संभव नहीं है। इसे ही जो प्रेम समझ
लेते हैं वे भ्रांति में पड़ जाते हैं। यह मूच्र्छा मनुष्य में ही नहीं
वरन समस्त पशु-पक्षी, कीट-पतंग में भी ऐसी ही पाई
जाती है। कई जीवधारियों की तो संभोग के बाद मृत्यु हो
जाती है। शहद की मक्खी का दृष्टांत लीजिए। इस मक्खी
के छत्ते में इन मक्खियों की एक रानी रहती है। इस रानी से
अनेक नर मक्खियां संभोग की इच्छा रखते हैं। अंत में
जिस नर को वह रानी पसंद करती है उसके साथ उड़ती है
और संभोग होने के पश्चात नर का प्राणांत हो जाता है।
फिर भी प्रकृति का सम्मोहन इतना गहरा है कि सामने खड़ी
मृत्यु भी यौन-आकर्षण से प्राणियों को नहीं रोक पाती।
जहां तक इस प्रकार के प्रेम का संबंध है मनुष्य के विषय
में, वह पशु-पक्षियों कीटादि से भिन्न नहीं है। प्रेम के संबंध
में विचार करते समय यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि
यौन-आकर्षण को ही प्रेम न समझ लिया जाए। यथार्थ में
यह राग का सबसे बड़ा रूप है। सत्य तो यह है कि राग की
यह शक्ति जिस मात्रा में वासना से मुक्त हो जाती है उतनी
ही मात्रा में उसका रूपांतरण प्रेम में होता है। प्रेम राग नहीं,
वरन राग शक्ति का दिव्य रूपांतरण है।
राग के बाद लालसा आती है। हम लालसा और प्रेम
को भी एक ही समझ बैठे हैं। लालसा में युद्ध-अधिकार
की भावना रहती है। मनुष्य शक्ति पिपासु है प्रेम के नाम से
भी। इसलिए अधिकार और स्वामित्व खोजा जाता है।
पिता-पुत्र, मित्र-मित्र, पति-पत्नी आदि के अधिकांश
संबंधों में यह अधिकार की भावना दृष्टिगोचर होती है,
इसलिए अनेक बार हमें पिता-पुत्र, मित्र-मित्र और
पति-पत्नी तक के संबंध टूटते दिखाई पड़ते हैं।
पति को अपने स्वामित्व का बड़ा ध्यान रहता है और
पत्नी दासी बन जाती है। पत्नी भी ऊपर से चाहे स्वयं को
दासी कहे, परंतु बहुधा भीतर से उसमें भी मालिक बनने का
भाव सक्रिय रहता है। मालकियत की यह प्रतिस्पर्धा चाहे
वह पिता-पुत्र में हो, चाहे मित्र-मित्र में और पति-पत्नी में
वहुजा संघर्ष और कलह बन जाती है। प्रेम की पहली शर्त
है निरहंकारिता। मनुष्य की सबसे बड़ी और गहरी भावना है
अहंकार। जहां अंधकार नहीं वहीं प्रेम का जन्म है। लालसा
में अहंकार सबसे प्रधान वस्तु रहती है।
अहंकार केंद्रित जीवन में जिसे हम प्रेम समझते हैं, वह
प्रेम न होकर लालसा होती है। जिसके प्रति यह लालसा
रहती है, वह भी अनेक बार इसे प्रेम समझकर भ्रांति में पड़
जाता है। वस्तुओं और साधनों से प्रेम नहीं किया जा
सकता। उनको तो बस उपयोग और शोषण ही होता है, हां
उन्हें प्रेम बतलाया जा सकता है वैसे ही जैसे दासता के युगों
में मालिक गुलामों को जीवन सुविधाएं देता था ताकि वे मर
जाएं। शायद वे मालिक अपने दासों के प्रति प्रेम भी
जतलाते रहे हों। जैसा उनका प्रेम रहा होगा वैसी ही यह
लालसा है।
इस प्रकार रोग, लालसा और आसक्ति चाहे प्रेम दिखें
पर वह यथार्थ में प्रेम नहीं है। जो व्यक्ति स्वयं को निपट
शून्य बना लेता है उससे और केवल उससे ही प्रेम की ऊर्जा
अभिव्यक्त होती है। प्रेम, व्यष्टि और समष्टि दोनों के प्रति
हो सकता है। जिनके हृदय में प्रेम है, वह चाहे व्यष्टि के
प्रति हो या समष्टि के, वह प्रेम पात्र के लिए ही सब कुछ
करता है। उसकी समस्त इच्छा प्रेम-पात्र को सुख देने में
रहती है। उस प्रेम के बदले में वह कुछ नहीं चाहता है। प्रेम
बेशर्त दान है।
और जब ऐसा प्रेम समष्टि से हो जाता है तब उसे विश्व
प्रेम की सत्ता मिल जाती है।
इस प्रेम के लिए स्वयं को मिटाना आवश्यक है जो
कठिनतम कार्य है। हम तो स्वयं को भरने और बनाने में
लगे रहते हैं। इसलिए यह कोई आश्चर्य नहीं है कि हमारे
जीवन राग, लालसा और आसक्ति से भरे हों तथा प्रेम से
रहित। और जहां प्रेम नहीं वहां दुख है।
प्रेम से उदात्त आनंद से बढ़ कर निर्दोष और दिव्य कोई
दूसरी अनुभूति नहीं है। इस सृष्टि के सर्व श्रेष्ठ प्राणी के
अनुभव में प्रेम ही सर्व श्रेष्ठ अनुभव है। प्रेम की गहराइयों
में ही उसकी चेतना पदार्थ का अतिक्रमण करती है और प्रभु
के द्वार पर उपस्थित होती है। प्रेम ही प्रभु का द्वार है। प्रेम है
रहस्य और अबूझ। उसे मनुष्य जानता भी है और नहीं भी
जानता, परंतु अनजाने भी उसे उसका अनुभव होता है। प्रेम
के समक्ष परमात्मा भी प्रत्यक्ष हो जाता है। इसी से प्रेम परम
कला है और प्रेम ही परम प्रार्थना भी। मैं तो कहता हूंः प्रेम
ही परमात्मा है।
साधारणतः जिसे ज्ञान कहते है वह ज्ञान द्वैत के ऊपर
नहीं ले जाता। जहां दो हैं वहीं ऐसा ज्ञान संभव है। ज्ञेय
ज्ञात हो पृथक ही बना रहता है। इसलिए यह ज्ञान एक
बाह्य संबंध है। ज्ञेय ज्ञात हो पृथक ही बना रहता है।
इसलिए यह ज्ञान एक बाह्य संबंध है, यह अंदर प्रवेश नहीं
कर पाता। ज्ञाता ज्ञेय के कितने ही निकट पहुंच जाए फिर
भी दूर ही बना रहता है। इस ज्ञान की संभावना के लिए दूरी
अनिवार्य और अपरिहार्य है। इसलिए ऐसा ज्ञान मात्र
परिचय ही हो पाता है, वस्तुतः ज्ञान नहीं बन पाता। मनुष्य
के लिए बड़ी से बड़ी पहेलियों में से एक यही है कि ज्ञान
बिना दूरी के संभव नहीं और जहां दूरी है वहां सच्चा ज्ञान
असंभव है।
क्या यह संभव है कि दूरी न हो और ज्ञान संभव हो
जाए? यदि वह संभव नहीं है तो सत्य कभी भी नहीं जाना
जा सकता। और साधारणतः यह संभव नहीं दीखता,
क्योंकि जो भी हम जानते हैं, वह जानने के कारण ही हमसे
पृथक और अन्य हो जाता है। ज्ञान ज्ञाता और ज्ञेय को तोड़
देता है। वह जोड़ने वाला सेतु नहीं वरन पृथक करने वाली
खाई है। और यही कारण है कि जिन्हें हम ज्ञानी कहते हैं वे
अति अहंकार युक्त हो जाते हैं। जैसे-जैसे उनका ज्ञान
बढ़ता है, वैसे-वैसे वे विश्वसत्ता से टूटते जाते हैं। इस
भांति यदि कोई सर्वज्ञ हो जाए तो वह अपने अहं बिंदु पर
समग्र रूपेण केंद्रित हो जाएगा। और जहां जितना अहंकार
है उतना ही अंधकार है। ज्ञानी होने का बोध अहंकार की
सूचना है। और सर्वज्ञ होने की धारणा परम अज्ञान की
स्थिति है। सुकरात को परम ज्ञानी कहा गया है। क्योंकि
उसने कहा है कि मैं इतना ही जानता हूं कि कुछ भी नहीं
जानता। उपनिषद की घोषणा करते हैं कि अज्ञान तो
अंधकार में ले ही जाता है, लेकिन ज्ञानी महा अंधकार में ले
जाते हैं। ईशोपनिषद का इस संबंध में स्पष्ट कथन हैः ‘जो
धन अविद्या में निरंतर मग्न हैं, वे डूब जाते हैं घने तमसांध
में। जो मनुज विद्या में सदा रसमाण हैं, वे और धन
तमसांध में मानो धंसे। जो मनुज करते हैं निरोध उपासना,
वे डूब जाते हैं घने तमसांध में। जो जन सदैव विकास में
रसमाण हैं, वे और धन समसांध में मानो धंसे।’
अहंकार ही अज्ञान है। इसलिए जिस ज्ञान से अहंकार
पोषित होता हो, वह प्रछन्न रूप में अज्ञान ही है। फिर क्या
ऐसा भी कोई ज्ञान संभव है, जो अज्ञान न हो, अर्थात क्या
ऐसा ज्ञान संभव है जिसमें अहंकार न हो? दूसरे शब्दों में
क्या ज्ञान ज्ञाता और ज्ञेय को जोड़ने वाला सेतु भी हो
सकता है? निश्चय ही ऐसा ज्ञान संभव है और उस ज्ञान
का नाम ही प्रेम है। प्रेम ज्ञान का ऐसा मार्ग है जहां अहंकार
को मिटाकर प्रवेश मिलता है। प्रेम का अर्थ है स्वयं के और
सर्व के बीच की दूरी को मिटाना। वह दूरी उसी मात्रा में
विलीन होने लगती है जिस मात्रा में मैं का भाव नष्ट हो
जाता है। रूमी की एक कविता है¬जिसमें प्रेमी ने प्रेयसी
के द्वार पर दस्तक दी है। भीतर से पूछा गया¬कौन है?
प्रेम ने कहा मैं तेरा प्रेमी। लेकिन फिर भीतर से कोई ध्वनि
न आई और न दरवाजे खुलते मालूम पड़े। प्रेमी ने
चिल्लाकर पूछा कि क्या कारण है कि द्वार नहीं खुलते हैं।
उत्तर मिला प्रेम के द्वार उसके लिए ही खुलते हैं, जिसने
वैसी पात्रता अर्जित कर ली हो। यह सुन प्रेमी चला गया
और वर्षों की तपश्चर्या के बाद पुनः उस द्वार पर आया।
फिर पूछा गया कौन है? इस बार उत्तर भिन्न था। प्रेमी ने
कहा¬मैं नहीं हूं, अब तो तू ही है। और जो द्वार सदा बंद
थे वे खुल गए। प्रेम के द्वार तभी खुलते हैं जब अहंकार का
आभास गिर जाता है। सत्य पर पर्दा नहीं है। पर्दा हमारी
दृष्टि पर है और गहरे देखने पर प्रेम के द्वार बंद नहीं थे,
अहंकार से आंखें बंद थीं। अहंकार गया तो द्वार सदा से
खुले ही हैं।
प्रेम की साधना स्वयं को मिटाने की साधना है। और
आश्चर्यों का आश्चर्य तो यही है कि जो स्वयं को मिटाता है
वही स्वयं को पाने में समर्थ होता है!
धर्म के प्रति आधुनिक मन में बड़ी उपेक्षा है। और यह
अकारण भी नहीं है। धर्म का जो रूप आंखों के सामने
आता है, वह न तो रुचिकर ही प्रतीत होता है और न ही
धार्मिक। धार्मिक से अर्थ है सत्य, शिव और सुंदर के
अनुकूल। तथाकथित धर्म वह वृत्ति ही नहीं बनाता जिससे
सत्य, शिव और सुंदर की अनुभूति होती हो। वह असत्य,
अशिव और असुंदर की भावनाओं को बल और समर्थन भी
देता है। हिंसा, वैमनस्य और विद्वेष उसकी छाया में पलते
हैं। मनुष्य का इतिहास तथाकथित धर्म के नाम पर इतना
रक्तरंजित हुआ है कि जिनमें थोड़ा विवेक और बुद्धि है,
बहुत स्वाभाविक है कि न केवल उनके हृदय धर्म के प्रति
उदासीन हो जाएं, बल्कि ऐसे विकृत रूपों के प्रति विद्रोह
का भी अनुभव करें। यह बात विरोधाभासी मालूम होगी,
किंतु बहुत सत्य है कि जिनके चित्त वस्तुतः धार्मिक हैं वे ही
लोग तथाकथित धर्मों के प्रति विद्रोह अनुभव कर रहे हैं।
धर्म भी एक जीवंत प्रवाह है। और निरंतर रूढ़ियों,
परंपराओं और अंधविश्वासों को तोड़कर उसे मार्ग अपनाना
पड़ता है। सरिताएं जैसे सागर की ओर बहती है और उन्हें
अपने मार्ग में बहुत-सी चट्टानों तोड़नी पड़ती हैं, और बहुत
सी बाधाएं दूरी करनी होती है, ठीक वैसे ही धर्म का भी
विकास होता है। धर्म के प्रत्येक सत्य के आसपास शीघ्र ही
संप्रदाय अपने घेरे बांध कर खड़े हो जाते हैं। फिर इन घेरों
से न्यस्त स्वार्थ होते हैं। स्वाभाविक है कि जहां स्वार्थ है
वहां संघर्ष भी आ जाए। ऐसे संप्रदाय आपस में लड़ने
लगते हैं। यह लड़ाई वैसी ही है जैसी प्रतिस्पर्धी दुकानों में
ग्राहकों के लिए होती है। संगठन संख्या पर जीते हैं।
इसलिए येन-केन प्रकारेण अनुयायियों को बढ़ाने की दौड़
चलती रहती है। धर्म के नाम पर भी इस प्रकार शोषण
संभव हो जाता है। माक्र्स ने संभवतः इसी कारण धर्म को
जनता के लिए अफीम का नशा कहा है।
धर्म, संप्रदाय सत्य के खोजी भी नहीं रह जाते। वे तो
अपनी-अपनी धारणाओं को हर स्थिति में सत्य सिद्ध करने
में संलग्न रहते हैं और इसलिए वे ज्ञान के प्रत्येक नए चरण
के शत्रु हो जाते हैं। विज्ञान के साथ धर्म का संघर्ष इसी बात
की सूचना है। ज्ञान तो नित्य आगे बढ़ता रहता है और
तथाकथित धार्मिक पुरानी और मृत धारणाओं से ही चिपके
रहते हैं, इसलिए वे प्रगति के विरोध में प्रतिक्रियावादी सिद्ध
होते हैं। ऐसे धर्म-संप्रदाय धर्म के ही मार्ग में बाधा बन
जाते हैं। धर्म को जितना अहित सांप्रदायिक दृष्टि ने
पहुंचाया है, उतना किसी और बात ने नहीं। संप्रदाय जितने
बढ़ते गए धर्म का उतना ही हृास होता गया। संप्रदाय तो
जड़ आवरण है। धर्म की विकासशील आत्मा के वे
कारागृह बन जाते हैं।
धर्म एक है, लेकिन संप्रदाय अनेक हैं और इसी कारण
अद्वय सत्य की उपलब्धि में उनकी अनेकता सहयोगी नहीं
हो पाती। जैसे विज्ञान एक है और उसके कोई संप्रदाय नहीं
वैसे ही वस्तुतः धर्म भी एक है और उसके सत्य भी
सार्वभौम हैं। धर्म की संप्रदायों से मुक्ति अत्यंत आवश्यक
हो गई है। मनुष्य के विकास में ऐसी घड़ी आ गई है कि
धर्म संप्रदाय से मुक्त होकर ही उसे प्रीतिकर, उपादेय और
वांछनीय ज्ञात हो सकेगा। संप्रदाय से मुक्त होते ही धर्म का
न्यस्त स्वार्थ का रूप नष्ट हो जाता है। वह दुकानदारी नहीं
है और न किन्हीं अंधविश्वासों का प्रचार है। वह न संगठन
है और न शोषण। फिर तो वह व्यक्ति, सत्ता और सर्व सत्ता
के बीच प्रेम और प्रार्थना का अत्यंत निजी संबंध है। धर्म
अपने शुद्ध रूप में वैयक्तिक है। वह तो स्वयं का समर्पण
है। संगठन से नहीं साधना से उसका संबंध है। क्या प्रेम
के कोई संप्रदाय हैं? और जब प्रेम के नहीं हैं तब प्रार्थना के
कैसे हो सकते हैं? प्रार्थना तो प्रेम का ही शुद्धतम रूप है।
सत्य की कोई भी धारणा चित्त को बंदी बना लेती है।
सत्य को जानने के लिए चित्त की परिपूर्ण स्वतंत्रता अपेक्षित
है। चित्त जब समस्त सिद्धांतों, शास्त्रों से स्वयं को मुक्त
कर लेता है, तभी उस निर्दोष और निर्विकार दशा में सत्य
को जानने में समर्थ हो पाता है। व्यक्ति जब शून्य होता है
तभी उसे पूर्ण का अधिकार मिलता है।
मनुष्य के सारे जीवन सूत्र उलझ गए हैं। उसके संबंध
में कोई भी सत्य सुनिश्चित नहीं प्रतीत होता। न जीवन के
अथ का पता है, न अंत का। पहले के समय में जो भी
धारणाएं स्पष्ट प्रतीत होती थी वे सब अस्पष्ट हो गई हैं।
धारणाओं के पुराने भवन तो गिर गए पर नए निर्मित नहीं
हुए। पुराने सब मूल्य मर गए हैं या मर रहे हैं और कोई नए
मूल्य अंकुरित नहीं हो पाते। एक ही नया मूल्य अंकुरित
हुआ है कि यह भौतिक जीवन ही सब कुछ है। परंतु इस
नए मूल्य संघर्ष, द्वंद्व और युद्ध, अशांति को जन्म दिया है।
इस भांति जीवन दिशाशून्य होकर ठिठका सा खड़का है।
यह किंकर्तव्यविमूढ़ता हमारी प्रत्येक चिंतना और क्रिया पर
अंकित है। स्वभावतः ऐसी दशा में हमारे चित्त यदि तीव्र
संताप से भर गए हों तो कोई आश्चर्य नहीं। गंतव्य के बोध
के बिना गति एक बोझ ही हो सकती है। जीवन के अर्थ को
जाने बिना जीना एक भार हो ही सकता है। अर्थ और
अभिप्रायशून्य उपक्रम अंततः, अर्थ और अभिप्राय को कैसे
जन्म दे सकते हैं। जिस यात्रा का प्रथम चरण ही अर्थहीन
हो, उसका अंतिम चरण अर्थ नहीं बन सकता। फिर जो पूरी
की पूरी यात्रा ही अर्थहीन हो तब तो अंत में अनर्थ ही हाथ
आएगा। यह कोई कोरे सिद्धांत की बात नहीं है। यह तो
सीधा अनुभव ही है। चारों और हजारों चेहरों पर छाई हुई
निराशा, लाखों आंखों में घिरा हुआ अंधकार, करोड़ों हृदयों
पर ऊब और संताप का भार इसका स्पष्ट प्रमाण है। खोज
करने पर भी शांत, संतुष्ट और आनंदित व्यक्ति का मिलना
दुर्लभ होता जा रहा है। अभी तो ऋतुराज आता है और
सृष्टि सुमनों तथा उनकी सुगंधि से भर जाती है। पावस में
मेघमालाएं उठतीं, दामिली दमकतीं, वर्षा होती, इंद्रधनुष
निकलता है और हरियाली छा जाती है। ऊषा और संध्या
की सुनहरी आभा से पूर्व और पश्चिम नित्य ही आलोकित
होते हैं। उदय होते हुए भगवान भास्कर की आभा और
नित्य प्रति बढ़ती हुई चंद्रमा की कलाएं अपना सौंदर्य
दिखाती है। विविध समीर बहता है और पंछी अपना मधुर
राग अलापते हैं। किंतु वे मनुष्य कहां हैं जिनके हृदय संगीत
से भरे हों और जिनकी आंखों से सौंदर्य झरे? निश्चय ही
मनुष्य के साथ कुछ भूल हो गई है। निश्चय ही उसके
भीतर कुछ टूट और खो गया है। निश्चय ही मनुष्य जो होने
को पैदा हुआ है, वही होना वह भूल गया है।
यह भूल इसलिए हुई है कि मनुष्य जो उसके बाहर है
उसे समझाने और जीतने में अतिशय संलग्न हो गया है।
उसकी बाहर की अति संलग्नता ने भीतर की भूमि से
क्रमशः उसे अपरिचित कर दिया है। धीरे-धीरे यह स्मरण
ही न रहा कि हमारे भीतर भी जानने और जीतने को एक
जगत है। बाहर के जगत में मिली विजय क्रमशः उसे और
बाहर लेती गई। नए-नए अविजित क्षितिज उसे आकर्षित
करते रहे और उनके प्रलोभनों में वह स्वयं से ही दूर बढ़ता
गया। जगत का कोई अंत नहीं है। बारह अनंत विस्तार है,
यह संभव नहीं कि कभी भी उस पूरे विस्तार को हम अपनी
मुट्ठी में ले सकेंगे। जितना हम जानते हैं जगत उतना ही
बड़ा होता जाता है। जितना हम उसे जीतते हैं उतना ही वह
अविजित क्षेत्र बड़ा होता जाता है। इस दौड़ में स्वर्णमृग तो
हाथ नहीं आता। हां, स्वयं की सीता से जरूर दूर हुए जाते
हैं। राम ने जैसा अंत में पाया कि स्वर्णमृग तो मिला नहीं
लेकिन सीता अवश्य खो गई। ऐसी दशा पूरी मनुष्यता की
है। बाहर के सर्व को खोजने और जीतने हम निकले और
अंत में यह पा रहे हैं कि भीतर के स्व को ही हार गए और
खो बैठे। मनुष्य की चेतना को वापिस उसके स्व में
प्रतिष्ठित करना अपरिहार्य हो गया है। तभी हम स्वयं को
जानने में समर्थ हो सकेंगे। और उस ज्ञान के प्रकाश से ही
जीवन की उलझी गुत्थी सुलझ पाएगी। यह अज्ञान चरम
अज्ञान है कि जो स्वयं को ही न जानता हो वह शेष सबको
जानने में संलग्न हो। प्रकृति नहीं, पुरुष सर्वप्रथम जानने
योग्य है। उस ज्ञान के आधार पर शेष सब ज्ञान सार्थक हो
सकता है। उस मूल ज्ञान के अभाव में और किसी की भांति
के ज्ञान का कोई भी मूल्य नहीं। मनुष्य प्रथम है, शेष सब
पीछे। मनुष्य को सबसे अंत में रखकर ही भूल हो गई है।
आज मनुष्य के विकास में एक अदभुत विरोधाभास
दिखाई देता है। जहां एक और मौलिक तल पर समृद्धि और
प्रगति अनुभव होती है वहीं इस भौतिक समृद्धि और प्रगति
के साथ-साथ ही आत्मिक तल पर हृास और पतन भी
दिखाई पड़ता है। अतः वे लोग भी ठीक है जो कहते हैं कि
मनुष्य निरंतर उन्नत हो रहा है और वे लोग भी ठीक हैं
जिनकी मान्यता है कि मनुष्य का प्रतिदिन पतन होता जा रहा
है। हम दोनों को ठीक इसलिए कहते हैं कि भौतिकवादी
अपनी दृष्टि से आधुनिक मनुष्य को देखते हैं और
अध्यात्मवादी अपनी दृष्टि से। कठिनाई यह है कि दोनों
यह अनुभव नहीं करते कि उनकी दृष्टि एकांगी दृष्टि है।
भौतिक विचारधारावाले तो, आत्मिकतल भी कोई तल होता
है, इसे जानते तक नहीं है और आध्यात्मिक विचारधारावाले
इस सारी समृद्धि और प्रगति को निरर्थक मानते हैं।
विचारणीय यह हो गया है कि विरोध दिशाओं में खिंच रही
मानव की यह स्थिति कहीं उसका अंत ही न कर दे। यह
घटना असंभव घटना नहीं है। यह इसलिए कि यदि हम
भौतिकतल की उन्नति में ही लगे रहे और हमारा अंतस जैसा
अभी है वैसा ही रहा तो यह सारी भौतिक समृद्धि नष्ट हो
सकती है। भीतर रुग्णता हो और बाहर स्वस्थ दिखाई पड़े
तो किसी भी क्षण दुर्घटना घटित हो सकती है। जिस
हृदयरोग का आजकल बाहुल्य हो गया है उसमें बाहिरी
स्वस्थता ही दीख पड़ती है, परंतु बाहर की स्वास्थ्य अच्छा
दिखते हुए भी यह ऐसा रोग है जो क्षण भर में सारी
स्वस्थता समाप्त कर व्यक्ति का नाश कर देती है। बाहर
संपदा दिखाई पड़े और भीतर पास में कुछ न हो तो
दिवालियापन कभी भी प्रकट हो सकता है। बाहर विकास
हो और भीतर हृास तो भविष्य के संबंध में आशावान नहीं
हुआ जा सकता। बाह्य और अंतस का तनाव से बड़ा और
कोई तनाव संभव नहीं है। इससे बड़ी न तो कोई अशांति हो
सकती है और न कोई आत्मवंचना। हम कब तक अपने को
धोखा देते जाएंगे। हर धोखे का भी टूट जाने का समय
आता है और भौतिक समृद्धि के रहते हुए अंतस की इस
शून्यता के कारण जिस एक धोखे में हम रह रहे हैं उस
धोखे के टूटने का समय निकट आ रहा है¬अंतस की यह
स्थिति ही भौतिक समृद्धि के बढ़ते रहने पर चारों और
अनैतिकता और अमानवीयता बढ़ा रही है। जिसे सच्ची
धार्मिकता कहते हैं वह नष्ट हो गई है। इस स्थिति में
प्रतिक्षण पैदा हो रहे छोटे-बड़े दुष्परिणाम क्या हमें सजग
कर देने को यथेष्ट नहीं है? क्या संपत्ति और समृद्धि के
बीच भी तीव्र संताप की मनःस्थिति और चिंता की ज्वालाओं
का ताप हमें जगा देने को पर्याप्त नहीं है? व्यक्ति के तल
पर ही नहीं, समाज और राष्टरें के तल पर भी फैला हुआ
विद्वेष, घृणा और हिंसा और आए दिन विस्फोट होते हुए
घातक युद्ध भी क्या हमारी निद्रा को नहीं तोड़ सकेंगे?
विगत आधी सदी में दो महायुद्धों में कोई दस करोड़
लोगों की हत्या हुई। जहां-जहां युद्ध भी विभीषिका फैली
थी वहां-वहां युद्ध के पश्चात जीवित जनसमुदाय ने
अगणित कष्ट पाए। इतनी बड़ी हिंसा और दुर्दशा का जन्म
निश्चित ही हमसे ही हुआ है। हम ही इसके लिए उत्तरदायी
हैं। हम जैसे हैं उसमें ही उसके बीज मौजूद हैं। ये युद्ध
केवल राजनैतिक या आर्थिक स्थिति के ही परिणाम नहीं
थे। मूलतः और अंततः तो सब कुछ मानव के मन से
संबंधित होता है। ऊपर से इस प्रकार की घटनाएं चाहे
राजनैतिक दिखें अथवा आर्थिक किंतु गहरे में तो सभी कुछ
मानसिक रहता है। समाज में ऐसी कोई स्थिति नहीं है
जिसके मूल कारण व्यक्ति के मन में न खोजे जा सकें,
क्योंकि समाज व्यक्तियों के जोड़ के अतिरिक्त और क्या
है? जो चिनगारियां व्यक्तियों के मन में अत्यंत छोटे रूप में
दिखाई पड़ती है वे ही तो समूह की सामूहिकता में बिकराल
अग्निकांड बन जाती है।
व्यक्ति की आत्मा में ही यथार्थ में समूह का सारा
स्वास्थ्य या रुग्णता छिपी रहती। आत्मविपन्न व्यक्ति स्वस्थ
समाज के निर्माता नहीं हो सकते। दुखी, संतापग्रस्त
ईकाइयां किसी भी भांति आनंदपूर्ण और शांतिचित्त समाज
की घटक कैसे हो सकती हैं? ऐसा कोई भी चमत्कार संभव
नहीं है जो तत्त्व में किसी भी अंश-रूप से इकाई में
उपस्थित न हो और वह पूर्ण जोड़ में आ जाए। जो समूह में
और जोड़ में दिखाई पड़ता हो, मानना होगा कि वह अपने
अंशों में अति-सूक्ष्म रूप से अवश्य ही मौजूद रहता है।
इसलिए ऊपर दूसरे शब्दों में केवल उथला देखकर
मानवीय जीवन की किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो
सकता। उथले में समूह ही पकड़ में आता है, गहरे जाने पर
व्यक्ति उपलब्ध होता है। जहां समस्या का जन्म है, वहीं
समाधान भी खोजना होगा तभी वह समाधान और
वास्तविक समाधान होगा। अन्यथा जिसे हम समाधान
मानते हैं वह और अन्य नवीन समस्याएं खड़ी कर देता है।
जैसे युद्ध को मिटाने के लिए या शांति पाने के लिए उथली
दृष्टि युद्ध का ही समाधान प्रस्तुत करती है। आज तक
जितने युद्ध लड़े गए वे अन्याय का निराकरण करने और
न्याय की स्थापना करने के उद्देश्य से ही लड़े गए। यह सदा
कहा गया। परंतु जिसे अन्याय कहा जाता था, न युद्ध से
उस अन्याय का निराकरण हुआ और जिसे न्याय कहा जाता
था, न उस न्याय की ही स्थापना। इस प्रकार भ्रांत तर्क के
आधार पर हजारों वर्षों से मनुष्य लड़ता रहा है लेकिन
कोई भी युद्ध न अन्याय का निराकरण कर सका और न
न्यास की स्थापना। फिर शांति तो वह स्थापित कर ही कैसे
सकता था? जो युद्ध शांति का विरोधी है, उससे शांति की
स्थापना! अनेक युद्धों को तो धर्मयुद्ध तक कहा गया है।
कोई युद्ध भी धर्म युद्ध हो सकता है? युद्ध शांति का जनक
न होकर नए युद्धों का ही जन्मदाता होता है और नया युद्ध
ये भीषणतर होता जाता है। पश्चिम में जहां सर्वप्रथम
सयता का विकास हुआ उस यूनान के ऐथेन्स और स्पार्टा
के युद्धों में वीरगति प्राप्त करनेवालों की संख्या कितनी और
उस युद्ध के आयुघ कैसे थे? पूर्व में भारतीय महाभारत युद्ध
में भी कितना नरसंहार हुआ था और उसमें भी किस प्रकार
के अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग किया गया था? इस शताब्दी
के गत दो विश्वयुद्धों के नरसंहार और आयुधों का इन
प्राचीन युद्धों से मिलान किया जाए। और अब तो अणुबम
और उदजन बम तक हम पहुंच गए हैं। यदि तीसरा
विश्वव्यापी युद्ध हुआ और युद्ध में इन आयुधों का उपयोग
किया गया तो विश्व की मानवता की क्या स्थिति रहेगी इस
संबंध में बड़े से बड़ा भविष्यवक्ता भी कोई ठीक
भविष्यवाणी करने में असमर्थ है। ऐसी ही जीवन की अन्य
समस्याओं के भी हमारे समाधान है। अपराध को मिटाना है
तो दंड और फांसी है, किंतु हजारों वर्षों तक दंड देने पर भी
अपराध मिटा नहीं, वह बढ़ता गया और अभी भी बढ़ रहा
है। इतने पर भी हमारा आंखें नहीं खुलतीं और हम सतह पर
ही इलाज किए चले जाते हैं जबकि बीमारी गहरी है और
भीतर है। शोषण मिटाने के लिए हिंसात्मक क्रांतियां हुई।
जबकि शोषण भी हिंसा ही है तो वह हिंसा से कैसे मिटाया
जा सकेगा? हिंसा से जो क्रांतियां हुई उनसे क्या कहीं भी
शोषण मिट पाता है? इस प्रकार की क्रांतियों का परिणाम
यह होता है कि शोषक तो बदल जाते हैं किंतु शोषण बना
रहता है।
व्यक्ति के अंतस्तल के परिवर्तन के बिना कोई परिवर्तन
वास्तविक परिवर्तन नहीं हो सकता। व्यक्ति के हृदय में
समृद्धि आनी चाहिए। वहां की दरिद्रता, दीनता और रिक्तता
मिटनी चाहिए। वहां दुःख, चिंता और संताप का अंत होना
चाहिए। जब तक उस गहराई में आलोक, प्रेम और आनंद
का आविर्भाव न होगा तब तक जीवन को शांत और सुखी
बनाने के सब उपाय व्यर्थ होगा। क्या केवल भौतिकतल
की समृद्धि यह कर सकती है? केवल बाह्य समृद्धि और
बाह्य विकास उस अवस्था को देने में असमर्थ है। मनुष्य
की आंतरिकता भी विकसित होनी चाहिए। चीजों को बढ़ता
जाना ही पर्याप्त नहीं है, हृदय भी बढ़ना चाहिए। वस्तुओं
की पारिमाणिकता ही नहीं, मनुष्य की गुणात्मिकता भी
बढ़नी चाहिए। मनुष्यता की वृद्धि जितनी अधिक होगी
उतनी ही अधिक समस्याएं कम हो जाएंगी क्योंकि हमारी
अधिकांश समस्याएं हमारे भीतर जो पाशविकता है उससे
ही उत्पन्न होती है। आज हम इस पाशविकता की
अभिव्यक्ति के लिए ही अधिकतर नए-नए उपाय खोजते हैं
फिर चाहे वे राष्टरें के नाम पर हों, चाहे सिद्धांतों के नाम
पर, चाहे वादों के नाम पर। अच्छे-अच्छे शब्दों की आड़
में हम अपने बुरे से बुरे रूप को प्रकट करते रहते हैं। शब्द
तो बहाने हैं। उन्हें कोई समस्याएं न समझे। जो उन्हें ही
समस्याएं समझ लेता है वह समाधान तक कभी नहीं पहुंच
सकेगा। समस्या शब्दों की नहीं, चित्त की है। प्रश्न युद्ध
का नहीं, युद्ध करनेवाले मन का है। वह मन जो संघर्ष,
विप्लव, युद्ध करना चाहता है वह एक बहाना न मिलने पर
दूसरा बहाना खोज लेगा। इसलिए हम बहाने को बदलते
जाते हैं परंतु अशांति बनी रहती है। जो चित्त इसाईयत और
इस्लाम के नाम पर या हिंदू और बौद्ध के नाम पर लड़ता
था, वही चित्त साम्यवाद और जनतंत्र के नाम पर लड़ रहा
है। लेकिन लड़ाई वहीं की वहीं है। इस स्थिति को बदलना
हो तो चित्त को बदलना आवश्यक है।
सृष्टि में कोई भी वस्तु पूर्णतया पूर्ण और निर्दोष तो नहीं
हो सकती परंतु मानव हर वस्तु का निर्दोष बनाने का यत्न
अवश्य करता है। चूंकि वह स्वयं पूर्ण नहीं है इसलिए
उसके समस्त कार्य अपूर्ण ही रहते हैं। हजारों वर्षों के मानव
इतिहास में कभी भी शिक्षा की कोई पद्धति तो अत्यंत
शोचनीय और चिंतनीय हो गई है। सारे संसार में कोई भी
उससे संतुष्ट नहीं है। इसका प्रधान कारण यह है कि
वर्तमान शिक्षापद्धति के माध्यम से मनुष्य का जानकारियां
(इनफारमेशन) तो मिल जाती है लेकिन सच्चे ज्ञान की
उपलब्धि उसे नहीं होती। यह ज्ञान उपलब्ध न होने से स्वयं
मानव का निर्माण यह शिक्षा नहीं कर पाती। तथ्यों की
जानकारी से मनुष्य का मस्तिष्क तो भर जाता है, परंतु
उसकी अंतरात्मा खाली की खाली बनी रहती है। न तो
उसके अंतःकरण का जागरण होता है, न उसके हृदय में
शुभ भावना का अवतरण। इसे यों भी कह सकते हैं कि
यह शिक्षा उस आहार की भांति है जिससे भूख तो मिट
जाती है, तृप्ति नहीं होती और न ही नया रक्त अथवा अन्य
धातुओं की शरीर में अभिवृद्धि ही होती है। यही कारण है
कि वर्तमान शिक्षा हमारे चरित्र को स्पर्श भी नहीं कर पाती
और इससे मनुष्य के व्यक्तित्व को गढ़ने का कोई उपाय
प्रतिपादित नहीं होता। यह कितना आश्चर्यजनक और
अभाग्यपूर्ण है कि शिक्षा-प्रशिक्षण द्वारा पशु को मानव
बनाने का उपक्रम तो किया जाता है पर मानव को मानव
बनाने का नहीं। या इसे यों कहें कि पशु की पशुता दूर
करने के प्रयत्न तो किए जा रहे हैं, जबकि मनुष्य में
अंतर्निहित पाशविकता को उलटा बढ़ाया जा रहा है। यही
नहीं, उसे मानव से कुछ और बनाने के सभी प्रयत्न
आधुनिक शिक्षा में किए जा रहे हैं।
मानव को मानव बनाए रखना है अथवा कुछ और बना
देना है, यही आधुनिक शिक्षा की समस्या है, जिस पर ही
बुद्धिवादी, विवेकशील व्यक्ति और संसार का हर वर्ग
चिंतित है।
मनुष्य को छोड़कर अन्य किसी जीवन को शिक्षित नहीं
किया जा सकता, क्योंकि निसर्ग ने जो ज्ञान शक्ति मनुष्य
को दी है वह अन्य किसी प्राणी को नहीं। अन्य जीवों को
केवल प्रशिक्षण (टेनिंग) दिया जा सकता है जैसे सर्कस
के सिंह, हाथी, घोड़ा, बंदर, बकरे और तोता-मैना आदि
को। शिक्षण और प्रशिक्षण के इस बुनियादी भेद को समझना
बहुत आवश्यक है।
शिक्षा का सूत्र और उसके स्रोत, अंतस में है। वह एक
संस्कार है जो बीज रूप से अंकुरित हो वृक्ष बनता है और
उसमें पुष्प एवम् फल फलते हैं, जबकि प्रशिक्षण मात्र
अयास है। वह है उस पौधे की भांति, जो पुष्ट और फलों
से रहित रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए सजावट के कसी
स्थल पर क्षणिक महत्व के लिए रोपा जाता है, जिसे
आर्टिफिसियल कह सकते हैं। याने शिक्षा एक प्राकृतिक
संस्कार है और प्रशिक्षा एक कृत्रिम वस्तु-मात्र। पहले का
संबंध अंतस से है, दूसरे का बाहर से, पहला प्राकृतिक है,
दूसरा कृत्रिम! एक विकासशील प्राण-तत्व है तो दूसरा
निर्जीव पदार्थवत। इस प्रकार प्रशिक्षण ऊपर से जबर्दस्ती
थोपा हुआ ढांचा है। शिक्षा ऊपर से नहीं थोपी जाती वरन
अंतस को जगाकर दी जाती है। पानी के हौज में जिस प्रकार
पानी ऊपर से भरा जाता है उसी प्रकार प्रशिक्षण शिक्षा रूपी
कुएं में भरे हुए पानी की भांति है जो भीतरी छेदों से भरता
है। अंग्रेजी शब्द ‘एजुकेशन’ का अर्थ बड़ा महत्वपूर्ण है।
उसका अर्थ है भीतर से बाहर निकालना, उसका अर्थ बाहर
से भीतर डालना नहीं है। पर हम जो कुछ कर रहे हैं वह
बाहर से भीतर डालना है। इसे शिक्षा कैसे कहा जा सकता
हैं? यह मात्र प्रशिक्षण है और यही कारण है कि जिसे हम
शिक्षित होना कहते हैं, और जिसे हमारे विश्वविद्यालय
सम्मानित करते हैं, वह जीवन की व्यापक और बृह˜
परीक्षा में असफल हो जाता है। ऐसा शिक्षित जन केवल
रटा हुआ तोता होता है, उसमें स्वयं विचार की न तो कोई
ऊर्जा होती है और न अपने जीवन को निर्देशित करने का
कोई विवेक। वह पानी की लहरों पर बहते हुए लकड़ी के
उस टुकड़े की भांति होता है जिसे लहरें जहां ले जाती हैं
चला जाता हैं।
प्रशिक्षण का शिक्षण के रूप में इस भांति प्रचलित होना
तकनीकी शिक्षा के अति प्रभाव के कारण हुआ है क्योंकि
तकनीकी का प्रशिक्षण ही हो सकता है, शिक्षण नहीं। सारा
संसार चूंकि भौतिक समृद्धि के लिए लालायित है, और
हमारा देश तो गरीबी के कारण और घी अधिक, इसलिए
तकनीकी ज्ञान को ही प्रमुखता मिली है। मैं तकनीकी ज्ञान
की और उसके द्वारा होनेवाली भौतिक समृद्धि के विरुद्ध
नहीं हूं। संसार के लिए और हमारे लिए वह भी आवश्यक
है। किंतु इससे जो हमारा अनिष्ट हो रहा है, उसकी
दिनों-दिन बढ़ती हुई संभावना से हमारे बुनियादी जीवन का
जो आधार खोखला हो रहा है, उससे अब हम अधिक
समय तक अपने आंखें मूंद कर नहीं रह सकते। अपनी
अयोग्यता को छिपाकर केवल अयास के बल पर हम
आखिर कहां तक आगे बढ़ सकेंगे? सच्ची शिक्षा के
अभाव में यह प्रशिक्षण हमारे जीवन को दरिद्र और एकांगी
बना रहा है। इसी के साथ इसके कुछ भयावह नतीजे भी
निकल रहे हैं। तकनीकी ज्ञान भौतिक जगत-नियंत्रण के
लिए आवश्यक है। परंतु जिसे मैं सच्ची शिक्षा कहता हूं,
उसके द्वारा शिक्षित न होने के कारण मनुष्य अपने पर
नियंत्रण नहीं कर पा रहा है। स्वयं पर इस अनियंत्रण के
कारण उसका पदार्थ-ज्ञान एवं भौतिक वस्तुओं को
आधिपत्य वैसा ही है जैसा अबोध बच्चे के हाथ में तलवार
देना। पिछले दो महायुद्ध इसके प्रमाण हैं और हम आज भी
उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। हमें इन महायुद्धों से चेतावनी
नहीं मिली। यदि हम सचेत नहीं होते हैं तो अनियंत्रित
मनुष्य के हाथ में प्रकृति की नियंत्रित शक्तियां आत्मघाती
सिद्ध होंगी। इसकी चरम परिणति समस्त मानवता के अंत
करने में हो सकती है। अतः भौतिक वस्तुओं पर नियंत्रण के
पूर्व मनुष्य का उससे कहीं अधिक स्वयं पर नियंत्रण होना
आवश्यक है। क्योंकि शक्ति केवल संयमी के हाथों में ही
सुरक्षित रहती है। असंयमी, अविवेकी के शक्तिशाली होने
से भस्मासुर की पुनरावृत्ति अवश्यंभावी है।
इस जगत में मनुष्य के लिए मनुष्य से अधिक
महत्वपूर्ण और कुछ भी नहीं है। वह प्रथम है और जो शिक्षा
मनुष्य के सृजन की शिक्षा न होकर उसके संहार का कारण
बनती है उसे शिक्षा कैसे कहा जा सकता है? शिक्षा का
अर्थ है सदिच्छा, सदभाव का प्रसार करना। एक ऐसे ज्ञान
का विस्तार शिक्षा-तत्व में निहित है जो व्यष्टि के माध्यम
से समष्टि के कल्याण का केंद्र बने। तकनीकी ज्ञान शिक्षा
का प्रधान अंग कभी नहीं होना चाहिए, वह गौण रहना
चाहिए। मानवीय मूल्यों की स्थापना ही शिक्षा का केंद्रीय
तत्व है। तकनीकी ज्ञान से उपार्जित वस्तुएं जीवन यापन का
साधन हो सकती हैं, साध्य नहीं, साध्य तो मनुष्य स्वयं है।
इस साध्य की प्राप्ति के लिए ही शिक्षा उसका एक शस्त्र है,
एक साधन है। वर्तमान शिक्षा-पद्धति में हुआ यह है कि जो
साध्य है वह साधन बन गया है और जो साधन है वह
साध्य। इस प्रकार साधन को साध्य के ऊपर रखना घातक
सिद्ध हुआ है। भौतिक शिक्षा में साधन साध्य बन जाते हैं
और आध्यात्मिक शिक्षा में साधन साधन रहते हैं और
साध्य साध्य। यदि आवश्यकता पड़े एवं कोई अन्य विकल्प
शेष न रहे तो सच्ची शिक्षा साधनों का परित्याग कर सकती
है, लेकिन साध्य का नहीं। उसकी दृष्टि में वे हर साधन
सम्यक है जो जीवन के चरम साध्य की उपलब्धि में
सहयोगी है। उसके विपरीत पड़ते ही वे व्यर्थ और त्याज्य
हो जाते हैं।
मानव की सम्यक शिक्षा मूलतः उसके विवेक और
उसकी भावनाओं की शिक्षा होगी। विवेक जाग्रत और
शक्तिशाली हो तथा भावनाएं संयमित और शुभ। विवेक
के जाग्रत होते ही वासनाएं अनिवार्यतः उसकी अनुगामी हो
जाती हैं। फिर श्रेय ही प्रेम हो जाता है। ऐसा जीवन ही
         यज्ञपूर्ण है। शिक्षा का लक्ष्य ऐसा ही जीवन है।

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