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गुरुवार, 30 अगस्त 2018

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-09)

नौवां-प्रवचन-(ओशो)

चरित्रहीनता के कारण ही गुलामी आई

साधारणतः हम ऐसा ही सोचते हैं कि गुलामी के कारण हमारा चरित्र नष्ट हो गया है। गुलामी के कारण हमारा व्यक्तित्व नष्ट हुआ लेकिन...
प्रश्नः अभी जरा कठिनाई है कि गुलामी आई तभी से चरित्रहीन रहे,...?
इसको, इसको मैं कहना चाहता हूं। इसको ही मैं कहना चाहता हूं। चरित्रहीनता जो है, वह गुलामी के कारण नहीं आई, बल्कि चरित्रहीनता के कारण ही गुलामी आई। और चरित्रहीन हम बने ऐसा कहना मुश्किल है, चरित्रहीन हम थे। बनने का तो मतलब यह होता है कि हम चरित्रवान थे। फिर हम चरित्रहीन बने। तो हमें कारण खोजने पडे. कि हम चरित्रवान कैसे थे? कब थे? और कैसे हम चरित्रहीन बने। मुझे नहीं दिखाई पड़ता कि हम कभी चरित्रवान थे। हमारी चरित्रहीनता बड़ी पुरानी है।
और चरित्रहीनता का जो बुनियादी कारण है, वह हमारी संस्कृति में सदा से मौजूद है। उसकी वजह से गुरूवाणी का आनंद बिल्कुल स्वाभाविक था। और आज भी आ जाना बिल्कुल स्वाभाविक है। और अगर हम जो भी इंतजाम करेंगे चरित्रवान बनने के वे सफल होने वाले नहीं हैं। वे सफल इसलिए नहीं होंगे कि हम फिर वही इंतजाम करेंगे, जो हमने सदा से किया था। जैसे, एक तो चरित्र से हम जो मतलब लेते रहे इस देश में, वो मतलब भी बड़ा भ्र्रांत है।


हमने चरित्र से एक ऐसा मतलब लिया है सदा से, हम उस व्यक्ति को पूरा चरित्रवान कहते रहे, जो जीवन में दर्शक की भांति खड़ा हो जाए। हमारी जो चरित्र की व्याख्या थी, सदा से, वह यह थी कि श्रेष्ठतम तो आदमी वह है जो जीवन में दर्शक की भांति खड़ा हो जाए। जो जीवन में, जीवन के कर्म में कमिटिड न हो। जो बाहर खड़ा हो जाए जीवन की सारी व्यवस्था से। तो हमने जिन लोगों को अपने देश में सर्वाधिक आदर दिया है, वह वे लोग थे, जो एक अर्थ में जीवन को छोड़कर जीवन से बाहर खड़े हो गए। तो जो कौम जीवन के बाहर हो जाने को चरित्र की श्रेष्ठतम ऊंचाई पर होनी चाहिए थी, उस कौम ने जीवन के भीतर जो लोग हैं उनका चरित्र गिरना शुरू हो जाएगा। जो कौम धर्म को, शील को, ज्ञान को जीवन का छोड़ना बना देगी, त्यागवादी बना देगी, उस कौम के बहुजन जीवन में, चरित्र विलीन हो जाएगा। क्योंकि हमारे मन में कहीं एक बात साफ हो गई, कि जीवित होना ही चरित्रहीनता है। और किसी गहरे पापों का फल है। अगर एक आदमी जन्मा है, तो वह किन्हीं पापों का फल भोग रहा है। और जो आदमी पापों के बाहर हो जाएगा वह, साथ ही जीवन के भी बाहर हो जाता है। उसका आवागमन बंद हो जाता है।
तो जीवन और पाप, पर्यायवाची हैं हमारे मन में, और जिसके मन में जीवन और पाप पर्यायवाची हो, तो जीवन के भीतर, तो चरित्रवान और पुंयवान होने का उपाय न रहा। जीवन से भाग कर और पलायन में ही उपाय है। तो भारत का समाज हजारों साल से पलायनवादी और एस्केपिस्ट है। और इस वजह से, इस वजह से हम जीवन के भीतर चरित्र की जरूरत है, वहां चरित्र पैदा नहीं कर पाए हैं। भगौड़ा चरित्र पैदा किया है। यह चरित्र काम का नहीं था। ज्यादा से ज्यादा पूजा के योग्य हो सकता था। यह चिरत्र मंदिर में बैठाने योग्य हो सकता था। न यह युद्ध के मैदान पर किसी काम का था, न बाजार के मैदान पर किसी काम का था, न जीवन के संबंध में किसी काम का था। तो हम एक जीवंत चरित्र पैदा ही नहीं कर पाए कभी। इसलिए ऐसा कहना उचित नहीं है कि चरित्र हमने कभी भी खोया, ऐसा ही कहना ज्यादा उचित है हमने जो संस्कृति विकसित की, उसमें चरित्र आ ही नहीं सका। और अगर हम इसे ऐसा देख सकें, तो हमें फिर पूरा का पूरा पुनर्विचार करना पड़ेगा। और पुनर्विचार करें तो ही हम मूल स्रोत को पा सकें। पृथ्वी के जीवन को हम स्वीकार नहीं किये हैं। इसलिए पृथ्वी के जीवन में भी हम स्वीकृत नहीं हो सके। और हमने पृथ्वी को धन्यभाग से अंगीकार नहीं किया, इसलिए पृथ्वी भी हमें धन्यभाग से अंगीकार नहीं कर सकी। हम उखड़े हुए लोग हैं, जिनकी जड़ें नहीं हैं।
तो एक तो यह ख्याल में लेना जरूरी है कि भारत में अगर कभी भी हम चरित्र पैदा करना चाहें, तो हमें एक तरह का पुनर्वास करना पड़ेगा। हमें फिर से यह पृथ्वी जीने योग्य और यह जीवन आनंद योग्य और इस जीवन को भोगना रस, और इस जीवन के भीतर पुण्य और चरित्र की संभावना को स्वीकार करना पड़ेगा। और हमें तब इसके आस-पास की पूरी माइक्रोलाॅजी, इसके आस-पास का पूरा दर्शन, इसके आस-पास की पूरी दृष्टि को नया करना पड़ेगा। जो सभ्यता भी परलोकवादी होंगी, उनका चरित्र पीला हो जाएगा। रक्तहीन हो जाएगा। असल में रक्तहीनता ही चरित्र हो जाएगी। और जहां भी रक्त दिखाई पड़ेगा, वहां खतरा दिखाई पड़ेगा। क्योंकि जहां भी रक्त वहां जीवन के हजार स्पंदन शुरू हो जाएंगे। हम सबसे घबड़ाएंगे। अब हमारी कठिनाई क्या है, हमारी कठिनाई यह है कि हमने रक्तहीन चरित्र पाया। रक्तहीन चरित्र कैसा होगा? सैक्स के भीतर तो चरित्र का उपाय नहीं क्योंकि सैक्स तो चरित्रहीनता है, तो सैक्स से भागा हुआ कर्मचारी भर चरित्रवान होगा, वह रक्तहीन होने वाला है। जबकि जीवन है सैक्स के भीतर और सैक्स के भीतर का एक चरित्र का कोड चाहिए, वह विकसित नहीं होता है, उसके विकसित होने का उपाय नहीं रह जाएगा। उसे तो विकसित हम तब करते हैं, जब हम स्वीकार कर लेते हैं कि यह रहा जीवन। इस घर के भीतर जहां मुझे जीना है, यहां की नैतिकता मैं विकसित नहीं करूंगा, क्योंकि मैं मानता हूं इस घर के भीतर होना ही अनैतिक है। तो इस घर के भीतर तो नैतिकता हो नहीं सकती, मैं इस घर के बाहर हो जाऊं तो नैतिक हो जाऊंगा। यह भारत का जो पुरातन, भागता हुआ मन है, इसको जड़ें देने की जरूरत है। और इस जीवन को जो हमें मिला है, पृथ्वी का शरीर कहा, इसको किसी परलोक के जीवन के लिए समर्पित करने की जरूरत नहीं। अगर परलोक का कोई जीवन है, तो इसके आनंद, और उसके पुंय और उसके चरित्र से ही विकसित होना चाहिए। उसके भागने से नहीं।
तो एक तो, जब भी मैं ऐसा ख्याल में लाता हूं कि चरित्र हमने कभी खोया तो मुझे बड़ी कठिनाई हो जाती है। मेरे सामने सवाल उठता है कि वो कब था? यानि मुझे कभी दिखाई नहीं पड़ता। वह पूरे ज्ञात इतिहास में कभी दिखाई नहीं पड़ा। दिखाई पड़ने की हम कुछ भ्रांतियों में पड़ जाते हैं, वह इसीलिए पड़ जाते हैं कि कुछ चरित्रवान लोग हमें दिखाई पड़ते हैं। तो कुछ चरित्रवान लोग सदा हुए, वह आज भी हैं। लेकिन कुछ चरित्रवान लोगों से समाज नहीं बनता। समाज का चरित्र चाहिए।
दूसरी बात जो मेरे ख्याल में आती है, वह यह है कि हमने एक चरित्र की और भी व्यवस्था की है, जो व्यक्तिवाची है। समुदाय का कोई चरित्र नहीं है। और एक-एक व्यक्ति के चरित्रवान होने के लिए हमारा आग्रह है। अगर वह चरित्रवान होता है तो उसको स्वर्ग मिलता है, और चरित्रहीन होता है तो नर्क मिलता है। लेकिन सामूहिक चरित्र भी कोई चीज है, उसकी हमारी धारणा नहीं है। मेरी समझ ऐसी है, चरित्र होता ही सामूहिक है। व्यक्तिगत चरित्र बेमानी बात हैं। अगर जीवन में मैं अकेला हूं तो झूठ और सच बोलने का कोई भी मतलब नहीं। ब्रह्मचारी, गैर-ब्रह्मचारी रहने का भी कोई मतलब नहीं। नैतिकता-अनैतिकता का भी कोई मतलब नहीं। सारा चरित्र वहीं शुरू होता है, जहां से दूसरा मुझे छूता है। तो जिस देश का चरित्र व्यक्तिवाची रहा हो, उस देश में सच्चे और बुरे चरित्र पैदा नहीं होंगे। क्योंकि चरित्र है ही वहां, जहां से दूसरा आता है मेरे जीवन में। वहीं से पता चला शुरू पड़ता है कि मैं क्या हूं? मेरे अंतरसंबंधों में ही, मेरी इंटररिलेशनशिप में ही मैं प्रकट होता हूं , मेरी कसौटियां वहीं हैं। हमने, हमने आत्मीयता को चरित्र कहा, दूसरों से छूट जाने को, हट जाने को, अलग हो जाने को, संबंध तोड़ देने को। एक बेटा मां के अलावा, बेटे का चरित्र पूरा कर ही नहीं सकता। और एक पत्नी के बिना पति का चरित्र पूरा नहीं करता। हमारी सारी चरित्रवानता, हमारे संबंधों की बात है। और हमने भी चरित्र की भावना विकसित की है, वह व्यक्तिवाची है। स्वभावतः वह पीली और रक्तहीन होगी। और संबंधित होने के कारण इस पृथ्वी की। क्योंकि हमने कुछ व्यक्ति तो पैदा कर लिए, वह व्यक्ति ऐसे ही हैं जैसे नट रस्सी पर चलता है। जिंदगी तो रास्ते पर चलेगी, एक नट चल सकता है कि बम्बई की दो बिल्डिंगों के बीच में एक रस्सी बांधके चल ले। तो वह तीर्थंकर हो जाएगा। वह अवतार हो जाएगा। और सारी दुनिया तो रस्सियों पर नहीं चल सकती। रस्सियां चलने के लिए नहीं है, नाटक के लिए हो सकती हैं। एक आदमी चल लेगा, करोड़ आदमी तो उस मोटे रास्ते पर चलेंगे सीमित। उस रास्ते पर चलने का हमने कोई नियम नहीं बनाया। हमने नियम बनाएं हैं रस्सी पर चलने वाले। और इस रस्ते पर चलने वाले तो कंडेंड हैं ही, इन्हें इसके लिए नियम बनाने की कोई जरूरत नहीं है। जरूरत तो रस्सी पर चलने वाले नट के लिए है। तो कभी करोड़-दो करोड़ में एक आदमी तो नट बन जाता है, और महात्मा बन जाता है, और ध्यानी बन जाता है, वह चल जाता है उससे। हम सब जय, जयकार करके, ताली बजा कर अपने सीमित रोड पर चलने लगते हैं। उस रोड का कोई नियम नहीं है। उस रोड का कोई नियम नहीं है, उस रोड की कोई व्यवस्था नहीं है। व्यवस्था और नियम रस्सी वाले के लिए हैं।
तो दूसरी मेरी समझ है कि हमें समूहवाची चरित्र का, और एक ऐसे चरित्र का जो भागता न हो, रूकता हो, ठहरता हो, संबंधित होता हो। बल्कि संबंधित होना भी, चरित्रवान होने का एक लक्षण है। हम कितने बड़े पैमाने पे संबंधित होते हैं? यानि मेरी तो समझ है कि जितना चरित्रवान व्यक्ति है, उतना उसके संबंधों का अंतरजाल व्यापक होगा। जितना चरित्रहीन व्यक्ति उसके संबंधों का जाल उतना क्षुद्र और छोटा होगा। असल में जिनसे वह संबंधित भी होगा, चरित्रहीन होने के कारण, उसके और उसके संबंधों के बीच दीवाल होगी, संबंध नहीं हो सकता।
एक चोर का क्या संबंध हो सकता है? एक झूठ बोलने वाले का क्या संबंध हो सकता है? एक दगाबाज का क्या संबंध हो सकता है? एक जेबकतरे का क्या संबंध हो सकता है? असल में अनैतिकता जो है, वो असंबंध है। और हमारी जो नैतिकता है, वो भी असंबंध है। इन दोनों के बीच बड़ा एक समान तत्व है। तो दूसरी बात ये दिखाई पड़ती है कि हम चरित्र की समूहवाची दृष्टि पर विचार करें कि समूह में चरित्र का क्या अर्थ होता है? चूंकि व्यक्तिवादी चरित्र था, इसलिए घूम-फिर के हमारी सारी चरित्र की धारणा सैक्स के आस-पास रूक गई। आज अगर हम कहते हैं कि फलां आदमी चरित्रहीन है, तो ऐसा पता नहीं चलता कि वह समय पर ना आता होगा, ऐसा पता नहीं चलता कि वो किसी को धोखा देता होगा कि दूध में पानी मिलाता होगा। ऐसा पता चलता है कि उसके और किसी स्त्री के बीच में गलत संबंध होंगे। हमारे मुल्क के मन में चरित्र का कुल मतलब यह यौन हो गया। वह कहीं यौन से बंधकर रूक गया। इसलिए एक आदमी समय पर न आए, वह झूठ बोले, कालाबाजारी करे, वह जिंदगी भर आंख नीची करके गुजर जाए, किसी स्त्री की तरफ न देखे तो हमारे लिये चरित्र का है, चरित्रवान है। वह आखिरी माध्यम बन जाता है कि यह आदमी महान चरित्रवान है, क्योंकि स्त्री को नहीं देखता। हम इतने, अगर हम बहुत गौर से देखें तो हमारी सारी चरित्र की धारणाएं यौन केंद्रित हैं। और मजा यह है कि यौन जो है वह अत्यंत व्यक्तिगत बात है। वह बहुत सामूहिक बात नहीं है। ज्यादा से ज्यादा दो व्यक्तियों के बीच का संबंध है। लेकिन जब मैं झूठ बोलता हूं तो यह संबंध अनंतव्यापी है।
मेरे सैक्स का मामला, मेरे और किसी और व्यक्ति के बीच की बात है। यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, इसका कोई, व्यापक अर्थ नहीं है। यह बहुत ही प्राइवेट और निजी बात है। इस निजी बात को हमने इतना गौरव दिया है और जिसका अनंतव्यापी विस्तार होने वाला है, उस सबको हमने कोई मूल्य नहीं दिया। तो इधर मुझे लगता है, हिन्दुस्तान में चरित्र को ऊपर न उठा पाएंगे, जब तक कि उसे यौन से मुक्त नहीं करते। यानि मेरा मानना है कि यौन की धारणा चरित्र के किसी कोने की एक धारणा है। उसको पूरा चरित्र बना देना है। हिन्दुस्तान में यह तकली.फ हो गई है। हिन्दुस्तान में एक आदमी और कुछ भी कर रहा हो, हमें कोई विचार का कारण नहीं पैदा होता। इतना अगर पक्का हो जाए कि उसका किसी स्त्री के बीच कोई ऐसा संबंध नहीं है, जो समाज को मान्य नहीं है। चरित्र की धारणा, कैसे चरित्र को पैदा करे? यह नहीं हो सकता पैदा। यह जो चरित्र की धारणा है, यह साधु और संयासियों के लिए शायद सार्थक रही हो, साधारण जन के लिए, किसी अर्थ की नहीं है। साधारण जन के लिए हमें चरित्र की व्यापक धारणा खोज लेनी आवश्यक है।
दूसरी बात, जीवन में एक बार, अगर हमने पलायनवादी रूख ले लिया हो, तो हमारी समस्त नीति और समस्त चरित्र किसी गहरे अर्थों में उतार का और भागने का हो जाता है। और जीवन उनका है जो आक्रामक हैं। आक्रामक सामान्य अर्थ में नहीं, समस्त अर्थों में। जीवन उनका है जो आक्रामक हैं। और एक बार अगर हमने तय कर लिया हो कि आक्रमण नहीं तो सिकुड़ना शुरू हो जाता है। और जीवन की बड़ी तकलीफ यह है कि जहां विकल्प है विकल्प चुनने का, या तो आप आगे बढ़िये, या आप पीछे हटा दिये जाएंगे। बीच में खड़े होने की कोई जगह ही नहीं है। यानि कोई यह सोचता हो, हम आगे न बढ़ेंगे। तो हम वहां तो खड़े ही रहेंगे जहां हम खड़े हैं, जिंदगी में। जिंदगी ऐसे आदमी को वहां नहीं खड़ा रखती, वह उसे पीछे हटा देती है।
एडेंटल ने एक बात लिखी है, कि मनुष्य की भाषा में रेस्ट जो शब्द है, वह जीवन में उसका पर्याय कहीं भी नहीं है। रेस्ट शब्द बिल्कुल झूठा है। विश्राम में कोई भी चीज नहीं है। या तो आगे जा रही है, या पीछे जा रही है। ठहरी हुई कोई भी चीज नहीं है। खड़ी हुई कोई भी चीज नहीं है। या तो वृक्ष जवान हो रहा है, या बूढ़ा होने लगा है। या तो आप फैल रहे हैं या सिकुड़ने लगे हैं। या तो आप जी रहे हैं, या मरने लगे हैं। इन दोनों के बीच में ऐसी कोई जगह नहीं कि एक आदमी कहे कि मैं जी तो रहा हूं लेकिन आगे जीवन में नहीं बढ़ रहा हूं। मैं ठहर गया हूं। तो उसे पता नहीं उसने मरना शुरू कर दिया है। या तो आप पहाड़ पर चढ़ रहे हैं, या नीचे उतर रहे हैं। इस देश के साथ क्या कठिनाई हो गई है, कि जीवन की जो सारी सहज बातें हैं, वह सब हमने निंदित कर दी हैं। जैसे विस्तार, वह हमारे मन में निंदित हो गया। हमने अनेक नामों से उसकी निंदा की है, और संकोच को अनेक नामों से प्रशंसित किया। अब आदमी धन बढ़ा रहा है तो हमने उसकी निंदा की। हमने कहा कि वो निंदनीय है।
तो एक आदमी अगर शक्ति बढ़ा रहा है, एक आदमी अगर सौंदर्य बढ़ा रहा है, एक आदमी अगर योजनाएं बना रहा है विस्तार की, तो हमने सबकी निंदा कर दी। हमने उस आदमी की प्रशंसा की, जो सब तरफ से संकोच कर रहा है। सिकोड़ रहा है अपने को। तो हमारा चरित्र जो है, वह संकोचवान है, विस्तारवान नहीं है। और जीवन जो है, वह विस्तार को मानता है, वह संकोच को नहीं मानता। और जिस दिन हमने यह तय कर लिया हमें सिकुड़ना है, उस दिन हमारे पड़ोसियों ने स्वभावतः तय किया कि फैलने की जगह बढ़ गई है, हमको फैलना है। इसमें कोई कठिनाई नहीं थी। मैंने अपने घर को छोटा करना चाहा, पड़ोसी के घर ने, अपने घर को बड़ा करना चाहा। फिर हम गुलाम हुए, इस गुलामी का सारा जिम्मा पड़ोसी पर नहीं, हमारे संकोच की धारणा पर है। और हमारे सारे महात्मा आज भी, और अनंत काल से हमको संकोच सिखा रहे हैं। वे कह रहे हैं, सिकुड़ जाओ, उस दम तक सिकुड़ जाओ, जिसके आगे सिकुड़ने की जगह न रह जाए। तो अब हम जगह बना देते हैं, उस जगह में भर जाता है। हिन्दुस्तान में बुद्ध और महावीर के बाद भयंकर संकोच पैदा हुए। हिन्दुस्तान के मानस में, बुद्ध और महावीर के बाद इतना संकोच पैदा हुआ कि उस संकोच की वजह से हिन्दुस्तान ने सब तरह के आक्रमण आमंंित्रत किये।
मेरा मानना यह है कि हमारे सब आक्रमण जो हैं, आमंत्रित हैं। यानि मैं ऐसा कहता हूं कि हम आक्रमण करने नहीं जाते, अगर न करें तो हम बुलाते हैं। इन दो के बीच जगह नहीं है। या तो हम आक्रमण करने जाएंगे, या फिर हम किसी आक्रमण को बुलाएंगे। और बड़े म.जे की बात यह है कि जिसकी आप बात करते हैं, अनुशासन और डिसिप्लिन की, वह संकोचशील कौम में कभी नहीं होता। क्योंकि उसकी जरूरत नहीं होती। वो विस्तारर्थी जाति का लक्षण है, अनुशासन जो है। क्योंकि विस्तार्थ ही अनुशासन जरूरी है। बिन अनुशासन के विस्तार नहीं किया जा सकता। इसलिए बहुत बार ऐसा हो जाता है कि ज्यादा श्रेष्ठ संस्कृति कभी अपने से निकृष्ट संस्कृति के सामने झुक जाती है। अगर वह विस्तारवादी नहीं हो तो। और सदा ऐसा हुआ है। चंगेजी या तैमूर यह हिन्दुस्तान आए हैं, सब आक्रमण चाहे मुगल हो, और चाहे तुर्क हो, चाहे कोई भी हो। जो भी हिन्दुस्तान आए, हिन्दुस्तान की संस्कृति के मुकाबले वह सब पिछड़ी हुई कौमें थी। लेकिन एक मामले में हम मुश्किल में पड़ गए। वह आक्रामक थे और डिसिप्लिन थे। हम अनाक्रामक थे, अनाक्रामक को डिसिप्लिन की कोई जरूरत ही नहीं होती। जब हमें आपसे, मुझे आपसे लड़ने नहीं आना है, तो मैं दंड बैठक नहीं लगाता हूं। जब आप मुझ पर आक्रमण करते हैं, तब मैं लगाना शुरू करता हूं। वह वैसे ही है, जैसे जब आग लग जाए तब हम कुआं खोदने लगते हैं। कुआं जब तक खुदता है, तब तक मकान जल जाता है। लेकिन आग लगाने जो निकला है, वह बहुत पहले कुएं के इंतजाम रखता है। क्योंकि आप आग लगाने निकलेंगे तो आग से जलने का डर सदा ही है।
तो जिन कौमों ने हिंदुस्तान को लक्ष्य माना, कभी तो ऐसा हुआ कि जैसे कि तैमूर या चंगे.जी, एकदम अशिक्षित, एकदम बर्बर और जंगली साधन भी उनके पास बहुत नहीं थे, लेकिन फिर भी एक अदम्य अभीप्सा फैल जानी, तो उन्होंने वहां यूनान तक हिला दिया, इधर चीन के कोने तक हिला दिया। पूरा एशिया और पूरा यूरोप। थोड़े से टुकड़ों में, एक-एक ईंट गिरा दी। रोम से लेके और पेचिंग तक। सब, सबको हिला दिया एक दफा। और जो कि बड़े थे उनको। जिनके दिमाग की बड़ी लम्बी पुरानी कहानी है। और जिनको संदेह रह गया था कि हम कभी हिलाए जा सकते हैं, उनको बड़ी छोटी कौमों ने बड़ी खानाबदोश कौमों ने जिनके पास कोई बड़ी सामथ्र्य न थी लेकिन, एक सामथ्र्य विस्तार की अभीप्सा और विस्तार की अभीप्सा के पीछे, अनुशासन आता है। सिर्फ रक्षा की अभीप्सा से अनुशासन पैदा नहीं होता। यानि मेरी अपनी समझ यह है, कि आप सिर्फ अनुशासन का गुणगान करें, तो आप अनुशासन पैदा नहीं करवा सकते। अनुशासन का भी अपना अनुशासन है। अनुशासन का अपना मैथड है आने का। वह आता है तभी जब कोई विस्तारशील भावना काम करती हो। जब हम फैल जाना चाहते हों।
अब जैसे आज अमरीका में, या रूस में, संग्रह का एक अनुशासन पैदा होगा, जो उन दो मुल्कोें के सिवा कहीं भी पैदा नहीं होगा। क्योंकि उन्होंने अंतरिक्ष का विस्तार शुरू किया। अभी तक जो समय का अनुशासन था, वह घंटों में चल सकता था, मिनटों में चल सकता था। अब जो समय का अनुशासन है, वो क्षणों में और सैकंड के भी हजारों हिस्सों में चलाना होगा। क्योंकि अब अंतरिक्ष की जो यात्रा है, उसमें एक सेकेंड भूल-चूक हो जाने से, हमारा यात्री सदा के लिए खो जाएगा। तब अमेरिका एक ऐसी टाइम डिसिप्लिन को उपलब्ध हो जाएगा, जिसके लिए कल्पना ही नहीं हो सकती। असल में बैलगाड़ी में जो चल रहा है, उसके टाइम का अनुशासन अलग होगा। राॅकेट में जो चल रहा है, उसके टाइम का अनुशासन अलग होगा। बैलेगाड़ी में चलने वाली कौम से हम कहें कि तुम समय पर आ जाओ, तो हम पूर्ण बात गलत करते हैं। हम उससे कहें कि तुम ठीक सांझ छह बजे आ जाना, शार्प। इसका कोई मतलब नहीं होता। बैलगाड़ी में तीन होता है समय, सुबह, दोपहर, शाम। और ये छह-छह घंटे की होती है। इनका जो विस्तार है, एक आदमी कहता है हम सांझ आ जाएंगे सूरज ढलने पर। सूरज ढलने पर आ सकता है, सूरज ढलने के घंटेभर पहले आ सकता है, सूरज ढलने के चार घंटे बाद आ सकता है, अभी सांझ ही चलेगी। क्योंकि बैलगाड़ी भरोसे योग्य नहीं है। बैलगाड़ी का अपना समय है। पैदल चलने वाले आदमी के समय में मिनट और घंटे नहीं हो सकते, दिन होंगे। लेकिन अब जब हम अन्तरिक्ष की यात्रा पर निकलेंगे, तो सैकंड के हजारवें हिस्से पर एक्युरेसी चाहिए। अब चांद का विस्तार अमेरिका के मन में टाइम का जो बोध देगा, वह हमारे मन में नहीं हो सकता। लेकिन अमेरिकी सैनिक के मन में, अमेरिकी युवक के मन में, जैसे नई यात्रा पर अभियान पर निकला है, वह सारी दुनिया को पछाड़ देगा, समय के मामले में, उसके बराबर समय की, सच्चाई अब किसी में नहीं रह जाएगी। लेकिन यह आती है एक दूसरी व्यवस्था से, वह फैल रहा है। पृथ्वी को छोड़ कर बाहर जा रहा है, असल बात यह है, कि अब पृथ्वी आक्रमणों के लिए बहुत छोटी पड़ गई है। अब जो आक्रमणवान थे, अब उनके लिए पृथ्वी बहुत छोटी जगह है। अब इसका कोई मतलब नहींे। वह एक ग्लोबल विलेज से ज्यादा नहीं है। एक बड़ा गांव है, जो पूरी जमीन पर फैला हुआ है। अब जो बहुत आकांक्षी हैं, उनके लिए चांद-तारे और मंगल और दूर के तारों पर बस्तियां बसाने...
तो मेरी अपनी समझ यह है कि भारत को विस्तारवादी...अब यह शब्द बड़ा खराब मालूम पड़ता है। और हमारे हजारों साल की निंदा ने उसको, बड़ा गंदा कर दिया है। इसके मानस में विस्तार चाहिए, वो विस्तार बहुत आयामी होगा। धन का भी हो, यश का भी हो, ज्ञान का भी हो, यात्रा का भी हो, अभियान का भी, एडवेंचर का भी हो। वो समस्त दिशाओं में विस्तारवादी हो। तो भारत के युवक की जो पीड़ा है, वह पीड़ा यही है कि युवक होता है विस्तारवादी, और भारत का मन है संकोचवादी। तो भारत का मन है बूढ़े का, और इसलिए भारत के युवक के लिए, भारत के मन के साथ बड़ी बेचैनी हो गई है। वह लड़ाई  बाप से नहीं चल रही है भारत के नागरिक की, वह लड़ाई बुढ़ापे से चल रही है। वह लड़ाई संकोच से चल रही है। वह भी काॅन्शेस नहीं है, उसे भी बहुत साफ नहीं है कि जो हो रहा है, वह क्या हो रहा है। और हम अपने पुराने ही ढांचे में उसको बैठाने की कोशिश में लगे हैं। वह ढांचा उसके काम का नहीं साबित होगा, वह ढांचा तोड़ कर बाहर निकलेगा। लेकिन अगर हमने समझपूर्वक काम लिया, तब वह खुद भी बिना टूटे हुए ढांचे के बाहर हो सकेगा। नहीं तो ढांचा तोड़ने में खुद भी टूट जाएगा। तो एक तो मेरा ख्याल यह है कि भारत के मन में हमें अभीप्साएं जगाने की जरूरत है। कोई हमने ढाई-तीन हजार वर्ष से सपने नहीं देखे हैं। ड्रीम्स देखने हमने बंद कर दिये हैं। कोई बड़ा सपना नहीं देखा। सिवाय मरने के और मोक्ष जाने के, जो कि कोई सपना नहीं है। हमने तीन हजार वर्ष में ऐसा कोई सपना नहीं देखा, जिसको पूरा करने में लिए हमारी शक्तियों के लिए पुकार आए जिसको पूरा करने के लिए हमारा युवक डूबे। जिसको पूरा करने के लिए युवक की जवानी, रस ले। हमने कोई सपना नहीं देखा। हम सब न्यूनकोण हैं।
अगर हम पूरा अपने इतिहास को देखें तो हम बड़े हैरान होंगे, हम अकेली कौम हैं पृथ्वी पर, जिसके पास कोई बड़े उपयोग या बड़े सपने नहीं हैं। जरूरी नहीं है कि वह सपने पूरे होने वाले हों। सच तो यह है कि सपने ऐसे चाहिएं जो कभी पूरे होने वाले न हों, जो हमें रोज बुलाते रहें। और हम रोज बढ़ते रहे हों कभी पूरे भी न हों।
हमने जो सपना देखा है वह है सोसाइडल। हमारा सपना जो है वह मरने का है। और मरना भी एक साधारण मरने से तृप्त नहीं, हम कहते हैं, कि हमें इस भांति मरना है कि फिर हम जन्म न सकें। फिर हम असल में एब्सोल्यूट डैथ के आकांक्षी हैं। हम साधारण मृत्यु से हम राजी नहीं हैं। या तो पृथ्वी पर ही मरते हों, तो वह साधारण मृत्यु से राजी नहीं कि फिर कहीं जन्म न लें। उनकी आकांक्षा यह है कि मरें तो ऐसे मरें कि फिर जन्म ही न सकें।
तो हम एकदम जन्म विरोधी, जीवन विरोधी हैं। आत्मघाती हमारी चित्त है। निश्चित ही हमें कुछ आत्मघाती लोगों ने प्रभावित किया है। कुछ सुसाइडल माइंड हमारी छाती पर सवार हो गए हैं। और उन्होंने हमारा पूरा का पूरा देश का मानस एक दिशा में मोड़ दिया है। और सच यह है कि देश के पास बहुत मानस नहीं होता। दस-पांच लोग उसे मोड़ते और चलाते हैं। अगर कहीं हमारे ऊपर ऐसे लोग हावी हो जाएं, जो आत्मघाती हैं, और मरने की आकांक्षा रखते हों, तो वह हम सबको मरने की दिशा में मोड़ देंगे।
तो हमें इस देश में अब ऐसे व्यक्ति चाहिए, बहुत ज्यादा नहीं, थोड़े से ही सही, जो जीवन के आकांक्षी हों। जिनके जीवन की आकंाक्षा प्रबल और अदम्य हो। और जो यह कहने का इंकार करते हों, कि हम मरने वाला मोक्ष नहीं चाहते, हम ऐसा मोक्ष चाहते हैं जो परम जीवन हो। हम जन्मों से नहीं डरते। हम ऐसा जन्म चाहते हैं जिसके बाद मौत ही न हो। अगर हम यह जीवन का अभियान की कल्पना और  यह सपना भारत को दे सकें, तो हमारे भीतर की सब अवरूद्ध शक्तियां आज जग सकती हैं। वह मर नहीं जाती, सिर्फ अवरूद्ध होती हैं। और कई बार ऐसा होता है कि अगर भीतर शक्तियां अवरूद्ध हो जाएं, तो उनका अवरूद्ध होना बड़ी बेचैनी पैदा करता है। मार्ग मिलता नहीं, और बेचैनी पैदा होती है।
अब जैसे, यह जो, आज जैसा हमें दिखाई पड़ रहा है, यह आजादी भी एक नकारात्मक आजादी है। अब मैं इधर देखता हूं कि अगर विस्तारवादी हमारा मन होता, तो आजादी पोजिटिव होती, विधायक होती। संकोचवादी मन है, इसलिए आजादी नकारात्मक है। हम सिकुड़ गए, पड़ोसी हमारे ऊपर कब्जा कर लिये, अब ज्यादा-से-ज्यादा हमारी आजादी का कुल मतलब इतना है कि कृपा करके हम पर कब्जा छोड़ दें। यह नकारात्मक भाव है आजादी का। यह आजादी का इतना ही भाव है कि कृपा करके हमें गुलाम मत बनाओ। लेकिन जो गुलाम नहीं है, वह जरूरी रूप से आजाद नहीं हो जाता। गुलाम होना एक स्थिति है। आजाद होना बिल्कुल दूसरी स्थिति है। गुलाम न होना सिर्फ बीच की कड़ी है। जिस दिन हम गुलामी से आजादी में यात्रा करते हैं। तो अभी भारत सिर्फ गुलाम नहीं है। आजाद नहीं कहता मैं। और इसलिए हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं, क्योंकि गुलाम न होना, बिल्कुल बेमानी है। या तो हम आजाद बनें और या हम गुलाम हो जाएं। वह दोनों चैन की अवस्थाएं हैं। लेकिन उनकी एक स्थिति है, गुलाम न होना सिर्फ एक सेतु है, जिससे हमें आजादी पर पहुंचना चाहिए। लेकिन आजादी का हम करेंगे क्या? आजादी प्राप्त करने का एक ही अर्थ हो सकता है कि हमारे पास कोई सपने हों, जिनको हम पूरा करना चाहें, तो आजादी का कोई मतलब है। हमारे पास कोई सपने नहीं हैं, हमारे पास सिर्फ एक भाव था, जो किसी भांति, ऊपर जो बैठा है वह नीचे उतर जाए, वो नीचे उतर गया। अब हम बड़ी दिक्कत में पड़ गए हैं हमारे पास एक काम भी था, वह भी खत्म हो गया है कि किसी को नीचे उतारना था, वह भी नीचे उतर गया है। और हमें बड़ी दिक्कत में छोड़ गया है। और ऐसे असमय में उतर गया है कि जब हमें आशा भी नहीं थी कि वह उतरेगा। हम बड़े भरोसे में जी रहे थे कि अभी नहीं उतरेगा। अपनी आजादी की लड़ाई हम जारी रखेंगे, वह अचानक से उतर आया। अब हमारे पास कोई लड़ाई भी नहीं है। कोई काम भी नहीं है, अब हम बड़ी बेचैनी में पड़ गए हैं। अब हमें ऐसा लगता है, अब हम क्या करें?
भारत के काम में बड़े से बड़ा मनुष्य में सवाल है कि क्या करें? वाॅ टु डू? और जो भी करना है, वह सदा विस्तारवादी होगा। उसमें किसी तरह का विस्तार चाहिए। तो हम दरिद्रता को वरण किये बैठे हैं, हम दरिद्र को कहते हैं कि तुम नारायण हो, दरिद्र नारायण हो, हम तुम्हारी पूजा करेंगे। हम जो आदमी सड़क पर नंगा खड़ा हो जाए, उसके पैर छूएंगे। जो आदमी ढंग के कपड़े पहने हुए है वह हमको पापी मालूम पड़ेगा। यह भोगी है, कपड़े ठीक से पहने हुए है। आराम से बैठा है। कष्ट झेले, कांटे बिदा के जमीन पर लेट जाए तो महात्मा हो जाए।
यह जो हमारे चित्त की अवस्था है कि हम सारे मुल्क को जब तक कांटे पर न लिटा दें, तब तक हमारा मन भर नहीं सकता। जब तक सारा मुल्क नंगा न हो जाए, और जब तक सारा मुल्क भीख न मांगे, तब तक हम तृप्त नहीं होंगे, कि वह हमारा अंतिम लक्ष्य मालूम होता है। यह हो नहीं सकता क्योंकि मनुष्य की सहज व्यवस्था के प्रतिकूल है। कुछ लोग हैं, जिनको खुद को कष्ट देने में भी रस आता है। वह इसको बड़े मजे में, आनंद में आ जाएंगे। वह कांटे बिछा के लेट जाएंगे। वह सिर के बल खड़े होकर शीर्षासन करने लगेंगे। हम भी बड़े प्रसन्न होंगे और हम कहेंगे कोई बात नहीं, हमसे नहीं हो सकता, लेकिन तुम कर रहे हो तो कम-से-कम तुम एक आदर्श तो हो ही। हमें यह सब आदर्श गिराने पड़ेंगे। और जिंदगी की जो सहजता है, इधर मैं इतना हैरान होता हूं, कि कई बार ऐसी कठिनाई हो जाती है, अगर हजारों साल तक हमने कोई सहज वाक्य इंकार किया हो, तो हम भूल ही जाते हैं कि वह सहज है। जिंदगी की जो सहजता है, वह हमें अंगीकार कर लेनी पड़ेगी। और हमारा युवक तत्काल अनुशासन में आ जाएगा। हम सहज जीवन को स्वीकार कर लेंगे।
अगर मुल्क सपने पैदा कर सके तो, युवक अभी प्रतिबद्ध हो जाए, उन सपनों के लिए कमेंट कर सके उन्हें कि हम अपने को लगा सकते हैं। लेकिन कोई सपना नहीं है। और हम जो बातें करते हैं वह फिजूल और बचकानी हैं, जिसको हम चाहते हैं कि कोई आके कमिट कर ले अपने को। हम जो बातें करते हैं, वह बहुत बचकानी हैं। और हम जो आदर्श सामने रखते हैं वह ऐसे हैं कि वो बेमानी है। हम कहीं कहते हैं कि पंचवर्षीय योजना पूरी करो। जो भी कोई बड़ा सपना नहीं है। युवक के पास बड़े सपने देखने की आकांक्षा है। हम कहीं कहते हैं कि पंचवर्षीय योजना पूरी करो। उसके पास बड़ी कामनाएं हैं कि उसका मन भरे। हम उसको ऐसी छोटी कामनाएं बताते हैं कि वह उनको छोड़ ही देता है, कि यह किसी मतलब की ही नहीं हैं। अभी मैं देखता हूं, कि रूस में पिछले स्टैलिन के मरने के बाद, पूरी शिथिलता आ गई है। और रूस का लड़का इनकार करता है, वह कहता है पंचवर्षीय योजना, पंचवर्षीय योजना इसमें क्या है? अब कब तक हम यही बकवास में पड़े रहें। कुछ और करने को है? प्रावदा के सारे एडिटोरियल पिछले दस वर्षों से एक ही बात समझा रहे हैं कि काम करो, काम करो। ज्यादा अन्न पैदा करो, ये ऐडिटोरियल खबर दे रहे हैं कि कुछ मामला भीतर गड़बड़ हो गया है। गड़बड़ यह हो गया है कि या तो चाबुक के बल पर उनसे काम ले लिया गया है, स्टैलिन के वक्त में। उसके पीछे बंदूक लगी थी। खुद स्टेलिन उन्नीस सौ अट्टाइस के बाद कभी किसी गांव में नहीं गया। लेकिन उसके खेतों और ट्रैक्टरों के साथ फोटो और बड़े-बड़े पोस्टर लगाए गए। वह कभी नहीं गया, उन्नीस सौ अट्टाइस के बाद। और लड़के को बस यह ही लगाए हुए हैं कि यह करो, यह करो, वह लड़का ऊब गया है। सारा साहित्य रूस का बाॅर्डन पैदा करने वाला हो गया है। खेती और अनाज, और ट्रैक्टर और बस वही, वही कोई बड़ा सपना चाहिए युवक को।
हमारे साथ भी वही मुश्किल है। हमारे पास कोड़ा भी नहीं है। उनके पास कोड़ा भी था। अगर स्टैलिन काम न हो तो आदमी को मिटा भी सकता था। हम वह भी नहीं कर सकते कि हम आदमी को मरने को मजबूर कर दें, फिर उसे कुछ भी करने को मजबूर होना पड़े। वह भी हम नहीं कर सकते। हम ऐसा सपना भी नहीं देख सकते कि वह स्वेच्छा से मरने की आकांक्षा से भर जाए। और अपने को जुझा दे और कहीं लगा दे। वह भी हम नहीं कर सकते। भीतर से धक्का भी नहीं दे सकते। तो हमें एक जिझ पैदा होगी, जिसमें हम खड़े हो गए हैं। इस जिझ को बहुत साधारण उपायों से नहीं तोड़ा जा सकता। इस जिझ को तोड़ने के लिए हमें पूरी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, उनमें कुछ बुनियादी मुद्दे तोड़ने पड़ेंगे। और हमें भारत के लिए नये इमेज देना पड़ेंगी, नई प्रतिमाएं देना पड़ेंगी। बुद्ध और महावीर की प्रतिमाएं इस मामले में काम नहीं दे सकती। शिवाजी और प्रताप भी इस मामले में अति साधारण हैं। इस मामले में उनको भी हम बहुत ज्यादा देर तक खींच के काम में नहीं ला सकते। क्योंकि जिन मुददों से वह लड़.े थे, वह मुद्दे बहुत ही बचकाने और साधारण थे। आज मामला बहुत दूसरा है। और ऐसे मामले के लिए, भारत की पूरी संस्कृति को सोचकर हमें, फिर से निर्धारित करने का ख्याल लेना पड़ेगा। और जहां-जहां देख कर तुम्हें बुनियादी भूल हो, और जिनकी वजह से सारे अवरोध पैदा हुए, वो हमें काट के फेंक देनी पड़ेंगी। अनुशासन लाना है तो भारत के चित्त को, विस्तार की कामना देनी पड़ेगी। उसके साथ ही अनुशासन अपने आप शुरू हो जाएगा। अनुशासन लाना हो तो, बड़ा सपना, जो युवक के मन को भा जाए। और वह उसमें डूब सके। और लग सके। अब हम देखते हैं कि लड़के को आप भेज देते हैं पढ़ने, बाप कहते हैं, ठीक कहते हैं कि वह अपने बाप के प्रति जिम्मेदारी नहीं निभा रहा, बाप मेहनत करके उसको पढ़ा रहा है, काॅन्ट्रेक्ट वो पूरा नहीं कर रहा। लेकिन मजा यह है कि उस लड़के को दिखाई पड़ रहा है कि वह एम ए के बाद क्लर्क ही होने वाला है। आप यह नहीं देख रहे, कि उसको आगे है क्या? भविष्य क्या है उसके पास? ज्यादा मौके तो इसी बात के हैं कि एम ए फस्र्ट क्लास में लेकर ही वह दतरों के सामने क्यू लगाकर खड़ा रहे और नौकरी न मिले। आगे पूरा क्या होने वाला है, जिसके लिये युनिवर्सिटी में मेहनत करे? मैं युनिवर्सिटी में देख कर इस बात से हैरान हुआ कि कितने लड़के हैं, जो डरते हैं कि अगर हमारी शिक्षा विश्वविद्यालय की पूरी हो गई तो फिर? इसका भय ही मैंने अनुभव किया कि इससे भी भयभीत है कि लड़के का विस्तार एम.ए. पूरा हुए जा रहा है, और अगले साल से क्यू में खड़े होना है, किसी एंप्लायमेंट आॅफिस के सामने। और क्लर्की के सिवाय कुछ भी नहीं है। वह मिले तो मुश्किल है। सौ रूपये की नौकरी मिलना मुश्किल है। यह लड़का डर रहा है, इसकी पूरे मन से यह घबड़ाहट है कि दो साल और युनिवर्सिटी में किसी तरह गुजर जाएं तो दो साल तो मैं और बाहर रहा। यानि आप जो देख रहे हैं कि पचास प्रतिशत बच्चे फेल हो रहे हैं, इस फेल होने में भविष्य की कमी है। भविष्य कोई है नहीं। पिछला जो आज से चालीस साल पहले लड़का मेहनत कर रहा था विश्वविद्यालय में उसका भविष्य था। अगर वह मिडिल भी पास हो जाता था, तो तहसीलदार हो जाता था। आज से तीस साल पहले, चालीस साल पहले, पचास साल पहले, मिडिल जो था, वह बड़ी भारी ची.ज था। पहला लड़का जो इलाहाबाद में मैट्रिक हुआ, उसका हाथी पर जुलूस निकाला गया। और सारे इलाहाबादियों ने फूल बरसाए उस पर कि एक लड़का मैट्रिक पास हो गया है। उस लड़के को जो मैट्रिक पास होने में मजा आया होगा, वह आज किसी लड़के को पीएच डी होने पर भी नहीं आता। गधे पर भी नहीं बिठालेंगे, हाथी तो बहुत दूर की बात है। बल्कि पीएच डी होकर हम उससे पूछेंगे कि किस मतलब के हो। आगे भविष्य चाहिए।
असल में भविष्य ही खींचता है, और ताकत देता है आने की। कल कुछ होना चाहिए जो पूरा होने वाला है। और उसको पूरा होने के लिए तैयारी आती है। कल कुछ होने वाला नहीं, तैयारी किसलिए करना है? और यह तैयारी कल जाकर एकदम से बेकार हो जाने वाली है कि बेकार हो जाएगी, यह सब तैयारी करके पता चलेगा कि कुछ नहीं हुआ। यानि तैयारी ऐसी चल रही है लड़के की आज कि उसकी शादी विवाह का भरोसा दिला रहे हैं और वह जान रहा है कि सब हो जाएगा। घोड़ा बन जाएगा, बैंड-बाजे बज जाएंगे, और दुल्हन नहीं आएगी वक्त पर। और हम क्यू में रह जाने वाले हैं, कुछ आगे हो जाने वाला है नहीं। तो वह घर में सुस्त घूम रहा है, उसके चेहरे पर खुशी नहीं, हम उससे कहते हैं कि जवान हो, तुम्हारे विवाह का वक्त है खुश नजर आओ। और वह कहता है, हम जानते हैं कि घोड़ा तो बन जाएगा, और बैंड-बाजे बज जाएंगे, दुल्हन तो आने वाली नहीं है। तो वह डर रहा है, और घर के भीतर घूम रहा है कि बाहर मुझे मत निकालो, बैंड-बाजे बज रहे हैं, वह मुझे देख लेंगे।

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