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बुधवार, 29 अगस्त 2018

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(व्यक्ति की महिमा को लौटाना है)

मेरा सौभाग्य है कि थोड़ी सी बातें आपसे कह सकूंगा। विचार जैसी कोई बात देने को मेरे पास नहीं है। और विचार का मैं कोई मूल्य भी नहीं मानता। वरन विचार के कारण ही मनुष्य पीड़ित है और दुखी। आपके मन पर इतने विचार इकट्ठे हैं, आपकी चेतना इतने विचारों से दबी है और पीड़ित है और परेशान है कि मैं भी उसमें थोड़े से विचार जोड़ दूं तो आपका भार और बढ़ जाएगा, उस भार से आपको मुक्ति नहीं होगी। इसलिए विचार कोई आपको देना नहीं चाहता हूं। वरन आकांक्षा तो यही है कि किसी भांति आपके सारे विचार छीन लूं।
अगर आपके सारे विचार छीने जा सकें तो आपमें ज्ञान का जन्म हो जाएगा। यह जान कर आपको आश्चर्य होगा कि विचार अज्ञान का लक्षण है, विचार ज्ञान का लक्षण नहीं है। एक अंधे आदमी को इस भवन के बाहर जाना हो तो वह विचार करेगा कि दरवाजा कहां है? और जिसके पास आंखें हैं वह विचार नहीं करता कि दरवाजा कहां है? दरवाजा उसे दिखाई पड़ता है। दरवाजे का दिखाई पड़ना एक बात है और दरवाजें के संबंध में विचार करना दूसरी बात है। केवल वे ही विचार करते हैं जिन्हें कुछ दिखाई नहीं पड़ता है। केवल अंधे ही प्रकाश के संबंध में विचार करते हैं, जिनके पास आंखें हैं वे प्रकाश का दर्शन करते हैं।

विचार और दर्शन विरोधी घटनाएं हैं। इसलिए जब कोई कहता है महावीर बड़े विचारक थे, तो मैं मन में हंसता हूं; इससे झूठी और कोई बात नहीं हो सकती। जब कोई कहता है बुद्ध बहुत बड़े विचारक थे, तो मुझे आश्चर्य होता है; इससे असत्य और कोई बात नहीं हो सकती। महावीर, बुद्ध हो कृष्ण, या क्राइस्ट--विचारक बिल्कुल भी नहीं थे, उन्हें दिखाई पड़ रहा था। और जिन्हें दिखाई पड़ता है वे सोचते नहीं हैं। न दिखाई पड़ने के कारण सोचने के माध्यम से हम अपना काम चला लेते हैं। अंधे सोच-सोच कर रास्ते खोजते हैं, और जिन्हें दिखाई पड़ता है वे सोचते नहीं, रास्ते उन्हें दिखाई पड़ते हैं।
इसलिए मैंने कहा: विचार कोई सत्य तक या धर्म तक ले जाने वाली बात नहीं है। विचार के माध्यम से कोई कभी सत्य तक नहीं पहुंचा है। इसलिए मैं भी कुछ विचार आपको दूं, उनका कोई उपयोग नहीं होगा। लेकिन फिर मुझसे पूछा जा सकता है और जगह-जगह मुझसे पूछा जाता है, तब फिर मैं क्या बोल रहा हूं, क्यों बोल रहा हूं? अभी पीछे मैंने कल ही कहीं कहा: पूछा गया कि फिर मैं क्या बोल रहा हूं? अगर मैं विचार नहीं देना चाहता हूं और विचार छीनना चाहता हूं तो मैं क्यों बोल रहा हूं? क्योंकि बोलने में तो विचार ही प्रकट होंगे।
तो मैंने उनसे कहा: जैसे कोई कांटा लग जाए तो हम दूसरे कांटे से उसे निकाल लेते हैं लेकिन इस कारण दूसरे कांटे का कोई मूल्य नहीं हो जाता, पहले कांटें को निकाल लेते हैं दूसरे को भी फेंक देते हैं। मैं जिन विचारों की भी चर्चा कर रहा हूं उनका भी उपयोग इतना ही है कि आपके विचारों के लगे हुए कांटों को अगर मेरे विचार के कांटें निकाल कर बाहर कर दें, तो ये विचार भी फें क देने जैसे हो जाएंगे। इनका भी कोई मूल्य नहीं रह जाता। आप निर्विचार हो सकें तो आपके भीतर ज्ञान का जन्म होगा। ज्ञान मनुष्य की चेतना का स्वरूप है, ज्ञान की ज्योति प्रत्येक के भीतर जल रही है। ज्ञान कोई ऐसी बात नहीं कि उसे कहीं कोई उधार पाएगा और कहीं खोजेगा तब मिलेगी, ज्ञान की ज्योति प्रत्येक के भीतर जल रही है। वह प्रत्येक का जीवन है। लेकिन बाहर से आये हुए विचार उसे इतना ढक लेते हैं, उस ज्योति पर बाहर के विचारों का इतना धुआं और बादल इकट्ठे हो जाते हैं कि उस ज्योति का दर्शन हमें बंद हो जाता है।
मनुष्य को ज्ञान उपलब्ध नहीं करना है, अपने ही भीतर आविष्कार करना है। जैसे कुएं के भीतर से पानी निकाला जाता है। कंकड़-पत्थर को, मिट्टी को, जमीन की पर्तों को हम खोद कर अलग कर देते हैं और क्रमशः जैसे-जैसे पत्थर और मिट्टी अलग होने लगते हैं, नीचे के जलस्रोत स्वतंत्र हो जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं, और प्रकट हो जाते हैं। कुएं में पानी आता नहीं कहीं से। जब हमें कुएं का पता भी न था, जब कुआं नहीं भी बना था, तब भी मौजूद था। तब भी नीचे अंतःधारा उस जलस्रोत की बहती थीं। ऊपर परतें थीं, उन्हें हमने हटा दिया, जल स्रोत प्रकट हो गए।
ज्ञान भी ऐसे ही प्रकट होता है, उसे कहीं से लाना नहीं होता। अपने भीतर कुछ परतों को हम तोड़ दें, कुछ भूमि को अलग कर दें तो भीतर ज्ञान के स्रोत प्रवाहित हैं, वे प्रकट हो जाएंगे। ज्ञान अविष्कृत होता है, उपलब्ध नहीं। उसे पाया नहीं जाता, उसे अपने भीतर खोदा जाता है। एक हौज भी होती है जिसमें हम ऊपर से पानी भर देते हैं। एक कुआं होता है जिसमें हम नीचे से पानी निकालते हैं। विचार हौज में भरे हुए पानी की तरह है, वे दूसरे लोग आप में डाल देते हैं, उन्हें कभी बहुत मूल्य मत देना। वे कोई असली पानी के स्रोत नहीं हैं, पानी का धोखा है।
और हर मनुष्य के मस्तिष्क में बहुत से विचार चारों तरफ से इकट्ठे हो जाते हैं, उनमें वह बंद हो जाता है, उनमें आवृत हो जाता है। और जितने ज्यादा विचार इकट्ठे हो जाते हैं, उतनी ही उसकी ज्ञान की शिखा मध्यम मालूम होने लगती है। इतने ज्यादा विचार इकट्ठे हो सकते हैं कि ज्ञान की शिखा के दर्शन बंद हो जाएं, यह मनुष्य के अज्ञान की अवस्था होगी। इतने विचार चेतना को पकड़ लें कि चेतना की ज्योति दब जाए, यह अज्ञान की अवस्था होगी। इतना व्यक्ति विचारों को अलग करके फेंक दे कि निर्विचार हो जाए, कि उसके ऊपर विचारों का कोई धुआं न हो, उसकी ज्योति अपनी शुद्ध शिखा में जलने लगे--यह ज्ञान की दशा होगी।
विचारों से ज्ञान उपलब्ध नहीं होता, विचार की शून्यता में ज्ञान का जन्म होता है। और ज्ञान को कहीं बाहर नहीं खोजना होता, ज्ञान को अपने भीतर अविष्कृत करना होता है। लेकिन हम सारे लोग ज्ञान को बाहर खोजते हैं, हम आशा करते हैं किसी और से ज्ञान से मिल जाएगा। हम आशा करते हैं कोई तीर्थंकर, कोई बुद्धपुरुष, कोई ईश्वर का अवतार हमें ज्ञान दे देगा। इस जगत में कोई भी किसी को ज्ञान नहीं दे सकता। ज्ञान हस्तांतरणीय नहीं है। उसे कोई दूसरे को दे नहीं सकता। इस जगत में केवल वस्तुएं ली और दी जा सकती हैं। जो भी आत्मिक है उसे लेने-देने का कोई उपाय नहीं होता। जो भी खरीदा जा सकता है, लिया जा सकता है, दिया जा सकता है--वह सब संसार का हिस्सा है। जो न खरीदा जा सकता है, न लिया जा सकता है, न दिया जा सकता, न जिसकी भेंट हो सकती, न जिसे चोरी किया जा सकता, न जिसकी भिक्षा मांगी जा सकती, जिसे एक हाथ से दूसरे हाथ में देने का कोई उपाय नहीं है--वही केवल आत्मिक है।
दो तरह की संपदाएं हैं, दो तरह की संपत्तियां हैं। एक सम्पत्ति है जो हाथों से हाथों में जाती है। वैसी संपत्ति का नाम भौतिक संपत्ति है। और एक ऐसी संपत्ति है जो एक हाथ से दूसरे हाथ में नहीं जाती, जिसका एक हाथ से दूसरे हाथ में जाने का कोई उपाय नहीं है, वैसी संपत्ति आत्मिक संपत्ति है। दो ही तरह के लोग भी हैं जगत में, जो ऐसी संपत्ति को खोजते हैं, जो दूसरों से ली जा सके, वे स्मरण रखें कि जो संपत्ति दूसरों से ली जा सकती है वह संपत्ति आज नहीं कल दूसरों से छीन ली जाएगी। जो दूसरों से पाई गई है वह दूसरों के पास वापस लौट जाएगी। केवल वही निज के पास रहेगा जो किसी से नहीं पाया गया और निज में ही आविष्कार किया गया। जो खुद में ही पाया गया है। स्वयं में ही पाया गया है, जो स्वयं का ही है, जो उसका स्वरूप का है वही उसके साथ होगा, उसे मृत्यु भी नहीं छीन सकेगी। उसे कोई नहीं छीन सकता। वैसी संपदा को ही वास्तविक संपदा कहनी चाहिए। शेष सारी संपदाएं धोखा हैं, भ्रम हैं। विचार की संपत्ति भी आपको दूसरों से मिली है।
आप अपने भीतर देखें, अपने विचारों को खोजें, तो पता चलेगा उनमें एक भी विचार आपका नहीं है। शायद ही कभी आपने यह ख्याल किया हो, कभी अपने मन की परतों को उघाड़ें, मन को नग्न करें, उसके कपड़ों को हटा दें और भीतर देखें कि कोई विचार आपका है? कोई एकाध विचार भी आप अपना नहीं खोज सकते हैं। सारे विचार उधार कहीं से आये हुए, किसी से प्राप्त किए हुए मालूम पड़ेंगे। जिस मनुष्य का एक भी विचार अपना नहीं है, उसके दारिद्रय का, उसके अज्ञान का ठिकाना कहां!
महावीर के होंगे, बुद्ध के होंगे, कृष्ण के होंगे--आपके नहीं होंगे। और जो आपका नहीं है, वह कभी आपका नहीं है इसे स्मरण करें। इसे समझें। सब विचार पराए हैं, इसलिए कोई विचार ज्ञान नहीं बन सकता है। ज्ञान स्वयं का होगा। जो भी पर से आया है उसे छोड़ देने को मैं कहता हूं। जो भी दूसरे से आया है उसको आधार बनाने को मैं नहीं कहता, उसे आलंबन बनाने को मैं नहीं कहता, दूसरों के पैरों से नहीं चला जा सकता, दूसरों की आंखों से नहीं देखा जा सकता, दूसरों का विचार ज्ञान भी नहीं बन सकता है।
 तो विचार मात्र अज्ञान है, और अज्ञान का कारण है। सारा आज्ञान दूसरों के विचार पर खड़ा हुआ है। इसे जो तिलांजली देने में समर्थ हो जाता है, इसे जो त्याग करने में समर्थ हो जाता है...वस्त्र छोड़ कर नग्न हो जाना आसान है; विचारों के वस्त्र छोड़ कर नग्न हो जाना बहुत कठिन है। संपत्ति छोड़ कर दरिद्र हो जाना आसान है; विचार की संपदा छोड़ कर दरिद्र हो जाना बहुत कठिन है। लेकिन जो विचार के वस्त्रों को छोड़ कर नग्न हो जाते हैं, लेकिन जो विचार की संपदा को छोड़ कर दरिद्र हो जाते हैं, उन्हें परम संपदा उपलब्ध हो जाती है। वे परम संपदा के अधिकारी और हकदार हो जाते हैं।
वास्तविक त्याग और संन्यास वस्तुओं का नहीं है, वास्तविक त्याग और सन्यास विचारों का है। थोड़ी देर को सोचें अगर सारे विचार आपने छोड़ दिये--क्या होगा? अगर एक व्यक्ति सारे विचारों को छोड़ कर मौन हो रहा--तो क्या होगा? कोई भी विचार नहीं पकड़ता है, सारे विचारों को त्याग कर दिया, तब क्या होगा? क्या व्यक्ति मिट जाएगा? क्या व्यक्ति विचारों के जोड़ का नाम है? क्या विचार नहीं होंगे तो व्यक्ति की मृत्यु हो जाएगी?
 विचार नहीं होंगे तो व्यक्ति की मृत्यु होने का कोई कारण नहीं, व्यक्ति कोई विचारों का जोड़ मात्र नहीं। जब विचार सब शून्य हो जाएंगे, तब भी व्यक्ति होगा। तब व्यक्ति कैसा होगा? तब उस व्यक्ति की अनुभूति क्या होगी? उस निर्विचार दशा में जिस चेतना का अनुभव होता है, उस चेतना को ही हमने आत्मा कहा है। उस निर्विचार दशा में जिस प्रकाश का आलोक का दर्शन होता है, उसे ही हमने आत्मज्ञान कहा है, उस निर्विचार दशा का नाम ध्यान है।
विचार एक दिशा है। विचार से कोई पंडित हो सकता है, प्रज्ञा को उपलब्ध नहीं। ध्यान एक दशा है, ध्यान एक दिशा है। ध्यान से कोई विचार को उपलब्ध नहीं होता, लेकिन प्रज्ञा को और ज्ञान को उपलब्ध होता है। इस समय सारी दुनिया और सारी मनुष्य-जाति विचार से पीड़ित है। विचार बढ़ते चले जाते हैं, विचार निरंतर बढ़ते चले जाते हैं। आज हमारे पास इतने विचार हैं जितने अतीत समय में कभी भी नहीं थे। आज इतने ग्रंथ हैं, इतने शास्त्र हैं, इतने ग्रंथालय हैं, इतने अध्यापक हैं, इतने गुरु हैं, इतना... सारी दुनिया में विचारों का कोलाहल है। लेकिन ज्ञान कहां है? विचार रोज बढ़ते चले जाते हैं, उसी मात्रा में मनुष्य का अज्ञान भी बढ़ता चला जाता है। यह आश्चर्यजनक है, विचार बढ़ रहे हैं और अज्ञान बढ़ रहा है। विचार अति होते जा रहे हैं, और अज्ञान भी अति होता जा रहा है। सारी दुनिया की शिक्षण संस्थाएं, सारी दुनिया के विश्वविद्यालय विचार की शिक्षा दे रहे हैं और विचार की शिक्षा अज्ञान को घनीभूत कर रही है।
विचार की शिक्षा से ज्ञान विकसित नहीं हो रहा, विचार की शिक्षा से मनुष्य के भीतर कोई क्रांति नहीं हो रही; विचार की शिक्षा से मनुष्य का मस्तिष्क तो भर जाता है, अंतःकरण खाली रह जाता है। ऐसी स्थिति में विचार बहुत हैं और विचारशीलता बिलकुल नहीं है। क्योंकि विचारशीलता ज्ञान से आती है, विचार से नहीं आती। विवेक बिल्कुल नहीं है और विचार बहुत हैं।
तो मैं विचार के पक्ष में नहीं हूं, और न विचार देने के पक्ष में हूं। यह सबसे पहले आपको कहूं, मैं विचार को छोड़ देने के पक्ष में हूं। मैं इस पक्ष में हूं कि मनुष्य के भीतर उस दशा का अनुभव हो सके जहां कोई विचार नहीं होता और मात्र चेतना की ज्योति शेष रह जाती है, उस अनुभूति के बाद ही वास्तविक मनुष्य का जन्म होता है। उस अनुभूति के पहले आप ठीक अर्थों में मनुष्य नहीं हैं, उस अनुभूति के पहले आप ठीक अर्थों में जीवित भी नहीं हैं। उस अनुभूति के पहले आपको ऐसे जीवित समझना चाहिए--जो करीब-करीब मृत हैं।
बुद्ध के जीवन में एक घटना घटी। एक वृद्ध पुरुष उनके पास आया। मैंने जब पहली दफा सुना था, मैं हैरान हुआ! एक वृद्ध पुरुष उनके पास आया। बुद्ध ने उससे पूछा तुम्हारी उम्र कितनी है?
उस वृद्ध पुरुष ने बुद्ध के चरणों में सिर रखा और कहा: मुझे क्षमा करें, मेरी उम्र केवल चार वर्ष है।
बुद्ध ने कहा: क्या कहते हो! उम्र केवल चार वर्ष!
उस वृद्ध पुरुष ने कहा: शेष जीवन में जीवित नहीं था। जब तक मैंने स्वयं को नहीं जाना था उसको जीवन में गणना करना व्यर्थ ही मालूम होता है। वे दिन स्वप्न में, रात्रि में, निद्रा में व्यतीत हुए। वे जीवन के क्षण मृत्यु में गए। जीवित मैं चार वर्षों से हुआ हूं, जब से स्वयं को जाना तब से मैं अपने जीवन की गणना करता हूं।
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा: सुनो, आज से सारे भिक्षुओं की उम्र की गणना उस दिन से हो, जिस दिन से उनको समाधि उपलब्ध हो जाए, उसके पहले उम्र की गणना करनी ठीक नहीं। तब से बौद्ध भिक्षुओं की उम्र की गणना तब से होती है जब से उन्हें समाधि उपलब्ध हो। यह बात अर्थपूर्ण है। यह बात समझने की है। आपका वह समय जीवन में नहीं बीता...आप रात जब सोये होते हैं।
अगर एक आदमी पूरा जीवन सो कर व्यतीत कर दे और मृत्यु के समय जगाया जाए और हम उससे पूछें कि तुम्हारा कोई जीवन था। और वह कहे कि मैं पचास वर्ष जीवित रहा, क्योंकि मैं पचास वर्ष सोता था। तो हम क्या कहेंगे?
हम कहेंगे: वह जीवन तो मृतक का जीवन था। तुम जीए ही नहीं। जो उस आदमी के बाबत सत्य होगा, जो कि पूरे जीवन सोया रहा; वह हमारे बाबत भी सत्य है। जो अपने को नहीं जानते, वे सोई हुई हालत से भिन्न अवस्था में नहीं हैं।
हम सारे सोए हुए लोग हैं। हम सोये हुए उठे हैं, सोए हुए चल रहे हैं। हम सब निद्रा में टटोलने वाले लोग, और दुनिया में सारा संकट इसीलिए है कि सारे सोए हुए लोग अंधेरे में टटोल रहे हैं। उनके जीवन में अत्यंत कलह और संघर्ष, युद्ध पैदा हो जाते हैं। सोए हुए लोग हों तो दुनिया में युद्ध होंगे ही। सोए हुए लोग हों तो एक-दूसरे से टकराएंगे ही।
एक रात का मुझे स्मरण आया, एक अंधा आदमी एक घर से विदा होता था। उस घर के लोगों ने कहाः रात अंधेरी है, हम एक दीया दिए देते हैं तुम इसे ले जाओ।
वह अंधा आदमी हंसने लगा और उसने कहा: कैसे पागलपन की बात! मेरे पास तो आंखे नहीं हैं। अगर मैं दीये को भी ले गया तो उससे क्या होगा? मुझे तो कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ेगा। मेरे लिए तो अंधेरा और प्रकाश बराबर हैं क्योंकि मेरे पास आंखें नहीं हैं।
फिर भी घर के लोगों ने कहा: यह तो सच है कि तुम्हें तो कोई अंतर नहीं पड़ेगा। लेकिन तुम्हारे हाथ में दीया देख कर कम से कम इतना होगा कि कोई दूसरा आदमी अंधेरे में तुम से न टकरा जाए। कम से कम वह देख सके कि तुम आ रहे हो इसलिए टक्कर से बच जाओगे।
उसने कहा: यह तो ठीक है। यह दलील उचित थी। वह अंधा आदमी दीये को हाथ में लेकर मार्ग पर गया। यह पहली दफा ही हुआ होगा।
क्योंकि कौन अंधा आदमी प्रकाश को लेकर जाता है। प्रकाश अंधे के लिए कोई अर्थ नहीं रखता। लेकिन जो दलील दी गई थी वह ठीक थी, कि कोई अंधेरे में दूसरा आदमी तुमसे न टकराए इसलिए प्रकाश सहयोगी होगा।
लेकिन अंधा थोड़ी दूर ही गया था कि कोई उससे टकरा गया। वह बड़ा हैरान हुआ! उसने कहा: मित्र, क्या कोई दूसरे अंधे से मिलना हो गया? क्योंकि मैं हाथ में प्रकाश लिए हूं, वह दिखाई नहीं पड़ता?
उस दूसरे व्यक्ति ने कहाः तुम्हारे हाथ का प्रकाश मालूम होता है बुझ गया, तुम्हारे हाथ का प्रकाश मालूम होता बुझ गया है। अंधेरे में तुम मुझे दिखाई नहीं पड़े।
एक अंधा आदमी प्रकाश लेकर भी जाए तो भी किसी उपयोग का नहीं है। जब तक आंखें न हों टक्कर से बचना मुश्किल है। क्योंकि प्रकाश कब बुझ जाएगा, हवा के झौंके कब उसे मिटा देंगे, क्या विश्वास? सारी दुनिया में जो टक्कर है, जो संघर्ष है, जो द्वंद्व है--वह करोड़-करोड़ अंधे लोगों का, सोये हुए लोगों का है जो कि निकल भी नहीं पाते घर से कि टकरा जाते हैं, जो कि वाणी भी नहीं बोल पाते कि टकरा जाते हैं, जो कि आचरण में एक कदम नहीं रख पाते हैं कि टकरा जाते हैं, जो जो कुछ भी करते हैं, किसी न किसी से टक्कर हो जाती है। अंधे और सोये हुए लोगों की दुनिया सतत टकराहट की, सतत संघर्ष की दुनिया होगी, इसमें आश्चर्य क्या है! और यह उसके पीछे कारण है, हम सारे लोग सोये हुए हैं!
जन्म के साथ जागरण नहीं आता है, न ही जन्म के साथ जीवन आता है। और जो लोग जन्म को जीवन समझ लेते हैं, वे बड़ी भूल में पड़ जाते हैं। फिर उन्हें मृत्यु को अंत समझना पड़ता है। न तो जीवन की शुरुआत जन्म में है और न जीवन का अंत मृत्यु में है। जन्म का अंत मृत्यु में हो जाता है। जीवन तो जन्म के पहले है और मृत्यु के बाद भी है। इसलिए जो लोग जन्म को जीवन समझ रहे हों, वे भूल में हैं। और उनकी भूल का उनको फल चुकाना होेगा, उनको मृत्यु को अंत समझना होगा। और तब मृत्यु उन्हें पीड़ा देगी और दुख देगी और घबड़ाहट देगी।
जीवन को जानना तभी संभव हो पाता है: जब हम अपने भीतर उस चैतन्य ज्योति को परिचित हो जाएं जो हमारे प्राणों का प्राण है, जब हम अपने हृदय के भीतर उस आत्यंतिक बिंदु से परिचित हो जाएं जो कि हमारा वास्तविक होना है, जो कि हमारा ऑथेंटिक बींइग है; जो कि हमारी असली सत्ता है; जो कि हमारी आत्मा है। उससे परिचित होकर ही आपको पहली दफा उस जीवन का पता चलता है जो कि वास्तविक है, उससे परिचित होकर ही आप पहली दफा जागते हैं, उससे परिचित होकर ही आपकी नींद टूटती है। और आपकी नींद टूट जाए तो आपका सारा जीवन बदल जाता है।
महावीर ने कहा हैः मूच्र्छा ही पाप है, सोया हुआ होना ही पाप है; और जाग जाना धर्म है, जाग जाना पुण्य है। अमूच्र्छित चेतना में प्रतिष्ठित हो जाना धर्म है। अदभुत वचन हैं! उन्होंने कहा है: विवेक ही धर्म है। यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है--विवेक ही धर्म है। जाग जाना ही धर्म है। आश्चर्यजनक परिभाषा है। ईश्वर का इसमें उल्लेख नहीं, स्वर्ग-नरक का इसमें उल्लेख नहीं, मोक्ष का इसमें उल्लेख नहीं, किसी और चीज का उल्लेख नहीं है। यह बड़े गहरे सूत्र का उल्लेख है--विवेक का, जागरण का, अमूच्र्छा का, होश का, अवेयरनेस का।
अगर कोई मनुष्य जाग जाए, उससे पाप असंभव हो जाता है। वैसे ही जैसे कोई जान कर आग में हाथ न दे सके, वैसे ही जैसे कोई जान कर कुएं में गिर न सके, वैसे ही जैसे कोई जान कर जहर को पी न सके, वैसे ही जिसका जागरण फलीभूत हो जाता है--उसे पाप करना असंभव हो जाता है। पाप सोए हुए होने का लक्षण है, पुण्य जागे हुए होने का लक्षण है।
इसलिए मैं पाप छोड़ने को नहीं कहता। लोग मुझसे पूछते हैं, हम पाप के लिए क्या करें? मैं चुप रह जाता हूं। अनेक लोग समझते हैं शायद मैं पाप करने की गवाही देता हूं या पाप करने के लिए साक्षी देता हूं--कि पाप करो। मैं पाप छोड़ने को नहीं कहता, क्योंकि मैं कैसे कह सकता हूं पाप छोड़ो?
मैं अविवेक छोड़ने को कहता हूं, मूच्र्छा छोड़ने को कहता हूं। क्योंकि पाप कोई असली बात नहीं, वह तो केवल लक्षण है। वह तो बीमारी का लक्षण है, वह बीमारी नहीं है। और जो लक्षणों से लड़ते हैं, वे बीमारी की जड़ को नहीं खोज पाते।
मैं आपसे नहीं कहता: झूठ मत बोलो, मैं आपसे नहीं कहता: चोरी मत करो, मैं आपसे नहीं कहता: हिंसा मत करो; मैं तो आपसे कहता हूं--मूच्र्छा छोड़ दो। उस मूच्र्छा के छोड़ने में सब पाप विलीन हो जाते हैं।
अमूच्र्छित मनुष्य ने अब तक कोई पाप नहीं किया है, और मूर्छित मनुष्य पुण्य भी करे तो भी पाप ही होता है। मूर्छित मनुष्य पुण्य भी करे तो भी पाप ही होता है, मूच्र्छित मनुष्य संन्यासी भी हो जाए तो भी ग्रस्त बना रहता है, मूच्र्छित मनुष्य विनम्र हो जाए तो भी दंभ ही फलीभूत होता है। मूच्र्छित मनुष्य सब छोड़ दे तो भी उससे कुछ छूटता नहीं, और सब छोड़ना ही वह पकड़ लेता है।
एक मुझे स्मरण आता है, कहीं दूर पुराने समय में एक साधु के पास एक नया साधु गया। और उस साधु ने कहा कि मैं सब छोड़ कर आ रहा हूं।
उस वृद्ध साधु ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और कहा: इसको भी छोड़ आओ।
बहुत हैरान हुआ! उस साधु ने पूछा कि मैं तो सब छोड़ कर आ रहा हूं, अब और छोड़ने को क्या है?
उस वृद्ध पुरूष ने कहाः इसको भी छोड़ आओ, यह भाव कि मैं सब छोड़ कर आ रहा हूं।
यह भाव कि मैं सब छोड़ कर आ रहा हूं--बड़ी गहरी पकड़ है, यह बड़ी गहरी पकड़ है। यह उससे ज्यादा गहरी पकड़ है जो चीजें तुम्हारे पास थीं वे तुम्हारें दंभ का इतना कारण नहीं थीं, जितना अब यह त्याग तुम्हारे दंभ का कारण हो जाएगा।
मूच्र्छित मनुष्य कुछ भी करे, वह जो भी करेगा--आबद्ध होगा कि उससे पाप हो। और अमूच्र्छित मनुष्य कुछ भी करे, असंभव है कि उससे पाप हो जाए। क्योंकि पाप भीतर चेतना के सोए हुए होने का बाह्य परिणाम है। और पुण्य भीतर चेतना के जागे हुए होने का बाह्य परिणाम है। पाप और पुण्य परिणाम हैं। केंद्र भीतर है--स्वयं के प्रति जागे हुए होना, या स्वयं के प्रति सोए हुए होना।
हम सारे लोग सोए हुए हैं। हमारी नींद में और हमारे जागरण में बहुत भेद नहीं। इसलिए भेद नहीं है, नींद में भी हमें पता नहीं होता कि हम कौन हैं और जागरण में भी हमें पता नहीं कि हम कौन हैं? थोड़ा सा भेद जरूर है। जागरण में हमें याद होता है--हमारे नाम, हमारी पदवियां, हमारा वंश, हमारी परंपरा, हमारा धर्म, हमारा परिवार, हमारे मित्र--इन सबकी हमें याद होती है। नींद में ये सब यादें भूल जाती हैं।
मैं आपसे कहूं कि नींद ही ज्यादा बेहतर है। क्योंकि ये झूठी बातें कम से कम वहां याद नहीं होतीं। वहां सत्य का तो पता नहीं होता, लेकिन असत्य का भी पता नहीं होता। जागरण आपकी निद्रा से भी बदतर है। वहां सत्य का तो कोई पता नहीं और बहुत से असत्यों का पता है। आपका कोई नाम है, नाम से असत्य और कोई बात क्या होगी? किसी का कोई नाम नहीं है। और न किसी का कोई नाम हो सकता है। नाम तो सिखाई हुई एक बात है, नाम तो सिखाया गया कामचलाऊ एक मामला है, लेकिन आपको लगता है न--मेरा नाम है। चार लोगों ने मिल कर आपको एक नाम दे दिया है, वह लगता है--यह मेरा होना है।
इससे तो नींद बेहतर, कम से कम यह तो पता नहीं चलता--कि मेरा नाम क्या है? यह जागरण तो और गहरी नींद हो गई। आपके पास कुछ संपत्ति है तो लगता है मैं संपत्तिशाली हूं। इससे तो नींद बेहतर, कम से कम दरिद्र और अमीर वहां समान तो हो जाते हैं। वहां यह तो पता नहीं चलता कि मेरे पास कुछ है या कुछ नहीं। जागने में लगता है मैं गृहस्थ हूं, किसी को लगता है मैं सन्यासी हूं, किसी को लगता है मैं गरीब हूं, किसी को लगता है मैं अमीर हूं, किसी को लगता है मैं किसी पद पर नहीं हूं, किसी को लगता है मैं राजा हूं। नींद बेहतर--कम से कम ये झूठे भेद तो मिटा देती है।
हमारा जागरण हमारी नींद से बदतर है। हम जागते क्या हैं, और भी गहरे सो जाते हैं। इस जागरण में हम आत्मज्ञान से और भी दूर निकल जाते हैं। क्योंकि सत्य का तो हमें बोध नहीं होता, असत्य के साथ आइडेंटिटी, असत्य के साथ तादात्म्य हो जाता है। तो यह इस, इस जागरण की मूर्छा को, इस जागे हुए सोने को तोड़े बिना, कोई व्यक्ति धर्म में प्रतिष्ठित नहीं होता।
और उसके तोड़ने का उपाय? उसके तोड़ने का उपाय है--सब भांति, सब भांति समग्र शक्तियों को इकट्ठा करके, जो भी भीतर बाहर से आया हुआ है, उसे बाहर वापस पह‏ुंचा देना। जो भी भीतर बाहर से आया हुआ है सब भांति श्रम करके उसे वापस बाहर पहुंचा देना। केवल उतनी ही चेतना को शेष रह जाने देना जिसे बाहर भेजने का कोई उपाय न हो। क्योंकि वह हमारा आंतरिक स्वरूप है उसे बाहर हटाने का कोई उपाय नहीं।
इस भवन में अगर हम सारी चीजों को बाहर पहुंचा दें, तो जो भी इस भवन के भीतर है, सारी चीजों को बाहर पहुंचा दें तो क्या शेष रह जाएगा? इस भवन का अवकाश, इस भवन का खालीपन ही शेष रह जाएगा। उसे बाहर नहीं पहुंचाया जा सकता। इस भवन के खालीपन को बाहर नहीं पहुंचाया जा सकता। सब बाहर पहंुचा दिया जाएगा तब भवन का खालीपन, वह एम्प्टीनेस भर यहां भवन के भीतर रह जाएगी। वह इस भवन का हिस्सा है। उसे इससे अलग करने का उपाय नहीं। ऐसे ही मनुष्य जो भी उसके ऊपर बाहर से आया है, जो भी संस्कारित हुआ है अगर सबको क्रमशः छोड़ दे, तो उसके भीतर जो शेष रह जाएगा जिसे बाहर नहीं भेजा जा सकता है, जो कि उसकी आंतरिकता है, जो कि उसका स्वरूप है, जिसे कि बाहर नहीं भेजा जा सकता है, जब वही केवल शेष रह जाता है--तो जिसका अनुभव होता है उसका नाम आत्मा है, तो जो अनुभव होता है उसका नाम सत्य है, तो जो अनुभव होता है वही द्वार खोल देता है--समस्त जगत के रहस्यों का! और उस बोध में प्रतिष्ठित होकर जीवन में जो भी बुरा है वह अपने आप गिर जाता है।
पाप छोड़ कर कोई सत्य को उपलब्ध नहीं होता, लेकिन जिसके पाप छूटने लगते हैं--बाहर, हम जानते हैं वह सत्य को उपलब्ध हो रहा है। पाप छोड़ कर कोई सत्य को उपलब्ध नहीं होता, लेकिन जिसके पाप छूटने लगते हैं, हम पहचानते हैं और जानते हैं कि वह सत्य को उपलब्ध हो रहा है। क्योकि सत्य को बिना उपलब्ध हुए पाप का छूटना संभव नहीं।
वह जैसे ही भीतर प्रतिष्ठा मिलती है, बाहर अपने आप--अंधेरे में, अज्ञान में, प्रसुप्त अवस्था में--जो-जो हमने इकट्ठी कर ली थी बातें, जो-जो आदतें, जो-जो रुचियां वे क्रमशः क्षीण होकर गिर जाती हैं, उनकी निर्जरा हो जाती है। आत्मज्ञान पाप की निर्जरा है, आत्मज्ञान अंधकार की निर्जरा है, आत्मज्ञान जो भी अविवेकपूर्ण है, उसकी निर्जरा है।
यह आत्मज्ञान, मैंने इस पर कहा कि कोई दूसरा मनुष्य नहीं दे सकता। प्रत्येक को स्वयं करना होगा। यही, इसी कारण से पिछले दो-तीन सौ वर्षों में विज्ञान के सामने धर्म हारता हुआ मालूम हो रहा है। विज्ञान सामूहिक घटना है और धर्म व्यैक्तिक घटना है। विज्ञान में दूसरे लोग सहयोगी हो सकते हैं, विज्ञान का जो भी निर्माण है--वह सामूहिक और सामाजिक है। और धर्म की जो भी अनुभूति है--वह व्यैक्तिक। सामूहिक अनुभूति में आसानी होती है क्योंकि आप पर कोई जिम्मेदारी, कोई रिस्पांसिबिलिटी नहीं होती। आप एक बड़े समूह के अंग होते हैं। आपका अपना कोई व्यक्तिगत जिम्मा नहीं होता, आपको भय नहीं लगता, भीड़ के साथ आप होते हैं।
धर्म में प्रवेश भय देता है। क्योंकि वहां भीड़ साथ नहीं होती, आप बिलकुल अकेले होते हैं। और टोटल रिस्पांसिबिलिटी, पूरा दायित्व आप पर होता है और किसी पर नहीं। दायित्व को उठाना पुरुषार्थ है; समूह के साथ खड़े हो जाना कोई पुरुषार्थ नहीं है। भीड़ के साथ खड़े हो जाना कोई पुरुषार्थ नहीं है, भीड़ का एक अंग हो जाना कोई पुरुषार्थ नहीं है।
सारी दुनिया में भीड़ जीत रही है और व्यक्ति हार रहा है। इसलिए विज्ञान जीत रहा है और धर्म हार रहा है। फिर और एक बात है जब निपट अकेले खड़ा होना हो, किसी का साथ-सहारा न हो तो आलस्य की गुंजाइश नहीं होती, वहां तो बड़ा श्रम करना होगा।
विज्ञान मनुष्य को आलस्य की शिक्षा दे रहा है। विज्ञान का सारा विकास मनुष्य के तमस और आलस्य से हुआ है। विज्ञान की सारी खोज केवल एक केंद्र पर विकसित हो रही है कि मनुष्य को कोई श्रम न करना पड़े, कोई श्रम न करना पड़े। अगर विज्ञान पूरी तरह विकसित हो तो किसी मनुष्य को श्वास लेने की, आंखें खोलने की, या हाथ हिलाने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। अगर विज्ञान का चरम विकास हो तो जो जहां है वहीं मुर्दें की भांति बैठा रहे। उसे कुछ करने का कोई प्रश्न नहीं। अगर कुछ भी करना पड़ रहा है तो समझना होगा अभी विज्ञान में थोड़ा विकास कम रह गया। अगर विज्ञान पूर्ण विकसित हो तो सारी दुनिया मुर्दों की बस्ती में परिणित हो जाएगी।
विज्ञान मनुष्य से श्रम छीन लेगा। यह हमारे आलस्य के अनुकूल है, यह हमारे तमस के अनुकूल है, यह हमारी निद्रा के अनुकूल है--क्योंकि निद्रा और श्रम का विरोध है।
इसे स्मरण रखें: निद्रा और श्रम का विरोध है।
आज श्रम और निद्रा का सहयोग है। विज्ञान सुलाने में, नींद में सहयोगी हो रहा है। विज्ञान परिपूर्ण सफल हो, सारी दुनिया गहरी नींद में सो सकती है। धर्म सफल हो तो सारी दुनिया को जागना पड़ेगा, नींद असंभव हो जाएगी। विज्ञान अश्रम पर जोर रखता है, धर्म विपरीत श्रम पर जोर रखता है। धर्म पर तो श्रम करना होगा।
मैंने सुना, कनफ्यूशियस के समय में चीन में कोई ढाई हजार वर्ष पहले कनफ्यूशियस एक गांव में गया। वहां उसने बगीचे में देखा: एक आदमी, बूढ़ा आदमी जिसकी उम्र कोई सौ वर्ष पार कर गई है, वह कुएं में रहट लगा कर खुद अपने लड़के के साथ बैलों की जगह जुता हुआ है, पानी खींच रहा है। कनफ्यूशियस ने उससे कहा कि महानुभाव, क्या तुम्हें पता नहीं कि आदमी की जगह बैल और घोड़ों का उपयोग होने लगा है? और आप अभी तक खुद ही खींचे जा रहे हैं। और क्या आपको पता नहीं है कि ये पुरानी हंडिया लटकाए हुए हैं--मिट्टी की, इसकी जगह धातु की चीजें बन गई हैं जिनसे पानी आसानी से खींचा जा सकता है। कम श्रम लगता है, सुविधा होती है, समय बचता है।
उस बूढ़े ने कहाः मित्र, कनफ्यूशियस के कान में कहाः धीरे कहो, मेरा जवान लड़का न सुन ले। उस बूढ़े आदमी ने कनफ्यूशियस के कान में कहा: मित्र, जरा धीरे कहो, मेरा जवान लड़का न सुन ले। अन्यथा समय के पहले बूढ़ा हो जाएगा। तो कनफ्यूशियस बहुत हैरान हुआ!
और उस बूढ़े ने कहा: सवाल इतना ही नहीं है कि हम बाहर की दुनिया में श्रम न करें। जो लोग बाहर की दुनिया में श्रम को छोड़ देते हैं, वे भीतर की दुनिया में श्रम करने में असमर्थ हो जाते हैं।
जो बाहर की दुनिया में श्रम करना छोड़ देते हैं, वे भीतर की दुनिया में श्रम करने में असमर्थ हो जाते हैं। बाहर के श्रम का नाम श्रम है, भीतर के श्रम का नाम तप है। भीतर के श्रम का नाम तपश्चर्या है। तो जो लोग बाहर की दुनिया में श्रमशून्य हो जाएंगे, वे भीतर की दुनिया में तपशून्य हो जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं है! यह उसके ही साथ बंधी हुई संयुक्त घटना है। विज्ञान ने श्रम छीन लिया। विज्ञान श्रम छीनता जा रहा है। इसलिए क्रमशः आपसे धर्म छूटता जा रहा है।
स्मरण रखें, श्रम को वापस लौटा देना होगा। आत्मज्ञान बिना श्रम के नहीं हो सकता। आत्मज्ञान की कोई भी संस्कृति श्रमणिक ही होगी, श्रम पर ही खड़ी होगी। कोई उसका और दूसरा रास्ता नहीं हो सकता। यह व्यक्तिगत दायित्व, व्यक्तिगत श्रम, व्यक्तिगत तप, सामूहिक साथ, सहयोग, सामूहिक दायित्व से भिन्न है। धर्म कोई सामूहिक दायित्व नहीं है।
तो विज्ञान ने सामूहिकता को बढ़ा कर, सार्वजनिकता को बढ़ा कर, सारी दुनिया में समूह को प्रतिष्ठित करके व्यक्ति की सारी गरिमा छीन ली है। व्यक्ति का सारा मूल्य छीन लिया है, इंडिविजुअल इकाई, वह जो व्यक्तिगत इकाई है, उसके सारे प्राण खींच लिए हैं। आपको निस्सत्व कर दिया है, नपुंसक कर दिया है। व्यक्ति के भीतर कुछ भी नहीं रह गया, वह जो कुछ भी है--समूह के साथ है।
धर्म को पुनरुज्जीवित करना हो तो प्रत्येक व्यक्ति को निजी दायित्व, निजी श्रम में संलग्न होना पड़ेगा, निजी तप में संलग्न होना पड़ेगा। और तब श्रम के माध्यम से अपनी सारी शक्तियों को इकट्ठा करके वह भीतर के तमस को, भीतर के अंधकार को तोड़ सकता है, बाहर से आये हुए संस्कार वापस फेंक सकता है और जाग सकता है। जागरण अगर भीतर फलित हो जाए तो उसका सारा जीवन बाहर परिवर्तित हो जाएगा। अगर हम ऐसे मनुष्य पैदा करने में समर्थ नहीं हो सके तो मनुष्य का भविष्य अत्यंत अंधकारपूर्ण है।
जैसा मैंने कहा: विज्ञान ने सामूहिकता को बढ़ा कर धर्म को शून्य कर दिया, वैसा ही यह भी आपको स्मरण दिला दूं: धर्मों ने संगठित होकर, ऑर्गनाइज्ड होकर--व्यक्तिगतता--जो धर्म की थी, उसे भी शून्य कर दिया है। सारी दुनिया के संगठन बन गये हैं धर्मों के, जब कि धर्म का संगठन से कोई संबंध नहीं होना चाहिए। धर्म के संगठन की क्या जरूरत? कल आप सुन सकते हैं कि प्रेमियों ने संगठन कर लिए हैं, प्रेमियों की संस्थायें और संप्रदाएं हैं।
आप कहेंगे: फिजूल की बात! प्रेम तो निपट व्यैक्तिक बात है, उसके लिए ऑर्गनाइजेशन और संगठन की कौन सी जरूरत?
धर्म भी निपट व्यैक्तिक बात है। उसके लिए बड़े चर्च, बड़े ऑर्गनाइजेशंस, बड़े संप्रदाय खड़े करने की कौन सी जरूरत? सारी दुनिया में धर्म जो कि व्यैक्तिक है, उसको संप्रदायगत, संगठनगत बनाने के कारण धर्म के भीतर से भी व्यक्ति की गरिमा विलुप्त हो गई। और धर्म भी ऐसा मालूम होता है वह भी कोई सामूहिक उपक्रम है। वह भी कोई सोशल इंटरप्राइज है, वैसा मालूम होता है जैसे वह भी भीड़ का काम है। धर्म भीड़ का काम बिलकुल नहीं है, धर्म बिलकुल व्यैक्तिक काम है।
और इसलिए जिन्होंने धर्म को पाया, उन्होंने भीड़ में जाकर नहीं; भीड़ से दूर जाकर पाया। जिन्होंने धर्म को पाया उन्होंने कोई संगठन नहीं बनाया, कोई पार्टी नहीं बनाई, कोई सेना नहीं खड़ी की कि अब हम धर्म को पाने जाते हैं। उनकी सेना थी, संगठन था--उसको छोड़ कर वे अकेले हो गए। हम धर्म को पाने जाते हैं। धर्म को पाने जाते हैं तो आदमी को अकेला हो जाना पड़ता है--निपट अकेला। और अगर अधर्म को करने जाते हैं तो संगठन चाहिए, भीड़ चाहिए, जितना बड़ा पाप करना हो, उतना ही आदमी को अकेले रहने से संभव नहीं होता। और जितना बड़ा पुण्य करना हो, उतना ही भीड़ के साथ रहने से संभव नहीं होता।
सारे पाप दुनिया संगठन के द्वारा करवाती है। और बड़े बाप करने हों तो बड़ें संगठन चाहिए, छोटे पाप करने हों तो छोटे संगठन चाहिए। इसलिए धर्म जब संगठित होता है तो धर्म में अधर्म की शक्तियां प्रवेश कर जाती हैं। क्योंकि संगठन जो है वह अधर्म की शक्ल है। जब धर्म संगठित होता है उसमें अधर्म की शक्तियां प्रविष्ट हो जाती हैं। जब धर्म संगठित होता है तो उसमें पाप प्रविष्ट हो जाता है, अंधकार प्रविष्ट हो जाता है। फिर जितना वह संगठित होने लगता है उतना ही निचुड़ने लगता है--धर्म बाहर, और अधर्म उसमें प्रवेश पाने लगता है। जिस दिन कोई धर्म पूरा संगठित हो जाता है उस धर्म के भीतर धर्म के प्राण अंत हो जाते हैं और वह एक ऑर्गनाइजेशन, एक राजनैतिक, एक सामाजिक समूह मात्र होकर समाप्त हो जाता है।
दुनिया के संगठित धर्म राजनैतिक-सामूहिक इकाइयां हो गए हैं, उनका साधना से कोई संबंध नहीं रहा। और तब स्वाभाविक है ये संगठन आपस में एक-दूसरे से लड़ेंगे, संगठन आपस में एक-दूसरे से लड़ेंगे। धर्म कैसे एक-दूसरे से लड़ सकता है, लेकिन संगठन लड़ेंगे। धर्म का दूसरे धर्म से क्या विरोध हो सकता है? धर्म का तो विरोध अधर्म से होता है। लेकिन संगठन का विरोध अधर्म से नहीं होता, दूसरे धर्म से होता है।
दुनिया में धर्म के प्राण छीन लेने में संगठित धर्मों ने हाथ बंटा लिया, वे सब इकट्ठे हो गए हैं और एक-दूसरे धर्म से ल.ड़ते हैं। अधर्म से लड़ाई बंद, धर्मों की धर्मों से लड़ाई शुरू। इसके परिणाम घातक हो गए हैं। विज्ञान ने श्रम छीन लिया, धर्म ने व्यक्तिगत साधना छीन ली, मनुष्य निश्शक्त होता जाता है।
इस मनुष्य को वापस प्राण देने हों तो इसे श्रम देना होगा। श्रम की महिमा और मूल्य देना होगा और इसे बताना होगा, जहां तुम भीड़ में इकट्ठे होते हो--चाहे वह मंदिर हो, चाहे मस्जिद हो, चाहे शिवालय हो, चाहे चर्च हो, चाहे कुछ और हो--जहां तुम भीड़ में इकट्ठे होते हो, वहां समझो एक सामूहिक उपक्रम है, यहां धर्म नहीं हो सकता।
धर्म तो अकेले में जाओ। अकेले में जाने से केवल इतना मतलब नहीं कि केवल भीड़ से भाग जाओ। अकेले में जाने से मतलब है: तुम्हारे भीतर भीड़ न रह जाए। अपने भीतर से भीड़ को खाली कर लो। अकेले रह जाओ, बाहर के सारेे प्रभाव दूर कर दो, अकेले रह जाओ। सारी शक्तियों को इकट्ठा करके भीतर श्रम हो तो कोई भी कारण नहीं कि मनुष्य आत्म-ज्योति को क्यों उपलब्ध न हो जाए! आत्म-ज्योति प्रत्येक का जन्मसिद्ध अधिकार है, प्रत्येक का स्वरूप है। श्रम करने से, तप करने से उसे उपलब्ध किया जा सकता है और जो उसे उपलब्ध नहीं करते, वे अपना अपमान करते हैं।
महावीर ने, बुद्ध ने, कृष्ण ने--जिन्हें हम ज्योति-पुरुष की भांति देखते हैं, जब उस बोध को उपलब्ध कर लिया तो हमने क्या किया? हमने कहा: ये सारे के सारे लोग भगवान हैं, ये मनुष्य ही नहीं। हमने आत्मग्लानि से बचने के लिए खूब तरकीब निकाली। हमने उन्हें अपनी जाति से ही काट कर अलग कर दिया।
अगर महावीर भी मनुष्य हैं, अगर बुद्ध भी मनुष्य हैं तो हर एक के भीतर आत्मग्लानि, सेल्फ-कंडेमनेशन पैदा होगा कि अगर महावीर मेरे ही जैसे मनुष्य होकर ऐसे प्रकाश को, आलोक को उपलब्ध हुए--तो मैं क्या कर रहा हूं? अगर इन्हीं उपकरणों को लेकर वे ऐसी मुक्ति को, ऐसे आनंद को प्राप्त हुए--तो मैं क्या कर रहा हूं? अगर वे जाग सके तो मेरे सोने के पीछे सिवाय मेरे आलस्य के और क्या हो सकता है?
इसको बचने के लिए भगवान बना दिया कि वे भगवान हैं, वे हमारे लोक के ही मनुष्य नहीं। कृष्ण भगवान के अवतार हैं, ईशा भगवान के पुत्र हैं, वे हमारे लोक के मनुष्य नहीं हैं, उनकी जाति दूसरी। हम साधारण जन वहां कैसे पहुंच सकते हैं? हमारा तो काम है कि हम उनके चरणों में सिर रखें और प्रार्थना करें।
इससे ज्यादा अपमान की और कोई बात नहीं हो सकती। महावीर को देख कर, बुद्ध को देख कर स्मरण करें इस बात का--वे आप जैसे मनुष्य हैं, और जो उनके भीतर घटित हुआ वह आपके भीतर घटित हो सकता है और अगर कोई भी बाधा है उसके घटित होने में, सिवाय आपके कोई और बाधा नहीं है। आपका अपना आलस्य, अपना प्रमाद...।
महावीर से किसी ने पूछाः कौन रोकता है मनुष्य को सत्य से?
महावीर ने कहाः उसका प्रमाद, उसका आलस्य, उसका सोया होना, उसका तमस, उसका ढीला-ढाला होना।
कौन पहुंचाता है मनुष्य को जीवन के उत्तुंग शिखरों पर?
उसका श्रम, उसका आत्म-विश्वास, उसकी आत्म-श्रद्धा, उसके भीतर इस बोध का पैदा हो जाना कि जब तक मैं आत्मा की चरम परिपूर्णता को नहीं पा लेता हूं तब तक मैं अपना अपमान कर रहा हूं। और अपना अपमान करना, अपनी आत्म-गरिमा का अपमान करना जीवन की सबसे बड़ी भूल है।
उस भूल को पोंछा जा सकता है, उस भूल को मिटाया जा सकता है, और सजग ह‏ुआ जा सकता है उस आरोहण के लिए--जो द्वार खोल देगी आनंद के और आलोक के! ये प्रत्येक के भीतर संभावना है, यह बीज प्रत्येक के भीतर है। थोड़ा श्रम हो तो ये बीज अंकुरित हो सकते हैं। और इन बीजों में, इनके अंकुरण में वही फूल और फल लग सकते हैं जो कभी किसी भी पुरुष को, किसी भी आत्मा को उपलब्ध हुए हैं।
मेरी इन बातों को इतने प्रेम से सुना है, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। प्रभु आपके लिए श्रम के लिए सन्नद्ध करे, प्रभु आपको अपनी व्यक्तिगत गरिमा के पीछे, व्यक्तिगत गरिमा के केंद्र पर आरोहित करे, प्रभु आपको ऐसी अभीप्सा और प्यास दे कि आपके भीतर जो भी संभावनाएं हैं उन्हेें आप परिपूर्ण वास्तविकता तक पहुंचाने के लिए सन्नद्ध हो जाएं।
यदि संकल्प का जन्म हो जाए, यदि श्रम संलग्न हो जाए, यदि प्राणों की पूरी शक्ति संगठित हो जाए--तो सत्य को पाने से आसान और कोई बात नहीं। क्योंकि सत्य प्रत्येक का स्वरूप है।
मेेरी इन बातों को इतने प्रेम से सुना है उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं और सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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