कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 30 अगस्त 2018

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(ओशो)
 

देश धन के लिए बीमार हो गया

जब कोई सभ्यता सड़ती है, तो उसकी दुर्गंध, उसके व्यापारी वर्ग से सबसे ज्यादा आनी शुरू होती है। ये स्वाभाविक है। इसके पीछे कारण है। समाज का खून है धन, धन समाज की नसों में दौड़ता है, खून की तरह। और जब खून सड़ जाए, तो सारे समाज के शरीर पर फोड़े-फुंसियां और बीमारियां, प्रकट होनी शुरू हो जाती हैं। या अगर कभी ऐसा हो, कि किसी आदमी के पूरे शरीर पर फोड़े-फुंसियां और मवाद फैले लगे, तो जान लेना चाहिए कि भीतर खून सड़ गया होगा। व्यापारी समाज की रीढ़ है। और धन समाज का खून, और जब सभ्यता पुरानी होती चली जाती है, तो खून सड़ जाता है। और सारी दुर्गंध व्यापारी से निकलनी शुरू हो जाती है। भारत यी सभ्यता की सड़ांद, भारत की जो अर्थव्यवस्था है उससे पूरी तरह निकलनी शुरू हो गई है। और आज ही निकल रही है ऐसा नहीं है। सैकड़ो वर्षाें से निकल रही है। क्योंकि हमने नए को पैदा करने की क्षमता खो दी है। पुरानों को दफनाने की क्षमता भी खो दी है। न हम पुराने को मरघट तक पहुंचा सकते हैं, और न नए को जन्म देने के लिए प्रसव की पीड़ा, झेलने की हमारी हिम्मत है।
इसलिए पहली बात तो मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि भारत के व्यवसायी और व्यापारी वर्ग का कोई कसूर नहीं है। भारत के नेता व्यापारी को गाली देते हैं, भारत के व्यापारी भारत के नेताओं को गाली दे देंगे। लेकिन न कसूर व्यापारियों का है और न नेताओं का है। भारत की पूरी संस्कृति सड़ गई है। और इसलिए किसी एक-दूसरे को दोष देने से कोई भी प्रयोजन नहीं है।

जब तक हम पूरी संस्कृति और सभ्यता को बदलने के लिए आबद्ध न हों, संकल्प प्रकट न करें, जब तक हम इस पूरे को बदल न सकें। दुनिया में हर सभ्यता बदलती रही है, हम सिर्फ नहीं बदले हैं। और कुछ लोग हैं, जो सोचते हैं कि ये बहुत गौरव की बात है। कुछ लोग हैं जो कहते हैं रोम नष्ट हो गया। मिस्र नष्ट हो गया, बेबीलोन कहां हैं, सीरिया नष्ट हो गया। लेकिन हम, हम नष्ट नहीं हुए। कुछ लोग सोचते हैं कि यह बड़े आत्म गौरव की बात है, लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं कि यह अत्यंत अपमानजनक है। जो सभ्यताएं नष्ट हो गईं, उन्होंने नई सभ्यताओं को जन्म दे दिया। और जो सभ्यता नष्ट नहीं हुई, वह सभ्यता मरी हुई जिंदा है। वह मर गई है, और फिर भी जिंदा है। हमारा जो अस्तित्व है वह मृत है। मर जाने के बाद का है। स्वभावतः हमारा सब कुछ सड़ जाएगा। हमारा सब कुछ दुर्गंध से भर जाएगा। और सबसे ज्यादा यह दुर्गन्ध जहां से निकलेगी, वो होंगे हमारे आर्थिक संबंध। हमारे अर्थ की व्यवस्था। हमारे उत्पादन की व्यवस्था, भीतरण की व्यवस्था। जहां धन है, वहां सबसे ज्यदा सड़ंाद मालूम होगी। और इसलिए, पहली बात जो मैं भारत के व्यापारी समाज के संबंध में सोचते समय कहना चाहता हूं वह यह है कि अगर कोई सोचता हो कि भारत के व्यापारी समाज को, भारत की पूरी सभ्यता को संदर्भ के अलग देखा जा सकता है, तो वह बहुत गलती में हैं। भारत में सब कुछ जुड़ा हुआ है। सभी सभ्यताओं को सब कुछ जुड़ा होता है। सभ्यता एक आर्गेनिक हाॅल है। एक इकट्ठी इकाई है। अगर हम इस पूरी सभ्यता को बदलने को तैयार न हों, तो इसका कोई भी अंग बदला नहीं जा सकता। और अगर हम इसके किसी अंग को बदलेंगे, तो वह अंग ऐसे ही होंगे, जैसे किसी आदमी की सड़ी हुई टांग अलग निकाल दी जाए, और लकड़ी की टांग लगा दी जाए। और किसी आदमी की असली आंखें अलग कर दी जाएं, क्योंकि खराब हो गई हैं और पत्थर की आंखे लगा दी जाएं। लेकिन इस पूरे शरीर को जीवंत अगर करना हो, तो इस पूरे शरीर को नया करना जरूरी है।
यह पहली बात ध्यान में लेना आवश्यक है, कि भारत का सब कुछ ही दुर्गंधयुक्त हो गया है। और इसके दुर्गंधित होने में पुराना कारण है, कुछ और भी कारण हैं। एक बात, भारत हजारों वर्षों से धन की निंदा कर रहा है, और जो समाज धन की निंदा करेगा, वह धन के संबंध में अनिवार्यरूपेण बेईमान हो जाएगा। धन की निंदा करना खतरनाक है। क्योंकि धन की निंदा का एक ही अर्थ होता है कि अगर हम धन की निंदा करेंगे, तो धन उत्पादन की दिशा में हमारे पैर बढ़ने बंद हो जाएंगे। भारत का व्यवसायी समाज हजारों वर्षाें से उत्पादक काम नहीं कर रहा है। भारत का व्यवसायी समाज केवल, बीच के दलाल का काम कर रहा है। उत्पादक, प्रोडेक्टिव भारत का व्यवसायी समाज नहीं है। आज भी, आज भी भारत का बड़ा व्यवसायी समाज उत्पादक और ग्राहक के बीच में कड़ियों का काम कर रहा है। अगर बम्बई में कोई चीज पैदा होती है और बक्सर के गांव तक पहुंचानी है, तो बीच में पच्चीस दलालों की लंबी श्रृंख्ला है। वे बीच के पच्चीस दलाल ही, भारत के बड़े व्यवसायी समाज का हिस्सा हैं। और ध्यान रहे, धन अगर उत्पादन न किया जाए, और धन पर केवल दलाली की जाए, और बीच के मध्यस्थ का काम किया जाए, तो हजार तरह की बेईमानियां शुरू हो जाएंगी। जिस देश में व्यवसायी वर्ग मूलतः दलाल है, उस देश का व्यवसायी वर्ग कभी भी ठीक अर्थाें में ईमानदार नहीं हो सकता।
रवीन्द्रनाथ ने अपने बचपन की एक कहानी लिखी है। उन्होंने लिखा है कि मेरे घर में करीब सौ लोग थे, बड़ा परिवार था, और पिता ऐसे आदमी थे, जो मेहमान घर में आ गया, वह धीरे-धीरे घर का निवासी ही हो गया, वह कभी घर से गया ही नहीं। अनेक मेहमान, मेहमान की तरह आए थे फिर वह घर के ही आदमी होकर रह गए। सौ आदमी थे घर मे कई मन दूध खरीदा जाता था। रवीन्द्रनाथ के बड़े भाई ने यह पाया कि दूध में पानी मिलाया जा रहा है। तो एक इंस्पैक्टर नियुक्त किया, दूध खरीदने वाले के ऊपर कि वह देखे कि दूध में पानी न मिल जाए। दूसरे दिन पाया गया कि पानी दूध में और ज्यादा बढ़ गया है। क्योंकि इंस्पैक्टर का हिस्सा भी उसमें बढ़ गया। लेकिन भाई जिद्दी थे, और उन्होंने एक और आदमी को ऊपर नियुक्त किया। तो वह इंस्पैक्टर के ऊपर भी और और चीफ सुपरवाइ.जर था। लेकिन तीसरे दिन पाया गया कि पानी और भी बढ़ गया और दूध और कम हो गया। रवीन्द्रनाथ के पिता ने रवीन्द्रनाथ के भाई को बुलाकर कहा कि यह तुम क्या पागलपन कर रहे हो? तुम जितने दलाल बढ़ाते जाओगे, उतना ही पानी बढ़ता चला जाएगा। लेकिन भाई जिद्दी थे। उन्होंने कहा, कि मैं रूकावट लगा के रखूंगा। अब मैं घर के ही एक आदमी को सबसे ऊपर नियुक्त करता हूं। लेकिन जिस दिन घर का आदमी नियुक्त किया गया, उस दिन एक और अजीब घटना घटी, दूध में पानी तो आया ही, एक मछली भी आ गई। दिखता है, सीधे तालाब से, पोखर से पानी भर दिया गया, उसमें एक मछली भी चली आई। वह घर के आदमी का भी हिस्सा उसमें जुड़ गया था।
भारत का व्यवसायी वर्ग, हजारों वर्षों से अनुत्पादक है, उत्पादक नहीं। भारत के व्यवसायी की जो जान है, वह दलाली है, और जिस देश में दलाली जान होगी, दलाल बढ़ते चले जाएंगे। बेईमानी बढ़ती चली जाएगी। और ग्राहक के ऊपर, उपभोक्ता के ऊपर, कंज्यूमर के ऊपर, बोझ बढ़ता चला जाएगा। भारत का व्यवसायी उत्पादक क्यों नहीं है? प्रोडक्टिव क्यों नहीं है? यह थोड़ा सोचना जरूरी है। भारत तीन-चार हजार वर्षों से धन की निंदा कर रहा है। वह कह रहा है, धन फिजूल है। धन व्यर्थ है। धन कचरा है। और जो समाज धन की निंदा करेगा, धन की निंदा से, धन की आकांक्षा समाप्त नहीं होती, धन की आकांक्षा के कुछ स्वाभाविक कारण हैं। धन न तो व्यर्थ है, न असार है। धन की बड़ी सार्थकता है, बड़ी उपयोगिता है। धन जीवन के बीच बदलाहट के लिए, एक्सचेंज के लिए, विनिमय के लिए अत्यंत उपयोगी माध्यम है। उस माध्यम के बिना सभ्यता विकसित नहीं हो सकती। जिन समाजों ने धन का विकास नहीं किया, वो समाज जंगलों में रह रहे हैं, वो विकसित नहीं हो सकते। धन अत्यंत जरूरी है, वह सभ्यता का प्राण है। लेकिन भारत तीन हजार वर्षों से धन का विरोध करता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि धन का विरोध धन की आकांक्षा को नष्ट नहीं करता, धन का विरोध सिर्फ धन के उत्पादक स्वरूप को नष्ट कर देता है। और एक इस तरह की एक लम्बी जमात पैदा करता है, जो धन का उत्पादन भी नहीं करती, और धन की आकांक्षी भी है। और मजे की बात है कि धन के ही जो विरोध करने वाले लोग हैं, हिन्दुस्तान के साधु-संतों की लम्बी परंपरा है, जो धन का विरोध कर रहे हैं, इन साधु-संतों को हिन्दुस्तान का व्यापारी वर्ग ही पालता-पोसता है। और उन साधु-संतों की बात भी हिन्दुस्तान का व्यापारी वर्ग ही बैठके सुनता है। ठीक भी है, आखिर जिनके पास सुविधा है, वही साधुओं को सुन भी सकते हैं, जिनके पास सुविधा नहीं है, वह साधुओं को सुनेंगे कहां।
साधुओं को पालना भी सफेद हाथियों को पालना है। उनको सुनना, सुविधा होनी चाहिए, व्यापारी वर्ग जिसके पास पैसा है, वो साधुओं के आस-पास इकट्ठा होता है। और ध्यान रहे, व्यापारी उसी साधु को आदर देगा, जो धन का जितना ज्यादा विरोध करे। क्योंकि व्यापारी के मन में धन का लोभ है। वो धन का लोभी है, धन का आकांक्षी है। वो उसको ही सम्मान दे सकता है, जो धन का विरोधी हो। धन के विरोध को निरन्तर साधु-संयासी समझाएगा। और व्यापारी सुनेगा। इससे धन की आकांक्षा नहीं मिटती। लेकिन धन के उत्पादक दिशा में जाने का मार्ग अवरूद्ध हो जाता है। तब दूध में पानी मिला कर अगर धन आ सकता हो, शक्कर में रेत मिला कर धन आ सकता हो, और दवा की जगह पानी भी भरा जा सकता हो, तो इतने सरल रास्तों से फिर धन इकट्ठा करने की कोशिश की जाती है। उत्पादक होना, क्रियेटिव होना, सृजनात्मक होना श्रम मांगता है, लंबा चिंतन मांगता है, प्रतिभा मांगता है, जीवन भर की साधना मांगता है। तब अंत में धन पैदा होगा। और धन के हम विरोधी हैं, तो कोई सरल तरकीब निकालनी चाहिए। जुआ खेल लेना चाहिए, सट्टा खेल लेना चाहिए। और अब पूरे मुल्क की प्रांतीय सरकारें, सारे मुल्क को जुआ खिलवा रही हैं, तो लाॅटरी निकाल देनी चाहिए, एक रूपया लगा के लाख रूपया मिल जाएं। जो कौम बिना कुछ किये, रूपये पाना चाहती हो, वह कौम खतरनाक है। एक रूपया लगा कर कोई आदमी एक लाख रूपया पाना चाहता हो, यह आदमी अपराधी है। और यह आदमी खतरनाक है, और इस आदमी को समाज में पालना सब तरह की बीमारियों को पैदा करना है। क्योंकि यह आदमी कुछ करना नहीं चाहता और लाख रूपये चाहता है। धन चाहा जाए, जरूर चाहा जाए, लेकिन धन चाहने का अर्थ है, सृजनात्मक होना, धन को पैदा करने का, कैसे हम, हाउ टू क्रियेट कैपिटल? कैसे हम पैदा करें धन? हम इस मुल्क में पूछते हैं, कैसे हम धन इकट्ठा करें? पैदा करने की बात कोई भी नहीं पूछता। क्योंकि पैदा करने के लम्बे श्रम में कौन लगे? फिर धन कोई इतनी अच्छी चीज भी नहीं कि पैदा किया जाए। कोई सस्ती तरकीब से मिल जाए, तो पा लिया जाए। साधु समझा रहा है, धन व्यर्थ है, व्यापारी समझ रहा है। और व्यापारी सिर्फ साधु की बात इसलिए समझ रहा है, कि उसके मन में धन का लोभ है, और साधु धन का विरोध कर रहा है। अगर साधु कहे कि धन पैदा करो, व्यापारी साधु का पीछा फौरन छोड़ देगा। कहेगा यह भी व्यापारी है।
मैंने सुना है, मियामी बीच पर अमेरिका में, एक साधु की बड़ी ख्याति थी। और लोग कहते थे वह इतना सरल आदमी है, कि अगर आप दस डाॅलर का नोट उसके सामने करें, और दस पैसे का नया सिक्का उसके सामने करें और कहें कि कोई भी आप ले लें, तो वह दस नए पैसे का पक्का सिक्का ले लेगा। जो भी उस बीच पर जाते थे, वह यह खेल जरूर करते थे। जाकर उस साधु के सामने करते थे, दस डाॅलर का, सौ डाॅलर का सिक्का, दस पैसे का सिक्का, वह जल्दी से उचक के दस पैसे का सिक्का ले लेता था। लोग हंसते हुए लौटते थे। एक आदमी बीस साल पहले गया था, और बीस साल बाद फिर गया, और देखा कि वह बूढ़ा अभी भी वही काम कर रहा है। उसे बड़ी हैरानी हुई, क्या उसे बीस साल में भी अभी तक पहचान नहीं आ सकी कि वह इतना सीधा है, कि दस पैसे के सिक्के में और दस डाॅलर के नोट में फर्क नहीं कर पाता। रात जब सारे लोग चले गए, तो उस आदमी ने जाकर बूढ़े से पूछा कि बाबा, मैं बहुत हैरान हूं, क्या तुम अभी भी पहचान नहीं पाते हो? उसने कहा, पहचान नहीं पाता हूं? भली-भांति पहचानता हूं। तो उस आदमी ने कहा, फिर जब लोग तुम्हारे सामने नोट करते हैं, फिर तुम नोट क्यों नहीं ले लेते, दस पैसे क्यों ले लेते हो? उसने कहा तुम पागल हो, जिस दिन मैं दस का नोट ले लूंगा, उसी दिन खेल खत्म हो जाएगा। और अब तक मैंने दस का नोट नहीं लिया, इसीलिए मैंने हजारों-लाखों नोट इकट्ठे कर लिये हैं, बीस सालों में। दस-दस पैसे इकट्ठे करके, वह खेल जारी है। क्योंकि जो लोग आते हैं वह दस रूपये को पकड़ने वाले लोग हैं। वह दस पैसा जो पकड़ता है, दस रूपया जो छोड़ता है, उसे त्यागी समझते हैं। समझते हैं, भोला है, सरल है, दिन भर यह काम चलता है। और एक दिन मैंने दस का नोट लिया, मन तो मेरा भी होता है, दस का नोट ले लूं लेकिन उसी दिन खेल समाप्त हो जाएगा। अगर किसी साधु ने धन की बात की कि साधु का खेल समाप्त हुआ। उसी क्षण समाप्त हो जाएगा। साधु का खेल तब तक चलता है, जब तक वो धन के विरोध में बोल रहा है। साधु का खेल तब तक चलता है, जिस तरह आप जी रहे हैं, वो उसके उल्टा बोल रहा है। वह आपके जीने में सहयोगी नहीं हो रहे हैं उसके विचार, आपके जीवन में बाधा डाल रहे हैं। और सबसे बड़ी बाधा जो साधुओं ने डाली है वह यह है, कि धन के संबंध में, धन को असार कह कर धन की निंदा करके, धन का विरोध करके, उसने धन के संबंध में बीमारी पैदा कर दी। धन के संबंध में सुव्यवस्था पैदा नहीं हो सकी। जिस चीज को हम असार समझ लेंगे, उस ची.ज की व्यवस्था क्यों करेंगे। जिस चीज को हम असार समझ लेंगे, उसकी हम व्यवस्था क्यों करेंगे। जिसको हम कचरा समझ लेंगे, उसके संबंध में हम सोचेंगे क्यों? लेकिन धन का काम तो जारी रहेगा। अगर हम सोचेंगे नहीं, अगर कोई ऐसा आदमी, उस गांव में आए और लोगों को समझाए कि बीमारियां असार हैं, तो बीमारियों के संबंध में सोचना बंद हो जाएगा, लेकिन बीमारियां बंद नहीं हो जाएंगी। बीमारियां जारी रहेंगी। और बीमारियां खतरनाक हो जाएंगी। क्योंकि कोई अगर बीमारियों के संबंध में न सोचेगा, तो बीमारियांें को दूर करना भी मुश्किल है। स्वास्थ्य की व्यवस्था करना भी मुश्किल है। धीरे-धीरे पूरा गांव बीमार हो जाएगा।
इस देश को समझाया जा रहा है, धन व्यर्थ है। धन व्यर्थ होने के कारण सारा देश धन के लिए बीमार हो गया। और धन के लिए हम कोई सुयोजित व्यवस्था, ऐसी कोई सामाजिक व्यवस्था नहीं उत्पन्न कर पा रहे हैं, जहां धन मित्र बने, शत्रु नहीं। जहां धन मार्ग बने, बाधा नहीं। जहां धन लोगों की जिंदगी में चमक लाए, उदासी नहीं। इस देश में धन लोगों की जिंदगी में चमक नहीं लाता, जिनके पास धन नहीं हैं, वह धन के न होने से पीड़ित हैं। और जिनके पास धन है, वह धन के होने से पीड़ित हैं। धन के कारण किसी की जिंदगी में कोई चमक नहीं आती। क्यों? क्योंकि दूसरी बात हिन्दुस्तान की संस्कृति सिखाती है, सादगी। सादा जीना, ऊंचा विचार। सिम्पल लिविंग और हाई थिंकिंग। एकदम बकवास है। सादी जिंदगी और ऊंचा विचार। सच बात ये है ऊंची जिंदगी और ऊंचा विचार। हंा, ऊंची जिंदगी के बाद एक वक्त ऐसा आता है, कि सादी जिंदगी, सारी ऊंची जिंदगियों से ऊंची जिंदगी मालूम होने लगती है। लेकिन अगर कोई ऊंची जिंदगी को जानता नहीं, तो सादी जिंदगी सिर्फ झूठा संतोष है। हिन्दुस्तान को झूठे संतोष की बातें सिखाई जा रही हैं। इसका दोहरा परिणाम हुआ है। गरीब-गरीब रह गया है, क्योंकि वह कहता है, क्या करना है? और अमीर धन भी इकट्ठा कर लेता है, लेकिन रहता गरीब की तरह से है। भारत का व्यवसायी धनी, भारत में जिनके पास पैसा है, वह भी रहते गरीब की भांति हैं। धन इकट्ठा करते हैं। धन को भोगते नहीं हैं, और ध्यान रहे, जिस समाज में, धन को इकट्ठा करने वाले लोग पैदा हो जाते हैं, उस समाज की पूरी जिंदगी सड़ जाती है। धन को भोगने वाले लोग चाहिएं। जो धन को खर्च करते हों, जो धन को फैलाते हों, जो धन को रोकते न हों। लेकिन हिन्दुस्तान में धन को रोका जा रहा है। हिंदुस्तान में आदमी धन इसलिए कमाता है कि तिजोरी में बंद करे। क्योंकि सादी जिंदगी पर जोर है। धनी एक काम करता है, तिजोरी को बड़ा करते चले जाओ। और धनी आदमी ठेठ गरीब की तरह जीता है, बल्कि लोग तारीफ करते हैं कि फलां आदमी बहुत ऊंचा है। इतना बड़ा आदमी है, लेकिन रहता गरीब की भांति है। फिर बेवकूफ है वो, पागल है। अगर धन कमा के गरीब की तरह रहना है, तो बिना धन कमाए गरीब की तरह मजे से रहा जा सकता है। धन कमाने की जरूरत क्या है? और वह आदमी समाज के लिए खतरनाक भी है। क्योंकि जितना धन तिजोरी में बंद हो जाता है, उतना धन समाज के लिए वैसा ही हो जाता है, जैसे हाथ या पैर में बहता हुआ खून कहीं रूक जाए, शरीर में खून दौड़ रहा है। जितनी तेजी से दौड़ रहा है, उतना आदमी जवान होगा। जितना सरलता से दौड़ रहा है और बिना बाधा के दौड़ रहा है, उतना आदमी के शरीर में ताकत होगी। जहां-जहां खून रूक जाएगा, वहीं-वहीं बुढ़ापा शुरू हो जाएगा। और अगर खून की धारा कहीं रूक गई तो पैरालिसिस हो जाएगी। तो वहां तो लकवा लग जाएगा। हिन्दुस्तान का व्यवसायी समाज पैसा कमाता है, और लकवा बन जाता है, पैरालाइज्ड हो जाता है। पैसा कमा के तिजोरी में बंद कर देता है, पैसा खून है, जो दौड़ना चाहिए। लेकिन हिन्दुस्तान को समझाया गया है, कमाओ जरूर, लेकिन खर्च मत करो। फिर कमाना किसलिए। कमाओ, और जितना कमाओ उससे ज्यादा खर्च करो, ताकि खून गतिमान हो। ताकि खून दौड़ता रहे। अगर मेरे पास एक रूपया है, और मैं तिजोरी में बंद कर लूँ तो वो एक ही रूपया रह जाता है। और अगर मैं उसे चला दूं, और दिन भर में वो दस हाथों में गुजर जाए, तो वह एक रूपया दस रूपया हो जाता है। वह एक रूपया दस आदमियों के खीसों को गर्म करता है। वह एक रूपया दस आदमियों के पास दस रूपया बनता है। वह एक रूपया जिंदा है, वो भाग रहा है, वो दौड़ रहा है, जिस समाज की सम्पत्ति जितने जोर से दौड़ती है, वो समाज उतना सम्पन्न होता चला जाता है।
लेकिन हिन्दुस्तान में एक पागलपन है। और वह यह है कि धन कमाओ तो जरूर, लेकिन उसे खत्म मत करना, रहना गरीब की तरह। सादे विचार रखना, सादे मकान में रहना, सादे कपड़े पहनना। लेकिन फिर इस धन का दिखावा कहां करोगे? इस धन का फायदा क्या होगा? फिर इस धन को गलत जगह दिखाना। लड़की की शादी हो, तो पांच लाख रूपये आग में फूंक देना। जो कि बिल्कुल पागलपन है। फुलझड़ी-पटाखे छोड़ देना हजारों रूपये के। मैंने सुना है एक आदमी ने पचास हजार रूपये के इनविटेशन कार्ड छपवाए। वह जो सादा विचार, सादी जिंदगी है, वो बदला लेगी, और बदला लेगी इस तरह कि गांठ पैदा हो जाएगी। वह जो खून रूक गया है, वह फूलकर कहीं से निकलेगा, तो घाव बनेगा, फूलेगा, मवाद बनेगी, उपद्रव होंगे। हिन्दुस्तान में कोई भी आदमी, धन को भोगता नहीं है, या तो गरीबी भोगता है, या धन की मवाद इकट्ठी होती है और फूटती है। या तो शादी में फूटेगी, या पिता के मरने की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, तब फूटेगी, या कुछ और कोई उपद्रव खोजना पड़ेगा, या कोई मंदिर बनवाना पड़ेगा। या किसी साधु की जन्म तारीख खोजनी पड़ेगी, वर्षगांठ मनानी पड़ेगी। या किसी साधु का स्वर्ण दिवस मनाना पड़ेगा। या कुछ और, और वहां लाखों रूपये खोजने पड़ेंगे। हिन्दुस्तान भी रूपये खर्च करता है, लेकिन गलत जगह खर्च करता है। और गलत जगह इसलिए खर्च करता है, कि ठीक जगह खर्च करने की व्यवस्था पर हमने रूकावट लगाई है। और ये ध्यान रहे, जो लोग धन इकट्ठा करने वाले हो जाते हैं, वह बहुत खतरनाक हो जाते हैं। जो आदमी धन को जितनी उत्पन्नता से खर्च कर सकता है, वह आदमी उतना ही प्रसन्न होगा, कंजूस कभी भी नहीं होगा। जो आदमी जितने जोर से पैसे फेंक सकता है, वह उतना आनंदित होगा। और ध्यान रहे, जो जितना प्रसन्न होगा, और जितना आनंदित होगा, वह उतना प्रोडक्टिव होगा। उतना वह उत्पादनशील होगा। जो आदमी जितना उदास होगा, जिनता गम्भीर होगा, जितना मुट्ठी बंद होगी, उतना कम उत्पादक होगा, कम प्रोडक्टिव होगा, शोषक होगा, एक्सप्लाटेटिव होेगा। लेकिन प्रोडक्टिव नहीं होगा। और यह भी धन और ये भी ध्यान रहे, जो आदमी उत्पादन नहीं कर सकता, धन का, वह बेईमानी से धन को इकट्ठी करने की सारी चेष्टाएं करेगा।
हिन्दुस्तान ने धन की उत्पादनशलता पर सब तरफ से रोक लगा दी। कोई सम्मान नहीं है, धन के उत्पादन करने वाले का। हिन्दुस्तान में अगर एक आदमी प्रोफेसर है, तो वो उससे पूछिये कि आप क्या करते हैं? तो वह कहता है कि मैं प्रोफेसर हूं। कोई आदमी अगर इंजीनियर है तो वह कहता है कि मैं इंजीनियर हूं। कोई आदमी अगर मिनिस्टर है तो वो कहता है कि मैं मिनिस्टर हूं। लेकिन एक व्यवसायी, एक व्यापारी थोड़ा सा हेजिटेट करता है, उससे पूछिए आप क्या करते हैं? आश्चर्य की बात है, व्यवसायी तो रीढ़ है समाज की, वह धन पैदा करने का मार्ग है, और वह धन पैदा करने की बुद्धिमत्ता है। वह तो विसडम है, जहां से धन पैदा होता है। लेकिन वह जो सबसे बुद्धिमान वर्ग है, वह संकोच से भरा हुआ है, वह कहता है कुछ नहीं जी, व्यवसाय करता हूं ,कुछ काम करता हूं। कोई धन्धा करता हूं। इसका कारण, धन की एक निंदा है। और धन कमाने वाले की भी एक निंदा है। और आश्चर्य की बात है, कि आज तक समाज को, जिन लोगों ने सबसे ज्यादा लाभ पहुंचाया है, वह न तो क्षत्रिय हैं, वह न ब्राह्मण हैं। वह व्यवसायी हैं। वह वे लोग हैं, जो धन पैदा करते हैं। एक, लेकिन इस देश में, धन के प्रति एक निरादर है, और उस निरादर के कारण, वह धन को पैदा करने वाला है, वह भी आदृत नहीं है। और उसका जो सारा का सारा ढांचा हमने खड़ा किया हुआ है, वह ऐसा गलत है, कि वह सारा ढांचा, मनुष्य को धन की सहज दिशाओं में नहीं ले जाता, वह सीधे रास्ते ही नहीं देता, वह गलत रास्ते ही देता है। और गलत रास्तों से धन पैदा करने के उपाय करवाता है। हम इस देश में, जब तक धन की गरिमा को सीधा-सीधा स्वीकार नहीं करेंगे और जब तक हम ये भी स्वीकार नहीं करेंगे कि धन खर्च करने के लिए है, असल में धर्म का मतलब है खर्च करने की क्षमता, अगर खर्च करना बंद करते हैं तो धन, धन ही नहीं है। वह मिट्टी है। उसे खर्च करते हैं, इसलिए वह धन है। और धन जितना खर्च होता है, उतना फैलता है, और अधिक होता है, समाज को समंवित करता है।
तीसरी बात है कि हिन्दुस्तान के व्यवसायी को, वो जो साधु-संतों के आस-पास इकट्ठा होकर, धन की, व्यवसाय की, जीवन की निंदा सुन रहे हैं, वो बंद करनी चाहिए। और उनसे जो जीवन के गलत सूत्र सुन रहे हैं, उसने सुना जा रहा है, साधु समझा रहे हैं, चादर जितनी हो, उससे ज्यादा पैर कभी नहीं पसारने चाहिए। और ध्यान रहे व्यवसाय का सूत्र यह है, कि चादर जितनी हो उससे हमें ज्यादा पैर पसारने चाहिएं। कोई आदमी अगर चादर के भीतर पैर पसारेगा, तो चादर कभी बड़ी नहीं हो सकती, बड़ी होने की जरूरत नहीं, चैलेंज नहीं, चुनौती नहीं। जब कोई आदमी चादर के बाहर पैर फैलाता है, पैर पर ठंड लगती है, तब वह चादर को बड़ा करने का विचार करता है।
अमेरिका में या पश्चिम में जो धन का आकाश से जो एकदम अम्बार टूट पड़ा है, वह आकस्मिक नहींे है, वह आकस्मिक बिल्कुल नहीं है, उसके पीछे कारण है, उन्होंने यह बात समझ ली है, कि हम जितनी आवश्यकता को बढ़ाएंगे, उतनी आवश्यकता मांग करती है कि पैदा करो। आवश्यकता बढ़ती है, तो उत्पादन बढ़ता है, आवश्यकता बढ़ती है चादर, छोटी पड़ जाती है, पैर आगे निकल जाते हैं, तो बड़ी चादर करने का विचार करना पड़ता है।
हिन्दुस्तान हजारों साल से इस तरह की नासमझी की बातें सुन रहा है कि जितनी चादर हो उससे कम पैर सिकोड़ो। अगर तुम बड़े हो जाओ तो और पैर अपने पेट से लगा कर सो जाओ। लेकिन चादर के बाहर पैर मत निकालना। यह बातें हमें सुनने में अच्छी लगती हैं। क्यों? क्योंकि, यह बातें आलस्य को प्रोत्साहन देती हैं। यह बातें हमें सुनने में अच्छी लगती हैं। क्योंकि यह बातें, हमें खतरनाक रास्तों पर जाने से बचा लेती हैं। यह बातें सुनने में अच्छी लगती हैं, क्योंकि यह संघर्ष और तनाव से हमें बचा लेती हैं। लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं , बिना तनाव के, बिना संघर्ष के, बिना असंतुष्ट हुए, इस जगत में कुछ भी पैदा नहीं होता है। और यह भी मैं आपसे कहना चाहता हूं , कि जो आदमी कभी असंतुष्ट नहीं हुआ हो, वो आदमी संतोष के राज को भी कभी नहीं समझ पाएगा। यह बात उलटी मालूम पड़ेगी, लेकिन मैं आपसे कहता हूं जो आदमी दिन में ठीक से जागा है, वही आदमी रात में ठीक से सोता है। और जिस आदमी ने दिनभर मजदूरी और मेहनत की है, वो आदमी जितना विश्राम करता है, उतना आदमी वह कभी विश्राम नहीं करता जिसने दिन भर कोई श्रम नहीं किया। श्रम करने वाला विश्राम करने की क्षमता जुटा लेता है, और मैं आपसे कहता हूं असंतुष्ट होने वाला, संतुष्ट होने की क्षमता जुटाता है। और जो आदमी जितने तनाव में जीता है, वह उतना शान्त होने की ताकत इकट्ठी करता है। और जो आदमी तनाव से भागता है, असंतोष से भागता है, सब तरह के संघर्ष से भागता है, वह आदमी शांति को कभी उपलब्ध नहीं होता। वह आदमी सिर्फ मर जाता है, मुर्दा हो जाता है। मरघट की शांति एक बात है, मंदिर की शांति बिल्कुल दूसरी बात है। मंदिर की शांति जीवन के लम्बे संघर्ष का अंतिम फल है, मरघट की शांति कोई अभी चाहे, इसी वक्त मर जा सकता है, और शंात हो सकता है।
हिन्दुस्तान में मरने की तरकीब सिखाई जा रही है, जीने की तरकीब नहीं। और इसके स्वाभाविक परिणाम हुए हैं, और वो परिणाम व्यवसायी वर्ग पर बहुत जोर से हुए हैं। क्योंकि वो मरने की तरकीब सुनने की सुविधा व्यवसायी के पास है। वह सुन रहा है। वह मंदिर बना रहा है। और एक उलटा मंदिर हमने जीवन का खड़ा कर लिया है। मैं आपसे कहूं , हिन्दुस्तान में, हिन्दुस्तान के व्यवसाय में, हिन्दुस्तान के अर्थतंत्र में, हमने उल्टी व्यवस्था की, शीर्षासन कर रहे हैं हम, और वो शीर्षासन यह है, कि हमने पदार्थ को भूत को, मैटेरियल को, मैटेरियलिज्म को बिल्कुल इंकार किया हुआ है। हम कहते हैं मैटेरियलिज्म, वह पश्चिम के लोग भौतिकवादी हैं। हम अध्यात्मवादी हैं। लेकिन ध्यान रहे भौतिकवाद जीवन का पहला आधार है।
जैसे कोई मंदिर की नींव भरता है। तो नींव में तो पत्थर भरने पड़ते हैं। लेकिन ऊपर कलश पर स्वर्ण का कलश लगाते हैं। कोई अगर स्वर्ण का कलश नींव में लगा दे, और नींव के पत्थर ऊपर रखने की कोशिश करे। तो वो मंदिर तो गिरेगा ही, उसके पुजारी भी मरेंगे, उसके पूजा करने वाले भी मरेंगे।
भारत हजारों साल से उलटे सिर खड़े होने की कोशिश कर रहा है। हम अध्यात्म को बुनियाद में रखते हैं, जो कि गलत है। अध्यात्म हमेशा अंतिम, वह शीर्ष, वहशखर है। भूत, जिसको हम मैटीरियलिज्मरें, भौतिकवाद वह प्रथम है। भारत इनकार कर रहा है भौतिकवाद को। और इसलिए भारत से ज्यादा भौतिकवादी समाज खोजना मुश्किल है। भारत में हम त्याग की इतनी बातें करते हैं, एक तरफ व्यापारी त्याग की बात करेगा, एक तरफ वह नंगे खड़े हुए आदमी की पूजा करेगा और दूसरी तरफ, दूसरी तरफ वह जिस बुरी तरह से धन खींचेगा, तो उसमें सारी मनुष्यता निचुड़ जाए। सारी आदमियत निचुड़ जाए, इसकी भी फिक्र नहीं करेगा। एक तरफ वह खून चूस लेगा और दूसरी तरफ वह दानवीर हो जाएगा। और इन दोनों में कन्ट्रोडिक्शन नहीं है, कोई विरोधाभास नहीं है। थोड़ा सोचने जैसा है।
मैं एक घर में ठहरता हूं, उस घर में ऊपर एक पश्चिमी परिवार रूका हुआ था, कुछ दिनों से। वो पश्चिमी परिवार के संबंध में जब भी मैं उस घर में गया, तो उस घर के लोगों ने कहा, बिलकुल नीरे भौतिकवादी हैं। सिवाय गाना-बजाना, खाना-पीना, बारह-बारह बजे रात तक नाचते रहते हैं। यह सब क्या पागलपन है। नीरे भौतिकवादी हैं, इन्हें सिवाय शरीर के और कुछ भी नहीं है। दो वर्ष बाद में फिर गया, ऊपर के मेहमान घर छोड़के चले गए थे। विदेश, अपने देश वापस लौट गए थे। उस घर के लोगों से मैंने पूछा, क्या ऊपर के लोग चले गए? उन्होंने कहा चले गए, और बड़ी हैरानी की बात, जो बर्तन मांजने वाली थी, उसको वह अपने बर्तन दे गए, और बिल्कुल स्टेनलेस स्टील के, असली स्टेनलैस स्टील के बर्तन, वो उसी को दे गए, नौकरानी को। जो घर में बुहारी लगाता था, उसे अपना रेडियो दे गए हैं। वह अपना सब सामान बांट गए, वह कुछ ले नहीं गए, बड़े अजीब लोग थे।
मैंने उनसे पूछा, तुम्हें भी कुछ दे गये हैं, उनकी आंखों में तो मुझे लार टपकी मालूम पड़ी, उनको वह कुछ दे नहीं गए थे, शायद संकोच में सोचा होगा कि इनको कुछ देने के लिए कहना ठीक नहीं। शायद वो अपमान समझें, क्योंकि उनसे बहुत ज्यादा उनके पास है। वह कहने लगें, नहीं, हमें क्या जरूरत है, देने की। लेकिन उनकी आंख व उनके चेहरे को देखे कर लगा कि भारी दुःखी हैं वह, वह जो बरोनी को दे गए हैं बर्तन अगर इनको दे गए होते, तो बहुत अच्छा होता। तो उन्होंने कहा नहीं, हमें तो कुछ नहीं दे गए। लेकिन उनके लड़के ने मुझे कहा कि नहीं मम्मी, एक चीज अपने पास उनकी है। मम्मी ने डाटने की कोशिश की, लेकिन उस लडके को कुछ समझ में नहीं आया और उसने कहा वो रस्सी छोड़ गए हैं। कपड़े बांधने की रस्सी होगी नायलोन की कोई, ऊपर। वह लड़के ने कहा कि वह रस्सी छोड़ गए थे, मम्मी उसको खोल लाई है। वह एक चीज हमारे पास भी छूट गई है।
वह भौतिकवादी थे, यह अध्यात्मवादी लोग हैं। यह रोज सुबह पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं, मंदिर जाते हैं, साधु के चरण पड़ते हैं। साधु को घर बुलाते हैं, उससे प्रवचन लेते हैं। यह आध्यात्मिक हैं। वह भौतिकवादी लोग थे।
मैं आपसे कहता हूं वह ऊपर का परिवार कभी आध्यात्मिक हो सकता है, लेकिन यह नीचे का परिवार कभी भी अध्यात्मिक नहीं हो सकता। असल में जीवन के तथ्यों को हम अस्वीकार कर रहे हैं। इसलिए भारत का व्यवसायी, नितांत भौतिकवादी है। मंदिर बनाता है, पूजा करता है, प्रार्थना करता है, साधु के पीछे चक्कर लगाता है, तीर्थ करता है। हजारों-लाखों रूपये खर्च करता है, और दूसरी तरफ, दूसरी तरफ उसके जीवन में, उसमें जीवन में धर्म जैसी, सुसंस्कृति जैसी, अध्यात्म जैसी कोई ची.ज नहीं दिखाई पड़ेगी। जब वह दुकान पर मिलेगा, तब वह आदमी बिलकुल दूसरी तरह का है, यह दोहरी बातें क्यों हैं? इनके पीछे कुछ कारण हैं, हमने जीवन की सच्चाई को इंकार किया हुआ है। मैं आपसे कहना चाहता हूं अगर भारत में एक अच्छा व्यवसायी समाज पैदा करना हो और एक अच्छा अर्थतंत्र पैदा करना हो, तो हमें धन की महत्ता को और भौतिकवाद की उपयोगिता को, परिपूर्ण रूप से, पूरे मन से स्वीकार करना होगा। यह मान लेना होगा कि भौतिकवाद की अपनी जगह है। और कोई आदमी अगर धन कमाने जा रहा है, तो निंदा योग्य नहीं है। हां, कोई आदमी अगर गलत ढंग से धन कमाने जा रहा है, तो निंदा योग्य है। ठीक ढंग से, उत्पादक ढंग से कोई आदमी धन कमाने जाता है तो वह आदर के योग्य है। कोई आदमी धन को इकट्ठा करता है तो निंदा के योग्य है। कोई आदमी अगर धन को जीता है, भोगता है, तो निंदा के योग्य नहीं है। रोक लेने वाला खतरनाक है, भोग लेने वाला खतरनाक नहीं है। धन को फैला देगा। और हमें ये ध्यान रखना पड़ेगा कि जिंदगी के शरीर की बाहर की जिंदगी की जो जरूरतें हैं, उनको जबरदस्ती रोक के अगर, हमने संतोष करने की कोशिश की तो वो जरूरतें उल्टे रास्ते से, पीछे के रास्ते से प्रकट होनी शुरू हो जाती है, और सारे व्यक्तित्व को बेईमान कर देती हैं। सारे व्यक्तित्व को बेईमान कर देती हैं। अगर हम अपनी जरूरतों को उनको ठीक रास्तों से निकलने दें, तो व्यक्तित्व एक ईमानदारी को एक आनेस्टी को उपलब्ध होता है। भारत का व्यवसायी पूरा बेईमान है, कारण? कारण एक, और वह यह है कि जीवन के सहज जो द्वार हैं, वह सब हम बंद किये बैठे हैं। और पीछे के द्वार के सिवाय निकलने का कोई रास्ता नहीं छोड़ा है। पीछे के दरवाजे से ही निकलना पड़ेगा, सीधे दरवाजे पर हम किसी को स्वीकार नहीं करते। और ध्यान रहे, अगर इस तरह की प्रवृत्ति तीन-चार हजार वर्ष तक चल जाए, तो हम भूल ही जाते हैं। यह हमारे प्राणों में प्रविष्ट हो गए हैं। हमारे खून, हमारी हड्डी-मांस-मज्जा में मिल गई है।
अब चाहे हम व्यवसायी हों, चाहें हम शिक्षक हों, चाहे हम नेता हों, और चाहे हम कोई भी हों। हमारे खून में ये सब इकट्ठा मिल गया है। इस इकट्ठे को बदलने के लिए कुछ किया जाना जरूरी है। पहली बात, अमेरिका की उम्र मुश्किल से तीन सौ वर्ष है। रूस की सभ्यता की उम्र तो केवल पचास वर्ष है। क्या आपने कभी ख्याल किया कि दुनिया की सारी पुरानी सभ्यताएं, अमेरिका की नई सभ्यता के सामने एकदम कमजोर और नपुंसक सिद्ध हो गई हैं। क्यों? नया, नये ने पुराने सारे जाल से मुक्त कर दिया। पुराना कुछ था ही नहीं। सब नया है। रूस ने पचास साल पहले अपने पुराने को नमस्कार कर लिया। पुराने सारे कचरे को इंकार कर दिया। फिर नया खून दौड़ा है, पचास सालों में रूस ने नई जिंदगी खड़ी कर ली। अमेरिका कमजोर पड़ रहा है रूस से। क्योंकि रूस और भी नया है। और ध्यान रहे आने वाले दस सालों में रूस, चीन से कमजोर पड़ जाएगा। क्योंकि रूस फिर पुराना पड़ने लगा है। चीन और भी ज्यादा नया है। भारत इतना पुराना है, कि वह दुनिया में किसी भी सभ्यता के मुकाबले आज खड़ा नहीं हो सकता।
पुराना होने से हम सड़ जाते हैं। एक हमें तय करना पड़ेगा कि हमें भी नए होने की हिम्मत जुटानी पड़ेगी। हमें भी एक स्थिति तय करके पुराने को नमस्कार करके आगे बढ़ना होगा। और ध्यान रहे, जीवन में इतनी ऊर्जा छिपी है कि अगर चुनौती खड़ी हो जाए, तो शक्ति पैदा हो जाती है। लेकिन चुनौती खड़ी न हो तो शक्ति पैदा नहीं होती।
जर्मनी में दूसरे महायुद्ध के बाद लोगों को ख्याल था कि अब जर्मनी कभी भी खड़ा नहीं हो सकेगा। लेकिन अब जाके जो मित्र देख कर लौटे हैं, वो कहते हैं कि कोई कह ही नहीं सकता कि दूसरा महायुद्ध कभी हुआ। लोग सोचते थे जापान हमेशा के लिए टूट गया, हजारों साल लग जाएंगे। लेकिन अब कोई जापान जाकर देखता है, वो फिर खड़ा हो गया, वह फिर ताजा हो गया। यह बात क्या है? और हम, इस देश ने महाभारत के बाद कोई बड़ा युद्ध नहीं देखा। महाभारत हुए अंदाजन पांच हजार वर्ष तो हुए होंगे। और महाभारत भी कभी हुआ कि नहीं, यह भी संदिग्ध है। और इतना बड़ा हुआ हो, यह तो बिलकुल संदिग्ध है। क्योंकि वो जिस कुरुक्षेत्र के मैदान में हुआ, वह इतना छोटा है कि उस मैदान में इतने लोग नहीं बन सकते, जितनों की कहानी है।
पांच हजार साल पहले एक महायुद्ध हुआ था। उसके बाद कोई बड़े युद्ध से हम नहीं गुजरे। लेकिन हमसे ज्यादा मरा हुआ कोई समाज नहीं है, बात क्या है? बात यह है कि हम पुराने से पुराने होते चले गए हैं। हमने पुराने मकान को ही जगह-जगह से सीप दे दी है। कभी कोई खिड़की टूटती है तो उसको लकड़ी लगा कर संभाल देते हैं। कभी कोई दीवाल गिरने लगती है तो थोड़ी सी नई ईंटें जोड़के लगा देते हैं। पूरा मकान धीरे-धीरे सब तरफ से सुधारा जा चुका है, सब पुराना है। और पुराने को संभालने के लिए जो लगाया था, वह भी पुराना हो गया। उसको भी संभालने के लिए हमने कुछ लगाया। ऐसा समझिये कि एक आदमी की आंख खराब हो जाए। चश्मा लगा दिया। वह चश्मा भी खराब हो गया, उसको फेंका नहीं, उस चश्मे को सुधारने के लिए उसके ऊपर एक और चश्मा लगाया। वह चश्मा भी खराब हो गया, उसको भी फेंका नहीं, उसके ऊपर और एक चश्मा लगाया। अब उस आदमी के पास इतने चश्में हो गए हैं कि उनको लेके न तो वह चल सकता है, न उठ सकता है, न बैठ सकता है, और इतनी लंबी कतार हो गई है चश्मों से कि कुछ दिखाई भी नहीं पड़ता। लेकिन उन चश्मों को ढो रहा है। भारत का समाज पुराने से पीड़ित, पुराना हमारी छाती पर बैठा हुआ है। उससे हमारा कोई छुटकारा नहीं हो रहा है। एक, उसे पुराने को पूरा का पूरा एक साथ, गिरा देना जरूरी हो गया है। उसे आग लगा देने की जरूरत, उस पूरे को गिरा देने की आवश्यकता है। और उस पुराने ने जो सूत्र हमें दिये हैं, उन सूत्रों को भी गिरा देने की जरूरत है।
जैसे मैंने कुछ सूत्र कहे, वह मैं दोहरा दूं। एक तो धन की निंदा खतरनाक है। जो समाज धन की निंदा करेगा, वह धन का लोलुप हो जाएगा। जो समाज धन का विरोध करेगा, वह बेईमान हो जाएगा। धन सीधा स्वीकृत हो, तो लोलुपता नष्ट होती है। और दूसरी बात, धन के उत्पादक, धन के उत्पादन पर सम्मान दिया जाना चाहिए। जो धन को इकट्ठा करे, वह नहीं है सम्मानी।

2 टिप्‍पणियां:

  1. जो समाज धन की निंदा करेगा, वह धन के संबंध में अनिवार्यरूपेण बेईमान हो जाएगा। धन की निंदा करना खतरनाक है। क्योंकि धन की निंदा का एक ही अर्थ होता है कि अगर हम धन की निंदा करेंगे, तो धन उत्पादन की दिशा में हमारे पैर बढ़ने बंद हो जाएंगे

    जवाब देंहटाएं
  2. जो समाज धन की निंदा करेगा, वह धन के संबंध में अनिवार्यरूपेण बेईमान हो जाएगा। धन की निंदा करना खतरनाक है। क्योंकि धन की निंदा का एक ही अर्थ होता है कि अगर हम धन की निंदा करेंगे, तो धन उत्पादन की दिशा में हमारे पैर बढ़ने बंद हो जाएंगे।
    #Logical

    जवाब देंहटाएं